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और श्रावक की सामायिक
करवाएगा। परन्तु, घर या दुकान आदि पर होने वाले पापा-भ के प्रति गृहस्थ का आन्तरिक ममतारूप अनुमोदन चालू रहता अत अनुमोदन का त्याग नही किया जा सकता । साधु पूर्ण मी है, वह अपने जीवन मे कोई भी पाप व्यापार नही रखता,
वह अनुमोदन का भी त्याग करता है । गृहस्थ पापारम्भ से दा के लिए अलग होकर गृह-जीवन की नौका नही खे सकता । इ सामायिक से पहले भी प्रारम्भ करता रहता है और सामायिक वाद भी उसे करना है, अत वह दो घडी के लिए ही सामायिक हरण कर सकता है, यावज्जीवन के लिए नही । श्रावश्यक नियुक्ति अपनी टीका में आचार्य हरिभद्र ने विशेष स्पष्टीकरण किया है, त विशेष जिज्ञासु उसे पढने का कष्ट करे ।
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साधु की अपेक्षा गृहस्थ की सामायिक मे काफी अन्तर है, कर भी इतना नही है कि वह सर्वथा ही कोई अलग-थलग मार्ग । दो घडी के लिए सामायिक मे गृहस्थ यदि पूर्ण साधु नही तो, घु जैसा अवश्य ही हो जाता है । उच्च जीवन के अभ्यास के लए, गृहस्थ प्रतिदिन सामायिक ग्रहण करता है और उतनी र के लिए वह ससार के धरातल से ऊपर उठ कर उच्च प्राध्यामक भूमिका पर पहुँच जाता है । प्रत आवश्यक नियुक्ति को द्धृत करते हुए प्राचार्य जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण ने ठीक ही कहा है
सामाइयम्मि उकए, समरणो इव
एएण
कारणेण, बहुसो
सावग्रो हवइ जम्हा । कुज्जा ॥
सामाइय
— विशेषावश्यक भाष्य, २६६०
– सामायिक करने पर श्रावक साधु जैसा हो जाता है, बासना से जीवन को बहुत-कुछ अलग कर लेता है, अतएव श्रावक का कर्तव्य है कि वह प्रतिदिन सामायिक ग्रहरण करे, समता-भाव का नाचरण करे ।