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सामायिक-प्रवचन
की वाणी उनके समक्ष ही मृत हो जाती है ? हाँ, तो इसमे सन्देह नहीं कि महापुरुषो के वचनो मे कुछ विलक्षण प्रामाण्य, पवित्रता एव प्रभाव रहता है, जिसके कारण हजारो वर्षों तक लोग उसे बडी श्रद्धा और भक्ति से मानते रहते है, प्रत्येक अक्षर को बड़े अादर और प्रेम की दृष्टि से देखते है । महापुरुषो के अन्दर जो दिव्य दृष्टि होती है, वह साधारण लोगो मे नही होती । और यह दिव्य दृष्टि ही प्राचीन पाठो मे गम्भीर अर्थ और विशाल पवित्रता की झांकी दिखलाती है।
अनुवाद, केवल छायाचित्र
महापुरुपो के वाक्य बहुत नपे-तुले होते है । वे ऊपर से देखने मे अल्पकाय मालूम होते है, परन्तु उनके भावो की गम्भीरता अपरम्पार होती है । प्राकृत और सस्कृत भाषायो मे सूक्ष्म-से-सूक्ष्म अान्तरिक भावो को प्रकट करने की जो शक्ति है, वह प्रान्तीय भाषाओ मे नही आ सकती । प्राकृत मे एक शब्द के अनेक अर्थ होते है, और वे सव-के-सब यथा-प्रसग बडे ही सुन्दर भावो का प्रकाश फैलाते है। हिन्दी आदि भाषामो मे यह खूबी नही है । मैं साधारण आदमियो की बात नहीं कहता, बड़े-बड़े विद्वानो का कहना है कि प्राचीन मूल ग्रन्थो का पूर्ण अनुवाद होना अशक्य है। मूल के भावो को आज की भाषाएँ अच्छी तरह छू भी नहीं सकती । जब हम मूल को अनुवाद मे उतारना चाहते है, तो हमे ऐसा लगता है, मानो ठाठे मारते हुए महासागर को एक क्ष द्र गगरी मे बन्द कर रहे है, जो सर्वथा असम्भव है । चन्द्र, सूर्य, और हिमालय के चित्र लिए जा रहे है, परन्तु वे चित्र मूल वस्तु का साक्षात् प्रतिनिधित्व नहीं कर सकते । चित्र का सूर्य कभी प्रकाश नहीं दे सकता । इसी प्रकार अनुवाद केवल मूल का छाया-चित्र है। उस पर से आप मूल के भावो की अस्पष्ट झाँकी अवश्य ले सकते है, परन्तु सत्य के पूर्ण दर्शन नही कर सकते । बल्कि अनुवाद में आकर मूल का भाव कभी-कभी असत्य से मिश्रित भी हो जाता है। व्यक्ति अपूर्ण है, अत वह अनुवाद मे अपनी भूल की पुट कही-न-कही दे हो देता है, अतएव अाज के धुरधर विद्वान् टीकानो पर विश्वस्त नहीं होते, वे मूल