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आलोचना सूत्र
१९१ जैन-धर्म मे निषिद्ध है। परन्तु यदि कहीआवश्यक कार्य से जाना हो, और वहाँ बीच मे जीव हो, उनको और किसी तरह बचाना अशक्य हो, तब उनकी प्राण-रक्षा के लिए, वडी हिसा से बचने के लिए पूजने के रूप मे थोडा-सा कष्ट पहुचाना पडता है । और, यह कष्ट या हिंसा, हिंसा नही, एक प्रकार से अहिंसा ही है । दया की भावना से की जाने वाली सूक्ष्म हिंसा की प्रवृत्ति भी निर्जरा का कारण है । क्योकि, हमारा विचार दया का है, हिंसा का नही । अतएव शास्त्रकारो ने प्रमार्जन-क्रिया मे सवर और निर्जरा का उल्लेख किया है, जब कि प्रमार्जन मे सूक्ष्म हिंसा अवश्य होती है । अत आप देख सकते है कि हिंसा होते हुए भी निर्जरा हुई या नही ?
हिंसा ही सब पापो का मूल
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आलोचना के रूप मे श्रेष्ठ धर्माचरण की शुद्धि के लिए केवल हिंसा की ही आलोचना का उल्लेख क्यो किया गया है ? समग्र पाठ मे केवल हिंसा की ही आलोचना है, असत्य आदि दोपो की क्यो नही ? हृदय-शुद्धि के लिए तो सभी पापो की आलोचना आवश्यक है न ? उक्त प्रश्नो का समाधान यह है कि ससार मे जितने भी पाप हैं, उन सब मे हिंसा ही मुख्य है। अत 'सर्वे पदा हस्तिपदे निमग्ना'-इस न्याय के अनुसार असत्य आदि सब दोष हिंसा मे ही अन्तर्भूत हो जाते हैं । अर्थात् हिंसा के पाप मे शेष सभी असत्य, चोरी, अब्रह्म, परिग्रह, क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, क्लेश आदि पापो का समावेश हो जाता है। ___ अन्य सब पापो का हिंसा मे किस प्रकार समावेश होता है, इसके लिए जरा विचार-क्षेत्र मे उतरिए । हिंसा के दो भेद हैस्व-हिंसा और पर-हिंसा । स्व-हिंसा यानी अपनी, अपने आत्म-गुणो की हिंसा । और पर-हिंसा यानी दूसरे की, दूसरे के गुणो की हिंसा । किसी जीव को पीडा पहुँचाने से प्रत्यक्ष मे उस जीव की हिंसा होती है । और पीडा पाते समय उस जीव को राग, द्वेष आदि की परिणति होने से उसके आत्म-गुणो की भी हिंसा होती है। और, इधर हिसा करने वाला क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वष आदि किसी न किसी प्रमाद के वशवर्ती होकर ही हिंसा करता है । अत वह आध्यात्मिक दृष्टि से नैतिक पतन के रूप में अपनी भी हिसा करता है। और अपने