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मनुष्यत्व का विकास
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सर्व और देश चारित्र
जैनदर्शन की परिभाषा मे आचरण को 'चारित्र' कहते है। चारित्र का अर्थ है-सयम, वासनाप्रो का-भोगविलासो का त्याग, इन्द्रियो का निग्रह, अशुभ से निवृत्ति, और शुभ मे-शुद्ध मे प्रवृत्ति ।
चारित्र के मुख्यतया दो भेद माने गए है-'सर्व' और 'देश' । अर्थात् पूर्ण रूप से त्याग-वृत्ति सर्व-चारित्र है और अल्पाश मे अर्थात् अपूर्ण-रूप से त्याग-वृत्ति, देश-चारित्र है। सर्वांश मे त्याग महाव्रत-रूप होता है-अर्थात् हिंसा, असत्य, चौर्य, मैथुन और परिग्रह का सर्वथा प्रत्याख्यान साधुओं के लिए होता है। और, अल्पाश मे अमुक सीमा तक हिंसा आदि का त्याग गृहस्थ के लिए माना गया है।
प्रस्तुत प्रसग मे मुनि-धर्म का वर्णन करना हमे अभीष्ट नही है। अत सर्व-चारित्र का वर्णन न करके देश-चारित्र का यानी गृहस्थ-धर्म का ही हम वर्णन करेंगे। भूमिका की दृष्टि से भी गृहस्थ-धर्म का वर्णन प्रथम अपेक्षित है। गृहस्थ, जैनतत्वज्ञान मे वरिणत गुणस्थानो के अनुसार आत्मविकास की पचम भूमिका पर है, और मुनि छठी भूमिका पर।
विकास की प्रथम श्रेणी : श्रावकधर्म
जैनागमो मे गृहस्थ अर्थात् श्रावक के बारह व्रतो का वर्णन किया गया है। उनमे पाँच अरणवत होते है। 'अण' का अर्थ 'छोटा' होता है, और व्रत का अर्थ 'प्रतिज्ञा' है। साधुओं के महाव्रतो की अपेक्षा गृहस्थो के हिंसा आदि के त्याग की प्रतिज्ञा मर्यादित होती है, अत वह 'अरण व्रत' है। तीन गुण-व्रत होते है। गुण का अर्थ हैविशेषता । अस्तु, जो नियम पाँच अरण-व्रतो मे विशेषता उत्पन्न करते है, अरण-व्रतो के पालन मे उपकारक एव सहायक होते हैं, वे 'गुणव्रत' कहलाते हैं। चार शिक्षा व्रत है। शिक्षा का अर्थ शिक्षण अर्थात् अभ्यास है। जिनके द्वारा धर्म की शिक्षा ली जाय, धर्म का अभ्यास किया जाय, वे प्रतिदिन अभ्यास करने के योग्य नियम 'शिक्षा-व्रत' कहे जाते है।