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नमस्कार-सूत्र
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ही बच रहता है । गणित की यह साधारण-सी प्रक्रिया, नौ अक की अक्षय-स्वरूपता का सुन्दर परिचय दे देती है। नौ के अक की अक्षयता के और भी बहुत से उदाहरण है। विशेष जिज्ञासु, लेखक का 'महामत्र नवकार' अवलोकन करे। नवकार के नौ पदो से ध्वनित होने वाली अक्षय अक की ध्वनि सूचित करती है कि जिस प्रकार नौ का प्रक अक्षय है, अखडित है, उसी प्रकार नव-पदात्मक नवकार की साधना करने वाला साधक भी अक्षय, अजर अमर पद प्राप्त कर लेता है। नवकार मत्र का साधक कभी क्षीण, हीन और दीन नही हो सकता। वह बराबर अभ्युदय और निश्रेयस् का प्रगतिशील यात्री रहता है ।
नव आध्यात्मिक विकास का प्रतीक
नव-पदात्मक नवकार मंत्र से आध्यात्मिक विकास-क्रम की भी सूचना होती है । नौ के पहाडे की गणना मे ६ का अक मूल है। तदनन्तर क्रमश १८, २७, ३६, ४५,५४,६३, ७२, ८१ और ६० के अक हैं । इस पर से यह भाव ध्वनित होता है कि आत्मा के पूर्ण विशुद्धसिद्धत्त्व-रूप का प्रतीक ६ का अङ्क है, जो कभी खण्डित नही होता।
आगे के अङ्खो मे दो-दो अङ्क हैं। उनमे पहला अङ्क, शुद्धि का प्रतीक है, और दूसरा अशुद्धि का । समस्त ससार के अबोध प्राणी १८ अङ्क की दशा मे हैं उनमे विशुद्धि का एक के रूप मे छोटा-सा अश है, और काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि की अशुद्धि का अश पाठ के रूप मे अधिक है। यहां से साधना का जीवन शुरू होता है । सम्यक्त्व आदि की थोडी-सी साधना के पश्चात् आत्मा को २७ के अक का स्वरूप मिल जाता है। भाव यह है कि इधर शुद्धि के क्षेत्र मे एक अश और बढ़ जाता है, और उधर अशुद्धि के क्षेत्र मे एक अश कम होकर मात्र ७ अश ही रह जाते हैं। आगे चल कर ज्यो-ज्यो साधना लम्बी होती जाती है त्यो-त्यो शुद्धि के अश बढते जाते है, और अशुद्धि के अश कम होते जाते हैं । अन्त मे जब कि साधना पूर्ण रूप मे पहुचती है, तो शुद्धि का क्षेत्र पूर्ण हो जाता है और उधर अशुद्धि के लिए मात्र शून्य रह जाता है। सक्षेप मे, ६० का अक हमारे सामने यह आदर्श रखता है कि साधना के पूर्ण हो जाने पर साधक की आत्मा पूर्ण विशुद्ध हो जाती है, उसमे अशुद्धि का एक भी अश नही रहता । अशुद्धि के सर्वथा अभाव का