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आलोचना- सूत्र
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और जो इन्द्र - आत्मा का चिह्न हो, ज्ञापक हो, बोधक हो, अथवा आत्मा जिसका सेवन करता हो, वह इन्द्रिय कहलाता है । इस व्युत्पत्ति के लिए देखिये -- पाणिनीय श्रष्टाध्यायी का पाचवा अध्याय, दूसरा पाद और ह३वा सूत्र । उक्त निर्वचन के अनुसार श्रोत्र आदि पाचो ही इन्द्रियपद - वाच्य है । ससारी आत्माओ को जो सीमित बोध है, वह सब इन इन्द्रियो के द्वारा ही तो है ।
कुछ भी
पाठ - विधि
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ऐर्यापथिक-सूत्र के पढने की विधि भी बडी सुन्दर एव सरस है । ' तिक्खुत्तों' के पाठ से तीन वार गुरुचरणो मे वन्दना करने के पश्चात् गुरुदेव के समक्ष नत मस्तक खड़ा होना चाहिए। खडे होने की विधि यह है कि दोनो पैरो के बीच मे ग्रागे की ओर चार अगुल तथा पोछे की ओर ऐडी के पास तीन ग्रगुल से कुछ अधिक अन्तर रखना चाहिए। यह जिन मुद्रा का अभिनय है । तदनन्तर, दोनो घुटने भूमि पर टेक कर, दोनो हाथो को कमल के मुकुल की तरह जोड कर, मुख के आगे रख कर, दोनो हाथो की कोहनियाँ पेट के ऊपर रख कर, योग- मुद्रा का अभिनय करना चाहिए | पश्चात् मधुर स्वर से 'इच्छाकारेण सदिसह' से 'पडिक्कमामि' तक का पाठ पढना चाहिए। यह आलोचना के लिए प्रज्ञा-प्राप्ति का सूत्र है । गुरुदेव की ओर से श्राज्ञा मिल जाने पर 'इच्छ' कहना चाहिये । यह आज्ञा का सूचक है । इसके ग्रनन्तर, गुरु के समक्ष ही उकडू श्रासन से बैठ कर या खडे हो कर 'इच्छामि पडिक्कमिउ' से लेकर 'मिच्छामि दुक्कड' तक का पूर्ण पाठ पढना चाहिए। गुरुदेव न हो, तो भगावन् का ध्यान करके उनकी साक्षी से ही पूर्व या उत्तर की ओर मुख करके खड़े हो कर यह पाठ पढ लेना चाहिए ।
सात सम्पदा
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प्राचीन टीकाकारो ने प्रस्तुत सूत्र मे सात सपदाओ की योजना की है । सम्पदा का अर्थ विराम एव विश्रान्ति होता है ।
प्रथम अभ्युपगम सम्पदा है, जिसका अर्थ गुरुदेव से आज्ञा लेना है।