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आलोचना-सूत्र
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श्री भद्रबाहु स्वामी ने आवश्यक सूत्र पर एक विशाल नियुक्ति ग्रन्थ लिखा है । उसमे 'मिच्छा मि दुक्कड' के प्रत्येक अक्षर का निर्वचन उपर्युक्त विचारो को लेकर बडे ही भाव-भरे ढग से किया है। वे लिखते है'मि' ति मिउ-मद्दवत्त,
'छ' त्ति अ दोसाण छादणे होइ । 'मि' ति अ मेराइ ठिो,
'दु' ति दुगंछामि अप्पारण ।। १५०० ।। 'क' ति कड मे पाव,
___'ड' ति य डेवेमि त उवसमेण । एसो मिच्छा दुक्क डपयक्खरत्यो समासेण ॥१५.१ ॥
-आवश्यक-नियुक्ति गाथाम्रो का भावार्थ 'नामकदेशे नाम ग्रहणम्'-न्याय के अनुसार इस प्रकार है-'मि' मदुता-कोमलता तथा अहकाररहितता के लिए है। 'छ' दोषो को त्यागने के लिए है। 'मि' सयम-मर्यादा मे दृढ रहने के लिए है । 'दु' पाप कर्म करने वाली अपनी आत्मा की निन्दा के लिए है। 'क' कृत पापो की स्वीकृति के लिए है। और 'ड' उन पापो को उपशमाने के लिए नष्ट करने के लिए है।
प्रस्तुत सूत्र मे कुल कितने प्रकार की हिंसा है और उसकी शुद्धि के लिए 'तस्स मिच्छा मि दुक्कड' मे 'कितने मिच्छामि दुक्कड' की भावनाएँ छपी हुई है ? हमारे प्राचीन आचार्यों ने इस प्रश्न पर भी अपना स्पष्ट निर्णय दिया है । ससार मे जितने भी ससारी प्राणी हैं, वे सब के सब ५६३ प्रकार के हैं, न अधिक और न कम । उक्त पाँच सौ तिरेसठ भेदो मे पृथ्वी, जल आदि पाच स्थावर और मनुष्य, तिर्य च, नारक तथा देव आदि त्रस, सभी जीवो का समावेश हो जाता है । अस्तु उपर्युक्त ५६३ भेदो को 'अभिया' से 'जीवियाओ ववरोविया' तक के दश पदो से, जो कि जीवो की हिंसा-विषयक है, गुणन करने से ५६ ३० भेद होते है । यह दश-विध विराधना अर्थात् हिंसा राग और द्वष के कारण होती है, अतः इन सब भेदो को दो से गुणन करने पर ११२ ६० भेद हो जाते हैं। यह विराधना मन, वचन, और काय से होती है, अत तीन से गुणन करने पर ३३७ ८० भेद बन जाते हैं।