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श्रणिपात -सूत्र
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और चारित्र हो जैन-धर्म है । अतः उपर्युक्त भगवद्-वारणी का सार यह निकला कि भगवान् की स्तुति करने वाला साधक सम्पूर्ण जैनत्त्व का अधिकारी हो जाता है और अन्त में अपनी साधना का परम फल मोक्ष भी प्राप्त कर लेता है । सूत्रकार ने हमारे समक्ष अक्षय-निधि खोल कर रख दी है। आइए, हम इस निधि का भक्ति-भाव के साथ उपयोग करें और अनादिकाल की आध्यात्मिक दरिद्रता का समूल उन्मूलन कर अक्षय एव अनन्त आत्म-वैभव को प्राप्त करे ।