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आलोचना- सूत्र
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मार्ग मे चलते-फिरते जो विराधना- किसी जीव को पीडा हुई हो, तो मैं उस पाप से निवृत्त होना चाहता हूँ ।
गमनागमन में किसी प्राणी को दबाकर, सचित्त बीज एव वनस्पति को कुचलकर, श्राकाश से गिरने वाली श्रोस, चीटी के बिल, पाँचो रग की काई, सचित्त जल, सचित्त मिट्टी और मकडी के जालो को मसलकर, एकेन्द्रिय से लेकर पचेन्द्रिय तक किसी भी जीव की विराधना -हिंसा की हो, सामने आते हुओ को रोका हो, धूल आदि से ढका हो, जमीन पर या आपस में रगडा हो, एकत्रित करके ऊपर-नीचे ढेर किया हो, असावधानी से क्लेश-जनक रीति से छत्रा हो, परितापना दी हो, श्रात किया हो - थकाया हो, त्रस्त - हैरान किया हो, एक जगह से दूसरी जगह बदला हो, अधिक क्या - जीवन से ही रहित किया हो, तो मेरा वह् सव पाप हार्दिक पश्चाताप के द्वारा मिथ्या हो - निष्फल हो ।
विवेचन
विवेक बनाम यतना
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जैन-धर्म मे विवेक का बहुत महत्त्व है । प्रत्येक क्रिया के पीछे विवेक का रखना, यतना का विचार करना, श्रावक एव साधु दोनो साधको के लिए प्रतीव आवश्यक है । इधर-उधर कही भी आना-जाना हो, उठना-बैठना हो, बोलना हो, लेना-देना हो, कुछ भी काम करना हो, सर्वत्र और सर्वदा विवेक को हृदय से न जाने दीजिए। जो भी काम करना हो, अच्छी तरह सोच-विचार कर, देख-भाल कर यतना के साथ कीजिए, आपको पाप नही लगेगा । पाप का मूल प्रमाद है, अविवेक है । जरा भी प्रमाद हुआ कि पाप की कालिमा हृदय पर दाग लगा देगी । भगवान् महावीर कठोर निवृत्ति-धर्म के पक्षपाती है । परन्तु, उनकी निवृत्ति का यह अर्थ नही कि मनुष्य सब ओर से निष्क्रिय होकर बैठ जाए, किसी भी काम का न रहे, जीवन को सर्वथा शून्य ही बना ले । उनकी निवृत्ति जीवन को निष्क्रिय न बना कर, दुष्क्रिय से शुभ-क्रिय बनाती है । विवेक के प्रकाश मे जीवन-पथ पर अग्रसर होने को कहती है । यही कारण है कि शास्त्रो मे साधक को सर्वथा यतमान रहने का आदेश दिया गया है। कहा गया है कि यतना-पूर्वक चलनेफिरने, खड़े होने, बैठने, सोने, बोलने चालने, खाने-पीने श्रादि से पाप कर्म