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मनुष्यत्व का विकास
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(५) स्थूल परिग्रह विरमरण ( इच्छापरिमाण ) - गृहस्थ से धन का पूर्ण त्याग नही हो सकता । अत गृहस्थ को चाहिए कि वह धन, धान्य, सोना, चादी, घर, खेत, पशु आदि जितने भी पदार्थ है, अपनी आवश्यकतानुसार उनकी एक निश्चित मर्यादा कर ले । आवश्यकता से अधिक सग्रह करना पाप है । व्यापार आदि मे यदि निश्चित मर्यादा से कुछ अधिक धन प्राप्त हो जाए तो उसको जनसेवा एव परोपकार मे खर्च कर देना चाहिए ।
तीन गुण व्रत
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(१) दिग्वत - पूर्व, पश्चिम ग्रादि दिशाओ मे दूर तक जाने का परिमाण करना ग्रर्थात् प्रमुक दिशा मे अमुक प्रदेश तक इतनी दूर तक जाना, ग्रागे नही । यह व्रत मनुष्य की लोभ-वृत्ति पर अकुश रखता है, हिंसा आदि से बचाता है । मनुष्य व्यापार आदि के लिए दूर देशो मे जाता है, तो वहाँ की प्रजा का शोषण करता है । जिस किसी भी उपाय से धन कमाना ही जब मुख्य हो जाता है, तो एक प्रकार से लूटने की मनोवृत्ति पैदा हो जाती है । अतएव जैन धर्म का सूक्ष्म प्रचार-शास्त्र इस प्रकार की मनोवृत्ति मे भी पाप देखता है । वस्तुत पाप है भी । शोषरण से बढकर और क्या पाप होगा ? आज के युग मे यह पाप बहुत बढ़ चला है । दिग्वत ही इस पाप से बचा सकता है । एकमात्र शोषण की भावना से न विदेशो मे अपना माल भेजना चाहिए, और न विदेश का माल अपने देश मे लाना चाहिए ।
(२) भोगोपभोग परिमारण व्रत - जरूरत से ज्यादा भोगोपभोग सम्वन्धी चीजे काम मे न लाने का नियम करना ही प्रस्तुत व्रत का अभिप्राय है । भोग का अर्थ एक ही बार काम मे आने वाली वस्तु से है । जैसे - अन्न, जल, विलेपन श्रादि । उपभोग का अर्थ बार-वार काम मे आने वाली वस्तु से है । जैसे मकान, वस्त्र, आदि । इस प्रकार अन्न, वस्त्र आदि भोग-विलास की वस्तुओ का ग्रावश्यकता अनुसार परिमाण करना चाहिए । साधक के लिए जीवन को भोग के क्षेत्र मे सिमटा हुआ रखना अतीव आवश्यक है । अनियत्रित जीवन पशु-जीवन होता है ।
ग्राभूषरण
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(३) अनर्थदण्ड - विरमरण व्रत - विना किसी प्रयोजन के व्यर्थ ही पापाचरण करना, अनर्थं दण्ड है | श्रावक के लिए इस प्रकार ग्रशिष्ट