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सामायिक प्रवचन
जिस कार्य का जो समय हो, उस समय वही कार्य करना चाहिए । यह कहाँ का धर्म है कि घर मे बीमार कराहता रहे और तुम उधर सामायिक मे स्तोत्रो की झडिया लगाते रहो भगवान् महावीर ने तो साधुओ के प्रति भी यहा तक कहा है कि 'यदि कोई समर्थ साधु, वीमार साधु को छोड़ कर अन्य किसी कार्य मे लग जाए, वीमार की उचित सार-सँभाल न करे, तो उसको गुरु चौमासी का प्रायश्चित आता है
" जे भिक्खू गिलाण सोच्चा गच्चा न गवेसइ, न गवेसत वा साइज्जइ ग्रावज्जइ चउम्मासिय परिहारठारण रणग्वाइय । "
- निशीथ १०1३७
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ऊपर के विवेचन से स्पष्ट हो जाता है कि जब साधु के लिए भी यह कठोर अनुशासन है, तो फिर गृहस्थ के लिए तो कहना ही क्या ? उसके ऊपर तो घर गृहस्थी का, परिवार की सेवा का इतना विशाल उत्तरदायित्व है कि वह उससे किसी भी दशा मे मुक्त नही हो सकता । अत काल - शुद्धि के सम्बन्ध मे यह भी ध्यान रखना चाहिए कि बीमार को छोड कर सामायिक करना ठीक नही । हाँ, यदि सामायिक प्रतिदिन करने का का नियम ले रखा हो, तो रोगी के लिए दूसरी व्यवस्था करके अवश्य ही नियम का पालन करना चाहिए ।
(४) भाव -शुद्धि - भाव -शुद्धि से अभिप्राय है -- मन, वचन और शरीर की शुद्धि । मन, वचन और शरीर की शुद्धि का ग्रर्थ है -- इनकी एकाग्रता । जब तक मन, वचन और शरीर की एकाग्रता न हो, चचलता न रुके, तब तक दूसरा बाह्य विधिविधान जीवन मे उत्क्रान्ति नहीं ला सकता । जीवन उन्नत तभी होता है, जव कि साधक मन, वचन, शरीर की एकाग्रता भग करने वाले, ग्रन्तरात्मा मे मलिनता पैदा करने वाले दोषो को त्याग दे । मन, वचन, शरीर की शुद्धि का प्रकार यो है -
(१) मन -शुद्धि - मन की गति बडी विचित्र है । एक प्रकार मे जीवन का सारा भार ही मन के ऊपर पडा हुआ है । ग्राचार्य कहते हैं'मन एव मनुष्याणा कारण बन्धमोक्षयो ।'
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- मैत्रायणी श्रारण्यक ६ । ३४-११
'मन ही मनुष्यो के बन्ध और मोक्ष का कारण है ।'