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नमस्कार-सूत्र
छोडकर सच्चे साधक को भाव मगल ही अपनाना चाहिए | नवकार मत्र भाव मगल है । यह अन्तर्जगत् से - भाव लोक से सम्बन्ध रखता है, अत भाव मगल है | यह भाव मगल सर्वथा और सर्वदा मगल ही रहता है, साधक को सब प्रकार के दुखो से बचाता है, कभी भी मंगल एव हितकर नही होता । भाव मगल जप, तप, ज्ञान, दर्शन, स्तुति, चारित्र, नमस्कार, नियम श्रादि के रूप मे अनेक प्रकार का होता है । ये सब के सब भाव मगल, मोक्ष-रूप सिद्धि के साधक होने से ऐकान्तिक एव आत्यन्तिक मगल हैं । प्राचार्य जिनदास ने इसी दृष्टि से मगल शब्द की व्युत्पत्ति करते हुए लिखा है - ( मग नारकादिषु पवडतं सो लाति मंगलं । लति गेण्ह इति वृत्त भवति - दश० चूर्णि १1१ ) मग अर्थात् नारक आदि दुर्गति, उस से जो रक्षा करे वह मंगल है | नवकार मंत्र जप तथा नमस्कार - रूप भाव मगल है । प्रत्येक शुभ कार्य करने से पहले नवकार मंत्र पढ़कर भाव मगल कर लेना चाहिए। यह सब मगलो का राजा है, अत ससार के अन्य सब मगल इसी के दासानुदास है | सच्चे जैन की नजरो मे दूसरे मगलो का क्या महत्त्व हो सकता है ?
नव पद
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नवकार मंत्र के नमस्कार मंत्र, परमेष्ठी मत्र आदि कितने ही नाम है | परन्तु सबसे प्रसिद्ध नाम नवकार ही है । नवकार मंत्र मे नव अर्थात् नौ पद हैं, अत इसे नवकार मंत्र कहते है, पाँच पद तो मूल पदो के है और चार पद चूलिका के इस प्रकार कुल नौ पद होते है । एक परम्परा, नौ पद दूसरे प्रकार से भी मानती है । वह इस प्रकार कि पाँच पद तो मूल के है और चार पद-नमो नारणस्सः = ज्ञान को नमस्कार हो, नमो दंसरणस्स = दर्शन को नमस्कार हो-नमो चरित्तस्स = चारित्र को नमस्कार हो, नमो तबस्सः - तप को नमस्कार हो — ऊपर की चूलिका के है । इस परम्परा मे अरिहन्त आदि पाँच पद साधक तथा सिद्ध की भूमिका के है और अन्तिम चार पद साधना के सूचक है । ज्ञान आदि की साधना के द्वारा ही साधु श्रादि साधक, अध्यात्म-क्षेत्र मे प्रगति करते हुए प्रथम अरिहन्त बनते हैं और पश्चात् अजर, अमर सिद्ध हो जाते है । इस परम्परा मे ज्ञान आदि चार गुरणो को नमस्कार
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