________________
सामायिक की शुद्रि
लग जाती है। धर्म तो उपकरण की शुद्धता मे है, उसका ठीक ढग से उपयोग करने मे है, उसे गदा एव बीभत्स रखने मे नही । कुछ बहने मुखवस्त्रिका को गहना ही बना कर रख देती है, गोटा लगाती हैं, सलमे से सजाती है, मोती जडती है, परन्तु ऐसा करना सामायिक के शान्त एव ममताशून्य वातावरण को कलुषित करना है। अत मुखवस्त्रिका का सादा और स्वच्छ होना आवश्यक है।
वस्त्रो का शुद्ध होना भी आवश्यक है। इस शुद्धता का अर्थ इतना ही है कि वस्त्र गदे न हो, दूसरो को घृणा उत्पन्न करने वाले न हो, चटकीले-भडकीले न हो, रग विरगे न हो, किन्तु स्वच्छ हो, साफ हो, सादे हो।
माला भी कीमती न होकर सूत की या और कोई साधारण श्रेणी की हो, बहुमूल्य मोती आदि की माला ममता बढाने वाली होती है। कभी-कभी ऐसी माला अहकार आदि की अनुचित भावना को भी भडका देती है। सूत आदि की माला भी स्वच्छ हो, गदी न हो।
पुस्तके भी ऐसी हो, जो भाव और भापा की दृष्टि से महत्वपूर्ण हो, आत्मज्योति को जागृत करने वाली हो, हृदय में से काम, क्रोध, मद, लोभ ग्रादि की वासना क्षीण करने वाली हो, जिनसे किसी प्रकार का विकार एव साम्प्रदायिक विद्वप अादि न पैदा होता हो।
सामायिक मे आभूषण आदि धारण करना भी ठीक नही है। जो गहने निकाले जा सकते हो, उन्हे अलग करके ही सामायिक करना ठीक है । अन्यथा ममता का पाश सदा लगा ही रहेगा, हृदय शान्त नही हो सकेगा। वस्त्र भी धोती और चादर आदि के अतिरिक्त और न होने चाहिए। सामायिक त्याग का क्षेत्र है। अत उसमे त्याग का ही प्रतीक होना अत्यावश्यक है।
सामायिक-कालीन वेश-भूषा
यद्यपि सामायिक मे 'सावज्ज जोग पच्चक्खामि'--'सावद्य यानी पाप-व्यापारो का परित्याग करता हूँ', उक्त प्रतिज्ञावाक्य मे