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सामायिक-सूत्र · हिन्दी पद्यानुवाद
मुक्त और मोचक का पद भी उत्तम लीना !
लोकालोक - प्रकाशी
केवलदर्शी परम अहिंसक मगल-मय, अविचचल, शून्य
अविचल केवलज्ञानी; शुक्ल - ध्यानी ! सकल रोगो से,
अक्षय, और अनन्त रहित बाधा योगो से ! एक बार जा वहाँ, न फिर जग मे आए हैं; सर्वोत्तम वह स्थान मोक्ष का अपनाए हैं । ( 'एक बार जा वहाँ, न फिर जग मे आना है, सर्वोत्तम वह स्थान मोक्ष का अपनाना है | ) नमस्कार हो श्री जिन अन्तर- रिपु जयकारी, अखिल भयो को जीत पूर्ण निर्भयता धारी !
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समाप्ति - सूत्र [ घनाक्षरी की ध्वनि ] ( १ ) सामायिक व्रत का समग्र काल पूरा हुआ,
भूल चूक जो भी हुई आलोचना करू में, । मन, वच, तन बुरे मार्ग मे प्रवृत्त हुए,
अन्तरग शुद्धि की विभग्नता से डरूँ मैं । ॥ स्मृतिभ्रश तथा व्यवस्थिति - हीनता के दोष,
पश्चात्ताप कर पाप-कलिमा से ट मैं, अखिल दुरित मम शीघ्र ही विफल होवे,
अतल असीम भवसागर से तरू में || ( २ ) सामायिक भली भाँति उतारी न अन्तर मे,
स्पर्शन, पालन, यथाविधि पूर्ण की नही, ।
१ - उक्त कोष्ठांकित पाठान्तर अरिहन्तों के लिए है ।
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