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सामायिक-सूत्र
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प्रत्येक व्रत चार प्रकार से दूषित होता है - प्रतिक्रम से, व्यतिक्रम से, प्रतिचार से और अनाचार से । मन की निर्मलता का नष्ट होना, मन मे प्रकृत्य कार्य करने का सकल्प करना, प्रतिक्रम है | योग्य कार्य करने के सकल्प को कार्य रूप में परिणत करने और व्रत का उल्लघन करने के लिए तैयार हो जाना, व्यतिक्रम है । व्यतिक्रम से आगे बढ कर त्रिषयो की ओर आकृष्ट होना, व्रत-भग करने के लिए सामग्री जुटा लेना, अतिचार है । और अन्त मे आसक्ति वश व्रत का भग कर देना, कहलाता है
अनाचार
"मन की विमलता नष्ट होने को अतिक्रम है कहा, और शीलचर्या के विलघन को व्यतिक्रम है कहा । हे नाथ ! विषयो में लिपटने को कहा अतिचार है, आसक्त अतिशय विषय में रहना महाऽनाचार है || "
प्रतिचार और अनाचार मे भेद
यहाँ पर हमे अतिचार और अनाचार का भेद भी समझ लेना चाहिए, अन्यथा, विपर्यय हो जाने की संभावना बनी रहती है । अतिचार का अर्थ है - ' व्रत का प्रशत भग' और अनाचार का अर्थ है- 'सर्वत भग' । अतिचार तक के दोष व्रत मे मलिनता लाते है, व्रत को नष्ट नही करते, अत इन की शुद्धि आलोचना एव प्रतिक्रमण आदि से हो जाती है । परन्तु, अनाचार मे तो व्रत का मूलत भग ही हो जाता है, अत व्रत नये सिरे से लेना पडता है । साधक का कर्तव्य है कि वह प्रथम तो 'अतिक्रम' आदि सभी दोषो से वचता रहे । सभव है, फिर भी भ्रान्ति वश कोई भूल शेष रह जाए. तो उसकी आलोचना कर ले । परन्तु, अनाचार की ओर तो बिल्कुल ही अग्रसर न होना चाहिए । इसके लिए विशेष जागरूकता की आवश्यकता है । जीवन मे जितना अधिक जागरण है, उतना ही अधिक सयम है ।
सामायिक व्रत मे भी 'श्रतिक्रम' आदि दोष लग जाते है । प्रत साधक को उनकी शुद्धि का विशेष लक्ष्य रखना चाहिए । यही कारण है कि सामायिक की समाप्ति के लिए सूत्रकार ने जो प्रस्तुत