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श्चतुर्विंशतिस्तव सूत्र
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करना, भाव-पूजा है । इस सम्बन्ध मे श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनो विद्वान् एकमत हैं ।
भगवत्पूजा के लिए पुष्षो की भी प्रावश्यकता होती है । प्रभु के समक्ष उपस्थित होने वाला भक्त पुष्प-हीन कैसे रह सकता है ? आइए, जैन - जगत के प्रसिद्ध दार्शनिक आचार्य हरिभद्र हमे कौन से पुष्प बतलाते है ? उन्होने बडे ही प्रेम से प्रभु-पूजा के योग्य पुष्प चुन रक्खे है—
अहिंसा सत्यमस्तेय, ब्रह्मचर्यमसगता । गुरुभक्तिरतपो ज्ञान, सत्पुष्पाणि प्रचक्षते ॥ —अष्टक प्रकरण ३/६
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देखा, आपने कितने सुन्दर पुष्प है | अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अनासक्ति, भक्ति, तप और ज्ञान - प्रत्येक पुष्प जीवन को महका देने वाला है । भगवान् के पुजारी बनने वालो को इन्ही हृदय के भाव - पुष्पोद्वारा पूजा करनी होगी । अन्यथा स्थूल क्रियाकाड से कुछ भी होना जाना नही है । प्रभु की सच्ची पूजा–उपासना तो यही है कि हम सत्य बोले, अपने वचन का पालन करे, कठोर भाषण न करे किसी को पीडा न पहुंचाएं, ब्रह्मचर्य का पालन करे, वासनाओ को जीते, पवित्र विचार रखे, सव जीवो के प्रति समभावना एव आदर की आदत पैदा करे, लोकैषरणा एव वित्तं परणा से अलग रहे । जव इन भाव पुष्पो की सुगन्ध आपके हृदय केअर-अ मे समा जाए, उस समय ही समझना चाहिए कि
१ (क) दिगम्बर विद्वान श्राचार्य अमित गति कहते हैवचो - विग्रह-सकोचो, द्रव्य - पूजा निगद्यते । तत्र मानस - सकोचो, भावपूजा पुरातने ॥ - अमितगति श्रावकाचार
(ख) श्वेताम्बर विद्वान् आचार्य नमि कहते है
नम इति पूजार्थम् । पूजा च द्रव्य-भाव-सकोचस्तत्र करशिर पादादिसन्यासो द्रव्य-सकोच, विशुद्धस्य मनसो नियोग ॥
भाव-सकोचस्तु
- प्रतिक्रमणसूत्रपदविवृति, प्रणिपातदण्डक