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प्रणिपात-सूत्र
२७९ छठी विशेष-उपयोग-सम्पदा है। इसमे विशेष एव असाधारण शब्दो मे भगवान् की विश्वकल्याणकारिता का वर्णन है।
सातवी सहेतुस्वरूप-सम्पदा है। इसमे भगवान् के दिक्कालादि के व्यवधान से अनवच्छिन्न, अत अप्रतिहत ज्ञान-दर्शन का वर्णन करके उनका स्वरूप-परिचय कराया गया है । __ आठवी निजसमफलद-सम्पदा है। इसमे 'जावयाण, बोहयाण, मोयगाण' आदि पदो के द्वारा सूचित किया गया है कि तीर्थ कर भगवान् ससार-दुख-सतप्त भव्य जीवो को धर्मोपदेश देकर अपने समान ही जिन, बुद्ध, और मुक्त बनाने की क्षमता रखते है।
नौवी मोक्ष-सम्पदा है। इसमे मोक्ष-स्वरूप का शिव, अचल, अरुज, अनन्त, अक्षय, अव्याबाध आदि विशेषणो के द्वारा बडा ही सरल एव भव्य वर्णन किया है। ___ तार्किक प्रश्न करते है कि नौवी मोक्ष सम्पदा मे जो मोक्षस्वरूप का वर्णन है, उसका सम्वन्ध सूत्रकार ने स्थान शब्द के साथ जोड़ा है, वह किसी भी तरह घटित नही होता। स्थान सिद्धशिला अथवा आकाश जड़ पदार्थ है, अत वह अरुज, अनन्त, अव्यावाध कैसे हो सकता है ? उत्तर मे निवेदन है कि अभिधावृत्ति से सम्बन्ध ठीक नहीं बैठता है। परन्तु, लक्षणा-वृत्ति के द्वारा सम्बन्ध होने मे कोई आपत्ति नही रहती। यहाँ स्थान और स्थानी अात्माओ के मोक्ष-स्वरूप मे अभेद का आरोप किया गया है। अत मोक्ष के धर्म, स्थान मे आरोपित कर दिए गए है। अथवा यहाँ स्थान का अर्थ यदि अवस्था या पद लिया जाए, तो फिर कुछ भी विकल्प नही रहता। मोक्ष, साधक आत्मा की एक अतिम पवित्र अवस्था या उच्च पद ही तो है।
विभिन्न नाम
जैन-परम्परा मे प्रस्तुत सूत्र के कितने ही विभिन्न नाम प्रचलित हैं। 'नमोत्थुण' यह नाम, अनुयोग द्वार-सूत्र के उल्लेखानुसार प्रथम अक्षरो का आदान करके बनाया गया है, जिस प्रकार भक्तामर और कल्याण मन्दिर आदि स्तोत्रो के नाम है।