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सामायिक-सूत्र
(२) सामायिक व्रत सम्यग्रूप से स्पर्श न किया हो, पालन न किया हो, पूर्ण न किया हो, कीर्तन न किया हो, शुद्ध न किया हो, अाराधन न किया हो एव वीतराग की आज्ञा के अनुसार पालन न हुआ हो, तो तत्सम्बन्धी समग्र पाप मिथ्या-निष्फल हो ।
विवेचन साधक, आखिर साधक ही है, चारो ओर अज्ञान और मोह का वातावरण है, अत वह अधिक-से-अधिक सावधानी रखता हुअा भी कभी-कभी भूले कर बैठता है। जव घर-गृहस्थी के अत्यन्त स्थूल कामो मे भी भूले हो जाना साधारण है; तब सूक्ष्म धर्म-क्रियाओं मे भूल होने के सम्बन्ध मे तो कहना ही क्या है ? वहाँ तो रागद्वेष की जरा-सी भी परिणति, विषय-वासना की जरा सी भी स्मृति, धर्म-क्रिया के प्रति जरा-सी भी अव्यवस्थिति, आत्मा को मलिन कर डालती है। यदि शीघ्र ही उसे ठीक न किया जाए, साफ न किया जाए, तो आगे चल कर वह अतीव भयकर रूप मे साधना का सर्वनाश कर देती है।
चार प्रकार के दोष
सामायिक बडी ही महत्त्व-पूर्ण धार्मिक क्रिया है। यदि यह ठीक रूप से जीवन में उतर जाए, तो ससार-सागर से बेडा पार है । परन्तु, अनादिकाल से प्रात्मा पर जो वासनाओ के सस्कार पड़े हुए है, वे धर्म-साधना को लक्ष्य की अोर ठीक प्रगति नही करने देते। साधक का अन्तर्मुहूर्त जितना छोटा-सा काल भी शान्ति से नही गुजरता है। इसमे भी ससार की उधेड-वून चल पडती है | अत. साधक का कर्तव्य है कि वह सामायिक के काल मे पापो से बचने की पूरी-पूरी सावधानी रक्खे, कोई भी दोष जानते या अजानते जीवन मे न उतरने दे। फिर भी, कुछ दोष लग ही जाते हैं। उनके लिए यह है कि सामायिक समाप्त करते समय शुद्ध हृदय से आलोचना कर ले । आलोचना अर्थात अपनी भूल को स्वीकार करना, अन्तर्ह दय से पश्चात्ताप करना, दोष-शुद्धि के लिए अचूक महौषध है।