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________________ १९२ सामायिक-मूत्र सत्य, शील, नम्रता आदि यात्म-गुणो की भी हिंसा करता है । अतः स्पष्ट है कि स्व-हिंसा के क्षेत्र मे सभी पापो का समावेश हो जाता है। प्रस्तुत पाठ का नाम ऐर्यापथिकी-सूत्र है। प्राचार्य हेमचन्द्र ने इसका अर्थ किया है___'ईरण-ईर्या-गमनमित्यर्थ, तत्प्रधानः पन्था ईर्यापथस्ता भवा ऐर्यापथिको' -योगशास्त्र (३/१२८) स्वोपनवृत्ति ईर्या का अर्थ गमन है, गमन-युक्त जो पथ-मार्ग वह ईर्या--पथ कहलाता है। ईर्या पथ मे होने वाली क्रिया-विराधना ऐगपथिकी है । मार्ग मे इधर उधर जाते-पाते जो हिंसा, असत्य आदि क्रियाएँ हो जाती है, उन्हे ऐर्यापथिकी कहा जाता है । आवार्य हेमचन्द्र एक और भी अर्थ करते हैं 'ईर्यापय: साध्वाचार -योगशास्त्र, (३/१२४) स्वोपन-वृत्ति प्राचार्य श्री का अभिप्राय है कि ईर्यापथ साधुश्राचार-श्रेष्ठ श्राचार को कहते है और उसमे जो पाप-कालिमा लगी हो, उसको ऐर्यापथिकी कहा जाता है। उक्त कालिमा की शुद्धि के लिए ही प्रस्तुत पाठ है। 'मिच्छामि दुक्कडं' का हार्द प्रश्न है, केवल 'मिच्छा मि दुक्कड' कहने से पापो की शुद्धि किस प्रकार हो जाती है ? क्या यह जैनो की तोवा है, जो वोलते ही गुनाह माफ हो जाते है ? वात, जरा विचारने की है । केवल 'मिच्छा मि दुक्कड' का शव्द पाप दूर नहीं करता । पाप दूर करता है-'मिच्छा मि दुक्कड' शब्दो से व्यक्त होने वाला साधक के हृदय मे रहा हुआ पश्चात्ताप | पश्चात्ताप की शक्ति बहुत बड़ी है । यदि निष्प्राण रूढि के फेर मे न पडकर, शुद्ध हृदय के द्वारा अन्दर की गहरी लगन से पापो के प्रति विरक्ति प्रकट की जाए, पश्चात्ताप किया जाए, तो अवश्य ही पापकालिमा धुल जाती है। पश्चात्ताप का विमल वेगशाली भरना, अन्तरात्मा पर जमे हुए दोप-रूप कूडे-करकट को वहा करदूर फेक देता है, यात्मा को शुद्ध-पवित्र वना देता है।
SR No.010073
Book TitleSamayik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1969
Total Pages343
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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