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सामायिक पाठ
[प्राचार्य अमितगति ] सत्त्वेषु मैत्री गुणिषु प्रमोद,
क्लिष्टेषु जीवेषु कृपापरत्वम् । माध्यस्थ्य-भावं विपरीतवृत्तौ
सदा ममात्मा विदधातु देव ॥१॥ -हे जिनेन्द्र देव । मैं यह चाहता हूँ कि यह मेरी आत्मा सदैव प्राणिमात्र के प्रति मित्रता का भाव, गुणी-जनो के प्रति प्रमोद का भाव, दुखित जीवो के प्रति करुणा का भाव, और धर्म से विपरीत पाचरण करने वाले अधर्मी तथा विरोधी जीवो के प्रति राग-द्वेषरहित उदासीनता का भाव धारण करे। शरीरतः कर्तु मनन्त-शक्ति,
विभिन्नमात्मानमपास्तदोषम् । जिनेन्द्र | कोषादिव खगयष्टि,
तव प्रसादेन ममास्तु शक्ति : ॥२॥ -हे जिनेन्द्र आपकी स्वभाव-सिद्ध कृपा से मेरी आत्मा मे ऐसा आध्यात्मिक बल प्रकट हो कि मैं अपनी प्रात्मा को कार्मरण शरीर आदि से उसी प्रकार अलग कर सकूँ, जिस प्रकार म्यान से-तलवार अलग की जाती है। क्योकि, वस्तुत मेरी आत्मा अनन्त शक्ति से