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सामायिक मे दुनि विवर्जन
है। जो लोग सदाचारी होते हैं, वे तो बिना किसी को कष्ट पहुँचाए अपनी बुद्धि से अपनी समस्याएं सुलझा लेते है, किंतु दुर्जन लोग परिग्रह के लिए इतने क्रूर हो जाते है कि वे भले-बुरे का कुछ विचार नही करते, दिन-रात अपनी स्वार्थ-साधना मे लीन रहते है। धन की लालसा मे हमेशा रौद्र-रूप धारण किए रहना, अपने स्वार्थ की सिद्धि के लिए क्रूर-मे-क्रू र उपाय सोचते रहना, परिग्रहानन्द रौद्र ध्यान है।
यह आर्त और रौद्र ध्यान का सक्षिप्त परिचय है । आर्त ध्यान के लक्षण-शका, भय, शोक, प्रमाद, कलह, चित्त-भ्रम, मन की चचलता, विषय-भोग की इच्छा, उद्भ्रान्ति आदि हैं । अत्यधिक प्रार्त ध्यान के कारण मनुष्य जड, मूढ एव मूच्छित भी हो जाता है । आर्तध्यान का फल पुनर्जन्म मे अनन्त दुखो से आकुल-व्याकुल पशु-गति प्राप्त करना है। उधर रौद्र ध्यान भी कुछ कम भयकर नही है । रौद्र ध्यान के कारण मनुष्य को क रता, दुष्टता, वचकता, निर्दयता आदि दुर्गुण चारो ओर से घेर लेते है और वह सदैव लाल आँखे किए, भौह चढाए, भयानक आकृति बनाए राक्षस-जैसा रूप धारण कर लेता है । अत्यधिक रौद्र ध्यान का फल नरक गति होता है।
सामायिक का प्रारण समभाव है, समता है । अत साधक का कर्तव्य है कि वह अपनी साधना को आर्त और रौद्र ध्यानो से बचाने का प्रयत्न करे। कोई भी विचारशील देख सकता है कि उपर्युक्त आर्त और रौद्र विचारो के रहते हुए सामायिक की विशुद्धि कहाँ तक रह सकती है ? * * *