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અહો શ્રુતજ્ઞાનમ્ ગ્રંથ જીર્ણોદ્ધાર – સંવત ૨૦૬૬ (ઈ. ૨૦૧૦).
શ્રી આશાપૂરણ પાર્શ્વનાથ જૈન જ્ઞાનભંડાર - સંયોજક- બાબુલાલ સરેમલ શાહ હીરાજૈન સોસાયટી, રામનગર, સાબરમતી, અમદાવાદ-૦૫. (મો.) ૯૪૨૬૫૮૫૯૦૪ (ઓ) ૨૨૧૩૨૫૪૩ (રહે.) ૨૭૫૦૫૭૨૦
પૃષ્ઠ
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પ્રાયઃ જીર્ણ અપ્રાપ્ય પુસ્તકોને સ્કેન કરાવીને સેટ નં.-૨ ની ડી.વી.ડી.(DVD) બનાવી તેની યાદી
या पुस्तat परथी upl stGnels sरी शाशे. ક્રમ પુસ્તકનું નામ
ભાષા કર્તા-ટીકાકાર-સંપાદક 055 | श्री सिद्धहेम बृहद्दति बृदन्यास अध्याय-६
पू. लावण्यसूरिजीम.सा. 056 | विविध तीर्थ कल्प
पू. जिनविजयजी म.सा. 057 ભારતીય જૈન શ્રમણ સંસ્કૃતિ અને લેખનકળા
| पू. पूण्यविजयजी म.सा. 058 | सिद्धान्तलक्षणगूढार्थ तत्वलोकः
श्री धर्मदत्तसूरि 059 | व्याप्ति पञ्चक विवृति टीका
श्री धर्मदतसूरि 06080 संजीत राममा
श्री मांगरोळ जैन संगीत मंडळी 061 | चतुर्विंशतीप्रबन्ध (प्रबंध कोश)
सं श्री रसिकलाल हीरालाल कापडीआ 062 | व्युत्पतिवाद आदर्श व्याख्यया संपूर्ण ६ अध्याय
| श्री सुदर्शनाचार्य 063 | चन्द्रप्रभा हेमकौमुदी
पू. मेघविजयजी गणि 064 | विवेक विलास
सं/४. श्री दामोदर गोविंदाचार्य 065 | पञ्चशती प्रबोध प्रबंध
सं | पू. मृगेन्द्रविजयजी म.सा. 066 | सन्मतितत्वसोपानम्
पू. लब्धिसूरिजी म.सा. 067 | 6:शभादीशुशनुवाई
पू. हेमसागरसूरिजी म.सा. 068 | मोहराजापराजयम्
सं पू . चतुरविजयजी म.सा. 069 | क्रियाकोश
सं/हिं श्री मोहनलाल बांठिया | कालिकाचार्यकथासंग्रह
| सं/Y४. | श्री अंबालाल प्रेमचंद 071 | सामान्यनिरुक्ति चंद्रकला कलाविलास टीका
श्री वामाचरण भट्टाचार्य 072 | जन्मसमुद्रजातक
सं/हिं श्री भगवानदास जैन | 073 | मेघमहोदय वर्षप्रबोध
सं/हिं | श्री भगवानदास जैन 074 | सामुदिइनi uiय थी
४.
श्री हिम्मतराम महाशंकर जानी 0758न यित्र supम ला1-1
४. श्री साराभाई नवाब 0768नयित्र पद्मसाग-२
४. श्री साराभाई नवाब 077 | संगीत नाटय ३पावली
४. श्री विद्या साराभाई नवाब 078 मारतनां न तीर्थो सनतनुशिल्पस्थापत्य
१४. श्री साराभाई नवाब 079 | शिल्पयिन्तामलिला-१
१४. श्री मनसुखलाल भुदरमल 080 दशल्य शाखा -१
१४. श्री जगन्नाथ अंबाराम 081 | शिल्पशाखलास-२
१४. श्री जगन्नाथ अंबाराम 082 | शल्य शास्त्रला1-3
| श्री जगन्नाथ अंबाराम 083 | यायुर्वहनासानुसूत प्रयोगीला-१
१४. पू. कान्तिसागरजी 084 ल्याएR8
१४. श्री वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री 085 | विश्वलोचन कोश
सं./हिं श्री नंदलाल शर्मा 086 | Bथा रत्न शास-1
श्री बेचरदास जीवराज दोशी 087 | Bथा रत्न शा1-2
श्री बेचरदास जीवराज दोशी 088 |इस्तसजीवन
| सं. पू. मेघविजयजीगणि એ%ચતુર્વિશતિકા
पूज. यशोविजयजी, पू. पुण्यविजयजी સમ્મતિ તર્ક મહાર્ણવાવતારિકા
| सं. आचार्य श्री विजयदर्शनसूरिजी
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“અહો શ્રુતજ્ઞાન” ગ્રંથ જીર્ણોધ્ધાર ૬૫
પંચશતિ પ્રબોધ પ્રબંધ
: દ્રવ્યસહાયક :
જિનશાસન શિરતાજ, કલીકાલ કલ્પતરૂ, સન્માર્ગ સંરક્ષક, પૂજ્યપાદ આચાર્ય ભગવંત્ શ્રીમદ્ વિજય રામચંદ્રસૂરીશ્વરજી મહારાજાના સમુદાયના માતૃહૃદયા કરૂણાસિંધુ પૂ. સા. જયરેખાશ્રીજી મ.સા.ના મધુરભાષિ સુશિષ્યા સા. પીયૂષરેખાશ્રીજી મ.સા.ની પ્રેરણાથી ૨૦૬૬ ના ચાતુર્માસમાં
શ્રી માણીભદ્ર સોસાયટીમાં ઉપાશ્રયમાં
આરાધના કરતી શ્રાવિકાઓના જ્ઞાનખાતાની ઉપજમાંથી
: સંયોજક :
શાહ બાબુલાલ સરેમલ બેડાવાળા
શ્રી આશાપૂરણપાર્શ્વનાથ જૈન જ્ઞાનભંડાર
શા, વિમળાબેન સરેમલ જવેરચંદજી બેડાવાળા ભવન હીરાજૈન સોસાયટી, સાબરમતી, અમદાવાદ-૩૮૦૦૦૫
(મો.) ૯૪૨૬૫૮૫૯૦૪ (ઓ.) ૨૨૧૩૨૫૪૩ (રહે.) ૨૭૫૦૫૭૨૦ સંવત ૨૦૬૬
ઈ.સ. ૨૦૧૦
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श्री शुभशीलगणि-विरचितः
पञ्चशतीप्रबोध (प्रबन्ध)सम्बन्धः
( प्रबन्ध-पञ्चशती )
संपादक मुनिश्री मृगेन्द्र मुनिजी
( न्यायतीर्थ.)
आमुखः डॉ० श्री हरिवल्लभ चुनीलाल भायाणी,
M.A., P.H.D.
प्रकाशक: सुवासित साहित्य प्रकाशन '१/ ३७८७. मोटी देशाई पोल.
सूरत
"Aho Shrutgyanam'
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प्रकाशक:शांतिलाल वी. शाह सुवासित साहित्य प्रकाशन १/३७८७ मोटी देशाई पोल
सूरत-१
-++r
war+
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-
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++
सर्वहक सम्पादकने स्वाधीन. मूल्य रु० पंदर जनवरी १९६८
पं० परमेष्ठीदासजी जैन न्यायतीर्थ
जैनेन्द्र प्रेस ललितपुर (झांसी) उ०प्र०
"Aho Shrutgyanam"
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"Aho Shrutgyanam"
मानमा ससा बनारसमाप्राह नसamandal maanaan aa
मानिसमस्यRARAMBHARAalapam.awanायकामता कमलयाक नकिरीरिकामाकमिनमालिका मानशिक्षसी असायनीजवस्वाद अदाय -
वर्य बाणिनिवासमा नमाण प्राभायातका सामग्राममेसोकयाम परवति माaagama awresमानय विम शिवोहरामनगटापिकामानिमायामा सम्बोधिवायदिनमासकसवानियापान यहारिकायस्वालालघाखाणेनसतंय मनमत्रिविमा
मादेन नासवनिराधारंवानोर पिसिस्मिक कयामतायदातासाजन मिराक्षांजवयदि तितकानोकामनाना मनीवर ततायुमणाककारमा जल विराक्षावित राजाक्षम कदासुस्वारोजकाहाय मोमाताश्रीवारमतिमाशययनविलक्षारसायक्षकानेडापिता ततपकदारनामसरिस्म ननिकायोगपतिmaraeनिमावावासबाamanासवाणावर एशित जिनमः अभिप्राय
पावागावाप्रयताकिंजानाति दकिंचित शनिबाद अयस्वासत्ववादीमावाधिवत Banaकिलपा शिपाद या नियमानसमयादसायकायत मंशानप्रदान तनाaareष्टंकषयनित
Library of Tubingen university of Bonn (West Germany) Hit
ઉપલબ્ધ પ્રબન્ધ—પંચશતીની પ્રતિનું એક પૃષ્ઠ.
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SHRI SHUBHASILA GANI'S PANCHASHATI PRABANDHA
SAMBANDHA
OR
(Pha644 phop 43644岁的A71)
EDITED BY MUNI SHRI MRUGENDRA MUNIJI.
with an introduction by DR. SHRI HARIVALLABH. C. BHAYANI.
M. A., P. H.D.
Publishes SUVASIT SAHITYA PRAKASHAN
13787 Mot Desai Pole, Surat. 1
"Aho Shrutgyanam"
Page #9
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Publisher.
Suvasit Sahitya Prakashan.
1/3787 Moti Desai Pole
SURAT-1
(C) Muni Shri Mrugendra Muniji FIFTEEN Rupees JAN 1968
Printer
Pt. Parmeshthidas Jain Nyayatir tha. JAINENDRA PRESS LALITPUR ( Jhansi ) U. P.
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प्रस्तावना
व्रन्थy नामकरण :
प्रस्तुत “पञ्चशती प्रबोध ( प्रबन्ध ) सम्बन्ध " श्री शुभशीलगणिनी रचना छे.
प्रन्थकारे प्रस्तुत पंधना नामनो उल्लेख ग्रंचना प्रारंभमा "अंयोहयं पञ्चशतीप्रबोधसम्बन्धनामा क्रियते मया तु" आ मुजब 'पञ्चशतीप्रबोध सम्बन्ध'ना नामथी कर्यो छे. 'जिनरत्न कोश'मा पण प्रा.ह.दा. वेलणकरे प्रस्तुत कृतिनो आज नामथी उल्लेख कर्यो छे. ते सिवाय अन्य कथा-कोशोनी जेम प्रस्तुत कृति "कथा-कोश, तरोके पण क्वचित् आणीती छे सदुपरांत "प्रबन्ध पञ्चशती " ओ रीतर्नु अहिं संक्षिप्त नाम पण में सूचव्यु छे. ग्रन्थकारनो समय अने तेमनी रचनाओः
विक्रमना १५ मा झतकमा थई गयेला आचार्यश्री सोमसुंदर सूरिनो शिष्य-समुदाय विद्वान तेमज विपुल प्रमाणमा हतो. तेमना युगमा भनेकविध साहित्य- सजन थयु.
श्रीसोमसुन्दरसूरिना पट्टशिष्य, सहस्रावधानी मा० मुनिसुंदरसरि हता. तेमना अन्य गुरु-भ्राताभो पण अनेक ग्रंथोना रचयिता हता. मा० सोमसुंदरसूरिनो प्रशिष्यपरिवार पग बणो मोटो हतो. आ ग्रंथना कर्ता पं० शुभशीलगणि के जेओ मा परिवारना जाणीता ओक साहित्यमर्जक विद्वान् छे,
प्रन्धकार श्री शुभशीलगणिए आ धनी समाप्तिनी अंतिम प्रशस्तिमा पोसाने श्री रत्नमंडन सूरिना शिष्य होबार्नु जणाव्युछे. प्रथना अंतर्गत अधिकारनो एक प्रशस्तिमा लक्ष्मोसागरसूरिना शिष्य सरोके पण उल्लेख मळे छे. तेमज ग्रंथना मंगलाचरणमा पण
लक्ष्मीसागरसूरीणां पादपग्नप्रसादतः
शिव्येण शुभशीलेन, अन्ध एष विधीयते ।। (श्लोक ३) आ रीते पोताना प्रप्रगुरु लक्ष्मीसागरसूरिना शिष्य तरीके पोताने जमाव्या के.
'विक्रमादित्य चरित्र' "भरतेश्वर-वृत्ति" वगेरेमा भीशुमशीलमुनिसुन्दरसूरिना शिष्य होवार्नु पण कबूले छे. मा मोता संभक्ति छे के प्रन्यकारे कृतज्ञतानी पुन्ध-भाव नायी प्रेराईने विद्या निश्रा ने दीक्षा अम ऋणे प्रकारना गुरुतुं स्मरण करवु रचित मान्यु होय. * पञ्चशती प्रबोध सम्बन्ध-In four chapters Containing 600 Stories in all
composed io Sam. 1521 by Subhashila pupil of Laxmisagarasuri of the Tapagaccha.
+ मुनिसुन्दरसूरीशविनेयः शुभशीलभा । ... चकार विक्रमादित्य-चरित्रं मन्दधीरपि ।।।
(विक्रमचरित्रम् प्रशस्ति-१२)
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( २ )
शुभशील गणिनी लगभग प्रत्येक कृति १६ मा शतका पूर्वार्धमा रचाई छे. प्रस्तुत ग्रंथनी रचना वि० सं० १५२१ मा थई छे ग्रंथकारे ग्रंथनी प्रशस्तिमां रचना समय साथै पोतानो नामोल्लेख पण कर्यो छे
विक्रमाद् विधु -द्वीषु चन्द्र ( १५२१ ) प्रमितवत्सरे । अमुं व्यधात प्रबन्धं तु, शुभशीलाऽभिधो बुधः ॥
अथ स्पष्ट छे
शुभशीलगणिनो अन्य कृतिकलापः
(१) विक्रमादित्य चरित्र - वि० सं० १४९९ ( अथवा १४६० ) आ कृति प्रकाशित छे. (२) भरतेश्वर बाहुबलि वृत्ति ( कथाकोश ) - वि० सं० १५०२, 'भरतेश्वर बाहुबलि ' नामक प्राचीन बज्झाय उपरनी आ कथा-रचना छे, ओमा ५३ महापुरुषो अने ४७ सन्नारीमोनी कथाओ जीवन-वृत्तान्तो रजू थयो छे. या कृति दे० ला• जै० पुस्तकोद्धारक संस्था सूरतथी प्रकाशित थइ छे.
( पृ० ३५२ )
(३) शत्रुञ्जय - कल्पवृत्ति - वि० सं० १५१८ आ० धर्मघोषसूरिरचित ( ? ) आ प्राचीन रचना छे, तेनी उपर शुभशीलगणिए १२५०० श्लोक प्रमाण वृति रची है.
शत्रुंजयकथाकोश, शत्रुंजयकल्पकथा, तेमज शत्रुंजय बृहत्कल्पना नामथी पण आवृत्ति प्रचलित छे. अने प्रकाशित छे.
(४) भोज - प्रबन्ध - लगभग ३७०० श्लोक प्रमाणनो आ रचना छे. राजा भोज बिषे अकंदरे ६ भोजप्रबन्धो अने १ भोजचरित्र रचाया छे
(५) प्रभविक - कथा - वि० सं० १५०४. आ कृतिमा शुभशील गणिए पोताना छ गुरुभ्राताभना नामनो उल्लेख कर्यो छे. ते आ मुजब छे-उदयनन्दि, चारित्ररत्न, रत्नशेखर, लक्ष्मीसागर, विशालराज अने सोमदेव.
(६) शालिवाहनचरित - वि० सं० १५४०. आ कृति १८०० लोक प्रमाण छे.
(७) पुण्यधन नृपकथा-- वि० सं० १४९६ |
(८) पुण्यसार कथा -- १३११ श्लोक प्रमाण रचना छे, 'जिनरत्नकोश'मा जणाव्याप्रमाणे 'महावीर जैन सभा' तरफथी सन् १९९९ मा प्रसिद्ध यह छे अने आज कृति ते पुण्यधनचरित्र छे, ओम जि० २० कोशमा निर्देश करायो छे. अने ते संभवित छे.
आ उपरान्त 'पुण्यसार' उपर अन्य व्रण कृतिओ पण रचाई छे. ते नीचे मुजब छे'पुण्याकथानक' वि० सं १३३४, कर्ता - विवेकसमुद्र. पुण्यसारचरित्र-कर्ता भावचन्द्र.
पुण्यस्मारकथा - अजितप्रभसूरि.
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(९) जावड़-कथा-आ कृतिनी हस्त प्रत बीकानेर-बड़ा-उपाश्रयना भंडारमा छे. प्रायः अप्रकाशित छे.
(१०) भक्तामरस्तोत्र माहात्म्य, (११) पंचवर्गसंग्रह नाममाला. (१२) उणादिनाममाला.
(१३) अष्टकर्मविपाक ( कर्मविपाक. ) * प्रस्तुत ग्रंथ परत्वे आछो द्रष्टिपात:
प्रस्तुत 'प्रबन्ध पंचशती' ग्रंथ ४ अधिकारमा विभक्त छे. तेमा ६०० उपरांत कथा-प्रबन्धोनो संग्रह छे. अधिकार दीठ प्रवन्धोनी संख्या आ प्रमाणे छेअधिकार
प्रबन्ध-संख्या
१ - २०३ २०४ - ४२६ ४२७ - ४७
ग्रन्थकारे कथा-प्रबन्धोनुं जे आ विस्तृत संकलन-रचना करी छे तेमा तेमणे अन्य आधार. भूत ग्रंथोनो उपयोग को छे अम तेमना जशब्दो परथी कही शकाय तेम छे. किश्चिद्गुरोराननतो निशम्य, किश्चिद निजान्याविकशाख तश्च" ग्रंथकार, आधारभूत जैन-जैनेतर ग्रंथोनो उपयोग कर्यानुं पण नोंधे छे. अने ते रीते आ ग्रंथना धणाखरा प्रबन्धो के कथा-सामग्री प्रबन्धकोश, प्रबन्धचिन्तामणि, पुरातनप्रवन्धसंग्रह, उपदेशतरंगिणी, आवश्यकनियुक्ति-टीका इत्यादि ग्रंथोमाथी ळेवामां आवी छे. हितोपदेश के पंचतंत्रने अनुसरती केटलीक आख्यायिकाओनो पण आमा समावेश
तदुपरांत, गुरु-परंपराथी उपलब्ध कथा-साहित्यनो जुनो वारसो पण आमा मचवायेलो छे. या दृष्टिले शुभशील गणिनी आ रचना घणी महत्वपूर्ण छे.
शुभशीले मोटे भागे सरल संस्कृतमा कथा-साहित्यनुं सर्जन कयु छे. तेथी ग्रंथकारनो उद्देश आ रोते कथा-साहित्यनु संकलन करवा द्वारा ओ विशेनु साहित्य अकत्रित करी तेने लोक. भोग्य बनाची, कथा-वार्ताना माध्यम द्वारा जनताने धर्माभिमुख बनाववानुहोइ सके. अने आ लोकप्रिय मार्ग पण छे
*
शुभशीलगणिकृत ग्रंथोनी नोंध. "जैन धर्मप्रकाश" ( वि० सं० २०२२ ना अंक १) मा छपायेला प्रो. ही० १० कापडियाना लेखना आधारे तयार करी छे.
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(8)
ओ के प्रस्तुत रचनामा कथा-प्रबन्धोनो कोइ निश्चित क्रम देखातो नथी, छता सेनु ं श्रण विभागमा पृथक्करण करी शकाय -
(१) अतिहासिक प्रबन्धो,
(२) धार्मिक ( शास्त्रीय ) कथाओ, अने
(३) लौकिक वार्ताओ, (किंवा दंतकथा, Legends )
ग्रन्थमा अंते वे परिशिष्टो आपवामा आव्या छे. जेमां अकारादि क्रमथी पद्य-सूचि तथा ग्रंथमा भावतो विशेष नामोनी यादी आपवामां आवो छे.
ग्रन्थनी शैली —
ग्रंथनी भाषा गद्य-पद्य मिश्रित छे, संस्कृत, प्राकृत अने अपभ्रंश सुभाषितो अवतरण रूपे स्थाने स्थाने दृष्टिगोचर थाय छे. संस्कृतने व्याकरणना कठिन प्रयोगोथी मुक्त राखी बने तेम सरक बनाववा प्रयत्न करायो छे. ढोकभाषामा प्रचलित घणावरों शब्दोनुं संस्कृतीकरण करो ग्रंथकारे ओमने ओम ज साचवी राख्या छे. आवा शब्दोनो जथ्यो खारा प्रमाणमा छे, जे भाषा - विशारदो माटे अनेक उपयोगी माहिती पूरी पाडे छे.
डा० हरिवल्लभ चूनीलाल भायाणीजीओ या विषयनी विस्तारपूर्वक चर्चा "प्रबन्ध पतीनी भाषा सामग्री अने कथा - सामग्री " ओ नामना अहि अपेक्षा निबन्धमा करी छे.
प्रति परिचय —
या ग्रंथनुं सम्पादन जे हस्तप्रतना आधारे कयुं छे. तेनी प्रतिसंज्ञा A. आगे छे आ प्रति खाणी ( वडोदरा ) ना श्री जैन श्वे० ज्ञानमन्दिरना उपा० श्रीवीरविजयजी शास्त्र संग्रहनी छे. अने संपादनमा मुख्यतया सविशेष आधारभूत आ ज प्रति छे प्रतिनुं कद १०x४" के. अत्रे दरेक पृष्ठमा १५ पंकिओ छे, लिपि परिमात्रामा छे. प्रतिना ५२७ पृष्ठ छे, प्रतिनी ने बाजु घणास्थळे हाम्रियामा सुधारा- वधारा, पाठ-शुद्धि करेल होइ प्रतिनो ठीक ठीक उपयोग थयानु कल्पी शकाय छे.
आ सिवाय 'प्रबन्ध पंचशती'नी अन्य हस्तप्रतो नीचेना भंडारोमा उपलब्ध छे. परंतु सविशेषता न होवाने कारणे पाठ-शुद्धि माटे तेनो उपयोग नहिचत् थयो छे. या प्रतिबोनी स्थल-सूचि नीचे सुजन छे,
B. जिनदत्तसूरि ज्ञान भडार, मुंबई, ( पायधुनी, महावीर स्वामि जैन देरासर )
C. मोहनलाल जी वे० ज्ञानभंडार, सूरत.
D. हंसविजयजी शास्त्रसंग्रह - बडोदरा,
E, लालभाई दडपतभाई भारतीय संस्कृति विद्या मन्दिर- अमदाबाद |
या उपरति बर्डिन ( जमनी ) नो लायब्रेरीमा प्रस्तुतमंथनो हस्तप्रत के, आनो लेख V. A. Weber Verzeichniss der Sanskrit and Prakrit Handschriften der Koniglichen
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( ५ )
Bibliothek zu Berlin, V. II. 3, Berlin, 1892, II. 3, 1112 ff No. 2020 था नोधमा
प्रथनो प्रारम्भ तथा प्रशस्तिनो भाग पण आपवामा आव्यो छे. आ प्रतिनी माइकोफिल्म कोषी प्रो० हामे ( Prof. F. R. Hamm Indologisches Seminar, 53, Bonn, lieb frauencey 7 ) मुनिश्री अम्बूविजयजीनी भलामण द्वारा मने मोकली हती. आ फिल्म ज्यारे मने मळी त्यारे मूल प्रन्थ ( Text ) लगभग छपाई गयो हतो छतां ये पाछळ्थी आ फिल्म वांचता प्रति प्राचीन अने उल्लेखनीय जणाई. प्रतिना १९४ पृष्ठ छे. अने दरेक पृष्ठमा १३ पंति छे. अंतमा लेखक नाम भालुं छे.
॥ छ ॥ ० श्रीम(ड) २० हीरजीनिभंडाररक्षणीक सा० राघवनी लेखक भ० जीवराज ।
खंभा (त) यतिना भंडारनी
प्रति छे,
पृ० १९४ ना पृष्ठभागमा ढखेल छे के - पो० ३५ प्र० २६ ॥
आमार - विधि
प्रस्तुत प्रथना संपादनमा सहायक थनार उल्लेखनीय व्यक्तिओमां पू० चिदानन्द मुनिजीओ मने सतत उत्साह अने प्रेरणा आपीने मारु कार्य सरल बनाव्यु छे.
डॉ० हरिवल्लभ भायाणीजीओ ( अध्यापक, भाषा विज्ञान विभाग, गुजरात युनिवर्सिटी, अमदाबाद ) पोतानो अमूल्य समय आपीने खास आ ग्रंथ माटे विद्वत्तापूर्ण पुरोवचन उखी आपी आ प्रथ गौरव वधायु छे, आ माटे हुं तेमनो अत्यन्त ऋणी छु आज रीते प्रो० सुरेश अं० उपाध्याय ( भारतीय विद्या भवन, संस्कृत संशोधन विभाग, चौपाटी, मुंबई. ) के जेमणे मारा काना अंतसुधी दरेक रीते सलाह- सूचनो आपीने मने अत्यन्त उपयोगी बन्यो छे ते बदल हुं तेमने भूढी शकु तेम नथी.
पू. मुनिश्री जंबूबिजयजी म० बने प्रो० अफ. आर. हाम द्वारा प्रतिनो माइक्रोफिल्म हुं मेत्री शक्यो ते बदल तेमनो पण आभारी छु.
संपादनना क्षेत्रमा हुं अनभ्यासी होई प्रतिओ माटे क्षमा-याचना.
मुंबई,
ता. ३-४-६७
"Aho Shrutgyanam"
--मुनिश्री मृगेन्द्रमुनि.
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" प्रबन्धपंचशती" नी भाषासामग्री अने कथासामग्री
लेखक : – डा० हरिवल्लभ चुनीलाल भाषाणी
( अध्यापक - भाषाविज्ञान, गुजरात युनिवर्सिटी, अमदाबाद.)
बारमी शताब्दी पछीथी रचावा मांडेला संस्कृत प्रबन्धो में मोटे भागे तो गुजरात - राजस्थाननो विशिष्टपणे जैन रचनाप्रकार छे. 'प्रबन्ध चिंतामणि' 'चतुर्विंशतिप्रबन्ध' बगेरे संग्रहोना प्रबन्धो उपरथी जोई शकाय छे के तेमां अवी व्यक्तिओनो वृत्तांत गंधातो, जे व्यक्तिओ परंपराधी विख्यात होय अने जेमणे जैनधर्मना वृद्धि विकास अने रक्षण- पालनमा स्मरणीय फारो आप्यो होय. आमां जैन आचार्यो राजवीओ, मंत्रीओ श्रेष्ठीओ वगेरे जेवी इतिहास, पुराण के दन्तकथामां जाणीती व्यक्तिओनो समावेश थतो अने से प्रभावक व्यक्तिओना चरित्रनी मुख्य विगतो अने सालवारी अथवा तो तेमना जीवननी कोई विशिष्ट घटनाओ, रसिक प्रसंगो अने दुचकाओ क्वचित् आलंकारिक भाषा अने शैलीनो पुट आपीने रजू करवामां आवतां प्रयोजन इतिहास आपवानु' नहीं पण प्रभावकता दर्शाववानु होवाथी भार कथाना के दृष्टांना तत्त्व पर रहेतो अने समय जतां, जेम प्रस्तुत संग्रहमां बन्युं छे तेम, लोकप्रचलित के साहित्य-प्रचलित दृष्टांतकथाओ अने परंपरागत लोककथाओने पण प्रबन्धोमां स्थान मळ्तु गये.
धार्मिक व्याख्यान प्रसंगे उपयोगमा लई शकाय ते दृष्टिये जाणे के तैयार थया होय तेवा संप्रहोम भूतकाळी अनेक शक्तिशाली महान् व्यक्तिओओ जैन धर्मनी महत्ता अने गौरव वधारवा माटे करेला कार्योंनी वातो, उपरांत जीवननी सामान्य नीतिरीति माटे बोधप्रद होय तेवी घणीये लोकप्रिय कथा - वार्ताओ, प्रसंगो अने टुचकाओ पण अपायां छे.
आ प्रबन्धसाहित्यनी संस्कृत भाषा पोतानी आगवी विशिष्टता धरावे छे. प्रबन्धोनु संस्कृत ओ व्याकरणनी शिष्टपरंपराने मान्य अवु विशुद्ध प्रशिष्ट संस्कृत नथी. अ संस्कृत अंक प्रकार लौकिक संस्कृत छे. तेमां तत्कालीन लोकभाषानो, तेना उच्चारण, व्याकरण, शब्दभंडोळ अने रू प्रयोगोनो गाढ प्रभाव पडेलो छे. जेम जेम पाछलना समयमां आवता जईओ छीओ तेम तेम आ प्रभाव प्रमाण वध जाय छे, बौद्ध अने जैन अ बन्ने परंपरामां पंडितमान्य रूढ संस्कृतने बदले बोलचालना प्रयोगोना पासवाळु लौकिक संस्कृत वापरवानु वलण हेतु विशाळ मध्यम वर्गने 'समज' सरळ पडे, व्यवहारभाषा अने उपदेशभाषा वच्चेनुं अंतर ओछु थाय अने छतां उपदेशभाषानो ऊंचो मोभो जळवाई रहे ओवा हेतुओ आ प्रकारनी 'सबकी संस्कृत' द्वारा सिद्ध थता.
प्रशिष्ट संस्कृतथी आ संस्कृत जुदी शैलीनु होवाने कारणे, तेमज मध्यम भारतीय- आर्य तथा अर्वाचीन भारतीय आर्य लोक-भाषाओनां तत्रो धरावतु होवाने कारणे तेणे अनेक अर्वाचीन विद्वानोनु ध्यान रखेंच्यु छे. अने ते अनेक अध्ययन-संशोधननो विषय बनतु रहयुं छे. संस्कृतनां
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प्रकाण्ड विद्वान् अने येइल युनिवर्सिटीना संस्कृतना अध्यापक सद्गत फ्रन्कलिन अजर्टने वीश वर्षना अभ्यासने परिगामे १९५३ मां “बुद्धिस्ट हायब्रिड संस्कृत" विरोना व्याकरण अने शब्दकोश प्रसिद्ध कर्या. जैन संस्कृत आवा कोई प्रखर विद्वानना सतत अनुशीलननो लाभ मेळवका हजी सुधी भाग्यशाळी नथी बन्यु छतां तेनां अमुक अमुक पासांओनु, अथवा तो व्यक्तिगत कृतिओना प्रयोगोनु अध्ययन समय समय पर अनेक अभ्यासीओने हाथे धतु रहयु छे.
जैन संस्कृतना महत्त्व तरफ विद्वानोनु लक्ष्य खेंची तेनां जुदा जुदां पासांओ तारवीने अक विशिष्ट अध्ययन पहेलवहेलां प्रस्तुत करवानो यश अमेरिकाना महान संस्कृत विद्वान सद्गत मोरिस ब्लूमफिल्डने फाळे जाय छे. तेमणे सन् १९२४ मा जर्मन विद्वान वाकलीगेलने समर्पित सन्मानप्रन्ध Antidoron मां प्रकाशित Some aspects of Jain Sanskrit-आ लेखमां नीचेना जैन कधायोमाथी विशिष्ट भाषासामग्री तारेवी आपीने तेनी विचारणा करेली -
'अघटकुमार कथा' 'भरटकद्वात्रिंशिका' 'शालिभद्रचरित्र' 'अंबडचरित्र' 'धर्मपरीक्षा' हेमविजयकृत 'कवारत्नाकर' 'कबाकोश' 'पालगोपालकथानक' 'पंचदंडछत्रप्रबन्ध' 'परिशिष्टपर्वन्' भावदेवसूरिकृत 'मल्लिनाथचरित' 'प्रबन्धचिन्तामणि' 'प्रभावकचरित' हेमचन्द्रकृत 'महावीरचरित' विनयचन्द्रकृत 'पार्श्वनाथचरित' 'रौहिणेयचरित' 'समरादित्यकथासंक्षेप' 'सिंहासनद्वात्रिंशिका' 'उत्तमकुमारचरित'.
___ जैन संस्कृतनी केटलीक विशिष्टताओ अने लक्षणो पांच वर्ग नीचे तेमणे गोठवीने मूक्यां छे. ते पाच वर्गो आ प्रमाणे :
(१) गुजराती वगेरे स्थानिक बोलीओनो प्रभाव दर्शावता प्रयोगो. (२) प्राकृत शब्दसामग्री अने व्याकरणप्रयोगोनो स्वीकार अने तेमनु संस्कृतीकरण. (३) शुद्ध संस्कृत शब्दोनो पर क्वचित अतिसंस्कार . (४) संस्कृत व्याकरणसाहित्य अने कोशसाहित्यमांथी सीधी ज केटलीक सामग्रीनो स्वीकार. (५) केटलीक एवी पण सामग्री जोवा मळे छे, जेने माटे प्रशिष्ट भाषामां के स्थानिक
बोलीओमां कशो आधार नथी, जे विशिष्टपमे जैन अंश छे... ब्लूमफिल्डना आ दृष्टिपूर्ण व्यवस्थित लेखथी जैन संस्कृतना शास्त्रीय अभ्यासनी दिशा स्पष्ट भई अने पछीना प्रयासो माटे ते घणो प्रेरक बन्यो. ते पूर्व पग "उपमितिभवप्रपाकथा"ना संपादनमा पिटर्सन अने याकोबी विशिष्ट संस्कृत शब्दो अने प्रयोगोनी एक यादी भूमिकामां आपेली.
__ पूर्णभद्रकृत "पंचाख्यानक'ना तेमना संपादनमा हर्टले, 'जैन गुर्जरकविओ'नी भूमिकामां मो. द. देशाईए, हेमचन्द्राचार्यना 'त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित'ना अंग्रेजी भाषान्तरना जुदा जुदा खंडोमां हेलन जोन्सने असाधारण के विरल संस्कृत शब्दो अने प्रयोगो तारबीने अर्थ साथे आया छे. प्राकृत अने जैन साहित्यना मूर्धन्य विद्वान आदिनाथ नेमिनाथ उपाध्ये सिंघी जैन ग्रन्थमालामा प्रकाशित हरिषेणकृत 'बृहत्कथाकोश'नी तेमनी भूमिकामां ( १९४३ ) जैन संस्कृत विशेना पूर्ववर्ती अध्ययनोनो ख्याल आपीने 'बृहद्कथाकोश'मांथी तारवेला नोंधपात्र प्रयोगोनी अक विस्तृत सार्थ यादी रजू करी छे. पण अमुक कृतिओ लईने तेमांना अमुक अमुक दृष्टिले नोंधपात्र बधा शब्दो अने प्रयोगोनी पद्धतिसरनी यादी अर्थ अने
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[९] अर्वाचीन समान्तर प्रयोगो सहित रजू करवानो विस्तृत प्रयास भोगीलाल. जे सांडेसरा अने जे. पी ठाकरना Lexicograpbical Studies in Jain Sanskrit (१९६२)मां थयो. तेमां 'प्रबन्धचिन्तामणि', 'प्रबन्धकोश' अने 'पुरातनप्रबन्धसंग्रह'मांधी लगभग अढी सो पृष्ठ भरीने सामग्री आपी छे. अनेक स्थळे मूव्मांधी उद्धरणो, समान्तर प्रयोगस्थानो, व्युत्पत्तिनोंध के अर्वाचीन भाषाओमांथी तुलनात्मक सामग्री पण प्रस्तुत करी छे. तेमना अध्ययननो आगळनो खंड पण तेमणे 'जर्नल ओफ धी ओरिअन्टल इन्स्टिट्यट-बरोडा'ना गोविंदलाल भट्ट स्मारक अंक (पृ० ४०६-४५६) मा प्रकाशित कर्यो छे. तेमां लगभग एकावन ग्रंथोमांधी सामग्री तारवीने आपी छे. प्रबन्धोनी तथा इतर जैन संस्कृत कथाग्रंथोनी भाषा लोकभाषाना प्रयोगोथी अटली भरचक होय छे के अंक ज ग्रंथमांथी सेंकडो प्रयोगो तारवी तो पण वणा प्रयोगो वणनोंध्या रही जाय. आ दृष्टिले सांडेसरा अने ठाकरे "प्रबन्धकोश' मांथी तारवेली सामग्री titet Jozef De ens ha Lexicographical Adderda from Rajasekbarasuri's Prabandha Kosa. ( Indian Linguistics Turar Jubilee Volume II १९५९, पृ० १८०-२१९ ) ओ लेखमां तारवेली सामग्री सरखाववा जेवी छे. जोसेफ डेलेउनो लेख वधु पद्धतिसर, झीणवटवाळो अने सामग्रीना वर्गीकरण परत्वे वधु माहिती आपतो छे. तो गुजराती वगेरे भारतीय भाषाओनो अने जैन साहित्यनी परंपरानो जे लाभ सांडेसरा अने ठाकरना कार्यने मळ्यो छे तेथी डेलेउने वंचित रहेवु पडयु छे. उपरांत बनेनी पसंदगीनी दृष्टिमां पण सारो एव' फरक छे. बने प्रयासने एकबीजाना पूरक गणवाना रहे छे.
'प्रबन्धपंचशती'मांथी अहीं आपेली सामग्री पण निःशेषकथननी दृष्टि तारववानो प्रयास नथी कर्यो, तेम करवा जतां अक स्वतन्त्र ग्रन्थ ज तैयार करवो पडे. अहीं नमूना रूपे ज केटलाक शब्दो अने प्रयोगो आप्या छे. आमां केटलाक प्रयोगो सीधा कशा फेरफार विना गुजरातीमांथी संस्कृतमां लई लीघेला छे तो बीजा केटलाक स्पष्टपणे तत्कालीन गुजराती शब्दो अने प्रयोगोने संस्कृतरूप आपीने घडी काढेला छे. संस्कृतमांथी प्राकृतमा आवतां शब्दोना ध्वनिपरिवर्तननां जे व्यापक वलणो प्रतीत थाय छे, तेमने यांत्रिकपणे लागु पाडीने प्रचलित गुजराती शब्दनु पूर्वरूप कृत्रिम रीते घडी काढवामां आव्यु छे. तेमां खरेखरा मूरनी कशी चिंता नथी करी, तेम संस्कृत अने गुजराती विभक्तिसम्बन्धो वच्चेना भेदने अने बदलायेली अर्थछायाओ अने रूढिप्रयोगोने पण अवगण्या छे. आ दृष्टिले ख्याल आपवा माटे 'प्रबन्धपंचशती'मांथी विशिष्ट शब्दोनी यादी आपवा साथे अहों केटलाक गुजरातीमूलक रूढिप्रयोगो ( तेम ज कोईक अन्य विशिष्ट प्रयोगो) नोंध्या छे.
आमां मुस्लिम राजवीओ साथेना प्रसंगोनी वातमां फारसी शब्दोना प्रयोगो छे. जेम के'कलन्दर', 'कागद' 'खरशान' 'गोहरि' 'बीबी' 'भूत' 'मसीत' 'मीर' 'मुद्गल' 'मुलाण' 'मुशलमान' 'सुरत्राण' 'हज' 'हरीमज' इत्यादि.
'प्रबन्धपञ्चशती'मां आपणने अवा पण अनेक शब्द मळे छे, जेमनो अर्थ अस्पष्ट के अज्ञात रहे छे. आनां विविध कारणो छे. संस्कृतीकरणने लीधे पायानु गुजराती रूप कन्यु मुश्केल बने; तत्कालीन गुजराती शब्द अत्यारे वपराशमाथी लुप्त थयो होय के बोलीओमां ज प्रचलित होय; प्रयोग पूर्वना प्रबन्धोनी भाषामांथी लीधो होय पण पछीनी लोकभाषामां ते अप्रचलित होय; लहियाओनी मूलथो मूळ शब्दरूप विकृत थईने जळवाई रहयु होय वगेरे.
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[१०]
"प्रबन्धपंचशती'मांथी मने जेमनो अर्थ बेठो नथी तेवा शब्दोनी अक यादी जुदी तारवीने आपी छे. व्युत्पत्ति के अर्थचर्चानी दृष्टि कशी विस्तार को नथी. मुनि जिनविजयजी संपादित 'उक्तिव्यक्तिप्रकरण' के 'औक्तिकसंग्रह'मां आपेली यादीओमां गुजराती-राजस्थानी शब्दो अने प्रयोगोनु जे विशाळ पाया पर संस्कृतीकरण थयु होवानु जोवा मळे छे ते उपरथी कही शकाय के आ जातनी भाषा अने शैलीनी घणी लांबी परंपरा हती. अने वर्णन माटे जेम वर्णकोमांथी, तेम भाषा माटे औक्तिकोमाथी केट लीक तैयार सामग्री मळी रहेती. अने 'प्रबन्धपंचशती'ने तो, जेम वस्तुनी बाबतमा तेम भाषानी बाबतमां पुरोगामी प्रबन्धसाहित्यमाथी सारो एवो लाभ मळेलो छे. अनेक प्रयोगो आगला साहित्यमांधी पण तुलना माटे टांकी शकाय तेम छे.
जैन संस्कृत प्रबन्धोना अने कथाग्रंथो तथा टीकाग्रन्थोना संस्कृतनु सर्वांगीणं अने व्यवस्थित अध्ययन एक बृहद प्रयास मागी ले छे, तेमां कोश अने व्याकरण ओ बन्ने पासांओनो समावेश थवो जरूरी छे. कोशमा नवा शब्दो अने नवा अर्थो नोंधाय अने व्याकरणमा उच्चारण, जोडणी, समास, शब्दसाधक प्रत्ययो नामिक अने आख्यातिक विभक्तिप्रयोगो, वाक्यरचना, रूदिप्रयोगो अने विशिष्ट कहेवतोनी नोंध थाय. आमां सातमी-आठमी सदीथी लईने सोळमी-सत्तरमी सदी सुधीना साहित्यमांथी काटकम अने पायानी बोलीओना भेदने लक्षमा राखीने सामग्रीसंचय थवो जोई.
___ गमे तेम पण प्राकृत-अपभ्रशना अने विशेषे तो प्राचीन अने मध्यकालीन गुजराती राजस्थानी ( अने हिन्दी)ना अभ्यास माटे प्रबन्धोमां अने कथाग्रन्थोमां, वृत्तिग्रंथो अने औक्तिकोमा अढळक सामग्री भरी पडी छे अने दृष्टि ते साहित्य अमूल्य खजाना जेवु छे.
उपरांत मध्यकालीन लोककथाना अध्ययननी दृष्टिले पण आ प्रबन्धोमांथी घणी सामग्री प्राप्त थाय छे. पंचतंत्रादि लोकप्रिय कथाग्रन्थोमांथी धणी कथाओ 'प्रबन्धपंचशती'मां लीधेली छे. अन्य लोकप्रचलित के जैन परंपरामा प्रचलित कथाओ पण थोडाक फेरफार साथे अहीं स्थान पामी छे. कथाघटदोनी परंपरानी तपास करनार माटे प्रबन्धसाहित्य जोवू पण अनिवार्य गणाय.
'प्रबन्धपंचशती'नी जे केटलीक कथाओने मळ्ती कथाओ के घटको अन्यत्र जाणीता छे तेनो पण नोचे सहेज निर्देश को छे.
आ रीते जैन परंपरानी दृष्टिले तथा इतिहास अने दन्तकथानी दृष्टिले 'प्रबन्धपंचमती'नु महत्त्व होवा उपरांत, गुजराती भाषा अने लोककथाओना अध्ययननी दृष्टिले पण तेनु केटलु महत्त्व छ तेनो काईक ख्याल मरशे.
जेमनो उपर निर्देश कर्यो ते (१) शब्दसूचि, (२) संदिग्ध अर्थवाला शब्दो, (३) केटलाक नोंधपात्र प्रयोगो अने (४) कथाओ विशे टूकी नोंध नीचे आप्यां छे.
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४. शब्द-सूचि
-
अग्रे
२-१७. १८, ३-२, ४.९ २५७-१, २
अङ्गरक्षिका अक्लीष्टक
अट्ट
अडागर पत्र अणक्षक
१६६-३१ ३७--१० १५२-२
आगळ अंगरखी, अंक प्रकारनु बखतर अंगीठ, तापणु हाट (?) अहागरपान (नागरवेलीनु) सरखावो गुज०"अणख". 'अणक्ख' 'अदेखाई. अना उपरथी बनावेलु व्यक्तिनाम ( जुओ, १०२-१०मा अणक्ख)
आजकाल अणाथ, अछत, अभाव, खोट
आंधळो (प्रा. अंधल) अवहेलना ओळवद् ओरडो अबोटिया प्यालो
अधकल्ये अनस्ति (स्त्री) अंघल अपभ्राजना अपळप अपवरक अबोटिकाः अमत्र अयोगोबरह अररि अलवडी महिषी
३१४-२९ २४-१३ ३३-१६ ७७-१८, २५ १३७-१७, ३४८-१० २७२-१
२९८-८ २०४-११
अवटु
अवरक अवहीना अवाह अहिफीण आ+कार आमछिटी (?)
२७३.२४ २५४-२२ १००-८, ९ २४२-२९ २४५-१४ ४.२७ २३५-१०
बारणानुपाटियुं, फळी अलवाई; एक-बे मासना
बच्चा वाळी मेंस ओड ओरडो अवहेलना हवाडो, आवाह अफीम बोलावQ आभडछेट
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आयाति
आलम् ( कूटम् आरम् )
इष्टकम्
इलिका
इष्टिका
केशज्ञाति
उच्चाट
उच्चैः कृ
उच्छ्वसित
च्छालू
जागरित
उज्वालित
ड्डाइ
उत्करटक
उखिल
उर् उत्तारक
उत्पाद
उत्पत्
उत्सूर
चदूगर्
चद्दालू
उद्धार
उद्राणक
| १२ ]
१०३ ४
३३-१५-२१
२८-१६
१७-५
३-९
४-१६
३०-१६, २०६-३५, २२९-२१
२५३ १०
५-२
२-१२
३२१-१३
४८-१८
३४-४, २५० २८, २७२-१५
११०-१९, १२५-८
२४८-४, ३१०-१६
१-१९, ३-२८, ५-२३
५४-२४
४६-२७ ९५-११, २००-८
२-२८
१४-२२, ७५-२८, १२९-९ २१४-२६, २३० १३
३०१ २४
३४०-३
२४३-७
६९-५
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आवडे छे
( कूडु ) आळ
अंगीठु, ताप
इयळ
ईट
उपकेशज्ञाति, पोरवाड़ शाति
उच्चार
ऊंचु कर
अंदरथी हवा नीकळी ( ?)
उछाळवु
जाग्यु
उजाळी - घसीने उजळी करी
निंदा ( प्रा० )
उकरडो
खेळ
उतरवु
उतारो
उप
ऊपडवु
मोडु असूरूं
ऊगर
चकी
उधार
गीरवी, अडाणे
( 'अडाणक'ने बदले ? )
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[१३]
उद्वलिता
२४६-२०
उद्वस उन्दिर उपलक्ष् उपवरक उल्लोचन ऊर्वस्थितः सोलगा
सगरी ( सरसावो हिं० डबरी, सं० उद्+वृ०, प्रा० उ०वर } उजड़ ऊंदर बोळखवू ओरडो उल्लोष, चंदरबो, छत ऊभो ऊमो
कचोल कचोलक
काचे कचोळ
काछडो
कछड़क कच्छडक कणवीर
कण्ठ कण्डक कपिशीर्ष कपिशीर्ष
३२-५ ३०५-२३, २४ ३०-२२, २६३-१ २१५-१० ३४८-२७ १०-३ २३४-२४ ११-२४ १४७-१०१ २९१-२५ २११-२४॥ २५६-१७ २५३-१० ३०९-१३, ३३०-१२ २४३-१, ३. ५ ९६-२ ३१२-२७ २५३.१० २१३-७, २१६-३, २.२१ १४४-२. २०८-३० २४१-३ ४ २५-३, ९४.१७, १६८-२१, १८५-१०, २३२-७ ३४६.२९.३० ४-५, १७०-२३ ८४-१२, १७९-१८ ५५ ४ १०१-३०, १०२-१९ २७-६ ९ १९४-२, ३१२-७ १२९ १७
कणेर, करेण कांठो तावीज, मादस्युिं (प्रा० कंडय) फणसलु कांगरो, कोशीशु कांब, कामडी, सोटी, न्याय. न्यायाधीश कांकरो कांत देवळना चणतरनु काम (?)
करणवार, करणवारकारक ककर कत् कर्नाटक
कलंदर कल्ये कन्हरी काका कागद कालिक
काढ फकीर (अरबी) आवती काले कालरी, घासनी गंजी काका कागळ ( फारसी) कालियो
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[१४]
१२९-१७
काणो
काणक कापोती कामुक (कार्मुक) कार्पटिक कार्मण कार्वाटिक कावडि कावडिका कालिक कांबिक
१६०-२८, १६१-१ ३८-२६ ७८-२, ३१५-२. १९६-६, १०,१२, १३६-१२,१५ ।
काम करनार नोकर रखडतो भिक्षुक, कापडी कामण कबाडी, कठियारो कावर
१०७-६ १९०-१
कांसारा:
५२-२१ ३४७-३ १९१-१७
कांस्यताल किरतार कुङ्कमपत्रिका कृतप कुदाली कुरुकुला कुहाडिका
कंसारा (सं. कांस्खकार, प्रा. कंसार कंसाल, कांसाजोड़ करतार, सृष्टिकता कंकोत्री कूडलु कोदाटी अ नामनी अंक देवी
कुहाडी कूको
२३६-१५ ४५-२६ २३६-१५ ११-११ १३७-५,७,८ ५४-३० ४-९,१०६-१२, २४६-२,३२३-११ १९२-२
कुविन्द कुहेडा कूट
कूपिका कूपिक कूपबाहक
१४-२२
साळवी कोयडा कूडु, खोटु ( तेलनो) कूपो, कूडलु कूपी कूडलु ऊंचकनार (१) कुवामाथी पाणी काढो खेती करनार (? केळवद्यु अक कोळीनु विशेष नाम ( कोळीनी अक जात) कोमो कोथळो
केलय
कोकिल
२९८-५, ६
कोत्थलक कोथल
२७८-८. २०८-२९, २०९-१
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कोरउट्टिका ( १ कुट्टिका १). (सूत्र कोरउट्टिका ३१०-१५)
कोकडी (सूतरनी कोकडो )
३१६-१८ २४०-१८ २५-२
कोरकवर कोरणिकार कोल कोलिक कोष्टिका कौटुबिक कौसुभिका
२०३-१४ ३०-५,१६६-२१ २३६-१२
कोरु कपडु कोरणी कोरवावाठो कोळ, जबरो ऊंदर वणकर कोठी कणबी कसुबी बखनो टूकडो (?) ( बळदने शीगडे बांधवानो) पगलु ऊंट वेचवानी वस्तु
क्रम क्रमेलक याणक
खारी
क्षिप्रचट क्षिप्रचटिका क्षीरपूपिका खग खज्ज खटिका खड़ खड़ शब्द खड़ी खनिः खरण्ट खरशान
१७१-८ ३२८-२८, ३२९-४ ९६-१३ १२-६ २९८-२७ ३०-१० १६६-३ ८२-२५,२७ ९८-१७ २५१-३ ९४-२ १२९-१ ३५-११ ३९-१३, १०७.९ ४०.२७ ४०.२८ ४-१६, २२,२३ २८३-२२ ३९-१३
खीचडो खीचड़ी दूधनी पूरी (?) विद्याधर खजवाळवू खडी खडखडाट खडी खाण खरडवु खुरासान ( फारसी)
खरसाणी वणिक खलखलम्
खळखळ अवाज साथे खळ खावु ( सं. खाद्, प्रा. खा) खाद
खा स्वातिका खार (पु.)
३४९-१८ २८३-२२
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(नगरखाल खासरक खित বিবাহিকি ( খিৰাহুতি ) खिलिका खुकारक खुण्टक
१५-२३, २४ ३१६-२२ ५०-२७ २७१-२५ २०२-६ २९८-१० ८५-२०
नगरनी खाळ) खास? विट, भडवो कोलसा ( १) खोली खोखारो लबाड (?) ( नट, विट भने खुटक अवर संदर्भमा ) खेडवु ( खेतर ), हॉकवु
खेट
३०.५, ९१-७, २०६-७
खेल गजवेली गरिका गदीयानक गलटुम्पक गलश्री गल्ल गाछिक गाब्छिका गादह गिरिनार गुब्छनक गुप्तिगृह
गाल
२५४-२२
खेलवु, रमवु ५५-१०
गजवेल ७३-१३
गाडर १३०-१९, १६१-६
गदियाणो १६१-१७
गळाटूपो २०४-१७,१८
गलामा पहेरवानी सेर के मान्य ३४१-७ १२९-८,९
गांछो, वांसफोडो १४७-२७
गांछण २०४,१०-१५
गधेडो (सं.गर्दम, प्रा. गद्दह)
गिरनार (सं-गिरिनगर) ३१४-१२
गूछळ २७-२२
कारागृह (सर०-जू० गुज०
"गोतिहर" ) १५५-२२ ४२.१
तंबू ( उपजावेलु संस्कृत
"गुरुदर" पण अन्यत्र मळे । १८२-९, ३५२-४
गहुंळी. सुशोभन माटे फूल. १८४-१७, ३५१-३०
लिंपण वगेरेथी पाडेली
भात; रंगोली ३१७-२१.२४ १४१-१४, १५, १४७.११, १७७.१० गरोली
गुफा गूडर
गुफा
गू हली गूहलिका
गृहोलिक गृहोलिका
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[१७]
गमाण
गोमाणि गोमाणिका गोलानदी गोस्वामिन गोहरि
२०६-१३, ३२ । २०६-१५ १८५-१०
३४७-५ १७०-२३ २१-१७,५४-३, ७७-२५, २०९-२ ५७-१२ ३९-२७. ४०-८ ६२-२४
प्रथिल प्रन्धि प्रहणक मुकम् प्रास प्रैथिल्यं घटू घटन घटक
गोदावरी नदी (प्रा. गोला) महीपति, राजा घोर, कबर ( फारसी) भोजन वगेरेथी करातु स्वागत घेलु गांठडो, पैसानी गांठडी घराणे मूक्यु गरास घेलापणु घडवु घडवु ते घड़नार
धन
घj
घरटिका घर्घर घसमसाट घाविक घाश्चिका घाणिका घींघणी घृतवर घोटक घोटिका घोलवटक
८८-१३ २४१-४ २४१-५ २८-२२ २१४-२७ २३६-११ ८९-४ १३९-१६, १९२-३ ९६-२९, ९७-४, १६९-४ १३९-१७ २५६-१०
घंटी घूघरा घसमसाट घांची घांचण घाणी अ नामनो अंक छन्द घेवर घोडो घोडी अक प्रकारना पड़ा चडवु हाथे चड्यो, हाथ आव्यो चड ( अने) ऊतर (आज्ञार्थ)
५३-८ १९७-१३,१४,१७०-९ १४१-२१
बट
चटितः चट उत्तर
४४-०९ १६३-१
पटक चटिका
३३०-२२, २३
चकलो चकली
पटी
१५९-१३ २१८-५
चकली चटको
चटक
"Aho Shrutgyanam"
Page #27
--------------------------------------------------------------------------
________________
[१८]
चट्ट
चाटवो
३२२-८ ३२२-६, २२ । ३२२-२१ ३४६.८ २७८-८ ८१-८, ३२४-१.२,५ ३३८-१९,२१-२३ ३४८-२३ २-१९ २१ २७-१५. १०२४ ३१-१५)
। ।
चट्टक चणिचणिका चतुरिका चन्दिका चन्द्रिका चन्द्रोदय चमत् कृ चम्प चर्भटिक चमेंट चवल चाखडिका चाडिका चारि चालनी चारिनी चिकचिक्काय चिक्खिल्ल चित्रकर
चणचणाट चोरी ( लग्ननी) चाँदी, माथामां के शरीरे पडतु नानु चांदु चंदरवो, वितान चमत्कार पामवो, चोंकवु .. चांपवू चीभडु
२०६, १-५ ३९-२६,४०-४ १०२-१७ ७६-१२, १३०-५, २०८-१३ ३४.५ २२०-९ २६२-२ २८३-२३ २००२१, २२
चोळा चांखडी घाडी चार ( ढोरनी) चालणी
चिभेंट चुकिता चुक्कलंडा
६१-५, ३२३-९ १६१-१९ २३३-४,५,६
चकचकवु कीचड, चीखल चितारो ( सर० हिन्दो 'चितेरा') जुओ 'चर्भटिक' चूकी चाफळण, बे मोढा वाळो
__ आंधळो सर्प चोट, मुक्का वडे प्रहार (?) चण चूंटवु
चुणि चुण्ट् चुल्लक चुल्हक चूरिम
१४१-२४ ८२-१६, ३३१-२७ १५२-६ ३२-२५ । ९२-६,७३ ३२१-५.१७
चूलो
चूरमु
"Aho Shrutgyanam"
Page #28
--------------------------------------------------------------------------
________________
[१९]
चेक्षक
१४-२. ५ २७१-२१
चलो
तुलाचेलक
चोक्ष चोपड चैत्रयनि
गण छत्रिका
छन्नम्
छब्बा छार छारपुख छिका छिङ्का छिम्पिका
छुट
१२२-१७
बाजवानु पल्लु १६५-२१
चोखं
चोपडवु ३२०,१२-१४-१५
मूरख, गमार १५०-१२, २११-२४
छाण; १६९-३ छाj २२८-१४ ६-२०, १२-३, १६९-३, २०७-१, छान छानु ३२१-१४ ६२-७, २९०-२, ३२८-२
छाब १४५-९
राख १०१,१३-१४
राखनो डगलो ११४-२
छींक ६७-१५ । ४९,२१-२३
छीपण (कपडा पर छापकाम
करनारी स्त्री) २७-११, २९-१४, १६६-२३ छूट ३५१-३१ छोत. आम्रछोत्तरकं १७१-२३ केरीनु छोतर ५५-३७
छूताछूत, आभडछेद ३१६-२०-२२,
जाहु कपड़े २०२-७
जडेलु २७४-२९
जनमोतरी ९६-२७
ठोठडी
पीलुडीनु जाळं २-१, ३-१२, २०६-१.
जम
'जी जी' करवू १०२-१९
जुहार, बंदन २०४-१७
जमते ११६-२९
जमणवार २०६, ६-१४
नमस्कार, जय जय ३-२२
नमस्कार करवा १९-३, ४, २५-२०
ज्ञानी
छोतरक । छोत्तरक छोति जडं वखं जडित जन्मपत्री जम्पाण जालि जिम् जी-जीक जुहार जेमन जेमनवार जोन्कार जोत्कारं कृ
"Aho Shrutgyanam"
Page #29
--------------------------------------------------------------------------
________________
ज्योतिष्कक
झगझगा
झगटक
झम्पा
झर
झल
झूर्
झोका
टङ्कक
टालि
टीड
टुम्पक टोकरक
वंशटोकरक
टोडर
टोप
टोपिका
टोहन
ठीकरी
ठुण्ठक
वृक्ष ठुण्ठक
डाकिन
डोल्कर
ढल
ढाल्
ढालन
ढंकन
टंकनिका
ढोली
[२०]
१७१-३०, १७२-१ १५८-९
४-२१
१२९-२५
३०.६
१७१-२४
२०२-९
६४७
४, ६-११
१०७, २-३-८
३६-२९
१६१-१७
१३८-२४
४५-२५. ३५० - २३
२५७ १-२
२. १२-१४
११०-१
३०-२२
७०-१०
२०६-२२
२०८.९
१४५, १९-२२
७७-१२
१५८-८, २३६-११
४-८
३५०-४
,२-२२
"Aho Shrutgyanam"
जोशी
झगमगवु
झगडो
( सिद्ध ८-४-४२ उपरनी
प
etarai "झकट" अवारूपे आपेढोछे)
कूदको
झरवु
जळ, दाह थो
झूरवु
झोळी
सिक्को (सरखावो गुज० 'टको'
बं. 'टाका', सं. टंकशाळा. )
टाल
ती (देश्य 'ते')
( गळा ) पो
टोपलो ( हिन्दी 'टोकरा' ) वासनो टोपलो
तोडो
अक प्रकार शिरस्त्राण, टोप
टोपी
टो ते, पक्षीओने दोयो करीने
चाडवा
ठोकरी
छ
झाडनु ठू ठु
डाकणो
टोकरो
ढळवु
ढाळबु
ढाळ
ढाकणी
दिल्ली
Page #30
--------------------------------------------------------------------------
________________
ढोलू सटी
तडफडायमान
तनुगमनका
सप्ति
तमलंगक ( १ ) लंगक (?)
तम्बोल
वर्णक
लहट्टिका afaaiतो रणबन्धन
साजनक
तुङ्गटिका
तुरी
तुछी
श्रपु
पुस्री
दण्डक
ववरक
दवरिका
दारिद्रत्व
दीनार
दीपवर्तिक
दुर्गा
देवगृह
द्रह
घटी
घाटी
मीरा
[२१]
२५-२६, १०९, २८-२९
१६५-१९, २५०-२८
१०१-१
२८-१
२७१-४
२३३-२९
२९९-२
३-९
३-१० १
२९-२३
३६-१७
१९०-२
२००-१७
३४६-४
११२-८
२२४-४
११६, ८-९-१३-१५-१६
१३०-१९
१०७ ४
२ २८
७०-२६
३१२-१६
७३-२३, ८३-३ ६७-१०, २१३-१८
de
" Aho Shrutgyanam"
ढोळवु
तोफानी नदी, दुस्तटी,
तडफडतु
जमीन पर वहेता वरसादना पाणीनो नानो प्रवाह
चिंता, पंचात
(प्रा० तत्ति, जू. गुज. ताति )
'तरंग' के 'तवंग' नामनो किल्लानो बूरज जेवो भाग (?) तंबोल (सं. ताम्बूल )
बाळढो
तळेटी
तलियां तोरण बाँधवां लाजो, चाबुक तंगोटी ( नानो तंबू ) aurat audit अंक साधन
( देश्य' थूरी' 'तूरी' )
तुलशी
कलाई
२१०-२७
१६२-१४, २९५-४
९६ २
१८६-३१
३-२१
८८-७
दीवेटियो
१७२. १४-१६२००-२५, ३१२-३ समळा
देरू
घरो (सं. हृद )
घडी, वजन अफ माप
काकडी
हो, मार्ग, पदंडो
छोरो
दोरी
वळदर, दळदरीपणु ओक सिक्को
घाड
घीर (स्त्री.), धीरज
Page #31
--------------------------------------------------------------------------
________________
[२२]
धुरि
४४-२६, १६५-२६
मौथी आगळ, सौवी पहेली (सरगुज. धरबी) धूळपोयो सतत धारा
धूरिधावक धोरणी धौतक धौतिक ध्रबक नक्र नवडाकारेण नाटक नाणावटी नात्रक निन्दन निर्धाद निःश्रेणी निःसरणी नेजक नौविक्ष पक्वान्न पटकुटी पटह
२३९-७ १००-१० १६२-२२ १७, १५-१६, ११९-४, ३४६-१ २९८-१५ १५२-८ १०.१४ ५३-२४ १९१, ९-१० २२-७१३४-७,१३५-१४ ३०-५
धोतियु धूबको, धुवाको नाक नवडाना श्राकारे नृत्य नाणावटी मातरु, सगाईसम्बन्ध नींदण करवी ते (सं. निर+दो) काढी मूकवू नीसरणी घोची वहाणवटी पक्वान, मिष्टान्न
२४६-८१
२४६-९ २४३-१३ २४३, १७-२९
४९-१
तंबु
५३-२२, १६७-२३ ३५-१४, ५५-२१
पडो, घोषणा करवानो ढोल पाटो पटोळ
पटेल
पण
२४६-४ २.१
पतगह परिणेत परिधाप परिवारित पर्षद् पाखण्डी पानीयहारिका
४-२४ २११-२७
पण, प्रतिज्ञा पात्र. वासण परणेतर पहेरामणी करवी परवारवु परिषद् पाखण्डी, ढोंगी, धर्मयी छेतरनारो पानीयहारी पाणियारी, पनीहारी शिकार
२-१७, १६८, १०-१२.! २१०, २६-२७ २९-२०, २१९-८
पापर्षि
"Aho Shrutgyanam"
Page #32
--------------------------------------------------------------------------
________________
[२३]
पार्श्वे अकस्मिन् पार्श्व पालनक
१-१२, ३-१८ ४, ११-१९ २-२४ १६९-१५
पित्तल पिष्पल पिपलवृक्ष पिप्पलाद पीठक
१५८, ४-६ १६६, ७-८-९ ८३-२४
पासे अक बाजु पारणु ( बालकने सुबाडवानु) पित्तल पीपको पीपळाने झाड़ पिप्पलाद ( विशेष नाम) पीठं
पूजारक
पुजारो
पूळो
पृष्टि
पीठ
पृष्ठि पृष्ठवाह
१९२-२ ३४६-२० १४७-१८,२९९-५ ८६-५, १००-१४, २१५-१६ । ४२-२ ९३-८ ८४, २३-२४, १३४-९ । ५५-१९ ३३९-२० ९१, ७-१३
बन्द
पेटा
पेटी
पेटिका
पोतिका पोधि पोसि
पोलब पोटलिक पोट्टलक पौषधशाला प्रगे
१४.२२ ३४३.९ १८४-२४
१९३, २५-२६, २०३-२१
प्रति ( खी. ) प्रतिकार प्रमाडि भूप प्रमिला प्रस्तर प्राधूणक प्रातिदेहिमक प्राध्वरमार्ग फाटक
पोतडी गाडु हाकवानो शब्द (सर० पोइस पोइस्र.) पोल पोटलु उपाडनारो, पोटलियो पोटलु पोशाक ( उपाश्रय) वहेली सवारे, पहो फाटता, (जूक गुज०'अहि') हस्तलिखित प्रत पडियार, म्यान परमी राजा निद्रा पथरो परोणो, अतिथि पाडोशी पाधरो रस्तो
आंटी
५५, १६.२० ३२ २२ ५-२४ ३४०-२ ३२२-८ १२९ १० २१४-१३
"Aho Shrutgyanam"
Page #33
--------------------------------------------------------------------------
________________
सूत्र फालक
फुलक फेत्कार
फेर
बजेरिका बर्जरी
बाउलक
बोठ
बाहिरलो
बाहयाली
बिलाडिका बीटक
青海湖青堂書
बीबी
बुस
बेडी
बोत्कट
ब्रड्
भट्ट
भडू
भण
भण्डन
भरटक
भरडक
भलायित
}
भखकधर
भस्त्रिका
भाण्डागार भाभी
२००-१८
२६, १९-२० २३-२४
६१-१०
२५३-१०
[ २४ ]
१०९-२८
१०९-२९. ११०–१ }
५३. १४-३०
१८६-३
११४. ३०-३१
२४७ २०
१३९. १८-१९ ४८, २६-२७-२९
९५–११, २०९, १६-१७ }
१८२-१३
२७४-२०
२३३-३०
१४७, १८-१९-२०-२१
२७१-३
२८८-१९
५०-२७, १६६-२१
६८-२६
२६४-३
२३४-२५
८३, १०-१३
२०८-४
सूतरनी बांटी ( सर० 'फाळको' )
फूलु
फुफाटो फेरवबु
बाजरी
"Aho Shrutgyanam"
बावळ
बांठियो, वामन बहारो
घोडाने खेलाबबानो मार्ग
( जू० गुज० 'वाहयाली' 'बाहि याली' पण मळे छे )
बिलाडी
(पान ) बीड
बीबी (फारसी) भूसुं,
फोतरां
होडी
बोको
हूड, ठोंड
२५-२०, २०३-१८
६८ २२
१७८, २५-२७, २५९-४, ३५१-२१ भरडो ( शैव साधु के पुजारी · माटे कुत्सावाचक संज्ञा. )
१७८-२६
बूढ
भाट
reg, युद्धमा अंक बीजा साथै भद
भणवु
मणि, युद्ध ( प्राकृत )
भळाव्य
भिस्ती
धमण
ग्रंथभंडार
भाभी
Page #34
--------------------------------------------------------------------------
________________
भाम्भिक
भारपट्ट मारिका
भिज्ञपाटी
भूतः
भूतस्थानक
भ्रातृज
मलिका
मखरी
मठवासनिका
aaerfast
मठी
मढ़
मदि
मढी
मण्डू
मच
मत्स्यबन्ध
मत्स्यबन्धक
मदन
•मध्ये
मन्द
मर्कोटक
मसीत
मीतिका
महानुभाग
मrfo
मात्रिका
मात्मिक
मान्
मानक
माम, मामक
मार्ग
[ २५ ]
१६५-१८, २०
२७९-३, ३५१-३०
३१४-२५
८९-२१
२ २५
२-२७
१०२-१९
८३-५
३०६ १५-१६
१६५-२२
१६५- २८
१६७ - १५
२३२-११
२५१-१०
७१, १६-१७}
३-०९ ६-८
२११, १२-१३
१०९, २-४
३३०-७
}
}
६, ९११-१२-१३, १७६- १५
३–१९, ६-२०
१०२-१४
३१८-२५
२-२३, ३४६-२८
२, २३-२४
११-१३
३०५, १३-१६
२०३ २८
}
१४०६, ३०४, १९-२०
१३२-१
३१-४, ८५-१२, २९८-२८
२०६ ६
१७-१७
"Aho Shrutgyanam"
'डोली' अंट के डेट, चांडाळ ( सं० अम्भा ) मारवटिवो पाडो.
भारी
खुटार भोडोनुं घा
बुत, मूर्ति ( फारसी )
देवस्थान
भत्रीजो
मांची
( कूकडानी ) मांजर
मठवासिनी
मढी
मढवु
ਸਫੀ
( सं. मठिका ) nisg, गोठव
मातो
माछी
मोण (प्रा. मयण, सं. प्रदन )
onl
मांदो, रुग्ण
मकोडो
मशीद ( अरबी )
महानुभाव
माछी वर्णमाला, मातृका
माही
मानता राखवी
माणु
ग्रामो
मांगदु
Page #35
--------------------------------------------------------------------------
________________
मालक माटिक
मालिका
माहिलओ
मिल्
मिष्ट
मीणाकाराः
मीर मुकुटवर्धननृपाः
मुक्त
मुत्कल
मुद्गल मुबाण
मुळाणक}
सुशलमान
मुष्टि
मूटक
मूढक
मृत्स्ना
मृष्टा
मेल
मोचिक
मोटू
मोटिम
मैनिक
यानपात्र
युज
युगन्धरी युगान्धरी
रक्ष
रक्षपाळ
रक्षा
[ २६ }
३२७-३०, ३३०-२३
६६, १२-१३
६६, १२-१३
११४-३०
१२-६
२३९--१३
१८९-३१
१४३-१५
२७९-७
४२-११
५-१०, ८२-२७
१६३-१४, २१८-२१
४०-२७
२-१२
३४७-३
५५, ८-३०
४५-९
६, ३१-३३-३४, १९० - २३
५०-१३ २७४-२०
३-१४
११३-६
मोकळं, छूट मोगल (तुर्की)
२,१७-१८-२०, ३४६-१५, ३४७-६ मुल्ला ( अरबी )
१६६, १४-३०
१५२-८
१५२-२
१४०, ९-१३-१५
५-२२
२५-२०
२८-३०, २९-१, ३१८-१९
२००-२५
३१-२०, ४१-३
२२३-३
१०७, १२-१३
माळो
माळी
"Aho Shrutgyanam"
माळण
मलो, अंदरनो
(नै) मळवु ( प्राप्त यवु वा अर्थमा)
मीठु
मीनाकारी करनारा
सरदार ( फारसी )
मोडबंधा राजा
( जू० गुज० 'मण्डावा' )
मूलु
मुसलमान ( फारसी )
मूठ
] मूढो, सो मण
मादी
मीठी
मेळ
मोची
Hosa (हिं मोना ) मोटाइ, मोट मालीमार
वहाण ( प्रा० जाणबस )
जोडालो, सहित
जुवार
धूसरी
राखवु
रखबाळ
राख
Page #36
--------------------------------------------------------------------------
________________
रटू रन्धनी
रवारिक
रब्बा
रहू रसवती
राउळ राजपाटिका
राष्टि
राटि
राणिमा
राव
रिं
रिन्छः
रीरी
रुत
रोक्य
रोक्नद्रव्य
रौर
लक्ष्मी
गू
लग्न
उगाप् मधुनीति
उपनश्री
कप्पनश्री
बन
कनक
सिय
बिम्ब
बिकासुः
[२७]
४२-२३, १३४-१६
१२-३
९२-१२
२४५, १७-१८, २७१, २१-२२
१५१-२६, २१२-९
८-१२, १६६-४-५- १८-१९ ५४-२९
७१-२४, २८०-८
३२४-२०
२९८, २३-२८
२३४-२६
८५-३०
१६९-१५
२३, १-२-३
३५१-८
७४-२८, २०८, २९-३०
२०९-१, २४३-२७, २७८-८
२४३-६
७२-२६
४७, ३-७-८
२८२-८
४, ११-१५
३४४-२३, ३४८, २३-२६
३४८, २३-२६
१०७-१२
२०९-७
१८६-१७
२०६, १४- २०-२२
२४६-८
१२९-२६, १६९-२५
२८३-२३
६-१३
५०-५
}
"Aho Shrutgyanam"
रडवु राधनारी, रोपण
रवारी, ऊंटनो रखवाळ
राम
रळबु, कमावु रसोई
राजकुल, राजदरवार
राजा फरवा नीकळे ते, रयवाड़ी
राड, बूम
झगडो,
राजत्य, राजपद
राव
कलह
छ (सं. ऋक्ष ) पित्तल
क कपास
रोकडु
रोकडु द्रव्य, रोकड़
धन
भिखारी, निर्धन
धन
आग लागबी, खळगवु
आग बागी, चळ
लगाबवु
लघुशंका
लापशी
हे
हेणु
तपस
श्रीमडो ( सं . निम्ब ) बेबानी इच्छावाळो
('मा' 'केवु'नु' इच्छादर्शक वि०)
Page #37
--------------------------------------------------------------------------
________________
१६४.५
लोऊआ कोम्बिका सेखशाला
सशालिक बोहक लोमासक लौहडिक
४४.२८ ३३६, १-६-८ १६४-१५
वरणि
बणन वधूटी वनक बनकपुष्प पन्तोल
९६-२ ३४.११, २०७-२६ १२०-१३ ७४ २७ ३४६-२९ ७-३०. ८८-३, १६४-१२ २४३ २३ ३-१९, ३-२६, ४-६
लूंट लूछदूं लेडआ कणवी निशान निशानियो छोटो लोमडो, गेंकडीनो नर लोढानो सिजो (!; भोछामा ओछो किम्मतनो मिठो वण (देश्य 'बवणी' - कपास दे० ना० ६-८२, ७-३२) वणवुते पुत्रवधू वणकर वणनु फूल वंटोळियो बाट वाट (मर्ग) पाठवी ते बधाक्वु ते (वीवो) बोलबको ते सारु, उत्तम, सरस पार्छ बर्बु
वर्मभंग मधय
२-१३. २.२०, २-२९
वळ
वसहिका वस्करिका बाहिका वाटक वाटी
२६९ २२ ५ २२-२३-२४ ५४, २-३, २४३-५, २८१-५० २९०, ११-१३
उपाश्रय (सं. वसति, प्रा वसहि) बखार (सं. पस्कर) वही बाडो वाडी, बगीचो वारो वारीमा, वखतमा बाधर अक यंतर
८-१२ ५४-२९
वारके वाधं बालीनाह...
"Aho Shrutgyanam"
Page #38
--------------------------------------------------------------------------
________________
बास निका
बाह
बाहल
बाहनिका
वाइरा विगोपू बिचर बिचा
विटालु
बिण्टनक
विध्याप्
विवक्ष
विलगित
frका
विश्वलप्रिय
विस्तर
चिहर
विशोषक
वृद्ध वेळाकूल
व्यक्त्या
व्यापार
शकुनिका
शण्ड
शण्ठ
शव
[*]
१४-७, २३-४, ९८-९-१०-११-१२, १६९-२२. १९६-१८,२३०, १५-१७, ३.६-१०
२८-२६, ९६-१६
१७२-२७, २४४-२०
७३-२०
६१-२५, ६२, २-१-६-११-१६
८५-७, ०९-२३
१२७-१७, २४५ - १९, ३२६-२१ २१५-३०
८४-२८, १७७–१
१६५-२८
५५-२१
५१-६, ३४८-२६
८५-२९
२१५-४
२००-२१
२१५, २४-२६-२७-२९-३१
८४-८
६-२३, १०४-२७
३१४- १०, ३१६, १८-२२
५० १
४, १-३-४-७
५-२१. १४८-५
१६३ २३
२३८. ७-८
४५-२४ ३५०-२२
५८-१ १४१-२
१६-१०
२९५-५
}
"Aho Shrutgyanam"
बाँसकी पैसा राजवानी )
छेवर
वहाण
मोजबी
( जू. गुज. 'बाइणी'. सं. उपानह+ इका, प्रा. वाहणाओ ) वार, मदद, कुमक गोव
Baeg, छूटुथ (हिं. बिछडना)
चाळ, अधवच
बटाळ करवो, बदलाव
बटणं, बेष्टन, वीटेल ब
बुझाव
बिलखु, छोभीलु
वळग्यु
वसूकी गयेलो
बीसलप्रिय नामनो द्रम्म
भपको, आटोप ( प्राकृत 'विछज्ञ' )
बोर
थे नामनो नानो सिक्को
( जू. गुज. बीसा. सर. अर्वाचीन प्रयोग "वीश वसा” “स्रो बना") बहु मोटुं (हिं. बढिया ) बंदर (तेमाथी गुज. 'वेरावळ' ) वीगते
वेपार
समडी, समळी
सांड, सढि. (सं. षण्ड. ) शब ( सं. शब. )
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________________
शाडूवल शालापति
शिक्षय्
शिलकुट्टक
शिलापट्टकः
झुंडक
शुण्डलक शृगालः श्रेष्ठी
शेर
शोधि
श्राद्ध
श्राद्धी
श्रीकरी
वन
श्वभ्रपाव
षष्टितन्दुल
घुषद्रम
काळम्
काळे
संकुल
सब्जीकृ
संडक
सत्क
सन्दूरिक सर्प
सन्धिः (श्री) afoet
समा (बी. )
समेति
सम्भालू
संमुखं
सरट
सरड
सरढ
[❤]
२४-४, १०७-२६ १३६-२८
३१३, ५-७
१५५-१५
५१-२६
३१२-१
१३९-१६
४४-१७
३०-४
१३८-१५
५-६
३१४-१५
२३६-१३
७२-२८ ७३-१, ७५, ८-९
७८ - १४
११-१५
३२८, १६-२४
३२-२३
१४-२२
२१७-१२
३३-२२, ११५-१३, ३५०-८
२०-२९
१०८-११
३५० १९-२०
३५०-१
८०-२५, ८१, १५-१६-१७
४-२२
१०३-३
१७-२४, २७३-२३
२-१३, ६-१८
६८, १५-२२-२५-२८
" Aho Shrutgyanam"
छीलो (सं. शादूबल )
साळवी
शीखeg
सबाट
सबाट
सूडलो
सूडलो सगाळशा शेठ
शेर
शुद्धि (प्रा० सोही )
श्रद्धालु, जैन श्रावक श्राविका
ओक जावनी पाळखी
नरक
नरक पड
साठी चोखा
गळीरंग्या शियानु घरेलु
प्रभावक नाम
बलु
मोकळं
अंगुठो अने पती नांगली
नु
सदूरियो साप संधि
बाजची मादा, श्वेनिका
( सर० - गुज• अमळी )
सम, सोगन
आवडे के संभाळ
सामुं
सरो, काकीडो
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________________
दिवाने आम
५५-४ ३४५, १०-११-१२
शेळो
सर्वावसर सहेलक साकेतनपुर मातूमा माधु सारा
१८५-१३
साकेतपुर सायचो शाहुकार सार, सारसंमान
सिंदर
सिन्दूरिकः सर्पः सिमितिमायमान सीमाल भूप
६९-२६, ९२-२२, १०८, २०-२२, १३०८ १९५, ९-१० ४५-२१ २७१-४ २५७-१२
सुकुमारिका
१०४-८
सुखासन
सुरक्षा सुरत्राण सूघरी सूचिक सेजवाल सेतिनका सेर सेरिका सेलहस्त सेल्पहस्त
५३-१३ २, ११-१५, ३, १-३ १५९-१३ १९२-३ १८२-२१,२३६-१२ ८५-११ ८७.२३ ६५-११ ९६-१९
सौंदर मीदूरियो पाप समसमतु (अप० सिमिसिम् ) सीमाडियो राजा सीमाढा पासेना राज्यनो राजा मुंवाही पाखी सुरंग सुलतान (अरबी) सूधरी सइ, दरजी अंक प्रकारनी पालखी सेतिका, अंक माप शेर शेरी दंडनायक ( सं० शस्यहस्त, प्रा०-सेजहत्य अप०-गुज०-'शेलत') खजानो, (सं० शेवषि) सोनी (सं० सौवर्णिक, प्रा० सोनिन ) खांधियो थीनु घो ढांक
९६-२१ ।
सेवधि मोनी
१९१-६
स्कन्धिक
स्त्यानघृत
९६-२७ २५५-८ ४४-५
स्थग
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________________
२६६, २५-२० २६०, १-.
पाननो राटदो संचकनार सेवकालवाहक (जू. गुज. महबाइच) ( 'स्थगी बाटवाना अर्थमाहोर से-जेमके 'तांबूलस्थगीपर'. नहीं श्रेषा सेवक माटे वपरायो लागे छे)
स्पर्धक (न.)
)
पादियु के बीजो कोई सिको (१)
स्फेट
२३, ४-६-७,८५-१२ ११४-२६, १६८-१७ २४०, २४-२५ १३-८,८३-४ ३२२-७ ५-१४,६-१४ २१३, १५, २८, २९ २०१-२५, २०२, १-३
स्वक
हाड (हिटि)
फेड सगुं हाक मारीने, धमकावीने काढj हज, मचानी जात्रा (अरबी हेड, पगमा जहाती लाफडानी बेक जातनी देरी ( श्रृंखला) हगवु होरमजनो टापु (फारसी) हाल मा हन
हरीमजद्वीप हल्ल मल्लू हल्ला (स्त्री०) हाडि हादि हिण्डू हिण्डोला-खटवा हृदित
३२३-८ ५-२२ ३००-१८ ३००-१७ २०२-१४ १३८-८
हीवु, ममद् हीडोला खाट हग्यो, मलत्यागयों (सं.हदित)
१६८-८
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________________
कपरिक
प्रषि क
प्रामहट्टका चुरक
तक्र-चुरडक
दि
डीत्कारय्
जियालिक (1)
परिका
त्राहिक
इण्डालक
[३]
( ? ) संदिग्ध अर्थवाळा शब्दो
१५२-१८
२०५-२५
१७, २३-२४
२१४-१७
५०-१३
२७४-१०
२२१-२०
२३३-२९
१७७, २०-२१-२४-२५
५९, १४- २०-२१
"Aho Shrutgyanam"
ओक प्रकारनी गुप्त नोपपत्रिका ( राजशेखरना ' प्रबन्धकोश'मा १०, २७-२८मा “परिका" अने २४, १९-२०, २५-२६, २५, १-२ मां "कपलिका" छे. )
शोक्य उपर ते नडे नहीं ते माठे नवी पत्नी तरफथी गांठ बांधवी ( सरखावो 'प्रबन्ध चिन्तामणि' १०४ - २९, १०५ -४. )
गामनो मुखी ( ? ) मोरियो
छानो घढो, के मोरियो (?) 'afg' one (1)
( "छनिद्रुम इव" ) मढकाववु, स्पर्श करावी. (०सर. प्रा. "ठिक" = स्पृष्ट. ) ] ( सर्पने भारवा माटेना औषधिप्रयोगता संबंधमा 'जिल्हयाल्लिक' उपायनी बात छे )
टोपी (१)
( वरसादना जलप्रवाहमा नानो बालक कागळ वगेरेनी जे होडी सरावे ते माठे "टुपरिक।" प्रवाहम बहेती मूकबानी बात छे.) रोपो ( १ ) (मञ्जिष्ठत्राहिकानि मजीठना रोग १ )
सोनीनी भेक जात (1)
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________________
दशार्ध पूजा
निछारक
पतीयानकाः पतीआनकाः
पदक
पर्याप् ( के 'पर्यवसाय' )
३८
१३७-२६
[ २४ ]
२४०, २३-२५ २७२, १-७
}
२४७-२५ ( १ ) २८-११, ११२-७
"Aho Shrutgyanam"
प्रहार करबो के थू कोने अपमान करवु (?) ( अपमान करवा माटे माथा उपर "दशार्धपूजा" कर्यानी बात छे.)
घरनो अंक भाग ( १ ) ( कुशीळ स्त्री घरमा 'निहारक' मा जत पण बीओ, ज्यारे नदीना खूणाखचिरा पण जाणे ओवी बात छे.)
जेमनो जमीनमा भाग छे के जमीन के मन्दिर उपर परंपरागत भोगवटानो हक छे तेओ ( अंक संदर्भमा जमीन उपरना हकनी बात छे, बीजामा मंदिर उपरना हकनी ). काकडीने 'पदकवृता' कही छे. जेम तेम करीने समजावु [ अक संदर्भमा पिताने परामे समजावी चंदनकाष्ठनु गाड भरीने वेपार माडे परदेश जवानी बात छे. अन्यत्र पति, सासुखसरा अने भात- पिताने गमे तेम समजावीने पतिनी साथै परदेश जवानी बात छे "पुरातन प्रबन्ध संग्रह" ८२, २०-२१ मां पण जेनुं घर बळी गयु छे, तेने लोकोओ समजावी लोधानी वात द्वे. सांडेसरा अने परीख 'पर्य वस्थाप्' होवानु सूचवे छे. ते मूळनी दृष्टि कदाच विचारवा जेवु', पण जोडणी अहीं पण 'पर्यवसाय' छे ।
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________________
[३५]
१४५, १०-११
पल्लयन पल्यवन ।
पादशीर्षिक
२७४-१०, ३४६-१
प्रक्षाटन
३४२-१६
प्रथमालिका
१०४-९
बारदान (१) (सोनु भरेली गुण खाली करीने बाकीना बारदानने "स्वर्णपल्लयन" कह्यं छे) पगना मोजा के पगे पहेरवानु कोइ वस्त्रविशेष (१) ( अंक स्थळे पराजितने 'पादशीषिका'थी स्पर्श करीने मानभंग कर्यानी वात छे. अन्यत्र पगरखां माग्या पछी 'पादशीर्षिका' माग्यानी वात छे ) ( नख ) कापवा (१) . (नापित शेठाणीना “नखप्रक्षालन" माटे आव्यानी वात छे.) पहेलु भोजन के सवारनो नास्तो ( ) (विवाहमा बाळकोने सवारमा सुंवाळीनी 'प्रथमालिका' आप्यानी वात छे.) जैनसाधुनु अक उपकरण (प्रतिलेखना करती वेळा 'प्रशकिका' उतारवानी अने उंदर 'शिक्किका' खाई जवानी वात छे) बालिका ( ? ) (योगि'बालि' स्त्री स्थाप्यानी वात छे.) अडवु, मूर्ख { पोताना गरीव भाईओथी लाजती श्रीमंत बहेन तेमने 'गादह'गधेडो अने 'बूची' अवा नामे ओळखावे छे.] भूतिओ वंटोळ (१) (वंटोलने 'भूतेल' कहयो छे ) देवीपूजा मादेनु आसो सुद नोम सुधीर्नु पर्व, नवरात्र.
प्रशक्षिका शिक्षिका
१६७-१५
२०४, १०-१५
३४६-२९, ३४०-१
महिणिम पर्व । महिणिकाहब पर्व ।
१९, १३-१४ २७२-२
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________________
[
]
रडलाणी
५४, १२-१६, ५५, १२-१४
बोष्टिक
२४२-२७
वर्तुक
४४,५-७
वर्तलक
१२५-२६
(योगीनी सिद्धि बुद्धि मामनी शिष्याओने "राणी" कहीछे) मेक नानो सिको. (प्र० को ९७-२६ मा पणा ा शब्द बने बात छे साडेसरा भने ठाकर ते "कोहडिया"नु संस्कृती रूप होवानुं सूचवे छे) नानो गोळ वाटको (१) (८-६ मा कानमा पाणी भरेलु 'ववेक' भूकवानी बात है. १२५-२६ मा वैमरेलु'ब' कई जता तेमांबी तेलना टीपा पड्यांनी वात छे. ४४-५ मा सोपारी नेवा आकारनी पर ' वसकर कमानी बात छे. मा उपरत प्र० को० मा पो भरेका बकानो निर्देश छे) बाळ (1)[माछा माटे 'वलयमुख' मांख्याने तेने तोडीने ते बहार नीकली गयानी बात
१०१, ९-१०-१०
विचमी
२४०-२५
शर्कराफल शर्वरी
३४२-२५
(१) [ लाकडीने 'पक्षकवृता अने 'विचणीमया' कही छे । वीजोह (१) साधुने बहोराववानी कोई खाद्य वस्तु (?) जुओ०-'प्रशक्षिका करोहनी किंमतनी शणगारेगी साड़ी (प्र. चि०८१. १२-१३ पुरा०प्र०४०-२४६-२८)
शिक्षिका शृंगारिकोटिशाती
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________________
[2]
संचारक
२३३-१०
खाकूवो (१) [ गुस्से थईने पुत्रने अशुधि संचारकमा नाख्यानीअने तेमाथी काढीने पाणीथी नवराज्यानी बात छे. ३० चिं. ३४.२०-२१ मा माघ पंडितनी समृद्धि वर्णवतां तेना 'संचारक'न भूमितल काचर्नु होवानु जणाव्यु छे..] पलाटेलु (?) ( 'असमारित' घदन खेतमा खेडवा माटे हॉकवानी वात छे) (तेलनो) कूपो ? (1)लूटाराओ सोने उपारी गया तेने छोडाववा चारसो स्फरक वाणिया मान्यानी बात छे. 'स्पर्धक' ने बदले दशे]
समारित
१६६-१०
महोलिक () करक
३४-२२
(३) केटलाक नोंधपात्र प्रयोगो
ध्याकरण द्रष्ठि प्रबन्योनी भाषानी रेट लीक सदणो अत्यन्त सुविदित छे, परोक्ष भूनकाळना रूपोनो प्रचुर प्रयोग; 'कायु' विगेरे माटे 'जगो' बगेरे; 'बोल्यो' माटे 'अवग', 'बोले छे' वगेरे माटे 'जम्प ना रूपोः 'मेनु' माटे 'ला'; 'विचार' माटे 'ध्यै', 'लागवु' माटे 'लग्'; मूकवु' माटे 'मुच', 'काढदु' माटे 'कर्ष', प्रेरणार्थ प्रत्यय 'बाप'नो व्यापक वपन्न. ('प्रबन्ध पश्चाती'मा 'कयापू' 'कष्टाप्' 'पटाप' 'छोटाप'-कवार दो सीधु गुजराती 'छोडव' 'मंडाप्' 'मुत्कलाप' बगेरे) गुजराती बगेरेना संयुक्त क्रियारूपोनु प्रतिबिंब जेमके '
गन्नस्मि' १७८-२७ 'जाउं छु', 'उम्पमस्मि' १७४ २९ 'बोलु छु' गच्छन्न स्ति' ११६-२८, 'नयन्नसि' ४२०-७ कियमाणोऽस्ति' ९७-१०, 'प्रोच्यमानमस्ति' १६६-२६, 'स्थाप्यमानास्ति' १६७-११, 'वमन्नभूत' ८१-२८, 'नमनभूत् १०२-२ वगेरे.
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________________
[३८]
क्रियारूपो परत्वे आवी केटलीक उपर उपरनी बिगतो नोंची शकाय. नाभिक विभक्तिना प्रयोगोमां पण गत्यर्थ सप्तमी ( 'समीपे गतः' 'प्रामे गतः' वगेरे ); चतुर्थी माटे षष्ठी ( 'सुरत्राणस्य प्रोक्तं वगेरे) पंचमीने बदले सप्तमी ( ' कस्मिन् पुरद्वारे निस्सरामि' ) ३०- ६-७, 'मध्ये', 'पार्श्वे', 'पश्चात्', 'अग्रे' 'परि', 'स्थित' वगेरेनो अनुग तरीके प्रयोग; 'बहिर्गमनाद् अनु ' 'देवतापार्श्वत् स्थापयामास जेवामां गुजरातीना विभक्तिसम्बन्धो प्रतिबिंब वगेरेनो निर्देश करी शकाय सार्वनामिक रूपने घुarater' क ' प्रत्यय लागीने थयेलु' 'मयका' (=मया; ३ - २३) जूना समयना आवा अनेक रूपो अंकमात्र अवशेष छे. आ बधा करता वधु नोंधपात्र छे केटलाक गुजरातीमाथी उंच केला रूदिप्रयोगो. ते 'पडवु'' 'लागवु' 'काढवु'' 'चढ़वु" 'मांडवु' बगेरेनी जे अनेक लाक्षणिक अर्थछायाओ गुजरातीम विकसेकी छे, तेनो संस्कृत 'पत्' 'लगू' 'कर्षं ' 'चटू' 'मण्डू' वगेरे उपर आरोप
करी देवामां आव्यो छे. अने केटलाक तो आखाने आखा वाक्यो ध्वनिफेरे गुजराती वाक्यरचना रजू करतां देखा छे. अहिं नीचे अक नमूना रूपे यादी आपु छु.
पधार
२ ३ ४ ५
पादौ अवधार उत्सूर कृ. उच्चैः कृ क
६
1
मोड करवु 'ऊं कर बहार काढवु भोमाथी काढवी हाथ चडवु ara चढवो छूटं थयुं ear देवराज्यो धीर आपकी
भूमध्यस्थकर्ष हस्ते चट् ज्वरः चट मुत्कलं जातं उत्तरको दापितः धीरा दा शिक्षां दा पृष्टि दा द्वारं दत्तवान्
19 ८ ९ १० ११ १२ १३
२३५-१ २१४-२६ १०-२ ५-२४ १८९-१० १२-१२, ८६-४ ८४-२८, १७८-३ ५-१० ५४-२४ ६७-१० ३९-१९ १४२-१३ ३४८-७ २०८-१७
शीख आपवी पीठ देवी वाणु दोधु
१४
खातर पाडवु
खात्रं पातयू दुष्कालोऽपतत् संख्या पतिता
१५ १६
दुकाळ पडयो
३१-२८ ६३-६
१७
टालिः पतिता
१०७-२ ५३. २२, १६७-२३
१८ १९
पट्टकं बन्धू कoढकं बन्ध
२११-२४
२०
प्रामः भग्नः
२१
कुडा भग्नाः गणित मंडितानि
२-२२ ५४-३३ २१४-१६
२२
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सोज पडी टाल पडी पाटो बांधवो steel afrai
गाम भांग्यु कोयडा भांग्या गणना मांड्या
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________________
[३९]
२४ २५.
२६
३६ ३७
शकुन मान् वरं मागय् ग्रहणके मुच शून्यां मुच उद्घाटं मोचय मुत्कलो मुच् पठितु मुच नंष्वा या करौ योजय । हस्तौ योजय । रक्षा लगाए हस्तं लगय् छोतिः+लग गालि+म् बुमुक्षा लग सुषा लग पापं लग द्विप्रहरी लग वेळा लग कर्तुं लग कारयितुं लग बहनकं ला पश्चात् बल चुल्हकं संधुझम् जिह्वां संभाग्य उध्व स्था चामरढालन गलटुम्पकदान चंदिकरुजन चुन्हीसंधुक्षण नालिकेरस्फोटन 'स्वं मस्तकं खजय' सपरि या पश्चाद् या . ..
३१२-४
शुकन मानवा ३५-१०
वरदान मागवू ३३५-१९
घराणे मूकवु २००-५
सूनी मूकवी १९३, ४-५ उघाडु मुकाव २१८-२१
मोकळो मूकवो २०७-२५
भणया मूकवो ९-२४
नासी जq ४८-२८ । १९१-१६ ॥
हाथ जोडवा १०७-१२
राख लगावी २-२८
हाथ लगाडवो ५५, ३०-३१ भाभड़छेट लागवी १२२-१९
गाळ लागवी १९०-७, ३३८-२, ७६-३ ४६-१९, सृट् उग-६३-६ तरस जागवी ६-१४,१६६-७८
पाप लामवु १८३-४
बपोर थवी ६४-१२
चार लागवी ५-२३
करवा लागवू १२३-११
करावा लागq १६९-२७
लहेगुं लेवु २३५-२४
पार्छ वळवू
चूलो संध्रकवो २७३-२३
जीभ संभाळवी १०-२, ४०-३१
ऊभा थवु ७७-१२
चामर ढाळवो ते १६१-१७ गलादपो देवो ते ३४४-२५
चांदी रुजावी ते २०८-२
चूतो संधूकवो ते २७३-५
नालियेर फोडवु ते ९८-१७ पोतानु माथुखजवावु -१-१४
उपर जq पाछा जq
५४
५६
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________________
[*]
५७ ५८ ५९ ६० ६१ ६२ ६३ ६४ ६५ ६६ ૬૭
L
वार्धम् आया संमुखं विलोकयू बम विलोकम् मौनी भू मार्गे चन् वयं कृतम् मस्तकं भद्रीक बाहरा धाविता का विकाले दीपो वर्ण्यताम् घटक योजनाष्ट्री ૬૮ कि अथकल्ये नाऽऽगम्यते गोष्ठों कुर्वाणा उपविष्टाः दिवं सन्ति व्यकिदा वा स्वादृशा मत्फुत्क्रतेन बड़ीयन्ते छ न नमस्कारा मानिता:
६९
७०
७१ ७२
७३ पृच्छनेन सृतम् स्वया किं स्यात्
७४
19't
अथ किमपि रधुं न शकतं मया
LOU
न शीतं लगन भावि ढोस् पोरत्वम् जोवन्नरो भद्राणि लभते
कीटकोपरि कटकारंभः
७८
७९
३-२, ३-३ ६-१८ ३३७, २५-२६ २-२१ १-२० १७०-२३ १२४-५ ८६-६ ३२०-२७ १७२-२७ २६७-५
मायुं भद्राबवु बाहर धाई बलु-मोड दीवो बधेरो घडियाजोजन सांढणी
५५, ४-५ आवकाळ केम आबवानु' यतु नथी
२-११ २०९, ३-४
बात करता बेठा इता सनया के सळग
२०४ २८ तारा जेबा मारी फूके रखी जाय
७८-५
४५.६
बास छाख नमस्कार माल्या
१६९-१९ २०१-२
पूछवाची सयु वारायी सुं थाय तेम के
१७०-२३ आज कोई पण रांधी नथी शकायु ३७-२२ माराथी क्यांक ठंडी म बागी जाय
ढोळनी पोट
जीवतो नर भद्र पामे कीडी उपर कटक
१७३-२
ये आव
जो बाट जोवी
२५२-९, २९८-१२
मूंगा थाई दु रस्ते चालती साद' क
या यादी सारा प्रमागम लंबावी शकाय सेम छे. वाक्योनी आखो वाक्यरचना, तेमनो ढाळो अने शैली मोटे भागे गुजरातीना होवातु लाग्या करे छे. संस्कृतना वेतमा गुजराती भाषा होबा अनेक स्थळे प्रतीत थाय छे. शताब्दीओ सुत्री ( अने बाजारू हिन्दीनी जेम) विविध माषी प्रदेशमा राष्ट्रभाषा तरीके - संस्कृत भाषा तरीके अखिल भारतीय व्यवहारमा रहेता, संस्कृत बेटी बधी बाळी वळे तेवी बनी शकती ते वस्तु प्रबन्धोनी भाषा स्पष्टपणे बतावो आपे छे. आम मान्य भाषाना उद्भव अने घडतरनी व्यापक दृष्टि पण प्रबन्धोनी भाषा घणी रसप्रद जणाशे.
"Aho Shrutgyanam"
(४) कथाओ विशे दूंकी नोंध
'प्रबन्ध पंचशती'मा पूर्ववर्ती प्रवन्ध साहित्यमाथी लंघेको अतिहासिक अने अनुभुत्यात्मक साममी उपरति सामान्य कथा-साहित्यनी सामग्री पण माटा प्रमाणमा भावेळी के थे रीते कदाच
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________________
[ ४१ ]
तेनु' 'पंचशती प्रवोध ( प्रबन्ध ) सम्बन्ध' से नाम पण सार्थक गणाय अने केटलीक कथाओने स्पष्टपणे 'लौकिकी' के हितोपदेश माटे होवानु व ह्युं छे. ५७६ थी ६१२ सुधीना प्रबन्धोमां पंचतंत्रनी घणी कथाओ आवी जाय छे. आगळा भागमां पण घणी कथाओ पंचतंत्रशैलीनी छे. वळी जातककथा वगेरेना समयथी कथाप्रवाहमा बहेती थयेली केटलीक वार्ताओने पण अहिं स्थान मळयु छे - ८९ मा प्रबंधनी कथा पुण्यवंत जातकमा तथा जैनसाहित्यमा मळे छे. १७४ वाळी वानरयूथपतिनी वात अथवा तो प्राणीभाषा जाणनार राजानी बात पण जातकमाथी छे. ७३ मानो धुतारा नगरीवाळो प्रसंग रत्नचूडरासमां पण छे. ९६ मा अने ३७२ मा प्रबंधमानु कथाघटक ( गुप्तवेशे पति पासेथी पुत्र प्राप्त करवानी शरत पूरी करवी. ) घणी लोककथाओमा मळे छे. ५३४ बाळी सोढीनी वात रत्नचूड राम पण छे. १०२ मा प्रबन्धमा आखी नंदबत्रीशीनी कथा, ५४३ मां गुणचंद्रसूरिना " महावीर चरिय” थी जाणीती चंदन मलयागिरिनी कथा, तो १०४ मा प्रबन्धमा शामळानी 'सिंहासन-वत्रीशी' मां छे ते वेता भट्टनी कथा आपली छे.
१०७ मा प्रबन्धनी कथा ते "ज्ञाताधर्मकथा " नुं 'कूर्मज्ञात' छे. २२० मां कुबेरदत्त-कुबेर सेनानी अढार नातरानी जैन परंपरामा घणी प्रचलित कथा छे. १२५ मा अने १५६ मा धर्मव्याधनी महाभारतना समयथी जाणीतो कथा छे. १२७ मां वसुदेवहिण्डी वाळो चारुदत्तनी कथा छे.
लोक-कथाओनी अनेक जाणीती प्रकृतियो ( Types ) अने घटको अहिं ओळखी शकाय छे.
आनन्दसूरिनी ४६० मानी बात नागपांचमीनी लोककथाने मळती छे. आपकर्मी अने बापकर्मी ( १२३ शामळनी 'सिंहासनवत्रीशी' मांनी समुद्रनी सुंदरी के पाताळ-पदमणीनी बात; ) तेम ४११ = शामळनी सिंहासन बत्रीशी 'मां मळती; विधातानी शोधमा ( १९३ = शीतला सातमनी वातनुं कथाघटक ); बे भाई के जादुई पक्षीहृदय ( २०,५४६ = काष्ठमुनिनी वात ), परकायाप्रवेश ( ५६६, सिहासनवीशीमा मळती ), वडला उपर चढीने जादुई शतिथी द्विपान्तरमा विहार करती पुत्रवधूओ ( ४१८, चंदराजानी वातमां पण आ मरे छे ) वगेरेनो उल्लेख करी शकाय
३५७ अने ५४२ मानी वार्तानुं घटक घणियो अने घणकीनी लोककथामा, ५१३ बाळं जपी अने तपीनी लोककथाम, ५४१ वाळु राजानु माथु मुंडावतो चकटीनी लोककथाम, ५०१ बाळं तोड़ा जोशीनी लोककथाम, २०८ बाळ बाबराभूतनी वातमा, तो ५०३ बालु' 'घी चोरीओ घी चोरीओ स्वाहा' वाली लोककथामा मळे छे. आ तो मात्र अंगुलिनिर्देश कर्यो छे. "प्रबन्ध पंचशती'ना कथा सामग्री पण व्यवस्थित अभ्यास मागी देतेवी अने तेटली छे.
भाषानी अने कथाबाहित्यनी दृष्टिओ भरपूर
श्रीशुभशील गणिनी अन्य कृतिओ पण भंडारनी गरज सारे तेम छे.
मुनिश्री मृगेन्द्र मुनिजीओ आ महत्त्वनो ग्रंथ संपादित अने प्रकाशित करीने साहित्यनी सेवा करी छे अने अभ्यासीओ माटे अणमूल सामग्री सुलभ करी आपी छे.
H.DEH
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प्रबन्ध - पञ्चशती अनुक्रमणिका
अथ प्रथमोऽधिकारः ।
पृष्ठांक क्रमांक
क्रमांक
कथाप्रबन्धनामानि
१ गौतमस्वाम्यष्टापदतीर्थवन्दन सम्बन्धः
२-१७ जिनप्रभसूरिप्रबन्धाः [ षोडश ] १५ प्रस्तररत्न प्राप्तौ जगडूसम्बन्धः १९ जगडूसाधुसम्बन्धः २० जिनप्रभसूरिदेव गिरिप्राप्ति सम्बन्धः २१ साधर्मिकमको जगसिंहसाधुसम्बन्धः २२ जगसिंहशत्रुञ्जययात्रा सम्बन्धः २३ नापितमत्रिकरण सम्बन्धः
२४ आळस्ये घनश्रेष्ठि- - कुन्तल पुत्र सम्बन्धः
२५ नागार्जुनसम्बन्धः
२६ खलभक्षणे घनश्रेष्ठिकथा
३२ निष्कुपोपरि मरुस्थली वर्णनम्
३३ ध्याने [ विचारे ] वैद्यकथा ३४ नीचानीच विचार विषयिकी लौकिकी -
कथा
३५ धर्मे भोजकथा
१
२
५
६
७
.
.
९
१०
११
१२
१३
*
१६
१६
२७ नीच कुलोत्पत्रोप्युत्तमो भवतीति द्विजकथा
२८ निर्मन्थत्वे योगिकथा
५०
२९ धर्मशालानिष्पादनपुण्ये भीमखाघुकथा १४ ३० धर्मदृढतोपरि आलिगविप्रप्रासादकथा १५ ५१
३१ शनि - शिवसंवादसम्बन्धः
१५
५२
५३
१७
Re
३६ कृपणत्वे भूपकथा
३७ धर्मदृढतोपरि डीसा वालसारङ्गसंबंधः
४०
३८ प्रस्तरतरणे राममहिमा
३९
४१
४२
४३
४४
४५
४६
४७
कथाप्रबन्धनामानि
४८
१४ ४९ प्रभाचन्द्रकथा
पृष्ठांक
१८
१८
१९
औचित्योत्पतिबुद्धौ डाग छागमातृकथा १९
१९
अनित्यतायां भोजसम्बन्धः अनित्यतायां वस्तुपालमन्त्रिकथा
१६
कूटतुळाथर्जित विषये श्रेष्ठिकथा
२०
२०
२१
२१
२१
२३
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बुद्धिविषये मृगावती कथा
गर्वोपरि श्रीधराचार्यकथा
गर्योपरि कृष्ण द्वैपायनकथा
दाने धनकथा धीविषये रिकग्राहिकथा उत्कृष्टसुखदुःखसम्बन्धः
लक्षणादिकूटकौतुक कलाकथा
५४
५५ कर्मोपरि दुष्टभूपकथा
५६ स्वभाग्यविषये मेघकथा
५७ कर्मोपरि अनिरुद्धभूप कथा
२३
२३
२४
सहसा कृतकार्योपरि-कृष्ण कोलयोः कथा २५ आचारविषये द्विजपत्नीकथा
२५
उचितवैद्यविषये कथा
२६
मणकपरीक्षित वैद्यकथा
२७
२७
२८
२६
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क्रमांक कथाप्रबन्धनामानि पृष्ठांक क्रमांक कथाप्रबन्धनामानि
पृष्ठांक ५८ अतिथिसंविभागवते सातलकौटुम्ब- ९१ उदयनमन्त्रिप्रचन्धः कादिकथा ३० ९२ भाग्ये आमडरबमा
४३ ५६ सत्योपरि मुनिकथा
३२ ९३ सम्यक्त्वे आम्रभटप्रवन्धः ६० पूर्वकृतकर्मणि सीताकथा
३३ ९४ शत्रजयोद्धारपनन्धः भृगुकच्छे शकुनिका. ६१ सुभद्राकथा
विहारोद्धारश्च ६२ निर्मोहकुटुम्वे गोपालस्था
३४ ९५ वजोतारण-गुनरारोपणसम्बन्धः ६३ प्रासादकरणेआरासणवासिपासिळपुष्यम् ३५ ९६ जिनध्यानपूजाफलविषये शुकीकथा ६४ प्रासादे फलवर्धितीर्थ कल्पः ३५ ९७ सिद्धिबुद्धिरउलाणीप्रबन्धः ६५ अन्तरिक्ष पार्श्वकल्प:
३६ ९८ भाग्ये सोमिलकथा ६६ टीडासम्बन्धः
३६ ९९ शीतपरिषहसड़ने चतुःसाधुदृष्टान्तः ६७ "गरुआ सहजिइं" गाथासम्बन्धः ३७ १०० दण्डालकसिद्धिः ६८ कूपकम्बलिका पातकसम्बन्धः ३७ १०१ परिषहसहने अहंन्नककथा ६९ मनोनियन्त्रण तापससम्बन्धः ३८ १०२ परद्रोहोपरि वैरोचनमन्त्रिकथा ७० सुसंगतिकुसंगतौ हस्तिसम्बन्धः ३८ १०३ कलहे सरढद्वयकथा ७१ याग भूपमनस्ताहग लोकमनःप्रबन्धः ३८ १०४ चौदार्य कुमारपालभूपसम्बन्धः ७२ दानपरीक्षायां कर्णयुधिष्ठिरसम्बन्धः ३९ १.५ कलिधर्मसपकथा ७३ बुद्धौ अन्यायपत्तनगतश्रेष्टिपुत्रसम्बन्धः ३९ १०६ कुसंगविषये गोकथा ७४ निघृणत्वे वैद्यसम्बन्धः
४. १०७ इन्द्रियदमनादमनविषये सम्बन्धः ताजिकप्रन्धविरचनसम्बन्धः ४. १०८ अनित्यतायां लोमशऋषिकथा ७६ मकरवानरसम्बन्धः
४१ १०१ उच्छिष्टपुष्पचटापने मातङ्गसुतकथा ७७ सत्पात्रदानसम्बन्धः
४२ ११० सोमपरीक्षायां सा मसुदृष्टान्तः ७८ दाने सुदर्शनश्रेष्ठिकथा
४२ १११ कुत्सितकर्मविषये सागरश्रेष्ठिकथा ७९ दाने कृष्ण कथा
४३ ११२ ७२ देवकुलिकासु ध्वजा दत्ता ८० दाने कुरुक्षेत्रब्राह्मणादिकथा ४३ ११३ अन्नदानैः पयासम्बन्धः ८१ प्रतिक्रमणझमाविषये युधिष्ठिरकथा ४३ ११४ औदार्ये वस्तुपालसम्बन्धः ८२ कर्णकद्विजकल्पितसम्बन्धः
४४ ११५ वनकपुष्पोत्कृष्टतासम्बन्धः तीर्थधनव्ययने दुर्गतसम्बन्धः ४४ ११६ शिवप्राप्तिसम्बन्धः ८४ लूणिगवसहीति नामसम्बन्धः ४५ ११७ बुद्धौ चाणिक्यसम्बन्धः ८५ देवसूरि-कान्दड योगिसम्बन्धः ४५ ११८ दुष्करतफ्त उपरि सूरिकथा ८६ सुपात्रदाने कर्णभूपचारणसम्बन्धः ४६ ११९ धर्मकत्तं ये वत्सदृष्टान्तः ८७ संसारासारताय कथा
४६ १२० असारविषये भीधरश्रेष्ठिकथा ८८ पुण्यसारकथानकम्
४७ १२१ संसारासारतायां धनकथा ८५ जीवदयायां चतुमित्राणां कथा ४७ १२२ धर्मविषये जीवपालादिकथा ९. मल्लिकार्जुनभूपजेता श्रीवाम्बडप्रबन्धः ४८ १२३ धर्मे लक्ष्मीचन्द्रकथा-पुत्रीद्वयसम्बन्धः
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(३)
१०४
क्रमांक कथाप्रबन्धनामानि
पृष्ठांक क्रमांक कथाप्रबन्धनामानि पृष्ठांक १२४ संसारासारतायां वरदत्तश्येनिकाकथा ८० १५७ मस्तकचटितमुकुटादिकथा१२५ जिनपूजा-जीवदयायो तापस-जिनदागी
शुभाशुभयोर्विषये कुणालकथ।
८१ १५८ लौकिकी कृष्णाजुनसम्बन्धिकथा १०० १२६ कूटजल्पने कथा
१५९ कर्मोपरि वेश्यापुत्रकथा १२७ जीवदयायां चारुदत्तकथा
८२ १६० क्रोध-मान-माया-लोम-विषये पर्वलोक १२८ शकुनविषये बासधीरश्रीमालिककथा
भूपवणिग्-मंन्त्रिविप्रसम्बन्धः १२६ जीवदयायां स्तेनद्वयकथा
८४ १६. लक्ष्मीमदे चन्द्रसम्बन्धः १५० बुद्धौ सूत्रधारकथा
१६२ कृपणत्वे श्रेष्ठिसम्बन्धः
१०२ १३१ बुद्धौ श्रेष्टिपुत्रीकथा
१६३ मरुस्थलीयमुग्धजनसम्बन्धः ५०३ १३२ सामायिकफलविषये स्तेनसम्बन्धः ८५ १६४ धर्मविषये वन-रत्न-लोहाकरादिसंबंधे १३३ छलजल्पने कमलकथा
द्रव्य-धर्म-गणित-चरणानुयोगसम्बन्धः १०३ १३४ परोपकारे श्रेष्टिपुत्रवैद्यसम्बन्धः ८६ १६५ प्रथम चरणशाखसाधुभणनसम्बन्धः १०४ १३५ हस्तहेमसिद्धिसम्बन्धः
८७ १६६ धर्मे ओधनियुक्तिसम्बन्धः १०४ १३६ धर्मग्रीक्षायां लोधिकपार्वतोश्वरकथा ८८ १६७ सन्दिग्धजल्पने सम्बन्धः १३७ स्तैन्यजनपुण्ये भिमकथा
१६८ हितोपदेशधर्माद देवा अपि सान्निध्य १३८ गुरुभक्तौ द्रोणाचार्य-भिल्लकथा
कुर्वन्तीति विषये कथा
१०५ १३९ शीलौदार्यविषये विक्रमादित्यकथा ९० १६९ जिनाझापालने कथा
१०५ १४० स्वयं स्वदोषजल्पने क्षत्रियकथा ९१ १७० जिनेन्द्र-गुरु-मातृ-पितृ-सुहृदादिवचः १४१ विरोधे कृकळासद्वयकथा
पालने दृष्टान्तः १४२ देवद्रव्यविनाशने उष्ट्रीस्था ९१ १७१ हितोपदेशे कथा १४३ यक्षकृतपापशमने अर्जुनमालिककथा ९२ १७२ स्ववैरिवालने कथा
१०७ १४४ स्वहितकरणे चन्द्रमलयो कथा। ९३ १७३ पतितपुष्पचटापने नीचकुलप्राप्तिसंबंधः १०७ १४५ औत्पतिकीधीविषये नापितकथा २३ १७४ हितोपदेशे वानरयूथसम्बन्धः १०७ १४६ प्रत्येकबुद्धस्वरूपम्
६३ १७५ विनये परस्परं भद्रिकासाधुसम्बन्धः १.८ १४७ प्रमादाप्रमादे श्रेष्ठिपुत्रीत्रयकया ९५ १७६ स्वपरिवार-चिन्ताकरणवणिक १४८ पादद्रव्याने कथा
पत्नीद्वयसम्बन्धः
१०८ १४९ हस्तद्रव्याने कथा १६ १७७ दक्षत्वे मत्स्यसम्बन्धः ।
१०९ १५० मस्तकधनार्जने भीमकया
९६ १७८ भाषासमितिजसने देवदत्तसंबंध: ११ बुद्धिधनाजने धरणकथा
९६ १७९ पुण्योपरि चतुर्वणिक्पुत्रसम्बन्धः । ११० १५२ औचित्यदाने घाधिका-विक्रमार्ककमा ९६ १८० स्वपापप्रकाशककौटुम्बिकपत्नी संबंधः ११० १५३ मुग्धताया होदडीकथा
९७ १८१ विनीत शिष्यसम्बन्धः १५४ बुद्धौ धूतकथा
९८ १८२ गुरुभक्तसाधुसम्बन्धः १५५ धर्मविषये योगीकथा
९८ १८३ मिध्यात्वत्यागे पछिकथा १५६ क्रोषत्यजनविषवे तापमकथा ९९ १८४ शीले श्रीपलिकथा
११२
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(४)
पृष्ठांक
क्रमांक कथाप्रबन्धनामानि पृष्ठांक क्रमांक कथाप्रबन्धनामानि पृष्ठांक १८५ मिथो विरोधे पञ्चशतसुभट कथा ११२ १९५ निद्रव्यपुण्यविषये सिंहधनसम्बन्धः ११८ १८६ सरलत्वे श्रेष्ठिपुत्रकथा
११३ १९६ पट्टकूलिकानयने चाहडमन्त्रिसम्बन्धः ११९ १८७ अशुचिसमित्यादौ मोदकप्रियकथा ११३ १९७ साक्षात् गङ्गास्त्रीसम्बन्धः १८८ भाग्योपरि क्षत्रियसम्बन्धः ११३ १९८ प्राककर्मणि मित्रद्वयसम्बन्धः १२१ १८९ अतृप्तिविषये द्विजसम्बन्धः ११४ १९९ दाने युधिष्ठिर-भीमसम्बन्धः १९० निश्चलमनः साधुसम्बन्धः ११५ २०० क्षमायां श्रेष्ठिसम्बन्धः
१२२ १९१ धर्मरुचिभूपसम्बन्धः
११५ २०१ धर्मनिश्चलतायां महणसिंह सम्बन्धः १२२ १९२ लौकिक कृष्णभार्या तुल्छीसम्बन्धः ११६ २०२ कर्मणि कुटुम्बिकपुत्रसम्बन्धः १२३ १९३ कर्मविषये लौकिकविधिसम्बन्धः ११६ २८३ परस्त्रीपराङमुखत्वे महणसिंहसंबंधः १२३ १९४ अनित्यतायां चन्द्रधनसम्बन्ध:
अथ द्वितीयोऽधिकारः क्रमांक कथा-प्रवन्धनामानि
क्रमांक कथाप्रबन्धनामानि २०४ घरसरीखीयात्रा नहीं इति उषाणो १२४ २२१ अष्टविधप्रतिक्रमणस्य दृष्टान्तानि२०५ दानफले भीमष्टिविक्रमाकसम्बन्धः १२४ प्रथम अध्वदृष्टान्तं
१३५ २०६ निरुपकारनरसम्बन्धः
१२५ २२२ प्रतिचरणायां प्रासादेन दृष्टान्तः १३६ २०७ भाग्याऽभाग्ययोः धनश्रेष्ठितत्पुत्रसंबंधः १२६ २२३ परिहरणायां दुग्धकाये दुग्धकावडि। १३६ २०८ भाग्ये तपस्विश्रेष्ठिसम्बन्धः १२६ २२४ वारणायां विषभोजनतडागेन २८६ कृतघ्ने सिंहसम्बन्धः
१२६
दृष्टान्तः ।। २१० कुशीलभार्यायां श्रेष्टिपत्नीसम्बन्धः १२६ २२५ निवृत्तौ राजकन्य या दृष्टान्तः॥ १३६ २११ श्रीदारिद्रसंवादसम्बन्धः
१२७ २२६ निन्दायां चित्रकरसुतादृष्टान्तः ॥ १३७ २१२ कूटमानकष्टिसम्बन्धः
१२८ २२७ गाया पतिमारीकाया दृष्टान्तः ॥ १३७ २१३ सीतावनत्यजनसम्बन्धः
१२८ २२८ शुद्धौ वस्त्रागद दृष्टान्तः ।। १३८ २१४ अविचार्यजल्पने क्षत्रियसूत्रधारपुत्र २२९ सदुपदेशे श्रेष्टिपुत्र सम्बन्धः १३८ सम्बन्धः
१२९ २३. कपटे छालीदन्तालीग्राहकद्विजसम्बन्धः १३९ २१५ शुद्धाहारग्रहणे वत्सकथा १३० २३१ रात्रावुच्चैर्न जल्पितव्ययमितिसम्बन्धः १३९ २१६ विध्यविधिभ्यां धर्मकर्तव्यमिति
२३२ देवपूजायामभयकुमारसम्बन्धः १३९ पुरुषत्रयकथा
१३० ३२३ सुपात्रदाने श्रेष्टिसम्बन्धः १४. २१७ द्वषे भूपपत्नीकथा १५१ २३४ पापदाने मैनिकसम्बन्धः
१४० २१८ भाग्ययोगात्स्वेष्टयोगो भवति १३१ २३५ उचितदाने याच कसम्बन्धः
१४. २१९ कुमारपालपश्चाद्भवसम्बन्धः १३२ २३६ पापशुद्धोपरि झण्डसम्मन्धः
१४१ २२. कुबेरदस-कुबेरदत्ताकथानकमष्टादश- २३७ कृतघ्नतायां गृहोलिकासम्बन्धः नात्रकगर्मितम् १३४ २३८ परप्रत्यये वेश्यासम्बन्धः
१४१
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errooraatमानि
क्रमांक
२.२ दारिद्रसेवकसम्बन्धः
२४० बुद्धौ श्रेष्टिस्तुषाकथा २४१ वखदाने कथाचूडभूपकथा २४२ शुद्धान्नपानवस्त्रदाने श्रीधर भूपकथा २४३ बखदाने मदनभूपकथा
२४४ वस्त्रदाने चन्द्रचूडकथा
२४५ उपकारेऽपि अपकार कर्तृक सर्प संबंध: २४६ उपकारेऽपि अपकारकर्तृकवृद्धा संबंधः २४७ कर्मणि स्तेनकथा
०४८ शुद्धाशुद्धविचारे कथा
२४६ वखकस्त्रीसम्बन्धः २५० पापवचोजल्पने द्विजसम्बन्धः २५.१ कृतकर्माणि श्रेष्टिसम्बन्धः २५२ प्रियावशत्वे ब्रह्मदत्तचक्रितम्बन्धः २५३ कुळाचारविषये क्षत्रिय पत्नीसाहससम्बन्धः
२५४ दयायां विप्रमीन सम्बन्धः २५५ रामरावणदुर्योधनकं सशातवाहनमूर्ख
पकसम्बन्धः
२५६ तीर्थसेवाफले गिरिकुण्डसम्बन्धः २५७ धर्मोषधविषये भूपपुत्र सम्बन्धः २५८ मातापित्रोविषये पुत्रभक्त्यादिकथा २५९ अणककुम्भकारकथा २६० दानसंवादे युधिष्ठिरभीमम्बन्धः २६१ दाने शालिभद्रश्रेणिक भूपसम्बन्धः २६२ आम्रभूप- बप्पभट्टिगुरुमाननसम्बन्धः २६३ जीर्णोद्वारे धनसारकथा
२६४ दशधा दानकथा
२६५ शुद्धाहारमहणे यतिक्षुल्लकसम्बन्धः २६६ औरा कुमारपाल लक्षटङ्ककान
सम्बन्धः
२६७ वस्तुपालौदार्यदानबालचन्द्रसूरि संबंधः २६८ कलिता सरोवरवर्णने लळिता देवीदान
सम्बन्धः
( 4 )
पृष्ठकि क्रमांक
कथाप्रबन्धनामानि
१४१ २६९ सालिगसाधुदानसम्बन्धः
१४२ २७. १४२ १७१
१४३
१४३ २७२
१४४
१४४ २७३ २७४
१४५
१४५ २७५ प्रासादपुण्ये आम्रकथा
समरसाधु नोद्धार कारित सम्बन्धः अर्बुदगिरौ साधु भीमकारितपित्तलमयप्रतिमासम्बन्धः
१४५ २७६ प्रासादकारणपुण्ये सम्प्रतिकथा १४५ २७७
चन्द्रकथा
१४६ २७८ पापकरणे तत्क्षपणाविषये वीरमति १४६
१४७ २०६ २८० १४७ २८१
ve
मण्डपदुर्गे स्रोताकारित श्रीसुपार्श्वप्रतिमासम्बन्धः
आम्रभूपकारित पौषधशालासम्बन्धः पौषधशालायां सान्त्सम्बन्धः
१५६ २९३ २९४ १५६ २६५ १५७ २९६
"?
मोहेन काष्टभक्षणसम्बन्धः कुशीलिनीस्त्रीविषये सम्बन्धः मुग्धजटिलसम्बन्धः
पृष्ठांक
काकेन काकशतमितिसम्बन्धः सुखवासे कौटुम्बिककथा धनदानवशीक रेमामपतिकथा ऋणसम्बन्धे सूत्रधारकथा मुग्वतायां कुटुम्बिकमनतत्पनीलिम्बडी
पुत्रीकथा
२६७ दन्तदर्शने ष्टिबधूकमा
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33
कथा
सुबुद्धी कमल श्रेष्टिकथा
शुद्धध में कमल कथा
आखुसेव कह स्तिमोचनसम्बन्धे मित्रकरणविषये कथा
२८२
असम्बद्धजल्पने चौरव्यवहारिकथा १४८ २८३ औदार्ये भोजश्रेष्टिकथा १४६ २८४ संप्रतिभूपपृष्टचतुःप्रकारजयकथा १५8 २८५ अर्क दुग्धौषधकथक वैद्यकथा
37
१५१
२८६ परिप्रहपरिमाणे जिनदत्तभूपसम्बन्धः १६५ १५२ २८७ नीचानीचभवनचाण्डालिनी सम्बन्धः १५२ २८८ परबचनद्विजसम्बन्धः १५३ ८९
१५३ २९० १५५ २६१
१५६ २९२
"
१५८
29
१५९
#
१६०
१६१
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१६२
१६३
"
१६४
37
37
१६६
13
20
१६७ १६८
17
१६९
$3
19
१७०
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क्रमांक
कथाप्रबन्धनामानि
२९८ अविमृश्यकारकधनकथा २९९ परद्रव्यपरिहारे सोमभीमकथा ३०० वानर " खानई वींछी खाधन" इति उखाणा कथा
३०१ कर्ण सम्बन्धः
३०२ मरणसमये वृद्धभोज सम्बन्धः ३०३ वस्तुपालमन्त्रिणः यात्राशकुनकथा ३०४ शत्रुञ्जयतीर्थप्रभावे शूरकथा ३०५ भाग्ये चन्द्रकथा ३०६ मेघवातसंवादसम्बन्धः ३०७ निःश्वत्थानिःस्वत्वयोर्वीरकथा ३०८ यशोदाने याचकसम्बन्धः ३०९ जिनप्रभसूरिभिः पीरोजसुरत्राणः प्रतिबोधित सम्बन्धः ३१०_स्त्रवस्तुस्वभावकथने वणिग्दृष्टान्तः ३११ मौढ्यविषये विधवापुत्रसम्बन्धः ३१२ कातरखे तम्बोलिककथा
३१३ पापानुबन्धि धर्मानुबन्ध भवतीति विषये कथा
३१४ स्वकौशल्यदर्शने जिनप्रभसूरिकथा ३१५ भक्त्यभक्तिविषये भ्रातृद्वयकथा ३१६ साधुशकुने मित्रद्वयकथा ३१७ अबहेलनायां भरटकथा ३१८ विक्रमादित्ययात्रा प्रबन्धः ३१६ सप्तक्षेत्रेषु आभूव्यय प्रबन्धः
३२० पेथडप्रबन्धः
३२१ सम्प्रतिप्रबन्धः
३२२ कुमारपालप्रबन्धः
३२३ वस्तुपालदान - प्रबन्धः
३२४ प्रासादादिपुण्यकरणे हरिषेण चक्रि
सम्बन्धः
३२५ रावणजिनप्रासादकरणम् ३२६ विमलप्रबन्धः
( ६ )
पृष्ठांक क्रमांक
}}
२७१
"
"?
71
१७२ ३३१
३३२
३३३
12
१७३ ३३४
१७५ ३३८
१७६ ३३९
"
27
कथाप्रबन्धनामानि
३२७ यात्रोपरि पूनडसंघ भक्तयुपरि वस्तुपाल
मन्त्रिकथा
३३५ तोर्थपूजायां वस्तुपालकथा
"
१७४ ३३६ बप्पभट्टिप्रबोधितद्विजकथा
१७५ ३३७ तीर्थमतिश्रुतोकिकाव्ये वस्तुपाल मन्त्रि
29
१७९
३२८
३२९
३३०
19
१७७ ३४० ३४१ म्रा० गुणराज सम्बन्धः
३४२ कल्याणत्रयोद्धारसम्बन्धः
३४३ गोविन्दनाणावटीसम्बन्धः
19
39
१८०
39
"
૮ ३४४ धरणबिहारसम्बन्धः
३४५ पाजाश्रेष्टिकारितप्रासादसम्बन्धः
३४६ पूनसिंह कोष्ठागारिक कारितगिरिनारतीर्थप्रासादसम्बन्धः
३४७ साधर्मिकभक्ति:
३४८ दाने कुमारपालमन्त्रि - अभयकुमार श्रेष्टिकथा
19
tet
साधर्मिक वात्सल्ये कथा
संघभक्तौ रत्नकथा
निर्लोभे कुमारपालकथा
३४९
३५०
३५१
पात्रदाने सालवाहनभूपसम्बन्धः उदारत्वे विक्रमार्क भूपसम्बन्धः
यात्रोपरि कुमारपाल भूपकथा पूजायां कपर्दिकश्राद्धकथा
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३५२ १८२ ३५३
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दानसम्बन्धः यात्रायामामप्रबन्धः
श्रीशत्रुञ्जयप्रासाद बिम्ब संघपतिभव
नादिसम्बन्धः
पृष्ठांक
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१८३
१८४
27
१८५
૨૮૬
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१८८
१८६
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पश्च पाण्डवकृतोद्धार मुक्तिगमन सम्बन्धः १९०
१९१
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33
१६२
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साधर्मिक भक्कौ आम्बडदेव सम्बन्धः १९३ त्रिषष्टिशलाका पुरुषोत्तमचरितसंबंध: पुस्तकाराधने श्रीता । गमने श्रीकुमारपालसम्बन्धः
औचित्यदाने सम्बन्धः
श्रीकुमारपालस्वण्णं सिद्धिप्राप्तिस्वरूपम्
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१९४
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कथा प्रबन्धनामानि
क्रमांक ३५४ कर्मविषयेदुःस्थसम्बन्धः ३५५ कौतुकजल्पने क्षुल्लसम्बन्धः ३५६ कृतकर्णपुच्छ गालसम्बन्धः
३५७ प्रभुपूजायां कार्बेटिकासम्बन्धः ३५८ योगिवेल्लकसम्बन्धः
पृष्ठांक क्रमांक
कथाप्रबन्धनामानि
३८५ ३८६
99
१९६ ३८७
१९५ ३८४ समस्यापूरणे धनपालपंडितसम्बन्धः भोजस्य धनपाल पूरित समस्यासम्बन्धः अकृतपुण्यस्व मन्त्रिणः सम्बन्धः स्त्रीणामप्रे न वक्तव्यमितिविषये नागपुण्डरीककथा सम्बन्धः पश्यतोहर स्रौवर्णकार सम्बन्धः दानपरीक्षायां ईश्वरपार्वती सम्बन्धो aौकिकः
भाग्ये इभ्यपुत्र - निर्धनपुत्रसम्बन्धः ३९१ परापवादग्रहणे लौकिकपरिव्राजिका
३५ वृद्धत्वे वृद्धनर सम्बन्धः
३६० बुद्धौ श्रेष्टिपत्नीसम्बन्धः ३६१ सामायिके निसढस[वि] सडकथा ३६२ सम्यक्त्वे वज्रकर्णकथा
३६३ रामलक्ष्मणरावण हनुमत्सीता मूर्खत्वसम्बन्धः
३६४ लोका भूपानामपि दुराराधा भवन्तीति विषये रामसम्बन्धः
३८८
१९७ ३८६
39
३६५ विशिष्टशाकुनिकनरज्ञातसम्बन्धः ३६६ अम्रारपुत्रादि सम्बन्धः
३६७ प्रत्युत्पन्नमतौ माणक्यसूरि सम्बन्धः ३६८ जीवदयायां जितशत्रुभूपसम्बन्धः ३६९ संसारासारतायां कन्याह डिरेवेति कथा ३७० प्रमादिहाडिअल्पक स्त्री सम्बन्धः ३७१ नाणावालसूरिपूर्णिमा पाकिसूरिमियोवार्त्तासम्बन्धः
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१९९ ३९०
सम्बन्धः
३९२ कल्पित घूक सम्बन्धो दुर्जनोपरि
२०० ३६३ असंभाव्यावक्तव्ये भूपमन्त्रिसम्बन्धः ३९४ कुपत्नीटान्तः
३६५ दुर्ब्राह्यस्त्रीविषये सम्बन्धः
३९६
बलीचदपातित सम्बन्धः
३७२ भाग्ये जयसिंहकथा
३७३ हेमसूरिनाम नव्यव्याकरणविषये हेमसूरि
सम्बन्धः
३७४ हकाररुदन वन्ध्यत्वसम्बन्धः
३७५ सोमदेवसूरि-जय केसर सूरि सम्बन्धः ३७६ सोदरकथा
३७७ गर्ने नारीसम्बन्धः
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( ७ )
२०१
39
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23
२०२ ४००
अव्यापा० वानरसम्बन्धः
४०१
हितवचने व्याघ्रादिसम्बन्धः ४०२ विषमगोष्ट हंसोलूकसम्बन्धः
२०३ ४०३ कुज्ञातस्थानदाने मत्कुणसम्बन्धः
४०४ बुद्धवाक्याकरणदोषे हंसयूथसम्बन्धः
"
२०४ ४०५ असंहितदोषे भारण्डपक्षिसम्बन्धः
४०६ लोभे शगालसम्बन्धः
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३९७
३६८ ३९९
३७८ दम्दाला सौवर्णका सम्बन्धः
"
३७२ बप्पभट्टिसूरिप्रोक्तधर्मलाभार्थसंबंधः २०५
३८० भोगविषये भोगम्रारकथा ३८१ वधूविषये कथा
२०८
३८२ बुद्धयुपरि रुतकोथलकथा ३८३ उचित समस्यापूरणे भोजघनपालसंबंध ः २०९
वीणाग्रामे श्रीनेमिजिनकल्पः
व्यापारे सम्बन्धः
बुद्धिर्यस्य बलं तस्य इति विषये
शशक सम्बन्धः
४०७ बुद्धौ धूतैरक्षित छागसम्बन्धः
४०८ बहवो न विरोद्धव्या पिपीलिकासर्प
४०९ २०७ ४१०
४११
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पृष्ठांक
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सम्बन्धः
ढोभोपरि पश्चात्तापे द्विजाहिसम्बन्धः मिथो विवदन्तः शत्रवो विनयन्तिचोर राक्षसाविव
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२१०
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२११
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२१३ २१४
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२१८ २१९
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२२०
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परममंदशेषे वल्मीकस्योदरस्थाहिसंबंधः २२१
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(८)
क्रमांक कथाप्रवन्धनामानि पांक क्रमांक कथाप्रबन्धनामानि ४१२ सोवश्यता नन्दभूपवररुचिमन्त्रि. ४१९ एकबुद्धि-रातबुद्धिसहस्रबुद्धि मत्स्यसम्बन्धः
सम्बन्धो मत्स्यानाम् माशोयनेयो दातव्योलमगही- ४२० भवितव्यसायर्या रावणसम्बन्धः २२५ वानरसम्बन्धः
२२२ ४२१ न्यायमार्गे पृथिवीपालने रामशिक्षा४१४ सबलनिर्बलसम्बन्धः ४१५ अपरीक्ष्य न कर्तव्यं० इति विषये
सीतापहारे रामविलापसम्बन्धः २२६ नकुलसम्बन्ध:
शक्तिहस्ते लक्ष्मणे रामविलापसम्बन्धः २२७ ४१६ बुद्धिहीनताया सिंह कारकनसम्बन्धः , ४२४ विनये हनुमद्वचा सम्बन्धः ४१७ मित्रषचनाकरणदोषे कोलिकसम्बन्धः २२४ ४२५ संसारासारतायां महेश्वरदत्तमहिषादि ४१८ अतिलोभे वधू ४ श्रेष्टिसम्बन्धः
सम्बन्धः
४२६ चारित्रविराधनदोषे क्षुल्लकसम्बन्धः २२८
अथ तृतीयोऽधिकारः क्रमांक कथाप्रवन्धनामानि पृष्ठांक क्रमांक कथाप्रवन्धनामानि पृष्ठांक ४२७ पुष्पचूलासाध्वीसम्बन्धः
२२९ ४४६ भक्तिदाने अनुपमादेवी सम्बन्धः २४१ ४२८ वैराग्ये मोहे वसुदत्तसम्बन्धः " ४४७ वस्तुपालमन्त्रिकुटुम्बपरलोकगीत४९९ कुटुम्ब विघटनादौ जिनदत्तकथा
सम्बन्धः ४३० पुत्रभक्तौ वसिंहभूपसम्बन्धः , ४४८ द्वितीय भाभडमन्त्रिसम्बन्धः ४३१ नमस्कारगणनफले कदम्बद्विजसम्पन्धः २३१ ४४९ ममाणिखानिसमानीतप्रतिमापश्चक४३२ क्षमायां कीर्तिधर-सुकोशलमुनिसंबंधः २३२ स्वरूपम् ४३३ अहंकारे उज्झितकुमारसम्बन्धः ।
४५० रत्नश्राद्धसम्बन्धः ४३४ जीवरक्षणारक्षणयोबलभद्रकृष्णसंबंधा २३५ ४५१ बुद्धौ हरिदत्तदूतसम्बन्धः ४३५ अति मुक्तर्षिसम्बन्धः
__, ४५२ बुद्धौ क्षत्रियपत्नीनीइणीसम्बन्धः ४३६ वस्तुपालकुटुम्बप्रतिबोधसम्बन्धः २३४ ४५३ बुद्धौ सुबुद्धीसम्बन्धः ४३७ वस्तुपालमन्त्रिसंघवात्सल्यादिनियमः , ४५४ बुद्धौ व्यानमारिकासम्बन्धः ४३८ वस्तुपालमन्त्रियात्रासम्बन्ध: , ४५५ बुद्धौ शकटालमन्त्रिसम्बन्धः ४३९ यात्राभाग्ये वस्तुपालह डालाप्रामप्राप्ति- ४५६ बुद्धौ शकटालमन्त्रिसम्बन्धः सम्बन्धः
२३६ ४५७ बुद्धौ मन्त्रिपाश्वभस्मप्रेषणसम्बन्धः ४४० वस्तपालतेजपालयोमुद्राप्राप्तिसम्बन्धः २३७ ४५८ बुद्धौ धूत द्विजसम्बन्धः ४४१ अनित्यतास्मरणे वस्तुपालसम्बन्धः २३८ ४५९ बुद्धौ भूपसम्बन्धः ४४२ वस्तुपालयात्रासम्बन्धः
२३९ ४६० आयनन्दिलसूरिसम्बन्धः ४४३ समुद्रवीक्षानिर्गतमरुस्थलीपुरुषसंबंध: , ४६१ वायडयामजीवदेवसूरिलल्ल श्राद्ध ४४४ लूणिगमंत्रिधर्मवान्छासम्बन्धः २४० दृष्टान्तः
२५. ४४५ अर्बुदलूणिगवसतिनिर्माण सम्बन्धः , ४६२ चमत्कारे जीवदेवसूरिसम्बन्धः . २५१
२४४
२४५
२४६
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क्रमांक कथाप्रबन्धनामानि पृष्ठांक क्रमांक
कथाप्रबन्धनामानि
पृष्ठांक ४६३ प्रासादपुण्ये विक्रमार्कनिम्बमन्त्रि- ४६९ उचितजल्पने श्रीपादलिप्तसूरिसम्बन्धः २५४ सम्बन्धः
२५१ ४७. प्रगुप्ततार्या पादलिप्तसूरिसम्बन्धः २५५ ४६४ श्री जिनोन्नतिकारक श्रीआर्यखपट- ४७१ वृद्धवादिसूरिपदसम्बन्धः सम्बन्धः
४७२ सिद्धसेनमूरिवाददीक्षासूरिपदसंबंधः २५६ ४६५ श्रीजिनशासनानतौ आर्यखपटाचार्य- ४७३ प्राप्तसर्षपविद्याहेमविद्याश्रीसिद्धसेन-- सम्बन्धः
२५२
दिवाकरसम्बन्धः ४६६ जिनोन्नतिचमत्कारे महेन्द्रोपाध्याय- ४७४ नवीनकटकनिर्माणविद्यासम्बन्धगर्भसम्बन्धः
२५३ सिद्धसेनस्सिम्बन्धः ४६७ अतिशये श्रापादलिप्तसूरिसम्बन्धः , ४७५ प्रमादत्यागे सिद्धसेनसूरिसम्बन्धः । ४६८ विनये पाइलिप्तसूरिसाधुसम्बन्धः २५४ ४७६ अवन्तिसुकुमारस्वरूपम्
२५८ अथ चतुर्थोऽधिकारः क्रमांक कथाप्रबन्धनामानि पृष्ठांक क्रमांक कथाप्रबन्धनामानि पृष्ठांक ४७७ ॐकारनगरप्रासादनिध्यत्तिसम्बन्धः २५९ ४९१ भोगिरिनारतोवालनसम्बन्धः २७० ४७८ नवीनसंवत्सरप्रवर्तने विक्रमाके- ४९२ श्रीहेमसूरिदीक्षासम्बन्धः सम्बन्धः
२६० ४९३ श्रीहेमसूरिनामसम्बन्धः १७९ शत्रुञ्जयतीर्थवालने मल्लवादिसंबंधः २६१ ४६४ जीवदयायां कुमारपाळलम्बन्ध: ४८. हरिभद्रसूरिदीक्षासूरिपदसम्बन्धः । , ४९५ धर्मदृढताया कुमारपालसम्बन्धः ४८ हरिभद्रसूरिक्रोधोपशमसम्बन्धः २६३ ४६६ कुमारपालभूपालयात्रासम्बन्धः । ४८२ बप्पभट्टीदीक्षासम्बन्धः ।
, ४२७ भाग्ये कुमारपालसम्बन्धः २७३ ४८३ आमराज्य प्राप्तिसम्बन्धः
२६४ ४९८ बुद्धौ शातवाहनभूपसम्बन्धः ४८५ गौपगिरी १८ भारस्वर्णप्रतिमानिर्मा- ४९९ भोजजन्मपत्रिकासम्बन्धः पनसम्बन्धः
५०० मुंजमरणस्वरूपे भोजराज्यप्राप्तिसंबंधः २७५ ४८५ श्रीबप्पटिसूरिलक्षणापुरिगमनधर्मराज- ५०१ पदद्वयपठनभोजसम्बन्धः २७७ प्रतिबोधसम्बन्धः
२६५ ५०२ सोचरित्रे भोजमोदकपरिवेषणसंबंधः , लक्षणापुरीस्थितेन गुरुणा समस्या- ५०३ मुग्धविप्रतारणे द्विजसम्बन्धः २७८ पूरणसम्बन्धः
२६६ ५०४ मालतीकुसुमं भातीत्यादि अन्धपदद्वय४८७ आमभूपलक्षणापुरीगमनधर्मभूप मिलन
करणसम्बन्धः
२७८ सम्बन्धः
२६६ ५०५ दाने आपदर्थे धनं रक्षेदित्यादिसंबंधः २७९ ४८८ श्रामकुमार्गगमननिवृत्तिसम्बन्धः २६७ ५.६ नष्टं नष्टं नष्टं नष्टमिति सम्बन्धः । ४८९ आमसमस्यासम्बन्ध:
२६९ ५०७ भोजकृतदानार्थसम्बन्धः ४९० आमाभिग्रहसम्बन्धः
२६९ ५०८ जानुदध्नं श्रुतिदानसम्बन्धः
२७३
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२७४
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(१०)
क्रमांक कथाप्रवन्धनामानि पृष्ठक क्रमांक कथाप्रवन्धनामानि ५०९ 'यदेतत् चन्द्रान्तर' इति काव्यसम्बन्धः २८१ ५३३ दुष्टा स्त्रीविषये मयूरिकासम्बन्धः २९८ ५१० पुनहेमलमदानं शीतोडुषितदान- ५३४ राटिविषये सोढीसम्बन्धः , सम्बन्धः
, ५३५ सिद्धराजप्रशंसितभोजने श्रीहेमसूरि५११ लक्षदाने रौरः सम्बन्धः
सम्बन्धः ५१२ अम्बा तुष्यति लोकसम्बन्धः २८२ ५३६ हल्लदानस्थापकद्विजसम्बन्ध: ५१३ माणुसडा दस दस हवइ सम्बन्धः । ५३. स्वहस्तदत्तफलविषये वस्तुपालसंबंधः , ५१४ क्रीडाचन्द्र छान्दस्वाह्मणागमनसंबंध: ५३८ पुण्यलाभागभसूचकवणिक्त्रयसंबंधः ३०१ ५१५ विद्वत्कुटुम्बसम्बन्धः
५३६ कुसंसर्ग-सुसंसर्गदोषविषये शुकद्वय५.६ नवीनधारास्थापनसम्बन्धः
सम्बन्धः ५१७ एकेन बूडतीति सम्बन्धः
५४० मित्रदयसम्बन्धः ५१८ माघसम्बन्धः
५४१ 'शठोपरि शठेति' विषये शुककथा ३०३ ५१९ वनपालमादभवनसम्बन्ध: २८९ ५४२ करहामकरि पापदाने उष्टसम्बन्धः ५२० धनपालपश्चाशिकादिग्रन्थान बबन्ध ५४३ कर्मणि कृष्णसागरनीरसम्बन्धः इति सम्बन्धः
२९० ५४४ स्वपक्षहन्तरि कच्छपसम्बन्धः ५२१ हरिणवध-सरोवरवर्णन-यज्ञच्छाग- ५४५ स्वार्थसाधने सिंहोन्दिरसम्बन्धः वर्णन धनपालसम्बन्धः
२९. ५४६ पापविषये काष्टश्रेष्ठि-वजा गजधनपालविरचिततिलकमञ्जरीसंबंधः २९१ संबंधः ५२३ 'धर्मो जयति नाधर्मः' इत्यादिसंबंधः २६२ ५४७ चतुर्जामातृसम्बन्धः ५२४ चौरवलयदाने भोजसम्बन्धः २९३ ५४८ भाग्ये सुजाण-बूबससम्बन्धः ३०७ ५२५ खण्डप्रशस्तिकाव्यानयनसम्बन्धः २९३ ५४९ दुःस्थतायां रामऋषिसम्बन्धः ५२६ एकं वस्तु अत्रास्ति परत्र नास्ति- ५५० सीताशुद्धिभवनसम्बन्धः इत्यादिसम्बन्धः
२९४ ५५१ तीर्थप्रभावे सहिजगपुरश्रीशांतिनाथ५२७ कपालत्रयपरीक्षासम्बन्धः
सम्बन्धः
३०९ ५२८ भह रिवैराग्यसम्बन्धः
, ५५२ नवसारीपुर-श्यामळपार्श्वनाथसंबंधः ५२९ विक्रमार्कराज्यप्राप्तिसम्बन्धः , ५५३ देलटला भीआदिनाथसम्बन्धः ५३० प्रथमस्वर्णनृप्राप्तिविकमार्कसम्बन्धः २९६ ५५४ अभयदेवसूरिकृतनागवृत्तिसम्बन्धः . ५३१ विक्रमाद्वितीयो रैनरप्राप्तिसम्बन्धः २९७ ५५५ पेथडसाधुसम्बन्धः ५२२ औदार्ये विक्रमार्कवैतालिकसम्बन्धः , ५५६ प्रल्हादनविहारसम्बन्धः
३०५
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क्रमांक कथाप्रबन्धनामानि पृष्ठांक क्रमांक कथाप्रबन्धनामानि पृष्टीक ५५७ तपागच्छभवनसम्बन्धः ३१५ ५८२ कर्मणि वृषभसम्बन्धः
३२५ ५५८ वृद्धशाळालघशालामवनसम्बन्धः __ ५८४ परवचने आषाढभूतिसम्बन्धः ५५९ देवेन्द्रसूरि-विद्यानन्दसूरिसम्बन्धः » ५८५ लौल्ये जम्बूकसम्बन्धः ५६. धर्मघोषसूरिसम्बन्धः
३१४ ५८६ दम्भे कौलिकसम्बन्धः ५६१ सोमप्रभसूरिशतार्थकथकसम्बन्धः ३१५ ५८७ सपाये काकोसम्बन्धः ५६२ देवसुन्दरसूरिसम्बन्धः
" ५८८ स्वजातित्यजन् दुःखे शृगालसम्बन्धः ३२८ ५६३ मीसोमसुन्दरसूरिसम्बन्धः , ५८९ वैरिसेबने राष्ट्रमृत्युसम्बन्धः ५६४ श्रीमुनिसुन्दरसूरिसम्बन्धः ३१६ ५९० हितवाक्ये कच्छपसम्बन्धः ५६५ साधर्मिकभक्तौ कुमारपाभूपसम्बन्धः . ५६१ अनागतमति-प्रत्युत्पन्नमति-बद्भविष्य५६६ परोपकारे विक्रमार्कभूपसम्बन्धः ३१७ सम्बन्धः ५६७ कुमारपालभूपामारि-प्रासादकरण- ५९२ चटिकासम्बन्ध: दानसम्बन्धः
. १९५ स्वपराभव-समुद्रजयमोपरि टिट्टिभ५६८ कुमारपालभूपालपरिप्रहप्रहणसम्बन्धी
सम्बन्धः
३३१ ५६९ रावणऋद्धिसम्बन्धः
" ५९४ पापे पापबुद्धिसम्बन्धा ५७० इन्द्रऋद्धिसम्बन्धः
स्वीयपापभवने यकसम्बन्धः ३३५ ५७१ चक्रवर्तिऋद्धिसम्बन्धः
५९६ मियपछले तुलाभारसहससम्बन्धः । ५७२ भोजोक्तसमस्याधनपालपूरितसंबंधः । १२० ५९७ अनागतचिन्तने लोमविकसम्बन्धः । ३३६ ५७५ चैत्रयडिपुरुषसम्बन्धः
, ५९८ स्वजातिनिकन्दनपापे गङ्गदत्तमेक५७४ दानभूषणपञ्चकादिभोमसम्बन्धः
सम्बन्धः ५७५ पयस्कधीविषये वैष्णवीतापसीसंबंधः ३२१ ५९९ मुग्धत्वे रासभसम्बन्धः ३३७ ५७६ स्पर्धाया काक-हंससम्बन्धः . ६.० अनुचितजल्पने कुम्भकारसम्बन्धः । ५७७ च टूछिन्ना न जीवन्तीतिसम्बधः ३२२ ६०१ मातृहितोपरि सिंहीसम्बन्धः ५७८ उत्तम-मध्यम-जधन्यमानने दन्ति- ६०२ अविमृश्यवागविकरणे रामभसंबंधः ३३९ सम्बन्धः
३२२ ६०३ मौनं वर्यमिति एकतादितापससम्बन्धः . ५७९ बुद्धौ खञ्जछागीसम्बन्धः ३२३ ६०४ स्वजातिवल्लभेति मूषिकासम्बन्धः ॥ ५८. कर्मणि कृष्णवलिपुत्रसम्बन्धः - ६०५ भये वणिप्रियासम्बन्धः ३४० ५८१ गतधनरत्नाकश्रेष्ठिसम्बन्धः ३२४ ६०६ अकार्यकरणे हालिकनी-शृगालिका५८२ श्रीशंखेश्वरपार्श्वसम्बन्धः
३३५
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(१२)
३४९
क्रमांक कथाप्रबन्धनामानि पृष्टांक क्रमांक कथाप्रबन्धनामानि
पृष्ठांक ६०७ स्वदेशस्वजनसुख श्वानसम्बन्धः ३४१ ६१७ कर्ण(मूल) राजभरणकथ नादि श्रीयशो ६०८ तृष्णार्या कुदृष्टकुरीमितपरीझादौ
भद्रसूरिसम्बन्धः
३४० नापितसम्बन्धः
३४२ ६१८ चन्द्रोदयोपशान्तिसम्बन्धः ६०९ लोभे मस्तकच भ्रमसम्बन्धः ३४३ ६१९ विजयमन्त्र-महिमासम्बन्धः ६१० अज्ञाने हितोपदेशाकरणे खरसम्बन्धः " ६२० बलमुनिना बौद्धगृहीतश्रोरैवत तीर्थ६११ वृद्धहितवाक्ये वृद्धवानरसम्बन्धः ५४४ मोचनसम्बन्धः ६१२ मातुर्बचा पालने द्विजसम्बन्धः ३४५ ६२६ जिनशासनप्रभाबनाया देवसूरिसंबंधः ३५० ६१३ लोभे झिणिझिणि पाहिं चिणिचिणि ६२२ विमलमन्त्रिकृताऽवदप्रासादसम्बन्धः ३५० भली सम्बन्धः
३४५ ६२३ अर्बुदतीर्थ लूणिगवसतिनिष्पत्तिसंबंधः ३५१ २१४ . मुलाणजयने देपालकविसम्बन्धः ३४६ ६२४ भावस्पदारसंतोषे यतिशुद्धाहारग्रहणे ६१५ देपालकविप्रीणित दिल्लोपुरस्थयोगिनो
भूपयतीसम्बन्धः
३५२ प्रीणनसम्बन्धः ३४७ ६२४ प्रन्थप्रशस्तिश्लोकः ।
३५२ ६१६ यशोभद्रसूरिजकलनप्रतिष्ठितपञ्चपुर- .६२५ सिद्धाचले प्रासादादिवर्णनम् ३५३
प्रतिष्ठाधिकारः
समाप्त
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પ્રાસ'ગિક નિવેદન
આગમ પ્રભાકર મુનિ શ્રી પુરુવિજયજી
આજે વિદ્વાનેાના કરકમલમાં પંચશતી પ્રખધ નામને ગ્રગ્રંથ ઉપષ્કૃત કરવામાં આવે છે. આ ગ્રંથ એક ઐતિહાસિક ગ્રંથ છે. એના રચયિતા શ્રી શુભશીલગણી છે. શ્રી શુભશીલગણી, એ વિક્રમના પંદરમા-સેાળમાં સૈકાના એક વિશિષ્ઠ ગણી શકાય તેવા વિદ્વાન હતા. તેમણે ભરતેશ્વર બાહુબલીવૃત્તિ, શત્રુજયકલ્પવૃત્તિ, કથાકેાશ આદિ જેવા દસ દસ હજાર લેાકપ્રમાણુ, મહાકાય કહી શકાય તેવા અનેક ગ્રથાની રચના કરી છે. દાનાદિકથા, પુણ્યસારકથા, સ્નાત્રપ ચાશિકા જેવા નાના-માટા થાથાની પણ રચના કરી છે; ઉણુાહિનામમાલા, પ'ચવસ`ગ્રહનામમાલા જેવા ગ્રંથ રચ્યાના ઉલ્લેખ પણ ‘જૈનગ્રં‘થાવલિ’માં જોવામાં આવે છે. તેમજ શાલિવાહનરિત્ર, ભેજપ્રબંધ આદિ જેવા ઐતિહાસિક સામગ્રી પૂરા પાડતા ગ્રંથ પણ રચ્યા છે. પ્રસ્તુત પંચશતી પ્રમ`ધ સંગ્રહ ગ્રંથ એ આ કેડિટમાં મૂકી શકાય તેવા એક ઐતિહાસિક ગ્રંથ છે. શ્રી શુભશીલગણીએ આ ગ્રંથમાં ઘણી ઘણી ઐતિહાસિક સામગ્રીના સંચય કર્યો છે. અલબત્ત આવા ગ્રંથામાં કેટલીક કિંવદન્તીએ કે અનુશ્રુતિઓને સંગ્રહ કે સમાવેશ થતા હોવાથી એને શુદ્ધ ઐતિહાસિક ગ્રંથ ન કહી શકાય એમ વિદ્વાના માનતા હોય છે, તેમ છતાં કેટલીક કિંવદન્તીએ કે અનુશ્રુતિઓમાં ઇતિહાસનાં બીજ પડેલાં હાઈ આવા પ્રથા વિદ્વાને માટે ઐતિહાસિક ગ્રંથ જ બની જાય છે. આજે આપણા પ્રાચીન ઈતિહાસના સર્જનમાં આવા પ્રખ ધાનેા ઘણા મેાટા ફાળા છે. જો આવા ઐતિહાસિક સામગ્રીએ પૂરા પાડતા થૈાની ઉપેક્ષા કરવામાં આવે તે આપણા પ્રાચીન ઈતિહાસને શેાધી કે લખી જ ન શકીએ. ઘણી વાર એવું બન્યું છે અને આજે પણુ બન્યું જ જાય છે કે વિદ્વાન! જેને શુદ્ધ ઐતિહાસિક ગ્રંથ કે સામગ્રી તરીકે માનતા હૈાય છે. તેવા ગ્રંથા કે સામગ્રીમાં પણ પૂ ગ્રહ, પક્ષપાત કે સાંપ્રદાયિક આદિ ર્ગેાથી રંગાએલા વિદ્વાનાએ તેના આલેખનમાં અતિશયોકિત અને હીનેકિતદેષા કરેલા જોવામાં આવે છે. એટલે ભિન્ન ભિન્ન દૃષ્ટિએ ઐતિહાસિક વિદ્વાના ગમે તેવી માન્યતા ધરાવતા હોય તે છતાં એ હકીક્ત તા નિવિવાદ છે કે ઇતિહાસલેખક કે ઇતિહાસજ્ઞ મધ્યસ્થ વિદ્વાના માટે આવા પ્રખધસંગ્રહેા ઇતિહાસને લગતી ઘણી વિશાળ અને મહત્વની સામગ્રી પૂરી પાડે છે. આ દૃષ્ટિએ જોતાં પ્રસ્તુત પંચશતી પ્રમ’ધ ગ્રંથનુ ઐતિદ્વાસિક ક્ષેત્રે ઘણું ઊંચું સ્થાન છે. શ્રી શુભશીલગણી એ પેાતાના યુગના એક પ્રતિઙ્ગાસરસિક મહાનુભાવ વિદ્વાન હતા. તેએશ્રીએ અનેક મહત્ત્વની વિગતે અને માહિતીએથી પ્રસ્તુત પ્રશ્ન ધ ગ્રહને સમૃદ્ધ કર્યાં છે. આશા છે કે આવે એક અમૂલ્ય પ્રબંધસગ્રહ અનેક પ્રતિએ દ્વારા શુદ્ધ અને વ્યવસ્થિત કરી વિદ્વાનના કરકમલમાં અર્પણ કરવામાં આવે છે, એ અવશ્ય વિદ્વાનેાને ઉપયાગી બનશે જ.
અંતમાં જે મહાનુભાવાએ પ્રસ્તુત ગ્રંથના સંશોધન--પ્રકાશન આદિમાં અનેક રીતે શ્રમ લીધા છે અને જે મહુાનુભાવેએ આવા અમૂલ્ય ગ્રંથના પ્રકાશન માટે પેાતાના ધમ્ય ધનની સહાય કરી દે તેમજ જે સંસ્થા આ ગ્રંથનુ પ્રકાશન કરે છે. તેને હાર્દિક ધન્યવાદ અને અભિનદન છે.
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पञ्चशतीप्रबोध (प्रबन्ध) सम्बन्धः – प्रबन्धपञ्चशती ( रचना, वि. सं. १५२१ )
रागादिकादिमवईमानां तिमालक दलिनःपरां श्रींडरीकादिगुरुनयती नमाम्यदोबाधिममाशिदाता १ किंचिद्वारारा निनातानिशम्परिवित्रिसान्यादिकशातच येापेचातीप्रबोधसंबंध नामाक्रियातमा २ लक्ष्मीसागर सूरी गोपादय दामाद तः शिष्पेशलीले नये प्रथम विश्वयात ३ एकदा श्री गप दत्तीर्घ नमन फलं श्रीवर्धमान जिन्याचा श्रीगोतमस्वामी यदा अष्ट यतः तदस्तत्र स्वास्तामा दकारण किं करिष्यति एवांत गोतम स्वामी सूर्य किरणा नावलं व्यतीर्धाग्याप नियायो नरकारितामादिवच विंशतिनिनिंप्रशन मानप्रमाशा हा कारवमादिकान् क्रमेणवंदात स्म दन्तारित्र्हदमादायवदि जिणवराव घी में परम निदिमा मिमिमदिसेच १तवाद वान्नमस्कृत्यती तिता यदा तदा १३ ताथ मागोतमस्य भिय शुक्षीर संपत ऊसमानीय खागुष्टेतनमध्ये खामवदिता
बुद्धाचारः ततः श्रीगोतामा मार्ग्रिचलनकरमानांम साबालाजयामास जिम गोतमस्वा मिलविध्य 0 तापमानकिवलज्ञानं जातंताता वर्गे नि। श्री वर्धमान जिनवा ना तापमानांकिवलज्ञानंख प्रालोद्यागात ०३ तापमानां ज्ञानमुत्पन्नमोतम स्वामी किवलज्ञानात्पत्तिमजा नन्तामतिप्राह माता प्रदचिणादास्पात तात्रप्रदक्षिणांदचा यदा किवलियम प्रविष्टाः तदागोतमः प्रादयस्तमूर्वाय प्रन्नवेदात जल्पितापि तदावग्वर्धमानः स्वकवल्यायतनामाकरु गोतमः प्राह नगरका कवल्याशातना ततः प्रत वलज्ञानात्यतिबंधात्यागतपापादान नवा मयिचाच प्राताः पुरः प्राहायग्राम हे दी कांदा स्शतघोकि वल ज्ञानममन॥ ततः स्वेदांगो तामदधानः पाद तवापिकवलज्ञानं तविष्यति इतिश्रीगोतमस्वाम्प टापदतीर्षवेदन संबंध ब १. एकदाश्रीनि पनर या पीरा जरवाणेन समागाष्टी करणानुपदिष्टाः सदानत्रमाणका आगताः पाक नमुलााकन निहाटापिकाकाशव चालिता माचतत्र निराधारातास्त्रो मुत्राशाः श्रीजिनप्ररिममुखाप्रा आरामद दासूर्य हरिः प्राददर्य ततः खरिताता ततः!
V
A - संज्ञकप्रति, छाणी ( वडोदरा ) ना श्रीजैन व ज्ञानमंदिरना उपा. श्रीवीरविजयजीशास्त्रसंग्रहनी प्रतिना प्रथम पृष्टनी प्रतिकृति.
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|| अहंम् ॥ श्रीशुभशीलगणि- विरचितः पञ्चशतीप्रबोध (प्रबन्ध ) सम्बन्धः
( प्रबन्धपञ्चशती )
युगादिदेवादिमवर्द्धमाना - न्तिमान् जिनान् केवलिनः परांश्च । श्रीपुण्डरीकादिगुरून् यतश्च, नमाम्यहं बोधिसमाधिहेतोः || १ || किश्चिद्गुरोराननतो निशम्य, किश्चिन्निजान्यादिकशास्त्रतश्च । ग्रन्थोद्ययं पञ्चशतीप्रबोध-सम्बन्धनामा क्रियते मया तु ||२|| लक्ष्मीसागरसूरीणां पादपद्मप्रसादतः ।
शिष्येण शुभशीलेन, ग्रन्थ एष विधीयते || ३ ||
[1] अथ श्रीगौतमस्वाम्यष्टापदतीर्थवन्दनसम्बन्धः ।
एकदा श्रीअष्टापदतीर्थनमनफलं श्रीवर्धमानजिनपार्श्वे श्रुत्वा श्रीगौतमस्वामी यदा अष्टापदतीर्थसमीपे गतः तदा तत्रस्थास्तापसा दध्युरेष किं करिष्यतीति, एवं तेषु ध्यायत्सु गौतमस्वामी सूर्यकिरणानवलम्ब्य तीर्थस्योपरि ययौ ।
चत्तारि अड्ड दस दोय, वंदिआ जिणवरा चउन्चीसं ।
परमट्ठनिडिअट्टा, सिद्धा सिद्धिं मम दिसंतु ॥१॥
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तत्र भरतकारितप्रासादे चतुर्विंशतिजिनेन्द्रान् मानप्रमाणदेहाऽऽकारवर्णादिकान् अनु- 15 क्रमेण वन्दते स्म |
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तत्र देवान् नमस्कृत्य तीर्थादुत्ततार यदा तदा १५०३ तापसा गौतमस्वामिवचसा प्रबुद्धाचारित्रं जगृहुः । ततः श्रीगौतमो मार्गे चलन् कस्माद्मामात् [ कुतश्विद्यामात् ] शुद्धं क्षीर- 20
१. C. प्रतौ नास्ति ।
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प्रबन्धपञ्चशती
भृतं पतग्रहमानीय स्वाङ्गष्ठं तन्मध्ये क्षिप्त्या सर्वान् तापसान् भोजयामास । तेषु जिमत्सु गौतमस्वामिलब्धि ध्यायत्सु ५०० तापसानां केवलज्ञानं जातम् । ततो वमनि श्रीवर्द्धमानजिनवर्णनं श्रुत्वा ५०० तापसानां केवलज्ञानं बभूव । प्रभौ दक्पथागते ५०३ तापसानां ज्ञानमुत्पन्नम् ।
गौतमस्वामी केवलज्ञानोत्पत्तिमजानन् तान्प्रति प्राह–प्रभोः प्रदक्षिणा दास्यन्ते [ दीयन्तामिति ] 5 ततस्ते प्रदक्षिणां दत्त्वा यदा केवलिपर्षापविष्टाः तदा गौतमः प्राह-ये मूर्खास्ते मुर्खा एवं प्रभु
न वन्दन्ते जल्पिता अपि, तदावग् वर्धमानः स्वामी केवल्याशातना मा कुरु [ कार्षीः ], गौतमः प्राह-भगवन् ! का केवल्याशातना ?, ततः प्रभुणा तेषां केवलज्ञानोत्पत्तिसम्बन्धः प्रोक्तः, ततो गौतमः तेषां पादान् नत्वा क्षमयित्वा च प्रभोः पुरः प्राह—येधामहं दीक्षां दास्ये [ प्रादाम् ] तेषां
केवलज्ञानं, मम न, ततः तत्खेदं गौतमे दधाने प्रभुः प्राह तथापि केवलज्ञानं भविष्यतीति ।।१।। 10
[2-17] षोडश श्रीजिनप्रभसूरिप्रबन्धाः । एकदा श्रीजिनप्रभसूरयः पीरोजसुरत्राणेन समं गोष्ठी कुर्वाणा उपविष्टाः । तदा तत्र मुलाणका आगताः, एकेन मुलाणकेन निजटोपिका आकाशे उच्छालिता, सा च तत्र निराधारा तस्थौ, सुरत्राणः श्रीजिनप्रभसूरिसंमुखं प्रेक्ष्याऽऽह-अहो महदाश्चर्य ! सूरिः प्राह-वर्यम् । तप्तः
सूरिणा तत्रैव स्तम्भिता । ततः सुरत्राणोऽवग-आनीयता टोपिका, ततः स आकर्षणमन्त्रं प्रयुञ्ज15 यामास परं नैति सा, ततः सुरत्राणः प्राह-जिनप्रभसूरे ! त्वमानय । ततः सूरिणा क्षिप्तो रजोहरणस्तत्र गत्वा टोपिकामानिनाय ततःसुरत्राणश्चमच्चक्रे ।
द्वितीयदिने मस्तकस्थवारिभृतघटा पानीयहारिका यावद्राज्ञोऽने चचाल तावत्तथा मुलाणेन कृतं यथा घटयुगं व्योम्नि निराधारं स्थितं, स्त्री तु अग्रे गता घटं मस्तके अदृष्ट्वा तत्र
[तद् ] निराधारं च वीक्ष्य राजा चित्ते चमच्चक्रे । ततो राज्ञा स प्रशंसितो यदा, तदा गुरुः 20 प्राह-निराधारं जलं यदि तिष्ठति तदा वर्या कला । ततो राज्ञोक्तः स मुलाणस्तत्कलामजानन् मौनीबभूव, ततो गुरुणा कर्करेणाऽऽहत्य घटयुगं जलं निराधारं स्थापितं दृष्ट्वा] राजा चमच्चके ।
एकदा सुरत्राणेन कान्हडग्रामो भग्नः, तत्रत्या श्रीवीरप्रतिमानीय यवनैः ढील्यां' मसीतद्वारे सोपानकस्थाने स्थापिता । तत एकदा सुरत्राणः श्रीसूरिस्कन्धे हस्तं दधानो मसीति
कायां यावत्प्रविशति तावत्सूरिः वीरप्रतिमा वीक्ष्यैकस्मिन्पार्श्वे स्थितः । तदा सुरत्राणोऽवग-एवं 25 किं कृतं ? जिनप्रभसूरिः प्राह-प्रभुर्देवोऽस्ति । सुरत्राणोऽवग-अयं भूतः किं जानाति ? न
किंचित् । सूरिः प्राह-अयं देवः सत्यवादी ज्ञानी विद्यते । भूपोऽवग्-तहि जल्पय । सूरिः प्राह स्वामिन् ! भूतस्थानकमुपदेशाय कार्यते, तत्र मंह्यते, पूज्यते, ततः पृच्छथते, ततः पृष्टं कथयति, ततः स्वामिनाः देवगृहं कारितं । यदा प्रतिमा नोत्पतति तदा सूरिः प्राह-त्वं हस्तं लगय
यथोत्तिष्ठति, ततस्तथा कार्ये कृते प्रतिमां तां देवालये निवेश्य वर्यभोगेन पूजयित्वा अन्तरा 30 वखं बन्धयित्वा राजा यद्यद्वंशसम्बन्धं पृच्छति तत्तस्योत्तरं दत्ते । २१ प्रियाः प्रोक्ताः, सुरत्राणो
हृष्टः, शङ्कया वस्त्रेऽपसारितेऽपि तथैव प्राह । ततो विशेषतो वीरः पूजितः, कान्हडोमहावीर इति [च ] ख्यातिरभूत् । इति कान्हडा[ड] महावीरस्थापनजिनप्रभाचार्यसम्बन्धः ।।२।। १ 'दिल्ही' इति भाषायाम् । -संपा० ।
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प्रथमtsfaकारः
एकदा सुरत्राणो ग्रीष्मे पुराद्वहिः वटवृक्षे स्थितः सच्छायं वटवृक्षं वीक्ष्य प्राह-जिनप्रभा [ जिनप्रभसूरिणः पुरतः ] यदि एवंविधा शीतला छाया सार्द्धमायाति तदातीव सुखं भवति । ततः सूरिणोक्तं समेष्यति सार्द्धं वृक्षः, ततश्चलति सुरत्राणे सोऽपि वृक्षचचाल सायं यावद, पञ्चाद्विलोकितं स्थानं तत्र न ज्ञातः [ ज्ञातं ] पश्चाद्विसर्जितो वृक्षः स्वस्थाने गतः, राजा चमत्कृतः ॥ इति वृक्षचालनसम्बन्धः ॥ ३ ॥
एकदा सुरत्राणेोक्तं जनप्रभसूरे ! त्वं विज्ञोऽसि, कथय अद्य अहं कस्मिन्पुरद्वारे [ केन पुरद्वारेण ] निस्सरामि । ततो जिनप्रभसूरिणा पत्रे लिखित्वा मुद्रयित्वा लेखोऽर्पितः, सुरत्राणस्य प्रोक्तं च पुरस्य [ पुराद् ] बहिर्गमनादनुवाचनीयो लेखः । ततः सुरत्राणो वप्रस्यैकविंशति [C] मलंगक [?]पार्श्व इष्टिका अपसार्य बहिर्निर्गतः, ततो लेख वाचयामास यथा निर्गतस्तथैव लिखितमभूत् राजा हृष्टः । इति वलंग निर्गमनसम्बन्धः ||४||
एकदा सुरत्राणोऽवग्— अद्याहं किं भोक्ष्ये, ततः सूरिलेख लिखित्वा मुद्रयित्वा ददौ, जेमनादनुवाच्यः ततः सुरत्राणेन खलो भक्षितः ततो लेखे विलोकिते खलभक्षगलिखनं दृष्टं राजा हृष्टः ॥ ॥ इति खलभक्षणसम्बन्धः ||५||
एकदा सुरत्राणोsar-सूरे ! कथय, शर्करा कस्मिन् क्षिप्ता मृ[मि]ष्टेति, मन्त्रिणः पण्डिताः पृष्टाः केनापि नोक्तं यदा तदा सूरिर्जगौ "मुखे क्षिप्ता” ||६||
एकदा सुरत्राणो बहिरुद्याने गतः, महत्सरो जलभृतं दृष्ट्वा सर्वेषामत्रे प्राह - एतत्सरो रजःपूरणं विना कथं लघु भवति । एवं प्रोक्ते यदा न केनापि उत्तरो दत्तस्तदा सूरिः प्राहअस्म पार्श्वे द्वितीयं सरो महत्तमं कार्यते तदा भवति लघु, राजा हृष्टः ||७||
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एकदा सुरत्राणो मरुस्थलीमध्ये समायातो । यदा श्रामनार्थोऽक्षतानानीय वर्द्धयन्ति । सुरत्राणो धनं वितीर्य प्राह-- कथमाभरणरहिताः स्त्रियो दृश्यन्ते, केन लुण्टिता दण्डिता वा ? सूरिणा 20 प्रोक्तं - इयं मरुस्थली रुक्षा धनहीना विद्यते, ततः सुरत्राणः स्त्रियं स्त्रियं प्रति शतं दीनारान् दत्त्वा जोत्कारं चक्रे ॥ ८ ॥
एकदा सुरत्राणो जगौ - यथा चमत्कारितीर्थं कान्हड़कमहावीरोऽस्ति तथाऽन्यदपि किमस्ति ? ततः शत्रुब्जयतीर्थव्याख्यानं कृतं तत्तः ससंघो जिनप्रभसूरियुतः शत्रुंजये गतः, तत्र तीर्थं दृष्ट्वा चमत्कृतो यदा तदा' सूरिः प्राह - मुक्ताफलैरिमा [रियं ] राजादनीयादि [ यदि | 25 वध्यते तदा क्षीरं झरति, ततस्तथा कृते राजादनी क्षीरं वृष्टा, राजा [राज्ञा] संघपतेराचारः कारितः तत्र लेखितो, योऽस्य तीर्थस्यावज्ञां करिष्यति स गोस्वामिनः करोति । ततस्तत्र सप्तरेखा कारिता पाषाणैः । ततोऽधस्तादुत्तीर्य सर्वान् जनान् प्रति माह आत्मीयमात्मीयं देवमानयत । ततो लोकैः स्वस्वदेवः हर - हरि - ब्रह्म-जिनादिरानीतः राज्ञा सर्वान् मण्डयित्वा पृष्टम् एतेषु -
१ तदेति B प्रतौ नास्ति ।
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प्रबन्धपश्चशती [ पृष्टमेतेषु ] ' देवेषु को वृद्धः? यदा लोको न वदति तदा जिनप्रतिमा मुख्यस्थाने उपविश्य [ उपवेश्य ] हरिब्रह्मादिप्रतिमाः परितो निवेशिताः, स्वयमासने उपविश्य परितः सेवकान् सायुधान् स्थापयित्वाह-को वृद्धः ?, लोका जगुः, स्वामी एव वृद्धः । सुरत्राणः प्राह ---यद्येवं तर्हि
जिनो वृद्धः, शस्त्ररहितत्वात् , सायुधाः सर्वे सेवकाः, ततो लोकैरुक्तं प्रभुवचःप्रमाणमिति।।९।। 5 ततः सुरत्राणो गिरिनारगिरौ गतः, तत्र अच्छेद्याभेद्यप्रतिमां नेमिनो ज्ञात्वा घातैः स्फुलिंगनिःसरणः सुरत्राणः प्रभुं प्रणम्य क्षमयित्वा १०० मित स्वर्णटङ्ककैर्वर्द्धयामास ॥१०॥
एकदा जिनप्रभः पृष्टः सुरत्राणेन, भूमौ किं पुष्पं वृद्धम् ? सूरिः प्राह -- वउणि' (?) जगढंकनत्वात् ।।११।
एकेन सुरत्राणस्याग्रे प्रोक्तं-जगसिंहः साधुः कूटं न जल्पति, ततः सुरत्राणेन पृष्टं जग10 सिंह ! तव गृहे कियत् धनं विद्यते ? तेनोक्तम्--कल्ये कथयिष्यते । ततो गृहे गत्वा साधुः
सर्वगृहलक्ष्मीसंख्यां कृत्वा सुरत्राणपार्श्वे गत्वा प्राह-मम गृहे ८४ लक्षाः हेमटङ्कका विद्यन्ते । ततः सुरत्राणेन सत्यं तं झात्वा १६ लक्षाः स्वकोशादापिताः कोटीध्वजः कृतः सः ॥ १२ ॥
एकदा सुरत्राणेन स्वहस्ते वयं रत्नं गृहीत्वा प्रोक्तं-भो जगसिंह ! अस्माद्रत्नादन्यकिमपि महद्वर्य रत्नं विद्यते न वा ?, साधुः प्राह-अस्माद्वर्यो भवान् रत्नं । सुरत्राणो रञ्जितः 15 बहुलक्ष्मी ददौ ॥ १३ ॥
अन्यदा उकेशज्ञातिमुख्यसाधुजगसिंहगृहे कोऽपि खरसाणी (?) वणिम् पञ्चलक्षटककान् न्यासीकृत्वा गतः । सप्तवर्षाणि गतानि । इतस्तेन जगसिंहं मृतं श्रुत्वा ध्यातं न्यासीकृतं धनं गतम् पुनातं तस्य पुत्रो मुहणसिंहो विद्यते, तस्य परीक्षा क्रियते । ततस्तत्रागत्य सः प्राह भो मुहणसिंह ! तव पिता मम मित्रमभूत्, मया तु तव पितुः पार्श्व पश्चलक्षटंकका न्यासीकृताः तानपयेदानीं । मुहणसिंहोऽवग-यदि मम पितुरक्षराणि दर्शयिष्यसि तदाऽपयिष्यामि । तत्र [तस्य] पार्थेऽक्षराणि न सन्ति, अगटके जाते सुरत्राणपाधै गतौ, स्वं स्वं सम्बन्धं प्रोचतुः। स खरसाणी प्राह-भवान् पितुः समां करोतु । मुहणसिंहः प्राह~पश्चलः पितरं किं विक्रीणीचे ? ततः पञ्चलमा दत्ताः तस्मै । खरसाणी जगसिंहाक्षराणि दर्शयित्वा प्राह-सिंहात्सिंह एव जायते
सत्यम् । ततो मुहणसिंह एकलक्षेण परिधापितः मैत्रीकृत्य, स मुहणसिंह उभयकालं प्रतिक्रमण 25 त्रिकालं देवपूजां करोति । साधून विहार्यव जिमति । वर्षमध्ये साधर्मिकवात्सल्यत्रयं संघा त्रयं
करोति स्म ॥१४॥
एकदा सुरत्राणस्याग्रे केनचिद्रत्नत्रयं विक्रेतुमानीतं, रत्नपरीक्षका आकारिताः सर्वे, रत्नानि व्यावर्णितानि, ततो जगसिंहाय दर्शितानि । साधुर्जगौ एकममूल्यं, द्वितीयं लक्षमूल्यं, तृतीयं
१. एतेषु को वृद्ध इति B. प्रतो वर्तते । 30 २. शपथ, सोगन इति भाषायाम् । संपा०
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प्रथमोऽधिकारः
कपर्दिकामूल्यं । राज्ञा पृष्टं कथं ज्ञायते ? प्रथमं घनघातशतेनापि न भग्नम् । द्वितीयं धनघातदशके मनागुच्छ्वसितम् । तृतीयं घनघाताद्विधा जातम् । प्रथमघाते मध्ये मण्डूकिका सूक्ष्मा निर्गता, ततः साधुर्मानितः, तस्य वणिजः प्रथमरत्नस्य लक्षत्रयं दापितं, द्वितीयस्य लक्षं दापितं, तृतीयस्य कपर्दिका दापिता ॥ १५ ।।
एकस्मिन्पुरे श्राद्धमध्ये रोग उत्पन्नः कथमपि न निवर्त्तते, ततः श्राद्धद्वयं श्रीजिनप्रभसूरि. 5 पार्श्व प्रेषितं । तौ श्राद्धौ जिनप्रभसूरीणां ध्यानं कुर्वतां पार्श्वे यावदायातौ तावद् गुरुपार्श्वे युवतीद्वयं ददर्शतुः । ततस्तौ दध्यतुः, गुरूणां स्त्रीणां परिग्रहो विद्यते, ततो यावद्वलितौ स्तम्भितौ, ततो ध्यानानन्तरं ते देव्यो प्रोचतुः-आवां कथमत्रानीते ? गुरुभिः प्रोक्तं युवाभ्यां श्रीसंघस्योपद्रवः क्रियतेऽतः शिक्षा [ शिक्षा ] दास्ये। ततस्ते प्रोचतुः अद्यप्रभृति श्रीसंघस्योपद्रवो न कार्य: । ततस्ते विसजिते । श्राद्धद्वयं मुत्कलं जातं, गुरवो नताः, स्त्रीसम्बन्धः पृष्टः । गुरुभिः प्रोक्तं भवतां पुरे 10 श्राद्धानामुपद्रवः श्रुतः, स चाधुना निवारितोऽस्ति, भवद्भया दृष्टम् , ततस्तौ श्राद्धौ स्वपुरे गत्वा गुरुकृतं ज्ञापितवन्तौ ॥ १६ ॥
एकदा मेदपाटीयः पाल्हाको वैद्यः सुरत्राणचिकित्साकृते आगतोऽभूत्, स च कोमल्लसूरिशालायां गतस्तत्र श्रीतपागच्छसूरिवराणां तैनिन्दा कृता, ततस्तेन हकितास्ते यतयः कोमलाः, ततः कलिर्जातः केषांचित् हस्तो भग्नः, केषांचिन्मुखं ततः सर्वे वादं कुर्वाणाः सुरत्राणपाधैं 15 गताः सुरत्राणेन सर्वेषां चेष्टितं ज्ञात्वोक्तम्-कस्य दण्डः क्रियते, सर्वे न्यायिनः, सर्वे चान्यायिनः, अधप्रभृति केनापि कलहो न कर्तव्यः । ॥ इति समतायां पीरोजसुरत्राणसम्बन्धः ।।१६॥
}} इति कियन्तो जिनप्रभसूरीणामवदातसम्बन्धाः ॥१७॥
[18] प्रस्तररत्नप्राप्ती जगडूसम्बन्धः ॥ भद्रेश्वरपुरे वेलाकूले श्रीमालज्ञातीय जगडू साधुर्वसति, स च जलस्थलव्यवसायं करोति स्म । एकदा जगडू वणिजो यानपात्रं वस्तुभिर्भूत्वा हरीमजद्वीपे गतः तत्र वस्कारिका गृहीता वस्तु उत्तारितं, क्रयविक्रये यौ] कर्तुं लग्नः तत्र च बहवो वस्कारिकाः सन्ति ।
एकदा द्वयोर्षस्कारिकयोरन्तरे महान् प्रस्तरो निर्ययो । स च बहिः कर्षितोऽन्तराले स्थापितः । तस्योपरि उपविशतो द्वावपि वणिजौ । क्रमाद्विवादोजातः। एकः कथयति मदीयः अपरोऽपि 25 वक्ति मदीयोऽयम् । एवं विवादे जाते राजपाधै गत्वा अपरेण वणिजा सहस्रत्रयं टङ्ककानां मूल्यं कृतम् । जगडूवणिजा बहुधनं दत्त्वा स प्रस्तरो गृहीतः, याने क्षिप्तः, यानपात्रं चलितं भद्रेश्वरोपकण्ठे समागतं यावत्तावदेकेन नरेण जगडूपाचे प्रोक्तं भवतो वाणिजकः प्रचुर धनमुपाागतः वर्य एको महान् पाषाण आनीतोऽस्ति तेन गेहमपि भरिष्यति । इति हास्येनोक्ते जगडूः प्राह-“वणिजो यदि वयं चावय॑ चानयन्ति तच्छ्रेष्ठिनः प्रमाणमेव । यादृशं भाग्यं 30 धनिकस्य भवति ताहगेव वस्तु आयाति. लाभोऽपि तादृक्ष एव भवति, अत्र विचारो न क्रियते। ततो जगडूः समुद्रतीरे तस्य संमुखं गत्वा सन्महं वणिकपुत्रं प्रस्तरं च स्वगृहे नीतवान् प्राह
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प्रबन्धपञ्चशती
च लोकाग्रे हसितेन रुदितेनापि कर्मणः पुरः को न [नु] अते, वयं कृतमनेन मम महत्त्वं तत्र रक्षितं, ततो गृहस्यांगणे मुक्तः प्रस्तरः। यदा जगडूः प्रस्तरस्योध्वमुपविशति तदा चिन्तयतिपृथिवीं धनार्पणात्सुखिनों करोमि । ततो गुरुपार्श्वे प्रस्तरस्वरूपं प्रोक्तं, प्रस्तरमध्ये किमपि वर्य
विद्यते, ततो विदार्य प्रस्तरो विलोकितः, सपादलक्षमूल्यानि रत्नानि निर्गतानि, बही लक्ष्मी5 र्जाता ॥ १८ ॥
[19] जगडूयाधुसम्बन्धः ॥ भद्रेश्वरे माडलभूपो राज्यं चक्रे । पत्तने वीसलराजः सेवां करोति । सालगश्रेष्ठिनः श्रीदेवी पत्नी, पुत्रा-जगडू-पद्मराज-मल्लाहा बभूवुः । जगडूसाधुः समुद्रतीरे हट्ट मण्डयामास । एकदा
जगडूपाचे यानपात्रैकाः समुद्रस्तेना आगताः, तैः प्रोक्तम्-अस्माकम् एकं यानं मदनभृतं च दित्त. 10 मस्ति, यदि भवतो रोचते सदा धनं दत्त्वा ग्राह्यम् । ततो जगडूस्तत्र गतो मूल्यं कृत्वा
यानपात्रं मदनभृतं ललौ, शकटानि भृत्वा जगडूगृहे समेतः, जगडूकमकराः जगडूपल्याः पुरः प्रोचुः, जगडूसाधुना मदनं गृहीतं कुत्रोत्तार्यते । जगडूपत्नी प्राहे-अस्माकं गृहे मदनं पापनिबन्धनं नोत्तायते । तया तु नोत्तारयितुं दत्तम् । ततो मदनेष्टिका गृहांगण लिम्बवृक्षस्याध उत्तारिता ।
जगडूः पन्या समं कलहं चक्रे, हकिता वक्ति मदनव्यवसाये बहुपापं लगति, ततो मिथः कलिं 15 कृत्वा रुष्टी, जगडूः प्रियां न जल्पयति, पत्नी जगडूं न जल्पयति एवं मासत्रये जाते शोतकालः
समायातः। जगहू पुत्रेण अङ्गीष्टकं कृतं, तत्र तृणादीनि क्षिपति तापनार्थे । इतो बालचापल्यादेका मदनेष्टिकामंगीष्टके चिक्षेप । मदनं गलितं, स्वर्णमयीष्टिका दृष्टा पल्या । पली अजल्पन्त्यपि धनलोभात् जगहू प्रति 'इतो विलोक्यतां ततो जगडूः संमुखमपि रुष्टो न विलोकयति, ततः पन्योक्तम्
'आत्मनो मदनेष्टिका स्वर्णष्टिका जाता' ततः संमुखं यावद्विलोकयति तावत्स्वर्णष्टिका दृष्टा । ततो20 ऽपरासामिष्टिकानां परीक्षा कृता स्वर्णेटिका ज्ञाताः, ततः छन्नं स्वर्णेष्टिका गृहमध्ये आनीता मदनं
पृथक्कृत्वा विक्रीतं पञ्चशतप्रमाणाः । स्वर्णेष्टिका जाता ततः पत्नी पर्ति प्रति प्राह-गुरव आकार्यन्ते गुरूक्ते धर्मे धनं व्ययते, धनं शाश्वतं न भवति, ततो गुरव आकारिताः सुमहोत्सव. पूर्व, गुरवो मदनव्यवसायं जगडूसाधुना कृतं, श्रुत्वा जगडूगृहे विहतुं न यान्ति, ततो गुरवः
प्रोचुरस्माभिश्चल्यते, ततो गुरवो देववन्दनार्थं क्षुल्लकयुता आकारिताः । गुरवो गृहे देवान् वन्दन्ते 25 तदा क्षुल्लकः प्राह-भगवन् ! जगडूगृहे किं लङ्का समागता ? इतो वीक्ष्यतां ततो गुरुभिः
स्वर्णेष्टिका दृष्ट्वा जगडूः पृष्टः का [कुत इमाः ] स्वर्णेष्टिकाः ? जगडूः प्राह इष्टिकाग्रहणसम्बन्धं सर्वम्, ततो गुरवो हृष्टा जगडूसाधुना विहारिताः स्वउपाश्रये [ स्वोपाश्रये ] आगताः । ततो जगडूः प्राह मया मदनभ्रान्त्या इष्टिका गृहीताः जाताः सुवर्णमय्यः, उच्चैर्न जलप्यते राजभयात् , टङ्कानां कोटिर्जाता जगडूगृहे ।।
एकदा गुरुभि संवत् १३१५।१३१६३१३१७ वर्षत्रये भावि दुर्भिक्षं जातं । ततो भाषासमित्या जगडूसाधुञपितः । ततो जगडूसाधुः ग्रामे ग्रामे पुरे पुरे वणिक्पुत्रान् धान्यमूढकलक्ष
गान् संग्राहयामास । ततस्तस्मिन् दुष्काले समागते ११२ महासत्रागारा मण्डितास्तेष मनुष्यसहस्रदशपञ्चाशजिमन्ति । राजानः सीदन्तोऽभवन् धान्यं विना, अष्टौ मूढकसहस्राणि वीसलदेवस्य राज्ञः पत्तनस्वामिनो ददौ, द्वादशमूढकसहस्रान हम्मीरभूपस्यार्पितवान् । इतो
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प्रथमोऽधिकारः
गीजनीसुरत्राणो जगडूसमीपे धान्यं याचितुमागतः तदा जगडूः संमुखं गतः सुरत्राणेनोक्तं को जगडूः ? जगडूः प्राह "हुँ जगडू" । ततः सुरत्राणः प्राह-न्यायेन त्वं जगत्पिता यतस्त्वया जगदुद्धृत्तं धान्यदानाव, ततो धान्यं याचितं सुरत्राणेन । जगडूः प्राह-गृह्यताम् । ततः कोष्ठा
रे "रंकनिमित्त"मित्यक्षराणि वीक्ष्य सुरत्राणः प्राह-अहं पश्चाद्यास्यामि रंकनिमित्तं धान्यं । न ग्रहीष्ये । ततो जगडूः अस्य रंकनिमित्तव्यतिरिक्तं एकविंशतिमूढकमितं धान्यं सुरत्राणाय ददौ । 5
अट्ठय मृढसहस्सा वीसलरायस्स बारहम्मीरे । इगवीमा सुरताणे तई, दिद्धा जगडू दुभिक्खे ॥१॥ दानमाल जगत्रणी, केती हुई संसारि ।
नउकरवाली मणी अड तेहिं अग्गला विआरि ॥२॥ सत्रागारे पत्तनपार्श्वस्थे राजा वीसलो गतस्तत्र मनुष्यान् विंशतिसहस्रमितान् जिमतो 10 दृष्ट्वा राजा जगडूसाधुं प्रति प्राह-"अन्नं तवात्रास्तु घृतं मम परिवेष्यता" तथा कृते घृते निष्ठिते
राज्ञा बीसलराझा [ राजेन ] तैलं पर्यवेष्यते [ पर्यवेष्यत ] पुरा जगडूः स्वस्मिन्सत्रागारे घृतं पर्यवेषयति [त् ] ततोऽन्यदा राजा जगडूपार्धात् 'जी-जी' कारयत् । श्रुत्वा चारणः प्राह
वीसल तूं विरुई करई, जगडू कहावइ जी । तुं नमावइ 'फातेलसुं (१) उअ नमावइ घीइ ॥३॥
15 ततो जगडूसाधुः १८८ जिनप्रासादान कारयामास श्रीशत्रुजये सविस्तरा[र] यात्रात्रयं चकार वर्षमध्ये सार्मिकवात्सल्याष्टकं संघार्चाष्टकं अनेके दीनदुःस्था उध्धाध्दिारिता धान्यदानात् ॥१९॥
[20] श्रीजिनप्रभसरिदेवगिरिप्राप्तिसम्बन्धः ॥ ___ एकदा श्रीजिनप्रभसूरयः पुरे पुरे ग्रामे ग्रामे देवान्नमस्कत्तुं चलिताः । श्रीअहम्मदापरनामपीरोजसुरत्राणेन सह देवगिरौ प्राप्ताः। तत्र तेषां पुरप्रवेशमहोत्सवेन बहुधनं व्ययितं श्राद्धैः। 20 जिनप्रभसूरयः सर्वेषु प्रासादेषु देवान्नमस्कृत्य गृहचैत्यानि वन्दमानाः सा० जगत्सिंहगृहे गताः, तत्र वर्यवैडूर्यरत्नमयस्फटिकरत्नमयस्वर्णमयरूप्यमयप्रतिमा ववन्दे सूरिः, ततस्तद्गृहतीर्थं दृष्ट्वा सूरयो मस्तकं धूनयन्तः । ततः जगत्सिंहेन पृष्टं शिरः करमाळूनितम् ? गुरवो जगुः अस्माभिः स्थाने स्थाने प्रामे ग्रामे पुरे पुरे देवा वन्दिताः गुरवोऽपि वन्दिताः, परमधुना एकमिदं भवद्गृहचैत्यम् अपरं जंघरालपुरे तपा श्रीसोमतिलकसूरयो वन्दिताः अतोऽधुना तीर्थद्वयं सर्वोत्कृष्टं 25 मनसि आयातम् , अतः शिरोधूनितम् , तीर्थवन्दनेन मुक्तिसुखमज्यंते, यतः
अरिहंतनमुक्कारो, जीवं मोएइ भवसहस्साओ । भावेण कीरमाणो, होइ पुणो बोहिलाभाए ॥१॥
१ तेल' इति टीप्पण्याम् A प्रती।
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प्रबन्धपश्चशती धर्मज्ञो धर्मकर्ता च, सदा धर्मप्रवर्तकः । सत्त्वेभ्यो धर्मशास्त्रार्थ-देशको गुरुरुच्यते ॥२॥ अज्ञानतिमिरान्धानां, ज्ञानाञ्जनशलाकया ।
नेत्रसुन्मीलितं येन, तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥३॥ ___इति धर्मोपदेशं श्रुत्वा धर्मिष्ठानुरागं च ज्ञात्वा जगसिंहः साधुः सविशेषां श्रीजिनप्रभसूरीणां भक्ति चक्रे वयवस्खानपानदानात् ॥२०॥
[21] साधर्मिकभक्तौ जगसिंहसाधुसम्बन्धः । साधर्मिकवात्सल्यफलं मुक्तिशर्मप्रापकं श्रुत्वा जगसिंहसाधुर्देवगिरौ ३६० प्रमाणाः [णान् ] 10 स्वतुल्यव्यवहारिणो धनव्यवसायादि-सानिव्यकरणादिभ्यः साधर्मिकाचके, ततः प्रति दिनमेकै
कस्मिन् गृहे पक्वान्नादिरसवती निष्पाद्यते । तत्र सकुटुम्बा सर्वे श्राद्धा जिमन्ति स्म । तत्र दिनं प्रति [प्रतिदिन] ७२ सहस्रद्रव्यव्ययो भवति । एवं प्रतिगृहे जिमतः वर्षप्रान्ते द्वितीयवारं वारका समायाति, ततो धर्मकृत्यां कुर्वाणेन जगत्सिहसाधुना भरतदण्डवीर्यराजानौ स्मारितौ ॥२१॥
[22] जगसिंहशत्रुञ्जययात्रासम्बन्धः । एकदा जगसिंहसाधुः श्रीसोमतिलकसूरिपार्वे धर्मरूपं [ स्वरूपं ] पप्रच्छ । तदा गुरुभिः प्रोक्तमेवं धर्मतत्त्वम् ये मिथ्यात्वतिमिरान्धा न भवन्ति तेषां पुर एवं धर्मः प्रोक्तव्यः जैनमते
धम्मेण धणं विउलं, आउं दीहं सुहं च सोहग्गं । दालिदं दोहग्गं अकालिमरणं अहम्मेण ॥१॥ कथमुत्पद्यते धर्मः, कथं धर्मो विवर्धते । कथं वा स्थाप्यते धर्मः, कथं धर्मो विनश्यति ॥२॥ सत्येनोत्पद्यते धर्मो, दयादानेन वर्धते । । क्षमया च स्थाप्यते धर्मः, क्रोधलोभाद्विनश्यति ॥३॥ अहिंसालक्षणो धर्मो-ऽथाधर्मः प्राणिनां वधः । तस्माद् धर्मार्थिना नित्यं, कर्तव्या प्राणिनां दया ॥४॥ स्वाख्यातः खलु धर्मोऽयं, भगवद्भिर्जिनोत्तमैः । यं समालम्ब्य[लम्ब]मानो हि, न मजेद्भवसागरे ॥५॥ संयमः सूनृतं शौचं, ब्रह्माकिश्चनता तपः ।
शान्ति ईवमृजुता, मुक्तिश्च दशधा स तु ॥६॥ १. ०पानमदातु० B. २. निष्पद्यते. B. C.
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प्रथमोऽधिकारः
धर्मसिद्धौ ध्रुवं सिद्धि-घुम्नप्रद्युम्नयोरपि । दुग्धोपलब्धौ सुलभा, संपत्तिर्दधिसपिषोः ||७|| नमस्कारसमो मन्त्रः, शत्रुञ्जयसमो गिरिः । गजेन्द्रपदजं नीर, निर्द्वन्द्वं भुवनत्रये ||८|| कृत्वा पापसहस्राणि हत्वा जन्तुशतानि च । शत्रुञ्जयं समाराध्य, तिर्यञ्चोऽपि दिवं गताः ॥९॥ स्पृष्ट्वा शत्रुञ्जयं तीर्थं, नत्वा स्वताचलम् । स्नात्वा गजपदे कुण्डे, पुनर्जन्म न विद्यते ॥१०॥
इत्युपदेशं श्रुत्वा जगसिंहसाधुरे कोनत्रिंशत्शत मितशकटसहस्रानुमित घोटकद्वापाशदेवालयादिश्रीसंघः श्रीसोमतिलकसूरियुक्तः श्रीशत्रुञ्जय - गिरनारयोर्यात्रां चक्रे ।
यस्मात् श्रीभरतेश्वराग्रिमनृपाः संजज्ञिरे चक्रिणः । श्रीमच्छ्रेणिक सम्प्रतिप्रभृतयस्तीर्थेश भावांचिताः ॥ निःसीमद्रविणानुबन्धिसुकृताः श्रीशालिभद्रादयस्तस्मिन्निर्मलधर्मकर्मणि सदा कार्यः प्रयत्नो बुधैः ॥११॥
फलं च पुष्पं च तरुस्तनोति, वित्तं च तेजश्च नृपप्रसादः । वृद्धिं प्रसिद्धिं तनुते सुपुत्रो, भुक्ति च मुक्ति च जिनेन्द्रधर्मः ||१२||
इति जगसिंहशत्रुञ्जययात्रासम्बन्धः ||२२||
[23] नापितमन्त्रिकरणसम्बन्धः ।
[ ९
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एकस्मिन्पुरे भीमस्य भूपस्य नापितः प्रधानो बभूव । मन्त्रिणो न मन्यन्ते मनागपि, क्रमात् वैरिभिः परितो व्याप्तं राज्यम् । ततो नैके जल्पन्ति मन्त्रिणो विना राज्यं यास्यति । मित्रैरपि प्रोक्तम्- नापितस्य परीक्षां कुरु, वैरिषु समेतेषु कथं राज्यं रक्षिष्यति । एकदा राज्ञा नापितः पृष्टः । यदि कदाचित्परचक्रं समेष्यति तदा त्वया कथं जेष्यते, का बुद्धिः कथं करिष्यते च ? । ततो नापितोऽवग् आदर्शान् हस्ते कृत्वा निर्गमिष्यते [ निर्गमिष्यामः ] पुराद तैरादशैरेव युद्धं करिष्यते ततस्ते नंष्ट्रा यास्यन्ति । ततो राज्ञा ज्ञातमेष नापितो न प्रधानः, यन्मया मन्त्रिणोऽपमानितास्तदयुक्तं कृतम् । यदि मन्त्रिणो न मानयिष्यन्ते तदा राज्यं गमिष्यति । ततो राज्ञा मन्त्रो मानिताः । ततो मन्त्रिबुद्धधा ये ये वैरिणोऽभूवन् ते ते वशीकृताः ॥
इति नापितमन्त्रकरण सम्बन्धः ||२३||
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१० ]
प्रबन्धपश्चशती
[ 24 ] आलस्ये धनश्रेष्ठिकुन्तलपुत्रसम्बन्धः । श्रीपुरे धनश्रेष्टिनः पुत्रं कुन्तलाभिधं परिणयनयोग्यं श्रुत्वा चन्द्रपुरात् मदनश्रेष्ठी स्वां पुत्री रूपवतीं दातुं समागात् । तदा श्रेष्ठिपुत्रः पादमुच्चैः कृत्वोर्ध्वस्थितः सूर्याभिमुखं स्थित्या
च कलशीमध्ये मूत्रयामास । तदा मदनश्रेष्ठी तत्रस्थस्वमित्रपार्श्वे श्रेष्ठिपुत्रस्य कुन्तलस्य वरस्य 5 स्वरूपं पप्रच्छ । अस्य धनस्य श्रेष्ठिनः कियन्तः पुत्राः सन्ति ? तेन व्यङ्ग्यवचनात्प्रोक्तम
अस्य नवपुत्राः सन्ति । क्षणात्पुनः प्रष्टम कियन्तः पुत्राः श्रेष्ठिनः स्म? ततः स प्राह-पञ्च पुत्राः सन्ति । पुनः पृष्टं तेन कियन्तोऽस्य पुत्राः ? ततस्तेनोक्तं-त्रयः पुत्राः । पुनः पृष्टं कियन्तः पुत्राः भेष्ठिन स्म ? ततः स प्राह-पश्च पुत्राः सन्ति । पुनः पृष्टं तेन कियन्तोऽस्य पुत्राः ?
ततस्तेनोक्तं-त्रयः पुत्राः । पुनः पृष्टं कियन्तः पुत्रा अस्य सन्ति ? [स प्राह, ] एक एव पुत्रः। 10 ततो मदनः प्राह-मित्र ! त्वयाऽहं भ्रान्तौ कथं पातितः पृथक्पृथग जल्पनात् ? मित्रः प्राह
यन्मयोक्तं तत्सत्यमेव, यतोऽसौ श्रेष्ठिपुत्रः उच्चैःस्थित्वा सूर्याभिमुखं भूत्वा कलशीमध्ये मूत्रयामास अतोऽस्मिन् श्रेष्ठिपुत्रे त्रयत्वं मयोक्तम् , यतः पञ्च मनुष्या यावन्मात्रमाहारं भुञ्जते तावन्मात्रमेक एवायं भुङ्क्ते अतः पश्चपुत्रभावः प्रोक्तो मयाऽस्मिन् , निद्राक्षणे कुण्डलीदेहकरणात्
[ देहकुण्डलीकरणात् ] नवडाकारेण [ नवाकारेण ] स्वपित्यसौ अतोऽस्मिन्नवपुत्रत्वं विद्यते, यत 15 एवंविधो वरोऽन्यत्र कुत्रापि न दृश्यते अत एकपुत्रत्वमस्य मयोक्तम् । एवंविधगुणो वरो विद्यते
यदि रोचते तव तदा दीयतां पुत्री, स मूत्रयंश्च त्वया दृष्टः किं कथ्यतेऽधिकं ततः। श्रेष्ठी समुत्थाय स्वपुरे गतः । ततो वरं विलोकयन् पद्मपुरे वीरमहेभ्यस्य धरणपुत्राय श्रेष्ठी स्वां पुत्रीं ददौ । तत इतो धनश्रेष्ठिना बहुशिक्षितोऽपि पुत्रो नालसत्वं मुमोच । ये ये वरं दृष्टुमायान्ति ते ते तादृशं दृष्ट्वा ददुर्न स्वपुत्री यतः
गच्छन् जल्पन हसंस्तिष्ठन् , शयानो भक्षयन्पुनः ।
मूर्खः सर्वत्र लभते, पदे पदे पराभवम् ॥१॥ ततः सोऽलसतां श्रयन् न परिणीतः, तत्पितरि मृते मूर्खत्वादलसत्वाद्विशेष पराभवस्थानं गभूष ॥ इति अलसत्वविषये धनश्रेष्ठिकुन्तलपुत्रसम्बन्धः ॥२४॥
[ 25 ] नागार्जुनसम्बन्धः । 25 सुराष्ट्रदेशभूषणे दुकपर्वते राजा रणसिंहो राज्यं कुर्वन् न्यायाध्वना पृथिवीं पालयति
स्म । तस्य पद्मावती पत्नी बभूव । तयोर्भोपालाह्वा सुताजनि क्रमात्सा विद्याकलाः पाठिता, क्रमात राजा वर विलोकयन् नवसारिकानगरे अरिमईननरेन्द्राय ददी, इतस्तस्या रूपेण मोहितो वासुकिरभूत् , यतः
अक्खाण[र]सणी कम्माण मोहणी, हंत वयाण बंभवयं । गुचीण य मणगुत्ती, चउरो दुक्खेण जिप्पंति ॥ १ ॥
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aratstuarte
[ ११
ततो बासुकिः शुक्र(रूप)परावृत्तिं कृत्वा तां सेवते । पुत्रः क्रमादभूव । तस्य नागार्जुनेति नामाभूत । स च जनकेन स्नेहेनाभ्येत्य सर्वासामौषधीनां फलानि मूलानि दलानि भोजितो । बलेन तस्य प्रभावात् सिद्धपुरुषो जातो, विख्यातः स च क्रमात्प्रतिष्ठानपुरे शातवाहन भूपस्य विद्यागुरुरभूत, यतः—
विद्वत्वं च नृपत्वं च नैव तुल्यं कदाचन । स्वदेशे पूज्यते राजा, विद्वान् सर्वत्र पूज्यते ॥ २ ॥
स च नागार्जुनो व्योमगामिविद्यार्थं श्रीपादलिप्तानकपुरे श्रीपादलिप्ताचार्यान् सेवते स्म । ते चाचार्याः पादलिप्पौषधीबलेन वरेऽवसरे अष्टापद- समेत शिखर-शत्रुञ्जय-गिरिनारार्बुदाचलतीर्थस्थान जिनेन्द्रान् वन्दते स्म । तेषां पश्चादागतानां सूरीणां पादौ प्रक्षालयन्नागार्जुनो नासाबलेन सप्तोत्तरशतौषधीनां नामानि जज्ञौ, गुरूपदेशं विनापि ताभिरौषधीभिः पादलेपं कृत्वा 10 कुर्कुटपोत इवोत्पतन् निपतति भूमौ ततो व्रणजर्जरिताङ्गोऽन्यदा गुरुभिः पृष्टः किमेतदिति, ततस्तेन यथास्थिते प्रोक्ते तस्य च कौशल्येन चमत्कृतमानसा गुरवः शिरसि हस्तं दत्त्वा जगुः, महानुभाग[व] ? सम्पूर्णमाम्नायं गुरुदत्तं विना विद्या न स्फुरति नृणाम् । तेनोक्तम्--भगवन् ! प्रसद्य विद्याम्नायं देहि, ततो गुरुणोक्तम्- - यदि त्वं शत्रुञ्जयादिपञ्चतीर्थं नत्वात्सि तदाह अष्टोत्तरशत मौषधं कथयिष्ये ततस्तेन गुरूक्तं प्रतिपन्नं, ततो गुरवो जगुः -- षष्टितन्दुलोदकेन सर्वा 15 औषधीर्घर्षयत, ततस्तासां लेपेन पादलिप्तेन व्योमगामी भविष्यसि तं विद्याम्नायं प्राप्य नागार्जुनो व्योमगामी बभूव । ततः स प्राप्तखगविद्यो गुरुक्तं देवनतिं कृत्वैवात्ति । एकदा गुरुमुखात्स्वर्णरससिद्धिनिष्पत्तिं श्रुत्वा साधयितुं प्रवृत्तः रसो निष्पादितः परं स्थैर्यं न याति ततो गुरुपार्श्वे रसस्थैर्यस्वरूपं पप्रच्छ, गुरुभिरुक्तं - सप्रभावायाः श्रीपार्श्वप्रतिमायाः दृष्टौ साध्यमानो रसो लसल्लक्षणलक्षितया महासत्यास्त्रिया मृद्यमानः स्थिरो भविष्यति, एतत् श्रुत्वा नागार्जुनेन वासुकिः 20 स्वपिता ध्यातः प्रत्यक्षोऽभूत् । पृष्टं च तस्य पार्श्वनाथप्रतिमां दिव्यां कथय । वासुकिः प्राहपूर्व द्वारवत्यां कृष्णेन श्रीपार्श्वप्रतिमा सप्रभावा श्रीनेमिमुखात् श्रुत्वा सप्तवर्षी यावत्सूजिता द्वारवत्या दाहे समुद्रमध्ये देवेन मुक्ता । काले कान्तिपुरीवासिनो धनदत्तस्य समुद्रमध्ये यानं वलितं तत्र देवतयाभ्येत्योक्तम् - अत्राधस्तात् श्रीपार्श्वविम्बं समस्ति तच कञ्चसप्ततन्तुभिर्मुक्तैर्बहिः समेष्यति, तेन तथा कृते पार्श्वविम्बं निर्गतम् । कान्तिपुर्यामानीतम् यतः -
सुप्रभावमयं पार्श्व - नाथविम्बं मनोहरम् ।
कान्त्या पुरि जनैः पूज्य-मानमस्ति जिनालये || ३ ||
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ततो नागार्जुनस्तत्र गत्वा बहुषु लोकेषु वन्दनार्थं दिवानिशमार्ग [च्छ]त्सु हर्तुं न शक्नोति । एकदाsari प्राप्य छलेन सा प्रतिमा तेन हृता सेढीनदीतटे रसबन्धनार्थं मण्डिता सातवाहनस्य भूपस्य चन्द्रलेखां महासत रसमर्द्दनार्थं तत्रानिनाय सा नागार्जुनेन भगिनीति कृत्वा स्थापिता 30 रमईयति स्म, तथा तदौषधीनां रसमर्द्दनकारणे पृष्ठे स्वर्णसिद्धिनिष्पत्तिहेतुं स तस्याः पुरो
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प्रबन्धपञ्चशती
जगौ, तया च तत्रागतयोद्धयोः महोक्षयोः पुरो रससम्बन्धस्वरूपं प्रोक्तम् , ततस्तौ राज्यसुखं मुक्त्वा रसलुब्धौ कैतवेन नागाजुन सेवेते स्म । रसं जिघृक्ष यत्र नागाजु नो जिमति तत्र तौ छन्नं रन्धनी पृच्छतः स्मेति । अत्र कः को जेमितुमायाति । तया नागार्जुनागमनमुक्तं ताभ्यामुक्तं च ततः त्वं नागार्जुनाय सलवणां रसवती कुर्याः सदा, यदा स क्षारां वदेत् तदा प्रोक्तव्य[ प्रवक्तव्य ]मस्मत्पुरः । बही श्रीरर्पिता ताभ्यां तस्याः । अन्येद्यः षण्मासान्ते तया प्रोक्तम्-अद्य तेन क्षारा रसवती प्रोक्ता ततस्ताभ्यां राजकुमाराभ्यां रसो मिलितो ज्ञातः, ताभ्यां पृच्छद्भ्यां वासुकिना प्रोक्तं कुशांकुरात् मरणय [मरणमस्य] नागार्जुनस्य ज्ञातमितो नागार्जुनः शुद्धरसेन कुतपो द्वौ भृत्वा दुकपर्वतस्य गुहायां रहसि चिक्षेप । ततः पर्वताद्वलमानो नागार्जुनो विमृशं[विमर्श] विना ताभ्यां क्षत्रियाभ्यां दर्भाकरेण जघ्ने तदा मृतः सः ।
अजाते चित्रलिखिते, मृते च मधुसूदनः ।
क्षत्रिये त्रिषु विश्वास-श्चतुर्थो नोपलभ्यते ॥४॥ तौ कुतुपौ देवतयाधिष्टितौ राजपुत्रयोः किमपि न चटितं हस्ते देवतया हतौ तौ पापिनौ नरकं गतौ एवं जीवाः पापपराः पापफलं सद्यो लभन्ते । रसस्तम्भनादत्रम्बावत्यास्तम्भननामा
भूत् । पार्श्वदेवस्यापि स्तम्भनमिति नाम ततः कालान्तरे सेढीनदीतटस्थं स्तम्भनपार्श्वनाथबिम्ब 15 स्तम्भनपुरे समायातं तच्चाद्यापि तत्र पूज्यते ।। इति नाग र्जुनसम्बन्धः ॥ २५ ।।
[ 26 ] खलभक्षणे धनश्रेष्ठिकथा । चन्द्रपुरे धनश्रेष्ठी, तस्य गृहे सुवर्णस्य चतस्रः कोटयः सन्ति । सदा मधुराहारवरवस्त्रपरिधापनदेवगुरुश्रीसंघपूजादिना सज्जनसन्मानादिना च कालं गमयति ।
एकदा राजा राजमार्गे गच्छन् तस्य सदनस्योपरि चतस्रो ध्वजपताका दृष्ट्वा मन्त्रि20 पार्चे पप्रच्छ, किमतो ध्वजपताका अन दृश्यन्ते, मन्त्रिणोक्तम-अस्य गृहे चतुःकोटिमितं स्वर्ण
मस्ति ततस्तद्गृहीतुकामो भूपोऽन्यत्र ग्रामान्तरे गतः, तदानीं श्रेष्टिनस्तदाकस्मात् खलभक्षणे वाम्छा जाता, ज्ञातं तेनेति एतया वाञ्छया राजा मम धनं ग्रहीष्यति अथवा चौराग्न्यादयो प्रहीष्यन्ति यतः--
दायादाः स्पृहयन्ति तस्करगणा मुष्णन्ति भूमीभुजो, गृहणन्तिच्छलमाकलय्य हुतभुग्भस्मीकरोति क्षणात् । अम्भः प्लावयति क्षितौ विनिहितं यक्षा हरन्ते हठात् ,
दुवृत्तास्त नया नयन्ति निधनं धिबधीनं धनम् ॥१॥ __एवं विमृश्य तेन श्रेष्ठी सर्वां प्रियं सप्तसु क्षेत्रेषु दीनदुस्थादिषु व्ययीचक्रे । राजा पश्चादागच्छन् ध्वजपताका अदृष्ट्वा लक्ष्मीव्ययसम्बन्धं च ज्ञात्वा चमत्कृतोऽभूत, चेतसि श्रेष्ठी (१) महोदरयोः, B. C.
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प्रथमोऽधिकारः
आकारितः । पृष्टो राजा [राज्ञा] तदावदत स्वसम्बन्धं खलभक्षणदोहदलक्षणं च ततो राजा हृष्टस्तस्मै स्वकोशाच्चतुःकोटिमितं स्वर्ण दापयामास । तस्य पुण्यप्रभावात्ततो यावन्मात्रां प्रियं व्ययति तावन्मात्रा श्रीरकस्मान्मिलति, ततश्चिरं स्वां श्रियं सप्तसु क्षेत्रेषु व्ययन् कालक्रमान दानवितरणेन स्वर्ग श्रेष्ठी ययौ ॥ इति खलभक्षणे धनश्रेष्ठिकथा ।। २६ ॥
[27 ] नीचकुलोत्पन्नोप्युत्तमो भवतीति द्विजकथा । कस्मिन्पुरे [ कस्मिंश्चित्पुरे ] वेश्या क्रमाज्जरती जाता, तस्या एकः पुत्रोऽस्ति । तया चिन्तितं मया बहु पापं कृतं पुत्रजननात्, यदि हन्यते तदापि पापं भवति अतोऽहं गङ्गायां गत्वा पापं स्फेट यिष्यामि इति ध्यात्वा सा वेश्या पुत्रेण सह तत्र नद्यां गता मठवासिकारूपं कृत्वा स्थिता गंगायां स्नानादिपुण्यं पुत्रयुता करोति, द्विजमुखाद्वेदस्मृतिपुराणादि जज्ञे । स वेश्यापुत्रः । क्रमात्तत्र द्विजो मुकुन्दस्तं तादृशं विचक्षणं वेदविदुरं बहुदानपरं दृष्ट्वा दध्यौ अयं 10 वों वरोऽस्ति मम पुत्री विद्यते विवाहार्हा जाता यद्यस्मै दीयते तदा वरमस्य माता च धर्मशीला विद्यते, गृहे धनमप्यस्ति एवं विमृश्य द्विजेन पुत्री तस्मै मठवासनिकापुत्राय दत्ता । पुत्रं वधूयुतं परिणीतं स्कन्धयोरुभयतः कृत्वा नर्तयन्तीति प्राह
सोनईशाखा धनि कुलकोट्टई वेद वियारि । दे मति केरो बेटडो परिणइ दीक्षित कुआरि ॥१॥
15 ततस्तेन मुकुन्देन तस्याः पार्थात्तस्य वरस्य सम्बन्धं श्रुत्वा मौनं कृतं, बहुलक्ष्मीविद्यादि. गुणयुतत्वात् अतो न कुलादि वीक्ष्यते किन्त्वाचार एव यतः
कैवर्तीगर्भसंभूतो, व्यासो नाम महामुनिः । तपसा ब्राह्मणो जात-स्तस्माज्जातिरकारणम् ॥१॥ शुशुकीशशकी]गर्भसंभूतो, ऋष्यश्रृङ्गो महामुनिः । तपसा०
॥२॥ मण्डूक्रीगर्भसंभूतो, माण्डव्यश्च महामुनिः । तपसा० उर्वशीगर्भसंमूतो, वशिष्ठश्च महामुनिः । तपसा.
॥४॥ शीलं प्रधानं न कुलं प्रधानं, कुलेन किं शीलविवर्जितेन ।
बहवो जना नीचकुले प्रसूताः, स्वर्ग गताः शीलमुपेत्य वर्यम् ॥५॥ ततः सर्वेषु द्विजेषु वेदविदुरेषु मुख्योऽभूत् ।।
इति नीचकुलजातोऽप्युत्तमो भवतीति ब्राह्मणकथा ॥२७॥
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प्रबन्धपश्चशती
[ 28 ] निर्ग्रन्थत्वे योगिकथा एकस्मात्पुरात् योगी चेल्लकयुतोऽचालीत्, अग्रे गच्छन् योगी चन्द्रपुरमार्ग पप्रच्छ, पुमान् प्राह-एको मार्गः सरलोऽदूरेऽस्ति परं चौरादिविघ्न विद्यते तत्र । द्वितीयो मार्गो विषमोऽस्ति
परं निरुपद्रवः । तदा योगी द्रव्यरहितः सोपद्रवेऽपि मार्गे गन्तु वाञ्छति चेल्लकस्तु नेच्छति 5 द्रव्यापहरणभयात्, मार्गे योगी ध्यौ असौ चेल्लकः कथं स्तेनक्लेशयुक्तमार्ग गन्तुं नेच्छति एवं
ध्यायन चेल्लकस्य वचोऽवगणय्य सोपद्रवमार्गे चलित तस्थौ इतश्चलके परान्तरे गते कस्मैचित्कार्याय झोलिकामध्ये रूप्यटककभृता वासनिकां वीक्ष्य दध्यौ। असौ चेल्लको धनगमनभयात् सोपद्रवमार्गे यान्तु नेहते ततो द्रव्यं न वरं तपस्विनः । एवं ध्यात्वा वासनिकां छन्नं कूपे
चिक्षेप । चेल्लकः पुरादागतो वासनिकामदृष्ट्वा प्राह-यस्मिन् मार्गे रोचते तत्र, गम्यताम् । ततो 10 द्वावपि निग्रन्थीभूतौ निर्भयौ सोपद्रवेऽपि मार्ग चेलतुः। ततो धनं तपस्विनां क्लेशभूतं मत्वा
निस्पृहौ श्वेताम्बरश्रीदमघोषसूरिपार्श्वे धर्म श्रुत्वा जैनी दीक्षां गृहीत्वा तपस्कुर्वाणौ स्वर्ग जग्मतुः क्रमान्मुक्ति गमिष्यतः ॥ इति निर्ग्रन्थत्वे योगिकथा ॥२८॥
[ 29 ] धर्मशालानिष्पादनपुण्ये भीमसाधुकथा । एकदा भीमसाधोरावासार्थं वर्यकाष्ठानि आगतानि । तदा दृष्टं भीमं दृष्ट्वा पत्नी प्राह15 गृहाणि वर्याणि वर्यतराणि भवे भवे कारितानि सन्ति, स्वर्विमानेऽपि स्थितं भूरिशः । परं
तत्सर्वमिहलोकार्थ, धर्मकार्ये यदि धर्मशालादिनिष्पत्तये काष्ठानि समायान्ति तदा वरं। भीमः प्राह-कुन धर्माय काष्ठानि स्थापयिष्यन्ते ? भार्या जगौ-धर्मशाला कार्यते तत्र बहुपुण्यं भवति यत:- वसही-सयणासण-भत्त-पाण-मेसज्ज-बत्थ-पत्ताइ ।
जइवि न पज्जत्तधणो थोवाविहु थोवयं देइ ॥१॥ 20 एवं विमृश्य स्तम्भतीर्थे आलिंगवसत्यां धर्मशाला कारिता पुण्यार्थ । तत्र १४०० टंकका
लग्ना । तदैकेन केनचित् पुंसा भीमसाधुपुरतः प्रोचे-द्रव्यं बहु व्ययितं, शाला तु पुरावहिरस्ति तत्र को धर्म कर्तुं समेष्यति ? ततो भीमोऽवग कदाचिदुत्सूरे सकाले वा कोऽपि कूपिकः पौटलिको विश्रामार्थं स्थित एकसामायिकं लास्यति तदा शालालग्नधनादनन्तं पुण्यं भविष्यति, यतः
सामाइयंमि उ कए, समणो इव सावओ हवइ जम्हा । 25
एएण कारणेणं, बहुसो सामाइअं कुज्जा ॥ १ ॥ सामाइअं कुणंतो, समभावं सावओ घडीदुग्गं । आउं सुरे सुबंधइ, इत्तीमित्ताई पलिआई ॥ २ ॥ बाणवइकोडीओ, लक्खा गुणसहि, सहसपणवीसा । नवसय पंचवीसाए, सतिहा अडभाग पलिअस्स ॥३॥
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प्रथमोऽधिकारः
[ १५
अंकतः ९२,५९,२५,९२५ एकसामायिकलाभः ॥ इत्यादिधर्मशालानिष्पादनपुण्ये भीमसाधुकथा ॥२९॥
[30] धर्मदृढतोपरि आलिंगविप्रप्रासादकथा । आलिंगवसतीति नाम जातम् । पूर्वम् आलिंगाह्रो द्विजोऽभूत् । तेन श्रीधर्मघोषसूरिपाचे जिनप्रासादादिकरणे महत्पुण्यं भवति [तीतिश्रुतम् ] । एकदाऽसौ अवग-भगवन् ! लोका 5 पदन्ति सन्तानं विना स्वर्गो न भवति । गुरवः प्रोचुः-सन्तानं विनाऽपि स्वर्ग गच्छन्ति जनाः, सन्ताने सति कदाचित्स्वर्गः, पुण्यप्रभावादेव । सन्तानेन यदि स्वर्गः स्यात्तदा शुनीशुनादि [ श्वानादि ] जीवा बह्वपत्याः प्रथमं स्वर्ग गच्छन्ति [गच्छेयुः ] । असन्ताना अपि [च] मुक्ति गमिष्यन्ति [गच्छन्ति ], यतः--
बहूनि हि सहस्राणि, कुमारब्रह्मचारिणाम् ।
दिवं गतानि विप्राणा-मकृत्वा कुलसन्ततिम् ॥१॥ गुरुणोक्तं-श्रीऋषभदेवस्य यदि कृष्णवर्णा प्रतिमा कार्यते तदाऽनन्तं पुण्यं मुक्तिगमनयोग्यं भवति, परं सन्तानं न भवति । अग्रतः एतत् श्रुत्वा आलिंगो जगौ-भगवन्नहं श्रीऋषभदेवस्य कृष्णवर्णां प्रतिमा कारयिष्यामि, बहुपुण्यलाभात, सन्तानेन किं प्रयोजनम् ? सन्ताने सत्यपि रावण-श्रीकृष्ण-दुर्योधन-सुभौम-ब्रह्मदत्तचक्रवादयो बहवो नरकं गताः । अतोऽहं श्रीऋषभ- 15 देवप्रतिमां श्यामवर्णां कारयिष्यामि । ततस्तेन सन्तानाभावमवलम्ब्यादि[पि] श्रीऋषभदेवप्रतिमा श्यामवर्णा कारिता, स्थापिता स्वकारितप्रासादे, तत आलिंगेन तत्र प्रतिमा तां पूजयता मुक्तिगमनयोग्यं पुण्यमुपार्जितम् ॥ इति धर्मदृढ़ताविषये आलिंगविप्रप्रासादकथा ॥३०॥
[31] शनि-शिवसंवादसम्बन्धः । एकदा बहुषु ब्रह्मादिदेवेषु मिलितेषु स्वस्वोत्कर्ष जल्पत्सु शनिना प्रोक्तम्-अहं सर्वेषु 20 देवादिषु सुखदुःखे कर्तुं समर्थः । तदेश्वरेणोक्तम्-ज्ञास्यते तव कृतं सुखं दुःखं च । एवं प्रोच्य शम्भुः स्वगृहेऽभ्येत्य पार्वती प्रति स्वचेष्टितं जगौ । ततः शम्भुः स्वयं महिषरूपं, पार्वत्या महिषीरूपं कारयित्वा नगरखाले अशुचिमये स्थितौ, द्वावपि तृतीये दिने तस्मिन् व्यतीते ईश्वरपार्वत्यौ खालानिर्गत्यागतौ गृहे, तत ईश्वरः शनिपार्श्वे गत्वाऽवग-त्वदीया दशा गता कल्ये त्वया किमपि मम दुःखं न कृतम् । शनिर्जगौ त्वं कुशस्थाः [ कुत्राऽस्थाः ? ] ईश्वरः स्वस्थिति जगौ, ततः 25 शनिः प्राह--अहं किं स्कन्धे हन्मि जेतुं हृदये वा किन्तु ता तादृशीं धियं ददामि यया स्वयं दुःखे पतति त्वं त्वशुचिमये खाले स्थितः अतः परं किं दुःखम् अहं यदुःखादि जनेभ्यो ददामि तदपि कर्मणा प्रेरितः। ततः शम्भुर्जगौ सत्यमेव कर्मकृतं सुखं दुःखं जीवा लभन्ते--
यादृशं क्रियते चित्तं, देहिभिर्वर्णनादिषु ।
तादृशं कविवन्नूनं, जायते सन्ततं जने ॥१॥ इति लौकिककथा शनिशम्भुजम्पनविषया समाप्ता ॥३१॥
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१६ ]
प्रबन्धपञ्चशती
10
[32] निष्कृपोपरि मरुस्थलीवर्णनम् ।
माता गंगासमं तीर्थ, पिता पुष्करमेव च । तीर्थं फलति कालेन, माता- तीर्थं पुनः पुनः ॥ १ ॥
इत्यादि ध्यात्वा मातापितरौ कावडिकायां स्थापयित्वा विप्रस्तीर्थानि करोति । तीर्थानि 5 कुर्वन् मरुस्थल्यां गच्छन् अधः प्रचुरसिकतायां हिण्डितुमशक्नुवन् जलं स्तोकं पिबन् मृगतृष्णिकां पश्यन् पदे पदे जलभ्रान्त्या धावन् खिन्नः सन् प्रथमं पितरं स्कन्धादुत्तारयामास । पिताऽवग् अहमक्षमस्तीर्थं [क], कथमुत्तारयसि ? पुत्रोऽवग् इयं तु मरुस्थली रुक्षा एवं मातरमपि स्कन्धादुत्तार्य स्वेच्छया चालीत | मातापितरौ पादचरिणौ पुत्रस्य पृष्ठौ [ पृष्ठतः ] दुःखेन चलतः ।। इत्यादि मरुस्थली वर्णनं निष्कृपोपरि ||३२||
[33] ध्याने [ विचारे ] वैद्यकथा |
यादृशं क्रियते चित्तं सदसद्वस्तुवर्णने । कवेरिव भवेताह, जनानां भावुकात्मनाम् ||१||
7
तथाहिइ - एकदा श्रीरामस्य सुबुद्धिनामा कविरभूत् स च श्रीरामकारितं पम्पासरः काव्यैर्नित्यं वर्णयति स्म । वैद्या बहवः श्रीरामस्य परिवारस्य रोगोत्पत्तौ चिकित्सा कुर्वन्ति 15 स्म । अन्यदा सुबुद्धिकवेः सरो वर्णयतस्तदध्यानाजलोदरं वद्धितं वैद्यो विचारविज्ञस्तस्य चिकित्सा कारयति बहुप्रकारैः परं गुणो न भवति, यतः ----
वैद्यस्तर्कविहीनो, निर्लज्जा कुलवधूती पीनः ।
कटके च प्राघूर्णको, मस्तकशूलानि चत्वारि ||२||
तत एकस्तत्र वैद्यो वृद्धो विचारज्ञः समागात् । राज्ञा तस्य रोगचिकित्सायै आदिष्टम् । 20 ततस्तेन वृद्धेन वैद्येन शरीरस्वरूपं विलोक्य शालिदालिघृतादिवर्य [भोजनं दत्तम् ] ददता तस्य तथा भोजनं कुर्वाणस्य वैद्येनेत्यादिष्टम्, मरुस्थलं वर्णय । तत एवं वर्णयति-
मृगतृष्णां सदा दर्श, दर्श तृषितवक्षसम् ।
ओष्ठ तालु गलादीनि, शुष्यन्ति स्म दिने दिने || ३ ||
इत्यादि वर्णयतस्तस्य रोगिणो जलोदररोगो गतः । श्रीरामेण पृष्ट-भो वैद्य ! मरुस्थल25 वर्णनेन कथमस्य रोगो ययौ ? वैद्योऽवम् पूर्वमनेन सरो जलभृतं भूरिशो वर्णितं तेन जलोदररोगोऽभूत् सरोध्यानात्, अधुना मरुस्थलवर्णनाद रोगो गतः 'यादृशं ध्यानं तादृशं मनः, नस्तादृग्वपुर्भवति', शुभाशुभाकर्णनाच्छरीरी प्रसन्नोऽप्रसन्नो भवति, यतः
यादृग्म•
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प्रथमोऽधिकारः
[ १७ वीतरागं स्मरन् योगी, वीतरागत्वमश्नुते । सरागं ध्यायतस्तस्य, सरागत्वं तु निश्चितम् ॥४॥ येन येन हि भावेन, युज्यते यन्त्रवाहकः । तेन तन्मयतां याति, विश्वरूपो मणी यथा ॥५॥ इलिका भ्रमरीध्यानात् , भ्रमरी जायते यथा ।
तथा ध्यानानुरूपः स्यात् , जीवोऽशुभशुभात्मवान् ॥६॥ अतोऽस्य मरुस्थलं वर्णयतो रोगो गतः । ततो वैद्यो मानितः । यतः
अलंकरोति हि जरा, राजामात्यभिषग्यतीन् । विडम्बयति पण्यस्त्री-मल्लगायन[क]सेवकान् ॥७॥
इति ध्याने वैद्यकथा ॥३३॥ [ 34 ] नीचानीचविचारविषयिकी लौकिकी कथा । जन्मना तु ध्रुवं वर्य-मवर्य जायते कुलम् ।
प्रायो भवति मानां, क्रियया विप्रवज्जने ॥१॥ तथाहि-कस्यचिद्विप्रस्य विज्ञस्य यजनयाजनाध्ययनाध्यापनादिषट्कमकारकस्य गृहे एकस्तपस्वी स्वं धौतिक मुक्त्वा गतस्तीर्थयात्रायै, स तपस्वी देवदत्तासः तपःप्रभावाद्वायुष्कः सन् 15 तीर्थ भ्रमति स्म । इतः स द्विजो मृत्युसमये स्वं पुत्रं प्रति प्राह-इदं धौतिकं तपस्विनो देवदत्तस्यास्ति यदा मार्गयति तदाऽर्पणीयं त्वया। पितरि मृते क्रमाद् द्विजपुत्रो निर्वाहाभावात् कुम्भकारकर्म करोति । इतः स तपस्वी तत्रागतः स्वस्य धौतिकस्यार्थ गृहं पृच्छन् (जज्ञो)। परमस्य गृहे कुम्भकारकर्म दृष्ट्वा धौतिक तथैव मुक्त्वाऽन्यत्र तीर्थयात्रायै गतः । क्रमाव स द्विजः कुम्भकारकम्म मुक्त्वा भारवाहोऽभूत् । पुनस्तत्रागतः स्वं धौतिक पूर्ववत्तत्र दृष्ट्वा तथैव मुक्त्वा 20 गतः । स भारवाहः परलोकं गच्छन् स्वपुत्राय परम्परागतं धौतिकसम्बन्धं जगौ । ततस्तस्मिन् तत्पुत्रो राजसेवकोऽभूत् । तत्रापि पूर्ववत्तत्रागतस्तस्य गृहेऽन्यत्कर्म दृष्ट्वा यात्रायै गतः, स सेवको मृतः, तस्य पुत्रो प्रामहट्टकोऽभूत् । पुनः स तपस्वी तत्रागात् । तस्य गृहे अनीदृशं कर्म दृष्ट्वा धौतिक सम्भाल्य तथैव मुक्त्वा गतः । ततो ग्रामहट्टको वैदिकद्विजयोगात् चतुर्वेदी द्विजो जातः । इतो भ्रान्त्वा तपस्वी तत्रागात् पूर्वक्रियां वैदिकी यजनयाजनादिकां दृष्ट्वा हृष्टोऽभूत् । 25 ततस्तेन द्विजेनोक्तंभो तपस्विन् !, भवता कथं हष्ट, तपस्यवग-यजनादिविद्राह्मणादारभ्य सर्व सम्बन्धं तस्याग्रे, ततः स तपस्वी स्वधौतिकं लात्वा जगौ-यादृशो योगस्ताटक पुमान् भवति । उत्तममध्यमजघन्यादिविचारो न क्रियते । ततः स तपस्वी स्वस्थानं ययौ ॥
इति नीचानीचादिविचारकथा लौकिकी ॥ ३४ ॥
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१८ ]
प्रबन्धपञ्चशती
[35 ] धर्मे भोजकथा । भोजराजा मरणसमये सर्वदर्शनिनो यथायोग्यं सन्मान्य मंत्रीशानाकार्य जगौ-'पुण्यं स्तोकं कृतं, पापं बहु तेन भवद्भिर्मम मरणादनु मम एको हस्तोऽअनलिप्तो, मनाक्चन्दनरसालिप्तो हस्तो द्वितीयो विधातव्यः । मन्त्री प्राह-कथमेवं प्रोच्यते ? भोजः प्राह-लोको मामेवंविध मत्त्वा [मत्वा] पुण्यं कुर्वन्ति । ततो भोजे मृते तथैव कृत्वा दाहाथ नीयमानं भोजं भूपं, लोका जगुः-कथं राज्ञो हस्तावीदृशौ कृतौ। ततो मन्त्रिंभिर्भूपोक्तं प्रोक्तं ततो बहवो जनाः पुण्ये कृतादरा बभूवुः ।। इति धर्मविषये भोजकथा ॥ ३५ ॥
[ 36 ] कृपणत्वे छलभूपकथा । एकदा झालोवाटिकाधिपच्छलराजा पूर्व दानं न ददौ । मरणसमये दानेच्छाऽभूत् । 10 पुत्राणामने प्राह-मम एतासां गवां, एतेषां घोटकानां एतेषां रथाना, [ एतासां च ] रमाणां
दानेच्छाऽस्ति । तदा मन्त्र्यादिभिः पुत्रैश्च विमृष्टं असौ सर्व राज्यं दास्यति, उत्तरमस्य दीयतेऽधुना-"मरणादनु सर्व दास्यते” । एवं जल्पिते [ जल्पिताः ] ते भूमुजा पुत्राः किमपि न ददुः, स च मृतः । एवं यत्स्वहस्तेन प्रथमं दीयते, तदेवात्मीयं, नान्यत् । मरणसमये हिता अपि पुत्रा
विघटन्ते ।। इति कृपणत्वे छलभूपकथा ॥३६॥ 15
[ 37 ] धर्मदृढतोपरि डीसावाल सारङ्गसम्बन्धः । वटप्रदे डीसावालः मन्त्री सारंगाह्रः, स च मिथ्यात्वं करोति । तस्य माता जैन धर्म करोति । एकदा माताऽवग् पुत्र! त्वं तु मिथ्यात्वं कुरुषे जिनधर्म तु न कुरुषे । जिनधर्म विना मुक्तिन भवति वीतरागासेवनत्वात् । मम तु मरणावसरोऽस्ति, त्वया मम मरणादनु जैनाः साधवो धर्म
शालायां वन्दनीयाः । सारंगो जगावेवमस्तु त्वयातिर्न कर्त्तव्या । मातरि मृतायां सारंगो जैनान 20 साधून न वन्दते मिथ्यात्वमेव करोति । माता स्वर्गता सती पुत्रस्नेहात्पुत्रबोधनार्थ रात्रावभ्येत्यैक
श्लोकं दत्त्वाऽवग-योऽस्य श्लोकस्यार्थं कथयति तस्य पार्श्वे त्वया धर्मः कार्यः । अहं तव माता । एवं प्रोच्य गतायां मातरि, सारंगः स्थाने स्थाने द्विजादीनां पार्श्वे श्लोकार्थ पप्रच्छ, परं न जज्ञौ । ततः सिद्धपुरे श्रीदेवसुन्दरसूरेस्तपागच्छाधिपस्य पार्श्वे श्लोकार्थ पप्रच्छ जज्ञौ
कामकान्तं व्रजै स्थानं, शिशिरा वापय भुते । 25
अत्रोदितं मतं ग्राझं, स्वया पुत्रान्तदर्शनात् ॥१॥ 'मतं जैनं शिवाय ते'; ततो जैन धर्म प्रपद्य सम्यक्त्वधारी श्रावोऽभूत् । शत्रुञ्जये गतः, तत्र श्रीऋषभं नत्वा स्तुतिमेवं चक्रे 'धन्यः स मासः, धन्यः स दिवसः, धन्यः स पक्षः' इत्यादिदेवैरपि चालिनः सन् न चालितः ॥ इति धर्मदृढताविषये डीसावालसारंगसम्बन्धः।
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प्रथमोऽधिकार
[ १९ [ 38 ] प्रस्तरतरणे राममहिमा । एकदा पीरोजसुरत्राणेन मुकुन्दपण्डितस्याने प्रोक्तम्-अहं महान् अथवा रामः ? ततस्तेन ज्ञेन जलमानायितं, तत्र अयं पाषाणो जले क्षिप्यतां । राज्ञा पाषाणो जले क्षिप्तो ममज । ततो राज्ञोक्तम्-व्यक्त्या] व्यक्तं जल्प, भयो नानेयः । ततो ज्ञोऽवग्-रामस्य सेवकहनुमदादिभिजले मुक्ताः प्रस्तरास्तेरुः, अयं तु पाषाणो मग्नः, यतः
ये मज्जन्ति निमज्जयन्ति च परास्ते प्रस्तरा दुस्तरे, वाद्धौं वीर (१) तरन्ति वानरभटान् संतारयन्तेऽपि च । नैते ग्रावगुणा न वारिधिगुणा नो वानराणां गुणाः,
श्रीमद्दाशरथेः प्रतापमहिमा सोऽयं समुज्जृम्भते ॥१॥ एवं प्रोक्तो राजा हृष्टः ।। इति प्रस्तर तरणे राम महिमा ॥३८॥
[ 39 ] औचित्योत्पत्तिबुद्धौ छाग-छागमातृकथा । एकदा छागो मातरं प्रति जगौ मातर ! दीपालिका समेष्यति मदीयौ श्रृंगौ त्वं भूषयेस्तदा माताऽवग-पुत्र ! यदि महिणिमायां (?) अश्विनशुद्धनवम्यां तव कुशलं भविष्यति तदा तव कथितं करिष्ये । एतच्छ्रुत्वा भीमभूपेन छागमारणेऽभिग्रहो गृहीतो, महिणिम पर्वणि जीवहिंसा त्यक्ता, अन्यत्पक्वान्नादिबलिश्च कृतः ॥
इति औचित्योत्पत्तिबुद्धौ छागछागमातृकथा ॥३६॥
140 ] अनित्यतायां भोजसम्बन्धः । भोजराजोऽन्यदा रात्रेमध्ये काव्यपदत्रयमेवं पुनः पुनरुच्चैर्जजल्पेतिचेतोहरा युवतयः स्वजनोऽनुकूलः, सदान्धवाः प्रणयगर्भगिरश्च भृत्याः । वल्गन्ति दन्तिनिवहास्तरलास्तुरङ्गाः, ....................॥ इति पदत्रयं भूपेन प्रोच्यमानं पुनः पुनः श्रुत्वा चौरः पूर्व गृहान्तः प्रविष्टो जगौ
सम्मीलने नयनयोनहि किञ्चिदस्ति' इति ततो राजा तं चौरं मत्वा भृत्यपार्धात् धृत्वा प्रातस्तं विज्ञं लक्ष्मीदानेनि सम्मानयामास ॥ इति अनित्यतायां भोजसम्बन्धः ॥४०॥ [41 ] अनित्यतायां वस्तुपालमन्त्रिकथा ।
25 एकदा श्रीवस्तुपालमन्त्री स्तम्भतीर्थे ययौ । तदा लोकाः समेत्योचुः–'युष्माकं शरीरे झलमस्ति ! तदा वस्तुपालमन्त्री अवग
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२० ]
प्रबन्धपश्चशती लोकः पृच्छति मे वार्ता, "शरीरे कुशलं तव" । कृतः कुशलमस्माक-मायुर्याति दिने दिने ॥१॥
इत्यनित्यतायां सम्बन्धः ॥४१॥
[ 42 ] कूटतुलाधर्जितविषये श्रेष्ठिकथा । कस्मिन् [ कस्मिंश्चित् ] पुरे श्रेष्ठी कूटमानतुलादिभिः कूटं व्यवहरति । एकपुष्करद्विपुष्कर-त्रिपुष्कर-चतुष्पुष्कर-पञ्चपुष्करेत्यादीनि मानतुलानां नामानि ददौ । अधिकं गृह्णाति, स्तोक दत्ते इत्येवं कुर्वतो व्यवसायात मिलितं धनं वर्षप्रान्तेऽग्निना दह्यतेऽथवा स्तेनैगृह्यते राज्ञा वा । एकदा लघुपुत्रवध्वा कूटादिव्यवहारं दृष्ट्वा प्रोक्तं-कूटव्यवहारे श्रीर्यात्येव । ततो
वध्वा स्वर्णमयं गोलकं कारयित्वा जले क्षेपितः । पुनः स एव मारिसकैरब्धिमध्यात् कर्षितमी10 नहृदयात्प्राप्यसेरभ्रान्त्या दत्तः। ततो वध्वोक्तं-भो श्वसुर ! शुद्धमार्गेण व्यवसायं कुर्वतः एवं गृहानिष्काशितापि श्रीः समेति स्वयम् , ततः शुद्धं व्यवसायं कुर्षतस्तस्य गृहे स्थिरा भीर्जाता ।।
इति कूटतुलाधर्जितविषये श्रेष्ठिकथा ॥४२॥
[ 43 ] बुद्धिविषये मृगावतीकथा । कौशाम्ब्यां शतानीको भूपः, तस्य पत्नी मृगावती चेटकभूपपुश्यभूत्, अन्यदा राजा 15 सभास्थो दूतमप्राक्षीत् , मम राज्ये यादृशं विद्यते तादृक्कस्यचिदन्यस्य विद्यते न वा ! दूतोऽवग
चित्रसभा वर्या नास्ति । ततो राज्ञा चित्रसभा कारयितुमारब्धा, चित्रकृन्मुख्यः सोमश्चित्रकृत् चित्रशाला चित्रयति । सोमोऽन्यदा मृगावत्याः पदाङ्गुष्ठं दृष्ट्वा मृगावत्या रूपं चित्रयति स्म, परं तस्या गुह्ये कृष्णो बिन्दुः पुनः पुनरपसार्यमाणः पपात । ततो राज्ञा राज्या रूपं चित्रलिखितं
कृष्णबिन्दुं गुह्यस्थं च वीक्ष्य दध्यौ । अनेन चित्रकृता किं मम पत्नी समग्रा दृष्टा ? ततो राज्ञा सोमो 20 वधायादिष्टः । तदाऽन्ये चित्रकारा जगुः, असौ न हन्यते अस्य दैवतवरोऽस्ति, तथाहि-साकेतनपुरे
सुरप्रियो यनोऽभूत् । स च प्रतिवर्ष चिच्यते, चित्रकरं च हन्ति, कोऽपि न चित्रयति यदा तदा पुरं हन्ति । ततो राज्ञा चित्रकराणां वारकः कृतः। चित्रलेखने यस्य नाम घटमध्याव निर्याति स चित्रयति यक्षम् । एवं प्रतिवर्ष क्रियमाणे एकदा एकस्या स्थविर्याः [स्थविरायाः] एक
एव पुत्रस्तस्य वारकः समागात् , तदा माता रौति, तदा तत्र सोमश्चित्रकरः समागात्, ज्ञातं 25 तस्याः पुत्रस्य वारकागमनं, जगौ सोमः, मातस्त्वं मा रोदी:, तव पुत्रं रमिष्यामि । ततः षष्ठं
कृत्वा शुचीभूय मुखकोशं पिधाय यक्षं चित्रयितुं लग्नः सोमः । यक्षस्तुष्टः जगौ-वरं याचस्व । चित्रकृतोक्तम्-अतः परं त्वया जीवहिंसा न कार्या । मम च देहांशे दृष्टे सम्पूर्णदेह चित्रकला. करणशक्ति देहि, तेन तुष्टेन यक्षेण तथाकृतं, सोऽत्रागतोऽसौ सोमः । ततो राज्ञा (तस्या) अङ्गुठं
दर्शयित्वा दास्या रूपं चित्रयामास । ततो राजा चमत्कृतः । पुनस्तस्य छिन्नसंडको हस्तः कारितो 30 राना। ततः स चित्रकृत मृगावत्या रूपं पट्टे लिखित्वा चण्डप्रद्योतनायादर्शयत् । चण्डप्रद्योतनः
शतानीकपार्धात् मृगाबतीं याचते स्म । स न दत्ते । प्रद्योतनस्तत्रागात् । दुर्ग वेष्टयामास ! तदा
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प्रथमोऽधिकारः तमरिं दृष्ट्वाऽकस्मात् शतानीको मृतः। पत्युसृत्युकृत्यं कृत्वा मृगावत्या धीमत्या ज्ञापितं मम भर्ना मृतः । अहं त्वा वान्छामि । परं पुत्रस्य लघोडेढं वनं कारय' पश्चादहं त्वामङ्गीकुर्वे । यदि बलात्कारं करोषि तदात्महत्यां करोमि । ततो राज्ञा वप्रो दृढः कारितः धनधान्यादिभिः पूरितश्च । ततो नायाति सा चण्डपार्श्व, ततः योद्धं लग्नः परं दुर्ग लातुं न शक्नोति । इतः श्रीवीरस्तत्रागात्, राजा तत्र गतः, मृगावत्यपि तत्रागाव नन्तुं प्रभुम् । उपदेशः श्रुतो द्वाभ्याम् । मृगावती 5 दीक्षां याचते तदा चण्डो मोहं त्यक्त्वा मृगावती क्षमयामास । मृगावती दीक्षामलात् । चण्डप्रद्योतनः प्रभु महासती च नत्वा स्वस्थानमगात् ॥ इति बुद्धिविषये मृगावतीकथा ॥४३॥
[44] गर्वोपरिश्रीधराचार्यकथा । एकदा श्रीधराचार्यो नितवास निकत्रिशतिकादिगणितग्रन्थान् कृत्वा तेषां प्रान्ते स्वनाम लिखित्वा गर्व दधान एक काव्यं चकारेति
10 उत्तरतः सुरनिलयं, दक्षिणतो मलयपर्वतं यावत् ।
प्रागपरोदधिमध्ये, नो गणका श्रीधरादन्यः ॥१॥ तस्य कवेः 'सरस्वतीपुत्रेति बिरुदं नाम दधानस्य सरस्वती दध्यौ, अहो एष विज्ञोऽपि मूखः, यत एवं गर्व धत्ते । ततो ब्राह्मी जरतीस्त्री [जरत्स्त्री ] रूपं कृत्वा श्रीधराचार्यपाधै समेत्येदं प्राह-अहं लेखक न जाने त्वं तु सर्व जानासि तेनेदं कथय एकेन द्विकेन किं भवति, 15 श्रीधरोऽवग-त्रयो भवन्ति, एवं न प्रोच्यते, सम्यग् कथय, ततः श्रीधरः प्राह-द्वादश भवन्ति, एवमपि न भवति । श्रीधरोऽवग- भो जरति ! त्वं प्रथिलाऽसि एतदपि न जानासि, मदुक्तं क्वचित् कूटं न भवति, नियोक्तम् एकविंशतिः, अताना वामाङ्गत्वाव । ततः श्रीधरो धूनितशिराः प्राह-मातः ! का त्वं, तयोक्तमहं कास्मी[श्मीर देशवासिन्यस्मि, तव गर्व स्फेटयितुमत्राऽगां । श्रीधरोऽवर को गर्वो मया कृतः, तयोक्तम्-"उत्तरतः सुरनिलयेति" श्लोककरणमेव 20 गर्वस्तव, श्रीधरोऽवग-मातस्त्वं स्वरूपं प्रकटय, मां कथं विप्रतारयसि, ततो ब्राह्मथा निज रूपं . प्रकटितं । वाग्देवीरूपं दृष्ट्वा श्रीधर उत्थाय तस्याः पादयोः पतित्वाऽवग्-मातरहं मुग्धोऽस्मि, यत एवं मया गर्वः कृतः। तयोक्तं-पुत्र ! त्वयाऽतः परं गर्वो न कार्यः, गर्वेण जीवा दुःखिनः स्युरिह परत्र च, यतःज्ञानं मदद पहरं माद्यति यस्तेन तस्य को वैद्यः ।
23 अमृतं यस्य विषायति तस्य चिकित्सा कथं क्रियते ॥२॥ विद्ययैव मदो येषां, कार्पण्यं विभवे सति ।
तेषां देवाभिभूतानां, सलिलादग्निरुत्थितः ॥३॥ एवं ब्राह्मीवचः श्रुत्वा श्रीधरो गर्व तत्याज ॥ इति गर्वोपरिश्रीधराचार्यकथा ॥४४॥
_[ 45 ] गर्वोपरि कृष्णद्वी[वै]पायन कथा । महाभारतान्ते श्रीकृष्णद्वी [वै]पायनव्यासेनाभिमानिना श्लोक ईदृशोऽसि
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२२ ]
प्रबन्धपञ्चशती
अहं वेभि शुको वेत्ति, संजयो वेति वा ( नवा)।
भारतं भारती वेत्ति, देवो जानाति केशवः ॥१॥ दक्षिणसमुद्रात् १५४ योजनैरुत्तरस्यां दिशि अयोध्यातः कुम्भकारो जैनो गिरिनारगिरी यात्रार्थ गतः, तत्रस्थैः कृष्णद्वी द्वै]पायनशिष्यैरुक्तम् -अस्माकं गुरुः सर्व वेत्ति, कुम्भकृद्दध्यावेवं सर्वनं विना न कोऽपि वेत्ति, ततः स कुम्भकारः कृष्णद्वी[वै]पायनपार्श्वे गतः सन्माह-भारते भवत्कृते कथायाः पतिः कः ? कृष्णद्वी]पायनोऽवग युधिष्ठिरादयः कथेशाः, द्रौपद्याः समं तेषां का सम्बन्धो भवति, कानि नात्रकानि भवन्ति ततो व्यासोऽवग न जाने, ततः कुम्भकारोऽवग
पतिस्वसुश्विशु]रताज्येष्ठे पतिदेवरताऽनुजे ।
मध्यमेषु च पाश्चाल्या-स्त्रितयं त्रितयं त्रिषु ॥२॥ 10
तत उत्थाय द्वी[वै]पायनः कृताञ्जलिर्जगौ
त्वमेव विदुरो धीमान् , त्वमेव धमिशेखरः । त्वमेव वन्दनीयोऽसि, त्वमेवासि कलानिधिः ॥३॥ अहं मूर्योऽस्मि मूढोऽस्मि, गर्व वान् पापवान् पुनः । कृतघ्नोऽस्मि निष्कलोऽस्मि, निर्गुणोऽस्मि च कुम्भकुन् [ ] ॥४॥ इति गर्वोपरिकृष्णद्वी[वै]पायनकथा ॥४॥
[46] दाने धनकथा । श्रीपुरे धनश्रेष्टी महेभ्यः, तस्य बहवः स्वजनाः, तस्य भार्या धनवती, पुत्रः कमला, तस्य पत्नी कमला, धने पत्नीयुते स्वर्ग गते कमल क्रमास्वल्पधनोऽभूत्, कमलस्तु गुणवान् भार्या च
पतिहितकारिणी, प्राघूर्णकाः बहवः समायान्ति । कमला सर्वेषां प्राघूर्णकानां पत्यानीतानां भक्ति 20 करोति । अन्यदा श्रेष्ठी कृशशरीरां पत्नी वीक्ष्य प्राहेति
कि दीससि पिए संपह, दुबला सुगुणावहे ।
जं ते अत्थि अणूंरडू, तं पूरेमि कहेह ॥१॥ भार्याऽवग-घरि आवइ परि मग्गिद्विअ, पिय तुम्ह नामगुणेहिं ।
तिणि कारणि हूं दूबली, झूरउं रातिदीएहिं ॥२॥ 25 ततो विशेषाद्धनानुसारेण दानं ददतो मुक्तियोग्यं पुण्यमर्जयतस्तौ ।
इत्यादिदाने धनकथा ॥४६॥
15
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प्रथमोऽधिकारः
[ २३
. [ 47 ] धीविषये रिछग्राहिकथा । कोऽपि पुमान् मार्गे निर्ययो, वने तस्य मार्गे मिलित एको रिन्छः । यदा रिम्छस्तस्य पृष्टौ प्रधावति हन्तुं तदा तेन पुंसा कर्णे घृतो रिब्छः। यथा रिन्छो तं हन्तुमिच्छति तथा तथा स कर्णयोदृढं मयितुं लग्नः । तदा तस्य वासनिका त्रुदिता, कियन्ति स्पर्धकानि पतितानि भुवि तदा इतोमार्गे कोऽपि आगच्छन्पुमान् तं तथा दृष्ट्वा जगौ किं त्वया क्रियमाणमस्ति 5 तेनोक्तं असौ रिब्छः कर्णयोम॒द्यमानः स्पर्धकानि मुम्वन्नस्ति, द्वितीयोऽवग-यदि त्वं मह्यममुं ददस्व तदाऽहमपि कियन्ति स्पर्द्धकानि अर्जयिष्यामि, तेनोक्तमेवं कथं रिष्छोऽसौ मया तुभ्यं दीयते । द्वितीयोऽवग-त्वं कृपापरोऽसि, ततस्तेन रिब्छो दत्तस्तस्य हस्ते । स च तस्य कर्णी मयितुं लग्नः । प्रथमः स्वस्पर्धकानि गृहीत्वा जगौ-कियन्ति स्पर्द्धकानि तव हस्ते चटितानि न वा । स रिज्छकौँ मद्दयन् जगौ-असौ तु किमपि न दत्ते हन्तुं मां वाञ्छति असो, 10 परोऽवग्, तर्हि मुश्चामुं । रिब्छग्राह्यवग्-रिब्छकर्णागृहीतो लातुं मोक्तुं न शक्यते, ततः स दुःखी जातः । प्रथमः स्वस्पर्धकानि लात्वा सुखीभूत्वा बुद्धथा स्वगृहे गतः ॥
इति धीविषये रिन्छग्राहिकथा ॥४७॥
[ 48 ] उत्कृष्टसुखदुःखसम्बन्धः । एकदा श्रीकुमारपालोऽवग् भगवन् ! संसारे कुत्र बहुसुखं पुनः बहुदुःखं, कुत्र सदासुखं 15 पुनर्दुःखमत्यन्तं कुत्रास्ति ? गुरवो जगुः
अनुत्तरविमानात्तु नाधिकं विद्यते क्वचित् ।
सप्तमं नरकं मुक्त्वा दुःखं नास्त्यधिकं क्वचित् ॥१॥ यतः-अनुत्तरविमानवासिनो सुराणां त्रयस्त्रिंशत्सागराणि नित्यं सुखं, सप्तमनरकवासिना नरकाणां दुःखं भवति त्रयस्त्रिंशत्सागराणि यावत् । मुक्तश्च सदा निरन्वयं सुखं 20 [प्राप्नोति ] जन्ममरणजराधभावात् । अतः कारणात् जीवेन पुण्ये आदरः कर्त्तव्यो, न पापे इति उत्कृष्टसुखदुःखसम्बन्धः ससार यत्र भवतीति तत्कथा ।।४८||
[49 ] श्री प्रभाचन्द्रकथा । चन्द्रपुरे श्रीधरो दिगम्बरोऽभूत् । तस्य शिष्यः प्रभाचन्द्रआसीत् । एकदा प्रभाचन्द्रोऽवग्भगवनहं सर्वविद्यापारगाम्यस्मि । तेन यथाऽऽदेशो दीयते श्रीपूज्यैः तदाहं पूर्वगतं श्रुतं संस्कृतं 25 स्फेटयित्वाऽङ्गवत्प्राकृतं करोमि । गुरुणोक्तम्-तव पाराश्चितं प्रायश्चित्तं लग्नम् । प्रभाचन्द्रोऽवगकथं ममास्मात्यापानिस्तारो भविष्यति ? गुरुणोक्तं-राजानं प्रतिबोधय । ततः श्रीपुरे श्रीधरभूपस्य प्रतिबोधाय गतः । तेन राज्ञा स्वपुत्री पाठनाय अर्पिता । यद्यन्तरे तो कन्या भरतशाखादि पाठयामास ] क्रमात्तयोः प्रीतिरभूत् । तयो रागान्मैथुनमपि जातं, झातं राहा। राजा तयोश्चरित्रं दृष्टुं तत्रागात् प्रच्छन्नम् । तदा प्रभाचन्द्रेण काव्यं प्रोक्तम्
अहो संसारजालस्य, विपरीतः क्रियाक्रमः । न परं जडल]जन्तूनां, धीवरस्यापि बन्धनम् ॥१॥
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२४ ]
प्रबन्धपञ्चशती एतदाकर्ण्य राज्ञा तस्यैव स्वपुत्री दत्ता । क्रमाद् गुरुभिर्जातं शिष्यस्वरूपं, ततो गुरुभिरिति ज्ञापितम्
संसारे हयविहिणा, महिलारूवेण मंडिअं कूडं ।
बझंति जाणमाणा, अयाणमाणा न बज्झंति ॥२॥ 5 तेन गुरुपुरो ज्ञापितम्
तावन्महत्वं पाण्डित्यं, कुलीनत्वं विवेकिता ।
यावत् ज्वलति नाङ्गेषु, हतः पञ्चेषुपावकः ॥३॥ गुरुप्रोक्तमवगणय्य स्थितस्तत्र तदा गुरुणा ध्यातम्
नान्यः कुतनयादाधि-व्याधिर्नान्यः क्षयाऽऽमयात् ।
नान्यः सेवकतो दुःखी, नान्यः कामुकतोऽन्धलः ॥४॥ कालेन तस्य सर्वा विद्या विस्मृता, मूर्यो बभूव, यतः
नारीसक्तो जनस्तातं, पितरं भ्रातरं तथा ।
विद्यां न विन्दते लक्ष्मी-वानिव क्वचिदेव तु ॥५॥ एवं केचिनारीवशीकृता कृत्याकृत्ये न जानन्ति ।। इति प्रभाचन्द्रकथा ॥४९॥
[50 ] लक्षणादिकूटकौतुककलाकथा । पद्मपुरे लक्ष्मोधरो राजाऽऽप्सीत् । तस्यामात्या बहवः। राजा तु याचकेभ्यो भूरिदानं दत्ते । मन्त्रीश्वरा जगुः-एवं दानात्कोशो रिक्तो भविष्यति ।
यथा तथा प्रजाः सर्वाः, प्रपीड्य विभवश्विरम् ।
मेलितः किं मुधेदानीं व्ययतेऽर्थिप्रदानतः ॥१॥ 20
ततो राजा जगौ-यो मां विशिष्टश्लोककरणेन रञ्जयिष्यति तस्मै दानं दास्ये, नान्यस्मै । ततोऽने के बुधा वर्यकाव्यादि कृत्वा राज्ञः पुरः कथयन्ति । परं राज्ञः [राजा] शिरो न धूनयति । इतः कोऽपि कविरेवंविधं श्लोकं कृत्वा प्रभाते राज्ञः पुरः प्राह
उत्तिष्ठ नृपशाईल ! मुखं प्रक्षालयस्व टः ।
यदा भाषयते (१) कुर्क-स्तदा रात्रिर्विभावरी ॥२॥ 25 तदा राज्ञोक्तं-'प्रक्षालयस्व ट' अत्र त्वया टो निरर्थः कृतः। कविनोक्तं-कुकटशब्दस्य
यो 'टो विद्यते स 'मुखं प्रक्षालयस्व ट' इत्यत्र टः क्षिप्तः । एवंविधो लक्षणकलां तस्य दृष्ट्वा राजा जहर्ष, भूरिदानं तस्मै ददौ ॥ इति लक्षणादिकूटकौतुककलाकथा ॥५०॥
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प्रथमोऽधिकारः
[51] सहसाकृतकार्योपरि - कृष्णकोलयोः कथा |
वृद्धपुरे विप्रो मुकुन्दोऽभूत् । तस्य कृष्णाह्नः पुत्रः । तस्य गृहमध्ये एकः सदा कोलो मृत्तिकां कर्षयति स्म । एकदा मुकुन्देन धूलिमध्ये रूप्यटङ्कको ददृशे । तेन स गृहीतश्व । द्वितीयेऽह्नि पुनः रूप्यदङ्ककः प्राप्तः । एवं सप्तदिनेषु सप्त रूप्यटङ्ककाः प्राप्ताः । एकदा पितरि ग्रामे गते कृष्णो दध्यौ बिलं स्वनित्वा सर्वे रूप्यटङ्कका महीष्यन्ते यदि तदा वरं भूयसी श्रीर्भवति । मद्गृहे आवास कारयामि । ततो बिले खनिते कोलो निर्गतः । हतश्च तेन निर्दयेन । अग्रतो बिलं बहु खनितं किमपि न निर्गच्छति । इतः पिता प्रामादागात् पुत्रः पृष्टः किमिदमारब्धं त्वया ? पुत्रोऽवग्रूप्यदृङ्कार्थं । पिताऽवग्-मुधाऽयं कोलस्त्वया हतः । कोलानां विवराणि भूमौ बहुप्रकाराणि भवन्ति । को जानाति कस्मिन् विवरे गच्छति कस्मि[कस्मा]न्निर्गच्छति तेनास्य हननाच्छीरायान्ती स्वगृहे त्वया निषिद्धा । ततः पुत्रो दुःखं करोति । तदा पिताऽवग्-" यस्य यद्भावि तद्भवति" यतः - 10 यस्य यादृस्वभावः स्यात् जायते सोऽन्यथा नहि । वक्रं पुच्छं पुनः केन, सरलीक्रियते क्वचित् ? || १|| इति | सहसा कार्यं कृतमनर्थाय भवति, यतः-
सहसा विदधीत न क्रिया-मविवेकः परमापदां पदम् । वृणुते हि विमृश्यकारिणं, गुणलब्धाः स्वयमेव सम्पदः ||२||
ततो द्वावप्यलब्धविभवौ दुःखिनौ जातौ चिरम् ||
इति सहसाकृतकार्योपरि-कृष्णकोलयोः कथा ॥५१॥ [52] आचारविषये द्विजपत्नीकथा ||
[ २५
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15
कस्मिंश्चित्पुरे मद्नस्य द्विजस्य गौरी प्रिया, श्रीधरः पुत्रोऽभूत् । स क्रमात्तरुणो भूत्वा विद्यां भणितुं विदेशेऽगच्छत् । श्रीपुरे गदाधरविप्रस्यान्ते [न्तिके] चतुर्द्दश विद्या पपाठ । तं तादृशं ज्ञं 20 ज्ञात्वा स्वां पुत्रीं तस्मै बहुश्रीयुतां ददौ । स तया पल्या युक् बहुश्रीकस्तं गुरुमुत्कलाप्य क्रमात्स्वपितुः पार्श्वे सोत्सवमगात् । अन्येद्युस्तस्य पुत्रोऽभूत्, जन्मोत्सवोऽभूत् वर्धमान इति नाम दत्तं तस्य । ससमानवयोभिः क्रीडति सदा । एकदा तस्य गृहांगणे राजपुत्रवणिजादयो बालाः क्रीडितुं लग्नाः । वणिक्कुमारो धूल्या हट्टं कृत्वा क्रयाणकानि विक्रेतुं लग्नः । द्विजपुत्रो मृतां महिष स्वधया प्रकल्प्य कर्षितुं लग्नः । इत्यादि बहून् क्रीडापरान् मदनो दृष्ट्रा दध्यौ -- अयं पुत्रः ईदृशीं 25 क्रीडां किं कुरुते । चकितः सन् मदनः श्रीधरं पप्रच्छ- किं तव पत्नी ढेढपुत्री सम्यकू त्वया प्र[]च्छनीया । ततस्तेन रहसि पत्नी पृष्टा - त्वं तु मया परिणीता, पुत्रोऽपि त्वयि जातः त्वया समं मयाऽनेकशो भुक्तम्, सत्यं जल्प, कस्य त्वं पुत्री ? तयोक्तम् अहं पूर्वं चाण्डालकुले उत्पन्ना, अहं पञ्चवार्षिक [ की] जाता । तावन्मतपिता सकुटुम्बो विदेशं प्रति चलितः । क्रमान्मम मातापितरौ मृतौ । अहमेकाकिनी तत्र स्थिता । अहं दुःखिता सती अग्रतो गत्वा कस्मिंश्चिदेवकुले स्थिता ।
30
इतस्तत्र गदाधर द्विजः समागात्, तेन साहं पृष्टा त्वं का ? मयोक्तम् - अहं द्विजपुत्री ।
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२६ ]
प्रबन्धपञ्चशती
10
मम मातापितरौ मृतो, अहं निराधाराऽभूवं । ततस्तेन द्विजेन निरपत्यकेनाहं गृहे नीता । पुत्रीवाऽहं वर्धिता, तुभ्यं चाभीष्टत्वाद्दत्ता । ततः पुत्रः पितुरने पत्नीस्वरूपं प्राह । ततो मिथो विमृष्टं रहसि पूर्वमेको द्विजः चण्डाली[तः]जातः, यतः
कैवर्तीगर्भसंभूतो, व्यासो नाम महामुनिः तपसा ब्राह्मणो जात-स्तस्माजातिरकारणम् ॥१॥ मण्डूकागर्भसंभृतो, माण्डवश्च महामुनिः । तपसा० ब्राह्मणो जात-स्तस्माजातिरकारणम् ॥२॥ शशकीगर्भसंभूतो, ऋष्यशृङ्गो महामुनिः । तपसा.... ... ...
..... ... ... ... ॥३॥ • उर्वशीगर्भसंभूतो, वशिष्ठस्तु महामुनिः । तपसा०...
'... .... ... ... ... ... .... ॥४॥ तस्मादाचार एवं प्रधानः, यतः
आचारः कुलमाख्याति, देशमाख्याति भाषितम् ।
संभ्रमः स्नेहमाख्याति, वपुराख्याति भोजनम् ॥५॥ 15 ततो न केनापि स्वपूर्वजातसम्बन्धः प्रोक्तः कस्याग्रे ( कस्यचिदने) प्रवचनीयः ।
इति आचारविषये द्विजपत्नीकथा ॥५२॥
[53] उचितवैद्यविषये कथा ॥ यो यादृशो भवति तस्य तादृश उपदेशो दातव्यस्तथाहि-लक्ष्मीपुरे चन्द्रभूपो राज्यं कुरुते । स च दयावान एकदा स्वकर्मकर एक इन्धनानि समानयत् । एकाक्षिसमुत्पन्नफुल्लको दृष्टो 20 राज्ञा । करुणया राज्ञा(तेन)पञ्चशतवैद्यस्याग्रे प्रोक्तम्-अस्य निःस्वस्य नेत्रात्फुल्लकमपसारय । तेन
वैद्येन तदा जीर्णकुटीरतीब्रस्थजीर्णतृणान्यादाय प्रज्वाल्य च तद्भस्मना तस्य नि निःस्वस्य नेत्रमञ्जितम् । द्वित्रिवारे तस्मिन्नञ्जिते नेत्रात्फुल्लकं गतम् । अन्येद्युभूपो निजं नेत्रं कृत्रिमफुल्लयुक्तं कृत्वा वैद्यस्याने प्राह-मम नेत्रोत्पन्नं फुल्लकमपसारय । वैद्यन जात्यमुक्ताफलरत्नादिदीनि भस्म
कृते आनायिते । राजाऽवम्-निनिःस्वस्य तृणभस्मना फुल्लकं गतं मम त्वेवमौषधं किं क्रियते । 25 भो वैद्य ! तस्य नि[निःस्वस्य नेत्रफुल्लकाऽपसारायान्यदञ्जनं कृतं, मम च बहुमूल्यमौषधं
कथम् ? । वैधेनोक्तम्-राजन् त्वं भूपस्तेन बहुमूल्यमौषधं नि[निःस्वस्य तु दरिद्रत्वात्तादृशमेव युक्तम् । ततो राजा यथास्थितनेत्रं कृत्वा प्राह-वयं त्वया कृतं, त्वमुचितज्ञोऽसि । ततो वैद्यो वर्यभूषणादिना मानितः ।। इति उचितवैद्यविषये कथा ॥५३।।
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प्रथमोऽधिकारः
[२७ [54 ] मणकपरीक्षितवैद्यकथा । : वीरपुरे भूपडनृपस्य वैद्यानां पञ्चशतानि विद्यन्ते । तस्य चैको मणको राक्षां मनो रञ्जयति । सर्वान् वैद्यान् विदुषंमन्यान् दृष्ट्वा मणको वैद्यस्योपान्ते गत्वा नालिकेरमेकं तस्मै रखौ, प्राह चेति ममातीव शिरोतिर्विद्यते, स्फेटय त्वं, ततस्तेनौषध[प्रयोगः प्रोक्तः । एवं. प्रच्छन्नं सर्वेषां वैद्यानां गृहेषु गत्वा नालिकेरं दत्त्वा शिरोतिस्फेटनविषये पृथक्पृथगौषधं जज्ञे। 5 सर्वेषी वैद्यानामुक्तान्यौषधानि कागदे लिलेख मणकस्तेषां हस्तेभ्यः, ततो राज्ञोऽग्रे प्राह मणकः स्वं कृतम् । एते वैद्याः किमपि न जानन्तिः । ततो भूपोऽवग-भो वैद्याः ! यूयं किं सम्यग रोगस्वरूपं न जानीथ ? तैरुक्तम्-अस्माभिर्ज्ञायते सम्यग् । ततो मणको वैद्यलिखितौषधमयं कागदं राज्ञा[ज्ञोऽग्रे मुक्त्वाऽवग-मम रोगस्य स्वरूपं न ज्ञातं, कथमन्येषां नृणां ज्ञास्यति ? अहं मुधा दण्डितोऽस्मि भवद्भिः । एवं लोका अपि दण्ड्यन्ते । मम शिरोतिस्वरूपं न ज्ञातं 10 ततो राजाऽवग् अस्य मणकस्य यद्गृहीतं तद्दशगुणं ददत, नो चेन्न छुटिध्यते । ततोऽखिलैवैद्यैर्दशगुणं प्रत्यर्पितम् ॥ इति मणकपरीक्षितवैद्यकथा ॥५४॥
[55 ] कर्मोपरि दुष्टभूपकथा । चन्द्रपुरात् धनश्रेष्ठी सेवकयुक् चचाल विदेशं प्रति । मार्गे वृक्षस्याधस्तात् तस्थौ श्रेष्टी। भृत्यः पादौ श्रेष्ठिनश्वम्पयति स्म । वातौ कुर्वन् सेवकः प्राह-स्वामिन् ! यदि तव राज्यं भवति 15 तदा त्वं कथं राज्यं पालयति ? श्रेष्ठी पाह-स्वां मन्त्रिणं करिष्ये सर्वाः प्रजाः सुखिनीश्च करिष्ये । ततः श्रेष्ठी प्राह-कदाचित् कर्मयोगात्तव राज्यं स्यात्तदा त्वं कथं राज्यं करिष्ये सि ?] । भृत्योऽवग-यद्यहं राज्यं लभिष्ये लप्स्ये] तदा सर्व जनं दुःखिनमेव करिष्ये । ततश्चलितः श्रेष्ठी मार्गे गच्छतोस्तयोरकस्मालक्ष्मीपुराधीशे पुत्ररहिते मृतेऽमात्यैर्गजाद्यधिष्ठानयोगतः श्रेष्ठिसेवकस्य चम्पकस्यास्य राज्यं दत्तम् । जाते राज्ये भृत्योऽवग-असौ मम स्वामी गच्छन् वाल्यताम् , ततो 20 भीतः श्रेष्ठी, पश्चादानीतोऽमात्यैश्चम्पकभूपोपान्ते । तेन राज्ञा श्रेष्ठी मन्त्रिमुख्यः कृतः। राजा सर्वान् बहुकरग्रहणात् दुःखीचकार, केचिल्लोका गुप्तिगृहे क्षिप्ताः, केचित्कदर्थ्यन्ते, केचिद्धाः शृङ्खलायाम् ।
इतो दीपालिका समागात्तदानी गुप्त्यादिस्थैजनैः श्रेष्ठी प्रोक्तः वर्षण दीपपर्व समागच्छवदस्ति]स्ति । यदि दिनत्रय[दिन]चतुष्टयं वा राज्ञा मोच्यन्ते[मोच्यामहे] वयं तदा वयं स्वजने 25 मातृपितृभ्रात्रादिभिः[मातापिताभ्रात्रादिभिः] सह मिलित्वा सुखमनुभवामः। ततः श्रेष्ठिनाऽमात्येन राजानं विज्ञप्य लोकः स्वस्वगृहं प्रेषितः, मिलिताः स्वजनादिभिः सह वर्यानपानमोदकादिभिः भक्षणात्सुखिनोऽभूवन् ।
इतो रात्रौ राज्याधिष्ठितदेवेन समेत्य राजानं कशाधातैस्ताडयन्नाह-त्वं मया राज्ये स्थापितोऽसि लोकानां दुःखोत्पादनार्थ, कथं सुखिनस्तान् करोषि, यद्यतः परं लोकान् सुखिनस्त्वं 30 करोषि तदैवं कुट्टयिष्यते मया । प्राग्वत् राजा लोकान् तथैव दुखिनश्वकार | श्रेष्ठी प्राहस्वामिम् ! कथं कुट्यन्ते एते लोकाः ? राजा तदा रात्रिस्वरूपं प्रोक्तवान, अहं कथं करोमि
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२८ ]
प्रबन्धपश्वशती
" इतो व्याघ्र इतस्तटी” । ततो लोकैरुक्तम - अस्माकं भाग्यानुसारेण भवानेव राजाकृतो देवेन कस्य दोषो दीयते ॥ इति कर्मोपरि दुष्टभूपकथा ॥ ५५ ॥
[56] स्वभाग्यविषये मेघकथा |
श्रीपुरे चन्द्रभूषो राज्यं करोति स्म । तत्र धीरः श्रेष्ठी, धारिणी [तस्य ] प्रियाऽभूत् । 5 क्रमात्पुत्रो मेघाह्वोऽभूत् । धर्मकर्मशास्त्राणि पाठितः । स पित्रा परिणायितः । एकदा पितुः पार्श्वे पुत्रोऽवगू- अहं श्रियोर्थं विदेशं यास्यामि । यतः
10
विदेशे मनुजाः प्राप्ताः, प्रायोऽर्जयन्ति वैभवम् ।
स्वस्य शक्ति च जानन्ति चरित्रं देहिनामपि ॥ १ ॥
,
यस्यास्ति वित्तं स नरः कुलीनः स पण्डितः स श्रुतवान्गुणज्ञः । स एव चक्ता सच माननीयः सर्वे गुणाः काञ्चनमाश्रयन्ति ||२॥
इत्युक्त्वा बलात् पितरं पर्यवसान्य चन्दनैः शकटानि भृत्वा चलितुं प्रस्थानं बहिर्ददौ, तदा पिताऽवम् यदि त्वं कुसुमपुरेऽगमिष्यः[ गमिष्यसि ] तदा तत्र त्वया सावधानेन चिन्त्यम् । तत्र धूर्त्ताः सन्ति । ते तु त्वां छलयिष्यन्ति । प्रथमं तत्रत्या मण्डविका ग्राह्या, चन्दनं तु स्वर्णतौल्येन विक्रीष्यते त्वया । पुत्रः प्राह - तव वचः प्रमाणं । ततश्वलितो मेघो गच्छन् कुसुमपुरा15 दर्जा पचगव्यूतीर्गतः । तदा तत्र चत्वारो धूर्त्ताः तत्र [तस्य ] संमुखमीयुः । सार्थसमीपे चन्दनैरिङ्गिष्टकं कृत्वा शीतमुत्तारयितुं तस्थुः । इतस्तत्रागतो मेघश्चन्दनं ज्वाल्यमानं दृष्ट्वा प्राह-- किं भवद्भिश्चन्दनं ज्वाल्यते ? तैरुक्तम् - अस्मत्पुरे चन्दनं कणसमं तोलयित्वा विक्रीयते गृह्यते च । मेघो दध्यौ -- अत्र चन्दनं स्वर्णतुल्यं श्रुतं साम्प्रतमेते चन्दनं कुर्वन्तः सन्ति । ततः किं करिष्यते मया । तदा मेघं कृष्णास्यं वीक्ष्य ते जगुः -- किं भवता कृष्णास्यं कृतं ? समुसमग्रतः 20 स्वागमनपितृजल्पनादिस्वरूपं जजल्प सः । कोऽत्र चन्दनस्य लाताऽस्ति । विक्रीयतोऽत्रैव मया शुल्कमुद्धरति । यूयं चन्दनं यदि ग्रहीष्यथ तदा भवद्भयो दास्ये । ते जगुरस्माकं चन्दनेन किं प्रयोजनम् । अस्मद् गृहेऽपि चन्दनं धनं विद्यते । पुरेऽपि च यदि चन्दनं विक्रेतुं वान्छाऽस्ति तदाऽत्रैव पुरे वणिग्भ्यो दापयिष्यतेऽस्माभिः । ततस्तैस्तत्र वणिजां कर्णबन्धेन कणतौल्येन दापितम् सत्यंकारोऽपि दत्तः । स च मेघश्चन्दनं तेभ्यः सत्यंकारतो दत्त्वा पुरमध्ये गतो द्रष्टुं पुरीं चन्दनं 25 स्वर्णतौल्येन विक्रीयमाणं दृष्ट्वा कृष्णाननोऽभूत् किं करिष्यते ? चन्दनं तु पुरा विक्रीतम् । कामसेना वेश्यागृहे गतः, तया पृष्टः, स चन्दनविक्रयसम्बन्धं जगौ । वैश्ययोक्तं-त्वं वाहितस्तैः अत्र धूर्त्ताः एव बहवः सन्ति, ते वैदेशिकं छलयन्ति । यदि मदुक्तं कुरु तदा तथा धियं दास्यामि यथा तव चन्दनं वलति । तेनोक्तं - भवदुक्तं करिष्यते मया । वेश्या जगौ-त्वं तत्र गच्छ, चन्दनं कर्षयित्वा चन्दनग्राहकाणां पुरः प्रोक्तव्यं प्रवक्तव्यम् ] कणा [न् ] आदावानयन्तु 30 यथा तैः सह चन्दनं तोलयित्वा दीयते । यदा तैर्युगन्धरी तत्रानीयते तदा त्वया वक्तव्यं - पर्य
तु वैदेशिकाः स्वर्णमूल्यं चन्दनं ज्ञात्वाऽत्रागच्छामः । भवद्भिस्तु कणैरित्युक्त्वा चन्दनं गृहीतम् ।
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प्रथमोऽधिकारः
[ ३९
10
सेन मुक्ताकणा आनीयन्ता भवद्भिः। युगन्धरीयमस्मत्पुरेऽस्ति, ततो विवादे जायमाने राजपावे तैः सह गन्तव्यम् । राजा मुक्ताफलैः सह तोलयित्वा चन्दनं तावकं तेभ्यो दापयिष्यते । ततो वेश्योक्तमङ्गीकृत्य मेघो राजपार्श्वे तैः सह विवादेन सदृशं के (कण्ठ) शिथिलं कारयामास । ततो मण्डविकाः पितुर्वचसा लात्वा शनैश्चन्दनं विक्रीय बलीः कोटीरजयामास मेघः, ततोमदनावेश्यायै बहुधनं दत्त्वा पश्चास्वपुरीमागात्। पितुर्मिलितः पिता मुमुदेतराम् । ततः सप्तक्षेत्र्यां श्रियं व्ययति 5 स्म पितरि स्वर्ग गते स्वयं गृहस्वामी भूत्वा दानादि ददानो महातीर्थेषु शत्रुक्षयादियात्रां चकार, मुक्तिगमनयोग्यं पुण्यमर्जयामास । ___मेघस्यापि सोमनामा पुत्रोऽभूत् , जन्मोत्सवः कृतः, पाठितः धर्मकर्मशास्त्राणि, परिणायितश्च । श्रेष्ठी मेघः समुत्पन्नवैराग्यः पुत्रे गृहभारं मुक्त्वा दीक्षा ललौ, कर्मक्षयान्मुक्ति ययौ मेघः ॥ इति स्वभाग्यविषये मेघकथा ॥५६॥
. [57 ] कर्मोपरि अनिरुद्धभूपकथा । ___एकदा अनिरुद्धराजा प्राह---गुरुपार्थे भगवन् ! पाण्डवा विज्ञा अभूवन् । तैरेवं युद्ध किं कृतम् ? तेषां वारके श्रीनेमिनाथो जिनोऽभूत् ।
गुरवो जगुः-भवितव्यताने को [कोऽपि न छुटति । अनिरुद्धोऽवग्-यदि सावधानीभूय स्थीयते तदा किं करोति कर्म ? तदा- 15
गुरवो जगुः-त्वयैतानि कार्याणि न कर्तव्यानि, यद्येतानि करिष्यन्ते तदाऽनर्थो भविष्यति ।
अनिरुद्धोऽवग-कानि कार्याणि ?
गुरुराह-त्वया चतसृषु दिक्षु न गन्तव्यं । यदि कार्य कदाचिद्भवति तदा न पूर्वस्या गन्तव्यम् । यदि पूर्वस्यां गच्छेस्तदा पापर्द्धिन कार्या । यदि पापद्धिं कुरुषे तदा सूकरो न हन्तव्यो। 20 यदि सूकरं हनिष्यसि तदा सूकरी न हन्तव्या । यदि सूकरी हंसि तदा धवला त्याज्या । यदि धवला हता तदा त्वया गृहे न नेया। यदि गृहे नयसि तदा तस्या मांसं न भक्षणीयम् । यदि भक्षयसि मांसं तदा त्वया उपरि पानीयं न पेयं । यदि पानीयं पिबसि तदा तम्बोलो न भक्षणीयः [ताम्बूलं न भक्षणीयम् ] इत्यादि नियममङ्गीकृत्यऽनिरुद्धभूपः स्वगृहे समागात् , क्रमात्सर्व नियमं विसस्मार । कुष्ठी जातः, ततस्तं तादृशं दृष्ट्वा गुरुभिरुक्तं-कर्मणोऽने कोऽपि 25 न छुटति । ततो विशेषतोऽनिरुदभूपः पुण्यं कुर्वाणः पूर्वकृतानि कर्माणि नाशं चकार, यतः
कत्थई जीयो बलिओ, कत्थइ कम्माई हुंति बलिआई ।
जीवस्स य कम्मरस य, पुव्वनिबद्धाई वयराइं ॥१॥ एवं सर्वैः जीवैरपि कर्मवशगतैः संसारे दुःखसुखानि पापपुण्ययोगाल्लभ्यन्ते ।
इति कर्मोपरि अनिरुद्धभूपकथा ॥५७।।
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३.]
प्रबन्धपञ्चशती [58 ] अतिथिसंविभागवते सांतलकौटुम्बकादि कथा । 'वीरपुरे धीरस्य कौटुम्बिकस्य मदनाला पत्नी बभूव । क्रमात्तयोः सप्त पुत्रा बभूवुः । नामान्यमूनि तथाहि
। चन्द्र-भीम-सोम-देवदत्त-धनदत्त-मदन-सान्तला इति सप्त परिणायिताः ।
एकदा सप्तसु पुत्रेषु हलानि खेटयत्सु सप्तापि वध्वः कौटुम्बिकेन निन्दनार्थ प्रेषिताः । तदा सप्तापि वध्वो निन्दनार्थ क्षेत्रं प्रतिचेलुः । मेघे वर्षति सप्तापि वध्वो वटवृक्षस्याधः स्थिता मिथो वार्ता कर्नु लग्नाः ।
इतः कौटुम्बिकोऽपि क्षेत्रं प्रति चलितो मार्गेऽब्दे वर्षति छन्नं वटतरोः समीपे वधूजल्पितं । श्रोतुं स्थितः वृद्धा वधूः प्राह-मम क्षीरं रोचतेतराम् । 10
द्वितीयाऽवग-क्षिप्रचटिकाम् । तृतीया चाह-सालिदालिघृता[दीन] रोचते । चतुर्थी-ओदनं मुद्गघृतयुतम् । पञ्चमी-पक्वान्नम् ।
षष्ठी-मोदकान् । 15. सप्तमी जगौ-यदि भवति किमपि तदाऽर्थिभ्यो दत्त्वा जिम्यते यादृशमन्नादि यदा
चटति तदा तादृशेन निर्वाहः क्रियते । उच्चाटो नानीयते च सन्तोष एव कर्त्तव्यः । किं करोति श्वभूस्वसुश्विसुर]रादिकः । कम एव प्रधानं वीक्ष्यते ।
__ एतत्तासां प्रोक्तं श्रुत्वा श्वशुरो गृहे पश्चात्समेत्य भार्यायाः पुरः ( कौटुम्बिकः) प्राहषण्णां वधूनां क्षीरादि देयं, सप्तम्याश्चोद्धरितं कदन्नं दातव्यं, ततस्तया तथा कृतं यथा सप्तमी 20. दुःखिनी जाता कान्तस्याने प्राह-मह्यं श्वश्रुः कदन्नं दत्तेऽहं मरिष्यामि ।
सान्तलोऽवग-भो प्रिये ! त्वया दुःखं न कार्यम् , अहं दिशं [विदेश] गत्वा तथा करिष्ये यथा तवेप्सितं भविष्यति । ततो मातुरहं कदाचिद्वहुकालात्तव मिलामि तदा त्वयाऽहमुपलक्ष्यसे [क्षिष्ये] नवेति मातरं पप्रच्छ ।
माताऽवग-यो गर्भ नवमासान व्यूढः स कथं नोपलक्ष्यते । ततो रात्रौ प्रियापार्श्वेऽवग् 25 स त्वयाऽयं कञ्चको नोत्तायः ।
एवं प्रोक्त्वा प्रोच्य] सान्तलो विदेशं प्रति चचाल, सूर्यपुरोपान्ते सान्तलः स्थितो विश्रामार्थम् ।
इतः तस्मिन् पुरे नृपे पुत्ररहिते मृते पञ्चदिव्यैरभिमन्त्रितैः सान्तलस्य राज्यं तत्रत्यमभून् । 'सहस्रमल्ल' इति स्वं नाम कथयामास राजा । क्रमाच्चतुद्देश प्रिया अभूवन् । मातापित्रोः 30 सहोदराणां नामापि चित्ताद् विस्मृतः व्यस्मरत् ] ।
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प्रथमोऽधिकारः
[ ३१
राज्ये जाते नृणां सर्वे, मातापित्रादिसोदराः ।
न चित्ते स्मृतिमायान्ति, यतोऽन्धं कुरुते रमा ॥१॥ तत्र पुरे स्तोकं वारि ज्ञात्वा सरो मन्त्रिपार्धात्खानयितुं राजा[ज्ञा] प्रारब्धं, बहवो जनाः सरः खनन्ति स्म, नरं प्रति मानकं धान्यस्य घृतस्याशेरं दीयते एकैको द्रम्मश्च ।
इतश्चान्यदा राजा सरो द्रष्टुं गतः। सरो विलोकयन् स्वकुटुम्ब सरः खनत् वीक्ष्य राजा 5 दध्यौ-किमिदं मम कुटुम्बं विद्यते । कर्मणः पुरः कोऽपि न छुटति । स्वं कुटुम्बं दृष्ट्वा राजा गृहे गतो द्वितीय दिने धीरस्य सकुटुम्बस्याध्यधैं ग्रासं राजा चकार । क्रमान्मातापित्रोमन्त्रिपार्थात् सरः खननं निषिद्धम् ! धीरो दध्यौ किमयं राजा करोत्येवम्। ततो राज्ञोक्तमन्यदा एकैका वधूर्वारकेण तक्रार्थं मम गृहे प्रेष्या। ततो दिनं दिन [प्रतिदिनं ] वधूरेकैका तक्रं ग्रहीतुं याति । राजगृहे यदा षड् वध्वो यान्ति तदा राजा तक्रं दापयति, यदा सप्तमी याति राजगृहे 10 तदा नृपो दुग्धं दधि वा दापयति स्म तस्यै। यदा सा स्वगृहे याति तदा परा वध्वो जल्पन्तिइयं कुशीलिनी विद्यते, तेन न ज्ञायते मार्गे स्थास्यति न वा. सान्तलस्त कुत्र गतो न ज्ञायते । जीवन्नस्ति मृतो वा । एकदा राज्ञोक्तम्-भो स्त्रि ! जीर्ण कञ्चकं त्यज, नवीनं परिधेहि । साऽवग-त्वं लोकस्य पाताऽस्ति तवैवं वक्तुं न युक्तं । सर्वे तपस्विनो दुर्बला निराधारा प्रे[प्रो]. षितभर्तृकादयो ये वर्तन्ते तेषां धर्ममार्ग राजा स्थापयति । यदि वृत्तिश्च टिकान् भक्षयति तदा 15 को रक्षिता । पूर्व परिणीतं पति मुक्त्वाऽस्मिन् भवे नान्यमङ्गीकरोमि । यदि बलात्कारं करिष्यसि तदाहं तुभ्यं स्वस्य हत्यां दास्ये ! त्वं प्रजापालोऽसि, मया किमुच्यते !
इतो राज्ञा कौटुम्बिकं सकुटुम्बमाकारयितुतिभृत्यान् प्रेषीत् । भृत्यास्तमाकारयितुं यदा ता:तदास कौटुम्बिको नन्दनान्प्रति आह-न ज्ञायते राजा किं करिष्यते । प्रथमं भूपेन लघुपुत्रपत्नी रक्षिता । आत्म[अस्माभिरन्यायः कोऽपि न कृतः । राजा दुष्टो भवति, यतः
वेश्याऽक्का नृपतिश्चौरो, नीरमार्जारमर्कटाः ।
जातवेदः कलादाच, न विश्वास्या इमे काचित ।।२।। ततो बिभ्यन कौटुम्बिकः सकुटुम्बो राजपाधैं गतः, राज्ञोक्तम्--भवद्भिः सरो रुचिरं न खनितं तेन त्वं कारागृहे क्षिप्यसे । कौटुम्बिकोऽवक्-अस्माभिरपराधः कोऽपि न कृतः । यथा रुचिस्तव स्यात् तथा कुरु । ततो राज्ञा स्वगृहोपान्ते स्थापितः । स्वयं स्नानं कत्तु मुपविष्टः, तदा 25 हस्ते चिह्न वीक्ष्य प्राह-भूपोऽयं मत्पुत्रः । ततो राजा स्नानं विधाय मातापित्रोः भ्रातृणां भ्रातृजायानां च पादेषु विनयात्पपात । सतो जनकं भूपोऽप्राक्षीत्-तात ! त्वमत्र कथमागाः ? कौटुम्बिकोऽवग-तत्र नीवृति[तौ] दुष्कालोऽपतत् ततोऽस्माकं निर्वाहो दुःशको जातः । ततोऽस्माभिः पृथव्यां भ्रमद्भिरत्रागतम् । ततो राजा तां पूर्वपत्नी पट्टराज्ञी चक्रे प्राहेति भूपः-त्वमात्मीयं मनोरथं दानादिषु पुण्यात्पूरय । लक्ष्मीस्तु भूयस्यस्ति । मातरं प्रति प्राह-त्वया पूर्व प्रोक्तं यो 30 गर्भ उद्वह्यते स बहुकालादुपलक्ष्यते तदर्थ मयैतत्कृतम् । ततः सर्वेषां सोदराणां प्रामाणि पश्च
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३२ ]
प्रबन्धपञ्चशती
प ददौ । ततो लक्ष्मीवन्तो जाताः सन्तो लघुभ्रातरं भपं विनयेन न मन्यन्ते । प्रायः श्रीमत विनयो न भवति -
5
पूर्व श्रीपुरे कमलश्रेष्ठी बभूव । तस्य भार्या कमला । तौ द्वावपि गुरुपार्श्वे धर्मं श्रुत्वाऽतिथि10 संविभागतं ललतुः । तद्व्रतं सम्यक्प्रपाल्य त्वं स प्रियो भूपोऽभूः, ततो विशेषतोऽतिथिसंविभागव्रतं शुद्धमाराध्य पञ्चमस्वर्गे राजा राज्ञी च मयजन्म प्राप्य कर्मक्षयात् मुक्तिं जग्मतुः ॥ ॥ इति अतिथिसंविभागवते सान्क्लकौटुम्बिकादिकथा ||१८||
15
भक्ते द्वेषो जडे प्रीति -- रुचितं गुरुलङ्घनम् । मुखे कटुकतात्यन्तं, धनिनां ज्वरिणामिव ||३||
क्रमात्तेषामन्यायेन चलतां ग्रामा उद्वसा जाताः पुनर्दुःखिनो जाताः सन्तो भूपं सेवन्ते श्रियोऽर्थं "श्रीणश्चन्द्रः सूर्य सेवते " । ततो राज्ञा सज्जनत्वात्ते भ्रातरो मानिता लक्ष्मीदानात् । अन्येद्युस्तत्र गुरुरागात् । धर्म श्रोतुं नृपोऽगात् । धर्म पप्रच्छ, मया किं कृतं पुण्यम् 1 गुरुभिरुक्तम्
20
[59] सत्योपरि मुनिकथा |
एकस्मिन् पुरे कोऽपि मुनिः कस्यापि गृहे भिक्षार्थं प्रविष्टः । तेन नत्वा मुनिः पृष्टः-भगवन ! त्रिगुप्तिगुप्तोऽसि । मुनिनोक्तं - नाहं गुप्तः । कथम ? तेनोक्तम्
एकदा कस्यापि गृहे भिक्षार्थमगमं, तस्य प्रियाया वेणीदण्डं दृष्ट्वा स्वभार्या स्मृतवानहम् । अतो मनोगुप्तिर्मम नास्ति । पुनरेकदा भिक्षार्थमिभ्यगृहेऽगममहं तेन कदलीफलानि दत्तानि अन्यगृहे मया पृष्टेन व्याहृतम् । तेन तद्वैरिणा तत् नृपाय निवेदितम् देव ! भवद्वाटिकाया रम्भाफलानि श्री श्रेष्ठिगृहे यान्ति । राज्ञोक्तम् कथं ज्ञायते ?
"
तेनोक्तम् - श्रेष्ठिना मुनेर्दशानि मया तु मुनिमुखात् श्रुतम् । एवंविधानि सदाफलकदलीफलानि भवद्वाटिकां मुक्त्वाऽन्यत्र न सन्ति तच्छ्रुत्वा नृपेण श्रेष्ठी दण्डितः, अतो मे वाग्गुप्तिर्नास्ति । येन श्रेष्ठदण्डनेऽहं हेतुरभूवम् । तथाऽहमेकदाऽटव्यां श्रान्तः विश्रान्तश्च प्रमिलां [प्रमीलां]प्रापम् । तत्रैकः सार्थः स्थितोऽभूत् रात्रौ सार्थपतिनोक्तम् -- प्रातर चलिष्यते तेन सकालमन्नानि कुरुत जनाः, ततः सर्वो जनोऽन्नपाके लग्नः एकेनान्धकारवशादेकस्मिन्पक्षे मम मस्तकपार्श्वे पाषाणं 25 मुक्त्वा चुल्लकः कृतः, तन्मध्ये वह्निरुद्दीपितः, मया शिरोऽपाकृतम् अतो मे कायगुप्तिरपि नास्ति । अतो नाहं भिक्षाहः । तस्य सत्यभाषणे श्रेष्ठी हृष्टः प्रतिलाभ्य प्रेषितो मुनिः । श्रेष्ठी प्रशंसयाऽनुतरविमानादिसुखमर्जितवान् । मुनिस्तु तादृशं तादृशमात्मानं निन्दन् चिरं चारित्रं प्रपाल्य क्रमादिवं गतः । इति सत्योपरि मुनिकथा ॥५९॥
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प्रथमोऽधिकारः
[60 ] पूर्वकृतकर्मणि सीताकथा । नो चेव भासिअव्वं, अस्थिणा दुक्खकारणं । अलियं अभक्खाणं, पेसुमं मम्मवेहाई ॥१॥ संतो विहु वत्तव्यो, परस्स दोसो न होइ विबुहाणं । किं पुण अविज्जमाणो, पयडो छन्नो अ लोअस्स ॥२॥ विअरइ अब्भक्खाणं, इअरस्स वि जो जणस्स दुबुद्धी । सो गरिहिजइ लोए, लहइ दुक्खाई तिक्खाइं ॥३॥ जो पुण जईण समिआण, सुद्धभावाण बंभयारीणं । अब्भक्खाणं देई, मच्छरदोसेण दुट्ठमई ॥४॥ निव्वत्तिऊण पावं, पावेइ सो दुहमणंतं ।
सीआ इव पुधभवे, मुणि-अब्भक्खाण-दाणाउ ॥५॥ यथा अत्रैव भरते मिणालाकुण्डपुरे श्रीभूतिः पुरोधाः, सरस्वती भार्या, पुत्री वेगवती, तत्रकदा साधुः शुद्धव्रत आगात्, उद्याने प्रतिमां स्थितः, लोको वन्दते भक्त्या, साधुपूजां दृष्टाऽलीकमात्सर्येण वेगवती लोकानाह-एष मुण्डः पाखण्डी किं पूज्यते ? ब्राह्मणान्मुक्त्वा, एष मया रमण्या सह रममाणो दृष्टः इति कूटमालं साधोदत्तवती । लोका मुग्धास्तद्नु साधुपूजना- 15 दिभ्यो निवृत्ताः, मुनिनापि लोकविरक्त्या ज्ञातम्-तदलीककलङ्कादि, ततो जिनशासनेऽपभ्राजना मन्निमित्तामा] भूयादिति मनसि कृत्वा यावतैष कलङ्को नोत्तरति तावता मया न भोक्तव्यमिति प्रतिज्ञाय कायोत्सर्ग स्थितः । ततः शासनदेवतासान्निध्यात्--
ततो-'वेगवईए देहे विवेि] अणा समुद्विआ तिव्वा ।। पाउन्भूया अरई सूर्ण वयणं च सहसत्ति ॥१॥"
20 तस्तया संजातपश्चात्तापया साधुमूले गत्वा सर्वलोकसमक्षं स्वनिन्दापरया मुधैव तदालं साधोर्दत्तं मात्सर्येणेति क्षमयित्वा पादयोर्लग्ना, ततः शासनदेव्या सज्जीकृता, धर्म श्रुत्वा दीक्षा गृहीत्वा चिरं पालयित्वा सौधर्मे देव्यभूत् । ततो जनकसुता सीता जाता । क्रमाद्रामेण परिणीता, रावणेनापहता, सा च पश्चादानीता तदा पश्चाद्भवात्म्यस्थितालीककर्मयोगाल्लोकैः कलको दप्सः । ततः पुण्ययोगादग्निचिताप्रवेशतः शुद्धा, ततो जिनशासने प्रभावना जाता ।
इति पूर्व कृतकर्मणि सीताकथा ॥६॥
[61] सुभद्रा-कथा ॥ कायोत्सर्गे इहलोके यत्फलमभूत्सुभद्रायाः, तत् उदाहरणं वक्ष्ये ।
वसन्तपुरे जिनदासश्रेष्ठी, तस्य सुता सुभद्राः बौद्धभक्तेन चम्पापुरीनिवासिना नरेण कपटभाद्धीभूय बुद्धवासेन स्वगृहं परिणीय नीता, सा कुटुम्बकलहे पृथग्गृहे स्थापिता सा, तत्र 30
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३४ ]
प्रबन्धपञ्चशती
प्रायो भिक्षायै अनेके साधव आगच्छन्ति । एषा संयतेषु रक्ता इति अन्यवचोभिर्भसिताऽपि तेषु . साधुषु भक्ति करोति । अन्यदा साधुलोचने पतितं तृणं जिह्वया कर्षयन्ती सुभद्रां दृष्ट्वा [श्वशुर]लोकेन तिलको भाले संक्रान्तो भर्तुर्दर्शितः, स मन्दस्नेहोऽभूत्प्रियाया, सुभद्रया स वृत्तान्तो ज्ञातः,
प्रवचनोडाहभीतया रात्रौ कायोत्सर्गः कृतः। ततस्तदा तत्र शासनदेव्योक्तं-प्रातरस्याः पुर्यो 5 द्वारेषु स्तब्धेषु मया, चालन्याऽऽकृष्टोदकेन त्वया प्रतोली उद्घाट्या, ततो जिनशासनप्रभावना
भवति । तदा बहीभिः सतीभिरनुद्घाटितेषु द्वारेषु पटहस्पर्शनपूर्व सुभद्रया देवतयोक्त विधिना प्रतोलीत्रयमुद्घाटितं, चतुर्थमधुनापि तथैवास्ति तत्र ततो विशेषाजिनशासनप्रभावना जाता, ततः सर्वकुटुम्बेन जैनो धर्मः प्रपेदे, साधव आराधिता, जिनेन्द्र आराधितः, मिथ्यात्वं त्यक्त्वा
सुभद्रा[श्वस्मादयोऽपि पुण्यमर्जयामासुः । इति सुभद्रा कथा ॥६१॥ 10
[ 62 ] निर्मोहकुटुम्बे गोपालकथा । सुस्थितप्रामे गोपालकुटुम्बी वसति, तस्य प्रिया गुणवतो, पुत्रः कालकः, वधूटी कामदेवी सर्वेऽपि विरहासहाः सुस्नेहमानसाः एकत्रैव तिष्ठन्ति स्म, न विदेशं गच्छन्ति च । अन्येषुस्तत्रागतश्रीधर्मघोषसूरिपार्श्वे संसाराऽसारतां श्रुत्वा अनित्यतां भावयन्ति स्मेति
एगोहं नस्थि मे कोइ, नाहमनस्स कस्सई ।
एवमदीणमणसो, अप्पाणमणुसासई ॥१॥ अन्यदा वर्षाकाले कालके हलखेटनाय गते तत्र पितृमातृवध्वाद्याः समाजग्मुः ।
अत्रान्तरे स्वर्गे कोऽपि देवोऽन्यदेवं प्रति प्राह-अधुना यादृशं गोपालकुटुम्बं निर्मोहं मिथोऽस्ति तादृशमन्यन्न दृश्यते ततस्तत्रैत्य तौ देवौ मनुष्यरूपं कृत्वा गतौ । एकः सर्परूपं कृत्वा
हलं खेटयन्तं पुत्रं दशति स्म । पुत्रेऽचेतनीभूते यदा पित्रादयः शोकं रोदनादि न कुर्वते, तदा 20 अपरो देवो मनुष्यरूपभृत्प्राह-भो भो गोपालादयः कालके मृतेऽपि भवद्भिः कथं न रुद्यते पिता प्राह तदा-अनाहूतो मया यातो, न मया प्रेषितो गतः ।
यथाऽऽयातस्तथा यातः का तत्र परिदेवना ॥१॥ जननी प्राह--- एकवृक्षसमारूढा, नानारूपा विहंगमाः ।
प्रातर्दिशो दिशं यान्ति, का तत्र परिदेवना ॥२॥ 25 कलत्रं परिजगो-पृथक्पृथस्थिते काष्ठे, अपरे तटिनीपतौ ।
संयुज्यते वियुल्येते, तत्र का परिदेवना ॥३॥ ततस्तौ देवी प्रकटीभूय निर्विषीकृत्य पुत्रं निर्मोहमिदं कुटुम्बमिति व्यावर्ण्य स्वस्थाने गतौ । इति निर्मोहकुटुम्बे गोपालकथा ॥६२।।
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प्रथमोऽधिकारः
[63] प्रासादकरणे आरासणवासिपासिल पुण्यम् । आरास मं० गोगासुतः पासिलो दौर्बल्यादतीव दुःखितोऽभूत् । यतः -- वरं वनं व्याघ्रगणैर्निषेवितं, जलेन हीनं बहुकण्टकाकुलम् |
तृणैश्च शय्या वसने च वल्कलं, न बन्धुमध्ये निधनस्य जीवितम् ||१||
अन्यदा तैलपूर्णां कूपिकां गृहीत्वा पत्तने विक्रयार्थं गतः । तत्र त्रिभुवन विहारप्रासादे 5 देवानन्तुं गतः । देवान्नत्वा विहारस्तम्भादिषु प्रमाणं गृह्णन् तत्र वास्तव्या ! श्र० छाण्डापुत्र्या इसितं, किमियत्प्रमाणं प्रासादं कारयिष्यसि ?
[ ३५
पासिनोक्तम्- यदि कदाचिद्भगिनि ! प्रासादः कार्यते तदा प्रतिष्ठासमये त्वयाss[ गन्तव्यम् ] गम्यम् । गतः स्वपुरे पासिलः । १० उपवासैरयम्बिकाऽऽराधिता प्रसन्नाऽभूत् । यत्तः अम्बिकाsar - मार्गय [वृणु] वरम् । तेनोक्तम् — यथा नवीनः प्रासादः निष्पाद्यते तथा कुरु । 10 देवतमोक्तम्- सीसकखनिः रूप्यमयी कृता । ततस्तेन नमिनाथस्य प्रासादः कारितः ।
स च बिम्बप्रतिष्ठावसरे पत्तने गत्वा तां छांडापुत्रीं स्वभगिनीत्वेन प्रतिपन्ना [अ]ssनीता सन्मानिता च तेन । सा प्रतिष्ठा जाता संघभक्त्यवसरे प्रथमं गुरून् परिधाय श्रीसंघः पट्ट[] कूलवस्त्रैः परिधापितस्तेन । भगिन्या तया पट्टकूलेषु दीयमानेषु प्रोचे इमानि मम बहूनि सन्ति परं त्वया प्रासादः कारितः परं ममायं मण्डपोऽस्तु । तेनोक्तमेवं भवतु । तदा गुरु- 15 भिरिदं काव्यमुक्तम्
गोगाकस्य सुतेन मन्दिरमिदं श्रीनेमिनाथप्रभो
स्तु पासिलसंज्ञकेन सुधिया श्रावता मन्त्रिणा । शिष्यैः श्रीमुनिचन्द्रसूरिसुगुरोर्निग्रन्थचूडामणे
र्वादीन्द्रैः प्रभुदेवसूरिगुरुभिर्नेमेः प्रतिष्ठा कृता ||२||
तत्पुण्येन स पासिलः स्वर्गसौख्यमासाद्य क्रमात्स शिवं गमिष्यति । इति प्रासादकरणे आरासणवासिपासिलपुण्यम् ॥ ६३ ॥ [64] प्रासादे फलवर्धितीर्थकल्पः ।
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एकदा श्रीदेवसूरयो मेडताप्रामे चतुर्मासकं कृत्वा फलवधिग्रामे मासकल्पं स्थिताः । तत्रत्य पारसाभिवश्राद्धेनान्यदा जालिमध्ये अम्लानपुष्पपूजितो लेष्टुराशिदृष्टिः । सतः श्रीगुर्वादेशेन 25 तद्विरडीकरणे श्रीपार्श्वविम्बं दृष्टम्, तस्य प्रासादकारणाय श्रीपार्श्वनाथेनोच्यते स्वप्ने समागत्य । ततः श्राद्धेन तेन पारसेन स्वस्य द्रव्याभावे उच्यमाने प्रत्यहं मदमढौकिताक्षतसुवर्णीभवनेन द्रव्यं बपि भावीति प्रत्ययो दर्शितः । ततः कारितः प्रासादः, एकस्मिन्पार्श्वे मण्डपादि सर्व निष्पन्नं तावता तत्पुत्रेणैतद्रव्यं कुतः समेतीति निर्बन्धपूर्व पृष्टेन सा० पारसेन यथावत्कथनेऽक्षता न सुवर्ण्यभवन् । द्रव्याभावात्प्रासादस्तावानेव तस्थौ । सं० १९९९ वर्षे फा० शु० १० बिम्बस्थापनं 30 १ 'मि' इति विथते, D प्रतो ।
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३६ ]
प्रबन्धपञ्चशती
15
सं० १२०४ माघ शु. १३ कलशध्वजारोपः । श्रीदेवसूरिप्रहितात्मीयशिष्यश्रीमुनिचन्द्रसूरिमिः श्रीगुरुपायैः प्रतिष्ठितः [प्रतिष्ठापितः] प्रासादः ।
तत्र फलवर्धिपार्श्वे अजमेरनागपुरादिश्राद्धा गोष्ठिकाश्चिन्ताकारा जाताः । तत्र प्रासादेऽधुनाऽप्येका प्रतिमा पूज्यते । द्वितीयां प्रतिमा न सहते पार्श्वदेवः ।
इति प्रासादे फलवर्धितीर्थकल्पः ॥६४॥
[65 ] अथान्तरिक्षपार्श्वकल्पः । स्नात्रजलैस्तै लैरिव, साम्प्रतमपि यस्य दीप्यते दीपः ।
स भीमदन्तरिच-भीपार्श्वः श्रीपुरे जयति ॥१॥ ___ रावणराज्यसमये पुष्पबटुकेन स्वस्वामिमालिविद्याधर पूजाकृते भविष्यत् श्रीपाश्वप्रतिमा 10 वालुकामयी विद्यया कृताऽप्रतश्चलिते च सरसि क्षिप्ता प्रतिमा सा च देवसान्निध्यादखण्डितरूपा
चिङ्ग उलिकदेश चिगल्लकपुराधिपतिश्रीपालराजा राजेन] समुत्पन्नासाध्यकुष्ठेन तस्मिन्सरसि स्नानं कृतं । तस्याः प्रतिमायाः पावराज्ञः [राजस्य] कुष्ठं गतं । सुमहोत्सवं राजा गृहे समायातः । राश्या पृष्टं कुतो रोगोऽगमत् ।
राझोक्तम्-अस्मिन्सरसि स्नात्रकरणात् ।
राज्योक्तम्-अत्र कोऽपि देवोऽस्ति, मध्ये बलिः कृतः अम्बया प्रत्यक्षीभूयोक्तं बिम्बनिष्पत्तिस्वरूपं च, ततश्चोक्तम्
सप्तदिनजाततर्णकादिरथं कृत्वाऽत्रागन्तव्यं । ततो मया बिम्बमर्पणीयं तथाकृते देव्योक्तम्-भवता पश्चान्न विलोकनीयं, प्रतिमा पश्चादायाति नवेति विकल्पादकस्मात् राज्ञा पश्चाद्वि
लोकितम् । अन्तरिक्षे स्थिता प्रतिमा । तत्रैव श्रीपुरं वासितं । प्रतिमानयनसमयेऽम्बाया 20 समागच्छन्त्या एकः सुतो विस्मृतः, तस्यानयनाय क्षेत्रपाय प्रोक्तम् , तेनापि विस्मारितः, ततोऽम्बया
रोषेण स सिरसि दण्डेन हतः, सोऽद्यापि क्षेत्रपशिरसि दृश्यते, ततो देवस्नात्रोदकेन सिदतो दीपो वर्धते, दीप्यते देवस्नात्रजलेन, रोगा उपशमं गच्छन्ति । इति अन्तरिक्षपार्श्वकल्पः ॥६॥
[66 ] टीडासम्बन्धः । ___ कस्मिंश्चिन्नगरे टोडाह्वो ज्योतिकोऽस्ति । एकदा टीडेन रात्रौ मण्डकाः क्रियमाणा रात्रौ 25 छन्नं सुप्तेन गणिताः । प्रातस्तत्रैत्य मण्डकप्रमाणं प्रोक्तं, ततो ज्योतिष्कोऽपि ख्यातोऽभूत् ।।
एकदा कुम्भकारस्य गर्दभो गतः । तेन धनं दत्त्वा पृष्टं-मम गर्दभः कदा लप्स्यते ? बुधोऽवग्- लभ्यते, रात्रौ गईभस्थितिं वीक्ष्य प्रातर्जगौ।
__अतीव ख्यातिरमूत्तस्य । कस्यचिद्धारो गतस्तेन बुधः पृष्ठः । बुधेन मुद्रिकादासी हार
गृहीता [ग्रहीत्री] ज्ञाता, ततो लग्नं मण्डयित्वा हारो वालितः। ततो राज्ञा टीडमञ्जलिमध्ये 30 कृत्वा प्रोक्तम्-किं मम हस्तमध्येऽस्ति ? टीडोऽबुधो यदा न जानाति तदा राजा धृतः प्राह
स्वं स्वरूपमिति
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[ ३७
प्रथमोऽधिकारः सूतई सूतई मांडा गण्या, राति भमंतई गादह लाध ।
मुद्रटीई इह हारज गलिओ; हवडां टीडो जोसी ग्रहीओ ॥१॥
ततः राजा चमत्कृतो राजा बुधं तं बहुधनदानेन सन्मानयामास बुधोऽवग्-भूपाद्य. प्रभृति मया यथा तथा न वक्तव्यम् । इति टीडासम्बन्धकथा ॥६६॥
[67 ] "गरुआ सहजिई" गाथा सम्बन्धः । गरुआ सहजिई गुणकरई, कंतमकारणजाजाणि ।
करसणसींचई सरभरई, मेघन मागई दाणु ॥१॥ तथाहि-कस्मिंश्चिन्नगरे धनदत्ताभिधो वणिग्वसति स्म । तस्य गृहे कश्चित्प्राघूर्णक आगतः । अस्य भोजनं देयमित्यभिधाय श्रेष्ठी हट्टे गतः । स प्राघूर्णकः स स्वादु रसवत्या प्रीणितस्तया, तेन प्राघूर्णकेन पत्राणि अडागराणि भक्षितानि । कानिचिनिर्विकल्प्य भगिनीत्य- 10 भिधाय तस्यै अपितानि । ततो धनदत्तो गृहे आगतः तानि पत्राणि पत्यै अर्पितानि तया तदा] तेन चिन्तितमहो असदृशमेतत् , ततस्तया मनोगतं भावं तस्य पत्युरवगत्याभिहितं-"गरुआ सहजि" इमां गाथा पूर्णा प्रोक्त्वा [प्रोच्य] तस्य निर्विकारप्राघूर्णकाऽर्पितपत्रसम्बन्धं प्राह पत्नीभो पते ? त्वया किमपि अलीकं न चिन्त्यं, पत्राणि भक्षय, ततस्तेन पन्योक्तं कृतम् । इति 'गरुआ सहजिई' गाथासम्बन्धः ॥६७॥
15 [ 68 ] कूपकम्बलिकापातकसम्बन्धः । व्ययन्ति केचिन्मनुजा धनं मुधा-विमृश्य कार्यैकपरा जडाशयाः । स कूपवाहा इव कूपकम्बली-प्रघातकान्मानवतोऽतिधूर्तकान् ॥१॥
तथाहि-कस्मिचिन्नगरे बहवः कूपवाहका गोधूमान् वयन्ते स्म । अत्रावसरे कश्चित्पथिकस्तस्मिन्मार्गे समागात् , तेन जलयन्त्रघट्या जलं पीत्वा प्रोचे भो कूपवाहकाः! कः कूपमध्ये 20 एता जलघटीर्जलैः पूरयति ? ततस्तैः कूपवाहकैः प्रोक्तं हसद्भिः-भवत्पिता घटीभरति । पथिको ऽवग–यदि मम पिता घटीमरति तन्न झीतं लगन् दाभावि । ततस्ते प्रोचरतो निजपितुः शीतरक्षायैका कम्बलिका[किं] न दीयते ? ततः प्राह तर्हि इयं कम्बलिका कूपे मया शीतरक्षायै क्षिप्यमाणाऽस्ति, एवं प्रोच्य कम्बलिकां क्षिप्त्वा गतः । ततो यदा गोधूमा निष्पन्नाः तदा ते विभागीकर्तुं लग्नाः । ततः पथिकः प्राह-मम पित्रा कूपाजलं कर्षितमस्ति ममापि भागः 25 कर्तव्योऽतः, ततो विवादं कृत्वा राजकूले स्वं भागं याचते स्म । तदा सर्वेरप्युक्तं-कूपे कम्बलिका तेन क्षिप्ता, अतोऽस्यापि गोधूमभागो दीयतां । ततः सोऽपि गोधूमभागं प्राप ।
इति कूपकम्बलिकापातकसम्बन्धः ॥६॥
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३८ ]
प्रबन्धपञ्चशती
15
[69] मनोनियन्त्रणे तापससम्बन्धः । एकस्मिन्पुरे चन्द्रोभूपो राज्यं करोति स्म । तत्र पुरादहिरेकस्तापसस्तपस्तपन् नारीमुखं न वीक्षते कदाचित् । यदा चतुःपश्चाष्टाधुपवासे पारणकं समायाति । लोकैरप्यर्थितो लोकगृहे
पृथक् पृथक्पारणकं चक्रे । एकदा स भूपेन पारणकायाभ्यर्थितः भूपगृहे पारणकं कर्तुं गतः। 5 भूपेन भक्तिः कृता वर्याहारदानात् , ततो राज्ञा बहुमानतो वयसुखासनारूढः स्वस्थानकं प्रति
चचाल राजमार्ग । इतोऽकस्मात्तस्य कामलतापण्यस्वी संमुखा मिलिता, तापसो नेत्रे निमीलयामास । ततस्तया तस्य शीर्षे दृढं दशार्द्धपूजा कृता । ततः स सद्यः पश्चाद्वलितो, राज्ञो ज्ञापितं वेश्या ऽवहीलनस्वरूपम् , ततो वेश्या साऽऽकारिता राज्ञा पृष्टा च । त्वया कथमेष ऋषिर्दशार्द्धपूजया
पूजितः । सा प्राहाऽयमेव पृच्छयतां । ततः स पृष्टः प्राह-मयाऽस्याः संमुखाऽऽगताया नेत्रे 10 निमीलिते । ततस्तयोक्तम्
आंखि म मीचिसि मिचि मन, नयनि निहाली जोइ ।
जइ मन मींचिसि आपणउं, अवर न बीजी कोइ ॥१॥ मनो यदि नियन्त्रितं तदा नेत्रे अपि वशीकृते यतः
मन एव मनुष्याणां, कारणं बन्धमोक्षयोः ।
अत एव मनो बाद, नियन्त्रणीयमन्वहम् ॥२॥ ततः स तापसो मनो नियन्त्रय मृत्वा स्वर्गे गतः ।
इति मनोनियन्त्रणे तापससम्बन्धः ॥६९।।
[70] सुसंगतिकसंगतौ हस्तिसम्बन्धः । पापुरे भूपस्य हस्ती सहस्रयोधी सदा साधुशालायाः समीपे बध्यते । स च साधोः 20 शान्तदान्तत्वादि दृष्ट्वा शान्तोऽजनि । ततो वैरिणो भूपहस्तिनं शान्तं ज्ञात्वा राज्यं ग्रहीतुं
वाञ्छन्ति । क्रमाद् मन्त्रिणा श्रुतं, राज्ञो ज्ञापितं च ततो पेनोक्तं-सर्वत्र मन्त्रि[मन्त्री]बुद्धया राज्यरक्षा करोति । ततो मन्त्रिणा स एव हस्ती शौनिकशालायाः समीपे बद्धः। ततस्तेषां कर्म दृष्ट्वा हस्ती युद्धाय सजो भवति स्म । इति सुसंगतिकुसंगतौ त्योः] हस्तिसम्बन्धः ॥७॥
[1] यादृग्भूपमनस्तादृग्लोकमनःप्रबन्धः । एकदा विक्रमादित्यो भट्टमात्रयुतो बहिरुद्याने गतः । विक्रमार्क प्राह-मम मनो गच्छतां कार्पटिकानां मारणेऽस्ति । भट्टोऽवग्-तर्हि तेषामपि तव मारणे समस्त्यधुना ।
ततो मन्त्रिणाऽप्रे भूत्वा तेषां पुरः प्रोक्तं विक्रमार्को मृतः, ततस्तैः प्रोक्तं तर्हि वयं जातम् । अद्यास्माकं दारूणि महाया॑णि भविष्यन्ति । तेऽप्रे गताः । ततः राशो जल्पितं90 तेषां शाषितं, ततो राज्ञोक्तम्-आगच्छन्त्य एता आभीर्यो भोज्यन्ते परिधाप्यन्ते ।
भट्टमात्रोऽवग-एतासां मनो वर्य भविष्यति ।
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प्रथमोऽधिकारः
[ ३९
ततस्तासामने भट्टमात्रेणोक्तं-विक्रमार्को मृतः।
ततस्ताभिर्भटित्येव ध्यादिभाजनानि भग्नानि प्रोक्तं-हा विक्रमार्क ! सत्यवादक ! सात्त्विक ! न्यायप्रवर्तक ! सर्वजीवसुखकारक ! किं मृतः । ततस्ता भूमौ लोठं लोठं रुदन्ति ततस्तासामीदृशं चेष्टितं राज्ञा प्रकटीभूय बहुधनदानान्मानितास्ताः ।
इति यादृग्भूपनस्तादृग्लोकमनःप्रबन्धः ॥७१॥
[72 ] दानपरीक्षायां कर्ण-युधिष्ठिरसम्बन्धः । युधिष्ठिरराजो दानं ददानः केनापि न चाल्यते ।
कर्णभूमिपतिर्दत्ते, दानमभ्यर्थिते सदा ।
युधिष्ठिरस्तु पूर्वाह्वे, नापराह्ने कदाचन ॥१॥ इति श्रुत्वा द्वौ देवौ धार्मिकरूपं विधाय नृपगृहद्वारे गतौ, तदा दानं दत्त्वा राजा सुप्तः। 10 प्रतीहारेण साधर्मिकागमनं ज्ञापितं राज्ञः । युधिष्टिरेण ज्ञापितं-सदावसरो न भवति दानदाने ।
ततस्तो कर्णभूपगृहद्वारे गतौ, प्रतीहारेण तयोरागमनं ज्ञापितं, ततः कर्णः स्नानार्थमुपविष्टः खलिखरण्टितदेहः प्राह-प्रेध्येतां तौ, दानं दास्यते यतः
चलं चित्तं चलं वित्तं, चलं जीवितमावयोः । विलम्बो नैव कर्तव्यो, धर्मस्य त्वरिता गतिः ॥२॥
15 कर्णस्यैतद्वचः श्रुत्वा तौ देवौ प्रकटीभूय प्रोचतुः-अधुना तव तुल्यो दानी मुवि न विद्यते । इति दानपरीक्षायां कर्णयुधिष्ठिरसम्बन्धः ॥७२॥
[73 ] अथ बुद्धौ अन्यायपत्तनगतश्रेष्टिपुत्रसम्बन्धः । तामलिप्तिपुरात्पुत्रस्य विदेशे व्ययसायार्थ गच्छतस्तातेनेति शिक्षा दत्ता-अन्यायपुरपत्तने न गम्यम् [ गन्तव्यम् । तत्र च अन्यायो नृपः, अविचारको मन्त्री, सर्वग्राह्यारक्षकः, अशान्ति- 20 नामा पुरोहितः, गृहीतभक्षः श्रेष्ठी, मूलनाशः तत्सुतः, यमघण्टा कुट्टिनी, रणघण्टा तत्पुत्री, अन्ये घृतकारा बहवस्तत्र । धूते सर्वलोकः ।
___ततः पितुः शिक्षामादाय चलन् दैवादनीतिपत्तने गतः । प्रथमं तत्र चत्वारो मीलिताः श्रेष्टिनः, तैरुक्तं-व्यवसायकरणमिह दुःशकं, क्रयाणकमस्मभ्यं देहि, चलिता यन्मार्गयिष्यसि तदा वस्तुना तव यानं भरिष्यते । ततस्तेन सर्व वस्तु तेभ्यो दत्तं, साक्षिणः कृताः, ततः स पुरमध्ये 25 चचाल, वर्त्मनि एको धूर्तो वर्षे चाखडिके प्राभृतीकृत्य प्राह—यदा त्वं चलतः पुरात् तदा मां हृष्टं कुयोः। ततोऽप्रत एकधूतः सहस्रटङ्ककान् मम पित्रा नेत्रं ग्रहणकं तव पितुः पा
स्तमस्ति तच्चलतापणीयम् । ततः श्रेष्ठिसूः प्राह-अग्रे सर्व वयं भविष्यति । ततः स श्रेष्ठिपुत्रः पुर्याः शोभा विलोक्य वेश्यापुत्र्या गृहे गतः । तत्र स्थितः, तया समं प्रीतिर्जाताऽत्यन्तं, ततस्तेन स्ववस्तुविक्रयादिस्वरूपं तस्याः पुरः प्रोक्तं, तयोक्तं वयं न कृतं, तथापि तथा करिष्ये यथा 30 ते सुखं भविष्यति । ततः सखीवेषं कारयित्वा रणघण्टाया मातुहे तं साऽनैषीत् । तदा रात्रौ
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प्रबन्धपत्रशती
15
ते चत्वारः श्रष्टिनः समेत्य पप्रच्छुः । अस्माभिरेकस्मानराद्वस्तु गृहीतमस्ति तस्याने प्रोक्तमस्तियदा त्वं चलिष्यसे तदा यानं भृत्वा दास्यते । वेश्याऽवग-कदाचिन्मशकैर्यानं भृतं मार्गयिष्यति तदा किं क्रियते भवद्भिः । ते प्रोचुरेवं बुद्धिः स्तस्य कुतः ।
___ तत उपानद्दाता धूर्तः समागतः, तेनाप्युक्तं-मया तस्यैव चाखड्यौ दत्ते प्रोक्तं दृष्टं 5 मां कुर्याः, अहं तु हृष्टो न भविष्यामि, ततस्तस्य वस्तु ग्रहीष्यते । वेश्याऽवग्-यदि स त्वां भूपपार्श्व नीत्वा वदिष्यसि-राज्ञः सुतो जातः, त्वं हृष्टोऽथ न तदा किमु ।
तत एको धूर्तः पुनरागतः प्राह-मया सहस्रटङ्ककान् दत्त्वा तस्य श्रेष्टिसूनोः प्रोक्तंमम पित्रा तव पितुगृहे चक्षुर्ग्रहणके मुक्तं तच्चलता दातव्यम् । यदा चलिष्यति स तदा चक्षुर्मार्गयिष्यामि ।
__ वेश्याऽवग्-वर्यं न कृतं कदाचित् स गदिष्यति अस्मत्पितुः पार्श्वे बहूनां जनानां नेत्राणि ग्रहणके सन्ति, तेन त्वं स्वं चक्षुस्तुलायां मुश्च, ततस्तेन द्वितीयचक्षुषा समं तोलयित्वा दास्यामि ततस्त्वं हारयिष्यसि ।।
एवं प्रोच्य सर्वे स्वस्थानं गताः । एतत् श्रुत्वा चलनावसरे मशक राजपुत्रजन्म-चक्षुस्तोलनयुक्तिभिः साधिकां श्रियं तेभ्यो ललौ । इति बुद्धौ अन्यायपत्तनगतश्रेष्टिपुत्रसम्बन्धः।।७३।।
[74] निघृणत्वे वैद्यसम्बन्धः । एकस्मिन् पुरे द्वौ भ्रातरौ वैद्यौ वैद्यकशास्त्रकुशलौ लोकान् चिकित्सयन्तौ लक्ष्मीमर्जयतः स्म । एकदा वृद्धभ्राता कस्मिंश्चिद्ग्रामे गतः । तत्र कमपि पुरुषं चिकित्सयित्वा धनमादाय पश्चादागच्छन् स्वपुरसमीपे समागात् , तत्र चितां प्रज्वलन्तीं दृष्ट्वा तु दध्यौ। अहं ग्रामे ऽन्यत्रा
गममेकः कोऽपि मृतोऽत्र तस्य चिता ज्वलन्ती दृश्यते । मम भ्रात्रा अस्य नाडि विलोक्य किमपि 20 धनं गृहीतं न वेति । ततो वैद्यो दध्यौ--
साम्प्रतं दृश्यतेऽत्रैव, प्रज्वलन्ती चिता किल । ग्राममागामहं मे तु भ्रातुः किं चरितं नवा ॥१॥ चितां प्रज्वलितां दृष्ट्वा, वैद्यो विस्मयमागतः ।
नाहं गतो मम भ्रातुः, कस्येदं हस्तलाघवम् ॥२॥ 25
इति निघृणत्वे वैद्यसम्बन्धः ॥७४॥
[75 ] ताजिकग्रन्थविरचनसम्बन्धः । एकदा गूर्जरधरित्र्यां मुद्गलाः बहवः खरशानतः समागताः । तैगूर्जरधरित्रीमनुजा धृताः। तेषु मध्ये एको विद्वान् आचार्यो धृतः । स च नीतः खरसाणे स च तत्रस्थस्तेषां
मुद्गलानां भाषां स्तोकदिनैर्जज्ञौ । एकदा यस्य मुद्गलस्य गृहे तिष्ठति स्म । स मुद्गलो 30 वैरिग्राम लुण्टितुं गतः ।
इतो मध्याह्नसमये तस्य मुद्गलस्य माता पदच्छायामवित्वा विलोक्य झणमूवस्थिता उदरं कुष्यन्ती रोदितुं लग्ना । हा पुत्र ! कथं हतः ? किं करोमि त्वया विनाऽहम् , तवाऽऽधारे
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प्रथमोऽधिकारः
[४१
इदं कुटुम्बमासीत् , इत्यादि विलप्य विलप्य रुदती श्वनं दृष्टा पुत्रवधूः पदच्छायां विलोक्य
: श्वशं प्रति माह-मातर्मा रोदनं कुरु, तव पुत्रः कुशल्यस्ति । एकः शरो मस्तके लग्नोऽस्त्येकः पादे, एको वामहस्ते च, क्षेमेण सन्ध्यायां समेष्यति, ततः श्वश्रर्वध्वा रुदती रक्षिता । सन्ध्यायां यादृशं वध्वा प्रोक्तं तादृशं तेनाचार्यण दृष्टं । ततो दध्यौ-एते द्वे अपि कुशलिनी[न्यौ], परं वधूस्तु (श्वस्रा) अप्यधिका। ततस्तेन सूरिणा तत्रस्थेन यवनिकं शास्त्रं पठित्वा ताजिको ग्रन्थो नवीनो बद्धः। ततः सोऽत्र गूर्जरधरित्र्यां सूरिणा नीतः। सूरिस्तु ततस्तरक्षणमत्रागतः, ग्रन्थस्ततो निराम्नायोऽभवत् । तस्मिन् ग्रन्थे अतीतानागत-भाविभूतादिसर्व प्रोक्तमस्ति परं ताहग्बुद्धि विना सम्यग् न ज्ञायते । स चाधुनाऽत्र विद्यते । इति ताजिकग्रन्थविरचनसम्बन्धः ॥७॥
[76 ] मकरवानरसम्बन्धः । एकदा पुष्पाकरवनादेको वचनप्रियो वानरः कदाचिद् भ्रमन् वने वने फलाहारं कुर्वन् समुद्रतटे गतः । तत्रैक समुद्रमर्यादाजलान्त ठन्तं मकरं वीक्ष्य वानरः प्राह-मित्र ! किं जीवितनिविण्णोऽसि त्वं यदत्र व्याधभूमौ समागाः ? ततो मकरोऽवग
यस्य यद्विहितं स्थानं, यस्य यद्धेतवे कृतम् ।
तत्रैव रमते चित्तं, तत्र नान्यत्र वानर ! ॥१॥ उक्तं च सर्वस्वर्णमयी लङ्का, न मे लक्ष्मण ! रोचते ।
पितृपर्यागतायोध्या, निर्धनापि सुखावहा ॥२॥ किंच-जणणी' जम्मुप्पत्ती, पियसंगो जीवियं धणासा य ।
पच्छिमनिहा वरकामिणी, पंचवि [सत्तवि] दुक्खेण मुच्यते ॥३॥ अद्याई सफलजन्माऽभूवं तव दर्शनेन, उक्तं च
साधूनां दर्शनं श्रेष्ठ, तीर्थभृता हि साधवः ।
तीर्थ पुनाति कालेन, सद्यः साधुसमागमः ॥४॥ तस्मादत्र भवान् स्थलोत्पन्नः समागतः। भवादृशां गोष्ठयपि दुर्लभा । ततो वानरः प्राह-हे मकर ! अद्यप्रभृति त्वं मे प्राणाधिकमित्रं वर्तसे, मित्रस्य पुरः स्वसुखं दुःखं च प्रोच्य प्रायः सुखी जनो भवति । उक्तं च
प्रयुक्तसत्कारविशेषमात्मना, न मां परं संप्रतिपत्तमर्हसि । यतः सतां सन्नतगाविसंगतं, मनीषिभिः साप्तपदीनमच्यते ॥५॥
ततो मिथो वानरमकरयोः प्रीतिरजनि । वानरो वर्यफलानि मकराय विश्रामयति, मकरश्च निजपल्यै दत्ते, साऽपि फलाऽऽनयनसम्बन्धं पप्रच्छ । ततस्तेन वानरमित्रसम्बन्धः प्रोक्तः। ततः सा सगर्भा मकरी चिन्तयामास । यो वानरो नित्यमीदशानि फलानि सुस्वादूनि भक्षयति तस्य हृदयं पीनमतीव भृष्टं मांसममृतोपमं भवति, ध्यात्वेति पतिं प्रति मकरी प्राह-मम गर्भा नुभावात् तव मित्रवानरहृदयभक्षणदोहदो जातोऽस्ति । तं दोहदपूरणं विना मम प्राणा गमिष्यन्ति ।
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४२ ]
प्रबन्धपश्चशती ततो दयिताकदाग्रहं मत्वा सोऽन्यदा वानरं प्रत्यवग्-मित्र ! त्वदीयभ्रातृजाया त्वामाकारयति, तत्र तव भक्ति करिष्यति । ततः स वानरो भ्रातृजायामिलनार्थ मकरपृष्ठिमारूढः कियन्ती चेलामतिक्रान्ता* । ततः कपिः प्राह-मया तत्रगतेन किं कर्त्तव्यं ? तव पत्नी मम कोदशी भक्ति करिष्यति । तदहो मकरो दध्यौ-मया तु बहुजले समानीतोऽत्र । इदं जलमुत्तीर्य पश्चाद्गन्तुं मया विना न शक्नोति । अतः सत्यमेव वच्मि । ततः पन्या दोहदस्वरूपं प्रोक्तं तेन वानराने। त वानरो ध्यौ-तत्र यदि गतोऽहं तदा मृत एव, अतो बुद्धिर्विधीयते मया । ततोऽवग्वानरः-मित्र ! मां त्वं तत्र नयन्नसि परं भ्रातृजयामनोरथ एवं पूर्णो न भावी। मकरोऽवग-किमिदं वदसि ? वानरोऽवग-मम क्टे चित्तं विद्यते । हृदयं तूदम्बरे वृक्षे समस्ति, तेन गृहीत्वा यदि गम्यते तदा भ्रातृजायामनोरथः सफलो भवति । ततो मकरः पश्चाद्वलितः अब्धितटे समागात्। ततो वानरो तत्पृष्टित उत्तीर्य वृक्षमारूढः प्राह-मित्र गच्छ, पश्चात् मैत्र्याः श्रितं [स्थिति] मम भ्रातृजाया अग्रे प्रोक्तव्यं-वानरो वटाच्चित्तमुदुम्बरात् हृदयं मुक्तं लातुं गतोऽस्ति । अहं तु त्वया सह मैत्री न करिष्येऽतः परं, यतः
जलजन्तुचरैर्नित्यं, जलमार्गानुसारिभिः ।
स्थलजैः संगतिर्न म्याद्-ब्रुवन्ति मुनयो ध्रुवम् ॥६॥ इति वटचित्तमुदुम्बरिहृदयम् । इति मकरवानरसम्बन्धः ॥७६॥
[77 ] सत्पात्रदानसम्बन्धः । दानं धर्मेषु रोचिष्णु, तच्च पात्रे प्रतिष्ठितम् । मौक्तिकं जायते स्वाति-वारि शुक्तिगतं यथा ॥१॥ केसिं च होइ वित्तं, चित्तं केसि पि, उभयमन्नेसिं ।
वित्तं चित्तं पत्तं, तिन्नि पुण्योहिं लब्भंति ॥२॥ कश्चिद्राजा दानपराङ्मुखोऽन्यदा महाटव्यां गतः । सपरिवारोऽटवीं पश्यन् भूपो मधूकाभिधस्य[वृक्षस्य अधस्तात् स्थितः, स मधूको वृक्षस्तदा बिन्दून् मुञ्चति । राज्ञोक्तं-भो पण्डित ! अयं मधूकः कथं रटति ? तदैकेन पण्डितेन भूपप्रतिबोधायेति प्रोक्तं
यदास्ति पात्रं न तदास्ति वित्तं, यदास्ति वित्तं न तदास्ति पात्रम् । एवं हि चिंतापतितो मधूको मन्येऽश्रुपातै रुदनं करोति ॥३॥ श्रुत्वैतभूपः सत्पात्रदानपरोऽभूत् । इति सत्पात्रदानसम्बन्धः ।।७७।।
[78 ] दाने सुदर्शनश्रेष्ठिकथा । चम्पापुर्या जिनदासश्रेष्ठी, तस्स गृहे महिषीपालः सुभगनामा बभूव । स च सदा महिषी चारयितुं वने याति । एकदा शीतकाले वनमध्ये कायोत्सर्गस्थितं यतिं दृष्ट्वा दयापरो * 'तो' इति शुदं दृश्यते । अपवा-न्तः । अथवा 'कियन्ती चेलाऽतिकान्ता'।
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प्रथमोऽधिकारः
[ ४३
महिषीपालस्तस्य साधोरुपरि शीतरक्षानिमित्तमेकं कम्बलं ददौ । तत्पुण्येन क्रमात्तस्य श्रेष्ठिनः सुदर्शननामा पुत्रोऽभूत् । स च क्रमात्पुरोहितपत्नी कपिलयाअभयाराज्ञ्या चाक्षोभितः सन् ताभ्यां खाच्छुलायां क्षेषितः । शीलमाहात्म्यात्सा शूली स्वर्णमयं सिंहासनमभूत् । इत्यादिसम्बन्धः स्वयhe coः । इति दाने सुदर्शन श्रेष्ठिकथा || ७८ ||
[79 ] दाने कृष्णकथा |
मिध्यादृष्टिसहस्रेषु वरमेको णुव्रती । अणुव्रतसहस्रेषु, वरमेको महाव्रती ||१|| महाप्रतिसहस्रेषु, वरमेको हि तीर्थकृत् । जिनाधिपसमं पात्रं न भूतं न भविष्यति ||२||
एकदा मथुरायां नगर्यां नन्दगोकुलेन स्वपुत्रो नारायणो वनं भ्रान्त्वा समागतः पृष्ट इति भो वत्स ! त्वया भोजनं कृतं नवेति ? तदा नारायणेमोक्तं
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स्वच्छन्दतः स्वभवने स्वयमर्जितानं कान्ताकराग्रपतितं यतिदत्तशेषम् । सुरतिनपि तर्पयित्वा ते भुक्तवन्त इह, तेन, मया न भुक्तम् ||३|| यतः - पढमं जईण दाऊण, अप्पणा पणमिऊण पारेह | असईसुविहियाणं, मुंजेई कयदिसालोओ || ४ |
इति दाने कृष्णकथा ॥ ७९ ॥
[ 80 ] दाने कुरुक्षेत्र त्राह्मणादिकथा ।
कुरुक्षेत्र ब्राह्मणः ब्राह्मणी, तत्पुत्रञ्च एते त्रयः प्रीतिपरास्तिष्ठन्ति । एकदा स्वगृहागताभ्यां साधुभ्यां स्वस्वभागसक्तुमध्याद्भावात्सक्तवस्तैर्दत्ताः । तद्दानपुण्येन तस्मिन्नेव भावभूरिश्वर्णकोटिवृष्टिरभ्येत्य सुरैः प्रशंसा कृता तेषां च ततस्तेन पुण्येन मुक्तिमपि गमिष्यन्ति ।
इति दाने कुरुक्षेत्रब्राह्मणादिकथा ||८०||
[81 ] प्रतिक्र मणक्षमाविषये युधिष्ठिरकथा |
एकदा युधिष्ठिरभूप तहारितराज्यः मीमा विभ्रात्युतो वनं प्रति चचाल । कस्मिद्व सन्धा[न्ध्यायां] तरोरधस्तस्थौ । तदानीं सामायिकं गृहीत्वा प्रतिकर्म [ प्रतिक्रमण] कृत्यं कृत्वा स्मृतपचनमस्कारो यावत्स्वपिति तावद्भीमोऽवग्-वने उपसर्गा उत्पद्यन्ते, रात्रौ तु विशेषतो भयं स्यात्तेaiseमादौ प्रथमयामे जागमिं । भीमस्य जाग्रतः कलिनामा राक्षसस्तत्रागाद्भीमं श्रोभयितुं तदा मिथो द्वाभ्यां युद्धं बाढं कृतं न कस्यापि जयविजयौ भवतः स्म । मिथः स्विन्नौ तौ पृथक्पृथस्थितो भीमस्तु सुप्तः । ततो द्वितीयप्रहरे अर्जुनो जागति, तत्रापि भीमवद्धमर्जुनेन तेन समं युद्धं कृतं ततो मिथस्तौ खिन्नौ पृथक्स्थितौ । तृतीयप्रहरे तथैव सहदेवनकुलौ तेन समं युद्धं
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५४ ]
प्रबन्धपञ्चशती
चक्रतुः । चतुर्थ प्रहरे युधिष्ठिरराजः स्वयमेवोत्थाय सामायिकं लात्वा नमस्कारान् गणयन् तस्थौ, यावत्प्रतिकर्म [प्रतिक्रमण ] कर्तुकामो धर्मध्यानपरोऽभूत् तावदितः सोऽपि असुरः कलिः सप्ततालप्रमाणं वस्तु [ay] कृत्वोपसर्गयितुं लग्नः । एवं षट्पञ्चचतुस्त्रिद्विप्रभृतिहीनहीनतरव्याघ्रादिरूपाणि कृत्वा युधिष्ठिरं ध्यानाच्चालयितुं लग्नः । युधिष्ठिरस्तु प्रतिक्रमणं कुर्वन् सर्वथा मुक्तवैरः सन् स्थितः । तदा तेन [शरीरं ] कृष्णक्रमुकप्रमाणं कृतं यावत् तावद्युधिष्ठिरेण वर्तुलकेन स्थगितः सः प्रातर्भीमादीन् सर्वान् भ्रातृन् सुप्तान् दुःखेनोत्थाप्य युधिष्ठिरः पप्रच्छ - भो भ्रातरः ! कथमेव सुप्ता यूयं ? तदा तैः स्वं स्वं रात्रिवृत्तान्तमुक्तं । तदा युधिष्ठिरोऽवग्-- सोऽसुरोऽत्रास्ति यावद्वर्तुलकं पश्चात्करोति तावत् स कल्यसुरः सन्तुष्टः स्वरूपं प्रकटीकृत्य युधिष्ठिरं तुष्टावेति
धन्यस्त्वं पुण्यवान्भाग्यात् सौभाग्य सरलाशयः । विद्यसे धरणीपीठे, जगद्वन्द्यक्रमाम्बुजः ||१||
कल्यसुरोऽवग् — एवं यः क्षमां करोति स कलावपि स्वं कार्यं करोति मुक्तिभोग्यं सातमर्जयति च । ततो युधिष्ठिरोऽपि प्रतिकर्म [ प्रतिक्रमणं] कृत्वा सामायिकं पारयित्वाऽवग्- भो असुर ! मया तव योऽपराधः कृतः स क्षम्यतां त्वया । एवं मिथस्तौ क्षमयचक्रतुः |
इति प्रतिक्रमणमाविषये युधिष्ठिरकथा ॥ ८१ ॥
[ 82 ] अथ कर्णकद्विजकल्पितसम्बन्धः ।
कर्णः स्वर्णदानं भूरि दत्त्वा स्वर्गे गतः । तत्र स्वर्णमेव पश्यति, नान्यत् । ततः पृष्ठो गुरु प्राह-न त्वयाऽन्नादिदानं दतं तेन हेम पश्यन्नभूत् । ततो दातुं चन्द्रपुरे शृगालः श्रेष्ठी बभूव । तत्रान्नं दत्त्वा जिमते एकदा कोऽपि नायातः तदा खिन्नः श्रेष्ठी । कोऽपि देवश्चालयितुं योगिरूपभृत् अन्नं लातुमागतः, श्रेष्ठी भोजनं दातुमुत्थितः । सोऽवग्नाहमन्नं गृहणामि, किन्तु तव पुत्रमांसं । ततः पुत्रं हत्वा तन्मांसं ददौ । ततः श्रेष्ठी जगौ मां स्वर्गं नय । स देवरूपभृत् तव पुत्रं विना नाहं स्वर्गं दातुं क्षमः । ततः खिन्ने श्रेष्ठिनि देवेन पुत्रः प्रकटीकृतः ततो विशेतोऽन्नदानं ददौ । इति दाने कर्णकद्विजकल्पितसम्बन्धः ||८२||
[ 83] तीर्थे धनव्ययने दुर्गतसम्बन्धः ।
मन्त्रिवाग्भट्टेन तीर्थोद्धारे विधीयमाने तदर्थद्रव्यार्थं सर्वव्यवहारिनामसु लिख्यमानेषु एकेन मारवेन - दुर्गतेन यात्रागतेन स्वसर्वस्वं द्रम्मपञ्चकं पुण्यार्थे मन्त्रिणोऽप्पितं । मन्त्रिणा तन्नामनि धुरि लिखिते व्यवहारिणो रुष्टाः । तान् रुष्टान् दृष्ट्वा वाग्भट्टमन्त्री जगौ, एतेन सर्वस्वमर्पितं तथा चेद्भवद्भिरयते तदा भवतां नाम धुरि स्यादिति वचसा प्रसन्नीकृतास्ते महेभ्या उत्थाय तत्पदौ प्रणेमुः । तेन मारवेन पादलिप्तपुरे रन्धनाय चारों यच्छता द्रम्मभृतो लोट्टको लब्धः । पारणानन्तरं मन्त्रिणोऽग्रे मुक्तः । मन्त्री तं दृष्ट्वा जगौ त्वद्भाग्येनायं भवतश्वटितस्तेन त्वमेव गृहाण । ततो मारवेन लब्धधनार्द्ध तत्र तीर्थे व्ययितम्, मन्त्रिणः सन्मानितः, स क्रमात्प्रासादो निष्पन्नस्ततः बहुधनं व्ययितं मन्त्रिणा, तथाहि
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प्रथमोऽधिकारः
लक्षत्रयीविरहिता द्रविणस्य कोटीस्तिस्रो विविच्य किल वाग्भटमन्त्रिराजः । यस्मिन् युगादिजिनमन्दिरमुद्दधार, श्रीमानसौ विजयतां गिरिपुण्डरीकः ॥ १ ॥ इति तीर्थे धनव्ययने दुर्गतसम्बन्धः ||८||
[ 84 ] लूणिगवहीति नामसम्बन्धः ।
पूर्वं धवलके लुणिग - माल [देव]-वस्तुपाल- तेजपालाः सोदरा निर्द्रव्या वसन्ति स्म । अन्यदा लूणिगस्यान्त्यावस्थायां पुण्यव्यये लक्षलक्षनमस्कारा मानिताः भ्रातृभिः । तैरुक्तं चअपरं वस्तु याचस्व | विमलवसहिकायां देवकुलिकामनोरथोऽभूत् मे, यदि सिद्धयति तदा मम् मनःसमाधिर्भवति । भ्रातृभिरुक्तम् - यदि श्रीः संपत्स्यते तदा कारयिष्यते । तदनु भाग्याज्जाते राजव्यापारे श्रीअर्बुदे श्रीमाता बोडापार्श्वाद् भूद्रम्मैराच्छाद्य गृहीता । ३६ द्रम्ममूटका [आ]स्तीरिताः । तैरुक्तमतः परं न त्वं द्रम्मैः पर्वतमपि गृह्णाासि ।
[सं०] १२८३ प्रासादारम्भः | १२९२ सम्पूर्णः । द्रव्यकोटी १२५३ लक्षलूणिगवसहिकायां व्ययिताः ।
[ ४५
इति लूणिगवसहीति नाम दत्तम् ||८४||
[ 85 ] अथ देवसूरिकान्हडयोगिसम्बन्धः ।
अन्यदा भृगुच्छे श्रीदेवसूरिपार्श्वे कान्हडका योगी ८४ सर्पकरण्डिकाश्चाऽऽदायागतः । मया समं वादं कुरुत, आसनं वा स्वं त्यजत यूयम् । गुरुभिरासनोपविष्टः परितः सप्त रेखाः कृताः । उक्तं च--- मयि सपन यथारुचि मु । ततः कान्हडकेनैकोऽहिर्मुक्तः । एकां रेखामपि गुरुकृतां नाक्रमति स्म । द्वितीयो द्वितीयाम्, एवं बहवोऽहयो मुक्ताः परं षष्ठी रेखा केनापि सर्पेण नाक्रमिता नाक्रामि वा । योगिनोक्तमेकशो [मेकैकशो] भूमावुपविशन्तु । प्रभुभिरुक्तं - किं भूमावुपविशनेन यः सबलोऽहिस्तमहिं मुख । ततश्च कान्हडेन नलिकान्तः आकृष्य [ नलिकान्तराकृष्य] रक्तः सिन्दूरिकः सर्पो दृष्टिपातमात्रेण कदलीपत्रं भस्मसात्कुर्वन् मुक्तः । वाहनलप रेखां न लङ्घते । इतः सिन्दूरसर्पेणोत्तीर्य जिह्वया रेखा भग्ना । वाहनसर्प उपरितनप्रेरणया आसनपादे चटितुं प्रवृत्तः । लोको हाहारवं कुरुते । गुरवो ध्यानपरायणा बभूवुः । एतस्मिन्नवसरे गुरुध्यानप्रभावादेत्य शकुनिकया सर्पद्वयमुत्पाद्य [ त्य] दूरतरं क्षिप्तं । जितो योगी दीनवदनीभूय टोsरमुत्तार्य गुरुचरणयोः पतितः प्राह - प्रभो ! ममैतदेव सर्पद्वयमाजीविका तेन क्वास्ति तत्सर्पद्वयम् ? प्रभुभिरुक्तं नर्मदातीरे कुरुकुल्लयागत्योवाच । मास ४ [मासचतुष्टयं] संमुखवटाधिरूढया व्याख्यानं श्रुतं तेन कथं प्रभूर्णा गुरूणामुपद्रवं द्रष्टुं शक्नोमीति सर्पोऽपाकृतः । गुरुभिः स्तुतिरूपं काव्यं जगदे । देव्योक्तं - इर्द कोशे तिष्ठतु, न प्रकाश्यं । प्रातर्द्वारलिखितं काव्यत्रयं मत्स्तुतिरूपं यः पठिष्यति तस्य सर्वोपद्रवो न भविष्यतीति विज्ञप्य स्वस्थानं गता । कान्हडो गुरुजितः । स्वां कलां सर्वां मुक्त्वा गुरुपादसेवापरोऽभूत् ।
I
इति देवसूरिकान्हडयोगसम्बन्धः ||८५||
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१६ ]
प्रबन्धपश्चशती
[86 ] सुपात्रदाने कर्णभूपचारणसम्बन्धः । अन्येशुः कर्णराजो दानफलं मुक्त्यादिसौख्यं श्रुत्वा प्रतिप्रभाते भारशतमितं सुवर्ण दत्त्वोत्तिष्ठति सिंहासनात् । अत्रान्तरे एकदा कर्णस्य सत्पात्रदानेच्छायां प्रातः प्रथमं चारणद्वयं श्राद्धमिथ्यात्वधर्मवासितं समागात् । तदा ध्यातं कर्णेनेति, सत्पात्राय मया पूर्व दानं दातव्यं, सद्गतिहेतवे, यतः
अन्नदातुरवस्तीर्थकरोऽपि कुरुते करम् ।
तञ्च दानं भवेत्पात्रे, दत्तं, बहुफलं यतः ॥१॥ एवं म्यायन कर्णः पात्रपरीक्षापरो यावद्दानं न दत्ते तावदेकेन चारणेनोक्तं
पत्तपरिक्खह किं करूह, दिजउ मग्गंताह ।
वरसंतह किमु अंबुदहं, जोई सम-विसमाई ॥२॥ सदा कर्णः प्राइ-वरसु वरसु अंबरहत-वरसीडां फल जोइ ।
पत्तइ विस इक्खुरस, एवडं अंतर होइ ॥३॥
इति सुपात्रदाने कर्णभूपचारणसम्बन्धः ।
[87 ] अथ संसारासारतायां कथा । संसारम्मि असारे, नथि सुहं वाहिवेअणापउरे ।
जाणतो इह जीवो, न कुणइ जिणदेसि धम्मं ॥१॥ तथाहि-श्रीपुरे धनश्रेष्ठी, धनो प्रिया, चन्द्रः पुत्रः, तस्य पत्नी रूपश्रीः, चन्द्रः पत्नीमोहितः पत्न्योक्तं कुरुते । एकदा पल्ल्योक्तं-मां प्रति श्वशुरादयो यथातथा जल्पन्ति । ततः स मातापितृन् मुक्त्वा विदेशं प्रत्यचलत् । मार्ग तृषा लग्ना पल्याः । सा च जल्पति स्म पयो विना मम जीवितं नास्ति । ततो जगदे तेनाग्रतश्चलत सरो यावत् । साऽवग-अत्रानय पयः । सतस्तस्यां मोहितः स पयो नेतुं चचाल । सिंहो दृष्टः, जीवितव्यं तृणमिवावगणय्य सरसि गत्वा पयः पश्चादानीतवान् , यावप्रियाऽभूदचेतना। तां क्रमात्सचेतनीकृत्याप्रतश्चचाल । ततः कस्यचित्पुरोपान्ते कुपोपकण्ठे भायाँ मुक्त्वा पुरमध्ये भक्तमानेतुं गतः । तत्रस्था सा समीपकूपे एक कुष्ठिनं पङ्गरागं कुर्वाणं दृष्ट्वा मोहिताऽभूत् , भर्तृविषये निःस्नेहाऽभूत् । तया पङ्गपुर: [ पक्षोः पुरः ] प्रोक्तं-त्वं मम भर्ता भव । तेनोक्तं-कथमेवं जल्पसि ? क्वाहं, क्व त्वं ? ततः क्षणादर्ताऽगात्। आनीतं भक्तं त्रिधा कृत्वा एक भाग स्वस्य, एकं पक्षोः, एक पत्युः कारितं तया । ततश्चलन्त्या तया स पङ्गः साधे नीतः । मार्गे कदाचित्तं पुरुषमुत्पाटयति । कदाचित्सा क्रमाद्धन्तुमिच्छति सा पति, क्रमाकस्मिंश्चित्पुरे पुरपार्श्वे गत्वाऽवग सा, ममापहृत्य यात्ययं, ततो राजाऽऽगात् । तयोक्त-ममायं पॉर्भर्त्ता, असौ मुधाजल्पकः । ततो राज्ञा निष्कासितोऽसौ चन्द्रो दध्यो
यस्यै निजं कुलं त्यक्त, जीवितार्थ च हारितम् ।।
सा मयि भवति निस्नेहा, कः स्त्रीणां विश्वसेन्नरः ॥२॥ बतो राजा स्वस्वरूपं प्रोच्य संसारं तत्याज सः । इति संसारासारतायां कथा ||७||
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प्रथमोऽधिकाराः
[४७
[ 88 ] अथ पुण्यसारकथानकम् साकेतनपुरे भानुप्रभस्य भूपस्य मान्यो घनामित्राभिधः श्रेष्ठी बभूव । तस्य श्रेष्ठिनो घनमित्राभिधा प्रियाऽभूत् । साऽन्यदा रैकुम्भं स्वप्नेऽपश्यत् । क्रमात्सा पुत्रमसूत । जन्मोत्सवं कृत्वा तस्य सूनोः पुण्यसार इति नाम दत्तं पितृभ्याम् । क्रमाद्यौवनं प्राप सः। धन्यां कन्यां धर्मकर्मशास्त्रकुशलः पुण्यसारः पितृदत्तां समहं परिणिन्ये । क्रमात् पितरि स्वर्ग गते पुण्यसारस्य स्वप्ने लक्ष्मीरभ्येत्यैवमवोचत्-अहं त्वद्गृहे त्वदर्जितपूर्वपुण्यादेष्यामि । पुण्यसारोऽवग्कथमेष्यसि त्वं ? तयोक्तं प्रातस्त्वया गृहस्य चत्वारः कोणा विलोकनीयाः। ततः प्रगे चत्वारः कुम्भा रैभृताः दृष्टाः कोणेषु पुण्यसारेण । ततोऽनर्थभिया भूपस्याने गत्वा रैकुम्भागमनोदन्तं जगाद। राजा तत्रागतस्तान रैकुम्भान् दृष्ट्वा विस्मितोऽभूत्। लोभाद्राजा तान रैकुम्भान स्वकोशे निनाय । द्वितीयेऽहनि पुण्यसारस्तथैव रैकुम्भान् दृष्ट्वा भूपाप्रे जगाद । रैकुम्भस्वरूपं लोभाद्भूपस्तानपि कुम्भान् स्वगृहे नीतवान् । एवं तृतीयेऽपि दिने भूपेन रैकुम्भा गृहीताः । चतुर्थे दिने तथैव कुम्भेषु आनीतेषु भूपेन मन्त्री जगाद-कुम्भाः सर्व गताः । न ज्ञायते केन हृताः। तदा देवतयोक्तं-भो राजन् ! पुण्यसारस्य पुण्येन । तस्य पुण्यसारस्य गृहे रैकुम्भाः मया मुक्ताः । त्वं तु मुधा गृहासि । ततो राजा तान् सर्वान् कुम्भान् श्रेष्टिगृहे दृष्ट्वाऽवग्-भो श्रेष्ठिन् ! त्वं धन्योऽसि यस्येदृक्षं भाग्यं विद्यते । ततो राज्ञा सन्मानितः श्रेष्ठी गजारूढः स्वगृहे समागात् । ततो भूपस्तस्य श्रेष्ठिमुख्यतां ददौ । लोको जगौ-'लक्ष्मीः पुण्यानुगामिनी' भवति । ततः स पुण्यसारः सप्तक्षेच्या स्वं धनं सफलीचक्रे ।
तत्र सुनन्दः केवली समागात्, भूपो नन्तुं ययौ, पुण्यसारोऽपि गतः, सर्वेऽपि उपविष्टा: धर्म श्रोतुं । देशनान्ते धनमित्रोऽवग्-भगवन् ! मत्पुत्रेण प्राग्भवे किं पुण्यं कृतं ? सूरिरवगअत्रैव पुरे धनाह्वो नरोऽभूत् । सद्गुरोः पार्श्व धर्म जीवदयामयं श्रुत्वा जिनधर्ममङ्गीकृत्य शुद्धां जीवदयां पपाल । दानं शुद्धं दत्ते च यतिभ्यः, क्रमाद्गुरुपार्श्वे व्रतं जग्राह । सदा सिद्धान्तपठने श्रवणे गुरुवैयावृत्ये परः प्रान्तेऽनशनेन विपद्य तृतीये स्वर्गे देवो महर्द्धिकोऽभूत् । तत्रायुः प्रपाल्य पूर्वपुण्ययोगात्तवाङ्गजोऽजनि । तदा पुण्यसारः पश्चाद्भवसम्बन्धं श्रुत्वा जातिस्मृति प्राप्य विशिष्य ततो महातीर्थेषु शत्रुञ्जयादिषु स्वां श्रियं व्ययति स्म । पिताऽपि धर्म करोति स्म । क्रमान्मातापितृभिः समं पुण्यसारः संयम जग्राह । तपस्यां शुद्धामाराध्य स्वर्गे सुरा अभूवन् । ततो मनुष्यभवं प्राप्य शिवं यास्यन्ति सर्वेऽपि । इति पुण्यसार कथानकं प्रबलपुण्यविषये ज्ञातव्यं भव्यजनैः । इति प्रबलपुण्यविषये पुण्यसारकथानकम् ॥८८॥
[ 89 ] अथ जीवदयायां चतुर्मित्राणां कथा । सत्थवाहसुओ दक्खत्तणेणं, सिट्ठिसुओ सुरूवेण । बुद्धीइ अमच्चसुओ, जीवइ पुण्णेहिं रायसुओ ॥१॥ दक्खत्तं पंचरूयं, सुंदरे सयसमं विआरिज्जा । बुद्धी पुण्णसहस्सा, सयसहस्साई पुण्णाई ॥२॥
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४८ ]
प्रबन्धपञ्चशती
तथाहि-अमात्यपुत्रः,' राज्ञः(ज)पुत्रः, श्रेष्ठिपुत्रः,' सार्थवाहपुत्रः । एते सुहृदो मिथः, राजपुत्रेणोक्त-अहं पुण्यर्जीविष्यामि । अमात्यपुत्रेणोक्तं बुद्धथा । श्रेष्टिपुत्रेणोचे-रूपेण । सार्थवाहपुत्रेणोक्तं-अहं दक्षत्वेन जीवामि । ते चत्वारो विदेशं प्रति चलिताः। कस्मिंश्चिदुद्याने स्थिताः । दक्षः सार्थवाहपुत्रः पुरमध्येऽगात् । कस्यचिच्छेष्ठिनो हट्टे गतः। तदा तस्य हट्टे बहुप्राहकजनः समागात् । भूरिाभोऽभवत् । श्रेष्टिना ध्यातं--अस्य दक्षत्वेन मम बहुलाभोऽभूत् । ततः श्रेष्ठी जगौ-उत्थीयता, जिम्यते । सार्थवाहपुत्रोऽवग-वयं चत्वारो मित्रा: मित्राणि स्मः । एकैकं विना न जिमामः । ततः सर्वे तत्राकार्य श्रेष्टिना जिमिताः सदन्नदानात् । पञ्चरूपकव्ययस्तत्राभूत्।
द्वितीयदिवसे श्रेष्टिपुत्रः रूपवान् गणिकागृहे गत्वा शतमितप्रमाणं भोजनं लब्धवान्समित्रः ।
तृतीयदिने अमात्यपुत्रः पुरमध्ये गतः । द्वयोः सपत्न्योरेकस्मिन्पुत्रे विवादोऽभूत् । केन भङ्गतुं न शक्यते । तत्रामात्यपुत्रो जगौ द्विधाकृत्वाऽयं द्वयोर्दीयते तदा सपन्योक्तमेवं भवतु । मात्रोक्तं अस्या अयं भवतु। ततोऽमात्यपुत्रोऽवग-अस्या अयं पुत्रो ज्ञातव्यः, ततः सहस्रमिते रूप्यैर्जेमनं सर्वेषामभूत् ।
चतुर्थे दिने पञ्चदिव्ययोगेन राजपुत्रो राजाऽभूत्। ततः सर्वे सुहृदः सन्मानिताः राज्ञा त्रयाणां मित्राणां मनो मानयामास । गुरवस्तत्रागताः । गुरुपार्श्वे धर्म श्रुत्वा राजा पप्रच्छ-मया किं कृतं येन राज्यमभून्मम ? सार्थवाहपुत्रश्रेष्टिपुत्रा मात्यपुत्रैः किं कृतम् ? गुरवो जगुःराजन् ! त्वं पूर्वभवे श्रीधनः कौटुम्बिकोऽभूत्, गुरुपार्श्वे जीवदयामयं धर्म श्रुत्वा जीवदया शुद्धा पालिता, तेनान भवे राजाऽभूत् । सार्थवाहपुत्रेण प्राग्भवे गुरुभक्तिः कृता, तेनास्य दक्षत्वं जातं । श्रेष्टिपुत्रेण जिनस्य प्रतिमा एकदोज्वालिता तेनास्य रूपसम्पदभूत् । अमात्यपुत्रेण ज्ञानवतां भक्तिः कृता तेनाऽमात्यपुत्रस्य बुद्धिर्जाताऽत्र । धर्म श्रत्वा सर्वेऽपि सविशेषं धर्म कृत्वा स्वर्गे गत्वा क्रमान्मुक्ति गमिष्यन्ति । इति जीवदयायां चतुर्मित्राणां कथा ||८९॥
[90 ] अथ मलिकार्जुनभूपजेता श्रीआम्बडप्रबन्धः । पुहविकरंडे बंभंड,-संपुडे भमइ कुंडलिज्जतु ।
तुह अंबडदेव जसो, अलद्धपसरो भुयंगव्य ॥१॥ कोडिदानं । अथ कदाचित् सर्वावसरे स्थितः चौलुक्यनृपतिः। तदा कोकणदेशीय मल्लिकार्जुनस्य राम्रो मागधेन 'राजपितामह' इति बिरुदं प्रोक्तं । कुमारभूपालः श्रुत्वा दध्यौ-एतस्य मल्लिकार्जुनस्य राजपितामहेति बिरुदं मयोत्तारणीयं । अन्यदा सभायां राजबीटकं हस्तेकृत्य भूपः प्राह-यस्य तस्य निग्रहणाय शक्तिरस्ति स सुभटो बोटकं गृह्णातु । श्रुत्वैतत् कोऽपि सुभटो बीटकं न गृहाति, तस्यातीवबलं श्रुत्वा । ततः आम्बडेन करौ योजयित्वोक्तं-स्वामिन्नादेशो दीयतां मम त्वया, त्वत्प्रसादात्तं बिरुदं तस्मादपसारयामि ततो। राजा हर्षितो बीटकं तस्य ददौ । ततो महती सेनामादायाम्बडमन्त्रीश्वरो भूपं प्रणम्य पत्तनाच्चलितः। ततश्चलन्मन्त्री दुस्तरवारिपूर्णा कलविणी नदीमुत्तीर्य परस्मिन् कुले सेनानिवेशं कृतवान् । आम्बडमन्त्रिणमागतं श्रत्वा मल्लिकार्जुननृपोऽकस्मात्तत्रायातः। ततो मन्त्री सपरिवारो युद्धं क्षणं कृत्वा पश्चाद्वलितः । आम्बडो
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प्रथमोऽधिकारः
[४९
मल्लिकार्जुनभूपपराभूतः कृष्णवदमः कृष्णच्छत्रालङ्कृतमौलिः कृष्णगू-रादिपटकुटीक:(?) पत्तनपरिसरेऽभ्येत्य स्थितः । स्वागमनं कस्यापि न ज्ञापितं तेन । इतः कुमारपालभूपेन बहिरागतेन पृष्टं कस्य ईदृशी सेना कृष्णाम्बरा ? तत एकेन नरेणोक्तं-मल्लिकार्जुनभूपपराभूतस्याम्बडस्य, सेनायां लज्जया बहिःस्थितोऽस्ति । ततो राज्ञा चिन्तितं यदीक्षी लज्जा तस्य तदाऽनेन मल्लिकार्जुनो वशीकरिष्यते । ततस्तमाम्बडं सन्मान्य पुनः सार[स]परिवारं तं वैरिणं जेतुं भूपश्चालयामास । ततश्चलन् । क्रमात्तेनैव वर्मना कुङ्कणदेशे गत्वा स द्विधा सैन्यं कृत्वान्तरा मल्लिकार्जुनं क्षिप्त्वा युद्धं कर्तुमाम्बडः सज्जोऽभूत् । क्रमादाम्बडो युद्धं कुर्वन् हस्तिस्कन्धात्पातयित्वा जगाद-स्मरेष्टदैवतं । ततोऽपि आम्बड़ेन मल्लिकार्जुनशिरच्छिन्नं, सुवर्णपात्रेण तच्छीर्ष स्थगयित्वा मल्लिकार्जुनशृङ्गारि. कोदिशाटीप्रभृतिवस्तूनि लात्वा पत्तनं प्रति चचालाम्बडः । ततः क्रमात्पत्तने जयजयेति बिरुदं कारयन्नात्मनः पुरमध्ये आम्बडः प्रविष्टः । तत्रात्मीयं मन्त्रिणं मुक्त्वा मल्लिकार्जुननृपस्य 10 समभ्येत्य श्रीकुमारपालनृपतेः पुरा प्रणामपूर्व मल्लिकार्जुनमस्तकं स्वर्णस्थगितं । शृङ्गारकोटिशाटिका १ । माणिकओ पच्छेवडओ २। पापक्षयंकरहारु ३। संयोगसिद्धिसिमा ४। तथा हेमकुम्भ ३२ मुटकषट । मुक्ताफलानां । श्वेतचतुर्दन्तहस्ती ११ पात्राणां १२० सार्द्ध १४ कोटिरूप्यटङ्ककान मुमोच । ततस्तानि शृङ्गारकोटिशाटिकादीनि आम्बडमन्त्रिणा प्राभृतीकृतानि दृष्ट्वा राजा जहर्ष, तत आम्बडमन्त्रिणो राजपितामह इति बिरुदं ददौ ।
15 इति मल्लिकार्जुनभूपजेता श्रीआम्बडप्रबन्धः ॥९॥
[91 ] अथोदयनमन्त्रिप्रवन्धः । मारुमण्डलवास्तव्यः श्रीमालवंशीय ऊदाभिधो वणिक वर्षाकाले घृतं विक्रेतुं गच्छन्कस्मिन्नामेऽन्तरा केदारान् रात्रौ बध्यमानान्प्राह-कस्य यूयं सेवकाः ? तैरुक्तं-वयममुकस्य कामुकाः, वणिजोक्तं मम कामुकाः कुत्र सन्ति ! ततः स ऊदाकः सकुटुम्बस्तत्र गत्वा वायटीय- 20 जिनायतने विधिवद्देवान् वन्दते स्म । तं तथा देवं वन्दमानं दृष्ट्वा कया छिम्पिकया श्राविकयोक्तं-कस्यातिथिर्भवान् ? तेनोक्तं-वैदेशिकोऽहं, भवत्या एव, ततः सुश्राद्धं तं मत्वा कस्यचिद्गृहे स्वद्रव्यदानेन छिम्पिकया भोजितस्तया स सकुटुम्बः। तृणमयं कुटीरकमपितं तस्य । सुश्रावकत्वात्तया कालेन प्राप्तविभवः ऊदाको गृहं कारयितुमिष्टिकानिचयं लात्वा खातं कारयन् महान्तं सेवधिं प्राप । ऊदाकेन सा छिम्पिका बहुद्रविणदानेन सन्मानिता । ततः लक्ष्म्या 25 उदयस्तस्याभवत्तेन 'उदयन' इति नाम जातं, यतः
कृतप्रयत्नानपि नैति कांचन, स्वयं शयानानपि सेवते परान् । द्वयेऽपि नास्ति द्वितयेऽपि नास्ति, श्रियःप्रचारो न विचारगोचरः ॥११॥
तेन कर्णावत्यामतीतानागतभविष्यच्चतुर्विशतिजिनसमलंकृतः प्रासादः कारितः । तत्र श्रीऋषभजिनो मूलनायकः कृतः । क्रमादुदयनमन्त्रिणस्तस्य पुत्राश्चत्वारः क्रमाद्भवन्-बाहडदेव'- 30 बाहर-आम्बड-सोल्लाः । इति उदयनमन्त्रिप्रबन्धः ॥११॥
[92] अथ भाग्ये आभडप्रबन्धः । . श्रीमालज्ञातीयः श्रीपत्तनवास्तव्य उच्छिन्नवंश्य मामडनामा वणिग्बभूव । कांस्यकारक
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५० ]
हट्टेषु घर्घरघर्षणं कुर्वन् पच विशोपकानर्ज्जयित्वा दिनव्ययं कुर्बाणो द्विःसन्ध्यमपि श्रमसूरिपार्श्वे प्रतिक्रमणादिपरस्तिष्ठति । अन्यदा रत्नपरीक्षाशास्त्रार्थं विज्ञाय तद्विषयेऽतीव कुशलोsafa | कदाचिच्छ्रीमसूरिपार्श्वे परिग्रहपरिमाणं गृह्णन् श्रीहेमसूरिभिस्तद्देह लक्षणविज्ञानविचक्षणैर्लक्षत्रयद्रव्यपरिमाणं कारितः । क्रमादाभडस्य पुत्रोऽभूत् । पत्न्या स्तन्यं न । तेन छागीं गृहे. 5 बिलासुरभूत् । कस्मिंश्चिदवसरे कस्यचिद्ग्रामसमीपे छागीयूथं अवाहे [आवाहे] पानीयं पिबन्तीं [ पिबन्तं ] ददर्श । एकस्याश्छाम्या जलं पिबन्त्या जलं द्विधाभूत् । तत्कण्ठे दवरकबद्धं मणिं वीक्ष्य तां छागीं द्रव्येण जग्राह । तद्रत्नं समुत्तेजयित्वा[समुत्तेज्य] सपादलक्षटङ्ककैः सिद्धराज - भूपस्य ददौ । ततो व्यवहारी जातः । एकदा मञ्जिष्ठावाहिकानि बहूनि विदेशादागतानि जग्राह । तन्मध्ये स्वर्णकुशा बहवो निर्गताः । ततःप्रभृति दिनेदिने वर्द्धन्त्या श्रियालङ्कृतः । ततः प्रतिवर्ष 10 श्रीशत्रुञ्जयस्य यात्रा महासमुदायेन चकार सः । जैनप्रासादा भूरिशः कारिताः । निजप्रशस्तिरहिताः जीर्णोद्धाराश्च । गुप्तवृत्या साधर्मिकेभ्यो धनं व्ययन् साधुभ्योऽन्न-पानवस्त्रादि च स्वं जन्म सफलीचकार ।
15
20
प्रपञ्चशती
30
छलिछन्नद्रुम इव, मृत्स्नाच्छादितसमस्तबीजमिव । प्रायः प्रच्छन्नकृतं सुकृतं शतशाखतामेति ॥ १ ॥ इति आम प्रवन्धो भाग्ये ॥९२॥
[ 93 ] अथ सम्यक्त्वे आम्रपटप्रबन्धः ।
,
'राजपितामह' इति बिरुदं वहन् श्रीआश्रमटोऽभवच्छीकुमारपालस्य मन्त्री, - द्वात्रिंशद्द्रम्मलक्षान् भृगुपुरवसतेः सुत्रतस्यार्हतोऽग्रे । कुर्व्वन् माङ्गल्यदीपं ससुरवरनरश्रेणिभिः स्तूयमानः || यो दादर्थिजाय त्रिजगदधिपतेः सद्गुणोत्कीर्त्तनायां ।
स श्रीमानात्रदेवो जगति विजयतां दानवीरोऽग्रयायी ॥१॥
कुमारे परलोकं प्राप्ते अजयपालो राज्ये उपविष्टः । ततः सर्वे मन्त्रिणस्तं भूपं नेमुः । आम्रभटेनोक्तं- देवबुद्धया वीतरागस्य, गुरुबुद्धया हेमचन्द्रसूरेः, स्वामिबुद्धया कुमारपालस्य नतिर्मया कार्या, नान्यस्य । (जैनधर्मवासितसप्तधातुरनमन् ) अजयपालेनोक्तः -- यदि मम प्रणामं 25 करोषि तदा ते जीवितव्यं भविष्यति, नान्यथा । ततः श्रीजिनबिम्बं प्रपूज्यानशनं गृहीत्वा संप्रामायाजयपालेन सार्द्धं प्रववृते, संग्रामं कुर्वन् जिनध्यानेन मृत्वाऽऽभटः स्वर्ग जगाम । यतः--- वरं भद्वैर्भाव्यं वरमपि च खिङ्गैर्धनकृते, वरं वेश्याचार्यो []वरमपि महाकूटनिपुणैः । दिवं याते दैवादुदयनसुते दानजलधौ,
न विद्वद्भिर्भाव्यं कथमपि बुधैर्भूमिवलये ||२|| इति सम्यक्त्वे आम्रम प्रबन्धः ||१३||
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प्रथमोऽधिकारः [94 ] अथ शत्रुञ्जयोद्धारप्रबन्धः भृगुकच्छे शकुनिकाविहारोद्धारश्च ।
अन्येद्युः सुराष्ट्रीयं सुसरनामानं राजपुत्रं जेतुमुदयनमन्त्री कुमारपालेन चालितः शत्रुञ्जयपार्श्व गत्वा दध्यौ, रणे जीवितव्यसन्देह इति विमृश्य शत्रुञ्जये देवं नन्तुं गतः। स मन्त्री महापूजादीन विधाय रात्री प्रभोः पुरो ध्याने उपविष्टः । तदाऽकस्मान्मूषको दीपवर्त्तिमादाय प्रासादान्तर्गच्छन् दृष्टः, चिन्तितं च मन्त्रिणा-अयं प्रासादः काष्ठमयस्तेन कदाचिद्विध्वंसो भावो, 5 'तदा का गतिः, दीपवर्त्तिर्यिध्यापिता। ततो जीर्णोद्धारं चिकीर्षुरभिग्रहं लात्वोदयनः स्कन्धावारे आगमत् ।
तत्र गत्वा युद्धं वैरिणा कृतं, वैरिबले जिते वैरिण्यपि ह्तेऽकस्मात् शरः कुस्थानके लग्नः भूमौ पतितोऽश्वात् , ततः सकरुणं क्रन्दन् आवासे कटकमध्ये आनीतः पृष्टः, किं सेवकेन दुःखं विद्यते भवतः । तेनोक्तं-संग्रामे जयाजयो विद्यते एव । एक एवाभिग्रहो मे मनस्यपूर्णा- 10 ऽभूत् । सेवकेनोक्तं-कोऽभिग्रहः ?
उदयनः प्राह-श्रीशत्रञ्जये प्रासादोद्धारः, भूगकच्छे शकुनिकाविहारोद्धारश्चिन्तितः मया । तौ न जातो यावत्तौ न भविष्यतस्तावन्मया भूशयेनैकभक्तकराभिग्रहो लले । यदि मदीयावभिग्रहौ मम वाग्भट्टादयः पुत्राः शृण्वन्ति तदा ते पुत्राः सिद्धिं नयन्ते स्म ।।
ततः स्थगीकः, तेनोक्तं यावदहं भवतः पुत्राणामग्रे नाकथयिष्यं तावन्मम भवतः."15
ततः उदयनमन्त्री हृष्टोऽवग्-त्वमपि धन्यः पुनरेको मनोरथोऽस्ति, स्थगीका(?)ऽवग कथ्यतां द्वितीयोऽपि मनोरथः।
तत उदयनो जगौ-यदि साधवोऽत्रागच्छन्ति तदा ममाराधना कारयन्ति, ततः सद्गतिः स्यात, ततः कमपि वण्ठं साधवेषं कारयित्वाऽग्रे आनीतो, जिनबिम्बमानीतं. द्वौ प्रणम्याराधनां कृत्वा क्षमितः सर्वजीवः स्वर्ग गतः। वण्ठेनाप्रतः सम्यक्संयम आराधितः । तत्र स्वसेवकान् 20 मुक्त्वा उदयनस्य पश्चात् कटकं पत्तने आगतम् । उदयनमरणाभिग्रहग्रहणादिवृत्तान्तः सर्वः स्थगीकेन वाग्मट्टाऽऽम्रभट्टादीनाम प्रोक्तं । ततो द्वाभ्यामानवाग्भट्टाभ्यां द्वावभिग्रही गृहीतौ । ततस्ताभ्यां बहुद्रव्यज्ययाच्छीशत्रुञ्जये जीर्णोद्धारः कारयितुमारब्धः । वर्षद्वयेन शत्रुञ्जयप्रासादे निष्पन्ने पर्दापनिकायामागतायां तस्य सुवर्णजिह्वा कारिता । क्षणाद्वितीया प्रासादपतनज्ञापिका वर्दापनिकागता, तस्य हेमजिह्वाद्वयं कारितं । यतो मम पश्चात्क उद्धारः कारयिता, ततस्तत्र 25 गत्वा चतुःसहस्ररश्वैः शिलापट्टकः पृष्टः; किं क्रियते, तेनोक्तं-पूर्वसभ्रमः प्रासादो वातेन पातितः। यदि निर्धमः प्रासादः कार्यते तदा चिरं तिष्ठति, पुनः सन्ततिर्न भवति ।
ततस्तेनोक्तं--प्रासादकविधानात् भरतभूपपङ्क्तिलभ्यते तदा सन्तत्या किमेवं विमृश्य सं० १२११ प्रासादः पुनः कारितः । बाहडनाम्ना पुरं स्थापितं, तत्र त्रिभुवनपालविहारः कारितस्तत्र पार्श्वबिम्बं स्थापितं । तीर्थपूजाकृते चतुर्विशत्यारामान नागरं परितो व देवलोकस्य च 30 ग्रामवासादिकृतं
सप्तषष्टियुता कोष्टी, व्ययिता यत्र काश्चनी । स श्रीवाग्भट्टदेवोऽयं, वय॑ते न सुधैः कथम् ॥१॥
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५२ ]
प्रबन्धपश्चशती
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____ आम्रभट्टेन भृगुपुरे शकुनिकाविहारोऽकारि, तत्र षट्कोटिमितं हेम्नां लपम् । इति शत्रुजयोद्धारप्रवन्धः, बहुद्रव्यव्ययाभृगुकच्छे शकुनिका विहारोद्धारश्च कारितः १९४}}
[95 ] अथ ध्वजोत्तारण-पुनरारोपणसम्बन्धः ।
अन्यदा सिद्धराजजयसिंहो रुद्रप्रासादं महान्तं कारयित्वा ध्वजारोपणसमये सर्वजैनप्रा5 सादानां ध्वजोत्तारणं कारितवान , मन्त्रिभिर्वारितोऽपि न तस्थौ । स भूपो मालवमण्डले
गत्वाऽन्येद्यः श्रीनगरमहास्थाने आगमत् । सर्वेषु प्रासादेषु ध्वजारोपं वीक्ष्योक्तं भूपेन, केषां प्रासादा एते ? तैरुक्तं-शिव-ब्रह्म-जिनप्रासादा एते । ततो रुष्टो राजाऽवग-मया सर्वेषां जैनप्रासादानां ध्वजारोपो निषिद्धः, भवद्भिरिदं पताकादि किं क्रियते जैनप्रासादेषु । तैरुक्तं,श्रयतां
पुरा श्रीमन्महादेवेन कृतयुगप्रारम्भे महास्थानमिदं स्थापितम् । श्रीऋषभदेव-श्रीब्रह्म10 प्रासादी स्वयं स्थापितौ, प्रदत्तौ ध्वजौ । तस्मादनयोः प्रासादयोः सुकृतिभिरुध्रियमाणयोश्चत्वारो
युगा व्यतीताः [चत्वारि युगानि व्यतीतानि । श्रीशत्रुञ्जयमहागिरेः पुरा नगरमेतदुपत्यकाभूमिः, यतो नगरपुराणेऽप्युक्तम्
पञ्चाशदादो किल मूलभूमे-दशोर्ध्व भूमेरपि विस्तरोऽस्य ।
उच्चत्वमष्टैव तु योजनानि, मानं वदन्तीति जिनेश्वराद्रेः ॥१॥ इति कृतयुगे आदिदेवः श्रीऋषभस्तत्पुत्रो भरतस्तन्नाम्ना भरतखण्डमिति प्रतीतंनाभेरुता (१) स वृषभो मरुदेविसूनु-यो चै चचार समग मुनियोगचर्याम् । तस्याईन्त्यसोमुषय (?) पदमामनन्ति, स्वस्थः प्रशान्तकरुणः समदृक्सुधीश्च ॥२॥
अष्टमे मरुदेव्यां तु नाभेर्जाते उरक्रमः ।
दर्शयन्वर्त्म वीराणां, सर्वाश्रमनमस्कृतः ॥३॥ 20 इत्यादि पुराणोक्तानि भूरिशो भूपाने कथितानि तैर्द्विजैः, यथा तेन तदाद्यस्थापनाय
ऋषभदेवौकः कोशात् श्रीभरतनामाङ्कितं पञ्चजनवाह्यं कांस्यतालमानीय भूपस्याने मुक्तं द्विजैः। ततः प्रभृति स्वं निन्दयित्वा भूपः सर्वेषु जिनप्रासादेषु पुनर्वजारोपणं चकार ।
इति ध्वजोत्तारण-पुनरारोपणसम्बन्धः ॥९५।।
[96] जिनध्यानपूजाफलविषये शुकीकथा । कस्मिंश्चिद्वने शमीपादपे शुकः शुकीयुतो बसति स्म । क्रमात्तयोः शुकः पुत्रोऽभूत् । एकदा शुक्योक्तं-पुत्रो मदीयः, शुकेनोक्तं-पुत्रो मदीयः, ततो विवादे जायमाने भृशं संप्रति भूपतिपार्श्वे ययौ । शुकीशुको स्वं स्वं रुचितं प्रोचतुः ।।
ततो राज्ञोक्तं-अयं शुकस्य पुत्रः, ततः शुकी दुःखिताऽजनि, शुकः स्वं पुत्रं गृहीत्वा गतः। शुकी जिनालये गत्वाऽऽदिजिनप्रतिमां वीक्ष्य नत्वा वनात्पुष्पाण्यानीय पूजयामास । ततः 30 क्रमाज्जिनध्यानेन मृत्वा शुकी मन्त्रीश्वरपुत्री तिलोत्तमा नामाऽभूत् । वर्द्धमाना पित्रा सर्वकला
पाठिता पुत्री ।
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प्रथमोऽधिकारः
[ ५३
एकदा जिनप्रासादे श्रीयुगादिप्रतिमां वीक्ष्य क्षण[] मूच्छित्वा जातिस्मरणं प्राप्य पश्चात् शुकीभवं ददर्श । ततो ज्ञातं राज्ञः स्वरूपं ततस्तया धर्मकर्म कुर्वत्याऽन्यदा पितुर प्रोक्तं तात ! त्वया स्वीयास्तुरङ्गमा राज्ञां वडवान भोगाय मोक्तव्याः । ततस्तथाकृते मन्त्रिणा बह्वयो राजasवा बहून् किशोरकान् प्रसूताः । तदानीं राज्ञः सर्वे किशोरकाः नृपपार्श्वात्तातगृहे तया नीताः ।
ततो राज्ञोक्तं --- मन्त्रिन् ! कथं मम किशोरास्त्वया गृहे गृहीताः । मन्त्रिणोक्तं-- मत्पुत्र्या मदालये आनीताः । ततो राज्ञोक्तं - मन्त्रिपुत्री पार्श्वे त्वया कथं मदीयाः किशोराः स्वपितुर्गृहे नीताः ? मन्त्रिपुत्र्योक्तं भवद्राज्ये एवं विधो न्यायो वर्त्तते । यः पुत्रः स पितुरेव ततो ये ये किशोरास्ते ते घोटकस्वामिनो भवन्ति तेनैते किशोरा मम तातस्य ।
राज्ञा ध्यातं - इयमतीव विदुषं [ष]मन्या वर्त्तते । तेन मया प्रथमं परिणीय तथा कर्त्तव्या यथा दुःखिनीभूता एतस्याः कृतं जल्पितं च एतस्या मस्तके पतति ।
तदा क्रमाद्राजा तं दिव्यवादित्रनिनादं श्रुत्वा तं विलोकितुकामोऽभूत् । इतः तिलोत्तमा स्वां सखीं विदुषीं राज्ञः पार्श्वे प्रेषयामास ।
5
ततो राज्ञा मन्त्रिणं सन्मान्य वस्त्रादिना महता प्रपश्वेन तिलोत्तमा परिणीता । कियदिनानन्तरं प्रोक्तं-रे विदुषं[धीं] मन्ये ! त्वया मद्गेहे पुत्रयुक्तथाऽऽगन्तव्यं, नान्यथा । ततः सा पितृगृहे गत्वा बुद्धिमती पितृपार्श्वाद्रव्यमादाय राजगृहं यावत्सुरङ्गां दापयामास छन्नं । ततस्तत्र तया देवविमानतुल्यं महदभूमिगृहं कारितं । तत्र बाउलकबदरीरोपिते । ततः वर्य पल्यङ्कादिरचना कारिता । पचषा सखीयुता तत्र देवीरूपतुल्या विशिष्टाभरणादिभूषितगात्रा ताम्बूलादि आस्वा - 15 दयन्ती तिलोत्तमा वादित्रादि वादयामास ।
10
राज्ञोक्तं त्वं का ? तयोक्तं - ज्ञानवती विद्याधरी पवनवेगविद्याधरपुत्री से बिकाऽस्मि । राजा दध्यौ-यस्या एवंविधा सेविकाऽस्ति सा कीदृशी भविष्यति । ततो राज्ञोक्तं यत्र तव 20 स्वामिनी वर्त्तते तत्र मां नेष्यसि । तदा तयोक्तं-यदि भवतो रोचते तदा तत्र त्वामेकाकिनं नेष्यामि । ततो राजा हृष्टस्तया तत्र रात्रौ नेत्रयोः पट्टकं बन्धयित्वा नीतः । चक्षुषः पट्टकोsuचक्रे, ततः तां दिव्यरूपां कन्यां वीक्ष्य दध्यौ स । किमियं विद्याधरी, किमियं देवाङ्गना, किमियं पातालकन्या च ? इयं यदि मम प्रिया भवति तदा कृतार्थोऽहं भवामि । तत्र नाटकादि निरीक्ष्य छन्नं राजा पश्चादागतः । एवं सा विद्याधरी राजानं तत्रानयति ।
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एक दोक्तं-सा विद्याधरी भवत्स्वामिनी मां वृणुते न वा ? मम स्वामिनी विद्याधरं वरं समीहते । ततो राजा दध्यौ, एकदा तस्या भोगो मम भवति तदाहं कृतार्थो भवामि एवं चिन्तयामास । एकदा राजा यावत्तत्र गतस्तावत्सा सखी कुत्र गता कार्यार्थमपरा अपि तत्सेविका अन्यत्र गता । तदा तिलोत्तमयोक्तं - काऽस्ति या तु पादुके मदीये आनयति ? तदाराज्ञा पादुके मस्तके कृत्य तस्यार्पिते । तयोक्तं कस्त्वं ? तेनोक्तमद्य त्वां विलोकितुं त्वत्सेविकयाऽऽनीतः । 30 तयोक्तं वरं जातम् । एवं द्वितीयदिने तयोक्तं काऽस्ति या बदरीबाउलकपत्राणि आनयति मदीयते बन्धनार्थं, ततस्तेन तदपि कृतं । ततो राज्ञोक्तम् — एकशो मम त्वां भोक्तुमिच्छाऽस्ति । ततस्तयोक्तं यथातथा कमपि मत्कान्तं मुक्त्वाऽन्यं पुरुषं न समीहे, परं तव भक्त्या तुष्टास्मि, यदि तव रोचते तत्कुरु ।
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५४ ]
प्रबन्धपञ्चशती
15
ततो राज्ञा मुक्ता तिलोत्तमा क्रमादाधानमभूत् पुत्रोऽप्यभूत् । ततस्तया सर्व भूमिगृहादि विसर्जितं. यद्यद्राक्षाकृतं गमागमादि तत्सर्व पितःपाश्वोदहिकायां लिखितं तया । तत कन्यां स्मारं स्मारं चिन्तयामास । कदा तस्याः खिया योगो मम भविष्यति । ततो प्रथिलप्रायो जातस्तस्या दर्शनं विना । इत्येवं मंत्रिपुत्री तिलोत्तमा पुत्रयुता भूरिसखीयुता सुखासनारूढा महोत्सवपूर्वकं राज्ञः पार्श्व गता यावत्ताबद्राज्ञः सेवकैः भवत्पत्नी तिलोत्तमा पुत्रयुता आगच्छन्त्यस्ति । राज्ञा ध्यातं कथं तस्याः पुत्रो जात इति राजा चमत्कृतः । तत्रागता पत्नी ! मन्त्रिणा पुत्रीलिखापिता वहिकाऽग्रे मुक्ता । राजा तां वाचयित्वा चमत्कृतस्तामङ्गीचकार । सत्यं त्वमेव विदुषी लोकानामने, सर्व प्रोक्तं। ततो राझी स्वं जातिस्मरणस्वरूपं जगौ राज्ञोऽश्रे। ततः संप्रति
राजा विशेषतः पुण्यं करोति । पुत्रस्य जिनदत्त इति नाम दत्तं । ततो राज्ञी श्रीजिनधर्म कृत्वा 10 क्रमात् स्वर्गभागभूत्।
।। इति जिनध्यानपूजाफलविषये शुकीकथा ||९६॥
[97 ] अथ सिद्धि-बुद्धिरउलाणीप्रबन्धः ।। अहिल्लपुरे पत्तने चौलुक्यकर्णभूपपुत्र जयसिंहदेवो यात्रा कृत्वा सहस्रलिङ्गसरोवरमध्ये बगस्थलोपरि स्थितः।
अत्रान्तरे बहवो याज्ञिकवैदिकादिद्विजा यात्रायां चलिताः । गङ्गागोदावर्यादितीर्थेषु स्नात्वा केदारभूमौ गताः। हिमाद्रिमध्ये औषधार्थ भ्रमद्भिस्तोगी दृष्टः । तस्य सिद्धिबुद्धिनाम्न्यौ रउलाणोत्यभिधाने द्वे क्षुल्लिके तत्रोपरिष्टे दृष्टे । दृष्ट्वा प्रणामं कृत्वोपविष्टास्ते । योगिन्या कुशलप्रश्नः कृतः, कुत्तः समायाता यूयं ? तैरुक्त-श्रीपत्तनात् । तदा ताभ्यां क्षुल्लिकाभ्यामुक्तं तत्र कोऽधिपः ? तैरुक्तंसिद्धचक्रवर्ती जयसिंहदेवः । तत्रेदं श्रुत्वा ते द्वे अपि योगिन्यौ क्रुद्धे । ते तदा कथयितुं लग्ने-रे रे द्विजा! यदि तस्य चेत् सिद्धत्वं तदा चक्रवर्तित्वं कुतः ? यदा चक्रवर्तित्वं तदा सिद्धत्वं कुतः ? इति विमृश्य ते राज्ञः चक्रवत्तिबिरुदपरीक्षार्थ समागते पत्तने । राज्ञा सभोपविष्टेन राजमाग गच्छन्त्यौ ते कदलीपत्राधिरूढे दृष्टे, राज्ञाऽभ्युत्थानं कृतं । भूपेनागमनकारणे पृष्टे ताभ्यामुक्तं सिद्धचक्रवर्तित्वं नाम ज्ञानार्थमावामागते । त्वं कथं सिद्धचक्रवर्ती ? राजाऽवग-कथयिष्यते,
ततश्चोत्तारको दापितस्तयोः, दिनानि ब्रजन्ति, राजा सन्देहेऽपतत्।। 25 'अत्रावसरे सान्तूआसचिवेन राज्ञोऽग्रे पृच्छा कृता, किमर्थ दुर्बलो भवान् ? राजाऽवगसिद्धिबुद्धिसमागमन-तत्पृच्छाभ्यामहं दुर्बलः, किमुत्तरं दीयते !
सदा सज्जनः शर्कराफलं राज्ञः करे दत्त्वा स्थितः। राजा फलं न गृहाति । क्षणेन गृहीतं भूपेन । सजनः पितुः समीपे गत्वा सर्वमुक्तवान् । राज्ञश्चिन्तातिं ज्ञात्वा पित्रोक्तं-भो वत्स!
अस्माभिः किं क्रियते ? अस्माकं राउल गते कोऽपि मानं न ददाति । राजा कर्णदेववारके 30 ईदृशाः कुहेडा बहुतरा अभविष्यन् । मया सर्वेऽपि ते भग्नाः । एषावार्ता प्रासादाधःस्थेन
मन्त्रिणा श्रुता । पुरा राम्रोऽये गत्वा कथिता । ततो राज्ञा प्रगे पृथक्पृथग्यारत्रयमाकारितः
N
(१) किमुत्तरं दातव्यमनयो, षण्मासा गताः अन्येारेकहरिपालसाकरीयापुत्रः सज्जनः शर्कराफलं केलयित्वा
सुपोपान्तेऽयात् अत्रावसरे" इति अधिकः पाठो दृश्यते, D. संशक प्रती।
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प्रथमोऽधिकारः कथयति हरिपालः धर्मध्यानभङ्गो भवति मम तेन नागच्छामि । सान्तुः स्वयं तत्रागतः, उक्तं च राज्ञा तवाकारणायाहं प्रेषितः। आगम्यता, तेनोक्तं-साम्प्रतं देवपूजावसरः, अतो मव्यं संजातं, त्वं साधर्मिको मम गृहमागतः । कुरु देवपूजा, कुरुष्व भोजनं यथा गम्यते । अमात्येन तथैव कृतं । भोजनानन्तरं सुखासनारूढौ राज्ञः समीपे गतौ । राज्ञोक्तं-काका ? सर्वावसरे किमद्यकल्ये नागम्यते ।
हरपालेनोक्तम् । आर्ता नरा धर्मपरा भवन्ति । तथा त्वमात्तौ सत्यां 'काका' कथयसि, अन्यथा नामापि न गृहासि । राज्ञोक्तं-पूर्ण हास्येन, किन्तु तथा क्रियतां यथा मम नाम न याति । सेनोक्तं-देव दाप्यतां दाप्यतां भव्या सारलोहमयी मुष्टिः क्षुरिकाया । राज्ञा दापिता । अष्टदिनावधिं कृत्वा हरपालः स्वगृहमागात् । तस्याः क्षुरिकायाः शर्करामयं फलकं कारितं तथा यथा चन्द्रहासलोहभ्रान्ति प्राप्ता । गजवेलीतल्याऽभूत् सा प्रतिका(हा)रश्च स्वर्णमयः 10 कारितः सान्तहस्ते प्रदत्ता राज्ञोऽग्रे तत्स्वरूपं धीप्रपञ्चयुक्तं निवेदितं । प्रगे राजा सभायामुपविष्टः, सिद्धिबुद्धिरउलाणीद्वयं तत्रागात् । मन्त्री प्राह-राजन् ? रउलाण्योर्बहूनि दिनानि ययुः । किमपि कलां दर्शय । कामप्यनयोः कलां विलोक्य विसर्ग्यतां च, यदा तेनेत्थं सरोषमुक्तं, तदा राज्ञा सबहुमानं रउलाणीद्वयं पृष्ट-भो! कथ्यतां भवतीभ्यां का कला ज्ञायते, को गुरुयुवयोः ? ताभ्यामुक्तम्-अचलनाथो गुरुरावयोः । राज्ञाऽप्युक्तमस्माकमपि स एव गुरुः।
15 अत्रान्तरे प्रतीहारः समागतः, प्रणामं कृत्वा देव ! कल्ये कटकाधीश्वरेण प्रमाडिभूपेन भवतां कृते प्राभृतं कृतमस्ति । राज्ञोक्तं-किं किम् ? प्रतीहारेणोक्तं द्वारे सन्ति अमात्यास्त एव निवेदयिष्यन्ति । राज्ञा समाकारिताः। आयाताः, प्रणामं कृत्वा व्यजिज्ञपन्-देव ! षोडश रूप्यहस्तिनः, द्वादशपेटिकामडिभृताः, पृष्टौ प्रयाणकत्रये सन्ति । देव ! तव कृते बङ्गालदेशाधीशेन क्षुरिका भव्या बहुवस्तुयुता प्रेषिताऽभूत् । सा क्षुरिका प्रमाडिभूपेन प्रेषिताऽस्ति । राज्ञोक्तं 20 प्रथमं निष्काश्यता, तेन स पट्टकूलविण्टनकसप्तमध्यान्निःकाश्य राज्ञः करे समर्पिता। राज्ञा स्वयं दृष्टा वर्णिता च । सभासदान् प्रदर्शिता । प्रत्येकान्यैरपि वणिता । सिद्धिबुद्धिरउलाणीभ्यां दृष्टा वर्णिता। राज्ञः करे पुनः समपिता । तत्रान्तरे सान्तूकेनोक्तं-देव ! पूर्णमपराभिर्वार्ताभिः, रउलाणीभ्यां सह क्रियतामालापः। दर्शनीया निजा कलाः। विलोकनीयाश्च प्रतिकूलाः । राज्ञोक्तंदर्शय स्वाः स्वाः कलाः। ताभ्यां द्वासप्ततिकलादिकौशल्यं दर्शितं । मन्त्रिणोक्तं-त्वं स्वां का 25 दर्शय । राज्ञोक्तं यथायुक्ति उच्यताम् । मन्त्रिणोक्तम् , इयं लोहमयी क्षरिका भक्ष्यताम् । अपररुक्तम् आः ईदृशं सद्वस्तु न भक्ष्यते । अमात्येनोक्तं-चेद्राज्ञ उदरे भव्यं वस्तु व्रजति तदा किमयुक्तं ? यावद्राज्ञा क्षुरिकाफलं भक्षितं तावदन्येन करे धृत्वोक्तं-देव ! युष्माभियथाऽऽत्मीयकला दर्शिता तत्फलकतीक्ष्णं सारमयं भक्षितं तथा रउलाणीभ्यामपि दयते कलास्तदा वरं, यावद्राजा मुष्टिमर्पयति तदा मन्त्री जगौ उछिष्टं मुष्टिकं कथं दीयते ? मन्त्रिणोक्तं-धातुषु छोतिने 30 लगति राजा वारिणा सह प्रक्षाल्य यावद्वदति (?) तावत्ताभ्यामुक्तं-देव ! त्वमेवेदृशशक्तियुक्तः युक्तं सिद्धचक्रत्तिनामबिरुदं तव, नान्यस्य शक्तिरीदशी । लोकः सर्वोऽपि विग्मितः । ते योगिन्यौ भूपं सन्मान्य स्वस्थानं ययतुः । पूर्वमन्त्रिणं बहुद्रव्यदानात्सन्मानयामास । राज्ञस्ततः श्री जयसिंहदेवस्य सिद्धचक्रवर्तिबिरुदं प्रकट्यभूत् ।।
इति सिद्धि-बुद्धिरउलाणीप्रबन्धः ॥९७।।
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प्रवन्धपञ्चशती
[98 ] अथ भाग्ये सोमिलकथा । सप्तद्वीपाधिपस्यापि, तृष्णा यस्य विसप्पिणी ।
दरिद्रः सतु विज्ञेयः, सन्तुष्टः परमेश्वरः ॥१॥ किंच-दानेन तुल्यो निधिरस्ति नान्यः, सन्तोपतुल्यं धनमस्ति नान्यत् ।
विभूषणं शीलसमं कुतोऽस्ति, लाभोऽस्ति नारोग्यसमः पृथिव्याम् ॥२॥ न चैवं ध्यातव्यं यदर्थच्युतोऽहं कथं वर्त्तिष्ये । यतो वित्तं हि विनाशि स्थिरं च पौरुषम् । उक्तं च
सकृत्कन्दुकपातं हि, पतत्यार्यः पतन्नपि ।
कातरस्तु पतत्येव, मृत्पिण्डपतनेन हि ॥२॥ 10 किं बहुना कार्य केचित्तरा धनभोगभागिनः केचिच्च रक्षितार एव भवन्ति । तथा चोक्तम्-अर्थस्योपार्जनं कृत्वा, नैव भोग्यः समश्रुते ।
अरण्यं महदासाद्य, मूढः सोमिलको यथा ॥३॥ तथाहि-अस्ति कस्मिंश्चिदधिष्ठाने सोमिलको नाम तन्तुवायः । स चानेकविधरचनारजितानि पार्थिवजनोचितानि वस्त्राणि सदैव विदधाति । परं भोजनादधिकधनं न संपद्यते । ये 15 चान्ये स्थूलवस्त्रसम्पादकाः कोलिकास्तान लक्ष्मीवतो वीक्ष्य भायाँ प्रति प्राह-प्रिये नात्र स्थातुं युक्तं, भार्याऽवग-भो प्रिय ! मिथ्यावच इदं यदन्यगतानां धनं भवति उक्तं च
न हि भवति यन्त्र माव्यं, भवति च भाव्यं विनापि यत्नेन । करतलगतमपि नश्यति, यस्य च भवितव्यता नास्ति ।। ४ ।। यथा धेनुसहस्रेषु, वत्सो विन्दति मातरम् । एवं पूर्वकृतं कर्म, करिमनुधावति ॥५॥ यथा छायातपौ नित्यं, सुसंबद्धौ परस्परम् ।
एवं कर्म च कर्ता च संश्लिष्टावितरेतरम् ॥६॥ तस्मादत्रैव तिष्ठ, व्यवसायं विना न कर्म फलति । उक्तं च
न यथैकेन हस्तेन, तालिका संप्रपद्यते । तथोद्यमपरित्यक्तं, न फलं कर्मणः स्मृतम् ॥७॥ पश्य कर्मवशात्प्राप्तः, भोज्यकाले च भोजनम् । हस्तोद्यम विना वक्त्रे, प्रविशेन कथंचन ॥८॥
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[ ५७
प्रथमोऽधिकारः उद्यमेन हि सिध्यन्ति, कार्याणि न मनोरथैः ।
नहि सुप्तस्य सिंहस्य, पतन्ति वदने [प्रविशन्ति मुखे] मृगाः ॥६॥ अपरं च-स्वशक्त्या कुर्वतः कर्म, सिद्धिश्चेन्न भवेद् भुवि ।
नोपालभ्यः पुमांस्तत्र, दैवान्तरितपौरुषम् ॥१०॥ तदवश्यं मया देशान्तरं कर्त्तव्यमित्युक्त्वा [गन्तव्यमित्युक्त्वा] वर्द्धमानपुरं गतः। 5
अथ तत्र वर्षत्रयं स्थित्वा सुवर्णशतत्रयोपार्जनं कृत्वा भूयोऽपि स्वगृहं प्रति प्रस्थितः । अथार्द्धमार्गे महाटव्यां गच्छतस्तस्य रविरस्तंगतः । तदसावात्मभयाद्वटवृक्षस्य स्थूलशाखामारुह्य यावत्सुप्तः तावन्निशीथे स्वप्ने द्वौ पुरुषो ऋद्वौ मिथो जल्पन्तौ शृगोति, तत्रैकः प्राह भो कत्तः ! त्वं बहुधा मया निवारितोऽसि यथाऽस्य सोमिलकस्य भोजनाच्छादनादि]धिका श्री स्ति अतो भवता कदाचिदपि तदधिका श्रीन देया। तत्कथमस्य सुवर्णशतत्रयं प्रदत्तं । स प्राहापरः-भो कर्मन् ! 10 अवश्यं मया व्यवसायिना व्यवसायानुरूपं फलोदयो देयः । तस्य च परिणतिस्वया दत्ता, इत्यतस्त्वमेवापहरेति । तत् श्रुत्वा यावदसौ प्रबुद्धः सन् सुवर्णप्रन्थिमन्वेषयति तावद्रिक्ता प्रन्थिः स्वर्णैस्तेन दृष्टः, ततश्चिन्तयामास-अहो मया कष्टनार्जितं धनं हेलया गतं, तद्वयर्थः श्रमः । ततो धनरहितोऽहं कथं भार्यादीनां मुखं दर्शयिष्यामीति । भूयोऽपि वर्द्धमानपुरं गतः, तत्र च वर्षमात्रेणापि सुवर्णशतपश्चकमजैयित्वा भूयोऽपि स्वगेहं प्रति अन्यमार्गेण चलितः । मार्गे रविरस्तं 15 गतः तदा न्यग्रोधे स तस्थौ । कष्टं कष्टं भोः किमेवारब्धं, दैवहतकेन पुनः स एव न्यग्रोधरूपी राक्षसः संप्राप्त, इत्येवं चिन्तयन् स्वप्नायमानः स वृक्षशाखायां द्वौ पुरुषावपश्यत् । तन्त्रकोऽवग-भो कर्तः ! किं त्वयैतस्य सोमिलकस्य निर्भाग्यस्य स्वर्णशतपञ्चकं दत्तं, किं न वेत्सि भवान् यद्भोजनाच्छादनादृतेऽस्याभ्यधिकं नास्ति । अपरः प्राह-~भो कर्मन् ! मयाऽवश्यं देयं व्यवसायिनां तस्य परिणामस्त्वया व्यतारि, तकिमुपालभसे । तत् श्रुत्वा यावदसो सोमिलको 20 प्रन्थिमन्वेषयति तावद्रिक्तः ततः परमवैराग्यसंपन्नो व्यचिन्तयत् अहो मा धिग् , किं जीवितेन धनं विना, ततोऽत्र वटवृक्षस्य शाखायामात्मानमुद्रध्य प्राणत्यागं करोमि । एतद्ध्यात्वा यावच्छाखायामात्मानमुद्घध्य निक्षिपति तावदेकः पुमानाकाशस्थोऽवग-मो सोमिलक ! किमेवं साहसं कुरुषे । स एवाहं वित्तापहारी यत्तव भोजनाच्छादनाधिकां श्रियं न सेहे, तद्गच्छ गृहं तथा न मे स्थाद्वयर्थ दर्शनं तत्प्रार्थ्यतामभीष्टं वरमिति । सोमलिक आह-यद्येवं तदेहि मे 25 प्रभूतं धनं, सोऽब्रवीत्-भद्र ! किं करिष्यसि भोगत्यागरहितेन धनेन यतो भोजनाभ्यधिको नास्ति तव भोगः । सोमलिकः प्राह-यद्यपि भोगो न भवति तथापि तद्भवतु, उक्तं च, यतः
कृपणोऽप्यकुलीनोऽपि, सदा धनविवर्जितः । सेव्यते च नरो लोकै-यस्य स्याद्वित्तसंचयः ॥१॥ शिथिलाश्च सुबद्धाश्च, पतन्ति न पतन्ति च ।
निरीक्षिता मया भद्रे, वर्षाणि दश पंच च ॥२॥ अस्य सम्बन्धः कथ्यता, तथाहि
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५८ ]
प्रन्धपञ्चशती
कस्मिंश्चित्पुरोपान्ते वने वा प्रलम्बवृषणाह्नः शण्डोऽभूत् । स च मदातिरेकात् परित्यक्तयूथो नदीतानि शृङ्गाभ्यां विदारयन् स्वेच्छया शस्यानि भक्षयन् अरण्यचरो बभूव ।
अथ तथैकः शृगालो वसति स्म । भार्यया सह कदाचिन्नदीपुलिने उपविष्टो विद्यते । एतस्मिन्नवसरे तस्य दृग्गोचरे प्रणम्बवृषणः समागात् । तस्य शण्डस्य प्रलम्बवृषणौ दृष्ट्वा शृगाल्या 5 शृगालोऽभिहितः स्वामिन् ! पश्यास्य वृषभस्य मांसपिण्डौ लम्बमानौ यथा स्थितौ क्षणेन प्रहरेण दिनेन वा पतिष्यत एतौ एवं ज्ञात्वा भवानस्य पृष्ठे यातुमर्हसि । शृगालोऽवग्- प्रिये ! न ज्ञायते कदाचिदेतौ पतिष्यतो वा न तत्किं मां श्रमाय नियोजयसि । अत्रस्थ एव तौ पतितौ त्वया सह भक्षयिष्यामि, अथवा अस्य पृष्टौ यास्याम्यहं । यदि तदात्मीयस्थानमन्यः कोऽपि समेत्याश्रयिष्यति तदेतत्कर्त्तुं न युक्तम् । उक्तं च
यो ध्रुवाणि परित्यज्य अध्रुवाणि निषेवते । ध्रुवाणि तस्य नश्यन्ति, अध्रुवं नष्टमेव च ॥ १॥ साऽब्रवीत् एतद्वचनं कापुरुषस्यैव, यतः— यत्रोत्साहसमालम्बो, यत्रालस्यविहीनता । नय - विक्रम संयोग — स्तत्र श्रीरखिला ध्रुवम् ||२| यथा च-न दैवमिति संचिन्त्य, स्यजेदुद्योगमात्मनः ।
उद्योगेन विना तैलं, तिलेभ्योऽपि न जायते ||२||
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यच्च त्वं वदसि एतौ पतिष्यतो नवा इति वक्तुं न युक्तम् । ततः प्रियाप्रेरितो जम्बूको मूषकादिभक्ष्यं त्यक्त्वा तयोर्वृषणयोर्वाव्या तस्य शण्डस्य पृष्टौ बभ्राम सप्रियः, न च तयोः पतनमभूत् ततः पचदशे वर्षे निर्वेदात्स भार्यामाह—
शिथिलाच सुबद्धाश्य, पतन्ति न पतन्ति च । निरीक्षिता मया भद्रे, दश वर्षाणि पञ्च च ॥१॥
ततः पचादपि नैतयोः पतनं भविष्यति तमेव मूषकमार्गमनुसरावः । अतोऽहं ब्रवीमि - 'शिथिला सुबद्धाश्चेति' तदेवं धनवान्सर्वोऽपि स्पृहणीयो भवत्यतो देहि प्रभूतं धनं । पुरुषोऽवग् यदि एवं तद् गच्छ वर्द्धमानपुरम् । तत्र द्वौ वणिजौ धनगुप्तधनाख्यौ स्तः, तयोश्चेष्टितं बुद्ध्वा 25 प्रार्थनीयं त्वया । ततः सोमिलकोऽपि विस्मितो वर्द्धमानपुरं गतः, सन्ध्यायां श्रान्तः सन् धनगुप्तगृहे गतः । धनगुप्तभार्यापुत्रादिभिर्निर्भर्त्स्यमानोऽपि गृहाऽजिरोपान्ते उपविष्टः । तत्र भोजनवेलायां भक्तिवर्जितं भोजनं प्राप । तत्रैव सुप्तो यावन्निशिथे तावत्पश्यति द्वौ नरौ मन्त्रयन्तौ तत्रैकोऽब्रवीत् भो कर्त्तः ? किं त्वयाऽस्य धनगुप्तस्याधिको व्ययो निर्मितो यदस्य सोमिलस्यानेन भोजनं दत्तं तन्न युक्तं कृतं त्वया । द्वितीयः प्राह - भो कर्मन् ! ममात्र न दोषः, मया लाभः कृतोऽस्य 30 तत्परिणतिस्तु त्वया व्यतारि । अथ यावदुत्तिष्ठति तावद्धनगुप्तस्य छर्दिकादोषेण द्वितीयेऽहनि खिद्यमानस्य उपवासः पतितः । ततः सोमिलको भुक्तधनगृहे गतः, तेनापि भोजनं दत्तं सन्ध्यायां सुखसमाधौ सुप्तः, तथैव रात्रिमध्ये नरौ द्वावभ्येत्योचतुः । एकोऽब्रवीत् भो कर्त्तः ? अद्यानेन
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प्रथमोऽधिकारः
[ ५९ भुक्तधनेन सोमिलकस्य भोजनं दत्तं तेन बहुव्ययः कृतः कृतोऽयमुद्धारविधि दास्यति यतः सर्वमनेन व्यवहारगृहादानीतमस्ति । स प्राह-भो कर्मन् ! मम कृत्यमेतत् परिणतिश्च त्वया दत्ता । अथ प्रभाते कोऽपि राजपुत्रो भूपप्रसादलब्धं धनं भुक्तधनायादात्, संचयरहितोऽपि वरं भुक्तं, मुक्तधनं यदि विधिरर्पयति तन्मां विधिर्मुक्तधनतुल्यं करोतु विधिस्त्वधिकं न सहते धनं मम, ततः सोमिलः सन्तोषं कृत्वा तस्थौ । इति भाग्ये सोमिलकथा ॥९॥
[ 99 ] शीतपरिषहसहने चतुःसाधुदृष्टान्तः । राजगृहे पुरे चत्वारो वणिजो वयस्याः सन्ति स्म । अन्यदा तैः सोम-मोम-कमलधननामभिर्धम॑ श्रुत्वा श्रीमद्रबाहुसूरिपार्श्वे संयमं गृहीत्वा बहुश्रुतीभूय गुर्वादेशात्ते विहरन्ति स्म । ते च यत्रार्कोऽस्तमेति तत्र तिष्ठन्ति स्म। रात्रौ अन्येद्यस्तेषां मध्ये एकोऽतीवशीते पतति वैभारगिरिपार्श्वेऽस्थात् । द्वितीय उद्याने । तृतीयः उद्यानोपान्ते । चतुर्थः पुराभ्यर्णेऽस्थात् । तेषां 10 मध्ये यो गिरिगुहापाद्येऽस्थात् स ध्यानं कुर्वन् प्रथमयामे मृतः । उद्यानस्थो द्वितीये । उद्यानोपान्तस्तृतीये । पुरोपान्तस्थः पुरजनतापतश्चतुर्थप्रहरे मृतः । चत्वारोऽपि स्वर्गे ययुः ॥
इति शीतपरीषहसहने चतुःसाधुदृष्टान्तः ॥१९॥
[ 100 ] अथ दण्डालक सिद्धिः । अरिमईनभूपस्याऽऽसनस्थितस्य कोऽपि सिद्धः पुमान् समागात् । तदा आसनं मया तस्योप- 15 वेशाय स्थापितम् । स सिद्धोऽवग् त्वं वर्योऽसि, मम नीचस्यासन प्रदानात् । तदा राजाऽवगभूपस्याऽऽसनस्यान्तरं विद्यते । ततो जगौ--अहं तव स्वर्णसिद्धिं दातुमागाम्, त्वया विनयो न कृतः। इत्युक्त्वा स्वं छात्रं मुक्त्वा व्योम्नि ययौ । ततो राजा खिन्नोऽवग-भो छात्र ! मया विनयो न कृतोऽतः परं करिष्यते, त्वमाकारय स्वं गुरुं । ततः छात्राऽऽकारितस्तत्रागात् । भूपेन स्वर्णसिद्धौ मान्तिायां सिद्धो योग्यवग् यतः-सौवर्णिकेषु दण्डालक इति मम नाम दाप्यते तदा 20 स्वर्णसिद्धिं दास्ये । ततस्तेन सौवर्णिकेषु दण्डालक इति नाम ददे । इति दण्डालकसिद्धिः॥१०॥
[ 101 ] परीषहसहने अर्हन्नककथा । तगरापुयाँ दत्तो, भद्रा पत्नी, अर्हन्नकसुतयुतो गुरुपाद्ये व्रतं ललौ। साध्वी साध्वीपार्श्वेऽस्थात् । दत्तः पुत्रयुग्गुरुपार्श्वे तस्थौ । दत्तः स्नेहवशात् पुत्रं विहन्तुं न प्रेषयति स्वयमेवानीय मिष्टाऽऽहारादि दत्ते पुत्राय दत्तर्षिः। क्रमाद्दत्ते दिवंगते अहन्नकः शुचं पितुमृतेर्धत्ते पञ्चदिनानि 25 साधुभिर्गौरवितः । अन्यदैकेन मुनिना भिक्षायै सार्द्ध स नीतः तदा बाढं निदाघे सुकुमाराङ्ग. त्वात्स क्षुल्लो(कः) दह्यमानः उत्पपातोर्ध्वमधश्च तृषालग्नो कस्यचिद् गृहगवाक्षछायायामगात्स तदा तं देवकुमाराभं दृष्ट्वा काचित्प्रोषितप्रिया स्त्री गवाक्षस्था कामवशगा चेटीपार्धात्स्वगृहान्तर्नीत्वाऽवग-किं तव [तुभ्यं] रोचते । इत्युक्त्वा पञ्चषा मोदका दत्ताः । तथा भाषितश्चेति तया, किं त्वया वयसीदृशे व्रतं गृहीतं मया सह भोगान् भुव, पश्चाद्वार्द्धकत्वे यद्रोचते तत्कर्त्तव्यम् । एवं 30 तया लोभितस्तत्रास्थात् क्षुल्लो भोगान् भोक्तुम् ।
इतः साधुभिर्विलोकितोऽपि न दृष्टः । तस्य माता साध्वी पुत्रगमनत्वाद् दुखिताऽभूत् ।
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६.]
प्रवन्धपश्चशती
अन्यदा गवाक्षस्थोऽहन्नको मातरं पुत्रवियोगदुःखितां दृष्ट्वा दध्यौ-अहं पापी, मया माता दुःखे पातिता भोगसुखलीनत्वात् । ततस्तत्राभ्येत्य मातुः पदोः पतित्वाऽर्हन्नकः क्षमयामास । माता स्वस्थाऽभूत् पुत्रचरित्रं जज्ञौ । अम्बया संसारासारतां प्रदर्य बोधितोऽपि न व्रतं ललौ दुष्करत्वात् । ततो मातृवचसा पादपोपगमनाशनं गृहीत्वा स्वर्ग गतोऽर्हन्नदत्तकः क्रमान्मुक्ति गतः ।
इति परीषहसहनेऽहंन्नककथा ॥१०॥
[ 102 ] परद्रोहोपरि वैरोचनमन्त्रिकथा । परद्रोहादिकं पापं, कुस्तीमिहागवान् ।
वैरोचन इवासातं, लभते मरणादिकम् ॥१॥ तथाहि-विशालायां नगर्यां नन्दाभिधो भूपो न्यायी बभूव । अन्येद्यराखेटकं कृत्वा पश्चा10 दागच्छन् पुरासन्नसरोवरे रजकं वस्त्राणि क्षालयन्तमपश्यत् नन्दभूपः । नन्देन तत्रैका शाटिका
धौत्वो तो]त्सारिता तापे रजकेन मुक्ता दृष्टा । तस्यां चोपरि भ्रमरानुपविष्टान् वीक्ष्य राजा चमत्कृतोऽन्तिकस्थं सेवकं पप्रच्छेति, किमेवमस्या उपरि भ्रमरा उपविशन्ति एवं कुत्रापि न दृश्यते भ्रमरास्तु सुरभिवस्तुन्येवागच्छन्ति । सेवकेन चतुरेणोक्तं-स्वामिन् ! पग्मिनी स्त्री भवति
तस्याः शाटिकायामेवंविधा परिमलो भवति धौतायामपि । ततो रजकः पृष्टः कस्यै इयं शाटिका ? 15 रजकोऽवग-वैरोचनमन्त्रिणः पत्न्याः । राज्ञोक्तं-भो प्रधान ! वैरोचनमन्त्रिपत्नी तु पद्मिनी
विद्यते । ततो राना गूढहृदयः पद्मिनी स्त्रियं पट्टराज्ञी कर्तुं सर्वत्र सेवकान् विलोकनाय प्रेषयामास । सैवकैः कुत्रापि न ज्ञाता पद्मिनी। ततो भूपोऽने प्रोक्तं-कुत्रापि न ज्ञायते पविग्रन्युत्पत्तिः। राजा दध्यौ यदि पद्मिनी स्त्री पट्टराज्ञी न स्यात्तदा मम राज्यप्राप्तिरपि निःफला । मन्त्रिपत्नीं भोक्तुकामो
राजा वैरोचनमन्त्रिणं दूरदेशं व्यापाराय प्रेषयन् , ( राजा तु) रात्री एकाकी मदनविह्वलो 20 मन्त्रिगृहद्वारमागत्य द्वाःस्थं प्रति प्राह
आगतो द्वारि भूपालः, प्रतिहारो न मुञ्चति ।
दैन्यं प्रोक्त्वा[च्य]च कामान्धा, प्रददौ रत्नकुण्डलम् ॥१॥ ततोऽप्रतो गच्छन् द्वितीयद्वारे याति, तावद्राजानमागच्छन्तमकाले दृष्ट्वैकाकिनं शुकोऽवग
श्रीभूपनन्दराजेन्द्र !, तव पादौ प्रणौम्यहम् । 25
वैरोचनः क्व च प्रैषि, कि कार्य पुत्रमन्दिरे ॥२॥ राजा शुकं प्रति प्राह
वासरेऽपि क्षुधा नास्ति, निद्रा रात्रौ न विद्यते ।
मम कीर ? महदुःखं, हृदये वसति कामिनी ॥३॥
शुकोऽवग30
स्त्रियोऽर्थे च हतो वाली-रामेण रावणो हतः । परगेहे न यातव्यं, परदारान् परित्यजेत् ॥४॥
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प्रथमोऽधिकारः
[६१
15
राजाऽवग
कीर ! पण्डितचार्वाक !, जनानामतिवल्लभ !
परनिन्दा न कर्तव्या, परचिन्तां परित्यजेत् ॥५॥ शुकोऽवग
अपूर्वा दृश्यते वाणी, वृत्तिर्भक्षति चिर्भटान् ।
तस्मिन् देशे न यातव्यं, यतो रक्षा ततो भयम् ॥६॥ राजाऽवग--
यस्मिन् रुष्टे भयं नास्ति, तुष्टे नैव धनागमः ।
आगमो निर्गमो नास्ति, स रुष्टः किं करिष्यति ॥७॥ राजा शुकवचनमवगणय्य यावदग्रतोऽचालीत् तावदने मार्जारः फेत्कारान् भृशं कुरुते स्म। 10 शुकः पुनर्मार्जारं कन्दन्तं श्रुत्वा प्राह राजि [राशि] शृण्वति
मा त्वमानन्द मार्जार ! नन्दो राजा न तस्करः ।।
अमृते विषमुत्पन्न, यतो रक्षा ततो भयम् ॥८॥ राजाऽवग
न पश्यन्ति हि जात्यन्धाः कामान्धो नैव पश्यति ।
नहि पश्यति मदोन्मत्तः, अर्थी दोषान पश्यति ॥६॥ ततोऽबमन्य शुकं भूपमागच्छन्तमकाले दृष्ट्वा मन्त्रिपली शय्या मुक्त्वा एकतः स्थित्वा माह
राजन् ! शान्तिं व्रजाहाय, रक्ष देहं धनादिकम् ।
मन्त्रीशस्ते सुतो नूनं, कीरवाक्यप्रजन्पनात् ॥१०॥ राजा मन्त्रिपत्नीवचः श्रुत्वा ध्वनितशिरः[गिरा] प्राह
सत्यं सत्यं पुनः सत्यं, सत्यं च कीरभाषितम् ।
वैरोचनः सुतो मेऽयं, स्वं च कुलवधूमम ॥११॥ इत्येवमुक्त्वा लज्जितो राजा शीघ्र मन्त्रिपत्नीवाह निकां परिधाय स्वीयांच] तत्र विस्मृत्य कीरपार्श्वे भूत्वा द्वारमेत्य द्वास्थं प्रति प्राह
25 अमृतं मधुसंयुक्तं, वणिगपुत्रगृहे न तु |
न पपो नृपतिस्तत्र, पश्चादर्पय कुण्डलम् ॥१२॥ द्वास्थोऽवग
वारिमध्यस्थिता गावः, पिवन्ति न पिबन्ति च । निर्दोषास्तत्र गोपाला, हारितं रत्नकुण्डलम् ॥१३॥
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६२ ]
प्रबन्धपञ्चशती राजाऽन्योक्त्या स्वयमेवावबोध्य स्वगृहे गत्वा सुष्वाप ।
इतोऽकस्माद्वैरोचनो विदेशाद् गृहे यावद्रात्रावागच्छति, तावद्भपवाह निकां दृष्ट्वा चकितो दध्यौ-किमत्र राजाऽऽगतोऽभूत् । यावद्विलोकयति सम्यग् तावत्पनीकाहनिको न पश्यति च
चिन्तितं-तून राजाऽत्रागतो मम गृहे, स्त्रीणां पुरुषाणां च चरित्रस्य पारं न पायते । यदि 5 भार्यापृच्छयते तदा कूटजल्पनाद्देवचक्रेण भस्मीभवति तेन राजैव पृच्छयते एवं विमृश्य भार्या
मुत्थाप्य माङ्गल्यच्छलेन भूपवाह निका छत्रोपरि संस्थाप्य' पञ्चशब्दपूर्व वैरोचनः भूपपार्श्व गत्वा प्रणनाम छब्बामग्रे मुक्त्वा प्राह च
दृषाक्रान्तो गतो हस्ती, पयःपातुं सरोवरे ।
पीतं नवेति वक्तव्यं, सत्यं राजन् ! त्वयाऽधुना ॥१४॥ 10 राजा चकितः स्वं रूपं मत्वा प्राह
तृषाक्रान्तो गतो हस्ती, पानीयं पातुमुद्यतः ।
दृष्ट्वा सिंहपदौ तत्र, न पीतं वारि शीतलम् ॥१५॥ ततो राजा स्वपदौ विलोकयति यावत्तावत् स्त्रीवाह निकामुत्तार्य छन्नां कृत्वा पुनः प्राह
सत्यं सिंहो गतस्तत्र, पानीयं पातुमुद्यतः । 15
सत्यं कीरोदितं सर्व, न पीतं शीतलं पयः ॥१६॥ ततः वर्द्धापनागतां वाहनिका परिधाय स्त्रीवाहनिको स्थालोपरि मुमोच । वैरोचनेन सर्व झातं, राजा झा] मन्त्री मानितः, मन्त्री पञ्चशब्दपूर्व राजपथेन पश्चाद्गृहे आगतः । भायो पृष्टा सती सत्यं प्राह राजपार्श्वगमनादिस्वरूपं भार्याने प्रोक्त्वाच्य] दध्यौ हृदि धन्येयं भार्या, शुको धन्यः, राजापि धन्यः, भाग्यं विनैवं योगो न लभ्यते, यतःपत्नी प्रेमवती सुता सुविनयो भार्या गुणालङ्कृता,
स्निग्धो बन्धुजनः सखातिचतुरो नित्यं प्रसन्नः प्रभुः । निर्लोभोऽनुचरः परार्चिशमने प्राप्तोपयोगं धनं,
कल्याणाभ्युदयेन सन्ततमिदं कस्यापि संपद्यते ।। राज्ञा ग्रासो वर्द्धितः । अर्द्धराज्याधारोऽभूत् । मन्त्रिणश्चत्वारः पुत्राः क्रमादभूवन् । अन्येद्यः 25 सभायां मन्त्रियुतो राजा यावदुपविष्टःतावदकस्माद्वनपालक आगात् भयभ्रान्तचेताः प्रोवाचैवं च
देवाद्य नन्दनोद्याने, महाकायः किरिः कुतः । उन्मूलयंस्तरूनाम्र-कदल्यादीन् समाययौ ॥१७॥ श्रुत्वैतद्भूपतिर्दध्यो, मयि शासति मेदिनीम् । उपद्रवः कथं पुंसां, जायते नूनमंशतः ॥१८॥
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प्रथमोऽधिकारः
[ ६३
ततो राजा संनय मन्त्रियुतः सपरिच्छदो वराहं हन्तुं वने ययौ, प्राह च-कुत्रास्ति वराहः ? वनपालके न दर्शितः। राज्ञो मण्डली मण्डयित्वा वराहो हक्कितः, रे दुष्ट ! पापिष्ट ! बहिर्निगच्छ कुक्षात् । श्रुत्वैतत् सूकरो घुघुरारावं कुर्वन् बहिर्निर्गत्य राजमन्त्रिपार्श्वे स्थित्वा निर्ययौ। राजा मन्त्री च तत्पृष्टौ धावितौ वायुवेगाश्वारूढौ । परिवारः पश्चास्थितः । कियती भूमिमागत्य श्रान्तौ राजमन्त्रिणी, सन्ध्यायां स्थितौ वराहश्छलं कृत्वा कचिद्ययौ । ततो द्वावपि खिन्नौ जजल्पतुः, 5 सन्ध्या पतिता आवां दूरभूमिमागतौ । तृट् लग्ना । अत्रवने सिंहादयो बहवः सन्ति, कथं । रात्रिर्गमिष्यते ? एवं जल्पतोद्वयोः मन्त्री नीतिज्ञोऽवग
वृहद्भानोर्महाज्वालां, ज्वलन्तीं वीक्ष्य दूरतः ।।
सिंहाद्याः श्वापदाः सर्वे, तिष्ठन्ति दूरतः खलु ॥१९॥ एवं विमृश्य काष्ठान्यानीयाग्नि प्रज्वाल्य महाज्वाला ज्वलन्तीं कृत्वा जागरितौ द्वावपि 10 रात्रि निन्यतुः, यत:
उद्यमे नास्ति दारिद्रथं ,पठने नास्ति मूर्खता ।
मौनेन कलहो नास्ति, नास्ति जागरतो [जागरिते] मयम् ॥ प्रातः सूर्यचारवंशेन स्वपुरीमार्ग विज्ञाय द्वावपि चलितो । तृट् लग्ना भृशं, राजाऽवगमन्त्रिन् ! विलोकय जलादिस्थानं कुत्राप्युच्चैश्चटित्वा । भूपादेशं प्राप्य तावत् वृक्षे चटित्वा 15 दूरत । नीलशार दलकाक.पतनादि च दृष्ट्वाप्राह मन्त्री
राजनितो दिशि प्राच्यां, संभाव्यते पयः स्थितिः । शाड्बलबहुलप्रांशु-वनकाकादिसंभवात् ॥२०॥ दृश्यन्ते बहवो वृक्षा, घनपत्रसमन्विताः । काकाः कलरचो यत्र, तत्र तोयं भविष्यति ॥२१॥
20 रानाने उपरि स्थितो दिशमुक्त्वा स्वयं च दिशं स्थिरीकृत्य वृक्षादुत्तीर्य मन्त्री भूपपार्श्वे आगात् । ततो दिगनुसारेण द्वावपि तत्र पूर्वदृष्टवने ययतुः, दृष्टं महासरः, चटितो पालिं यावत् तावदृष्टं शुष्कं सरः खिन्नो द्वावपि । चिन्तितमहो कर्मणां गतिः। तृट् लग्ना पानीयं तु न प्राणायास्यन्ति । मन्त्री प्राह-राजन् ! काकसंभवाव कुत्रापि जलं भविष्यतीति प्रोक्त्वाच्य] राजानं पालितरुच्छायाया मुक्त्वा जलभाजनं लात्वा काकानुसारतः सरःपार्श्व भ्रमन् महती वापी 25 जलपूर्णां दृष्ट्वा मन्त्री मुमुदे, समुद्रश्चन्द्रोदयमिव । मध्ये प्रविश्य जलभाजनं पानीयभृतं कृत्वा यावत्त्वरितं निस्सरति तावद्भित्तौ प्रशस्ति प्रेक्ष्य वाचयामास, तन्मध्ये एकं वाचयति, यथा
तुल्यार्थं तुल्यसामर्थ्य मर्मज्ञं मन्त्रिणं दृढम् ।
अर्धराज्यहरं सद्यो, यो न हन्यात्स हन्यते ॥२२॥ चिन्तितं मन्त्रिणा कदाचिद् भूपोऽत्रागमिष्यति तदा मां मारयिष्यत्येव । तेन कईमेन श्लोका- 30 क्षरान स्थगयित्वा यास्यामीति कृत्वा श्लोकं कर्दमेनाच्छाद्य पानीयं लात्वा राजपाच गतः । राजा.
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६४ ]
प्रबन्धपञ्चशती
ऽम्भः पपौ । चिन्तितं च अहो ईदृशं जलस्थानमस्ति, विलोक्यते बहु जीवितव्यं विना विलोकितं वरमिति ध्यात्वा मन्त्रिणं तत्र मुक्त्वा राजा वापीं द्रष्टुं गतः । वापीं विलोक्य पश्चाद्वलन् प्रशस्ति वीक्ष्य तन्मध्ये एकं श्लोकं तत्कालार्द्रकर्द्दमस्थगितं वोक्ष्य दृष्यौ अपरः कोऽप्यधुनाऽस्मिन् वने दृश्यते न ।
5
दध्यौ च नूनं मन्त्रिणा स्थगितः । एवं विचिन्त्य पश्चादागतस्तावन्मन्त्रणा चकितेन श्लोक' स्थगितमस्थगितमित्यादिविकल्पपरः पयो दूरं त्यक्त्वा मायया तृषाकान्तो भूत्वा मुखं प्रसार्य स्थितः, राजा आगात् जगाद च - मन्त्रिन्नीदृशः कथं दृश्यते । मन्त्री प्राह-मायया जलं गतं 10 तृषा लग्ना पानीयमानयामि पश्चाञ्चल्यते पुरं प्रति एवं कृत्वा मन्त्रो लाकवचनार्थं गतो वाप्यां यावद्विलोकयति तावत्कर्द्दममपसारितं दृष्ट्वा दध्यौ - नूनं भूपेन वाचितः श्लोकः भूपो मां मार
यति किं करिष्यति भययुगभूत् पादौ पश्चादागन्तुं न वहतः, वेला लग्ना चलिता यावत्तत्रायाति तावद्राजा सुप्तः । सुप्तं भूपं दृष्ट्वा दध्यौ मन्त्री अयमेवावसरः मारणे या जागरिष्यति तदा मां मारयिष्यति । राजान आत्मीया न भवन्ति, यतः ----
15
अयं द्रु श्लोकोऽधुनैवाच्छादितः संभाव्यते, तेन केनापि कारणेन स्थगित इति ध्यात्वा जलेन कद्दममुपसार्य श्लोकं वाचयामास - " तुल्यार्थं तुल्यसामर्थ्य " मित्यादि ।
25
30
काके शौच, द्यूतकारे च सत्यं, सर्पे क्षान्तिः स्त्रीषु कामोपशान्तिः । क्लie धैर्य, मद्यपे तत्वचिन्ता, राजा मित्र, केन दृष्टं श्रुतं वा ॥
अत्रान्तरे पालिस्थ [म] द्राक्षवृक्षशाखायां विशालानगर वास्तव्यो वानराह्नो मालिकः स्थितः । 20 सर्वं राजमारणादिकं दृष्ट्वा भय भ्रान्तः शाखान्तरं गतः । तावन्मन्त्री शाखाकम्पनं दृष्ट्वा श्लोकं प्राहशाखा प्रकम्पिता येन, वानरेण नरेण वा ।
अचिरेणैव कालेन शाखाभेदो विनश्यति ॥ २३॥
मालिको मन्त्रिवचः श्रुत्वा दध्यौ -- अहमनेनात्र स्थितो, ज्ञातो वा नेति ध्यायन् मौनी
एवं ध्यात्वा राज्ञः खड्गमादाय मन्त्री राजानं सुप्तं जघान । तत उत्पाट्य पालिमध्ये च चिक्षेप भूमौ ।
•
बभूव ।
मन्त्री तु तदा एवमुक्त्वा तुरंगमौ द्वौ लात्वा पुरमेत्य प्राह, राजलोकाग्रे - राजा दूरतो बने मारितः खादितश्च । ततो राज्ञी प्राह अहं न जीविष्यामि । मन्त्रिणा सुकुमालवचनैः शान्तीकृता राज्ञी, शोक उत्तारितः, मन्त्री प्राह – सर्वेषामग्रे, इयं राज्ञी सगर्भाऽस्ति, सुतो भविष्यतीति संभाव्यते, तेन राज्ञ्याऽपरै राजलोकैश्च खेदो नानेयः, भवितव्यताम्रतः कोऽपि न छुटिष्यति, यतः - आन्ध्यं यद् ब्रह्मदत्ते, भरतनृपजयः, सर्वनाशश्च कृष्णे, नीचैर्गोत्रावतारश्वर मजिनपते, स्तीर्थनाथेऽबलात्वम् ।
निर्वाणं नारदेऽपि, प्रशमपरिणतिः सा चिलातीसुतेऽपि, इत्थं कर्मात्मवीर्ये स्फुटमिह जयतः स्पर्धेमाने जगत्याम् ॥
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प्रथमोsurre
[ ६५
यावता पुत्रो राजयोग्यो न भविष्यति तावदहं राज्यरक्षां करिष्यामीति कृत्वा स्वयं नन्दभूपवद्राज्यं चकार बैरोचनमन्त्री ।
ततो वानरो मालिको वैरोचनं राज्यं कुर्वाणं श्रुत्वा भयभ्रान्तो बहिरेव तस्थौ नायातो पुरमध्ये, नन्दपत्नी प्राप्तसमये सुतं प्रासूत, पूर्वेत्र रविं पुत्रजन्मोत्सवः कृतः ।
पुत्रो लाल्यमानः षड्वर्ष प्रमाणो लेखशालायां मुक्तः सर्वेऽपि लेखशालिका हसन्ति पराभवन्ति च निष्पितृकोऽयमिति ।
मातुरग्रे आगत्यावक-मम पिता कुत्र मृतः, कथं वेति वद । माताऽवग् — वैरोचनमन्त्रिणा युतस्तव पिता शूकरपृष्ठो धावितः दूरतो ययौ । वैरोचनेनोक्तं नन्दो राजा वराहेण मारितः खादितश्च सम्यगहूं न जाने क्रिमभूत्ततःप्रभृति वैरोचनो राज्यरक्षां चकार । शृत्वैतन्नन्दभूपाङ्गजो दध्यौ - मम पितैवं कथं वराहेण मार्यते । यथा मृतोऽभूत्तथा मया ज्ञातव्यः । ततश्चिन्तापरश्चतुरो 10 राजपुत्रः सदा रात्रौ कृष्णवस्त्रं परिधाय पुरमध्ये चतुरशीतिहट्टश्रेणिषु सेरिकासु सेरिकासु भ्रमति स्म । क्रमात्सर्वशास्त्रज्ञोऽभूत् पठन्, यतः-
जले तैलं, खले गुह्यं, पात्रे दानं मनागपि ।
प्राज्ञे शास्त्र स्वयं याति विस्तारं वस्तुशक्तितः ॥
5
राज्ययोग्यं पुत्रं ज्ञात्वा माता मन्त्रिपार्श्वात् राज्यं पुत्राय दापितवती । नन्दपुत्रोऽप 15 राज्योपविष्टः सदा रात्रौ छन्नं पुरमध्ये भ्रमति स्म । द्वादशवार्षिको जातः क्रमात्स नन्दपुत्रः अन्येद्युः रात्रौ वानर मालिकस्य गृहपार्श्वेऽभ्येत्य राजा यावत्स्थितः तावदितो वानर मालिको नन्दपुत्रं राज्याधिष्ठितं श्रुत्वा रात्रावेव गृहद्वारे आगतो विलोकयति यावत्तावद्गृहमध्ये दीपं ज्वलन्तं दृष्ट्वा मातापितरावदृष्ट्रा दध्यौ नूनमनया कोऽप्यन्यः पुरुषोऽङ्गीकृतः संभाव्यते । एवं विचिन्त्य काव्यमेकं प्राह
कमलदलसुनेत्रे हारिहाराभिरामे, स्तनतटकटहंसे रोमरङ्गैः सुरङ्गी [ङ्गि ] |
अमलतपसुरूपे ! पद्मवक्त्रे ! जिताब्जे, कृतिमनुजनिषेव्या वर्त्तसे किं प्रियेऽद्य ||२४|| श्रुत्वैतत्काव्यं भ्रान्तचित्ता प्राह मालिका
9
तपनियमविधानैः शोषितं येन गात्रं, बहुकुसुमसमूहैः पूजितो येन देवः | रणमुखगजदन्तैर्येन भग्नं शरीरं तदमलपतिसेव्याऽहं सदा नान्यपुंसः ||२५|| एतावद्भार्यावचः श्रुत्वा स्वस्थचित्तः कुशलस्वरूपं बहिःस्थ एव पप्रच्छ भार्याम्गृहे कुशलता कान्ते!, पिता मिता न दृश्यते । प्रदीपकरणं कस्मान्मध्यरात्रौ वद प्रिये ॥ २६ ॥ स्वामिन्नहं निशीथिन्यां तपश्चान्द्रं वितन्वती । देवस्य साम्प्रतं दीप - मकार्षमर्चनाकृते ||२७| स्वं किं पृच्छसि हे भर्त्तः !, निःस्नेहोऽसि प्रियो मम । मातापित्रोः सुखं दुःख, जीवितं च पुनः पुनः ||२८||
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६६ ]
प्रबन्धपश्चशती
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श्रुत्वैतन्मालिकः प्राह
पद्मपत्रविशालाक्षि !, पुरे वमति बालिके ! ।
सा मे दहति गात्राणि, शाखावैरोचने यथा ॥२९॥ श्रुत्वैतद्भर्तृ वचो हर्षिता तत्कालमेव द्वारमुद्घाट्य गृहमध्ये नीत्वा मातापित्रोर्मेलितः माता5 पितरौ ननाम, मातापितरौ प्रतिजगदतुः पुत्रम्
दीनौ वृद्धौ गलगात्रौ, आवां दृग्विकलो भृशम् ।
मुक्त्वा कथं सुतैतानि, वर्षाणि दूरतः स्थितः ॥३०॥ पुत्रः प्राह
मातः पितरहं दूरे, मृत्युभीतोऽतिदुःखितः ।
वर्षाण्येतानि कष्टेन, सहमानः स्थितश्विरम् ॥३१॥ ततो गृहद्वारे शय्यायामुपविष्टौ मालिकामालिको वात्ता कर्तुं प्रवृत्तौ तां वाता श्रोतुं नन्दभूपपुत्रोऽरिमर्दनो द्वारे समेत्य शनैः स्थितः । मालिका मालिकं प्रति प्राह-स्वामिन्नहं
वैरोचने शाखावत्कथं भवतो गात्राणि धक्ष्यति । मालिकोऽवग15
मां मा पृच्छसि हे कान्ते !, शर्वरीप्रहरद्वयम् ।
शृणोत्यन्यो वचश्चेन्मे, जायते मरणं ध्रुवम् ॥३२॥ स्त्री प्राह-छन्नं प्रिय ! मनाग्वद ! मालिकोऽवग-रात्रौ छन्नमपि वक्तुं न युज्यते
दिवा निरीक्ष्य वक्तव्यं, रात्री नव च नैव च ।
संचरन्ति महाधूर्ता, बटे वररुचियथा ।। 20 प्रिया बलं कुर्वाणा प्राह-वद स्वामिन् अत्र तु कोऽपि नास्ति, छन्नं निगद्यतां, ततो बालाबलात्कारमलङ्घनीयं मत्वा मालिकोऽवग
नन्द वैरोचनावश्वा-पहती विपिने गतौ ।
अहन वैरोचनो नन्द, मया शाखा प्रकम्पिता ३३।। ___ मालिकाऽवग-स्वामिन् ! विस्तारेण कथय, ततो मालिको पूर्व दृष्टं यथा पत्नावकथयत् । 25 राजा तं मालिकोक्तां पितृमरणवात्ता (श्रुत्वा) खिन्नहृदयोऽभिज्ञानार्थ मालिकगृहद्वारे ताहकभित्तौ इदं श्लोकमालिलेख
नान्देन भ्रमता रात्रौ, पुरमध्ये निरन्तरम् ।
पितृमरणवृत्तान्तो, ज्ञातः सम्यग्नगननात् ॥३४॥ ततो राजा गृहमभ्येत्य वैरोचनव्यतिरिक्तप्रधानानाकार्य प्राह-मम पितुर्मारको मया 30 ज्ञातो नगरमध्ये । प्रधानरुक्तं-महान् लघुर्वा भवतु स मारयिष्यते एव, इत्येवं विचारं कृत्वा
मालिकगृहद्वारे गत्वा स्वकृतं श्लोकं दर्शयित्वा राजा मालिकं प्रत्यवक-द्वारमुद्घाटय । मालिका वक्ति-द्वारं नोद्घाटयामि । मालिको बहुजनसमुदायं दृष्ट्वा छन्नं स्थितः । राज्ञोक्तं-तव भर्ती
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प्रथमोऽधिकारः
कास्ति ? तयोक्तं-गृहे नास्ति, राज्ञोक्तं-कूटं किं जल्प्यते, तव भर्त्ता विदेशादद्य रात्रावेव गृहे आगतोऽस्ति । तया चिन्तितम्-अहो दैवविलसितम् अहो दैवविलसितम् अद्यैव बहुवर्षेभ्यो भर्ता गृहे आगतः, न ज्ञायते कस्माद्धेतो राजा रुष्टः, प्रोवाच च
बह्वब्देभ्योऽधुना कान्तो, निःष्कलङ्को ममागमत् ।
नृपाकारणतोऽकस्मा-सङ्कटं पतितं पुनः ॥३५।। श्रुत्वैतद्राजा प्राह--
हे मालिके ! न ते भक्तर्दुष्टं कोऽपि करिष्यति ।
भविष्यति महापूजा, सत्यं वद सुशालिनि ! ॥३६॥ अहं राजा कारणेनागतोऽस्मि किश्चित्प्रष्टुं गूढम् । ततस्तया द्वारमुवाटितं, मेलितो भर्ता, धीरां दत्त्वैकतो नीत्वा प्रधानेषु शृण्वत्सु आत्मोपितुमर
णवृत्तान्तं राजा पप्रच्छ। मालिकोऽवग 10 कथि(थयि)तुं न शक्यते, कथिते सति मम मरणमेव शरणं । राज्ञोक्तं-भेतव्यं न, तव महापूजा-- राजसन्मानं भविष्यति । अन्यत्किमपि नानेयं, राजा त्वमेवाधुनास्मि । ततो मालिक आमूलचूलं नृपमारणवृत्तान्तं वैरोचनविहितमचोकथत् । कथितं च तत्र पालौ अस्थीनि सन्त्यद्यापि भूमध्ये ! ततो राज्ञा भयं नानेयं त्वयेत्युक्त्वा मालिको विसर्जितो गृहमध्ये गतः । तनो राज्ञा स्वाबासमभ्येत्य वैरोचनस्याकारणं कृतं, वैरोचनो यावदुत्थाय चलति तावत्संमुखा छिंकाऽभून् , 15 चिन्तितं किमपि विघ्नं भावि, यतः
उत्थितम्य पदो दातुं, चलतः संमुखी हि क्षुन् ।
मरणाय भवेन्नून-मथवाऽनथंदायिका ॥ पश्चाद्वलित्वा स्वस्थाने उपविश्य विलम्ब कुर्वाणं वैरोचनं राज्ञा मत्त्वा कटकं प्रेष्यते गृह वेष्टितं प्रोचुर्भूपभृत्या:-भो वैरोचन ! नन्दभूपमारक अह्नाय गृहाद्वहिनिस्सर पापस्य फलमधुनैव 20 द्रक्ष्यसि । श्रुत्वैतञ्चकितः स्वपूर्वचेष्टितं स्मृत्वा पुत्रानुत्थाय वैरोचनः प्राह राजा रुष्टः । हे बृहत्पुत्र ! मां मारय राजपावे गतं, त्वं खङ्गेन पश्चात्सर्वऽपि पुत्राः सुखिनो भविष्यन्ति । पुत्रः प्राहएवं कथं क्रियते ।
माता-पितासमं तीर्थ, नास्त्यशेषे भुवस्तले ।
तत्तीर्थ घ्नन्नहं यामि, घोरं नरकसंश्रयम् ।। अत्वा वैरोचनोऽवग्
राजा बन्धुरबन्धूनां, राजा चक्षुरक्षुषाम् ।
राजा पिता च माता च, राजा वंशस्य रक्षकः ।। एवं द्वितीयतृतीययोः पुत्रयोः कथितं पुनरेकोऽपि पुत्रस्त्रयाणां मध्ये पितरं मारयितुं नेहते, ततश्चतुर्थो लघुराकारितः प्रोक्तं वैरोचनेन सर्वप्रकारेण लघुरपि वृद्धः मामसिना राजदृष्टौ मारय। 30 तेनाङ्गीकृतं पितृवचः । ततः पित्रा शिक्षितः। हे पुत्र ! यदाहं राजदृष्टौ यामि तदा त्वया खङ्ग कर्षयित्वाऽहं मारयितव्यो विचारो न कार्यः। मारणादनु वक्तव्यं त्वया राज्ञो मारकस्यैवं
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६८]
प्रसन्धावती
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गतिर्भवति । इत्यादि प्रोक्त्वाच्यः पुत्रमने प्रेष्व भूपपार्थे गते पुत्रे मन्त्रिणा मार्या पृष्टा-क्रिभिः पुत्रैर्मम मारणंवचो नाङ्गीकृतं चतुर्थेनाङ्गीकृतं, तत्र किं कारणं ? भार्ययोक्त-ऋतुसमये मम द्रष्टौ काह लिक आगात् , मम रोष उत्पन्नः, तेनायं पुत्रोऽपि दुष्टबुद्धिरभूत् । पुत्रस्वरूपं मत्वा मरणामतं
मत्त्वा साहसमवलम्ब्य राजसेवकानां मिलित्वा वैरोचनो यावद् भूपदृष्टौ गतः, तावद् भूपः 5 परामुखोऽभूत , पुत्रेणासिमाकृष्य पितुःशीष चिच्छेद । प्रोक्तं च-नन्दभूपमारकस्यैवं गतिर्भवतीत्यादि । प्राह च
वैरं वर्षसहस्रेषु, वैरं वैरोचने यथा ।
यावत्शाखे सुतास्ताव-च्छत्रवो मां पुनः पुनः ॥३७॥ राज्ञो त्वा वैरोचनपुत्रमारितं दृष्ट्वा संमुखोऽभूत् प्राह--कियन्तः सन्ति भवतो बान्धवाः ? 10 तेनोक्तं चत्वारः। ततस्त्रयोऽप्याकारिताः, पितुरग्निःसंस्कारः कारितः। पट्टभक्तं वैरोचनस्य लघुपुत्रं
सर्वाधिकारिणं कृत्वा अपरेषा मन्त्रिपत्राणां यथायुक्तमधिकारित्वादिव राजा मालिकं ग्रामदशदानेन सन्तोष्य नन्दभूपपुत्रः सुखी बभूव । इति श्रीतपागच्छशृङ्गारगच्छनायकश्रीमुनिसुन्दरसूरिशिष्येण शुभशीलेन लौकिकनन्दवैरोचनमन्त्रिकथा परद्रोहोपरि कृता ॥१०२॥
[ 103 ] कलहे सरढद्वयकथा । जो जस्स उवसमई, विज्झवणं तेण तस्स कायव्यं ।
जो उवेहं कुज्जा, आविज्जइ मासि लहुअं ॥ १ ॥ कलहं कुर्वाणं जनमुपेक्षते हसति च उत्तेजयति साहाय्यं वा करोति स प्रायश्चित्तं प्राप्नोति कथा चात्र
वणसंडसरे जलचर-खहचरविसमणदेवयाकहणं ।
सरडुक्कवेखंडण--धारणगयमासभूरणया ॥२॥ ___क्वापि वनखण्डमण्डिते सरसि जलचरखेचरस्थलधराणां विश्रामस्थाने गजयूथं तिष्ठति वसति च । एकदा तत्र सरड(द)भण्डनं सरड(ट)युद्धं दृष्ट्वा वनदेवतया प्रोक्तं
भो नागा जलचरवासि, आसुणेह तसथावरडा भिडंति । 25
अभावो परियत्तइ, भो नागा ! जलवासिआ ॥३॥ मत्स्यादयः शृण्वन्तु मद्वचः-यत्र सरडा भडंति कलहाय, तत्राभावः प्रवर्त्तते । विनाशः संभाव्यते ततो यूयं वारयत ।
ततस्तै गादिभिश्चिन्तितं किमस्माकमेते वराकाः सरडाः कलहायमाना करिष्यन्ति इति । ते उपेक्षन्ते । तत एकेन सरडेन द्वितीयो निर्धारितः । ततः स नंष्ठा प्रसुतस्य एकस्य गजस्य 30 नासायां प्रविष्टः, द्वितीयोऽपि पृष्टं प्रविष्टः, तत्रापि कलहायन्ते, सतो गजस्यारतिमहती पीडा च
संजाता। ततो रुष्टेन तेन गजेन सर्व वनं चूर्णीकृतं,सरांसि चालोडितानि, जलचरादयो व्यापादिताः,
* काकीहा ।
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प्रथमोऽधिकार
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सोऽपिनष्टः अपमोफ्नयः- एक्मत्रापि आचार्याणामुपेक्षमाणानां महान दोषः स्यात् , तस्मादुपेक्षा नं कार्या; कलहो निवार्य एक । इति कलहे सरढद्वयकथा ॥१०३।।
[ 104 1 अथ औदार्ये कुमारपालंभूपसम्बन्धः । पत्तनेऽन्यदा श्रीकुमारपाले भूपे राज्यं कुर्वाणे वैतालिका वैदेशिकः सकौपीनः सन्ध्यायामाजगाम, गणिकागृहे तत्र यष्टिमुद्राणके मुक्त्वा वासकं स्थितः । प्रातयंदा राजा भूरिधनं दास्यति 5 तदा मया प्राह्यमिति ध्यात्वा भूपसभायां स गतः । स च भूपेन पृष्टः, कुत आगतः ? ततो वैतालिको जगौ-स्वर्गात्त्वां द्रष्टुमत्रागाम् , त्वां विना तत्रैव स्वर्गे एवं जायमानमस्ति
अपच्छर नच्च न पिक्खणड, सुरतरु गंध न देइ ।
भेर न वज्जई सुरभवणि, तुह सिरि कुमर ! सुणेइ ।।१।। ततो राजा तस्मै हेम्नो दशशतों ददौ, तदनु वंतालिको जगौ--
कोडि टंक कलक्खहयसहमतिमत्तगयंद ।
कुण अप्पइ पट्टणहिउ, विणु सिरि कुमरनरिंद ॥२॥ ततो राजा पूर्वदत्ताद्विगुणं दापितं, स च गतो निजस्थाने, तां श्रियं क्रमाद्भक्त्वा राजपथि स्थितं तं वैतालिकं दृष्ट्वा राजाऽप्राक्षीत् , क्व गतं तद्वनं स प्राह--
उर अंतर वाहलया, थणपन्चयरोमराइवणगहणं ।।
सुरनरगणगंधचा, नग्गवि आमयणाचारेण ||३|| ततः पुनर्धनं दत्त्वा राजा स्वपार्श्व स्थापितः, क्रमाद्धर्ममङ्गीकारितः स भूपेन ।
__ इति औदार्ये कुमारपालभृपसम्बन्धः ।।१०४॥
[ 105 ] अथ कलिधौ सर्पकथा । श्रीपुरे धन श्रेष्ठी तस्य प्रेमवती पत्नी बभूव । क्रमालक्ष्मीमुपायं चत्वारः कलशा राभिर्भूताः। 20 गृहचतुःकोणेषु न्यस्ता रहः एकदा श्रियमयितुं विदेशं प्रति चिचलिघु पति पत्नी प्राह--सार्द्ध समेष्यामि । पतिः प्राह-तव प्रतिबन्धो मे स्यात् । पत्नी प्राह-त्वं गत्वा यदा तत्रास्थाः तदा मे का गतिः ? विदेशे वर्या नार्यो भवन्ति, ताभिः कामितः सन् तत्रैव स्थास्यति । स प्रहाहं त्वां विना नान्यां पत्नी करिष्ये, अस्मिन् भवे यदि कदाचिद्व्याजेन-लोभात्तत्र स्थास्यामि तदाऽहं त्वां तत्राकारयिष्यामि ।
25 ___अत्र गृहमध्ये चतुःकोणेषु रैकुम्भाः सन्ति तेषां सारा कार्या । यद्यहं तत्र स्थास्यामि तदा त्वं रैकुम्भात्रीत्वाऽऽगच्छेः । पल्या मानिते पतिश्चचाल । तदा धूत्तचौरेण श्रेष्ठ्युक्तं श्रुतं । श्रेष्ठी कुङ्कणदेशे गत्वा श्रियमर्जयति । इतः स धूर्तो रहः कूटं लेखं लिखित्वा प्रेमवत्यै ददौ, तयेति वाचितः
"त्वं पत्नि ! रैकुम्भान् चतुरोऽपि लात्वाऽनेन पुंसा समं मम पार्श्वे चन्द्रपुरे समागच्छे”। 30 ततस्तया रैकुम्भान् लात्वा रथं कृत्वा तेन पुंसा सह चलिता । क्रमाद्गच्छत्या तया
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७० ]
प्रबन्धपश्चशती धूर्तो ज्ञातः, ततस्तदाऽकस्मात्तस्याः पितृप्राममध्ये गत्वा पितुरने धूर्तचेष्टितं झापयित्वा धृतों निर्धाटितः । ततः स्वपुरेऽभ्येत्य सा स्थिता । क्रमात्पतिः कृष्णास्यः समागात् । पन्योक्तं-किं ते कृष्णास्यं, तेनोक्तं-मयैकोऽहिरुपकारादग्नितः कर्षितः सन् वक्ति त्वा खामि, ततो मयोक्तंमया तवोपकारः कृतः, त्वमेवं कि कुरुषे ? सर्पोऽवग-“कलौ य उपकारं करोति स तेनैव हन्यते ।" पल्यवग-गच्छ, तत्र भीनानेया। ततः सा तत्र गत्वा प्राह भो सर्प ! किं तवोपकारकं मत्पतिं किं खासि ? सर्पोऽवग-भो त्रि! येनोपकारः क्रियते स हन्यते तेन । यदि मन्यते न त्वया तदा इयं महिषी प्रष्टव्या। ततस्तेन महिषी वृद्धा प्रष्टाह-मया श्रेष्टिनो गहे दश महिष्यो जनिताः । अधुना श्रेष्ठी जल्पति आत्मनो गृहे शकटं भञ्जन्नस्ति [भग्नमस्ति] तेनास्या
महिष्या वाण शकट बध्यते मया तूपकारः कृतः । श्रेष्ठी त्वपकारं चिकीर्षुरस्त्येव तत्रोक्तं 10 महिष्या वृक्षठुण्ठकं पृच्छ । तेन पृष्ठो ठुण्ठकोऽवग-मत्तले योगी कुष्ठी स्थितः स नोरोगोऽभूत्
ततस्तेनाहं मूलानां कर्षणादेवंविधः कृतः ततस्तयाक्तं-तथा कुरु यथा मत्पतिर्जीवति । ततो ठुण्ठकेनोक्तं-ममाधः स्थितां धूली लात्वा सर्पशीर्षे क्षिप, सोऽपिमरिष्यति । ततस्तया तथा कृतं, ततः श्रेष्ठी सुखी जातः । ततः सप्तक्षेत्रे स्वां श्रियं व्ययित्वा म्वर्गसुखं प्राप पत्नीयुतं क्रमान्मुक्ति यास्यति । इति कलिधर्म मप्पकथा ॥१०॥
[ 106 ] अथ कुसंगविषये गोकथा । कुसंगासंगदोषेण, साधको यान्ति विक्रियाम् ।
एकरात्रिप्रसंगेन, काष्ठघण्टाविडम्बना ॥१॥ अत्र कस्यचित्कौटुम्बिनो गौदुबला सती अन्यया गवा मत्तया सह लोकक्षेत्र प्रविश्य सस्यं भक्षयन्ती क्षेत्रस्वामिना बहिः कर्षिता । पुनभूयोभूयस्तत्र याति ततः क्षेत्रस्वामिना कौटुम्बिको 20 दण्डापितः । ततस्तेन गोस्वामिना सा गौर्गले काष्ठेन बद्धा । ततो विक्रेतुमापणे धृता तदा लोका
जगुरियं गौः लोकक्षेत्रे प्रविशति । अतो विक्रीयते । तदा गौर्जगौ, अहं कुसंगेनैवंविधां दशा प्रामा । | इति कुसंगविषये गोकथा ॥१०६॥
[107 } अथ इन्द्रियदमनाद मनविषये सम्बन्धः । वाणारस्यां पुर्यां आग्नेय्या दिशि गङ्गानद्यामर्वाग तीरे मृदङ्गहृदोऽभूत् । स च गम्भीरः 25 शीतलजलः कुमुदपङ्कजातिसुगन्धी[न्धि]पुष्पोपचितोऽभूत् । तत्र मत्स्यकच्छपादि जीवाः शतशः सुखं
तिष्ठन्ति । तत्र द्रहपार्श्वे वल्लीगहनमस्ति । तत्र द्वौ पापशृगाली वसतः। तौ पापौ चण्डरुद्रौ साहसिको पलाहारौ पलं गवेषयन्तौ रात्रिचारिणौ दिवा प्रच्छन्नं तिष्ठतः । ___ अन्यदा मृदङ्गहृदपार्श्वे सायमाहारार्थिनौ कूमौं, शृगालौ दृष्ट्वा भीतौ हस्तादि संकोचयित्वा
(च्य) स्थितौ । ततः पापशृगालो मायया शनैःशनैहदपाश्व तिष्ठतः। कस्यापि किमप्यपराधं न 30 कुरुतः स्म । ततो विश्वस्त एकः कूर्मः पादं बहिः कर्षयामास । ततश्चपलगत्या तत्रत्येक पादं
भक्षयतः स्म, ततो द्वितीयं चतुर्थ पादं भक्षयतः स्म । ततः कूर्मो मृतः। द्वितीयः कूर्मस्तयोः शृगालयोः स्वरूपं ज्ञात्वा तत्रैव देहगुप्तोऽभूत् । स च सुखी जातः ।।
एवं यो यतियतिनी वा आचार्य पार्श्वे प्रवजितः । क्रमाद्योऽगुप्तेन्द्रियो भवति, स प्रथमकर्म
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reastfeerरः
वनरकादिदुःखं प्राप्नोति । योऽपि गुप्तेन्द्रियो भवति स द्वितीयकूर्मवत्सुखी भवति ।
तत्कूर्मस्थानीय साधू | शृगालस्थानीयौ रागद्वेषौ । प्रीवापादस्थानीयानि ५ इन्द्रियाणि । पादग्रीवाप्रसारणस्थानीयाः शब्दादिविषयाः इत्यादि भावना कूर्मकथादृष्टान्त सिद्धान्त गतः । इति इन्द्रियदमनादमनविषये सम्बन्धः || १०७॥
[ 108 ] अथ अनित्यतायां लोमशऋषिकथा लौकिकी । अनित्यतायां कथा चैवं
[ ७१
कश्विद्दीर्घदर्शी तापसो द्वाशवर्षसहस्राणि तपस्तेपे । मासोपवासान्ते पञ्चसु गृहेषु बद्धां भिक्षां याचते । यदा कदाचित्तेषु गृहेषु भिक्षा न लभते तदा मासोपवासः स च षष्ठे गृह न यति । एवं ४ मासक्षपणानि यावत् लब्धमाहारं चतुर्भागीकृत्य जलचरस्थलचरखचरेभ्यो दत्त्वा चतुर्थं भागमेकविंशतिवारान् पयसा प्रक्षाल्य स्वयं भुङ्क्ते ।
[ 109 ] अथ उच्छिष्टपुष्पचटापने मातङ्गसुतकथा | धरायां पतितं पुष्पं, देवस्य पुनरेव न | चटाप्यं विदुपासोsपि उच्छिष्टो जायते भुवि ॥१॥
अथ मृतः स इन्द्रोऽभूत् । पृष्टं च देवानां पुरः केनायं स्वर्गः कृतः ? इत्युक्ते देवा जगुः न केनापि कृतोऽयं, स्वयंसिद्धः । ततः शको दध्यौ जीर्णोऽयं, तेन नवीनं स्वर्गं करिष्ये । देवैरुक्तं नवीनः स्वर्गः केन कर्त्तुं शक्यते । शक्रोऽवग्-पूर्वेन्द्रा अशक्ताः स्वर्गं कर्त्तुमहं तु समर्थोऽस्मि | ततः सुरा जगुः - स्वामिन् ! पूर्वं मत्र्त्यलोकं विलोकय पश्चात्स्वहितं कुर्याः । तत इन्द्रो मर्त्यलोकं द्रष्टुं गतः कस्मिंश्चिद्वने अर्कतरुमूले लोमशनामा ऋषिस्तपस्तप्यमानो दृष्टः, तत इन्द्रोऽवग्-कथं 15 मढ बिना तपनातपं सहसे । ततः ऋषिश्वग्- चतुर्द्दशचतुष्किकासु गतासु ममैकं रोम पतति, एवं पतति केशे यदा यदा कोटी रोम्णां पतिष्यति तदा मे पञ्चत्वं भविष्यति । तदा [ किमर्थं] मढ्यादिस्थानमोह विधीयते मया । तत इन्द्रो दध्यौ-अस्य यतेरथे ममायुस्तुषारलवमात्रमतः स्वर्गकरणे को मोहः । ततो निवृत्त इन्द्रः स्वस्थानं गतः । इति लोमशऋषिकथा अनित्यतायां लौकिकी ॥ १०८ ॥
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एकदा श्रीजिनेन्द्रं पूजयतः सुगन्धिपुष्पं पद्मासनोपरि पतितं तत्सौरभ्यमिति ज्ञात्वा
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कामरूपपत्तने मातङ्गकुले दन्तयुक्तः पुत्रोऽजनि । मातङ्गो नष्टः । मात्रा बहिर्यात्वा स पुत्रस्त्यक्तः । इतश्च राजपाटिकायां गतेन स दृष्टः परिजनग्रहितः राज्ञा वृद्धिं प्रापितः अन्ते तमेव पालितपुत्रं राज्ये न्यस्य राज्ञा दीक्षा गृहीता । काले ज्ञानी संजातः । पुत्रवोधार्थं स आगतः । तत्र चन्दनार्थं 25 राजापि गतः । सा मातङ्गयध्यायाता तं वन्दितुं तां दृष्ट्रा राजा हृष्टः । तदा पुत्रस्नेहतो मातङ्गया पुत्री ज्ञातः । राजापि तन्मुखं वीक्ष्य मुनेः पार्श्व पृष्टं मद्दर्शनान्मातङ्गयाः प्रसवः कुता हेतुरिति । मुनिनोक्तं - हे राजन् ! एषा मातङ्गी तब माता, मया त्वं बहि:पतितो लब्धः, अपुत्रिणा सता राज्यं दत्तं, नृपः प्राह – केन कर्मणा एतन्मम कुल केन कर्मणा च राज्यं ? मुनिनातं - पूर्वभवे त्वं श्रीमान् व्यवहारी विवेकी च ।
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७२ ]
प्रबन्धमती
पुनरपि बिम्बे चटापितं अस्काशेन तेनैव कर्मणा मलिनंपापमर्जित, जातिस्मरण-मावस्मरण दीक्षा गृहीता स्वर्गं गतः ॥ इत्युच्छिष्टपुष्पचटापने मातङ्गसुतकथा ॥ १०९ ॥ [ 110 ] अथ धर्मपरीक्षायां सोमवसुदृष्टान्तः ।
धर्मो विवेकिना विचार्य प्रायः सोमवसुवत् । तथाहि
कोशाम्ब्यां दुःस्थो जन्मना सोमवसुविप्रोऽभूत् । क्रमाद् धर्मार्थ्यजनि चिन्तयति-धममहं परी कुर्वे । धर्मो कुलजातो न स्यात्, ततो दर्शनानि विलोकमानः क्वापि मते परिव्राजं धर्मं पप्रच्छ । मद्गुरुणा धर्मत्रिपद्युक्तेति --
'मिट्ठे भुंजे, सुहं साअव्वं, लोअपिओ अप्पा कायब्वा ।'
अर्थमकथयित्वा एव गुरुः स्वर्गं प्राप । ततश्चाहं स्वबुद्धया मिष्टान्नं भुञ्जे । लोकेभ्यः कारयित्वा 10 मन्त्रौषधादिना लोकप्रियो भवामि । मृदुशय्यायां सुखं शये ।
सोमव सुश्चिन्तयति - मिष्टान्न भोजनमन्त्रतन्त्रज्योतिष्कादिप्रकाशनेन धर्मो न भवति किन्तु पापमेव विप्रोक्तं धर्मं श्रुत्वा पुनरपि अन्यत्र साधुपार्श्वे त्रिपद्यर्थं पृच्छति । सोऽवग्- साधुः एकान्तरे भोजने मिष्टान्नं स्वल्पनिद्रायां सुखशयनं, निरीहत्वे लोकप्रियत्वं । सोमवसुर्दव्यौ - मार्गानुयाय्यसौ पुनस्त्रिलोचनमन्त्रिपार्श्वे त्रिपद्यर्थं पप्रच्छ, सोऽपि प्राह- अहं जाने परमभाग्यात्कत्तु न पारये, 15 अकृताकारितानुमतिभोज्यं परमार्थतो मृष्टं सुखदानात् अग्रतः सुगतिदानात्, विधिना स्वल्पनिद्रायां सुखशयनं, महानिरीहत्वे लोकप्रियत्वं, विश्वस्यापि स वल्लभो भवति द्विजस्तत्वज्ञानात् हृष्टो गच्छन् पञ्चसमिति त्रिगुप्तियुतसाधुसमीपे क्रियमाणां त्रिपदीमपि श्रुत्वा प्रववाज । एवं विचार्य धर्मतत्वं प्राह्यम् । इति धर्मपरीक्षायां सोमवसुदृष्टान्तः ॥ ११० ॥
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20
[111 ] अथ कुत्सितकर्मविषये सागरश्रेष्ठिकथा | चेइअदब्धं साहारणं च जा दुहइ समाहियमईओ । धम्मं च सो न याणइ, अहवा बद्धाउओ नरए ||१|| भक्s जो उवक्खेड़, जिणदव्वं तु सावओ । पुण्णहीणो भवे सो उ, लिप्पए पावकम्मेण || २ ||
अत्र सागरकथा-
साकेतपुरे सागरश्रेष्ठी परमार्हतः स च देवद्रव्यचिन्तां करोति । उक्तं च श्राद्धैः चैत्यकर्मकृतां यथायोग्यं कृतानुसाराद् धनं देयं स तु सूत्रधाराणां रोक्यद्रव्यं न दत्ते, किन्तु स्वगृहसम्बन्धि गुडघृतादिमहार्घाणीति प्रोक्त्वा (च्य) दत्ते । एवं कुर्वता तेन एका काकिनी भक्षिता, ततस्तेन पापमर्जितं बहु । तत्पापमनालोच्य मृतो जलमानुषोऽभूत् ततो मृतस्तृतीयश्वभ्रं ययौ । उक्तं च
30
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देवद्रव्येण या वृद्धि गुरुद्रव्येण यद्धनम् । तद्धनं कुलनाशाय, मृतोऽपि नरकं व्रजेत् ||३||
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प्रथमोऽधिकारः
[७३ श्वभ्रानिर्गतः स मत्स्योऽभूत्ततश्चतुर्थ्यां मुवि एकादिभवान्तरे सप्तसु श्वभ्रेषु बभ्राम ।
यदाह
भक्खणे देवदव्बस्स, परस्थिगमणेण य ।
सत्तमं नरकं जंति, सत्तवाराउ गोयमा ॥४॥ ततः एका काकिनी देवद्रव्यभक्षणात् सहस्रवारान् ग शूकरोऽभूत् । एवं १००० शशक- 5 शगाल-मार्जार-मषक-वृषभ-करभ-वेसर-तरङ्ग-गजादिषु समुत्पद्य समुत्पद्य सक्षमितान् भवान पूरयामास । एवं पृथ्व्यादिषु लक्ष-भवान् बभ्राम, सर्वत्र कुशस्त्रेण क्वचिदग्निना मृतः । ततः क्रमात् झीणकर्मा वसन्तपुरे दत्तभवसुमत्त्योः पुत्रो जातः । तस्मिन् गर्भस्थे धनं नष्टं, जन्मदिने जनको मृतः, पञ्चमेऽन्दे माताऽपि विपेदे लौनिःपुण्यक इति नाम ददे, रङ्कवृत्या जिजीव ।
10 अन्यदा स्नेहलमातुलेन दृष्टः, आनीतश्च स्वगृहे । रात्रौ मातुलगृहं चौरैर्मुषितमेवं यस्य वेश्मनि एकमपि दिनं तिष्ठति तद्गृहं चौराग्निप्रभृतिविघ्नेन भस्मीभवति । ततः "कपोतपोतोऽयं ज्वलती गडरिका च मूर्तिमानुत्पातो वा" इत्यादि लोकनिन्दयोद्विग्नमना गतो देशान्तरं ताम्रलिप्तों पुरीं गतः स्थितश्च विनयंधरेभ्यगृहे भृत्यवृत्त्या ज्वलितं च तहिने एव तद्गृहं निष्कासितश्च । ततः स्वं कम निन्दन स्थाने स्थाने बभ्राम, यतः-- 15
कम्मं कुणति सवसा, तस्सुदयंमि अपरव्वसा हुँति । भरहं रुहइ सवसो, निवडेइ परचसो तत्तो ॥५॥ गन्तव्यं नगरशतं, विज्ञानशतानि शिक्षितव्यानि ।
नरपतिशतं च सेव्यं, स्थानान्तरितानि भाग्यानि ॥६॥ एवं ध्यात्वा वाहनचटितो भृत्यभावेन धनावहसायात्रिकेण साकं परद्वीपं गतः । दध्मौ च " तत्र-अहो ! उद्घटितं मम भाग्यं यन्मयाऽऽरूढेन यानं न भग्नम्, अथवा विधेविस्मृतं धनावहो यानं वस्तुभिर्भूत्वा चलितः मार्गे यान भग्नं । निःपुण्यकस्य फलकं हस्ते चटितं तीरं प्राप्तः । अब्धितीरस्थग्रामेशस्य सेवां करोति । धाट्याऽन्यदा निपातितो प्रामठक्कुरः तत्पुत्रबुद्धया निःपुण्यको बद्ध्वा नीतस्तैः पल्ल्यां, तस्मिन्दिने पल्ल्यप्यन्यपल्लीशेन भग्ना, ततस्तै-श्चौरैरपि नि:पुण्यक इति कृत्वा निकाशितः, एवमेकोनसहस्रवारान् स्थाने स्थाने 25 दुःखं प्राप ।
अन्यदा स यक्षप्रासादे गतः स एकाग्रमना यक्षमारराध । २१ उपवासयक्षस्तुष्टोऽवगसन्ध्यायां मम पुरः स्वर्णचन्द्रकयुतो मयूरो नृत्यं करिष्यति तस्य स्वर्गमयं पिच्छं दिनं दिनं प्रति ग्राह्यं ततस्तेन स्वणमयानि बहूनि पिच्छानि गृहीतानि । एकदा ध्यातं, सदा क एकैकं पिच्छं गृह्णाति । मयूरमेव गृहामि एवं ध्यावा यावन्मयूरं गृह्णाति तावन्मयूरोऽन्यमयूरतुल्यो 30 भूत्वा काको भूत्वा च नष्टः, गृहस्थानि पिच्छानि गतानि ।
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१४ ]
प्रबन्धपती
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ततो गुरुपाश्र्वे देवद्रव्यभक्षणसम्बन्धं श्रुत्वा तपस्तप्त्वा दीक्षाग्रहणात्सर्वकर्मणः क्षय कृत्वा मुक्ति ययौ । इति कुत्सितकर्मविषये सागरश्रेष्ठिकथा ॥११॥
[112] अथ ७२ देवकुलिकासु ध्वजा दत्ता। एकदा तेजःपालमन्त्री भृगुपुरे ययौ । तदा शकुनिकाविहारे आम्बडमन्त्रिकृतोद्धारे स्नात्रं कुर्वाण इदं काव्यमशृणोत्तेजःपालकृपालु धर्मविमलप्राग्वाटवंशध्वज
श्रीमानाम्बडकीतिरद्य वदति त्वत्संमुखं मन्मुखात् । आजन्मावधि वंशयष्टिकलिता भ्रान्ताहमेकाकिनी,
बद्धा सम्प्रतिपुण्यपुञ्जभवतः सौवणेदण्डस्पृहाः ॥१॥ इति श्रुत्वा मन्त्री आम्बडदेवविहारे सप्ततिशतदेवकुलिकाः सुवर्णदण्डयुतान् कलशान तदैव व्यधात् । भृगुकच्छस्थाम्घडविहारे (इति) आम्बडप्रासादे तेजःपालो मन्त्री ध्वजं ददौइति भृगुपुरे शकुनिकाविहारे तेजःपालमन्त्रिणा ७२ देवकुलिकासु ध्वजा दत्ता ॥११२।।
[ 113] अथ अन्नदानः पयः सम्बन्धः।। कश्चिदूराद् भट्ट आगात् वस्तुपालमन्त्रिणं याचितुं, तदा मन्त्री जगौ-'उपविश्यताम् । भट्टोऽवग-अन्नदानः पयःपान-धर्मस्थानश्च भूतलम् ।
यशसा वस्तुपालेन, रुद्धमाकाशमण्डलम् ॥१॥ सप्तवारकथनेन सप्त लक्षद्रव्यं दापितं मन्त्रिणा । अन्नदानैः पयःपानैरितिसं०७ लमदानम् ।
इति अन्नदानः पयः सम्बन्धः ॥११३॥
[114 ] अथ औदायें वस्तुपालसम्बन्धः । स्नेहः साधुजनेन भोजनविधौ वासः कुटीकोटरे,
देहस्यावरणे न पुण्यमधिकं, नेत्रे न कोशोच्चयः । अर्थः सूत्रितनव्यकाव्यनिकरे ग्रन्थो [न्थे] न मन्त्रीश्वर
__ स्यावृत्तिः पठनेन जीवनविधौ प्रायः कवीनां कलौ ॥१॥ अस्य कर्तुः ३ लक्षदानम् । इति औदार्ये वस्तुपालसम्बन्धः ॥११४॥
[115] अथ वनकपुष्पोत्कृष्टतासम्बन्धः । एकदा गुरोः पावें श्राद्धैः पृष्ट-भगवन् ! सर्वेभ्यः पुष्पेभ्यः किं पुष्पमुत्कृष्टम् ? गुरुभिरुक्तं वनकपुष्पमुत्कृष्टम् । श्राद्धरुक्तम् एवं किं प्रोच्यते ? गुरुभिः प्रोक्तं-वनकतरोः पुष्पात्कर्पासो भवति, कर्पासाद्रूतं, रूतात्सूत्रं, सूत्राद्वयं वस्त्रं भवति । वस्त्रेण जिनप्रासादे ध्वजा दीयन्ते,
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प्रथमोऽधिकारः
[७५
चक्रिणो महान्तो राजानो गुरवश्च परिदधति । ततः वस्त्रमतो वनक-पुष्पमुत्कृष्टम् ।
इति वनकपुष्पोत्कृष्टतासम्बन्धः ॥११५।।
[116 ] अथ शिवप्राप्तिसम्बन्धः ।। गुरुभिरुपदेशो दत्तः-घटशब्देन देहः कुम्भश्च प्रोच्यते । तद्यथा कुम्भकारगृहकुम्भाः सामान्य मध्यमोत्कृष्टपुरुषैगृहीताः एके मद्येन भृताः, एके जलेन भृता, एके कपुरादिवर्यपानीयभृताः। 5 ततश्चाधममध्यमोत्कृष्टवस्तुभिर्धियन्ते । तथा देहघटाः पाप-पापापाप-पुण्यैर्धियन्ते । एवं ये पुण्येन देहं भरन्ति ते मुक्तिगामिनः । ये पापापापेभरन्ति देहं ते कदाचित्सुखिनः कदाचिद्दुःखिनः । ये पापैभैरन्ति देहघटं ते चिरं श्वभ्रादिदुःखं लभन्ते । कुम्भा अपि एवं ज्ञेयाः । इति देहघटार्जनयाप-पापापाप-पुण्य-श्वभ्रगति-दुःखादुःखशिवप्राप्तिसम्बन्धः ॥११६॥ [117 ] अथ बुद्धौ चाणिक्यसम्बन्धः ।
10 नन्दभूपस्य चाणिक्यो मन्त्री बभूव । स्तोक कोशं वीक्ष्य राजा खिन्नोऽभूत् । तदा राजमनो ज्ञात्वा चाणिक्थेन महेभ्या याचिताः प्रोचुः अस्माकं धनमर्पणयोग्यं नास्ति । ततश्चाणिक्थेन सर्वे महेभ्या भोजनाय निमन्त्रिताः वराहारं भोजिताः, ततो मदिराः पायिता: पत्रादि दत्त्वा चित्रशालायां शायिताः, परिणतायां मदिरायां एको धनोऽवग्-मम गृहे सप्तकोट्यो हेम्नां सन्ति । अन्योऽवग-तव गृहे स्तोका मम गृहे एकादश कोट्यः । एके त्रिंशत्, एके चत्वा- 15 रिंशत्, एके षट्पञ्चाशत् इत्यादि जजल्पुः । एकः प्राहाहं स्वर्णन गङ्गाप्रवाहं बध्नामि । एकः प्राह-मम गृहे सत्कगवां दुग्धेन गङ्गाप्रवाहं स्खलयामि । एकः मम गृहस्थधृततैलादिभिः गङ्गाप्रवाहं स्खलयामि, एकोऽवग्-धान्यमूढ कानां कोटिरस्ति, इत्यादि स्त्रस्वधनसंख्याकारिता इभ्याश्चाणिक्येन साक्षिणश्च कृताः, ततस्तेभ्यो धनं लात्वा राज्ञः कोशः कृतः ।
इति बुद्धौ चाणिक्यसम्बन्धः ॥११७॥
[118 ] अथ दुष्करतपस उपरि सूरिकथा । श्रीपुरे धनेश्वरसूरयश्चतुर्मासी स्थिताः । गुरुरुपवासं कत्तुं न शक्नोति । अन्यदा पर्युष. णापर्व समायातं । साधवोऽन्येऽपि श्राद्धा अपि षष्टाष्टमादितपः कुर्वाणा अभूवन् । तदा सूरिर्दथ्यौ-मयोपवासः कत्तुं न शक्यते तथापि अद्योपवासं करोम्येव ध्यात्वेति सूरिः प्रथमं पौरुषों चकार । ततः साद्ध पौरुषों ततः पुरिमार्द्ध तत अपार्द्धमत्रान्तरे साववो जगुर्भगवन् ! वयमत्रमा- 25 नयामः, पार्यतां वारा[?] क्रियता । गुरुभिरुक्तम्-अद्योपवास एव, ततः सन्ध्यायां प्रतिक्रान्तिः कृता । संस्तारकविधि भणित्वा गुरुणा संस्तारितं, तदा बुमुझया गुरूगां निद्रा नायाति, मध्यरात्री, सूरिः प्राह-भो साधव ! उत्सूरं जायमानमस्ति अन्नमानीयतां । साधवो जगुः--अद्यापि (अधुना) रात्रिविद्यते, सूर्य उद्गगतो नास्ति, शङ्खवादकेन शङ्खोऽपि वादितो न (नास्ति ), कूकुंटा अपि न शब्दिताः सन्ति, मध्यरात्रिर्विद्यते अतोऽधुना विहर्तुं गन्तुं न शक्यते, लोका अपि 30 सुप्ताः सन्ति । - सूरिः प्राह-शङ्खोऽम्भोधेः पितु (अम्भोधिं पितरं) मिलितुं गतः, सूर्यस्य तु रथो भग्नः, कूर्कटा अप्यन्यत्र गताः नभसि गता, यतः
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७६ ॥
प्रवन्धपश्चन्नती
उयहिंसरेविण संख गय, कुक्कड गया नहंसि ।
रह भग्गो सूरहत्तणओ, तेण न विहाइ रत्ति ॥१॥ आकण्र्येति साधवो जगुः-यत्प्रभुणा प्रोच्यते तत्सत्यमेव, परं बुभुक्षालग्नो किं न करोति ।
यतः-पञ्च नश्यन्ति पाक्षि, क्षुधार्तस्य न संशयः।
तेजो लज्जा मतिर्ज्ञानं, मदनश्चापि पञ्चमः ॥२॥ एतत् श्रुत्वा सूरिः प्राह
मया बुभुक्षया जल्पितं मिथ्यादुष्कृतमस्तु । ततः सूरिहृदयं दृढं कृत्वा प्रभातं नीतवान् ततः पौरुषी यावस्थितः । ततः पारितं प्रत्याख्यानं सूरिर्बुभुजे । तदा सूरिणा तपसा तेन
मुक्तिगमनयोग्यं पुण्यमर्जितं, ततः सदा स्तोकं स्तोकं तपो वर्धयन् सूरिरेकान्तरमुपवासान कुर्वन् 10 केवलज्ञान प्राप मुक्ति गतः । एवं दुष्करतपस उपरि सूरिकथा ॥११८ ॥
[119] अथ धर्मकर्तव्ये वत्सदृष्टांतः।। श्रीपुरे श्रीदष्ठिगृहे पुत्रस्य विवाहे जायमाने वत्सस्य चारि विश्राणयितुं विस्मृता । ततो मध्याह्नातिक्रान्ते पक्वान्नादिषु दृष्टी (ष्टि) अददानश्चारिं प्रति दृष्टी (ष्टि) ददानो
रुदितुं लग्नो वत्सः ततस्तं रुदन्तं दृष्ट्वा स्नुषया दयया चारिर्विश्राणिता तस्मै स च वत्सवारि 15 चरन् सुखी जातः । एवं जीवोऽनिशमधर्मे दृष्टिमददानी धर्मे दृष्टि ददानः सुखी स्याद्वत्सवत् ।
इति धर्मकर्तव्ये वत्सदृष्टान्तः ॥११९॥
[120 ] अथ असारविषये श्रीधरश्रेष्ष्ठिकथा ॥ भीमपुरे श्रीधर श्रेष्ठी धनार्थ व्यवसायं कुर्वन् रात्रिंदिका विश्राम न लाति स्म । धनं मिलितं बहु सप्तति वर्षाणि जातानि, धनं धनं कुर्वन्नधिकं जीवितं वाब्छति स्म । बह्वी नार्यः 20 परिणीतवान् ततस्तृप्तो नाभूत् ।। एकदाहारं पक्वान्नादिकं भक्तं पश्चात्तदेव विष्टा तथा दुर्गन्धं ज्ञात्वा जगौ श्रेष्ठी ।
धनेषु जीवितव्येषु, स्त्रीषु चाहारकर्मसु ।
अतृप्ताः प्राणिनः सर्वे, याता यास्यन्ति यान्ति च ॥१॥ एवं सर्ववस्तुपरिग्रहादिकं चासारं मत्वा सर्व त्यक्त्वा संयम लात्वा स्वर्ग गतः । ततो मुक्तिमपि बहुषु भवेषु यास्यति इति असारविषये श्रीधरवेष्ठिकथा ॥१२०॥
[121] अथ संसारासारतायां धनकथा । श्रीपुरे धनःश्रेष्ठी प्रातरुत्थायोत्थाय ध्यायति स्म । अद्य मम यानं श्रीयुतं समायाति । याने समागते हृष्टो दध्यौ, वस्तु तत् विक्रयितुं रात्रिदिवा विश्राम न लाति, वस्तु विक्रीय
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प्रथमोऽधिकार
[ ७७ वाहनपुरणार्थ वस्तु गृहमपि न विश्रामयति स्म । चलितेऽम्युधौ याने भग्ना चिन्ता चौरचिन्ता समर्थमहार्थचिन्ता, एवं ध्यायन् स दध्यो
बिन्दुनाऽप्यधिका चिन्ता, चिताया इति मे मतिः।
चिता दहति निर्जीवं, चिन्ता जीवन्तमप्यहो ॥१॥ इति ध्यात्वा श्रेष्ठी संसारमसारं मत्त्वा दुःखमयं च धनं धर्मे व्ययित्वा चारित्रं 5 गृहीत्वा स्वर्ग गतः । इवि संसारासारतायां धनकथा ॥ १२१॥
[122] अथ धर्मविषये जीवपालादिकथा । श्रीपुरे श्रीपालभूपपुत्रो धनदेवो राज्यं चकार । स च गुरुवचः श्रुत्वा जिनधर्म चकार ।
___ एकदा राजा धनदेवः पुरोद्याने गतः, तत्र चतुर्हानिनं जोवपालाढू गुरुं दृष्ट्वा प्रणम्य 10 धर्मोपदेशं श्रोतुमुपाविशत्, अत्र धर्मोपदेशो ज्ञेयः ।
अत्रान्तरेऽकस्माद्देवद्वयं दिवः समेत्य गुरोरुभयोः पार्वे चामरे ढालयतः स्म । गुरुणोक्तं-~-साधूनां चामरढालनं न युक्तं । वारितौ देवो न तिष्ठतः स्म । ततो राज्ञा धनदेवेन पृष्टं-भो देवो ! युवाभ्यां कुतः किमर्थमागतं । गुरोरेवं च सेवा किमर्थ क्रियते ।।
चतु:-गुरव एव कथयन्ति । आवयोगुरोरग्रे जल्पनं न युक्तं । ततो राज्ञा पृष्टा गुरवो 15 जगुः
__ अस्मिन्नेव पुरे श्रोदेवपालो राजाऽभूत् , मतिसागरो मन्त्री च । चन्द्रदेवः श्रेष्ठी द्वादशव्रतधारको धर्म करोति स्म । स च श्रेष्ठी कस्यापि न्यासीकृतं वस्तु नापलपति स्म । राजमान्यः ख्यातोऽभूत् ।
एकदा कलापुरवासी रस्नो वणिम् रत्नद्वीपे रत्नदशकमुपाज्य यानारूढस्तत्र पुरे समागात्। 20 ततश्चन्द्रदेवं परद्रव्यपराङ्मुखं ज्ञात्वा रत्नग्रन्थिं न्यासीकृत्य पुनर्धनार्जनाय कुंकणद्वीपे ययौ। तत्राल्पं धनमुपायं पश्चादागतो चन्द्रदेव रत्नः स्वधनं याचते स्म । ___ श्रेष्ठी जगौ-कस्त्वं, केन न्यासीकृतं, कः साक्षो ? रत्नोऽवग् त्वमहं साक्षिणौ, त्वं तु हट्टाभ्रष्टः अन्यत्र मुक्तमन्यत्र विलोकयति । रत्नो जगावहं न भ्रान्तः, भवानेव भ्रान्तः । यदन्यदीयं धनं लात्वाऽपलपसि । ततो रत्नो ग्रथिलो भूत्वा रात्रौ हट्टाने सुप्तो जल्पति, मम 26 रत्नानि चन्द्रदेवोऽपललाप कोऽपि वालयितात्र मन्त्र्यादिर्नास्ति । एवं रात्रौ जल्पन्तं द्वित्रिदिनेषु दृष्ट्वा मतिसागरो मन्त्री पप्रच्छ तं, भो कथय पुरुष ! तव किं गतं, केन धनं हृतं, अथिलोऽभूः कथं ? सोऽवम्-गते धने को प्रथिलो न भवति, यतः--
एकस्यैकं क्षणं दुःखं, मार्यमाणस्य जायते ।' सपुत्रपौत्रस्य पुनर्यावज्जीवं हृते धने ॥१॥
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प्रबन्धपश्चशती
मन्त्री प्राहः केन हृतं धनं १ रत्नोऽवग्-चन्द्रदेवेनावलिप्तं धनं, तेन मे प्रैथिल्यं जातं । मन्त्र्यभाणीत् कीदृशानि रत्नानि, कीदृशी तद्ग्रन्थिः, का तत्र मुद्रा ततस्तेन प्रन्थेरभिधानादि प्रोक्तं मन्त्रिणोऽग्रे ततो मन्त्रिणा रत्नो राज्ञः मेलितः रत्नग्रन्थिगमनादिसर्वं ज्ञापितं राज्ञः ।
1
ततो राजा श्रीपालो दध्यौ -एष श्रेष्ठी चन्द्रदेवः सत्यवादी, परद्रव्यपराङ्मुखः, कथमेवं5 विधं कर्म करोति, तथापि न ज्ञायते मनुष्यस्य मलिनत्वस्वरूपं ढोलस्य घोलत्वं च, तथाप्यस्य धनं बाल्यते । राज्ञोऽन्यदा श्रेष्ठी रन्तुमुपवेशितः, रमता श्रेष्ठिना स्वनामाङ्किता मुद्रा हारिता, राज्ञा तु श्रीपालेन श्रेष्ठिपत्नी मुग्धस्वभावा ज्ञात्वा छन्नं शिक्षयित्वा स्वसेवकः श्रेष्ठिगृहे प्रेषितः । स च तत्र गतः । श्रेष्डिहस्तमुद्रां श्रेष्ठिनामाङ्कितां श्रेष्ठिपल्यै दर्शयित्वा प्राहइf मुद्रां श्रेष्ठी प्रेषयामास । मन्मुखाच्चावग् मुद्रा स्थाप्या त्वया सा ग्रन्थिः रत्न सत्का 10 प्रेष्या । तया पतिभक्तया मुद्रां संथाप्य रत्नग्रन्थिस्तस्य ददे । स च छनं राज्ञः श्रोनालस्य शये ( शय्यायां ) तां मुमोच । राज्ञा तु रममाणेन स्वकोशाद्रत्नग्रन्थीः सप्ततिं ग्रन्थिमेकत्र कृत्वा ग्रे मुमोच । राजाऽवग - रत्नाग्रे तव प्रन्थिमुपलक्ष्य त्वं गृहाण । स च सर्वमभिधानादि प्रोच्यावग - ममायं ग्रन्थिः । ततो राजाऽवग् श्रेष्ठिन्त्रयं रत्नग्रन्थिस्तव गृहादानयितः । त्वं तु सत्यवादी, त्वया कथमवलुतं अस्य ग्रन्थिः परधनहृतेः श्वभ्रपातो भवति । ततश्चन्द्रदेवः 15 श्रेष्ठी जगौ - मया मौर्यादकर्त्तव्यं कृतं त्वमेव मे गुरुः, अतः परं मत्रैवंविधं पापं न कर्तव्यShree शुद्ध जिप्रासादो मया कारयिष्यते । रत्नोऽपि रत्नानि प्राप्य प्रासादं कारितवान्, मिथः प्रीतिभाजो जाताः सर्वे | चंद्रदेवरत्नो मिथो मिध्यादुःकृतं दत्त्वा प्रीतिभाजौ मृत्वा स्वर्गे सुरौ जातौ । राजा तु मृत्वा भोमपुरे भीमपुत्रो जोवपालाह्वोऽभूत् । स च बालो धर्म शृण्वन् प्राप्तवैराग्यः संयमं लात्वा चतुर्थज्ञानं प्राप्य जोवपालो विहरन्नागात् । स चाह 20 पश्चाद्भवपिता तब श्रीपालाह्न । इह तु जीवपालो ज्ञानी चात्र ते प्रतिबोधायागाम् चन्द्रदेवरत्नदेव ज्ञानेन स्वर्गात्पचाद्भवगुरुं ज्ञात्वा मम चामरौ ढालयतश्चामू भक्त्या श्रुत्वेतद्राजा धनदेवः पितरं गुरुं नत्वा सम्यक्त्वमूलं द्वादशत्रतरम्यं धर्मं जयाह । स च राजा अष्टोत्तरशतदेवकुलितायुक्तं जिनप्रासादं कारयित्वा मुख्यस्थाने नाभेयप्रतिमां स्थापयित्वाऽन्यासु देवकुलिकासु त्रयोविंशति जिनप्रतिमा अतिष्ठिपत् समहं । तस्मिन्प्रासादे जीवपालज्ञानिनः प्रतिमां चामरढाल26 नयुक्तौ सुरौ स्थापयामास राजा । धनदेवाऽपि राजा राज्ये स्वपुत्रं न्यस्य चारित्रं लावा चतुर्ज्ञानी जातः, तौ देवौ जिनधर्मिणामुपकारं चक्रतुः तौ देवौ स्वर्गाच्च्युती - केलिपुरे महासेनभूपपुत्रौ चन्द्रः सोमाह्रौ अभूतां । तयोः पूर्वकर्मयोगात् माता मृता । राजाऽन्यां राज्ञों पट्टधरां चक्रे । सा च स्वपुत्रस्य राज्यार्थिनी । तयोः कार्मणं हन्तुं करोति । तयोस्तु पुण्यबलान लगति स्म । पापात्सपत्नीपुत्राः स्वयं मृताः पुण्यप्रभावात्तयोः राज्यं दत्त्वा पिता चारित्रं जयाह | 30 तौ तु न्यायाद्राज्यं पालयतः स्म । करं स्तोकं चक्रतुः । यतः --
अकरे करकर्त्ता च, गोसहस्रवधः स्मृतः ।
प्रवृत्तकरछेदे च गवां कोटिफलं भवेत् ||२||
कमात्तौ स्वपुत्रयो राज्यं दत्त्वा दीक्षां लात्वा स्वर्गं गत्वा क्रमाच्च मनुष्यजन्म प्राप्य मुक्ति गतौ । सोऽपि जीवपालो ज्ञानी क्रमात्कर्मक्षयान्मुक्ति ययौ । धनदेवो भूपोऽपि न्याया
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प्रथमोऽपिकास
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पृथ्वीं पालयन् धर्मध्यानं कुर्वन् त्रिकालजिनाची चक्रे दिन प्रति एक सहस्रं श्राद्धान जेमयामास स राजा । एकलक्षरैमयानि बिम्बानि कारयित्वा तस्मिन्नेष भवे मुक्ति गतो धनदेवः । इति धर्मविषये जीवपालादिकथा ॥१२२ ॥
[123] अथ धर्मे लक्ष्मीचन्द्रकथा--पुत्रीद्वयसम्बन्धः । चन्द्रपुरे लक्ष्मीचन्द्रभूपस्य पुत्रीद्वयं सुन्दरी-श्रीमत्याहू। आद्या पितुः कृतं मन्यते, ततः 5 प्रथमा महादेवभूपाय दत्ता सोत्सवं । स च भूपस्तां परिणीय यावत्वपुरे गतः ।
इतस्तत्र गोत्रिणो' भपालाः समागताः यदं जातं । हारितः सपत्नीकश्छन्ननष्टः । वीरपरे गतः राजा व्यवसायादि किमपि न वेत्ति । पत्नी परगेहे कर्म कृत्वा निर्वाहं चक्रे ।
लध्वी पुत्री श्रीमती नि:स्वाय धीराय दत्ता। सा च तं देवमिवाराधनोति धीरं, स च धीरश्चलन पद्मपुरे गतः । तत्रापौत्रिको राजा मृतः । पञ्चदिव्यस्तस्य राज्यं जातं, न्यायाध्वना 10 राज्यं पपाल सः ।
अन्यदा श्रीमती पतियुक्तामिन्धनभारमानयन्तीं दृष्ट्वा तावत्तत्राकारयामास सा भगिनी लज्जमाना यदा न जजल्प तदा भगिन्योक्तं भगिनि ! कर्मतः कोऽपि छुट्टति, त्वया तु पितुः कृतं मन्यते । तत सा स्वराज्यगमनस्वरूपं प्राह-ततो भगिनीपतये वर्यावासो दत्तो पर्यवस्त्रान्नादि च ।
इतो लक्ष्मीचन्द्रभूपो निःस्वस्य राज्यं जातं श्रुत्वा तत्रागात् । जातं युद्ध, लक्ष्मीचन्द्रं बद्धं पत्या दृष्टा श्रीमती मोचयामासात्मनः स्वरूपं जगाद च तात ! त्वया आत्मकृतं स्थापितं, मया तु कर्मकृतं, यया पुत्र्या सुन्दा तव कृतःप्रसादो मानितः सा राज्यात्ताजितात्रागता सती मया सन्मानिता । अहं च कर्मवशादीहग राज्यभागभवम् । ततो लक्ष्मीचन्द्रः स्वपुरमभ्येत्य सर्व सुखदुःखादि कर्मकृतं मन्यते स्म । यतः--
सुखदुःखानां कर्ता, हर्ता च कस्यचित्कोऽपि नो जन्तोः ।
इति चिन्तय स्वबुद्धथा, पुराकृतं भुज्यते कम ॥१॥ क्रमाद्राज्ञो लक्ष्मीचन्द्रस्य सुन्दराहः पुत्रोऽभूत् । सुन्दरो धर्म श्रुत्वा जीवहिंसानिषेधं चक्रे।
एकदा सुन्दरः पुरादबहिरुद्याने स्थित एक पथिक मार्गे यान्तं पप्रच्छ । कुतः आगतस्त्वं कुत्र यास्यसि ? सोऽवग्-यन्मम जातं तत्कथयितुं न शक्यते । सुन्दरोऽवग-कथय । पान्थः प्राह- 25 नवसारीतोऽहं यानारूढो भीमवणिक्पुत्रः सोमाह्वो वाौं चचाल । क्रमाद्वातेनाहतं गिरौ यानं, भग्नं फलकं चटितं मम हस्ते तेन फलकेनाहं जलधिमध्यस्थशैलं सिंहगिरिं प्रापम् । तत्र फलाहारं करोमि । तत्रासन्नदेशे वादित्राणां धूमधमादः श्रुतः । अकस्माज्जलं दूरे स्थितमेक आवासः सप्तभूमिगृहयुतो दृष्टः । तत्र गवाक्षोपरि एका कन्योभयपाचचामरढालनपरा नारीद्वययुता दृष्टा । ताभ्यां चामरधारिणीभ्यां प्रोक्तं-यदि ते साहसं स्यात्तदाऽत्रागत्येमां कन्यां वर । तत्र 30 थदा यातुमुस्थितोऽहं तदा ज्वाला निर्गता । ततोऽहं भीतः, पश्चास्थितः मुहूर्त्तादनु तद्गृहं
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८. ]
प्रबन्धपशिशती
जलमध्ये गतं । एवं मासद्वयं मया तत्र दृष्टं परं मया साहसं न कृतं । तत्रस्थो भारण्डपक्षावालम्ब्य चम्पकद्वीपोद्याने समागतः स मारण्डस्तत्रास्थात् ततोऽहं यानारुढोऽत्रागां; सोवपुरे यास्यामि । राजपुत्रेणोक्तं-तत्र किमर्थं गम्यते स प्राह-मातापित्रोमिलनार्थ । राजपुत्रः सुन्दरस्तेनोक्तविधिना तत्रागतः तथाऽत्राकस्माद् धुमधुमशब्दः समुद्रमध्यानिर्ययो । ततो महानावासः तस्मिन्गवाक्षे पाथप्रोक्ता कन्या समागता। चामरधारि(णी) भ्यामुक्तं यदि साहसं स्यात्तदात्रागच्छ । सुन्दरो यावत्तत्र यातुमुद्यतोऽभूत्तदा ज्वाला निर्गता। कुमारः साहसं कृत्वा तत्रागतः आवासश्च पातालेऽम्बुधौ गतः । चामरधारिणीभ्यां प्रोक्तं-तव भी स्ति । सुन्दरोऽवग-अहं न बिभेमि कुतोऽपि । कुमारोऽवग-का कन्या ? कस्य पुत्री ? चामरधारिण्ये का प्राह-वैताड्याद्रौ मेघरथोऽथ विद्याभृ
त्पुत्री परिणयनयोग्याऽभूत्तेन नैमित्तिकः पृष्ठः तेनोक्तं-लक्ष्मीचन्द्रस्य पुत्रः सुन्दरकुमारः 10 परिणेष्यति । तस्य च परोनां कृत्वा दातव्या । ततो जलकान्तमयमावासं सगवाक्षं समुदमध्ये
मुक्तं तत्रावाभ्यां युक्ता पुत्रीय मुक्ता आहारादि च परीक्षार्थ पतितोज्ज्वालो वह्निमुक्तः । उक्तं च विद्याभृता-प्रतिदिनं प्रातरावासात् बहिर्निगच्छन्ति स्म। साहसी स्यात्स तत्रागत्य कन्यां परिणेष्यति ।
अत्रान्तरे तत्रंको राक्षसस्तत्रागत्य कन्या वक्त्रे ललौ । कुमारोऽवग-मम देहं गृहाण, अम 15 कन्यां मुश्च । सुरोऽवग-देहि देह स्वं । ततः कुमारो निजमङ्ग ददौ । ततः स प्रकटीभूय प्राइ
तुष्टो वरं वृणु । राक्षसोऽवग-अहं तव साहसं कत्तुमागां । त्वं तु परोक्षायां निश्चलोऽभूः राक्षसेन अमोघकारिणी विद्या दत्ता ।। ___ इतः कन्यापिता तत्रागात् । तां सुन्दराय ददौ । सुन्दरो निजपितुः प्रेषितः । आकाशागामिनी
विद्या दत्ता । ततः सुन्दराय लक्ष्मीदत्तो राज्यं दत्त्वा स्वर्गे गतः । सुन्दरोऽपि चिरं राज्यं 20 कृत्वा स्वर्गे गतः, ततश्च्युतो मुक्तिं गमिष्यति ।।
धर्मे लक्ष्मीचन्द्रकथा-पुत्रीद्वयसम्बन्धः ॥१२३॥
[124] अथ संसारासारतायां वरदत्तश्येनिकाकथा । कौशाम्ब्यां महीपालो भूपो महोदयगुरुपावें धर्म श्रोतुमुपविष्टः, धर्म कथयता गुरुणा यदा हसितं, तदा प्रोवाच-भगवन् ! भवता कथं हसितं, हास्यं तु साधूनां न युक्तं, गुरुर्ज्ञानी 26 प्राह--लोकबोधाय । राजा पप्रच्छ-कथं लोकबोधः सर्मालकायाश्च । गुरुराह-भरतखण्डे-श्रीपुरे
धन्यः श्रेष्ठी, तस्य सुन्दरी भार्याऽभूत् , सा चान्यपुरुषासक्ताऽभूत् , स चोपपतिश्चन्द्रोऽवगसुन्दरि ! अद्यप्रभृति त्वया मम पार्वे नागन्तव्यं, अहं त्वत्कान्ताद् भूपाच्च बिभेमि । सुन्दरी प्राह-भीन कार्या, तथा करिष्येऽहं यथाऽऽवयो न भविष्यति, भर्तृहननात् ।
अन्यदा तया दुग्धमध्ये विषं क्षिप्त्वा हन्तुं भत्तुर्वाञ्छति । भर्ती जेमनायोपविष्टः । सा 30 चान्नं परिवेष्य दुग्धानयनाय गृहमध्ये गता, तावदाहिना दष्टा, भर्ना औषधानि कृतानि गुणो
न जातः, भार्या मृता, धन्यो रोदितुं लग्नः । लोकैरुक्तं पन्यां मृतायां कातर एव रौति, न साहसी । ततः स स्थितः । सा च मृता शार्दूलोऽभूत् । धन्यस्तु संयमं गृहीत्वा तपस्तेपे नितरां कायोत्सर्गे स्थितो वने प्राग्भववैराव व्याघ्रस्तं जघान । ऋषिरच्युते स्वर्गे जगाम । व्याघ्रस्तु तुर्ये
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10
प्रथमोऽधिकार
[८१ श्वभ्रे, ततः स्वर्गाद् धन्यजीवः चम्पायर्या इत्तेभ्यपुत्रो वरवत्ताहोऽभूत्, स च पपाठ विद्याः । वैराग्याद् बाल्यादपि सम्यक्त्वं ललो, दानी विवेकी । सुन्दरीजीवः श्वभ्रानिर्गत्य भवं भ्रमन् वरदत्तगृहे कामुकादासीपुत्रोऽभूत् वश्चनशीला "दासीपुत्रेति" नामाऽभूत् , स च वरदत्तं शत्रुमिव पश्यति प्राग्भववैरात्, पितरि मृते वरदत्तः गृहस्वामी अभूत् स च दासीपुत्रं सोदर. मिव मन्यते स्म । (दासीपुत्रो) वरदत्तरञ्जनाय मनो विना धर्म करोति स्म तं धर्मिष्ठं 5 ज्ञात्वा वरदत्तो जगौ-ममायं भ्राता लोकेऽपि भ्रातृत्वेन प्रसिद्धिरभूत् स च क्रमादासीपुत्रो वरदत्तं हत्वा गृहस्वामी स्थातुं वाञ्छति, मायया स्वं भक्तं झापयति ।
एकदा शयनावसरे विषलितानि नागवल्लीदलानि वरदत्ताय ददौ । वरदत्तस्तु चतुर्विधाहारप्रत्याख्यानं कृतं स्मृत्वा उच्छीर्षे मुक्त्वा सुप्तः, वरदत्तः प्रातर्नमस्कारपर उत्थाय देवगृहे देवान्नन्तुं ययौ।
इतो वरदत्तपत्न्या हस्ते चटितानि पत्राणि तया तु आवासाने भाजने मुक्तानि, तानि दासीपुत्रो लात्वा भुक्तवान् , मूञ्छितो भूमौ पपात, वरदत्तेनोपचाराः कारिताः, क्रमान्मृतः, स च वरदत्तो भ्रातृमृते दुखी बभूव न सुखं शेते मुक्क्ते । लोकैः शोक उत्तारितः, क्रमादुत्पन्नवैराग्यः वरदत्तो दीक्षां लात्वा विनयतपःपरः प्राप्तचतुर्थज्ञानः महोदयमुनिरिति नाम दधानोऽत्रागा भब्यवोधाय, स च दासीपुत्र एषा वृक्षस्था श्येनिका पश्चाद्भवपत्नी मे अतोऽस्या 15 दशनान्मम हास्यमागतं, तदा सा समलिका प्राग्भवान्स्मृत्वा वृक्षादुत्तीय गुरुपादयोः पतित्वा क्षमितवती स्वभाषया । गुरुणोक्तं-प्राग्भवमायाँ दृष्ट्वा हसितं, श्येनिकाऽनशनं लात्वा स्वर्ग जगाम। राजादयो बहवो लोका जिनधर्म प्रपेदिरे, क्रोधं तत्यजुश्च ततो निजं धर्म सप्तसु क्षेत्रेषु व्ययित्वा चारित्रं गृहीत्वा महोदयमुनिना समं विहारं करोति स्म । राजर्षेरपि चतुर्थ शानमुत्पन्नं, महोदयमूपर्षी क्रमात्स्वर्ग गतौ मुक्तिं यास्यतः ।
20 इति संसारासारतायां वरदत्त-श्येनिकाकथा ॥१२४॥
[126] अथ जिनपूजा-जीवदयायां तापस-जिनदासी-कुणालकथा । - रोहीतकपुरे रोहोतकस्तापसस्तपति स्म, सर्वथा कृपाधर्म न वेत्ति, क्रमात्तस्य तेजोलेश्याऽभूत् तपसा ।
एकदा तरुतळे तस्थौ, तदा मशाखोपविष्टा बलाका तस्य शीर्षस्योपरि व्युत्सर्जनं चक्रे, तदा रुष्टेन तेजोलेश्यया तां भस्मसाच्चक्रे ।
____25 ___अन्यदा स तापसो भिक्षायै भ्रमन् जिनवासगृहेऽगमत् , तदा तस्य पत्नी जिनदासी कृपावती प्रभोः पूजां कुर्वाणा चिरं भिक्षा दातुं समागता, यावत्तावत्स रुष्टस्तेजोलेश्यया तो भस्मीक मुखाद् धूमं वमनभूत् । तया तेजोलेश्या मुश्मानं तं ज्ञात्वा ज्ञानेनोक्तं-भद्र तापस! नाहंसा बलाकाऽस्मि । एतत् श्रुत्वा स चकितोऽवग-कथं भो भद्रे! मया हता बलाका देसि ? जिनवासी प्राह-वाराणसी गच्छ, तत्र कुणालः अन्तेवासी कथयिष्यति । 90 ततो विशेषाद्विस्मितो वाराणस्यां गतः । यावत्कुणालस्यान्तेवासिनो दृष्टो पतितस्तापसः तावत्कुजालेन प्रोक्तं-भो भद्र ! जिनदास्या अत्र प्रेपितः संशयच्छिदे, पुनर्विशेषाद्विरमतोऽसावपि
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८२॥
प्रबन्धपञ्चशती
15
चाण्डालः कथमेतज्जानाति १ ततस्तं पप्रच्छ तापसः भो भद्र! सा जिनदासी त्वं च मच्चेष्टितं कथं वेत्थ ? तस्याश्च प्रभाः पूजा कुर्वतो जीवदयां पालयतोरवधिज्ञानं जातमस्ति तेन ज्ञायते । त्वं तु कुरुषे तपो जीवदयारहितं तेनानया तेजोलेश्यया नरके गमिष्यसि । ततः पश्चात्तापं धरन्
तापसः प्राह-सा बलाका मृत्वा कुत्रोत्पन्नास्ति यत्तस्यां क्षमयिष्यामि । कुणालोऽवग-सा बलाका 5 प्रमदवने शुको जाताऽभूत् तया मुनिवचः श्रुत्वा जिनालये कणिशैः प्रभोः पूजा कृता तेन
पुण्येन पद्मपुरे धनस्यभ्यस्य पत्नी धनवत्याही जाताऽस्ति साम्प्रतमेतत् श्रुत्वा तत्र गत्वा तस्याः पादयोः पतित्वा तापसः प्राह-क्षमस्व पुण्यवति ? मयि कृपां कृत्वा, साऽवग-क्व मम त्वया सहापराधोऽभूत् ? तापसोऽवग-मया तव बलाकाभवे त्वं मया हता। साऽवग-एतत् त्वया कथं
ज्ञातं ? सोऽवग्-जिनदासी-कुणालमातङ्गमुखात् ! ततस्तस्या अपि जातिग्मृतिरभूत् तापसस्यापि 10 च ततस्ताभ्यां मिथः क्षभितं । ततस्तापसो जैनी दीक्षा लात्वोमं तपः कृत्वा सिद्धः। जिनदासीकुणालौ सिद्धौ, बलाकाजीवः धनवती धर्म कृत्वा स्वर्ग गता ! इति जिनपूजा-जीवदयायां तापस-जिनदासी-कुणालकथा ॥१२५॥
[126 ] अथ कूटजन्पने कथा । मानाद्वा क्रोधाद्वा, लोभावा यदि वा भयात् ।
योऽन्यायमन्यथा ब्रूते, स याति नरकं नरः॥१॥ तथाहि-बने तित्तिरश्चुण्यर्थ गतो यदा, तदा तित्तिरस्याश्रये शशकः समेत्य स्थितः । तित्तिर आगत्याबग-- ममायमाश्रय, कथं त्वमत्र स्थितः ? शशकोऽवग-मदीयोऽयं । मिथो विवादे जाते एकः पुमान् प्राह-गङ्गातटे गच्छेतां, तत्र केदारकङ्कणौ दधानो हस्तयोधर्ममृत्तिआजारोऽस्ति स भवतोर्विवादं स्फेटयिष्यति । ततस्तत्र गतौ स्वं स्वं सम्बन्धं जजल्पतुः ।
तेनोक्तम्-अग्रे तिष्ठता युवाम् विवादो भक्ष्यते । ततो यदा तौ अप्रतस्तस्थतुः तदा द्वावपि 20 कूटजल्पको । इति प्रोच्य क्षुधातुरो मार्जारः केदारकङ्कमभृत् एकेनाहिणा तित्तिरं, द्वितीयेन शशकं हत्वा तृप्तोऽभूत् , ततो मृत्वा नरके गतः मार्जारः ।
इति कूटजल्पने कथा ॥ १२६॥
[127 ] अथ जीवदयायां चारुदत्तकथा । चम्पायां भानुश्रेष्ठिसुमद्रयोः पुत्रश्चारुदत्तः शास्त्राण्यपाठीत् । अन्येयुर्वने वैताठ्यवासिनं 25 खगममितवेगाहूं चारुदत्तो ददर्श । ततोऽप्रतो यावद् गत्वा विलोकयति तावत्कीलितं तं खगं
दृष्ट्वा दध्यौ, तदा तदसिकोशमध्ये विशल्यामौषधीमद्राक्षीत् । ततस्तदौषधं घर्षयित्वा यावन्निगड़े दत्तं तावत्स मुत्कलोऽभूत् , प्राह च--अहं वैरिणा खगेन कीलितो, मोचितः ततोऽहमपि तवोपकारं करिष्ये । एवं प्रोच्य स विद्याभृत् स्वस्थानके गतः । ततश्चारुदत्तः परिणीतः
क्रमात्कन्याया मुखमपि न वीक्षते । गणिकागृहे मातृपितृभ्यां तत्कलाः शिक्षितुं मुक्तः । मात्रा धनं 80 प्रेषितं द्वादशवर्षाणि तत्रास्थाव । स क्रमाद्धनागमात् वेश्यया कर्षितो यावद्गृहे गतस्तावद्
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प्रथमोऽधिकारः
[८३
गहं पतितं रष्ट्रा मावृपित्रोः स्वर्गगमनं च पल्याः पितगृहे गर्मने (नं) च ज्ञात्वा चारुदत्तो दुःख्वभूत् । ततः श्वशुरगृहे गतः। ततः श्वशुरधनं लात्वा भीमपुरे व्यवसायार्थ गतः । तत्र धाच्या हृतं धनं । ततस्ततो निर्गतो मार्गे स एकं योगिनं ददर्श । योगी जगौ मम सार्थे आगच्छ, मम कथितं कुरु तदा तव दारिद्रयं स्फेटयामि । ततस्तेन सहाचालीत् । तेन योगिना मश्चिकारूढो रसकूपिकायां मुक्तः, रसेन कुम्भो भृतः । क्रमात्स्वर्णरसकुम्भं स्वहस्ते 5 नीत्वाऽधो मुक्तः । योगी तं रसकुम्भं लात्वा नष्टः । ततो दिनत्रयनु धितो गोधापुच्छयोगेन कष्टात्ततो निर्ययो । ततो मार्गे गजो मिलितस्ततोऽपि नष्टः । अग्रे गच्छतस्तस्य मातुलपुत्रो सददत्तो मिलितः। द्वावपि चलितो. मार्गे रुद्रदत्तोऽवग--मेषद्वयं गृह्यते. स्वर्णद्वीपे गम्यते. ततः स्वर्णमानेष्यते । ततो मेषद्वयं गृहीतं समुद्रतटे गतौ । रुद्रदत्तः प्राह-मेषाविमौ हत्वाऽनयोर्भस्त्रिकामध्ये गृहीतक्षरिकाभ्यां प्रविश्यते । ततो भारण्डा मांसबुद्धयोत्पाट्य हेमद्वीपे नयन्ति। 10 तत्रस्थं हेममानेष्यते । चारुदत्तोऽवग-जीववधः पापहेतुः कथं क्रियते ? ततो रुद्रेण एको मेषो हतः । ततो यावद्वितीयं हन्ति तावच्चारुदत्तेन नमस्कारं श्रावितो मेषोऽनशनं ग्राहितश्च ततः सोऽपि रुद्रेण हतः । ततो द्वावपि तयोर्भस्त्रिकयोः प्रविष्टौ। भारण्डाभ्यामुत्पाटिते भस्त्रिके मार्गे चारुदत्तभस्त्रिका भारण्डमुखात्पपात सरसि । ततो निर्गतः स स्थाने स्थाने भ्रमन् ध्यानलीनं साधं भक्त्याऽनंशीत् । तं दृष्ट्रा साधुना धमलामो ददे, धर्मः प्रोक्तश्च । चारुव ऽवग-स्वया कथं चारित्रं गृहीतं ? साधुः प्राह-येन त्वया यः खगः कीलितो मोचितः सोऽहममितगति (वेग) विद्याभृत् इत्यादि, यावद्वार्ता कुरुतो द्वौ तावद्विमानारूढौ साधुसुतौ खगौ पितुर्नन्तुं तत्रागतो।
इतश्चैको देषोऽभ्येत्य चारुदत्तं नत्वा साधु ववन्दे । विद्याभृद्भ्यो पृष्टं भो देव ! त्वं त बिबधः. साधं मक्त्वा पर्व गृहस्थः कथं बन्दितस्त्वया। ततो देवोऽवग-मयका गहः प्रथमं 20 वन्दितः । ताभ्यामुक्तं तेऽसौ गुरुः कथं १ देवोऽवग-वाराणस्या सुलसा-सुमद्रातापस्यौ विद्याबलगर्विते वसतः स्म ।
अथ तत्र याज्ञवल्क्यः परिवाद समागात् , तेन सुलसा जिता दासीकृता, क्रमात्तयोः पुत्रोऽभूत् । लोकापवादभिया पिष्पलवृक्षस्याधो मुक्त्वा देशान्तरे गतौ । सुभद्रया प्रातस्तां स्वसखीमदृष्टा पिष्पलवृक्षाधामुखपतितपिष्पलफलं बालं दृष्ट्वा दध्यो-मम सल्या पुत्रो जनितो 25 लोकापवादभिया त्यक्तः ।
ततो लोकाने जगौ-मम गङ्गया बालको दत्तः, इति वदन्ती तं बालकं बर्द्धयामास सा सुभद्रा । विद्या प्राहितः । स चानेकान् विद्याविदो वादेनाजैषोत् ।
अन्यदा पिप्पलादं वादिनं श्रुत्वा याज्ञवलक्यः सुलसायुतः तत्रागाद । वाराणस्यां पिष्पलादेन याज्ञवलक्यो जितो दासः कृतः । तदा सुभद्रापार्श्वे स्वं पुत्रं सुलसा शास्वा पिप्पलादं 30 प्रत्यवम् भो पुत्र ! स्वपितुरवज्ञां मा कुरु । ततस्तया तस्य व्यतिकरः प्रोक्तः ।
ततोऽन्यदा पिष्पलादो दध्यौ-अग्नौ हुतं सर्व स्वर्गे याति, मम मातापितरौ स्वर्ग नेष्ये, ततोऽश्वमेध-पितृमेधमातृमेधमुखान् यागान् कृत्वा मातापितरौजुहोति स्माग्नौ सः । तं तथाविधं शास्त्राणि बहून् द्विजान पाठयामास । तथाविधपापशाखं प्ररूप्य श्वभ्रं पञ्चमं गतः पिप्पलादः । ततो निर्गतो
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८४.]
प्रबन्धपश्चशती भनेषु पञ्चसु छागो जातः । यज्ञेषु हुतोऽग्नौ' षष्ठभवे चारुदत्तेनानेनामशन प्राहितो नमस्कार श्रावितश्छागः । तन्महिम्ना मृत्वा छागः स्वर्ग गतः । स चाहं देवो झानेन स्वगुरुं चारुदत्तं मत्वाऽत्रागां । तेन गुरुत्वात्पूर्व चारुदत्तो वन्दितः पश्चात्साधुः । एवं श्रुत्वा चारुदत्तोऽपि दीक्षा
जग्राह । ताभ्यां खगाभ्यामपि धर्मः प्रपेदे जैनः, ततश्चारुदत्तः स साधुः स्वगं गतौ क्रमान्मुक्ति 5 गमिष्यतः । सुलसा-याज्ञवलक्यौ संसारं बहु भ्रमतुः पापात् ॥
इति जीवदयायां चारुदत्तकथा ॥ १२७ ॥
[128 ] अथ शकुनविषये आसधीरश्रीमालिककथा । माहडकग्रामे चन्द्रश्रेष्ठी धनी तस्य पञ्च पुत्राश्चत्वारो विस्तरेण परिणायिताः । पञ्चम पुत्रं देवलाह परिणयनयोग्यं श्रुत्वा चन्द्रपुरात् धनो महेभ्यो विवाह मेलितुं (मेलयितुं) स्वपुत्र्याचम्पावत्था तत्र समागात् । यावच्चन्द्रः श्रेष्ठी पुत्रस्य विवाहं मेलयति तावत्पुत्रः प्राह-अहं व्रतं ग्रहीष्यामि । एवं श्रुत्वा धनः खिन्नो यावत्पश्चाचलति तावदेवेनोक्तम्-अस्य गृहे श्रीमालझातीयः आसधीरकर्मकरोऽस्ति, स च कल्हरों कृत्वा शिखरं ददानोऽस्ति, सांप्रतं तस्मै स्वपुत्री देया, तस्मै कि दीयते ? यदा श्रेष्ठो तस्य संमुखं विलोकयति वावदन्येनोक्तं-कल्हरी
निष्पन्ना असो शिखरं ददानोऽस्ति । सा च कल्हरी शिखरयुता चिरं नन्दिष्यति । एवं श्रुत्वा 15 धनेभ्यस्तस्य विवाहं मेलयित्वा गृहे आगतः यदा तदा पत्नी रुष्टा, पुत्रा रुष्टाः प्रोचुरेवं
किं कृतं, कर्मकराय पुत्री दत्ता । धनोऽवग-शकुनान् वर्यान् श्रुत्वा दत्ता पुत्री, लतः सर्वेषु स्वजनेषु रुष्टेष्वपि तस्मै वा पुत्रीं ददौ । क्रमात्सप्तकोटिहेमस्वामी बभूव । तेनानेका प्रासादाः कास्तिाः, शत्रुजयादिषु यात्राः कृताः, सप्तक्षेत्र्यां स्वं धनं बहु व्ययितम् ॥
इति शकुनविषये आसधीरश्रीमालिककथा ॥ १२८ ।। 20
[129 ] अथ जीवदयायां स्तेनद्वयकथा । कर्णपुरे धर्मराजा राज्यं करोति स्म । एकदा कस्यचिदिभ्यस्य गृहे चौरद्वयं प्रविष्टं सन् धृतं । राज्ञोक्तं-भो चौरौ ! स्तैन्यं न क्रियते । परत्र दुःखप्राप्ते रिहापि शूलादिदुःखप्राप्तेः । लोकैरुक्तं-एतौ पापिनौ हन्यते । राज्ञोक्तं-पेटामध्ये प्रक्षिप्य नद्यां प्रवाह्यते । ततो निश्छिद्रपेटायां स्तेनद्वयं क्षिप्त्वा नद्यां प्रवाहितं । पेटा गच्छन्ती जले षष्ठे दिने श्रीपुरे लोकैः कर्षिता, उत्पाटिता, नृद्वयं दृष्टं । तत्र पृष्टं लोकैः
नद्वयं दृष्टं । तत्र पृष्ट लोकैः राज्ञा च-युवा केन पेटायां क्षिप्तौ ? ताभ्यां प्रोक्तंधर्मराज्ञा आवयोः चौर्यदोषेण पेटायां क्षिप्तौ वाइितौ च । राज्ञोक्त-भवतोः पेटामध्यस्थयो कियन्तो दिना जाताः ? एकेनोक्त-इदं षष्ठं दिनं । राज्ञोक्तं-कथं दिना ज्ञातास्त्वया ? सोऽवग-मम तृतीयो ज्वरश्चटति । यस्मिन् दिने ज्वरश्चटितः तत एकवारं विचाले ज्वरश्च
टितः कल्ये च चटिष्यति । तितो राज्ञा सन्मान्य चौर्य त्याजयित्वा स्वसेवको कृतौ। ग्रामाः 30 दत्ताः । तौ चौर्य त्यक्स्वा सुखिनौ जातो, मात्स्वर्गे गतौ ।'
इति जीवदयायां स्तेनद्वयकथा ॥१२९॥
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[८५.
प्रथमोऽधिकार
[ 180 ] अथ बुद्धौ सूत्रधारकथा । भोजपुरे सूत्रधारो भूमिगृहे राज्ञा क्षिप्तः, ततः कियदिनानन्तरं पृष्ठो भूपेन-तव कियन्तो दिना जाताः ? स प्राह-दिनत्रयं । राज्ञोक्तं-कथं तत्र रविप्रकाशं विना वासरः ज्ञातः ? सोऽवग-अहं दिवान्धोऽभूवं, रात्रौ तु पश्यामि, तेन दिनास्त्रयो झाताः । स च परिधापितो राक्षाः । इति बुद्धौ सूत्रधारकथा ॥१३०॥
[ 131 ] अथ बुद्धौ श्रेष्ठिपुत्रीकथा । __ कलिपुरे भीमभूपो धनमिभ्यं दण्डयितुकामः प्राह-यस्त्वया प्रासादः कारयितुमारब्धोऽस्ति, तस्य प्रथमं शिखरं काय, पश्चादधस्थले बन्धः, नो चेद्दण्डयिष्यसे त्वं । ततः स सचिन्तः पुत्र्योक्तः-तात ! किं दुःखं तव ? इभ्येन भूपोक्ते प्रोक्त पुत्री प्राह-तथा करिष्ये यथा राजा न दण्डयिष्यति ।
10 तत इभ्यपुत्री मौक्तिकानि सेतिनकामितानि लात्वा राजगृहे गत्वा भूपाप्रे पाह-मौक्तिकानि लभ्यन्ते समथोनि । गृह्यस्ता । राजाऽवग-कथं लभ्यन्ते ? साऽवग-स्पद्धकेन मानक दास्यते । ततो राजा मानकमानीय मानकं भर्तुं लग्नः । तदेभ्यपुत्र्यवग-प्रथमं शिखा क्रियता, पश्चादधस्ताच । राजा प्राहैवं कथं भवति ? पुत्री प्राह तर्हि प्रासादशिखरं प्रथम किमु भवति ? ततो राज्ञा हारितं, सा च सन्मानिता, सा च परिणीता राज्ञा श्रेष्ठिनो बहु 15 ग्रामा दत्ताः । ततः प्रासादो निष्पन्नः, बिम्बं स्थापितम्।
इति बुद्धौ श्रेष्ठिपुत्रीकथा ॥ १३१ ।।
[ 132 ] अथ सामायिकफलविषये स्तेनसम्बन्धः । श्रीपुरे पद्मश्रेष्ठिनः पद्मावती पत्नी संभवश्चन्द्रकुमारोऽजनि, स च विनोऽभूत् । क्रमान्नटविटखुण्टकैः सार्धं तिष्ठन् चौर्य कर्तुं लग्नः, ततौ लोकगृहे प्रविश्य धनं हरते रात्रौ। 20
इतो लोका रावं कुर्वन्ति, ततो राज्ञा धृतः एकवारं मोचितः, द्वितीयवारं लोकैर्मोचितः, उक्तं च-अद्यप्रभृति चौर्यं न कार्य । सोऽवग्-स्तैन्यं न करिष्ये । पुनः प्रविष्टश्चौर्याय स च धृतः । शूलायां क्षेप्यमाणं तं राजाऽवग्-मम देशं त्यज । सोऽवगस्तैन्यं न करिष्ये । पुनः प्रविष्टश्चौर्याय स च धृतः । राजाऽवग-मम देशं त्यज' । सोऽवगमुच्यतां मां, भूपोक्तं करिष्यते मया । ततो निर्गतो मार्गे गच्छन् दध्यो,-अद्य कस्य गृहे 25 चौर्यं करिष्ये । तदाऽकस्मात्सरस्या नभसः सिद्धपुरुष उत्तीर्णः । पादुके उत्तार्य स्नानं कर्तुं लग्नः, ततः स स्तेनो वध्यो । यस्मिन् दिने चौर्य न क्रियते तस्मिन्दिने धान्यं न जीर्यनि । अद्य पादुके इमे मम देवेन दत्ते । अतः इमे ग्रहीष्यते । ततस्ते पादुके परिधाय व्योम्नि उत्पपात । पश्चादेस्य स्वपुरे लोकेषु पश्यत्सु स्तैन्यं चकार । केनापि धतुं न शक्यते । राजादयो विलक्षा अभूवन् । लोकै रावः क्रियते पित्रादिस्वजनगृहेष्वपि प्रविश्य चौर्य करोति स्म । यदा न धतुं 30
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८६ ]
प्रबन्धपश्चशती
केनापि शक्यते, तदा राजाऽवग - सप्तदिनमध्ये चौरो धार्यो मया । एवं प्रतिज्ञां कृत्वा राजा निर्गतः । षटू दिना गताः, सप्तमदिने प्रथमं देवकुले गत्वा देव्या आभरणानि दृष्ट्वा दयो राजात्रायाति चौरः, ततो राजा छन्नं स्थितो यावत् तावत् स स्तेनोऽभ्येत्य पादुके उत्तार्य देवीं नत्वा जगाद यदि मम बहुधनमद्य चटिष्यति तदा तव विशिष्टपूजां करिष्येऽहं । 5 एवं प्रोच्य यावत्स्तेनः पादुके परिधत्ते तावदेका पादुका राज्ञा गृहीता, द्वितीया चौरेण । नष्टचरः पृष्टौ वाहरा धाविता । एकां पादुकां परिधाय क्वचिलयोम्नि क्वचिद्भूमौ चचाल, अग्रे गच्छन् वाहरामागच्छन्तीं दृष्ट्वा पृष्टो अग्रे यतिं कायोत्सर्गस्थं दृष्ट्रा नत्वा सामाकिफलं पप्रच्छ | ततः सामायिकपुण्ये फलं ज्ञात्वा सामायिकं लात्वा तत्रस्थो यावत् स्वं कर्म निनिन्द तदा केवलज्ञानमभूत्तस्य । देवै रजोहरणदानादिमहश्चक्रे । राजाऽपि तत्रागत10 चौरमुत्पन्नकेवलज्ञानं दृष्ट्रा जाताश्चर्यो नत्वा यतिं पप्रच्छ तव कथमेतदन्यायकारकस्य ज्ञानम् ? तेनोक्तं - सामायिकफलं ।
यतः- प्रणिहन्ति क्षणार्द्धेन, साम्यमालम्ब्य कर्म्म तत् । यन्न हन्यान्नरस्तीव्रं तपसा जन्मकोटिभिः ॥१॥
"
ततोऽनेकै: सामायिकफलं ज्ञात्वा सामायिक प्रतिक्रमणादि क्रियते । द्वितीया पादुका 15 राज्ञोऽभूत् ततो राजा पादुकाद्वयं परिधाय बहुषु तीर्थेषु गत्वा देवान् नमस्करोति स्म । प्रतिदिनं सप्ताष्ट सामायिकानि लाति । क्रमात्स्वर्ग गतो, मुक्ति यास्यति ।
इति सामायिकफलविषये स्तेनसम्बन्धः || १३२॥
25
[133] अथ छलजन्पने कमलकथा |
एकस्मिन्पुरे भीमकुटुम्बिकोऽन्यदा कमलं प्रति प्राह-यः शीतेऽतीव पतति निरावरणः, 20 सरसौमध्यस्थस्तपति दीपके तस्मै अहं दीनारपञ्चकं ददामि । स कमलस्तथा स्थितः, रात्रौ दीपकं दृष्ट्वा तप्तः । प्रातः पृष्टं त्वया कथं स्थितं ? सोऽवग्- चन्द्रमहेभ्यगृहस्योपरि दीपिका दृष्ट्वा तप्तः । ततः पचादीनारान् जिगाय ॥ १२३ ||
इति छलजल्पने कमलकथा ।। १३३ ।।
[134 ] अथ परोपकारे श्रेष्ठपुत्रवैद्यसम्बन्धः ।
श्रीपुरे चन्द्रवैद्यो ऽनेकैरौषधैर्लोकाना रोगं फेटयन् बहुधनं गृह्णाति वचयति च । तस्यापणे arat afrayer वैद्यकलां शिक्षितं तिष्ठन्ति स्म । ये विद्यायां कुशलिनो भवन्ति ते औषधदानात् हन्यन्ते । तेन एकस्य वणिजचत्वारः पुत्राः तद्विद्याकुशला जाताः । ते सन्त औषधदानान्मृताः । पञ्चमं पुत्रं माता यदा तदापणे न मुञ्चति तदा पुत्रो मातरं प्रति जगौ मां
तत्र विद्याशिक्षणाय मुञ्च । अहं तथा करिष्ये यथा मां न हनिष्यति । ततः स वैद्यापणे 30 गतः । वैद्यस्याग्रे प्राह--अहं वैद्यकविद्या न जानामि, मुग्धोऽस्मि, यत्त्वं वस्त्रानयनादिक्रियां
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प्रथमोऽधिकार!
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कारयिष्यसि तदहं करिष्ये । ततस्तेन स्वगृहे स्थापितः । ततः। स मुग्धो भूत्वा सर्वेषामौषधानामाम्नायं जशौ । परं स्वं तज्ज्ञं न ज्ञापयति ।
इतस्तस्मिन्पुरे एकस्य कस्यचित्स्नानं कुर्वतः कर्णरन्ध्र सूक्ष्मा भेकी प्रविष्टा : वेदना जाता, न निगच्छति, ततस्तेन वैद्यस्य कर्णरन्ध्र दर्शितं । ततः स यदा तप्तसूचिका कृत्वा कर्णरन्ध्रे क्षेप्तुं लग्नः, तदा स वणिक्पुत्रो जगौ-एवं कृते द्वयोमरणं भविष्यति, तथा कुरु 5
द्वयोर्जीवितव्यं भविष्यति । यदास्थ कर्णरन्ध्रे वारिभृतं वर्तलक मुच्यते तदा भेकी स्वयमेव निगच्छति । तथाकृते भेकी स्वयं निर्गता | ततः श्रेष्ठिना स वणिक्पुत्रो मानितः, वैद्यो न मानितः । हसितश्च । ततो रुष्टो वैद्यो दध्यौ-अयं मुग्धो भूत्वा मदीयां विद्या मत्तोऽधिकं शिक्षितवान् । अतस्तथा करिष्ये यथा मरिष्यत्यसौ । ततः स श्रेष्ठिपुत्रो लब्धविद्यो नष्टः, ततो यत्र गच्छति तत्र तत्र शकुनबलाद्याति । तदा सोऽपि शकुनबलात्तमागच्छन्तं 10 ज्ञात्वा नश्यति । एवं तयोः सदा कुर्वतोर्वहवो दिना याताः, श्रेष्ठिपुत्रो दध्यौ ममायं वैद्यो गुरुस्थाने तेन हन्यते कथं मया तदेति ध्यात्वा गुहायो प्रविष्टः । अग्रे मृत्तिकया व्याघ्ररूपं सजीवमौषधेन कृत्वा मुमोच । वैद्यस्तत्रागतो व्याघ्रं दृष्ट्वा दध्यौ, स च गुहायां विद्यते, व्याघ्रः स्वयमेव हनिष्यति । ततो वैद्ये गते स श्रेष्ठिपुत्रस्तस्मान्निर्गत्य स्वमातुःपार्वे समेत्य स्वजीवनसम्बन्धं प्रोच्याऽन्यत्र ग्रामे गत्वाऽन्येषां लोकानामुपकारं चक्रे ।
15 इति परोपकारे भेष्टिपुत्र-वैद्यसम्बन्धः ॥१३४॥
[135] हस्तहेमसिद्धिसम्बन्धः ।। कमलपुर्या सोममेदिनीशः स्वर्ण सिद्धि कारंकारं अलब्धहेमसिद्धिः खिन्नः सन् पुरद्वारे लेखयामास---
ऐदंयुगीनकाले रै-सिद्धि व लभ्यते ।।
तेन तद्विषये कार्यः, पुंसा नोपक्रमः क्वचित् ॥ १॥ ततस्तं श्लोकं दर्श दर्श कोऽपि स्वर्णसिद्धिविषये उपक्रमं न चक्रे । इत एकः पुमान् गृहे गृहे भिक्षां याचमानो वेश्यागृहे गतः । तदा वेश्या सेरप्रमाणं हेम ददौ । स च ततो निर्गत्य दध्यौस्वर्ण सिद्धि विना नैवं केनापि दानं दीयते । पृष्टा सतो तु न सम्यकथयिष्यति । अतो माया तथा कुर्वे यथाऽस्याः समीपात्स्वर्णसिद्धिं ज्ञास्यामि । ततः स द्विजवेषधरो भ्रमन् वेश्यागृहद्वारे 25 गतः जगौ च मम पुत्रो मृतो निराधारोऽन्धोऽस्मि । यः कोऽपि धान्येन मां रक्षसि तस्य गहे स्थितो द्वाररक्षां करोमि । द्विजजीवितदाने पुण्यमपि भवति । ततो वेश्यया धान्ये स्थापितः ! सा वेश्या सप्तौषधान्यानीय सप्त दिनानि मईयित्वा तच्चूर्णेन दीपिका करोति । यत्र तस्या धूम्रो लगति त मं भवति । स च विप्रः सर्व पश्यति । पुनर्ने ज्ञापयति ।
एकदा वेश्या तस्मै चूर्ण वर्तयितुमर्पयन्ती दध्यौ-कदाचिदनेन माया मण्डिता भविष्यति, 30 तदा सर्व ज्ञास्यति । ततस्तस्य जीमितुमुपविष्टस्यामत्रे विष्टा पर्यवेषिता । पार्वे स्थिता च । तदा स
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८ ]
प्रवन्धपश्चचती
दध्यौ यद्यहं विष्टां वदिष्यामि तदा मामनन्धं ज्ञास्यति । ततः स हस्तेन कवलं भतुं यावविक्षेप तावद्वेश्ययोक्तं- स्थिरीभव, अजानत्या तव भोजने विष्टा पतिता ततस्तामपसार्थं वर्यमन्नं परिवेषितं । स च बुभुजे । ततः सा निःशङ्कं सर्वोषधानां नामग्रहणं लाति । तस्य वर्त्तयितुं दते । ततः सम्यग् हेमसिद्धिर्जाता । ततो मिषं कृत्वा ततो निर्गतो द्विजः । अन्यत्र गतश्छन्नं म 5 चक्रे 1 स्वयं भुङ्क्ते, दानं दत्ते, क्रमादपरैरपि औषधैरेकेन द्वाभ्यां हेमं करोति ।
ततोऽन्यदा भ्रमन् पुरद्वारे गतः स्वर्णसिद्धयभावाक्षराणि भूपलिखितानि ज्ञात्वा तेषामक्षराणामपसाराय भूपस्य गृहे महोत्सवे जायमाने दीपवर्त्तिकनरैः सार्द्ध हेमसेरद्वयं द्वास्थपा
क्षिपत् । राजसभायां रात्रौ गतः । तत्र स्वकृतदीपिकाधूमेन अन्यदीपिकाकरदीपिकाभिः सममुद्योतं कुर्वाणो राजसभा हेममयों कृत्वा राजभवनान्निर्गतः । प्रातर्भूपः सभां हेममयीं दृष्ट्वा 10 चमत्कृतः । पृच्छंपृच्छं द्वास्थपार्श्वान्नरमागतं ज्ञात्वा दध्यौ -यस्य स्वर्णसिद्धिर्विद्यते तेनेयं सभा हेममयी कृता । मया प्रपचेन स निःकासितव्यः । ततो राज्ञा तस्य ज्ञानाय भूमिगृहं कारितं । तन्मध्ये शतद्वयीस्वर्णकृतं मुक्तासूत्रं च भोजनादि च कारितं हेमसभारवर्ण तत्र मुक्तं । ते च सर्वे हेममयानि बीजपूर - नालिकेर लिम्बुकादीनि घटयन्ति । भूमिगृहद्वारपार्श्वस्थचित्रशालायां राजोपविशति । लोका यदा प्राभृतीकुर्वन्ति बीजपूरादीनि तदा राजा छन्नमधो भूमिगृहे 15 मन्त्रिहस्ते मुखति मन्त्री च छन्नं हेममयानि दत्ते । ततो लोके प्रघोषोऽभवत् यद् भूपस्य हस्ते प्राभृतीक्रियते तद्धेमं भवति । ततः पुमान् स हस्तहेमसिद्धिं ज्ञात्वा दध्यौ मत्तोऽधिको राजा जातः । अहं तूपक्रमतो हेम करोमि । राजा हस्तेन करोति । ततः सोऽपि काष्ठमयानि बीजपूराणि प्राभृतीकृत्य हेममयानि भूपपाश्र्वात्प्राप । यदि हस्तसिद्धिरपि मम स्यात्तद्वरं ततो राज्ञो मिलितः, स्वकृतां हेममयीं चित्रशाळां ज्ञापयामास । ततो राजाऽवग् -स्वर्णसिद्धि कथय, 20 ततो मम हस्तौ हेमहस्तसिद्धिं दर्शयिष्यतः । ततस्तेन हेमसर्वोषध चूर्ग करणादिकथनात् मसिद्धिस्तस्मै दर्शिता । ततो राजा भूमिगृहे तं नीत्वा हस्तेन हेममयबीज पूरादिसिद्धिं दर्शयामास । सोऽवग्- राजन् ! हस्तमसिद्धिं दर्शय । ततो राजाऽऽचष्ट मयोक्तं ममायं हस्तो महस्तसिद्धिं दर्शयिष्यति, तेन तु दर्शिता । ततः स पुमान् अहं धृष्टो भवता वचनच्छलात् । ततो राज्ञा पुरद्वाराक्षराणि दूरीकारितानि, तत्रान्यान्यक्षराणीति लेखयामास -
-
25
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ऐदंयुगीनकालेऽपि कस्यचिन्मनुजस्य तु । हेमसिद्धिः समस्त्येव, कार्योऽत्र संशयो नहि ॥ २ ॥
ततो राजा हेमसिद्धिं कारंकारं महादानं ददौ ।
इति हस्त सिद्धिसम्बन्धः ॥ १३५ ॥ [136] अथ धर्मपरीक्षायां लौकिकपार्वतीश्वरकथा ।
एकदा द्वारिकायां कृष्णं नन्तुं लक्षमिता मनुष्याश्चेलुः । अत्रान्तरे पार्वती शम्भोः पुरः प्राह-- एते सर्वे जनाः पुण्यवन्तो यात्रां कर्त्तुं निर्ययुः । ईश्वरोऽवग्— एतेषां द्वित्राः पुण्यवन्तः
। गौरी जगौ - कथमेतद् ज्ञायते ? ईश्वरोऽवग-परीक्षां करिष्ये, त्वं गौर्भव, अहं नरो भविष्यामि ।
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प्रथमोऽधिकारः
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मया कृत्रिमः कद्दममयो हृदः करिष्यते, त्वया पादौ कईमे क्षिप्त्वा स्थेयमहं कर्षितुमायास्यामि 1 ततः पार्वती कर्द्दमे गोरूपा क्षिप्ता, ईश्वरो मनुष्यरूपस्तां कर्षितुमागात् । प्राह भो यात्रिका ! मनुष्या ! अत्रचिरादागच्छन्तु, एषा गौः पङ्कात्कर्ष्यते, अन्यथा मरिष्यति । कोऽपि नायाति, समसारं कुर्वन्तः सर्वे यान्ति । पुनरेकस्तत्र नायाति गां कर्षितुमेवं पुनःपुनरीश्वरे जल्पति लोका गच्छन्तो जगुः - तव एषा गौ मनसि आयाति अस्माकं जीवितं रक्षितं विलोक्यते 5 यदि स्थास्यते तदा पञ्चाव्याघ्रादयो मारयन्ति अस्मान् । ईश्वरोऽवग्-अहं स्थितोऽस्मि, अपरः कोऽपि द्वितीय आगच्छतु तदा एकः क्षणं गां कर्षितुं स्थितः । गौस्तु न निर्गच्छति ततः सोऽपि चरितुं चचाल । ततः स्वयं शम्भुः प्रविष्टो गां कर्षितुं कर्द्दमे मज्जन् प्राह-एषा गौरहं च कर्द्दमे प्रविष्टौ निर्गच्छन्तु ं न शक्येते अङ्गुलीर्मुखे क्षिपति जल्पति च कोऽपि पुण्यवानस्ति, यो मां गां च कर्षयति, तस्य यात्राधिकं पुण्यं भविष्यति ।
10
अत्रान्तरे - एकः पुमानपरं पुमांसं प्रति जयौ-आवां यात्रायै निर्गतौ पुण्यहेतोः, इदमपि पुण्यं जीवरक्षा क्रियते, जीवरक्षासमं पुण्यमन्यत्तु न विद्यते तेन एतौ कयेते । अपरोऽवग्त्वं प्रथिलो भूः मया स्थातुं न शक्यते । ततः प्रथमः स्थितो गां कर्षितुं यदि एषा निर्गच्छति तदा निर्गच्छतु नो चेन्ममापि प्राणा यान्तु । गवा पुरुषेण च समं कद्दममध्ये प्रविष्टः कर्षतुं लग्न: तदा गौरधोऽधो याति तदा सोऽपि अधोऽधोऽग्रतो याति । ततस्तं पुण्यवन्तमेकं दृष्ट्रा 15 पार्वतीय प्रकटीभूय जजल्पतुः । त्वमेवैतेषु लोकेषु पुण्यवान् हव्यते । ततः प्रसन्नीभूय पार्वतीश्वरी जजल्पतुः 'तवाक्षीणा श्रीभवतु' । ततोऽग्रे गतः, यात्रां कृत्वा गृहे आगतः । तस्य गेहे अक्षीणा श्रीरभूत ईश्वरस्तां प्राह-लोका बहवो दृश्यन्ते परं पुण्यवन्तः स्तोका एव ।
इति धर्मपरीक्षायां लौकिकपार्वतीश्वरकथा ।। १३६ ॥
[137 ] अथ स्तैन्यजनपुण्ये भिल्लकथा |
1
श्रीचन्द्रपुरं प्रति श्रीधरा आचार्यश्चेलुः मार्ग भिल्लघाटी मिलित। । भिल्लस्वामी सर्व सार्थ 'लुण्टयामास । ततः साधून लुण्डयितुं तत्रागतः प्राह-भो साधवः ! वस्त्राणि मुनाथ (त) । तदा गुरवो जगुः - स्तैन्यं न क्रियते, पापहेतुत्वात् मार्गे कस्यापि धनं नापहियते । भिल्लोऽवगूवस्त्राणि मुञ्चथ । (त) नो चेत् हता एव । गुरुः प्राह-त्वं पापं करोषि सर्व कुटुम्बं भक्षयिष्यति, श्वभ्रे त्वमेव बहुदुःखस्य भोक्ता भविष्यसि । स्तेनोऽवग्- सर्व कुटुम्बं विभज्य 25 भोक्ष्यति । गुरुः प्राह - तहिं पृच्छ कुटुम्बं प्रथमं पश्चाद्वस्त्राणि गृहाण यावस्त्वमागमिष्यसि तावद्वयं स्थिताः स्म । ततो भिल्लोऽचिरात् स्वकुटुम्बं प्रष्टुं गतः । प्रथमं भार्या पृष्टा - अहं साधूनां वस्त्राणि लास्यामि तस्य पापस्य भागं त्वं ग्रहीष्यसि ? प्रिया प्राह तवैव पापं भविष्यति । अहं भागं न ग्रहीष्ये । एवं कुटुम्बं पृष्टं कोऽपि पापभागं न गृह्णाति । ततो भिल्लो गुरुपाइर्वेऽभ्येत्यावग-कुटुम्बं पापं न लाति । गुरवः प्राह - 'यः कर्त्ता स एव भोक्ष्यते' । ततः स भिल्लः स्तैन्यकरणे नियमं जग्राह । ततोभिग्रहं प्रपाल्य भिल्लः स्वर्गे ययौ ।
30
इति स्तैन्यजनपुण्ये भिल्लकथा ॥ १३७॥
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प्रबन्धपञ्चशतो
10
[ 138 ] अथ गुरुभक्तौ द्रोणाचार्य-भिल्लकथा । द्रोणाचार्य पार्वे युधिष्ठिरा-र्जुन-भीम-दुर्योधनादयो धनुर्विद्यां शिक्षयामासुः । अर्जुनो धनुविधा शिक्षयन् समग्रो धनुर्विद्या शिक्षयामास । ततो अर्जुनो गुरुपादौ नत्वा प्राह-भो द्रोणाचार्य ! गुरुत्तम ! यादृशी विद्या मह्यं दत्ता तादृशी नान्यस्मै कस्मैचिद्देया । ततो हृष्टो द्रोणाचार्य: जगौ-तव क्वः प्रमाणम् ? एवं सति कालं गच्छति । एको भिल्लो धनुर्विद्या शिक्षितुकामो द्रोणाचार्यपाश्र्वे धनुर्विद्यामर्जुनतुल्यां याचते स्म । गुरुणा न दे, ततः स को द्रोणाचार्यमूर्ति मृण्मयों कृत्वा कुञ्जान्तरे स्थापयित्वा प्रातरुत्थाय गुरुपादौ प्रणम्य भक्त्या प्राह-भो गुरो ! 'प्रसद्य मह्यं धनुर्विद्यां वितर' । एवं प्रति दिनं गुरोर्भक्तिं चक्रे । गुरुरग्रे धनुर्हस्ते लात्वा बाणं तस्मिन् संयोज्य चिन्तितानि पत्राणि विध्यति, शतधा भिनत्ति ।।
एकदा वने गतोऽर्जुनो वृक्षे ताक्षि पत्राणि छिद्रितानि दृष्ट्वा दध्यौ-गुरुणा प्रतिज्ञा विस्मृत्य कस्यापि धनुर्विद्या ददे, नो चेदेवं कः कराति ! ततोऽर्जुनो गुरुं पप्रच्छ ! भगवन् ! त्वया प्रतिज्ञा छिन्ना, विद्या करमै दत्ता ? गुरुः प्राहः-मया कस्यापि त्वां मुक्त्वाऽन्यस्मै धनुर्विद्या सम्पूर्णा न दत्ता । ततो द्रोणाचार्यार्जुनौ वने गतौ, ताभ्यां दृषण्मयी द्रोणाचार्यप्रतिमा
दृष्टा । स च भिल्लः प्रातरेत्य गुरुं नत्वा प्राह-अर्जुनदत्तधनुर्विद्यां मह्यं वितर । एवं प्रोच्य स 15 वृक्षस्थानि पत्राणि भिनत्ति । ततो द्रोणाचार्यपार्थाभ्यां भिल्लश्च पृष्टः-तव को गुरुः १ स
प्राह-मम द्रोणाचार्यः । भिल्लेन द्रोणाचार्यप्रतिमा दशिता, अनयाऽहं शिक्षितो विद्या, भक्त्या किं किं न स्यात? तोऽर्जनो खिन्नोऽभत । ततो गरुभिल्लं प्रति जगौ-तव विद्याऽभन्मत्प्रसादान मया मार्गितं दास्यते त्वया ? । सोऽवग-इदं शरीरं तवैव, यदि गेचते तद्याचनीयम् । ततो
गुरुणा भिल्लपाश्र्वा दक्षिणहस्ताङ्गुष्ठो याचितः ! ततस्तेन गुरुभक्त्या अङ्गुष्ठो दत्तश्छित्वा । 20 ततोऽर्जनात्स्तोका मनाग्विद्या भिल्लस्याभूत् , ततोऽपि भिल्लो गुरोरुपरि न द्विष्टोऽभूत्ततो ऽर्जुनोऽपि हृष्टः, द्वावपि गुरुं नमतः स्म ।
इति गुरुभक्तौ द्रोणाचार्यभिन्लकथा ॥ १३८ ।
[139] अथ शीलौदार्यविषये विक्रमादित्यकथा । एकदा विक्रमादित्यो भूपः पृथिवों विलोकयन् स्त्रोराज्ये ययौ । तत्र पुर्यामनेके धवलगृहादृष्टाः । 25 तत्र तु शतिनी-पद्मिनी-प्रभृतिनारीसहस्त्रशो दृष्टाः राज्ञा । ताश्च भूपं भोगाय याचन्ते
स्म । राजा मनागपि न चलितः, परस्त्रीपराङ्मुखत्वात् । ततस्ताभिस्तुष्टाभिः १४ रत्नानि दत्तानि । कीदृशानिएकेनाग्निस्तम्भः स्यात् [१]
पञ्चमेनास्यादिघातो न लगति [५] द्वितीयेन लक्ष्मीभवति [२]
षष्ठेन सर्वो वश्यो भवति [६] 30 तृतीयेन जलस्तम्भः [३]
सप्तमेन चिन्तिता रसवती भवति [७] चतुर्थन यानं भवति [४]
अष्टमेन कुटुम्ब वर्धते
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नवमेन समुद्र उत्तीर्यते दशमेन विद्या स्यात् एकादशेमाकाशगमनं स्यात्
प्रथमोऽधिकारः
[ह]
[१०]
[११]
[१२]
द्वादशेन भूतप्रेतादयो न लगन्ति त्रयोदशेन सर्पादिर्न दशति चतुर्दशेन गजादिर्न प्रभवति
[१३]
[ ५४ ]
मार्गे आगच्छता राज्ञौदार्यत्वाद्येन यद्रत्नं मार्गितं तस्मै तद्दतं गृहे समागतो भूपः ।
इति शीलौदार्यविषये विक्रनादित्यकथा ॥ १३९ ॥
[140] अथ स्वयं स्वदोषजल्पने क्षत्रियकथा |
एकः पुमान् पोसिपोसीत्युच्चरन् शकटं चतुष्पथे खेटयामास । तदा एको दुर्दान्तो राजपुरुषः सन्मुखं गच्छन् शकटे लग्नः, तदा तस्य मुखे चंदिका पतिता । रुधिरं निर्गतं । स च राजपुरुषो दुर्दान्तो यत्तत् यथा तथा जल्पन् भृशं रुष्टोऽस्त्रमुत्पाट्य तं हन्तुमुत्थितः गालि ददानो यष्टिमुष्टिभिस्तं हत्वा भूषपार्श्वे निनाय, जगौ च अनेन चतुष्पथे समागच्छता शकटेन 10 मम मुखं छिन्नं । ततो बहु जल्पति सति तस्मिन् शकटपुमान् मौनमेव चकार । राजादिभिपितोऽपि यदा न जल्पति । राज्ञाऽवग् किं मूकोऽस्त्यसौ ! तदा राजपुरुषोऽवग्- चतुःपथे यदा मम मुखं शकटेन भिन्नं तदाऽनेनोच्चैःस्वरं जल्पितं पोसिः पोसिरिति । ततोऽमात्यैरुक्तं - तवैव दूषणं नास्य, त्वमेव स्वयं साक्ष्यभूत्, ततो राजपुरुषो हक्कितः सः पुमान् मानितः ।
इति स्वयं स्वोपजल्दने क्षत्रियकथा || १४० ॥
[ ९१
[ 142 ]अथ देवद्रव्यविनाशने उष्ट्रीकथा |
दीपं विधाय देवस्य पुरतो गृहमेधिनाम् । तेन दीपेने नो गेहे, कर्त्तव्यः कज्जलध्वजः ॥१॥
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[141] अथ विरोधे कृकलासद्वयकथा |
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एकस्य ग्रामसमीपे द्वौ कृकलासौ युद्धं कर्त्तुं लग्नौ । एको यदा युध्यन् द्वितीयशिरस उपरि चति तदाऽवस्थ दन्तैर्दशति तमित्यादियुद्धं कुर्वाणो तो द्रष्टुं लोका मिलिताः । सर्वे सन्ति, न पुनः कोऽपि वारयति । तदाऽकस्मादेकः कृकलासोऽनश्यत् । उपविष्टस्य निद्रया घूर्णितस्य गजस्य शुण्डायां प्रविः । तदा द्वितीयोऽपि तत्पृष्टौ धावन् तस्यैव गजस्य शुण्डायां प्रविष्टः । तत्रापि द्वावपि युद्धतः स्म । ततोऽकस्माद्गज उन्निद्रः सन्नुत्थितः शुण्डामितस्ततो वेदनया चालयन् सरःपाल गतः । तां पालि झुण्डया खनति । लोकास्तदा हसन्ति । ततोऽकस्मात्पालिः स्फुटिता । लोकाः सर्वे प्लाविताः । पयसा ग्राममपि प्लावितं । गजोऽपि शुण्डाप्रविष्टकृकलासवेदनया मृतः । ततस्तावपि कृकलासौ पचत्वं ययतुः । एवं विरोधेन सर्व विनश्यति । ततो विरोधो न कार्य:, स्वहितं वाञ्छद्भिः ।। इति विराधे कृकलासद्वयकथा ॥ १४१ ॥
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९२ ]
प्रबन्धपश्चशती
इन्द्रपुरे जितसेननृपोऽभूत् । तत्र देवसेनेभ्यः, तस्यालये धनसेनस्योष्ट्रिका प्रत्यहमेति । स वरबारिक: कुट्टयित्वा स्वगृहं नयति पुनरपि पश्चाद्याति । तत इभ्येन सा उष्ट्रिका स्वल्पेन गृहीता तस्याभीष्टा चाभूत् ।
एकदा धर्मधोषसूरिस्तत्रागात्, इभ्येन पृष्ट एषष्ट्रिका मम गृहे एव रतिं कथं लभते, 5 नान्यत्र । सूरिः प्राह - अनया पूर्वभवे देवद्रव्यं विनाशितं । तदा चैषा जिनस्याप्रे दीपं विधाय पश्चात्तेनैव दीपेन गृहकार्याणि करोति । तस्माद्दीपाद्वा गृहे दीपं करोति, धूपाङ्गारेण चुल्हकं संधुक्षयति च तेन कर्मणा उष्ट्रिकैषा जाता । तत्पातकं पुरा नालोचितं । बहुषु भवेषु तिर्यक्त्वं लब्धं संप्रति पुनरौष्ट्री जाता । कर्मलाघवाज्जाति प्राप्य पञ्चाद्भवसन्वन्धि देवद्रव्यविनाशनरूपं पापं स्मारं स्मारं जिनेन्द्रधर्म श्रोतुं तव गृहे तिष्ठति । यत उत्तमसंगादुत्तमपदवीं लभते जीवः । 10 क्रमादत्रस्थोष्ट्रिका जिनधर्मं त्वया क्रियमाणं श्रद्दधती मृतिं गमिष्यति, देवलोके गमिष्यति । ततो मानुषं भवं प्राप्य सर्वकर्मक्षयान्मुक्तिं यास्यति । अतो देवद्रव्यं व्याजेनापि न ग्राह्यं । यतः --
15
जिणयवयणवुडिकरं, पभावगं नाणं दंसणगुणाणं । भक्तो जिणदव्वं, अनंतसंसारिओ होई ॥१॥
जिण | बुड्ढन्तो जिणदव्वं, तित्ययरत्त लहइ जीवो ||२||
2
इति देवद्रव्यविनाशने उष्ट्रीकथा || १४२ ||
[14] अथ यक्ष कृतपापशमने अर्जुनमालिककथा |
राजगृहे बहिरन्येर्मुद्रपाणियझसदने पुष्पकरण्डकं भृत्वा अर्जुनमालिको मालिकायुतो दिनात्यये स्थितः । तदाऽकस्मात्तत्र पट् स्तेनाः सुरभिपुष्पगन्धतः समाययुः । तदा ते चौरास्ता 20 मालिकां दिव्यरूपां दृष्ट्वाऽर्जुनमालिकं बध्वा यक्षाऽर्जुनमालिकयोः पश्यतोः सतोभोगं कर्त्तुं लग्नाः तदाऽर्जुनो यक्षं प्रत्यवग्-भो यक्ष ! तव पश्यतः सतो मम पत्नी एते भुग्जन्ते त्वं ममसारी न कुरुषे । पत्नीं तेभ्यो भोगं ददानां दृष्ट्रा रुष्टः पत्नीं प्रत्यपि तदा मुद्रपाणियोऽर्जुनदेहेऽवतीर्य प्रियायुतान् षडपि स्तेनान् जघान । ततोर्जुनो प्रति दिनं पड् नरान् सप्तमी त्रियं हत्वैव देवगृहं याति । ततो मार्गागतान् पुरस्थान पट् पुरुषान् एकां स्त्रियं च हत्यैव तिष्ठति । 25 ततः पुरजनाः पुरःप्रतोलों दत्त्वा कोटस्योपरिस्थाः घट् नरान् स्त्रियमेकां हतान् दृष्ट्रा प्रतोलीबहिः निर्गच्छन्ति, ततः सदैवपापं करोति ।
अत्रान्तरे सुदर्शन श्रेष्ठी चतुर्दश्यां पौषधोपवासपारणे भगवन्तं श्रीवीरं बहिरुद्याने समवसृतं श्रुत्वाऽभिग्रहं ललौ, अद्य प्रभुं प्रणम्य पारणं कर्तव्यं मया, ततः प्रातः काल एव सुदर्शन श्रेष्ठी प्रभु नन्तुं निर्गच्छन्तं दृष्ट्रा लोका जगुः - भो श्रेष्ठिन् ! क्षणं तिष्ठ यावत् स 30 यक्ष स्वस्थाने याति । ततः श्रेष्ठी लोकवचनंमवगणय्य प्रतोल्या बहिर्निर्ययौ तदा यक्षः सुदर्शनं
दृष्ट्वा मुरमुत्पाट्य दधाव हन्तुं तदा तत्र सुदर्शन श्रेष्ठी 'नमो अरिहंताणं' इत्युच्चैः स्वरं
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प्रथमोऽधिकारः
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कृत्वा तस्थौ । तंतो नमस्कारप्रभावात् यक्षोऽर्जुनशरीरं मुक्त्वा स्वं स्थानकं ययौ । अर्जुनो निश्चेष्टकाष्टो भुवि पपात । अणात्सचेतनोऽभूत् । सुदर्शनेन पृष्टं-भो अर्जुन ! त्वया बहुजनहननात् भूरिपापं कृतं । कथं छुटिष्यत्यस्मात्पापात् ? अर्जुनोऽवग-अहं न जाने, किन्तु मुद्भरयक्षेण सर्व कृतं, स्वसम्बन्धः प्रोक्तः । ततः प्राप्तवैराग्योऽर्जुनमालिका प्रभं प्रणम्य दीक्षा लात्वा तस्मिन्नेव पुरे भिक्षायै भ्रमति, षण्मासी यावबुभुक्षितो लोकाक्रोशान सहित्वा सर्व- 5 कर्मक्षयान्मुक्तिं ययौ । इति यक्षकृतयापशमने अर्जुनमालिककथा ॥१४३॥
1144] अथ स्वहितकरणे चन्द्रकमलयोः कथा । कर्णपुरात् चन्द्रः कमलपुत्रेण सह पृष्ट वाहं नीत्वा वसन्तपुरं प्रत्यचलत् । मार्गे यदा पुत्रो वृषारूढस्तदा लोका जगु:-~अयं वृद्धः पद्भयां हिण्डते, युवा पुत्रस्तु वृषारूढः, कोऽस्य पुत्रस्य विवेकः ? ततः पुत्रस्तत उत्तीर्णः । वृद्धो वृषारूढश्चलति यदा लोका जगुः-पुत्रः पद्भ्यां 10 याति, पिता वृषारूढः । यदा द्वावपि वृषारूढौ तदा लोका जगुः-वृषो मरिष्यति एतौ मुग्धौ । यदा द्वावपि पितापुत्रौ पादचारिणौ जातौ तदा लोका जगुः-अस्मिन्नीक्षे वृषभे सति एतौ मुग्धौ पद्भ्यां हिण्डेते । ततो द्वावपि प्रोचतुः
सर्वथा स्वहितमाचरणीयं, किं करिष्यति जनो बहुजल्पः।
विद्यते स नहि कश्चिदुपायः, सर्वलोकपरितोषकरो यः॥१॥ तथा यथारुचि पितापुत्रौ यथेप्सिते पुरे ययतुः ।
इति स्वहितकरणे चन्द्र कमलयोः कथा ॥१४४॥
[145 ] अथ औत्पत्तिकीधीविषये नापितकथा । एकदा भोजभूपो नगरचर्यायां रात्रौ भ्रमन् नापितमेकां गाथा पुनः-पुनर्जल्पयन्तं श्रुत्वा रुष्टः । सा चेयम् - भरी यातां सहइ भरइ, ठाला भरइ न कोइ ।
20 भोजराज माहरइ सालो, मूहरई काईन देइ ॥१॥ यदा आकार्य शूलायां क्षेप्तुं चालितस्तदा नापितोऽवग्-मया कोऽपराधः कृतः ? राजाऽवगत्वं मां शालकं कुरुषे । तदा नापितोऽवग-अहं तु सत्यमेव वच्मि । यतः-त्वं परस्त्रीसहोदरः श्रूयसे । अतो मम पत्नी तव भगिनी । ततस्त्वं मम शालकः एतश्रुत्वा राजा हृष्टतं सम्मानयामास । इति औत्पत्तिकीधीविषये नापितकथा ॥१४५।।
25 [146 ] अथ प्रत्येकबुद्धस्वरूपम् । ___ करकण्डूनृपः कलिङ्गदेशेशः प्रथमं वृषभं दृढदेहं ब्रजन्तं दृष्ट्वा पश्चान्मृतिं दृष्ट्वा च जातिस्मृति प्राप्य प्रत्येकबुद्धोऽभूत् । देवतया लिङ्ग दत्तम् ॥१॥
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९४ ]
प्रबन्धपञ्चशती पञ्चालदेशस्वामी इन्द्रध्वज वीक्ष्य भगात्पतितं जातिस्मृति प्राप्य प्रत्येक दोऽभूत् ॥२॥
विदेहदेशस्वामी नमिभूपः उत्पन्नरोगः प्रियाणां वलयान्युत्तार्य खडखडशब्दमनाकण्य जातिस्मृति प्राप्य प्रत्येकबुद्धोऽभूत् ॥३॥
गन्धारदेशेशो नग्नकभूपश्चूतं प्रथमं शाडवलं दृष्ट्वा क्षणाद्भग्नं वातेन दृष्ट्वा जातिस्मृति प्राप्य प्रत्येकबुद्धोऽभूत् ॥४॥ यतः- करकण्डु कलिंगेसु, पंचालेसु य दुम्मुहो ।
नमीराया विदेहेसु, गंधारेसु अ नग्गई ।।१।। वसहे? इंदकेऊर , वलय अंबे अ पुप्फिए बोही ।
करकंड' दुम्महस्सा नमिस्सरे गंधाररन्नो अ॥२।। चत्वारोऽपि प्रत्येकबुद्धा विहरमाणाः श्रितिप्रतिष्ठिसपुरे पुराबहिर्देवकुले चतुरशोभिते 10 समागताः
पूर्वेण द्वारेण करकण्डूः प्रविष्टः । दुर्मुखो दक्षिणेन । नमिरपरेण । गान्धार उत्तरेण प्रविष्टः।।
15 तदा यक्षेण चतुर्णामपि संमुखं मुखं कृतं, चत्वार उपविष्टाः । करकण्डूयनयोग्यं काष्टखण्ड कर्षयित्वा करं कण्डूयितुं लग्नो यदा तदा कर्णोऽपि काडूयितः, काष्ट छन्नं कृतं च । दुर्मुखः काष्टखण्डं गोपितं दृष्ट्वा करकण्डू प्रत्यवग्
जया रज्जं च रिद्धिं च, पुरं अंतेउरं तहा ।
सबमेअं परिच्चज्ज, संचयं किं करेसिमं ॥३॥ यदा करकण्डूः प्रत्युत्तरं न दत्ते तस्मै तदा नमिरिमं दुर्मुखं प्रत्यवग्
जया ते पियपरज्जे, कया किच्चकरा बहू ।
तेसि किच्चं परिचज्ज, अज्ज किच्चकरो भवं ॥४॥ अतस्तवानया चिन्तया किं, ततो गन्धारोऽवग्
जया सव्वं परिचज्ज, मुक्खाय घडसि भवं ।
परं गरिहसे कीस, अत्तनीसेसकारए ॥ ५ ॥ "मुक्खाय घडसि' मुक्तये चेष्टसे भवान् । अत्त० इति आत्मने निःश्रेयसः शिवस्य कारक: कर्ता, तदा करकण्डूः प्राह
मुक्खमग्गं पवत्तेसु, साहूसु बंभयारिसु ।। अहिअर्थ निवारते, न दोसं वत्तमरिहसि ॥६॥
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प्रथमोऽधिकारः
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रुसउ वा परो मा वा, विसं वा परिअत्तउ ।
भासिअब्बा हिआ भासा, पच्चक्खगुणकारिआ १७|| अमी चत्वारोऽपि प्रत्येकबुद्धाः पूर्वभवे समकालं पुष्पोत्तर विमानाच्च्युताः स्वरूपपुरे जाताः समकालं केवलज्ञानं प्रापुश्च क्रमादेव ते सर्व मुक्तिं प्रापुः ।
इति प्रत्येकबुद्ध स्वरूपम् ।। १४६ ।।
[147] अथ प्रमादाप्रमादे श्रेष्ठिपुत्रीत्रयकथा । वर्द्धमानपुरे पद्मश्रेष्ठिनः तिस्रः पुत्र्यः कमला-महना श्रीमत्यभिधाः धर्मकर्मकुशलाः धर्मशास्त्रविज्ञाः सत्य उभयकालं प्रतिक्रान्तिं त्रिकालं जिनपूजा कुवते, भावारीन् जेतुम् । इतो मोहसभायां कन्दप्पदेवोऽभ्येत्यावग--स्वामिन् ! पद्मश्रेष्ठिनः पुत्र्यस्तथा धर्म कुर्वाणा सन्ति यथा भवन्तं भवत्परिवारं च जेष्यति । तेनाधनैव ता जेतं स्वामिनाऽन्येन वा चाल्यते तदा 10 वरं । तदा मोहेन बीट के उत्पाटिते निद्राविकथाभ्यां प्रोक्तं--स्वामिन्नहं तथा करिष्ये यथा तास्तव वश्या भवन्ति । ततो विकथानिद्रे ते जेतुं गते, प्रथमं कमलापावें विकथाऽवग--- धनमहेभ्यपुत्र्या श्राविका भोजिताः त्वं तत्राकारिता न वा । साऽवग--किं मम प्रयोजनं, जेमन्तु बह्वयः एवं पृथक्पृथग्गृहः भोजनस्य स्वरूपं प्रोक्तं । ततः क्रमात्कमला जगौ-अहं नाकारिता तत्र इत्यादि राज-देश-भक्त-स्त्रीकथाभिः कमला विकथा कुवती कृता क्रमान्निद्रा- 15 मपि करोति, वेलायां देवपूजाप्रतिकमप्रभृति न करोति एवं मदनाऽपि प्रमादे पातिता ताभ्यां । ततः श्रीमती ताभ्यां प्रमादे न पातिता सा च स्वं धर्मकृत्यं वेलायां करोति । ततो विकथानिद्रे मोहभूपस्यान्ते गत्वोचतुः । कमलामदनश्रियो तवाज्ञां ग्राहिते न तु जीमती। मोहोऽवगवयं कृतं, श्रीमतीमहं घातयिष्यामि । ततो मोहेनानेकाभरणवस्त्रादिदर्शनेनापि सा न स्वाज्ञां ग्राहिता। कमलामदनश्रियौ श्वभ्रे ययतुः । श्रीमती अखण्डधर्म कृत्वा कर्मक्षये मुक्तिं गता। 20
इति प्रमादाप्रमादे श्रेष्ठिपुत्रीत्रयकथा ॥ १४७॥
[148 ] अथ पादद्रव्यार्जने कथा। एके जनाः पादाभ्यां श्रियमर्जयन्ति, एके हस्ताभ्याम् , एके मस्तकेन, एके बुद्धथा च, तत्रादौ पादाभ्यां श्रियाज्जने कथा
वीरपुरे कमलवणिक्पुत्रो देवको दारिद्रयवानभूत् । ततो महेभ्यभूपादोना लेखवाहकोऽभूत्। 25 योजनशतसहस्रं यावद्याति पुनरन्तरा वर्त्मनि गुरुपदोपान्ताङ्गीकृत द्विवारप्रतिक्रमण-एकवारदेव- . पूजादि धर्मकृत्यं न मुब्चति । सदैव धनमर्जयति । स्तोकं स्तोकं धर्मेऽपि व्ययति । स च देवको धर्म कृत्वा दुःस्थोऽपि स्वर्गसुख प्राप । क्रमान्मुक्तिं गन्ता ।
इति पादद्रव्यार्जने कथा ॥ १४८ ॥
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९६ ]
प्रबन्वपश्वशती
[146 ] अथ हस्तद्रव्यार्जने कथा |
श्रीचन्द्रपुरे धीरकौटुम्बिको लोकानां क्षेत्रे च नवीनकदवरिकावणन क्षेत्रधान्यकपिशीर्षकृन्तनलिखन इत्यादिहस्त क्रियाभिर्धन मर्जयत् स्वं धर्मं कृत्वा स्वर्गतो मुक्तिं गन्ता । इति हस्तद्रव्यार्जने धीरकथा || १४९ ॥
10
25
[151] अथ बुद्धिधनार्जने धरणकथा |
धरापुरे श्रेष्ठ बुद्धि विक्रीणीते, वयंसुधाधवलिते हट्टे वर्गवेषधर उपविशति, लोका गृहणते सदा तत्र । एकदा तत्र वास्तव्यचम्पक ष्ठिपुत्रो मदन आगात् । धरणोपान्तेऽवग् radisट्टे क्रयाणकं किमपि न दृश्यते । श्रेष्ठी प्राह- अहं बुद्धि विक्रीणामि । यया धिया नरः सुखी स्यातां दास्येऽहं । ततः पञ्चशतद्रम्मैद्वयोः कलिं कुर्वतोः पार्श्वेन स्थेयमिति एक बुद्धि मदनो 15 ललौ । तदा केनाप्युक्तं - चम्पक भवत्पुत्रेणापूर्वकं क्रयाणकं गृहीतं, ततः श्रेष्ठ पुत्रं प्रत्यव स्वया a न कृतं । ततः श्रेष्ठी धरणस्योपान्ते गत्वाऽवग्-स्वया मम पुत्रो धीदानेन वाहितः । श्रेष्ठी धीदो जगौ - यदि ते न रोचते मम बुद्धिं पश्चादप्पयं ततो बहवो लोकाः साक्षिणः कृताः, अन श्रेष्ठिपुत्रेण द्वयोः कलिं कुर्वतोः पार्श्वे स्थेयं नो चेत् १० शतद्रम्मान् गृहीष्ये । एवं प्रोच्य पश्चाद् धनं दत्तं । एकदा श्रेष्ठपुत्रो मन्त्रिसेल्लहस्तपुत्रयोः कलिं कुत्रतोः पार्श्वेऽस्थात् । तदा ताभ्यां स 20 साक्षीकृतो मदनः राज्ञः पार्श्वे आकारितः । यदि एकशः पार्श्वे भूत्वा वक्ति तदा सोऽपि रुष्टो धनं पश्चात्स्फेटयति ततो मन्त्रिपुत्रपक्षपाते क्रमात्सल्यहस्तेनावसरे श्रेष्ठी दण्डापितः ततश्चम्पकः सपुत्रो वर्यां बुद्धिं लात्वा सुखी जातः ॥ १५१ ॥ |
इति बुद्धिधनार्जने धरणकथा ॥ १५१ ॥
[152] अथ औचित्यदाने घाविका - विक्रमार्क कथा |
[150 ] अथ मस्तकधनार्जने भीमकथा |
वीरमपुरे भीमो भार्गवो जिनधर्मं प्राप । एकवारं देवं पूजयति । द्विर्वारमावश्यकं करोति । सदा चतुःपञ्चसप्ताष्टनवदशैकादशद्वादशत्रयोदशमितभारं वहते । परेषां गृहेषु याति । धनमर्ज - यति । एवंविधं दुःशकं गृहस्थवासे वसन् स्वं धर्मकृत्यं नामुञ्चत् । क्रमात्स्वर्गं गतः पुनर्मर्त्यलोक पुनः स्वर्गं पुनः ततो मुक्तिः । इति मस्तकधनार्जने भीमकथा ॥ १५०॥
एकदा विक्रमादित्यभूपसभायां बहून् पण्डितानुपविष्टान् श्रुत्वा वैदेशिकेन बुधेनैका गाथा प्रेषिता । सा च सर्वैर्बुधैर्वाचिता तस्याः परमार्थमलभमानाः प्रोचुः । इयं गाथा निर्जीवाsस्ति तेनास्या अग्निसंस्कारः क्रियते । ततो बुधाश्चत्वारः स्कन्धिका जाताः । सा गाथा जंपाणे स्थापिता । भुग्नभाजने वह्निं क्षित्वाऽग्रेऽचलन्, कियन्तः पृष्टावचलन् कियन्तो बुधाः काष्टानि नीत्वा पुराइबहिश्चितां चक्रुः । इतो वर्त्मनि तो गाथा वहमानान् विबुधान्प्रति घाविका प्राह को मृतः ?
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प्रथमोविकार
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तैरुक्तं-गाथा एकात्रागता मृता, तस्खा बग्निसंस्कारः क्रियमाणोऽस्ति । तयोक्तंका गाथा ? दीता मसं। तैर्दशिता, तया वाचिता, प्रोक्तं -पजीवाऽस्तीयं यं रसते ? तेश्क्तं-मृतेयं । मिथो विवादो जातः। ततः सर्वेक्तं-राजसभायां सजीवनिर्जीवपरीक्षा क्रियते । ततः सर्वे राजसमायामागताः । घाधिकाऽवग्-सजीवाऽस्ति गाथा । बुधैः प्रोक्तं-निर्जीवा। ततो पात्रिका अगो-गाथा आनीयता । तत्र गावाऽऽनीता, पापितेति--
अपया तह पयमुक्का, श्वेताय कृष्णाय च ।
सदासदविहूणा, अमग्ग पाह मग्गंति ॥१॥ पानिकाऽवग-प्रथमार्थ मेघपने-अपदा मेपाः पयो मुबन्ति ? मुस्त्या भवन्ति श्वेता मेषाः । श्वेताः शरदि भवन्ति । कृष्णा वर्षासु भवन्ति । सशन्दा मेषा गर्जितं शन्दं कुर्वन्ति । शब्दं विनाऽपि वर्षन्ति गर्जितं विनाऽपि, समग्गाबाह मम्गंति-अमग्गा-चप्पीहा बाई-पानीयं 10 मरगति-याचन्ते यतः- कप्पीउ तं जलपीयह, जं पणज्जिा देह ।
माणविवज्जिअ अप्पणई, मरह न चंचु भरेइ ॥२॥ इति एको मेघस्यार्थः । स्त्रिया अर्थः-अपया पयमुक्का य-सगर्भा मी अपया-पयोरहिता भवति । अनिताऽपत्या पयो-दुग्धं मुझते । श्वेताय कृष्णाय च-गर्भावस्थायां स्त्री श्वेता भवति, जनिताऽपत्या कृष्णा 15 भवति । सदासरविहूणा-भोगावस्थायां सझब्दा, अन्यत्राशन्दा । कल्पावसरे सशब्दा अन्यत्राशब्दा अमग्गा वाह मग्गति-अमम्गा-जातमात्रवालकाः पयो-दुग्धं मातुःपार्वे मम्गति-याचन्ते ।
पाशकस्याः कथ्यते-अपया-पाशकस्य पादौ न स्तः, अतः अपदः । तह पयमुक्का पदमेकमष्टापदे फलके मुवन्ति पाशकपदमुक्तः । श्वेताय कृष्णाय च-हस्तिदन्तपटितत्वात् श्वेताः मुखे मसीबिन्दुकरणात्कृष्णः । पाशकशब्दो-सहासविहूणा-पातनावसरे पाशक: शन्दं 20 करोति । अन्यत्राशन्दः-शब्दरहिताः। अमग्गा वाह मग्गंति-अमग्गा-अयाचका वचोरहितस्वात् बाहं दायं मग्गंति-विलोकयन्ति । तस्मा गाथाया अर्थत्रयं श्रुत्वा राजाऽवग-सजीवा गायेयं । सतस्तस्या राक्षा सपादलझं धनं दापयामास । बुधा हसिता सर्वैरपि तदा ।
इति औचित्यदाने घाञ्चिकाविक्रमार्ककथा ॥१५२॥
[153 ] अथ मुग्धतायां होदडीकथा । मनस्थल्यां होदरपार्वे सर्व लोका मुहूर्तादिकं पृच्छन्ति । एकस्य क्षेत्र स्थलमये ऊर्व बझारोपिता मण्डपाः कृतास्तेषामुपरि घटिता बल्लाः । तत्राभ्येत्य भष्ट्रा बल्छाम् भमयन्ति । वतो लोके विज्ञप्तं होदडामे-अस्माकं क्षेत्रेषु मण्डपोपरिस्थान बनकाम् को भपयति ? ततो होदरस्तत्राकारितः, प्राह च
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९८ ].
ततः सर्वैर्जनैः प्रोक्तं - सत्यमुक्तं होतडेन । ततो होदडो ध्यानं कृत्वाऽवग्-
सर्वत्र क्षेत्रपार्श्वे सीममध्ये च शब्दमेवमुच्चार्थतामुच्चकैः । ये शशका उदूखलेषु पदानि 5 चटयित्वाऽस्माकं क्षेत्राणि भक्षयन्ति तेषां प्राणा एव ग्रहीष्यन्ते । ततो रात्रौ वृत्तिसमीपे हक्कयद्भिः स्थीयते ततस्तथा कृतं तैः ॥ इति मुग्धतायां होदडिकथा ।। १५३ ।।
प्रबन्धपश्चशती
औषधिं पग चडावी, बालखाधाससलेहिं । किं मुधासि मरुपपडी, होदडेण मूण ||१||
[154] अथ बुद्धौ धूर्त्तकथा |
वीरपुरे कस्यचिद्वणिजः हट्टे द्वाभ्यां पथिकाभ्यां सुवर्णपूर्णा वासनिका मुक्ता । प्रोक्तं"यदा आवाभ्यां द्वाभ्यामागत्य मार्ग्यते दाणीयेयं” एवं प्रोच्य तां तत्र मुक्त्वा ग्रामा10 न्तरे गतौ तौ । ततोऽन्यदा तयोर्मध्यादेको धूर्तोऽभ्येत्य वचनच्छलात्तां वासनिकां लावा गतः । पुनद्वितीय आगात्, वासनिकां याचते स्म । श्रेष्ठी जगौ -- मया दत्ता तव सोदराय । पान्थिकोऽवग्-- कस्य सोदरः, वासनिकामर्पयेः । ततो द्वावपि राजकुले गतौ । स्वं स्वं सम्बन्धं प्रोस्तुरेवं-प्रथमं श्रेष्ठी जगौ द्वाभ्यां धूर्त्ताभ्यां वासनिका मुक्ता ममाट्टे | एकश्छलं कृत्वा ललौ तां किं क्रियतेऽधुना मया । अथ धूर्खोऽवग् वासनिकां मुक्त्वा मयोक्तं यदाऽडवाभ्यां 15 द्वाभ्यामागम्यते तदा अर्पणीया वासनिका । ततस्त्वरितं जल्पन्तं वीक्ष्य तं धूतं मत्वा च मन्त्रिभिर्बुद्धिमद्भिः प्रोक्तं- युवां द्वौ सोदरौ एकीभूयात्रागच्छतः । ततोऽसौ श्रेष्ठी वासनिकामयिष्यति त्वयैवं प्रोक्तत्वात् । ततः स्वं मस्तकं खज्जयित्वा गतो धूर्त्तः ।
इति युद्धौ धूतकथा ॥ १५४॥
20
25
[155] अथ धर्मविषये योगिकथा |
कस्यचित्पुरोपान्ते ध्यानलीनं योगिनं दृष्ट्वा लोकाः प्रष्टुमागच्छन्ति । यतः
मनोहरपुरोपान्ते, ध्यानलीनं तु योगिनम् ।
दृष्ट्वा शुभाशुभं प्रष्टुं व्रजन्ति स्म पगे प्रगे ॥ १ ॥
स्वं स्वं चिन्तितं माँ, प्रष्टुं यदा जल्पन्ति मानवाः । तदा योगी जगौ लोका, विलोक्य कथ्यते शनैः ॥ २ ॥
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ततो लोका बराहारैः प्रीणयन्तो निरन्तरम् । प्रातः प्रातः समागत्य, प्रणामं तन्वते सदा || ३ || अन्येद्युर्मनुजा मध्य - 1 [-दिनं यावत्स्थिता जगुः । यदा प्रष्टं त्वयाऽस्माकं कथ्यन्ते [ते] वाञ्छयते तदा ॥ ४ ॥
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प्रथमोऽधिकारः
नो चेद्वयं भवन्तं तु, मुक्त्वा यस्य पदाम्बुजम् । प्रणम्य पृच्छयतेऽस्माभि- वि सर्व शुभाशुभम् ॥ ५॥ ततो योगी जगौ लोका. आर्ताः पृच्छन्ति सन्ततम् । यद्भावि तद्भवत्यैव, कोऽपि न छुटति कर्मतः ॥ ६॥ ढुंढणी ढुंढि ढुंढि जगदीठा, जो जस भावइ सो तस मीठा । 5
सुखिई बइठउ कोइ न दिट्ठो, इम जाणिनई करइ धर्म मीठो ॥ ७॥ एवं प्रोक्ते योगिना लोकाः सन्तोषं कृत्वा धर्म चक्रः ।
इति धर्मविषये योगिकथा ॥ १५५ ।।
[166 ] अथ क्रोधत्यजनविषये तापसकथा । एकस्मिन्पुरोद्याने भीमस्य तापसस्य तपः कुर्वतश्चक्षुषो विषमुत्पन्नं । ततश्चक्षर्विषः ऋषि- 10 दध्यौ-यो मां पराभविष्यति तस्मै एवाहं शिक्षा दास्ये दग्विषमुञ्चनात् । ततोऽदव्यामन्यदा तस्य तापसभ्य मस्तके बलाहिका विष्टां चकार । तदा स रुष्टस्तां भस्मीचके दृष्टिविषेण । ततोऽन्यदा कस्यचिच्छेष्ठिनो गृहे भिक्षा याचितुं गतः । तत्र श्रेष्ठिपत्नीदत्तं शीतलमाहारं न गृहणाति । तदा श्रेष्ठिपन्योक्तं-भिक्षुक ! 'अनई ऊंन्हां जीम ओ' ततस्तेन दृष्टि विषं मोचितुरक्ता दृष्टिः कृता। ततः साऽवग-नाहं बलाहका यत्त्वया क्रोधेन व्योम्नि गच्छन्ती भस्मीकृता । तापसोऽवग-भो श्रेष्ठि 15 प्रिये ! बनस्थं मच्चेष्टितं त्वं कथं वेरिस ? श्रेष्ठिपल्यवग-स्वं चरित्रं स्वयं प्रकाशयन् लघुतां याति, तेन त्वमयोध्यायां गच्छेः । तत्र देवडः कुम्भकारः कथयिष्यति मच्चरित्रं । ततः स तापसोऽयोध्यायां देवडकुम्भकारपाचे गत्वा प्राह-सा श्रेष्ठिपत्नी वनस्थं मच्चरित्रं कथं वेत्ति ? सोऽवग-साऽतीवक्षमावती विद्यते, रोषं तु कस्योपरि न कुरुते, तेन तस्य अवधिज्ञानं जातं, तेन ततो जानाति सर्व यतः
क्षमाखङ्गः करे यस्य दुर्जनः किं करिष्यति ।
अतृणे पतितो वह्निः, स्वयमेव प्रशाम्यति ॥१॥ तापसोऽवग-त्वं कथं जानासि तस्याः स्वरूपं ? कुम्भकारोऽवग्-सैव कथयिष्यति । ततः स तत्र गत्वा श्रेष्ठिपत्नीपावं कुम्भकारझातृस्वरूपं पप्रच्छ । तयोक्तं-तस्यापि क्षमाकरणात् । ततः स क्रोधं मुक्त्वा क्षमयित्वा ता तपश्चक्रे ।
25 इति क्रोधत्यजनविषये तापसकथा ।। १५६ ॥
[157 ] अथ मस्तकचटितमकुटादिकथा शुभाशुभयोर्विषये ।। . कस्मिंश्चिद्ग्रामे बहवो जनाः सभायामुपविष्टाः परस्परं गोष्ठी कुर्वाणा अभूवनिति, तदा
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१०० ]
प्रबन्धपाशतो
एकेन पृष्टमन्यस्याने-मस्तके चदितं किं किं शुभं भवति किं किमशुभं च ? यदा च केनापि न ज्ञात तदैकेन श्राद्धेन बुद्धिमता प्रोक्तं-मस्तके चटिता मुकुटमस्तकशीर्षिका पुष्पबोरसिन्दूरवेणीप्रभृतयः शुभा भवन्ति, शिरोऽर्तिपुत्रिका च अशुभा भवतः । यतः
शिरोतिर्वेदनामुत्पादयति. 'पुत्रिका लालिता या सा मस्तके चटितोच्यते' साऽपि मातापित्रो5 दुःखावहा भवति ।
इति मस्तकचटितमुकुटादिकथा शुभाशुभयोर्विषये ॥१५७॥
[158] अथ लौकिकी कृष्णार्जुनसम्बन्धिकथा । एकदा भद्रामवगणय्य अर्जुनो निजपुराद् द्वारवती प्रति चचाल तदा भद्रा स्वस्मिन्नवहीलनां ज्ञात्वा षट्त्रिंशदायुधानि कात्वा योद्धु संमुखमागात् । तदा पार्थस्तया सह योद्धं 10 लग्नः । भद्रा बाणधोरणी मुश्चन्ती पार्थस्योपरि मण्डपं चक्रे । तदाऽर्जु नेन युध्यता भद्राया हृदि
बाणो मुक्तः । तदा रक्तबिन्दुः पपातावनौ । स बिन्दुः पूर्वभद्रावत् द्वितीयभद्राऽभूत् । एवं यावन्तो रुधिरबिन्दवः पतिताः तावन्त्यो भद्रा अभूवन् । भद्राणां लक्षशः दृष्ट्वा पार्थः भद्रायाश्चरणकं विच्छेद यदा तदा भद्रा नग्नाऽभूत् । ततः पार्थः परस्त्रीसहोदरत्वात् पराक्मु
खोऽभूत् । ततो भद्राऽवग-भो अर्जुन ! सुभटास्तु पृष्टिं न ददते, त्वं तु सुभटतमः, कथं पृष्टिं 15 दत्से ? ततोऽर्जुनोऽवग् भो भद्रे ! स्वपदी विलोकय । तदा भद्रा स्वं नग्नत्वं दृष्ट्वाऽर्जुनस्य तु
परस्त्रीपराजमुखत्वं च तुष्टा सती प्राह-भो पार्थ! वरं याचस्व ! अर्जुनोऽवग-यदि तुष्टाऽसि तदा स्वीयां विद्यां मम वितर।
___ भद्राऽवग-मया तुभ्यं स्वीविद्या दत्ता । ततस्तां कला पार्थो लात्वा द्वारकायामाययौ, कृष्णस्य मिलितः, कृष्णस्य भगिनीं स्वानुरागां ज्ञात्वा पार्थो रथारूढां कृत्वा चचाल । ततः कृष्णः सुभद्रां 20 चालयितु यान भटानप्रेषयन् ते भग्नाः पश्चादाययुः। ततः कृष्णः तां चालयितु चचाल ।
ततोऽर्जुनो भद्रादत्तविद्यया युध्यति । कृष्णो वाणधोरणी तथा मुमोच यथा पार्थो हृदि विद्धः । ततो यावन्तो रुधिरबिन्दवः पेतुः तावन्तो अर्जुना बभूवुः। ततो लाशोऽर्जुनान् दृष्टा स्वा भगिनी पार्थाय ददौ । ततोऽथ वरं मागय अर्जुनोऽपि प्राह-मार्गय वरं । कृष्णोऽवग-अतः
परमनेन युद्धेन न योद्धव्यम् । ततोऽर्जुनोऽवग-अतः परं त्वया सममेव मया न योद्धव्यं यदा 25 कौरवैः सहास्माकं युद्धं जायते तदा त्वं सहायीभव । यदि कदाचिदस्माकं पश्चानां मध्य
एकोऽपि म्रियते तदा त्वया पञ्चमेन भाव्यं । कृष्णेनापि तत्प्रतिपन्न । मया च तव रथे सारथिना स्थातव्यं । ततो यदा पाण्डवानां कौरवैः सह युद्धमभूत् तदा कृष्णः पार्थस्य शाकटिकोऽभूत् । ततः कौरवां हताः । इति लौकिकी कृष्णार्जुनसम्बन्धिकथा ॥१५८॥
[159] अथ कर्मोपरि वेश्यापुत्रकथा । 30 एकस्मिन्पुरे भीमभूपस्य पुत्राणां शतमभूत् । राजा क्रमान्मृतः। पञ्चदिव्यानि अभिमन्त्रि___ तानि हस्ती यदा राज्यं दातुं चचाल तदा लोको जगौ-न ज्ञायतेऽसौ कस्य राज्यं दास्यते ।
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प्रथमोऽधिकारः
[ १०१ हस्ती एकस्यापि राजपुत्रस्योपरि न पूर्णकलशं ढोलयामास । ततो हस्ती पुराद्वहिगत्वा सरःपाली सुप्तस्य बालकस्योपरि कलशं ढोलयामास । ततः शुण्डयोत्पाट्य तं स्वस्कन्धे चारोपयामास । ततो लोका जगुः - असौ राजा कामकेल्या वेश्यायाः पुत्रोऽतः कथमस्य प्रणामः करिष्यते ! तदा व्योम्नि वाणी बभूवेति अनेन पूर्वभवे जिनाच कृता तेन राज्यं जातं । एकदा च जातिगर्वः कृतस्तेन नीचकुले जातः । ये भूपपुत्राः सन्ति अल्पयुण्यास्तेन तेषां राज्यं न जातं । ततस्तस्य मन्त्रिभिर्नन्दभूप इति नाम दत्तं । ततो राजा स प्रभोः पूजां कुर्वाणः सर्वान् राजपुत्रान् यथोचितं मानयन् भूरिशो जिनप्रासादान् कारयामास । यात्रां तीर्थेषु चक्रे । ततो न्यायमार्गेण पृथिवीं पालयन स्वर्गं गतो राजा क्रमान्मुक्ति गन्ता ॥
इति कर्मोपरि बेश्यापुत्रकथा || १५९ ॥
5
[160] अथ क्रोधमानमायालो भविषये सर्वलोक भूपवणिग्मंत्रिविप्रसम्बंधः ।
एकस्मिन्पुरे चतुरशीतिचतुर्ह श्रेणिषु यद्विलोक्यते तल्लभ्यते । राजा च चन्द्रः, मन्त्री सोमः । श्रेष्ठिनः सामन्ता वणिक्पुत्रादयो बहवः सन्ति च । यद्यद्वस्तु तत्रायाति तत्तत्सवं लोकैर्गृहयते इति ख्यातिः सर्वत्राऽभूत् । तदा मोमपुराधीशेन कमलेन परीक्षार्थं छारपुञ्जादिभिरष्टौ शकटानि भृत्वा प्रेषितानि । तस्मिन्पुरे लोका वस्तु गृहीतुं समागताः । छारपुञ्जादि दृष्ट्वा यदा लोकाः पावलिरे तदा वस्तुस्वामिभिः प्रोक्तम् - अपराण्यपि शकटान्यानीताति सन्ति, तेषु यद्वस्तु विद्यते I5 तद्गृह्यतां । लोका जगुस्तानि दर्शयथ । ततस्तैरुक्तं शकटद्वये मानोऽस्ति । शकटद्वये क्रोधोऽस्ति । शकटद्वये लोभोऽस्ति । शकटद्वये मायाऽस्ति । यदि भवद्भिर्वस्तु न गृह्यते तदा युष्माकं पुरस्य ख्यातिर्गमिष्यति । तदा बहुभिर्लोकैर्मिलित्वा चत्वारि क्रोधमानमायालोभशकटानि गृहीतानि । द्रव्यं दत्तं जल्पितं । ततः सायं स्थितं शकटचतुष्टयं राजद्वारे नीतं । तैः प्रोक्तं यद्येतानि शकटानि पश्चाद्यास्यन्ति तदा पुरस्यास्य ख्यातिर्गमिष्यति । ततो लोभशकटं राज्ञा गृहीतं, ततो 20 भूपा अतृप्ता जाताः । मायाशकटं वणिग्भिगृहीतं, ततो मायावन्तो वणिजो जाताः । मानशकटं मन्त्रिभिर्गृहीतं, ततो मन्त्रिणो मानिनो जाता, यतो मन्त्रिणो जगतृणं मन्यन्ते । क्रोधशकटं विप्रैर्गृहीतमतस्तेषामतीव क्रोधोऽभूत् ।
इति क्रोधमानमायालोभविषये सर्वलोक भूपवणिग्मन्त्रिविप्र कल्पिताः स्वयंज्ञेयाः ॥ १६०॥ [161] अथ लक्ष्मीमदे चन्द्रसम्बन्धः ।
घोर श्रेष्ठिनः वीरो भ्राता लघुरभूत् । धीरस्य पुत्रास्त्रयो जाता, वीरस्यैक एव चन्द्रः पुत्रः । अन्येयुर्भ्रातरि मृते चन्द्रो धीरस्यातीव वल्लभोऽजनि । यदा जिमति धीरस्तदा स्वस्य मध्ये जिमयामास । सृष्टान्नपानवस्त्रभूषणताम्बूलादिदानैश्चन्द्रं धीरः प्रीणयति पोषयति च । क्रमात् पितृव्येन भ्रातृजो विद्याः पाठितः ।
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एकदा चन्द्रोsar - काका अहं लक्ष्मीमर्जयितुं यामि । पितृव्यस्तु मोहाचन्द्रमात्मनः सकाशा- 30 दन्यत्र न प्रेषयति ।
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प्रबन्धपश्चशती
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अन्यदा पितृव्यं परिपृच्छयान्यत्र प्रामे व्यवसायार्थ गतः तदा तस्य ग्रामस्याधीशे मृते भूपपुत्रः पद्मो राज्ये उपविष्टः । चन्द्रस्तस्य पार्श्व उपयाति । क्रमास मन्त्री कृतो राज्ञा । ततश्चन्द्रो वयवेषभृत् बहुसेवकेभ्यः परिवृतो राज्यचिन्तां करोति बहुसेवकैदैत्तहस्तश्चलति । चन्द्रः सेवकाः शयने उपवेशयन्ति । तं पादुकादि संपरिधापयन्ति शयनोपवेशनावसरे पादौ तस्य चम्पयन्ति । चलतस्तस्य मार्ग दर्शयन्ति, जल्पने जी-जी कुर्वन्ति । एवमिभ्या अपेतना मन्त्रिणोऽपि जी-जी शब्द कुर्वन्ति स्म ।
इतो धीरोऽन्येन जनेनोक्तः-भो श्रेष्ठिन् ! भूपस्यातीवमान्यो जातोऽस्ति, भवता पालि - तोऽस्ति तत्र गम्यते तत्रापि सन्मानदानप्रीणनं करिष्यति । ततः श्रेष्ठी तत्र पुरे गतः । राजमार्ग
भ्रातृजं जनहस्त विलग्नं गच्छन्तं दृष्ट्वा तत्रागच्छतिः श्रेष्ठी । राज्यमदलक्ष्म्यन्धीभूतो भातृजश्चन्द्रः 10 पितृव्यस्य संमुखमपि न विलोकयति । ततो मध्याह्ने कथंचिद्वारपालक मानचित्वा भ्रातृजपाचे
गतः । भ्रातृजस्तु भुक्त्वा शयने सुप्तोऽभूत् । तदा एके तेन समं वार्ता कुर्वन्ति । एके पादौ चुम्पन्ति । एकस्तु पत्राण्यप्र्पयति नागपत्राणि छागवद्भक्षयति । एवं कुर्वन् चन्द्रः पितृव्यस्य संमुखमपि न विलोकयति । ततः पश्चात्स्वगृहे समागतः श्रेष्ठी लोकः पृष्ट:-भ्रातृजेन किं दत्तं ? कथं कथं सन्मानितो भवान् ? श्रेष्ठ्यवग-अधुना भ्रातृजो मन्दोऽस्ति स च तेन मां नोपलनयति । लोकोऽवग-नीरोगभवनं यावत् कि न स्थितं, कथं नीरोगो भविष्यति । श्रेष्ठी प्राह-पञ्च वा सप्त वा नव्यागात्यतुल्यवैद्या नीरोगं करिष्यन्ति ।
इतोऽमात्यैश्चन्द्रस्य चाडिकां कृत्वा कारागारे चन्द्रः क्षिप्तः । राज्ञा सर्व धनं गृहीतं बाहुसखाकृतश्च । ततो दध्यौ चन्द्रः कथमहमितो गुप्तिगृहान्निःसरिष्यामि । ततो गुप्तिगृहेषु सुप्तेषु
छन्नं निर्गत्य स्वपुरमागाच्चन्द्रः 'काका जुहारेति' 'वदन्मिलितः काकोऽवग-भ्रातृज ! कथं 20 नीरोगता ते जाता ? भ्रातृजोऽवग-राजदण्डामात्यवैद्यैः नीरोगोऽहं कृतः । ततः श्रेष्ठी प्राह-वयं
जातं यत्त्वं नीरोगोऽभूः । भ्रातृज! धनेनैवमन्धीभूयते । अहं तत्रागतोऽपि त्वया न वीक्षितः । ततः उत्थाय चन्द्रः पितृव्यपदोः पतित्वा झमयामास स्वापराधं मम शिक्षा ददत्स्व ! ततः पितृव्योक्ते पुण्यमार्गे भ्रातृजो लग्नः । इति लक्ष्मीमदे चन्द्रसम्बंधः ॥१६॥
[162] अथ कृपणत्वे भेष्ठिसम्बंधः । 25 श्रीपुरे भीमश्रेष्ठी कृपणः स्तोकमपि धनं न व्ययति धर्म गृहे च । एकदा श्रेष्ठी पुत्रं सप्प
दष्टं मत्वा दध्यावसौ अत्र पुरे गारुडिकोऽस्ति । स च सर्पदष्टं ५० दीनारैः, वृश्चिकदष्टं चतुर्भिद्रम्मै वयति । यदि सर्पदष्टं कथयिष्यामि पुत्रं तदा ५० दीनारान् मार्गयिष्यति । ततो वृश्चिकदष्टं पुत्रं कथयिष्यामि । ततो मन्त्रज्ञपार्श्वे पुत्रं नीत्वा श्रेष्ठी प्राह-वृश्चिकदष्टं मत्पुत्रं निर्विषं कुरु ।
४ द्रम्मा दास्यन्ते । ततो मन्त्रज्ञो वृश्चिकमन्त्रं जपन्नभूद्यावत् तावत् श्रेष्ठ्याह-सर्पस्यापि मन्त्रो 30 जपनीयोऽन्तराले। ततो मन्त्रज्ञोऽवग ५० दीनारान् देहि । श्रेष्ठी तु कृपणत्वात् न दत्ते । ततः पुत्रो मृतः । कृपणत्वात् पुत्रो मृतः सेहे ।
इति कृपणत्वे श्रेष्ठिसम्बन्धः ॥१६२॥
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प्रथमोऽधिकारा
[163] अथ मरुस्थलीयमुग्धजनसम्बंधः । एकदा गुरवः क्वचिद्ग्रामे मरुस्थल्यां ययुः। लोकेभ्यो धर्मोपदेशो दत्तः। साधवो विहर्तु गताः । श्राविकाभिः पृष्टं श्रीगुरूणां भवतां वा करमदीरासः समेति. नवा ? साधुभिरुक्तं-न समेति । ताभिरुक्तं गुरूणां करमदीरासोऽपि नायाति, इति हसितम् ।
ततः साधुभिः श्राद्धोहसितसम्बन्धं गुरूणां ज्ञापितं । गुरवों अंगु-य॒यं मुग्धाः न जानीथ 5 अल्पितं । कल्ये भवद्भिः श्राद्धीनामग्रे वक्तव्यं शालायामागम्यं । गुरवः कथयिष्यन्ति रासं । श्राविका गुरुपार्श्व आगताः। गरुभिः प्रोक्तं-करमदीरासा बहवः सन्ति । यष्माक को न ? ततस्ताभिः प्रोक्तं-वयं जानीम एक एव रासोऽस्ति । गुरवो जगुः-यो युष्माकमायाति स गण्यतां । ततस्ताभिरुक्तो, गुरुभिरपि प्रोक्तः स एव, ततस्ताभिरुक्तं गुरवो विज्ञा एव । एवं मरुस्थलीयमुग्धजनसम्बंधः ॥१६३॥
10 [164 ] अथ धर्मविषये वज्र-रत्न-लोहाकरादिसम्बंधेद्रव्य धर्मगणितचरणानुयोगसम्बन्धः ।
लक्ष्मीपुरे जितशत्रोभूपस्य श्रीः पन्यभूत् । चत्वारः पुत्रा भीम-सोम-चन्द्रा-र्जुननामानाः । तस्य राज्ञो वज्र-कनक-रजत-लोहाकरा आसन् । राज्ञा परलोकं गच्छता चत्वार आकराः प्रत्येक विभज्य दत्ताः । त्रयो हृष्टाः। चतुर्थो लोहाकरग्राही कृष्णास्योऽभूत् । चतुर्थ भूपपुत्रं श्यामास्य वीक्ष्य सुमतिमंन्त्री पप्रच्छ । किं तवास्यमीदृग् ? ततस्तेन श्यामास्यसम्बन्धे प्रोक्ते मन्त्री प्राहार्जुनं 15 प्रति पिता त्वां लघु पुत्रं ज्ञात्वा भक्त्या तव लोहाकरो व्याणि । अर्जुनोऽवग-कथं ज्ञायते ? मन्त्री प्राहेति-पित्रा ज्ञापितमस्ति ते लोहाकस्रात्. यावन्माचं लोहं निःपद्यते तावत्त्वया भण्डारे स्थाप्यं, न विक्रेतव्यं । बञाकारादयो लोहं विनान वज्रादि लातुमीशते । ततोऽर्जुनोऽखिलं लोहं भण्डारे चिक्षेप । क्रमाल्लोहे निष्ठिने ते भीमादयो राजपुत्रा लोहं विना वज्रादीन लातुं समारयितुं न समर्था बभूवुः । ततः साधिक वनादि तोलयित्वा लोहं गृहृते । ततोऽर्जुनस्य बहुले 20 धने जाते हया हस्तिनो रथाः पदातयो बहवोऽभूवन् । क्रमान्महद्राज्यं जातम् । अर्जुनोऽपि भूपपुत्रो सुखी जातः । उक्तं चः--
जह रन्नो विसएस, वइरे कणगे य स्ययलोहे अ । चत्तारि आगरा खलु, चउण्ह पुत्ताण ते दिना ॥१॥ चिंता लोहागरिए, पडिसेहं कुणाई सो उ लोहस्स । वयराए हि अगहणं, करंति लोहस्स तिनिअरे ॥२॥ एवं चरणमि ठिओ, कारइ गहणं विहीइ इयरेसिं ।
एएणं कारणेणं, हवइ . हु चरणमहिट्ठिअं ॥३॥ - द्रव्यानुयोगो दृष्टिवादः ॥११॥ धर्मानुयोग उत्तराध्ययनादिः ॥२॥ गरिणतामुयोगः सूर्यप्रज्ञप्त्यादिः ॥३॥ चरणानुयोग ओधनियुक्त्यादिः ॥४॥
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१०४ ]
एतेषु चरणकरणानुयोगो मुक्तिहेतुः स्यात् ।
इति धर्मविषये वज्र - रत्न - लोहाकरादिसम्बन्धे द्रम्य - धर्म - गणित - चरणानुयोगसम्बन्धः ॥ १६४॥ [165] अथ प्रथमं चरणशास्त्रसाधुमणन सम्बंधः । बालाईणणुकंपा, संखड़िकरणंमि होइ अगारीणं । उमे बीअं भयं रजा दिन्नं जणवयस्स ॥१॥
?
एवं थेरेहिं इमा, अपावमाणाण पयविभागं तु । साहूणजुकंपट्टा, उहिट्ठा ओहनिजुची ॥२॥
5
प्रबन्धपती
तथाहि कस्मिन प्रामे विवाहे जायमाने बालानां प्रातरेवानुकम्पायै सुकुमारिकादिना प्रथ मालिका दीयते । अन्येषां वृद्धानां मध्याह्ने । एवं प्रथमदीक्षितानां साधूनां प्रथम मोघनियुक्ति दयते 10 भाण्यते पश्चात्क्रमादपरशाखाणि । एवं बालाः प्रथमदीक्षिताः साधवः सुखिनः स्युः । इति प्रथमं चरणशास्त्रसाधुभणनसम्बन्धः || १६५ ।। [166] अथ धर्मे ओघनिर्युक्तिसम्बन्धः ।
अवमे दुर्भिक्षे सर्वाः प्रजा धान्यं विना स्त्रियमाणा दृष्ट्वा दद्धयौ - प्रजासु सतीषु राजा वर्धते । ततो राजा भाण्डागाराद् धान्यं कर्षयित्वा प्रजाभ्यो ददौ । प्रजाः सुखिन्योऽभूवन् एवं जिने15 रोघनियुक्तिर्दता । इति धर्मे ओषनियुक्तिसम्बन्धः ॥ १६६ ॥
20
[167] अथ सन्दिग्धजपने सम्बन्धः ।
उज्जयिन्यां मालवाह्रा भूपा आगत्य मनुजान् हरन्ति । ततो ढोका बिभ्यति ।
एकदा कूपेऽरघट्टिमाला पतिता । तदैकेन नरेणोक्तं-माला पतिता । अपरेण ज्ञातं मालवाः, ततो मालवा मालवाः पतिता इति शब्दे श्रुते भयाल्डोका नष्टाः ।
इति सन्दिग्धजरपनसम्बंधः ॥ १६७॥
[168 ] अथ हितोपदेशे धर्मादेवा अपि सानिद्धयं कुर्वन्तीति विषये कथा |
कलिङ्गदेशे पुरे धर्मिष्ठाः श्राद्धा वसन्ति । सातिशयज्ञानिनः सूरयस्तत्र भव्यजीवप्रतिबोधायागता विहरन्तः । संज्ञायां गच्छतां तेषां सूरीणामेकस्य वृक्षस्य महत अधो देवता रूपधरा कृपं रोति । दिनद्वयं त्रयं दृष्ट्वा सूरिः प्राह - भो त्रि ! किं रोदिषि । साऽवग्-अहं 25 कारणेन रोदिमि । गुरुः प्राह--किं कारणम् ? साऽवग्-अहमस्य पुरस्याधिष्ठात्री । अस्मिन्पुरे arre: स्वाम्यादिपुण्यं कुर्वन्ति प्रासादाः सन्ति । पुरमेतन्नदीप्रवाहेण प्लावयिष्यते । गुरुः प्राह किमभिज्ञानमस्ति । सा देवताऽवग्— कल्ये भवत्सम्बन्धी बाधुदुग्धं विहरिष्यति तच्च रुषिरं
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प्रथमोऽधिकार
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भविष्यति । ततस्तदृष्ट्वा युष्माभिर्नष्टव्यं । यत्र रुधिरं दुग्धं भवति तत्र स्थातव्यं । एतत्सर्व देवतोक्तं गुरुभिः श्राद्धानां पुरः प्रोक्तं । ततो द्वितीयदिने दुग्धं रुधिरं भूतं दृष्ट्वा गुरुभिनष्टं । यत्र तद् दुग्धं जातं तत्र गुरुभिः स्थितं, ये च गुरुभिः सह निर्गतास्तेऽपि यत्र गुरवः स्थितास्तजागताः । पश्चान्नदीप्रवाहेण पुरं सर्व प्लावितं । ये स्थिता मृतास्ते, ये च गुरुभिः सार्द्ध निर्गताश्चिरं जीविताम्ते च धर्म चक्रः । यत्र रुधिरं दुग्धं जातं तत्र पुरं स्थापितं, श्राद्धा 5 वसन्ति स्म । गुरवः स्थिताः प्रासादा अर्हतां निष्पन्नाः । इति हितोपदेशधर्मादेवा अपि सान्निध्यं कुर्वन्तीति विषये कथा ॥१६८॥
[169] अथ जिनाज्ञापालने कथा । रन्नो तणघरकरणं, मचित्तकम्मं गामसामिस्स । दुन्हंपि दंड करणं, विवरीअमन्नेणुवणुओ अ ॥१॥
10 जह नरवइणो आणं, अइक्कमंता पमायदोसेणं ।
पावंति बंधवहरोहछिज्जमरणावमाणाणि ॥२॥ अत्र कथा--एकेन भूपेन एको ग्राम चन्द्रपुराह्वः सेवकम्य दत्तोऽन्योन्यस्य लक्ष्मीपुरातः ।
अन्यदा राज्ञा ज्ञापितं-अहं चन्द्रपुरे समेष्यामि । तदा ग्रामस्वामिना लोकैश्च राज्ञोऽथ तृणकुटीरं कृतं । ग्रामेशस्य वय सचित्रकर्म च । राजा तत्र गतः । राज्ञा स्वोत्तारस्तृणमयो 16 दृष्टः । ग्रामस्वामिनः सचित्रकम्ममयश्च, ततो राज्ञा लोका ग्रामेशश्च दण्डितः । एवं भूपतुल्यो जिनः, ग्रामेशतुल्या गुरवः, ग्रामलोकतुल्याः श्राद्धाः । ये जिनेन्द्रोक्तं धर्मानुष्ठानं कुर्वन्ति ते सुखिनः स्युः, ये न कुर्वन्ति ते दुःखिनः स्युः ।।
इति जिनाज्ञापालने कथा ॥ १६९ ।। [ 170 ] अथ जिनेन्द्रगुरुमातृपितृसुहृदादिवचःपालने दृष्टांतः । जिअसत्तदेविचित्तसहपविमणं कणगपिट्ठपासणया । डोहलदुबलपुच्छा, कहणं आणा य पुरिसाणं ॥१॥ सीवन्त्रिसरिसमोअग - करणं सीवनिरुक्खहिट्ठासु । आगमणकुरंगाणं, पसत्थमपसत्थउवमाओ ।। २ ।।। बिइयं मे कुरंगाणं, जया सीवन्निसीवइ ।
पुराविवाया वायंति, न उण पुञ्जगपुजगा ॥३॥ वसन्तपुरे जितशत्रोभूपस्य धारिणी पल्यभूत् । सा चैकदा चित्रसभायां गता कनक पृष्ठमृगान् दृष्ट्वा दोहदं प्राप्य वेति दध्यौ । “सा धन्या स्त्री या एवंविधमृगचर्मसु सुकुमालेषु
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प्रबन्धपञ्चशती
स्वपिति, एवंविधानां मांसानि च खादन्ति" । एवंविधदोहलेन दुर्बलाऽभूधारिणी, राज्ञा दुर्बलकारणे पृष्टा राज्ञी स्वदोहदोत्पत्तिस्वरूमं जगौ । ततो राज्ञी दोहदस्वरूपं सेवकानामग्रे प्रोक्तं । ततस्ते सेवका जगुः। तेषां मृगाणां श्रीपॉफलाहारो वल्लभो भवति । यत्र श्रीपर्णीफलानि भवन्ति तत्रावश्यं भक्षयितुमायान्ति । अधुना श्रीपर्णीफलभवनकालो नास्ति तेन कृत्रिमाणि श्रीपर्णीफलानि कृत्वा श्रीपर्णीवृक्षाणामधो मुच्यन्ते । तेषु ते मृगाः समायान्ति भक्षयितुं तानि, सतो ध्रियन्ते मृगाः, तान् हत्वा राज्या दोहदः पूर्यते । एवं विचार्य राशा कनकपृष्ठमृगग्रहणाथै सेवकाश्चालिताः, ते च तस्मिन्वने गताः, श्रीपर्णीतरूणामधः कृत्रिमश्रीपर्णीफलैः पुजाः कृताः । ते नृपसेवकाश्छन्नं स्थिताः । तदा शनैः शनैः कनकमृगाः श्रीपर्णीफल
पुजं दृष्ट्वा यूथपतेः पुरो मृगा जगुः-श्रीपर्यः फलिताः। ततो यूथपतिस्तत्राभ्येत्य श्रीपर्णी10 फलपुब्जान वीक्ष्य दध्यौ-अस्मिन्काले श्रीपर्णीफलानि न भवन्ति । कदाचिद्भवन्ति तदा पुब्जा
न भवन्ति । वायुवशात्कदाचित्पतन्ति तदा पुञ्जा न भवन्ति । इत्यादि ध्यात्वा यूथपतिः प्राह-अत्र केन कूटं कृतमस्ति तेन वृक्षाणामधो न केनापि यातव्यं, यूथपतिना प्रोक्ता ये न तत्र गतास्ते सुखिनोऽभूवन ये च गतास्ते हताः । एवं येऽहंदुक्तं गुरुवचनं कुर्वन्ति ते स्वर्गादिभाजः स्युः, ये जना न कुर्वन्ति गुरूवतं ते नारकादिदुःखभाजो भवन्ति । इति जिनेन्द्रगुरुमातृपितृसुहृदादिवचःपालने दृष्टान्तः ॥१७०॥
[171] अथ हितोपदेशे कथा । हत्थिरगहणं गिम्हे, अरहदेहिं भरंतु सरसीणं । अद्धदए नलवणा, अभिरूढा गयकुलागमणं ॥१॥ बिइअ मेअं गयकुलाणं, जयारोहति नलवणा ।
अन्नया वि झरति झरा, नय एवं बहु उदगा ॥२॥ श्रीपुरे अरिमईनभूपस्य हस्तिनां ग्रहणेच्छाऽभूत् । तेन राज्ञा कुञ्जरग्रहणार्थ पुरुषा आदिष्टाः । ततस्ते राजपुरुषा दध्युरिति यत्र हस्तिनस्तिष्ठन्ति तत्र नलवनं शुष्कं ग्रीष्मकाल जलं तत्र नास्ति तेनारघट्टकरणसरणिप्रयोगेण जलं कर्षयित्वा नलवणमारोप्य सिच्यते । ततो नलवनं प्ररूढं
हरितमयं नलवनं दृष्ट्वा हस्तिनो यूथपतेः पुरः प्रोचुः-नलवनं प्ररूढं तत्र गम्यते नलवनतृणानि 25 भक्ष्यन्ते । ततस्तत्र समीपे समेत्य सरणिप्रयोगेण पानीयमागच्छत् प्ररूढं नलवनं दृष्ट्वा हस्तीश्व--
रोऽपरेषां हस्तिनां पुरः प्रोचुः-ग्रीष्मकाले एवंविधं जलं न दृश्यते । पुरा कदाचिद् दृश्यते चेत्तदा एवंविधानि न तृणानि दृश्यन्ते । तेनात्मनां ग्रहणार्थ केनचित्कूटं कृतमस्ति । अत्र न स्थीयते । तृणानि न भक्ष्यन्ते । एवं यूथपतिना प्रोक्ताः केचिघूथपतिप्रोक्तं मन्यन्ते स्म केचिन्न मन्यन्ते ।
यैह स्तिभिः स्वामिवचः प्रतिपन्नं ते सुखिनोऽभूवन् । यैर्न प्रतिपन्नं ते धृता हता दुःखिनोऽभूवन् । 30 एवं यैर्गुरुमातृपितृतीर्थकद्वचो मेने ते स्वर्गादिसुखभाजोऽभवन् , यादिवचो न मेने ते
नरकतीर्यग्भवादिदुःखं प्राप्यते । इत्यादिहितोपदेशे कथा ॥१७॥
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प्रथमोऽधिकार
[ १०७ [179] अथ स्ववैरिवालनकथा । श्रीपुरे भोमो राजा राज्यं करोति । तस्य मस्तके टालिः पतिता। रोमाणि न निर्गच्छन्ति । तदा टालिस्फेटनाय वैद्यपार्श्वे औषधं पृच्छति स्म । तदा एकदा तस्मिन्प्रामे आरामिकेण वाटिका रोपिता। त्रपुसीप्रमुखफलानि वर्याणि जातानि । अन्यदा वाढीपार्श्व गच्छन् कोऽपि धूर्तों वैद्यः त्रपुसीकृते प्रविष्टः । तदा तेन ताडितो हकिकतश्च रे दुष्ट! त्वं मम वादयां प्रविशसि कि ? ततो 6 धूर्तो प्राममध्ये गत्वा दध्यौ कांबिकस्य मया शिक्षा दास्यते । ततो राज्ञो मिलितः । राज्ञा पृष्टश्च कानि कानि शास्त्राणि भणितानि भवता ? तेनोक्तं-वैद्यक-यन्त्रमन्त्रचूर्णवशीकरणादिशा. खाणि भणितानि मया । ततो राजाऽवग-भो वैद्य ! तथा कुरु यथा मम टालिफति । धूतोंऽवग-अमुकारामिकवाटी सवृत्तिः प्रज्वाल्यते तस्य यद्भस्म स्यात्तेन यदि मस्तकं खरण्टयते सप्त दिनानि यावत्तत्तदा टालियति । ततो राज्ञादिष्टः सेव कस्तो वाटों भस्म्यकार्षीत् । तदा तत्रागत्य 10 धूर्तोऽवग-वाटी किं रक्ष्यते, तेन ततो मालिकोऽवग-भो धूत्ते ! मयापराधो यः कृतः स क्षम्यतां । ततो राजा जगौ-कथं मस्तके रक्षा लगाप्यते । धूर्तोऽवग -भवता मस्तकं रक्षया लगयता घोटिका न स्मरणीया । ततः सप्त दिनानि राजा रक्षा मस्तके लगयामास घोटिका स्मरन् , सप्तदिनादनु स धूर्तोऽवग-कथं रक्षा लगिता शिरसि । सा मम मनसि घोटिका यातीति स्मरन् रक्षा लगयामासाहं । ततो धूर्तोऽवग-तव घोटिका विस्मृता न, तेन टालिन गता। 16
इति स्ववैरिवालने कथा ॥१७२।। [173] अथ पतितपुष्पचटापने नीचकुलप्राप्तिसम्बन्धः । चाण्डालस्य पल्या सदन्तः पुत्रो जनितः सन् त्यक्तः अवकरे, स चापोत्कटेन भूपेन गृहीतः वर्द्धितः सर्वेषां मान्योऽभूत् । क्रमाकेवली राज्ञा पृष्टः । असौ पुत्रो मया पालिनः । अनेन किं पुण्यं कृतं पुरा ? केवली जगौ-अनेन पुत्रेण श्रीजिनेन्दस्य पूजां कुता एकदा पयस्तिकाया 20 अधः पतितं पुष्पं प्रभोश्चदापितं भक्त्या, भक्तिपूजाप्रभावात्तव पालितपुत्रोऽखिलराजपूज्यमानोऽभूद्यदनेन पतितेन पुष्पेण प्रभुः पूजितः तेन चाण्डालकुलं प्राप्य तव पालितपुत्रता प्राप । ततः प्रमुपूजाप्रभावात् भवे भवे वर्द्धमानां श्रियं प्राप्य मुक्ति यास्यति ।
इति पतितपुष्पचटापने नीचकुलप्राप्तिसम्बन्धः ।।१७३। [174 ] अथ हितोपदेशे वानरयूथसम्बन्धः ।
26 एकस्मिन्बने वानरयूथपतिः शुष्कवनं दृष्ट्वा वानरान्प्रति प्रोवाच ! गच्छत यूयं शाड्वलं वनं पश्यतां । ततस्ते वानरा वनं वीक्ष्य यूथपतेः पुरः प्रोचुः-ततो यूथपतिर्वानरैस्तस्मिन्वने ययो, शाडूवलानि तृणानि र्याणि फलानि भक्षितानि तैः । द्रहे पयः पातुं ययौ यूथयतिः । तदा तत्र यूथेशस्तस्मिन् द्रहे पयः पातुं आगच्छता पशूना पदानि दृष्ट्वा पश्चाद्वलमानानामदृष्ट्वा यूयेशो जगौ-भो वानरा! यूयं नलिनीपत्रः पयोऽत्र पिबन्त न च मध्ये प्रवेष्टव्यं । अयं हृदः 30
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२०८ ]
प्रबन्धपञ्चशती
सापायो दृश्यते । तेन यूथेशेनोक्तं ये चक्रस्ते सुखिनो जाताः ये च न चक्रुस्ते मृताः । एवं ये गुरुमातृपितृस्वामि मित्रादिवचः कुर्वते ते सुखिनो भवन्ति नेतरे ।
इति हितोपदेशे वानरयूथसम्बन्ध || १७४ |
[175 ] अथ विनये परस्परं भद्रिका साधुसम्बन्धः ।
एकस्मिन्ग्रामे भद्रा श्राविका वसति । तस्याश्चेद्र्यस्ति । अन्यदा भद्रिका क्षेत्रे गता । साधवस्तस्या गृहे भिक्षार्थमाययुः । चेटीं धर्मलाभयामास तदा चेट्या कुरो दत्तः साधुभ्यः । साधुना मुद्गा मार्गिता: तया तेऽपि दत्ताः । पुनः पुनः मार्गितं घृतदध्यादि दत्तं च । साधुर्गतः भद्रिकाता जेमितुमुपविष्टा कूरं याचितवती, चेटी साधवे ददे क्रूरः, भद्रिकाऽवग्वर्यं कृतं मुद्गा मार्गिता भद्रिकया, चेट्योक्तं साधवे दत्ता एवं यद्यद्याचते तत्तत्साधवे 10 दत्तमिति चेट्योक्तं भद्रिका रुष्टा । गुरुपार्श्वे गत्वाऽवग्- भगवन् ! युष्माकं साधव अनीदृशा विद्यन्तं । यतो मद्गृहसत्कं यतयः क्रूरमुद्रदध्यादि याचित्वा ललुर्दासीपार्श्वात् । ततो गुरुभिः साधूनाकार्योक्तं - भो साधव ! एवं विहरणे पापं लगति सारणादिः प्रोक्तं च । ततः स साघुरुत्थाय गुरुं प्रणम्य जगौ --अहमय रसमृद्धोऽभूवमद्य मयैवं कृतमतः परं न करिष्ये । ततो भद्रिकाऽपि साधुवचः श्रुत्वाऽवग्- अहं मुग्वाऽभूवं यद् गुरव उपलम्भिताः, 15 ततो मिथो गुरुसाधुभद्रिका मिथ्यादुष्कृतं चक्रुः ।
एवं चिनये परस्परं भद्रिका साधुसम्बन्धः ॥ १७५॥
5
[ 176 ] स्वपरिवारचिन्ताकरणवणिक्पत्नीद्वयसम्बन्धः ।
एकस्मिन्पुरे द्वौ सोदरौ वणिजौ जातौ । तयो रूपश्रीधर्मत्रियौ प्रिये । ताभ्यामभ्यस्मिकृषिण्डिता । एकस्य महिला प्रभाते उत्थाय मधूदकेन मुखं प्रक्षाल्य दन्तान् धावयित्वा 20 वर्षाभरणवस्त्रैर्भूषिता तिष्ठति । सा च कर्मकराणां सारां न चक्रे । एवं कुर्वत्यास्तस्याः कर्मकरादयो गताः । क्रमाद् गृह कर्मलक्ष्म्यादिरहितं जातं । ततः सा दुःखिनी जाता ।
25
अन्यस्य भ्रातुः पत्नी पुत्रपौत्रसेवककर्मकरादीनां सारा भोजनादिना तु कुर्वाणा भुङ्क्ते । आभरणादि च परिधत्ते स्म । ततस्तस्या गृहं सदा पुत्रकर्मकरलक्ष्म्यादिभृतं जातं । ततः सा चिरं सुखिनी जाता ।
एवं यः साधुरन्यो वा गृहस्थः आत्मनः सारं करोति नान्येषां परिवारसत्कानां स दुःखी स्यात् प्रथमभ्रातृपत्नीवत् । यस्तु साधुर्गृहस्थो वा स्वपरिवार चिन्ता कृत्वा आत्मचिन्तां करोषि स द्वितीय भ्रातृपत्नीवत् सुखी भवति ।
इति गृहसारासारकरणदोषादौ - स्वपरिवार चिन्ता करणवणि पत्नीद्वयसम्बन्धः ॥ १७६॥
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प्रथमोऽधिकार
[ १०९ [177] अथ दक्षत्वे मत्स्यसम्बन्धः । एकस्मिन् जलाशये मत्स्यान् धर्तुं मत्स्यबन्धेन मांसं यन्त्रबद्धं कृत्वा मुक्तं तदा तत्रैको मत्स्यो विचक्षणस्तत्र शनैः शनैः समेत्य यन्त्रस्य परितः स्थितं मांस भक्षयित्वा पृथक्तिष्ठति । क्रमास मत्स्यः सर्व मांसमाद । ततो मत्स्यबन्धे सावधानीभूते सति पुच्छेन जलं हन्ति मत्स्यः तदा मत्स्यबन्धकस्तं तथाविधं मत्स्यं दृष्ट्वा दध्यावेवमसौ यन्त्रे न पतिष्यति ततश्चैवं ध्यायन्तं मत्स्यबन्धकं दृष्ट्वा मत्स्योऽवग-अहमेकदा बलाकया गृहीतो यदा तदा बलाका मां मुखे क्षिपति यदा तदाऽहं वक्रो भवामि । ततो बलाकया मुक्तो जलेऽगमं । पुनर्बलाकया पूर्ववद्गृहीतो जलेऽगममेवं वारत्रयं बलाकामुखे वक्रत्वेन पतित्वा नष्टः । ततोऽब्धौ गतः, तत्र मत्स्यबन्धेन वलक (य) मुखानि मण्डितानि दृष्टानि मया, तेषु वलयमुखेषु पतितोऽहं २५ वारा बलयमुखं त्रोयित्वा कदाचिन्मायया मृतप्रायो भूत्वाऽऽस्थाम यदा तदा मत्स्यबंधो मां मह्यां मुमोच । ततोऽहं नंष्ठा जलेऽपतं दैवयोगादहं जले स्थितः क्रमाद् हृदः शुष्कः मत्स्यबन्धस्तत्रागात कियन्तो मत्स्या मृताः कियन्तो गृहीतास्तेन । ततोऽहं मत्स्यः शलं मुखे स्वयं क्षिप्त्वाऽऽस्थां । ततो मत्स्यबन्धो दध्यो-अयं मत्स्यो मृतः । ततो मत्स्यबन्धोऽन्यस्मिन् हृदे गतः यावत्प्रक्षालयितुं लग्नो मत्स्यान् तावदहमुत्प्लुत्य जलेऽगमम् । सोऽहं मत्स्यो भवता ग्रहीतुं वाञ्छयते । तेन ते महती धृष्टता, अहं तु बहुधृष्टोऽभूवं । यो बहुस्थानेषु धृष्टः स कुत्रापि न बध्यते, यतः
(गलमसंडगभक्खण गल्लस्स पुच्छेण घट्टणया । )* अह मंसंमि पहाणो, वायं मच्छियं भणइ मच्छो। किं झायसि तं एवं, मुणु भाव जहा अहरिओसि ॥१॥ तिबालगमुहे मुक्को, तिखुत्तो वलयामहे । तिसत्तखुत्तो जालेन, सयं छन्नोदए दहे ॥२॥ एयारिसं महं सत्तं, मज्झ घट्टीअथट्टणे ।
इच्छंसि तं गले वित्तुं अहो ते अहरिया ॥३॥ एवं प्रोच्य मत्स्यो जले गतः । एवं जनः कदाचिद्बहीषु आपत्सु आगतासु जीवति सम्पदं लभते । एवं यः स्वकार्ये पुण्यं वा कुर्वन् अन्येन न छल्यते स सुखी भवति ।
___ इति दक्षत्वे मत्स्यसम्बन्धः ॥१७७||
[178] भाषासमितिजसपने देवदत्तसम्बन्धः । एकस्मिन् प्रामे देवदत्तः पुमान् देवस्य मालाया,२ बर्जरिकाया३ गर्दभस्य च नाम न गृहाति, सपापत्वात् । स चान्यदा स्वक्षेत्रे बर्जरीशालिनि गतः सन् तदा मालाचटितं डेढ़ * इयं गाथा सम्पूर्णा नोपलभ्यत्वे कुत्रापि । संपा०
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११. ]
प्रबन्धपञ्चशती
टोहनार्थ गर्दभं बर्जर खादन्तं वीक्ष्य भाषासमित्या जगौ
"रे कुमाणुस १ कुरूपि चड्यो २ ताहरउं कुधन ३ कुलंठ ४ खायइ ।" एतत् श्रुत्वा ढेढः सावधानोऽजनि । ततः क्षेत्रं रक्षितं तेन एवं बुद्धिमद्भिवक्तव्यम् ।
इति भाषासमितिजल्पने देवदत्तसम्बन्धः ॥१७॥
[179 ] पुण्योपरि चतुर्वणिकपुत्रसम्बन्धः । एकस्मिन् पुरे चत्वारः श्रेष्ठिपुत्रा बभूवुः । क्रमात् श्रेष्ठिना परलोकं गच्छता पुत्रेषु धनं वितीर्य कुटुम्बभार स्थापितः । ते तु पृथग्भूताः, वृद्धः पुत्रो यानं क्रयाणकभृतं कृत्वाब्धौ चचाल । अन्यस्मिन् द्वीपे गत्वा चतुर्गुणं लाभं प्राप्यागात् स्वपुरं । द्वितीयस्तु यानं भृत्वा
क्रयाणकैश्वचालाब्धौ स च दैवयोगात्सर्व निर्गम्य स्वपुरमागात् । तृतीयस्तु परिधानवस्त्रसस्खा 10 चचालान्यदेशे भूरिधनमजयित्वागात् । चतुर्यस्तु बाहुसखा चलितो बाहुसखा समागात् ।
एवं केचित्सुपुण्या जीवाः पश्चाद्भवादागच्छन्ति कृतसुपुण्याः परत्र सुखिनो भवन्ति, भरत-बाहुबल्यभयकुमारादिवत् १ । केचित्सुपुण्या आगच्छन्ति अकृतपुण्या यान्ति कोणि
१२ । केचिन्निष्पुण्या आगच्छन्ति सुपुण्या यान्ति परत्र च कालिकसूरिकपुत्रवत् ३ । केचिनिष्पुण्या आगच्छन्ति निःपुण्या गच्छन्ति दुःस्थपुरुषवत् ते नु इहामुत्र दुःखिनः ।
इति पुण्योपरि चतुर्वणिक्पुत्रसम्बन्धः ॥१७९||
[ 180] स्वपापप्रकाशक-कौटुम्बिकपत्नीसम्बन्धः । एकया कौटुम्बिकस्त्रिया पत्युशीकाराय परिव्राजिकापार्थात् कूरः चूर्णेनाभिमन्त्रितः । तया स्त्रिया अनुकंपया ध्यातं कदाचिदनेन चूर्णेन पतिर्भूतो भविष्यति तदा मम का गतिः, एवं
ध्यायन्त्या तया कूर उत्करटके क्षिप्तः । स कूरस्तदा गईभेन भक्षितः । खरस्तस्य गृहद्वारे 20 समेत्य द्वारं पुनः पुनर्घट्टयति रारटीति, ततः पत्नी पत्या पृष्टा, किमेष खरो द्वारं वारितोऽपि
घट्टयति पुनः पुनः, ततस्तया स्वचेष्टितं प्रोक्तं तेन । ततः पत्नो सविशेष मानिता परिव्राजिका दण्डापिता । एवं जीवः स्वपापप्रकाशक: सुखी स्यात् ।।
इति स्वपापप्रकाशककौटुम्बिकपत्नीसंबंधः ॥१८०॥
[ 181 ] अथ विनीतशिष्यसंबंधः । एका खी सुरूपं साधं दृष्ट्वा कामेच्छया भिक्षा चूर्ण मिश्रितां कृत्वा तस्मै ददौ । सोऽपि साधुरात्तभिक्षः तामेव त्रियं हृदि स्मरन् गुरुपार्श्वे समागात् । गुरुहस्ते दत्ता यावत्तावद्गुरूणामपि मनस्तस्य नार्या विषयभोगासक्तं जातं । ततो गुरुणा साधुः पृष्टा भिक्षा प्राप्तिसम्बन्धः । साधुना यथाप्राप्तः प्रोक्तः । ततो गुरुणा रक्षया इक्षितं कारयित्वा परिष्ठापिता
15
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प्रथमोऽधिकार
[ १११
भिक्षा । ततो गुरुणोक्तमसः परं त्वया तस्याः सियो गृहे भिक्षायै न गन्तव्यं । साधुना तथेति प्रतिपन्नम् । इति विनीत शिष्यसंबंधः ।।१८१॥ .
[183] अथ गुरुभक्तसाधुसम्बन्धः । एकया स्त्रिया साधुद्विष्टया विषमिश्रिता भिक्षा साधवे दत्ता यावत्तां लात्वा निर्गतः तावत्तस्य शिरोऽतिर्जाता । गुरूणां पार्थे ऽभ्येत्य शिरोतिभिक्षाप्राप्तिसम्बन्धः प्रोक्तः साधुना । गुरुणा गन्धेन 5 विषं ज्ञातं । ततो रक्षया मिश्रितं कृत्वा परिष्ठापितम् , एवं ये गुरुपार्श्व स्वं भावं प्रकाशयन्ति ते सुखिनः स्युः । इति गुरुभक्तसाधुसम्बन्धः ॥१८२॥
[183 ] अथ लेपश्रेष्ठिकथा मिथ्यात्वत्यागे । राजगृहपुरे लेपवेष्ठि मिथ्यात्ववासिताशयोऽभूत् : तस्य शिवभूतिनामा तापसो गुरुरासीत् । तस्योपदेशेन श्रेष्ठी वापीकूपतटाकपादिवृक्षारोपणादिकृत्यानि बहूनि धर्मबुद्धया कारयामास ! 10 श्रेष्ठी तु यदा शिवभूतिरागच्छति तदा चतुःपश्चयोजनानि सन्मुखं याति । एकदा शिवभूतिः स्वं यजमानं वन्दापयित्वा स्वस्थाने गतः।
इतस्तत्र पुरोद्याने श्रीवीरजिनः समवासार्षीत् देवैः समवसरणं कृतम् । अनेके देवा राजानो जना वन्दितुं ययुः । तदा श्रीवीरं वन्दितुं मित्रस्य जिनदत्तस्य धर्मिष्ठस्य सार्थे लेपः श्रेष्ठी ययो, प्रभोधर्मोपदेशं श्रुत्वा श्राद्धधर्म प्रपेदे । ततः प्रपादि न पूरयति स्नानादिमिथ्यात्वं न कुरुते, ततो 16 लोका मिथ्यात्विनो वदन्ति अयं श्रेष्टी मूर्खः कुलक्रमागतं धर्म त्यक्त्वा जैन धर्म कुरुते । श्राद्धास्तु प्रशंसां कुर्वन्ति-'अयं धन्यः पुण्यवानिति' । श्रेष्ठी तु लोकोक्तं किमपि मनसि नानयति, स्वेष्टं जैन धर्म करोति । यतः
सर्वथा स्वहितमाचरणीपं, किं करिष्यति जनो बहुजल्पा । विद्यते स नहि कश्चिदुपायः, सलोकपरितोषकरो य: ॥१॥
28 इतः शिवभूतिस्तत्रागतः। श्रेष्ठी तु संमुखं न गतः, ततस्तापसो दध्यौ-अयमने पञ्चयोजनानि सन्मुखमायाति, ममोत्तारेऽपि नायाति ततो लोकमुखातं श्राद्धं श्रुत्वा स्वं शिष्यमाकारणार्थ प्रेषीत् । स तं शिष्यमागतमपि श्रेष्ठी न जल्पयामास न नमति । तदा स पश्चागत्वा स्वगुरोः पार्वे यजमानस्य स्वरूप प्राह । ततस्तापसोऽभ्येत्यावग्-त्वं केन विप्रतारितोऽसि, येन मां मुक्त्वाऽत्रास्थितः उत्थानाद्यपि न कुरुषे, अहं गुरुस्तवासि ।
26 लेपः प्रह-त्वं स्नानादि कुर्वन् कारयन् अनुमोदयन् दुःखी भविष्यति जीवहिंसातः। इत्यादि प्रोच्य तं गुरुं त्यक्त्वा श्रीधीरोक्तं धर्म कृत्वा क्रमादीक्षा गृहीत्वा सर्वकर्मक्षयान्मुक्ति गतः।
इति लेपश्रेष्ठिकथा मिथ्यात्वत्यागे ॥१८३॥
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११२]
प्रवन्धक्चशती
[184] अथ शीले श्रीपतिकथा । श्रीपुरे धनः मार्थवाहस्तस्य श्रीपतिः पुत्रस्तस्य भार्या रूपवती, श्रीपतिः पत्नीयुतोऽत्यन्तं कामाभिलाषी क्षणमपि पृथस्थातुं न शक्नुते ।
एकदा श्रोतिबहून् बलीवान वस्तुभिर्भूत्वा महान्तं सार्थ कृत्वा विदेशं प्रतिचिचलिषुः 6 प्रियां प्रति प्राह -- अहं त्वां विना क्षणं स्थातुं न शक्नोमि । प्रिया प्राहाहमपि तथाऽस्मि ।
श्रीपतिः प्राह --त्वमम तिष्ठ, विदेशे स्त्रीणां प्रतिबन्धः स्यान्नृणां । रूपवत्यवग यदि त्वं मां साद्ध न नेष्यसि तदाहं मृता एव । ततः पति श्वशुरं श्वशं मातरं पितरं पर्यवसाय्य पत्या सह सशृङ्गारा पुरादहिययौ । श्रीपतिस्तुङ्गटिकायां स्थितः प्रियां प्रति प्राह-त्वं तिष्ठ गृहे, खियः प्रति
बन्धो भवति विदेशे, यदि सार्द्ध स्त्री न स्यात्तदा सुखेन व्यवसायः क्रियते । स्त्री प्राह-अहं 10 सर्वथा न तिष्ठामि, कदाग्रहं चक्रे, ततो रात्रिमध्ये प्रिया सुप्तां मुक्त्वा छन्नं श्रीपतिः स्वसेवक छन्नं पावें मुक्ला चचाल । प्रोक्तं. च--'यथा. करोत्येषा प्रिया तथा मम पार्श्व वक्तव्यम्' ।
इतः पश्चात्प्रहरे जागरिता रूपवती पतिमदृष्ट्वा सार्थमपि च चकिता रुदितुं लग्ना भो पते ! कथं मामनापृच्छ्थ गतोऽसि, अहं त्वयि मुधा स्नेह करिष्ये । त्वं तु निःस्नेहोऽभूः । एवं
विलप्य पुनः प्राह-अहं मुग्धा मम भर्ती कुशलोऽस्ति विदेशे नराणां स्त्रियः प्रतिबन्धो भवति 15 मां च सा मनेष्यत्तदा मम मोहेन द्रव्यं विनैव गृहे आगमिष्यत् । अहं तु अबला मूर्खा किमपि हिताहितं न जाने मया भुधा कदाग्रह कृतः । एवं प्रोच्य दध्यो आभरणसद्वत्रताम्बूलादिसर्व वस्तु रागकारणं भवति । एवंविधेषु वस्त्रादिषु सत्सु शीलं पालयितुं मया न शक्यते । भर्त्ता बहुभिर्वरागमिष्यति तथा फरोमि यथा शीलरक्षा भवति । ततः सर्वाण्यामरणान्यु. त्ताय धवलां शाटिका कम्बलिकां च परिधाप्याभरणवस्त्राणि ग्रन्थौ बद्ध्वा श्वशुरगृहे गता। 20 तदा तां तादृशीमागच्छन्ती दृष्टा श्रीपतिमाता दध्यौ-मम पुत्रोऽद्यैव किं केन हतो मृतो वा
रोगेण यतो वधूः एवंविधवेषाऽभूत् । ततो रुदितुं लग्ना तदा स्नुषाऽवग-मातर्मा रुदः । भवतः पुत्रः कुशलोऽस्ति । मया तु स कारणमेव एवंविधो वेषः कृतोऽस्ति । ततः स्नुषया स्वपति जल्पनस्वशीलरमणादिस्वरूपं धवलवस्त्रापरिधापनादिर्जगौ तं इति प्रोक्तं । ततः श्वर्जगौ त्वं धन्यासि
यस्याः स्वशीलरक्षायै ईदृग्मनोऽस्ति एतत्सर्वं पश्चान्मुक्तपुरुषमुखाच्छ्रोपतिः स्वपत्न्याः स्वरूपं 25 ज्ञात्वा जहर्ष । ततः कालान्तरे द्वादशवर्षप्रान्ते श्रीपतिधनं बहूपाज्य समागात्क्रमात्तयोः पुत्रत्रयं
जातं, महता महेन परिणायितं । अनेकास्तीर्थयात्राः कृताः । सप्तक्षेत्र्यां बहुधनं व्ययितं । देवगुर्वोभक्तिः कृता ताभ्यां ततो द्वावपि ब्रह्मवतं लात्वा स्वर्ग गतौ पश्चान्मुक्ति गमिष्यतः ।
इति शीले श्रीपतिकथा ||१८४॥
[185] मिथो विरोधे पञ्चशतसुभटकथा । एकस्य राज्ञो मोमस्य बुद्धिसारो मन्त्री कुशलो बभूव । एकदा राज्ञोक्तं-भो मन्त्रिन् ! त्वया परीक्ष्यैव सेवकाः स्थाप्याः । से अत्रान्तरे सुभटानां पञ्चशती समागात् । राज्ञों मिलिताः सन्मानिताः । ततो मन्त्रिणा
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प्रथमोऽधिकारः
[ ११३
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परीक्षार्थ सर्वेषां भोजनं दापितं । सन्ध्यायां सर्वेषामेक एवं वासः, एकैव शय्या शयनाय दत्ता । ते सर्वे रात्रौ मिथो जगुर्ममायं शय्यापिता तेनाहं स्वपिमि । द्वितीयोऽवग-- अहमेव स्वपिमि । एवं पञ्चशतीमपि कलिपरां ज्ञात्वा मन्त्रिमा ज्ञातमेते सर्वे मूर्खा, येषामेकोऽपि न मुख्यः एते सर्वे स्वपाश्र्वे स्थापिता एवं कलिं करिष्यन्ति यस्यैकोऽपि न मुख्यः सन् किंचित्ततो न स्थापितास्ते एवं यत्र यान्ति तत्र न स्थाप्यन्ते ते । ततोऽखिलास्ते दुःखिनो 5 जाताः । एवमस्य कुटुम्बस्य राज्ञो वा न मेलोऽस्ति स विनश्यत्येव, अतः सर्वेरपि एकीभूय कार्यम् । इति मिथोविरोधे पञ्चशतसुभटकथा ॥१८५||
[186 ] अथ सरलत्वे श्रेष्ठिपुत्रकथा । एकस्य श्रेष्ठिनः पुत्रो जल्पितः प्रत्युत्तरं दत्ते । ततः श्रेष्ठिना प्रोक्तं-मो पुत्र ! पितुः प्रत्युत्तरो न दीयते । पुत्रस्तथेति प्राह । तत एकदा पुत्रो भोमाह्वो गृहे द्वारं दत्त्वा शय्याया- 10 मुपविष्टः ।
__ इतः श्रेष्ठी आगतः प्राह-भो पुत्र ! अत्रागच्छ द्वारमुद्घाटय। स च पितुर्वचः स्मरन् उत्तरं न दत्ते । घटीचतुष्ट्यानन्तरं स्वकार्यार्थ द्वारमुद्घाटयामास । श्रेष्ठो जगौ-त्वया कथमुत्तरो न दत्तः । पुत्रोऽवग-नोपूज्यैः प्रोक्तं-पितुः प्रत्युत्तरो न दीयते । पिताऽवगपुत्र ! एवं विधे कार्य उत्तरादि दायते । नतः पुत्रोऽवग्-ओमिति ।
एवं सरलत्वे श्रेष्ठिपुत्रकथा ॥१८६।।
[187 ] अथाशुचि समित्यादौ मोदकप्रियकथा । श्रीस्थलकपुरे भानुभूपस्य रुक्मिणी प्रिया सुरूपः पुत्रोऽभूत् । स च पश्चभिर्धात्रीभिवेर्द्धितो यौवनं प्राप परिणायितः । तस्मै मोदका एव रोचन्ते । ततो मोदकप्रियेतिनामाभूत् । स चान्यदा वसन्ते प्रातरुत्थायास्थानमण्डपिकायामाजगाम । तत्र स्वर्गिस्त्रोतुल्यया नृत्तं कर्तुं प्रवृत्तं । तत्र- 20 स्थस्य तस्य भोजनावसरे जनन्या मोदकभृतस्थलानि प्रेषितानि । यतः सपरिजनो मोदकान् बुभुजे । रात्रावपि गीताक्षिप्तजागरणतो मोदका न जीर्णाः । ततोऽधोगन्धपूतिवाति नासिकायां प्रविवेश । ततो दध्यौ-यथा मोदका वर्या अपि सदर्गन्धा जातास्तथासव शरीराद्यपि एवं विमृशन प्राप्तवैराग्यो मोदकप्रियरत्यक्त्वा कुटुम्बं दीक्षां लजौ । दीक्षां प्रपाल्य स्वर्ग गत्वा मुक्तिं याता ।
इत्यशुचि सर्वमित्यादी मोदकप्रियस्य कथा ॥१८७॥
[ 188 ] अथ माग्योपरि क्षत्रियसम्बन्धः । चन्द्रपुरे भोमक्षत्रियस्य वोरमती दुश्चारिणी पल्भूत् । पति बयित्वाऽन्येन पुंसा रमते रहः । सा च दध्यौ-यदि पतिम्रियते तदाह स्वेच्छया रस्येऽन्येन पुंसा, अङ्कुशो दुःशको विद्यते ।
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११४ )
प्रबन्धपश्चशती
एकदा भीमो भार्यादत्तमोदकशम्बलश्वचालान्यग्राम प्रति, मार्गे चलन् कस्मिंश्चिज्जलाशये समागते यावच्छम्बलं भोक्तुमुपविशति भीमस्तावत्क्षुत्स्वयमभूत् , यतः-"आत्मछिक्का भयावहा ।" ततो जलं पीत्वा सरःपालौ तरोरधः सुप्तो निर्भरं श्रान्तः । इतस्तत्रागताः स्तेना धनयुक्तास्तं निर्भरं सुप्तं दृष्ट्वा तस्य ग्रन्थौ वस्त्रस्य मोदकान् वीक्ष्य जगृहुश्छन्नं यावत्तर्मोदका भक्षितास्तावन्मृताः स्तेनाः । भोमो जागरितः सन् मोदकानदृष्ट्वा मृतान् चौरान वीक्ष्य दथ्योएतैर्मोदका मे भक्षिताः । ततस्तेषां पावस्थं बहुधनं लात्वा स्वगृहं प्रति चचाल । शकते च भार्यया कि विषमिश्रिता मोदका मह्यं दत्ता, मारणाय । पुनर्दध्यौ-भार्या त पति न मारयति । क्वचित् मार्गे बुभुक्षितः स तत्र वनेऽकस्मान्मृतान्मयूरान् दृष्ट्वा बुभुजे ततश्चलन्
गृहद्वारे यावत्समागात् तावदितः स्वभार्यानीतो जारो भाययेति जल्पितः-स्वमुत्तिष्ठान्यत्र 10 गच्छ । ततः स त्वरितं घोटिकामारुह्य गृहापरद्वारेण शीघ्र निर्ययौ । तदाऽकस्मात्तया
घोटिकया जनितः सद्यः किशोरस्तत्र स्थितः । भीमो भार्यापार्वे समागतः प्राह-भो प्रिये ! आत्मनो गोपार्वे किमस्ति ? ततस्तया जारघोटिकया जनितं किशोरं ज्ञात्वा प्रोक्तं-आत्मनो धवलया गवा किशोरो जनितः । ततो निजां पत्नी कुशीलिनी स्वहन्तृका ज्ञात्वा भीम आचष्ट पत्न्याः पुरम् --
धवली जिणइ किसोरजं, दाधालाभई मोर। 15
दीहाडा होई पाधरा, लाडू खाई चोर ॥१॥ एवं प्रोच्य त्वं कुशीलिनी मम हन्त्रीति गदन सपत्नी तत्याज । अन्यामानीतवान् । सा च पत्या मुक्ता ततो जारेणापि मुक्ता दुःखिनी जाता।
इति भाग्योपरि क्षत्रियसंबंधः ॥१८८ ॥
[189] अथ अतृप्तिविषये द्विजसम्बन्धः । एकेन द्विजेन धनिना बहवो द्विजा भोजनाय स्वगृहे आनीताः, तेषां मध्ये ये धनिनस्ते गृहमध्ये भोक्तुमुपवेशिताः । ये मध्यमास्ते मध्यस्थाने । ये निर्धनास्ते मण्डपे बहिः । तदा द्विजेन सर्वेषां द्विजानां खण्डक्षीरघृतमण्डकवटकवर्यशाकादि परिवेष्यते । तदा बहिः स्थिता द्विजा
श्चिन्तयन्ति-मध्यस्थानां द्विजानां वर्या रसवती परिवेष्यमाणाऽस्ति, न तथाऽस्माकं, ततस्तेषां 25 खेदोऽभूत् ।
इतो गृहस्वामिना द्विजेन सर्वे पूर्णहृदया दृष्टोक्तं-यत एक वटकं गृह्णाति तस्मै स्पर्द्धक दास्येऽहं । ततो बहुषु वटकेषु भक्तेषूक्तं--य एता मण्डका गृह्णाति तेषां स्वर्णकं दास्ये एवं प्रोचं--प्रोचं आकण्ठं सर्वे जेमिताः । तत एको विप्रो बहिर्भोक्तुमुपविष्टो ऽतीव भृतोदरस्ता
पेनाक्रान्तो जलाशये प्रविष्टः । घटीद्वयादनुपूर्वप्रविष्टमहिषस्योदरं जलमध्ये तस्य हस्ते लग्न 30 ततो गृहमध्य-जेमित द्विजोदरभ्रान्त्या स द्विजः प्राह--भो द्विज ! त्वं माहिलओ अथवा बाहि
रलो मध्यमुक्त बहिर्मुक्तः एवं स्वोदरेऽतीवभृतेऽपि सद्विजोऽतृप्तोऽसिद्धितया गृहमध्यभुक्त
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प्रथमोऽधिकार
[ ११५ द्विजान सस्मार । एवमतृप्तो द्विजोऽर्त्या मृत्वा तिर्यग्योनौ उत्पन्नः । एवमतीवानं न भोक्तव्यम् ।
इति अतृप्तिविषये द्विजसम्बन्धः ॥१८९॥
[190 ] अथ निश्चलमनः साधुसम्बन्धः । एकस्मिन्पुरेऽहन्नतोऽहंन्मित्रश्च वसतः सोदरौ । ज्येष्ठभार्या लघुदेवरि रताऽमृत् परं लघुर्नेच्छति । स्त्रीस्वरूपं तादृशं दृष्ट्वाऽहन्मित्रो व्रतं ललौ तद्रक्ता सा मृता शुनी जाता, साधवस्तत्राययुः 5 शुन्या स मुनिदृष्टः। सा शुनी पतिमिवालिलिङ्ग तं, नष्टः साधुः । साथ मृताटव्यां मर्कटी जाता। ततो भवितव्यतायोगात्तस्यामेवाटव्यां स मुनिर्गतः, तं मुनिं दृष्ट्रा पूर्ववदालिलिङ्ग रागधिया तदाऽपरे साधवो जहसुः -असौ साधुर्मकटीपतिः, साधुस्ततो नष्टः, मर्कटी मृता यक्षिण्यभूत् । तं मुनिं दृष्ट्वाऽवधिज्ञानाद्दध्यौ--असौ मुनिमया बहुभवेषु वाञ्छितो मां न ववाञ्छ, ततोऽधुनाऽमुमालिङ्गामीति ध्यात्वाऽऽलिङ्गति स्म मुनिं । ततोऽपि मुनिनष्टः । ततो गच्छन् नदीमुल्लचितुं 10 यावजले प्रबिष्टः तावत्तया यक्षिण्या साधोः पाद श्छिन्नः । तदा तो यक्षिणी शासनदेवी ताडयामास प्राह च-रे पापिनि ! त्वं यदा ऋषेः पराभवं करोषि ततस्तस्या मिथ्यादुःकृतं दत्तं, सद्यो दिव्यानुभावेन पादः सजीकृतः । ततो यतिः सविशेषं चारित्रं प्रपाल्य स्वर्ग गतस्ततो मुक्ति यास्यति । इति । इति निश्चलमनः साधुसम्बन्ध ॥१९०||
[191] अथ धर्मरुचिभूपसम्बन्धः । गङ्गायामन्यदा नाविको नन्वाह्रो नदीमुत्तारयन् द्रव्यं लाति तदा धर्मचि नदीमुत्तारयामास । नन्दो धनं मार्गयामास, यति न मुञ्चते । मध्याह्न जातं । यतिः रुष्टः । तेजोलेश्यया नन्दं भस्मीचक्रे ११ ततो मृतो नन्दो नाविकः क्वापि ग्रामे सभायां गृहकोलिकोऽजनि । तत्र दैवयोगात् धर्मरुचिः साधुः समागात् । तं दृष्ट्वा गृहकोलिको धूलिं चिक्षेप । ततो धर्मरुचिस्तेजोलेश्यया गृहकोलिक भस्मीचक्रे ।२। स च मृतो हंसोऽभूत् गङ्गायां । दैवयोगात्तत्र साधुः समागात् । सोऽपि हंसो 30 जलेन मुनिमुपद्रवति । तत्रापि पूर्ववत् मुनिना हतः ।३। ततो मृतोऽजनपर्वते सिंहोऽजनि । सोऽपि सिंहो यति हन्तु धावितो यतिना तेजोलेश्यया भस्मीकृतः !४! ततः सिंहो मृतो बाराणस्या बटुरभूत् । सोऽपि पूर्ववैरात् यति लेष्टुभिर्हन्ति, ततो मुनिस्तं भस्मीचक्रे ५। ततोऽकामनिजेरया कम क्षिपन् तस्मिन्नेव पुरे राजाऽभूत् ।६।
सोऽपि राजा जातिस्मृति प्राप्य पूर्वभवान् स्मृत्वा तं धर्माधि मुनि क्षमयितुं ज्ञातुं च 25 समस्यां लोकाय ददौ । लोकाः सर्वत्र ता समस्यां पठन्ति गायन्ति सदा । तथाहि
"गङ्गायां नाविको नन्दः सभायां गृहकोलिका । मृतगङ्गातटे हंसः सिंहश्चान्जनपर्वते ॥१॥ वाराणस्यां बटुः पुर्यां , राजा तत्रैव चाभवत् ।"
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११६ ]
प्रबन्धपश्चाती
इमा समस्यां यः पूर्णां करोति तस्मै लक्षद्रम्मा दीयन्ते । ततो विशेषा सर्वे लोकाः बुधा अपि पूरयन्ति परं न मिलति सत्या ! इतश्चारामिकेन पुरोधाने पठ्यमाना समस्या धर्मरुचिर्यतिः श्रुत्वाऽऽचष्टोच्चैः स्वरम्
एतेषां घातको यश्च, सोऽप्यत्रैव समागतः ॥२॥ 5. मालिकपाश्र्वाद्धर्मरुचिं यतिं ज्ञात्वा वने तत्र गत्वा यतिं भक्त्या क्षमयित्वा राजा धम
जैनं जग्राह । मालिकाय मानितं ददौ च । यतिरपि विशेषारक्षमयामास भूपमिति स्वपापक्षमरणे-धर्मरुचिसम्बन्धः ॥१९॥
[192] अथ लौकिककृष्णभार्या तुलछीसम्बन्धः । ___ एकदा कृष्णः कस्यचिदसुरस्य तुलछी नाम्ना पत्नीमङ्गीकर्तृकामस्तस्य रूपं कृत्वा 10 तस्मिन्नसुरे ग्रामान्तरं गते समेत्य बलात्तां बुभुजे । मणान्तरे भर्ता समागात् । भोक्तुं प्रियां
ययाचे । तदासाऽवग-स्वामिस्त्वयाहमधुनैव भुक्ता तेनैवं कथं प्रोच्यते ? सोऽसुरोऽवगमया त्वं न भुक्ता । ततस्तस्या कृष्णो जारो ज्ञातः । ततस्तया काष्टभक्षणं कृतं पश्चात्तापात् । यत्र सा दग्धा तत्र तलछीनाम्ना तरुरुत्पन्नः । ततः कृष्णेनाभीष्टत्वात्स्वाङ्गे दत्ता । ततो लोके
तुलछी मान्याऽभूत् । एवं-विधेऽन्यायेऽपि कृते लोकानां कृष्णो मौढ्यान्मान्योऽभूत् । त तो 15 लोके कृष्णभार्या तुलछी प्रसिद्धा पूज्या जाता।
इति लौकिककृष्णभार्यातुलछीसंबंधः ॥ १९२ ।।
[193 ] अथ कर्म विषये लौकिकविधिसंबंधः । श्रीपुरे कर्णभूपतेयंदा पुत्री जाता तदा पुरोहितस्य चन्द्रस्य पुत्रोऽभूत् । द्वयोर्विधिनाललाटे वण्णांवली लिखिता । तदा राज्ञा विधिः पृष्टः त्वं किमर्थमत्रागाः १ तेनोक्तं-तव 20 पुत्रयलिकेऽक्षरावल्यालिखनायागामहं । राज्ञोक्तं-किं लिखितमस्ति ? तेनोक्तं तव पुरोहित
पुत्रस्य पत्नी भविष्यति । ततः पुरोहितस्याग्रे प्रोक्तं-तव पुत्रस्य भूपपुत्री पत्नी भविष्यति । राजा त स्वां पुत्री पुरोहित पुत्राय दात न ववाग्छ । भपपत्री पुरोहितपत्रावेकत्र लेखशालायां पठतः स्म । मिथो रागो जातः । परं राजा धिग्जातित्वात् पुत्री तस्मै दातु नेहते ।
एकदा राज्ञा पुरोहितस्याने प्रोक्तं-वरः पुत्र्या विलोक्यते । तेन पुरोहितेनोक्तं---विधिः 25 प्रक्ष्यते । वरं कथयिष्यति सः राजाहाधुना विधि प्रष्टुं तव पुत्रो गच्छतु । ततः पित्रादेशा--
त्पुरोहितपुत्रो विधि प्रष्टुं चलितः । मार्गे कस्मिन्पुरे गतो वीरवणिग्गृहे । वणिजोक्तं-कुत्र गमिष्यसि किमर्थं ? पुरोहितपुत्रो विधिपार्श्वगमनस्वरूपं प्राह । ततः स तेन गौरवितोऽन्नादिदानात् । ततो वणिग प्राह-त्वं विधिपार्वे गच्छन्नसि परं त्वया वन प्रष्टव्यं-चन्द्रपुरे
वीरवणिग प्रत्यब्दं महान्तं जेमनवारं करोति । ततः कथं प्रत्यब्दं तस्य गृहं ज्वलति । पुरोहित30 पुत्रोऽवग-प्रक्ष्यते ॥१॥ ततोऽग्रतश्चलन वीरपुरे, गतः । तत्र प्रभूपेन भोजयित्वा पृष्टः
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प्रथमोप्रधान
पुरोहितपुत्रः । क्व गच्छति ? तेन स्वगमनस्वरूपं प्रोक्तं । ततो भूपोऽवग-मम दानं ददतः कथं कुष्टं न याति ? विधिः प्रष्टव्यः । स चाह-प्रक्ष्यते मया २। ततो गच्छता तेन सिन्धुमध्ये एको मत्स्यो बहिनिःसरन् वीचिभिः पुनः प्रविशन् दृष्टः। मत्स्योऽवग-त्वं क्व यास्यसि ? तेन स्वगमनस्वरूपं प्रोक्तं । ततो मत्स्यः प्राह-अहं कथं जले स्थातु न शक्नोमीति विधिः प्रष्टव्यो मदर्थम् ।।
ततो गच्छतस्तस्य विधिमिलितः । राझोक्तं-पुत्रीवरयोग्यतादि विधिनोक्तं-गच्छ, त्वया राज्ञोऽने बक्तव्यं विवाहसामग्री कार्यतामहं वरमानयिष्यामि विचारो न कर्त्तव्यः । ततस्तेन वणिजोक्तं, विधिः पृष्टः प्राह--तस्य देवगुरुभगिन्यादौ न भक्तिः, भगिन्यपि गेहकार्याणि कार्यन्ते तेन कूटतूलादिना व्यवसायः क्रियते । अतो गृहं धक्ष्यति प्रत्यब्दम् ॥११ ततो राज्ञोक्तं पृष्टं विधिः. प्राह-गोत्रक-दमनं करोति, प्रजाः पीडयति तेन कुष्टं न याति ।२। ततो 10 मत्स्योक्तं पृष्टं, विधिः प्राह--मत्स्यः प्राग्भवे विद्यावानपि स्वां विद्यां कास्यापि न ददौ । विद्यामदं चक्रे च तेन समुद्रोऽपि मत्स्यं न धरते ।।
ततः स पश्चादागच्छन् विधिप्रोक्तं वणिजोऽग्रेऽचीकथत् , ततः स वणिग कूटतुलादिप्यक्त्वा देवगुर्वोक्ति चक्रे ततो गृहं न दग्धम् ॥११ राजोक्तं विधिना राजाने जगाद स राजा तथा चक्रे ततो राशः कुष्टं गतम् ।२। मत्स्योऽपि प्राग्भवसम्बन्धं ततः श्रुत्वा पश्चा- 15 त्तापवान् स्वं निनिन्द । ततो मृत्वा रामः पुत्रो जातः सुखी च ।
राजा धनेन तत्रागताय पुरोहितपुत्राय स्वपुत्री दत्त्वा महान् कृतः, पुत्रस्थाने स्थापितश्व पुरोहितपुत्रः ।
इतोऽनागते पत्रे राज्ञा प्रेषिताः स्वमन्त्रिगणस्तस्यैव राज्ञो वरं पुत्रं ज्ञात्वा कन्याया विवाहं मेलयित्वा गताः । ततो राज्ञा संमुखं पुत्री प्रेष्य तस्मै दापिता । पुरोहितो दुःखी 20 दध्यौ-मम पुत्रः किमुत राजपुत्री देवतादिष्टां न परिणिन्ये । अतो विधिलिखितमन्यथा जातं । राजापि प्राह--मया विधेलिखितमन्यथा चक्रे । ततो विधिः स्वप्नेऽभ्येत्य भूपस्याग्रे प्राह- तव पुत्री पुरोहितपुत्रः परिणिन्ये । ततः पुरोहितपुत्रस्तत्राकारितः । ततो राजा प्राह--- विधिलिखितं केनाप्यन्यथा न क्रियते । ततः पुरोहितपुत्रोऽनिशं कन्याद्वययुतः सुखी बभूव । इति कर्मविषये लौकिकविधिसम्बन्धः ॥१९३।।
52 [ 194] अथ अनित्यत्तायां चन्द्रधनसम्बन्धः । चन्द्रपुरे धनो वसति स्म । भीमपुरे चन्द्रो वसति स्म । तयोः प्रीतिरभूत् । एकदा द्वावप्येकत्र मीलित्वा प्रोचतुर्मिथः धनं विना वराकारस्यापि पुंसः शोभा न भवति । यतः
जाई रूवं विज्जा, तिन्नि वि निवईतु कंदरे विवरे । अत्थुच्चिअ परिवुड्डो, जेण गुणा पायंडा हुँति ॥१॥
४
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११८ ]
प्रबन्धपञ्चशती
10
. ततो द्वावपि धनार्जनाय विदेशं प्रति चेलतुः । तत्र लक्ष्मीमर्जयित्वा पञ्चावलियो अर्धमार्गे समागतो तौ । चन्द्रोऽवग--त्वां विना नाहं क्षणं स्थातुं शक्नोमि । किं क्रियते ! गृहे गमनं विना कुटुम्बं सोदद्विद्यते। तेनाहं स्वपुरे यियासुरस्मि । अस्मिन्मार्गे गमिष्यते
मया, तदा धनोऽपि तथैव जगौ । तयोद्वयोरपि विरहऽसमयोः स्वपुरगमनं विना निर्वाहो न 6 वीक्ष्यते । ततश्चन्द्रो मित्रं प्रणम्य धनं प्रति प्राह
जातां जणउ जुहार, साथी संभारिआ धार ।
दैवह तणइ विचारि , मिलिइ के मिलीइ नहीं ॥२॥ ततो घनोऽप्याचष्ट--
टाढी छांय पलासडा, पाणी भरीआं न ....!
साजण सरसी गोठड़ी, देव छंडावइ मांड ||३|| एवं प्रोच्य स्वस्वग्रामे गतौ ।
इतः कियता कालेन समागते परसैन्ये चन्द्रो युद्धाय संसुखं वैरिणो गतः युद्धं कुर्वन् चन्द्रो वैरिणा हतः पञ्चत्वं गतः । क्रमात् धनः स्वमित्रं हतं श्रुत्वा दुःखी जातो जगौ---
__ खणि खांडउ खणि आधिलउ, खणि आखु खणि लीह ।
दैव न दीधा ससहरह, सवे सरिषा दीह ॥ ४ ॥ एवं विलप्य सन्तोष धनः कृत्वा तस्थौ ।
इत्यनित्यतायां चन्द्रधनसम्बन्धः ॥१९४॥
[195] अथ निद्रव्यपुण्यविषये सिंहधनसम्बन्धः । भीमपुरे सिंहश्रेष्ठी, तस्य गृहे धनं भूरि विद्यते, क्रमात् सिंहस्यालये श्रीखुटिता, वेवसिंहस्य 20 गृहे बही श्रीववृधे । तदा तां श्रियं दृष्ट्वा सिंहो दुःखी जातः । तत्र तदा मित्रेण सिंहं दु:खिनं दृष्ट्वा प्रोचे । यतः'आगते गते च धने विषादो न क्रियते, कस्यापि श्रीः स्थिरा न भवति' । यतः
एकई दीहिविवात, इक .ऊगइ इक आथिमइ ।
माणस केही. मात्र, जइ दिणयर दिण पालटइ ॥१॥ 25
कार्य सम्पदि नानन्दः, पूर्वपुण्यभिदे हि सा ।
नैवापदि विषादः स्यात् , सा हि प्राक्पापपिष्टये ॥२॥ इमे गाये अस्वा निजमनसि सन्तोषं चक्रे । प्रत्यहं निद्रव्योऽपि प्रतिक्रमण-गुरुवन्दनकदेवपूजा-नमस्कार-परदानानुमोदनादिपुण्यं कुर्वाणोऽप्रेतने भने स्वर्गे सुखी जातः, ततो मुक्ति
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प्रथमोऽधिकार
[ ११९
यास्यति । इति निद्रव्यपुण्यविषये सिंहधनसम्बन्धः ॥१९५।।
[196 ] अथ पट्टकूलिकानयनचाहडमन्त्रिसम्बन्धः । बम्बेरकपत्तनस्वामिना राज्ञा वीसलदेवेन पत्तने श्रीकुमारपालभूपालाय पट्ट (दु] कूलवयं प्रीतिप्राभृतकृते प्रेषितं । तच्च राज्ञा कुमारपालेन गृह देवालये धौतिकं कृतं । राजा च तद् दुकूलं परिधाय देवं पूजयामास । इतोऽन्यदा बाहडपुत्रेण दशवार्षिकेण तदेतद्वस्त्रं परिधाय रन्तुं लग्न 5 बालकैः सह रममाणस्य सप्ताष्ट दिना जाताः। राजा तद्वस्त्रं मलिनं दृष्ट्वा जगौकेनेदं व्यापारितं ? से वकैरुक्तं बाहडसनुना चाहडेन । ततो राज्ञा शिक्षा तस्मै दत्ता कठोरवचसा, ततश्चाहडो रुष्टो भूपपार्थे नायाति ।
अन्यदा राजा बाहडः पृष्टः-चाहडः कथं न दृश्यते ! बाहडोऽवग-वखव्यापारणव्यतिकरं । ततो राज्ञा चाहड आकारितः पृष्टश्च किमर्थं त्वया सभायां नागम्यते ? तेन स्वपराभवस्वरूपं 10 प्रोक्तं । राजा प्राह - त्वया दुःखं न कार्य । अपरं वस्खं व्यापारयिष्यते। ततश्चाइडः प्राह-त्वं मे स्वामी अतस्त्वया मह्यं शिक्षा दत्ता यत्तद्वरं अद्य दिनात्तव सभायां मया तदागम्यम् । यदा पट्टकूलानि एवंविधानि आनेष्यन्ते बहूनि । अहं बम्बेरकपत्तने यास्यामि । राझोक्तं-बम्बेरेशो वीसलदेवभूयो बलिपुष्टो विद्यते । तस्य दुर्गनपुमयो विद्यते । परिख ज्वलदङ्गारमयी तस्मिन्वप्रमध्ये सप्तशतानि पट्टकूलिकानां सन्ति । वीसलदेवस्तेभ्यः पट्टकूलानि लास्वा द्रव्येण स्वयं परिधाय ..15 देशान्तरे प्रेषयति विक्रेयाय । पुरावाहिस्तानि स्तोकान्येव निस्सरन्ति मागस्तु विषमोऽस्ति तेन तत्र गमनं दुष्करं । चाहडोऽवग्-मया द्वितीयवारं तदा जेमनीयं यदा वीसलदेव जित्वा पट्टकूलकारका अत्रानेष्यन्ते परे तव प्रसादात ततो हष्टो भपो बहबलं ददौ । तस्मै प्राह च-वत्स ! त्वं लघुरसि । तेन यत्नेन युद्धं कार्य । चाहड आचष्ट-स्वामिस्त्वया काऽपि चिन्ता न कार्या । मम हृदये एकः श्रीवीतरागो देवोऽपरश्च भवान् विद्यते तेन सद्यः स जेष्यते । ततश्चाहडः सुमुहूर्ते 20 प्रथमं जिनालये जिनं प्रणम्य, ततो राजान, ततो मातापितरौ प्रणम्य चचाल चाहडः। मार्गे वर्याः शकुना जाताः ! प्रथमं मरुस्थली साधिता । तेऽपि राजानम्तेन सार्द्ध चेलुः । ततोऽन्ये देशा एवंविधनामानः साधिताः । तथाहि
जंगडूर जड़हार अज्जपुरनराणी, नवणवाहनग्गउरो नरहनरवरजिट्ठाणओ ।
25 सज्जवडसरिवाड़ भग्गउ सयंभरि,
वग्धेरो लडणूर हुओ झुरि बबेरो । पीपल उरपहुक्कररासपुर मंडलपुरमेवलतूकरि वीसलनारि
बलिवइ अबललंकदाह चाहडमकरि ॥१॥ ___ एवं देशान् साधयन् चाहड: ग्रामपुराणि लुण्टयन ज्वलयंश्च बम्बेरापुरोपान्ते यदागतः 30 तावतो वीसलराजः प्राह-भो प्रिये ! एष धूमः कुतोऽजनि ? जातः प्राह--
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१२० ]
प्रबन्धपञ्चशती
'हय हींसारो खेहरो दीसइ वंग बलंति' पत्नी प्राह-लोडिज्जई तुह गुठडा, चाहड पुहुतो कंत ।
मंति धूरि कुमरपालह, दतिसमदलिसंजुत्त करिहि कटीकरमालह ॥२॥ दीसइ दुगबलंति लोडिज्जइ ताह गोठड। बाहडसूय चाहडहयमर हींसीगे।
रायघरद्विहिं पेसीओ, बंबेरो जव कुट्ट पीसंता उट्टविगओ रायंगणि लट्ठा ॥३॥ गययंगणिलट्ट भणइ बरकामिणि भोली निगुण जिट्ठइ निद्धोरचोरक्कियभूरको अपोलिअकयसमयं महीराजि गयणि गजबडिहिं मरट्टीअ चाहडचंपीअपुअदूअलदुलीअरणिरायथरट्टिहिं ।
एवं वीसलराजः प्रियापावें श्रुत्वा चाहडेन समं युद्धं चक्रे मिथोऽतीव संग्रामोऽभूत् । 10 वीसलभूपो हतः । पुरान्तरे चाहडः प्रविष्टः तदा वीसलभूपपत्नी प्राह त्वं चिरं जय, स्खया द्विषोऽनेके जिताः।' यतः-जंगडूर जडहार डगीअ अज्जपुर०
एवं श्रुत्वा चाहडो देवगृहे देवान्नत्वा वीसलपुत्रं तस्मिन राज्ये न्यस्य तत्रत्यान् दुकूलतनकान् पट्टसूत्रवस्त्रवनकान् पञ्चशतीमितकुटुम्बकसहितान् लात्वा दण्डं च पत्तने समेत्य चाहडः श्रीकुमा
रपालभूपालं ननाम । तेषां पट्टसूत्रवनवनाकानां आवासा दत्ताः । चाह डस्य 'राज वरदृ' इति 15 बिरुदं ददौ । राजा ततस्तैदुकूलानि वनितानीतैः श्रीसंघः कुमारपालभूपेन परिचापितः । ते
पट्टकूलिनः स्वच्छत्रस्याधः स्नापिताः शुद्धाः कृताः । वणिरजातिमध्ये स्थापिताः । ततश्चाहडः श्रीशत्रुञ्जययात्रां चक्रे । श्रीसंघः परिधापितः प्रात: पितरं मातरं जिनं कुमारपाल भूपं प्रगम्य जिमति चाहडः सप्तक्षेत्र्यां धनं वपति स्म ।
इति पट्टकूलिकानयनचाहडमन्त्रिसम्बन्ध ॥१९६॥
[197 ] अथ साक्षाद्गङ्गास्त्रीसम्बन्धः । श्रीपुरे चन्द्रवेष्ठिनः प्रेमवतो पल्यभूत् । सा चातीव विनयवती पतिजिनगुरुभक्ता । अन्यदा केनचिदुक्तंभो चन्द्र ! आगच्छ, गङ्गायां स्वपापषिष्टये गम्यते । चन्द्रेणोक्तं-गङ्गा मम गृहेऽस्ति । तेनोक्तमेवं कथं प्रोच्यते ! चन्द्रोऽवग-मम प्रियंव गङ्गा धममुत्तिर
सोऽवग्-तव प्रियाया एवंविधा भक्तिस्त्वयि कथं ज्ञायते त्वया 'स्त्रियः प्रायो दुविनीताः स्युः" 26 चन्द्रोऽवग-तर्हि परीक्षा क्रियतां । ततोऽन्येद्यस्तस्मिन्पुंसि गृहे समागते चन्द्रः प्राह-भो प्रिये !
मयाऽधुना वृत्त्यर्थं भूः खन्यमानाऽस्ति तेनानागम्यं, ततस्तत्रागता सा । चन्द्रोऽवग-अत्र धृतभृतं कुम्भं क्षिप दूरे, तया तत्कृतम् । ततश्चन्द्रोऽवग्-इदं घृतं दूरादुत्सारय । ततः सा यादृग्हस्ते आगतं तागुत्सारितं । चन्द्रोऽवग्-घृतं नीरभृतं क्षिप। ततस्तथा कृतम् । एवं यदघटकं घटकं वक्ति तद्व- चनप्रत्युत्तरादानात्करोति परं संमुखं न जल्पति । ततः पुमानुत्थाय चन्द्रपल्याः पदोः पतित्वा. 30 ऽवग--एका गङ्गा त्वं विद्यते, अपरा तु दूरे । स पुण्यवान् यस्य गृहे त्वं गङ्गा सदा वत्तसे
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प्रथमोऽधिकारः
[ १२१
ततः स पुमान प्रत्यहं गङ्गाबुद्धधा ता नमस्करोति ॥१९७।।
इति साक्षाद्गङ्गास्त्रीसम्बन्धः ॥ १९७॥
[ 198 ] अथ प्राक्कमणि मित्रद्वयसम्बन्धः । चन्द्रमामे द्वौ सहदी भीमार्जुननामानौ वसतः स्मः । एकदा ताभ्यां छागी एका आनीता। एकेन तस्याः पादचतुष्कं बद्धं । द्वितीयेन गलं छिन्नमसिना छागी भक्षिता सर्व कुटुम्बेन । ततः । क्रमात्कियता कालेन छागोजीवः कर्म क्षिपन कमलपुरे श्रीदश्रेण्ठिपुत्री चन्द्रावत्यभिधाऽभवत् । भीमजीवः क्रमात् लक्ष्मीपुरे धनश्रेष्ठिपुत्रश्चन्द्रनामाऽभूत् । कर्मवशात्तयोः पाणिग्रहणं जातं चन्द्रावतीचन्द्रयोः ।
एकदा तस्य चन्द्रस्य गृहे कोऽपि प्राघूर्णको निशिवासे स्थितः । तदा कलिं कुर्वत्या प्रियया रुष्टया पतिमन्यमिच्छन्त्यास्तं पतिं सुप्तं निर्भरं ज्ञात्वा शनैः पत्युः शिरश्चिच्छेद । स्वमस्तका- 10 कलङ्कमुत्तारयितुकामा प्राघूर्णकसुप्तस्य हस्तौ रुधिरेण लिम्पयामास वस्त्राणि च । ततो यदा स उत्थाष चलनभूचावत्तावत्कलकलं चक्रे । जगौ च-धावत धावत लोकाः मर्म पत्युः शिरश्छिस्वाऽसौ याति । लोका राजपुरुषा मिलिताः । स च धृतः, हस्तौ वस्त्राणि रुधिरक्लि. नानि दृष्ट्वा राज्ञा शापितं ततो राजादेशात्तस्य हस्तौ पादौ छिनो । ततः स छिन्नहस्तपदो जिजीवायुर्बलात् ।
- 15 एकदा शानिपार्श्वे तेन पृष्टं-मया किं पापं कृतं येन ममाहो हस्तौ छिन्नो ? ज्ञानी प्राहत्वया पूर्वमर्जुनभवे यस्याः छाग्या पादौ बद्धौ धृतौ भोमेन च तत्याः शिरच्छि नं यत्त्वया हस्तपादा वृताः । अतोऽधुना हस्तपादाश्छिन्नाः। यत्कर्म क्रियते तदेव प्राप्नोति जीवः ।
इति प्राक्कर्मणि मित्रद्वयसम्बन्धः ॥१९८।।
[199 ] अथ दाने युधिष्ठरभीमसम्बन्धः । अन्येयुयुधिष्ठिरस्य भूपस्याने एकः कविराशीर्वादं ददाविति--
द्वाभ्यां सहोदराभ्यां त्वं, सुभक्ताभ्यां युधिष्ठर !
जीयाच्च पृथिवीं न्याय-मार्गेण पालयंश्चिरम् ॥१॥ तदा युधिष्ठिरोऽवग्-यत्त्वया कूटं जल्पित, मम तु सर्वे सोदराः सदृशा एव । यतःचेतः सार्द्रतरं वचः समधुरं दृष्टिः इसन्नोज्वला,
शक्तिः शान्तियुता मतिः श्रितनया श्रीर्दानदैन्यापहा । रूपं शीलयुतं श्रुतं गतमदं स्वामित्वमुत्सेकता
निर्मुक्तं प्रकटान्यहो न वसुधाकुण्डान्यमून्युत्तमे ॥२॥
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१२२ ]
प्रबन्धपञ्चशती
यथा चित्तं तथा वाचो, यथा वाचस्तथा क्रिया।
धन्यास्ते त्रितयो येषां, विसंवादो न विद्यते ॥३॥ मम बान्धवाः सर्वे सत्त्ववन्तो धर्मिष्ठाः परोपकारिणो दानिनो दयावन्तो विद्यन्ते । ततः कविः प्राह
पञ्चभिः सौदरैीमा-र्जुनादिमिर्लसबलः ।
जीयास्त्वं पृथिवीं न्याया-त्पालयन् श्रीयुधिष्ठिर ! ॥४॥ ततो राजा तथा दानं ददौ यथा यावज्जीवं भवति ।
इति दाने युधिष्ठिरभीमसम्बन्धः ॥१९९॥
[200] अथ क्षमायां श्रेष्ठिपुत्रसंबंधः । 10 श्रीपुरे भीमश्रेष्ठिनः पुत्रश्चन्द्रो हट्टे उपविष्टो व्यवसायं कुर्वाणोऽपरवणिग्भिः ममं कलिं
कुरुते स्म । श्रेष्ठी स्वं पुत्रं निवारयति । ततः स्वपुत्रसंमुखहट्टस्थवणिजोः कलिं कुर्वाणयोः श्रेष्ठी प्राह-कलिने क्रियते इहपरलोकदुःखहेतुत्वात् । तथापि तो कलेन निवृत्तौ । ततः श्रेष्ठी मृदुवचाः सूनोः पुरः प्राहाद्याहं यस्मि तत्त्वया कार्य । पुत्रः प्राह-शिक्षा वितर । ततः पिता
आत्महट्टसमीपस्थो वणिगद्य शुभमशुभं वा यद्वक्ति तत्त्वया क्षन्तव्यं । पुत्रोऽवग्-तात ! ते वचः 16 प्रमाणं । ततः श्रेष्ठिना स्वपुत्राय तुला हट्टाने मण्डिता एकस्मिन्पाश्र्व तस्या: सेरो मुक्तः । तदा
पाश्वहस्थो वणिग् गालिं दायंदायं सन्ध्या यावस्थितः । श्रेष्ठिपुत्रस्तु मौनी जातः । सन्ध्यायां श्रेष्ठिनोक्तं-भो पुत्र ! तुलाचेल्लकं द्वितीयं किं गालिभिभृतं न वा नमितं नवा पुत्रस्तो विलोक्याह-तात याशी तुला प्रातर्मण्डिता तयैव धारणयाधुना तुलास्थितास्ति । पिता ततःप्राह
यथा गालिभिस्तुला न भृता तथा गालिभिरप्यात्मनो न लगति । ततः पुत्रोऽवग-अद्यप्रभृति 20 मया क्षमैव कर्त्तव्या । इति क्षमायां श्रेष्ठिपुत्रसम्बन्धः ॥२४०॥
[ 201] अथ धर्मनिश्चलतायां महणसिंहसम्बन्धः । एकदा ढोल्यां पुरि पोरोजसुरत्राणश्च चालान्यपुरं प्रति तदा महणसिंहः साधुः सार्द्धमाकारितः, मार्गे सूर्यास्तसमये तुरङ्गमादुत्तीर्य प्रतिक्रमणं कर्तुं साधुमहणसिंहः सामायिक ललौ। प्रतिक्रमणं कर्तुं लग्नश्च राजा त्वतने ग्रामे गतः । तदा महणसिंहमाकारयितुं जनमप्रैषीत् ।
तदा पश्चास्थितो ज्ञातः । ततस्तत्र जनः प्रेषितः । सोऽपि तावस्थितो यावत्तेन सामायिक 26 पारितं । ततो महणसिंहो राजपावें समायातः । राज्ञा पश्चास्थितिस्वरूपं पृष्टं। मणसिंहे
नोक्तम्-अरण्ये वने ग्रामे रणे नद्यां वा अस्तं याति रवौ अवश्यमुभयोः कालयोः प्रतिक्रमणं मया क्रियते । राजाऽवग-अनेके वैरिणः सन्ति कदाचित्तैर्मारितः स्यात्तदा का गतिः । महणसिंहः प्राह-धर्म कुवतो यदि मरणं भवति तदा स्वर्ग एव भवति । तेन मया धर्मध्यानं तत्रैव कृतं, वेलातिक्रमो मया न क्रियते । महणसिंहधर्मवचने ते राजा हृष्टो, यत्रारण्ये वने महणसिंहो
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प्रथमोऽधिकारः
[ १२३
धर्म कर्तुं तिष्ठति तत्र सुरत्राणस्यादेशात् सहस्रमितभटप्रमाणं सैन्यं तस्य रक्षयति । राजा तु धर्मार्थी मुहणसिंहस्य धर्मिष्ठता स्तौति सदा ।
इति धर्मनिश्चलतायां महणसिंहसम्बन्ध ॥२०१॥
[ 202] कर्मणि कुटुम्बिकपुत्रसम्बन्धः । एकस्य कुटुम्बिनो दश हलानि क्षेत्रे वहन्ति । स च मध्याह्न समागते भुक्ते । एका घटी 5 यावञ्च हलानि खेटयन्ति तदा च दानं दत्तोऽर्थिभ्यः। स च कालेन मृत्वा पद्मपुरे राजपुत्रश्चन्द्राबोऽभूत् ! वर्याभरणादि परिधत्ते । परं रोगग्रस्तो जातः । क्रमासत्यपि विभवे किमपि भोक्तुं न शक्नोति । यदा वर्यमाहारं गृह्णाति तदोदरपोडा भवति । दानप्रभावादाजपुत्रोऽभूत् । परं वृषभाणामतिवाहनात्तस्यांगे रोगः समागतः । स्वं प्राग्भवं श्रुत्वा कृषिकरणे नियमं स ललौ । इति कर्मणि कुटुम्बिकपुत्रसम्बन्धः ॥२०२।।
10 [203] अथ परस्त्रीपराङ्मुखत्वे महणसिंहसम्बन्धः । एकदा पीरोज सुरत्राणस्याने नत्तक्यो नृत्यं मण्डयामासुः । महणसिंहसाधुस्तदा यावदुत्थातुं लग्नः तदा राजाऽवग-तिष्ठाधुना । ततो राजामहान्मणसिंहस्तत्र स्थितः । तदा हस्तगृहीतजपमालया नमस्कारान् गणयन् जपमालादत्ताहक तस्थौ । नृत्यं तासा न वीक्षते । ततो महणसिंह ध्यानारूढं दृष्ट्वा राजा हृष्टोऽभूत् । नृत्ते निवृत्ते राजा पप्रच्छ । नर्सकोभिनृत्यं कोहकृतं ? 16 महणसिंहोऽवक-लोका वदन्ति-वयं वृत्त । अहं न जाने कोहकृतं नृत्तं । राजाऽवग-कयमेवं
इणसिंहोऽवग-अहं परखियः संमुखं दृढं न विलोकयामि तेन मथा नृतं न वोक्षितं । ततो राजा द्रष्टस्तं परखोपरामुखं मत्वा बहुधनदानात्प्रीणयामास ।
इति परस्त्रीपराङ्मुखत्वे महणसिंहसंबंधः ॥२०३॥
20
इति भीतपागच्छाधिराज श्रीरत्नशेखरसूरि पट्टालङ्करण श्रीलक्ष्मीसागरसूरिशिष्य पं० शुभशीलगणिविहितपञ्चशतीकथाप्रस्तावकोशे
॥ प्रथमोऽधिकारः समाप्तः ॥
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द्वितीयोऽधिकारः [ 204] अथ 'घरसरीखी यात्रा नहीं' इति उषाणो । श्रीपुरात् धर्मदत्तश्रेष्ठी मातरमापृच्छय कस्यचिच्छ्रेष्ठिनः पार्थात् द्रम्मान पञ्चशती व्याजेन लात्वा देवयात्राथ चचाल । मार्गे चलन् खिन्नोऽभूत् । तदा कस्मिंश्विग्रामे मस्तकं भद्रीकृत्य यात्रिकवेषभृत् सर्व धनं भक्षयित्वा यात्रिकलोकेन सार्द्ध पश्चादाययौ । सर्वे स्वजनाः संमुखमायाताः, पुरप्रवेशोत्सवोऽभूत् ।।
कियहिनानन्तरं स धनदाता श्रेष्ठी स्वधनं सव्याजं याचते स्म, स च न दत्ते । ततो धनदाताऽभ्येत्य तस्यालये लचयितुमुपविष्टः । यदा स श्रेष्ठी यात्रिको धन न दत्ते तदा तेनोक्तं तीर्थयात्रापुण्यं वितर मम, नो चेद् धनं देहि, नो चेदहं मरिष्यामि । ततो धर्मदचो यात्रापुण्यं दातुं लग्नः ।
___ अत्रावसरे माताऽभ्येत्य प्रोवाच-पुत्र ! आत्मीयं यात्रापुण्यं न दीयते । यात्रापुण्येन स्वर्गसुखं भवति । अतः त्वया यात्रापुण्यं न दातव्यम् । ततश्छन्नं स्थित्वा मातुरप्रे तेन प्रोक्तं-इयं गृहसदृशी यात्रा नास्ति । माताऽवग-पुत्रः कथमेवं त्वया प्रोच्यते ? तदा पुत्रण यात्रासम्बन्धः प्रोक्तः । ततस्तेनोक्तं--मम यात्रापुण्यं तव भवतुः। एवं प्रोच्य धर्मदत्तस्तं विप्रतार्य धनं रक्षितवान् । 'घरसरीखी यात्रा नहीं' इति उखाणो मतः ॥२०४॥
[205] अथ दानफले भीमश्रेष्ठि विक्रमार्कसम्बन्धः । अन्यदा विक्रमादित्यो भूपो दानमर्थिभ्यो ददानरे दथ्यौ दानस्य किं फलम् !
अत्रान्तरेऽम्बरे दिव्यवागभूत्-'एकगुणं दानं, सहस्रगुणं पुण्यं' कलौ वर्तते । राजा दध्यौ-कोऽप्येवं व्योम्नि वक्ति ! ततः पुनर्वाण्यभूत्-यदि दानफलं द्रष्टुं वाल्छति तदा सोपारकपत्तने गत्वा कदर्यमहेभ्यस्य दानपरभीमश्रेष्ठिनश्चरित्रं विलोकय !
ततो राजा एकाकी सोपारकपत्तने ययौ । कर्यश्रेष्ठिगृहे कोटिद्वयरैशालिनि गतः । याब्चा भोजनाय कृता। किमपि न दत्तं । उसरो विधे-स्वयं न मुक्ते स बान्धवादीनामपि न दत्ते भोजनं पर्वण्यपि । तं तादृशं बद्धमुष्टिं दृष्ट्वा भीमगृहे राजा गतः। श्रेष्ठिना स्वागतं कृतम्, भोजनं याचित्वा यावत्पश्चाद्वलितस्तावत्तेन रक्षितः श्रेष्ठिगेहे तदान्नं राद्धमभूत् , परं घृतं नास्ति । ततः कृपापरो दानी स भीमः कदर्यगृहे गत्वा कदर्याने प्राइ-मद्गृहे अतिथिरागतोऽस्ति तस्मै मया भोजनं दास्यते । तेन घृतमप्पय । स चाहन्धनं मुन्न । भीमोऽवग-दाने दत्तेऽर्थिभ्यस्तवापि पुण्यं भविष्यति । कदर्योऽवग-मम पुण्येन सृतम्, कोऽधिकस्य पुण्यस्म भारं
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द्वितीयोऽधिकारः
[ १२५
वहते । ततो भीमश्चतुर्गुणं घृतं दास्यामीति जल्पित्वा घृतमानीय विक्रमार्कमाघूर्णकं सादरं गौरवयामास । भीमगृहे राजा रात्रौ स्थितः । दैवयोगात्कदर्यभीमश्रेष्ठिनौ मृतौ । राजा दध्यौ-येन ममादराहानं दत्तं स श्रेष्ठी कथं मृतः । अहमपि मरिष्यामि । ततो यावन्मर्तुकामो भूपोऽसिं कुक्षौ चिक्षेप, तावत्पुनराकाशवाणी जाता
'इतो दशमे मासे त्वया कान्त्यां पुर्या गम्यम् । तत्र दानफलं द्रक्ष्यसि ।' ततो राजा 6
मानन्तरं कान्त्याः पर्याः पाइवें गतः । तत्रैकस्य चाण्डालस्य पल्ली षट पत्रीजनितवती। गृहे तु दारिद्रयम् । सप्तमो गर्भोऽभूत्तस्या यदा तदा गर्भपातनेच्छाऽभूत्, परं गर्भः पात्यमानोऽपि नापतत् । क्रमात्पत्री तया जनिता । तया चाण्डाल्या उत्करटके त्यक्ता ।
अत्रान्तरे राजा तत्रागतोऽवग--पुत्री कथं त्यज्यते ! ततः सा प्राह-अस्यां गर्भस्थायां दुष्टा दोहदा जाताः । गेहे तु अद्यतनमन्नं नास्ति । ततो राज्ञा घनं धनं दत्त्वा सा 10 पश्चाग्राहिता मातृपाश्र्वात् । ततो राजा पुरांतरे गतः।
___ इतस्तत्र पुरे भूपस्य पुत्रोऽभूत्, परं स्तन्यपानं पुत्रो न करोति । ततो राजादयः सर्वे दुःखिता जाताः । ततो राज्ञोक्तं-'यो राजपुत्रं स्तन्यं पिबन्तं करोति, तस्मै राजा प्रामशतं दत्ते' इति पटहो वाद्यमानो न केनापि स्पृष्टः । ततः पटहस्पर्शनपूर्व राजा विक्रमार्को भूपपुत्रपाश्र्व गतः । ततोऽसि कण्ठे दत्त्वा प्राह राजा-येनास्य बालस्य गलं रुद्धं स्यात् स 15 प्रकटीभवतु ममाने, नो चेदहं मरिष्यामि । ततो दानाऽधिष्ठितदेवतया बालकमुखेऽवतीर्य प्रोक्तं-भो राजन् किं मामुपलक्षयसि न वा ? विक्रमार्कोऽवग-नाहमुपलक्ष्ये । ततो बालोऽवग-अहं सोपारकपप्तनवासिभीमश्रेष्ठिजीझस्तुभ्यमतियये दानमदाम् । तेन पुण्येन । भूपपुत्रोऽभवम् । राज्ञोक्तं-कदयः क्वावतीर्णोऽस्ति ? बालोऽवग--या त्वया चाण्ड पुत्री त्यजन्ती धनं दत्त्वा ग्राहिता सा कदयश्रेष्ठिजीवोऽल्पपुण्यः । अहं तु दानाधिष्ठायिक- 20 देवी दानफलं झापयितुं शिशोरास्येऽवतीर्याऽजल्पम् । ततो बालोऽपि, स्तन्यं पातुं लग्नः । देवी स्वस्थाने गता। बालपित्रा ग्रामशतं दीयमानं विक्रमार्को न ललौ, तदा दानफलं देवतामुखात् श्रुत्वा राजा लोकोऽपि दानतत्परोऽभूत् ।
इति दानफले भीमश्रेष्ठिविक्रमार्कसम्बन्धः ॥२०५॥ [206 ] अथ निरुपकारनरसम्बन्धः ।
25 एकस्य मस्स्स राजवर्त्मनि गच्छतस्तैलभृतवर्तुलातलविन्दु मौ पपात । ततस्तत्र बहुभिर्जनैस्तैलबिन्दवः क्षिप्ताः। तत्स्थानं देवताधिष्ठितं जाबम् । स 'तैलदेवते ति नामाभून् । सा च देवी पूर्व क्षिप्तबिन्दुपुरुषाय पुनस्तैलं क्षिपतः [ते] श्रियं दत्ते । ततस्तेन तेलदेवप्रतिमा कारिता। सा [तां] च तेलदेवताप्रतिमा (मा] सर्वेषां श्रियं ददानां दृष्ट्वा स पुमान् परश्रियमद्रष्टुकामस्ता प्रतिमा वने चिक्षेप । ततस्तस्य गृहाच्छोगता । स च दरिद्रयभूत् । ततः स एव पुमान् पूर्व- 30 स्थाने ना मुमोच । ततः राजवर्त्मस्थतैलदेवता सर्वेषां मनोवाच्छितं ददो।
' इति स्थानप्रधानः निम्मकारनासम्बन्धः ॥२०६॥
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१२६ ]
प्रबन्धपश्चशती
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[207 ] अथ भाग्यामाग्ययोः धनश्रेष्ठितत्पुत्रसम्बन्धः । एकस्मिन्पुरे धनधेष्ठिनः पुत्रो बहवो जाताः। श्रेष्ठिनि मृते परस्परं कलिं कृत्वा केचिन्मृताः केचिद्दरिद्रिणोऽभूवन , केचिद्दामं त्यक्त्वा गताः, केचिद्भपपाद्दिण्डापिताः, तदा एकस्तस्य गृहासन्नस्थो निःस्वोऽवग
दालिद्र पुण रलियामणू, कियती कियती वार ।
एक उचालइ अनइ पलीवणइ जूआ खेलणकालि ||१|| केनापि वैद्येन बह्वर्थितेन प्रथमं किमपि दत्तं नोरोगः सन् किमपि न दत्तो । वैद्यो ऽवग- ब्राह्मणः ! वइ दअनइ कोटीलउ कीथइ काजिमूंकइ ढीलउ ।।
इति भाग्याऽभाग्ययोः धनश्रेष्ठितत्पुत्रसम्बन्धः ॥२०७||
[208 ] अर्थ भाग्ये तपस्विश्रेष्ठिसंबंधः । एकस्मिन्प्रामे श्रेष्ठिनो बह्वी श्रीविद्यते । कुटुम्बं महत् । इतस्तस्य गृहे एकस्तापसो भिनार्थमागतः । तदा तापसः श्रेष्ठिगृहे बह्रीं श्रियं दृष्ट्वा दथ्यौ। कस्य [केन] कर्मणाऽस्य गृहे श्रीर्व
ऽस्ति । तदा श्रेष्ठपली पत्रपौत्रगोबषादीनामपि शुभकर्म न वीक्ष्यते । ततो विलोकमानस्तपस्वी तद्गृहभित्तो काष्ठधोटकाच्छ्रियं वर्धमाना जझौ । ततस्तपस्वी स्वं श्रीमन्तं कर्तुं श्रेष्ठिप्रियोपान्ते काष्ठपोटकेन रद्ध झीरं हहात् याचते स्म, तदा तं म्रियमाणं दृष्ट्वा श्रेष्ठिपत्नी हत्याभयात् तेन काष्ठेन झीरं ररन्ध । ___ इतस्तपस्वी स्नानार्थ गतः यावत्स तापसः सरस आयाति तावदितो लेखशालागतो श्रेष्ठि पुत्रो मातुःपाश्वोत् बलात् झीरं बुभुजे । स च पुत्रो लेखशालायां गतः तपस्वी तत्रागतः झीरं
बालकमुक्तं ज्ञात्वा स्वशिरः कुट्टयामास जजल्प चेति--ममाभाग्यं विद्यते किमहं स्नानायागाम् । 20 यदि प्रथमं क्षीरं मया मुक्तमभवत् , तदा मम श्रीरभविष्यत् । अस्य श्रेष्टिपुत्रस्य भाग्यमित्युदित्वा स गतः श्रेष्ठिगृहेश्रीश्चिरं तस्थौ । इति भाग्ये तपस्विश्रेष्ठिसम्बन्धः ॥२०८।।
[209] अथ कृतघ्ने सिंहसम्बन्धः । एकस्यां गुहाया वनेचरस्य वसतः शीतातः सिंहो द्वारेऽभ्येत्य करुणं रौतितरां गुहामध्ये प्रवेष्टु, तदा वनेचरेण दयया द्वारमुद्घाटितम् । सिंहो गुहामध्ये प्रविष्टः । प्रहरानन्तरं शोते उत्तरिते बनेचरं हत्वा भुक्तवान् । इति कृतघ्ने सिंहसम्बन्धः ॥२०६॥
[210] अथ कुशीलमायायां श्रेष्ठिपत्नीसम्बन्धः । एकस्य श्रेष्ठिनः कुशोलिनी प्रियाऽभूत् । लयाऽऽकारितौ द्वौ नरौ भोगाय । तदाऽकस्माद् ग्रामान्तरादागतः श्रेष्ठी । गेहद्वारे तदा ताभ्यां नृभ्यामुक्तं मरणमागतम् । तव पतिः समायातो
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द्वितीयोऽधिकारा
[ १२७
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ऽधुना । तदा तया द्वर्योर्मध्ये एका सीवेषभृत् कृत्तः अपरो नृदेषधरश्च, छमं स्थापितौतौ च तदा बुभुक्षितः स भोक्तुं श्रेष्टयुपविष्टः, तदा च तया द्वयोनरयोरने शनैः प्रोक्तं-द्वाभ्यां युवाभ्यामधोमुखाभ्यां त्वरितं गन्तव्यं पश्चादहं समर्थयिध्ये । ताभ्यां तथा कृते श्रेष्ठी प्राह-को त्वरितं गतौ । साऽवग ईश्वरपार्वत्योः पूजां विना त्वमस्थ, तेन रुष्टौ तौ गतौ । अधुना ममाग्रे प्रोक्तमेताभ्यां तव पत्युर्मुखं न दर्शयिष्यावः । स श्रेष्ठी प्राह-पश्चाद्वालयातः परं पूजा करिष्ये तयोः। 5 तयोक्तम्-अद्य तु गतौ पुनर्यदा समेष्यतः तदा कथयिष्यते मया । एवं तया श्रेष्ठी प्रत्यायितः ।
इति कुशीलभार्यायां भेष्ठिपत्नीसम्बन्धः ॥२१०॥
[21] अथ श्रीदारिद्रसंवादसम्बन्धः । एकदा लक्ष्मीविशिष्टविभूषणाम्बरभूषिततनुरेकस्मिन्गृहे महेभ्यस्य विलसमाना सिंहासने रुपविष्टा, तदाऽनेके महेभ्यास्ता द्रष्टुं समायाताः ।
इतो गोकुले नारायणो भूरिगोपीपरिवारपरिवृतो वादित्रनिनदं श्रुत्वा पार्श्वस्थं गोपोजनं पप्रच्छ । किमधुनाऽत्र वाद्यन्ते वादित्राणि । गोपीभिः प्रोक्तं-स्वामिन् ! श्रीदश्रेष्टिगेहे लक्ष्मीः समागता तेन तत्रोत्सवो महान् जायमानोऽस्ति । ततः कृष्णो गोपीयुतस्तत्र गतः, लक्ष्मीः परिवारं वीक्ष्य मुमुदे । ___ इतस्तत्र गृहद्वारे दारिद्रथः पुमान् समागात् । दारिद्रः प्राह-रे रण्डे ! किमत्रैव त्वया मां 15 विना लोको विप्रतारयितुं मण्डितोऽस्ति । किं त्वं न जानीषे अहं तव माहात्म्यं क्षणादेव भिननि । लक्ष्मीजगौ-गच्छाऽतोऽचिराद , नो ,त्त्वां विगोयपयिष्यामि । अहमेव लोकं सुखिनं करोमि । मां विना लोका रका इव गृहे गृहे भ्रमन्ति । दारिद्रः प्राह-त्वं तु माहात्म्य मत्त एव प्राप । मत्तो भीता लोकास्त्वां सेवन्ते । अतो मत्कृत एव प्रसादस्त्वयि विलसति । ततो द्वावपि मिथो विवादं चक्रतुः । क्षणं विश्रामं न ललतुः । ततो लोकैरुक्तं-भो कृष्ण ! त्वमन- 20 योर्विवाद छिन्द्धि । कृष्णोऽवग-अहं युवा साम्प्रतमस्मि । - लक्ष्मीदारिद्रौ ! इन्द्रपार्श्वे गच्छतम् । तत्रेन्द्रो वादमनयोर्भेत्स्यति । ततो द्वावपि स्वर्ग गतौ, इन्द्रेण पृष्टौ द्वावपि स्वस्वरूपं गदतः स्मेति ।
श्रीरवग्-मया जगत्सुखवत् कृतम् । दारिद्रोऽवग---मत्तो भीता जना एनां सेवन्ते अतोऽस्याः प्रसादो मया दत्तः। 25
तत इन्द्रो जगौ-युवां व?, विवादो न विधीयते। ततः शक्रेण श्रीः पृष्टा त्वमद्य यावत् केषु गृहेषु कुत्र स्थाने स्थिता ? श्रीजंगौ-ममैतानि गृहाणि विद्यन्ते -
गुरवो यत्र पूज्यन्ते, वित्तं यत्र नयार्जितम् । अदन्तकलहो यत्र, तत्र शक्र ! वसाम्यहम् ।।१॥
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१२८ ]
प्रबन्धपाती प्रोवियत्र निजैर्गहे, देहे सत्वं सुसंभृतम् ।
पुण्यमारमजगुण्यं च, तत्र शक्र ! बसाम्यहम् ॥२॥ एवं विधेषु रोहेषु, सहस्रेषु अहं स्थास्यामि, स्थिता, तिष्ठामि । तत इन्द्रपृष्टो दरिद्रोऽवग
'द्यूतपोषी' 'निजद्वेषीर धातुवादी सदालसा |
आयव्ययमनालोची. तत्र तिष्ठाम्यहं हरे ! ।।१।। तत्र शक्रो द्वयोः पुरः प्रात्यस्य भास्यं विद्यते तस्य लक्ष्मि ! त्वं तिष्ठसि, नान्यस्य । यस्याऽभाग्य विद्यते तत्र दारिद्रो वसति । अतो युवयोः को गर्वः ! अतो गर्व मुक्त्वा यस्य भाग्य विद्यते तत्र लक्ष्मीस्तिष्ठतु । यस्वाभाग्वं तत्र क्षरिद्रस्तिष्ठतु । सतो विवादो भग्नः शक्रेण । .
इति श्री-दारिद्रसंवादसम्बन्धः ॥११॥
[1212] अथ कूटमानकवेष्ठिसम्बन्धः। धनावहश्रेष्ठिनों पनाह्वो नन्दनोऽजनि । क्रमात् श्रेष्ठी हट्टं मण्डयामास । तत्र हट्टे बहूनि क्रयाणकानि मण्डयन्ते । श्रेष्ठिना लोकं वञ्चयितुं कूटानि मानकतुलादीनि कृतानि ।
मानकस्य एकस्य दायकस्य 'एक पोकर' नाम दत्तम् । धान्यदानाय ग्राहकस्य मानकस्य 15 पञ्चपोकर इति । ततः श्रेष्ठी यदा धान्यं गृह्वाति तदा पञ्चोकरेग लाति । यदा दत्तं तद
एकद्वित्रिचतुःपोकरेण । यदा धान्यं गृहाति तदा पुत्रं प्रति वदति-पञ्चपोकरमानकमानय । यदा धान्यं दत्ते तदा वदति-एकपोकर-द्विपोकर-त्रिपोकर-चतुःपोकर पुत्र ! मानकमानय ।
___ एकदा एकप्राहिका स्त्रीजगौ-प्रेष्ठिन् ! तव पुत्रस्तु एक एव दृश्यते नामानि
बहूनि कथमस्य । श्रेष्ठ्यवग-एक नाम मया, एक मात्रा, एकं मातुलेन, एकं मातुलान्या, एक 20 तु लोकैर्नामास्य पुत्रस्य दत्तं । एवं प्रोच्य सा वञ्चिता । एवं वंचंवंचं श्रेष्ठी श्वभ्रं गतः ।
इति कूटमानकवेष्ठिसम्बन्धः ॥२१२॥
[213] अथ सीतावनत्यजनसम्बन्धः । एकदा श्रीरामो रावणं जित्वा सीतां स्वसदनेऽनैषीद्यदा तदा सीतां श्रीराममान्यां दृष्ट्वा राझीनामष्टसहस्रमीयां कुरुते । ताभी रानीभिमिथा विमृष्टं, सीता रामचित्तादुत्तार्यते ।
ततश्चान्यदा सीतामन्तःपुरे आगच्छन्तीं वीक्ष्य सर्वा अन्तपुर्यो वर्यासनं मण्डयामासुः, अभ्युत्थानं चक्रश्च । सीतोपविष्टा ताभिः सविनयं प्रोक्तं -स्वामिनि ! त्वं लङ्कामस्थाः, स रावणो दशाननः कीदृशो दृष्टः, लङ्का वा कीदृशी विद्यते ! सीताऽवग
रावणो यदा यदा मम पावें समागात्तदा तदा अधोमुखं कृतं तेन रावणाझं न दृष्टं, पुनः पादौ तस्य दृष्टौ ।
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द्वितीयोऽधिकारः
ताभिरुक्तं तर्हि लङ्कादिरावणपादादि भूमौ खड्या लेखनीयानि ।
ततस्तया मुग्धस्वभावत्वात् लङ्काब्धिरावणपादादि सर्वं भूमौ लिखितं । रामोऽवग्atta कथं लिखति । ताभिः प्रोक्तं--यो यस्याश्चेतसि विद्यते स तस्या हृदि तिष्ठत्येव । रावणांही आलिख्य प्रणमति सीता ।
[ १२९
ततो रामो दध्यौ - अहं सीतां सतीमेव वेद्मि यस्या हेतवे मनुष्याणां बहूनां संहारः कृतो 5 मया सा त्वेवंविधाऽस्ति । ततो रामो दध्यौ - सर्वाः पत्य एवंविधाः सन्ति, अतः सर्वा - स्त्यक्ष्यामि ।
ततो रामो रात्राकाकी पुरं द्रष्टुं निर्ययौ । एकस्य गोछिकस्य गृहोपान्ते गतः, तदा पत्नी तस्योत्सूरे समागता सती गाब्छिकेनोक्तं त्वमेतावन्तं कालं कुत्रास्थाः ? पल्योक्तं - प्रातिवेश्मकालये । कान्तः प्राह एवं त्वं यास्यन्ती असती भविष्यसि । साऽवग्-एवं यद्यसतीत्वमा - 10 गमिष्यति तदा सर्वाः स्त्रियोऽसत्य एव भविष्यन्ति ।
ततो रुष्टः स यदा गृहाद्वहिः कर्षयितुं लग्नः तदा साऽवग - श्रीरामः सीतां रावणगृहे बहुकालं स्थितामति स्वगृहे स्थापयति, स्वमेवं कथं कुरुषे ?
'अहं रामतुल्यो नास्मि' । एतद्वचः श्रुत्वा पुनः सीतोपरि जातद्विद् सीतां वने तत्याज । इति सीतावनत्य जनसम्बन्धः || २१३||
[214] अथाविचार्य जल्पने क्षत्रिय सूत्रधारपुत्रसम्बन्धः ।
काणककाछिकः कस्यचित्क्षत्रियस्य वृषभौ कस्मैचित्कार्यायानीतवान् । सिद्धे कार्ये तस्य गृहे वृषौ दत्तौ । तेन प्रोक्तं च दृग्भ्यां दृष्टौ ? सोsवग्दृष्टौ । काछिकः स्वगृहे गतः ।
15
इतस्तौ वृषौ गतौ तस्य गृहात्, विलोकितौ सर्वत्र न लब्धौ । स च क्षत्रियो वृषौ मार्गयितुं गतः । काछिकोऽवग- मया पश्यतस्तव तौ दत्तौ, तथापि स क्षत्रियस्तौ मार्गयति सदा, 20 कलिं कुरुते । ततस्तौ मार्गे कलि कुर्वाणो निर्गतौ ।
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इतः काछिकस्याग्रे क्षत्रियेणोक्तं-भो पुमन् ! अश्वो हन्तव्यः गच्छन्नस्ति । तेन तदाऽसिना हतेऽश्वो मृतः । स चाश्वं मार्गयति । द्वाभ्यां पुनः काछिको देवगृहे गतः दध्यौ च, "अहमेतयोः पार्श्वान्मृतिं विना न छुटिष्यामि " ततस्तयोः सुप्तयोर्मर्तुकामः काछिकः प्रासादस्योर्ध्व चत्वा झम्पामदात् । तदाऽधस्तात्सुप्तस्य सूत्रधारस्योपरि पपात । सूत्रधारो मृतः । सूत्रवारपुत्रोऽपि 25 स्वपितरं याचते । त्रयोऽपि काछिकं दृढं कृत्वा राजकुले गताः । स्वं स्वं लहनकं ममार्गः [ मार्गयामासुः ] स्वं स्वं सम्बन्धं प्रोचुः । काछिकोऽपि स्वसम्बन्धं जगौ । तदा भूपामात्येनोचे'भो क्षत्रियः त्वयोक्तं दृग्भ्यां वृषभौ दृष्टौ ततस्त्वं दृष्टी देहि, असौ वृषभो दास्यति । ततः स मौनं व्यधात् । द्वितीयक्ष त्रियाप्रे प्रोक्तं-खया जिल्ह्वयोक्तं अश्वो हम्यतां ततोऽस्मै त्वं जिह्वां छिवा देहि, ततोऽसौ तुरङ्गमं दास्यति । सूत्रधारपुत्रस्याये प्रोक्तं त्वमपि प्रासादोपरि चदित्वाऽस्य 30
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१३० ]
प्रबन्धपश्चशती
सुप्तस्योपरि यत । ततः सर्वे मौनं चक्रुः । काछिकश्छुटितस्तेभ्यः स्वगृहे गतः।
इति अविचार्यजन्पने क्षत्रियसूत्रधारपुत्रसंबंधः ॥२१४॥
[215] अथ शुद्धाहारग्रहणे वत्सकथा । श्रीनिलये पुरे श्रीदः श्रेष्ठी, पुत्राः ४ क्रमात्परिणायिताः श्रेष्ठिना । तस्य च गृहे एका 6 गौरेको वत्सः तस्य चारिपानीययोश्चिन्तां ता वारकेण कुर्वन्ति ।
एकदा विवाहे जायमाने स वत्सो विस्मृतो, बुमुक्षितस्तासां मुखं विलोकयति ताश्च विवाहासक्ता न स्मरन्ति वत्सम् । इतः श्रेष्ठी वत्सं बुभुक्षितं जज्ञौ । ततः श्रेष्ठी ताः प्रति प्राहयूयं न वरा, यतो वत्सस्य सारा न कृता इति हसितास्ताश्चारिपानीयादि दातुं वत्सं
प्रति चेलुः, तदा यथा वत्सस्तस्मिन् चारिपानीयादौ एकाग्रचित्तोऽभूत्, न तासु । तथा 10 साधुभिभिक्षासु चित्तं देयं, नान्यत्र ।
इति शुद्धाहारग्रहणे वत्सकथा ॥२१५॥ [216 ] अथ विध्यविधिभ्यां धर्म कर्तव्यमिति पुरुषत्रयकथा । कस्मात्पुरात् त्रयः पुरुषाः द्रव्यार्थ चेलुः । गतास्तुङ्गशैले, तत्र सिद्धपुरुषं षण्मासं यावनिरन्तरं सिषिविरे तथा, यथा प्रसन्नीभयऽवग-मार्गयत यूयं चित्तेष्ट, ते जगुर्घनं देहि । ततः पुनस्तम्बिका 16 बीजानि दत्त्वाऽवग्-भवद्भिः पुष्यायोगे मध्याह्न जाते शतवारं क्षेत्रं खेटयित्वा छायायां कृतायां
मण्डपयोगात् बीजानि वपनीयानि । अर्थ मन्त्रश्च जपनीयः इत्यादि विधिना तुम्बिकाबीजानि उद्गतानि पुनर्बीजानि तासां जायन्ते यदा तदा सपत्राः सशाखास्तुम्बिका उत्पाट्य आतपे शुष्कयित्वा तासां बीजानि पृथक्कृत्वा सुस्थाने स्थाप्यानि । यतः पुनर्वपनाय तासां चूर्णमेकगदीयानकमितं तप्तत्रपुमध्येऽपि झिप्यते सर्व सुवर्ण भविष्यति ।
एवं श्रुत्वा तास्तुम्बीलात्वा तासां बीजानि ते ललुः । ततस्तं सत्पुरुषं नत्वा स्वग्रामे ययुस्ते त्रयः । तेषु प्रथमो गुरुक्तविधिना तानि तुम्बीबीजानि उप्त्वा सुवर्ण चक्रे, बहु ततः सुख्यभूत् । द्वितीयो गुरूक्तं विधि शिथिलयन् तानि बीजानि उप्त्वा रजतं चक्रे । तृतीयो गुरुक्तं विधि न न व्यधात् तस्य किमपि नाभूत् ।
एवं ये गुरुक्तविधिना सादरं देवपूजादानशीलतपोभाबनादिपुण्यं कुर्वन्ति ते प्रथमपुरुष. 26 बस्वर्गापवर्गादिसुखभाजः स्युः ।।
थे तु विधिना धर्म कुर्वन्तः कदाचिदविधिनाऽपि देवपूजादिपुण्यं कुर्वन्ति ते द्वितीयपुरुषवन्मनुष्यजन्म लभन्ते ।
ये तु गुरूक्तं धर्म विधिनाऽविधिनाऽपि न कुर्वन्ति ते तृतीयपुरुषवहुःखिनो नरके मवन्ति । एवं विधिमा धर्मकृत्यं नो वेदविधिनाऽपि कर्त्तव्यं, न धर्मकृत्यं विना स्थेयं । यतः
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द्वितीयोऽधिकारः
अविहिकए वरमकयं, असूयवयणं भणंति समयण्णू । पायच्छित्तं जम्हा, अकयगरूअं कयलहुअं ॥१॥ इति विध्यविधिभ्यां धर्म कर्त्तव्यमिति पुरुषत्रयकथा ॥२१६॥
[217 ] अथ द्वेष भूपपत्नीकथा । श्रीपुरे चन्द्रभूपस्य पश्चदशपल्योऽभूवन् । तासु मध्ये चन्द्रवतो पट्टराज्ञी जिनधर्म कुशला । । अपरासामने वक्ति-भो भगिन्यः ! अस्माभिः पूर्व पुण्यं कृतं तेन वयं भूपस्य पल्योऽभूम । यदि जैनो धर्मः क्रियते तदा वरं । एवं कथयन्तो जिनप्रासादं कारयामास । तत्रादिदेवप्रतिमा स्थापिता । एकदा भगिनीनां पुरः प्रोक्तं-जिनप्रासादप्रतिमाकारणे बहु पुण्यं जायते, यतः
अङ्गष्ठमात्रमपि यः प्रकरोति बिम्ब,
वीरावसानवृषभादिजिनेश्वराणाम् । स्वर्गप्रधानविपुलद्धिसुखानि भुक्त्वा,
पश्चादनुत्तरगतिं समुपैति धीरः ॥१॥ इत्यादि धर्मोपदेशं पट्टराज्ञोमुखादाकर्ण्य सर्वाभी राजीभिर्जिनालयास्तुङ्गाः कारिताः । चन्द्रवती गुरुणीति कृत्वा स्थापिता इयं पुण्यवतीति ता जल्पन्ति । क्रमाञ्चन्द्रवती लोकमुखात्स्वं 15 जिनालयमपराहदालयेभ्यो हीनं श्रुत्वा खिन्ना दध्यो । मया पापं कृतं यदासां पात्प्रासादाः कारिताः । किं कथमपि प्रासादाः पतन्ति तदा वरम् । एवं सदातध्यानपरा हृदये परेभ्यः स्वं पापमप्रकाशयन्ती क्रमादुत्पन्नरोगा मृता ग्रामशुनी जाता । सा च प्रभुप्रासादे प्रविशन्ती ता कष्टापयन्ति कुट्टयन्ति बहिनिष्काशयन्ति ।
एकदा प्रभुबिम्बं दृष्ट्वा जातिस्मृति प्राप्याश्रप्रवाहं मुञ्चन्ती तिष्ठति स्म, न कुत्रापि गच्छति 20 पुनः स्वकृतकर्म निन्दति च तदा केवली तत्रागात् । स च सर्वाभिः पट्टराज्ञोभिभूपेन वन्दितः धर्मोपदेशः श्रुतः । पृष्टं ताभिः अस्मद्गुरुणी चन्द्रवतो मृत्वा कुत्रोत्पन्ना ? केवल्यवग्-शुनो या जिनबिम्बं दृष्ट्वाऽश्रु पातयति सैव । ततः पृष्टं कथं पुण्यवत्येवंविधाऽभूत् ? केवल्यवग-आतध्यानाव कुत्सितध्यानाच्च । ताभिः पृष्टं कथं झायते ? केवल्यवग-भवन्त्यस्तत्र गत्वा पृच्छन्तु, सास्य संज्ञापयिष्यति । ततः केवलिपार्श्वे आनीता । केवल्यवग-परस्मिन् द्वेषं कुर्वन् तियगपदीय 25 भवति एषा शुनी यथा ततः सर्वो वृत्तान्तः प्रोक्तः । सा चानशनं लात्वा स्वर्ग क्रमाद् दिवि यास्यति । ततः सर्वाः राज्ञः पल्यो द्वेषं त्यक्त्वा शुद्धं धर्म कृत्वा प्रान्ते चारित्रं लात्वा सर्वकर्मक्षयान्मुक्तिं गताः । इति द्वेष भूपपत्नीकथा ॥२१७॥
[318 ] अथ भाग्ययोगात्स्वेष्टयोगो भवति । एकस्मिन् प्रामे भग्ने परैः एकस्य निगमस्य प्रिया तैहोता वैरिभिः। सा सो वैरिभिश्चालिता 30
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१३२ ]
प्रबन्धपञ्चशती
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सती मार्ग समेत्य पत्या छोटयितुं चतुःशतीस्फरकानां मानिता । स्वगृहे सर्व गृहं धनै रिक्तं दृष्ट्वा स्वकजनपार्थात् धनं मार्गयित्वा चचाल । तदा एको द्विजश्छली तद्धनं तेन नैगमेन समं चचाल ! स वणिग् न विश्वसिति । स च चलन् मार्गे एकस्य कूपस्य प्रान्ते समागात् । तदा
विप्रोऽवग-अत्र पयः पीयते. कृपस्य कण्ठे उपविझत । तदा छलेन द्विजस्तस्य पाइर्वात 5 लात्वा कूपे चिक्षेप । कटिदध्ने जले स्थितः क्षणात्सचतेनीभूतः स्वां प्रियां तत्रैव दृष्ट्वा हृष्टः प्राह
भो प्रिये ! कथं त्वमत्रागाः । ततस्तेन स्वस्य कूपपतनवृत्तान्तः प्रोक्तः । ततो भार्यापि तेन पृष्टाऽवग्-स्वकूपपतनवृत्तान्तं प्राहेति-अहमत्रायाते शिबिरे छलं कृत्वा कूपेऽपतं तदा दिनद्वयं जातं कोऽपि न तत्रायाति । यः कर्षयति तदाकस्मात् कूपस्याधःस्थविवरेऽकस्मात्तत्र पयः पातुं
शिवा समागात् । सा पयः पीत्वा पश्चाद्यावद्ववले तावत्स वणिम् तस्य पृष्टौ विवरात् गन्यू10 तद्वये बहिनिर्गत्य स्वां प्रियां कर्षयामास । यत्र शिवा भूमध्यविवरेभ्यः पातालस्थं पयः पिबति ततस्तत्र विप्रपाश्र्वे गत्वा तं हक्कयित्वा राजकुले नीत्वा स्वं धनं जग्राह । भार्यायुतः स्वपुरे गतः ।
इति भाग्ययोगात्स्वेष्टयोगो भवति ॥२१८॥
[219] अथ कुमारपालपश्चाद्भवसम्बन्धः । ग्रीष्मे तुल्यगुडां सुसैन्धवयुतां वर्षावनद्धाम्बरे,
तुल्यां शर्करया शरद्यमलया शुम्ब्या तुषारागमे । पिपल्या शिशिरे वसन्तसमये क्षौद्रेण संयोजितां,
पुंसां प्राप्य हरीतकीमिव गदा नश्यन्तु ते शत्रवः ॥१॥ सुरगिरि एकावन्ना, सावउ भावउ देइ दाणं ।
तस्स न तत्ती अपुग्नं, जत्तीअ सामइए इक्के ॥२॥
सामाईअसुद्विआणं, जह जह उल्लसइ सुद्धपरिणामो । 20
तह तह खवंति जीवा, अणेगभवसंचि कम्मं ॥३॥ सामाईअसामग्गिं, अमरा चिंतंति ही अयमझमि ।
जइ हुज्ज घडीव दुगं, ता अम्ह सुरत्तणं सुलहं ॥४॥ एकदा कुमारपालः श्रोहेमसूरिपार्वेऽप्राक्षीत् । मया पूर्वभवे किं कृतं पुण्यमले को भवो भविष्यति ? सिद्धराजः कुतो मह्यमद्रुहथत् ? मन्त्री उदायनो यूयमपि वत्सलाः कुतः १ यतः25
नहि प्रारजन्मसंबंध, विना कस्यापि कर्हि चित् ।
वैरं च सौहृदय्यं च, स्यातामात्यन्तिके ध्रुवम् !!५|| सरिः प्राह-नेदानी निर्मलं ज्ञानं न विद्यते तथापि देवता पृष्टा कथयिष्यामि । ततः सूरिः . सियारेः गत्मा श्रीनेमिप्रासाचे अमिमम्बिकामहिश्य तपस्तेपे । उपवासत्रयान्ते अम्बिका
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द्वितीयोऽधिकारः
[ १३३
10
प्राक्सम्बन्धं प्राह । ततो गुरुः प्राह-मेदपाटमध्ये भीमपर्वतोपान्ते परमान्वयी जयताहः पल्लीपतिः लोकान् मुमोष । ग्रामान भनक्ति स्म ।
अन्येशुधनवन्तं सार्थपं तत्राध्वनि आगच्छन्तं दृष्टा लुलोट । घनदत्तो नष्टः सार्थपः स्वगृहे गत्वा मालवेशं संसेव्य तदलं लात्वा पल्लीपुरं वेष्टयित्वा युद्धे जयतं जिगाय । जयतो नष्टः धनदत्तस्तभृत्यान हत्वा तत्पन्याः सगर्भाया उदरं विदार्य कर्षयित्वा शिलायामास्फाल्य यम- 8 गृहं नीतवान् । ततो यदा धनदत्तः पल्लीपतिधनं राज्ञोऽग्रे मुमोच, तदा राजा तत्कृत्यं ज्ञात्वा रुष्टो जगौ-.
त्वं वाणिजोऽपिं जात्यारे, कर्मणासि जनंगम । निघृणो यत्स्वहस्तेन, स्त्रियं बालं च जघ्निवान् ।।६।। अर्थतत्कर्म निर्माति, चाण्डालोऽपि न कर्हिचित् ।
यत्वया निर्मितं रे रे, लोकद्वयविरोधकम् ॥७॥ अतस्त्वमदृष्टमुखो दूरं याहि, महेशे न स्थेयं । ततो निर्गत्य तापसो भूत्वा अज्ञानं तपः कृत्वा सिद्धराजोऽभूत् । धनदत्तः जयताकः पल्लीपतिः निःस्वो भूत्वा यशोभद्रसूरि सेवते स्म, धर्म शृणोति । यतःरोगिणां सुहृदो वैद्याः, प्रभूणां चाटुकारिणः ।
15 मुनयो दुःखदग्धानां, गणिकाः क्षीणसम्पदाम् ॥८॥ चौयं श्वभ्रफलं ज्ञात्वा, स्तन्यं तत्याज जयतः ।
स्थानभ्रंशं कुलध्वंसं, निःशेषविभवक्षयः ।
तत्कालं कलयन स्तेया-क: सुधीविदधीत तत् ॥९॥ ततो जयताक: एकशिलापुर्या प्रेषितः । तत्र उदरमहेभ्यगृहे कर्मकरोऽभूत् । भद्रकस्वभावत्वात् 20 गुरुरपि तत्रागात् उबरो धर्मोपदेशं शुश्राव ।
एकदा उदरेण जयतः पृष्टः, कुत्र तिष्ठसि वहीं वेलां । तेनोक्तं-यशोभद्रसूरेः पार्थे तिष्ठामि । तत उदरो दृष्टस्तं भृत्यं गुरुपाचं निनाय । धर्म द्वावपि श्रृणुतः स्म । उपदेशं श्रुत्वा उदरो जिनागारमकारयत् । तत्र श्रीवीरदेवप्रतिमां यशोभद्रसूरि [रिः) प्रतिष्ठयत् ।
एकदा पर्युषणादिने बहून् श्राद्धान् जिनमर्चयतो दृष्ट्वा स्वीयपञ्चकपः पुष्पान् लात्वा 25 प्रभोर्जयतोऽर्चा चक्रे । प्रातगुरून् प्रतिलाभ्योदरः पारणकं व्यधात् । स कर्मकरोऽनुमुमोद तत्पुण्यम् । उदरो मृत्वा उदायनो मन्त्र्यभूत् । जयताको मृत्वा भवानभूत् । यशोभद्रसूरिमृत्वा हेमाऽभूवम् । धनदत्तः सार्थपो मृत्वा सिद्धराजोऽभूत् । अतः प्राग्भववरात् त्वं मारयितुमारब्धस्तेन मम तव उदयनस्य च प्रीतिः प्राग्भवभूताऽभूत् । तत एकशिलापुरिप्रेष्यभृत्यान् पुरगृहप्रासादादिपुण्यं ज्ञातमतो मृत्वा भवान् व्यन्तरेन्द्रो भविष्यति । इन्द्रवत्स्वशाश्वतचैत्यानि 30
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१३४ ]
प्रवन्धपश्चशती
वन्दिष्यसि ततश्च्युत इहभरते भद्दिलपुरे शतानन्यभूपस्य धारिणीकुक्षिभूतः शतबलाद्धः पुत्रो भविष्यसि । तत्र धर्मवान् भविष्यति । त्वां राज्ये न्यस्य शतानन्वो स्वर्ग गमिष्यति । त्वयि शतलभूपे राज्यं कुर्वति तत्र श्रेणिकभूपजीवः पद्मनाभः सर्वज्ञः तत्रागमिष्यति । उपदेशं श्रुत्वा प्रबुद्धः शतबलो राज्ये पुत्रं न्यस्य दीक्षां ग्रहोष्यति । तत्र गणधरो भविष्यति । केवलज्ञानं 5 प्राप्य जीवान् प्रबोध्य भवान् भुक्ति गमिष्यसि ।
इति कुमारपालपश्चाद्भवसम्बन्धः ॥ २१९॥
[220 ] अथ कुबेरदत्त - कुबेर दत्ता कथानकमष्टादशनात्रक गर्भितम् ।
मथुरायां वेश्या कुबेरसेना मातुरुप रोधादेकादशदिने खापत्ययुग्म कुबेरदत्तर -- कुबेरदत्तार नामाङ्कितमुद्रिकाद्वयसहितं काष्ठपेटायां प्रक्षिप्य यमुनायां प्रवाहयत् । सा वहमाना सूर्यपुरे10 ऽगात् । इभ्यपुत्राभ्यां गृहीता । समये तयोरेव द्वयोः कुबेरदत्ता - कुबेरवत्तयोर्विवाहोऽभूत् । असम्बद्धे एव मुद्रिकात उपलक्षणं भ्रातृभगिनीभावं मुद्रिकाक्षरतो ज्ञात्वा देवनत्यवसरे निजनामाक्षराङ्कितमुद्रादर्शनात् कुबेरदत्तकुबेरदत्ताभ्यां भ्रातृभगिनोभावौ ज्ञातौ । ततो व्यवसाया कुबेरदत्तो मथुरायां गतः । कुबेर सेनायाः स्वमातुरज्ञानात्कलत्रीकरणं पुत्रोत्पत्तिरभूत् तयाः । कुबेरदत्ता विरक्ता भवाद्दीक्षां ललौ । तपसा तस्या अवधिज्ञानमुत्पेदे । स्वपुत्रपुत्र्यादिसम्बन्ध15 मवगत्यावधिज्ञानात् कुबेरदत्ता यतिनी कुबेर सेनामातृगृहोपान्ते कस्यचिदुपायं याचित्वा स्थिता | ततो मातृभ्रात्रोः प्रबोधाय कुबेरदत्त कुबेर सेनोत्पन्नं बालं पालनस्थं रटन्तमिति तत्रैत्याललाप - भ्रातासि तनुजन्मासि, २ वरस्यावरजोऽसि च । भ्रातृव्योऽसि पितृव्योऽसि पुत्रपुत्रोऽसि वार्भक ! ॥ १ ॥ यश्च बालक ! ते पिता, स मे भवति सोदरः । पिता पितामहो भर्त्ता, तनयः स्वशुरोऽपि च ॥ २ ॥ याच बालक ! ते माता, सा मे माता पितामही । भ्रातृजायाः वधूः श्वश्रूः सपत्नी च भवत्यहो || ३ ||
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एतद्विवरणश्लोकाते
आर्योचे मम बालोऽयं भ्रातैका जननी यतः । दामि तनुजन्मान-ममुं मत्पतिसूरिति ॥४॥ मद्भर्तुः सोदर इति, भ्रातुस्तनय इति च पितृव्यश्चैष भवति, भ्राता मातृपतेरिति । पुत्रः सपत्नीपुत्रस्ये- त्यसौ पौत्रो मयोदितः ॥६॥
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देवरोऽपि भवत्यौ । भ्रातृव्यं कीर्त्तयाम्यमुम् ||५||
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द्वितीयोऽधिकारः
योऽस्य वप्ता स मे भ्रोता, माता का यदावयोः । अस्य तातश्च मे तातो, भर्ता मातुरभूदिति ॥७॥ पितृव्यस्य पितेत्येन-मुद्घोषयामि पितामहम् । परिणीताऽहममुना-ह्यस्मीति पतिरेष मे ।। ८ ।। ममैष तनुजन्मा च, सपत्नीकुक्षिभूरिति । देवरस्य पितेत्येष, भविता श्वशुरोऽपि हि ॥९॥ याऽस्याम्बा सा ममाप्यम्बा, तया जातास्म्यहं यतः। पितृव्यकस्य मातेति, मम सापि पितामही ॥१०॥ भ्रातृजायाऽपि भवति, मद्भातुर्गृहिणीत्यसो । सपत्नीतनयस्यैषा, गृहिणीति वधूरिति ॥११॥ मातापत्युर्मदीयस्ये-त्येषा श्वश्ररसंशयम् ।
भर्तुर्भार्या द्वितीयेय-मिति जाता सपत्न्यपि ॥१२॥ ततः कुबेरदत्तभ्राता कुबेरसेनामाता च कुबेरदत्तायतिनीपाश्र्वे पुत्र-पुत्री-भ्रातृ-पितृमात्रादि १८ नात्रकसम्बन्धं स्वस्य ज्ञात्वा प्रबुद्धौ! कुबेरदत्तः गृहीतव्रतः स स्वर्गमगाद । मुद्रिकादर्शनेन मातुरपि प्रबोधः सम्यक्त्वादिप्रतिपत्तिश्च ।। इति कुबेरदत्त-कुबेरदत्ताकथानकमष्टादशनात्रकसम्बन्धगर्मितं समाप्तम् ॥२२०॥
[221 ] अष्टविधप्रतिक्रमणस्य दृष्टान्तानि-प्रथम अध्वदृष्टान्तम् । पडिक्कमणं पडियरणारे , परिहरणारे वारणा निवत्ती५ य ।
निंदा गरिहा सोही , पडिक्कमणं अट्ठहा होइ ॥१॥ प्रतिक्रमणे दृष्टान्ताः
अद्धाणे' पासाए दुद्धकाय विसभोअणतलाए ।
दोकनाओ५ पइमारिया य, वत्थे अ अगए अ॥२॥* अध्वानो नृपेण प्रासादार्थ दत्तस्तत्रान्तर्गच्छद्ग्राम्यद्वयस्य निषिद्धस्य एको धृष्टत्वात्को दोष इति वदन नृपानुगैर्हतः । द्वितीयस्तु तैरेव पदैर्वलमानो मुक्तः सुखी जातः । एवं द्रव्यप्रतिक्रमणं ।
आवश्यक नियुक्ती, गा० नं० १२३९ ।
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१३६ ]
प्रबन्धपञ्चशती
भावे दृष्टान्तस्योपनयो यथा-राजस्थानीयैरहद्भिः प्रासादः सूत्रस्थानीयः संयमो रक्षणीय इत्यादिष्टे ग्राम्यसाधुना एकेनातिक्रान्तः स दुःखभागी । यः प्रासादेन संयमं गतः प्रतिनिवृत्तो - ऽकरणतया प्रतिक्रमति स शिवभागी । इति प्रथमः ॥२२१॥
[222] अथ प्रतिचरणायां प्रामादेन दृष्टान्तो यथा--- 5 कश्चिद्वणिगर्थसमृद्धः प्रासादो यत्त्वयाचिन्त्य इति भार्याय उक्त्वा देशान्तरमगात् । तया
देहमण्डनादिपरया स प्रासादः शनैः शनैः पतितो न प्रतिचरितः । आगतेन वणिजा सं पतितं दृष्ट्वा पत्नी निःसारिता गृहात् । यथा न दृष्टा । तेन पुनरन्यः प्रासादः कारितः । अन्या पत्नी परिणीता च 1 पूर्ववत्तं प्रासादं नवीनं पल्यै सम्भाल्य दूरे गतः । पुनरागतः सन् तं प्रासादं तया प्रतिचरितं दृष्ट्वा गृहस्वामिनी कृता । एषा द्रव्यप्रतिचरणा । भावे वणिकस्थानीय आचार्यः, प्रासादः संयमः, इत्यादि पूर्ववत् ज्ञेयम् ।
इति द्वितीयः ।। २२२॥ [223] अथ तृतीयः-(परिहरणायां) दुग्धकाये दुग्ध-कावडिः । एकः कुलपुत्रः, तस्य द्वे भगिन्यौ स्तः । स च परीक्षां विना न कस्यापि स्वां भगिनी दत्ते । तस्य पुत्रीयाचनाय द्वौ नरौ समायातौ । कुलपुत्रेणोक्तं-यो दक्षो भविष्यति तस्मै दास्ये 15 पुत्रीम् । ततस्तेन कावडियुक्तौ द्वौ दुग्धमानयनाय गोकुले प्रेषितौ । तत्र गस्वा दुग्धघटौ दुग्धेन भृत्वा कापोतीमादाय निवृत्तौ ।।
तत्र द्वौ पन्थानौ, एकः परिहारेण समोऽस्ति, अपर ऋजुर्विपमश्च । सत एकस्य ऋजुना प्रविष्टस्य प्रस्खल्यैकघटभङ्गे द्वितीयोऽपि भग्नः । द्वितीयो दूरमार्गेण पर्वतपरिहारेणाखण्डघटः समायातः, तस्मै पुत्री दत्ता । तेन एषा द्रव्यपरिहरणा भावे कुलपुत्रस्थानीया अर्हन्तः, दुग्धं चारित्रं, कन्या सिद्धिः, गोकुलं मनुष्यभवः । इति तृतीयः ॥२२३॥
[ 224 ] वारणायां विषभोजनतड़ागेन दृष्टान्तः चतुर्थः । एको राजा परचक्रागर्म ज्ञात्वा ग्रामेषु दुग्धदधिभोज्यादिषु तटाकादिषु, वृक्षपुष्पफलादिषु च विषयोगं कारितवान् । आगतेन राज्ञा तथा झाते घोषणया वारितं सैन्यम् । ये वारिता भृत्या राज्ञोक्तमङ्गीचक्रुस्ते सुखिनोऽभूवन , अपरे मृताः । भावे विषानपानसदृशा विषयाः, भूपतुल्या गुरवः, भृत्यसमा भव्यजना ये गुरुक्तमङ्गीचक्रुस्ते सुखिनोऽन्ये तु न ।
इति चतुर्थः ॥ २२४ ॥ [225] अथ-द्वयोः कन्ययो राजसुता-चित्रकरसुतयोर्मध्ये पूर्व निवृत्ती
राजकन्यया दृष्टान्तः पञ्चमः । एक: शालापतिस्तस्य शालायामेको धूर्तो मधुरस्वरेण गायति । तेन समं शालापतिपुत्री
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द्वितीयोऽधिकार
[ १३७ तत्सखी राजपुत्री लग्ने । द्वे अपि यातस्तस्य वरणार्थम् । मार्गे गाथामेका श्रृणुतः स्मेति
जइ फुल्ला कणी[णि]यारया चूयय !, अहिमासयंमि थट्टमि [धुझुमि] । तुह न खमं फुन्लेड, जइ पच्चंता करंति इमराई ॥१॥
यदि कर्णिकाराद्या नीचाः पुष्पिताः तदा तव भूतोत्तमस्य पुष्पितुं न युक्तम् , श्रुत्वेति राजपुत्री मम रत्नकरण्डको विस्मृत इति छद्मना कुविन्दसुतायै निवेद्य पश्चादागता । तस्मिन् । दिने सामन्तपुत्राय दत्ता पित्रा सुखिनी बभूव । स च श्वशुरबलेनारीन् जित्वा सुख्यभूत् । कुविन्दपुत्री तेन धूर्तेनाङ्गोकृता दुःखिनी जाता ।
भावे-आधा भूपपुत्रीतुल्यो चारित्री साधुः, कुविन्दपुत्रीतुल्यो धर्मः, चारित्री साधुः, धूर्ततुल्या विषयाः, गीततुल्याचार्येण मम तु शिष्टो निवृत्तः सुखी जातः । यथा द्रव्यभावनिवृत्तो क्वापि गच्छे एकः साधुस्तरुणो ग्रहणधारणसमर्थ इति सूरिप्रियः सोऽन्यदाऽशुभकर्मोदयेन 10 प्रतिगच्छन् श्रृणोति
तरियव्वा च पइन्ना, परिअन्वा समरे समत्थेण ।
असरिसजणतुन्ला वा, न हु सहिअव्वा कुलपसूएणं ।। श्रत्वेति स प्रबुद्धो निवृत्तः । इति पञ्चमः ॥२२५॥
[226] निन्दायां चित्रकरसुतादृष्टान्तः षष्ठः । चित्रकरसुता बुद्धिमती केनचिद्राज्ञा परिणीता बुद्धया षण्मासान् नृपं स्वावासे स्थापितवती सा। सपत्न्यच्छिद्राणि वीक्षन्ते । सा चापवरके प्रविश्य पुराणमणिचीवराणि पुरः कृत्वा आत्मानं निन्दति इति त्वं चित्रकरसुतासि । एतद्वस्त्रादि तव पितुः सम्बन्धी, एवं प्रतिदिनं वखाभरणादि पितृसत्कमये मण्डयित्वा तां सपत्नी जल्पन्तीं दृष्ट्वा सपल्यो भूपस्याने प्रोचुः-एषा तव कामग कक्षुमेवं करोति वक्ति च। ततो राज्ञा रहःस्थितेन स्वं निन्दन्तीं शुभकर्मोदयादहं । राज्ञः 20 पल्यभूवमेतच्च वनादि पितृसत्कम् , एतच्च राक्षः सत्कम् , त्वया च कस्याप्युपरि द्वेषो न कार्यः । श्रुत्वैतत्पत्नीवचो भूपस्तां पट्टराझी चक्रे । भावे साधुनैवमात्मा निन्दितव्यः । इति आत्मनिन्दायां षष्ठः ॥२२६॥
1227 ] अथ गर्दायां पतिमारिकाया दृष्टान्तः सप्तमः । कस्यापि वृद्धस्योपाध्यायस्य तरुणी पल्यभूत् । नर्मदा परकूलवासिगोपरता नर्मदा तीर्खा 26 तत्र भोगं तेन समं भुक्ते स्म । सा गृहे तु निछारके गच्छन्ती काकेभ्यो बिभेति । नयां च कुतीर्थानि जानाति च इत्यादि ज्ञात्वैकेन छात्रेणोक्तं तां प्रति
दिवा विमेति काकेम्यो, रातो तरति नर्मदाम् । कुतीर्थान्यपि “जानासि, जलजन्वक्षिरोधनम् ॥१॥
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१३८
प्रवन्यपश्चाती
सा प्राइ-किं कुर्वे युष्माशा नेच्छन्ति । स उपचरितः प्राह-उपाध्यायाद्विभेमि । सा मतः पतिं सुप्तं व्यापाद्योज्झनाय पिटिके क्षिप्त्वाऽटव्यां गता। व्यन्तर्या पिटकं तच्छीर्ष स्तम्भितम् । क्षुधाकुला लोकगृहे गत्वा वक्ति । सा पतिमारिकायै भिक्षा दीयतामित्यादि जल्पम्ती भिक्षा
प्राप्य बहुकालं निनाय । अन्यदा साध्व्याः पदोः पतितायास्तस्याः पिटकं भूमौ पपात । 5 स्वपापमालोच्य अतिनी जाता। क्रमात्तस्मात्पापात् शुद्धा | इति सप्तमम् ॥२२७॥
[ 228 ] अथ शुद्धौ वस्वागदेइति अष्टम् । तथाहि-वस्त्रे-राजकुले श्रेणिकेन स्वं झोमयुगं रजकस्य समर्पितम् । कौमुदीक्षणे तेव भार्याद्वयस्य दत्तम् । कौमुद्यां च श्रेणिकाभयौ रहो हिण्डतः स्म । श्रेणि केन स्वं क्षौमयुगं रजक
पत्नीद्वयपरिधत्तं दृष्ट्वा अभिज्ञानाय ताम्बूलेन सिक्तं वखं रजकेन क्षारादिभिः शोधितमानयने 10 ( राज्ञा ) राज्ञस्तदप्पितम् । राज्ञा पृष्टो यथास्थितं प्राह रजकः, ततो राजा सत्कृतः । एवं
साधुनाऽपि पापमालोच्यं गुरोरग्रे!
___ अगदो यथा-परबलागमे नीरविनाशार्थ राज्ञा विषाकरः पातितः पुजाकृताः वैयेन यवमात्रमानीतं । राजारुष्टोऽवग-स्तोकं कथमानीतं ? वैद्योऽबग-सहस्रधात्येतत् । ततो मृतेभस्य पुच्छ.
मुत्पाट्य क्षिप्तं तद्विषं सर्वोऽपि हस्ती विषमयोऽभूत् । यस्तं खादति सोऽपि विषं ततो लक्षवेधे 15 अगदे दरो तथैव वलितं वैद्यधीः एवं शोधिः कार्या । इत्यष्टमम् ।।
इति प्रतिक्रमणविषये अष्टाबुदाहरणानि ॥२२८॥
[229] अथ सदुपदेशे श्रेष्ठिपुत्रसम्बन्धः। श्रीपुरे भीमश्रेष्ठिनः चन्द्रो नन्दनोऽभूत् , स च परिणीतः । अन्यदा तस्यापि कमलाहः पुत्रोऽजनि । भीमपत्नी मृता । स भीमो वृद्धोऽभवत् । चन्द्रपत्नी पत्युः पुरः प्राह-'अयं श्वशुरो 20 बृद्धोऽङ्गणे उपविष्टो न शोभते । ततः पल्या प्रेरितेन तेन स्वपिता वाटके कुटीरकं कृत्वा
स्थापितः । अन्नपानं तत्रैव दीयते । प्रातर्जलभृतः कुम्भस्तत्र मुश्चति ! वधूः भोजनावसरे एको वंशः सशिखिरस्तत्र मुक्तः । पुत्रंणोक्तं-तात ! यदा जेमनावसरो भवति तदा त्वया एष वंशो वादनीयः, तेन शब्देन मत्पत्नी समेत्य तुभ्यं भोजनं दास्यति । ततः श्रेष्ठी तत्रस्थः कालं गमयति दुःखेन ।
अन्यदा कमलकुमारो रममाणो वाल्यचापल्याव वंशटोकरकं लात्वाऽने गच्छन् घोट25 कमिवारुढो ब्रजति । ममायं घोटको र्योऽस्ति । ततस्तेन बालेन रममाणेनान्यत्र त्यक्तः।
दिनत्रयं जातं श्रेष्ठिनो भोजनं विना । ततोऽकस्मात्पुत्रागात् । पित्रोक्तं-दिनत्रयं जातमन्नेन विना । पुत्रोऽवग-वंशः क्व गतः ? ततः श्रेष्ठी वंशस्वरूपं प्राह । ततस्तेन कमलः पृष्टः । क्व वंशो मुक्तस्त्वया ? वंशवादनं विना तातो दिनत्रयं बुभुक्षितोऽभूत् । पुत्रोऽवग-वंशो रहसि स्था
पितोऽस्ति । ततश्चन्द्रोऽवग-भो पुत्र ! वयं न कृतं त्वया । कमलकुमारःप्राह-तात ! यदा त्वमपि 30 वृद्धो भविष्यति तदा तत्रापि वंशो विलोकयिष्यते । श्रुत्वेति पुत्रवचश्चन्द्रस्तातं भोजयित्वा जिमति ।
यदा तस्याः आकारयितुं कोऽपि न याति यदा चन्द्रपली दध्यौ-अहं पत्या मुक्ता गृहं सर्व
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द्वितीयोऽधिकारः
[ १३९
भञ्चितम् । तेन छलं कृत्वा पत्युर्गृहे यास्यामि । ततः सा सायं महिषपुच्छे बिलग्ना चलन्ती त्राह--''पाडा मांडमतेडिल्हं तुरीसाथी छउ" ।
इति जल्पन्नी स्वगृहे समायाता । ततः श्वशुरस्य पतिकवद्भक्तिं चक्रे ।
इति सदुपदेशे श्रेष्ठपुत्रसम्बन्धः || २२९ ॥
[23] कपटे छालीदन्ताली ग्राहकद्विजसम्बन्धः ।
एकस्मिन्पुरे कृष्णद्विजस्य ज्योतिष्कस्य छालीदन्ताल्यादयो गृहे विलोक्यन्ते । स चान्यदा कस्यचिदाभीरस्य गृहे तत्पुत्रस्य चिकित्सार्थं गतः । तत्तस्य नाड्यादि वीक्ष्य लग्नं विलोक्य मस्तकं द्विजोऽधूनयत् । ततः स आभोरोऽवग्- मस्तकधून नकारणं प्रोच्यताम् । द्विजोऽवग्विषमोऽस्य रोगः । पिताऽवग्-कथं याति रोगः ? वैद्योऽवग्--कथयिष्यते । ततस्तस्य गृहऋद्धिं विलोकययन प्राह
काली छाली घरखग्रकाली एवं ताली रोगनी आली । ए रोग छ आमलदूमल, तो जाइ जो दीजइ पांच पींडल ||१||
ततः स तस्मै छाल्याद्यं सर्वं ददौ । ततः क्रमाद्रोगोऽपि गतः । आभीरोऽवम्-अयं वैद्यो वर्यः । इति कपटे छालीदन्तालीग्राहकद्विजसम्बन्धः ||२३०||
[231] अथ रात्रौ उच्चैर्न जल्पितव्यमिति सम्बन्धः ।
एकस्मिन्पुरे घाचि रात्रौ तिलभृतं शुण्डलर्क पोलयितुं मुक्त्वा सुप्तः । मध्यरात्री वैदिकद्विजोच्चारितोच्चैः शब्दश्रुतेजागरितः सकाल एवोत्थितः । वाणिकायां तिलान् क्षिप्वा पीलयामास । तेलमसदृशं दृष्ट्वा पार्श्वे बिलाडिको रुदन्तीं दृष्ट्वा खलमध्येऽस्थिशकलानि दृष्ट्वा बिलाडिका बालकं पिलितं जज्ञौ । ततः पश्चात्तापवान् सोवोरपार्श्वे व्रतं लात्वा स्वकृतं पाप प्रकाशयामास । भगवन् प्राह-बहु पापं द्विजानां लग्नं रात्रावुच्चैः शब्दोच्चरणात् । तब पापं स्तोकमज्ञानात्तव कृपा हृदि त्वयाऽतः परं रात्रावुच्चैर्न वक्तव्यम् । यतना च कार्या । ततस्तत्पापमालांच्य स्वर्गं गतः । ततो मुक्तिं यास्यति ।
इति रात्रावुच्चैर्न जल्पितव्यमिति सम्बन्धः || २३१ ॥
[232] देवपूजायामभयकुमार सम्बन्धः ।
afggit गृहे श्रीरस्ति । जिनपूजां विशेषतः श्रेष्ठी चक्रे |
एकदा बटुकं कणान् मार्गयन्तं दृष्ट्वा श्रेष्ठी पप्रच्छ कियन्तः कणाः कणवृत्तौ मिलन्ति । तेनोक्तं- मानकमेकं । श्रेष्ठी प्राह-मम देवपूजार्थ वाटीतः पुष्पाणि त्वयाऽऽनेतव्यानि तुभ्यं
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प्रबन्धपश्चशती
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मानक साधिकं दास्यामि । ततः स बटुको वर्याणि पुष्पाण्यादाय दत्ते श्रेष्टिने । सबका स्वकणैः पुष्पाणि लात्वा प्रभुं पूजयामास । तेन पुष्पेण स्वर्ग गत्वा श्रीनिकस्य भूपस्यामबकुमारः पुत्रोऽजनि । इति देवपूजयामभयकुमारसम्बन्धः ॥२३२॥
[233] अथ सुपात्रदाने श्रेष्ठसम्बन्धः। 6 कस्मिंश्चित्पुरे दुष्काले जाते पात्रापात्रादिविचारं विना दानं श्रेष्ठी दत्ते । तदा श्रेष्ठिना
एकस्य मासिकस्य दानं ददौ । समात्सिकस्तेन धान्येन जालकं चक्रे । ततो जले जालकं क्षिप्त्वा बहून् मत्स्यान् नीत्वा विक्रीय धनी जातः । तस्य कुटुम्बं ववृधे । जालकं यत्नेन रक्षति स्म सः। तस्य श्रेष्ठिनोऽङ्गे कुष्ठं जातं । तत्र ज्ञानी समागात् । श्रेष्टिना वन्दितः पृष्टश्च रोगोत्पत्तिकारणम् । ततः केवली जगौ-त्वया मैनिकाय दानं ददे, स च मैनिको नाधुना धनी भूत्वा बहुपापं चक्रे तज्जालं यदि विनश्यति तदा स पापं तेन जालकेन न करोति ततस्तव नीरोगता भवति । ततस्तेन श्रेष्ठिना मिषं कृत्वा जालकं लात्वा च वह्नौ भस्मीकृत्य तेन भस्मना स्वाङ्ग लूषयामास । श्रेष्ठी ततः नीरोगो जातः धनी च मैनिको निधनः । ततः स्वर्गगत्वा मुक्तिं यास्यति ।
इति सुपात्रदाने श्रेष्ठिमै निकसम्बन्धः ॥२३३॥
[234] अथ पापदाने मैनिकसम्बन्धः । 15 एकस्य श्रेष्ठिनो दुष्काले दानं ददतः कालो गच्छति । अत्रान्तरे एकस्य मैनिकस्य भोजनं
दत्तम् । तत उत्थाय मैनिकः प्राह-भो श्रेष्ठिन् ! तवाहारेण मम कुटुम्बं जीविष्यति यतोऽहं तव भोजनेन जले जालक क्षिप्त्वा मत्स्यानानीय विक्रीय विक्रीय स्वकुटुम्बं जीवयिष्यामि । ततः स श्रेष्ठी दध्यौ । मम पापं लग्नमतस्तथा करिष्ये यथाऽग्रतः पापं न चलति । ततः स
मैनिकः काष्ठागरे क्षिप्तः स्वसेवकपाश्र्वात तावद्यावत्स्वदत्ताहारं जीर्ण ततः कयित्वोक्तं 20 त्वं तु पापी तैनेवं मया कृतम् । ततः स मैनिको जीवहिंसानियमं जग्राह । श्रेष्ठिना ततो धनदानात्संमानितः । इति पापदाने मैनिकसम्बन्धः ॥२३४||
[235] अथ उचितदाने याचकसम्बन्धः । एकदा एकेनापि राज्ञा याचकः पृष्टः 'तत्तन्न' इति शब्देन गीते किमुच्यते ? ततोऽर्थी राज्ञोऽग्रे जगौ
प्रापं प्रापं धनं भूरि, स्वर्णरूप्यादिकं सदा ।
धनिभ्योऽर्थिगृहे नूनं, तन्नास्ति यन्न भुज्यते ॥१॥ तन्न तन्न यहानिना दत्तं तद्गृहे चिरं न तिष्ठति इति तत् न । तत् न इत्युचितवचः श्रुत्वा राजा तस्मै याचकायोचितं बहुदानं ददौ ।।
इति उचितदाने याचकसम्बन्धः ॥२३५ ।।
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द्वितीयोऽपिका
[ १५१
[286] अथ पापशुद्धोपरि झण्डसम्बन्धः। एकेन कौटुम्बिकेन पुण्यहेतोः स्वगवा जनितो वत्सो गोवर्गे मुक्तः । स च शण्डोऽभून्मत्तः। स च शान्तात्मा पुरमध्ये तिष्ठति कस्यापि शृङ्गेण न हन्ति । तस्य पदोरधो जनो याति तथापि विघ्नं तस्य न चक्रे । ततः साधुशण्ड इत्यभूद् घोषः । ___ इतस्तत्रैकस्य श्रेष्टिनो दुश्चारिणी पल्यभूत् । श्रेष्ठी तु पुण्यवान धर्म कुर्वन् कर्मक्षयाय B शून्यगृहादौ कायोत्सग चक्रे ।
इतः पल्या दुश्चारिण्या ध्वान्ते निबिडे सति श्रेष्टिपदोरुपरि शय्या मण्डिता। श्रेष्ठिचरणो विद्धः । श्रेष्ठी तु पूर्वकर्म स्मरन् न क्रोधं चक्रे, मृतश्च स्वर्ग ययौ । तं श्रेष्ठिनं मृतपतिं ज्ञात्वा पल्या ध्यातं, लोकाने किमुत्तरं दास्यते । ततस्तया तस्य झण्डस्य शृङ्गं रुधिरेणावलिप्तं कृतं तया । ततः शण्डस्य श्रेष्ठिमारणकलङ्कस्तया दत्तः । ततो लोकाः प्रोचुः-अयं शण्डः पापी 10 यतो तेन पापिना श्रेष्ठी हतः । ततस्तेन शण्डेन भूपमात्यलोकसाक्षिकं तप्तगोलकं जिया लात्वा स्वं शुद्धं चक्रे । ततः सा निर्झटिता अधिपती ।।
इति पापशुद्धोपरि शण्डसम्बन्धः ॥२६॥
[ 237 ] अथ कृतघ्नतायां गृहोलिकासम्बन्धः । एकस्मिन्स्थाने गृहोलिकाया नेने मलोऽभूत् । तेन मलेन सा लिप्ताक्षी न पश्यति बुभुक्षिता 16 मृतप्राया जाता।
इतो मक्षिका स्वभक्ष्यबुद्धया तस्या नेत्रमलमपाचक्रे । ततः सा गृहोलिका तामेव मक्षिका जघान | इति कृतघ्नतायां गृहोलिकासंबंधः ।।२३७॥
[238] अथ परप्रत्यये वेश्यासम्बन्धः। अथ कस्यचिच्छेष्ठिनः पुत्रो वेश्यया द्रव्यलक्षेण वं कौशल्यं शिक्षितः । ततस्तया रात्री १० तस्य परीक्षायै प्रोक्तं-घोलवटकानि ममानय । ततस्तेन गईभमलपिण्डीरानीता।।
पुनरेकदा तस्य श्रेष्टिपुत्रस्य भोक्तुमुपविष्टस्य वेश्यया थूत्कृतम् । स पश्चात् स्थितो यदा तदा वेश्यामात्रा शपथपूर्व प्रोक्तं-मम पुत्री किमेवं करोति । ततः स यदा भोक्तुं लग्नः तदा तया चुटकेन शोर्षे आहतः, प्रोक्तं च नयनेन यदृष्टं तद्वचनेन किं मन्यते ? तदा क्षमा स चक्रे । ततो विनीतं तं मत्वा तस्मै ततस्तया वर्याः कलाः क्षिक्षिताः ।
25 इति परप्रत्यये वेश्यासम्बन्धः ॥२३॥
[239] अथ दारिद्रसेवकसम्बन्धः । एको दरिद्री गृहे दीपं मुक्त्वा भिये अन्यत्र गन्तुं चचाल यदा तदा स्वां यष्टि गृहे
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१४२ ]
प्रबन्धपती
विस्मृता ज्ञात्वा तां नेतुं गृहे समागात् । तदा दीपतैलेन पुमानुपानही चोपडयन्दृष्टः अष्टश्चत्वं कः ? स प्राह-अहं दरिदो तव किंकरः। यत्र त्वं यास्यसि तत्र यास्वामि
यथा धेनुसहस्रेषु, वत्सो विन्दति मातरम् ।
तथा पूर्वकृतं कर्म, कर्तारमनुधावति ॥१॥ 6 एतत् श्रुत्वा स तत्रैवोवास । इति दारिद्रसेवकसम्बन्धः ॥२३९॥
[240 ] अथ बुद्धौ श्रेष्ठिस्नुषाकथा । एकदा श्रीपुरात्स्वस्नुषाया आनयनाथ श्रेष्ठो ययौ । लक्ष्मीपुरे ता स्नुषां गृहीत्वा पश्चादागच्छन् वीरपुरे कस्यचित् श्रेष्ठिनो गृहे वासार्थ गतः । तस्य श्रेष्ठिनः पत्नीद्वयं विद्यते । तदा
श्रेष्ठिपत्नी प्रथमा जगौ-अत्र स वासं वसति य आवाभ्यां वादं करोति । तदा श्रेष्ठी स्नुषा 10 प्रत्यवग् , अन्यत्र गृहे गम्यते। ततःस्मा मो श्वशुर ! त्वं शय्यायां स्वपिहि अहं वाद
करोमि । ततः श्रेष्ठिनि सुप्ते श्रेतिततः यस्ता यदी तदा तत्रत्यश्रेष्ठिपत्नी प्रथमा महिषीं दोग्धुमुपविष्टा । ततस्तदा श्रेष्ठिस्नुषा द्वितीया निष्ठिपत्नी प्रत्यवग-किं तवेयं सपत्नी विद्यते ? तयोक्तंत्वया कथमिदं ज्ञातम् । श्रेष्ठिस्नुषाऽवग्-तवेयं सपत्नी पृष्टि दत्त्वा महिषी दोग्धुमुपविष्टा । ततो
मिथोऽत्यन्तं कलिं कर्तुं लग्ने इति द्वितीययोक्तं-त्वं मम पृष्टि दत्से । एवं द्वयोः सपल्योरेव 16 स्त्रियोर्विवादं कुर्वत्योः प्रभातं जातम् । ततः श्रेष्ठी चचाल । एवं पुरुषः स्त्रिया बुद्धथा स्वं कार्य करोति ।
इति बुद्धौ श्रेष्ठिस्नुषाकथा ॥२४०॥
[241 ] वस्खदाने कथाचूडभूपकथा । शुद्धानवस्त्रपात्रादि, ददानो यतये जनः ।
लभते सुखसङ्घातं, कथाचूडमहीशवत् ॥१॥ 20 . श्रीपुरे कथाचूडो भूपश्चतुर्दशसहस्रभूपहस्तिचतुर्देशस्वामी बभूव । एकदा नृपश्चन्द्रपुरे समा
गात् । तत्र देवगृहासन्नस्थमेकं गृहं दृष्ट्वा मूच्र्छा च प्राप भूपः । तदामात्यैर्वातक्षेपाढ़ीना सचेतनीभूतो भूपो वर्यमेकं स्वकृतं श्लोकमाचष्ट
मार्गागतचतुः साधु-प्रवरेभ्यः पृथक्पृथग् ।
वस्त्रचतुष्टयं दत्वा, राज्यं प्रापन्महन्नृपः ॥२॥ 25 मन्त्रिभिः प्रोक्तमस्य श्लोकस्यार्थो विस्तरादुच्यता । ततो राजा जगौ-अस्य सद्मनोऽहं
स्वामी कौटुम्बिको धीरो पुराऽभूवम् । एकदा मम क्षेत्रपार्श्व साधुचतुष्टयमुत्सूरे गच्छन्तं दृष्ट्वा धीर उत्पन्न कृपः स्वगृहे समानीयोपाश्रयं ददौ । ततो मध्याह्ने शुद्धमाहारं प्रतिलाभ्यैकैकमक्री पत्रं पृथक्पृथग्ददौ । दानं सहक्षिणमेव देयं सद्भिः । यतः
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द्वितीयोगार
[१४३ त्रिपञ्चसंख्याशततापसानां, तपाकृशानामपुनर्भवाय ।
अक्षीणलब्ध्या परमानदाता, स गोतमो यच्छतु वाञ्छितं मे ॥३॥ ते साधवस्ततो विहताः अन्यत्र । धीरः कौटुम्बिकस्तेन पुण्येन क्रमान्मृत्वा चतुर्देशचतुःसहस्रशस्वामी बभूव । मन्त्रिणा जगुः-स को भूपः । राजोवाचाऽहमेव । मन्त्रिणो जगु:-कथं त्वया ज्ञातम् ? ततो भूपः स्वजातिस्मृतिभवनतः पश्चाद्भवं जगौ 1 ततश्चमत्कृता भूपेनोक्ता 5 मन्त्रिप्रमुखा लोकाः सर्वे धर्मकरणतत्परा बभूवुः । ततः कथाचूडभूपः शुद्धान्नपानवस्त्रादि साधुभ्यो ददन् क्रमात् शुद्धां भावनां भावयन् गृहवासेऽपि केवलज्ञानं प्राप्य देवतादत्तयतिलिङ्गो प्रबोध्य भव्यजीवांश्चिरं मुक्तिं ययौ । इति वस्त्रदाने कथाचूडभूपकथा ॥२४१॥
[242] अथ शुद्धानपानवस्त्रदाने श्रीधरभूपकथा । कस्मिंश्चिद्ग्रामे पश्चशती रजकानां चास्ति । समृद्धाश्च पञ्चशतप्रामाणां स्मामिनः सर्वे 10 घोटकारूढा गच्छन्त्यागच्छन्ति कस्याप्याज्ञां न धरन्ति ।
क्रमात्तत्र श्रीपुरात श्रीधरभूपसैन्यं तान् जेतुं तत्रागात् । तदा सर्वेऽपि रजकाः संना बहिनिर्गताः। बहिर्नेजकान्' स्वस्य स्वस्योत्तारेषु दत्त्वा स्थिताः । आडम्बरपूर्वकं तदा तत्र वैरिभूपेन स्वमन्त्रिणः प्रेषिताः । यस्य रजकस्योत्तारे मन्त्रिणो गच्छन्ति । स च वक्ति-अहमेव मुख्योऽस्मि । ततो ज्ञातं तैनेजे नेजे मोरो विद्यते । ततस्तैः स्वस्वामिपाधं गत्वोक्तं नेजे नेजे मोरो 15 विद्यते । ततः संना वैरी रजकैः समं युद्धं व्यधात् । ततो नष्टाः केचिद्रजकाः, केचित् हताः । ततः श्रीथरो भूपः स्वामाना ग्राहयित्वैकच्छत्रं राज्यं करोति स्म । हस्तिनां शतत्रयं घोटकानां लक्षाष्टकं जातम् । ततोऽन्यदा चन्द्रसूरिपाइँ स्वं पाश्चात्यं भवं पप्रच्छ । मया कि पुण्यं कृतं ? गुरुराह
त्वं पूर्वभवे महेन्द्रपुरे वणिग निस्वो मेघाहोऽभूत् । तत्रैकदा साधुद्वयं जीर्णवस्त्रयुगं समागात् । ताभ्यां वस्त्रद्वयं दत्तं शुद्धभावात् । ततः कालक्रमान्मृत्वा त्वं श्रीधरभूपोऽभूः । 20 एतत् श्रुत्वा भूपो विशेषतो यतिभ्यः शुद्धान्नवस्त्रादि ददौ । ततो मृत्वा श्रीधरभूपश्चतुर्थ स्वर्गे गत्वा पुनभूपो भूत्वा सर्वकर्मक्षयान्मुक्ति ययौ ।
इति शुद्धानवस्त्रदाने श्रीधरभूपकथा ॥२४२।।
[ 243] अथ वस्त्रदाने मदनभूपकथा । अन्यदा राजा चन्द्रपुरे गत्वाऽन्तस्तत्रैकं जीर्ण कुटीरं दृष्ट्वा जातिस्मृति प्राप । ततो मन्त्रि. 26 पृष्टो भूपो जगौ
मयैकवस्त्रदानेन सुसाधोः पूर्वसंसृतेः । अत्रेदं विपुलं राज्यं, प्राप्तं कुम्भ्यादिसंयुतम् ।।१॥
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१४४ ]
प्रबन्धपश्चशती
ततो विस्तरान्मन्त्रिपृष्टो भूपो जगौ-अहं पूर्वमवेऽस्मिन् कुटीरे वृद्धा नारी सुनाहियाऽभूत् । तत्र सूत्रकतनादिना निर्वाहं करोति । वखाणि च कारयति तन्तुवायपार्धात् । सरलचित्ता मायां विना धर्म करोति ।
एकदा यतिभ्यः एकं वस्त्रं ददौ भावात्ततस्तेन दानेन क्रमान्मृत्वा सरलस्वभावत्वात् सोमवं 6 स्वक्त्वा राजाऽभूवमेवं जातिस्मृते राजाधर्म चकार । अन्ये मन्त्रिणोऽपि साधुभ्यः शुद्धान्नपानवनादि ददौ । ततो वस्त्रदानान्मदनभूपः संयम लात्वा कर्मक्षयं कृत्वा मुक्ति ययौ ।
इति वस्त्रदाने मदनभूपकथा ॥४॥
[244 ] अथ वस्त्रदाने चन्द्रचूडकथा । श्रीवराहपुरे चन्द्रचूडश्रेष्ठी गुरुपाचे धर्म श्रोतुं गतः गुरुभिरुपदेशो ददे इति --
वसही सयणासण-भचपाणमेसज्जवत्थपत्ताई ।
जइवि न पज्जत्तधणो, थोबावि हु थोवयं देह ॥१॥ धर्मोपदेशं श्रुत्वा श्रेष्ठी जगौ---अतः परं शुद्धामाहारपानवस्त्रादि मया साधुभ्यो देयम् । ततोऽनिशं यः साधुस्तत्रायाति तस्मै शुद्धमाहारादि दानः सवारों करोति स्म । ततः कालकमेण चन्द्रचूडो मृत्वा लक्ष्मीपुरे पद्माकरभूपस्य श्रीमस्या परन्या उदरे चतुर्दशस्वप्नतूचितो नन्दन अवततार । क्रमारपुत्रोऽभूत् तस्य नाम श्रीदत्तचक्रीति ।।
३२००० राजानः सेवन्ते, ६४००० अन्तपुर्यः सपादलक्षं खण्डविलासिन्योऽभूवन , नवनिधयः चतुर्दशरत्नानि ९६ कोडियामः इत्यादि ऋद्धिमानभूत् । तस्मिन्नपि भवे स्वं पाश्चास्यभवं ज्ञात्वा वस्त्रादिदानं साधुभ्यो दत्त्वा क्रमारकेवलज्ञानं प्राप्य मुक्ति ययौ ।
इति वस्त्रदाने चन्द्रचूडकथा ॥२४४॥
[ 245 ] अथोपकारेऽप्यपकारकर्टकसर्पसम्बन्धः । दवाग्निमध्ये ऽन्यदा ज्वलन्सर्पः कञ्चन पुरुषं प्रति माह-मामस्मात्कष्टात्कर्षच तव पुण्य भावष्यति । यतः
निर्गुणेष्वपि सत्त्वेषु, दयां कुर्वन्ति साधवः ।
न हि संहरते ज्योत्स्ना, चन्द्रश्चण्डालवेश्म ॥१॥ स नरो दयापरस्तमहिं ततश्वकर्ष ततः सोऽवग्-त्वामेव भक्षयिष्यामि ! यतः-कलौ 26 उपकारं करोति सोऽनर्थ लभते" सोऽपि पुमान्सर्पण भक्ष्यमाणः आराधनापरः स्वर्ग गतः, सर्पो मृत्वा दुर्गतिं गतः ।
इति उपकारेऽपि अपकारकर्टकसपसम्बन्धः ॥२४५॥
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द्वितीयोऽधिकारः
[246] अथ उपकारेऽपि अपकारकर्त्तृकवृद्धासम्बन्धः ।
एकस्या वृद्धायाः पुत्रं सर्पो ददेश । तामतीव रुद्यमानां दृष्ट्वा वृक्षोऽवग्-भो वृद्धे ! मा रुदः, स्वस्थीभव, मन्मूलं वारिणा घर्षयित्वा अङ्गे देयम्, नोरोगः पुत्रो भविष्यति । कस्याप्यये एतन्न कथनीयम् । तया वृक्षोक्तयुक्त्या पुत्रः सज्जीकृतः । क्रमात्तया केषामग्रे वृक्षमाहात्म्यं प्रोक्तम् । ततः सर्वैरपि लोकैश्छिन्नमूलः कृतः सन् प्रलयं गतो वृक्षः ।
इति उपकर्तुरपकर्त्ता ||२४६॥
[247 ] अथ कर्मणि स्तेनकथा |
श्रीपुरे घनश्रेष्ठिना कूटतुलामानादिना धनमर्जितं चौरभयात्स्वर्णटङ्ककस्वर्णेष्टिकाभिर्गोणीं बभार । स चाङ्गणे तां चिक्षेप, परितो धूलीछाराणि क्षिपति स्म ।
[ १४५
आ: खुदा जस क्रेंदिइ, तसकूं मुहिमारी दिs । जसकूं कूदालड् तसकूं, हाथि चडाविउ लेखावर ||
इति कर्मणि स्तेनकथा ||२४७||
एकदा तत्र गृहे घाटी प्रविष्टा । गृहं सुषितम् । एकेन तां जीर्णवस्त्रावृतामपि गोणीं ललौ । 10 मातारं मुक्त्वा एकस्मै तां दत्त्वा स्वर्णपल्ल्ययनं ललौ । स च ग्रामे सर्वे गताः यावङ्गोणी विलोकयति तावत्स्वर्ण मेव पश्यति । अपरस्तु पल्ययनं वालत्रयस्वर्णखचितं ददर्श । यतः उक्तं च
[248 ] अथ शुद्धाशुद्धविचारे कथा |
एकेन श्रेष्ठिना कपटेन ब्यवसायेन सौवर्णिकपञ्चकमर्जितं । सौवर्णिकत्रयं तु शुद्धमार्गेण एकस्यां प्रन्थौ अष्टौ बद्धाः । इतचौराः प्रविष्टाः प्रथिश्वटितास्तेषां हस्ते यावत्ते छोटयन्ति तावत्सौवर्णिक पञ्चकं श्रेष्ठिपार्श्वे ढलित्वा गतम् । अयं [इदं ] तु विवरोपरि पपात । यथा ते चौराः कर्षयन्ति तथा तत्त्रयमधस्ताद् गतं । तदा श्रेष्ठी जहास । चौरैः पृष्टं किं हस्यते भवता ?
श्रेष्ठी जगौ - अन्यायेन यदर्जितं तद् मद्गृहाद्भवद्भिगृहीतं भवद्धस्ताद्विवरे पतितं यच्च न्यायेन स्वर्णपकं तन्ममोपान्ते ढलित्वा गतमतो हस्यते । ततश्चरैः श्रेष्ठिना च नियमो गृहीतः परधनमहणे । इति शुद्धाशुद्धविचारे कथा ||२४८||
5
अन्यदा द्वितीया काष्ठमयूरारूढा कीलकं कर्षितवती । ततो मयूरो व्योम्नि भ्रमन् पश्यतां नृणामदृश्योऽभूत् । राजादिजनः सर्वः सचिन्तोऽभूत् । क्रमादन्येद्युर्भूपः पत्नी अति प्राह-प्रिये !
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[249 ] अथ वञ्चकस्त्री सम्बन्धः |
श्रीपुरे कामकेतुर्भूपो विज्ञः । चन्द्रकान्ता पत्नी, सन्तानाभावादःखी राजा । अपरां त्रियं 25 परिणीतवान्, काष्ठमयेन गरुडेन हिण्डति भूपः ।
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१४६ ]
प्रबन्धपश्चशती
पत्नीविलोकनाय यामि । प्रिया प्राह-गच्छ । ततः सप्तदिनभोजनयोग्यं शम्बलं कृत्वा सप्तप्रन्थिषु वर्धापितवती, राजा हृष्टः सशम्बलः प्रियावीक्षायै चचाल । भोजनावसरे प्रथमप्रन्थिशम्बले भुक्ते भूपखिफणी सप्पः ।१। द्वितोयग्रन्थौ सहजस्वरूपः ।२। तृतीयग्रन्थी औतुः ।३। चतुर्थप्रन्यौ स्वं स्वरूपं ।४। पञ्चमग्रन्यो सिंहः ।। षष्ठप्रन्थौ सहजम् ।६। सप्तमग्रन्थौ मृगः ।७
- ततः स गच्छन् व्याधनिबाणैर्विद्धा, एकस्मिन्पर्वते गतः । इतः स काष्ठगरुडः तस्मिन् पर्वते आस्फाल्य भग्नः । सा पतिता मूच्छिता क्षणात्सचेतनाऽभूत् । ततो रुदितुं लग्ना क्रमाद्ममन्ती श्रीऋषभजिनं दृष्ट्वा पूजयामास तुष्टाव च । एवं बहुषु दिनेषु गतेषु क्षीणपूर्वकुकर्मतः सा मृगं तं दृष्ट्वा बाणान् चकर्ष । तयोः स्नेहोऽभूत् । द्वावपि ऋषभं नमतः स्माभीक्ष्णं अन्यदा
शानी तत्रागात् । विद्याधराणामने धर्मोपदेशः मृगराज्यौ दृष्ट्वा ज्ञानिना हसितं तदा तैः पृष्टं 10 कथं हास्यं कृतम् । ततो गुरुणा तयोः कान्तकातास्वरूपं प्रोक्तम् । येन सर्वेषां धर्म दृढताऽभूत्।
ततो विद्याधरै राजा स्वरूपभृत् चक्रे । कामकेतुराज्यौ हृष्टौ ततः कामकेतुः सप्रियः सम्यक्त्वमूलं जिनधर्म प्रपेदे। ततो भूपो ज्ञानिनं ऋषभं नत्वा स्वपुरं प्रति चचाल | मार्गे तदैको यतिरभिग्रहं ललौ । यदा वन शुद्धाहारश्चटिष्यति तदा पारणं करिष्ये । पञ्चमे मासे ताभ्यां
भूपराज्ञीभ्यां पारणं कारितः। पन्च दिव्यानि, देवः कोऽपि प्रकटीभूय वरं वृणु। ततो राझोक्तं15 नवं नगर स्वर्णप्राकारमयं कारय । ततो रक्षादेवेन नगरं कारितम् । लोका वासिता । राजा प्रासादः कारितः । सप्तक्षेत्रेषु राज्यं व्ययाय क्रमात्स्वपुत्राय राज्यं दत्त्वा स्वर्ग गतः मुक्ति यास्यति ।
इति वञ्चकस्त्रीसम्बन्धः ॥२४९।। [250 ] अथ पापवचोजल्यने द्विजसम्बन्धः । अक्खरेनो पोक्खरे हल वहई बलदेसरवार ।
हलखेडो कंडे वासे वदे फिरई विहं पासे ॥१॥ कस्मिंश्चिद्ग्रामे द्विजस्य द्वौ पुत्रौ बभूवतुः। एको विज्ञोऽभूत् , द्वितीयो मूर्खः। एको वेदान पाठपाठं सदा दरिद्रोऽनि । द्वितीयः कृषि कुर्वाणो धनी जातः । ततो धनी सन् न धर्म करोति स्म । तदा द्वितीयं प्रति प्राह--अक्खरे नह पोक्खरे । ततो द्विजः सदा लक्ष्मीमजयन्
तादृग् हास्यवाचा जल्पन् धन्यपि स द्विजो दुर्गतिं गतः । अन्यस्तु आरम्भमकुर्वाणः स्वर्ग26 भाग्जातः । अतः पापक वचा न जल्पनीयम् ।
इति पापवचोजल्पने द्विजसम्बन्धः ॥२५॥
[251] अथ कृतकर्मणि श्रेष्ठिसम्बन्धः भीपुरे चन्द्र श्रेष्ठी चश्वरीमारराध । सा च प्रत्यक्षोभूताऽवग-मन्त्रो दत्तः । उक्तं च-त्ववा एष मन्त्रो लक्षवारं जपनीयः । ततोऽहं वरं दास्ये तव । ततस्तेन मन्त्रो जपितुमारब्धो । लक्षा30 प्रमाणो जपितः, देवी न प्रत्यक्षाऽमूत् । ततो द्वितीयवारं जपितः तथापि न प्रत्यक्षाभूत् । एवं
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द्वितीयोऽधिकारः
[ १४७
बैं
दशलक्षवारं जपितः एकादशे लक्षे गणितुमारब्धे देवी प्रत्यक्षाऽभूत् , प्राह च-वरं मार्गय । सोऽवग-त्वयोक्तं लक्षे गणिते मन्त्रेऽहं प्रत्यक्षा भविष्यामि । एकादशे लक्षे जपिते कथं प्रत्यक्षाऽभूस्त्वम् । सा देवी प्राह त्वया पूर्वभवे दशवारं कठोरवाक्यानि 'मारिस्फाडि' इति जल्पितं
लक्षगणने न गतं । तेन एकादशे लले जपिते प्रत्यलाऽभवम । ततो देवी तष्टा स्वर्णरससिद्धिविद्यां ददौ तस्मै । ततः स श्रीमानभूत् । सप्तक्षेत्र्यां श्रियं व्ययित्वा स्वर्ग गतः । । ततः क्रमान्मुक्तिगाम्यपि भविष्यति । इति कृतकर्मणि श्रेष्ठिसम्बन्धः ॥२५॥
[252] अथ प्रियावशत्वे ब्रह्मदत्तचक्रिसम्बन्धः । ब्रह्मदत्तचक्रिणो देवतापार्थात् सर्वतिरश्चां भाषा ज्ञाता। देवतयोक्तं-यदि मया दत्ता विद्याऽन्यस्मै कथयिष्यते तदा तव मृतिर्भविष्यति । ततः स चक्री सर्वेषां तिरश्च भाषां वेत्ति ।
अन्यदाऽन्तःपुरस्थस्य चक्रिणश्चन्दनभृतं कच्चोलं शरीरोपभोगायाऽऽनीतवतीराझी तदा मित्ति- 10 स्थया गृहोलिकया गृहोलिकपार्श्वे प्रोक्तं स्वभाषया चन्दनं देहि । गृहोलिकोऽवग–यद्यहं चन्दनं कच्चोलकाल्लात्वा तुभ्यं दास्ये तदा राजा मां हन्त्येव । ततो गृहोलिकाऽवग --यदि न दत्से चन्दनं तदाऽहं मृतैव । एतत्कदाग्रहं तस्याः श्रुत्वा राजा जहास । राज्ञी प्राह - स्वामिस्त्वया कथं हसितं ? ततो राजा यदा यास्यस्वरूपं न प्राह, तदा राज्ञी प्राह- यदि न कथयिष्यसि हास्यहेतुं तदाहं मृतैव । ततो भूपोऽवग्-चित्तापाचे गच्छ तत्राऽहं कथयिष्यामि । हास्यहेतौ कथिते मम 16 मृतिर्भविष्यति । कदाग्रेहेत्वमुक्ते राजा चलितः राझ्या सह चितायां प्रवेष्टुम् ।
अत्रान्तरे राजमार्ग राज्ञोऽश्वाना भक्षणाय यवभृतं शकट नीयमानं राजपुरुषैर्वीक्ष्य छागी छागं प्रति प्राह --मम यवपूलकं देहि । बोस्कटोऽवग-यदि यवपूलकं तुभ्यं दास्ये तदा राजपुरुषा मम प्राणान् गृह्णन्ति । बोत्कटिकाऽवग-यदि न दत्से यवपूलकं तदाऽहं मृतैव । बोत्कटोऽवगअहं तु ब्रह्मदत्तवत् बोत्कटो नारीवश्यो नास्मि । यतः-प्रियावचसा मत्तुं चचाल । एतत् श्रुत्वा 20 गजा दध्यौ-अहं बोस्कटादपि मूर्खः । यतः--प्रियावाक्यान्मत्तुं चलितोऽस्मि ततो राजा बोत्कटं गुरुं कृत्वा पश्चाद्ववले राझी स्वयं कदाग्रहं तत्याज ॥
इति प्रियावशत्वे ब्रह्मदत्तचक्रिसम्बन्धः ॥२५३॥
[253] अथ कुलाचारविषय क्षत्रियपत्नीसाहससम्बन्धः । केनापि क्षत्रियेण स्वीया पुत्री चन्द्रक्षत्रियाय दत्ता । तस्यालये एवमाचारोऽस्ति या नवीना 25 वधूरायाति तस्या ऊर्ध्वस्थाया कर्णकुण्डलमध्ये बाणो दूरतः क्षिप्यते । सा च बिभ्यती नेहते । ततः सा पश्चापितुग़हे गच्छन्ती गाब्छिका पितुः स्वल्पा (१) उपरि वंशात् छिन्दन्ती दृष्टा पितुः पावें प्राह-अस्य गाब्छिकस्य किं मस्तके पीडा न भवति ! पिता प्राह-नदुष्यति मस्तकमस्य
जो जस्स कम्माचरह, सो तस्स जाणइ भेओ। खलीई वंश जिफाडिइं, तोइ न होइ पीड ॥१॥
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१४८]
प्रबन्धपश्चशती . ततः सा पश्चात्पत्युहे गता | ततः साहसं कृत्वोर्ध्व तस्थौ । ततो दूरं स्थित्वा तस्याः कणयोरन्तरे बाणस्तथाक्षिप्तो यथा न मनाक्पीडा बभूव ।
इति कुलाचारविषये क्षत्रियपत्नीसाहससम्बन्धः ॥२५३॥
[254] अथ दयायां विप्रमीनसम्बन्धः । कस्मिंश्चिद्वेलाकूले जलवीचिप्रेरितो वारिधेर्महानेको मत्स्यः समागात् । जलं पश्चाद्गतम् मीनरतत्र तस्थौ। तत्र तदा दुर्भिक्षे घोरे सति धान्याऽभावात् क्षुधात्तों लोकः कुठारैमत्स्य छेदंछेदं स्वं निर्वाहं चक्रे, तथापि महाकायत्वान्न म्रियते ।
अनावसरे पत्नीप्रेरितः कोऽपि विप्रः क्षुधातों मीनमांसं लातुं ययौ । तं मीनं छेदयन्तं बहुजनं वीक्ष्य विप्रस्य कृपाऽभूत् । अहमेनं न छिनद्मि पापहेतुत्वात्तदा तस्य दयां वीक्ष्य कोऽपि 10 देवो मीनकायमधिष्ठायावग-भो विष ! मामन्ये लोकाश्छेदंछेदं मांसं ग्रहणन्ति
न गृहाण । विप्रोऽवग--मम दयास्ति परं भार्यया प्रेरितोऽत्रागां मांसाय परमधुना पुनदयोत्पन्ना मीनोऽवग-तव कृपाऽस्ति यदि तदा तेन पुण्येन त्वमग्रेतनभवे सुखी भविष्यसि । अयं पापी लोको मां मारयन् दुःखी भविष्यति । अहं मृत्वा अकामनिर्जरातपसाऽत्रैव पुरे राजपुत्रः पुरन्दराहो
भविष्यामि । त्वं च ममोपाध्यायो भावी । अहं प्राग्वैरान् लोकान् कदर्थयिष्यामि । तदा त्वयाऽई 15 वारणीयः पापात् । एवं प्रोच्य देवे गते स मीनो मृत्वा तत्र पुरे राजाऽभूत् । तं भूपं लोकं
दण्डयन्तं वारयामास । विप्रो मीनमारणसम्बन्धं यदा प्राह तदा राज्ञो जातिस्मृतिर्जाता। पश्चादवः स्मृतः । ततो विशेषतो राजा विप्रश्चदयाधर्म चक्रतुः । ततो मृतौ स्वर्ग गतौ ।
इति दयायां विप्रमीनसम्बन्धः ॥२५४॥
[255 ] अथ रामरावणदुर्योधनकंसशातवाहनमूर्खपञ्चकसम्बन्धः । 20
श्रीरामो रावणः कंस-स्तुर्यो दुर्योधनो नृपः । एषा चतुष्टयी मूखों, पञ्चमः शातवाहनः ॥१॥ कुरङ्गः काञ्चनः पूर्व, न दृष्टो न श्रुतः क्वचित् ।
दृष्ट्वा दधाव तं रामो, यत्तन्मूर्खत्वमुच्यते ॥२॥ सीतायाः परितो यस्य [ येन ] रेखामुल्लङ्घयितुं कोऽपि देवो वा दानवो वा न शक्नोति 25 तां तादृशीं रेखां दृष्ट्वाऽपि कामपीडितो रावणो भिक्षुरूपधरो भिक्षायाचनाकपटं कृत्वा सीता यज्जहार तद्रावणस्यापि मूर्खत्वम् । (२)
देवक्याः पाणिग्रहे देवक्याः सप्तापत्यानां मध्यादेकेन स्वमरमं श्रुत्वाऽपि यत्कंसो देवकीमेव न मारयामास तत्कस्यापि मूर्खत्वम् । (३)
पञ्चभिः पाण्डवैर्महाबलभुजाशालिद्वादशवर्षाणि वनवासे स्थितम् । पुनः प्रतिज्ञा पूरयित्वा
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द्वितीयोऽधिकार
गतेस्तैर्घामपञ्चकं दुर्योधनपार्श्वे मार्गितम् । ततः क्रमादेकं प्रामं मार्गितम् । स च दुर्योधनः शूच्यमात्रा भुवं न सेभ्यो ददौ । पश्चायुद्धे जायमाने स्वमरणात्सर्वा मुवं तेभ्यो रदौ । यत्तदुर्योधनस्य मूर्खत्वम् । (४)
शेषेण पूर्व शातवाहनम्याने तुष्टेन प्रोक्तं-त्वया मृन्मयं सैन्यं कारयित्वा गोदावयां मोज्यं ततः सजीवं तद्भविष्यति युद्धं च दृढं करिष्यति । ततो वैरिबलं मृन्मयं सैन्यं कृत्वा जितं तेन । एवं बहुशो मनोरथस्तस्य पूर्णः । एकदा शातवाहनेन वरे दत्ते शेषेण संशयः कृतः ततस्तत्कार्य न सिद्धम् । इति ज्ञातवाहनस्यापि मूर्खत्वम् । (५) इति रामरावणदुर्योधन-कंस-शातवाहनमूर्खपञ्चकसम्बन्धः ॥२५५॥
[256 ] अथ तीर्थसेवाफले गिरिकुण्डसम्बन्धः । चन्द्रपुरे गिरिकुण्डभूपोऽनेकपापकृत् न मन्यते देवगुरुमातृपितन । परस्त्रीपरधनहरणपापर्धि. 10 चौर्यादि करोति स्म । जीवान् घ्नतस्तस्य रोग उत्पन्नः । एकदा यावत्परद्रोहपरस्त्रीहरणं ध्यायति तावदेकः श्लोकः व्योम्नि श्रुतः
धर्मादधिगतैश्वयों, धर्ममेव निहन्ति यः ।
कथं शुभायतिर्भावी, स स्वामिद्रोहपातकी ॥१॥ एतदर्थ ज्ञात्वाऽवबुद्धः सन् अचिन्तयदिदम्-अहो मया बहूनि पापानि कृताति, तेभ्यः कथं 15 छुट्टनं मे भविष्यति । तत्पापच्छिदेऽद्रिजलपाताय ययौ । स यावद्वहिर्ययौ तावद् गां पश्यति स्म । सा च शृङ्गेण नन् घ्नन्ती तटान्युत्पाटयन्ती संमुखमायान्ती खङ्गमुत्पाट्य तां हन्तु दधाव । ततो गौरपि तं हन्तुमधावत् । तदाऽसिना भूपेन तस्यां द्विधा कृतायां काचित् स्त्री निर्ययो । सा च स्त्री भीषणाङ्गी कर्तिकां करे कुर्वती निष्ठुराक्षरेण भूपं प्रत्याह-~
अरे त्वया पशुर्दीना, हता गौरववर्जिता ।
यद्यस्ति काऽपि ते शक्तिः , तद्युध्यस्व मया सह ॥२॥ श्रुत्वैतत् राजा ता प्रत्यवग्--
भवता (ती) युवती काचित कदलीदलकोमला ।
अहं तु क्षत्रियः शूरः, शास्त्रशस्त्रविशारदः ॥३॥ गौरवग्-यदि ते शक्तिः स्यात्तदा युद्धं कुरु । श्रुत्वैतत् भूपः सासिस्ता जघान । ततो 25 वत्सोऽपि शृङ्गेण तमहन् । अखण्डिताङ्गो गौजेगी ।
तावद्वलं महस्ताव-तावत्कीर्चिरखण्डिता । यावत्पुराकृतं पुण्यं, न म्लानिमधिगच्छति ॥४॥
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१५० ]
प्रबन्धपञ्चशती पुण्यमेवं प्रमाणं स्या-दगिनां शुभकर्ममिः । क्षीणतेजाः क्रियत्कोलं, तपत्यपि विभाकरः ॥५॥ पुण्यैः संभाव्यते सर्व, सुखदायि सदापतिः ।
तदेव हीनपुण्यस्य, विषवद् दुःखदायकम् ॥६॥ 6 तदा दध्यौ भूपः-अहमनया गवा पशुनाऽपि जितो व्योम्नि उत्पाटितश्च तया एवं ध्यायति स्म । स मया राज्यं त्यक्तं गोवधश्च कृतः । एतदपि पापं जातं मे दुर्गतिदं, यतः
अनासादितपुण्यः सन् , जन्तुर्भवति दुःखितः । विना नीवीं सुदक्षोऽपि, पुमान् सीदति दीनवत् ॥७॥ अधुना क्रियते पुण्यं, मया दुःखात्मना किमु ।
लग्ने प्रदीपने कूपः, खन्यमानः सुखाय न ८॥ एवं ध्यायतस्तस्य देवाङ्गनागताऽवग-पूर्व मदीयेन राज्यं त्यक्तं पश्चाच्चिन्तितं मृति मुक्ता मे वधः कृतः। अधुना किं धर्म कत्तुं शक्नोमि । राजा दध्यौ-केयं मे वक्ति । तावद्देवी जगो अहं त्वद्गोत्रदेवी । त्वत्सत्त्वपरीक्षणं कृतं गोरूपं कृत्वा । कोपो न क्रियते । धर्म कुरु । कथय
मया कुत्र धर्मः क्रियते ? देव्यवग-त्वं गच्छ सर्वतीर्थेषु । अवसरे धर्मस्वरूपं वक्ष्ये । सातिरोऽभूत्। 15 राजा दध्यो-मद्भाग्यं विद्यते यतो देवी प्रसन्नाऽभूत् । ततोऽनेकेषु तीर्थेषु भ्रमतो गतक्रुत्पाव
कस्य कोलकगिरिं गतस्य चित्तं निर्मलमभूत् । इतः कोऽपि सुरः पूर्वभववैरी प्रत्यक्षोऽभूत् । गादापाणिः कोपवान् जगौ । यत्त्वया मत्पत्नी हृता तत्पापं समेतमधुना तदा मौने कृते तेन तमुत्याट्याम्बरे पर्वतगुहायां नीत्वा विविधैबन्धनादिभिस्ताडयामास । ताड्यमानः स पुनस्तेन पर्वताने आस्फाल्यते स्म । तदा स दध्यौ
अहो प्रागुप्तपापद्रोः, पल्लवोऽयमभृन्मम ।
पुष्पं फलं पुनर्भावि, दुर्योनिनरकादिषु ॥९॥ ततस्तं मुक्त्वा स तिरोदधे तस्य प्राग्भवभाग्याव । ततो द्वषरिक्तः पुण्यकृते भूमौ भ्रमन् गोदावरीतटे ययो । तत्र सैव सुरी समेत्यावग-वत्स ! त्वं गच्छ सिद्धाद्रौ । तत्र इत्यादिपापं गमिष्यति तत्तीर्थ सर्वपापहृत् । यतः
यदा शत्रुञ्जये तीर्थे, गत्वा विधीयते तपः । तदा हत्यासमुद्भूतं, पातकं छेद्यते ध्रुवम् ॥१०॥ पापिनाऽपि मनुष्येण, गत्वा शत्रुञ्जयाचले । कुर्वतार्चा जिनेन्द्रस्या-नन्तं पापं निकृत्यते ॥११॥
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द्वितीयोऽधिकारः तत्र तीर्थे गत्वा सर्व कर्म झिप । तत्र त्वं सेत्स्यति इति श्रुत्वा तीर्थमाहात्म्यं शत्रुक्षयं प्रत्यचलत् । सप्तभिर्दिनैरनाहारः स शत्रुजयं ददर्श । दृष्ट्वा तत्र तत्तीर्थ, नत्वा तत्रस्थं मुनि धर्ममिति शुश्राव । यदि शीघ्रं मुक्तिं गन्तास्ते तदा चारित्रं गृहाण । शत्रुजये गत्वा शुद्धं तपः कुरु यथा ते इत्यादि पापं याति । ततो व्रतं गृहीत्वा शत्रुञ्जये ययौ । तत्र सुर एकोऽवग-इदं तीर्थ सर्वपापक्षयका जगदुत्कृष्टं सीमन्धर जिनेन वय॑मानं मया श्रुतम् । तत्र । गिरिकुण्डः तीर्थसेवया सर्वरोगरहितो दीक्षा लात्वा सिद्धः ।
इति तीर्थसेवाफले मिरिकुण्डसम्बन्धः ॥२५६॥
[357 ] अथ धौषधविषये भूपपुत्रसम्बन्धः । क्षितिप्रतिष्ठिते पुरे जितशत्रोभूपस्य बहूपयाचितै पुत्रोऽभूत् । स च तस्य जीवितादतीबप्रियः। ततस्तेन राजा ध्यातम् । मम पुत्रस्य यथा रोगो न भवति तथा करोमि । ततो वैद्या आकारिताः। 10 भूपेन प्रोक्तं च तेभ्यः-तथा कुरुत यथा मम पुत्रस्य नीरोगता स्यात् । तैरुक्तं-करिष्यते । ततो राज्ञोक्तं-कस्य कीदृशी चिकित्सा विद्यते । प्रथमः प्राह-मदीयान्यौषधानि अग्रेतनं पूर्वोत्पन्नं रोगं हन्ति [नन्ति ] ; यदि पूर्व न स्याद्रोगः तदौषधमक्षितारं घ्नन्ति औषधानि सद्यः । ततो राज्ञोक्तमलं तवौषधैः स्वहस्तोदरप्रमईनशूलव्यथातुल्यैः । (१)
द्वितीयोऽवग-यद्यस्ति रोगस्ततस्तमुपशमयन्ति । अथ नास्ति ततः तानि प्रयुक्तानि प्राणिनो 18 न दोषं न गुणं कुर्वन्ति । राज्ञोक्तं-अलमेतैरपि भस्माहुतिकल्पैः । (२)
तृतीयोऽवग्यदि रोगे सति प्रयुज्यन्ते तदा रोग निर्मूलकार्ष कषन्ति । अथ न विद्यते रोगस्तथापि तं देहिनं बलवर्णलावण्यवन्तं कुर्वन्ति, पूर्वोत्पन्न रोगं ध्नन्ति, उत्पद्यमानं घ्नन्ति, भविष्यन्तमपि च । । ३)
ततो राजा तृतीयवैद्योक्तानि औषधानि पुत्रः कारितः [ पुत्राय कारितानि } । ततो 20 यावज्जीवं नीरोगशरीरः स पुत्रोऽभूत् भावितभूतभविष्यद्रोगस्फेटनात् । अतस्तृतीयवैद्योक्तौषधतुल्यानि वन्दनप्रतिकर्मकृत्यानि । इति धौषधविषये भूपपुत्रसम्बन्धः ॥२५७।।
[258 ] अथ मातापित्रोविषये पुत्रभक्त्यादिकथा । कमलपुरे श्रीदश्रेष्ठिनश्चत्वारः पुत्राः शिवापत्नीभवा बभूवुः । चत्वारोऽपि परिणायिता: बहुधनव्ययात् हर्षेण, कष्टेन भूरिधनमर्जितं क्रमात्, स्नुषाभिः स्वस्वपतयो वशीकृताः पृथ- 26 क्यम्जाताः । ततः पिता स्वयमेव लक्ष्म्यजनकृते रलति [ अटति।।
एकदा श्रेष्ठिनं स्वयं घृतमानयन्तं वीक्ष्य विमलः सुहृदः प्राह-भो मित्र ! कथं त्वं स्वमानयसि कणादि । श्रेष्ठी प्राह-वसतिं ग्रामे मुषितोऽस्मि । सुहत्माह-केन मुषितः ! श्रेष्ठी जगौ-मम स्नुषाभिः पुत्रा उद्दाल्य गृहीताः किं क्रियते । सुहृद् प्राहाहं तव पुत्रान् वालयिष्यामि । ततो मित्रेण धर्मोपदेशेन द्वौ पुत्रौ स्वपत्नीभ्यां वालयित्वा श्वशुरश्वभूभक्स्यै कृतौ अन्यौ न । ततो माता- 30 पित्रोभक्तो जातो तो इहपरलोकसुखिनौ जातौ नानौ [ नान्यो ।
इति मातापित्रोविषये पुत्रभक्त्यादिकथा ॥२५८॥
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१५२ ]
प्रवन्धपञ्चशती
[259] अथ अणक्षककुम्भकारकथा । पाटलपुत्रपुरे अणक्षकः कुम्भकारः कस्यापि मोटिमादिवर्यचलनवखपरिधानभूषणपरिधानोच्चजल्पनादि असहमानो नगरानिर्गत्यारण्ये तृणमये कुटीरके तस्थौ । पुरमध्ये नैति । तत्रैकदा नृपः भ्रमन्नश्वारूढो भूपो गतः । तृषा लग्ना, तेन पानीयं पायितो भूपः सन्मानं दत्त्वा पुरीमध्ये आनीय सप्तप्रामदानपुरस्सरं धवलगृहं तस्य वासायादात् ।
इतो राजा तैलिकपुत्री अरण्ये बदरीफलानि चुण्टन्ती सुरूपां वीक्ष्य परिणीतवान् । तयाः सप्तभूमिमयं गृहमदात् । वर्यवेषधरा सखोपरिवृता सुखासनासीना कुम्भकारगृहोपान्ते गच्छन्ती कंचिन्नरं वरवेषं दृष्ट्वा नकं मोटयामास । तां तथा कुर्वन्तीं दृष्ट्वा अणक्षकोऽवग
कल्ले बोरज वीणती, अज्ज न जाणइ खक्ख ।
अडविइं करिसि घर, न सहूं एह अणक्ख ॥१॥ पुनरपि कुम्भकारः पुराबहिर्गवा पूर्ववत्तस्थौ । इति अणक्षककुम्भकारकथा ॥२५९।।
[260) दानसंवादे युधिष्ठिरभीमसम्बन्धः । अन्यायसंभवा श्री-रन्यायेनैव याति सा नियतम् । अर्जुनहानिक्लेशः, केवलमवशिष्यते सुधिया ॥१॥ साकारोऽपि सविद्योऽपि, निद्रव्यः क्वापि नार्थ्यते ।
व्यक्ताक्षरः सुवृत्तोऽपि, द्रम्मः कूटो विवय॑ते ॥२॥ हस्तिनागपुरे युधिष्ठिरस्याने भीमेनोक्तम्--
मूर्खस्तपस्वी राजेन्द्र !, विद्वांश्च वृषलीपतिः ।
उभौ तौ तिष्ठतो द्वारे, कस्य दानं प्रदीयते ॥३॥ युधि०-- सुखसेव्यं तपो भीभ ! विद्याकष्टं दुराचरम् ।
विद्वांसं पूजयिष्यामि, तपोभिः किं प्रयोजनम् ॥४॥ मोमोऽवग-~~ श्वानचर्मगता गङ्गा, क्षीरं मद्यघटे स्थितम् ।
कुपात्रे पतिता विद्या, किं करोति युधिष्ठिर ॥५॥ इत्यादि ।
भयं लोमस्तथा स्नेह-स्त्रयो दानस्य हेतवे । । ये दातारस्त्रयं मुक्त्वा, धन्यास्ते मुक्तिगामिनः ॥६॥ इति दानसंवादे युधिष्ठिरभीमसम्बन्धः ॥२६॥
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द्वितीयोऽधिकारः
[261] अथ दाने (स्वर्भोगीति) शालिभद्रश्रेणिकभूपसम्बन्धः । स्वर्भोगभङ्गी [भोगी] नृपतिः क्रयाणकं, सुवर्ण निर्माल्यमभूत्सगादिवत् । भूपस्य मानेऽप्यमानचिन्तनं, शालेर्महाश्चर्यकरं चतुष्टयम् ॥१॥
कृत्वा समर्थ्यं यदि वा महर्घ्य, क्रयाणकं श्रेणिकनामधेयम् । यथा तथा मातरिदं गृहाण, प्रमाणमम्चैव किमत्र पृच्छा ॥२॥
शालिभद्रस्य पिता गोभद्रश्रेष्ठी देवलोकं गतः, सम्मोहात्स्वपुत्रस्य दिव्याभरणवस्त्रादि पूरयामास इति स्वगभङ्गी |१|
यदि श्रेणिकभूपः शालिभद्र गृहवीक्षार्थमागतः तदा मात्रोक्तं पुत्र ! आगच्छ गवाक्षादुत्तर तदा शालिभद्रोऽवग्यातागागतं कवाणकं गृह्यतां मूल्येन इति नृपतिक्रयणाकम् |२|
[ १५३
दिनं दिनं प्रति हेमाद्याभरणादीनि दिव्याम्बरादीनि च कूपे क्षिप्यन्ते इति स्वर्णाद्याभर- 10 णानि स्रुगाद्यभूत् |३|
यदा शालिभद्रो यदा श्रेणिकेन स्वोत्संगे निवेशितः तदा भूपाङ्गतापमसहमानो गलद्विदुतनुरभूत् तथा स्वमर्धमासने निवेशितं दृष्ट्वा स्वस्योपरि स्वामीति राजनाम श्रुत्वा मानेऽप्यमानचिन्तनं जातं शालिभद्रस्येति मानेऽप्यमान जातम् |४|
तदा श्रेणिकवचः---
स्नुही महातह्नि - बृहद्भानुर्यथोच्यते । सारं तेजोवियोगेऽपि, नरदेवास्तथा वयम् ||३||
पूर्वं न मन्त्रो न तदा विचारः, स्पर्द्धा न केनापि फलेन वाञ्छा । पश्चानुतापोऽनुशयो न गर्यो, हर्षस्तथा संगमके बभूव ॥४॥
वसुहाण० ||१||
पुरुषाः तीर्थङ्कर- चक्रि- वासुदेव - मण्डलिक-महेभ्यप्रमुख पुरुषाः । इयं भूमिः वर्य पुरुषावतारं विना अरण्यभूमिवत्स्यात् । यदा यदा जिनाद्या आभरणभूताः स्युस्तदा वसुधा भूषिता स्यात् । पुरुषस्याभरणं लक्ष्मीः सुवर्णरत्नरूप्यादि । अरण्ये पर्वते गतं न किंचित् स्यात् । तदेव पुरुषाश्रितं शोभते । पुरुषो हेमादिना शोभते, नान्यथा कृपण श्रीवत् दानस्याभरणं सुपात्रमेत्र दानमित्यादिदाने स्वगीति । इति शालिभद्रश्रेणिकसम्बन्धः || २६१ ॥
[ 262 ] अथ आम्रभूप- बप्यभट्टिगुरुमाननसम्बन्धः ।
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प्रबन्धपञ्चशती
पुरिसेहिं रईयतित्थं, न हु पुरिसा हति तित्थरईयादि । इत्तोऽपि वरं तित्थं, पुरिसं पभणंति सव्वण्णू ॥१॥ परिसाउ होइ तित्थं. न हंति तित्थाउ तिहुयणे पुरिसा ! सलिलाउ हवइ धणं, नो नीरं होइ धण्णाओ ॥२॥ जिणभवणाई जे उद्धरंति, भत्तीइ सडियपडियाई ।
ते उद्धरंति अप्पाणं, भीमा स भवसमुद्दाओ ॥३॥ यथा गोपगिरी आमनृपः स्वं वयं सिंहासनं बप्पमट्टीसूरेरुपवेशनायादात् । तद् दृष्ट्वा द्विजै? क्रुद्ध पो विज्ञप्तः श्वेताम्बरा अमी एभ्यः सिंहासनं किं दीयते । एवं भूरिशः प्रोक्तो भूप:
तत्सिंहासनं कोशगतं कारयित्वा लघु गुरोरुपयवेशायादात् । प्रातः सूरि पावज्ञा सिंहासनग्रहणे 10 ज्ञात्वाऽवग भूपस्याग्रे
मईयमान मतंगह दप्पं, विनयशरीरविनाशनसर्पम् ।
क्षीणो दादशवदनोऽपि, यस्य न तुल्यो भुवने कोऽपि ॥१॥ इदं श्रुत्वा राजा लजितः सन् मुख्यसिंहासनं पुनर्मण्डापयामास । ततो राजा ३० सहस्रसौवर्णिका आनीताः । भो विप्रा ! यो वयों विप्रो भवति तस्मै दीयते । तदा सर्वे जल्पन्ति । 16 वयं पात्रमेव तन्नूनं तैहीतम् । द्वितीयेऽहनि सूरय आकारिता भूपेनोक्तं--लक्षसौवर्णिकानि गृहाण ! सूरिराह-धनेनास्माकं किं प्रयोजनं, यतः-दोससयमूल० ॥१॥
आरंभे नत्थि दया, महिलासंगेण नासए बभं । संकाए संमत्वं, पव्वज्जा अत्थगहणेणं ॥२॥ लाभकलंतरि चिंतविउ. गंठिं बंधिउ दम्म नवि । खमणो नवि सेवडओ, गउअ कयत्थो जम्म ॥३॥ संजम मेली रिद्धिडी, निहिं कि तिहि जाइ । पेटिं धृसक्कउ हियय, मय भीषी भगरि जपाइ ॥४॥ ब्राह्मणो ब्रह्मचर्येण, क्षत्रियाः शस्त्रपाणयः ।
कृषिकर्मकरा वैश्याः, शूद्राः प्रेषणकारकाः ॥५॥ हस्ततलप्रमाणं तु, यो भूमि कृषति द्विजः । नश्यते तस्य ब्रह्मत्वं, शूद्रत्वमभिजायते ॥६॥
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द्वितीयोऽधिकारः अतो वयं न शूद्राः किन्तु वैश्या, यदि वयं शूद्रा भवामः तदा वणिजां गृहे द्विजा प्रतिप्रह न गृहणन्ते, यतः
अधीत्य चतुरो वेदान्, साङ्गोपाङ्गान् सलक्षणान् । शूद्रात्प्रतिग्रहं कृत्वा, खरो भवति ब्राह्मणः ॥७॥ खरो द्वादशजन्मानि, पष्टि जन्मानि शूकरः ।
श्वानः सप्ततिजन्मानि, इत्यैवं मनुरब्रवीत् ॥८॥ इति भनुपुराणे । एवं श्रुत्वा राजा विप्रान् निराकृत्य सूरेनिं ददौ ।
इति आम्रभूपयप्पभट्टिगुरुमाननसम्बन्धः ॥२६२॥
[283] अथ जीर्णोद्धारे धनसारकथा । यत्तणमयीमपि कुटी, कुर्याद्दधात्तथैकदिवसमपि ।
भक्त्या परमगुरुभ्यः, पुण्योन्मानं कुतस्तस्य ॥१॥ राजगृहे धनसार-गुणसारौ द्वौ बान्धवौ । वृद्धस्य धनी प्रिया शीलादिगुणशालिनी, लघोः कालो पत्नी परं दुष्टत्वेन कालिकैव । काल्या वचसा लघुः पृथग्भूय मुख्यगृहे बलास्थितः । वृद्धस्त्वपरगृहे कर्मयोगाल्लघोः श्रीवली, वृद्धस्याल्पा श्रीः ।।
एकदा प्रामान्तरवासिनः शिलकुट्टका ऐयुस्तत्र काली वर्यवेषां वीक्ष्य ते पप्रच्छुः कोऽत्रास्ति 15 प्रासादादिकारयिता । तदा तया धनमदेन हास्यार्थं धनसार एष आवासं कारयिष्यति । ततस्ते धनसारगृहे गताः । धन्या पृष्टा किं कुरुथ यूयं ? तैरुक्तं-वयं प्रासादं कुर्मः। तदा तत्र कान्तोऽपि आगात् । कान्तेन काली हास्यादिवचः प्रोक्तं । ततो धन्या स्वाभरणानि दत्त्वा प्रासादो जीपण: समुद्धृतः । प्रतिष्ठाधनार्थ धनसारो देशान्तरं गच्छन् मार्गे कस्यापि सिद्धपुरुषस्य मिलितः । तदुक्तकल्पविधिना योगिना सार्द्ध योगिकृतमाहिषीपुच्छदीपिकोद्योतेन श्रीपर्वतगुहायां प्रविष्टः । 20 अन्तरा वृश्चिकभ्रमरादिभिरुपसपितोऽपि न खिन्नः । ततः स्त्रीभिरुपसर्गितो नाचालीत् शोलात् । साहसत्वेनापतो गतः योगी खोक्षुब्धस्तत्रस्थः शतखण्डोकृतः । धनसारस्तु गुफान्तरे हेममयं सप्तभूमावासं हेममयखद्ध(,?)न्दोलकसिंहासनं ददर्श । तत्रत्यदेवेन संमानितः प्रोक्तं त्वं मम भ्रातृतुल्योऽसि । पूर्वभवेऽहं जिनदास इभ्योऽभूवम् । मयैप प्रासादः कारितः, स त्वयोद्धृतः । ततो रत्नानि कोटिमूल्यानि लझमितानि दत्त्वोत्पाद्य स्वगृहे धनसारो मुक्तः । कार्यऽहं स्मरणीयः । 25 तदनु प्रतिष्ठामहोऽभूत् । संघगुरुभक्तिश्च काल्याः स्वर्ण जिह्वा कारिता । संघेन पृष्टं किं त्वया काल्या ईदृशी जिह्वा कारिता ? साऽवग-कालीजिह्वाप्रसादात् जीर्णोद्धारप्रतिष्ठाधनाप्तिरभूत् । ततोऽनिझं सप्तक्षेच्या व्ययित्वा धनसारः सप्रियः स्वर्गे गतः मुक्ति यास्यति ।
इति जीर्णोद्धारे धनसारकथा ॥२६३॥
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१५६ ]
प्रबन्धपश्चशती
[264] अथ दशधा दानकथा । कमलपुरे भीमश्रेष्ठिना गुरुपार्श्वे प्रोक्तं कति दानानि ! गुरणोदितानि दश दानानि । तथाहि
दप' संगहरे भय कारणिय लजा५ गारव अधम्म धम्मेय ।
काहीइ कयमाणेणं, दाणमेयं भवे दसहा ॥१॥ सरोगर भिक्षाचरादीनार दुर्जनाना३ पुत्रादिवियोग लोकलज्जया भट्टचारणानां५ यत्नार्थ हिसाणां साध्वादिसंघस्या पुण्यार्थ प्रत्युपकारवाच्या प्रागनेन मे बहूपकृत १० । श्रुत्वेति कमलो गुरुक्त दानानि ददानः स्वर्गभागभूत् क्रमान्मुक्तिमपि यास्यति ।
इति दशधा दानगाथा ॥२६४॥
[265] अथ शुद्धाहारग्रहणे यतिक्षुल्लकसम्बन्धः । 10 कश्चिद्भपो जातवैराग्यो धर्मपरीक्षा चक्रे । कोऽत्र निसृष्टं मुक्ते। ततो राज्ञा पृष्ठा अनेके
जना यूयं कथं निवहथ ?। एकेनोक्तं-मुखेन । द्वितीयेन पादाभ्यो । तृतीयेनोक्तं-हस्ताभ्यां । चतुर्थः-लोकानुप्रहेण । पञ्चमो जैनक्षुल्लोऽवग-अहं मुधा जीवामि। भावार्थ पृष्टास्ते जगुरेवं
प्रथमोऽवग्-रामायणादिकथाकथनेन जीवामि मुखेनैव । द्वितीयोऽवग-लेखवहनेन । तृतीयोऽवग--अहं लेखकोऽस्मि अतो हस्ताभ्यां जीवामि । चतुर्थो भिक्षुरवग्-लोकानुग्रहेण ।
क्षुल्लोऽवग--संसारासारतां विलोक्याहं महेभ्यसुतः प्रव्रजितः ततो न मदर्थे कृसं यदन्नं तदाहारं मुधा गृहणामि । ततो राजा जैनव्रतं सर्वदुःखमोचकं मत्त्वा दीक्षा लात्वा शत्रुक्षयं गत्वा तपस्तप्त्वा मोक्षं गतः । इति शुद्धाहारग्रहणे यतिक्षुल्लकसम्बन्धः ॥२६५||
[266 ] औदार्ये कुमारपाललक्षटङ्ककदानसम्बंधः । एकदा श्रोहेमसूरिणा स्वकरधृतवामकरस्य कुमारपालस्य शत्रुब्जयचैत्यपाटी कुर्वतः कपर्दिककविः प्राह
श्रीचौलुक्यसदक्षिणस्तर करः पूर्व समासूत्रितं,
प्राणिप्राणविधातपातकसखः शुद्धो जिनेन्द्रार्चनात् । वामोऽप्येष तथैव पातकसखः शुद्धिं कथं प्राप्नुयात्,
न स्पर्शन करेण चेद्यतिपतेः श्रीहेमचन्द्रप्रभोः ॥१॥ तत्र श्रीकुमारपालभूपालस्तस्मै कवये लझटङ्ककान्ददौ ।
इत्यौदार्ये कुमारपाललझटङ्ककदानसम्बन्धः ॥२६६॥
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द्वितीयोऽधिकार
[१५० [267 ] अथ वस्तुपालौदार्यदानबालचन्द्रसरिसम्बन्धः । एकदा बालचन्द्रझल्लेन श्रीवस्तुपालो वर्णिणत इतिगौरी रागवती त्वयि त्वयि वृषो बद्धादरस्त्वं पुन
भूत्या त्वं च समुल्लसद्गुणगणः किं वा बहु ब्रूमहे । भीमन्त्रीश्वर नूनमीश्वरकलायुक्तस्य ते युज्यते,
बालेन्दुं चिरमुच्चकै रचयितुं त्वत्तः परः कः क्षमः ॥१॥ तदनु मन्त्रिणा तस्य सूरिपदं दापितम् ।
इति वस्तुपालौदार्यदानबालचन्द्रसरिसंबंधः ॥२६॥ [ 268 ) अथ ललितासरोवरवर्णने ललितादेवीदानसम्बन्धः । हंसर्लब्धप्रशंसैस्तरलितकमलप्रत्तरङ्गैस्तरङ्ग
नीरैरन्तर्गभीरैश्चटुलबककुलग्रासलीनैश्च मीनैः । पालीरूढद्रुमालीतलसुखशयितस्त्रीप्रगीतैश्च गीत
र्भाति प्रक्रीडदातिस्तव सचिवबलचक्रवाकस्तटाकः॥१॥ ललितादेवीसरोवरवर्णने सोमेश्वराय १६ सहस्रान् ददौ । इति ललितसरोवरवर्णने ललितादेवीदानसम्बन्धः ॥२६॥
15 [269] अथ सालिगसाधुदानसम्बन्धः । अनेकतीर्थोद्धारक सा० देसलसुतस० सालिगसंसदि कश्चिद्विजः समागात् । पृष्टः कुतः समागास्त्वम् ! तेनोक्तं तीर्थात् । किं वर्तते तत्र! श्रीऋषभदेवः सर्वदेवसुतोऽस्ति तेन वर्णिततीर्थ सहस्र दत्तिः । इति सालिगसाधुदानसंबंधः ॥२६९॥ [270] अथ समरसाधुनोद्धारकारितसंबंधः ।
20 एकदा १८००००० अश्वयुतेन सुरत्राणेन जावडिप्रतिमा भग्ना । ततः उकेशज्ञातिचूडामणिसाधुसमराकेन १३७१ वर्षे श्रीशत्रुञ्जये प्रतिमोद्धारः कारितः । तदा संघार्चायां रागभट्टेनामाणि
अधिकं रेखया मन्ये, समरं सगरादपि ।
कलो म्लेच्छालाकीणे, येन तीर्थं समुद्धृतम् ॥१॥ सुवर्णजिह्वादत्तिरत्र--
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प्रबन्धपश्चशती
पित्तलसुवन्नरूप्पय---- रयणेहिं चंदकंतमाईहिं । जो कारेइ जिणवर - पडिमं सो पावए मुक्खं ||२॥
इति समर साधुनोद्धारकारितसंबंधः ॥ २७० ॥
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[271] अथ अर्बुदगिरौ साधुभीमकारित्तपित्तलमय प्रतिमासंबंधः ।
यथा श्रीमालज्ञातीयभीमसाधुना भीमेन अर्बुदे स्वकारितप्रासादे ५१ अङ्गुलमयी श्री आदिनाथप्रतिमा निर्मलबहुगालित पित्तलर सैश्चिकीर्षिता तावता प्रल्हादनपुरीय सं० धनाकेन विज्ञप्तं भो भीम ! मद्भागो मध्ये दातव्यस्तेन निषिद्धस्ततो बिम्बभरणवेलायां स्वाङ्गरक्षकबाहुद्वयं सहfreshत्वा विलोकनमिषेणागतो रसढालनवेलायां बाहुद्वयं विस्तार्य हाटकमध्ये मुक्तास्तेनाद्यापि द्वादशादित्यवद् झगझगायते श्यामिका न । सा० सम्प्रतिकुम्भमेरौ पूज्यमानाऽस्ति । इति अर्बुद गरौ भीमकारितपित्तलमयप्रतिमासंबंध || २७१॥
[272] मण्डपदुर्गे सीता कारितश्री सुपार्श्व प्रतिमासम्बन्धः ।
तथा सीतामहासती पूजनार्थं वनवासे लक्ष्मणकुमारकृता छगणमयी श्रीसुपार्श्वप्रतिमा तच्छीलमाहात्म्याद्वज्रमयी च जाता । सा सम्प्रत्यपि मण्डपदुर्गे यवनादिभिः कुसुमभोगादिभि : प्रेषणैः पूज्यमानाऽस्ति इत्यादि ।
इति मण्डदुर्गे सीताकारितश्रीसुपार्श्व प्रतिमासम्बन्धः ॥ २७२ ॥
[273] अथाप्रभूपकारितपौषधशाला संबंधः ।
यस्तनोति वरपौषधशालां, सर्वसिद्धि ललनावरमालाम् ।
सर्वदैव लभते सुविशालां, बोधिवीजकमलां विमलां सः ||१||
यथा गोपfit arraट्टीसूरिप्रतिबोधितश्रीआननरेश्वरेण सहस्रस्तम्भमयी साधुश्राविका20 सुगमप्रवेश निर्गमप्रवरद्वारत्रयमण्डिता, दूरतरपट्टशालोपविष्टसाधूनां प्रतिलेखनास्वाध्यायादिसप्तमण्डली वेलाज्ञापकमध्यस्तम्भबन्धि तमहाघण्टाटङ्कारवरणरणकारिणा, पौषधशाला कारिताऽऽस्रेण ।
तस्या व्याख्य-मण्डपस्त्रिलक्षद्रव्येण, ज्योतीरूपमणिशिलाछिन्नञ्चन्द्रकान्तमणिकुट्टिम (:), १२ सूर्यवन्निशायां सर्वत भापहः, पुस्तकाक्षर वाचनसूक्ष्मवादरजीय विराधनादिहेतोः पौषधशालापुण्यकृते आम्रभूपकारितपौषमशालासंबंधः || २७३||
आम्रकथा ।
[274] अथ पौषधशालायां सोन्तूसम्बन्धः ।
* जूर्णपट इति प्रत्यन्तरे ।
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द्वितीयोऽधिकारः पापनिष्कन्दनं धर्म-सदनं कारयन्ति ये।
तारयन्ति भवाब्धेः स्वं, तेजनाः कुलतेजनाः ॥१॥ एकदा श्रीपत्तने जयसिंहभूप सर्वव्यापारकृत् ५०००० तुरङ्गाधिपतिः श्री श्रीमालज्ञातीयमन्त्रिसान्तः श्रीदेवसूरिगुरुभक्तश्चतुरशीतिसहस्रटङ्ककव्ययेनापूर्व राजधवलगृहसमानगृहं कारितवान् । लोका विलोकितुमायान्ति । श्रीगुरोरेकदा तददीशत् गुरूणामव्याख्याने कारणं पृष्टं मन्त्रिणा, तदा । सौभाग्यनिधानक्षल्लेनोक्त-मन्त्रिन् ! यद्येवंविधा पौषधशाला स्यात्तदा वरं धमेहेतुत्वात् अन्यस्य पापहेतुत्वात गुरुभिन व्याख्यायते, गृहं पापारम्भमयमेव, यतः--
खण्डनी पेषणी चुन्ही जलकुम्भप्रमाननी ।
पञ्चैते तमसां हेतु-स्तेन नो वय॑ते सदा ॥१॥ ततस्तदेव गृहं प्रासुकं सान्तूर्धर्मनिमित्तमकरोत् , एवमन्या धर्मशाला व्यधाः ।
इति पौषधशालायाँ सान्तूप्रबन्धः ॥२७५।। [ 275] अथ प्रासादपुण्ये आम्रकथा । सूघरीकाकचट्यादिपक्षिणोऽपि अनेकशः । कुर्वते स्वगृहं यत्ना-न पुण्यं तत्र जायते ॥१॥ पुण्याय कुर्वते धर्म-शालादि ये जनाः सदा । तेषां स्याद्विपुलं पुण्यं-माम्रभूमिपतेरिव ॥२॥ श्रीरियं पुरुषान् प्रायः, कुरुते निजकिङ्करान् ।
कुर्वते किङ्करी तां ये, तैरसौ रत्नस्सू रसा ॥३॥ एतत् श्रुत्वाऽऽम्रभूपः श्रीवीरप्रासादं कारयामास । तत्र एकोत्तरशतहस्तोचः प्रासादः सार्द्धतृतीयकोटि सुवर्णमयप्रतिमालकृतः तद्रङ्गमण्डपे २१ सुवर्णलक्षा लग्नाः। मूलमण्डपे तु पश्चविंश- 20 तिसहस्राधिकस्वर्णलक्षः, ८११ वर्षे एककोटिसुवर्णव्ययेन श्रीबप्पभट्टिसूरीणां सूरिपदं कारितं तदुपदेशेन श्रीशत्रुजये रैवते च यात्रोद्धाराश्च कारिताः ।
इति प्रासादपुण्ये आम्रकथा ॥२७॥ [276 ] अथ प्रासादकारणपुण्ये सम्प्रतिकथा । श्रीमज्जैनगृहे जिनप्रतिकृती जैनप्रतिष्ठाविधी,
श्रीजैनस्नपने जिनार्चन विधौ श्रीसंघपूजादिके । श्रीजैनागमलेखने च सततं श्रीतीर्थयात्रादिके,
येषां स्वं विनियोगमेति धनिनां धन्यास्त एव वितौ ॥१॥
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१६. ]
प्रबन्धपश्चशती येषां धर्म समेति ते धन्याः । यदुक्तम्
ज्वलनजलचौरचारण-नृपखलदायादबन्दिकोवृत्तम् ।
धन्योऽसौ यस्य धनं, जिनभुवनादो शुमे लग्नम् ॥२॥ विशिष्य च प्रासादपुण्यमपारमाहुमहर्षयः । यदुक्तम्
काष्ठादीनां जिनावासे, यावन्तः परमाणवः ।
तावन्ति वर्षलक्षाणि, तक्ष" स्वर्गभाग्भवेत् ॥३॥ परमाणुस्वरूपं लौकिक
जालान्तरगते सूर्ये, यत्सूक्ष्मं दृश्यते रजः । तस्य त्रिंशत्तमो भागः, परमाणुः स उच्यते ॥४|| नूतनाह द्वरावासे, विधाने यत्फलं भवेत् ।
तस्मादष्टगुणं पुण्यं, जीर्णोद्धारे विवेकिनाम् ॥५॥ अतो मातुः प्रमोदाय जिनप्रासादमण्डितां भुवं व्यधात् । प्रातर्मातुः पादौ प्रणम्यापरकायं करोति ।
संप्रतिवर्तयामास, सौवायुर्वासराण्यहो ।
नत्र्यकारितषट्त्रिंश-त्सहस्रार्कगृहेर्मुदा ॥६॥ 16 श्रीसम्प्रतिनुपस्त्रिखण्डभूभर्ता भूविजयं कृत्वा १६ सहस्र मुकुटबद्ध नृपपरिवृतोऽन्यदोज
यिन्यामागात् । समहं धवलगृहे प्राप्तः स्वजनन्याः कमलायाः पादयोः पतितः तदा जननी श्यामास्यामप्राक्षीत् । मातर्मया देशाः साधिताः, त्वं कथं न हृष्टा ! माताऽवग-मम जिनप्रासादादिषु पुण्यकृत्यैरेव हर्षः स्यान्नान्यथा । ततो वर्षशतायुम॒त्वा प्रति दिन एकैकं प्रासादं कारयन् ३६ सहस्रप्रासादान कारयामास । मातुः पादौ प्रणम्यैव जिमति ।
इति प्रासाद कारणपुण्यं सम्प्रतिकथा ॥२७६।।
[277 ] अथ चन्द्रकथा । कल्याणपुरे चन्द्रभीमौ द्वौ सोदरौ वसतः स्म । क्रमात् चन्द्रो निःम्बोऽभूत् । भीमो महेभ्यो जातः । चन्द्रो यदाऽन्यगेहेषु अन्येषां सेवां कृत्वा निर्वाहं करोति तदा भीमोऽवग-त्वमात्मनो गृहे तिष्ठ, यद्विलोक्यते तद्ग्राह्यं । चन्द्रस्ततो भ्रातृगृहै कर्म कृत्वा निर्वाहं कुरुते ।
. एकदा रात्री जलदे वर्षति भीमोऽवग्- चन्द्र ? त्वं क्षेत्रे गच्छ। तत्र केदारेभ्यो जलं निगच्छत् त्वया संभाव्यते तेन तत्र पालिबन्धनीया । चन्द्रो दध्यौ-यद्यहं नाधुना गमिष्यामि तदा निर्वाहो मे दुःशक इति ध्यात्वा क्षेत्रे गतः । केदाराणां स्फुटन्तीः पालीबनतो नरान् वीक्ष्य चन्द्रोऽप्राक्षीत्-के यूयं, ते प्रोचुः-वयं व्यस्तरा भीमस्य कामुकाः स्मः । भीमस्य पुण्याकृष्टाः
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द्वितीयोऽधिकार
[ १६१
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पालीबन्धयन्तः स्मः | चन्द्रोऽवग-मम क्व सन्ति सेवकाः कामुकाः। ते प्रोचुस्तव बीरमपुरे सन्ति । तत्र गत्वा यदि श्रीऋषभस्य सेवां कुरु । तथा तेऽपि कामितं स्यात् । ततश्चन्द्रः सकुटु-- म्बस्तत्र गतः । ऋषभस्य जिनस्य प्रत्यहं सेवा कुर्वाणस्तृण काष्ठभारं वनादानीय विक्रीय निर्वाहं कुरुते।
एकदा प्रमुभक्त्या तुष्टः कप: यक्षोऽवग-अहमस्या चतुश्यां शत्रुञ्जयाद्रौ श्रीशान्तिजिनस्य दृष्टे रमपिकामुद्घाटयामि । सन्ध्या यावत् यदि तवेच्छा स्यातदा तत्रागम्यं । रसो ग्राह्यः। 5 स रस एकगदीयानकप्रमाणः पदिगदीयानकत्रपुमध्ये क्षिप्यते । सर्व सुवर्ण स्यात् । ततश्चन्द्रस्तत्र गत्वा ऋषभं जिनं भक्त्या पूजयित्वा स्तुत्वा ततः श्रीशान्तिजिनं प्रणम्य रसकूपिकातस्तुम्बकत्रयं जग्राह । ततो गृहे समेत्य स्वर्ण कारं कारं महेभ्यो जातः । सप्तक्षेत्र्या धन व्यययामास । तथा यथा सप्ताष्टमवमध्ये मुक्ति गन्ता चन्द्रः ।
इति चन्द्रकथा ॥२७७।। [278] अथ उग्रपापकरणे तत्क्षपणाविषये वीरमतीकथा । कुन्तुलपुरे वीरश्रेष्ठिनो मुकुन्नाहः पुत्रः, नस्य पत्नी वोरमतो। अन्यदा पितुः श्रियं यो भुङ्क्ते सोऽधर्म एव इत्यादि ध्यात्वा बलात् पितरमापृच्छय विदेश प्रति श्रियोऽजितुं चचाल । इतः पत्न्यास्थिता वीरमती मठस्थिततापसान्ते गत्वाऽवग-मां भक्ष्व । अहं कामातोऽस्मि । मम पतिस्तु विदेशे गतोऽस्ति । ततस्तेन भुक्ता । एवं सप्तवर्षाणि स्वेच्छया तेन तापसेन 16 सह रेमे । भर्ता समागात् । ततो भर्तारं रात्रौ भोगदानेन रजयित्वाऽत्रागाम्। तापसोऽवगभर्तरि जीवति समागते नाहं भोक्ष्ये त्वाम् । ततः पश्चाद् गत्वा गलटुम्पकदानेन पति परासुं कृत्वा पुनर्भोगायागता तापसाग्रे पतिस्वरूपं प्राह । ततः सोऽवग्-गच्छ त्वया मम न कार्यम् । ततः सा द्वयाच्चुकिता बलाद्भता अकस्मान्मृतो मे इति प्रोच्य प्रातः कारभक्षणाय चलिता चितापार्वे गता तदा राज्यः सतों वीक्षितुमागताः । राजाऽपि तस्याश्चरितं जानन् तत्रागत्यावग- 20 त्वया यथा तापसो भुक्तः पतिर्मा रितस्तथा ज्ञातं मया रात्रावेवमधुना स्वेवं काष्ठभक्षणात्कृतकर्मणो न छटिष्यति । जीव: तपसा छटति कर्मतः । सा पश्चाद ग्रहे समेत्य प्रत्रज्या लात्वाऽभिग्रहं ललौ । यदा मम पूर्वकृतं स्मरिष्यति तदा न भोक्तव्यमेवं कदाचिन्मासेन द्विमासेन त्रिमासेन चतुर्मासेनेत्यादिदुष्करं तपस्तप्त्वा सर्वकर्मक्षयं कृत्वा प्राप्तकेवलज्ञाना मुक्ति गता बोरमती। इत्युग्रपापकरणे तत्क्षपणाविषये वीरमतीकथा ॥२७॥
[29] अथ सुबुद्धौ कमलश्रेष्ठिकया। एकस्मिन् श्रीपुरे धनो वणिग भारवाहनाद् हम्माणां लझमजयामास । किमपि न व्ययति धर्मादौ एवं तत्पुत्रो भीमो द्विलक्षस्वाम्यजनि । सत्पुत्रश्चन्द्रखिलक्षस्वामी बभूव । तत्पुत्रो मदनश्चतुर्लक्षस्वामी अजनि ! तत्पुत्रकमलोऽपि पचलमाधिपः । किमपि धर्मादौ स्वगृहेऽपि धनं न व्ययति । तदा पत्नी लक्ष्मीर्जगौ-स्वामिस्त्वं किमपि धर्म न कुरुषे ।
एकदा कमलः पल्या गुरुपाव नीतः । तदा गुरुणोक्तं-धर्म विन लीवा न सुखिनः
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१६२ ]
प्रवन्धपश्चशती
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स्युः । अतस्त्वं किमप्यभिग्रहं गृहाण । ततः कमलोऽवग्-अतः परं देववन्दनं विना न भोक्ष्ये । ___ एकदा श्रीयुगादिजिनं प्रणम्य भोक्तुमुपविष्टः कमलो यावत्कवलं हस्ते ललौ, तावत्स्वगृहीताभिप्रहं सस्मार, प्राह च प्रियां प्रति अहं देवं नत्वैव भोक्ष्ये । तथावस्थित एवाभ्युत्थितस्तदा 5. प्रिया प्राह-स्वामिन् ! हस्तं घृतस्निग्धं प्रक्षालय । कमलोऽवग-एतद् घृतं हस्तलग्नं कथं त्यज्यते ।
ततो गहिनीहस्तेनाम्बरं परिधाय देवगृहे ययौ। युगादिजिनं भावात्प्रणम्य यावद्वलितस्तावदगोमुखयक्षः प्रकटीभूत्वाऽवग-तव प्रमुभक्त्या तुष्टोऽस्मि । वरं मार्गय । कमलोऽवग-प्रिया पृष्दैव मार्गयिष्यामि वरम् । ततः कमलस्तथावस्थः पश्चादागत्य गोमुखयक्षतुष्टत्वादि प्राह प्रियान्ते । ततः प्रियाऽवग-सबुद्धि मार्गय । ततः कमलो यक्षपार्वे सुबुद्धि याचित्वा गृहागतः प्राह-प्रिये ! जलमर्पय हस्तं प्रक्षालयामि । प्रियाऽवग्-सपिह स्तलग्नं गमिष्यत्येवं । कमलः प्राह-हस्तपाद प्रक्षालनादि विना न भोक्ष्यते मया, ततो हस्तं प्रक्षाल्य मुक्ते स्म सः।
इतस्तत्र पुरे रामा स्वकारितमहत्सरोमध्ये स्तम्भं स्थापयित्वोक्तम्
"यः पुरुष अमुं स्तम्भं कण्ठस्थो दवरकेण बध्नाति, पट्टहस्तिनं तोलयित्वा यावन्तो भाराः 16 स्युस्तावतः कथयति तस्मै सर्वमन्त्रिमुख्यं पदं ददामि ।"
__ तदा वाद्यमानं पटहं कमलः पृष्ट्वा महान्तं दवरकं सरसः पालौ परितो मुक्त्वा तद्दोरप्रान्ते तहोरस्यादौ प्रन्थि बध्वा कर्षयन्स्तम्भं कमलः सरःपालिस्थो बबन्ध ।
यानपात्रे हस्तिनं आरोहयामास । यावन्मात्रं यानं जलनिमग्नं तत्राभिधानं कृतं तेन । ततो हस्तिनमुत्तार्य पाषाणैस्तं बभार, तावद्यावत्पूर्वाभिधानं ततः सर्वे पाषाणास्तोलिताः । 20 तोलयित्वाऽवग--अष्टादशभारप्रमाणोऽयं हस्ती। ततो राज्ञा ग्रामाणां सहस्रं दत्त्वा मन्त्रि
मुख्यः कृतः । ततो वयं धौतकादि परिधाय वयंपुष्पचन्दनादिना पूजयति । प्रभु त्रिकालं गुरुपाश्र्वे धर्म शृणोति सदा पञ्चशतीलोकोत्सर्गकायोत्सर्ग करोति ।
___ एकदा तस्य कायोत्सर्गस्थस्य सर्व कर्म क्षीणं केवलज्ञानमुत्पन्नं ततः प्रियापि तस्य केवलिपार्वे गजापि धर्म श्रुत्वा देवपूजादिधर्म कुर्वाणो मुक्तियोग्यं कर्मार्जयामास । 25
इति सुबुद्धौ कमलश्रेष्ठिकथा ॥२७६।।
[279] अथ शुद्धधर्मे कमलकथा । एकः श्रेष्ठी अनुज्ञाप्य भूम्यधिष्ठायिकां कायिकी करोति । एकदा बहिर्गतो यत्र यत्र "अणुजाणह जस्सुग्गह" करोति तत्रेको यक्षो वक्ति-मा उपविश । तत एकदा यक्षं पञ्च
यित्वा कायिका व्युत्सृजन् । ततो यक्षस्तुष्टोऽवग-वरं मार्गय । ततो यक्षपा दावासो 30 महान्कारितः । ततो बहूनि निधानानि स्वगृहे आनीतवान् । तदा यक्षोऽवग--मम कार्य
कथयिष्यति न तदा त्वां छलयिष्यामि । ततः कमलो यं यमादेशं दत्ते तं तं स सद्यः करोति । ततः श्रेष्टिगृहस्याने महान्तं स्तम्भ कारयित्वा तत्र स्फारा शृङ्खला कारयित्वा तस्य गळे क्षिप्त्वा
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द्वितीयोऽधिकारः
[ १६३
ऽवग-अस्मिन्स्तम्भे चट उत्तर च, याबदहं द्वितीयमुत्तरं न दास्ये । ततो वानररूपधरः श्रेष्ठयुक्तं कुर्वन खिन्नोऽवग यो-मां मुब्चातः परं त्वां न छलयिष्यामि । ततः श्रेष्ठ्यवग-यदाऽहं त्वां स्मरामि तदाऽऽगन्तव्यम् । ततः श्रेष्ठिमुक्तो यक्षः श्रेष्ठिवश्योऽभूत् । ततः श्रेष्ठी शुद्ध धर्म कृत्वा मुक्ति गतः । इति शुद्धधर्मे कमलकथा ॥२८०॥
[281 ] अथ आखुसेवकहस्तिमोचनसम्बन्धे मित्रकरणविषये कथा । पद्मवनेऽनेकपाभिः सप्तशतमिताभिः परिवृत एको महान्हस्ती सल्लकीर्भक्षयन्मत्तोऽभूत् । तस्यैकदैक उन्दरोऽभ्येत्यावग्-यदि ते रोचते तदाऽहं सेवां करिष्ये तव । तदेभो हसन्नाह--'अहो त्वं मम सेवां करोषि तदाऽहं रक्षितोऽस्मि वैरिभिः' इत्यादि हास्यं वचः श्रुत्वोन्दरोऽवग-कदाचिलघुजातिजोऽपि लघुतनुरपि वृद्धतनोरुपकारकृत् स्यात् , तदापि स हसतितरां हस्ती !
एकदा हास्यादाह हस्ती-यदि मां त्वमापदः कर्षयिष्येस्तदाऽहं त्वां महान्तं मन्ये । 10
एकदा व्याधमण्डितदृढपाशे हस्ती पपात । तदा हस्ती कष्टं तिष्ठति । पाशानिर्गन्तुं न शक्नोति । दिशो विलोकयति । तदोन्दरः सोऽभ्येत्यावग-त्वं मया स्वामी चक्रे । यदि रोचते ते तदा कर्षयिष्याम्यतस्त्वाम् । तदा हम्त्यवग-त्वं कथं मोचयिष्ये मामुन्दरोऽवग-मम वीर्य विलोकयाहं तथा प्रपञ्चं करिष्ये यथा त्वं मुत्कलः स्यात् इत्युक्त्वाऽऽखुः सर्वान् वनस्थानाखून मेलयित्वा वाधं आद्रं कृत्वा ततो दन्तैखोट्यामास तथा यथा हस्ती मुत्कलोऽभूत् । ततो हस्ती आखू- 15 प्रीत्या प्रामोदयत् । एवं हस्तिवज्जीवः कर्मबन्धैर्मोहव्याधेन बद्धः सन् शुभच्यानसन्ततिरूपश्वेताखुभिर्मोचितः सुखी शिवभाग स्यात् ।
इति आखुसेवकहस्तिमोचनसम्बन्धे मित्रकरणविषये कथा ॥२८१॥
[282 ] अथ असम्बद्धजन्पने चौरव्यवहारियथा । कनिद्वयवहारी बहुविधरत्नरूप्यादिवस्तुयुतो विदेश प्रति गच्छन् मार्गे चौरैदृष्टस्तैर्यदा ह 20 धनं चेलुः तदा स व्यवहारी संमुखं तेषामचलत् ! प्राह च बुद्धया-भवतां यद्विलोक्यते तद् गृह्यताम् । तदा चौरा जगुर्दास्यात् भवतः सर्व पश्चादर्पयिष्यते । ततो वणिकप्राह-मम कोऽपि साक्षी क्रियतां । ततस्ते जगुरयं वनमार्जार एव साक्षी। तदा तेन वणिजा सर्व वस्तु व्यक्त्या जल्पयित्वा इदं हेम, इदं रौप्यमित्यादि दत्तम् । ते चौरा हृष्टा वस्तु लात्वा गता रमापुरे वणिगपि पृष्टौ तस्मिन्पुरे ययौ । भूपश्च मिलित उक्तं च तेन ममैतैश्चौरैः सर्व वस्तु गृहीतम् । ततो मन्त्रि- 35 भिभूपादेशादुक्तं-वणिजः पार्श्वे कः साक्ष्यस्ति ? वणिजोक्तं मार्जारोऽस्ति । ततः स वणिग यदा कृष्णं बिडालं गृहीत्वाऽऽगात्तत्र मन्त्रिणां पुरः प्राहायं साक्षी । ___ ततस्ते चौरा जगुः-स मार्जारो रक्तवर्णोऽभूदयं तु कृष्णवर्णः । ततो मन्त्रिभिरुक्तं-एते चौरा एतस्य धनं कृत्वा कूटं जगहुँः । ततस्तान् दण्डयित्वा नैगमस्य सर्व धनं दापितं मन्त्रिभिः । इति असम्बद्धजल्पने चौरव्यवहारिकथा ॥२८२।।
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१६४ ]
प्रबन्धपञ्चशती
[282] अथ औदार्ये भोजश्रेष्ठिकथा । श्रीपुरे भोजाह्वश्रेष्टिनः पद्माह्वा पुत्री बभूव विचक्षणा । श्रेष्ठी दानी । पुत्र्यपि ताशी । श्रेष्ठिना पमपुरे वीरमहेभ्यस्य धनाह्वपुत्राय दत्ता । सा च स्वसुरगृहे स्थिता सायं दीपं
चकार गृहे तदा तैलस्य बिन्दवः सप्ताष्ट दीपाद् भूमी पेतुः । श्रेष्ठी आगात् तैलबिन्दून 5 भूपतितान वीक्ष्य पादयोरुपानही उत्तार्य लू(ष)क्षयामास । स्नुषया ध्यातमयं श्रेष्ठी कृपणः,
कथं कालो नेष्यते । य एवं तैलं गृह्णाति स तु अतीव मितंपचः । एवं ध्यात्वाऽपरेचुर्मिषं मण्डयित्वा सुप्ता शय्यायां श्वशुरेण पृष्टा वधूः । किं दुष्यति तव ? स्नुषाऽवग्-शिरोतिढं जाताऽस्ति । ततोऽनेकान्यौषधानि कारितानि । ततोऽपि साऽवग-ममैवंविधैरौषधैः शिरोति
ने याति, येन याति तस्वया कर्तुं न शक्यते । ततः श्रेष्ठी जगौ यत्त्वयौषधं कथ्यते तत् 10 कारयिष्यते मया । ततः स्नुषाऽवग-मम पुरा यदा शिरोतिः स्यात्तदा सर्वोत्कृष्टमुक्ताफल
चूर्णेन भालं लिप्यते तदा शिरोतिरुत्तरिष्यति । तदा महेभ्येन कोशात्सर्वोत्तममुक्ताफलानि चूर्ण का प्रकटीकृतानि । यदा वर्तयितुं प्रारब्धानि तदा वधूः प्राह-शिरोतिरुत्तीर्णा । महेभ्यः प्राह-भो स्नुषे ! कथमेवं प्रोच्यते ? वधूः प्राह-मया तवोदारगुणपरीक्षाकृतमिदं ।
यतः महेभ्योऽवग-अव्यवहारेण यद्यावि तैलादि तथैव । अतो मया भूपतिततैलपिन्दुभि15 रुपानहो लूषितौ । अहं तु धर्मकृत्यगृहकृत्यादिषु बहुधनं व्ययामि मुधा तु एकं लौह डिकमपि . न व्ययामि । ततो महेभ्यो भूरिधनं सप्तक्षेत्र्यां व्यययामास ।
इति औदार्ये भोजश्रेष्ठिकथा ॥२८३॥ . [484] अथ संप्रतिभूपपृष्टचतुःप्रकारजयकथा । एकदा सम्प्रतिभूपः धोसुहस्तिगुरुपार्वे पप्रच्छ कियन्तो जयाः स्युः । 20 तदा गुरुराह-बाह्यान्तरङ्गाभ्यां द्विधा-अन्तरङ्गबहिरङ्वैरिणो जयचक्रवर्तिनां केषांचित्यपञ्चपाव भीरामप्रभृविभूपानां च ११॥
अन्तरङ्गजयो, न बाबजयः गणधरश्रीनेमिनाथमल्लिजिनादीनां स्यात् ।। बायजयो, नान्तरङ्गजयः वासुदेवदुष्टभूपादीनां स्यात् ॥३॥ नान्तरङ्गारिजयो न बाह्यारिजयः कालिकसरिकपामर मिल्लवणिगादीनां स्यात् ।४।
सम्प्रतिभूपपृष्टचतुःप्रकारजयकथा ॥२८४॥
[ 285] अथ अर्कदुग्धौषधकथकवैद्यकथा । एकस्नि पुरे मीमावस्य वैद्यस्य सकुटुम्बस्य कलहं कुर्वतः तत्रत्यैका वणिप्रिया वृद्धा अन्धीभूता औषधं प्रष्टुं समागता । औषधं पप्रच्छ पुनःपुनः, तदा रुष्टेन भीमेनोक्तम्-अयमर्कतरदृश्यते ? तस्याकस्य क्षीरं चक्षुषोः क्षिप । तया तथा कारितं स्वकुटुम्बान्तिकात्, तदा तस्याः चक्षुषी निर्मले जाते ।
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द्वितीयोऽधिकारः
[ १६५
विवि ताराः पश्यन्त्यभूत् । ततो भीमो दध्यो कथमकतरुक्षीरेण चक्षुषी बर्ये जाते । ततस्तस्य तरोरधस्तारखनित्वाऽधोधृतभृतं भाजनं ददर्श । भीमः ततः श्रेष्ठी महावैध इति नाम जातम् । ततः स वैद्यो सकललोकानामुपकारं चक्रे । ततः उपकारात्स्वर्ग गत्वा मुक्ति यास्यति । इति अर्कदुग्धौषधकथकवेद्यकथा ॥२८५॥
[286 ] अथ परिग्रहपरिमाणे जिनदत्तभूपसम्बन्धः । चन्द्रपुरे जिनदत्तस्य गृहे बह्वी श्रीरस्ति । व्यवसायं कुर्वतस्तस्य यत्तत्क्रयाणकं गृहणतो द्विगुणविगुणश्चतुर्गुणो लाभो भवति, तदा भार्या जगौ प्रिय ! सप्तक्षेत्र्यां धनं व्यय । तत स न किमपि व्ययति धनं धर्मे । ततः क्रमादेकदा श्रीदेवी स्वप्नेऽभ्येत्यावग-अहं यास्यामि । तव पुण्यं क्षीणम् । प्रातः श्रीप्रोक्ते पल्याः पुरः प्रोक्ते पस्नी प्राह-मया बहु प्रोक्तं, धनं धर्मे व्यय, त्वया तु न व्ययितं, किं क्रियतेऽधुनाऽपि व्यय धनं तदपि वरं । ततः तेन सर्व 10 धनं धर्मे व्ययितं । रात्री देवी श्रीधनं व्ययितं दृष्ट्वा तत्पुण्यबद्धा तथैव मुक्ताफलमण्यादिगृह तस्य पूर्णीचक्रे । एवं तेन तस्मिन्धने व्ययिते श्रीस्तथा व्यधाद् गृहं २१ दिनप्रान्ते श्रेष्ठिना विंशतिसहस्रटङ्ककपरिग्रहपरिरक्षणमानं लात्वा शेषं धनं व्ययितं । ततः प्रिया तस्य पुरस्य भूपस्यापुत्रस्य मृतस्य तस्मै राज्यं ददौ । सतः स जिनदत्तभूपः प्रभु राज्ये निवेश्य स्वयं मन्त्री भूत्वा सप्तक्षेत्र्यां धनं सदा व्ययन्मुक्तियोग्यं कजियामास । ततो जिनवत्ता समियो मृत्वा स्वर्ग 16 गत्वा मुक्ति यास्यति । इति परिग्रहपरिमाणे जिनदत्तभूपसम्बन्धः ॥२८६॥
[287 ] अप नीचानीचभवनचाण्डालिनीसम्बन्धः । सिखपुरासन्नकम्बलिकामामस्थ-भीमस्य भाम्भिकस्य मृतस्य पत्नी विदेश ययौ ।
एकस्मिन्प्रामे गता लोकैः पृष्टा तस्या जातिः । तयोक्तं मुग्धत्वात् देढस्य पत्नी । लोकैरुक्तमेवं प्राममध्ये नागम्यते । साऽवग्-को प्रामध्ये समेति । तैसक्त-यो वणिम् विप्रो वा भवति स 20 चोक्षः । ततः साऽपरस्मिन्मामे गता तथा तत्र प्राक्षणीवेषधारिणी जाता । ततो 'ब्राह्मणी मह मिति' जल्पन्ती वाराणस्यां गता । तत्र मठवासनिका जाता यमुनायां सदा स्नानं चके । विदेशागता द्विजास्तस्या गृहे मुञ्जते ।
एकदा सिद्धपुरीया द्विजास्तत्रागतास्तस्या गृहे भोजनं कारयितुमागताः । तयोक्तं यूयं के! तैरुक्तं वयं ब्राह्मणाः । तयोक्तं-भवन्तो-भवन्तः क्रमाद्विजा जाता । तैरुक्तं-भवन्तो भवन्त' 8 इत्यस्य कोऽर्थः ! तयोक्तं-अहमिव । तैरुक्तं-त्वं भवन्ती कथं जाता ! साऽवग-धुरि अहं. भाम्भिकभार्याऽभूवं, ततो वणिजाभूवं, ततः झत्रिया, ततः सूत्रधारिका, ततो ब्राह्मणी, ततो मठवासिका इति भवन्त्या अर्थः । ततस्तैरुक्तं- अहो पापिन्या त्वया सर्वे द्विजा विटालिताः। तयोक्तम्-एवं कथमुच्यते ! अस्मिस्तीर्थ ये स्नातास्ते सर्वेभ्योऽपि पवित्राः । ततस्तैरुक्तम्-इयं सत्यं वक्ति । इदं तीर्थ पवित्रं । ततः इयमस्मिन्जले स्नाता पवित्राऽभूत् ततो द्विजास्तत्र भुक्ताः। 30
इति नीचानीचभवनचाण्डालिनीसम्बन्धः ॥२८७॥
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प्रबन्धपश्चशती
[288) अथ परवश्वनद्विजसम्बन्धः । एकस्मिन्ग्रामे द्विजस्य पत्नी पतिवचनासक्ताऽस्ति । एकदा द्विजे ग्रामे गते वैदिका द्विजा-- स्तत्रागताः । तैश्च विप्रगृहं पृष्ठा वैदिकगृहे गत्वा द्रव्यं दत्त्वा क्षीरपूपिकाघृतवरमण्डकमोदका. दिवर्या रसवती कारिता । सतो द्विजा नद्यां स्नानार्थ गताः । इतो द्विजो गृहस्वाम्यागात् रसवत्यादिरन्धनं ज्ञात्वा द्विजोऽवग-इयं रसवती आत्मनो गृहे स्थाप्यते स्वयं मोक्ष्यते तदा वरं । भार्याऽवग-कथमेवं क्रियते परान्नहरणात् । द्विजोऽवग्-तथाऽहं करोमि यथा स्वयं द्विजा यास्यन्ति त्वया मौनमेव कार्य च । ततो अदा द्विजाः स्नानं कृत्वा गतास्तदा द्विजः पिष्पप्पि]लस्य वृक्षस्य शाखां छेत्तुमूवं चटितः । वृक्षशाखां छिन्दानं तं दृष्टा द्विजास्ते जगुः--भो द्विज !
कृष्णवसनस्थानं पिष्प(प्प)लस्त्वया किं छिद्यते ! सोऽवग--पिप्पलपत्रभक्षणं विना ईश्वरनामाङ्किता 10 वृषभा शण्ढा असमारिताः कथं क्षेत्रे वहन्ते । तैरुक्तं-त्वं किमीश्वरनामाङ्कितान् शण्ठान खेटयति ।
द्विजोऽवग-यद्येवंविधा वृषभा न पोष्यन्ते तदा धृतभार्याया अपत्यानि धान्यं विना कथं जीवन्ति । तैरुक्तं-तब गृहे किं धृता पत्नी विद्यते । लेनोक्तं मम प्रामाटस्य चुतमद्यादिसे विनः को द्विजः पुत्री निजां दत्ते । तेरुक्तं --का जातिस्तवपत्न्याः तेनोक्तं-मम व्यसनसेवकस्य यदा
कोऽपि द्विजः स्वां पुत्री न दत्ते तदाऽहं गतो वर्यमोचिकगृहे मां वयं वरं दृष्ट्वा सोऽवग-मम 15 रण्डा पुत्री विद्यते । यदि रोचते तव तदाङ्गोकुरु व तां । ततस्तस्य तां पुत्री वयाँ दृष्ट्वाऽहं
परिणीतवान् । ततस्तयाऽपत्यानि जातानि अमूनि विद्यन्ते । ततस्ते द्विजाः पापिष्टोऽयं पापिष्टोऽयं एवं वदन्त उस्थिताः । तो रसवती तादृशीं त्यक्त्वा गता अन्यत्र । ततो द्विजोऽवक पनि ! यथारुचि इयं रसवती भुज्यतां बुद्धिधनेन गृहीता, न मुधा, तेन पापं न लगति, ततस्तेन स्वेच्छया पन्या युतेन रसवती भुक्ता । इति परवञ्चने द्विजसम्बन्धः ॥२८८॥
[289] अथ मोहेन काष्ठभक्षणसम्बन्धः ।। कस्मिंश्चिद्ग्रामे कोऽपि कौटुम्बिकः पत्नीवियोगात्काष्टभक्षणाय चचाल यदा तदा एको भट्टो धनार्थी प्राहोच्चैः स्वर, भो कौटुम्बिक ! त्वं भाग्यवानसि, त्वं मातापितृपक्षोद्योतकारका स्वर्गसुखमनुभवसि । त्वमस्मारःखाच्छुटितोऽसि इत्यादि जल्पन्तं भट्ट प्रति स प्राह-अधुनैवं
कथं पुनःप्रोच्यते । यदि वर्य काष्टभक्षणं स्वर्गसुखदायकं भवति तदा त्वं कथं न करोषि । 25 अत्र तु दीनादिवचनजल्पनादुदरं बिभर्ति । तत्र स्वयमत्यन्तं सुखं भविष्यति । भट्टोऽबग
कथं त्वयैवं प्रोच्यमानमस्ति । स प्राह-अहं मोहेन काष्टमक्षणं कुर्वाणोऽस्मि । अग्रे को जानाति किं भविष्यति । त्वमपि धनलोभादेवं जल्पनसि किं बहुजल्पने । ततो भट्टो मौनी जातः ।
इति मोहेन काष्ठमक्षणसम्बन्धः ॥२८९||
[290] अथ कुशीलिनीस्त्रीविषये सम्बन्धः । 30 एकस्मिन्पुरे मोधिका पर्याणि खेटकानि रचयति तेनान्यदा नोसलेन चर्मकृताऽन्येन त्यक्ता
बी पत्नी कृता । अत्रान्तरे तस्य अट्टे पुमासो जजल्पुनीसल ! त्वया पली आनीता श्रुता सा
20
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द्वितीयोऽधिकारः
[ १६७ कस्य पुत्री विद्यते । नोसलोऽवग् किमेवं पृच्छयते । ते प्रोचुः-रण्डा विधवा वा ! सोऽवग्देवडेन त्यक्ता मयाजीकृता । तदा केचिज्जगुः-वयं कृतं गेहं च सदभूत् । तदेकेनोक्तं-या पत्या त्यज्यते सा कुशीलिन्येव । अथवा अकथितकारिका दोषं विना कोऽपि स्त्रियं न त्यजति । तदा नीसलोऽवग-अतीवाधुना सलज्जा दृष्यते स्तोकजल्पा च । वृद्धः पुमान् प्राह-स्वरूपं न झायते यत:--
अक्कफलं किविणवणं, दुजणवयणं सुकोमलं होइ ।
असई होइ सलज्जा, खारजलं सीअलं होइ ॥१॥ नोसलोऽवग्-साम्प्रतं वर्याऽस्ति ततोऽन्यदा कस्मिन्स्थाने पुसाऽन्येन समं वातां कुर्वाणा नीसलेन पृष्टा परपुंसा च । यदा साऽम्येषां पुरः पत्नीस्वरूपं प्राह तदा तैः प्रोक्तं-त्यज्यते पत्नीयं । नीसलोऽवग-रूपवती कथं त्यज्यते ! अन्यस्मात्पुरुषावदीयं ममापत्यानि जनिष्यति 10 तदा तान्यपि मा प्रति 'तात बाप अऊआ आता' इति जल्पिष्यन्ति । तेनेयं स्थाप्यमानाऽस्ति तदा तैरुक्तम्-एवं चेदस्ति तदा वर्य जातं । नीसलेन तादृशी पत्नी ज्ञाताऽपि न त्यक्ता मोहपाशबढेन ।
इति कुशीलिनीस्त्रीविषये सम्बन्धः ॥२६॥
[291] अथ मुग्धजटिलसम्बन्धः । एकस्मिन्प्रामे आसन्नाद्रिरुच्चशृङ्गे विषमे मठी योगिना कृता । तत्र च योगिना बालिखी 16 स्थापिता। साऽथाऽन्यं नरं न पश्यति क्रमात्परिणीता स्वयं । इयं कुशीलिनी न भविष्यति । ततो ग्राममध्ये भिक्षा याचमानो गृहे गृहे वदति-"इकपरिसाई इकपरिसाई" एवं पुनर्वदन्तमन्यः पुमान् प्राह-'इमकाई बालई भाई' । ततो योगी जगौ-'ऊंचह डंगरि कोई न जाई' । एवं जल्पन्तं श्रुत्वा दध्यौ । स स्वा पत्नी सुशीलां वेत्त्यसो । ततः स योगिप्रियापरीक्षणायैव वर्यपक्वान्नादि लात्वा योगिन्यन्यत्र गते पर्वतशृते योगिनीपार्श्वे गतः । योगिन्यै पक्वान्नादि 20 दत्तं । योगिन्या भोगस्तेन सहेप्सितः ।
इतः स योगी मठपार्श्वे समागात् । ततः सद्यस्तया मठमध्ये छन्नं कृत्वा महोद्वारेऽभ्येत्यावर अत्रैव स्थिरीभव । अधुना ईश्वर आगतोऽभूत् । तेनेत्युक्तं गतं च यदि ते पतिश्चक्षुषोः पट्टकं बन्धिरवा कण्ठे घर्घरमालिकां च त्रिर्वारं मठयाः परितोऽधोमुखी मन्नामजापपरो भविष्यति ततो मठींमध्ये समेष्यति तदा बहुवर्षाणि आयुर्भविष्यति । ततस्तेन पल्योक्तं सर्व कृत्वा 25 मठीमध्येः आगतं यदा छन्नं तदा स च निगेत्य स्वस्थाने गतः। द्वितीयदिने योगी तस्य गृहे समागाजल्पन्निति
इक्कपुरिसाई पुरिसाई काई बोलई भाई
ऊंचे ऊंचे डूंगरउइ कोइ न जाई । तदा स पुमान्प्राह
आंखिई पाटा कोटई घाटा, अम्हे हुंता मठमांही ॥१॥
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१६८]
प्रबन्धपश्चशती पूर्णा गाथा जाता। एवं प्रोक्तेऽपि मोहात्तेन योगिना वचोठयगड्यं न ज्ञातं । ततः स्थाने स्थाने सम्पूर्ण गाथा जल्पति । योगी तु स्वां पत्नी सुशीला वेत्ति ।सा लम्वा(लब्धास्वादा पुंसाऽन्येन रमते । एवं पापं कृत्वा श्वने गता । योगी तु यावत्स्वा पत्नी सतीमेव मेने ।
इति मुग्धजटिलसम्बन्धः ॥२९॥
[292 ] अथ काकेन काकशतमिति सम्बन्धः । भीपूरे चन्द्रश्रेष्ठिनः पत्नी कथितकारिणी विद्यते । क्रमाद्दारिद्रे समेते किमपि न करोति । इतोऽन्यदा मलोत्सर्ग कुर्वन बहिनिधिं ददर्श । तं तत्र स्थगित्वा गृहागतो भार्यायाः परः प्राह-मयाऽद्य मलोत्सर्गः कुर्वता काकपिच्छ हदितं, त्वया स्याने न प्रोच्यं । तयोक्त-मयाऽद्य यावत्कस्याने नोक्तं ततस्तयाऽन्येद्यः पानीयानयनाथ गच्छन्त्याऽन्यपानीयहारिकायाः पुरः पत्युः पिच्छहरोस्वरूपं प्रोक्तं । ततस्तयाऽन्यस्या अग्रे प्रोक्तं ततस्तयाऽन्यस्या अग्रे ततो लोकशतैः श्रुतं गृहे गृहे सा वार्ता जाता। लोकैरुक्तं-मो श्रेष्टिन् ! काकपिच्छं शतं हृदितं त्वया। ततो. ज्ञातं भार्यास्वरूपं ततस्तेन नीधिरानीतो विलसितः परं पल्याः पुरो नोक्तः, श्रेष्ठी ततः 'काकं काकशत मिति ख्याति दध्यौ [धौ] ॥
इति काकेन काकशतमिति सम्बन्धः ॥२९२।। 15
[293] अथ सुखरासे कौटुम्बिककथा । श्रीग्रामे लक्ष्मीधरो राजा न्यायी लोकप्रियः । लोकाः सर्वे यथोक्तं ददते धनिनो जाताः ।
एकदा मन्त्रिणा स्पर्द्धकद्वयं चन्द्रकौटुम्बिकपाा याचितम् । सोऽवग-अय॑मप्य धनं भग्ना, अधुना नास्ति यथा मां मार्गय तथाऽन्योऽपि किं न माय॑न्ते । अहमेवेकोऽस्मि किम् ।
__ अत्रान्तरेऽन्येास्तेन कौटुम्बिकेन खलात् छन्नं गोधूमैः शकटं भृत्वा निर्गतं रात्रौ । वर्मनि 20 शकटं गर्तायां पतितं न निस्सरति यदा तदा स कौटुम्बिकः आफुलोऽभूत् ।।
अत्रान्तरे राजा अजल्पन तस्य शकटं कर्षयामास । राज्ञा स्तैन्यं ज्ञातं । तथापि चित्ते किमपि नानीतम् ।
इतोऽन्येयः मन्त्रिणा समं कलिं कुवन्भूपपाश्र्वे कौटुम्बिको ययौ । तदा मन्त्रिणा राशोऽने प्रोक्तं यदाऽसौ मान्यते तदा यद्वा तद्वा जल्पति । कौटुम्बिकोऽप्यवग-अहं वासे स्थातुं न 25 शक्नोमि । अमुकममुकं मयाऽपितं पुनः स्पर्द्धकद्वयं मन्त्री याचते। राज्ञोक्तं-यो राजा गोधू
मभृतं शकट गर्तायां पतितं कर्षयति, तस्य वासे त्वया उषितव्यम् । एतद्वचः श्रुत्वा कौटुम्बिको मौनी भूत्वा भूपपाश्र्वे प्राह-यद्विलोक्यते तद् गृह्यताम् । ततो राजाऽपि तद्वचनेन तुष्टः।
इति सुखवासे कौटुम्बिककथा ॥२९३।।
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द्वितीयोऽधिकारः
[ १६९ [294] अथ धनदानवशीकारे ग्रामपतिकथा । लोग्णपुरे ग्रामपतिः कृष्णः प्रजाः पाति स्म । तत्रान्यदा तैलिकमोचिके कलिं कुर्वाते स्मेति । त्वया मम छगणानि छन्नं गृहीतानोत्युक्ते वैलिका जगौ-रे घानिके ! मम गृहास्वया गोमयं छन्नं गृहीतम् । एवं मिथः कलिं कृत्वा प्रथमं घाचिका प्रामपतये तैलिकसहोलिकं दस्था स्वं सम्बन्धं कथितवती । ग्रामेशोऽवग ~मा भैषीः, चर्मकारिका दण्डयिष्यते । 5
इतश्चर्मकारपत्नी भूपपल्यै वर्य पादुकायुगं दत्त्वा स्वसम्बन्धं प्राह । त्वया ममोपान्ते स्वातन्यम् । अपराहे द्वे कलिं कुर्वाणे प्रामपत्रिपाश्र्व समेते । स्वं स्वरूपं द्वाभ्यां प्रोक्तम् । राजाऽवग-चर्मकारिकामन्यायिनी दण्डयिष्यते। तेलिकया तैलसहोलिकोपितोऽस्ति । राज्ञा राइयाः पुरः प्रोक्तम् । राझी प्राह-पल्यतम्याधस्ताद्विलोक्यताम् । नोवं वीक्ष्यते । ततो राजा पादुकाद्वयं नवीनमपूर्व दृष्ट्रा प्राह-द्वयोमध्ये कस्या अपि दोषो न । स्वस्वगृहे यानं युवामतः 10 परमन्यायो न कार्यः तेन स्वस्वगृहे गते ।।
इति धनदानवशीकारे ग्रामपतिकथा ।। २९४ ।।
[295 ] अथ ऋणसम्बन्धे सूत्रधारकथा । कस्मिन्मामे भोमस्य सूत्रधारस्य भूरिषु देवेषु आराधितेषु पुत्रोऽभून् । जन्मोत्सवः कृतः । स्वर्ण मयं पालनकं कृतं, तत्रस्यं हिण्डाल यति स्म । क्रमाद्रिकन वर्याहारभूवगादिभिः 16 पोरते पुत्रः ।
___ एकदा स्वोत्सङ्गे कृत्वा पुत्रं रमयन्तं श्रेष्ठिनं दृष्टा साधुः प्राह । पुत्रं दर्श दर्श किं मोद धत्से ! एवं प्राच्य यावत्साधुनिस्ससार तावच्छेष्ठी चकितः। साधोः पदोः पतित्वा प्राह-- त्ययेवं कथं प्रोक्तम् ? साघुः प्राह पृच्छनेन सृतं, पुत्रस्वरूपे प्रोक्ते तव दुःखं भविष्यति ।। नमो बहु कथिते एकान्ते साधुः प्राह--
20 पपपुरे पन्नो वणिग बभूव । स चान्यदा कमळपुरे सिंहवेष्ठिगृहे गतः । तस्यापण मविशति च सिंहाऽन्यदा पञ्चप्रतटकभृतां वासनिकां हट्टमध्ये मुक्त्वा कार्यार्थ गतः । ततअनस्तां वासनिक अन्नं कृत्वाऽन्यत्र मुक्त्वा तत्रापण भामत्योपविष्टः । ततः सिंहो हद्वागतो बामनिकामरा प्राह-स्वया धनं गृहीतम्। चनोऽवग-टं किं जल्पसे ! शपथ लवः क्रमात् साधुभ्यो दानं दत्त्वा चन्द्रो मृत्वाऽयं तव पुत्रो जातोऽस्ति । तेनायं लहन 25 जात्वा गमिष्यति । यदि त्वमेतस्यार्थ न ब्ययिष्यसि तदा सर्वा श्रियमपहरिष्यसि ततः अधारेण पूर्वदत्तं धनं तस्य लेखके धर्म व्ययितं ; ततः स स्वं लानकं लावा परलोकं गतः ।
इति ऋणसम्बन्धे सत्रधारकथा ॥२९५|| [296] अथ मुग्धताया कुटुम्बिधनतत्पत्नीलिम्बडीपुत्रीकथा । ओपुरे धनकौटुम्बिकस्त्र लोम्प्रटोनाम्नी पुत्री बभूव । क्रमाञ्चनपुरे धनदत्ताय सोत्सवं 30
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१७० ]
प्रवन्धपञ्चशती दत्ता । तस्या आभरणानि कारितानि । एकदा समुत्पन्नरोगा लिम्बडी पतिगृहस्था मृता । तां मृतां श्रुत्वा मातापितरौ दुःखिनौ जातौ । आभरणानि पितुगृहे स्थितानि । तदा कोऽपि धूर्तो धनकौटुम्बिकोऽभ्येत्यावग--नमश्चक्रे तयोः । तदा ताभ्यां प्रोक्तं--कुतः स्थानात्त्वमागाः ?
सोऽवग--अहं भवतोः पुत्रीपाऽत्तदा माताऽवग--लिम्डीपुत्री क्वास्ति ? धूर्तोऽवग्--स्वर्ग 5 देवाङ्गना जाताऽस्ति सुखिनी च । मन्मुखेन तया सर्वाणि आभरणानि याचितानि सन्ति ।
यदि अय॑न्ते तानि तव पुत्र्या अर्पयामि । मात्रा मुग्धया पुत्रीमोहात्तस्मै सर्वाण्याभरणानि दत्तानि । सोऽपि छलितानि लात्वा चचाल ।
इतो धनो गृहे आगात् । पुत्रीभूषणप्रेषणस्वरूपं पत्युरने पन्योक्तं धनोऽवग् । प्राह-त्वं तु मुग्धा । स तु छली । तानि लात्वा गतः । ततो भूषणानि वालयितुं वयंघोटिकारूढस्त10 स्पृष्ठौ चचाल । मार्गे मिलितः सन् तं हक्कयामासोच्चैः रे दुराचार ! मुन्च भूषणानि पुत्र्या
नो चेद्हनिष्यसे । छली धनमागतं दृष्ट्या मार्गस्थतरोरुध्वं चटितः । स च कौटुम्बिकः घोटिकाया उत्तीय वृक्षमारूढो धत्तुं तम् । स बली शाखयोत्तीर्य त्वरितं घोटिकामारुह्य त्वरितं चचाल । कौटुम्बिको वृक्षादुत्तीर्य तत्पृष्ठौ दधाव हक्कयति च । यदा न मिलति धनस्तस्य तदोच्चैः
स्वरं प्राह--एषाऽपि घोटिका साभरणा लिम्बड्थे भवतु एवं प्रोच्य पादचारी गृहागतो 15 धनः पृष्ठः पन्था, तदा धनोऽवग- त्वया पुच्या आभरणानि प्रेषितानि मया तु घोटिका । पत्नी प्राह--वयं कृतम् । इति मुग्धतायां कौटुम्बिधनतत्पत्नीलिंबडीपुत्रीकथा ॥२९६॥
[297 ] अथ दन्तदर्शने श्रेष्ठिवधूकथा । श्रीपुरे चन्द्रप्रेष्ठिनश्चतस्रो वध्वोऽभूवन् । एकस्या वर्या मुद्रिका कारिता श्रेष्ठिना, द्वितीयस्या 20 वर्या शाटिका, तृतीयस्याः स्वर्णमया दन्ताः । ताभिरेकदा स्वजना जेमनाय निमन्त्रिताः । ता
जेमनायागता यदा तदा प्रथमया मुद्रिका दर्शिता, द्वितीयया शाटिका दर्शिता, तृतीयस्या गृहे या जेमनायागताः तासां पुरः तृतीया दन्तान स्वर्णमयानुद्घाट्य हसित्वा प्राह-भोः स्त्रियः अद्य किमपि रडुं न शकितं मया । कल्ये जेमनायागन्तव्यम् । ताभिः प्रोक्तं-चर्य कृतं गौरवं
दन्ताः स्वर्णमया दर्शिता । दन्तदर्शनेन वयं भोजिता ! दन्तदर्शनेनापि यच्छुटितास्तद्वरं इति 25 जल्पन्त्यस्ताः स्वस्वगृहे गताः । इति दन्तदर्शने श्रेोष्ठिवधूकथा ॥२९७||
[298] अथ अविमृश्यकारकधनकथा । __ एकः कोऽपि मुग्धः पुमान् पलाशपत्राणि फलानि च वर्याणि वीक्ष्य दध्यो-एवंविधो वृक्षो यदि गृहाङ्गणे भवति तदाऽतीव गृहशोभा भवति ।
ततस्तेन तद्बीजान्यानीयारोपितो वृक्षः वर्धितो वारिसिञ्चनतः सच्छायोऽभूत् । क्रमात्फलानि 30 लग्नानि आस्वादितानि कटुकानि । पत्रेषु च वृश्चिका उत्पद्यन्ते । पक्षिणोऽभ्येत्य ते कलकलं
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द्वितीयोऽधिकारः
[ १७१
कुर्वन्ति । ततो रुष्टस्तमुत्पाटयामास । स ज्वालितः । स एकं पत्रं तस्योद्धरितं, तच्च क्रमात् हेममयं जातम् । ततस्तादृशानि बीजान्यलभमानो दुःखी जातः ।
इत्यविमृश्यकारकधनकथा ॥२९॥
[293] अथ परद्रव्यपरिहारे सोमभीमकथा । चन्द्रवत्यां पुरि सोममोमो सोदरौ वसतः स्म । पृथग्जातौ तथापि व्यवसायमेकत्र कुरुतः । स्म । सोमो गुरूपान्ते परद्रव्यपरिहाराभिग्रहं ललौ ! भीमस्तु न गृह्णाति स्म ।
एकदा द्वावपि भ्रातरौ द्रव्याजेनाय मार्ग चेलतुः। सायं रात्रिघटोद्वयं गतं यदा सदा रत्नकुण्डलं बहुमूल्यं सोमो दृष्ट्वाऽपि चचालाप्रतः । ततः पश्चात्क्रमशते भीम आगच्छन् रत्नकुण्डलं ललो । रहो विधाय चचाल । ततः मार्गे भ्रात्रा पृष्टं त्वया पश्चात् किं दृष्टम् ! भोमोऽवगन किमपि दृष्टं मया । ततस्तावपि भ्रातरौ श्रीपुरे गतौ । तत्र भीमो व्यवसायं कुर्वन् कुण्डलं 10 विक्रीय बहुमूल्यं क्रयाणकं बहुं ललौ। तदा बहुमूल्यं क्रयाणकं बहु गृहानं भीमं वीक्ष्य सोमोऽवग-भ्रातस्त्वया किं लब्धं येन बहु क्रयाणकमलास्त्वं बह्वाग्रहे कृते भ्रात्रा रत्नकुण्डलग्रहणविक्रयसम्बन्धः प्रोक्तो भीमेन । ततः सोमोऽवग-यत्त्वया रात्नं कुण्डलं पतितं गृहीतं तन्न वरं कृतम् । आत्मनः क्रयाणकमप्रेतनवस्तुसत्कं यद्विद्यते तन्मम दीयताम् । त्वं तावकं पृथक्कुरु। 16 क्रमावौ सोदरौ गृहे आगतौ भीमस्य तस्मिन्नेव दिने गृहे चौराः प्रविष्टाः। सर्वमानीतं लुण्टित्वा गताः । प्रातः सर्व गृहं क्रयाणरिक्तं दृष्ट्वोदरं कुट्टयन जगौ भीमः । चौरा मम जीवं गृहीत्वा गताः । सोम आगतः प्राह-भ्राता रुद्यते किं यत्परद्रव्यं गृह्यते तच्चात्मीयमप्रेतनमपि धनं लात्वा याति । अतः परं त्वया परकीयं पतितमपि धनं न ग्राह्यम् । ततस्तेन परद्रव्यग्रहणे नियमो गृहीतः । ततो भ्रात्रा बहुधनं ददे । ततो द्वावपि सोदरौ चिरं स्वमभिग्रहं प्रपाल्य 20 स्वर्ग गतौ । क्रमान्मुक्ति यास्यतः । इति परद्रव्यपरिहारे सोमभीमकथा ॥२९९॥
[300] अथ 'वानर अनई वींछी खाधउ' इति ऊखाणा कथा । कस्मिन्वने वानर आम्रछोतरक भनितुं मुखे चिक्षेप तदा छोत्तरकस्थेन वृश्चिकेन कपिर्भक्षितः । ततो झलयित्वा त्वरितं भमौ पतितः। मखं भग्नप्रायं जातमा कत्रापि रतिं न तदा कपिना अन्येन पृष्टं भो वानर ! किमेवंविधांकियां करोषि ! तदा स प्राह-यत्र तत्र 26 मुखं न प्रक्षिप्यते, सरलदृष्टमार्गण चलनीयम् । उक्तं च तेन
जीवञ्जीव जीवउं किमइ आंबइ हाथ न लाउं किमइ जीवजीव । जीवइ ईम छोत्तरि हाथि जीवाहि वानीम ॥१॥ इति वानर अनइ वींछी खाधउ इति ऊखाणा कथा ॥३००॥ [301] अथ कर्णसम्बन्धः ।
30 त्तिने भीमभूपस्य पत्नी पद्मिनी सगर्भा ज्योतिष्ककं प्रति जगौ। वयः पुत्रो जातो यस्मिन्
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१७२ ]
प्रबन्धपञ्चशती
सणे स्यात् स क्षणः कथ्यताम् । ततो ज्योतिष्कको जगी। उच्चपरमोच्चप्रहसम्बन्धं ज्योतिककोक्तक्षणे तयौषधग्रहणात् पुत्रो जनितः कर्णभरणे निर्गतः । सतस्तस्य कर्ण इति नाम ददौ । तस्मिन जनिते सते सतरोगेण सतामाता क्रमाद्वधमाने तस्मिन् राज्यभार वदा सबयिन्या भोजो राजा द्वाभ्यां दानस्पी क्रियते । ततस्ताभ्यां मिथो शापितं य एकस्मिन् दिने संपूर्ण प्रासादं कारयिष्यति तेन जितं ततः कर्णेन यामचतुकेण संपूर्णः प्रासादः कारितः। तस्मिम् लिङ्गमपि स्थापितं भोजेन । ततस्तस्य प्रासादस्य कर्णमेरुरिति नाम जातम् ।
इति कर्णसम्बन्धः ॥३०॥
[302] अथ मरणसमये वृद्धभोजसम्बन्धः । वृद्धभोजेन म्रियता स्वसेवकस्य प्रोक्तं मया पुण्यं न कृतं तेन कृपाणस्याप्रे मम कृष्णं हस्तं 10 स्वा स्थाप्यः । यदा लोकाः पृच्छन्ति तदा प्रोक्तव्यं । राज्ञा प्रोक्त क्रियमाणमस्ति । सतो वृद्ध
भोजसेवकैर्लोकप्रबोधाय धर्म कृष्णो हस्तो भोजस्य दर्शितः । लोका भोजस्य मरणचेष्टितं श्रुत्वा दानिनो आताः । इति मरणसमये वृद्धमोजसम्बन्धः॥३०२॥
[303 ] अथ वस्तुपालमन्त्रिणः १२ यात्राशकुनकथा । वस्तुपासमंत्रीशस्य प्रथमयात्रायां चलत आदो दुर्गा विपरीता जाता । यदा मन्त्री स्थित16 स्तिदा सारवकोऽवग-चल्यवां मन्त्रीश ! १२ यात्रा भविष्यन्ति । मन्त्री कथमेवं ज्ञायते ।
सोऽवग् यस्मिनावासे उपविश्य दुर्गा रवं चकार । तस्य निष्पन्नमानस्य १२ स्थरा निष्पन्ना दृश्यन्ते, अत उच्यते मया । ततो मन्त्री तो शकुनं लात्वा चचाल | ततः १२ यात्रा अभूवन्x प्रयोदश्यां यात्रायां अर्द्धमार्गे उत्पमज्वरस्य अङ्के (ओं) वालकग्रामे स्वर्गगमनं मन्त्रिणोऽजनि ।
इति वस्तुपालमन्त्रिणः १२ यात्रीशकुनकथा ॥३०३॥
[304] अथ शत्रुजयतीर्थप्रमावे शूरकथा । कलापकपुरे मवनभूपतेः पत्नी प्रेमवती पुत्रः शूरः स च उत्कटः । एकदा राजा पुरोधाने गतः। तत्रैका श्वेताम्बरधरा नारी प्राह-भो भूप ! अहं यदि तव पत्नी स्यां तदा तव राज् वर्धते । राजा जगी आगच्छ, पत्नी भव । ततः साऽवग- त्वं गृहे गच्छ अहं तव पृष्टी भागमिष्यामि । ततो राजा गृहे गतः ।
इतो कस्माद्वैरिचक्रणागत्य पुरं वेष्टितं । राजोत्थाय युद्धं कर्तुं लग्नः । ततो महद्वलं वीक्ष्य पुरमध्ये भूप: प्रविष्टो दध्यौ । वैरिसेना तु महती तेन किं करिष्यते ! अहं तया खिया
वाहितः शम्दच्छलात् , तव राज्यं वर्धते वर्धते च । वर्धनं विध्यापनं च कथ्यते । दीपो ४ इत्येतद् C. संझकप्रतो नोपलभ्यते ।
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द्वितीयोऽधिकारः
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वर्ध्यता दीपः क्षयं नीयताम् । अतो राज्यं गतम् । सा स्त्री दरिद्रिणी यदि साम्प्रतं नश्यते तदा वरम् । जीवमरो भद्राणि लभते । एवं विमृश्य राजा पत्नी पुत्रयुतः किंचिद्धनं लावा छन्नं रात्रौ पुराभिर्ययो । पथि गच्छतो भूपस्य धनं भिल्लेलुटितम् । क्रमाद्धनाभावात्परिवारो गतः । ततो राजा पत्नीपुत्रयुतः पादचारी जातः । पदेषु कण्टका भज्यन्ते । रुधिरं निर्गच्छति । क्रमात्तषा लग्ना । ततो राजा दूरं गत्वा पानीयमानीय पत्नीपुत्री पायितो । फलाहारं कुर्वाणो राजा पधपुरे गतः । तत्र राजानं सेवते स्म । किमपि न लभते । ततः काष्ठेन्धनतृणादि वनादानीय विक्रीय च स्वोदरं बभार भूपः सकुटुम्बः एवं तस्याम्दाष्टकं गतम् ।।
इतोऽन्यदा कयाचिदेवतया तत्पुण्यप्रेरितयाऽभ्येत्य प्रोक्तम् । गच्छ स्वपुरे । तत्र छमं स्थेयं वैर री अपत्रको मरिष्यते । तव राज्यं भविष्यति । ततस्तेन देव्योक्ते कृते वैरिणि मृते राजा बभूव । मदनः क्रमाद्राजा । मदनः पुत्राय राज्यं वितीय परलोकमसाधयत् । स शूरराजा 10 कुसंसर्गादिन प्रति [प्रतिदिनं ] बहून्पशून् हन्ति । सचिवैः प्रोक्तं-ईदृशी जीवहिंसा न क्रियते नरकहेतुका । ततो न शूरस्तस्थौ तस्मात्पापात् । ततस्तीर्थध्वंसं चकार। एवं पापपरःशूरः कुष्ठीजातः। अनेक वैश्विकिरिसतोरोगो न गतः । ततो गङ्गागयादितीर्थेषु स्नानानि चकार । राजा [:] तथापि न गुणोऽभूत् । ततोऽतीवजातान्तिः सचिवान्प्रति प्राह-अहं जीवितुं न शक्नोमि ! काष्ठभक्षबेन देहं त्यक्ष्यामीति । ततो मन्त्रिणो जगुः । काष्ठभक्षणात्कृतकर्मणो न छुट्यते । ततो यदा 15 राजा काष्ठभक्षणायाचालसदा तत्राकस्मात् ज्ञानी समागात् । ततस्तं गुरुं भूपोऽप्राक्षीत् मम कथं रोगोपशमो भविष्यति ! ततो बानी जगौ। शत्रुजये गम्यते । तत्र चन्द्रकुण्डे स्नानं कृत्वा श्री ऋषभदेवस्य पूजा क्रियते । सप्त षष्टानि, एकमष्टमं च । राजादन्या अधःस्थितया मृत्तिकयाचं लक्ष्यते २१ दिनानि यावत्, तदा रोगो याति तव । ततो हान्युक्ते कृते राजो रोगो गतः । ततो राजा महान्तं तत्र प्रासादं कारयामास । तत्र ऋषभस्य प्रतिमामस्थापयत्। 20 श्री शत्रुञ्जये यात्रा विस्तराच्चकार । ततः शूरः स्वं सुतं राज्ये न्यस्य शत्रुजये गत्वा तपस्यां लात्वा सर्वकर्मधयान्मुक्ति ययौ ।।
इति शत्रुञ्जयतीर्थप्रभावे पूरकथा ॥३.४ ॥
[305] अथ भाम्ये चन्द्रकथा । चन्द्रपुरे चन्द्रो वणिग दुःस्थोन्यदा नदीतटे गतः । तत्राकस्मानदीवर्ट पपात । तत्र 25 निधिं प्राप । ततोऽन्यदा भूपपार्वे भूमि मार्गयित्वा आवासं कारयितुं चन्द्रो लग्नः । तदा तत्र भूमि खनयतस्तस्य कोटिमितं धनं निर्गतं । तद्राको दर्शितं चन्द्रेण । राजाऽवग--मया तु भूरियं तुभ्यं दत्ता । ततोऽधुना तव पुण्यानं निर्गतं । ततस्त्वमेव गृहाण । ततश्चन्द्रः सर्वज्ञप्रासादान् धर्मशालाश्च भूरिशः कारयामास सप्तक्षेत्र्यां लक्ष्मी व्ययति स्म । चन्द्रः स्वर्ग गतः क्रमात्सेत्स्यति । इति भाग्ये चन्द्रकथा ॥३०५॥
30 [306 ] अथ मेघवातसंवादसम्बन्धः । एकदा मेघवातो मियो जल्पतः स्मेति । मेघोऽवग-अहमेव लोकं जीवयामि वारिदानात ।
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प्रवन्धपश्चशती वायुराचप्टे-त्वया किं स्याद्यद्यहं वयं न वामि, तदा तव वृष्ट्योत्पादितं धान्यं विनझत्येव, तेनाहमेव जगज्जीवयामि । अहमेव यावल्लोकानां शरीरे तिष्ठामि तावल्लोका जीवन्ति यदाऽहं गतः तदा स मृत एव ।
मेघोऽवग-मत्कृत्यं पश्य । ततोऽवसरेऽवसरे विलोक्यमानस्तथा मेयो ववर्ष यथा 5 लोकानां शस्यमुद्गतां कणभवनं यावर्द्धितं । इतोऽकस्माद्वातस्तथा वाति स्म यथा सर्व शुष्क
मेकस्मिन् वर्षे मेघो वृष्टो नैव, तदा लोकैर्धान्यमुप्तमपि न । ततो लोकैरुक्तं-भो मेघवातौ ! युवामेकीभूय जगज्जीवयथो नो चेन्मरिष्यति जगत् । ततो वातमेघौ प्रीतिभाजी तथा चक्रतुः यथा बहु सस्यं जातं । लोका अन्ये जोवा अपि यथा सुखिनोऽभूवन् ।
इति मेधवातसंवादसम्बन्धः ॥३०६।।
[ 307 ] अथ निःस्वत्वानिःस्वत्वयोर्वीरकथा । एकपुरे देवउश्रेष्ठिनो धनवोरातौ द्वौ पुत्रौ, धोमती श्रीमत्यहे पुत्र्यो बभूवतुः । सर्व परिणायिताः श्रेष्ठी परलोकं ययौ । द्वौ सोदरौ पृथग्जातौ । क्रमादेको धनी अन्यो दुःस्थोऽजनि ।
एकोदरसमुत्पन्ना, एकनक्षत्रजातकाः । न भवन्ति समाः शीला, यथा बदरीकण्टकाः ॥१॥
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यथा सोदर्यो मिलनाय यातः तदा वृद्धस्य भ्रातुः लक्मोत्वात्सोदयौँ भक्ति चक्रतुः, लघोस्तु निःस्वस्य न । एकदा लघुता लक्षयर्थ कस्यचित्सार्थस्य सार्थे विदेशं प्रति चचाल । मार्ग भगिनीपुरं समागात् सरःपालौ साथैः स्थितः ।
इतो वीरभगिनी जलाय सरसि समागात् , तया भ्राता जीर्णत्रुटिताम्बरो निःस्वो दृष्टः, 20 तदा भगिनी भ्रातुः संमुखमपि न व्यलोकयनिःस्वत्वात् । वोरो दध्यौ भगिन्यादिकः सर्वः
श्रियं मन्यते, न भ्रातरं । ततोऽने चचाल कर्मयोगाद्वह्नीं श्रियमर्जयित्वा पश्चादागच्छन् तस्यैव सरसः पालौ स्थितः । भ्रातरमर्जितबहुधनं श्रुत्वा तत्रागत्य भगिनी जगौ-सोदर ! गृहे आगच्छ । ततो वीरो भगिनीगृहे गतः। भगिन्या क्या रसवतो कृता । स्नानादि कारितं वयं ।
भाजनं मण्डितं जेमनायोपविष्टः । भगिन्या पक्वान्नादि परिवेषितं यदा तदा वीरो वर्यक25 ण्डलरत्नमुद्रिकाभरणानि भाजने मुमोच । प्राह च-भो कुण्डलकेयूरमुद्रिकाः! पक्कानं भक्षयत ।
एवं पुनः पुनर्जल्पति सोदरे भगिनी प्राह-भ्रातरेवं किं पुनः पुनः जल्प्यते । भ्राता प्राहभगिनि ! इदं मोदकादि सर्व कुण्डलकेयूरप्रभृतिविभूषणवस्तुधनानां परिवेषितं विद्यते । मम परिवेषितं नास्ति किन्तु श्रियाः कुण्डलादिरूपायाः । यदाऽहमप्रतश्चलितस्तदा त्वया सन्मुखमपि
न वीक्षितं मयि निर्धनत्वाधुना सधनत्वादेवं भक्तिः क्रियते मम, अतोऽहमेवं जल्पन्नस्मि 30 मुद्रिकादीनां पुरः । ततो भगिनी भ्रातरं क्षमयामास । अहं मग्धा त्वमेव धन्यः । ततो भागा
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द्वितीयोऽधिकार
[ १७५ सर्वमाभरणादि भगिन्यै ददौ । ततो जिमित्वा वीरोऽवग्-लोके धनमेव, न भ्रात्रादयः ।
इति निःस्वत्वानि:स्वत्वयोर्वीरकथा ॥३०७॥
[ 308 ] अथ यशोदाने याचकसम्बन्धः । हेमपुरे एकः क्षत्रियो याचको भूत्वा सोमं धनिनं घोटिकादि याचनाय गतो बिरुदावलीमिति जगाद
वैरिकुम्भिकेसरि ! त्वं चैरविजित्वर ! त्वं ।
दानजितार्जुनकर्ण ! त्वं सत्येन युधिष्ठिर ! त्वम् । एतत् श्रुत्वा तेन घोटको दत्तस्तस्मै । इतोऽन्येद्युस्तस्य धनिनः पुरः एकः समागतो जगौ
“यथाऽन्ये दानं ददते तथा त्वं कथं दरसे त्वं गृहशूरः" इत्यादि श्रुत्वा तस्मै गालिं ददौ ।
इति यशोदाने याचकसम्बन्धः ॥३०८॥ {309] अथ जिनप्रभसूरिभिः पीरोजसुरत्राणः प्रतियोधित इति सम्बन्धः ।
ढिल्यां श्रीविजयसिंहसूरय आगताः। श्राद्धा धर्म श्रुत्वा प्रोचुः । गोजनकसुरखाणो म्लेच्छोऽनेकान् जिनप्रासादान पातयन् केनापि निषिद्धुं न शक्यते । ततो गुरुभिः ध्यातं यदि केपि देव आराध्यते तदा सुरत्राणमनुकूली करोमि तथा यथा प्रासादान् न पातयति । ___इतो धर्मोपदेशावसरे गुरुभिः प्रोक्तं प्रासादाः कार्यन्ते मुक्तिहेतुत्वात् । श्राद्धैरुक्तंअप्रेतना: पात्यमानाः सन्ति यवनैनवीनाः कथं कार्यन्ते ? यदि वः शक्ति स्यात्तदा रक्ष्यन्ता प्रासादाः । गुरुभिः प्रोक्त-यदि ष[षा ण्मासी यावत्पद्मावतीध्यानं क्रियते तत्र ध्यानं कुवतो यस्य साधुभिर्विहृत्यानीतमन्नं पद्मिनी परिवेषयति । सा पार्श्वे अहोरात्रौ तिष्ठति । तस्य चेद्ध्यानं निश्चलं भवति मनोऽपि न चलति तदा पद्मावती स्मृता सती सदा चिन्तितं करोति । श्राद्ध रुक्तं-यद्विलोकयिष्यते तदस्माभिरानेष्यते । ततो गुरुभिर्मानिते पद्मिनी स्त्री आनीता । गुरुभिः {षा]षण्मासी यावन्निश्चलं ध्यानं कृतम् । पद्मावती प्रत्यक्षाऽभूत् यदा तदा गुरवो न जल्पन्ति । ततः पद्मावती प्राह-भगवन् ! कथं न जलप्यते, प्रसन्नीभूय अल्प, ममापराध क्षमस्व । त्वया यदा ध्यानमारब्धं तदाऽहं प्रभोः पार्वे समागां परं जल्पितुं न शक्ताऽभूवं कारणात् । गुरुः प्राह-कि कारणं पद्मावत्याह-भीपूज्यपादबलात् ध्यानादहं समागता परं स्तोकमायुदृष्ट्वा विमर्श पतिताऽहं । गुरुराह-मम कियदायुरस्ति ? पद्मावत्यवग--पाण्मासीमेव । गुरवो जगुःआयुषधेते न तथापि तथा कुरु यथा मम ध्यानं सफलं भवति । पद्मावती जगौ-तव शिष्यस्याहं प्रत्यक्षा भविष्यामि । गुरुः प्राह-को योग्यो यस्य प्रत्यक्षा भवसि । पद्मा प्राह-गच्छमध्ये
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प्रबन्धपञ्चशती न दृश्यते शिष्यः । गुरुः प्राह-अन्यत्र यो मम पट्टयोग्यः स्यात्तस्य [स्मै दीयते । पाऽग--
गलिककोटकपुरे जिनदत्तश्रेष्ठिनः सप्त पुत्राः सन्ति । तेषां सप्तमो भूमिगृहे वर्धमानोऽस्ति लघीयान् । गुरवो जगुः-परं स दुरो लषोयान मुग्धः । पद्माऽवग-दरेऽपि स्थित आसनो भविष्यति । ततः पद्मावत्या गुरवः शीघ्रं तत्र नीताः । उपदेशः श्रेष्ठिनो दत्तः । श्रेष्ठो जगौ कि कार्य गुरवो जगुः यः सप्तमः पुत्रस्तवास्ति स दीयता । श्रेष्ठो जगौ पद्मावत्या जल्पितं भवतः सप्तमो मम पट्टे सूरिभविष्यति । ततः श्रेष्ठिनापिन: गुरवस्तं लात्वा पश्चादागताः स दीक्षितस्तस्य सूरिमन्त्रोत्र] ददे। पद्मावत्या स्वा विद्या ददे प्रोक्तं च-यदा तव कार्य स्यात्तदा. ऽहं स्मरणोया । जिनप्रमसूरि नाऽजनि । गुरवः स्वर्ग जग्मुः । पद्मावतीसान्निध्याद्यन्मनसि चिन्तयंति तसिध्यति । क्रमात्सम्पूर्ण विद्यावन्तो जाताः ।
एकदा श्रीजिनप्रभसूरयो राजमार्ग पीरोजसुरत्राणप्रधानेन वन्दिताः । तत्र सुरत्राणेन गवाक्षस्थेन दृष्टं ! गुरव आकारिताः पृष्टं च भूपेन । भवद्भिः किं ज्ञायतेऽतीतानागतादि तदा गुरुभिः प्रोक्तं-ज्ञायते किमपि न तथापि किमपि ज्ञायते । ततो राझाऽन्यदा स्वमुद्रिका छन्नं चित्रशालायां स्तम्भमध्ये तथा क्षेपिता यथा कोऽपि न जानाति । ततो गुरवः पृष्ठाः-अस्मन्मुद्रिका क्वास्ति ? ततो गुरुणा तृणवृश्चिकः कृतः उक्तं यत्र सुरत्राणमुद्रिकाऽस्ति तत्र गच्छ । मुद्रिका प्रकटोकुरु । ततो वृश्चिको परवृश्चिकवच्चलन स्तम्भे चटित्वा मदनमपसार्य मुद्रिका प्रकटीचकार । ततोऽवग राजा चौरं दाय । ततः स राजपार्श्व गतः । ततो राजा चमत्कृतः राजा यद्यत्पृच्छति तत्तत्ययावत्याः सानिध्यात्कथयति । सुरत्राणोऽवम्-मार्गय वाञ्छि । गुरुभिः प्रोक्तं-अयप्रभू ति जिनप्रासादा न पातयितव्याः । ततः सुरत्रागोऽवग -ये पातितास्ते पातिताः अतः परं न पातपिप्यन्ते। श्रीजिनप्रभसूरिभिा सुरत्राणः शत्रुद्ध ये यात्रा कारितः एवं गुरुमामवराता बहनोऽभूवन । इति जिनप्रभसरिभिः सुरत्राणः प्रतिबोधित इति सम्बन्धः ॥३०९॥
[310] अथ स्ववस्तुस्वभावाकथने वणिग्दृष्टान्तः । एको वणिक कयाणकः सकटं भृत्वा पुरं प्रत्यचउत् मार्गे शुलिको मिलितः । तेन पृष्टं-किमस्ति शकटे !
बणिकप्राह--खेरोझेरो । झुल्किनोक्तं-लिखितं पुनः पृष्टं किमस्ति !
तेनोक-उलूंपेलु ! इति सक्ते बहुशो यदा पृच्चन तिष्ठति झुल्की तदा स स्पर्धकत्रयं हस्ते मुमोच न पुनर्वस्तुनो नाम जगौ श्रेष्ठी !
इति स्ववस्तुस्वभावाकथने वमिष्टान्तः ।।३१०॥
[311] अथ मौट्यविषये विधवापुत्रसम्बन्धः । कस्या अपि विधवायाः पुत्रो व्यवसायं कुर्वन्नेकस्यापि कायस्य पारं सन्ध्यायामपि न
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याति । कार्याणि बहूनि आरभते न कस्य पारं गृह्णाति । ततो विचाले कार्याणि मुखति । एकदा मात्रोक्तं- पुत्र ! तब पिता यत्कार्यं कर्त्तुमारब्धवान् तस्य पारं नीत्वैवामुञ्चत् । एतन्मातुर्बचनं श्रुत्वा एकदा भाद्रमासमत्तशंडस्य क्षेत्रे प्रविष्टस्य हक्कयितुं धावितः, पुच्छे विलग्नः स शण्डः क्षेत्रमध्ये इतस्ततस्त्वरितं स्वरितं धावति । मातुर्वचः स्मरन् शण्डस्य पुच्छं यदा नामचत् तदा लोकैरुक्तं - मुब्च शण्डपुच्छं नो चेत् यमसद्मनि यास्यसि । तेषामग्रे प्राह स मम 5 पिता समारब्धं कार्य कदापि नामुञ्चत् । अहमपि पितृवत्कार्य कुर्बाणोऽस्मि एवं जल्पन् स मृतः । माता दुःखिनी जाता ।
इति मत्यविषये विधवापुत्रसम्बन्धः ॥ ३११ ॥
[312] अथ कातरत्वे तम्बोलिककथा ।
एकदा तम्बोलिकगृहे गृहोलिका निरगात् तदा श्रेष्ठः तम्बोलिको बिभ्यन् बहिः कर्षयितुं 10 न शशाक । स वधूं प्रति प्राह - गच्छ चतुःपथे कंचन पुरुषं चतुःपथादाकारय । यथा स eaf बहिः कर्षयति सा च स्वसुर वचोऽङ्गीकृत्य चतुःपथे गता लज्जया कमपि पुरुषमाकारयितुं न शशाक । ततः पश्चादागात् । तम्बोलिकोऽवग्-- कोऽपि पुरुषो नाकारितः । सा प्राह-- भा भा भा भा त्वमपि पुरुषोऽसि । ततस्तेनोक्तं-वधु ! वरं प्रोक्तं अहमपि पुरुषोऽस्मि परं कातरत्वात्खलक्षणोऽस्मि । ततो वध्वोक्तं भा भा भा भा सत्यं प्रोक्तं, एवं जल्पतोस्तद् 15 योर्गृहोलिका गृहाद्वहिर्निर्गता यदा ताभ्यामुक्तं वरं जातं । गृहोलिका स्वयमेवात्मनो भाग्यागृहान्दहिर्निर्ययौ । इति कातरत्वे तम्बोलिककथा ||३१२||
[313] अथ पापानुबन्धि धर्मानुबन्धि भवतीति विषये कथा |
कस्मिंश्विदेवाकूले धनी धर्मभूत्तिर्धर्मं करोति, दानं दत्ते । अन्यदा श्रेष्ठी चतुःपथे गतः तदा तत्र मज्जिष्टवाहिकानि विक्रेतुमानीतानि सन्ति । तदा सप्ताg त्राहिकानि लात्वा 30 व्यवहारिणो गताः । त्रीणि वाहिकानि स्थितानि तेषां कोऽपि लाता न । ततो धनस्तान्यपि arrer गृहे मागात् । रात्रौ सुप्तो धनः । कोऽप्यागत्य स्वप्नेऽवदत्तस्य यानि त्राहिकानि त्वया गृहीतानि तानि विलोक्यैव विक्रेतव्यानि । तव गृहे कल्पद्रुमाः समागताः । ततो जागरितस्तेषु रत्नपञ्चकं दृष्ट्वा स धर्ममूर्त्तित्राहिकदातृपार्श्वे गत्वा प्राह - भवद्भिः सत्यं प्रोच्यतां । कुत्र गृहीतानि त्राहिकानि । तैरुक्तं - स्तेनोपान्ते । ततस्तेन चिन्तितम् - एतद्वनं 25 धर्मे व या व्ययितव्यं ततस्तद्धनं सर्वं परकीयमिति वदन् जिनप्रासादान् कारयामास । ततस्तेन पापानुबन्धि धनं धर्मानुबन्धि कृतं ।
इति पापानुबन्धि धर्मानुबन्धि भवतीति विषये कथा || ३१३ ||
[314] अथ स्वकौशल्यदर्शने जिनप्रभसूरिकथा |
गुरुपार्श्वे अद्य मम शुद्ध आहारो दातव्यः । ततः श्रीगुरुभिः शुद्धाहारेण श्रीजिनप्रभसूरयो 30
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१७८ ]
प्रबन्धपञ्चशती
गौरविता: वासनं स्थिताः । प्रातः प्रतिलेखनावेलायां प्रतिलेखनां भाणयित्वा सर्वे साधवः प्रशक्किकां यतनयोचार्य प्रतिलेखनां कर्तुमुपविष्टाः, तदा तादृशी सामाचारी दृष्टा जिनप्रभसूरयो जगुः । धर्मोऽधुनाऽत्र विजयते । तदा एकस्य यतेगुब्छकादिवस्त्राणि आखुना भक्षितानि । तेन साधुना गुरुणां (भ्यः) तानि (दर्शितानि) ततश्चमत्कारार्थ श्रीजिनप्रभसूरिमिः प्रोक्तंशालास्थैरुन्दरैः सर्वैरत्रागम्यम् ! ततः क्षणात्सर्वे उन्दरा आगताः, संमुखहस्तौ योजयित्वा स्थिताः । गुरुभिः प्रोक्तं-यैः साधुशिक्किका भक्षिताः तेऽत्र तिष्ठन्तु अन्ये न तिष्ठन्तु। अद्यप्रभृति अन्यायो न कार्यः । ततस्तेऽपि सर्वेषां साधूनां पदेषु पतित्वा स्वस्थाने गताः ।
इति स्वकौशल्यदर्शने जिनप्रभसूरिकथा ॥३१४॥
[315] अथ भक्त्यभक्तिविषये भ्रातद्वयकथा । 10 श्रीपुरात् द्वौ सोदरौ श्रियै निर्गतौ । कस्मिंश्चिन्नगोपान्ते कस्यचित् सिद्धपुरुषस्य पार्वे
तुम्बकबीजानि प्राप्य तेषां माहात्म्यं पप्रच्छतुः। तेन शुद्धनरेण प्रोक्तं-क्षेत्रं झतवारं कृष्यते बीजानि तत्र पुष्या रोप्यन्ते, तेषां तुम्बकानां फलानि पत्राणि छायायां शुष्यन्ते । ततश्चूर्ण क्रियते । नम वह्निना रक्षा क्रियते । ६४ गदीआनकत्रपुमध्ये एकगदीआनकं क्षिप्यते स्वर्णभवति ।
ततस्तौ तानि लात्वा गृहे आगतौ वृद्धेन भ्रात्रा शुद्धपुरुषोक्तविधिना भक्तिपूर्वकं शुद्धपुरुषनाम16 स्मरणपूर्वकं स्वर्णं कृतं । लघुभ्राता अवहीलनपूर्व 6 वारकर्षितक्षेत्रे शुद्धपुरुषोक्तविधिना रूप्यं
चकार । बीजानि तु रक्षितवान् , वृद्धभ्राता तु तानि रक्षितबीजानि पुनरुप्त्वा स्वर्ण चक्रे । ततो यावजीवं सुखी जातः । लघु ता तु एकवारं रूप्यं कृत्वा तच्च भक्षित्वा दरिद्रो जातो दुःखी च । एवं च गुरूक्तं बहु मन्यते स सुखी स्याद् वृद्धभ्रातृवत् । यस्तु गुरूक्तमवमन्यते स लघुभ्रातृवद् दुःखी भवति । इति भक्त्यभक्तिविषये भ्रातृद्वयकथा ॥३१५॥
[316] अथ साधुशकुने मित्रद्वयकथा । द्वौ सुहृदौ मार्गे चलितो। वर्त्मनि साधू मिलितो । वृद्धेन साधू वन्दितौ । लघुना तु हसितौ साधू । ततोऽये गच्छतो वृद्धस्य श्रीपुरे अपुत्रमृतभूपस्य राज्यमभूत् । अपरस्य ज्वरश्चटितः । चिरं मोघं मुक्त्वा मृतः ।
इति साधुशकुने मित्रद्वयकथा ॥ ३१६ ॥ 25
[317 ] अथ अवहेलनायां भरटककथा । एकस्मिन् ग्रामे भरडको वसति स्म । इत आसन्नग्रामे भीमकौटुम्बिकेन बहवो लोका जेमनायाकारिता सन्ति । ततः पत्नी भरटकं पतिं प्रति प्राह-त्वं क्षेत्रे गच्छसि । यदि कदाचित्तव जेमनायाकारणमागच्छति तदा क उत्तरो दीयते ? तेनोक्तं--अस्य पापिनो गृहे को याति ! यदि कदाचिदायात्याकारणं तदा प्रोच्यम् । अस्मिन्नासन्नक्षेत्रे भरटकोऽस्ति । एवं
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द्वितीयोऽधिकारः
[ १७६
प्रोच्य स क्षेत्रे गतः । इत आकारणं नायातं । ततः सन्ध्यायां भरटक आगतः । पत्न्योक्तं - भवत आकारणं नायातं । भरटकोऽवग्— तस्य कृपणस्य गृहे को याति ।
इति अवहेलनायां भरटककथा ||३१७॥
[318 ] अथ श्रीविक्रमादित्ययात्राप्रबन्धः ।
विक्रमादित्यस्य
श्रीसिद्धसेनदिवाकर प्रतिबोधितस्य
श्रीशत्रुञ्जयादितीर्थयात्राविस्त - 5
रोऽयम्
श्रीसंघे चतुर्दश नृपाः मुकुटवर्धनाः, ७० लक्षा श्राद्धकुटुम्बानाम् । श्रीसिद्धसेनदिवाकरादयः ५०० सूरीणां चलनम् । ६९ सौवर्णदेवालयाः । एककोटि १० लक्षनवसहस्रमितानि शकटानाम् । १० लक्षतुरङ्गमाः । षट्सप्ततिशतानि गजानाम् । एवं करभादिसंख्या ज्ञेया । तत्र तीर्थोद्धार
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राजा क्रमाद्वत्सरावधि लोकमनृणीकृत्वा स्वनाम्ना संवत्सरं प्रावीवृतत् । हेमपुरुषद्वयं जातमनेका उपकाराः कृताः । इति श्रीविक्रमादित्ययात्राप्रबन्धः || ३१८॥
[319] अथ सप्तक्षेत्रेषु आभूव्ययप्रबन्धः ।
थिरापद्रे संघवी आभूः श्रीश्रीमालज्ञातीय: पश्चिममण्डलीक बिरुदं वहन् बभूव । तथाहि
15
कमल श्रेष्ठी स्वां पुत्रीं दातुं थिराप भीमश्रेष्ठिनः पुत्राय गतः । शकुनाभावाद्विवाहो नामित् । ततो यदा पश्चाद्वलते तावदेकेनोक्तम् - अस्य श्रेष्ठिनो भागिनेयो वर्योऽस्ति । दोयते पुत्री स चाधुना कल्हरीं कुर्वाणोऽस्ति यावत्तत्र यति श्रेष्ठी तावदेकः पुमान् असौ श्रेष्ठिभागिनेयोऽभ्रं यावद्विस्तरितोऽस्ति । सर्वेषामप्युच्चोऽस्ति श्रुत्वेति तेन तस्मै पुत्री दत्ता । आभूनाम जातं । क्रमान्निधानप्राप्तिराजबहुमानादि वा यस्य यात्रायां ७०० देवालयाः द्वादशकोटि- 20 स्वर्णव्ययः प्रथमयात्रायां कृतः । ३ त्रिकोटिटकैः सरस्वती भाण्डागारे वर्त्तमान सर्वागमप्रतिरेका, atara द्वितीया सर्ववर्त्तमानप्रन्थप्रतिमंध्यक्षरमयी । ३६० आत्मसदृशाः साधर्मिकाः कृताः । संधे ७०० महिषाः पानीयानयनाय । ७०० आचार्यपदानि कारितानि । सूनेतरमाहृतमामयोः सारू ! आरघाटमयौ प्रासादौ कारितौ । संस्तारकदीक्षावसरे कोटिद्रव्यव्ययः कृतः । इति सप्तक्षेत्रेषु आभूमबन्धः ||३१९||
[320] अथ पेथ प्रबन्धः ।
मण्डवदुर्गे संघपतिपेथडेन प्रथमयात्रायां १ लक्षा टङ्का रूप्यमयानां व्ययवके । संघे ७ क्षं मनुष्याणां देवालया ५२ । मण्डपगढे जैनप्रासादशतन्त्रयोपरि स्वर्णमया कलशाः कारिताः । श्रीधर्मघोषसूरोणां पेथडसंघपतिना प्रवेशमहोत्सवे ७३ सहस्रव्ययः कृतः । मृगुकच्छे यो
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१८० ]
प्रबन्धपश्चशती
भाण्डागार लीलिखत् । ८४ प्रासादाः कारिताः । श्रीगिरनार महातीर्थे युगपदेव श्वेताम्बर दिगम्बरः श्रीसंघः प्राप्तः । श्वेताम्बरदिगम्बराणां मिथः तीर्थविवादोऽजनि । संघपतिद्वयस्यापि मध्ये यः इन्द्रमालां परिधास्यति तस्य तीर्थमिदमिति । वृद्धचतुर्जनोक्तौ पेथडसंघपतिना सुवर्णस्यैव ५६२१ घडी प्रमाणस्येन्द्रमाला परिधापनं चक्रे । तीर्थं च स्वकीयं कृतं येन धर्मघोषसूरोणां 5 पार्श्वे परिग्रहपरिमाणं पूर्व गृहीतं टङ्ककद्वयशतप्रमाणाभिप्रहे सति पुरुषभाग्यं निःसीमत्वमिति । श्रीगुरुवचनेन लक्षत्रयप्रमाणद्रव्याभिग्रहो गृहीतः । ततोऽप्यधिकद्रव्यप्राप्तौ देवगुरुयोग्यमिति नाम दत्तं । द्रव्ये तस्य सुतः झांझणदेवः समजनि । तेन श्रीशत्रुब्जयगिरिनारमहातीर्थयोरेकैव ध्वजाः पञ्चवर्णाः स्वर्णरूप्यपट्टकूलादिमया दत्ता । तेन राजाधिराजस्य सारङ्गदेवस्य जेमनानन्तरं कर्पूरार्पणसमये द्विहस्त योजनप्रभृतिविधानं कारितं । एकः प्रासादो देवगिरौ 10 कारितस्तत्र अष्टौ कोट्यः षण्णवतिलक्षाः ८४ सहस्रदोररजुषाणानामुपरि चटनार्थं एकलक्षटङ्काatra | इति पेथडप्रबन्धः ॥ ३२० ॥
[ 321 ] अथ सम्प्रतिप्रबन्धः ।
।
सम्प्रतिभूपेन सपादको टिजैनप्रतिमाः कारिताः । सपादलक्ष जैनप्रासादाः कारिताः सिन्धुदेशमध्ये मरोटग्रामे ९५ सहस्रप्रतिमाः पित्तलमया अद्यापि सन्ति । ७०० दानशालानां [ यां] 15 येन स्वकीया वण्ठाः साधुसामाचारी शिक्षयित्वा साधुवेषेण सर्वत्र देशमध्ये प्रथमं प्रेषिताः पश्चात्सत्यसाधवः प्रेषितास्तत्रानार्यदेशे । ३६ सहस्रनवीनाः प्रासादाः । अन्येऽन्यत्र बहवो जीर्णोद्धाराः कारिताः । बहुविस्तरपूर्वं रथयात्रा । इति सम्प्रतिप्रबन्धः || ३२१ ॥
[322] अथ कुमारपालप्रबन्धः ।
श्रीपतने श्रीकुमारपालेन पितुस्त्रिभुवनपालस्य प्रासादः कारितः । ७२ देवकुलिकायुतः, 20 २४ प्रतिमा रत्नमयाः, २४ प्रतिमाः पित्तलस्वर्णमयाः, रूप्यमयाः १४ । १४ भारमयाः मुख्यप्रासादे १२५ अङ्गुलप्रमाणारिष्टरत्नमयीप्रतिमा कारिताः । तत्र द्रव्यव्ययः ६६ लक्षमाणः । सर्वत्र स्वर्णमयाः कलशाः । आसादे आम्बडमन्त्रिणा मङ्गलप्रदीपावसरे ३२ लक्षा दीनाराणां याचकेभ्यो दानं दत्तं । लक्षमध्ये दानं न यस्य कुमारपालस्य |
इति कुमारपालप्रबन्धः || ३२२||
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[323] अथ वस्तुपालदानप्रबन्धः ।
तथा श्रीवस्तुपालेम हेममया लक्षटङ्का आरात्रिकावसरे दत्ता याचकेभ्यः । खीजनावसरे सोमेश्वरेणोक्तमिदं काव्यम्-
इच्छामि द्विसमन्विते सुरगणे कल्पद्रुमैः स्थीयते,
पाताले पवमानभोजनजने कष्टं प्रन[ण]ष्टो बलि
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द्वितीयोऽधिकार
[ १८१ नीरागानगमन्मुनीन् सुरगवी चिन्तामणिः क्वाप्यगात् ,
तस्मादर्थिकदर्थनां विषहतां श्रीवस्तुपालः क्षितौ ॥१॥
काव्यं ध्रुत्वा लक्षं ददौ ॥३२३॥ [ 324 ] अथ प्रासादादिपुष्यकरणे हरिषेणचक्रिप्रवन्धः । एकदा हरिषेणचक्री धर्मघोषगुरोः पावें वन्दनार्थे गतः, गुरुभिधर्मदेशना कृता । 5
तथाहिदा हरिषेणचकी
जिणभवणबिंबपुन्थय संघसरूवाई सत्तखित्तेसु ।
ववीअंधणं पि जायइ, सिवफल इम हो अणंतगुणं ॥१॥ सर्वज्ञो हृदि वाचि तद्गुणगणः कायेन देशवतं,
धर्मे तत्परतापरः परिणतो बोधो बुधश्लाध्यता । प्रीतिः साधुषु बन्धुता बुधजने जैने रतिः शासने,
यस्यैवं भवभेदको गुणगणः स श्रावकः पुण्यभाक् ॥२॥ श्रुत्वैतदुपदेशं चक्री प्राह-मया सर्वा भूर्जिनप्रासादमण्डिता कारयितव्या । ततो गृहमेत्य स्वसचिवादिप्रधानान् प्रति प्राहकोशाद् द्रव्यं गृहन्तु प्रामे प्रामे पुरे पुरे सर्वत्र प्रासादान कारयत यूयं । विलम्बो न कार्यः । धर्मस्य त्वरिता गतिविलोक्यते । यतः--
15 अवाप्य धर्मावसरं विवेकी, कुर्याद्विलम्ब न हि विस्तराय ।
ततो जिनस्तक्षशिलाधिपेन, रात्रिं व्यतिक्रम्य पुनने मेने ॥१॥ चक्रिण आदेश प्राप्य मुदिता मन्त्रिणो ग्रामे ग्रामे पुरे पुरे प्रासादान कारयामास । राजा तत्र स्वयं गत्वा गुरूनाकार्य प्रतिष्ठादिकार्य सर्व विस्तरपूर्व कारयामास । एवंविधं पुण्यकृत्यं कृत्वा प्रान्ते त्यक्तराज्यः चारित्रं केवलज्ञानं प्राप्य मुक्ति ययौ ।
इति प्रासादिपुण्यकरणे हरिषेणचक्रिप्रवन्धः ॥३२४॥
[ 325] अथ रावणजिनप्रासादकरणम् । एकदा रावणो व्योम्नि गच्छन् पुरे पुरे तीर्थे तीर्थे प्रासादपंक्तिं वीक्ष्य पप्रच्छ । केनेयं मही जिनप्रासादसुन्दरा कारिता ! मन्त्रिणोक्तं-सम्प्रतिचक्रिणा । ततस्तस्त्र चक्रिणो धर्मकृत्यानि श्रुत्वा रावणोऽपि बहून्प्रासादानहता कारयामास ।
इति रावणजिनप्रासादकरणम् ॥३२५।।
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१८२ ]
प्रबन्धपश्चशती
[326 ] अथ विमलप्रबन्धः । प्राग्वाट्वंशे श्रीविमलो दण्डनायकः । स चिरमर्बुदाधिपत्यमनुभवन् श्रीगूर्जरेश्वरस्य प्रशस्तेः तस्य विमलमतेर्वाञ्छाद्वयमभूत् । पुत्रप्रासादवाञ्छा । तत्सिद्धौ श्रीअम्बादेवी प्रत्यक्षीभूय प्राहभो वत्स ! वाञ्छा-स्वरूपं ब्रूहि ।
विमलोऽवग्-पुत्रप्रासादयोऽब्छाऽस्ति । देव्योक्तं-द्वे प्राप्ती न स्तस्तव, एका ब्रूहि । पुत्रवाञ्छा संसारविवर्द्धिनीमिति मत्त्वा विमलोऽवग्-हे देवि ! अम्वे ! तवोक्तं भवतु ।
देव्यवग्-प्रतीक्षस्व क्षणमर्बुदा प्रष्टव्या । श्रीमातुरनुमतिं गृहणामि । तावद्विमलो भ्याने स्थितः । श्रीमातुःसंमति लात्वा अम्बाऽवग-हे वत्स ! यत्र पुष्पस्रगरुचिरा गहली द्रक्ष्यसि तत्र 10 प्रासादं कारय । तथा दृष्ट्वा प्रासादमस्थापयत् । अष्टकोटिसुद्रव्यव्ययः तत्र प्रासादे, पित्तलमयी प्रतिमा महती स्थापिता संवत् १०८८ । इति विमलप्रबन्धः ॥३२६॥
[327 ] अथ यात्रोपरि पुनडसंघभक्त्युपरि वस्तुपालमन्त्रिकथा । नागपुरे सा० देल्हासुत सा० पूनडश्रीमोजदोनसुरत्राणबोबीप्रतिपन्नबन्धुः अश्वपति-गजपति नरपतिमान्योऽभूत् । सोऽन्यदा गुरोः पावें गतस्तत्र गुरुर्देशना कृता । लक्ष्मीधर्मस्थानेषु स्याप्यते 15 तदा शाश्वती भवति । इहलोकपरलोके च जीवः सुखी भवति । विशेषतो यात्रापुण्यं महत् । यता
आरम्भाणां निवृत्तिविणसफलता संघवात्सल्यमुच्चै--
नैर्मन्यं दर्शनस्य प्रणयिजनहितं जीर्णचैत्यादिकृत्यम् । तीर्थोन्नत्यं प्रभावो जिनवचनकृतिस्तीर्थकृत्कर्मकत्वं,
सिद्धेरासन्नभावः सुरनरपदवी तीर्थयात्राफलानि ॥१॥ अत्वैतत्तेनाद्या यात्रा १२७३ वर्षे बिम्बेरपुरात्कृता । द्वितीया यात्रा सुरत्राणदेशात १२८६ नागपुरात्कर्तुमारब्धा । १८०० शकटानि महान्ति १००० सेजवाला । ४०० वाहिन्यः । ५०० घोटकाः । भूरिशो देवालयाः । भूरिशो महाधराः शुभे मुहूर्ते ततश्चलन् स्थाने स्थाने उत्सवं कुर्वन् माण्डलिकग्रामासन्नो यावदायातस्तावत्संमुखमागत्य तेजःपालेन धवलकककमानीतः श्रीसंघ ।
श्रीवस्तुपालसंमुखमागात् । संघधूलीपवनानुकूल्यतो या दिशं याति तत्र तत्र गच्छति । संघजनैः 25 रभाणि-मन्त्रीश ! इतो रज, इतः पादाववधायताम् । मन्त्री प्राह-इदं रजः पुण्यैः स्पष्टं लभ्यते । अस्मिन्पृष्टे पापरजो दूरे नश्यति । यतः
श्रीतीर्थपान्थरजसा विरजीभवन्ति, तीर्थेषु बंभ्रमणतो न भवे भ्रमन्ति । द्रव्यव्ययादिह नराः स्थिरसम्पदः स्युः, पूज्या भवन्ति जगदीशमथार्चयन्तः ॥२॥
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द्वितीयोऽधिकारः
[ १८३
पूनडसंघपतिमन्त्रिणोर्गाढालिङ्गनादिप्रतिपत्तिः परस्परमभूत् । सरस्तीरे स्थितः संघः, रात्रौ मन्त्रिणा कथापितं पूनडाय, प्रातः श्रीसंघेन सह भवताऽम्मदावासे भोक्तव्यं । तथेत्याह । भोजनमण्डपे निष्पन्ना सर्वप्रकारा रसवती । प्रातरायान्ति नागपुरीया भोजनाय । मन्त्री सर्वेषां पृथक्पृथक्पादप्रक्षालनं तिलकं च स्वयमेव करोति । एवं द्विप्रहरी लग्ना । मन्त्री तथैवाऽखिन्नः तदा तेजः पालेन विज्ञप्तमन्यैरपि तथा देव ! भक्तिः कारयिष्ये । यूयं भुङ्गध्वम् । तापो भावी । मन्त्री प्राह – मैवं वद | पुण्यैरयमवसरो लभ्यते । गुरुभिः कथापितं -
5
जेण कुलं आयतं तं पुरिसं आयरेण रक्खिज्ज | नहि तुम्बंमि विणट्टे, अरया साहाय्या हुति ||३|| मन्त्रिणेदं काव्यं गुरुभ्यः प्रहितम् -
अद्य मे फलवती पितुराशा, मातुराशिशिखाङ्कुरिताऽद्य । यद्युगादिजिनयात्रिक लोकं प्रीणयाम्यहमशेषमखिन्नः ||४|| भोजयित्वा परिधाप्य च रञ्जितः श्रीसंघः ।
इति यात्रोपरि पूनडसंघभक्त्युपरि वस्तुपालमन्त्रिकथा ॥ ३२७॥ [328 ] अथ साधर्मिकवात्सल्ये कथा ।
श्रीकुमारपालो राज्यं चकार । अन्येद्युः श्रीहेमसूरिपार्श्वे गतः उपदेशं शुश्राव । तथाहि - 15 दानं वित्ताद् ऋतं वाचः कीर्तिर्धमों तथायुषः । परोपकरणं काया - - - दसारात्सारमुद्धरेत् ॥ १ ॥ साधर्मिकभक्त्या श्राद्ध उत्तमं पदं प्राप्नोति
पुरा भरतभूपेन, युगादिजिनखनुना । साधर्मकाय विहिता, भक्तिरन्नादिदानतः ||२||
अत्र ब्राह्मणोत्पत्तिर्वाच्या । श्रुत्वैतत्कुमारपालः साधर्मिकभक्ति कुर्वाण एकसाधर्मिकं शालायां चिन्ताकारकं चकार । स च मुखवखिकामर्पयति भूपाय गृहणाति च । तस्य राज्ञा द्वादश प्रामाणि दत्तानि । गङ्गाजलतुरङ्गमपचशती दत्ता ।
एकदा साधर्मिकस्य एवं समृद्धिर्दृष्ट्रा श्रीपाइवेजिनप्रासादाग्रे केनचिच्चारणेनोक्तम्-
रुड पारसनाथ जइ एए हवउं जाइ सिइ सहिसि । सेउ सत्थ कुमरनरिंदहवाहिरउं ॥ ३ ॥
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१८४ ]
प्रबन्धपश्चशती
श्रीकुमारपालेन भूरयः साधम्मिका लक्ष्मीवन्तः कृताः ।
इति साधर्मिकवात्सल्ये कथा ॥ ३२८ ।।
[ 329 ] अथ संघभक्तौ रत्नकथा । श्रीवस्तुपालो गुरूणामुपदेशं श्रुत्वा बहुसंघयुतः १४४ देवालयसहितो वढवाणमामे प्राप्तलझमनुष्योः तत्र पुरस्थेन श्रीरत्नेन सकलस्य संघस्य भक्तिः कृता । अत्रावसरे एकेन कविना __ काव्यमुक्तमिदम्
पूर्व श्रीऋषभान्वयी व्यरचयन् श्रीदण्डवीयों नृपः,
श्रीमांस्तीर्थपथाध्वगार्हतततेर्वात्सल्यमुच्चैस्तराम् । कुर्वन् सप्तमनुष्यलक्षकलितः श्रीसंघभक्तिं परां,
__ श्रीरत्नः कृतवान् त्वदीययशसः श्रेष्ठी पुनयौवनम् ॥१॥ वस्तुपालाग्रहात् श्रेष्ठयपि संघसार्थे चलितः । एकदा मध्यरात्रौ दक्षिणावर्तशंखाधिष्ठायकदेवेन कथितं अहं श्रीवस्तुपालमन्त्रिपार्वे यास्यामि । ततः क्रियत्कालमभ्यर्च्य स्थापितः । श्रीशत्रुजयादितीर्थ यात्रां कृत्वा श्रीवस्तुपालसंघो वढवाणे प्राप्तः । रत्नश्रेष्टिना भोजनार्थ निमन्त्रिता परं न तिष्ठति बहुकालविलम्बात् । बह्वाग्रहादिनाष्टकं स्थापितः । पुनः शंखेनोक्तम्---
सर्वगृहे भोजनसामग्री मत्प्रभावात्कार्यतां । सकलोऽपि संघोऽनपानादिना सन्मानितः । अष्टौ दिनानि श्रीसंघ सन्मान्य रत्नश्रेष्ठो सुखी जातः । ततो रत्नो गुरूणा संघाचा कृत्वा वस्तुपालमन्त्रिणं स्वगृहे आकार्य गोमयेन गूहलिकां कृत्वा तदुपरि आसने उपवेश्य छबायां शंखं मुक्त्वाऽपयामास । ततः शत्रुक्षये यात्रा कृता रत्नेनापि मन्त्रिणा समम् ।
इति श्रीसंघभक्तौ रत्नकथा ॥३२९।।
1330] अथ निर्लोमे कुमारपालकथा । श्रीपत्तने कुमारपालोऽन्यदा सामायिक लात्वा नमस्कार श्रीयोगशाखादिगणनपरोऽभूत् । तत्र चत्वारो आम्बड़ बाहड-चाहडसोलाद्याः समायाताः । राजा पृष्टास्ते किमर्थमागमनम् ! ते प्रोचुः कुबेरदत्तो वाहणे सदा चटति निष्पुत्रोऽद्य विपन्नः। सोऽपि भूयमाणोऽस्ति तेन गृहलक्ष्मीविलोक्य
गृह्यता । राजा प्राह-पौषधशालायामिदं वक्तुं न युज्यते सामायिकभङ्गात् । यतः-"सामाइअंमि 26 अकए" ततः सामायिकं संपूर्य-पारयित्वा च गृहे गतः। तस्यावासो दृष्टः परमरम्यः गृहमध्ये ।
देवालये चन्द्रकान्तरत्नमयीप्रतिमा रत्नमयालयः भूमिपीठं रत्नमयं तत्र परिग्रहपरिमाणं तस्य दृष्टम् । एकसहस्रं हस्तिनः । ५० सहस्रतुरङ्गमाः । ८० सहस्रगोकुलशतमूढकैरेका खारी । एवंविधा स्वारी वर्षे द्विसहस्रा विलोक्यन्ते । रत्नहीरातुलापलशतं सहस्रं च । ५० वाहण । ५०० हल । ५०० शकट । ६ कोडिसुवर्ण । ८ कोडिरूप्य । १४ कोडिनवीना व्ययार्थ वाहने
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द्वितीयोऽधिकारः
[ १८५
समागताः सन्ति । एतत्सर्व दृष्ट्वा राज्ञा चेतसि चिन्तितं । योऽस्य लक्ष्मी ग्रहीष्यति स तस्य पुत्रो भविष्यति । एतद्विचार्य किमपि न गृहीतं । ततः ७२ लक्ष रुदतीपट्टः स्फेटित उक्तं ! चातः परं नाऽपुत्रिकायाः खियाः श्रीभूपेन ग्राह्या । ततः कविनोक्तंनिःशूकैः शकितं न यन्नृपतिभिस्त्यक्तुं क्वचिन्त्रागुनैः[प्रागुणैः]
पत्न्याः क्षार इव क्षितेः पतिमृतौ यस्यापहारः किल । 5 आयाथोधि कुमारपालनृपतिर्देवो रुदत्या धर्म,
बिभ्राणः सदयं प्रजासुहृदयं मुञ्चत्ययं तत् स्वयम् ॥१॥ राजा सुखी जातः । इति निर्लोभे कुमारपालकथा ॥३३०॥
[331] अथ पात्रदाने सालवाहनभूपसम्बन्धः। प्रतिष्ठानपुरे सालवाहनो राजा। एकदा गोलानदोतोरे राज्ञा स्नानं कृतं, तदा मीनो 10 जलान्निर्गत्य हासं कुर्वन् दृष्टः । राज्ञा हास्यकारणं मीनपार्श्व पृष्टम् । मोन उवाच पूर्वभवे त्वं काष्ठवाहकोऽभूत् । _____ एकदा त्वया सासूआ मासक्षपणपारणे साधोधिवेत्ता तेन पुण्येन राजा जातः । अतस्त्वं कस्मादानं न ददासि । राज्ञा पृष्टं--दानदापनविषये तव का चिन्ता ? मीनेनोक्त-अहं पूर्वभवे काष्ठभारवाहकस्तव मित्रमभूवम् । परं मम दानेच्छा न परं त्वदत्तदानानुमोदनात् व्यन्तरो 15 जातः अत्रासन्नवटे । अतो दान देयं त्वया । राज्ञा प्रोक्तं-तादृशी लक्ष्मी स्ति, सरस्वत्या रोधने शब्दवेधी रसः पारदो लब्धः । तस्य प्रभावेण धातवः सर्वा अपि स्वर्णमया भवन्ति । ततो राजा दानानुमोदनात्सुरं जातं श्रुत्वा मुमुदे पूर्वभवपुण्याहेवा अपि वशीभवन्ति । यतः--
"धम्मो मंगल० १ पंचसु जिणस० २" ततो राक्षा तेन स्वर्णसिद्धिरसेन प्राप्तेन स्वर्ण कारंकारं दीनदुस्थादिभ्यो बहुदानं ददा- 20 नोऽन्यदा महत्संघयुतः श्रीशत्रुञ्जयगिरिनाथतीर्थयोर्यात्री चक्रे । ततः श्रोशत्रजये उद्धारं चकार च । ततश्विरं सुखी जातः ।
इति पात्रदाने सालवाहनभूपसम्बन्धः ॥ ३३१ ।।
[332] अथ उदारत्वे विक्रमार्कभूपसम्बन्धः । उज्जयिन्यां विक्रमादित्यो राजा राज्यं करोति, दानं दत्ते स्म बहु । एकदा कुतश्विद्- 25 प्रामात् कोऽपि द्विजः स्वक्षेत्रलब्धरत्नः रामः समोपे मूल्यार्थमागात् । अमूल्यत्वात्केनापि मूल्यं न कृतं । ततोऽग्निवेतालसान्निध्यात्तं रत्नं गृहोत्वा राजा पाताले बलिपावें गतः । तत्र द्वारपालो विष्णुरस्ति । विष्णुना तमागतं दृष्ट्वा बलिपार्वे गत्वोक्तं-राजाऽऽगतोऽस्ति । बलि
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१८६ ]
प्रबन्धपश्चशती नोक्तं-किं युधिष्ठिरः ? विष्णुनोक्तं--मण्डलीकः ! बलिनोक्तं- किं रावणः ? पुनगतो विष्णुबलिपाधै गत्वा प्राहमण्डलीको न कुमार आगतोऽस्ति ! बलिनोक्तं-किं स्वामिकात्तिकेयः १ लक्ष्मणः २ बलिपुत्रोऽङ्गदः३ पुण्यधवलः४। विष्णुनोक्तं--बांठ आगतोऽस्ति तर्हि हनुमान्
सोऽपि न पुनर्गत्वा प्रोक्तं--तलारः समागतोऽस्ति तर्हि किं विक्रमादित्यः समागतोऽस्ति ? ततो 5 मिलितः बलिनोक्तं राज्ञा बले रत्नं दर्शितं बलिनोक्तं--राजा युधिष्ठिर एवं कथ्यते नापरः येन
सदा ८८ सहस्रऋषीणां दिने दिने अमूल्यरत्नानि अष्टाशीतिसहस्राणि ब्राह्मणानां दिने दिने मुञ्जन्ते हेमपात्रेषु युधिष्ठिरनिकेतने ।। अतएव स राजा सत्यः । मण्डलीको रावणं विनाऽपरः कथं कुमारस्वरूपं प्रोक्तम् । वांठोऽपि न ताहक्कार्यकरणाभावात् । अतस्त्वं तलारसमः ग्रामपुरादिरक्षाकारकत्वात् गर्वोत्ताले अमूल्यरत्नमेक एवास्ति अपराणि अमरै रक्षितानि अस्य मूल्यं नास्ति । एवं श्रुत्वा राजोज्जयिन्यामागतः । राज्ञा दशकोटिः स्वर्णस्य दत्ता । रत्नं विनापि द्विजस्य, ततो राजा सुखी जातः ।
उदारत्वे विक्रमार्कभूयसम्बन्धः ॥ ३३२ ॥
[333] अथ यात्रोपरि कुमारपालभूपकथा । श्रोपत्तनात् कुमारपालो यात्रार्थी शत्रुक्षयं प्रति चलितः। संघे ७२ सामन्तदेवालयाः । एको 15 राक्षः, चत्वारः~-आम्बङ-बाहड-चाहड-सोलादिमन्त्रिणामेवं ७७-६६ स्वर्णलक्ष स्वामी व्यय
ठाडाकप्रमुखाष्टादशशत व्यवहारिणां चाष्टादशशतदेवालयादि श्रीसंघसहितः चलितः । स्थाने स्थाने महोत्सवं कुर्वन् वलभ्यां संघो गतः। शत्रुन्जयं दृष्ट्वा लपनश्रीलाहनादिस्नात्रमहोत्सवगीतगानादि चकार । श्रीशत्रुजये श्रीऋषभदशनेन च लक्षस्वर्णैनवाङ्गपूजा तदनु परिधापनावसरे
केनचित्पुरुषमात्रेण सपादकोटिरत्नं मुक्त्वा प्रथममाल गृहोता ! एवं गिरिनारेऽपि अंगपूजादि 20 ज्ञेयं । तथा पत्तने श्रीचन्द्रप्रभप्रासादेऽपि नवांगपूजा नवलक्षस्वर्णैः कृता । त्रिषु स्थानेषु सपाद २
कोटिरलेन मालापरिधापनं कृतं दृष्टा चमत्कृतो भूपः पृष्टः स पुरुषः । तेनोक्तं हे राजन् ! मधुमतीवास्तव्यो मण्हासाकः पिताऽभूदारुमाताऽभूत् , तयोरहं पुत्रो नाम्ना जगदुकः । मम पिता ११ वारं समुद्रे चलितः क्षेमेण यातः समुद्रदेवेन मम पितुः सपादकोटिमूल्यं रत्नपञ्चकं ददौ, तेन मया तव संघावसरं प्राप्य प्रमोदान्मालापरिधापनं कृतं । ततश्चमत्कृतेन राज्ञा शेषरत्नद्वर्य मूल्येन गृहीत्वा पञ्चस्थानेषु हारेषु पदकस्थाने स्थापितमेकस्तु श्रीशत्रुञ्जये, द्वितीयं रैवतगिरी, तृतीयं श्रीचन्द्रप्रभप्रासादे देवपत्तने, चतुर्थो हारोमृगुकच्छे, पञ्चमः पत्तने त्रिभुवनपालप्रासादे च, एवंविधा यात्रा कृत्वा राजा सुखी जातः ।
इति यात्रोपरि कुमारपालभूपकथा ॥३३३||
[334 ] अथ पूनायां कपर्दिकश्राद्धकथा । 30 एकदा पत्तने श्रीहेमसूरिपाइवें कपी भ्राद्धो वन्दितुमाययो । तैः सूरिभिः समाधिस्वरूपं पृष्टं,
तेनोक्तं-दारिद्रत्वमेवास्ति मम गृहे । श्रीगुरवः प्रोचुः भक्तामरस्य दशमं काव्यं-'नात्यद्भूत'
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द्वितीयोऽधिकारः
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मिति गणनीयं षण्मासान यावत्, मन्त्रश्च विधिना, तस्य गुरूक्तविधिना जपतो रात्रावेकदा चक्रेश्वरी देवी प्रसन्ना धवलवना स्त्रीवेषभूता जाता । तयोक्तं षोडश-षोडश मयणमयाः [मृण्मया] ३२ कुम्भा गृहमध्ये स्थाप्याः, अहं तु कामधेनूरूपेण तत्रागता त्वया दुह्याः, सर्वे कुम्भाः स्वर्णमया भविष्यन्ति । ततः प्रतिप्रभातं गोदोहनात् ३१ घटा भृताः द्वात्रिंशत्तमे दिने देव्याः पदयोः पतित्वा श्रेष्ठी प्राह-तव प्रसादादेते घटाः एकत्रिंशत्स्वर्णमया बभूवुः, द्वात्रिंशत्तमं 5 कुम्भं तथा कुरु यथाऽहं सपरिवारं भूपं भोजयामि । देव्योक्तमेवं भवतु । ततः स मुदितः श्रेष्ठी प्रातः कुमारपालभूपं निमन्त्रयामास, प्रहरे याते राजा चरमुखेन भोजनसामग्रीन पश्यत्ति, अहो हास्यं मया सह मण्डितं । एवं सति स आकारणाय समागातः, कामधेनूरूपेण देवी समागता। द्वात्रिंशत्तमे कुम्भे भोजनसकलसामग्री जाता। तृष्टेन राज्ञा चमत्कृतेन पृष्टः स, शातं श्रीयुगादिजिनपूजाध्यानमाहात्म्यं, स सुखी पुण्यवान् ध्यानप्रभावाज्जातः ।
इति पूजायां कपर्दिकश्राद्धकथा ॥३३४॥
[335] अथ तीर्थपूजायां वस्तुपालकथा । एकदा वस्तुपालमन्त्री शत्रुञ्जये विस्तरेण स्नात्रमहोत्सवं कृत्वा यावदुत्तरति द्वितीयप्रपायामगात् तावन्मधुमतीपुरात् बहवो मालिकाः पुष्पकरण्डकान् भृत्वा त्वरितं तत्र प्रपायामाययुः । संघमुत्तरन्तं वीक्ष्य खिन्नाः तान् तादृशान्वीक्ष्य वस्तुपालः प्राह--खेदो न कार्यः, 16 अहं तथा कुर्वे यथा भवतां बहु द्रव्यमुत्पत्स्यते, रहःस्थापितास्ते तत्र, क्रमादन्ये व्यवहारिण आगताः । मन्त्री प्राइ- भवद्भिर्देवाः सर्वत्र पूजिताः सन्ति न वा! किमपि विस्मृतं नास्ति इति पृष्दे ते इभ्याः प्राहुः-युष्माकं प्रसादादेवा नताः पूजिताः । मन्त्री प्राह--इदं तीर्थमेव स्पृष्टं शिवाय भवति, इदं तीथमेव पूज्यं, तीर्थपूजा न कृता इभ्याः प्रोचुः--पुष्पाणि न सन्ति । मन्त्री प्राह--पुष्पाणि आयास्यन्ति ततस्ते मालिकाः प्रकटीकृताः । श्रीवस्तुपालेन ससंघेन 20 पुष्पाणि लात्वा सर्वत्र तीर्थभूपूजा कृता, यतः--
पञ्चाशयोजने मुक्ति-दर्शनात्स्पर्शनादपि । ये जातास्ते गमिष्यन्ति, कालेनापि परां गतिम् ॥१॥ तीर्थनामुत्तमं तीर्थं, नगानामुत्तमो नगः । क्षेत्राणामुत्तमं क्षेत्रं, सिद्धाद्रिः श्रीजिनैर्मतः ॥२॥
25 ततो बहु द्रव्यमुपाय॑ स्वस्थाने गता मालिकाः । मन्त्री ससंघः पुण्यद्रविणं भूरि उपाज्य स्वपुरमगात् । इति तीर्थपूजायां वस्तुपालकथा ॥३३५॥
[336 ] अथ बप्पभट्टि प्रबोधितद्विजकथा एकस्मिन् पुरे एकः शिवभक्तो विद्वान् विप्रोऽनशनं गृहीत्वा शिवप्रासादे उपविष्टस्तस्मिन् समये तत्र बप्पमट्टिसूरय आगताः । श्राद्धैरुक्तं--भवद्भिः सर्व जगत् प्रतिबोध्यते यदि तदा 30
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१८८ ]
अवन्धपञ्चशती
एषोऽपि द्विजः कथं न प्रतिबोध्यते ? ततः सूरिभिस्तत्र गत्वा शिवस्तुतिः शृङ्गाररौद्रमयो प्रारब्धा । तथाहि-
5
10
15
एकं ध्याननिमीलितं मुकुलितं चक्षुर्द्वितीयं पुनः,
पार्वत्या विपुले नितम्ब फलके शृङ्गारभारालसम् । अन्यत्क्रूरविकृष्टचापमदनक्रोधानलोद्दीपितं,
शम्भोभिरसं समाधिसमये नेत्रत्रयं पातु वः || १ || कृष्णात्प्रार्थय मेदिनीं धनपतेर्बीजं बलेर्लाङ्गलं,
प्रेतैशान्महिषो वृषश्च भवतः फालं त्रिशूलादपि । शक्ताहं तच भक्तदानकरणे स्कन्दोऽपि गोरक्षणे,
25
दग्धाऽहं तव भिक्षया कुरु कृषिं गौर्या वचः पातु वः ||२||
द्विजेनोक्तमधुनाऽनवसरे मम पुरोऽनशनगृहीतस्य रागमयी स्तुतिः कस्माद्विधीयते ? गुरुणोक्तं- "यादृशी सभा तादृशं वाच्यं, यादृशो देवस्तादृशी पूजास्तुतिरिति" भवानेवानवसरज्ञोऽनशनं लावा सरागदेवपार्श्वे उपविष्टस्ततः प्रबुद्धो जिनेन्द्रगृहं गत्वा । शान्तो वेषः शमसुख फल० १ ।
प्रशमरसनिमग्नं दृष्टियुग्मं प्रसन्नं वदनकमलमङ्कः कामिनीसङ्गशून्यः । करयुगमपि यत्ते शस्त्रसम्बन्धवन्ध्यं तदसि जगति देवो वीतरागस्त्वमेव ॥३॥
"
इत्यादि स्तुति पपाठ स द्विजः, तदनन्तरं जिनभवनोपविष्टः क्षीणायुः स्वर्गं गतः । अतः स्तुत्यार्हो जिन एवं नान्यः । इति बप्पभट्टिप्रबोधितद्विजकथा ||३३६||
[337] अथ तीर्थ भक्तितोतिकाव्ये वस्तुपालमन्त्रिदानसम्बन्धः ।
20 अन्यदा श्रीवस्तुपालः ससंघः श्रीशत्रुञ्जये देवान्नत्वाऽग्रतञ्चलन् देवकपत्तने ययौ । श्रीसंघ सदन्नपानतः सन्मान्य संघपूजायामनेके आचार्या उपविष्टाः सन्ति, गुरवः परिधापिताः । अत्रान्तरे सोमेश्वर पण्डितेनेदं काव्यमुक्तं वस्तुपालं प्रति
लक्ष्मि प्रेयसि । केयमास्यशितता बैकुण्ठ ! कुण्ठोऽसि किं ?, नो जानासि पितुर्विनाशमसमं संघोत्थितैः पांशुभिः ।
मा मै[षी ] रुगभीर एष भविनाम्भोधिविरं नन्दतात्, संघेशो ललितापतिर्जिनपतेः स्नात्राम्बुकुल्यां सृजन् ॥ १ ॥
एवं सोमेश्वरः काव्यपद्धत्यार्थमाह-- अहमद्य विष्णुसद्मनि गतस्तत्र विष्णुश्रियौ मिथः एवं
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द्वितीयोऽधिकारः
[ १८९ जल्पन्तावभूतां, प्रथमं कृष्णेन श्रीः पृष्टा, किं भवत्या मुखे कालिमा ?। श्रीः प्राह-हे वैकुण्ठ ! कुण्ठोऽसि मूर्योऽसि न वेत्सि मम पितुर्विनाशो भविष्यति संघस्य वस्तुपालस्य रजोभिः । ततो विष्णुः प्राह--"मा भैरित्यादि०" । ततो वस्तुपालेन तस्य लक्षद्रव्यं दत्तम् । इति तीर्थभक्तिश्रुतोक्तिकाव्ये वस्तुपालमन्त्रिदानसम्बन्धः ॥३३७||
[338] अथ यात्रायामामप्रबन्धः । गोपालनगराच्छीशत्रुञ्जयमाहात्म्यं बप्पभट्रिगुरुमुखात् श्रत्वा बहुसंघसमेतः आमराजः तीर्थनति यावत् त्यक्ताहारश्चलितः । मार्ग स्थाने स्थाने उत्सवं कुर्वन् गूर्जरायामागात् । शरीरं क्लाम्यति स्म भूपस्य । मन्त्रिणो वदन्ति-- पारणं क्रियतां, गुर्वादिभिबहूक्तोऽपि पारणं न करोति । राज्ञः साहसं दृष्टा शासनदेवता राज्ञौ राज्ञः मन्त्रिणां सर्वसंघस्य परः प्रकट प्राह-भूमिलामविभूषणायां..."पुरि जीणां श्रीयुगादिप्रतिमा परिसरभूमिमध्यस्थां कथयामास । 10 अथवा श्रीशत्रुञ्जयादानीतेति प्रघोषः । ततः प्रातर्दवीवचनात्प्रतिमां भूमध्यात्कर्षयामास । शत्रुअयस्य स्थापना कृता । तां प्रतिमा नत्वा राजा पारणं चकार । ततो राजा तत्र स्थाने महा प्रासादः कारितः । प्रतिमां तस्य प्रासादस्य मध्ये स्थापयामास समहोत्सवं । ततो लोकैरपि पूजाहतः कृता । ततः प्रभृति लघुश्रीत्रुञ्जयेति नाम शिखरं..." जातं । ततो प्राज्यशत्रुञ्जये रैवते च देवान्नत्वा स्वपुरमगात् । इति यात्रायामामग्रबन्धः ॥३३८॥
15 [339] अथ श्रीशत्रुञ्जयप्रासादबिम्बसंघपतिभवनादिसम्बन्धः । युगादौ श्रीशत्रुञ्जये प्रथमचक्रिणा श्रीभरतेश्वरेण स्वर्णमयं श्रीजिनभवनं कारितं । तत्र भवने मणिमयं बिम्बं स्थापितं । तस्मिन्समये कोडि ८९ लक्ष ८४ सहस्राः किश्चिदधिकाः एते प्रौढछत्रधरा राजानः संघपतयोऽभूवन् । तत्र येऽन्तरान्तरा उद्धारा आदित्यक्षितिपादिभिः कारितास्तेषां संख्या केवली वेत्ति । - तदनन्तरं ५० कोडिलक्षसागरोपमान्तरे द्वितीयः सगरश्चक्री संजातः । तेन श्रीशत्रुञ्जये द्वितीयो उद्धारः कारितः। ताम्रमथं जिनभवनं रत्नमयं विम्बं । कारितं तस्मिन् समये ७ कोडि ९५ लझ ७५ सहस्रा एते प्रोढछत्रधरा राजेन्द्राः संघपतयोऽभूवन् ।
तदनन्तरं ५० कोडिलक्षसागर ८६७५० न्यूनान्तरे पाण्डवस्तृतीयः उद्धारः, काष्ठमयप्रासादे लेपमयं बिम्बं स्थापितं तस्मिन्समये । २५ कोडि ६५ लक्ष ७५ सहस्रा एते भूपाः संधाधिपत- 25 योऽभूवन् । ८६७२० पाण्डव श्रीमहावीरान्तरं जातं । तदनन्तरं वीरविक्रमादित्यान्तरे ८४ सहस्रा नरेन्द्राः शतानीक-श्रेणिक-दधिवाहनप्रमुखाः संघपतयोऽभूवन् । एकशताष्टोत्तरे वर्षे श्रे० जावडेन बिम्बोद्धारः कारितः । पञ्च प्रासादोद्धारः श्रीमाली बाहडदेवेन कारितः १२१३ । अस्मिन्समये संवत् १३७१ सा० समरनरेन्द्रेण ६ श्रीयुगादिजीर्णोद्धारः कारितः । श्रे० जावडसमरनरेन्द्रान्तरे संप्रतिसंघपतिसंख्या श्रूयतां ३ लक्ष ८४ सहस्राः प्रौढाः श्राद्धाः संघपतयोऽभूवन् । ७७ सहस्रा 3) मीणाकाराः संघपतयः, जैनक्षत्रियाः १६ सहस्राः सघपतयः, जैनविप्राः १५ सहस्राः संघपतयः,
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१९० ]
प्रबन्धपञ्चशती १२ सहस्रा कौटुम्बिकसंघपतयः, ६ सहस्रा लेऊआ कौटुम्बिकाः संघपतयः, ५०४५ कासाराः संघपतयः. ७ सहस्राः अन्त्यजाः संघपतयः, श्रीशनंजयतलहद्रिकां यावत भरतचक्रि बाहडमन्त्रिणामन्तरे अन्ये ये प्रासादोद्धाराः, बिम्बानि जातानि कारितानि अन्यभूपेभ्यादिभिस्तेषां संख्या न झायते । इति श्रीजयप्रासादबिम्बसंघपतिभवनादिसम्बन्धः ॥३३९।।
[ 340] अथ पञ्चपाण्डवकृतोद्धारमुक्तिगमनसम्बन्धः । अन्यदा श्रीयुधिष्ठिरराजः दक्षिणमथुरायां राज्यं कुर्वन् न्यायमार्गण पृथिवीं शतास ।
इतः द्वारकायां दग्धायां सत्यां कृष्णबलभद्रौ निःसृत्य कस्मिंश्चिद्वने गतौ । बुभुक्षा लग्ना। बलभद्रो भिक्षार्थमासन्नप्रामे गतः ।
इतस्तत्र भ्रमन् जराकुमारः सुप्तं कृष्णं पादे मृगभ्रान्त्या बाणं मुमोच । करुणशब्दं श्रुत्वा 10 यावत्तत्रायाति जराकुमारस्तावद्भ्रातरं वीक्ष्य शुशोच, दूनोऽभूच्च । कृष्णोऽवग्नाच्छ, अमु
कौस्तुभं लावा पाण्डवपार्वे । मम प्राणा यास्यन्त्येव नेमिनाथपूर्वोक्तत्वात् । बलभद्रो यदि आयास्यति तदा त्वं हत एव, तेन ततो भयभ्रान्तो जराकुमारः भ्रातरं झमयित्वा कौस्तुभरत्नमादाय युधिष्ठिरराजपावें गतः । रत्नं तस्मै दत्त्वा कृष्णमृत्युवृत्तान्तः कथितस्तेन । पाण्डवाः __ सर्वेऽपि कृष्णमरणादिवृत्तान्तात्संसारानित्यता भावयामासुः । ततो बहुविस्तरपूर्व तद्रत्नगर्भिता 15 श्रीयुगादिजिनलेप्यमयप्रतिमा प्रासादं च श्रीशत्रुजये कारयामासुः । प्रतिष्ठां च । पश्चादागताः
संसारानित्यतां भावयता गिरिनारगिरावागतं श्रीनेमिनाथं श्रुत्वा ते पश्चापि पाण्डवा मारपत्नीयुताश्चेलुः । अन्तराले श्रीनेमिनिर्वाणगतं श्रुत्वा आत्मानं नेमिवन्दनवश्चितं निन्दित्वा भीशत्रबजये सिद्धक्षेत्रे गत्वा दीक्षा लावा पादपोपगमनानशनेन सर्वेऽपि अष्टौ कर्माणि क्षिप्त्वा द्रौपदोवर्ज मुक्तिं ययुः । द्रौपदी द्वादशे स्वर्गे ययौ । पूर्वभवनिन्दाऽज्ञानबद्धत्वात् ।।
इति पञ्चपाण्डवकृतोद्धारमुक्तिगमनसम्बन्धः ।३४०॥
[341 ] अथ सा० गुणराजसम्बन्धः ।। आशापल्ल्यां गुणराज सा. चाचानन्दनोऽहम्मदसुरत्राणमान्योऽभूत् । संवत् १४६८ वर्षे श्रीदेवसुन्दरसूरिगुरुवचनं श्रुत्वा दिने दिने मूढकद्वयधान्यदानेनात्मज्ञातिपरजातिजनान् जीव
यामास । एका महाविस्तरेण सोपारकपत्तने यात्रां चकार । तत्र ८० सहस्रटका व्ययिताः । 25 विंशतिसहस्रटङ्कान् व्ययेन श्रोमुनिसुन्दरसूरीणां उपाध्यायपदं कारितं येन । यस्य भ्राता आम्बाकः ४००० द्रम्मान् यथा तथापूर्व व्ययति स्म महाव्यसनी च ।।
एकदा भार्यया तस्य निर्विकृति भग्नं । ततो जातवैराग्यस्तादृशीं समृद्धिं भार्या पुत्रयुता मुक्त्वा स्वयमेव व्रतं जग्राह सः । गुरवो भार्याया अनुमति विना न ददते । बहु अवदातै
र्भार्या मानयित्वा श्रीदेवसुन्दरगुरुपावें दीक्षा जग्राह । तत्र विंशतिसहस्रा टवाना व्ययो 30 गुणराजेन कृतः । श्रीसोमसुन्दरादेशात् अहम्मदसुरत्राणादेशं प्राप्य १० देवालयाः, ३६००
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द्वितीयोऽधिकारः
[ १९१
सेजवानी, ७०० शकट, ४००, वाहिन्यः ५०० तुरङ्गम, लक्षद्वयानुमित बहुदेशागत श्रीसंघः तेन श्रीसोमसुन्दर सूरि-श्री मुनिसुन्दर सूरिप्रमुखाः शतानुमित सूरिसहस्रद्वयानुमितसाधुः स्थाने स्थाने स्नात्रपूजादिमहोत्सवः श्री शत्रुब्जयगिरिनारयोश्चकार गुणराजः । प्रान्तेऽनशनं समहोत्सव लात्वा स्वर्गं गतः । इति सा० गुणराज सम्बन्धः || ३४१ ||
[342] अथ कल्याणत्रयोद्धारसम्बन्धः ।
श्रीसोमसुन्दरसूरीणामुपदेशात् सोनीसमरसिंहमालादेभ्यां श्रीगिरिनारतीर्थे श्रीनेमिनाथकल्याणत्रयप्रासादोद्धारः कारितः । तत्र लक्षसाधिकलक्षटङ्कव्ययः । इति कल्याणत्रयोद्धारसम्बन्धः ||३४२ ||
[ 343 ] अथ गोविन्दनाणावटीसंबंधः ।
इयदरनगरे नाणावटीगोविन्दोऽभूत् धर्मवान् । तत्रैकदा श्रीसोमसुन्दरसूरय आगताः । 10 बन्दिसुं गतः गुरुणामित्युपदेशः "जिणभवणबिंब पुत्थय ०"
प्रासादप्रतिमायात्रा - प्रतिष्ठादिप्रभावना
अमाद्घोषणादीनि महापुण्यानि गेहिनाम् ||१||
तारङ्गगिरौ श्रीकुमारपालप्रासादे सप्तभूमिके प्रासादे बिम्बमतीव लघीयः । पूर्वबिम्बस्य भङ्गोऽभूत् तेन यः कश्चिदबिम्बोद्धारं कारयति स महान् । एतत् श्रुत्वा नाणावटीगोविन्दो 15 हस्ती योजयित्वा प्रादाहं बिम्बोद्धारं कारयिष्यामि तत आरासणपुराद् बहुद्रव्यव्ययेन ६५ अंगुलप्रमाणं प्रतिमां तत्रानिनाय । बहुषु देशेषु कुकुम पत्रिकाः प्रेषिताः । श्रीसंघः सप्तलक्षप्रमाणो मिलितः । शोभने लग्ने श्रीअजितस्वामिप्रतिमा श्रीसोमसुन्दरसूरयः प्रतिष्ठयामासुः । सर्वोऽपि श्रीसंघः परिधापितः, टङ्कानां लक्षत्रयी व्ययिता संभाव्यते ।
इति गोविंदनाणावटीसम्बन्धः || ३४३ ||
[344] अथ धरणविहारसम्बन्धः ।
पाट भूमण्डन राणकपुरनगरे श्रीधरणसाधुः । श्रीसोमसुन्दर सूरीणामुपदेशात् १०८ देवकुलिकालंकृतं श्रीऋषभदेव विहारं चतुर्मुखं प्रासादं कारयामास । तत्र बहुलक्षटङ्ककव्ययः, सं - १४९५ वर्षे । इति धरणविहारसम्बन्धः || ३४४॥
[ 345] अथ पाजाश्रेष्ठिकारितप्रासादसम्बन्धः ।
वढवाणप्रामे श्रे० पाजाह्नः कोटिव्वजो वसति स्म । तेन गुरोरुपदेशात् पाजाह्ना वसतिः कारयितुमारब्धा । बहवो जनाः कार्यं कुर्वन्ति । राजा वप्रं महान्तं ग्रामं परितः कारयति ।
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१९२ ]
प्रबन्धपश्चशती
प्रासादे बहवः कर्मकरा आयान्ति, वप्रे च नायान्ति | राज्ञा वारि निषिद्धं । श्रेष्टिना तैलकूपानुद्घाट्य माषपीठकेन प्रासादः कत्तुमारब्धः । राज्ञा तत् ज्ञातं । संमानितः श्रेष्ठी । सहस्रस्तम्भमयः प्रासादो निष्पन्नः । प्रतिष्ठाऽभूत् । तत्रात्मीयात्मीयां कलां दर्शयितुं सूचिकायाचिकाभ्यां च कीर्तिस्तम्भोपरिस्थाभ्यां भूस्थसूचिप्रोतन भूस्थतैलभाजनभरणादिकला दर्शिता प्रासादाने । इति प्रजाश्रेष्ठिकारितप्रासादसम्बन्धः ॥३४५||
[ 346 ] अथ पूनसिंहकोष्ठागारिककारितगिरिनारतीर्थप्रासादसंबंधः । तपागच्छाधिराजश्रीरत्नशेखरसूरीणामादेशात् श्रीगिरिनारतीर्थे पूनसिंहकोष्ठागारिको महान्तं प्रासादं कारयामास । तत्र श्रीऋषभदेवं प्रातिष्ठिपत् । तत्र बहुलझटङ्ककधनव्ययः ।।
इति पूनसिंहकोष्ठोगारिककारितगिरिनारतीर्थप्रासादसम्बन्धः ॥३५६।। 10
[847 ] अथ साधर्मिकभक्तिः । राजा कुमारपालः त्रुटितसाधर्मिकस्य समीपागतस्य दीनारसहस्रं दत्ते । आमडमन्त्रिपाश्र्वात गुरूणां च ज्ञापितं राशा यदुचितः साधर्मिको झाप्यः ।
एकदा वर्षलेखके कृते एका कोटिर्जाता । यदा तदा आभडः प्राह-स्वामिस्तव द्विधा कोशोऽस्ति, एकः स्थावरोऽन्यो जङ्गमः । अहं तु जङ्गमः कोशस्तेनाहं यद्ददामि तत्तवैव । राज्ञोक्तं एवं 15 त्वया विनयेन प्रोच्यते । यन्मया मम कोशाहीयते तदेव पुण्याय । ततो राजा हटः। आभई विशेषाद्वहु मन्यते स्म । एवं भूपाभिग्रहो वहुवर्षाण्यभूत् ।
इति साधर्मिकभक्तिः ॥३४७।। [348] अथ दाने कुमारपालमन्त्रि-अभयकुमारश्रेष्ठिकथा । अन्यदा श्रीश्रीमालज्ञातिशिरोरत्न नेमिनागपुत्रः अभयकुमारः श्रेष्ठी कृतो राज्ञा । 20 अत्रान्तरे श्रीपालपुत्रेण सिद्धपालेनोक्तं---
क्षिप्तो तोयनिधेस्तले मणिगणः रत्नोत्करः रोहणे,
__रेवावृत्य सुवर्णमात्मनि दृढं बवा सुवर्णाचलः । क्ष्मामध्ये च धनं निधाय धनदो विभ्यत्परेभ्यः स्थितः,
किं स्यात्तैः कृपणैः समोऽयमखिलार्थिभ्यः स्वमर्थं ददत् ॥१॥ ता जुत्तं देवकयं, तुमए जं इत्यधम्मठाणंमि ।
अभयकुमारो सिट्ठी, एसो सव्वेसरो विहिओ ॥२॥ तत्र साधर्मिकभक्तिरेवम्
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द्वितीयोऽधिकार
[ १९३ वत्थाई पसत्थाई, कुडंबनेत्यारणत्यमत्थं तु ।
एवं सत्तागारं, कयं नरिंदेण जिणवम्मे ॥४॥ पारणकदिने त्रिभुवनविहारस्नानागतैबहुभिः श्राद्धैः समं भुक्ते स्म ! भूपः भोजनावसरे प्रगमं गुरुन् प्रतिलाभ्य दीनदुस्थादिभ्योऽन्नं ददन मुक्ते च पटहवादनपूर्व च गृहद्वार उद्घाट मोपवति, बतः
नेवदारंपिहावेइ, भुजमाणो सुसावओ ।
अणुकंपा जिणिंदेहि, सडोणं न निवारिया ॥५॥ एवं भूपं दानं ददानं दृष्ट्वा अन्ये बाहडमन्त्रिप्रमुखा लोका ददते दानम् ।
इति दाने कुमारपालमन्त्रि-अभयकुमारश्रेष्ठिकथा ॥३४८||
[349] अथ साधर्मिकभक्तो आम्बडदेवसम्बन्धः । एकदा बाहडदेवो विशिष्टतमारासनाश्ममयं प्रासादं कारयितुं लग्नः । तत्रान्यदा यदा कुमारपालस्तं द्रष्टुमागात्तदा नेपालदेशस्वामिना भोमेन २१ अङ्गुलमयं चन्द्रकान्तमणिमयं भोपार्श्वबिम्ब प्राभृतं चक्रे । तबिम्बं दृष्ट्वा राजा बाहडदेवं प्रति प्राह-एष प्रासादो मयं दीयतां, यतोऽस्मिन् प्रासादे इदं बिम्बं स्थाप्यते । ततो बाहडदेवोऽभ्युत्थाय विनयपूर्वकृताञ्जलि: पाह-एष प्रासादः कुमारविहारनामा भवतु । प्रतिमा स्थाप्यतां । ततः २४ जिनालयप्रासादे 15 अष्टापदतीर्थावतारशोभिते तबिम्बं महामहोत्सवपुरस्सरमतिष्ठपत् ।
कणयामलसारपहाहिं, पिंजरे जंमि मेरुसारिच्छे । रेहति कोउदंडा, कणयमया कप्परुक्खुव ॥१॥
इति साधर्मिकभक्तौ आम्बडदेवसम्बन्धः ।।३४९॥
[350 ] अथ त्रिषष्ठिशलाका पुरुषोत्तमचरितसम्बन्धः । कुमारपालराजर्षिणा २१ ज्ञानकोशाः कारापिताः । त्रिषष्ठिशलाकापुरुषचरित्रं श्रोतुमिजता तपरित्रं हस्तरूढं कारयित्वा महता महेन लक्षमितव्ययात् धर्मशालायां रामा प्राभृतीचकार । इति त्रिषष्टिशलाकापुरुषोत्तमचरितसम्बन्धः ॥३५०॥
___[31] अथ पुस्तकाराधने श्रीताडागमने श्रीकुमारपालसम्बन्धः ।
एकदा ११ अङ्ग १२ उपाङ्गादिसिद्धान्तप्रतिलेखिता रैमयामरै राहा ! २० बोतरागसबा, 26 १२ योगशास्त्रप्रकाशा रैमयाक्षरैखिताः । तेषां बहु प्रति लेखयित्वा साधुभ्यो वाचनाय रच
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१९४ ]
प्रबन्धस्यसती वान् । राजा देवपूजावसरे सिद्धान्तपुस्तकानि पूजयामास । राजा श्रीगुरुकृतान् ग्रन्थान् लेखयितुं दधिग्रहणाभिग्रहं ललौ । ७०० लेखका लिखन्ति कागदेषु । ततोऽन्यदा गुरुन् पप्रच्छ राजा। बहुकालं पुस्तकानि कथं तिष्ठन्ति, न विनश्यन्ति च । गुरुः प्राह--श्रीताडपत्रैलिखितानि
पुस्तकानि बहकालं तिष्ठन्ति न विनश्यन्ति च । ततो राजा श्रीताडपत्रैः पस्तकानि लेखयितं B लग्नः । श्रीताडत्रुटिर्जाता । राजा वृध्यौ यान् ग्रन्थान् सममान् लेखयितुमहं न शक्तः । ततो
राज्ञा श्रीताडानयनविषयेऽभिग्रहो लले । यदा श्रीताडा आगमिष्यन्ति तदा भया भोक्तव्यं । उपवासत्रये जाते शासनदेव्या खरताडाः श्रीताडाः कृताः । प्रातरारामिकः श्रीताडान दृष्ट्वा राजानं वर्धयामास, प्राह च-तव साहसात्सर्व खरताडाः श्रीताडाः जाताः । ततो राजा गुरवोऽन्येऽपि मिथ्यात्विनोऽपि तद्दृष्ट्वा जिनधर्म प्रशशंसुः । ततो जिनशासनेऽतीवोन्नतिर्जाता । इति पुस्तकाराधने श्रीताडागमने श्रीकुमारपालसम्बन्धः ॥३५१॥
[352] अथ औचित्यदाने । सर्वजीवान् रक्षन्तं भूपं दृष्ट्वा एकः कवि प्राह-- पूर्व वीरजिनेश्वरेऽपि भगवत्याख्याति धर्म स्वयं,
प्रज्ञावत्यभयेऽपि मन्त्रिणि न यां कत्तुं क्षमः श्रेणिका। 15 'अक्लेशेन कुमारपालनृपतिस्ता जीवरक्षा व्यधात्,
लब्ध्वा यस्य वचःसुधां स परमश्रीहेमचन्द्रो गुरुः ॥१॥ तस्मै लक्षदानम् । इति औचित्यदाने ।।३५२॥
[353] अथ श्रीकुमारपालभूपस्वर्णसिध्ध्यप्राप्तिस्वरूपम् । एकदा स्वं संवत्सरं प्रवर्त्तयितु कामो भूपः श्रीहेमसूरिपाचे स्वर्णसिद्धिं याचते स्म । 20 गुरुणोक्त-अस्मद्गुरवः श्रीदेवचन्द्रसूर यो जानन्ति । ततो गुरून बहुविज्ञप्त्या तत्र समहोत्स
वमाकारितवान् । श्रीहेमसूरि-कुमारपालभूपाभ्यां द्वादशावतवन्दनादिभिर्विनयः कृतः । गुरुभूपी गुरोः पादयोर्लगित्वा स्वर्णमिद्धिं याचेते । गुरुषु तामददानेषु श्रीहेमसूरिः प्राहभगवन् ! मम बाल्ये श्रीप्रभुपादरेकस्य भारवाहकस्य काष्ठभारात् वल्ली स्फीता मम पार्थाद्
माहिता, तेन बल्लोरसेनाभ्यक्तं ताम्रखण्डं युष्मदुक्तविधिना वह्नियोगात्स्वर्णोबभूव तस्य । 25 तस्या वल्लेश्च किं नामेत्यादिश्यतां । ततः कोपादुक्तं गुरुणा--
अग्रे तव मुद्रसप्रायदत्तविद्यया अजीर्ण जातं, किमिमा विद्यां याचसे १ तव कालविशेषान सा सेत्स्यति । अधुना ताहग भाग्यं भवतोन दृश्यते अतो न वक्तव्यं । ततो गुरूनामभिप्रायं ज्ञात्वा झमितं, ताभ्यां गुरूभूपाभ्याम् ।।
इति श्रीकुमारपालभूपस्वर्णसिध्यप्राप्तिस्वरूपम् ॥३५३॥
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द्वितीयोऽधिकारः
[ १९५ [354] अथ कर्मविषये दुःस्थसम्बन्धः । पगपुरे धीरभूपो गवाक्षस्थो राजी प्रति प्राह-पश्य, पत्नि ! मया प्रजा सुखिनी कृता, क्रियते, करिष्यते च । राझी जगौ--यदि त्वहत्तेन धनेन प्रजा सुखिनो स्यात् तदा एष दुःस्थो मस्तककृतेन्धनभारो नरः सुखी क्रियतां त्वया ।
राजा प्राह--पश्य पनि ! अमुमपि सुखिनं करोमि । राजी-प्राक्कृतं शुभं कर्मास्य । भविष्यति तदा तस्यालये श्रीः स्थास्यति, नो चेत्त्वया दत्ताऽपि यास्यति ।
ततो राजा कर्मपरीक्षार्थ वमनि यस्मिन् याति दुःस्थस्तस्मिन् सपादलक्षं हारं मुमोच । __ ततः स तत्रागतो यदा सप्पै वीक्ष्यान्येन मार्गेण गतः । द्वितीयदिने राजा मुक्तं हारं सिन्दरं पतितमने स गतः । ततो राजा तमाकार्य पप्रच्छ । त्वं कल्ये मार्ग मुक्त्वाऽन्येन मार्गेण कथं गतः ? सोऽवग--सर्पो दृष्टो मार्गे । अद्य न सिन्दरं दृष्टं मया । ततो 10 राजा जगौ--
मसिविण माथामोहि आखर जे आगइ लिख्या ।
अधिक न उ ठाथाई, चहुटा ते चाचिग भणइ ॥१॥ एवं प्रोच्य तस्य वर्य भोजनं दत्त्वा राजा विससर्ज । इति कर्मविषये दुःस्थसम्बन्धः ॥३५४॥
15 [355] अथ कौतुकजल्पने क्षुल्लसम्बन्धः । एकस्य पण्डितस्य बहुकालादेकः क्षल्लकः सम्पन्नः। स बहुभक्षकः [पण्डितस्तं] पण्डितं दृष्टा वर्णयति मम मल्लकोऽतीववर्योऽस्ति, तदाऽन्येन साधुना हास्यादुक्तं
घसि घोघर ढूंढणि ढलस खीच तेल नो काल । गुरुनइ चेलो सांपडिओ, चालतो दुकाल ॥१॥ इति कौतुकजम्पने क्षुल्लसम्बन्धः ॥३५५॥
[36] अथ कृत्तकर्णपुच्छशृगालसम्बन्धः । एकदा एकस्मिन् प्राममध्ये शृगालः समागात् भिक्षार्थ [भल्यार्थ] यदा तदा लोकानामने निर्गन्तुं न शशाक । ततः स मायया जीवितुं वान्छन् उत्कटके मृतप्रायो भूत्वा पतितः । तदा लोका मिलिता मृतोऽयं मृत्तोऽयमिति जगुः । तदा एको वैद्यस्तत्रागात् प्राह च-अस्य शृगालस्य 25 कर्णेन भक्षितेनातिसारो याति । अस्य पुच्छेन च शिरोऽतिर्याति । दन्तैज्वरो याति । ततो लोकैः कौँ छिन्नौ, ततः पुच्छं छिन्नं, ततो यदा दन्तादिच्छेदं कर्तुमुस्थिता लोकाः तदा स उत्थाय श्लोकमेकं जल्पन्नष्टः
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१९६ ]
प्रबन्धपत्रशती गतौ कर्णो गतं पुच्छं, दन्तानां विद्यते कथा ।
. प . यः पला[य]ति स जीवति ॥१॥ एवं प्रोच्य गतः स शृगालो जिजीव चिरमेवं ये विनष्टं प्रामं दृष्ट्वा त्यजन्ति ते जीवन्ति ।
इति कृतकर्णपुच्छभृगालसंबंधः ॥३५६॥
[ 367 ] अथ प्रभुपूजायां कार्वाटिकासंबंधः। भीपुरे भूपपत्नी चन्द्रवती एक कार्वाटिकं मस्तकन्यस्तेन्धनभारं विक्रीणन्तं वीस्वाकस्मात् प्राप्तवातिस्मरणा भूपे शृण्वति गाथामेको प्रोवाच
अडवी पत्नी नई अजल तोइ न बूढा हत्थ ।
अज्ज एह कबाडीह दीसइ साइज अवत्थ ॥११॥ 10 एतां गाथां श्रुत्वा सोऽपि कार्बाटिकः प्राप्तजातिस्मरणोऽश्रुप्रवाहं मुन्नन् बभूव ।
इतः भूपः पप्रच्छ-पत्नि ! एषा गाथा कस्माज्जल्पिता त्वया १ सा प्राह-वने अहं कार्वाटिकाऽभूवं, एष कार्बाटिको मम पतिरभूत् । प्रभोः पूजाफलं यतिपावें श्रुत्वा मटबीसम्बन्धिपुष्पाणि लात्वा नद्या जलं नीत्वा प्रभोः पूजामकार्षम् , एषः तु बहूक्तोऽपि प्रभोः पूजा
नाकार्षीत् । अहं प्रभोः पूजाफलाद्भवत्पत्नी अभूवं । एष तु तदवस्थ एव । अतो मया गाया 15 प्रोक्तयं । ततो राजा सोऽपि कार्बाटिकोऽन्येऽपि बहवो जनाः प्रभोः पूजा चक्रुः ।
इति प्रभुपूनायां कार्वाटिकासंबंधः ॥३५७॥
[388 ] अथ योगिचेन्नकसम्बन्धः । एकदा योगिचेल्लको निर्गतौ । वर्त्मनि चेल्लकेनाकस्माद्वासनिका प्राप्ता कस्यचित् ।
ततोऽग्रे यदाऽचालीद्योगी, तदा चेल्लको जगौ । साम्प्रतमत्रासन्नग्रामे स्थीयते, तदा योगिनो20 क्तमात्मनो निर्ग्रन्थस्य का भीतिः ? ततश्चेल्लको यदा न चलति तदा योगिना ज्ञातमस्य पार्वे
किमपि धनं विद्यते अतोऽस्य भीभवति । ततः पश्चाद्वलित्वा योगिना चेल्लको विलोकितः । धनं निर्गतं । ततः प्रोक्तमात्मनो धनमनीय भवति, तदिदं त्यज ! ततस्तेन धनं त्यक्तं । ततश्चेल्लको अगौ-भयं भाजने भवति, तच धनं, धनं च गतमतश्चल्यतां । ततो निर्भयौ भूत्वा योगिचेल्लको बेलतुः । इति भयभाजने योगिचेशकसम्बन्धः ॥३५८॥
[359 ] अथ वृद्धत्वे वृद्धनरसंबंधः । एको वृद्धो मार्गे अधोमुखो याति, तदा ते] तथा हिण्डमानं दृष्ट्वा तरुण एकः पुमान् प्राह-मो वृद्ध ! अधोमुखं किं हिण्डवते ! वृद्धोऽवग-रत्नमेकं मार्गेऽस्मिन् पतितं
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द्वितीयोऽधिकारः
[ १९७ सहिडोकयनस्मि । युवा प्राह-किं रत्नं पतितं ? वृद्धो जगौ भवद्भिरपि जीवद्विरत रत्न हारयिष्यते, युवाऽवग-किं रत्नं भवति तत् विलोक्यते । वृद्धोऽवग-यौवनरत्नं हारितं पातितं च तद्विना सर्वोऽपि पुत्रपत्नीप्रभृतिर्न मानयति । यतः-- गात्रं संकुचितं गतिविगलिता दन्ताश्च नाशं गता,
दृष्टिर्भश्यति रूपमेव हसते वक्त्रं च लालायते । वाक्यं व करोति बान्धवजनः पत्नी न शुभ्रषते,
___ हा ! कष्टं जरयाऽभिभूतपुरुषं पुत्रोऽप्यवज्ञायते ॥१॥ युवा प्राह-सत्यंवृद्धेनोक्तं--ततो वृद्ध क्षमयित्वा युवा गतः ।
इति वृद्धत्वे वृद्धनरसम्बन्धः ॥३५९।।
[ 360] अथ बुद्धौ श्रेष्ठिपत्नीसम्बन्धः । एकस्मिन् पुरे धनिनं राजा दण्डयितुमिच्छति बलं चिन्तयति च, परमवसरं न लभते । 10 दीपालिकावसरे राज्ञा च्यातं-मम लक्ष्मीः पट्टराजी वर्तते । एतद्भार्या तु प्रभाते वक्ष्यति
_ 'पइ सिलाछि निसरि अलछि इति वदन्ती बहिनिर्यास्यति एवं प्रोक्तेऽहं धनिनं दण्डयिष्यामि । भेष्टिना राजाभिप्रायशेन पत्नीति शिक्षिता शूर्पकं त्यजन्ती प्रोवाचोच्चैः ।
'पाडोसीनि रीति रीति' एवं श्रुत्वा भूपो न दण्डयितुं समर्थोऽभूत् ।
___ इति बुद्धौ श्रेष्ठिपत्नीसम्बन्धः ॥ ३६० ।।
[361] अथ सामायिके निसढस[वि]सढकथा । असमंजसाइ जंपइ, गहिओ सामाई अंपि जो सट्टो ।
विसढो वि कुगइपत्तो, सो मो[सो] यइ अप्पणो खलिअं ॥१॥ तथाहि-साकेते पुरे आसधरः श्रेष्ठी मृदुभाषी, तस्य वसुन्धरा पत्नी, विसरः पुत्रः प्रमदमदादिवान , तस्य मित्र निसः प्रकृत्या धर्मकर्मकृत् ।
अन्यदा धनं प्रधानमिति हृदये कृत्वा धनार्जनाय निर्गतौ स्वगृहात्तौ । मार्गे चलन्तौ साधुयमुन्मार्गे समागच्छन्तं दृष्ट्वा च मिथश्चिन्तयतः । एतौ साधू बानिनौ लाभादि पृच्छयेते, 25 तदा तत्रैत्य ज्येष्ठः साधुराचष्ट को मार्गोऽमुकग्रामस्थ, ततस्तो हसतः स्म । इसनकारणे साधुना पृष्टे तौ वणिजौ जगदतुः--आवाभ्यां झातमेतौ साधू झानिनो स्तः अतो लाभादि
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१९८ ]
प्रबन्धपञ्चशती प्रक्ष्येते, भवद्वषो मार्गोऽपि न ज्ञायते, अतो हास्यमभूत् । साधू जगदतुः--द्वौ मागौं स्त:द्रव्यभावरूपी। वयं तु भावमार्ग जानीमः। द्रव्यमार्गोऽयं गमनारब्धः पन्थाः, [ तस्मादायमार्गात्त इह लोको न स्यात्, द्रव्यमार्गात्तु स्यात् ] तस्मात् भावमार्गात्तु न द्रव्यमार्गादिहलोकः स्यात् । भावमार्गात्तु स्वर्गादिशिवान्तं सुखं स्यात् ।भावमार्गः सामायिक सामाईअंमि उकए।११ इत्यादि ।
ततो द्वावपि सामायिकाभिप्रहं ललतुः । क्रमाद्विसढः प्रमादी मित्रेण वार्यमाणोऽपि सामायिकं हास्यकौतुकादिभिः खण्डयति, विकथाः करोति स्म । अन्यदा कृतसामायिकं तं प्रति श्राद्धैरुक्तं-निरवचं सामायिकं सावधैर्वचोभिन खण्ड्यते । ततः स प्राह-मम प्रकृतिरियं, मत्प्रातिवेश्मिक सान्त इवास्ति । यतः--
मह पाडिवेसओ जह, वारिज्जंतोचि पुत्तनत्तूहिं ।
अहिअं निठुरभासी, होइ तहा अहमपि अहनो ॥२॥ तथाहि-अस्ति सान्तो नाम्ना धनी, स च निष्ठुरमेव भाषते पुत्रादिभिः समं । तथाहि--
निठुरभासी पुत्ताइ संतई दुमेइ । अह अन्नया पत्तो, वीवाहो तस्स गेहमि ॥३॥ तणयदुहियाइ ततो, पत्ते वरिणज्जयस समयंमि । पुत्तेण पिया भणिओ, पजंपि[य] व्वं न दुव्ययणं ॥४॥ अन्नोवि हु भासंतो, अमंगलं ताव वारिअव्वो अ । जम्हा आसन्नोच्चिअ, पवट्टए लम्गसमओत्ति ॥५॥ तो भणइ सिट्ठिसंतो, लग्गं वा इओ मरणं वा एउ । नाहं किंचिवि भणिमो, मुउव्य मुक्क व्व चिट्ठिस्सं ॥६॥ तत्तो निसीहसमए, सयं समुट्टे वि संत[ओ] सिद्धि। अवलोइविगहचक्कं, विणिच्छियं लग्गसमयं व ॥७॥ सो सद्दइ नियतणयं, रे रे छोहरय गोरकयंडोउ । उहवसु जेण लग्गं, सो साहइजइमूओ नेव ॥८॥ तो भणियं तणएणं, मामा ताय एरिसं वयणं । भणसु सुभासियवयणं, जं चउरीए धूया चडिही ॥६॥ चडउ चडरीए सूलीए वावि ताहि न किंपि पिस्सं । जाव न एसा रंडा, मज्झ गिहाओ विणीहरिआ ॥१०॥
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10
द्वितीयोऽधिकारस तो भणियं तणएणं, रंडा मा भणसु ताय पढमंमि । सो भणइ तुम्ह जणणी, सयावि रंडा मए भणिआ ॥११॥ तहवि न जाया रंडा, कि रे दुद्धाइ मंगलसएहिं ।
जो मंमि एवमाई, तब्भणिमाणं नो संखा ॥१२॥ एवं स श्रेष्ठी दुष्टवचःपरो न निववर्ते । एवं ममापि स्वभावेन सत्यपि सामायिके । सावधवचोजल्पनं । विसढः सावा सामायिकं करोति स्म । यदा कोऽपि वारयति तदा स वक्ति-यदा त्वं स्वर्गे गमिष्यसि तदाऽहं मादेङ्गिको भविष्यामि । मम केलिस्वभावो न याति । कालेन निसढः सामायिकपरो मृत्वा महर्द्धिकः सुरः स्वर्गे जातः ! पिसढो मृत्वा स्वल्पद्धिको मार्दङ्गिको जातः । तेन प्राक्स्नेहात् गौरवेण दृश्यमानोऽपि तद्विभवं दृष्टा प्राग्भवं स्मृत्वा झूरयति ।
सरिसो गिहिधम्मो. दोहिवि परिवालिओ तहषि जाओ।
अज्झवसायवसेण, एसो सोमी अहं भिच्चो ॥१३॥ इत्यादि । ततो द्वावपि मुक्ति यास्यतः ।
इति सामायिके निसढ[वि.सढकथा ॥ ३६१ ॥
[363] अथ सम्यक्त्वे वज्रकर्णकथा । वनकर्णभूपः सम्यक्त्वधारी नान्येषां देवानां मस्तकं स्वं नामयति । ततो मुद्रिकास्थं जिनं नमन् निजेशं सिंहोदरं न नमति । तस्य क्रमाद्रामलक्ष्मणौ धर्मात्साहाय्यं चक्रतुः । उक्तं च
अहं सात्विकमूर्धन्यो, वज्रकर्णमहीपतिः । सर्वनाशेऽपि योऽन्यस्मै, ननाम न जिनं विना ॥१॥
इति सम्यक्त्वे वज्रकर्णकथा ॥३६॥ [383 ] अथ रामलक्ष्मणरावणहनुमत्सीतामूर्खत्वसम्बन्धः । रावणं जित्वा पश्चादयोध्यायामागच्छन् रामो लक्ष्मणेनोक्तः । तुङ्गगिरौ हनुम-माता] मातुमिल्यते । ततो रामप्रेषितोऽग्रे भूत्वा हनुमान गत्वा मातरं नत्वाऽवग-राम आगच्छन्नस्ति, किमपि भव्यं वाच्यं । "आगच्छन्त्वत्र रामादय" इति तयोक्ते आगता रामादयस्तत्र । हनु- 25 मन्मात्रोक्तं--भो राम ! मूर्खकुटुम्ब ! त्वया गम्यतां । रामोऽवग-भो मातरहं कथं त्वया मूर्खः कृतः १ सा तूवाच--यत्त्वं सौवर्ण मृगं झात्वाऽपि तत्पृष्टौ धावितः, मृगा रेमया न भवन्तीति न विचारितं, अतस्त्वं मूर्खः । यत:
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२०० ]
प्रबन्धपश्चाती
न भूतपूर्व न कदापि संस्मृतं, हैमः कुरङ्गो न कदापि वीषितः ।
तथापि तृष्णा रघुवंशजस्य, विनाशकाले विपरीतबुद्धिः ॥१॥ लक्ष्मणेनोक्तमहं कथं मूर्खः ? सा चाह-लोकोक्त्यैवं प्रोच्यते-रामेण खरदूषणाभ्यां सह युद्धं कुर्वाणेन यथा सिंहनादरूपास्विरः कृतः तदा त्वं राम मरणान्तेऽप्यारीस्वरमजल्पन्तं हात्वाऽपि सीता शून्यां मुक्त्वा तत्रागाः। अतस्त्वमपि मूखः ।२।।
सीतयोक्तमहं कथं मूर्खा ?-यद्रामकर्षितरेखायाः बहिः पदं दत्तवतीति तेन मूर्खा ॥३॥
हनुमता पृष्टं-कथमहं मूर्खः ? सा प्राह-ईदग्बली भवान् लङ्कावने सोतापार्वे गवः सन् तामुत्पाट्य यन्नानीतवान् अतस्त्वमपि मूखः ।४।। सबद्धवानर्योक्तं यथा सत्यं मानितं तथाऽन्यैरप्यधुना वृद्धप्रोक्तं माननीयम् ।
इति रामलक्ष्मणहनुमत्सीतामूर्खत्वसम्बन्धः ॥३६३।। [364] अथ लोका भूपानामपि दुराराध्या भवन्तीति विषये रामसम्बन्धः । रामेण वने गच्छता भरतं प्रति शिक्षेति दत्ता
आलस्योपहतः पादः, पादः पापण्डमाश्रतः ।
राजानं सेवते पादः, एकः पादः कृषीबलः ॥१॥ 16
एकं पादं त्रयः पादा, भक्षयन्ति दिने दिने ।
तथा भरत ! कर्त्तव्यं, यथा पादो न सीदति ॥२॥ तदनु रामपादुकां सिंहासने उपवेश्य १२ वर्षाणि भरतो राज्यमकार्षात्मजा चाऽकरामकरोत् । रामागमे तलिका तोरणबन्धनाय प्रत्यर्ट्स एकैकसूत्रफालकमार्गणेन कैश्चिदपितं, कैबिन, केचित्तदा दूनास्तस्मिन्मार्गणे । द्वितीयदिने प्रजा रामं नन्तुं यदा गताः सुखोक्तौ रामेण
पृष्टायो दूनैः कैश्चिदुक्तंभरतेन वयं पीडिताः । ततो रामेण भरतः पृष्टः सन्प्राह--मयाऽद्य 20 यावत्सूत्रफालक विना कोऽपि लोको न मार्गितः । ततो रामे माचिन्ति भविष्यद्विवाहाय स्था
पितमहिषीदोहनेच्छावत् बहुदिनेषु या न दुग्धा सा विशुष्का । अतः प्रजाऽप्येवं । सतो रामेण एकः करः कृतः ततोऽष्टादशकरा जाताः। इति लोका भूपानामपि दुराराधा भवन्तीति विषये रामसम्बन्धः ॥३६४॥
[365] अथ विशिष्टशाकुनिकनरज्ञातृसम्बन्धः । युगान्धरीदण्डिकोपविष्टां दुर्गा शब्दयन्ती दृष्ट्वा शाकुनिक पुमान् प्राह---यस्याः परिणेतृदेतोः शकुना विलोक्यन्ते सा कन्या मासत्रयोत्पन्नगर्भा विद्यते तृतीयपर्वसमुत्पन्न कीटकत्वात् । तथैव दृष्ट्वा शकुनविद् प्रशंसितः । इति विशिष्टशाकुनिकनरज्ञातृसम्बन्धः ॥३६५।।
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द्वितीयोऽधिकारः
[366 ] अथ असारपुत्रादिसम्बन्धे श्रेष्ठिकथा ।
एकस्य धनिनः पार्श्वे केनचित् प्राघूर्ण केनोक्तं भवतः कियन्तः पुत्राः सन्ति १ धनिनोक्तंनव । क्षणात्प्राघूर्णकोऽवग्--कियन्तो जीवन्तः ? श्रेष्ठ्यबग-१ - पञ्च । पुनः पृष्ठे त्रयः । पुनः पृष्ठेऽतिथिना श्रेष्ठी - एकमाह ।
अतिथिः प्राह - श्रेष्ठिन् ! कथमेवं त्वयोच्यते ? श्रेष्ठ्याह
ब्रह्मणा स्वशिरो दत्तं ईश्वरेण विलेपनम् । विष्णुना भयभीतेन, गदाशंखौ समर्पितौ ॥१॥
नव स्युः शयने पुत्राः कलौ पञ्चादने त्रयः । मायामेक एव स्यात्, कार्येऽप्येको न मे सुतः ॥ १ ॥
इति असार पुत्रादिसम्बन्धे श्रेष्ठिकथा || ३६६ || [367 ] अथ प्रत्युत्पन्नमतौ माणिक्यसूरिसम्बन्धः ।
एकदा मुहुडास पुरे केनचिद्राज्ञा पथि त्रिः प्रदक्षिणीकृत्य गौर्वन्दिता तथा माणिक्य- 10 सूरिया प्रदक्षिणीकृत्य स्वरः प्रणत: । तदनु राम्रोक्तं- खरो भवता कथं नतः ? सूरिणोकंपूजितत्वात्, खरेण जातमात्रेण त्रयो देवाः प्राकम्पिताः । राज्ञोक्तं कथमेतद् ज्ञायते १
[ २०१
ब्रह्मणा स्वपरीक्षायां पञ्चमं गर्दभमस्तकं कृतम् । भवेन विलेपनं-स्वा विभूतिः रक्षा रा कोटना | विष्णुना -- गदा लिङ्गरूपा, शंखाकारः श्वेतमुखदानात् गदाशंखौ ।
इति प्रत्युत्पन्नमतौ माणिक्यसूरिसम्बन्धः || ३६७॥
[368 ] अथ जीवदयायां जितशत्रुभूपसंबंधः ।
जीदुर्गे बितशत्रुर्मृगयायां गतोऽन्यदा जीवहिंसां कुर्वन् चारणश्रमणर्षिणा प्रोकं - जीववधता नरगगर, अवधंतां गइ सग्गि | इ जाउं दोइयघडी, जिणि भावइ तिथि लग्ग ॥१॥
अनबा गाथया राजा प्रबुद्धो जीवहिंसामत्याक्षीत् ।
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इति जीवदयायां जितशत्रुभूपसंबंधः ॥ ३६८ ॥
[369] संसारासारतायां कन्या हडि[ हिडि] रेवेति कथा | कस्मिंश्चिद ग्रामे एको मित्रं पाणिग्रहणोत्सुकं दृष्ट्रा प्राह-भवान् हिडौ विप्यमानोऽधि 26
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प्रबन्धपश्चशती तेनोक्तं का हिडिः ? यतिनोक्तं-या कन्यां परिणेष्यसि त्वं सा हिडिः । सोऽवग्-सा वर्या सीर्विद्यते।
यतिः प्राह-अस्यां हिडी प्रविष्टस्य दुःखं स्यात् । स च सुहन्न मन्यते । ततः स हिरो प्रविष्टः । कालान्तरे साधुनोक्तं--अस्ति सुखं ? सुहृत्पाह-हि डिप्रविष्टस्य क्व सुखं, या खी • हिडिः प्रोक्ता सा सत्यैव, मोक्तुं न शक्यते लोकापवादात् । पुनः कालान्तरे साधुनों पृष्ट
सुखमस्ति ते । सोऽवग--कथं सुखं प्रथमं हिडौ प्रविष्टोऽहमधुना पुत्रपन्यादि खिलिकाभि- दृढं जडितोऽस्मि ? आजीविकाया दुःखं । ततो यतिनोक्तमधुनापि मुश्च ! ततोऽवग--व्रताद्विभेमि । पश्चान्मृतः स नरके[क] गतः । यतिस्तु स्वर्गे सुरोऽभूत् । ततः स्वर्गादभ्येत्य नरके
सुहृदने प्रोक्तं--त्वं व्रतागीतोऽभूत् , अधुनेदृशं दुःखं ते । ततोऽतीव झूरन्नभूत् अतः प्रथममेव 10 चिन्त्यम् । इति संसारासारतायां कन्या हडिरेवेति कथा ॥३६९॥
[370] अथ प्रमादिहाडिजल्पकस्त्रीसम्बन्धः । एका स्त्री गृहे उन्निद्रा सती स्वगृहकार्य कुर्वाणा क्षणं विश्रामं न लाति । सा च श्रीहेम सूरिसभायां व्याख्यानं श्रोतुं गता भित्ताववष्टम्भ्य निद्रायति [निद्राति] बहूक्ताऽपि न जागत्ति,
तदाकस्मात् क्षुल्लकस्य हस्तात् त्रिपुणके पतिते खाट्कारशब्दाज्जागरिता 'हाडि हाडि' इति 15 जल्पन्ती उत्थिता तदा सर्वा सभा जहसत् [अहसत् ।
इति प्रमादिहाडिजन्पनकस्त्रीसंबंधः ॥ ३७० ॥ . [371] अथ नाणावालसूरिपूर्णिमापाक्षिकसरिमिथो वार्तासंबंधः । एकदा नाणावालराकाचार्यों मिलितो, मिथः कुशलपृच्छायां नाणावालाचार्याः प्रोचुः-- 'खतदूह वइ छई। 20 राकाचार्यरुक्तं-खतं किं प्रोच्यते ? नाणाचार्यरुक्तं--खः-खरः, तरः-तः तया दूहवइ छइ अस्मन्मध्यनिर्गमनत्वात् ।
राकाचार्या जगुर्वयं--आंत्रिनिर्गते जीबूं छु । नाणावाला जगुः--युष्माकं का भान्त्रिनिर्गताः । राकाचार्याः प्रोचुः--ओ-आंचलीया, त्रि-विथोईआ आगमिका अस्मभ्यो निर्गता। अतो वयं आन्त्रिनिर्गते अपि जीवन्तः स्म ।
नाणावालसरिपूर्णिमापाक्षिकसूरिमिथो वार्तासंबंधः ॥३७१॥
[373] अथ भाग्ये जयसिंहकथा । कर्णाटकदेशीयकेशिराज्ञः पुत्री मणयल्लदेवी स्वयंवरामायातां गूर्जरनृपो मूलराज पत्तनस्वामी अङ्गीचक्रे । परं तस्य दौर्भाग्यत्वात् नामापि न लाति ।
अन्यदा राजानं कस्यांचिदधमयोषिति साभिलाषं झात्वा मूलराजमन्त्री डुम्बिणीरूप
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द्वितीयोऽधिकारः
धारिणी मणयल्लदेवीमेव ऋतुस्नाता रहसि प्राहिणोत् । राजा हुम्बिनीबुद्धया तां बुमुजे । तस्या माधानं जातं । तदा संकेताय राज्ञा स्वनामाङ्का मुद्रिका दत्ता। तस्य वार्ता कृता । स्वस्थाने गता राशी । राजा प्रातः डूम्बिनी मुक्ता स्वयं स्मृत्वा पश्चात्तापपरः काष्ठभिक्षा याचते मन्त्रिभ्यः यदा राबस्तप्तपुत्तलिकामालिगनेन मरणं कुर्वतो मन्त्रिणा मणयल्लदेव्या भोगसम्बन्धः प्रोक्तः । ततो राजा स्वस्थोऽभूत् । ततः सुलग्ने जातः पुत्रः, कृते जन्मोत्सवे जयसिंहनामाऽभूत् । स त्रिवार्षिक: 5 क्रीड़या नृपसिंहासनमारूढो यदा तदा राज्ञा क्यवेलां ज्ञात्वा राज्याभिषेकश्चक्रे तस्मै सूनवे । स्वयं तु आशापल्या वसन्ताहम् भिल्लं लक्षस्वामिनं जित्वा कर्णावतीनगरं निवेश्य तत्र राज्यं चक्रे । बवः जयसिंहो महाराजोऽभूत् । इति भाग्ये जयसिंहकथा ॥३७२।।
[873 ] अथ हेमस रिनामनव्यव्याकरणविषये हेमसरिसम्बन्धः । मसिंहो यदा धाराधोशं यशोवर्मनृपं जित्वा पत्तने समागात्तदा श्रीहेमसूरिरेवमाशीर्वादं 10 ददौ । तथाहि
भूमि कामगवि ? स्वगोमयरसैरासिञ्ज रत्नाकरा ?
मुक्तास्वस्तिकमातनुध्वमुड्डुप ! त्वं पूर्णकुम्भी भव । धृत्वा कल्पतरोदेलानि सरलैर्दिवारणास्तोरणा--
न्याधत्त स्वकरैर्विजित्य जगतीं नन्वेति सिद्धाधिपः ॥१॥ 15 राजा चमत्कृतः । ततो नृपो द्विजानाहुः--श्वेताम्बराणामतीव वैदग्ध्यम् । ततो द्विजैरुक्तम्-अस्मच्छास्त्राण्यधीत्यैते विज्ञा बभूवुः । ततो हेमसूरिरवग-मिथ्येदं श्रीवीरेणेन्द्राय यत्प्रणीतं व्याकरणं तदैन्द्रं व्याकरणं वयं भणामोऽन्येषामपि व्याकरणानि विलोकयामः । विप्राः प्रोच:-अस्मदीयं व्याकरणं मुक्त्वाऽन्यव्याकरणं दर्शय ! ततो नृपादेशान्नवीनं जयहेमाख्यं व्याकरणं हेमसरिश्चक्रे सपादलक्षाप्रमाणं । ततो राज्ञा पदहस्तिनमारूढं कृत्वा महोत्सवपर्व करणयुक्तं राजमार्ग स्वस्थाने प्रेषीत् । व्याकरणप्रतयः पण्डिताना सूरिणा ददिरे तदा प्रोक्तं विप्रै पस्याग्रे युष्मद्वंशो वर्णितो नात्र व्याकरणे । ततस्तत् ज्ञात्वा हेमसूरिणा ३२ श्लोकान् । चौलुक्यवंशवर्णनगर्भान् ३२ पादप्रान्ते देवतापार्वात् स्थापयामास । प्रातः सर्वासु प्रतिषु दृष्टा राजा चमत्कृतः । विप्राः कृष्णास्याः जाताः । इति हेमसरि[जयहेम]नामनव्यव्याकरणविषये हेमसरिसम्बन्धः ॥३७३॥ ।
[974] अथ हकाररुदनवन्धत्वसम्बन्धः । एकदा चतुरं भट्ट प्रति हेमसूरिः प्राह-किं ते हस्ते वियते ! भट्टोऽवग-हरई। हेमः पाह-कि 'हरडई-झब्दच्छ लेन हकारो रडइ-रोदिति । चतुरो भट्टोऽवग-हो मात्रिकायामन्त्योऽप्यायोऽभून्मात्राधिकश्च । तवमिम नास्ति, जगद्वन्धोऽस्तिमिसि,साम्प्रतं ततो 'राई' भुत्वैतत्ततो गुरदो इष्टाः । इति हकाररुदनवन्धत्वसम्बन्धः ॥३७४||
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ठया.
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२०४ ]
प्रबन्धपश्चशती [375] अथ सोमदेवसरि-जयकेसरिसूरिसम्बन्धः । एकदा सोमदेवसूरिः पुरावहिर्जयकेसरिसृरेमिलितः। मिथः प्रीतिवार्तायां श्रीसोमदेवसूरिराह बर्क उच्यता । तदा जयकेसरिजंगौ-अध सोमवारः पूर्णिणमाऽस्ति । अतो यूयं बलिनः पूर्णिणमा-सोमवारत्वात् । श्रीसोमदेवसूरि गौ-वने तु केसरी अपि बलिष्टः । ततो इष्टः सूरिः ।
इति सोमदेवमरि-जयकेसरिमरिसम्बन्धः ॥
[376 ] अथ सोदरकथा । एकस्मिन् प्रामे द्वौ सोदरौ कोक-रामाभिधौ वसतः स्म । तयोर्भगिनी धनीकुछे परिणीता ।
अन्यदा तो भगिनीगृहे गतौ । तयोर्दरिद्रतां दृष्ट्वा दध्यो, यदि लोका जानते इयमेतयोभंगिनी ततस्तया भक्तिर्न कृता । प्रतिवेश्मिकैरुक्तं भवत्या इमौ सोदरौ कथं त्वया भक्तिन 10 क्रियते ! ततस्तया प्रोक्तं-'गादह बूची' इमौ । तच्छत्वा तो दुःखितौ सोदरी स्वगृहे गती, पश्चा
क्रमानिनौ जातौ । ततोऽन्यदा अलवडी महिषीं लात्वा भगिनीगृहे गतौ । ततस्तयोभक्तो क्रियमाणायां तावेवं प्रोचतुः
गौरव कीजइ अलवडी, न य को किया न उ राम ।
गरथ विहूणा माणसह, गादह बूची नाम ॥१॥ 16
इति निर्धने गादहची स्वकीयौ इति सोदरकथा ॥३७६॥
[377] अथ गर्वे नारीसम्बन्धः । कापि स्त्री कस्या अपि गलश्रियं मार्गयित्वा स्वगले क्षिप्त्वा कस्यापि गृहे जेमनायागता । इतो गलश्रीस्वामिनी तत्रागता स्फारान् स्फारान् कवास्त्वरितं मुखे प्रक्षिपन्ती सखी दृष्ट्रोवाच
लघवः लघवः कवला भ्रियन्ताम् , अतो मम गलश्रीस्त्रुटिष्यति । तयोक्तं-यदि ते धनमस्ति 20 तदा छोटव्यता गलश्रीः । ततः सा लज्जिता । इति गर्वे नारीसम्बन्धः ॥३७७।।
[378 ] दण्डालासौवर्णकासम्बन्धः । एकस्य भूपस्याने योगी ययौ । तदा राजा नोत्तस्थौ । ततो योगी जगौ--
तांवा तुंबा दोही मृचा; राजा योगी दोही कुन्चा । ततो राज्ञा सिंहासने दत्ते योग्यवग्
तांबा तूंबा दोही सूचा; राजा पाहि जोगी ऊंचा ॥१॥ ततो योगिना कला स्वा दर्शिता अष्टोत्तरशतताम्रभारमध्ये चूर्ण क्षिप्त्वा स्वर्ण योगी चक्रे । ततो हेमविद्या याचिता यदा तदा योगी नाऽदात् । ततो राज्ञा स्वबले दर्शिते योगी जगौ-त्वादृशा मफुत्कृतेन उड्डीयन्ते । ततो योगिना नेत्रमेकमञ्जितं ततोऽदृश्योऽभूद। द्वितीय
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द्वितीयोऽधिकारः
[ २०५ नेत्रेऽखिते- अदृश्योऽजनि । ततोऽदृश्यरूपो योगी राज्ञो मुकुट जग्राह । ततो योग्यवदत्-यदि त्वां हत्वा राज्यं लामि तदा त्वया किं स्यात् । ततो विनयेन रोझोक्तं-त्वं कृपापरोऽसि यथा मन्नाम तिष्ठति तथा कुरु । ततः स्वर्ण सिद्धिं कृत्वा राजयोगिभ्यो सौवर्णके राझो रूपं योगिनो दण्ड भालेस्वितस्ततो "दण्डालासोवर्णिका' इति प्रसिद्धिर्जाता ।
___ इति दण्डालासौवर्णिकासम्बन्धः ॥३७८।।
[379 ] अथ बप्पभट्टिसरिप्रोक्तधर्मलाभार्थसम्बन्धः । एकदा आमसभायां श्री बप्पमट्टिना धर्माशिषि दत्तायां भट्टः प्राहनो वापी नैय कूपी न च रससरसी नैव तीर्थं न गङ्गा,
न(च)ब्रह्मा नैव विष्णुर्न च दिवसपति व शम्भुन दुर्गा । विप्रेभ्यो नैव दानं न च जपनविधि व होमं हुताशो,
रे रे पाखण्टमुण्डा ! कथयत भवतां कीदृशो धर्मलाभः ॥१॥ तदनु सूरयः प्राहुः
दुर्वारा वारणेन्द्रा जितपवनजवा वाजिनः स्यन्दनौषार,
___ लीलावत्यो युवत्यः प्रचलितचमरभूषिता राज्यलक्ष्मीः। उच्चैः श्वेतातपत्रं चतुरुदधितटी संकटा मेदिनीयं;
प्राप्यन्ते यत्प्रसादात्रिभुवनविजयी सोऽस्तु वो धर्मलाभः ॥२॥ ततः सर्वे चमत्कृताः जनाः । इति बप्पभट्टिमरिप्रोक्तधर्मलाभार्थसम्बन्धः ॥ ३७९ ।।
[380 ] अथ भोगविषये भोगसारकथा । अघअ अघंतरवर्षाकाल, स्त्री चरित्र अनइं रोतां बाल ।
ईह एता जे जाणइ मेअ, तेह धरि नीरवहइ सहदेव ॥१॥ अस्या गाथायाः कथकस्य लक्षदाने आम्रभूपसम्बन्धः ।
स्त्रीचरित्रे काम्पोल्यपुरे भोगसारेभ्येन धीशान्तिनाथस्य प्रासादः कारितः । प्रभो कपूरागरुचन्दनकेसरादिभिर्भोगस्तथा क्रियते यथा शान्त्यधिष्ठाता सुरः प्रीणितः । कालान्तरे मृतायो पन्यामन्यां प्रियामङ्गीचक्र धनी । सा च पत्नी ग्रन्थि कुर्वन्ती स्वेच्छया भुङ्क्ते स्म । क्रमा- 25 सर्व धनं क्षीणं । स्तोकमेव तिष्ठति । ततो ग्रामान्तरे श्रेष्ठी वासमकार्षीत् । सा च पत्नी प्रच्छन्नं कृतं धनं न दर्शयति स्म । धनाभावात श्रेष्ठी कृषिकर्म विधत्ते स्म । सा स्त्री
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२०६ ]
प्रबन्धपञ्चशती
नादि भक्षयन्ती भर्त्तुश्चवलादि कदन्नं दत्ते । श्रेष्ठी नाम्नैव भोगसारोऽभूत् । पत्नी तु भोगवती, जाता क्रमात्कुटिलाशया परनरेण सह भोगान मुझे स्म ।
एकदा शान्तिजिनस्याधिष्ठाता सुरो दध्यौ प्रभो - कथमधुना भोगो न भवति ? ततोsवधिना भोगसारदारिद्रोत्पत्तिः तत्पत्न्या कुशीलत्वस्थापनिकाकरणादि जज्ञौ । अयं जिनेन्द्रभक्त श्रेष्टी 5 चवलक्षेत्रं लुनानोऽभूत् । भार्या तु कुटिला पत्यभक्ता इति मया भोगसारस्य सान्निध्यं कार्य ततो भोगसार भागिनेयरूपं कृत्वा मामकगृहे गत्वा च माम्या जोत्कार कृतः पृष्टुं च क्व मे मातुलोऽस्ति ? माम्योक्तं-क्षेत्रे ते मातुलः क्षेत्रं खेटयन्नस्ति । ततः क्षेत्रे गत्वा मातुलस्यांही प्रणम्य स्थितो यदा तदा मामकोऽवम् -- किमर्थमागा भागिनेय ? भागिनेयो जगौ तव साहा - यकृते । ततो मातुलोऽवग् गृहे भुङ्क्ष्व गत्वा, पश्चात्वयाऽपि लाव्यं क्षेत्रं । भागिनेयोऽवग्10 आवाभ्यां सार्द्धमेव जिमिष्यते, संप्रति मम वेला नास्ति क्षेत्रमलूनं विनंक्ष्यति । भागिनेयो जगौ क्षेत्रं लूनमेवज्ञेयमिति प्रोच्य दैवतशक्त्यैकत्र स्थापितं सर्वम् । मातुलोsवग्-कथं चवलाः कथं गृहे लास्यन्ते । ततः सर्वं चवलक्षेत्रसत्कं चवलादि उत्पाट्य गृहं प्रति चचाल भागिनेयः ।
इतस्तया स्त्रिया स्वपतिभागिनेयावागच्छन्तौ ज्ञात्वा स्वपार्श्वस्थं जारं गोमाणिमध्ये छन्ने चक्रे । लप्पनश्चादि रसवती कोष्ठिकायां प्राक्षेपि तदा भागिनेयोऽभ्येत्य मामिकाया जोत्कारं 15 कृत्वाऽऽह - मामकः समायातः आगतस्वागतादि क्रियताम् । ततः सद्यो गोमाणिकाया ऊर्ध्वं चवलकभरं मुक्त्वा कणीकर्त्तु चवलान् कुट्टयितुं लग्नो भागिनेयः तदा जारो जर्जरीभूतः स्वं मृतप्रायं मेने तदा भोगवती स्वस्योपपतिं मृतप्रायं ज्ञात्वा प्राह- अधुना जिम्यतां । त्वं श्रान्तोऽभूः । ततो द्वावपि मितुमुपविष्टौ तदा चवलादि कदन्नं परिवेशयितुमारेभे तथा । ततो भागिनेयो जगौ - अहं कदनं न भोक्ष्ये । तयोक्तं-वर्यमन्नं कुतो दीयते । भागिनेयोऽवग्-कोष्टिकामध्यस्थां 20 लपनत्रियं परिवेषय । ततस्तया परिवेषितां लपनश्रियं मुक्त्वा द्वावपि पल्यङ्के सुप्तौ यदा तदा
छन्नं स जारः - परपुमान् बहिर्निष्कर्षितस्तया । स च गतो निजालये । सा तु तयोः पार्श्व स्थिता दध्यौ - अहो अस्य डाकिनत्वं विद्यते नो चेल्लपनश्रियं कोष्ठिकास्थां कथं जानाति ।
इतो भागिनेयो मामकपार्श्वे प्राह- कथं सामलस्य सूनोर्विवाहो न क्रियते १ मातुलो जगौ धनं विना कथं पुत्रस्योद्वाहः क्रियते ? धनेनैव मनोरथाः पूर्यन्ते । ततो भागिनेयोऽवम् - मामक ! 26 त्वमुत्तिष्ठ, अत्रस्थं धनं बहु गृहाण । ततो विवाहो विस्तरास्क्रियतां । तस्यां पश्यन्त्यां स्वं धनं श्रेष्ठी भूमेश्कर्ष । ततो धनयोगाद् विवाहो मेलितो, लग्नमपि गृहीतं, विवाहावसरे भोजनदिने तथा स्त्रियाsध्यायि, तमुपपति विना किं सर्वजनजेमनेन ? ततो स्वस्था अभिष्टस्य प्रच्छन्नं निमन्त्रणं कृतमिति उक्तं च त्वया स्त्रीवेषधारिणीस्त्रीमध्ये भूत्वा गन्तव्यं भोजनाय । यदि त्वमागास्तदा मम सुखं स्यात्ततो विवाहदिने भोजनावसरे स्त्रीवेषभृत् स उपपतिर्जे मितुमागात् । 30 ततः श्रीमध्ये जेमितुमुपविष्टः स भागिनेयो जगौ-मयाऽय परिवेषणं करिष्यते । मामकोऽवग त्वमेव कुरु । ततो भागिनेये परिवेषयति सति सा स्त्री विलोकयति यदा भागिनेयः परिवेषयन् तस्य स्त्रीरूपधारिणो भाजनं परिवेषयितुं याति तदा छन्नं वक्तित्वं गोमाणिमध्ये जर्जराङ्गोऽभूः । स उपपतिराचष्ट - नाहं, स एवं द्वित्रिर्वारे प्रोक्ते भागिनेयो जगौ - एषा स्त्री सर्वस्य पक्वन्नादेर्निषेधं करोति, अहो बालेनेव जिमसि तर्हि जेमनाय स्त्रीमध्ये कथमायासि । एवं प्रोचं प्रोचं यदा 35 तस्याः किमपि न परिवेषितं तदा भोगवत्या उच्चाटोऽभूत् । ततो मिषं कृत्वा मोदकानानीय
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द्वितीयोऽधिकारः
[ २०७ नमुपपतेर्भाजने मोदकाः परिवेषितास्तया तदा तया स्त्रिया फियन्तो भक्षयित्वा चत्वारः कुलो क्षिप्ताः । सर्वासु स्त्रीषु उस्थितासु भागिनेयोऽवग-प्रत्येकं मम मालमण्डपमझतैवीप्यता । सर्वाभिः स्त्रीभिः प्रत्येक मंगलार्थ (सर्वाभिः स्त्रीभिमण्डपे व पिते यदा सा न वर्द्धापयति मण्डपं तदा भागिनेयो जगौ-मातः ! त्वं कथं न वापयसि । पङ्क्तौ भोक्तुमुपविष्टा, अधुना पङ्क्तेः कथं पृथग्भवसि । ततो यदा सा वर्धापयितुं लग्ना तदा कुक्षेर्मोदकाः पेतुः क्षितौ । 5 मातुलेनोक्तं-मोदकाः कुत आयान्ति । भागिनेयो जगौ-तव पुत्र विवाहोत्सवे मण्डपो मोदकै. पति साम्प्रतं । ततो मातुलो जगौ भागिनेय ! त्वं कथं ज्ञानी जातोऽसि । ततः स स्वरूपं प्रकटीकृत्य तस्याः स्त्रियाः पल्या आमूलचूलं देवः प्रोच्यावग--अहं शान्तिनाथस्याधिष्ठाता सुरोअनया भोगवत्या तव सर्वे धनं हृतं भूमिगतं चके । त्वं दुःखी जातः, देवस्य भोगो न भवति अतो मयैतत्कृतं । ततो भोगवत्यो उक्तं तेन देवेन, यद्यतः परं त्वया भोगसारस्य प्रतिकूलत्वं 10 करिष्यते तदा त्वामहं हनिष्यामि । तस्य जारस्याप्येवं प्रोक्तं । द्वावपि अकार्यकरणे नियम माहितौ । भोगसार ! त्वं पुण्यवान् स्वगृहे याहि, यदा तव धनेच्छा स्यात् तदा त्वया कायोत्सर्गः कार्यः । अहं तव चिन्तितमर्थ दास्ये । एवं प्रोच्य लझटङ्ककान् दत्त्वा देवस्तिरोदधे । ततो भोगसारो विशेषतः शान्तिनाथस्य पुरः कर्पूरागरुकस्तूर्यादिभिः सदा भोगं कुर्वन् वासुदेवचक्रवर्त्यादिमुक्तिप्रान्तां श्रियं क्रमाप्राप ।
15 इति भोगविषये भोगसारकथा ॥३८०॥
[381] अथ वधूविषये कथा । चम्पायां पुर्यामरिमर्दनभूपस्य राज्यं कुर्वतः कमलेश्वरो व्यवहार्यभूत् । तस्य मदनसेना पत्नी । तयोश्चत्वारः पुत्राः-श्रीराज-मदनभूम-नागेश्वर-धनेश्वरालाः क्रीडा कुर्वन्ति गृहाङ्गणे । यतः
दर्श दर्श सदा तेषां, क्रीडनं कुर्वतां मिथः ।
हर्षोत्कर्ष वितन्वाते, जननीजनको भृशम् ॥१॥ यतः- स्याच्छैशवे मातमुखो, यौवने युवतीमुखः ।
अर्धके च पुत्रमुखो, मूढो नात्ममुखः क्वचित् ॥२॥ व्यवहारिणाऽपि पुत्रा बुधान्ते पठितुं मुक्ताः, क्रमात्ते विद्वांसो जाता । तेऽपि पुत्रा 26 बहुधनव्ययं कृत्वा महेभ्यपुत्रीः परिणायिताः । गृहभारः सर्वः पुत्रेष्वारोपितः । क्रमावधूट्यः स्वशुरस्य कथितं न कुर्वन्ति । यतः
इत्थी दम्मइ संवच्छरेण, मासेण दम्मइ तुरओ।
महिलाए किर पुरिसो, दम्मइ एक्केण दिवसेण ॥३॥ क्रमाता वधूट्यः स्वशुरदूषणं स्वस्वपत्युः पुरः प्राचुः । युष्मन्माताऽपि अस्मान् दुःखे 30 पातयत्येवं गालिप्रदानपूर्व पानीयमानयते रक्षोत्था[च्छा]रणं कारयते अस्माभिः । पानीयं
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२०८ ]
प्रबन्धपश्चशती गल्यते । खट्वा प्रस्तार्यते । पादाः प्रक्षाल्यन्ते । छगणस्थापनं क्रियते । खण्डनं क्रियते । प्रेषणं क्रियते । चुल्हीसंधुक्षणं क्रियते । नवग्रहवत् पीडाकारिणी श्वश्रः अदग्धधान्येऽपि दग्धं, अभग्नेऽपि घटे भग्नं घट वक्ति श्वश्रः । एवं कथमस्माभिर्निर्वाहयिष्यते ? ननान्दाऽपि वक्ति नाभ्या घटो भग्नः, अदग्धमपि धान्यं दग्धं । ततस्तेषां भार्यावशीभूतानां मातृपितृ5 भगिनीध्वपि द्वेषोऽभूत् । यतः---
रमणीं विहाय न भवति, विसंगतिः स्निग्धबन्धुजनमनसाम् ।
यत्कुञ्चिका सुदृढमापि, तालकबन्धं द्विधा कुरुते ॥४॥ ततस्ताभिर्वधूभिरुक्तं यदि युष्माभिः पृथग्भूयते तदा यूयं सुखिनो भविष्यथ, भात्मनोऽपत्यानि परिणयनयोग्यानि जातानि । एतौ डोलोत्करौ किं कुरुतः आत्ममध्ये यतः--
भाऊगुरुगुणधेरडा, भुहि ऊ घढा भमंति ।
हारत्तं जुव्वणरयण, ते फिरिफिरि जोति ॥५।। ततस्ते पृथग्भूताः । ततो मातापितरौ नोरेन्धनधान्यादि स्वयमानयतः स्म । गोमहिष्यादीनां हेतोश्चारिः स्वयमानयतश्च । एकदा कमलेश्वरस्य महिष्यादि पाययितुं गच्छतोऽध्वनि सुहृद्वसन्तदत्तो मिलितो जगादेति-स्वयं कथं पानीयाद्यानीयते । युष्माकं पुत्राश्चत्वारो विद्यन्ते । 15 ये ते कथं गृहादिकार्य न कुर्वन्ति ? ततोऽश्रुपातपूर्व श्रेष्ठी जगौ--अहो मित्र ! त्वया न
ज्ञातमस्मद्गृहस्वरूपं । गतं सर्व वस्तुसारं । मित्रं जगौ--किं गतं ते । कमलेश्वरोऽवगखात्रं पतितं । कस्यचिद् घोटकाः यान्ति । कस्यचिद्वलोवाः, कस्यचिद् धान्यं याति, कस्यचिद्वस्त्रं, कस्यचिद्भाजनं, मम गृहे तु पुत्रा हृताः । मित्रेणोक्तं-केन हृता: ? कमलेश्वरोऽवग--
वधूचौरैरवलाभिः कृतयो घटकैरिह । हता मे सूनवो मित्र-स्तेनैर्धनिकैरिव ॥६॥
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सुहृत्पाहेति
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वाहरा न कृताः किं भोस्तत्पृष्टौ लघुसायुधैः । भटैवीर्योत्कटैटिं साकं मित्र त्वया तदा ॥७॥ विषं मुञ्चन्ति सोऽपि, गृहीतं तस्करा अपि ।
कृतयो घटका एते, न मुश्चन्ति कदाचन ॥८॥ अतोऽन्यद्वस्तु गतं कदाचिदलते, पुनर्यद्वधमिहोतं तत्प्राणान्तेऽपि न पलते ।
इति वधूविषये कयो ॥३८॥
[38] अथ बुद्धयुपरि' रूतकोथलकथा । 30 - एकस्य कस्यचिद्वणिजो गृहे सदा वधू रुतं कर्त्तयन्ती विश्राम न लभते । इतोऽन्यदा
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द्वितीयोऽधिकारः
[२०९
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पुराबहिर्गता रूतकोथलकान् बहून् दृष्टा प्राह सख्यने-'काहं करिसिइ' इति जल्पन्ती प्रथिला ग्रहग्रस्तां ज्ञात्वा श्रेष्ठी ज्योतिष्किकान् पृष्ट्वा पृष्ठवा धनं भूरि व्ययितवान् । ततश्चैको बुद्धिमांस्तत्रागतः । कृत्रिमतृणसमूहं ज्वालयन् जगौ तां सुप्तां प्रति रूतकोथलका ज्वलन्त' सन्ति ज्वलिता वा । एतत् श्रुत्वा सा निग्रेथिला जाता हष्टा च ।
इति बुध्युपरि रूतकोथलकथा ॥३८२॥ [393 ] अथ उचितसमस्यापूरणे भोजधनपालसम्बन्धः । अन्यदा भोजराजः रात्री निर्वस्त्रो लधुनोतिहेतवे गृहाद्वहि निर्ययो, तदा स्वं निर्वस्त्रत्वं वीक्ष्य एक समस्यापदं च करोति-'आजविगूता हंति'
ततो गृहमध्ये समेत्य सुप्तः । प्रातर्धनपालपण्डितपार्श्व स्वं समस्यापदं पप्रच्छ, तदा धनपालपण्डित औत्पत्तिकबुद्धिमान पदत्रयं प्राहेति
लांबा तांणा नहि तणंति, आडी, आडी नली न भरंति ।
वणकर वेजा न वणंति, तो आजविगूता हंति ॥१॥ इति श्रुत्वा हृष्टो राजा धनपालाय लक्षत्रयं ददौ ।
इति उचितसमस्यापूरणे भोजधनपालसम्बन्धः ॥३८३॥
[384 ] अथ समस्यापूरणे धनपालपण्डितसम्बन्धः । एकदा भोजराजो मार्गे गच्छन् एका सुरूपां नारी दृष्ट्वा हस्तस्थितं नागवल्लीबीटकं तस्याः पार्श्वे चिक्षेप तदा तया तबीटकं क्षिप्तं दूरतः, एतद् दृष्ट्वा राज्ञः समस्यापदं समुत्पन्नम्
"किणि कारणि ए लंखई लंखइ' एतत्समस्यापदं धनपालपण्डितस्याने राज्ञा पृष्टं । ततः पण्डितेनैवं पूरिता समस्या पदत्रयकरणेन--
सकुलीणी नइ शीलवंती, रायदृष्टि पड़ी भमंती ।
अंगनयणप्रियकारणि राखई, तिणि कारणि ए लंखई लंखइ ॥१॥ एतच्छ्रुत्वा राजा पुनर्लक्षत्रयं तस्मै ददौ ।
इति समस्यापूरणे धनपालपण्डितसम्बन्धः ॥३८४॥
[385] अथ भोजस्य धनपालपूरितसमस्यासम्बन्धः । रकहाँ भोजराजः स्वधवलगृहस्योवं स्थितः आसन्नगृहस्योपरि स्थितामेकां स्त्रिय, अम्बरं
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२१० ]
प्रबन्धपश्चशती हस्तेन ऊर्वीकृत्य आतपे शोषयन्तीं दृष्ट्वा समस्यापदं चकारेति
रिंगि] 'रंग चंगि उद्धंगि अभिअंगुलि धज फिरहरई' इमं समस्यापदं राजा धनपालपण्डितपार्वे पप्रच्छ, तदा धनपाल: पदत्रयकरणात्पूरयामास पूर्ण समस्यामिति5 एण१ इंदु२ अरविंद३ करणि कलकंठि५ तु हेमपयकणि६ नयणि १ चयणिरपरिमलि ३ चलंति
सुसरसद्दि कति जिणमठ' पुन्नर पुलिअ मयंद अदट्ट पंचदह६ घलि२ । अंबरि? सरि२ वणि ३ सुहकारि अह मेरुपव्यय ५ सुरण सरइ १ मेहिमर गमइ३,
पावस४ कुसुमाइ लिखिरइ रायरंगि चंगि उद्धंगि अभिअंगुलि धज फिरहरइ ॥१॥ अत्रापि पूर्ववहानम् । इति भोजस्य धनपालपूरितसमस्यासम्बन्धः ॥३८५॥
[336] अथ अकृतपुण्यस्य मन्त्रिणः सम्बन्धः । पद्मपुरावज्रभूपः सिंहवैरिणं जेतुं गतः । तत्र महायुद्धं जातं । तदा एकस्य कस्यचित् पुरुषस्य मृतस्य पतितस्य शवं भक्षितुमेकः श्वानो गतो यदा तदा परो जगौ श्वानः--भो भ्रातः ! श्रूयतां मम वचः पूर्व ततो भक्षितव्यमिदं । ततः स प्राह-- हस्तौ दानविवर्जितौ अतिपुटौ सारस्वतद्रोहिणी,
चक्षुः साधुविलोकने न रसिकं पादौ न तीर्थाध्वगौ। लुश्चालश्चितद्रव्यपूर्णमुदरं गर्वेण तुङ्ग शिरो,
भ्रातः ! कुक्कर ! मुञ्च मुश्च सहसा निन्धस्य निन्यं वपुः ॥१॥ __एष पूर्व बभूव । अनेन किमपि सुकृतं न कृतं । लोका दुःखिनः कृताः । अतोऽस्य पापिनः शरीरं त्यज । ततस्तावपि श्वानी तत्त्यक्त्वाऽन्यत्र गतौ ।
इति अकृतपुण्यस्य मन्त्रिणः सम्बन्धः ॥३८६॥ [387 ] अथ स्त्रीणामग्रे गुह्यं न वक्तव्यमितिविषये नागपुण्डरिककथा । एकदा ताादुष्टाद् हननोद्यताननागपुण्डरिको नष्टः । भूतले समागतः ध्यौ चकमप्याश्रयं कृत्वा स्थीयते । अतो विप्ररूपं कृत्वा एका ब्राह्मणी गृहिणी चकार । ततः स नागो मनोवाञ्छित पत्न्याः पूरयति । पल्या पृष्टं त्वं कुतः ईशी श्रियमानयनसि ? स्त्रिया कदाग्रहे कृते स्वं स्वरूपं पल्याः पुरः स जगौ । सा च पत्नी सदा पानीयमानेतुं सरोवरे याति । इतस्ताक्ष्यः स्वं कैरिणं हन्तुं निर्गतः। स्थाने विलोकयन् दध्यौ “प्रायः पानीयहारिस्त्रीदण्डके बहीः वार्ता श्रयन्ते ।" ततः स तस्मिन् प्रामे पानीयहारिदण्डकेऽभ्येत्य तस्थौ
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द्वितीयोऽधिकारः
[२११
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दैवयोगात् ।
इतः सा ब्राह्मणी स्वस्वभर्तृवर्णनं कुर्वाणाभ्यः स्त्रीभ्यः [प्रति] प्राह--मदीयो भर्ता नागपुण्डरिकः स च यद्वाल्छयते तत्तत्पूरयति । एतत् श्रुत्वा ताश्यस्तस्याः स्त्रियः पृष्टौ गत्वा नागपुण्डरीकं धृतवान् प्राह च--रे दुष्ट ! कुत्र यास्यसि मम पार्थात् १ तदा स स्वस्त्रीप्रोक्तं ज्ञात्वा नागपुण्डरीको जगौ--
स्त्रीणां गुह्यम् न वक्तव्यं, प्राणैः कण्ठगतैरपि ।
नीयते पक्षिराजेन, नागपुण्डरिको यथा ॥१॥ एतज्जल्पन स स्वस्थाने नीत्वा तायण निगृहीतः । इति स्त्रीणामग्रे गुह्यम् न वक्तव्यमिति विषये नागपुण्डरीककथासम्बन्धः ॥३८७॥
[388 ] अथ पश्यतोहरसौवर्णकारसम्बन्धः । ___ कस्मिंश्चित्पुरे सौवर्णिको दुर्बलो भूपेन दृष्टः पृष्टश्च तव दुर्बलत्वं किं दृश्यते ? सौवर्णिको जगौ-हेम न दृश्यते । राजा जगौ-हेम दर्शयिष्यते तुभ्यं, तदा त्वं मत्तो भविष्यसि । स जगौ-हेम दृष्टं यदि तदाऽहं मत्त एव !
ततो राज्ञा हेममयी ५२ पलमयी स्थालिका दर्शिता । ततः सौवर्णकारको यत्र सा स्थाली धाव्यते तत्र कर्कशां वालुकां क्षिप्तवान् छन्नं । ततः स सुवर्णकारकः तां वालुकां लात्वा 16 गालयित्वा सुवणेसंकुलं कृतवान् , मत्तोऽभूच्च ।
राज्ञा पृष्टमेतत्कुतः प्राभृतीकृतं । सोऽवग-राजा तुष्टः। राजा प्राह-कथमहं तुभ्यं तुष्टः! ततः स प्राह--स्वामिन् ! या ५२ पलहेमस्थाली विद्यते सा तोल्यतां । ततो राज्ञा तोलापिता ४४ पलमयी जाता स्थाली । ततो पारितोषिकदानं ददौ तस्मै ।
इति पश्यतोहरसौवर्णकारसम्बन्धः ॥३८८।। [389 ] अथ दानपरीक्षायां ईश्वरपार्वतीसम्बन्धो लौकिकः । ईश्वरपार्वत्यौ पृथिवीचेष्टितं विलोकयितुं निर्गतौ । पार्वती जगौ-लोकाः सर्वे दानिनो विद्यन्ते। ईश्वरोजगौ-नैवं । ततो लोकपरीक्षार्थ तापसरूपं कृत्वा एकस्य कौटुम्बिकस्य गृहे गतौ। प्रातः तदा तस्य पत्नी कछडकं बन्धयित्वा जानुदध्नकदमे भ्रमन्ती, छगणं क्षेपयन्ती, गोरसं सर्वबलेन विलोक(डयन्ती, विश्राममगृहानां दृष्ट्वा प्रोचतुः-भिक्षा देहि । तदा कौटुम्बिका 25 जगौ-किं सिक्ककायां वसितो, यतः प्रातरेव भिक्षाय आगतौ युवा, निःकर्माणौ स्थः। अस्माकं कार्याणि विद्यन्ते अधुना, परिवारिता नास्मि ।
ईश्वरो जगौ-तब ईदृशं गोमहिषोधनं अष्टगुणं. भवतु । इति जस्पित्वा ततोऽये गच्छन्ने
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२१२ ].
प्रबन्धपञ्चशती.
कस्य क्षत्रियस्य गृहे गतौ । तत्र भिक्षा याचिता । तेनोत्थाय भावतो भिक्षा ददे । ततो निर्ग
वरोऽवग-अस्य गृहं धक्ष्यतु । ततः सोऽग्रे यदा चचाल तदा स क्षत्रियः पृष्टौ गतः। पृष्टं, भवतैवं कथं जल्पितं ? ईश्वरोऽवग-तं पार्वती प्रति अप्रे कथयिष्यते ततः स क्षत्रियः पश्चालितः । स्वं गृहं दग्धं पुत्रपन्यौ च दग्धानि ज्ञात्वाऽकस्मा-नृतः ।
इत ईश्वरपार्वत्यौ स्वर्ग गतौ । पावत्या पृष्टं-येनावयोभिक्षा दत्ता सोऽत्र कथं सुखं न भुङ्क्ते ! तत: ईश्वरः क्षत्रियः पुत्रपत्नीयुतः देवसुखं भुञ्जानो दर्शितः । दानेन ईदृशं सुखं प्राप्त । मर्त्यलोके मनसा चिन्तितं न सिध्यति । अत्र मनसा चिन्तितं सर्व सम्पद्यते । पार्वती जगी तर्हि सा- कौटुम्बिका विलोक्यते । ततस्तत्रायातौ तत्र सा अष्टगुणे महिष्यादि धने जाते अष्ट
गुणं रलन्ती दर्शिता । ईश्वरेण प्रोक्तं च-अत्रैवं रुलति परत्र च श्वभ्रं गमिष्यति अतो 10 मयोक्तमष्टगुणं भवतु । पार्वती प्राह-सत्यमुक्तं भवता, दानिनो भावतो ददानाः स्तोका एव ।
इति दानपरीक्षायां ईश्वरपार्वतीसम्बन्धो लौकिकः ॥३८९।।
[390] अथ भाग्ये इभ्यपुत्र-निर्धनपुत्रसम्बन्धः । एकदा द्वौ पुरुषौ इभ्यनिर्धनपुत्रौ गुरुपाश्र्वे श्लोकमेकं शुश्रुवतुश्चेति
सर्वत्र सुखिनो सौख्यं, दुःखिनां दुःखमेव तु । 16
सर्वत्र वायसाः कृष्णा, हंसाः श्वेताश्च सर्वतः ॥१॥ इति श्रुत्वा इभ्यपुत्रेण निर्धनपुत्रस्य श्रीदत्ता प्रोक्तं च-विदेशं गच्छ, लक्ष्मीमर्जय, यथेष्टं विलस। स च श्रियं लात्वा निर्ययो लक्ष्मीकृते इभ्यपुत्रस्तु बाहुसखा निर्गतः कस्मिन्पुरे गतस्तत्रोद्याने स्थितः ।
इतो [कश्चिद्] राजा परलोकं गतः । मन्त्रिभिश्चिन्तित-राज्ञः पुत्री तिलकसुन्दरी विद्यते । 20 यस्य पञ्चदिव्यं राज्यं दत्तेऽस्मै साऽपि दीयते । एवं कृते तैः पञ्चदिव्यैरिभ्यपुत्रस्य राज्यं दत्तं । ततः सा कन्याऽपि तस्मै ददे।
इतः स राजा गवाक्षस्थ एक कार्बटिकं दृष्ट्वा स्वपार्वे नीतवान् । ततो राज्ञा स उपलक्षितः । ततोऽधोमुखो निधनः पुमानभूत्ततः इभ्यपुत्रो राजा जगौ-गुरुक्तं सत्यं जातं ।
गुरवः पृष्टाः । प्राग्भवसम्बन्धः प्राह-राजन् ! त्वया प्राग्भवे बहवी श्रीधर्म व्ययिता तेन तव 25 राज्यं जातम् । अनेन तु प्राग्भवेऽपि सत्यां श्रियि. मनागपि धर्मे न व्ययितं अतोऽसौ दरिद्री। ततो राजा धर्म चकार विशेषात्सोऽपि निर्धनो निद्रव्यो धर्म चक्रे। तवो द्वावपि अग्रेतने भवे स्वर्गतौ।
इति भाग्ये इभ्यपुत्र-निर्धनपुत्रसम्बन्धः ॥३९०॥
1391] अथ परापवादग्रहणे लौकिकपरिवाजिकासम्बन्धः । ___ एकस्मिन् प्रामे वेश्यापाटकासन्ने एका परिव्राजिका तिष्ठति । सा च स्नानादि कृत्वा 30 मुक्ते । ततः सा आसन्नवेश्यागृहे भोगाय नटविटखण्डकमनुजानागच्छतो दृष्टा ईापरा
दध्यावेवं-बेश्या पापिनी सदा पापं बहु कुहते, ततस्तया तत्रागच्छता नराणा संस्था कमेकं
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द्वितीयोऽधिकारः
[ २१३
भाजनं पृथु मण्डितं । यस्मिन्दिने यावन्तो नरा आगच्छन्ति तस्मिन्दिने तावन्तः कर्करास्तया भाजने क्षिप्यन्ते ।
अत्रान्तरे प्रत्राजिका भ्राता समागतः भगिन्या भोजितः सा च कार्याय बहिर्गता । इतोऽतिथिना भ्रात्रा भाजनमुद्घाटनं, कीटकभृतं दृष्ट्वा भगिन्या अग्रे पृष्टं - भगिनि ! इदं भाजनं कीटकैः किं भृतं ? साऽवग - यावन्तः पुरुषा अस्या वेश्याया गृहे भोगहेतवे समायान्ति 5 तेषां संख्याकृते कर्करा मया क्षिप्ताः सन्ति । भ्राताऽवग्--त्वं तु अस्यामीर्ष्या दधाना अपवादं जल्पन्त्येवमकार्षीः तेन त्वया वेश्यापापं गृहीतं, पापिनः करणवारो न क्रियते, यदि पापिनः क्रियते तदा तस्य लगति । यतः -
अतिथिश्चापवादी च द्वावेतौ मम बान्धवौ ॥ हरेत्पाप - मतिथिः स्वर्गसंक्रमः ॥१॥
अपवादी
यस्वया तस्यां वेश्यायामीर्ष्या कृता अतः कर्कराः कीटा जाताः । ततस्तया तद्गृहं त्यक्त्वाऽन्यत्रोषितं । परापवादो मुक्तः । सुखिनी जाता ।
इति परापवादग्रहणे लौकिकप्रव्राजिकासम्बन्धः ॥ ३९९ ॥
[392 ] अथ कल्पितधूकसम्बन्धो दुर्जनोपरि ।
एकदा घूको भुवं पातालं च जित्वा स्वर्गे गतः स्वर्ग जेतुं । तत्र स्वर्गमुच्चालयितुम् घोरं 15 शब्द कर्त्ती लग्नः तदा शक्रस्तं तादृशं शब्दं श्रुत्वा पप्रच्छ देवान् । कोऽसौ एवंविधः स्वरः समागतः । देवैः प्रोक्तं -- पातालं पृथ्वीं च जित्वा स्वर्ग जेतुं धूकोऽत्रायातोऽस्ति ।
इन्द्रोऽवग्- धीरोदत्वात्राकार्यताम् । तत्रेन्द्रपार्श्वे आनीतः सः इन्द्रेण पृष्टः - ईक्षा भूमण्डले कियन्तः सन्ति ? घूकोऽवग्
इन्द्रोऽवग
अरघट्टो घरङ्कुश्च, लम्बकर्णोऽथ वायसः । कौशिको शसभश्चैव षडेते मधुरस्वराः ||१||
?
एकेनोद्वासितः स्वर्गः, किं पुनः पञ्चभिः सह । हा हा वज्रमयी पृथ्वी, या न याता रसातलम् ||२||
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इत्युक्त्वा शक्रोsar - गच्छ, अरघट्टघरट्टादिस्व मित्रपार्श्वे नो चेदनेन वत्रेण तव शीर्ष 25 छेत्स्यते । ततः स नष्टः पुनर्भूमण्डले समागात् ।
इति कल्पितकसम्बन्धो दुर्जनोपरि ||३२||
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३१४ ]
प्रबन्धपत्रशती [393] अथ असमाव्यावक्तव्ये भूपमन्त्रिसम्बन्धः । कस्मिंश्चित्पुरे भीमो भूपो राज्यं करोति । तस्य चन्द्रो मन्त्री । एकदा मन्त्री अरण्यमध्ये जलाशये शिला तरन्तीं दृष्ट्वा पश्चादागतो भूपस्याने प्रोक्तं-मया जले शिला तरन्ती रष्टा।
राजा जगौ-असंभाव्यं न वक्तव्यं, प्रत्यक्षं यदि दृश्यते । एवं प्रोच्य राज्ञा स जल्पन्निषिद्धों 6 दध्यौ मयोक्तं यद् भूपस्याने तन वरं ततोऽन्यदा राजाऽश्वापहृतो महाटव्यां गतः तत्र वानरवानरोणां गीतानि सुश्राव । ततः पश्चादागतः मन्त्रीपुरः पदद्वयं प्राह-~
यथा वानरगीतानां, तथा तरति सा शिला । यत् त्वया दृष्टा शिला जले सा सत्या । मया यतोऽघ वानरगीतं श्रुतं तदपि कोऽपि कथितं न श्रद्दधे कस्याप्यग्रे न प्रोच्यमानमस्ति ।
इत्यसंभाब्यावक्तव्ये भूपमन्त्रिसम्बन्धः ॥३६३॥
[394] अथ कुपत्नीहष्टान्तः । ___ एकस्मिन्याम श्रेष्ठिनः पत्नी अकथितकारिका विद्यते । इतस्तस्यापणे बहुकालादेकः प्राघूणकः समागतः । ततः आगतस्वागतादि मिथः कृतं । श्रेष्ठी गृहे गतः प्राह-परिन ! एका सुहृद् बहुकालादागतोऽस्ति, यदि त्वं प्राध्वरमार्गण त्वं कार्याणि प्रोक्तानि कुरुषे तदा स
आकायते जेमनाय । पत्नी प्राह-अग्रे तव कथितानि कारं कारं खिन्नास्मि तथापि कार्यसंख्या 16 यदि कथय तदा कुर्वे । ततः षष्टि कार्यसंख्या कृता । प्राधूर्णको जेमितुमानीतः । तया
आचमनादि प्रारभ्य कार्याणि गणितुं मण्डितानि तावद्यावत्तकपरिवेषणबेला समायाता । तक्रमेकशः परिबेषितं । श्रेष्ठिनोक्तं-पुनस्तक्रमानय । ततस्तया स तक्रचुरडकः पत्युमस्तके आहतो भग्नः । श्रेष्ठी कृष्णमुख उत्थाय हट्टे गतः । सुहृदा पृष्टं किं कृष्गमास्यं कृतं । ततः श्रेष्ठी गृहिणीस्वरूपं प्राह । ततः सुहृत्पाह
अनेकानि सहस्राणि, भग्नानि मम मस्तके ।
गुणवतीह ते भार्या, भाण्डमूल्यं न याचते ॥१॥ मम पत्नी तु भग्ने भाजने वखाचलं तदा मुश्चते यदा भाण्डमूल्यं दीयते, एवं प्रोच्य सोऽपि स्थिरीकृतः । इति कुपत्नीदृष्टान्तः ॥३९४॥
[395] अथ दुर्ग्राह्यस्त्रीविषये सम्बंधः । ___ कस्मिंचिद्ग्रामे कौटुम्बिको वसति स्म । तस्य पत्नी अतीव दुर्ग्राह्या । पत्युः पत्यै] कार्याणि आदिशति पत्युः पात्कारयति च ! यदा कान्तः मनागुत्सूरे करोति तदा सथा कटाक्षाणि मुञ्चते यथा स त्वरितं कार्य करोति । ततोऽन्यदा एकस्मिन् स्थाने घरटिकां शब्दं कुर्वाणां दृष्ट्वा प्राहाऽऽत्मस्थिरीकरणाय
रे रे ! यन्त्रक ! मा रोदीः, किं किं न भ्रमयत्यमः ॥' कटाक्षोत्पमात्रण, . कराकृष्टान्य.. का कथा ॥१॥
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द्वितीयो निकासा
[२१५ एवं प्रोच्य स्वमात्मानं स स्थिरीचकार ।
इति दुर्ग्राह्यस्त्रीविषये संबंधः ॥३९५||
[396 ] अथ बलीवर्दपातितसम्बन्धः ___एकस्मिन प्रामे एकः कौटुम्बिकः प्रातरुत्थाय प्रामाप्रस्थस्तम्भे विलगित्वोच्चैः रौति । राज्ञोक्तं-भो कौटुम्बिक ! प्रातरमङ्गलं न क्रियते रोदनात् । स प्राह-स्वं चरित्रं स्मारंस्मारं 5 रुद्यते मया । राजा जगौ-किं ते चरित्रं ? कौटुम्बिकोऽवग-गच्छ समुद्रमध्ये कंसद्वीपे स्त्रीराज्ये । नत्र गतः सन् मम चरित्रं ज्ञास्यसि । ततः स कौतुकी तत्र द्वीपे गतः चतुःपथे स्थितः । एका स्त्री दिव्यरूपा तत्रागत्य भपं स्वस्वामिनीपाइवें निनाय । तत्र स पतिः कृत्वा स्थापितः वर्यकर्पूरवासितपयसा म्नापितः । वर्यदिव्याहारैर्भोजितः । हिण्डोलाखट्वायां शायितः । देवमुखमनुभवति स्म । सा च कस्मिंश्चिद् द्वीपे यदा याति जल्पति स्म, त्वया एते २० उपवरका 10 नोद्घाटनीया, सुखेन कपूरपानकस्तूरी-भोगसुखमनुभवनीयं । सन्ध्यायामायाति । ततः सा भोगसुखं दत्ते जल्पति च यदि यात्वाऽन्यत्र पुनरागमिष्यसि तदा हतो एव अत्र स्थितश्चिरं मया सह सुखं भोक्तव्यमेवं सुखेन तिष्ठन्नन्यदा तस्यां गतायामेक उपवरक उदघाटितस्तस्मिन् घोटको र्यो हेपारवं चकार । तं घोटकमारुह्य वनादिद्वीपानि विलोक्य तत्कालं पश्चादागत्य स्वस्थाने स्थितः । प्रतिदिनं नवीनवाहनारूढो द्वीपानि विलोकयति ।
15 ____ एकदा वयं बलीवर्द सुकुमालशरीरमारुह्य निर्गतः स चाटव्या लासयित्वा बलीवईपृष्टितः पतितः झितौ, बलीवर्दो गतोऽदृश्यता, ततः क्षणादुत्थितो दध्यौ, तत्र गम्यते तदा सा मा हन्ति अतस्तत्रत्यं सुखं स्मरम् स्वपुरे समेत्य स्तम्भे लगित्वा रुदितुं लग्नो यदा, तदा स कौटुम्बिको
येत्य प्राड-किं बलदिई पाडया' । राजा माह-रवमपि बलीवन पातितः ततो द्वाभ्यां मिथः स्वचारित्रे प्रोक्ते ततस्तत्रत्यं सुखं यावज्जीवं तौ स्मरतः स्म ।
20 __ इति बलीवई पातितसम्बन्धः ॥३९६॥
[397 ] अथ वीणाग्रामे श्रीनेमिजिनकल्पः । वीणाग्रामे श्रीजिनेन्द्रप्रासादे सदा प्रातरुत्थाय एका श्राविका भक्तिपूर्व प्रभोः सद्मनि प्रभु गम्य सर्वत्र देवगृहं प्रमाजेयामास । एवं प्रत्यहं कुर्वतो प्रभहस्ते एक विश्वलप्रियं ददर्श । मा तं ललौ यदा तदाऽधिष्ठायकसुरःप्रभोमुखोऽवतीर्यावक-तव भक्त्याऽहं तुष्टोऽस्मि । त्वया 25 प्रत्यहं देवगृहं प्रमार्जनीयमेको विश्वलप्रियो ग्राह्यः परं कस्याने न वक्तव्यमेवं सा प्रत्यहं एक विश्वलप्रियं गृहाना ऋद्धिवती जाता।
__एकदा रहसि सख्या पृष्टं-तव कस्तुष्टोऽस्ति, येनेशी ऋद्धिर्जाता तव सा चाकस्माद् रभसवृत्या प्रभुतुष्टिसम्बन्धं जगाद । ततोऽप्रेतने दिने देवगृहं प्रमाज्यं यावद्विश्वलप्रियं गृह्णाति प्रभुस्तान विचटति । ततः सा विलक्षाऽभूत् । तताऽधिष्ठायकोऽवग-अद्यप्रभृति त्वया 30 विश्वलप्रियेच्छा न कार्या ।
इति वीणोनामे श्रीनेमिजिनकल्पः ॥३९७।।
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प्रबन्धपञ्चशती
[398 ] अथ व्यापारे सम्बन्धः ।
एकस्मिन्ग्रामे चन्द्रः श्रेष्ठी वसति स्म । स च व्यवसायं चकार । अन्यदा एक ग्रामकरणवारकारकं महान्तं दृष्ट्वा स श्रेष्ठी ग्रामकरणवारका सकुतोऽभूत् । क्रमात्तेन राजकुले बहु पूरितं स च मार्गयामास पट्ट्यल्लपा । पट्ट्यल्ला जगो - अधुना पूरय तवाग्रे सर्वमर्पयि5 यते मुनर्लोभेन कियन्तो दिनाः पूरितं पुनर्मार्गित यहा धनं तदा पट्टयोजन - अग्रे अर्थयिष्यते । राजकुळे पूरं पूरं गृहं धनरिक्तं ततो यदा खेदं दधानो बभूव तदा मित्रेणोक्तं-
५१६ ]
जर गिलह गिल उदरं, पच्चगिलीए गिलंति नयणाई | केण य विहिवसेणं, अहिणा छुछुन्दररी गहि
||१||
एवं श्रुत्वा सदध्यौ -- यद्दीयते तत्प्राप्तमेव दृश्यते साम्प्रतमव्यंते तदपि गतमेव दृश्यते 10 अतस्तं व्यापारं त्यक्त्वा श्रेष्ठी पूर्वरीत्या लक्ष्मीमजयन् सुखी बभूव ।
इति व्यापारे सम्बन्धः ॥ ३९८ ॥
[399 ] अथ 'बुद्धिर्यस्य बलं तस्य' इति विषये शशकसम्बन्धः ।
यस्य बुद्धिर्बलं तस्य, निर्बुद्धि [द्धे ] स्तु कुतो बलम् । वने सिंहो मदोन्मत्तो, शशकेन निपातितः ॥१॥
कस्मिंश्चित्प्रदेशे मन्दमतिनामा सिंहोऽजलं मृगादिजीववधं करोति । अथ तद्वनजाः सर्वे मृगादयः संभूय सविनयं सिंहं प्रोचुः -- देवास्माकं मध्ये वारके मैकैको भवतानाहारार्थ स्वस्थानस्थानस्थमेव समेष्यति । इति कृतव्यवस्थायां शशकस्य वारकः समायातः । तेन शशकेन बुद्धिमता कूपस्य कण्ठे समागत्य स्वं रूपं कूपे प्रतिबिम्बितं कृत्वा सिंहं प्रतोदमुक्तं अस्य कूपस्थितस्य शशकस्याद्य वारकोऽस्ति, तेन भवताऽयं खादनीयः । ततः सिंहः कूपमध्ये 20 झम्पामदाद् भक्षयितुं पश्चत्वं गतः । अतो 'यस्य बुद्धि ० ' |
इति बुद्धिर्यस्य ब
'विषये शंशकसम्बन्धः ॥ ३९९ ॥
16
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[ 400] अव्यापा० वानरसम्बन्धः |
अव्यापारेषु व्यापारं, यो नरः कर्त्तुमिच्छति । स एव निधनं याति कीलोरपाटीव वानरः ॥ १ ॥
कस्यचित् पुरस्यासन्नोद्याने केनचिणिजा प्रासादः कार्यते स्म । तत्र सूत्रधाराः अर्धस्फाटितस्तम्भशिलाया अन्तराले ये अनिरवात रवादिरकीलकं दत्वा अशनाय ग्रामं गताः । अत्रान्तरे वानरयूथं परिभ्रमन्समायांत । तस्य मध्यादेकेन वानरेणान्यवानरनिवारितेनापि
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द्वितीयोऽधिकारा
[ ર૧૭ चापल्यावस्थाने कोलिकोत्पाटनमारब्धं । अर्धस्फाटितशिलान्तरानाविष्ट [ सिग्नल कीलक वल पबिते वानरस्य मरणं जातमतो 'अव्यापा०' ।
इति अव्यापा..." इति वानरसम्बन्धः ॥४००
[401] अथ हितबचने व्याघ्रादिसम्बन्धः । व्याघवानरसाणा, यन्मया न कृतं वचः ।
तेनाहं निविनीतेन, मानवेन निपातितः ॥१॥ कस्मिंश्चिद् प्रामे यज्ञदत्तो ब्राह्मणः । स अतीव दारिद्रयाभिभूतः । एकदा तेन देशान्वरे द्रव्यार्थ गच्छता अदव्यां तृषाक्रान्तेन कूपो दृष्टः । तन्मध्याव्याघ्रवानरसप्पकलादाः कर्षिता । त्रिभिरुपकारः कृतो भूषणफलादानराजपुत्रजीवनैः । पूर्वमारितराजपुरुषादिभूषणदर्शनेन न्याघेणोपकारः कृतः । बने पतितस्य तस्याहाराभावाद् बुमुक्षितस्य फलदानेन वानरेणोपकार: 10 कृतः । सर्पण च राजपुत्रं जीवन्तं कृत्वा बहुधनदापनेन तस्योपकारः कृतः । कलादेन राहो गतसुवर्णसंकुलस्य कलको दत्तः तस्मै पुरुषाय च [ अतः स आपदि पातितः] सांकुलव्यतिरेकेज रामोऽ पैशून्यं विधायानर्थे पातितः ।
अतो व्याघ्र..."हितवचने व्याघ्रादिसंबंधः ।।४०१॥
[402] अथ विषमगोप्ठ्यां इंसोलकसम्बन्धः । अकालचर्या विषया च गोष्ठी, कुमित्रसेवा न कदापि कार्या ।
पश्याण्ड पनवने प्रसुप्तं, धनुर्विनिमुक्तशरेण ताडितम् ॥१॥ कस्मिंश्रित्सरसि हंसस्य वसतः उलूकः प्राघूर्णक आगतः । हंसेन पृष्ठं कुतः स्थानासमायातः ! सोऽब्रवीत्-तव गुणान् स्मृत्वा अहं मैव्यर्थ समागतोऽस्मि । मैत्री जाता।
भन्यदा सलूकेन पनवनात्स्वाश्रये गच्छतो हंसो न्यमन्त्रि त्वया मदाश्रये भागन्तव्यमिति 20 कवयित्वा उलूकः स्वाश्रये गतः । हंसोऽप्येकदा मित्रमिलनार्थमतिथिर्जातः । तौ परस्परं मिलितो तेनोलकेनकदो-दिवसेऽनवलोकनादिदोषप्रस्तोऽहं त्वया सह गोष्ठी कर्तुं न शक्नोमि तेन रात्रौ गोष्ठी करिभ्यते । अथ रात्रौ गोष्ठों कुर्वतोस्तयोस्तत्र वने साथैः कोऽपि बायावः ।
अत्रान्तरे उलूको महान्तं विस्वरं कृत्वा नदीविवरमनुपविष्टो । म तर स्थितः । बलः केनचित् शब्दवेधिना विस्वरत्वादुनिमित्तं विज्ञाय शरेण विदः मृत हंसः। 25 बतो सकाळ०॥४॥
इति विषमगोप्या हंसोलकसम्बन्धः ॥४०२॥
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प्रबन्धपञ्चश्नती... [403.] अथ अज्ञातस्थानदाने मत्कुणसम्बन्धः । नह्यविज्ञातशीलस्य, प्रदातव्यः प्रतिश्रयः ।
मत्कुषस्य च दोषेण, हता मन्द विसप्पिणी ॥१॥ कस्यचिद्राज्ञः सुप्तस्य शय्यायां यूका वसति । तस्याः प्राघूर्णकः मत्कुणः समायातः । । तस्य स्थानं तया दत्तं । मत्कुणस्तु राक्षश्चटकं दत्वा नष्टो राज्ञश्चलनेन यूका मृता । इति . ना० । अज्ञातस्थानदाने मत्कुणसम्बन्धः ॥४०३।।
[404 ] अथ वृद्धवाक्याकरणदोष हंसयूथसंबंधः । श्रव्यं वाक्यं हि वृद्धानां, ते वृद्धा ये बहुश्रुताः।
हंसयूथं बने बद्धं, वृद्धवुद्धथा विमोचितम् ॥१॥ 10 कस्मिंश्चिदने वटवृक्षस्तत्र हंसकुलं शतप्रमाणं वसति । अथास्य वटस्याधः कौशाम्बों
नाम बल्ली प्रादर्भ तां दृष्टा वृद्धहंसेनोक्तं--एषा अनर्थाय वधेमाना भाविनी, अत उन्मूल्यते, इत्युक्ते प्रमादान्नोन्मूलिता । कालेन या स्थिता, केनचिद्व्याधेन तेषु हंसेषु आहारार्थ गतेषु पाशाः क्षिप्ताः । पतितास्ते सर्वे पाशेषु । बृद्धेनोक्तं--मया पूर्वमुक्तमियमनर्थाय भाविनी ।
भवद्भिः प्रमादादुपेक्षिता वल्ली । इदानीमपि यदि मदीयं वचनं कुरुथ तदा बुद्धिं भवद्भ्यो 16 ददामि । तैरपि तथा प्रतिपन्नं । तेन वृद्धहं से नोक्तं-मृता इव यूयं सर्वे तिष्ठत । अथ यदा
व्याधः युष्मान्मृतानवज्ञाय भूमौ क्षिपति तदैककालं सर्वैरुत्पतितव्यं । कृते तथैव तैः ९९ हंसान् भूमौ चिक्षेप व्याधः, पुनश्चिन्तितं पश्चादयं वृद्धः क्षिप्यते इत्येवं मत्वा स भूमौ क्षिातः । तहसः शतथष्वकान् [शतबलान् ] मत्वोत्पतितं नवनवतिभिः । वृद्धः स्थितः । व्याधस्तं मारयितुं लग्नो यावत्तावत्तेन बुद्धिमतोत्त:- अहो व्याध ! मम विष्टया कुष्टं याति तेन कस्यापि भूपस्याप्पयित्वा [मम] स्वं दारिद्रयं स्फेटय । ततस्तेन राज्ञोऽपितः । राज्ञा रायै च याचितश्च । राज्योक्तं-पञ्जरे क्षिप्यतेऽयं । मन्त्रिभिरुक्तं वृद्धोऽयं मुत्कलो मुच्यता, कथं यास्यति अंहिशक्त्यभावात् । राज्ञा स्वकुष्टं तद्विष्टया स्फेटितं । मुत्कलो मुक्तो हंसो रयादड्डीय भित्तावुपविश्येमं श्लोकमाह
प्रथमे स्यामहं मृो, द्वितीये पाशवन्धकः । तृतीये नृपतिर्मूर्ख,-३चतुर्थे मन्त्रिमण्डलम् ॥१॥ इति वृद्धवाक्याकरणदोषे हंसयूथसम्बन्धः ॥४०४।। [ 405 ] अथ असंहितदोषे भारण्डपक्षिसम्बन्धः । एकोदराः पृथग्ग्रीवा, अन्योन्यफलकांक्षिणः । असंहता विनश्यन्ति, भारण्डा इन पक्षिणः ॥१॥
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द्वितीयाsitar:
[ २११
क्वापि सरसि भारण्डाः खगा वसन्ति । एषामुदर मेकं प्रीवे पृथम्भवतः । कस्यापि पक्षिणः स्वेच्छया विचरत एकस्या प्रीवायाः क्वापि अमृतं प्राप्तं द्वितीययोक्तं महामर्द्ध देहि | अथ तया न दत्तं । तदा द्वितीयया ग्रीत्रया कोपोत्पत्त्या विषे भक्षिते एकोदरत्वात्तस्य मृत्युरभूत् । अतो एको० ।
इति असंहितदोषे भारण्डपक्षिसंबंध: ||४०५ || [ 406 ] अथ लोभे शृगालसंबंध: ।
अतितृष्णा न कर्त्तव्या, तृष्णां नैव परित्यजेत् | अतितृष्णाभिभूतस्य, शिखा भवति मस्तके ॥ २॥
कोsपि पुलिन्दः पापर्द्धि कर्त्तु प्रस्थितः । अथ तेन भ्रमता बाणेन शूकर आहतस्तेनापि दंष्ट्रेण पुलिन्दोदरं पाटितं द्वावपि मृतो । इतः कश्चित्शृगालस्तत्रायातस्तेन द्वावपि मृतौ दृष्टौ । चिन्तितं तेन शृगालेन तथा भक्षयामि यथा बहून्यहानि भक्ष्यं भवति इति विचिन्त्य 10 चापचटितकोटिं जीवां मुखमध्ये क्षिप्त्वा स्नायुर्भक्षितुमारब्धः । तमस्त्रतिपाशे भालदेशं विदार्य चापकोटिमस्तकमध्येन तस्य शृगालमस्तके शिखा निष्क्रान्ताऽसावपि मृतः । अतो अतितृष्णा० । लोभे शृगालसम्बन्धः ॥ ४०६ ॥
[497 ] अथ बुद्धौ धूर्त रक्षितच्छागसंबंधः ।
"
बहुबुद्धिसमायुक्ताः सुविज्ञानबलोत्कटाः । शक्ता वञ्चयितुं धूर्त्ता, छागकं त्राह्मणादिव || १ ||
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कोऽपि ब्राह्मणो भ्रमन् यजमानाच्छागं प्राप्य यागार्थं गृहे आगच्छति । छागो मन्दगतिस्तेन ब्राह्मणेन समर्थत्वात् कन्वे कृतः । अत्रान्तरे त्र्या धूती मार्गे मिलिताः संमुखा बभूवुः तैश्च मिथ उक्त – अहो अस्य पारागस्य कथा बुद्रया रक्षा विवायते इति 20 विचिन्त्य एकेन मार्ग परिवर्त्य अग्रे भूत्वोक्तं - भो ब्राह्मण ! किमिदं विरुद्धमनुष्ठीयते - यदेष सारमेयोऽपवित्रः स्कन्धारूढः कृतः । तेनोक्तं-किमन्धोऽसि त्वं पान्थ ? यच्छागस्य सारमेयत्वं वक्षि । सोऽवकू - भो ! मा कुरु कोपं, मार्गे गच्छ ।
पुनस्तृतीयेनाप्यग्रे भूत्वोक्तमिदं - भो रासभं स्कन्धारूढं कथं नयसि ? अथ ब्राह्मणेन चिन्तितं -- पशुवेण राक्षसोऽयं मम यजमानेन दत्तो यत एनं पृथप लोकाः पश्यति,
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अथ द्वितीयेनाग्रे भूत्वोक्तमिदं भो ! यद्यपि वल्लभाऽयं मृत वत्सः तनिस्कन्धे क न युक्तः । अथासौ ब्राह्मणः सकोपमाह - क्रिमन्धोऽस्ति भवान् यत्पशोर्वत्सत्वं वदसि । भगवन् ! मा कुरु कोपं मार्गे गच्छ ।
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२२.]
प्रबन्धपाती इति रिचार्य नागस्त्यक्तः । अतो-बहुबुद्धिः ।
बुद्धौ धूरक्षितच्छागसम्बन्धः ॥४०७॥ [408 ] अथ बहवो न विरोद्धव्या पिपीलिकासर्पसंबंधः ।
बहवो न विरोद्धव्या, दुर्जयो हि महाजनः ।
स्फुरन्तमपि नागेन्द्र, भक्षयन्ति पिपीलिकाः ॥१॥ स्वापि वनमध्ये वल्मीके कृष्णसर्पः । कदाचित्स बिलानुसारमार्गमुत्सृज्यान्येन बिलद्वारेण विषमेण निर्गच्छन्देहे ब्रणितः । अथ गच्छदागच्छता सर्पण विराधिताभिः कीटिकाभिव्रणशोणितगन्धेन ज्ञात्वा प्रणमवसरं च प्राप्य सप्र्को वृतः । कति तं घ्नन्ति । कति तास्यन्ति,
कति पालिनीवत् शरीरं सच्छिद्रं कुर्वन्ति । पश्चात्ताभिः कृतबहुव्रणः पञ्चत्वं गतः । भत्तो 10 बदबो० । इति बहवो न विरोद्धव्याः--पिपीलिका सर्पसम्बन्धः॥४०८॥
[409 ] अथ लोभोपरि० पश्चात्तापे द्विजसंबंधः । चिर्ता पश्यसि पुत्रस्य, पुच्छच्छेदं स्मराम्यहम् ।
आवयोस्तु कुतः प्रीति-नागन्तव्यं त्वया द्विज ! ॥१॥ स्थापि प्रामे द्विजस्य तस्य कृषि कुर्वतः सदैव निष्फलकालोऽतिवर्तते धान्यनिष्पत्तर16 भावात् । अथ ब्राह्मणेन क्षेत्रान्तर्वल्मीके कृष्णं सर्प दृष्ट्वाऽचिन्ति क्षेत्राधिष्ठाताऽयं सर्पः,
एतस्य शक्ति विना कथं धान्यस्य निष्पत्तिर्भवति । अथ शरावं दुग्धभृतं बल्मीके मुक्तं । प्रभाते शरावे दीनारो दृष्टः । एवं प्रत्यहं क्षीरं दत्ते दीनारमादत्ते च । अथ पुत्रं समादिश्य विप्रो प्रामं गतः । पुत्रेण क्षेत्रलोभाल्लकुटघातो मुक्तः । सर्पण दष्टश्च प्रामागवेन ब्राह्मणेन ज्ञात्वा स सर्पः प्रसादित: सर्पणोक्तं-'चितां पश्यसि०।
इति लोभोपरि पश्चात्तापे द्विजाहिसम्बन्धः ।।४०९॥ [410] अथ मिथो विवदन्तः शत्रवो विनश्यन्ति-चौररावसाविव ।
शत्रवोऽपि हिताय स्यु-विवदंतः परस्परम् ।
चौरेण जीवितं दत्तं, राक्षसेन तु गोयुगम् ॥१॥ क्वापि प्रामेऽतिदरिद्रो विप्रो वसति । तस्य [स्मै] केनापि दयया वृषभयुगलं दत्तं । तेन 25 च घृततैलयवसादिना प्रह्वीकृतं । तद्दृष्ट्वा कश्चिच्चौरो रात्रौ बन्धनपाशं गृहीत्वा हर्नु
यावदायाति तावदधमार्गे विकरालमूर्ती राक्षसो दृष्टः । ततः स्तेनेन पृष्टं-को भवानि
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द्वितीयोऽधिकारः
[ २२१ त्युक्ते सत्यवचनोऽहं राक्षसः । भवानपि बात्मानं वदतु । तस्यांप्रहे अर्धरात्री चौरेणोक्तं प्रान्मम हतुं देहि । राक्षसोऽप्याहेत्थं प्राग्मम भक्षयितुं देहि । ततश्नोरेणोक्तं-प्रतिशब्देन यदि कभित् बुभ्यति सदा महान् अनर्थो भविष्यति, आरम्भोऽप्यावयोनिष्फलो भविष्यति । इत्थं तबो विवरतो.]र्विप्रः प्रतिबुद्धः । चौरोऽप्याह-भो ! त्वामयं भक्षयितुमिच्छति राक्षसः । राक्षस माह-चौरोऽयं गोयुगं ते हर्तुमिच्छति । एवं श्रुत्वा शय्या मुक्त्वा विप्रोऽवहितो भूत्वा मन्त्रं स्मरन् स्मितः । द्वावपि विफलौ गतौ । अतः शात्रवोऽपि० । इति विवदन्तः शत्रवो मिथो विनयन्ति-चौरराक्षसाविव ॥४१०||
[41] अथ परमर्मदोषे वल्मीकस्थोदरस्थाहिसम्बन्धः । परस्परस्य मर्माणि, ये न रक्षन्ति जन्तवः ।
त एव निधनं यान्ति, वरमीकोदरसर्पवत् ॥१|| सोनीमहने नगरे देवशक्तिनामा राजा । तस्य पुत्रो जठरस्थवल्मीकाश्रयेण प्रतिदिनं सीयते । अथासौ निदादेशान्तरं गतः क्वापि नगरे भिक्षया कालं यापयति ।
अय तत्र नगरे बलिराजस्म द्वे पुग्यौ यौवनस्थे स्तः । राजा पृष्टं-कस्य भाग्येन सौम्यं ! वृद्धयोक्तं तव । लन्योक्तं-स्वकर्मणा । राजा रुष्टेन तस्य राजपुत्रस्य दत्ता, सा तं लात्वा देशान्तरे निर्गता क्वापि सर:समीपे तं मुक्त्वा भोजनाय प्रामे गता । लास्वाऽन्नं यावदायाति तावर्सः प्रसुप्तस्य मुखात्सो वातपानार्थ निर्गतः । तत्रैव वल्मीकेऽपरसो निष्कम्य तथैवासीत् । बल्मीकस्थेन सयेणोक्तं-भो दुरात्मन् ! कथं सर्वाङ्गसुन्दरं राजपुत्रं कदर्थयसि । मुखस्थोऽब्रवीत्-भो दुरात्मन् ! कथमिदं हाटकपूर्ण कलशयुगलं वल्मीकमध्ये क्षिप्त्वा स्थित इत्येवं परस्परं मर्माणयुद्घाटितवन्तौ तौ । पुनर्वल्मीकस्थोऽहिरब्रवीत्-भोः । किं कोऽपि भेषजमिदं न जानाति जिह्वयाल्लिकोपायेन भवानपि विनाशमुपयाति । अथोदरस्थोऽब्रवीत्-तवापि तप्ततेलप्रयोगेण मरणं भवति । सा राजकम्या वृक्षान्तरिता तयोरुक्तीः श्रुत्वा तथैवानुष्ठितवती स्वपति नीरोगं विधाय. निधिं च लात्वा पितृपुरे गता। पित्रार्चिता च स्वभाग्यात्सुखिताऽभूत् । अतः परस्प० ।।
इति परमर्मदोषे वल्मीकस्थोदरस्थाहिसम्बंधः ॥४११॥ [412] अथ नीवश्यतायां नन्दभूपवररुचिमन्त्रिसंबंधः । न किं कुर्यान किं दद्यात् , स्वीभिरभ्यर्थितो नरः ।
अनश्वा यत्र हेषन्ते, शिरः पर्वणि मुण्डितम् ॥१॥ नन्दो नाम राजा! तस्य सचिवो वररुचिः। तयो पल्योमिथः प्रीतिः। संमुखगवाक्षस्थया मन्त्रिपल्योक्तं-अहं प्रधाना एकपत्नीत्वात् । राजपन्योक्तं-एवं चेत् त्वं पतिमश्ववत् देष
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२२२ ]
पञ्चत
तथा
यन्तं बाऴय । तस्य च प्रणयकलहेन जाया था । भर्वाह--भद्र ! येन प्रकारेण त्वं तुष्यि तं वद । तयोक्तं - यदि त्वं शिरो मुण्डयित्वा में हौ पतिष्यसि तदाऽहं तष्यामि । कृतं वररुचिना । प्रसन्नाइसौ ।
अथ नन्वस्य भार्या तथैव रुष्टा तेनाप्युक्तं प्रिये ! प्रसीद | उपायं नः कथय 4 5 साऽवग्-अहं तव पृष्ठेऽधिरुह्य त्वां धावयामि, धावितश्चेदश्ववत् देवसे तदा प्रसीदामि नान्यथा । तथैव कृतं तेनापि राज्ञा ।
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अथ प्रभातसमये वररुचिरायातः तं मुण्डितशिरसं दृष्ट्वा राजा पप्रच्छ - मो वररुचे ! किमयमपर्वणि मुण्डितं शिरस्ते । सोऽवकून किं कुर्या० ?
इति स्त्रवश्यतायां नंदभूपवररुचिमंत्रि संबंध: ॥ ४१२ ॥
[413 ] अथ यथातथोपदेशो न दातव्योऽत्र सुगृहीवानरसम्बन्धः । उपदेशो न दातव्यो यादृशे तादृशे नरे । तेन वानरमूर्खेण, सुगृही निगृही कृता || २ ||
काप्यरण्ये वृक्षशाखायां कृतनीडा सुगृही वसति । एकदा माघे मासि अकालवृष्टी जातायां कम्पि ततनुः कश्चिद्वानरस्तमेव वृक्षमाजगाम । तं तथाविधं कम्पितशरीरं दृष्ट्वा सानुकम्पया सुगृह्या प्रोक्तं
हस्तपादसमायुक्तो, दृश्यसे पुरुषाकृतिः ।
शीतवात परिभ्रष्टो, गृहं किं न करिष्यसि ? ॥२॥
तां प्रत्याह वानरः-
चिमुखि ! दुराचारे 1 रण्डे पण्डितमानिनि । असमर्थो गृहारम्भे, समर्थो गृहभञ्जने ||३||
इत्युक्त्वा उत्पत्य नीडं तस्याः खण्डशः कृत्वा गतः । अतः उपदेशो० । इति यथातथोपदेशो न दातव्योः सुगृहीवानरसम्बन्धः ||४१३ ॥ [414] अथ सबलनिर्बल संबंधः ।
उत्तमं प्रणिपातेन, शूरं भेदेन योजयेत् ।
नीच मन्पप्रदानेन समशक्ति पराक्रमैः || १ ||
क्वापि वने चतुरको नाम शृगालः । तेनारण्ये स्वयं मृतो गजो दृः । कठिनत्वात भेतुं न शक्नोति । इतश्च सिंह आगतः सविनयं प्राह-स्वामिन् ! त्वत्कृते गजं रक्षामि तदेनं
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द्वितीयोऽधिकारः
६ २२३ अभयतु स्वामी । सिंह आर-बाई, परह मझयामि । तवैव प्रसादीकृतः । सिंहे गते व्याघ्र आगतः तस्य संमुखं गत्वाह-मामक मातुल ! कथमत्र भवान् मृत्युमुखे प्रविष्टः येनैष सिंहेन इतः । स मां रक्षपालं मुक्या नामार्थ नद्यां मतः । मया किर्याघ्रं वनं कार्य मित्युक्तमपि तेन सिंहेन एतद्वच्छ्रुत्वा भवाद्वयानो नष्टः । ., इतश्च चित्रक आयातस्तस्यापि तदेवोक्तम्- अहूं सिंहेन तद्रमार्थ मुक्तोऽस्मि तथापि त्वं 5 किचि[भ]क्षयित्वा शीघ्रं गच्छान्यथा तवप्राण संशयः इत्युक्ते सति चित्रकोऽपि भयभीतः पलायिष्ट। अथ शृगपल आगतः तस्मात्तुल्यं दृष्ट्वा युद्धेन निराकृतः । अत उत्तम प्रणि ।
इति सबलनिर्बलसम्बन्धः ॥४१४॥ [416] अथ अपरीक्ष्य न कर्त्तव्यं० इति विषये नकुलसंबंधः । अपरीच्य न कर्त्तव्यं, कर्तव्यं सुपरीक्षितम् ।।
10 पश्चाद्भवति संतापो, ब्राह्मण्यां बकुलं [ब्राह्मण्या नकुले ] यथा ॥१॥ कस्मिंश्चिन्नगरे देवशर्मा विप्रस्तस्य भार्या रूपिणी दारकद्वयं प्रसूता । एकदारकमपरं नकुलं च । दारकवनकुलमपि स्तन्यादिना पालयति । अथ तदा कदाचिद्ब्राह्मणायादिष्टं त्वया गृह रक्षणीयमहं जलार्थ यामि इत्युक्त्वा बालं शय्यायर्या, शाययित्वा जलाय गता ।
अत्रान्तरे स विप्रः कणादानार्थ ग्राममध्ये गतः। अथ यत्रास्ति बालकस्तत्र सर्पमायान्तं 15 दृष्ट्वा नकुलेन चिन्तितमहो अयं सर्पो मदीयमनुजं भक्षयिष्यति ततश्चैनं निवारयामि इति विचिन्त्य तेन सह युद्धं विधाय सर्प मारयित्वा हर्षितो रुधिरप्लावितमुखो जननी निवेदयितुं संमुखश्वलितः । ततस्तया तं तादृशं दृष्ट्वा पुत्रमारकोऽयमिति विचिन्त्य तया स नकुलो हतः। पश्चाद्गृहमागतया तं पुत्रं जीवमानं तत्र च सर्प मारितं दृष्ट्वा पश्चाच्छोकाकुला बभूव । अतः 'अपरीक्ष्य न कर्त्तव्यम्०' इति सम्बन्धे-नकुलसंबंध; ॥४१५॥
20 [416] अथ बुद्धिहीनतायां सिंहकारकनृसम्बन्धः । वरं बुद्धिर्न सा विद्या, विद्यातो बुद्धिरुत्तमा ।
बुद्धिहीना विनश्यन्ति, यथा ते सिंहकारकाः ॥१॥ चत्वारः पुरुषा मार्ग चलिताः । अटवीं गताश्च ते चत्वारः परस्परं वि( वादं ]कुर्वन्ति स्मेत्यम्एकः प्राह-विद्याधिका, अपरः प्राह-बुद्धिरधिका विद्यातः । त्रयः शास्त्रज्ञाः । एको मूर्खः परं 26 बुद्धिमान् । तैर्मृतप्रायसिंहो दृष्टः । शास्त्रज्ञाः कथयन्ति स्म-अयं मांसादिना सज्जीक्रियते । बुद्धिमता उक्तं-अस्मिन् सज्जीकृतऽनर्थो भविष्यति तेन बुद्धिमंता बहुशो वारितैरपि त्रिभिरस्थिमांसादिना सिंहः सजीकृतः, तेन च त्रयोऽपि मारिताः बुद्धिमान् पूर्वमेक नंवा गतः । अतो बरं बुद्धिन० । इति चुद्धिहीनतायां सिंहकारकतृसंबंधः ॥४१६॥
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२२४ ]
प्रबन्धपश्वशती
[417 ] अथ मित्रवचनाकरणदोषे कोलिकसम्बन्धः । यस्य नास्ति स्वयं प्रज्ञा, मित्रोक्तं न करोति यः । स एष निधनं याति, यथा मन्थरकोलिकः ||१||
भग्नर्यादिषु वस्त्रवानोपकरणार्थ वृक्षारूढस्य मन्थरकोलिकस्य छेतुं प्रवृत्तस्य स्वस्थानकमनभयात् तस्य वात् वृक्षस्थव्यन्तरस्तुष्टोऽवगू 'वरं मार्गये' त्युक्तं तस्य तेनोक्तं भार्यामाgar याचिष्ये । मार्गे गच्छतो मित्रं मिलितं तेनोक्तं राज्यं याचस्त्र । तस्याप्यत्रे तेनोक्तं भार्यामनापृच्छय न याचिष्ये, गृहे गतः, तत्स्वरूपं भार्यायै कथितं तयोक्तं द्विवस्त्रवणनशक्ति याचस्व, याचितायां च व्यन्तरेण द्विशिराश्चतुर्भुजः पुरुषः कृतः । छोकैस्तादृश्चमसमब्जसं eg विचिन्त्य च स मारितः । अतो यस्यः ।
इति मित्रवचनाकरणदोषे कोलिकसम्बन्धः || ४१७॥ [418 ] अथ अतिलोभे वधू ४ श्रेष्ठिसम्बन्धः । अतिलोभो न कर्त्तव्यो, लोभमेव परित्यजेत् । अतिलोभाच्छृङ्गदचो, वधूभिश्चिक्षिपेऽर्णवे ॥१॥
रोहणपुरे नगरे शृङ्गदत्तो वणिक्कृपण: द्वात्रिंशत्कोटिद्रव्यभर्त्ता । चतुःपुत्रः । तद्वधूनामानि लक्ष्मी: १, गौरीर, अप्सरा, रतिः ४ तापसीमन्त्रप्रयोगेण न्यग्रोधेन स्वर्णद्वीपे गत्वा नाटकाबछोकनं रात्रौ कृत्वा गृहे आगच्छन्ति ।
raar कर्मकरो वटकोटरस्थस्तत्र गतः स्वर्णद्वीपे गतेन नाटकादि सर्वमत्रलोकितं । स्वर्णकोटियुगं तत्र दाने लब्धं तेन कर्मकरेण पश्चादागतः स्वर्णकोटियुगं श्रेष्ठोऽर्पितं कथितं deस्वरूपं । श्रेष्ठी लोभात्तेन सह वटकोटरे स्थितः । अन्यदा ताभिर्मार्गे गच्छन्तीभिरतिभारत्यात् वृक्षोऽम्बुधौ क्षिप्तः । श्रेष्ठी पञ्चत्वमाप लोभात् । अतोऽतिलोभो० ॥
इति अतिलोमे वधू ४ श्रेष्ठिसम्बन्धः ||४१ ८ ॥
[419 ] अथ एकबुद्ध्यादीनां मत्स्यानां संबंधः । शतबुद्धि: शिरःस्थोऽयं, सहस्रबुद्धिः प्रलम्बितः । एकबुद्धिरहं भद्रे ! क्रीडामि विमले जले ॥१॥ कस्मिश्चिमलाशये शतबुद्धिः सहस्रबुद्धिरेकबुद्धिश्च मत्स्याः सन्ति । सन्ध्यायां तत्पार्श्वे गच्छद्धिलुब्धकैरुक्तं-- अत्र बहवो मत्स्याः सन्ति, प्रातरागन्तव्यम् ।
,
एकबुद्धिः शतबुद्धिः सहस्रबुद्धि प्राह-भो दूरे गम्यतेऽत्र भयमस्ति । ताभ्यामुक्तं-आवां छन तदा वास्यावः । शतबुद्धिसहस्रबुद्धी बुद्धिमन्तौ [वयं तत] एकबुद्धिस्तदीयं वचनमनाट त्व
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द्वितीयोऽधिकारः
[ २२५
स्वपरिवारं वात्वा परस्मिन् जलाशये गतः । ततः प्रातलुब्धका भागत्य सर्व वत्सर आलोच सर्वे मत्स्वा गृहीताः । ततस्तावपि छलं कुर्वाणौ बुद्धया, धृत्वा मारयित्वा च शतबुद्धिं शिरि कृत्य सहस्रबुद्धिं प्रस्वयन लुब्धको वलितो यत्र एकबुद्धिरस्ति तत्रागतः तं तथा festi [रड्डा ] एकबुद्धिः प्रियां प्रत्याह- हे प्रिये ! विलोकय -
शतबुद्धिः शिरःस्थोऽयं, सहस्रबुद्धिः प्रलम्बितः । एकबुद्धिरहं भद्रे ! क्रीडामि विमले जले ||
इति एकबुद्धि - सतबुद्धि - सहस्रबुद्धिमत्स्य सम्बन्धी मत्स्यानाम् ||४१६ || [420] अथ भवितव्यतायां रावणसम्बन्धः ।
रामरावणयोर्महायुद्धं बभूव । लक्ष्मणेन रावणो हतः । ततो मुहूर्त्तान्तरे अतिथमः केवली षट्पञ्चाशत्सहस्रसाधुपरिवृतो लङ्कापुर्या समागतः । यदि स ऋषीश्वरो रावणे जीवति समागमिष्यत्तदा रामरावणयोर्मिथः प्रीतिरभवत् परं भवितव्यतायोगात्म नागात् । उक्तं च
अह तस्स दिणस्संते, साहू नामेण अमियबलो । छप्पन सहस्सजुओ, मुणीण लंकापुरी पत्तो ॥ १ ॥ जड़ सो मुणी महप्पा, पत्तो लंकाहिवम्मि जीवंते । तो लकखणस्स पीई, होंती सहरक्वसिंदेन ॥२॥
इति भवितव्यतायां रावणसंबंधः ||४२०||
[ 421 ] अथ न्यायमार्गे पृथिवीपालने रामशिक्षासम्बन्धः ।
श्रीवशरबराजेन रामस्य वनवासादेशो दसः तदा बोरामस्तातपादो प्रणम्य वनवासाय
हटा। यतः
आहूतस्याभिषेकाय, प्रस्थितस्य वनाय च । दशुर्विस्मितास्तस्य, मुखरंगं समं जनाः ॥ १ ॥
भरतः श्रीरामपूष्टौ गत्वा पदयोर्लगित्वा विज्ञापयामास ।
यत्पापं ब्रह्महत्यायां यत्पापं कपिला बघे ।
तत्पापमेव मे याता, द्यार्थोऽनुमतेम ||२||
लक्ष्मणं राज्यरक्षायै, प्रहिणु पृथिवीपते ! मया प्रेष्येण गन्तव्यं, स्वया सह वनं ध्रुवम् ॥३॥
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२२६ ]
प्रबन्धपञ्चशती श्रीरामोऽवग- तदन्यथा न भवति, यन्मयोक्तं तथैव तत् ।
हीनप्रतिज्ञा पुरुषो, वर्जनीयः श्मशानवत् ॥४॥ वतः श्रीरामो लक्ष्मणं प्रति राज्यरक्षायै यदाऽवगतदा लक्ष्मणो जगौ
प्रपतेत् द्यौः सनक्षत्रा, पृथिवी शकलीभवेत् ।
शैत्यमग्निरियान्नेह, त्यजेयं रघुनन्दनम् ।।५।। ततो मरतोऽवग- अहं पादुके राज्ये न्यस्य सेवकीभूतो राज्यं रक्षयिष्यामि, शिया मझ दासन्या । धीरामः प्राह -
आलस्योपहतः पादः, पादः पापण्डमाश्रितः । राजान सेवते पाद, एकः पादः कृषीवलः ॥१॥ एकं पादं त्रयः पादा, भक्षयन्ति दिने दिने ।
तथा भरत ! कर्त्तव्यं, यथा पादो न सीदति ॥२॥ एवं शिक्षा लात्वा मरतः पश्चात्समागतो राज्यं न्यायाध्वना पपाल ।
इति न्यायमार्गे पृथिवीपालने रामशिक्षासम्बन्धः ॥४२१॥
[422] अथ सीतापहारे रामविलापसम्बन्धः । 15 यदा सीता रावरणेनापहृता तदा रामविलापाश्चैवम्-अशोकवृक्षं प्रति प्राह
रक्तस्त्वं नवपन्नवैरहमपि श्लाध्यैः प्रियाया गुणै
स्त्वामायान्ति शिलीमुखाः स्मरधनुर्मुक्ताः सखे ! मामपि । कान्तापादतलाह तिस्तव मुदे सत्यं ममाप्यावयोः,
सर्व तुल्यमशोक ! केवलमहं धात्रा सशोकः कृतः॥१॥ 20 रात्री चन्द्रं दृष्ट्वा रामः प्राह
ससंहर खीणो कांइ, रोहिणी पासि बइटी अह ।
अम्ह दुक्खसयाई, रमणी रावण लेउ गउ ॥२॥ पश्चाक्लक्मणो रामं प्रति प्राहेति
कांई झुरई तू राम सीता गई बलि आविसि । सोनइ न लागइ सांबि, माणिकि महल वइसइ नहीं ॥३॥ इत्यादि सीतापहारे रामविलापसम्बन्धः ॥४२२॥
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द्वितीयोऽधिकारः
[423] अथ शक्तिहते लक्ष्मणे रामविलापसम्बन्धा। मणे शक्तिहते सदुःखं रामः प्राहभुक्ते स्म भोजनपरे स्वपिति स्म सुप्ते.
जन्मापि मामनु भवानतनोत् किमेतत् । त्यक्त्वा क्रमं यदकरोत् सुरलोकयात्रां,
सापत्यजः प्रकटितः किमयं विकारः ॥१॥ स्थाने स्थाने कलत्राणि, मित्राणि च पदे पदे । तं देशं नैव पश्यामि, यत्र भ्राता सहोदरः॥२॥ न मे दुःखं हृता सीता, न दुःखं लक्ष्मणे हतः । एतदेव महादुःखं, यन्त्र राज्यं विभीषणे ॥३॥ इति शक्तिहते लक्ष्मणे रामविलापसम्बन्धः ॥४२३।।
[424 ] अथ विनये हनुमद्वचःसम्बन्धः । देवाज्ञापय किं करोमि किमहं लङ्कामिहैवानये,
जंबूद्वीपमितो नये किमथवा वारां निधि शोषये । हेलोत्पाटितवन्ध्यमन्दरहिमस्वर्णत्रिकूटावलः,
क्षेपक्षोभविवर्धमानसलिलं बध्नामि वारां निधिम् ॥१॥ पावालतः किमु सुधारसमानयामि, निमीड्य चन्द्रममृतं किमुपानयामि । उद्यन्तमुष्णकिरणं किमु वारयामि, कीनाश नाशु क गशः किमु चूर्ग यामि ॥२॥
इति विनये हनुमद्वचःसम्बन्धः ॥४२४॥ [425] अथ संसारासारतायां महेश्वरदतमहिषादिसम्बन्धः। साम्रलिप्त्यां पुर्या समुद्रो वणिक् । बहुला प्रिया । महेश्वरदतःपुत्रः, सस्य गङ्गिला भाऽभूत् । समुद्रो महारम्भपरो मृत्वा तत्रैव पुरे महिषोऽजनि क्रमाद्वहुला मृत्वा तत्रैव गृहे शुनी बमव । गङ्गिला स्वच्छन्दचारिणी कुशीला । अन्यदा रात्रौ ता भुक्त्वा कश्चि द्विटो गडाम् महेश्वरदत्तेन हतः स च मृत्वा गङ्गिलायाः पुत्रोऽभूत् , जातो वार्षिकः ।
कन्यदा पितुः सांवत्सरिकादिने महेश्वरदत्तेन पितृप्रीत्यै पितृ मोवो महिषो विनाशितः ।
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प्रबन्धपश्चशती
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१२८ संर पितुः प्रकल्प्य भोजनायोपविष्टः । स सत्संगे सुतः स्थापितः । शुनी तद्गृहं न मुमती मृहद्वारे एव तिष्ठति स्म । ततोऽकस्मात्कोऽपिज्ञानी साधुस्वत्र गृहे मिक्षार्थमागतो महेपरबचगृहस्वरूपं दृष्ट्वा पश्चाद्ववले । महेश्वरदत्तश्चकितः पृष्टौ गत्वाऽवग-भो साधो ! मियों
वृहाण | स साधुः प्राह-तब गृहे असमन्जसं दृश्यमानमस्ति । श्रेष्ठी प्राह-किमसमजसम्! 5 तवस्वस बोषि ज्ञात्वा साधुः प्राह-पितुर्मासं त्वया तु भक्ष्यते । माता सुनी पतिमांसं भनयन्त्यस्ति गेहे । तव सत्संगे तु त्वया वैरी उपवेशितोऽस्ति । वणिक प्राह-कथमेवं जायते ! हानी प्राह-यो महिषो मारितः स ते पिता । या शुनी सा ते माता । यस्ते सुखः म तव पल्या उपपतिस्त्वयैव इतो मृत्वा सुतोऽयभूत्तव । एवं संसारस्वरूपं हात्वा दीया लात्वा स बणिग् स्वर्ग गतः । इति संसारासारतायां महेश्वरदचमहिषादिसम्बन्धः ॥४२५॥
[426 ] अथ चारित्रविराधनदोषे क्षुन्लकसम्बन्धः । वसन्तपुरे देवप्रियः श्रेष्ठी । यौवने भार्या मृता । पुत्रेणाष्टवार्षिकेण समं प्रव्रजितः । स भुनका परिषहमसहमानो वक्ति–तात ! न शक्नोमि उपानही विना हिण्डितुं। मोहेन पिता पुत्रस्योपानही कारयामास । ततोऽवग-पुत्रः-आतपे शीर्ष तपति तेन हिण्डितुं न शक्यते मया
सतः पिता ऋत्रिकामातपवारणायानुजानाति स्म । ततः क्षुल्लकोऽवग्-सात ! भिक्षाटनं करों 15 न शक्नोमि । ततः पिता समानीय भिक्षा सूनवे दत्ते । एवं भूमौ संस्तारयितुमके पुत्रे
काठफलक पिताऽनुजानाति स्म । एवं लोचस्थाने औरं कारयति । अङ्गप्रक्षालनाशक्ते पुत्रे प्रासुकपयोऽनुजानाति स्म । पुनर्वक्ति सः तात ! ब्रह्मव्रतं पालयितुं न शक्नोमि । एतत् भुत्वा पित्रा ख्यातमयमयोग्यः । एतानि मया मोहात् कारितानि परमेवं कारयन् पुत्रेण सममहमपि नरके
ऽपतिज्यं । संसारे जीवानामसंख्याः पुत्रा जाताः । अस्य को मोहः ततो निष्कासितो गणात् मृत्वा स 20 सुतो महिषोऽभूत् । पिता तु स्वर्गे देवोऽजनि । अवधिज्ञानेन पुत्रं जातं झात्वा सार्थवाहरूपं विधाय
तमेव महिषं पानीयानयनाय लो। तरू महिषस्य पृष्ठे बहु नीरं स्थापयित्वा चालयन् सार्थवाहो जल्पति-तात् ! न शक्नोमि इत्यादि पूर्वभवोक्तानि वचांसि । ततस्तानि वचांसि शृण्वन् महिषः प्राप जातिस्मृति पश्चाद्भवं स्मृत्वा पुनः पुनरअप्रवाहं मुन्नन् दध्यौ मया तु पित्रोक्तं चारित्रं न
पालितं तेन मृत्वाऽहं महिषो जातः। ततो देवेनोक्तं-अहं तव पिता त्वां पश्चाद्भवं स्मारयितुमागां 25 बचने शुभगतिस्पृहास्ति तदानशन लाहि । ततो महिषोऽनशनं गृहीत्वा वैमानिको देवो बभूव । अतः शुद्धं व्रतं पालनीयम् । इति चारित्रविराधनदारे क्षुल्लकसम्बन्धः ॥४२६॥ इति श्रीतपागच्छेश श्रीरत्नशेखरसूरि-पट्टालङ्करण-श्रीलक्ष्मीसागरमरिशिष्य
पं० शुभशीलविहित----पञ्चशतीकथाप्रस्तावकोशे
द्वितीयोऽधिकारः ममाप्तः ।
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॥ अथ तृतीयोऽधिकारः ॥
[ 427 ] अथ पुष्पचूलासाध्वीसम्बन्धः ।
terer आचार्या एकस्मिन् पुरे तिष्ठन्ति स्म । नवकल्पविहारं कर्त्तुमशक्ताः धर्ममूर्तयः शालामध्ये नव स्थानानि विभज्य मासे गते द्वितीयस्थाने मासमुपविशन्ति स्म । ऋतुकाले अष्टमासैरष्टस्थानेषु स्थित्वा नवमस्थाने चातुर्मासी तिष्ठन्ति स्म । पुष्पला साध्वी 5 भिक्षां शुद्धामानीय तेभ्यो दत्ते ।
एकदा मेघे वर्षति उत्पन्नकेवलज्ञाना भिक्षां लारवा गुरुपार्श्वे समागमत्साध्वी । ततो गुरुभिः प्रोकं - पुण्यवति ! त्वया वर्षति मेघे आहार: किमानीतः सदोषत्वात् । साध्वी प्राहमया अचित्तप्रदेशे स्थित्वा अत्रागतं तेन दोषो न लग्नः । गुरुणोक्तं-- त्वमचित्तप्रदेशं कथं वेत्सि १ साऽवगू -- गुरुप्रसादात् । गुरुः प्राह-किं ज्ञानं प्रतिपात्यप्रतिपाति वा तवोत्पन्नं 10 ततस्तयोक्तमप्रतिपाति १ एवं ज्ञात्वा आचार्या जगुस्तव केवलज्ञानं जावं मम केवलज्ञानं कुत्र भविष्यति । केवली प्राह- गङ्गामुतरता भवतां केवलज्ञानं भविष्यति । ततस्ते सूरयो गङ्गायां गताः नावमारूढाः यस्मिन्पार्श्व गुरव उपविशन्ति तस्मिन्पार्श्वे नोर्निमज्जति तो नौबाइकेन आचार्या गङ्गामध्ये क्षिप्ताः । जलजीवानुकम्पाम्यानात्केवलज्ञानमुत्पन्नं आयुरपि प्राप्तमन्तं भन्तकृत्केवली जातः । ततोदेवैः केवलिमहः कृतः । ततो गङ्गातीर्थं जातं 16 पुष्पलाऽपि भव्यान्प्रबोध्य मुक्ति गता ।
इति श्री जङ्घाऽनिका पुत्रसूरि पुष्पचूला साध्वीसम्बन्धः || ४२७||
[428 ] अथ वैराग्ये मोहे च वसुदत्तसंबंधः ।
कानपुरे वसुदत्तः सार्थवाहो वसति स्म । ज्ञानी समागात्तत्र । सार्थपो वन्दित्वा गुरु पप्रच्छ शुको मम गृहेऽभूत् स च मार्जार्या मारितो भक्षितः, स शुको ममातीव 20 वल्लभोऽभूत तस्मिन्मृते ममातीवोच्चाटो विद्यते ।
ज्ञानी प्राह - तव वसुमती पत्नी बंभूव । वरुणः पुत्रश्च स च तव त्वत्पल्या अतीव बल्लभोऽभूत् । अन्यदा वरुणो देशान्तरे गत्वा धनमर्जयित्वा मार्गे पश्चादागच्छन् शूलरोगामृतस्तत्राटव्यांशुकोऽजनि तद्धनं ते कियञ्चटित कियगतं पुत्रमृतिस्मृते तब पत्नी, वरुणमाता मृता वसुमती, तब गृहे मार्जारी जाता ।
अन्यदा त्वं देशान्तरे गतस्तत्राटव्यां पुत्रजीवशुकं धृत्वा स्वगेहेऽनैषीः, पञ्जरेऽक्षिपत् ।
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२३० ]
प्रबन्धपश्चन्नती
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वर्याहारस्त्वया स पोषितः स्नेहेन लालितः पालितः पाठितश्च ।
अन्यदोद्घटिते पम्ज़रे शुक्र मार्जारी हत्वा भक्षितती । सा च वसुमतो माता, तं शुकं पुत्रमाह । एतच्छ्रुत्वा प्राप्तवैराग्यो व्रतं लात्वा कम क्षिप्त्वा मुक्ति ययौ ।
इति वैराग्ये मोहे च वसुदत्तसंबंधः ॥४२८॥
[ 429] अथ कुटुम्ब विघटनादौ जिनदत्तकथा । श्रीपुरे जिनदत्तः श्राद्धः । पली जिनदत्ता । पुत्राः चत्वारः परिणायिताः । पत्नी जिनदत्ता मृता । श्रेष्ठिनो मित्रं विमलः । ____ एकदा जिनदत्तेन मित्रवारितेनापि पुत्रेभ्यः सर्वा श्रीदत्ता । क्रमाद्ववः श्वशुरस्य शुश्रूषां न कुर्वते । श्रेष्ठी दुःखी जातः । पुत्राणामले स्वदुःखं श्रेष्ठो प्राह । पुत्रैः स्वपत्नोना प्रोक्तं-युष्माभिः ऽस्मत् पितुः शुश्रा किन क्रियते ? तदा सो मी वचो जगुः-अलौन वयं मन्यते, तेनास्माभिगृहेऽपि स्थातुं न शक्यते, यदि असौ वाट के तिष्ठति तत्रस्थस्यास्माभिर्मुक्तिः करिष्यते, तदा वयं स्थास्यामो नोचेत् पितुगृहे यास्यामः । ततस्तैः पुत्रः पिता पाटककुटोरके स्थापितः । उत्सूरे यत्तदन्नं ददते । दुःखी जातः । मित्रेणोक्तं मत्कथितं न
प्रोक्तं [कृतं] तेन दुःखी जातोऽसि त्वं, लक्ष्मीरेव [मान्य से न पितृमात्रादिः । ततः सुहृत्तस्य स्मै] 15 कृत्रिमान स्वर्णिकान दत्वावग-इयं वासनिका खट्वायाः पादस्याधः स्थाप्या, यदा वृद्धा
वधूरायाति तदा मुखमस्याः छोटयित्वा स्वर्णिकान् हस्ते गृहीत्वा त्वरितं मध्ये क्षिप्त्वा वासनिका बन्धनीया, यदा वधूर्वदति "तात ! किमस्ति ते पार्ष" नदा वा "वृद्धवहेस सौवर्षिणका रक्षिता? अहं दुःखी जातः, तेन एते यम"। वः प्राहाई तब भक्ति करिष्यामि ।
ततस्तया भक्ती क्रियमाणायां श्रेष्ठी जगौ~~यदाऽहं म्रिये तदा त्वया ग्राह्या, [एवं तिसृगां पुरो 20 वक्तव्यं] । ततो विमलमित्रोक्ते विहिते श्रेष्ठी पत्नोवचसा गृहमध्ये आनीतः । वारकेण सर्वा
वध्वो भक्तिं कुर्वते । श्रेष्ठिनि मृते वृद्धा वधूर्मिषं कृत्वा वासनिकां यावद् गृहाति तावदन्या जगुममार्पिता श्वशुरेण । एवं विवादं कुवतीनां त्रुटिता वासनिका । ठोकरीदृष्ट्वा पश्चादुक्तं ताभिर्यादृशी भक्तिरात्मना कृता तादृशी श्वशुरेणापि ।
इति कुटुम्ब विघटनादौ जिनदत्तकथा ॥४२९।। 26
[430 ] अथ पुत्रभक्तौ वज्रसिंहभूपसम्बन्धः । कुसुमपुरे धनसुनन्दौ गृहस्थी वसतः स्म । सरलौ दानिनौ दयापरौ । एकदा तो साधुमुपद्र्यमाणं भिल्लैर्मोचयामासतुः, तेन पुण्येन वीरपुरे वीसहभूपन्य रुक्मिणाः पट्टराश्याः कुक्षौ अवतीर्णौ । तस्या रुधिरपूर्णकुण्डस्नान होहदो जातः। अलस्तरसरितवाप्यो दोहदः पूरितः । अलक्तरसक्लिन्नवशरीरा सा भारण्डपक्षिणा मासबुद्धयाऽकस्मादुत्पाटिता व्योम्नि
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द्वितीयोऽधिकार.
[ २३१ परण्ये नीता, तत्र तापसोटजे तया पुत्रयुग्मं जनितं, सिंहसिन्धुरी नाम्ना कृतौ क्रमात् प्रौढो जातो हम्तिव्याघ्रादिभिः समं क्रीडतः स्म । . अन्यदा वशीकृतश्वेतगजस्कन्धारूढी पल्लीपतिनाऽवरुद्धं सार्थवाहं विमोच्य पल्लीशं हत्वा तत्र राजानी जाती मातुःसेवा कुर्वाते स्म । अन्यदा वसिंहभूपस्तयोः पावें तं गजं श्रुत्वा दूतं प्रेध्य याचते स्म । तौ श्वेतं गजं नार्पयतः स्म । वचसिंहः संना तत्र गतः । तत्र 5 युद्ध मण्डितं ताभ्यां । क्रमाज्जीवसंहारं ज्ञात्वा स्वं पतिं च रुक्मिणीमाता पुत्रौ प्रति जगौ युवयोः एषः पिता । सर्व दोहदस्वरूपं कथिवती च, ततस्तु तो पितुः पाश्र्व गत्वा प्रणेमतुः । रुक्मिण्यपि तत्रागता । ज्ञापितः पुत्रसम्बन्धः पत्युः । ततो हृष्टस्तथो राज्यं दत्त्वा दीक्षा जग्राह तावेकछत्र राज्यं प्रपाल्य क्रमात्प्राप्तव्रतौ सिद्धौ । इति पुत्रभक्तौ वचसिंहभूपसंबंधा ॥४३०॥
10 [431] अथ नमस्कारगणनफले कदम्बद्विजसम्बन्धः । काकन्यां पुर्या सोमशर्मा विप्रः । तस्य पुत्रः कदम्बः अतिशौचवादी छायामानान्यस्पर्शः सचेलस्नानं करोति, पानीयपिशाच इति प्रसिद्धोऽभूत । वसाचलस्थगितवदननासिकः सर्वत्र हुं हुं कुर्वन् भ्रमति, यदा कस्यापि वस्त्राब्चलो लगति तदा तस्मिन्द्वेषं चकार । ततो गलत्कुष्ट
प्रभृति रोगग्रस्तः । ततस्तस्य कोऽपि स्पर्श न करोति । वैद्योऽपि नादिं न विलोकते 16 संक्रमणभयात् । यतः
ज्वरो भगन्दरः कुष्टं, क्षय चैव चतुर्थकः ।
एते संस्पर्शतो रोगा, संक्रमन्ति नराचरम् ॥१॥ ततो नष्टशौचपादोऽजनि शरीरे वेदना जाता । अन्यदा यतिपाइवें गतः । यतिना धर्मोपदेशो ददे । ततः पृष्टं तेन युष्माभिः स्नानं न क्रियते, कुतः शुद्धिर्भवति । यतिना प्रोक्तं- 20 शरीरमिदमशुचि विद्यते । तस्य स्नानेन किम् भवति । मनःशुद्धिरेव वीक्ष्यते । यतः
रसामुग्मांसमेदोस्थि-मज्जशुक्रान्तवर्चसाम् । अशुचीनां पदं कायः, शुचित्वं तस्य तत्कुतः ॥२॥ नवः श्रोतः श्रवद्विस्त्र--रसनिास्यन्दपिच्छिले । देहेऽपि शौचसंकल्पो, महन्मोहविजम्भितम् ॥३॥
26 भुत्वैतड्यौ द्विजः-अहं मुधा शुचिवादं करोमि, अहो एते एव शुचयः ब्रह्मचारी सदाशुचिः यदि ममापि रोगोपशान्तिर्भवति तदाहमपीदृशो भवामि । साधुभिरुक-सर्वमौषधं मुक्त्वा एक नमस्कार गणय, षण्मासी यावदपरं ध्यान न काय । ततस्तस्य नमस्कारान्गणयन्कुष्टं गतं सुश्रावको जातः । सर्वधनं व्ययित्वा चारित्रं गृहीत्वा स्वर्ग गतः कदम्बः ।
इति नमस्कारगणनफले कदम्पद्विबसम्बंधः ॥४३१॥
2ी
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पती
[432] अथ क्षमायां कीर्त्तिवर सुकोशलमुनिसंबंधः ।
अयोध्यायां कोर्तिधरो राजा । सहदेवोपत्नोयुक्तो राज्यं चक्रे । सुक्रोशले पुत्रे जाते दोबा राजा ललौ । सुकोशलो राज्यं चक्रे । अन्यदा कोर्त्तिवरमुनिर्मध्याह्ने मिझार्थमयोध्यानगरमध्ये प्रविशन् सहदेव्या दृष्टो, पथ्यौ च सा-यदि कदाचित्कीर्त्तिधरं पितरं सुकोशको द्रक्ष्यति तदा # दीक्षां प्रोष्यत्येव, एवं ध्यात्वा सा तं सेवकपार्श्वत्पुरावहिर्निष्काशयामास । सुकोशलधात्री रोदिति । सुकोशलोऽवादीत् - मातः ! किं रुद्यते त्वया ? साऽवग्--तव पिता मुनिस्तव मात्रा पुराद्बहिः कर्षितः । ततः पिता प्रतिलाभितः, धर्मवाकाशलानं लड़ो, सहदेवो पुत्रवियोगपतिद्वेषाभ्यां सृता वने व्याघ्री जाता । कीर्त्तिधरसुकोशलमुनी तत्रागतौ चतुर्मासीं तपश्चक्रतुः । पारणकदिने यातौ तौ व्याघ्रथा दृष्टौ । प्रथमं सुक्रोशले पतिता, सुनी प्राणान्तमुपसर्ग हावा कायोत्सर्ग चक्रतुः । सुकोशलऋषिर्व्याघ्रया भक्ष्यमाणः क्षपकश्रेणिरूढः केवलज्ञानमवाप्य मुक्ति सद्यो ययौ, कीर्त्तिवरं ऋषि भक्ष्यमाणा व्याघ्रो तन्मुखे स्वर्णमदितदन्तान् दृष्टा प्राप्तजातिस्मृतिः स्वं पतिं विज्ञाय प्राप्तपश्चात्तापा समादायानशनं सहस्रारं स्वर्गं गता ।
इति क्षमायां कीर्त्तिधर - सुकोशलमुनिसम्बन्धः ॥४३२||
२३२ ]
10
16
25
[433 ] अथ अहंकारे उज्झितकुमारसम्बन्धः ।
नन्दिपुरे सारराजस्य रत्नमत्याद्याः पत्न्योऽभूवन् । अपत्यानि न जीवन्ति यदा तदोपयातैरन्यदा पुत्रो जातः सोऽपि मृत इति कृत्वा उत्करटिकायामुज्झितः, दैववशान मृतः, पुनः पश्चाद्गृहीतः, तस्य उज्झितकुमार इति नाम दत्तं । यौवनं प्राप्तः परमत्यन्तादङ्कारवान् जगणं मन्यते, स्तम्भ इव मातापित्रोरपि न नमति स्म ।
अन्यदा लेखशालायां पठन् गुरुं प्रत्यवग्रे ! त्वं उच्चासने उपविष्टः, अहं नीचासने 20 उपविशामोति हक्कयर चपेटयाहत्य गुरुमपिभूमौ पातयामास । ततः कुपुत्र इति कृत्वा राहा निष्काशित देशात्तापसाश्रमे गतः । पर्यस्तिकां बन्ना मुनीनामये आसीनः तापसैरुक्तं --महानुभाग ! विनयं कुरु ? ततो रुष्टो निर्गतो मुनोननत्वैत्र । मार्गे सिंहं संमुखमागच्छन्तं दृष्ट्राऽपि दर्पान ननाश सन्मुख एव गतः सिंहेन भक्षितः, खरो जातः, ततः करभः, ततः पुनरपि नन्दिपुरे पुरोहितस्यैव सुतोऽभूत् । शैशवेऽपि १४ विद्यापारगः महाहंकारवशान्मृत्वा तत्रैव पुरे गायनोडुम्बो जातः पुरोधसस्तं दृष्ट्वा महास्नेहः ।
इतश्व केवलज्ञानी तत्रागात् केवली पृष्टः पुरोधसा, ममायं दुम्बः अतीववल्लभः कथं ? केवलिनोक्तं - एष दुम्बजीवः तवेतो नवमेभवे भ्राताऽभूत् । अतस्तव स्नेहोऽनेन समं, इति श्रुत्वा संसारासारतां मत्वा द्वावपि धर्म कृत्वा स्वर्ग गतौ ततो मुक्ति जास्यतः क्रमात् ।
इति अहंकारे उज्झितकुमारसम्बन्धः ||४३३||
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द्वितीयोऽधिकारः
[ २३३ [344 ] अथ जीवरक्षणारक्षणयोर्बलभद्रकृष्णसंबंधः । मान्यसंचयपुरे द्वौ सोदरौ वनात्काष्टभृतं शकटं कृत्वा स्वगृहं प्रति चलितौ । लघुः सकटं खेटयामास । वृद्धोऽग्रेसरोऽभूत् । मार्गे चुक्कलण्डों दृष्ट्वा वृद्ध उवाच शकटं टालय । अग्रे चुक्कलण्डा मार्गे स्थिता मरिष्यति । एतत् श्रुत्वा चुक्कलण्डा सा तत्रैव स्थिता], तेनापि ईयया तदुपरि शकटं खेटितं चुक्क लण्डा मृता वसन्तपुरे धनश्रेष्ठिसुना जाता, यौवने परिणीता । 5 अन्यदा ज्येष्ठबन्धुमृत्वा तस्याउकाडाजीव स्य सुना जातः, ललिताङ्ग इति नाम ।
कालान्तरे द्वितीयोऽपि पुती दुष्टशातनपातनौषधः पात्यमानोऽपि [जावन्नेव] बभूव । [तदा] तया मात्रा दासहस्तेन यहिरुज्झितः पिता स्वपुलं मात्रोज्झितं ज्ञात्वा ऽन्यत्र रहः स्थापयामास । गंगदत्त इति नामाभवत् । अन्यदोत्सवाह नि भोजनवेलायां पिता द्वो पुत्री स्वोत्संगे निवेशयामास । गंगदत्तस्तु पृष्ठौ रहः स्थापितः। तस्यापि [ तस्मै अपि ] छन्नं पक्वात्रादि दत्ते । तदा सा तं 10 दृष्ट्वोत्पन्न रुट संचारके चिक्षेप पितृ पुत्री तमशुचेः कषयित्वा वारिणा प्रझाल्य वनान्त ज्ञानिनोऽन्ते गतौ । ज्ञानी पृष्टः अस्य माता हन्तुमिच्छति । नतो ज्ञानो जगो-यदा इयं चुण्डाऽभूत् तदा अनेन लघुभ्रात्रा चुक्कलण्डा हता । अतो हन्तुमिच्छत्यस्य माता । अनेन सूनुना वर्य वचः प्रोक्तं । अतोऽस्मिन् दृष्टाऽभूत् तस्त्रयोऽपि त्र ललुः, जनकः सिद्धः । गंगदत्तः सर्वस्य वल्लभो भूयासमिति निदानं कृत्वा । ललिताङ्गतु तपः कृत्वा, महाशुक्रे स्वर्गे 15 सुरौ जातो ततश्च्युतो बलभद्रकृष्णौ जाती।
इति जीवरक्षणारक्षणयोर्चलभद्रकृष्णसम्बन्धः ॥४३४॥
[435] अथ अतिमुक्तर्षिसम्बन्धः । पोलासपुरे विजयो राजा । श्रीः पत्नी । अतिमुक्तकः पुत्रोऽजनि अष्टवार्षिकोऽभूत् । पुरमार्गे कनककन्दुकेन बालकैः समं रमते स्म । इतः श्रीवोरः तत्र समवसरत् : गौतमः 30 षष्ठपारमके भिक्षायै पुरमध्ये भ्रमति । गीतमं दृढा सोऽतिमुक्तका हष्टोऽभागीन् -के यूयं,
मदत । गौतमो जगौ-वयं साधवी भिक्षार्थमटामः । स प्राइ- मम गृहे भागच्छत, भिक्षां दास्यामि तुभ्यं । ततोऽग्रे भूचा गौतमं स स्वगृहेऽनैरोत् . शुद्धानरानोयैगौतमस्तेन प्रतिलाभितः । साऽतिमुक्तकोऽवग -यूयं का या य? गौतमोऽवग -अस्माकं धर्मगुरुर्वीरो विद्यते तस्य पार्श्व, अतिमुक्तकाऽपि तत्र गतः वारपार्श्व धर्म श्रुत्वा 25 प्रबुद्धः। तता गृहागत:
"जं चेव जाणामि तं चेव न जाणामीति" ___ यन्मरणं भावि जानामि तदपि न जानामि कदा भविष्यतीत्यादि प्रोच्य मातापितरौ प्रबोध्य प्रवबाज । अन्यदा वर्षासु जलप्रवाहे वहति तनुगमनिकायां गनां स्वां टुपरिका जले मुक्त्वा क्रोडया तारयति । मम बेढी तरति, स्थविरवारितः । ततः स्थविरा वीरं पप्रच्छु:- 30
किमर्थमटत । गौतम
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२३४ ]
प्रबन्धपञ्चशती अतिमुक्तो बालपिराराधकोऽयवाऽनाराधकोऽस्ति । श्रीवीरः प्राह-अत्रैव भवे गुणरत्नतपसा केवलीभूत्वा सेत्स्यति । ततो हृष्टाः स्थविरास्तं पालयन्ति श्लाघयन्ति च । क्रमावृद्धो भूत्वा १२ गुणरत्नतपः कृत्वा सिद्धः। तच्चेदं तपः १ उपवासपारणं-२ उपवासपारणं, एवं शतउपवासपारणं, पारणे तु आचाम्लम् । इति अतिमुक्तर्षिसम्बन्धः ।।४३५।।
[द्वितीयस्तु अतिमुक्तकः कंसचातो [कंस लघु भ्राता) श्री नेमिनाथवारके केवली बभूव । तृतीयस्तु मेघे वर्षति जलविराधनं कृत्वा गुरुणा वारितः सन् धर्मस्थानके समेत्य इर्यापथिकों प्रतिक्रामत् दगमट्टी रइति पुनः पुनः ममेमा [ भणित्वा ] शुक्लध्यानारूढः केवलज्ञानं प्राप क्रमाजिइश्व क्रमाज्निश्च ॥४३५]
[436 ] अथ वस्तुपालकुटुम्बप्रतिबोधिसम्बन्धः । 10 एकदा धवलक्कपुरे श्रीहेम भसूरयश्चतुर्मासी स्थिताः । तत्र व्याख्यायां ठक्कुरश्री
आभूमन्त्रिनन्दिनी कुमारदेवी मात्रा सहायाति । परं सा कुमारदेवी विधवा । आसराजोऽपि व्याख्यायामागतः । व्याख्यानप्रान्ते सर्वेषु साधुषु स्वस्वगृहे गतेषु गुरुं पप्रच्छ-भगवन् ! युष्माकं दृष्टिर्नी रागाऽपि कुमारदेव्यां कथं पुनः पुनर्गता? गुरवो जगुः-कुमारदेव्याः कुशौ
एकादशरत्नानि सन्ति, ४ पुत्राः सप्त पुयः सन्ति । तेषु पुत्रद्वयं लोकोत्तरं श्रुत्वेति आसराजः 16 आभूमन्त्रिसेवां करोति स्म । तत्र गृहलेखं करोति स्म । क्रमेण कुमारदेव्या सह प्रीतिर्जाता।
गुरूक्तं कथितं, ततस्तस्या मातुरपि प्रोच्य छन्नं वाहनिकायामुपवेश्य कुमारदेवी आसराजो मण्डलीनगयों गतः । तत्र वसतस्तस्य लूणिग-मल्लदेवर-वस्तुपाल३-तेजपालाबा४ चत्वारः पुत्रा बभूवुः । साकु१-माकुर-भाकु३-धनदेवी४-सोहग५-तेजुका६-वइज७ काख्याः सप्त पुत्र्योऽभूवन् । मल्लदेवलूणिगौ अल्पायुषो जातौ ।
एकदा आसराजो धवलक्कके वासं चकार । वस्तुपालस्य ललितादेवी पत्न्यभूत् । द्वितीया सोधूश्व सौषूश्च] ललितादेवीपुत्रो जयन्तसिंहस्तस्य पन्नो सूहबदे । तेजःपालस्य तु अनुपमादेवी पल्यभूत्। आसराजसुतौ व्यवसायं चक्रतुः । इतो व्याघ्रपल्लीयो राणकः आनाको भीमेन भूपेनापमानितोऽन्यत्र गतः । परिग्रहेणाऽऽकारितोऽपि नायात् । ज्ञापितं च राज्यं विनष्टं च
किमागम्यते मया ? परं पदातिमात्रः सन् ओलगां करिष्यामीत्युक्त्वा पत्तने समागात् । 25 तत्सुतो लूणसानामा भरकधरोऽस्ति तस्य वीरधवलपुत्रोऽभूत् । स च राझा भीमेन प्रधानः कृतः । राणिमा दत्ता तस्मै, राज्य चिन्तां चक्र च भीमभूपोविकलोऽभूत् ।
अथ लवणप्रासादेन राज्यमात्मायत्तं [आत्मीयं कृतं, भीमे मृते स एव लवणप्रसादो राजाऽभूत् वीरधवलस्य कुमारभक्तो धवलक्ककं दत्तं लवणप्रसादो घनं धवलक्कके बोरधव
लस्नेहेन तस्थौ । पत्तने अमात्याश्चिन्तां कुर्वन्ति यथा कमात्तस्य वस्तुपालतेजपालो मन्त्रीश्वरौ 30 जातो तथा ग्रन्थान्तराद् शेयौ । क्रमाद्वस्तुपालमन्त्री ब्राह्मणैर्वेष्टितोऽनन्तं बबन्ध हस्ते, मिथ्यात्वे पतितः।
अत्रान्तरे कुलगुरवः श्रोविजयसेनसूरयो वन्दापयितुमागतास्तत्र कुमारदेव्या नमस्कृता ।
20
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द्वितीयोऽधिकारः
[ २३५
15
उक्तं च गुरुभिः-मन्त्री वस्तुपालो नायाति । कुमारदेवी जगौ-भगवन् ! गृहे पादावधारयिभ्वं वन्दापनार्थ गुरवो प्राप्ता ! मन्त्री तूपरि गृहस्य तस्थौ । तदा गुरबो गृहस्योयंभूमौगताः । वस्तुपालस्तु विप्रैर्वेष्टितः सन्मुखं न पश्यति गुरोः । ततो गुरवः पश्चाद्वलिताः । कुमारदेवी जगौ-भगवन् ! त्वरितं कथं पश्चाद्वलिताः ? गुरुभिरुक्तं-अक्सरो नास्ति । कुमारदेवी प्राह--भगवन् ! क्षणं प्रतीमध्वं, मन्त्री आगमिष्यति । ततः कुमारदेवी पुत्रपार्वे गत्वाऽवग- 5 पुत्र ! गुरव आगता अपि त्वया न नताः । आत्मनः कुले ये गुरवः सन्ति ते तु मान्यन्त एव । वस्तपालो मातुवचसा विप्रान् विसज्य गुरुपाइवे समागात् । गुरवो वन्दिताः, पृष्टं च-भगवन् ! कथं पश्चात्त्वरितं वलिताः ? गुरुभिः प्रोक्तं-त्वं सुश्राद्धमन्त्रिआसराजकुलचूडामणिरसि । आत्मनः कुलाचारं मा मुञ्च | पुनः पुनरुपदेशं ददानगुरुभिरुक्तं-यो देवः पूज्यते स जिमद्भिहदनं कुर्वद्भिन विराध्यते । [आभछिट्यादिना] अयमनन्तो देवः स च जिमद्भिः 10 कथं बाध्यते इत्यादि प्रोच्य छोटापितः ? ये गृहकार्य कुर्वन्ति भार्यामङ्गोकुर्वन्ति ते तु न धर्मगुरवः किन्तु कर्मगुरवः । एवं ज्ञात्वा त्वया विशेन परीक्ष्य धर्मगुरवोऽङ्गोकार्या इति श्रत्वा गुरुपाचे वस्तुपालः सकुटुम्बः सम्यक्त्वं लात्वा जैन धर्म चक्रे ।
इति वस्तुपालकुटुम्बप्रतिबोधसम्बन्धः ॥४३६।।
[ 437 ] अथ वस्तुपालमन्त्रिसंघवात्सल्यादिनियमः । एकदा द्वौ वस्तुपाल-तेजपालौ गुरुपावें धर्म श्रोतुं गतौ । गुरुभि प्रोक्तं
धनदो धनमिच्छनां कामद; काममिच्छताम् ।
धर्म एवापवर्गस्य पारम्पर्येण साधकः ॥११॥ कोशं विकासय सदा श्रय धर्ममार्य, प्रीतिं कुरुष्व यदयं दिवसस्तवास्ति । दोषोदये निबिडराजकरप्रताप-ध्यान्ते समेष्यति पुनस्तव क; समीपम् ।।२।। 20
तदनु स्वगृहे समायातौ विमृशतः स्मेति तो गुरुभिहितोपदेशो ददे । उत्तरकालस्तु न ज्ञायते कीदृशो भविष्यति । अतोऽधुना धनं धर्मस्थाने व्यग्रते ततस्तो स्थले स्थले प्रासादान् धर्मशालाः सत्रागारान् मण्डयामासतुः । प्रतिदिनं उभयकालं प्रतिक्रान्तिमेकवारं देवार्चा प्रतिवर्ष महतीः संधाः साधर्मिकवात्सल्य त्रयं च १५०० तपोधनविहारणम् । इति वस्तुपालमन्त्रिसंघवात्सल्यादिनियमः ॥४३७।।
25 [438 ] अथ वस्तुपालमन्त्रियात्रासम्बन्धः । एकदा श्रीवस्तुपालो गुरुपार्वे श्रीशत्रुजयतीर्थयात्राफलं शुश्रावेति
पल्योपमसहस्रं तु, ध्यानाल्लक्षमभिग्रहात् । दुःकर्म क्षीयते मार्गे, सागरोपमसश्चितम् ॥१॥
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२३६ ]
प्रबन्धपञ्चशती
स्पृष्ट्वा शत्रुञ्जयं तीथं, नत्वा रैवतकं गिरिम् । स्नात्वा गजपदे कुण्डे, पुनर्जन्म न विद्यते ॥२॥
कृत्वा यूपसहस्राणि, हन्या जन्तुशतानि च ।
इदं तीर्थ समाराध्य, तियंचोऽपि दिवं गताः ॥३॥ 6 इत्यादि तीर्थमाहात्म्यं श्रुत्वा कुमपत्रिका बहुषु देशेषु प्रेध्य बहुं श्रीसंघमाकारयामास मन्त्री, जगो च
वाहनौषधपाथेयं, सहायवृषभादिकम् ।
यद्यस्य नास्ति तत्तस्मै, सर्व देयं मया मुदा ॥४॥ प्रस्थानावसरे कविः प्राह-वस्तुपालो मन्त्री भरतचक्रीव यात्रामधुना कुर्वाणोऽस्ति । 10 प्रथमं देवगृहे स्नात्रं विस्तरान्मन्त्री चक्रे, पश्चात्संघाचर्चा । ततो मन्त्रपूर्व देवालयानां रखे
स्थापनं । तत्र चामरादिधरणढालनादि अविधवास्त्रीतिलककरणगीतगानादि, वृषभाणां घर्षरमालाबन्धनं । कौसुम्भिकाया वृषशृङ्गेषु धारणं । प्रथमयात्राया विस्तरः ४००० सेजवाला, ७.० सुखासनानि, १४०० श्रीकः, ३३३ सूरयः, २२०० यतयः, ११०० झपणकाः, ३३०० भट्टार,
६४ देवालयाः, १८० हेमजटितवाहिन्यः, ४५० जैनयाचकाः, ४००० तुरंगमा, ७००००० मनुष्याः , 16 मार्गे समकरणाय ५००० कुहाडिकाः, ५०० महिषाः, पानीयानयनाय ५०० कुदाली, एवमपरमपि
स्वयं शेयं प्रतिदिन १०० मनुष्याः जिमन्ति मन्त्रिगृहे । एवंविधेन श्रीसंघेन सह वस्तुपालमन्त्री द्वयोस्तीर्थयोर्यात्रां चकार ।
इति वस्तुपालमन्त्रियात्रासम्बन्धः ॥ ४३८ ॥
[439] अथ यात्रायाभाग्ये वस्तुपालहडालाग्रामप्राप्तिसम्बन्धः । 20 अन्यदा बहुश्रीसंघ मेलयित्वा वस्तुपालो मन्त्री श्रीशत्रुजयदेवनमनार्थ चलितो हडाला
प्रामे गतः । तदा द्वाभ्यां भ्रातृभ्यां गृहसत्कलक्ष्मीविलोकिता, लेखके लक्षत्रयं शातं । ततः प्रोक्तं मन्त्रिणा सुराष्ट्रासु [अथास्वास्थ्यं] अस्वस्थं विद्यते । तेन लक्षमेकमत्रावनौ मिप्यते । लक्षद्वयं धर्मे व्ययनाथ साथै नीयते । एवं विमृश्य यावल्लक्षस्य धनस्याधःक्षेपाय भूमि
खनयति मन्त्री. तावत्तत्र भूमौ कस्यापि धनिनः पूर्वस्थापितः वनकनकपूर्णः शौल्ककलशो 25 निर्ययौ । ततो मन्त्री अनुपमादेवी पप्रच्छ-क्वैतनिधीयते धनं ? तयोक्तं तीर्थ व्ययते
स्थाप्यते । ततो मन्त्री तद्धनं सार्थ नीत्वा शत्रुजयगिरिनारतीर्थयोख्ययत् । कृत्वा यात्रा संघ परिधाप्य गुरुश्च सोत्सवं धवलक्कके समागात् मन्त्री ।
इति यात्रायामाग्ये वस्तुपालहडालाग्रामप्राप्तिसम्बन्धः ॥४३९॥
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द्वितीयोऽधिकारः
[ २३७ [440] अथ वस्तुपालतेजपालयोर्मुद्राप्राप्तिसम्बन्धः । एकदा रात्रौ गोर्जरी[त्रा]अधिष्ठायिका सुरी धवलक्कपुरे वीरधवलभूपस्य पुरोऽभ्येत्यावग्इयं गूर्जरा बहुभिभूपैर्भुक्ता । अधुना त्वमवती? भोक्तुं यदि तव राज्यवर्धनेच्छा विद्यते तदा वस्तुपालतेजपालो मन्त्रिणौ कुरु । एवं प्रोच्य देवी विद्युदिव तिरोदधे । राज्ञा दभ्योकोऽपि दिव्योपदेशः, कर्तव्य एव । यतः
दृप्यद्भुजाः क्षितिभुजः श्रियमर्जयन्ति,
नीत्या समुन्नयति मन्त्रिजनः पुनस्ताम् । रत्नावली जलधयो जनयन्ति किन्तु,
संस्कारमत्र मणिकारगणः करोति ॥१॥ इतो रात्री देवी सैव लवणप्रसादस्याग्रेऽप्यवदत् वस्तुपालतेजपाली मन्त्रीश्वरौ कार्यों, पितापुत्री 10 एकत्र मिलित्वा मिथः स्वस्वं रात्रिवृत्तान्तं जजल्पतुः । ततस्ताभ्यां वीरधवललवणप्रसादाभ्यां सोमेश्वरदेवगुरोरने प्रोक्तं । गुरुर्द्विजः प्राह-युवा भाग्येन देव्या ज्ञापितमेतत् । ममकल्ये वस्तुपालतेजपालौ मिलितौ । साक्षात्पुरुषोत्तमप्रायो विज्ञौ, सदाकारी, विनीती, सर्वकलाकुशलो, धीमन्तो, शूरौ, दानिनौ, धर्मवन्तौ । तदा मया ध्यातं यद्येतो मन्त्रिणौ भवतस्तदा राज्यवृद्धिभवति । ततस्तो सोदरौ राज्ञा तत्राकारितो, आसनदानादिना सन्मानितौ । ततो भूपो जगौ 15 युवयोमन्त्रीश्वरपदं दातुकामोऽस्मि उक्तं च
आवयोश्च पितृपुत्रयो-महानाहितः क्षितिभर; परद्रुहा ।
तधुवां सचिवपुङ्गवावह, योक्तुमत्र युगपत्समुत्सहे ॥१॥ अथ वस्तुपालो जगौदेव ! सेवकजन; स गण्यते, पुण्यवत्सु गुणवत्सु चाग्रणीः।
१० यः प्रसन्नवदनाम्बुजन्मना, स्वामिना मधुरमेवमुच्यते ॥२॥ नास्ति तीर्थमिह पार्थिवात्परं, यन्मुखाम्बुजविलोकनादपि । नश्यति द्रुतमपायपातकं, सम्पदेति च समीहिता सताम् ॥३॥ किन्तु किमपि विज्ञाप्यते स्वामी,
आवाभ्यां सागता शुभमयी जगत्त्रयी । देव ! संप्रति यु [ग:] कलिः पुनः सेवकेषु,
न कृतं [ता] कृतज्ञता नापि भूपतिषु यत्र दृश्यते ॥४॥
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२३८ ]
पती
दृष्टिष्टा भूपतीनां तमोभिः | लोभस्तु सर्वेषां विद्यते राजानस्तु आत्मोयाः न भवन्ति केषामपि, तेनास्मन्मनो मन्त्रीस्वरपदग्रहणे दोलायते । यदा श्रीर्भवति तदा तु धर्मस्थानादौ व्ययितुमिच्छा भवति । तदा राज्ञो दृष्टिर्यदारा भवति । तदा सर्व राजा गृह्णाति । राजाऽवग्-यत्र भवतो[ते] रोचते तत्र तत्र श्रीर्व्ययनीया । मन्त्री जगौ - अस्मद् गृहे साम्प्रतं लक्षत्रयी द्रव्यस्य विद्यते कदाचित् पिशुनप्रवेशाद्राज्ञो मनश्चलति । तदा लक्षत्रयं मोचनीयमधिकं ग्राह्यं । राजा जगौ - अहं यदि भवतां श्रियं गृह्णामि । तदा मम भवतोरीश्वरोऽन्तरा क्रियमाणोऽस्ति । ततो राज्ञा दत्ता मुद्रा द्वाभ्यां भ्रातृभ्यां गृहीता । ततः स्तम्भतीर्थदेशव्यापारो दत्तस्तेजःपालस्य धवलक्कदेशव्यापारो, वस्तुपालमन्त्रिणो ददे भूपेन, ततस्ताभ्यां तथा कृतं थाने देशाः साधिताः । दिने दिने राज्ञः कोशो ववृधे मन्त्रीश्वरगृहमपि श्रिया भृतं राजा हृष्टः सन्मानं दत्ते तयोः ।
इति वस्तुपालतेजपालयोर्मुद्राप्राप्तिसम्बन्धः ॥ ४४ ॥
[441] अथाऽनित्यतास्मरणे वस्तुपालसंबंधः ।
अम्बदा श्रीवस्तुपालो मन्त्री मस्तकादागतमेकं पलितं दृष्ट्वा पपाठ । अधीता न कला काचित् न च किञ्चित्कृतं तपः । दत्तं न किञ्चित्पत्रेभ्यो, गतं च मधुरं वयः ॥ १ ॥ आयुर्यौवन वित्तेषु स्मृतशेषेषु या मतिः । सैव वेज्जायते पूर्वं न दूरे परमं पदम् ||२| आरोहन्ती शिरःस्वान्ता - दौन्नत्यं तनुते जरा | शिरसः स्वान्तमायान्ती, दिश्यते[दिशति] नीचता पुनः ||३||
लोकः पृच्छति मे वार्तां, शरीरे कुशलं तव । कुतः कुशलमस्माक - माधुर्याति दिनेदिने ||४||
एवं ध्यात्वा विशेषतोऽनेके प्रसादान् साधर्मिक वात्सल्यगुरुपरिधापनशुद्धभक्तप्रदानादिधर्मकृत्यानि च मन्त्री चकार ।
इति अनित्यतास्मरणे वस्तुपालसम्बन्धः || ४४१ ॥
(१) नष्टं सत्वं सात्विकानां । (२) लोभो जातः सर्वलोभिना, सम्प्रति शपथमाहात्म्यं विद्याविकले, लोभस्तु सर्वेषां विद्यते । (३) अस्मभ्यां [आषाभ्यां] धर्मे सप्तक्षेत्र्यां स्वदर्शने शिवदर्शने श्रीर्व्ययिष्यते यदिस्वामि प्रसन्न एव वीक्ष्यते । (४) वैरीगणोपद्रवः श्रीग्रहणमोचने स्वामिन आज्ञा प्राहितः । [ प्रतौ एतदधिकमुपलभ्यते ]
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द्वितीयोऽधिकारः
[ २३९ [ 442 ] अथ वस्तुपालयात्रासम्बन्धः । अन्येधुर्वस्तुपालो ब्राह्म मुहूर्ते उत्थाय दध्यौ, यदि विस्तरेण तीर्थयात्रा क्रियते तदा वरं । यतः
वऊचयित्वा जनानेतान् , सुकृतं गृह्यते श्रिया । तत्ततो गृह्यते येन, स तु धूर्तधुरन्धरः ॥१॥ नृपव्यापारपापेभ्यः, सुकृतं स्वीकृतं न यैः ।
तान्धूलिधावकेभ्योऽपि, मन्ये मूढतरानरान् ॥२॥ एवं स्मृत्वा श्रीमलधारि श्रीनरचन्द्रसूरिपादाः पृष्ठाः--भगवन् ! या मे चिन्ताऽधुना सा निःप्रत्यूह सेत्स्यति न वा ? प्रमुभिः प्रोक्तं-या चिन्ता तव विद्यते सा सेत्स्यत्येव । वस्तुपाल: पाह-तहि देवालये वासक्षेपः क्रियतां । ततः शुभमुहूर्ते गुरुभिर्देवालये वासक्षेपः कृतः । साधर्मि- 10 कवात्सल्यं च । ततः श्रीसंघः स्थाने स्थाने मार्गे देवालये स्नात्रमहोत्सवं कुर्वाणः श्रीशजये गतः । तत्र पत्रपूजाध्वजारात्रिकमंगलदीपकादीनि प्रभोः पुरश्चक्रे । तत उतीणों वस्तुपालो गिरिनारतीर्थे गत्वा नेमि प्रणम्य मार्गे श्रीसंघं मिष्टाहारादिभिः प्रप्रीण्य परिधाप्य गुरून् प्रतिलाभयामास सूत्सवं स्वपुरमागात् ।
इति वस्तुपालयात्रासम्बन्धः ॥४४२।।
[448 ] अथ समुद्रवीक्षानिर्गतमरुस्थलीपुरुषसम्बन्धः । एकदा कोऽपि रत्नाकरोपान्तवासी पुमान् मरुस्थल्यां गतः । एकस्मिन् ग्रामे तत्रत्यालये प्राम्याः स्थूलबहुललोमशाः कम्बलपरिधाना मलक्लिन्नगात्राः अनन्तरमागतं वीक्ष्य मिथः प्रोचुः । नवीनः द्रुतगामी बक इव श्वेतवस्त्रधारी क एक एषः) कुकुतः]त्रागात् ? ततस्तैराकारितः पृष्टं च-करत्वं कुतः किमर्थमत्रागाः । तेनोक्तमहं दूरालमुद्रतटादागां । तैः पृष्टं-समुद्रः कीदृशोऽस्ति 20 पान्थः प्राह---महान् । तैः पृष्ट-केन खनितः सोऽवग-स्वयंभुवा । तैः प्रोक्तं-स कियान । सोऽवग--तस्य पारो न प्राप्यते; तैरुक्तं-तत्र किं प्राप्यते ? सोऽवग-~
ग्रावाणो मणयो हरिनलचराः लक्ष्मीः पयो मानुषी, मुक्तौषाः सिकताः प्रवाललतिकाः सेवालमन्तः सुधा ।
25 तीरे कन्पमहीरुहः किमपरं नाम्नाऽपि रत्नाकरो,
एवं पदनयं व्याख्याय सोऽप्रतो गतः । ततस्तेषु प्रामेषु एकः कौतुकी ततो निर्गतः समुद्रवीक्षार्थ । ततः क्रमाव पृच्छन् समुद्रतटं गतः दृष्टः समुद्रः, कल्लोलमालाभिः पूरितस्तेन । ततो
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२४० ]
प्रबन्धपश्चशती
ध्यातं-वर्योऽयं देशः यत्र बहुनोरं विद्यते । अस्मद्देशे तु अगाधाम्बु तदपि स्तोकं । असोऽधुना कृषितोऽहं जलं पिवामि । ततः पयः पातुं लग्नः । यावजल पोतं तावन्मुखं सारमभून् । कोष्टो दग्धः ततोऽपाठीत्सः
चिरिवियराजलपिहिं जल, पियइ घुट्टघुट्ट चुलूएहिं ।
सायर अस्थि बहुत जल विकारा किं तेण ? ॥१॥ ततः समुद्रतटे उपविष्टो रत्नानि विलोकयति तदा कल्लोला एवायान्ति । यान्ति च न रत्नानि । वृक्षा विलोकिता ये ते झारा एव, धूलिस्तु भारा एक मुखे पतिता । ततो नष्टो निजदेशे समागात् समुद्रस्वरूपं प्रोच्यावग्-लोकानां पुर आत्मीय एव देशो वर्यः ।
इति समुद्रवीक्षानिर्गतमरुस्थली पुरुष सम्बन्धः ॥४४३॥
[444 ] अथ लूणिगमंत्रिधर्मवाञ्छासम्बन्धः । पूर्व धवलक्कके लूणिमदेव-मालदेव-वस्तुपाल-तेजःपालसोदरा निद्रव्या वसन्ति स्म । अन्यदा लूणिगस्यान्त्यावस्थायां पुण्ये मानिते लझत्रयप्रमाणे । लूणिगः प्राह-ममार्थमबुंदगिरौ विमलवसतिकायां प्रासादो देवकुलिका वा कार्या । ततो वस्तुपालेनोक्तं करिष्यते त्वया पुण्यं श्रद्धेयं तत्पुण्यं श्रद्धानो लूणिगः स्वगं गतः ।
इति लूणिगमन्त्रिधर्मवाञ्छासम्बन्धः ॥ ४४४ ॥
[445 ] अथाव॒दलूणिगवसतिनिर्माणसम्बन्धः ! एकदा वस्तुपालमन्त्री अर्बुदतोर्थे गतः। नत्र विमलमन्त्रिवसहिकायां श्रीवृषभदेवं पूजयित्वा प्रासादस्य कोरणिकां वर्या वीक्ष्य दध्यौ-वयं चत्वारो भ्रातरो जाताः, परं मालदेवघातुर्नाम्ना
प्रासादाः कारिताः । अत्र लूणिगभ्रातुर्नाम्ना लूणिगाह्वा वसतिं कारयामि । ततस्तेज पालः पृष्टः 20 सन् वसतिकरणे ऽनुमति ददौ ।।
ततश्चन्द्रावत्यां पुर्या गत्वा धारावर्षभूपस्य मिलितः तम्याग्रे प्रोक्तमहमबुंदशेले प्रासाद कारयितुमिच्छामि । तेनोक्तं-यद्विलोक्यते [यदपेक्षसे] तदहं करिष्ये । ततः सुमुहूर्त सूत्रधारानाकार्य भूमिदर्शिता यदा, तदा तत्रत्याः पतीयानका न मन्यन्ते । ततो धर्मनिमित्तं स्पर्द्धकै
स्तीरयित्वा भूमिगृहीता, चतु:स्पर्धकस्योपरि पश्चकं स्पर्द्धकं मण्डितं च वस्तुपालमन्त्री 25 स्पर्धभूमि तोरयित्वा गृह्वानः ३६ स्पक मुदकै भूमों बह्वां जमाह । तदा पतोयानकैरुतं
असौ मन्त्री सर्व गिरिं ग्रहोष्यति तदा मेले मेलं]न समेष्यति । ततो मन्त्री निषिद्धस्तः । ततो मन्त्री आरासणतः पाषाणाना [आनाय्य] प्रासादं कत्तुमारब्धः । अद्धिकोशे प्रामा वासिताः
आरासणमार्गे तत्र सत्रागाराः, मुख्यः शोभन: सूत्रधारः । अपरेषा सप्तशतानि सूत्रधारामां * उर्छ ।
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द्वितीयोऽधिकारः
[ २४१ बहु द्रव्यं प्रतिदीयते । सप्तसहस्रं मनुष्याः अर्बुदगिरिआरामणादिप्रामेषु देवगृहार्थ मुक्ताः कर्म कत्तुम् ।
एकदा वस्तुपाल: सकुटुम्बस्तत्रागात् । तदा स्तोकं कर्नाटकं [कार्य] निष्पद्यमानं दृष्टा मन्त्री शोभनं प्रति प्राह-स्तोकं कर्नाटक चलति एवं कथं प्रासादो निष्परस्यते १ शोभनोऽवगअत्र गिरौ शीते पतति तेन प्रातर्घटनं न भवति । मध्याह्ने जेमितुं गम्यते रात्रौ तु विश्रामो मृह्यते । ततोऽनुपमा श्रुत्वैतत् दिवसघटकाः सूत्रधारका एके कृताः । रात्रिकर्म[स्थाप्यकारकाः 5 पृथक् स्थापयामास, मन्त्रिपार्थात् यतः-कालस्य विश्वासो न क्रियते
श्रियो वा स्वस्य वा नाशो, येनावश्यं विनश्यति । श्रीसम्बन्धे बुधः स्थैर्य-बुद्धिं बध्नाति तत्र किम् ? ॥१॥ वृद्धानाराधयन्तोऽपि, तर्पयन्तोऽपि पूर्वजान् ।
पश्यन्तोऽपि गतश्रीकान् , अहो मुह्यन्ति जन्तवः ॥२॥ तत्र स्तोकैरेव वर्षेः प्रासादो निष्पनः । तत्र बिम्बस्थापना कृता प्रतिष्ठा कारिता १२ कोदिः साधिका लग्ना “यत्र यत्र बुद्धि!त्पद्यते तत्र तत्र बुद्धिमनुपमादेवी दत्ते ।" यत:स्त्री सती यद्वति तत्प्रायस्तथा भवति भीलमाहाल्याव
गृहचिन्ताभरणहर, मतिवितरणमखिलपात्रसत्करणम् ।
किं किं न फलति कृतिना, गृहिणी गृहकन्पवनीव ? ॥३॥ सम्वत् १२८२ प्रासादप्रारम्भः । १२९२ प्रासादः सम्पूर्णोऽजनि । १२ कोहि ५३ क्षद्रव्याणि तत्र प्रासादे लूणिगवसत्याझे लग्नानि ।
इति अर्बुदलूणिगवसतिनिर्माणसम्बन्धः ॥४४५।।
[446 ] अथ भक्तिदाने अनुपमादेवीसंबंधः । अन्यदा वस्तुपालमन्त्रिणा अनुपमादेव्याः पुरः प्रोक्तं-त्वया साधवो विहार्याः साधिका 20 साधर्मिक्यो भोजयितव्याः । ततः प्रतिदिनमनुपमादेवी हृष्टा, यथेष्टं अन्नपानघृतादिसाधुभ्यो दवा साधिकान् साधर्मिकांश्च यथायोग्यं भोजयित्वा गुरोः पदोवन्दनकानि दत्त्वा देवं प्रपूज्य जिमति सदा एवं गच्छति समये । अन्यदा साधुभ्योऽन्नपानं दत्त्वा घृतकटाहकेन बहु घृतं ददानायास्तस्याः क्षौमाण्यभ्यक्तानि घृतेन । तदा महत् घृतकटाहक साधोहवा एकेन प्रतीहा. रेण भग्नं ततस्तया स निष्काशितः । अन्यस्तत्र स्थापितः । अत्रान्तरे स प्रतीहारो वस्तुपालमन्त्रो- 25 शस्य पुरो जगौ । अनुपमादेवी बहु घृतं साधुभ्यो दत्ते । यदा तदा साटिका घृतेनाभ्यस्ता भवति मलिनाम्बरा स्त्री तु न शोभते । ततो मन्त्रिणा साऽनुपमादेवी निषिद्धा । तदा अनुपमादेवी मन्त्रीशस्य पुरः प्राह अनेकेषु भवेषु तैलिकपत्नी अभूवं, कान्दुविकपत्नी च, तत्र
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२४२ ]
न्धपञ्चशती
बहुशोघृतेन शादिकाभ्यक्ताऽभूत्, परमधुना धर्महेतोः साधुभ्यो घृतं ददानाया मम शाटिका घृताभ्यक्ता, भवति मम भाग्यं भवे भवे कथमीदृशो योगः तव सहक्षो ज्येष्ठः धनी धर्मी दयावान् इत्यादिगुणवान् ईदृक्षी देवगुरुसामग्री मनुष्ययोगः, वासना च पापदानानि भूरिशो दत्तानि, धर्मदानानि साम्प्रतमेव लब्धानि सन्ति । एवं तयोक्ते वस्तुपालमन्त्री हृष्टस्त 5 प्रशंसयामास । ततः प्राह च - अद्यप्रभृति त्वया विचारो न कार्यः । यथारुचि त्वया दानं दातव्यम् । इति भक्तिदाने अनुपमादेवीसम्बन्धः ॥४४६॥
[447] अथ वस्तुपालमन्त्रि कुटुम्ब परलोकगतिसंबंधः ।
सम्वत् १२६८ ( वर्षे) अङ्केवालीयाप्रामे वस्तुपालमन्त्री स्वर्गं गतः । तत्र सरः, प्रभुप्रासादो, धर्मशाला, सन्त्रागाराश्च तेजःपालेन कारिता : १८ वर्ष व्यापारः, तेजःपालो मन्त्री १३०२ 10 चन्द्रोमाणाग्रामे स्वर्गं गतः । तत्रापि सरःप्रासादसत्रागाराश्च जयंतसिंहेन कारिताः । अनुपमादेवीअनशनं लात्वा स्वर्गं गता । सुललितादेव्यपि ।
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इतश्चैकदा वर्द्धमानसूरय आचाम्लवर्द्धमानतपः कर्त्तु लग्नाः अभिग्रहं उलु । यदा तपःपूर्णं भविष्यति तदा मया शंखेश्वरपार्श्व वन्दित्वैव पारणकं कार्य, सम्पूर्णे तपसि देवं मनसि कृत्वा सूरयो दध्युर्मया वस्तुपालादीनां गतिः प्रभोः पार्श्वस्य पुरः प्रष्टव्या एवं ध्यात्वा मार्गे चेलुः । तत्र मार्गे एकस्य तरोस्तलेऽनशनं लात्वा प्रभोर्ध्यानात् मृतः [ स च ] शंखेश्वर पार्श्वनाथस्याधिटायकोsभूत्, ज्ञानेन मन्त्रिणो गतिं ज्ञातुं महाविदेहक्षेत्रे श्रीसीमन्धरजिनं नन्तुं गतः । प्रभुं नत्वा स पप्रच्छ भगवन् ! वस्तुपालमन्त्री महापुण्यकारकः क्व गतो मृत्या ? स्वाम्याहविदेहे पुष्कलावतीविजये पुण्डरिकिण्या पुर्याहु रुन्द्रो नृपोऽभूत् वस्तुपालजीवः, स च तृतीयभवे सेत्स्यति । अनुपमादेवीजीवस्तु अत्र विजये श्रेष्ठिसुता जाताऽस्ति, दीक्षां लात्वा सेत्स्यत्य20 स्मिन्नेव भवे । ततः स देवः श्रीशंखेश्वर पाश्र्वनाथमुखेऽवतीर्य स्वसम्बन्धकथनपूर्वं वस्तुपालानुपमादेव्योर्गतिं प्रकाशयामास लोकाग्रे । इति श्रीवस्तुपालानुपमादेवीगतिः । तेजःपालस्तु धरापुरे भूपपुत्रोभूत्तत्रैव ललितादेव्यपि सोमभूपपत्नी जाताऽस्ति एते सर्वे स्तोकैर्भवैर्मुक्तिं यास्यन्ति । इति वस्तुपालमन्त्रिकुटुम्ब परलोकगतिसंबंधः || ४४७||
[448] अथ द्वितीय आभडमन्त्रिसम्बन्धः ।
पत्तने श्रीमाल ज्ञातीय नागश्रेष्ठि सुन्दरीपत्नीभव- आभडो वणिग्बभूव । तस्मिन् दशवार्षिके मातापितरौ मृतौ श्रीर्नष्टा । आभडस्तु व्यवसायं चक्रे । वृद्धत्वे परिणीतः मणिकारकलां शिक्षितवान् दिनं प्रति पोष्टिकानुपार्जयति । तत्रैकं धर्मे व्ययति, द्वौ कुटुम्बकार्ये, द्वौ सच्चये । चतुर्दशेऽब्के पुत्रो जातः । परन्याः स्तन्यं न तेन पुत्रः सीदति स्म । ततः पुत्रस्य दुग्धाय छार्गी लातुमाभडो ग्रामबहिर्गतः । तत्र अवाहे छागयूथं पानीयं पातुमागात् । अवाहे छाग्यः सर्वाः पानीयं 30 पातुं लग्नाः यदा तदाऽऽभडो नीलं पयो ददर्श । ततम्बिन्तितं तेन कस्या अपि गले रत्नं
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द्वितीयोऽधिकारः
[२४३ विद्यने । ततश्छागीषु पयः पीत्वा बलितासु एकस्या गले कण्डकं दृष्टं तस्यां निवृत्तायां पयोधवलं जातं ततश्छागीयपाश्र्वेऽभ्येत्यावग-मम पुत्रस्यार्थे दुग्धं विलोक्यते तेनैका छागों देहि मल्यं मार्गय । तेनोक्तं-विलोकय या ते रोचते सा गृह्यता तत आभडोऽवग-इयं सकण्डका देहि तेनोक्तं-गृहाण ततो मार्गितं मूल्यं वितीय छागी स्वगृहेऽनैषीत्सः तस्या दुग्धेन पुत्रं जीवयति, कण्डकरत्नं समाज्य लक्षेण विचिकाय अतो व्यवहारी जातः । तत आभडेन वहिकास्तिस्रः । कृताः । एका रोक्यवहिका, द्वितीया विलम्बवहिका, तृतीया परलोकवहिका, को भावोऽत्र ? धरणं बन्धनं याचनां न कस्यापि करोति उद्धाराद्यनर्पणात् कृपाम्भोधिः क्रमाद्धने वर्द्धिते ३६ वेलातटे धनर्द्धिः पूगहट्टिका निजसदनं श्रीहेमसूरिपौषधशालाश्च माषपिष्टेष्टकचिताः कारितास्तेन । क्रमाच्छीकुमारपाले राज्योपविष्टे महाव्यापारोऽभूत् । श्रीहेमसूरिपार्श्वे साधर्मिकपोषणफलं मुक्तिरिति श्रुत्वा त्रुटितधनान् श्राद्धान् दीनारसहस्रदानादुद्दधार राजाऽपि सहस्रं सहस्रं 10 दीनाराणां भग्नसाधमिकेभ्यो दापयति आभडपार्धात् , वर्षान्ते एका कोदिधर्मे जाता ।
आभडोऽवग् भूपोपान्ते--राज्ञो द्विधा कोशः स्थावरो हेमादि० जङ्गमो वणिजः यन्मम धनं तत्तवैव श्रुत्वा राजा सृष्टः आभडं प्रशशंस आभडः प्रभुप्रासादान भूरिशः कारयामास धर्मशालाश्च शत्रुञ्जयादिषु तीर्थषु यात्राः साधर्मिकवात्सल्यानि पुस्तकभाण्डागारभरणं चकार च । इति द्वितीय आभडमन्त्रिसम्बन्धः ॥४४८॥
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[449] अथ मूंमाणीखानिसमानीतप्रतिमापञ्चकस्वरूपम् । अन्येद्यः सुरत्राणमोजदीनमाता हजयात्रार्थिनी स्तम्भन]पुरमागता, नौवित्तगृहेऽतिथित्वेन स्थिता । सा चागता मन्त्रिणा ज्ञाता । सेवकानां प्रोक्तं यदेयं जलपथे याति तदा शाप्या मे ।
अन्यदा तैः सा चलनावसरे मन्त्रिणो ज्ञापिता । ततो वर्यानपानाम्बरप्रदानात् पूर्वमतीव 20 गौरविता । ततोऽब्धिमार्गे तस्याश्चलन्त्या मन्त्रिमा निजकोलिकसेवकान् प्रेष्य धनं सर्व लुण्टयित्वा समानायितं, सुष्ठ स्थाने रक्षितं च । तदा नौवित्तैः झापितं मन्त्रिणोऽग्रे तस्या लुण्टनस्वरूपं । मन्त्री प्राह-कोऽस्ति एवं वर्मभङ्गं करोति ? आदेशो दत्तः स्वसेवकाना पूर्व छन्नं शिक्षयित्वा गच्छत । यूयं यानं पूरयित्वा यत्र येन ग्रहीतं तत आनेयं, ततस्ते सप्ताष्ट दिनानि भ्रान्त्वाऽऽगताः प्रोक्तं च तै:- अमुकैहोतं । ततो बलात्तत आनायितं कूटं 26 प्रकृतं कृत्वा तस्यास्तत्सर्व दत्तं । मातयंदन्यद्विलोक्यते तद्माह्यं मम पाश्र्थात् , जेमिता वराहारैः । ततो लक्षत्रयद्रव्यनिष्पन्नं आरासणाश्ममयं तोरणं रुतेन वेष्टितं कृत्वा ददौ, मन्त्री प्राह च-इदं हजे बन्थनीयं । ततो याने स्थापितं ततश्चलन्त्याः तस्याः प्रोक्तं मन्त्रिणां त्वया पश्चादत्रागन्तव्यं । ततः सा हजे तीर्थे गता । तत्र हजे तोरणं बद्ध्वा हजसेवां कृत्वा पश्चात्स्तम्भतीर्थे समागता । वस्तुपालेन मानिता भोजनवखादिदानात् । ततस्तयोक्तं-मम 30 पुत्रद्वयं-एकस्त्वं अपरो मोजदीनसुरत्राणः, यत्तय विलोक्यते तभ्मार्गय । मन्त्री प्राह त्वत्पुत्रदेशे मूंमाणीपाषाणखानिरस्ति । ततः प्रौद्धमस्तरपश्चकं मम. विलोक्यते वयोकालकर
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२४४]
प्रबन्धपञ्चशती
मेवास्ति । अहं तत्र गता सती द्वितीयवारं तदा जिमिष्यामि, यदा प्रस्तरपञ्चकं भवदुक्तं ततश्वालयिष्यामि । एवं प्रोच्य यदा चचाल सा तदा वस्तुपालो बहुवर्त्मनि संप्रेषवितुं गतः । सा च स्वपुरे गता सूनोमिलिता पुत्रस्याने प्रोक्तः यात्रासम्बन्धः सर्वः । प्रोक्तमेकस्त्वं
पुत्रः अपरो गूर्जरमन्त्री वस्तुपालः । तस्य ऍमाणीप्रस्तरपञ्चकं यदा प्रेषयिष्यते तदा मया 5 द्विारं भोक्तव्यं । ततो राज्ञा प्रस्तरपञ्चकं प्रेषितं । तत एकेन शत्रुजये श्रीऋषभप्रतिमा
कारिता, द्वितीयेन पुण्डरिकप्रतिमा, तृतीयेन कपर्दिकयक्षप्रतिमा, चतुर्थन चश्वर्याः प्रतिमा, पञ्चमेन तेजलपुरे पार्श्वनाथप्रतिमा । केचित् वृद्धाः कथयंति-गौमेतं मठादग्रतो वामपाश्र्वे चतुष्किका वर्तते तदधोभूमिगृहे वस्तुपालमंत्रिणा एवं आदिष्टं-इमं पञ्चक स्थापितमस्ति । इति {माणीखानिसमानीतप्रतिमापञ्चकस्वरूपम् ।।४४९॥
[450] अथ रत्नश्राद्धसम्बन्धः। 10 काश्मीरदेशभूषणनबहुलकपुरात् रत्नश्रावको निर्गतः। श्रीरवतगिरी नेमिनमस्करणाय,
वर्त्मनि स्थाने स्थाने देवतया विघ्नं कृतं पुनर्न चचाल । तीर्थमारूढः रत्नः श्रीसंघयुक्तः प्रभोः स्नात्रं कर्तुं लग्नः श्रीपञ्चपाण्डवकारितं लेप्यमयं बिम्बं गलितं श्रीसंघयुप्रत्नोऽतीव खिन्नोऽजनि अचिन्तयच्च, धिग्मा यन्मम स्नात्रं कुर्वतः प्रभोबिम्बं गलितं, मया तदा भोक्तव्यं यदा श्रीअम्बिकादेवी नेमिप्रतिमां दास्यति । अम्बिकादेव्याः पुर उपविष्टो ध्यानेन षष्ठभ्यानोपवासान्ते अम्बिका प्रत्यक्षीभूयावग-त्वत्साहसेनाहं तुष्टास्मि । ततः सा काश्चनबलानकेतमनैषोत् । तत्र च तस्मै द्वासप्ततिजिनबिम्बान्यदीहशत् । तेषु १८ हैमानि, १८ रात्नानि, १८ राजतानि, १८ वञमयानि एवं ७२ । स विमृश्यावग्- वज्ररत्नमयं बिम्बमप्य मह्यं । ततो देवी ककचकिच्च] सूत्रतन्तुभिर्बद्ध्वा तस्य पृष्ठौ मुमोच, पश्चान्न विलोक्यं । यत्र त्वं पश्चाद्विलोकयिष्यसि
तत्रैव स्थास्यति । ततो बिम्बं स्कन्धे कृत्वा निर्गतः । स तदा द्वारि समागात् , तदा [स्ते] 20 ध्यातं तेन भारस्तु न ज्ञायते । कदाचिद् देव्या वाहितोऽहमेव कपटेन, एवं ध्यात्वा
यावत् पश्चाद्विलोकितं तावद्विम्ब तत्रैवाम्बरे स्थितं । ततस्तस्य बिम्बस्य तत्र पूजा कृता, द्वारं प्रासादस्य ततोऽस्तमनाभिमुखं कृतं, स्तुतिरेवं कृता
न खानिमध्यादुदखानि, सूत्रै त्रुटि टकैरुडिखंजिनेव । अद्योति न द्योतमकैर्न बाहेरवाहि, यो मन्त्रि न सिद्धमन्त्रैः ॥१॥ अनादिरब्यक्ततनूरमेद्यः, प्रभामयोऽनन्तबलः स्वसिद्धः । तरीस्तरीतुं भविना भवाब्धिं, स नेमिनाथः कृपयाविरासीत् ॥२॥
इति रत्नश्राद्धसम्बन्धः ॥४५०॥
[451] अथ बुद्धौ हरिदत्तदूतसंबंधः । परेशानः सभाषामुपविष्टो यदा तदा प्रातरेको वैदेशिकः समागात । स च
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द्वितीयोऽधिकार
[२४५ पृष्टः त्वं कुत भागात् ? किमाश्चर्य दृष्टं स्वया ? तेनोक्तं-बेनातटपुरे भीमसेनराजेन सभा वर्या कारिताऽस्ति, यादृशी अन्यत्र न दृश्यते । राज्ञोक्तं हरिदत्तस्य दूतस्याने । गच्छ तत्र पुरे सा विलोक्यांगछ । यादृशी तत्र समास्ति तारशी कायते । ततः स दतः किश्चित् प्रीतिप्राभृतहस्तश्चचाल राहो मिलितः स, प्रोक्तं च-अहं चित्रसभा द्रष्टुं चन्द्रेण भूपेन प्रेषितोऽस्मि । भीमसेनोऽवग-कल्ये प्रातयिष्यते । ततो द्वितीयदिने प्रातर्दूत आकारितः। 6 तत्र गतः चित्रशाला विचित्ररत्नखचिता जलस्थलभ्रान्तिकारिणीं दृष्ट्वा प्रथमं निश्चेतुमक्षमः स कथं प्रविष्टः १ ततः बुद्धिमान मुद्रामने मोचं मोचं जलस्थले ज्ञात्वा मध्ये प्रविष्टः । ततः स चन्द्रभूपानुगः पश्चादेत्य यदा भीमसेनभूपसभावर्णनं चकार ।
इति बुद्धौ हरिदत्तदूतसम्बन्धः ॥४५१॥
[452] अथ बुद्धौ क्षत्रियपत्नी नीइणीसम्बन्धः । सूरडग्रामे सूरपालः क्षत्रियः पत्नी नीइणी । सा च पतिपावें नित्यं पट्टसूत्र कन्चुकं याचते । स च न दत्ते वक्ति च तां प्रति नाई-पट्टकूलवणिग कार्पासवणिग् वाऽभवं । ततो मम पार्वे पट्टसूत्र कन्चुकं नास्ति । तयोक्तं-द्रव्येन किं न भवति ? स वक्ति-~द्रव्यं कस्य पार्वे समस्ति ? सा वक्ति-अहिफीणादि समानयति कुतो निःसरति । एवं प्रोक्ते पल्या सदा नोत्तरं दत्त ।
ततोऽन्यदा यदा सूरपालः सभायामुपाविशत् । तदा दासी तया शिक्षयित्वा प्रेषिता जगौ-त्वरितं गृहे आगम्यतां त्वया नोइण्या झापितमस्ति इति "रब्बा" उत्तरिताऽस्ति शीता भविष्यति । ततः सभाजनैरुक्तं किं तव गृहे धनं नास्ति [य] रब्बा पीयते ? ततः स लज्जितो गृहे आगतः प्राह–परिन ! अहं कथमेवं विगोपितो रब्बाजल्पनेन ? सावग-यदि पट्टसूत्रकन्चुकं नार्पयिष्यसि तदैवं भविष्यति । स प्राह-पट्टसूत्रककचुकं गृहाण । अथ कलंको 28 यथोत्तरति तथा कुरु। ततस्तयोक्तं-सेतिकाद्वयं गोधूमानां प्रेषय, घृतं गुड इत्यादिकं वितर । यदा तदा तव कलंक उत्तरति । ततः प्रियामागितं दत्वा सभायां गतः । प्रिया तु वयाँ रसवती निष्पाद्य सभायामागता गृहे आगच्छ रसवती निष्पन्नाऽस्ति । ततः सर्वपरिषज्जनसहितः गृहे आगात्, पल्या रसवत्या सर्वपरिषत्सहितः जेमयितः प्रीणितो वयरसवतीदानात् । ततः सर्वपरिषत्प्राह-अयं धनी पुण्यवान्, एतस्य पत्नी धन्या, एतयोः संयोगो वर्योऽस्ति। 25
एवं बुद्धौ क्षत्रियपत्नी नीइणीसम्बन्धः ॥४५२।।
[453 ] अथ बुद्धौ सुबुद्धिसम्बन्धः । एकस्मिन् पुरे कुबुद्धिसुबुद्धिमित्रद्वयं विद्यते स्म । सुबुद्धिः देशान्तर गतः । कुबुद्धिस्तस्य प्रियाया रकोऽभूत् । सुबुद्धिर्धनमुपाज्य आगात् । कुबुद्धिस्तु कृत्रिम स्नेहवनो जस्पति सुबुद्धिस्तदशानन् मानयति त, अबुद्धिः सुदृद्धि प्रति उवाच । भवता कापि कौतुकं रष्टं, सुबुद्धिः 30
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२४६ ]
प्रबन्धपञ्चशती पाह-सरस्वती नदी कमलदोपान्तस्थे कूपमध्ये अकालजमाम्रफलं दृष्टं । बुद्धिः प्राहकूटं किं प्रोच्यते १ सुबुद्धिः-सत्यमेतत् । ततः कुबुद्धिः तस्य पत्नीमंगोचिकोः (तच्चिकोः] प्राह-यदि तत्रानं भवति तदा मम गृहस्थाऽपि श्रीस्तव, यदि न भवति तदाहं द्वाभ्यां हस्ताभ्यां यद्गृह्णामि तन्मामकं । एवं पणबन्धं कृत्वा कुबुद्धिस्तत्फलमानोतवान छन्नं स्वगृहे, प्रातावपि गतौ फलमदृष्ट्वा कुबुद्धिरुवाच चल चेद्गृहे यद् द्वाभ्यां हस्ताभ्यामहं गृह्णामि । तन्मे भवतु । एवं जल्पन्तं कुबुद्धिं सुबुद्धिः भायाँ गृहीतकामं झातवान् । ततोऽवग-कल्ये त्वयाऽगम्यं द्वाभ्यां हस्ताभ्यां वस्तु ग्राह्यं । ततो द्वितीयदिने सर्व वयं बस्तु पत्नोयुतं मालकस्योपरि मुमोच । कुबुद्धिरामात् स्वं लहनं ममार्ग सुबुद्धिनिःश्रेणी तत्र मुक्त्वा प्राह गृहाण
वस्तु । ततः स यावन्मालकस्योपरि चटितुं निःसरणी द्वाभ्या हस्ताभ्यां जग्राह । तदा सुबुद्धिः 10 प्राह-इमां निःसरणी लात्वा गच्छ । अद्य प्रभृति मम गृहे त्वया नाऽगम्यं तव मनो ज्ञात । ततः पल्यपि हक्किता सम्मार्गे स्थापिता ।।
एवं बुद्धो सुबुद्धिसम्बन्धः ॥४५३॥
[454] अथ बुद्धो व्याघ्रमारिकासम्बन्ध । उन्देलिके ग्रामे राजसिंहः क्षत्रियः तद्भार्या कलहप्रिया रुष्टान्यदा पुत्रद्वयं नीत्वा निःससार 15 पितुगृहं प्रति, गता मलयपर्वते चन्दनद्रुमादिवृक्षसंकुले एकं व्याघ्र संमुखमागच्छन्तं दृष्ट्वा
दध्यौ, कथमस्माच्छुटिष्यते ? तत उत्पन्नधीः पुत्रौ चपेटया आहत्य पाह-कथं युवा व्याघ्र भक्षितुं कलहं कुरुथः ? भवद्भिस्तु अग्रे बहवो भक्षिताः अहं तु बुमुक्षिताऽस्मि, वयं त्रयः असौ तु एकः कथमात्मन उदरपुष्टिभविष्यति । एवं जत्पन्तों श्रुत्वा व्याघ्रो दल्यो एषा व्याघ्र
मारी नारी, अहं मुधा धावितोऽत्रैवाहन्तुं । एते सर्वे व्याघ्रभक्षकाः एवं ध्यात्वा 20 व्याघ्रो नष्टः सा चोद्वलिता तस्माद्भयात् ।।
इति बुद्धौ व्याघ्रमारिकासम्बन्धः ॥४५४ ॥
[455] अथ बुद्धौ शकटालमंत्रिसंबंधः । पाटलीपुरपत्तने नन्दो राजा तस्य शकटालो मन्त्री मन्त्रिधिया सर्वे भूपाला अपि करदायका जाताः हक्तं च
अप्राज्ञेन च कातरेण च गुणः स्यात्सानुरागेण का,
प्रज्ञाविक्रमशालिनोऽपि हि भवेत् किं भक्तिहीनात्फलम् ? प्रज्ञाविक्रमभक्तयः समुचिता येषां गुणा भूतये,
__ मृत्यौ घातृपतेः कलत्रमितरे संपत्सु वापत्सु च ॥१॥ प्रज्ञागुणशरीरस्य, किं करिष्यन्ति संहिताः ? हस्तीपतच्छत्रस्य, वारिधारा वारयः ॥२॥
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द्वितीयोऽधिकार
[२४७
स च धर्मनाणकं कारयम् निद्रव्या भुवं कुर्वाणो मिषिद्धो मन्त्रिणा । ततः स भूपो रुष्टो मन्त्रिणं सपत्रमवटे चिक्षेप । तत्रस्थो रहः अपुष्यत स्वजनः । ततो महामात्यः शकटालो मृतो मृत इति घोषितं । ततो बङ्गालनाथस्तत्त परीक्षायै घोटिकाद्वयं प्रेषयामास सेवकपादुपदादम्भात् स च तत्र गत्वा प्राह अनयोर्मध्ये का माता का पुत्री इति, भूपेन पृष्टमपि तदान केनापि विशेनापि द्वयोः सम्यगनिर्णयः कृतः । ततो नन्दो दध्यौ-यदि शकटाल: 5 कूपे नाक्षेपियत तदा स निर्णयं कुर्यात् । राज्यमहत्वं यास्यति यतः
भूमेश्च देशस्य गुणान्वितस्य, भृत्यस्य वा बुद्धिमतः प्रणाशे ।
भृत्यप्रणाशे मरणं नृपाणां, नष्टाऽपि भूमिः सुलभा न भृत्याः ॥३॥ ततो दण्डपाशक भूपोऽप्रामीत् शकटालकुले कोऽप्यस्ति योऽनयोर्कोटिकयोर्मातृसुतयोविभागं करोति, तेनोक्तं विलोक्य कथयिष्यते । ततः स भूपः पृच्छन्. कुपान्तस्थं शकटालं 10 ज्ञातवान् । ततः कूपात् कर्षितः, उक्तं च' तेन--
मेदिनीशेन मान्यस्त्वं, गरु: स्वामी नियोजिकः । आश्रयश्च तथा दाता, किं कि न त्वं सदा न च ॥४॥ स्वामी दर्णयवारंण व्यतिकरे शास्त्रोपदेशे गरु....विष्टम्भे हृदयं नियोगसमये दासो भये चाश्रयः । दाता सप्तसमुद्रसीमरसनादामांतिकायां क्षिती,
___ सर्वाकारमभूत्स्वयंवरसुहृत् को वान वो मम ॥५॥ मन्त्री प्राह--किं विधेयं १ राज्ञोक्तं--अनयोवंडवयोर्मातापुत्रिकयोणियं कुरु ? ततो मन्त्रिणा वडवायुगं सपर्याणं कारयित्वा बाह्याल्यामतिबाह्य पर्याणरहितं विधाय श्रान्तं 20 सन्मोचितं । यया जिह्वया ऽन्यालीढा सा माता, पुत्री तु या मातुरधोमुखं चकार । ततो राजा हष्टो मन्त्रिणं मानयामास ।
इति बुद्धौ शकटालमन्त्रिसम्बन्धः ॥ ४५५ ।।
[456 ] अथ बुद्धौ शकटालमन्त्रिसम्बन्धः । एकदा कोऽपि भूपो विचक्षणो नन्दपार्श्व यष्टिकां पदकवृत्तां विचणीमयां सर्वत्र समां 25 प्रषयामास झापयामास च । अस्या यष्टिकाया वनखंचिंताया आदि अन्त झात्वा ज्ञापनीयं यदी केनापि न हातमादि अन्तं च । ततो राज्ञा शकेटालस्यांप्रे प्रोक्तं त्वां विना न कोऽप्यनयोनिर्णयं करोति । ततो मन्त्रो यष्टिका जलेऽमुश्चत् यतों मूलं तत् ईषजले मग्नं भारात् । तती राजा हष्टरतं मोनयामास । इति बुद्धी शकटालमन्त्रिसम्बन्धः ॥४५६॥
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२५८ ]
प्रबन्धपञ्चशती [457 ] अथ बुद्धौ मन्त्रिपार्श्वभस्मप्रेषणसंबंधः । इलावत्यां पुरि पम्मिलो राजा वरममात्यं नवोनं सुशोलं चकार । केनचिदुक्तं । अयं मन्त्रीकृतोऽस्ति परं न ज्ञायतेऽस्य कोशो बुद्धिरस्ति । ततो राक्षा मुद्रया मुद्रित प्राभूत भस्मच्छन्नं मन्त्रिणो ददे प्रोक्तं च-इदं प्रीतिप्राभृतं शत्रुमर्दनभूपाय देहि । ततः स तत्माभूतं लात्वा विदिशायां पुरि जगाम । राझोऽने प्राभृतं मुक्तं राजा तु उत्सिल्य भस्म दृष्ट्वा कालमुखो भूत्वा रुष्टः प्राह-रे मन्त्रिन ! तव स्वामी ममेहकप्राभृतं प्रेषयति ? तव शिक्षा दास्यते । मन्त्री प्राह-स्वामिन् ! मम स्वामिनाऽश्वमेधो यमः कारितो मालहेतु, तद्भस्म सर्वेषां सज्जनानां अभीष्टानां नृपाणामपि प्रेषयामास । तत एत्तद्भस्म मुद्रितं कृत्वा स्वामिनः प्रेषितं
गनाः सन्ति हयाः सन्ति, विचित्राः सन्ति सम्पदः ।
तवाप्यस्ति ममाप्यस्ति, दुर्लभं भस्म यज्ञजम् ॥१॥ सतः स राजा तुष्टस्तं मन्त्रिणं तोषयामास, राज्ञा समं प्रीतिं चक्र च।
इति बुद्धौ मन्त्रिपार्श्वभस्मप्रेषणसम्बन्धः ।।४५७॥
[458 ] अथ बुद्धौ धूर्चद्विजसम्बन्धः । एकस्मिन् प्रामे द्विजः श्रीधरः। तत्र चन्दनाहचर्मकारश्च तस्य पार्वे श्रीधरः सपानार्ग 15 कारयामास । चर्मकारोऽनिशं मूल्यं याचते । सदा विप्रो वदति त्वा हृष्टं करिष्यामि एवं
वदति तस्मिन् बहुः कालो गतः । स विप्रोऽन्यदा धनार्थ चर्मकृता धृतः धनं विना न मुञ्चति सः ।
ततोऽन्यदा तत्रैव ग्रामपतेः सुतो जातः ततस्तं विजो भूपपाश्र्वेऽनैषीत् प्राह चमया पूर्वमुपानग्रहणावसरे प्रोक्तं त्वां हृष्टं करिष्यामि । अय राज्ञः सुतो जातोऽस्ति त्वं 20 'रुलीयाइत' अथवा न, एतकृत्वा चर्मकद्दथ्यो यदि वे अहं न 'रलोयाइत' तदा राजा रुष्टो मां
दण्डयति, तत उकं 'रलोयाइत हूं हूओं' किं जल्प्यते अधिकं ? यदा पृष्टः ततोऽधिकजल्पने कोऽपि लाभो न, ततश्चमकृत्स्वगृहे गतः । .
इति बुद्धौ धूर्तद्विजसम्बन्धः ।।४५८॥
[459 ] अथ बुद्धौ भूपसम्बन्धः । विशालापुर्या वणिग्भीमः तस्य पत्नीद्वयं तच्च वयं दृष्ट्वा एको धूर्तो देवीमाराध्य भोमरूपधरो भीमे प्रामान्तरगते समेत्य तद्गृहमधिष्ठाय चावग् पन्यादीनां पुरः । अद्य मम स्वप्ने देवी प्राह-त्वं यदि जीवितमिच्छसि चिरं तर्हि धनं वितर। एवं प्राच्य प्रथमं द्वयोः पल्योभूषणादिवत्रादि ददौ । ततः परिजनो वस्त्रादिदानागौरवितः, सर्वोऽपि परिच्छदो हृष्टः । इतो भीमो गृहे आगच्छन् शुश्राव, “भीमो दानी जातः सर्व धनं धर्मादौ व्ययन् धनद इस
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द्वितीयोऽधिकारः
[ २४९ ख्यातोऽजनि सत्यभोमो दथ्यौ केनचिदहं वञ्चितो मम रूपकरणात् । ततो यदा हट्टे आगतस्तदा तेन हक्कितो रे दुष्ट धूर्त ! अत्र यथागमिष्यसि तदा हत एव, गृहे प्रवेष्टुं न लभते । ततो दःखी रुदन वक्ति । अहं मुषितोऽस्मि । अनेन लोकास्तु सर्व तेन भक्तिता धूर्तस्य पार्श्वे जाताः । ततो द्वावपि विवदमानौ भूपपार्श्वे गत्वा स्वं स्वं सम्बन्धं प्रोचतुः । द्वाबपि सदृशौ सदृशजल्पको तेन यदा केनापि निणर्णीतिर्न कृता तदा राजा दध्यौ, शिष्टपरि- 5 पालनं दुष्टनिग्रह इति राज्ञो धर्मः। यतः--
प्रजापीडनसन्तापात, समुद्भुतो हुताशनः ।
राज्ञः कुलं श्रियं प्राणान् , नादग्ध्वा विनिवर्त्तते ॥१॥ एवं ध्यात्वा भूपस्तस्य पत्नीद्वयमेकत्र स्थापयित्वा पप्रच्छ, किं युवयोः पाणिग्रहे भा । कि जल्पितं ? कि दत्तं ? प्रथम संगमे च । कस्मिन् स्थाने कि भुक्तं ? ततो राज्ञा द्वाबपि 10 पृष्टौ । यम्य प्रोक्तं विघटितं स गृहस्वामी जातः ।
एवं बुद्धौ भूपसम्बन्धः ॥ ४५९॥
[ 460] अथ आर्यनन्दिलमूरिसम्बन्धः । पद्मिनीखण्डपुरे वरदत्तेन वैरोट्या नाम्नी पुत्री पयशसः पद्मपुत्राय दत्ता ।। वरदत्तो व्यवसायार्थ देशान्तरे गच्छन् दवेन दग्धः । ततो वैरोट्या श्वश्रूरपमानयति 16 पितृमरणात् । यतः
रूपं रहो धनं तेजः, सौभाग्यं प्रभविष्णुता ।
प्रभावात्पैतृकादेव, नारीणां जायते ध्रवम् ॥१॥ वैरोट्या चिन्तयति-स्व कर्मणा एव फलं भवति । यतः
सव्यो पुच्चकयाण, कम्माणं पावए फलविवागं ।
अवराहेसु गुणेसु अ, निमित्तं (च) परो होइ ॥२॥ वैरोट्याऽन्यदा योगीन्द्रस्वप्नसूचितं गर्भ बभार. पायसदोहदो जातः । श्वश्रूर्वक्ति सुता भविष्यति । वैरोट्या श्रीआर्यरक्षितं सूरि वन्दितुं गता । सहविरोधः प्रोक्तः, गुरुणोक्तं पूर्वभवकर्मणा पायसदोहदात्पुत्रो भावी, श्वश्रा पुण्डरीकतपः कृतं । तस्योद्यापने पायसं कृतं, वध्व न दत्तं, वधूस्तु अन्यत्र पायसं निष्पाद्य घटे क्षिप्त्वा कुम्भं मुक्त्वा 25 जलाशये गता
अत्रान्तरे अलिब्जरनागः स्वपत्नीदोहदपूरणाय क्षीरान्नं लात्वा गतः । इतो वैरोट्या तत्रागता क्षीरान्नमदृष्ट्वा न चुकोप बभाषे च-येनेदं भक्षितं मे भक्ष्यं तस्य मनोरथाः पूर्यन्ता एतद्वचोऽलिब्जरपल्या ज्ञातं । ततो हृष्टाऽवग-असा मनोरथः पूर्यते तदा वरं, ततस्तस्या
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प्रवन्धपञ्चशती
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दोहदः पूर्णीचक्रे प्रातिवेश्मिकस्य स्त्रीपार्थात् । वैरोट्यानागपनीभ्यां पुत्रो जनितः । जन्मोत्सवोऽभूत् वैरोट्यापुत्रस्य नागदत्त इति नामाभूत् । वैगेट्यासुतस्य रक्षार्थ अलिअरनागपत्नी सर्पान्मुमोच वैरोट्यायाः लदा सानिध्यं चक्रे | अप्रभृति यो वैरोट्यास्तुति करिष्यति तस्य
कोऽपि सर्पादिजातिर्न दक्ष्यति । ततो वैरोट्यास्तवं जानन् पद्मः प्रियापुत्रसहितो व्रतं जग्राह 5 वैरोट्या मृता धरणेन्द्र पत्नी जाता । तत्रापि वरोट्या नाम । ततः स्वस्मरण[पूर्वक पाश्वनाथभक्तस्य रक्षां चकार । नागदत्तस्य आर्यनन्दिलनामाभून् सूरिश्च इति ।
इति आर्यनन्दिलसूरिसम्बन्धः ॥४६० [461 ] अथ वायडग्रामजीवदेवमूरिलल्लश्राद्धदृष्टान्तः । जीवदेवसूरयो विहारं कुर्वाणा वायडपुरे समायाताः । इतः पूर्व वायडपुरे लल्लश्रेष्ठी 10 मिथ्यात्वी यज्ञं मण्डयामास । तत्र लक्षप्रमाणं व्ययितुं कल्पितमस्ति तेन ।
एकदा तस्मिन् यज्ञ कुण्डपावें महान्सर्पः पपात । द्विजाः प्रोचुरनेनापि आहुतिः क्रियते । स सर्पो नश्यपि तैर्यष्टयोत्पाट्याग्निकुण्डे क्षिप्तः ज्वलितश्च, तदा लल्लेन ध्यातं दया चास्मिन् धर्म नास्ति । ततो दयाधर्म विलोकयन् तत्रागतं श्रीजीवदेवसूरिपावं ययौ, गुरुं वन्दित्वा धर्मोपदेशं शुश्राव
रागी देवो दोसी देवो माममुन्नपि पाणिसूदन्नपिं] देवो,
____मंसे धम्मो मज्जे धम्मो जीवहिंसाय धम्मो । रत्ता मत्ता कंता सत्ता जे गुरू तेवि पुज्जा,
हा हा कटुं पुट्टो [पत्तो] लोओ अ{ कुणंतो ॥१॥ ततो विप्रान् गुरूंस्त्यक्त्वा जीवदेवसूरिगुरोश्चारित्रं शुद्धं वीक्ष्य च हृष्टोऽभूल्लल्लः 20 सम्यक्त्वमूलं धर्म च जग्राह-भगवन् ! मया यज्ञे अर्थ लक्षं व्यायतं, अर्धलक्षं तिष्ठति
तत् क्व व्ययिष्यते ? गुरुभिजिनप्रासादः कायते । तता निलभितां गुरोदृष्ट्वा स प्राह-- क्व प्रासादः कायते ? गुरुभिः प्राक्तं अद्य द्वो वृपो प्राभृते आगमिष्यतस्तव, तो तु स्वेच्छया मुच्येतां, यत्र तिष्टतः तत्र प्रासादः कायः । तत्र भूमो गुरुभिर्विलाक्याक्तं अत्राधो भूरिधनं विद्यते । ततस्तत्र भूमो कान्यकुब्जभूपसुताया मृताया बहुधनं निर्गतं । ततस्तत्र महान् जिनप्रासादो द्वासप्ततिदेवकुलिकायुतः कारितः । द्विष्टद्विजैरन्येार्मुमूर्घौश्चैत्ये प्रभोः पुरः गर्भागारे रात्रौ झिप्ता, सा च मृता, श्राद्धैः सद्यो गुरोरग्रे विज्ञप्तं, गुरुभिः परकायप्रवेशविद्यया गौब्रह्मभवने क्षिप्ता । यत्परस्य चिन्त्यते तत्स्वस्यायाति ब्राह्मणैर्जीवदेवसूरिचेष्टितं ज्ञातं । ततः सूरिपाचे विज्ञप्तं गौर्यदि ढेढः कर्यते तदोड्डाहो भवति ।
ततः श्रीप्रभुभिस्तथा कार्य यथा बहि निर्गच्छति । गुरुभिः प्रोक्तं-यद्यतो लल्लचैत्ये अस्मत्साधु 30 श्राद्धेषु भक्तिः श्रावकैरिव क्रियते । तदा वो वचः क्रियते । सूरिपदप्रस्तावे हेमयज्ञोपवीतं
यदि दत्थ सूरेश्च तत्सुखासनं च वहथ तदा गौः कृष्यते । ततस्तैस्तथा मानिते गौः कर्षिता।
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द्वितीयोऽधिकारः
ततो वायडब्राह्मणाः श्राद्धा इव गुरौ भक्ता अभूवन् नत्सन्तानेऽपि च ।
इति वायड ग्रामजीव देवसूरिलला दृष्टान्तः ॥ ४६१ ॥
[402 ] अथ चमत्कारे जीव देवसूरिसम्बन्धः |
एकदा धर्मदेशना जीवदेवस्य सूरेर्दुष्टो योगी समागत्य स्वजिह्वया पर्यस्तिकां वोपविप्रः सभ्यलोको भीतः । प्रभुभिः सः कीलितस्तथा यथाऽतीव वेदनाऽभूत् । ततः स वक्तुमशक्तस्तेन खटिकया भूमौ लिखितं -
6
उवयारह उचयारडो, सव्वो लोअ करेr । अवगुण किas गुणकर, विरलओ जणणि जणे || १ ||
[ २५१
अहं तव छलनायागां त्वयाऽहं ज्ञातः स्तम्भितश्च प्रसीद मयि, मां मुख बन्धनात् । ततो गुरुभिः कृपया मुक्तः स च पुराद्बहिः महिं कृत्वा योगी स्थितो दुष्टः । ततो गुरुभिरुक्तं 10 साधुसाध्वीनां पुरः, यस्मिन् दिग्भागे योग्यस्ति तस्मिन्न गम्यं । तस्मिन् दिग्भागे कदाचित् साधवो गताः तेन छलिताः । ततो गुरुभिर्निविडं स्तम्भितस्तत्रस्थो यथा स्थानाम्चलितुं न शे साधवः स्वस्थिताः कृताः, योगिनो दिनाष्टकं तत्र जातं बुभुमातृट्पीडितो गुरून् ज्ञापयामास मयातः परं भवदीयशिष्याणां श्राद्धानां किमपि अवर्य न कार्य, मो मुख हृढवचः कृत्वा मुक्तः पादयोर्गुरोः पपात गुरूणां नवः शिष्य इवाभवत् ।
इति चमत्कारे जीवदेवसूरि संबंध: ||४६२ ॥
इति प्रासादपुण्ये विक्रमार्क निम्बमन्त्रिसम्बन्धः ||४६३॥
[634] अथ प्रासादपुण्ये विक्रमार्कनिम्बमन्त्रिसंबंधः ।
विक्रमादित्येन पृथिवीमनृणां कुर्वता निम्बश्रेष्ठी गूर्जरधरित्र्यां प्रेषितः, स च ग्रामे पुरे 'लोकानमृणीकुर्वन् धनदानाद्वायडमामे समागात् । श्राजीवदेवसूरयो वन्दिताः उपदेशः श्रुतः, स च श्रेष्ठिकारितं महान्तं प्रासादं दृष्ट्रा दध्यौ - असौ श्रेष्ठी धन्यो येनायं प्रासादः 20 कारितः एवं ध्यात्वा तेन वायडे श्रीजिनप्रासादो महान कारितः । तत्र श्री वीरप्रतिमायाः प्रतिष्ठां श्रीजीव सूरयश्चक्रुः ।
इतः स निम्बः स्वं पुण्यं श्लाघमानः स्वपुरे ययौ ।
[ 464] अथ श्रीजिनोन्नतिकार कभी आर्य खपट संबंधः ।
आर्यखपटाचार्य शिष्यो महेन्द्रः वादे वृद्धकरं बौद्धं जिगाय । सर्वलोकैरपहसितो [बौद्धः ] मृत्वा गुढशस्त्रपुरे यक्ष उत्पन्नः तेन प्रासादः कारितः, स्वप्रतिमा स्थापिता च । स च यक्षः
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प्रबन्धपञ्चशती
प्राग्ग्वैरात् जैनानुपद्रवति व्याधिवर्धनभयेन, धनहरणादिप्रकारैः । ततः श्राद्धैर्गुरवो विज्ञप्ताः, यक्षः श्रीसंघस्य पीडां करोति गुरवो यक्षायतने गताः । यक्षस्य कर्णयोरुपानही बबन्धुः । वक्षसि पादौ ददुः, लोका मिलिताः, राजाप्यागात्, राज्ञोक्तं-श्वेतवस्त्र! उत्तिष्ठ यक्षस्याशातना न क्रियते स्तुतिरेव क्रियते भस्मीकरिष्यति त्वां, गुरुवस्तु शरीरमाच्छाद्य सुप्ताः राजा यत्र यत्रोद्घाटयति तत्र स्फुलिङ्गा निस्सरन्ति । ततो घातान् दापयति । यदा तदान्तःपुरेषु लगन्ति पत्नीनां । ततोऽन्तःपुरे कोलाहलो जातः, 'मृता वयमिति' कोऽप्यदृश्यो मारयति । ततो राजा सूरीणां पदोः पतिवाऽवग-प्रसन्नो भव ममापराधः क्षम्यता, कृपां कुरु लोकेषु । ततोऽन्तःपुरेषु वेदना गता । गुरुभिः प्रोक्तं-यक्ष अत्रागच्छ । ततो यक्ष उत्थितः गुरुपादौ ननाम
पादसंवाहनां करोति च जगौ-मयि कीटकोपरि कः कटकारम्भः ? गुरुभिः प्रोक्तं-अद्यप्रभृति 10 जैनेषु द्वषो न कार्यः । यक्षः प्राह-यथा हनूमति रक्षति शाकिन्यः पात्राणि न पराभवन्ति
तथा त्वयि रक्षति जैन कः पराभवति । तव भृत्योऽहं मुश्च मां राजादयश्चमत्कृताः सूरिभक्ता जाताः सूरयः प्रासादानिर्गता यक्षोऽपि पाषाणमूर्तिः गुरुपृष्टौ चचाल, द्वे दृषत्कुण्डिके साधं चलिते सूक्ष्मपदाश्चेलुश्च नगरद्वारे सर्वे विसर्जिता यक्षादयः स्वस्थाने ययुः जिनधर्मप्रभावनाख्यात्यर्थ
कुण्डिके पुरद्वारे पतेते [स्थापिते] अधुनापि तथास्थिते स्तः । 15
इति श्रीजिनोन्नतिकारकश्रीआर्यखपटसम्बन्धः ॥४६४॥
[466 ] अथ श्रीजिनशासनोन्नती आर्यखपटाचार्यसम्बन्धः ।
एकदा गुडशखपुरात् श्रीसूरयो यावच्चेलुस्तावत्तत्र साधुद्वयं भृगुकच्छादागतं, गुरवो वन्दिताः । साधुद्वयं प्राह-भगवन् ! श्रीपूज्यैयुष्माभिभृगुपुराच्चलद्भिर्या कपरिका मुक्ताऽभूत् सा
चन्द्रक्षुल्लकेन छोटयित्वा वाचिता आकृष्टिर्लब्धिस्तेन शिक्षिता, स च तया विद्यया इभ्यानां 20 गृहारसारां रसवतीमानीय मुक्त, तथाकुर्वन् श्रीसंघेन गच्छेन वारितोऽपि न तस्थौ, रसने
न्द्रियलोलुपो जातः । श्रीसंघेन धनं हक्कितो बौद्धानां मिलितः । स च दुष्टः बौद्धानां पात्राणि मठात् खेन इभ्यानां श्राद्धानां गृहेषु प्रेषयति तानि भक्तभरितानि खे न आनयति । बौद्धान् भोजयामास सुखेन, तेन क्षुल्लः अतीय-मानितो, गौरवं वहन्ति बौद्धास्तस्मिन् । तस्य
शिक्षा यदि दीयते तदा वरं । ततो गुरवो भृगुपरं जग्मुः, प्रच्छन्नं स्थिताः यदा बौद्धानां 26 पात्राणि अन्नपूर्णानि आगच्छन्ति, शिलाकर्कराक्षेपात् आचार्यः बभञ्ज, तदा शीलिमण्डकादि[दयः]
राजमार्गादौ पतन्ति । तदा लोकाः कलकलं कुर्वन्ति बौद्धा बुमुक्षापीडिताः जगुः कोऽस्मदीयानि पात्राणि भनक्ति। ततः क्षुल्लको गुर्वागमनं ज्ञात्वा भीतो नष्टः सन्नन्यदा गुरुगुणरावर्जितः सः झुल्लकोऽभ्येत्य गुरून् वंदित्वा क्षमयामास, आचष्ट चाद्य प्रभृति मया गुरूणां वचो माननीयं
सूरयः ससंघाः बौद्धानां प्रासादमागमन् बुद्धस्य उपलमूर्तिः संमुखमुपस्थिता "जयजय महर्षि30 कुलशेखर" इत्यादि स्तुतिं चक्रे गुरोः । ततो बौद्धा अपि प्रबुद्धाः।
इति जिनशासनोमती आर्यखपटाचार्यसम्बन्धः ॥४६५।।
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द्वितीयोऽधिकारः
[ २५३ [ 466 ] अथ जिनोन्नतिचमत्कारे महेन्द्रोपाध्यायसम्बन्धः । पाटलीपुरपत्तने दाहडो भूपो विप्रभक्तो यतीनाकार्याचष्ट विप्रान्नमत । यतयः प्रोचुःएते तु गृहस्थाः वयं तु निर्ग्रन्थाः तेनास्माभिहस्था न वन्द्यन्ते । राज्ञोक्तं-यदि न नमस्यन्ते विप्राः तदा मद्देशे न स्थेयं । यदि स्थास्यते तदा शिरांसि च छेत्स्यन्ते । ततो जैनयतिभिः सप्त दिना याचिता अत्रान्तरे तत्र श्रीआर्यखपटसूरिशिष्यः उपाध्यायो महेन्द्रनामा भृगुपुरा- 5 दाययौ । स च यतिभिर्वन्दितः स्वं दुःखं प्रकाशितं यतिभिः, उपाध्यायेन संधीरिताः,
प्रातः श्रीउपाध्यायो दाइडराजस्य सभायां गतः । राज्ञोक्तं-प्रणमत ब्राह्मणानां नो चेद्भवतां शिर्षाणि छेत्स्यन्ते । उपाध्यायोऽवग-राजन् ! एते गृहस्थाः सपरिग्रहाः वयं निष्परिग्रहाः अत एवं न प्रोच्यते जिह्वा त्रुटति । तदा राज्ञोक्तं-भो सेवकाः ! अस्य निग्रहः कार्यते । तत उपाध्यायो हस्ते रक्तकणवीरकंबां लात्योच्चैः कृत्वा सभायां फेरिता प्रोक्तं च केषां नमस्कारः करिष्यते ? 10 ततो राजानं विना सर्वेषां विप्रादीनां मस्तकानि भूमौ पेतुः उपाध्यायेनोक्तं यदेतेषां कृतं तत्तवापि करोमि नवा ? ततो राजोत्थायोपाध्यायपादयोः पतित्वा भीतः प्राह-भगवन् ! प्रसन्नो भवतु परमेवमपराधं न करिष्यामि । ततो महेन्द्र उवाच
कः कण्ठीरवकण्ठकेसरसटाभारं स्पृशत्यहिणा,
का कुन्तेन शितेन नेत्रकुहरे कण्डूयनं काङ्क्षति । कः सन्नाति पन्नगेश्वरशिरोरत्नावतंसं श्रिये,
यः श्वेताम्बरशासनस्य कुरुते वन्यस्य निन्दामिमाम् ॥१॥ श्रुत्वैतद्राजाऽवग्-अहमतस्ते सेवकोऽस्मि मम चैतेषां जीवितं देहि । एते विप्रादयः सर्वे भवन्तं नमस्यन्ति । ततो महेन्द्रोपाध्यायेन धवलकणवीरकम्वा तेषामुपरि वाहिता, सर्वे समस्तका उस्थिताः ततो राझोक्ता विप्रादयः सर्वे [ सर्वान् ] यतीनमन्ति स्म राजा श्राद्धोऽभूत् । 20
इति जिनोन्नतिचमत्कारे महेन्द्रोपाध्यायसम्बन्धः ॥४६६॥
[ 487 ] अथ अतिशये श्रीपादलिप्तसूरिसंबंधः । गुरुदत्तविद्यया प्राप्तसूरिपदः पादलिप्तसूरिर्दशवर्षीयः शत्रुञ्जयोज्जयन्तार्बुदतीर्थसमेतशिखराष्टापदतीर्थेषु देवान्नत्वा जिमति स्म । ___ एकदा सूरिः पाटलिपुरे गतः । तत्र गरुडो (मरुंडो) नाम राजा षण्मासी यावशिरोर्त्या 25 पीडितः । ततः प्राणांस्त्यक्तुमिच्छति एकैमन्त्रतन्त्रयन्त्रैरनेकैः पुरुषैः कृतेऽप्युपचारे न निवर्तिता शिरोत्तिः । ततो मन्त्रिणः प्रेष्य सूरीनागतान् श्रुत्वाऽकारयामास [ ततः सूरीन् आह्वनाय राजामन्त्रिणं प्रेष्य, आगतांश्च तान् श्रत्वाप्रवेशं कारयामास ) राजा प्राह-भगवन् ! प्रसन्नीभूय दुःसाध्या शिरोर्ति निर्वस्यता, कीर्ति-धर्मों संचयेतां । ततः सूरिः कृपासागरः शिरोति भूपस्येत्यपाचकारा
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प्रबन्धपञ्चशती
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जह जह पएसिउं जाणुअंमि सि], पालित्तउ भमाडेइ ।
तह तह से सिरवेअणा, पणस्सइ मरुण्डरायस्स ॥१२॥ प्रीतो राजा स वृत्तोत्सवः पादलिप्तसूरि गुरुं चक्रे ।
इति अतिशये श्रीपादलिप्तसूरिसम्बन्धः ॥४६७॥
[ 468 ] अथ विनये पादलिप्तसरिसाधुसम्बन्धः । ___ एकदा श्रीगुरुभिः प्रोक्तं विनीताः साधवो यदुच्यते तत्कुर्वन्त्येव, राजा प्राह-राजकुले हि विनयो विद्यते । ततः सूरयो जगुः-यस्तव परमभक्तोऽस्ति स आकार्यतां । इदं च तस्मै कथ्यतां गत्वा विलोकय "गङ्गा कि पूर्ववाहिनी पश्चिमवाहिनी वा ?" ततो राज्ञा
भक्तो राजपुरुषो गङ्गाप्रवाहवहनदिग्विलोकनाय प्रेषितः । स च यत्र तत्र भ्रमित्वा पश्चादागत: 10 भूपेनोक्तं गङ्गा पूर्ववाहिनी वा पश्चिमवाहिनी वा, स प्राह-आबालगोपाला जानन्ति गङ्गा
पूर्ववाहिनी । गुरुभिः प्रोक्तं-राजन् ! राजकुले ईग्विनयो विद्यते, गुरुप्रेषिताः साधवः गङ्गातटे गत्वा काष्ठप्रान्ते ध्वजं बन्धयित्वा सम्यग्गङ्गाप्रवाहवहनं विलोकयामासुः । ततः पश्चादागताः साधवः प्रोचुः-भगवन् ! अस्माभिर्गङ्गायां गत्वा प्रवाहो विलोकितः पूर्ववाहिनी
गङ्गा ज्ञाता । ततो राजोत्थाय साधून्नत्वा प्राह -धन्यं मतं यत्रेक्षा गुरुभक्ताः साधवो 16 भवन्ति उक्तं च
निवपुच्छीएण गुरुणा, भणिओ गंगा को मुही वहइ । संपाइयं च सीसो जह, तह सव्वत्थ कायव्वं ॥१॥
इति विनये पादलिप्तसूरिसाधुसम्बन्धः ॥४६८।।
[469 ] अथ उचितजल्पने श्रीपादलिप्तमरिसम्बन्धः । एकदा गुरौ अन्यत्र गते लध्ववस्थायां पादलिप्तसूरिः साधुषु गोचरचर्यायां गतेषु बालैः सह क्रीडति, द्रुतं श्राद्धानागताज्ञात्वा आकारं संवृत्योपविष्टाः उपदेशो दत्तः । ततस्तेषु श्राद्धेषु गतेषु पुनरवरकमध्ये खेलति यावता तावता केऽपि वादिनो विझं ज्ञात्वा वादं कर्त समाययुः तैर्विजनं मत्त्वा "कुकुडुकूकू" इति शब्दः कृतः सूरिणा तु वादिनश्चागतान् सात्वा
"भ्याऊं म्याऊँ" बिडालशब्दः कृतः । ततस्तैर्वादिभिस्तस्य विद्वस्वं ज्ञात्वाऽवसरजवं च, 25 पदयोस्तस्य पेतुः प्रोचुश्च चिरंजीव बालभारति ! ततो गोष्ठी मण्डिता तै:--
पालित्तय ! कहसु फुडं सयलं मंडलं भमंतेण । दि सुयं च कत्थय ! चंदणरससीयलो अग्गी ॥१॥
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द्वितीयोऽधिकारः
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प्रमुणोक्तं-- अयसाभियोगसंदूमियस्स पुरिसस्स मुद्धहिअस्स ।
होइ वहंतस्स दुई, चंदणरससीयलो अग्गी ॥२॥ ततस्ते प्रोचुः त्वं साक्षादेवामरगुरुः ब्राह्मी !
इत्युचितजल्पने श्रीपादलिप्तमुरिसंबंधः ।।४६९।।
[470] अथ प्रगल्भतायां पादलिप्तमूरिसम्बन्धः । एकदा श्रीपादलिप्तसूरयः कुर्चालसरस्वत्यादिविरुदधारिणः प्रतिष्ठानपुयां महोत्सवपूर्व समागच्छन्ति ।
इतः सर्वैः पण्डितैः सम्भूयैकत्र स्त्यानघृतभृतं कच्चोलकमाचार्याणां सन्मुखं प्रेषितं आचार्यैस्तु घृतमध्ये सूचिका क्षिप्ता तथैव पश्चात्प्रेषितं । ततः राज्ञोक्तं गुरुभिरिदं कृतं, को भावः, पंडितैरुक्तं-गुरुभिज्ञापितं पण्डितैभृतं पुरं विद्यते तथापि यथा सूचिघृतमध्ये प्रविष्टा तथाहमपि प्रवेक्ष्यामि पुर्या । ततो राजादयो विप्राश्च संमुखं गताः सूत्सवे जायमाने गुरवो धर्मशालायामागता उपदेशो दत्तः श्रीपादलिप्ताचार्य निर्वाणलिकप्रश्नप्रकाशादिशास्त्राणि निर्मितानि राजा रञ्जितः । इति प्रगल्भतार्या पादलिप्तसूरिसम्बन्धः ॥४७०॥
[471] अथ वृद्धवादिसरिपदसम्बन्धः । स्कन्दिलाचार्योपान्ते वृद्धत्वेऽपि चारित्रं जग्राह मुकुन्दद्विजः, स च गुरुभिः सह भृगुपुरे गतः उच्चैः स्वरं ढढस्वरं [ढनरस्वरेण] भणति राज्ञा साधुभिश्चोक्तं-किं मुशलं पुष्पयिष्यति स चावग-यदि विद्याः समेष्यन्ति तदा [पुष्पयिष्यते] पुष्पते । ततः खिन्नो विद्यार्थी ब्राह्मोदेव्या अग्रे एकविंशतिमुपवासांश्चक्रे सा प्रसन्ना प्राह - सर्वविद्यासिद्धो भव तपसाऽहं तुष्टा तुभ्यं, सब विद्यापारगः स राजादीनां पुरो जगो-यन्ममोपहासः कृतः 'मुशलं पुष्पयिष्यसा तो त्यादिना ततो राजादिबहुषु लोकेषु मिलितेषु मुशलमानाय्य चतुष्पथे स्थित्वा विद्यया मुशल पुष्पयामास । तस्य पृष्टौ स्थित्वा प्रोवाचेति
[[तप्त] कम्यो [पत्तमवलंविअं] मुद्गो शृङ्ग शक्रयष्टिप्रमाणं ।] अप्रतिमन्लोवादीह जो जपई फुल्लमुसलमिह । तमहं निराकरित्ता फुल्ला, मुसलं ति ठावेमि ॥२॥ शीतो वह्निर्मारुतो निष्प्रकम्पो, मुद्गा शृङ्गं शक्रमुष्टि यष्टि]प्रमाणम् । यस्मै यद्वा रोचते तन्न किंचित्, वृद्धो वादी भाषते का किमाह १ ॥३॥
तथा च
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२५६ ।
प्रबन्धपश्वशती __ अप्रतिमलो वादी जातो मुकुन्दमुनिः । ततः सूरिमिः स्वपदं दस पुसवादीति नाम जातम । इति वृद्धवादिसूरिसम्बन्धः ॥४७१।। ।
[472] अथ सिद्धसेनसूरिवाददीक्षासूरिपदसम्बन्धः । एकदा देवर्षिद्विजपुत्रो देविकामातृभवः सिद्धसेनो विप्रो महाविद्यापारगो विजितानेकवादी 5 वृद्धवादिसूरिस्फुर्ति श्रुत्वा सुखासनारूढोऽनेकच्छात्रपरिवृतो गुरुं जेतुं मृगुपुरं प्रति चचाल
मार्गे गुरवो मिलिताः परस्परमालापः सिद्धसेनोऽवग--त्वं वादं देहि सूरिः प्राह ददामि शीघ्र परमत्र के सभ्याः वादे जिताजितादिविषये को निर्णयं करिष्यति ? सिद्धसेनोऽवग-एते गोपाः सभ्याः वृद्धवादिनोक्तं--तर्हि ब्रहि । ततः सिद्धसेनः संस्कृततर्कच्छन्दोलङ्कारादि जल्पितुं लग्नः
यदा जल्पं जल्पं स्थितस्तदा गौपैरुक्तमस्य प्रोक्तं किमपि न ज्ञायते । तेनासौ किमपि न 10 वेत्ति उच्चैजेल्पता कर्णाः स्फोटिताः । ततो वृद्धवादी कच्छडक बन्धयित्वा घींघणीछन्दसा कीडति, तथाहि
नधि मारीइ नवि चोरीइ परदारह गमण निवारी ।
थोवा थोवउं दाईइ दुगड्डुगि सरगिहिं जाईइ ॥१॥ पुनरपि प्रोच्यैवं नृत्यति पठति च--
तू कालु कंबल अनइनीबडु छासिहि भरीओ दुईओ निप्पदु ।
अइवडपडिओ नीकलइ[सा]डाडि, अवरकिसर[सग]गह सिंगनिलाडि ॥२॥ ततो गोपा प्रोचुः-अयं वर्यः सर्वज्ञः अहो कीदृग्कर्णसुखकारि वचः । ततः सिद्धसेनः स्वं हारितं मत्वा प्राह-भगवन् ! प्रव्राजय मां तव शिष्योऽहं त्वया अवसरो ज्ञातो मया
तु न । अथ वादी आह--भृगुपुरे गम्यते तत्र भूपाने वादः करिष्यते । तत्र झास्यते को 20 विज्ञ इति ततस्तत्र गतौ । तत्रापि सूरिणा जितः सिद्धसेनो दीक्षा जग्राह-यत्र वादो जातः
तत्र तालरसग्रामो राज्ञा वासितः सिद्धसेनस्य कुमुदचन्द्र इति गुरुभिर्नाम ददे दत्तं सूरिपदं क्रमात् सिद्धसेनदिवाकर इत्यपि नाम जातम् ।
इति सिद्धसेनसरिवाददीक्षासूरिपदसम्बन्धः ॥४७२।।
[473] अथ प्राप्तसर्षपविद्याश्रीसिद्धसेनदिवाकरसम्बन्धः । एकदा सिद्धसेनसूरि चित्रकूटे प्राप्तः । तत्र चिरन्तनचैत्ये स्तम्भमेकं महान्तं दृष्ट्वा कंचित् पुरुषं प्रपच्छ कोऽयं स्तम्भो महान किमत्रास्ति ? तेनोक्तं--पूर्वाचारस्य स्तम्भस्य मध्ये पुस्तकानि न्यस्तानि सन्ति स्तम्भस्तु तत्तदौषधमयो जलादिभिरभेद्योऽस्ति । ततः सूरिस्तस्य स्तम्भस्य गन्धं गृहीत्वा प्रत्यौषधरसः स्तम्भमाच्छोट्यामास । ततः प्रातरम्बुजवद्विकसितः मध्ये पुस्तकाः[नि] दृष्टाः नि] । तत्रैक छोटयित्वा वाचयनाचे पत्रे द्वे विधे दृष्टे एका सर्षपविद्या यवा अभिमन्त्रिताः
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तृतीयोऽधिकारः
[ २५७सपा यावन्तो जले क्षिप्यन्ते तावन्तो अश्ववारावर्यपल्ययन [ मल]कवि, कजरहगुडि[हाग]रक्षिकाटोपखङ्गासिपुत्रीप्रमुख द्विचत्वारिंशदुपकरणसहिता निस्सरन्ति । ततः परबलं जेष्यते सुभटाः सिद्धे कार्ये अदृश्य भवन्ति । द्वितीया हेमविद्या यया क्लेशं विना शुद्ध हेमकोटी निष्पाद्यते येन तेन धातुना ततस्ते द्वे विद्ये गृहीते सूरिणा ततो यावदग्रे पाचयति तावत्स्तंभो मिलितः वागभूत् पुस्तकमपि मध्ये स्थितं “अयोग्योऽसि ईदृशीनां विद्यानां प्रयासः पुनर्न कार्यः " ततः सिद्धसेन सूरिविद्याद्वयं प्राप्य सन्तोषं चकार ।
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इति प्राप्त सर्वपविद्या हेमविद्याश्रीसिद्ध सेनदिवाकरसम्बन्धः || ४७३ || [474] अथ नवीनकटकनिर्माणविद्यासम्बन्धगर्भा सिद्धसेन रिसम्बन्धः |
एकदा कुर्मारपुरे श्रीसिद्ध सेनसूरिर्ययौ । तत्र देवपालराजो गुरु वन्दितुमाययौ धर्मोपदेशं शुश्राव । तत्र परस्परं गोष्ठी सदा गुरुभूपयोः प्रवर्त्तते ।
एकदा गुरुर्विज्ञप्तो रहसि राज्ञा - भगवन् ! वयं संकटे पतिताःस्म । गुरुः पप्रच्छ किं संकटं तवास्ति ? राजा जगौ सीमालभूपाः मम राज्यं जिघृक्षया आगच्छन्तः श्रुताः, श्रीप्रभुपार्श्वे विद्या श्रूयते यदि यूयं कृपां मयि कुरुथ ? तदा राज्यं तिष्ठते । सूरिराचष्ट-चिन्ता न कार्या, तव यद्यहं गुरुरभूवं, राजा हृष्टः क्रमात्परचक्रं समायातं । विद्यया प्रथमया सेना रचिता, द्वितीयया हेम च ततो युद्धे जायमाने वैरिबलं भग्नं । ततो जयजयारात्रोऽजनि । ततो राजा भक्तोऽभूत् 15 ततो गुरुणा जैनः कृतः ततस्तेन राज्ञाऽनेके जिनागाराः कारिताः ।
इति नवीनकटकनिर्माणविद्यासम्बन्धगर्भा सिद्धसेनसूरि सम्बन्धः ||४७४ ||
[475] अथ प्रमादत्यागे सिद्धसेन रिसम्बन्धः ।
क्रमात् सिद्धसेनसूरिः संयमशिथिलोऽजनि वेलायां प्रतिक्रमणादिक्रियां न करोति, अनेके राजानः एवायान्ति श्रावकाः श्राविका धर्मशालायां प्रवेशमपि न लभन्ते वेषमात्रधारी जातः । यतःदगपाणं पुष्पफलं, अणेसणिज्जंति गिहत्थकिच्चाई | अजया पडिसेवंती, जइ वेसविडंबगा नवरं ||१||
t
वतः सिद्धसेनसूरिः सुखासनारूढश्चलति । इतो गुरुणा सिद्ध सेनप्रमादस्वरूपं ज्ञातं । ततो गुरुर्वेषान्तरं कृत्वा सिद्धसेन सुखासनं स्कन्धे चकार वर्त्मनि सिद्धसेनो बभाषे -
"भूरिभारभराक्रान्तः, स्कन्धः किं तव बाधति !”
बुद्धवादी जगौ
"न तथा बाधते स्कन्धो, यथा बाधति बाघते " ॥२॥
ततो ज्ञातं तेन मम गुरुं विना ममोक्तौ कोऽपि कूटं न कर्षति । एवं ध्यात्वा आसनादुन्ती गुरुमुखमुपलक्ष्य पादौ पपात क्षमयामासापराधं । ततो गुरुभिः प्रोक्तं---
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२५८ ]
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प्रबन्धपञ्चशती
Payout आहारगा, विमलनाणी विअरागावि । हुति पमायपरवसा, तयणंतरमेव चउगईआ ||३|| प्रमादः परमद्वेषी प्रमादः परमं विषम् । प्रमादो मुक्तिपूर्दस्युः, प्रमादो नरकायनम् ॥ ४ ॥
ततः प्रमादं मुक्त्वा गुरुपार्श्वे आलोचनां छात्वा शुद्ध चारित्रपालनपरोऽभूत् । इति प्रमादत्यागे सिद्धसेनसूरि सम्बन्धः ||४७५ ॥
[476 ] अथ अवन्तिसुकुमालस्वरूपम् ।
अवन्त्य भद्रश्रेष्ठी मद्रापत्नीभवोऽवन्तीसुकुमालः पुत्रो द्वात्रिंशदिम्यपुत्रीः परिजिन्ये महासौख्यात् शालिभद्रावतारः । एकदा तत्र आर्य सुहस्तिसूरिर्वशपूर्ववरः आगत्य भद्रश्रेष्ठिगृहे 10 स्थितः । अनेकश्राद्धाः धर्म श्रुत्वा पुण्यं कुर्वन्ति स्म । रात्रौ मधुरस्वरं नलिनीगुल्मविमानास्थमध्ययनं गुरुभिर्गण्यमानं श्रुत्वोहापोहपरः प्राप्तजातिस्मृतिरवन्तिसुकुमालो दध्यौ । तत्र विमाने यत्सुखं विद्यते । ततोऽत्र कोटिभागेऽपि नास्ति ततस्तत्र गम्यते तदा वरं । ततो गुरुपार्श्वे गतः पृष्टं भगवन् ! किं यूयं नलिनीगुल्मविमानादश्रायातः यतस्तत्स्वरूपमुच्यमानमस्ति । गुरुः प्राह - सिद्धांत गण्यमानमस्ति । स प्राह तत्र त्वरितं कथं गम्यते ! गुरुणोक्तं चारित्रात् ! स प्राह--- चारित्रं 15 प्राहय । गुरुः प्राह--तब मात्राद्यनुमस्या दीक्षा भवति । ततः स्वयं चारित्रं गृहीत्वा श्मशानभूमौ कार्योत्सर्गे स्थितः । तदा पचाद्भवसम्बन्धि पत्नीशिवाया उपसर्ग सहमानो मृत्वा तत्र विमाने देवोऽभूत् प्रातर्मात्राद्याः पुत्रस्वरूपं ज्ञात्वा दुःखिनो जाताः । ततो गुरुर्भिनलिनीगुल्मविमानस्वरूपं प्रोक्तं । ततस्तस्य मृत्युस्थाने महाकालाभिघः श्रीपार्श्वनाथप्रासादः कारितः प्रभोः प्रतिमा स्थापिता । इति अवन्तीसुकुमालस्वरूपम् ||४७६ ||
20 इति श्रीतपागच्छाधीश श्रीमुनिसुन्दरसरिशिष्य-श्रीरत्नशेखरसूरिपट्टलक्ष्मी सागर सूरिशिष्य पं० शुभशीलगणिविरचित पञ्चशतीकथा प्रस्तावकोशे
॥ तृतीयोऽधिकारः समाप्तः ॥
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चतुर्थोऽधिकारः
[477 ] अथ कारनगरप्रासादनिष्पत्तिसम्बन्धः |
अन्येद्युः सिद्धसेनविाकरः कारनगरप्राप्तः गुरुभिर्धर्मोपदेशो दद्दे श्राद्धानां । श्राद्धैर्विज्ञप्तं-भगवन ! मरटका राजप्रासादमदमत्ता जैनं प्रासादं कारयितुं न ददते, तथा क्रियताम् यथात्र जैनप्रासादो भवति । ततः श्रीसिद्धसेनो हस्तन्यस्तचतुःश्लोको विक्रमादित्यभूपगृहस्य प्रतोल्मा 5. गतः । ततो द्वारपालो भूपपार्श्वे गत्वा प्राह
भिक्षुर्दिक्षुरायात स्त्रिष्ठति द्वारि वारितः । हस्तन्यस्तचतुः श्लोकः, किंवागच्छतु गच्छतु १ ॥ १ ॥
ततो राक्षा प्रतिलोकः प्रेषितश्चमत्कृतेन
दीयतां दशलक्षाणि, शासनानि चतुर्द्दश । हस्तन्यस्तचतुः श्लोकः, किंवागच्छतु गच्छतु ॥ २ ॥
ततो मध्ये गतः सूरिः श्लोकचतुष्टयं यदा चतुर्षु दिक्षु पपाठ । तदा राजा तुष्टः चैते लोकाः
अपूर्वेयं धनुर्विद्या भवता शिक्षिता कुतः । मार्गणौघः समभ्येति, गुणो याति दिगन्तरम् ||३|| सरस्वती स्थिता चक्रे [वक्त्रे] लक्ष्मीः करसरोरुहे । कीर्त्तिः किं कुपिता राजन् ! येन देशान्तरे गता 11811 कीर्त्तिस्ते जातजाड्येव, चतुरम्भोधिमज्जनात् । आतपाय धरानाथ, गता मार्त्तण्डमण्डलम् ||५||
सर्वदा सर्वदोऽसीति, मिध्या संस्तूय से बुधैः । नारयो लेभिरे पृष्टं न वक्षः परयोषितः ॥६॥
श्रुत्वा राजा तुष्टो जगौ - चतुर्दिप्राज्यं गृहाण | गुरुः प्राह-- अस्माकं निर्मन्थानां राज्येन किं कार्य १ ततो भूपोऽवग्- यदन्यद्विलोक्यते तन्मार्गय | गरुः प्राह
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२६० ]
प्रबन्धपश्चशती
"कार नगरे चतुर्द्वारं निप्रासाद शिवप्रासादादुखं कारय, तत्र पार्श्वप्रतिमा प्रतिष्ठापय” ततो राजा सिद्धसेनप्रोक्तमचीकरत् ।
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इति ॐकारनगरप्रासाद निष्पत्तिसम्बन्धः || ४७७ ॥
[478] अथ नवीन संवत्सरप्रवर्त्तने विक्रमार्कसम्बन्धः । एकदा सिद्धसेनदिवाकरः श्रीविक्रमादित्यभूपस्याग्रे दानधर्मोपदेशं ददावेव — श्रीनाय जिनेश्वरी धनभवे श्रेयः श्रियामाश्रयः,
श्रेयांसः स च मूलदेवनृपतिः सा नन्दना चन्दना । धन्योऽयं कृतपुण्यकः शुभमनाः श्रीशालिभद्रादयः,
सर्वेऽप्युत्तमदानदानविधिना जाता जगद्विश्रुताः ॥ १ ॥ कर्णस्त्वचं शिबिर्मांस, जीवं जीमूतवाहनः । ददौ दधीचिरस्थीनि, किमदेयं महात्मनाम् ||२|| न कयं दीद्धरणं, न कयं साहम्मिआण वच्छलं । हिययमि वीयरायो, न धारिओ हारिओ जम्मो ||३|| तीर्थङ्कराः पृथिवीमनृणी कृत्वा दीक्षां गृहन्ति, तथाहि---
एगा हिरण्णकोडि, अडेवय अणूणगा सयसहसा । सूरोदय माईअं, दिज्जइ जापाउरासाओ ॥ ४ ॥ तिन्नेव य कोडिसया, अट्ठासीअं च हुंति कोडीओ । असीई सयसहस्सा, एयं संवच्छरे दिन्नं ॥५॥ अधः क्षिपन्ति कृपणा, वित्तं तत्र यियासवः । सन्तस्तु गुरुचेत्यादौ, तदुच्चैः फलकांङ्क्षिणः || ६ ||
इत्यादि व्याख्यानं श्रुत्वा विक्रमादित्यराजा जगौ - भगवन् । मम गृहे स्वर्णपुरुषद्वयं विद्यते । ततो दिने दिने बहु हेम लभ्यते । तेन मम पृथिवीमन्नृणी कर्त्तुमिच्छाऽस्ति । गुरुभिः प्रोक्तं-न भाग्यं विना धर्मं कर्त्तुं मनोरथो भवति सम्पूर्णो भवति च । यतः
भवन्ति भूरिभिर्भाग्येर्धर्मकर्म मनोरथाः । यत्पुनस्ते फलन्त्येव, तत्सुवर्णस्य सौरभम् ||७||
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चतुर्थोऽधिकार
[ २६१
श्रुत्वेति राजा प्रामे पुरे स्वसेवकान् प्रेध्य मुखमार्गितं धनं दायं दायं पृथिवीमनृणीं चकार । ततस्तस्य संवत्सरो टिप्पणके शास्त्रेषु लिखितो बुधैः ।।
इति नवीनसंवन्सरप्रवर्त्तने विक्रमार्कसम्बन्धः ॥४७८॥
[ 479 ] अथ शत्रुजयतीर्थवालने मल्लवादिसम्बन्धः । खेटपुरे देवावियद्विजस्य सुभगा पुत्री विधवाऽभूत् कस्मादपि गुरोः सौरं मन्त्रं प्राप 5 तदा सौरो मन्त्रो ध्यातः । ततः सूर्योऽभेत्य भुक्तवान् , सगर्भाऽभूत् ता तादृशीं दृष्ट्वा मातृपितभिह विकता । सा च सूर्यागमनं प्राह-तथापि मात्रादिभिर्न मानितं कर्षिता । सा च वलभी पुरीं गता काले तया पुत्रपुत्र्यौ जनिते, क्रमाद्ववर्धते लेखशालिकरपुत्रक इति प्रोक्ते मातरं स पप्रच्छ मम कः पिता माताऽवग---सूर्यस्ते पिता ध्यातस्तेन सोऽभेत्य तस्मै पुत्राय ककरं ददौ प्राह च यस्ते पराभवं करोति सोऽनेन कर्करेण हतो मर्त्ता, स च कर्करः पश्चात्त- 10 वान्तिकं समेष्यति । ततः स पराभवकर्तारं तेन हन्ति । ततः स बालवधकारकः श्रुतो वलमीशेन । ततः स भूपेन पराभूतः । ततस्तं स हत्वा राजाऽभूत् तस्य शिलादित्यनामाऽभूत् । ततः शिलादित्य स्वां भगिनी भृगुपुरे भूपाय ददौ, तया च सुतोऽसावि सुदिने इतः शिलादित्यो बोद्धैः स्वधर्मः ग्राहितः, श्रीशजयं तीर्थ बौद्धा आत्मीयं चक्रे । इतः शिलादित्यभगिनी भर्तरि मृते सपुत्रा सुहस्तिसूरिपार्वे चारित्रं जग्राह । स च बालकोऽष्टवर्षीय: 15 सामाचारी कुशलो विनीतोऽभूत् प्राज्ञश्चाभवत् । एकदा मातरं पप्रच्छ अल्पः श्रीसंघः कथं ? माताऽवग-श्वेताम्बरा देशात्कर्षिताः शिलादित्यभूपो वलभीपुरीस्वामी बौद्धः कृतः शत्रुजयतीथमपि गृहीतं तैः, पूर्व संघ। बहुरभूत् स च शिलादित्यभूपस्तव मातुलोऽस्ति इति श्रुत्वा बालः कुपितोऽम्बादेवीमाराध्य बहुविद्यावान् मल्लगिरौ तपश्चक्रे कतिपयदिनैः शासनदेवी प्रसन्नाऽभूत् प्राह च के मिष्टाः, सोऽवग् मम वल्लाः ततस्तया ध्यातमयं तपस्वी नीरसाहार 20 पाचनात् । ततः पुस्तकं दत्त्वा देव्योचे अमुं पुस्तकं वाचय सर्वान्वैरिणो जेष्यसि । ततो मलवादोति त्वं नाम्नास्याः। ततः स प्राप्तविद्यो वल्लभ्यां समेत्य बौद्धान् विजित्य शिलादित्य भूपं प्रबोध्य श्रीशत्रुजयं तीर्थं वालयामास बौद्धा देशान्निष्काशिताः । ततो गुरुभिः सूरिपदं ददे तस्य [तस्मै] 1 इति शत्रुञ्जयतीर्थवालने मन्लवादिसंबंधः ॥४७९।। [480] अथ हरिभद्रमुरिदीक्षारिपदसम्बन्धः ।
25 चित्रकूटे हरिभद्रो विप्रश्चतुर्दशविद्याविशारदः सर्वशास्त्रार्थ विन्दते । ततः प्रतिज्ञा चक्रे-यस्योक्तस्यार्थं न जाने तस्याहं शिष्यो भवामि । एकदा स रात्रौ पुरमध्ये व्रजन् साध्युपाश्रयान्ते गतः । तदा साध्वी श्रीआवश्यकगाथां जगौ
चक्किदुगं हरिपणगं पणगं चक्कीण केसवो चक्की । केसव चक्की केसव दुचक्की केसिअचक्की अ ॥१॥
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२६२ ]
प्रबन्धपश्चशती
erter अर्थमजानन् विप्रः प्राह - महासति ! 'चक्कि चक्कि' इति किं प्रोच्यते ? तयोक्तं rati लिप्तं चिक्कचिक्कायते ततो ध्यातं तेनाहमनया जितः गाथार्थाज्ञानादस्याः शिष्योऽस्मि । ततः पृष्टं कोऽर्थोऽस्याः साऽवग्- अस्माकं गृहस्थस्याग्रे रात्रावर्थो न प्रोच्यते गुरवः कथमियन्ति तेनोक्तं क्व सन्ति ? गुरवः, तयोक्तं उपाश्रये सन्ति जिनागारोपान्ते । ततो देवगृहे 5 गतः देवं दृष्ट्वा नमस्कारान् प्राह-
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अस्यां चतुर्विंशतौ प्रथमं भरतसगरी जातौ चक्किदुगंर । हरिपणगं-तिविट्ठू द्विबिठूर 15 सयंमुर पुरुषोत्तम पुरुषसिंह: ५। पणगं चक्कीण -- मघवा सनत्कुमार र शान्तिनाथ कुंथुनाथ ४ अरनाथ५ । केशवो- पुरुषपुण्डरीकः १ । चक्की --- "सुभौमः १ । केशवः दत्तः । चक्की - महापद्मः १ | केसव -- नारायणः लक्ष्मणाः १ | दुचक्की - हरिषेणः १ जय:२ | केसव - कृष्णः १ । चक्की -- ब्रह्मदत्तः । एवं १२ चक्रिणः ह वासुदेवा उक्ता अनुक्रमेण । उक्तं च
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वधुरेव तवाचष्टे, भगवन् ! वीतरागताम् । afe कोटर संस्थेनौ, तरुर्भवति श्राद्वलः ॥१॥ जं दिट्ठि करुणातरंगिय पुडा एयस्स सोमं मुहं, आयारो पसमायरो परियरो संतो पसनातणू 1 [तं मन्ने] तन्नूणं जरजम्ममधुहरणो देवाहिदेवो [जिणो] इमो, देवाणं अवराण दीसह जओ नेयं सरूवं इमं ||२||
ततो देवानमस्कृत्य सूरिपार्श्वे गतः गुरुं नत्वा गाथाया अर्थ पप्रच्छ । गुरुणा गाथार्थो व्याख्यातः इति-
编
सुभूम ।
उसमे भरहो अनि सगरो मघवं सणकुमारो अ । धम्मस्स संतिस्स य, जिणंतरे चक्कवट्टिदुगं ||३|| संती कुन्थु अ अरो, अरहंता चेव चक्कवट्टी अ । अरमल्ली अंतरे पुr, वह सुभूमो अ कोरव्वो ||४|| मुणिव्व नमिम्मि अ, हुंति दुवे पउमनाहहरिसेणा । नमिनेमिसु जयनामा, अरिदुपासंतरे बंभो ॥५॥ पंच अरहंते वंदंते केसवा पंच आणुपुन्वीए । सिज्जंस तिविट्ठाई, धम्मपुरिससीहपेरंता ॥६॥ अरमल्लिअंतरे दुन्नि, केसवा पुरिसपुण्डरिअदत्ता | मुणिसुव्वय नमिअंतरि नारायणकन्हनेमिम्मि ||७||
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चतुर्थोऽधिकारः
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ततः पूर्वप्रतिज्ञाबद्ध उत्पन्नवैराग्यो दीक्षां ललौ । ततो जैनमन्थात् सिद्धान्तः तेन पठितः निर्विशेषतोऽतीव विज्ञोऽभूत् गुरुभिः सूरिपदं ददे ।
इति हरिभद्रसूरिदीक्षा रिपद सम्बन्धः || ४८०
[418 ] अथ हरिभद्रसूरिक्रोधोपशमसम्बन्धः ।
श्रीहरिभद्रस्य हंसपरमहंसो क्षुल्लो प्रहालौ गुरुभिः पाठितौ । तत एकदा प्रोचतुः - भगवन्! 5 taaran गृहीत्वा बौद्धा जेष्यन्ते तत्रावां स्यावः । गुरुभिः प्रोक्तं – ते निर्दया यदि युवा जैन ज्ञास्यन्ति तदा हनिष्यन्ति । ततस्तौ गुरुं पर्यवसाय्य देषान्तरं ग्राह्य बौद्धाचार्योपान्ते गत्वा छात्रमध्ये शास्त्राणि पठतः तेषां शास्त्राणां मर्म पृथग्लिखित: [लिखन्तौ स्तः ] ।
एकदा पत्रथा बौद्धाचार्येण जैनछात्रपठनं ज्ञातं, परमुपलक्षति न । ततो जैनछात्रज्ञानाय द्वितीयभूमी पाठयितुमुपविष्टः छात्रेषु पठत्सु मिश्रेण्यां जिनप्रतिमा मण्डिता, यदा छात्रा Preferrer सर्वे प्रभोः प्रतिमाया उपरि पादौ दस्वोत्तीर्णा, हंसपरमहंसौ प्रतिमायाः कण्ठे रेखां कृत्वोत्तीर्णौ । ततस्तौ शंकितौ पुस्तकं लात्वा नष्टौ । ततो बुद्धाचार्येण राज्ञः शिविरं तत्पृष्टौ प्रेषितं तयोईननाय, हंसेन युद्धकृतं बहुसैन्यं इतं, ततो बहुसैन्यं समागतं, ततो हंसो हतः, ततो बहु शिबिरं समागतं परमहंसोऽपि हतः । क्रमाद्गुरुभिः शिष्यहननसम्बन्धो ज्ञातः । ततो रुष्टैस्तप्ततैकटाहं मण्डितं मन्त्रबलेन १४४० [१४४४ ] बौद्धाः बौद्धान् ] कटाहेषु जुह्वन् [ जुन् ] वारितो 15 हरिभद्रो न पापान्निवृत्तस्तदा एकः श्राद्धोऽभ्येत्य जगौ
जह जलह जलओ लोए, कुसस्थपवणाहओ कसायगी । तं चुज्जं जं जिणवयणा, वारिसित्तो वि पज्जलई ॥१॥
इत्यादि श्रुत्वा हरिभद्रसूरिः पापान्निवृत्तः पश्चादालोचना लात्वा १४४० [१४४४ ] प्रकरणानि चक्रे । इति हरिभद्रसूरिक्रोधोपशमसम्बन्धः ||४८१॥
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[482 ] अथ बप्पभट्टीदीक्षा सम्बन्धः
पांचालदेशे बाउधिग्रामे बपक्षत्रियस्य मट्टिः पत्नी, सूरपालः पुत्रोऽभूत् । तस्य क्षत्रियस्य बहवो रिपवः तान् हन्तुं स पुत्रः पित्रा निषिद्धः स्थितः । कस्मिंश्चिदपमाने सूरपालो निर्ययौ सिद्ध सेमसुरेमोंढेरग्रामे मिलितः गुरवः प्रोचुः कस्त्वं कुत आगाः । ततस्तेन स्वमातापित्रादिसम्बन्धः प्रोक्तः । गुरुणोक्तं--- वत्स ! अस्मत्पार्श्वे तिष्ठ सुखी भवसि पाठयित्वा विलोकितो गुरुणा स 25 च दिनं प्रति सहस्रं श्लोकानां पठति तीक्ष्णबुद्धिः । ततो गुरवो जगुश्चारित्रं गृहाण त्वमस्मत्तुल्यो भविष्यसि । तेनोक्तं- अहं दीक्षां जिघृक्षुरस्मि । ततो गुरवस्तं चारित्रग्रहणे दृढं कृत्वा बाधा गताः । तस्य शिशोर्मातापितरावालापितौ उक्तं च पुत्रा भवन्ति भूयांसः किन्तैर्यैः संसारसागरात्
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२६४ ]
प्रबन्धपश्चशती
मातापितरौ उप्रियन्ते न । यद्यसौ दीक्षां गृह्णाति तदा वरं । माता प्राह-यदि मम नाम दीयते पुत्रस्य तदा दीयतां दीक्षां । ततो गुरुभिर्दीक्षितः बध्यभट्टिनम ददे तस्य, स्तोरेव दिनैर्बहूनि शास्त्राणि पपाठ । इति बप्पभट्टिदीक्षासंबंधः ||४८२||
[483] अथ आमराज्य प्राप्तिसंबंधः ।
गोपालनगरे यशोधर्मनृपतेर्यशोदेवी पत्नी पुत्रआम । स चान्यदा पित्रा हकिकतो निर्ययौ गृहात् भ्रमन्स मोढेरकप्रामे बहिर्दवकुले समागात् । इतस्तत्र बप्पभट्टिसाधुस्तत्र गुरुणा सार्द्ध समागात् । स च आमस्तत्र देवकुले काव्यानि बप्पभट्टिपार्श्वाद्वाचयामास । ततो गुरुगा समं स शिशुरुपाश्रये आगतः गुरुणा पृष्टुं कुतस्त्वं पुरादिहागाः स चात्मनो मातापितृपुरादिसम्बन्धं जगौ गुरुणोक्तं किं तव नाम ? ततस्तेनं बालेन खटिकया लिखित्वा ज्ञापितं स्वं नाम आम इति । ततो 10 गुरुणा ज्ञातं महानेष ततो गुरुणा ध्यातं च यः पुरा रामसैन्यग्रामे राज्ञा निष्कासिता स्त्री समागता । तया च पिचुवृक्षे वस्त्रान्दोलके सुक्तो बालकः । तस्य वृक्षस्य छाया न नमिता स एव बालकः एष महान भूपो भविष्यति । ततो गुरुणा श्राद्धानां भलायितः श्राद्धा वर्यं भोजनं ददन्ते
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आपातगुर्वी क्षयिणी क्रमेण, हृस्वा पुरा वृद्धिमती च पश्चात् । दिनस्य पूर्वार्द्धपरार्द्धभिन्ना, छायेव मैत्री खलसज्जनानाम् ||१||
इतस्तत्रस्थं पुत्रं ज्ञात्वा पिता स्वपार्श्वे नेतुं जनमप्रेषयत् । तत आमः प्राह - अहं पित्राकारितस्तत्र गच्छन्नस्मि कदाचिद्राज्यं भविष्यति तदा त्वमेव गुरुः बप्पभट्टिश्वापि । ततो यशोधर्मभूपतेः पितुर्मिलितः पित्रा राज्यं दत्तं, राजा तु आराधनां कृत्वा स्वर्गे [स्वर्ग] गतः आमः पितुः 20 परलोककार्यं कृत्वा गोपगिरिपुरे राज्यं प्राप्तमपि पलालपूलप्रायं मन्यते । ततः आमेन बप्पभट्टि - स्तत्राकारितः आसनं मण्डितं यदा बप्पभट्टिर्जगौ-आसने तु गुरव एवोपविशन्ति । ततः आमेन गुरुपाश्वत् बप्पभट्टेः सूरिपदं दापितम् ।
इति आमराज्य प्राप्ति सम्बन्धः || ४८३ ||
[484] अथ गोपगिरौ १८ भारस्वर्णप्रतिमानिर्मापनसम्बन्धः । एकदा श्रीपभट्टिसूरिभिः प्रासादकारणपुण्ये उपदेशो दत्तः । प्रासादप्रतिमा यात्रा - प्रतिष्ठादिप्रभावना अमार्युद्घोषणादीनि महापुण्यानि गेहिनां ॥ १ ॥ काष्ठादीनां जिनागारे, यावन्तः परमाणवः । तावन्ति पल्यलक्षाणि, तत्कर्त्ता स्वर्गभाग्भवेत् ||२||
भट्टिना समं यमः पठति बहुशास्त्राणि पपाठ, लक्षणादिसर्व शास्त्रादिवेत्ताऽभूत् । बप्पभट्टिरामेन गुरुः कृतः, महान्प्रेम तयोरभूत् । एकः एकेन विना न तिष्ठति । यत:
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१. आरंभगुर्वी ।
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चतुर्थोऽधिकारः
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इत्याद्युपदेशं श्रुत्वा एकोत्तरहस्तशतप्रमाणः प्रासादः कारयामास । भूवो गोप गिरो तत्राष्टादशरभारप्रमाणां श्रीवीरप्रतिमां न्यवीविशत् श्रीबप्पभट्टिभिः प्रतिष्ठिता । तत्र चैत्ये मूखमण्डपः सपादलक्षसौवर्णटकैर्निष्पन्नः इति वृद्धाः प्राहुः । सदा भूपो गजारूढो देवं वन्दितुं याति देवगृहे सदा नृत्यनादपूजामहापुष्पं पूजादि महोत्सवं राजा कारयति । दिनं प्रति देवगृहे मूढकद्वयमक्षता आयान्ति, गोणीद्वयं पूगीफलानि अपरवस्तूनां संख्या न ज्ञायते । उभयकालमारात्रिकमहोत्सवो भवति । विशेषतः कार्त्तिकपूजा कार्त्तिकमासे दीपशतसहस्रैः कार्यते नृपेण । इति गोपगिरौ १८ भारस्वर्णप्रतिमानिर्मापनसम्बन्धः ||४८४॥
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[485] अथ श्रीवप्यभट्टिसूरिर्लक्षणापुरीगमनधर्मराजप्रतिबोधसम्बन्धः । एकदाऽन्तःपुरे वलभां प्रम्लानमुखीं दृष्ट्वा श्रीबप्पभट्टिपावें गाथार्द्ध राजाऽवग्" अज्जवि सा परितप्पड़, कमलमुही अत्तणोपमाएणं" ।
गुरुः प्राह
“पढमविबुद्धेण तए, जीसे पच्छाईअं अंगं” ॥१॥ राजा दुष्यावयं सर्वज्ञ एव ।.
अन्यदा राजा पत्नीं पदे पदे मन्दं मन्दं संचरन्तीं दृष्ट्रा गाथार्द्ध प्राह"बाला चंक्रमंती पए पए, कीस कुणइ मुहभंगं" । सूरिः प्राह
"नूणं रमणपएसे मेहलया छिप्पर नहपंती" ॥१॥
इदं श्रुत्वा राजा दध्यौ - एष सूरिरन्तःपुरे किं प्रविष्टः ? अहो विद्यागुगोऽपि दोषाय गतः । राज्ञो मनो ज्ञात्वा श्रीसूरिः संघमनापृच्छय पुरद्वारे काव्यं लिखितवानेव --- यामः स्वस्ति तवास्तु १ रोहणगिरौ मत्तः स्थितिप्रच्युता,
वर्त्तयन्त इमे कथं कथमिति स्वप्नेऽपि मैवं कृथाः । श्रीमांस्ते मणयो वयं यदि भवल्लब्धप्रतिष्ठास्तदा,
ते शृङ्गारपरायणाः क्षितिभुजो मौलौ करिष्यन्ति नः ॥१॥
अस्मान विचित्रवपुषश्चिरपृष्ठलग्नान् किं वा विमुञ्चसि विभो ? यदि वा विमुञ्च ! हा हन्त केकिवर हानिरियं तवैव भूपालमौलिषु पुनर्भविता स्थितिर्नः ||२||
एवं लिखित्वा गुरवोर्लक्षणवत्यां पुर्यां धर्मराजपालिताय गताः सूत्सवं । तत्र नित्यं धर्मराजा गुरुं वन्दते उपदेशं शृणोति ।
इति श्रीप भट्टिसूरिर्लक्षणापुरीगमनधर्मराजप्रतिबोधसम्बन्धः ||४८५ ||
१. रोहणगिरे ! २. श्रीमंस्ते । ३. भूपालमूर्धनि ।
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-२६६ ]
[486 ] अथ लक्षणापुरीस्थितेन गुरुणा समस्यापूरणसम्बन्धः ।
आमभूपः श्रीबप्पभट्टिगुरुं "याम स्वस्तीति” काव्यवाचनात् ज्ञातवान् । मम मनो इस्ला गुरवो गताः । गुरवोः ज्ञानिनः मया मुधा दुश्चिन्तितं राजा बप्पभट्टि स्मारं स्मारं दुःस्न्यभूत् । अन्यदा वहिर्गतेन राज्ञा सर्प मुखे धृत्वा वाससाछाद्य गृहमानीतवान् सभायां कवीनां 5 पुरः श्लोकाद्धं प्राह
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प्रवन्धपश्ञ्चशता
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" शस्त्रं शास्त्रं कृषिर्विद्या अन्यो यो येन जीवति" ।
-
यदा न केनापि पदद्वयमप्रेतनं पूरितं । तदा राजा जगौ यः समस्या पूरयति तस्मै लक्षं दास्ये बहुषु दिनेषु गतेषु एकः पुरुषः समस्यां पूर्णां चकार
" सुगृहीतं च कर्त्तव्यं, कृष्णसर्पमुखं यथा" ॥१॥
ततो राम्रोक्तं- भो पुरुष ! सत्यं ब्रूहि मया मानितं तुभ्यं दास्यते, केनेयं समस्या पूरिता । ततस्तेनोक्तं लक्षणावत्यां गतस्तत्र मया श्रीवप्पभट्टिपाइ समस्यार्द्ध पृष्टं गुरुणाऽग्रतः पदद्वयं प्रोक्तं । ततो राजा दध्यौ स गुरुः कथमत्रायास्यति । एकदा आमः पुराद्वहिः न्यग्रोधद्रोधः पान्थं मृतं ददर्श । तस्य तरोः शाखायां - करपत्रकं गलद्विमुङ्व्यूहं लम्बमानं च दृष्ट्वा गाथार्थ प्रावणिलिखितं दृष्टवानिति
"तईया महनिग्गमणे पियाइ घोरं सुएहिं जं रुण्णं ।"
तदपि गाथार्द्ध भूरि कवीनां पुरः प्रोक्तं ततो न केनापि पूरितं । जनं प्रेष्य सूरिपार्श्वात् समस्या पूर्णां ज्ञातवान् -
करवत्तयबिंदुय निवडणेण तं मज्झ संभरियं ॥२॥
एवं श्रुत्वा राजा नित्यं सूरीन् सस्मार |
इति लक्षणापुरीस्थितेन गुरुणा समस्यापूरणसम्बन्धः || ४८६||
[487 ] अथ आमभूपलक्षणापुरीगमनधर्मभूपमिलनसम्बन्धः ।
एकदा श्रीआमराजेन गुरुमाकारयितुं मन्त्रिणः प्रषिताः । गुरवो यदा चलितुं लग्नास्तदा धर्मराजाचष्ट-यदा आमभूपः भगवत आकारयितुमायात्यत्र तदा गन्तव्यं ममापि तस्य नृपतेर्दर्शनेच्छा विद्यते । ततो गुरुणोक्तं - राजा नायास्याति अत्र, तथापि ज्ञापयिष्यते । ततो मन्त्रिण 25 आकार्य रहः प्रोक्तं- आमकेन स्थगीयरूपभृता प्रातः सभायामागम्यते, मन्त्रिणः पश्चाद्गताः आमस्य बप्पभट्टेरनागमनादिकारणं प्रोचुः । ततोऽन्यदा प्रभाते श्रीधर्मभूपादिश्राद्धसंकुलायां सभार्या स्थगीरूपधर आमो भूरिनरैर्युक्त आगच्छन् दृष्टो यदा तदा गुरुणोक्तं- पुनरामनरा आगच्छन्तः सन्ति मदाकारणाय, यदा सभायामागतस्तदा । गुरुभिः प्रोक्तं - "आम ! आवओ"
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चतुर्थोऽधिकारः
[ २६७ तस्मिन्नुपविष्टे अपरनरपावं पृष्टं स्थगीहस्ते किं बीजोरा ? ततो धर्मभूपेन पृष्टं-राजा कथं कथयात्र नागादाकारयितुं गुरोः ? ततस्तेनोक्तं-आगत एवाज्ञेयः राज्ञा पृष्टः कीदृशः आमास्ति गुरुणोक्तं-स्थगीसदृशोऽस्ति । ततो धर्मेण यूयं उक्तं) पश्चाद्यात राजानं अत्र प्रेषयत ततस्ते सर्वे गुरून् वन्दित्वा जगुः--भगवन् ! भवद्भिः शीघ्रं गोपगिरौ आगम्यते । गुरुभिः प्रोक्तं-'वर्तमानयोगिई। ततस्ते गता घटिकायोजनाष्ट्रीमारूढो राजा स्वपुरं प्रति चचाल। 6
इतो गुरवो धर्मभूपतेः पुरः प्रोचुः-वयं चलिता गोपगिरि प्रति राजाऽवग–यथामभूपागमनं विना गमिष्यते तदा प्रतिज्ञाभंगो भविष्यति । गुरुगोक्तं यः स्थगीरूपभृत् । स आगतः मयोक्तं-'आप' एकेन नरेण प्रोक्तं मयापि च बी बोरा स्थगोतुल्यः प्रोक्तः । ततो धर्मः प्राह-अहं वाहितो वचश्छलान् -आमो विद्वान् गुरुवो विज्ञाः अहं मुग्धः । गुरुणोक्तं-- भामो दर्शितो भवतः । ततस्तं भूपं मुकलाप्य बप्पभट्टिगुरुः सूत्सवं गोपगिरी गतः। 10
इति आमभूपलक्षणापुरीगमन धर्मभूपमिलनसंबंधः । ४८७।।
[488 ] अथ आमकुमार्गगमननिवृत्तिसम्बन्धः । अन्यदा राजसभायामामस्य गायकवृन्दं समायातं तच्च गातुं मधुरध्वनिप्रवृत्तं आमभूपतिरेको बालिका मृगांकमुखी स्वारीरूपा गायन्तीं दृष्ट्वा मदनन्धरपीडितोऽभूत् । 'ततो राजा बद्यद्वयमपाठीतवक्त्रं पूर्णशशी सुधाधरलता दन्ता मणिश्रेणयः,
कान्तिः श्रीमनं गजः परिमलस्ते पारिजातद्रमः। वाणी कामदुधा कटाक्षलहरी सा कालकूटच्छटा,
तत्किं चन्द्रमुखि ! त्वदर्थममरैरामन्थि दुग्धोदधिः ॥१॥ जन्मस्थानं न खलु विमलं वर्णनीयो न वो,
दूरे शोभा वपुर्षि निहिता पंकशंकां तनोति । विश्वप्रार्थ्यः सकलसुरभिद्रव्यदर्पोपहारी,
नो जानीमः परिमलगुणः कस्तु कस्तूरिकायाः ॥२॥ सूरिभितिं महतामपि मनःपरिवृत्तिर्भवति । यतः
अक्खाण रसणी कम्माण, मोहणी तह बयाण बंभवयं ।
गुत्तीण य मणगुत्ती, चउरो दुक्खेण जिप्पते ॥१॥ उत्थिता सा सभा, राझा वर्या सभा त्रिभिर्दिनः कारापिता गृहरूपामातंग्या सममिह वत्स्यामीति ध्यायति स्म१. पारिजातद्रुमाः ।
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२६८ ]
प्रबन्धपश्चाती
इङ्गिताकारज्ञाः श्रीबप्पभट्टिसूरयो राझो मनो जझौ दध्यौ--असौ भूपः कुमार्गसेवनानरक यास्यति । अतस्तथा कुर्वे यथा राजा कुमार्ग न सेवते । ततस्तस्मिन्नेव चित्रशालाभारपट्टे सूरिः पद्यानि लिखितवानिति
शैत्यं नाम गुणस्तवैव भवतु स्वाभाविकी स्वच्छता,
किं ब्रूमः शुचितां भवन्ति शुचयस्त्वत्संगताऽन्ये यतः ? २कि वातः परमस्ति ते स्तुतिपदं त्वं जीवितं देहिनां,
त्वं चेत्रीचपथेन गच्छसि पयः कस्त्वां निरोर्बु क्षमः ? ॥१॥ सवृत्तसद्गुणमहार्हमनध्यमूल्य-कान्ताघनस्तनतटोचितचारुमूर्ते, आःपामरीकठिनकण्ठविलग्नभग्न-हा हार हारितमहो भवता गुणित्वम् ।।२॥
जीअं जलविंदुसम, संपत्तीओ तरंगलोलाओ । सुमिणय समं च पिम्मं, जं जाणसि तं करिज्जासि ॥३॥ लज्जिज्जइ जेण जणो, मइलज्जइ निअकुलकमो३ जेण । कंठठिएवि जीए तं, न कुलीणेहिं कायव्यं ॥४॥
प्रातरमूनि पद्यानि दृष्ट्वाऽऽमभूपोऽक्षराण्युपलक्षयामास दथ्यौ च अहो गुरूणां मयि कृपालुता मया मातंगीसंगश्चिन्तितः तस्मात्पापात्कथं छुटिष्यामि क्व यामि कथं ? गुरोर्मुखं दर्शयिध्ये
किं च तपः करोमि वह्नौ प्रविशामि भूमिमध्ये वा भृगुपातं करोमि वा। ततो राजा चिता रच20 यित्वा यावदग्नौ प्रविशति तावद्गुरुणा हस्ते धृत्वोक्तं त्वया मनसा पापं बद्धं मनसा च मुक्तं । यतः--
मनसा मानसं कर्म, वचसा वाचिकं सथा ।
कायेन कायिकं कर्म, निस्तरन्ति मनीषिणः ॥१॥ ततो राजा गुरुवचसा निवृत्तो गृहे समागतः आलोचना लात्वा तत्तपश्चक्रे च ।
इति आमकुमार्गगमननिवृत्तिसम्बन्धः ॥४८८॥
[489 ] अथ आमसमस्यासम्बन्धः । अन्येशुरामो राजपथे गच्छन् हालिकप्रियां एरंडबृहत्पत्रसंवृतस्तनविस्तरां एरण्डपत्राणि विचिन्वाना गृहपाश्चात्यभागे दृष्ट्वा गाथार्द्ध बबन्ध वक्ति१. व्रअन्त्यशुचयः पत्तिवैवापरे । २. किंचातः । ३.कमो।
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चतुर्थोऽधिकारः
[ २६९ "वइविवरनिग्गयदलो एरंडो साहइञ्च तरुणाणं" सूरिपार्श्वे पृष्टं, सूरिणा चापूरि
इत्थ घरे हालिअवहू इद्दहमित्तत्थणी वसइ ॥१॥ ___ श्रुत्वैतद्राजा चमत्कृतः । अन्यदा प्रोषितभतकां वासगृहं यान्तीं वक्रग्रीवा दीपकरां ददर्श गाथाद्ध चक्रे नृपः
“दिज्जइ श्वंकगीवइ २दीवउ पहिअजायाए"। सूर्यग्रेऽपाठीत् , सूरिणापूरि
पियसंभरणपलुट्टन्त अंसुधारानिवायभीयाए ॥१॥ राजा चमत्कृतः । अन्यदा सौधोपरिस्थेनामेन एकस्मिन् गृहे प्रविष्टो यतिदृष्टः तद्गृहस्था स्त्री कामाता यतिरिरमायषुः कपाटं ददौ मुनिस्तां न वाञ्छति । ततस्तया मुनिः पदतलेनाहतः 10 तस्या नेपुरं मुनिचरणे प्रविष्टं काकतालीयन्यायाद्राजा समस्यां चकार
__ "कवाडमासज्ज वरंगणाए, अब्भत्थिओ जुन्धणगचियाए"। सूरिः प्राह
"न मनिअं तेण जिइंदिएणं, सनेउरो पन्चइअस्स पाओ" ॥१॥ , अन्यदा प्रोषितभर्तृकाया गृहे भिक्षुर्भिक्षार्थी प्रविष्टः तया भिक्षुवशीकरणाय वरान्नमानीतं 15 उपरि कौकैर्भक्षितं मुनिदृष्टिस्तदा तस्या नाभौ पपात तस्या दृष्टिर्मुनेर्मुखे । आम एतदृष्ट्वा समस्यां चकार
"भिक्खायरो पिच्छइ नाभिमंडलं, सा पिच्छइ तस्स य आणणं वुअ" । सूरि प्राह
"आणाय भिक्खोपरि काकघातया, विलियं तेहिं न जाणिअं तु" ॥१॥ 20 राजा रजितः ततो राज्ञा धनं दत्तं गुरुणा न गृहीतं । ततस्तेन द्रव्येण लेप्यमया प्रतिमा एका मथुरायाम्१ 1 एका मोढेरकवसहिकायाम् । एका अणहिल्लपुरस्थितायाम्३ । एका गोपगिरौ४। एका ३सामारकपुरे५ कारिता प्रतिष्ठा प्रभावनादिरपि कारिता ।
इति आमसमस्यासम्बन्धः ॥४८९॥
[ 490] अथ आमाभिग्रहसम्बन्धः । एकदा आमभूपस्य पुरः सूरिरुपदेशं ददौ१. मगीवाइ । २. दीवो । ३. सातारकपुरे ।
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२७० ]
प्रबन्धपश्चशती लावण्यामृतसारसारणिसमा सा भोजभूः स्नेहला,
सा लक्ष्मीः स नवोद्गमस्तरूणिमा सा द्वारिका तबलम् । ते गोविन्दशिवासमुद्रविजयप्रायाः प्रियाः प्रेरकाः, .
या जीवेषु कृपानिधियंधित नोद्वाहं स नेमिः श्रिये ॥१॥ मग्नः कुटुम्बजम्बाले येमहाकामजर्जरे ।
नोज्जयन्ते नतो नेमि-स्ते जीवन्तो मृताः स्मृताः ॥२॥ श्रुत्वैतद्राजा जगौ रैवतके नेमि नत्वैव भोक्तव्यं गुरुभिः प्रोक्तं-रैवतको दूरे, मृदवो भवादृशाः । राजाऽवग-मम प्रतिज्ञा मेमचूलेव ज्ञेया । ततः शीघ्रं रैवतकं प्रति सारपरिवार
श्वचाल राजा स्तम्भतीर्थोपान्ते समागात् । राजा खिन्नः प्राणसन्देशं प्राप परमभिप्रहं न मुञ्चते 10 ततः सूरिणा ध्याता कूष्मांडी देवी समागता। तदाने प्रोक्तं तथा कुरु यथा राजा पारणक
करोति । ततस्तया देव्या रैवतशिखरस्थमेकं बिम्बं नेमिनाथस्य तत्रानीतं प्रोक्तं चेदं श्रीनेमिबिम्ब तव साहसेन संमुखमागतं वन्दस्व पारणकं कुरु । ततः सूर्यादिभिरपि तथा प्रोक्तं । ततस्तद्विम्ब वन्दित्वा राजा पारणकं चकार । अद्यापि तद्विम्बं स्तम्भतीर्थे पूज्यमानमस्ति ततः । शत्रुञ्ज यगिरिनारयो देवान् वन्दित्वा स्वपुरमागात् ।
इति आमाभिग्रहसम्बन्धः ॥४६॥
[491] अथ श्रीगिरिनारतीर्थवालनसम्बन्धः । एकदा ससंघः श्रीआमः शत्रुञ्जये वृषभं नत्वा रैवतके गतः । तदा तत्तीर्थ दिगम्बरै रुद्धं, श्वेताम्बरसंघश्वटितुं न शक्नोति आमो यदा युद्धं कर्तुं लग्नः । तदा दिगम्बरभक्ता ११
राजानः समागतास्तेऽपि युद्धाय सना अभूवन् । ततो बप्पभट्टिनोक्तं-द्वयोरने युद्ध मनुष्य20 संहारो भवति । इदं तीर्थं यस्याम्बिका दत्ते तस्येव शेयं । ततोऽम्बिका द्वाभ्यो संघेशाभ्यामाराधिता सती व्याम्नि समेत्य प्राहेति गाथा---
"उन्जितसेलसिहरे, दिक्खानाणं निसिहिया जस्स । तं धम्मचक्कवटिं, अरिष्टनेमि नमसामि ॥१॥ इक्को वि नमुकारो, जिणवरवसहस्स वद्धमाणस्स ।
संसारसागराओ, तारेइ नरं र नारिं वा ॥२॥ ततः श्वेताम्बरैर्जितं दिगम्वरैहारितं स्त्रीणां मुक्त्यमावजल्पनात् ।
इति गिरिनारतीर्थवालनसम्बन्धः ॥४९१॥ १. सा भोजसूः २. प्रिया प्रेरकः ।
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चतुर्थोऽधिकारः
[ २७१
[492] अथ श्रीहेममूरिदीक्षासम्बन्धः । वटपद्रपुरे श्रीयशोभद्रसूरिपार्श्वे धर्म श्रुत्वा राणकः क्षत्रियो जिनधर्म प्रपेदे । एकदा जिनधर्म कुर्वन् चरिक्षेत्राणि द्रष्टुं गतो राणः तावता ब्रण्टानि ज्वालयन्ति भृत्याः तेषु एकां सगी दंदह्यमानां तडफडायमानां सिमिसिमायमानां राणोऽद्राक्षीत् । ततो ध्यौ अहो एकस्योदरस्य हेतवे सर्पिणीं कियत्पापं क्रियते, धिग्गृहवासं यत्र सदा पापमेव, धन्याः साधवः यैः संसारसुखं त्यक्तं । 5 तसोऽहं सर्वसंगत्यागं करिष्ये । ततः श्राद्धाः पृष्टाः प्रातः श्रीदत्तसूरयः क्व सन्ति ? श्राद्धैरुक्तं डौंडूआणकग्रामे सन्ति । ततः सारपरिवारस्तत्र गतो राणः । गुरवो वन्दिताः स्वं पापं प्रकाशयामास व्रतं विना तस्मात्शुद्धिन दृश्यते । तेन दीक्षा दस्व । गुरुभिर्मानिते लक्षमूल्यहारेण डोंडू. आणके प्रभोमहान्प्रासादः कारितो। राणकेन पुत्रस्य गृहभारं दत्वा राणको दीझो जग्राह । यावजीवं विकृतिस्त्यक्ता एकान्तरोपवासान् चक्रे । तं विद्यां पठन्तं धर्मिष्ठं गीतार्थ विनीतं मत्त्वा सूरिपदं गुरुभिर्ददे (सूरिपदं गुरवस्तस्मै ददौ]"यशोभद्रसूरि"रिति नाम तस्याभूत्। तत्पट्टे गुणसेनसूरिरभवत् तत्पट्टे देवचन्द्रसूरिः स्थानाङ्गवृत्तिकर्ता । देवचन्द्रसूरयो धुंधुक्ककं पुरं प्राप्ताः । एकदा गुरवो देवगृहे गताः । यदा मोढज्ञातीयचाचिगपत्नी पाहिणीगर्भजातश्चंगदेवः सुतः बाल्यत्वात् गुरूणामासने उपविष्टः, तदा गुरुः प्राह-महाभागे पाहिणि ! तवायं पुत्रो यदि दीक्षां गृहाति तदा महाविद्यापारगः सूरिभवति । मात्रा प्रोक्तं-यद्ययं वर्धमानो दीक्षा मानयिष्यति तदा न मया 16 वारयितव्यः । ततो वर्द्धमानश्चंगदेवो मातृपित्रनुज्ञातो दीक्षा ललौ । गुरुदत्तविद्याः पपाठ विद्वानभूत् । स च प्राप्तविद्यो हेमसूरि माऽभूत् ।।
इति श्रीहेमसूरिदीक्षासम्बन्धः ॥४९२॥
[493] अथ श्रीहेममूरिनामसम्बन्धः । । स च हेमसूरिः क्षुल्लकावस्थायामेकस्मिन्ग्रामे गतः । स च वृद्धसाधुना सह प्रातराशा 20 विहरणाय श्राद्धस्य गृहे गतः । तस्य ग्रहे बालका रब्बा पिबन्ति, वृद्धसाधोरगं चेल्लकः प्राहगणीश ! अस्य श्रेष्ठिनो गेहे ! एवंविधा भूतिश्यते बाला रब्बां कथं पिबन्ति ? वृद्धः साधुः प्राह मौनं कुरु ? तदा गृहस्वामी क्षुल्लकवचः श्रुत्वोस्थाय पप्रच्छ-अयं क्षुल्लकः किं वक्ति ? साधुः प्राह-न किंचित् । ततो बलात्कृष्ट विभूतिसम्बन्धं क्षुल्लकः प्राह गृहमध्ये सौवर्णिकराशिद्देश्यते । ततः श्रेष्ठी जगौ अस्माकं हेमनिधिः २[थिराह लिको खिराहिलिको जातः । तेनायं 26 मध्ये क्षिप्तोऽस्ति यदा क्षुल्लकेन तस्योपरि हस्तो वाहितः । तदा हेममयो जातः तदा क्षुल्लकस्य हेमक्षुल्लकनाम जातं । ततः श्रेष्ठिना ततो हेमविहारः कारितः पुनमभ्या जातः ।
__ इति हेममूरिनामसम्बन्धः ॥४९३।।।
[494] अथ जीवदयायां कुमारपालसम्बन्धः । श्रीहेमसूरिपावें जैन धर्म लात्वा सर्वत्रामारिं कारयित्वा कुमारपालभूपो राज्यं चक्रे। 30 १. तदीयपट्टे प्रद्युम्नसूरिर्ग्रन्थकारः । २. कोलसा ।
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२७२ ]
प्रबन्धपती
अन्यदा आश्विनमासे समागते अबोटिकाः [आच्छोटिकाः] पतीआनका अध्येत्य । भूपस्याये प्रोचुः - पर्व समायातं महिणिका । तत्र सप्तम्यां सप्तशती महिषाणां हन्यते, अष्टम्यां अष्टशती, नवम्यां नवशती । ततो दीयन्तां, देवीभ्यो दास्यन्ते । ततो राजोत्थाय गुरुपा गतः कथिता सा वार्त्ता गुरुभिः प्रोक्तं कथयिष्यते युक्तिः । ततो ऽप्रेतने दिने प्रोक्तं गुरुभिः
5 " यस्मिन् दिने यावन्तो हन्यन्ते तावन्तो देवीनां पुरतः स्थाप्याः " प्रोच्यं च भो देवि ! तब बलिः कृतोऽस्ति त्वं भक्षयित्वा तृप्ता भव । गुरूक्तं राशा कृतं, देवीभिरेकोऽपि न भक्षितः । दशमीदिने पतीआनकेभ्यो भूरि धनं दत्वा । राज्ञा प्रोक्तं- अद्यप्रभृति यद्भवतां विलोक्यते तन्मार्गणीयं न जीवो हिस्यः । ते तु पशवो देवो[सत्काः] कृत्वा स्वेच्छया चरितुं मुक्ताः । इति जीवदयायां कुमारपालसम्बन्धः || ४९४ ॥ [495] अथ धर्मदृढ़तायां कुमारपालसम्बन्धः |
10
एकदा कण्टेश्वरी देवी रात्रावभ्येत्य । भूपस्याग्रे प्राह-अहं तव कुलदेवी स्वया अस्मदर्थ किमपि न कृतं ? राजा जगौ मया जीवहिंसाविषये नियमो गृहीतः जीवन्नहं पिपीलिकामपि न हन्मि पञ्चेन्द्रियाणां का कथा । ततो रुष्टा त्रिशूलेन भूपं हत्वा गता राजा कुष्ठी जातः । ततो भूप उदयिनं मन्त्रिणमाकार्य प्राह देव्योक्तं स्वं वपुर्दर्शयामास च । मन्त्री प्राह स्व15 स्थीभूय तं गुरवः पृच्छयन्ते प्रातः यदि लोकाः पश्यन्ति भवद्वपुस्तदोड्डाहो भविष्यति जिनम
20
ताहीना च । ततो मन्त्रिणा गत्वा भूपस्वरूपं श्रोहेमसूरिपाइ प्रोक्तं, गुरुभिः सद्यो जलभिमन्त्रय दत्तं प्रोक्तं अनेन भूपदेहमाच्छोदयं सिवनेन । ततो मन्त्रिणा तेन जलेन भूपवपुराच्छोटितं राजा दोगुन्दकदेवशरीरोभूत् प्रातर्गुरुं वन्दितुं ययौ गुरुभिः प्रोक्तं
25
शूराः सन्ति सहस्रशः प्रतिपदं विद्याविदोऽनेकशः,
सन्ति श्रीपतयो निरस्तधनदास्तेऽपि क्षितौ लक्षशः १ । किन्त्वाकर्ण्य निरीक्ष्य वाऽन्यमनुजं दुःखार्दितं यन्मनरस्ताद्रूप्यं प्रतिपद्यते जगति ते सत्पुरुषाः पञ्चषाः || १ || ततो राजा विशेषतो जिनधर्मे दृढतां दधार ।
इति धर्मतायां कुमारपालसम्बन्धः ||४९५||
[496] अथ कुमारपालभूपालयात्रासम्बन्धः ।
एकदा श्रीहेमसूरिः प्राह--भो कुमारपाल ! शृणु-पुरा भरतचक्री शकटलक्षमनुष्यकोटिभूपशतसहस्रयुतः स्थाने स्थाने उत्सवं कुर्वन् शत्रुञ्जये श्रीऋषभं ननाम तथाऽन्येऽपि आदित्यादयो भूपाः कोटिशः संघपतयो जाताः, संघपतिसमं पदं न स्यात् । यतोऽन्यत्पदं पापनिबन्धनं १. भूरिशः । २ तद्रूपं ।
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चतुर्थोऽधिकारः
[ २७३ संघेशपदं तु मुक्तिदायि निगद्यते, शत्रुजययात्राफलं श्रुत्वा राजा भूरिसंघयुतः प्रौढदेवालयारूढजिनप्रतिमापूर्व शत्रुब्जययात्रायै चचाल चतुर्विशतिप्रासादान् कारयन् मन्त्रिपुत्रवाग्भट्टमन्त्रिनागश्रेष्ठिपुत्र आभड षड्भाषाचक्रवर्तिश्रीपालसिद्धपालानेकप्रह्लादनपुरस्वामिभूपालादयोऽपि चेलु- . यात्रायै । श्रीहेमसूरिदेवसूरिप्रभृतयोऽनेके सूरयः साधवश्च । महादानानि दीयन्ते, प्रामे पुरे जिनेन्द्रपूजा क्रियते, श्रीशत्रुजये संघः प्राप्तः, मरुदेव्या दशने नालिकेरादिस्फोटनपूजाकरणं। 5 तत्र ददति धनं कुमारपाले मार्गणेभ्यः; कवयश्च प्रोचुःक्षिप्त्वा वारिनिधिस्तले मणिगणं ररत्नाकरारोहणो
रेवावृत्य सुवर्णमात्मनि दृढं बद्ध्वा सुवर्णाचलः । क्ष्मामध्ये च धनं निधाय धनदो बिभ्यत्परेभ्यः स्थितः,
किं स्यातः कृपणैः २स सोऽयमखिलार्थिभ्यः स्वमर्थं ददन् ॥१॥ 10 "श्रीवीरे परमेश्वरेऽपि भगवत्योख्याति धर्म स्वयं, ।
प्रज्ञावत्यभयेऽपि मन्त्रिाणि न यां कत्तुं क्षमः श्रेणिका । अक्लेशेन कुमारपालनृपतिस्तां जीवरक्षां व्यधान्
३यस्योसौ सुवचः सुधां स परमः श्रीहेमचन्द्रो गुरुः ॥२॥ लक्षदानं सर्वत्र देवगृहेषु चैत्यपरिपार्टी कुर्वाणो भूपो देवपूजास्नात्रमहोत्सवारात्रिंकमंग- 16 लप्रदीपादि चक्रे ततः स्थाने स्थाने स्नात्रमहः कुर्वन् देवपत्तने चन्द्रप्रभस्वामिनं प्रपूज्य गिरिनारे श्रीनेमि पूजयामास । तत उत्तीर्णो मार्ग मार्ग श्रीसंघ जेमयित्वा दिव्यवस्त्रैः परिधापयन् गुरुन् परिधापयामास । ततः संघं विसर्य सोत्सवं राजा पत्तने समागात् ।
इति कुमारपालभूपालयात्रासम्बन्धः ॥४९६॥
[497 ] अथ भाग्ये कुमारपालसम्बन्धः । एकदा शाकम्भरीपतिभूप आनाकः कुमारपालभगिनीपति तं रममाणः पल्या सह हास्येन प्राह-हेमसूर्यादिमुण्डकान्मारय । तदा पत्न्योक्तमेवं न प्रोच्यते, ते तु मम भ्रातुर्गुरवो जीवदयापालकाः। यदा पुनः पुनरेवं वक्ति तदा पल्योक्तं-जिह्वां संभालय । तदा रुष्ट आनाकः पत्नी पाणिना हतवान् पल्योक्तं-विलोकय तव जिह्वां मम भ्राता अवटोः कर्षयिष्यति । ततः सा रुष्टा पत्तने गता पतिस्वरूपं प्राह । ततो राज्ञा आश्वासिता भगिनी, प्रथमं तत्र स्वमंत्रितं तस्य 25 स्वरूपं ज्ञातुं प्रेषितः । स च तत्र गतो दास्या लुब्धोऽन्यदा दासी उत्सूरेण समागात् तदा तेनोसूरागमने हक्किता प्राह-"अद्य मयाऽधुना (आनो) राजा मन्त्रिणा विचार्य कुमारपालं हन्तुं जनः प्रेष्यमाणोऽस्ति तस्याने प्रोक्तं-त्रिभुवनविहारमध्ये त्वया रविवारे स्थेयं, तत्र यदा याति तदा त्वया हननीयो राजा । ततो मन्त्री सद्यस्तत्क्षणं आकण्य · राजसूत्रितं कुमारपालाय . रत्नोत्करं रोहणो । २. समोऽयमखिलार्थिभ्यः स्वमर्थ ददत् । ३. यस्यास्वाद्य वचः सुधां ।
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२७४ ]
प्रबन्धपश्चशती
ज्ञापयामास । राजा तस्मिन् सावधानीभूय देवगृहे प्रविष्टस्तं धृतवान् कंकलोहपत्र्यपि दृष्टा ततो राजा संनह्य शाकम्भरी गतः युद्धं मण्डितं स्वभगिन्याः प्रतिज्ञापूरणाय महती सेनां दृष्ट्रा आनाको धनं दत्वा कुमारपालसैन्यं बिभेद । यदा संग्रामे जायमाने सर्वे स्ववसेका न युध्यन्ति तदा हस्तिपकं प्रति राजाऽवग्- किं न युध्यति सैन्यं सोऽवगू- तव सैन्यं धनदानाद्वशीकृतं 5 चानाकेन राजाऽवग्-त्वं कीदृशोऽसि ! स प्राहाहं हस्ती च तवैव स्तः ततः सचिन्तो राजा युद्धं कर्त्तुमुत्थितः, तदा चारणः प्राह-
कुमारपाल नवि चिं करि चितिउं किंपि न होइ । जिणि तुह रज समपिउं, चिंतं करेसिंह सोइ ||१||
ततो युध्यता कुमारपालेन आनाको हस्तिनः स्कन्धे चटित्वा गले (आनाको ) धृतः प्रोक्तं 10 च - भगिनीप्रतिज्ञां पूरयामि ततो भगिन्याभ्येत्य पतिभिक्षा मार्गिता पादशीर्षिकाच्छीत्कारयित्वा पुनरानकस्य राज्यं दत्त्वा स्वाज्ञां धारयित्वा पत्तने समागात् ये ये विघटिताः सेवकास्तेषां शिक्षा दत्ता इति सर्वत्र ततो मारिरित्यक्षरेन न कोऽपि जल्पति स्म ।
इति भाग्ये कुमारपालसम्बन्धः ||४९७||
[498 ] अथ बुद्धौ शातवाहनभूपसम्बन्धः ।
उज्जयिन्यामेको विप्रश्चत्वारः पुत्रास्तेषां शिक्षा (दातुं ) वृद्धत्वे मरणावस्थश्चतुरः पुत्रानाकार्य प्राह-वत्सा ! अहं परलोकं प्रति प्रस्थितोऽस्मि । मयि मृते मदीयायाः शय्यायाश्चतुष्प पादानामधः चत्वारो वर्याः कुम्भाः सन्ति, ते तु वस्तुभिर्भूताः सन्ति ततः कर्षणीयाः भवद्भियथाजेष्टं ग्राह्याः वस्त्वनुसारतः भवतां निर्वाहस्तैर्भविष्यति विवादो न कार्यः ततः पिता मृतः तस्यौर्ध्वदेहिकं कृतं त्रयोदशे दिने चत्वारः कलशाः कर्षिताः यावदुट्घाटयन्ति तावत्प्रथमे कुम्भे 20 कनकम् । द्वितीये मृत्स्नाः । तृतीयेश बुसं । चतुर्थेऽस्थीनि दृष्टानि तैः, ज्यायसा सार्क सर्वे विवदन्तस्ततः कनकलोभात् । ते भूपस्याग्रे गताः स्वं स्त्रं सम्बन्धं प्रोचुः केनापि विवादो न भग्नः । ततस्ते ग्रामे पुरे पृच्छन्तः प्रतिष्ठानपुरे गताः । तत्रापि यदा भूपादिभिर्न केनापि तेषां विवादों भग्नः । तदा बाल्यावस्थायां शातवाहनचालकस्तेषां विवाद बभब्जेति - यस्मै पित्रा कनककलशो ददे । स कनकस्वामी भवतु |१| यस्मै मृत्स्नाकलशो ददे पित्रा स क्षेत्र केदारान् 25 गृहणातु |२| यस्मै बुसं स कणस्वामी || यस्मै अस्थीनि स पशून् गृहणातु |४| ततः सर्वे स्वपुरे गताः पितृदत्तविभवेन सुखिनो जाताः ।
इति बुद्धौ शातवाहनभूपसम्बन्धः ||४९ ८ ||
15
[499] अथ भोजजन्मपत्रिकासम्बन्धः ।
सिन्धुलभूपस्य यदा पुत्रोऽभूत् तदा जन्मपत्री वर्त्तिता, एवं
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चतुर्थोऽधिकारः
पञ्चशत्पंचवर्षाणि मास सप्तदिनत्रयम् । भोजराजेन भोक्तव्यं, सगौडं दक्षिणापथम् ॥ १॥
तदा मुखो भोजजन्मपत्रिकोक्तं श्रुत्वा दध्यौ । मम सन्ताने राज्यं न भविष्यति किन्तु भोजस्य राज्यं भविष्यति । एवं ध्यात्वा वर्षाष्टप्रमाणं भोजं मारयितुं वने स्वसेवकाभ्यां प्रेषयामास रहः । ताभ्य: प्रोक्तं स्मर देवतं त्वं तु मुजेन मारयितुमत्र प्रेषितोऽसि । भोजो जगt 6 युवयोः किं दूषणं मम कर्मण ? एव तथापि प्रथमं एकं पलाशपत्रमत्रानयत ताभ्यामानीतं । ततः स्वजंघां विदार्य तद्रुधिरेण काव्यं भोजो लिलेख
मान्धाता स महीपतिः कृतयुगेऽलङ्कारभृतो गतः,
तुर्येन महोदधौ विरचितः कासौ दशास्यान्तकः । अन्ये चापि युधिष्ठिरप्रभृतयो श्यावद्भवान भूपते !,
नैकेनापि समं गता वसुमती मन्ये त्वया यास्यति ||२||
एतत्साहसं दृष्ट्वा ताभ्यां छन्नं गृहे नीत्वा कृपया भूमिगृहे स्थापितः लेखमुञ्ज हस्ते ऽर्पितः मुजेन लेखो वाचितः । ततो वज्राहत इवाभूत् प्राह च - मया मुधा एवंविधो विनीतो भक्तो भोजो मारितः । ततो राजा मर्त्तुं समुत्सुकोऽभूत् । प्राह च यदा भोजोऽत्र जीवन्नेति सदाहं जीवयामि तो चेन्मृत एव । ततस्ताभ्यां भोजः प्रकटीकृतः राजा हृष्टो भोजं मानयामास । ततो भोजस्यानिच्छतोऽपि युवराजपदवी दत्ता |
[ २७५
इति भोजजन्मपत्रिकासम्बन्धः ||४९९||
[500] अथ मुंजमरणस्वरूपे भोजराज्य प्राप्तिसम्बन्धः ।
तिलंगेशेन तैलपदेवराज्ञा वैरं जातं ततो राजा मुंजस्तं जेतुं यदा विचलिषुरभूतदा भोजेनोक्तमहं यामि तं जेतुं ।
मुखमणइ मृणालवर के मा कांई रोअंति । mayerrysोहरां बंधनभणी रोअंति ॥ १॥
१. याता दिवं भूपते ।
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मुंजोsar त्वं लघुरहं यास्याभि, ततो वारितो राज्ञा पुरोधसा भोजेन न तस्थौ । ततः प्रोक्तं भोजन स्वामिन् ? गोदावर्यास्तादवगेव युद्धं कार्य ततस्तद्वचोऽङ्गीकृत्य मुवाल । दैवयोगाद् गोदावरी परतटे गतः युद्धं मण्डितम् । तैलपदेवेन जितं मुझेोपि धृतः गुप्तिगृहे क्षिप्तः सर्वे हस्त्यादि सैन्यं गृहीतं तत्र विधवा मृगालवती दासीभवा भूपभगिनी जेमनादानाद् भक्तिं चक्रे मुञ्जस्य । इतो भोजेन स्वभ्रातृकर्षणाय तस्य यस्मिन् स्थाने मुखस्तिष्ठति 35 तत्र यावत् पुरादबाह्यतः सुरंगा दापिता अंतरातरा वाह्निका स्थापिता । मृणालवस्था मुञ्जस्य प्रीतिर्जाता, मुब्जनृपो मृणालवत्याः पुरो गाथां प्राह
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२७६ ]
प्रबन्धपञ्चशती पभणइ मुञ्ज मृणालवइ जुन्वण गयूमझूरिजइ ।
जइ सकरसयखंडि [वातोइ] कियतोइ जि मिट्टीभूरि [चूरि] ॥२॥ एवं प्रोक्त मुंज चलनं तया ज्ञातं तया च भ्रातुः पार्श्व प्रोक्तं । तैलपदेवस्ततो राष्टो मुंज शूलायां क्षेपयितुं पुरमध्ये भ्रामयामास गृहे गृहे भिक्षा याचते मुंजः कौटुम्बिकगृहे नीतः । 5 कौटुम्बिक प्रियया प्रोक्तं भिक्षाऽधुना कुतो दीयते । ततो मुंजः प्राह
धणवंती मम गव्वकरि [परकरिय रुआई] पिक विपद् दुरुआई।
चउदसई छहुत्तारां मुञ्जह गयागयाइं ॥३॥ तयोक्त
च्यारि बन्ला धेनु दोइ मिठाबोली नारि ।
काहुं मुञ्ज कुटुम्बीह, गयवर बाऊई वारि ॥४॥ 10 ततो मुंजो[5]वग
गयगयरहगयतुरयगय [मेय] पायक्कडानि भिच्च ।
सगट्ठियकार १भामणउं महंता रुदा इव ॥५॥ यतो रुद्रादित्येन वारितोऽहं तैलपं जेतुं चलितः । तत्कथितमपि न कृतं । ततो मुंजः प्राह खियां विश्वासो न कार्यः ।
सउ चित्तह सट्ठी मणह पंचासहाहि आइं ।
२अम्मीतेन रटदसीजे वीससी आती असती आह ॥६॥ झोली टिवि किं न मंउ कि नवि हिणउ ठार] हूउ बारह पुंज!
घरि घरि मुञ्ज भमाडीइ जिम-मंकडा-तिम-मुञ्ज ॥७॥ शूलाक्षिपावसरे प्राह
लक्ष्मीर्यास्यति गोविंदे वीरश्री:रवेश्मनि ।
गते मुजे यशःपुजे ३निराधारा सरस्वती ॥६॥ इतरजनवाक्यानि
छडिवि पिम्म गहिन्लपिअ जे दास हि रव्वति ।
ते मुंजाल नरिंद जिम परभव घणा सहति ।।९।। 25 चित्त विसाय न आणीइ रयणायर गुणमुञ्ज ।
जिम जिम वायइ [चपइ] विविहि पडह तिम तिम निमंचिइ] नच्चइ मुज ॥१०॥ १. मंतणओ । २. अम्हे वे नरढाढसीये, वीससिया त्रियाह । ३. निरालम्बा ।
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चतुर्थोऽधिकारः
[ २७७
मुजः प्राह--
अट्ठोसर सुबुद्धिही रावण तणइ कपालि ।
एकबुद्धि न सांपडी लंका भंजणकालि ॥११॥ इत्यादि पराभवपूर्व मुजः शूलायां क्षिप्तः । ततो भोजो मुजं मारितं श्रुत्वा अतीव दुःखी जातः । ततो मंत्रिभिः शोक उत्तारितः। ततो राज्ये नोपविशति भोजः । ततो 5 मंत्रिभिर्यलात्मुअपदे भोज उपवेशितः ।
इति मुञ्जमरणस्वरूपभोजराज्यप्राप्तिसम्बन्धः ॥५०॥
[501] अथ पद्यद्वयपठन भोजसम्बन्धः । एकदा एको विप्रः पुराबहिर्देहवि[चिं]तायै गतः । तदा एको वृषः शंडो वृक्षं स्कन्धेन वर्षयति । पुनः कर्णों उत्पाट्य विलोकयति च तदा विप्रेणोक्तम् घसा घसावइ किं रे मारिसि, 10 कान टहरी टहरी जोइं छई किं नासिसिरे । एतच्छ्रुत्वा शंडो नष्टः। ततः स विप्रः स्वकृतं पदद्वयं भूपाने प्राह शंडागमनं च । ततो राज्ञा सहस्रं द्रम्माणां दत्वा तस्मै तस्मात् पदद्वयं गृहीतं अत्रान्तरे वैरिणा भूपेन नापितः कलावान सुकुमालहस्तोऽगमदनकुशलो भोजमारणाय प्रहितः स च भूपस्य मिलितः वयं तं मत्वा भूपेन रक्षितः भूपस्य शरीरे संवाहनां करोति । एकदा राजा सुप्तस्तदा स मुहूतमेकं राज्ञः पदयोः संवाहनां कृत्वा भूपं हन्तुं क्षुरकं तेजयति पुनर्भूपस्य 15 संमुखो भूत्वा कौँ दत्वा विलोकयति सचिन्तः। राजा तं तथाविधं कमकुर्वाणं दृष्ट्वा प्राह
"घसइ घसावइ किं मारिसि रे कान, टहरी टहरी जोइ छई किं नासिसिरे ?"-एतदुक्तं भूपस्य श्रुत्वा स नापितश्चकित आत्मकृत्यं ज्ञातं विंदन भूपस्य पदोः पतित्वा प्राह-अहमभाग्यवान् यत्वं हन्तुं वांछितो मया, राज्ञोक्तं किं त्वया हन्तुं वांछितः अभयं दत्तं ? ततः स नापितः प्राह अहं चंद्रभूपेन, त्वां हन्तुं प्रेषितः त्वयाह ज्ञातः । ततो राजा तं विसयं तं वैरिणं जिगाय। 20
... इति पद्यद्वयपठनभोजसम्बन्धः ॥५०१॥
[502 ] अथ स्त्रीचरित्रे भोजमोदकपरिवेषणसम्बन्धः । भोजस्य भूपस्य शतपत्नीषु एका पत्नी भोजाभीष्ठापि गोविंदविप्रे लुब्धाऽभूत् । राज्ञान्यदा रात्रौ नक्तचर्यायां भ्रमता सा पत्नी अन्यपुरुषपार्श्वे सुप्ता दृष्टा । तदा अभिज्ञापनाय पंडितस्य विप्रस्य वेणी छिन्ना शनैः, यतो अवध्यः । उन्निद्रः पण्डितो वेणी छिन्नां वीक्ष्याचिन्तयत् राझाहं 35 झातः परमभिन्नानायेदं कृतं । ततः स तत्क्षणादुत्थाय सर्वेषां पण्डिताना वेणी छिन्नवान् प्रातभूमुजः सभायां सर्वे पण्डिताच्छिन्नवेणीकाः स्थगितशीर्षा राज्ञः पार्श्वेऽभ्येत्याशीर्वादं ददुः । राजा तु सर्वेषां वेणींच्छिन्ना वीक्ष्य सम्यग निश्चयं न चक्रे । ततः कौतुकीनृपः सर्वान् पण्डितान न्यमन्त्रयत्
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पंच पंच प्रदीयन्ते किमत्र दश मोदकाः । भोजराजो न जानासि स्त्रीचरित्रं न विश्वसेत् ॥ १॥
ततो राजा तां पत्नीं तत्याज, पण्डितस्त्ववध्यो निजदेशात् कर्षितः ।
इति स्त्रीचरित्रे भोजमोदकपरिवेषणसम्बन्धः ||५०२||
[508 ] अथ मुग्धविप्रतारणे द्विजसम्बन्धः ।
मरुस्थल्या एकस्मिन् ग्रामे उद्वाहे चतुरिकास्थाने कपसग्रहणाय रुतकोत्थलकचतुष्कं मंडापितं द्विजेन ! वरकन्ये तत्रायाते यदा तयोः परिणायितुं द्विज उपविष्टो गुज्जरस्तदान्यस्तत्रागतः । 10 कौतुकं तासं दृष्ट्वा प्रोवाच "आश्रय दृष्ट्रा [दृष्टं] कपसेवेहा" तदा तत्रस्थो द्विजो जगौ - "मौनं कर्त्तव्यं अर्द्ध अद्धि स्वाहा " एवं प्रोच्य [ प्रोक्त्वा ] तयोर्वरकन्ययोः पाणिग्रहणं कारितं । ततो द्वाभ्यां रुतं विभज्य गृहीतं ।
इति मुग्धविप्रतारणे द्विजसम्बन्धः ||५०३ ॥
[504] अथ मालतीकुसुमं भातीत्यादि अंधपदद्वयकरणसम्बन्धः ।
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२७८ ]
प्रबन्धपञ्चशती
सर्वे जेमिमुपविष्टाः । राशीं प्रति प्राह मोदकाम परिवेषय पंच पंच । ततः सा मोदकान् परिवेषयन्ती स्वाभीष्टं पण्डितभाजने दश मोदकान् मुमोच । ततो बुधोऽबग्---
20
5
एकदा भोजराजा सपरिच्छदो बहिरुयाने गतः । रसंतं मालतीपुष्पस्थितं शिलीमुखं वीक्ष्य भोजः प्राह---
मालतीकुसुमं भाति मञ्जुगुंजन्मधुव्रतम् ।
भूपोक्तं श्रुत्वा एको वृक्षान्तरस्थः पुमान् विशः प्राह
२ पृथिव्यां पंच बाणस्य शंखमापूरयन्निव ||१|
प्रत्युत्तरपदद्वयं श्रुत्वा राजा चमत्कृतः मेदिनीशः स्वावासं समागतः । प्रभाते लोके सभायां कथिते सति पण्डितैः सर्वैः व्याख्यातः । ततः सीता पंडिता जग अग्रेतनपयद्वयमंवेन कृतं । राजा प्राह- पंडिते ! त्वयैवं कथं ज्ञायते ? सा प्राह-शंखंस्य पूरणं वक्त्राज्जायते गुंजारवस्तु पक्षिभ्यो जायते, द्विरेफाणां विज्ञोप्यंधो नर एवं न वेत्ति यतः ततस्तत्र गत्वा तस्य विज्ञस्यान्धस्य पार्श्वे प्राह राजा, "त्वया कृतं पदद्वयं दूषितं विद्यते " [विज्ञ प्रा] मत्कृतं काव्यं रंडया 25 विना कोऽपि न दूषयति । ततो विशेषतो राजा चमत्कृतो द्वयोरपि भूरिधनं ददौ ।
इति मालतीकुसुमं भातीत्यादि अंधपदद्वयकरणसम्बन्धः ||५०४ ॥
१. मालतीमुकुले भाति । २. प्रयाणे ।
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चतुर्थोऽधिकारः
[२७९ [ 505] अथ दाने आपदर्थे धनं रक्षेदित्यादि सम्बन्धः । भोजभूपः श्रियाश्चंचलत्वं वीक्ष्य यदा बहुदानं ददन्नभूत् सदा रोहितो मन्त्री दध्यो । राना कोशं धनरिक्तं स्तोक दिनैः करिष्यति अत उपायेन वार्यते । ततचित्रशाला भारपट्टे रहः पदं लिलेख
__"आपदर्थे धनं रक्षेत्"-प्रभाते भूपः पदं दृष्ट्वा मंत्रिलिखितं ज्ञात्वा तत्रैव लिलि[ले]ख- 5 "भाग्यभाजः क्व आपदादिः राज्ञा द्वितीयं पदं लिखितं ज्ञात्वौ तृतीयपदं तत्रैव पुनमन्त्रिणालिखितं-"देवं हि कुप्यति कापि"-राजा तत्पदमपसार्य लिलेख-"संचितोऽपि विनश्यति" ।
ततो राज्ञो मनो दाने संसक्तं ज्ञात्वा मंत्री क्षमयामास [उक्तं च त्वं भाग्यवानसि यत एवं विधं दाने मनस्तव । ततो राजाहि] रुष्टो दानं दत्ते । इति दाने आपदर्थे धनं रक्षेदित्योदिसम्बन्धः ॥५०॥
10 [506 ] अथ नष्टं नष्टं नष्टं नष्टमिति सम्बन्धः । एकदा भोजभूपसभायाः समीपस्थवटशाखायामुपविश्य शुकः प्राह-"नष्टं नष्टं नष्टं नष्टं" अस्य पदस्यार्थः सर्वेषां पण्डितानां पार्श्व भूपेन पृष्टः केनापि न झातो विलोकितोऽपि भृशं । तच विद्वत् कुटुंबेनार्थः प्रोक्तः इति । प्रथमं द्विजः प्राह “(१) कुभोजनात् दिनं नष्टं" । पत्नी प्राह "(२) भार्या नष्टा कुशीलिनी" । पुत्रः प्राह "(३) कुपुत्रेण कुलं नष्टं"। पुत्रपत्नी प्राह 15 "(४) तन्नष्टं यन्न दीयते ।" ततो राजा विद्वद् कुटुम्बाय लक्षं ददौ ।
इति नष्टं नष्टं नष्टं नष्टमितिसम्बन्धः ॥५०५॥
___ [507] अथ भोजकृतदानार्थसम्बन्धः । दानेन सर्व वशीभवति इति-ज्ञापनाय भोजनरेन्द्रोऽन्यदा आर्याचतुष्कं रचयामास। इदमंतरमपकृतये, प्रकृतिचला यावदस्ति संपदियं ।
20 विपदि नियतोदितायां, पुनरुपकर्तुं कुतोऽवसरः ॥१॥ निजकरनिकरसमृद्धथा धवलय भुवनानि पार्वणशशाङ्क । सुचिरं हंत न सहते हतविधिरिह सुस्थितं कमपि ॥२॥ अयमवसरः सरस्ते सलिलैरुपकर्तुमर्थिनामनिशं । इदमपि सुलभमंभो भवति पुरा जलधराभ्युदये ॥३॥
35 १. नियतोदयायो ।
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२८. ]
সম্বন্ধনী कतिपयदिवसस्थायी पूरी दूरोन्नत्तोऽपि भविता ते ।
तटिनी तटद्रुपातिनी-पातकमेकं चिरस्थायि ॥४॥ इति आर्याचतुष्टयं कंकणे लेखयित्वा सर्वे पण्डिाताना हस्ते बंधयामास ।
यदनस्तमिते सूर्ये न दत्तं धनमर्थिनां । [ते] तद्धनं नैव जानामि, प्रातः कस्य भविष्यति ॥५॥
इति भोजकृतदानार्थसम्बन्धः ॥५०७॥
[508 ] अथ जानुदघ्नं श्रुतिदानसम्बन्धः । एकदा भोजराजा राजपाटिकायां बहिः क्रीडां कृत्वा नदी तीरे समागतः । उत्तीर्ण नदीजलं विप्रं मस्तकदत्तं काष्टभारं वीक्ष्य प्राहेति
-कियन्मानं जलं ? विप्र ! द्विजः प्राह प्रत्युत्तर--जानुदघ्नं नराधिप । राजाऽवग-ईद्दशी किमवस्था ते ? [ कथं सेयमवस्था ते ?] द्विजः प्राह--न सर्वत्र भवादृशाः । तस्य चातुर्य अवस्था च दृष्ट्वा चमत्कृतो भूपौ तस्मै धनं दापयामास ।
लक्षं लक्षं पुनर्लक्षं, मत्ताश्च दश दंतिनः । दसं [श्री भोजराजेन] भोजेन तुष्टेन, जानुघ्नप्रभाषिणे ॥२॥
इति जानुदघ्नं श्रुतिदानसम्बन्धः ॥५०८॥ [509] अथ “यदेतत् चन्द्रान्तर" इति काव्यसम्बन्धः । एकदा रात्रौ भोजराजा चन्द्रं दृष्ट्वा पपाठ
यदेतत् चन्द्रान्तर्जलदलवलीलां प्रकुरुते ।
तदाचष्टे लोकः शशक इति नो मां प्रति तथा ॥१॥ तदा भूपगेह [अधोभूमौ क्वनीवाला स्थितश्चौरो विज्ञो भूपोक्तपदद्वयं । श्रुत्वा प्राहः
अहंत्विन्दुं मन्ये, त्वदरिविरहाक्रान्ततरुणी
कटाक्षोल्कापातव्रणशतकलंकाङ्किततनुम् ? ॥२॥ ___ अत्वैतद् राजा चमत्कृतस्तं स्तेनं धृत्वा चाभयदानं दत्त्वा पप्रच्छ । कोऽसि त्वं किं स्तैन्यं कर्तुमायातः ? ततः स स्तेनो जगौ-अस्मिन् पुरे कृष्णविप्रपुत्रोऽहं चंद्राः पित्रा सर्वाणि शास्त्राणि पाठितः परं गेहे तन्नास्ति यत् भुज्यते । ततः सर्व कुटुम्ब दुःखितं जातं । १. तद्रुम पातन पातकमेकं ।
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चतुर्योधिकारः
[ २८१ पञ्च नश्यन्ति पञ्चावि ! क्षुधातस्य न संशयः ।
तेजो लज्जा मतिर्ज्ञानं मदनश्चापि पञ्चमः ॥३॥ तेन मयोदरपूर्ति हेतोश्चौर्य कर्तुमारब्धं । राझोक्तं स्वयातः परं स्तैन्यं न कार्य नरकहेतुम् । मोऽवग-कुटुम्ब मरिष्यति मम । ततो नृपस्तस्मै दानं दापयामासेति ।। अमुष्मै चोराय प्रतिनिहितवृत्यै प्रतिमिये,
प्रभुः प्रीतः प्रादादुपरितनपादद्वयकृते । सुवर्णानां कोटीर्दशदशनकोटिक्षतगिरीन् ,
___ करीन्द्रानप्यष्टौ मदमुदितगुञ्जन् मधुलिहः ॥४॥ ततस्तेन स्तेनेन चोर्यकरणे नियमो गृहीतः । ततो राजा दानगर्व दधानं ज्ञात्वा .. विक्रमार्कदानवहिका दर्शयामास
10 वक्त्राम्भोजे सरस्वत्यधिवसति सदा शोण एवाधरस्ते,
बाहुः काकुत्स्थवीर्यः स्मृतिकरणपटुर्दक्षिणस्ते समुद्रः। वाहिन्यः पार्श्वमेताः कचिदपि भवतो नैव मञ्चंत्यजस्र'३ ,
स्वच्छान्तानसं ते कथमवनिपते काम्बुपानामिलापः ॥५॥ एतत् काव्यं कविपार्वे श्रुत्वा दानं ददौ तस्मै । .
श्रुत्वेतद् विक्रमादित्यस्तस्मै पंडितमौलये।
माघायाप्टौ सुवर्णानां कोटिर्दापितवान् मुदा ॥६॥ एतत् दृष्ट्वा राजा गर्व तत्याज।।
इति यदेतच्चंद्रांतरितिकाव्यदानसम्बन्धः ॥५०९॥
[510] अथ पुनमलक्षदानं शीतोद्भुषितदानसम्बन्धः । अन्यदा राजा रात्रौ शीतकंपितं नरं दृष्ट्वा प्रपच्छ कि कंपो विधीयते, स पाह--
शीतेनोद्धषितस्य माषफलवचितार्णवे भज्जतः ।
श्शीतोग्निः स्फुटिताधरस्य धमतः भुत्क्षामकुक्षेमेम ।। १. मृत्युप्रतिभये । २. क्षणमपि । ३. अभीक्ष्णं । ४. स्वच्छेऽन्तर्मानसेऽस्मिन् कथमबनिपते तेम्बुपानाभिलाषः । ५. शान्तोऽग्नि । ६. स्फुरिताधरस्य ।।
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२८२ ]
5
धारयित्वा त्वयात्मानमहो त्यागधनाऽधुना । मोचिता बलिकर्णाद्याः सच्चेतो गुप्तिवेश्मनः ॥२॥ पुनर्हेमलक्षदानं शीतोद्धुषितदानसम्बन्धः ॥५१० ॥
[511] अथ लक्षदाने रौरः सम्बन्धः ।
राजा राजमार्गे रौरं कणान् विचिन्वन्तं वीक्ष्य भोजस्तं प्रति प्राहनिय उअर पूरणमि असमत्था किंपि तेहिं जाएहिं ।
10 [ रौरोऽवग् - ] सुसमत्था विहु, जे नय उवयारिणो तेहिं विन किंपि ॥ १ ॥
भोजोऽवगू
15
20
प्रबन्धपत
निद्रा काप्यपमानितेव दयिता संतज्य दूरंगता, सत्पात्रप्रतिपादितेव कमला न१ क्षीयते शर्वरी ॥१॥ श्रुत्वैतत्तस्मै हेमकोटीर्दश दापयामास राजा, स च प्राह
पर [प] स्थापणं मा जणणि जणेसु एरिस पुरिसं [ पुषं ] | [रौरः प्राह - ] मा ऊअरेसु धरिज्जसु [व] पत्थिअणं भंगो कओ जेहिं ॥ २॥ [ ततः प्रसनीभूतेन भोजेन तस्मै लादानं ददौ । ]
इति लक्षदाने रौरसम्बन्धः ॥ ५११॥
[518 ] अथ अंत्रा तुष्यति श्लोकसम्बन्धः ।
एकदा भूपः एकस्य गृहे कुटुम्बं कलहं कुर्वाणं दृष्ट्वा पप्रच्छ-किमेवं कलिः क्रियते
तदा स प्राह-
१. नो ।
अंबा तुष्यति न मया न स्नुषया साऽपि नांबया न मया । अहमपि न तया न तया वद राजन् कस्य दोषोऽयं ॥ १ ॥
ततो राज्ञा कलिस्वरूपं पृष्टं सोडवग्- भीमो विप्रः भीमा पत्नो तयोरहं कमलः पुत्रः मम पत्नी पद्मा, परं गृहे दारिद्रं तेन धनाभावात् सदा कलहो भवति अतो मया न तुष्यति अहं न मात्रा इत्यादि । ततो राजा "अंबा तुष्यति” श्लोककथकाय लक्षदानं [ददौ ] इति अंबा तुष्यति श्लोकसम्बन्धः ॥५१२||
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प्रबन्धपञ्चशती
[२८३ [513] अथ माणुसडां दस दस हवइ सम्बन्धः । एकदा राजा एकां स्त्रियं दु:खिनी दुःस्थौ दृष्ट्वा प्राह-किमीदृशी अवस्था ? लक्ष्मीन ते ?
सा प्राह
5
१माणुसडां दस दस हवइ देवेहि निम्मिवी {दी] आई ।
मज्झकं तेह एकहि दसा, नव चोरे हरी आई ॥१॥ ततो राजा बोजपूरमध्ये लक्ष्यमूल्यरत्नद्वयं झिप्त्वा तस्यै दापयामास । तया ध्यातमनेन भक्षितेन किं, विक्रीय धान्यमानीयते । ततो वणिजे ददे, तेन च सार्थवाहाय, सोऽपि प्राभृतीचकार भूपाय । भूपो बीजपूरमुपलक्ष्य प्राह
हेला महल्ल कल्लोल पिल्लिअं जइवि गिरिनई पत्तं । अणुसरइ मग्गलग्गं पुणोवि रयणायरे लग्गं ॥२॥
10 ततो राजा तां स्त्रियमाकार्य रत्नव्यतिकरं कथयित्वा प्राह
यच खयोक्तं 'मम भर्तुरेकैव दशा' सत्या बोअपूरमध्ये रत्नादर्शनात् । ततो राज्ञा बहुधनं कृपया दापितं ।
इति माणुसडां दस दस हवइ इति संबंधः ॥५१३॥
[514 ] अथ क्रीडाचंद्रछान्दसब्राह्मणागमनसम्बन्धः । ___एकदा परदेशात् क्रोडाचन्द्रकविभांजस्य मिलनायागात् । राना सभायामुपविष्टः । पण्डिताः सर्वे मिलिताः । क्रोडाचन्द्रकविस्तत्रागतः । आशीर्वादं ददौ
बल्यरिक्रत्वरी पातां सांबु व्यम्बु घनोपमौ ।
सदृशौ काकषकाभ्यां तवैहतु तवैह तु ॥१॥ बलेः परिः कृष्णः इति बल्यरिः । क्रतो अरिः इति त्वरि (शंकरः) । बल्यरिश्च क्रत्वरिश्च इति बल्वरिक्रत्वरी (कृष्णशंकरौ) अम्बुना सहितः सहशो वा इति साम्बुः । विगतं अम्बुः इति व्यम्भुः। सांबुव्यम्बुश्चासौ घनश्च इति साम्बुव्यम्बुघनः, तदिव उपमा ययोस्तौ तवैहतु (तवेप्सितं)। 20 ततो मुख्यपण्डितोऽवग् वर्षाकालो वर्ण्यताम्
वर्षाकाले प्रणाले खलह [ख] लमुदकं याति खाले विशाले । चिक्खिन्ले लिप्सयित्वा खडहडपडीओ लंबर गुडो मणुस्सो ॥ चुल्लीं गेहस्स३ मज्झे खर खर खनते कुकरो घुघुरंतो ।
सुन्नागारस्स मज्झे टहरित करणो रासभो रारटीति ॥२॥ १ माणुसडा दस दस दसा सुणियइ, लोयपसिद्ध, मह कन्तह इक्क ज दसा अवरि ते चोरहि लिद्ध। २ लंबगुंडो मनुष्यः । ३ गेहस्य मध्ये ।
15
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10
२८४ ]
प्रबन्धपश्चाती ततस्तैः पंडितैरुक्तं सीता पंडिता वर्ण्यता, सतः क्रोडाचंद्रेण गणितेति। सीता पंडितासीता सुरूपा तरुणी-रुणी-रुणी,
मुखं च चंद्र-प्रतिम-तिमं-तिमं । स्तनौ च पीनी कठिनौ-ठिनौ-ठिनौ,
कटिविशाला-रमसा-मसा-मसा ||३|| ततो हसितं सर्वैरहो कवित्वमस्य । ततः पुनः क्रीडाचंद्रस्तेषां मदोचारणार प्राह आशीर्वाद।
च्युतां चान्द्री लेखां रतिकलहमग्नं च वलयं, द्वयं चन्द्रीकृत्य प्रहसितमुखी शैलतनया । अवोचधं पश्येत्यवतु स शिवः सा च गिरिजा,
स च क्रीडाचन्द्रो दशनकिरणापूरिततनुः ॥४॥ तनो नृपेण दत्ते सिंहासने क्रीडाचन्द्रोपवेशाय, पंडिताः प्रोचुरस्य भूमिरेव दीयतामुपवेशाय । ततः क्रीडाचन्द्रोऽवग
इह निवसति मेला शेखरो भूवरामामिह हि निहितमारा] निवसति लोकः सागराः सप्त वैते, इदमतुलमनंतं भूतलं भूरि भूभृत् ।
भर भरणसमर्थ स्थानमस्मविधानाम् ॥५॥ ततः सर्वे चमत्कृताः । ततः पुनरपि वर्षावर्णनं दत्तं, स चाह
नृत्यदर्हिषि दुर्दरारवपुषि प्रक्षीणपांथायुषि, पंचदिप्रुषि [च्योतद्विभुषि] चन्द्ररुगयुषि सखे हंसद्विपि प्रावृषि । मा मा मुंच कुचाग्रसन्ततपतद् बाप्पाकुला' [विगलवाष्पाकुला] व कां,
काले कालकरालनीलजलदव्यालुप्तसूर्यविषि भास्वस्विपि] ॥६॥ तदा पग्डिवैरत्तरार्द्ध दूषितं । ततस्तेनार्थः सम्यग् व्याख्यातः । पुनः वर्षा वर्णिता:
दिशां हाराकाराः शमितशमभारा [श्व शमिना] इव मुने,26
रशुची संचारा कृतमदविकाराश्च शिखिनां ।
१. विवसाामाकुलां । २. जास्वविषि ।
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चतुर्थोऽशिकारा
[२८५ हृताध्वव्यापारास्तुहिनकपसारा विरहिकी,
मनः कीर्णागाराः किरति जलधारा जलधरः ।।७।। ततः क्रीडाचन्द्रः सर्वाणि काव्यानि व्याख्यायामास । राजा चमत्कृतः भूरि दानं ददौ । श्रीराचन्द्रं कवि मान्यमानं दृष्ट्वा वेदविदो विप्रा ईर्ष्यापराः क्रीडाचन्द्रं जेतुं रानद्वारे समागताः।
बामणा गषका वेश्याः, सारमेयास्तपोधनाः ।
परस्परं विस्वयन्ति, न जाने तत्र कारणं ॥८॥ बता प्रतीहारो विजानामागमनं भूपपार्क प्राहेति--
राजमाषनिभर्दन्तः कटिविन्यस्तपाणयः ।
तिष्ठन्ति द्वारि राजेन्द्र छांदसा श्लोकशत्रवः ॥९॥ राणाकारिताः सभामध्ये समागताः । भूपोऽवग्-वर्ण्यतां चन्द्रोदयः। ते जगुचिरं विमृश्येति
चन्द्रोदयस्य माहात्म्यं, वर्ण्यते किमतः परं ।
भोत्रियोपि दिवा भ्रांत्या, मूत्रयत्युचरामुखं ॥१०॥ नतो द्वितीयेन्दुषणितुमर्पितः ततस्ते चिरं परस्परं कर्णयोर्लगित्वा लगित्वा प्रोचुः
अयं चंदो वट्टलउ मंडकाकारसुन्दरः ।
सोहेइ मणं मोहइ अहं तुम्हें न संदेहो ॥११॥ सभा हसिता । ततो राजाऽवगू यूयं मुधा विज्ञानामुपरि गर्व तनुता, भवतां वेदभणनेऽधिकारः, ततः कृपया दानं दत्तं तदा क्रोडाचन्द्रो भूपोकमश्वं वणेयामास ।
पादाः कन्दुकवत् स्थितिश्च गिरिवत् , संस्फालनं सिंहवत् । नेत्रे नीरजवत् , जवः पवनत् , हेपारवो मेषवत् ॥
20 विन्यासस्तटवत् मुखं कुलववधूक्त्रंदुवत् वाजिनः । शोणीशस्य वशत्वमेव नृपते, साम्राज्यमुर्वीपतेः ॥१२॥ इति क्रीडाचंद्रछांदस ब्राह्मणागमनसम्बन्धः ॥५१४॥
[516 ] अथ विद्वत्कुटुम्बसम्बन्धः । विद्वतकुटुम्बकं स्वस्थानात् भोजपावं गन्तुं मार्ग चचाल यदा सदैको बुधः प्राह मियः। 25
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२८६ ]
प्रबन्धपती
विद्वन् वद क चलितोऽसि समविद्या,
. पारंगमं कलयितुं किल भोजराजं । वेत्त्यक्षराणि न हि वाचयितुं स राजा,
मद्य ललाटलिखितादधिकं ददौ यः ।। ततो हृष्टं अवन्तीसमीपे गतं । तत्र कुटुंबं मुक्त्वा पुरोमध्ये गन्तुं विद्वान् चचाल । रजक __वस्त्रं झालयन्तं प्रति प्राह सः-अस्मिन् पुरे का का वार्ता, कीहक पुरं विद्यते, स रजको जगौ ।
अश्वा वहन्ति भवनानि सतोरणानि, गावश्चरन्ति कमलानि सकेसराणि ।
पीतंर दधिर्नास्ति तिलेषु तैलं, प्रासाद, गेषु२ मृगाश्चरन्ति ॥१॥
विद्वान् दध्यौ रजकोऽपि विज्ञः ततोऽग्रे पुरद्वारे बालिका पृष्टा तेन, त्वं कस्य पुत्री ? 10 साऽवग
मृतका यत्र जीवंति निःश्वसंति गतायुषः । स्वगोत्रे कलहो यत्र तस्याहं कुलबालिका ।।२।।
___ (लोहकार-पुत्री) ततो दक्षिणद्वारे बालिकैका मिलिता पृष्ठा तेन, त्वं कस्य पुत्री, सा प्राह
पर्वताग्रे रथो याति भूमौ तिष्ठति सारथिः । चलते वायुवेगेन तस्याहं कुलबालिका ॥३॥
(कुम्भकार-पुत्री) स चमत्कृतः पश्चिमद्वारे पूर्ववद् बालिका पृष्टाऽवग
सस्नेहा यत्र निस्नेहा भ्रमति भ्रमवर्जिताः । त एव स्नेहदा लोके तस्याहं कुलबालिका ॥४॥
(चाक्रिकस्य-रथकारस्य पुत्री) उत्तरदिक बालिका पृष्टा घटे किमस्तिमदः प्रमादः कलहोऽतिनिद्रा, विवेकविज्ञानकलाक्षयश्च । महत्त्वकीर्तिक्षतिरर्थनाशो, ऽसत्यं दोषगणो घटेऽस्मिन् ॥५॥
(मदिरा३) १. पीतं च यत्र दधि, (२) प्रासाद वारशिखरेषु । ३. विहिता निविषा नागा, देवाः पक्तिविजिताः । द्रुमाच्छायाविहीमाच, तस्याहं कुलबालिका । (असि-पुत्री)
ग्रीवा नास्ति, शिरो नास्ति, हस्ती कार्यविजितौ । स जीवो मानुषं खादेत, तस्याहं कुलबालिका (किंपाकफलम् ) इत्यपि क्वचित् ।
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चतुर्थोऽधिकारः
[ २८७ एवं स्थाने स्थाने बुधान् जनान वीक्ष्य सायं बुधः स्वकुटुम्बपाश्र्वे समागात् , रात्री वाटिकायां स्थितो, वाटिका पल्लवितां दृष्ट्वा मालिको हृष्टो भूपपावें विद्वत् कुटुम्बागमनं प्राह । ततो राज्ञा स्वं पंडितं विद्वत्कुटुम्बपरीक्षायै प्रेषयामास । स च भिक्षुर्भूत्वा तत्र गत्वा प्राहभिक्षा मे पथिकाय देहि सुभगे [ पुत्रपत्नी प्राह] हा हा गिरो निष्फलाः । [भिक्षुः प्राह] कस्माद् ब्रूहि सखे विभपत्नी प्राह] प्रसूतकमभूत् [भिक्षुःजगौ] कालः कियान् वर्तते।। 5 [पुत्रोऽवग्] मासः, [भिक्षुः प्राह] शुद्धिरभूत् [पन्योक्तं] न शुद्धथति विभो प्रोद्भूतमृत्युं विना । [भिक्षुः शह] को जातो [तयोक्तं] मम सर्व विसहरणो दारिद्रनामा सुतः ॥६॥ ___भिक्षुश्चमत्कृतोऽवम् भो पण्डित ! तव कुटुम्ब विद्वत्, शेषाः परपरिप्रहाः गोशतादपि गौक्षीरं, मानं मूढशतादपि मन्दिरे मंचकस्थान शेषाः [पण] । .......
ततः स भूपपंडितः प्रकटीभूय प्रशशंस । अहं युष्माकं परीक्षा कर्तुमागा ततो विद्वत्- 10 कुटुंबं भूपतेमलितं भूपतिस्तेषां वचनाद् हृष्टः प्राह अस्य वासाय गृहं दाप्यता । ततः स भूपभृत्यो विद्वत् कुटुम्बवसनाय प्रथमं लुब्धकगृहे गत्वा लुब्धकपल्या अग्रे प्राह-यूपमन्यत्र वसथ, अत्र विद्वत् कुटुम्बं स्थास्यति । लुब्धकपत्नी-एतदेव विद्वत् कुटुंबं विद्यते ? अहमपि वक्तुं जानामि । ततः सा मांसपिण्ड हस्ते लात्वा भूपपार्श्व गता। प्रत्युत्तररूपं काव्यं जिजल्पिषुरवादीतू
देव ! त्वं जय कासि लुब्धकवधर्हस्ते किमास्ते? पलं । क्षामं किं सहजं ब्रवीमि नृपते यद्यस्ति ते कौतुकं ॥ गायंति स्वदरिप्रिंयाश्रतटिनी-तीरेषु सिद्धांगना ।
गीतान्धा न चरंति भोजहरिणास्तेनामिषं दुर्बलं ॥७॥ ततस्तंतुवायगृहदापितं तंतुवायोऽपि--
काव्यं करोमि न च चारुतरं करोमि, यत्तत्करोमि न च२ शुध्यति किं करोमि, | भपालमौलिमणिचुम्बितपादपीठ,
श्रीभोजराज कवयामि वयामि यामि ॥८॥ ततो राझोक्तमन्यद् गृहं दीयता पण्डितोऽवग पुरमध्ये सर्व विद्वांस एव विद्यन्ते । अत्रान्तरे 25 एको विप्रः प्राह-एतद् विद्वत्कुटुम्बकं न वेत्ति किमपि, यतः
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१. किमेतत् । २. सियात, ३. मालिट, ४. श्री साहसाङ्ग,
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२८८]
प्रबन्धपाशती प्रावणबातिरनीलुिर्वणिगजातिरवंचकः ।
प्रियाजातिरनीर्ष्यालुः शरीरी च निरामयः ॥९॥ __ ततः "श्रीपुंवर" प्रभवतीत्यादिजल्पकदेवताधिष्ठितं गृहं शून्यं तस्य वासाय दत्तं । यदास तत्र गत्वा रात्री स्थितो बुधः तावत्स यमः प्रत्युत्तरप्रदानाय काव्यस्य आद्यं प्राह
मी पुवच ! प्रभवति यदा तस्य गेहं विनष्टं । वृद्धो यूना ? सह परिचयात् त्यज्यते कामिनीभिः ।। सर्वस्य दे? सुमतिकुमती२ पूर्वकर्मानुचीयर्थे ।
एको गोत्रे ! स भवतु पुमान् यः कुटुम्ब बिभर्ति ॥१०॥ चतुषु प्रहरेषु काव्यं निष्पन्नं । यक्षो हृष्टस्तद्गृहं तत्याज । विद्वत्कुटुम्ब तत्रोवास ।
इत्यादि विद्वतकुटुम्बसम्बन्धः ॥५१५।।
[616 ] अथ नवीनधारा स्थापनसम्बन्धः । एकदा भोजो नवीनं पुरं स्थापयितुं वाँ भूमि ज्ञातुं पटहं वादयामास । एका धारावेश्या पटई स्पृष्ट्वा यानमारुह्य लंकायां गत्वा लंकास्थितिं विलोक्य पश्चादागत्य प्राह-यदि मनाम दीयते
तदाहं शूर भूमि दर्शयामि । ततो राक्षा मानिते तया भूमि दर्शिता। तत्र वेश्या नाम्ना नवीन 15 धारा स्थापिता वासिता भूपेन । इति नवीनधारास्थापनसम्बन्धः ॥१६॥
[517 ] अथ एकेन बूडतीति सम्बन्धः एकदा भोजसभायां एकः पुमान आयातः। स पृष्टः किं त्वयाश्चर्य दृष्टं ? म प्राह कांतीपुर्या एकेन महेभ्येन महत्सरः कारितं, बारिणा भृतं, एकं मस्तकं जलाभिर्गच्छति वक्ति च एकेन
बदति । ततो राजा पृष्टाः पंडिताः अर्थ न जानन्ति । ततो दूरे भ्रमन्नेकः पण्डितो मरुस्थल्या 20 गतः । तत्रैकस्मिन् ग्रामे वृद्ध पुं[सो मिलितस्तस्याने वार्ता कथिता। स प्राह एष श्वानो गृह्यता
तव लक्षद्रम्मान दापयामि । ततः स द्विजोऽनिशं स्नानकारी तं इवानं स्कन्धे वहति तत्र पुरे समायातः । ततो भूपेन स (पण्डितः) पृष्टः वृद्धः प्राह-लोभेनैकेन ब्रूडति । राझोक्तं कथं सोऽवग धनलोभेनानेन श्वानः स्कन्धे व्यूढः । ततो मस्तकं गतं राशः समीपात् लक्षं दापितं वृद्धेन
तस्मै ।इति एकेन बडतीत सम्बन्धः ॥५१७॥ 25
[518 ] अथ माषसम्बन्धः । श्रीमापुरे मुकुन्दपण्डितस्य पुत्रोऽभूत् ! जन्मोत्सवं कृत्वा वर्षशतमायुर्ज्ञात्वा षट्विंशति सहस्राणि दिनानि झात्वा तावत्संख्यानि नाणकहारकानि पुत्रस्यार्थे कृतानि दिनं प्रत्येकं हारं १. तद्धि २. संपदा पत्तिहेतू, ।
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चतुर्थोऽधिकारः
[ २८९
व्ययिष्यति । ततः पितरि मृते स सशिखं हारं व्ययन् वृद्धत्वे दरिद्रयभूत् स माघपण्डितः एक काव्यं भोजराजपार्श्वेऽप्रैषीत्
कुमुदवनमपनि श्रीमदंभोजखण्डं त्यजति 'मदमुलूकः प्रीतिमांचकवाका उदयमहिम रश्मिर्याति शीतांशुरस्तं, हतविधिललिताना ही विचित्रों विपाकः ॥६॥ अस्य काव्यश्रुतेर्भोजो नवनवतिलक्षान् ददौ । तदपि माघऔदार्यत्वाद् ददौ । इति माघसम्बन्धः ॥ ५१८ ||
,
[ 519 ] अथ धनपालश्राद्धभवनसम्बन्धः ।
10
अवन्त्यां लक्ष्मीधर विप्रस्य द्वौ पुत्रौ जातौ । एको धनपालो द्वितीयः शोभनः । एकदा तस्य गृहे यस्तो निहुकितो न लभते, तदा गुरुपार्श्वे निष्यप्राप्तिस्वरूपं कथितं लक्ष्मीधरेण । यदि मे निधिर्लभ्यते तदाह मेकस्य पुत्रस्य दीक्षां दापयामि । ततो गुरुणा दर्शितो निधिः । ततः शोभनस्य दीक्षा दापिता । शोभनो विद्वान् जातः क्रमात् पितरि मृते धनपालः पंचशत पंडितमध्ये मुरूयोऽजनि । स्वं भ्रातरं गुरुणा दीक्षितं श्रुत्वा मिध्यात्वग्रसितः साधून पराभवति । ततः साधवस्तत्र अवत्या पुरि न यान्ति ।
इतः एकस्मिन् पुरे गुरवः प्राप्तास्तदा गुरवः साधून् तीर्थ च स्मारयन्ति । अवंती नाम न गृह्णन्ति । तदा शोभनोऽवगू अवन्त्याः कथं नागतं ? गुरुभिः प्रोक्तं तव भ्राता दुष्टः साधूनां पराभवं 15 करोति । ततः शोभनो गुरूनापृच्छय अवन्त्य । स्वभ्रातुः प्रबोधायाचालीत् ।
t
१. मुद
ततोऽवन्त्या द्वारे यावन्गतः तावद् धनपालः संमुखो मिलितः । धनपाली हास्यात्प्राह, "गर्दभदंत भदंत नमस्ते ।" साधुः प्राह- मर्कटकास्य वयस्य ? सुखं ते । ततश्चातुरीं ज्ञात्वा धनपालोऽवग्, कस्य प्राघूर्णिकः ? 'साधुः प्राह तवैव । ततः स्वगृहे उत्तारितः धनपालेन गोष्ठि कृता । शोभनवचसा प्रीणितोsवम् - तव काप्यस्ति सांसारिक वर्गः । साधुः माहात्रैव । ततो धनपालेनोपलक्षितो भ्राता गृहे 20 विहर्तुमाकारयन् मोदका आनीता यदा तदा साधुना कस्मान्मक्षिका मृता दृष्टा, ततः प्रोक्तं, न कल्पन्तेऽमी । धनपालोऽवग् विषमस्ति ? साधुनोक्तं विषमत्र विद्यते । ततो ज्ञातं परंपरया वैरिक्षिप्तं विषं, दधि आनीतं । साधु प्राह कियद्दिनीयं । पंडितोऽवग, त्रिदिनीयं १ इदमपि न कल्पते बुधोऽवग् अत्र किं जीवाः सन्ति ? ततः साधुना आलक्तकं प्रदानात् श्वेताः सूक्ष्मजीवाः दर्शिताः । ततोऽन्यद् प्राकं आहारं ददौ । बुधो दध्यौ मया प्रन्था बहवो भणिताः परं न ज्ञाता जीवाः 25 कुत्रोत्पद्यन्ते । स धनपालः श्राद्धोऽभूत्सम्यकत्वं जग्राह । तदा शोभनभ्रातुः पार्श्वे शोभनपण्डितकृताः शोभनस्तुत्यादिप्रन्याबहवोऽन्ये च सिद्धान्ताद्याश्रिता ग्रन्थाः धनपालेन पेठे । ततो जैनधर्मस्वरूपमवगत्य जय जंतुकप्पपायवेत्यादि बहवो प्रन्थाः धनपालेन चक्रिरे ।
इति धनपाल श्राद्धभवनसम्बन्धः ॥ ५१९ ॥
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प्रबन्धपश्चशती.
[520 ] अथ धनपालपंचाशिकादिग्रन्थान् वबन्ध इति सम्बन्धः |
क्रमाद् राज्ञा धनपाल: भावको जातो ज्ञातस्तत्परीक्षणार्थ पुष्पभृतां च ददौ धनपालहस्ते, प्राह च देवान् सर्वान् पूजय । स च सर्वान् प्रपूज्य समागतः । राज्ञा पृष्टं देवाः पूजिताः । धनपालः प्राह, यत्रावसरोऽभूत् तत्र देवाः पूजिताः । राजावग् अवसरः कुत्राऽभूत् कुत्र न १ 5 ततः स प्राह कृष्णपार्श्वे पत्नीं दृष्ट्वा शंभोः पार्श्वे पार्वती, सूर्यपार्श्वे साबित्री, ब्रह्महस्ते जपमालां दृष्ट्वा ऋषभदेवं तु स्त्र्यादिरहितं दृष्ट्राहमपूजयम्, ततो राज्ञा शातं धनपालः श्राद्धोऽभूत् । ततः प्रभुं पूजयित्वा धनपालः पठति ।
२९० ]
10
15
कतिपय पुरस्वामी काय व्ययैरपि दुर्ब्रहो, मतिवितरता मोहेनासौ मयानुसृतः पुरा । १ त्रिभुवनगुरुर्बुद्धयाराध्योऽधुना स्वपदप्रदः प्रभुरधिगतस्तत्प्राचीनो दुनोति दिनव्ययः ॥ १ ॥
सम्वत्थ अस्थि धम्मो रजाव न पचं जिणंदसासणं । कणगाउराण कणगं व ससियपयं अलभमाणाणं ||२|| aat धनपालः सर्वमिध्यात्वं त्यक्त्वा जिनधम्मं चक्रे ।
इति धनपाल पंचाशिकादिग्रन्थान् वबन्ध ||५२० ॥
521 ] अथ हरिणवध-सरोवरवर्णन - यज्ञछागवर्णन धनपालसम्बन्धः ।
अन्यदा भोजभूपः पंचशतीपण्डितयुतः पापर्द्धिगतः तत्र एक हरिणं एकेन बाणेन इतवान् राजा । ततः पण्डितैः सर्वैः राजा वर्णितः । धनपालस्तदा प्राह-
रसातलं यातु यदत्र पौरुषं, कुनीतिरेपाऽशरणो प्रदोषवान् । निहन्यते यद् बलिनापि [ति] दुर्बलो, हहा महाकष्टमराजकं जगत् ||१||
राजा रुष्टः पण्डितस्य दृष्टौ दृष्टि ददौ । ततो राजा तटाके गतस्तत्रापि तटाके वर्णितेऽन्य20 पण्डितैः, धनपाल: प्राह
एषा तटाकमिषतो त [ वर ]दानशाला, मत्स्यादयो रसवती प्रगुणा सदैव । पात्राणि यत्र बक- सारस-चक्रवाकाः, पुण्यं कियद्भवति तत्र वयं न विद्मः ॥२॥
तत्रापि द्वितीयदृष्टी दृष्टि ददौ । ततो यशे एकरछागो हन्तुमानीतोऽस्ति । स च ब्लू ब्लू करोति स्म । तदा सर्वैः पण्डितैः स वर्णितः । ततो राजाऽवगू पण्डितं । अयं किं कथयमस्ति ? 25 घनपाठः प्राह
(१) त्रियमपतिः (२) या मुजियं जिणन सासणं तुम्ह ।
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पतोऽधिकारः
[ २९१
नाहं स्वर्गफलोपभोगरसिको नाम्पषितस्वं मया,
संतुष्टस्सृणभक्षणेन सततं, साधो ! न युकं तव । स्वर्गे[ग] यान्ति यदि त्वया विनिहता यज्ञे ध्रुवं प्राणिनो,
___ यज्ञं किं न करोषि मातृपितृमिः पुत्रैस्तथा गान्धवैः ॥३॥ राणा विशेषतो रुष्टः धनपालस्य चक्षुषी कर्षयितुं ध्यातवान् । धनपाल राज्ञः मनो अझो। राजा यावत्पुरद्वारे समागच्छति तावदेका वृद्धा नारी अंधा बालिकाहस्तबिलग्ना कम्पमाना संमुखी आगता । तदा राज्ञोक्तं भो पण्डिता! इयं जरती वर्ण्यताम् । ततः स्वस्वबुद्धधा पण्डिते. रन्यैर्नर्णितायां तस्यां भोजोक्त धनपालः प्राह - ___ एपा अन्धा स्त्री तु पृच्छति, बालिका प्रत्युत्तरं दत्ते । राझोक्तं किं पृच्छति बी, बालिका किं यक्ति च, धनपालोऽपाठीत्-~
10 किं नन्दी किं मुरारिः किमु रतिरमणः किं नलः किं कुबेरः, किं वा विद्याधरोऽसौ किमुत सुरपतिः किं विधुः किं विधाता । नायं नायं न चायं न खलु न हि नवा नापि नाऽसौ न वैषः,
क्रीडा कतुं प्रवृत्ता स्वयमपि च हले भूपतिर्भोजदेव : __ अमुं काव्यं श्रुत्वा भोजः प्रसनः प्राह, मार्गय । पण्डित धनपालोऽवग , दृष्टी देहि मामकीने 15 ममं । राजाऽवम् तव दृष्टी तव पार्श्व स्तः । धनपालोऽवग् स्वामिस्त्वया तु हरिणीवधे सरोवरवर्णने च मम दृष्टी कर्षितुं वांछिते स्तः । ततो राजा हटो दृष्टी दत्वा कोटिदानं ददौ, प्राह च न्यायेन त्वं सर्वशपुत्रो जातः श्राद्धभवनात् ।
इति हरिणवध-सरोवरवर्णन-यज्ञछागवर्णन-धनपालसम्बन्धः ।।५२१॥ [ 523 ] अथ धनपालविरचिततिलकमंजरीसम्बन्धः । .
20 एकदा भोजभूपेन धनपालः पृष्टः तवाधुना किं वैवयं विद्यते १ पण्डित आचष्टे अधुना .. मया श्रीऋषभदेवचरित्रं बध्यते । तेन मम परिवारो व्यग्रं] विद्यते ततो यदाक्रमात् पूर्ण चरित्रं
जातं ततो राज्ञोक्तं वाचय ममाने । ततो धनपालः प्रथमं प्रति भोजभूपामे वाचयितुमुरविष्टः । तत्र चरित्रस्यार्ध शृण्वन्भोजोऽमृतमिव श्रुतपुरैः पिबन् दश्यो-अस्य चरित्रस्यार्थरसो मा भूमौ पसतु एवं ध्यात्वा पुस्तकस्याधः स्वर्णकलोलक मंडयामास राजा । चरित्रार्थरसं भूमः पिनन् । दिनं निशामपि व्यतीतान् नैव जानाति, प्रीणितः सुधयेव तु संपूर्ण चरित्रं श्रुत्वा राजा जगौयदि अयोध्यानगरीस्थाने अवन्ती स्थाप्यते भरतपक्रिस्थाने मां स्थापय । शकावतारतीर्थस्थाने । महाकालप्रासादं स्थापय, आदिदेवस्थाने ईश्वरं स्थापय तदायं प्रन्यो वर्यो भवति स्वर्ण सुरभिवत् एवं स्वं कुरु तदा तुभ्यं कोटिस्वर्णस्य दीयते । श्रत्वैतद् वचनं जाहत इव क्षणं भूत्वा जगर धनपाल:
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२९२ ]
प्रवन्धपशशती - मेरुसर्षपयोः हंसकाकयो खरतार्थयोः । अस्त्यन्तरमवन्त्यादेरयोध्यादेश्च भूपतेः ॥१॥
एवं वदतस्तव जिह्वा त्रुटिता न ततो रोषेण प्राह पण्डितः
दोमुहय निरक्खर लोहमईय नाराय तुज्य किं भणिमो ।
गुजाहि समं कणयं, तोलंतो किं न गओसि पायालं ॥२॥ __ इत्याद्यक्तौतां प्रति वहौ चिक्षेप । ततो दूनेन नृपेणोक्तं भो पण्डित किमीक्षमविमृश्य त्वया कृतं, एवं विधं चरित्रमिदानी कोपि कतुं न शक्नोति । मया तु शिवभक्तनैवं जल्पितं दृष्टिरागत्वात्, यतः
__ "दृष्टिरागस्तु पापीयान् दुरच्छेदासतामपि ।" त्वं तु जैनधर्मझोऽसि, तेन तव जैनमत
रोचते पुनर्मयाऽसरो न हातोऽधुना कस्य किं रोचते । धनपालोऽवग् मया ध्यातं राजा 10 तु सर्वतत्वको विद्यते । कथमेवं वक्ति अतो मम रोषो जातः । तेन रोषेणैवं कृतं मया रोषचाण्डालः किं किं न करोति, यतः
कोहो पीइं पणासेइ माणो विणय नासणो ।
माया मित्ताणि नासेइ लोमो सव्वविणासणो ॥३॥
तत अस्थाय कृष्णमुखः स्वगृहे समागतः पण्डितः । पुच्या तिलकमंजर्या पृष्टं तात ! किं 15 दुःखं, पित्रा प्रोक्तं स्वचेष्टितं मया तु रभसा प्रथमप्रतिवहौ क्षिप्ता रुषा, सहसा न विमृष्टं । पुत्री
प्राह लिख्यतां प्रन्थः मम मुखे समेति । मया पूर्वमेकशो वाचितोऽभूत् । ततो पृष्टः पण्डितः पुत्रीमुखात्पुनः प्रतिलिखित्वा तस्य चरित्रस्य तिलकमंजरीति नाम दत्तं । ततः क्रमात् तिलकमंजर्या पंडितपुच्या एकसंधिकया ग्रन्थः कथितः । पितुः पुरः एवं ज्ञात्वा भूपोऽपि जगौ साक्षात्सरस्वती सा या एवं वेत्ति ततो राज्ञा द्वितीयनाम सरस्वतीति दत्तम् ।
इति धनपालविरचिततिलकमंजरीसम्बन्धः ॥५२२॥ [523 ] अथ “धर्मो जयति नाधर्म" इत्यादिसम्बन्धः । ततोऽन्यदा रुष्टो धनपालोऽन्यत्र प्रामे गतः । अन्यदा भोजसभायां धर्मनामा पण्डितो विद्वान् विदेशात् वादं कर्तुं समागतः । स च पञ्चवर्गेण वादं कर्तुं प्रतिज्ञा चक्रे । यः सभायां
विज्ञो भवति स मया समं वादं करोतु । यदा कोऽपि तेन समं वादं कर्तुं न शक्नोति तदा 25 धनपालः स्मृतः । ततः स्वमुख्यमंत्रिणं धनपालमाकारयितुं प्रेषितः । धनपाल सन्मान्य समानीतो
भोजपावें । भोजेन मानितो बहुमानदानात् , प्रोक्तं च यन्मया अवन्तीस्थाने अयोध्या स्थापयेत्यादि जल्पितं तत् क्षम्यताम् । ततो मियो द्वाभ्यां क्षमितं । सभायां धनपालधर्मपण्डितौ समागतो, मिथः प्रथमं कुशलालापादि कतम् । ततो धनपालः प्राह आवाभ्यां वादः करिष्यते, केन संस्कृतेन प्राकृतेन
वा पंचवर्गपरिहारेण पंचवर्गेण वा ? ततो धर्मो दभ्यो अधुना वक्तुं न युक्तं, ततः प्राह कलये 30 भावाभ्या वादः पंचवर्गण करिष्यते । ततः स्वस्वस्थाने गतो, रात्रौ धर्मो दभ्यो-धनपाउस
भारती तुष्टास्ति जैनप्रन्यस्यापि पठने अभ्यासोऽस्ति । तेन यदि वादे हारयिष्यते मया तदा १ स्वयेति ।
20
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चतुर्थोऽधिकार
मम का गतिः। ततो रात्रावेव नष्टो धर्मः । प्रातः राजा सभायां वादं श्रोतुमागतः । धर्म पण्डित नष्टं श्रुत्वा धनपालोप्यागतः । यदा राज्ञा धर्ममाकारयितुं जनः प्रेषितः धर्मो न लब्धः, नष्टो सातः सदा धनपाल: प्राह
धर्मो जयति नाधर्म इत्यलीकं कृतं वचः ।
इदं च सत्यतां नीतं धर्मस्य त्वरिता गतिः ॥१॥ ततो जयजयारावो जातः । धनपालागमनादेव धर्मपण्डितो नष्टः । इति "धर्मो जयति नाधर्म" इत्यादिसम्बन्धः ॥५२३।।
[524 ] अथ चौरवलयदाने भोजसम्बन्धः । एकदा भोजः कस्यचिद् द्विजस्य रोरस्य गृहसमीपे राबावेकाकी समागात् । तदा एकः स्तेना तस्मिन् [ गृहे ] प्रविष्टः तदा ब्राह्मणी प्रबुद्धा पर्ति प्रति प्राह
वासः खण्डमिदं प्रयच्छ, यदि वा स्वाके गृहाणात्मजं । रिक्तं भूतलमत्र नाथ ! भवतः पार्वे पलालोचयः ॥ दम्पत्योरिति संकथा निशि यदा चौरः प्रविष्टः तदा । लब्धं रकार्पटमन्यतस्तदुपरि क्षिप्त्वा रुदन् निर्गतः ॥१॥
बहिरागतश्चौरः प्राहोच्चैः स्वरं ब्राह्मणं प्रति-निजउदरपूरणेऽपि हि न समर्था येऽवतारिता 15 कि तः। विप्रोऽवग्-सुसमथैरपि किं तैयें न परोपकारिणो ऽत्र । ततः तस्मै तस्कराय राजा निजं वीरवलयं ददौ प्राह-इदं बहुमूल्यं कृपया मया तुभ्यं दत्तं यतः--
चौरस्य करुणं ज्ञात्वा भोजः प्रमुदितो निशि । ददौ स वीरवलयं रयात् कुवलयेश्वरः ॥२॥
इति चौरवलयदाने भोजप्रबन्धः ॥५२४॥
[525 ] अथ खण्डप्रशस्तिकाध्यानयनसम्बन्धः । एका कोऽपि यानवाहकः समुद्रमध्ये यानारूढो चलत् यानं स्खलितं । तत्रैका भित्तिदृष्टा, सा पकायाः । ततस्तत्रजलेऽपसरिते काव्यानि खण्डप्रशस्तिसम्बन्धीनि ददशे । तथाहि
मत्स्यः कूम्र्मों वराहश्च नारसिंहोऽथ वामनः । रामो रामश्च कृष्णश्च बुद्धः कल्की च [a] वै दनः ॥१॥ इत्यादि 26
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२९४ ]
प्रबन्धपश्चशती आवारयाधिगमान्मयैव गमितः कोटिं परामभतेरस्मत्संकथयेव पार्थिवसुतः सम्प्रत्यसौ लजते । इत्थं खिन्न इवात्मजेन यशसा, दचावलम्बोम्बुधेः
र्यातस्तीरतपोवनानि तपसे, वृद्धो गुणानां गमः ॥२॥ इत्यादि काव्यानि गृहीतवान् स तदा चैक काव्यं अर्द्धमग्रतो यावद् वाचितं तावद् द्वारि समागतं
"इह [अयि] खलु विषमः पुराकृतानां भवति हि जंतुषु कर्मणां विषाकः ।"
ततः तानि काव्यानि तेन भोजस्यार्पितानि । ततः भोजेन सर्वषां पण्डितानां पुरः प्रोक्तं योऽस्य काव्यस्यातनं पदद्वयं कथयिष्यति तस्य बहुधनं दातव्यं । ततो न केनापि काव्यं पूर्ण कृतम् । 10 ततो धनपालेनाप्रेतनमद्धं प्रोक्तं
हरशिरसि शिरांसि यानि रेजुर्हरिहरि तानि लुठन्ति गृध्रपादैः ॥३॥ ततः समुद्राद्यानपात्रप्रेक्षणपूर्व अप्रेतनं पदद्वयमानीतं याहग्धनपालेन प्रोक्तं ताहगेव, ततो राजा हृष्टो भूरि लक्ष्मी ददौ । इति खण्डप्रशस्तिकाव्यानयनसम्बन्धः ॥५२५॥
[586 ] अथ एकं वस्तु अत्रास्ति परत्र नास्तीत्यादिसम्बन्धः । 16 एकदा भोजो नृपः पत्तने भीमभूपस्य पुरः स्वमन्त्रिणं प्रेषयामास । स च भीमस्य पुरः प्राह
भोजराजराशश्वत्वारि वस्तूनि विलोक्यते स प्राह-१ एक वस्तु अत्रास्ति परत्र नास्ति । २ एक वस्तु अत्र नास्ति परत्रास्ति । ३ एकं अत्रास्ति परत्राप्यस्ति । ४ एकं वस्तु भत्र नास्ति परत्रापि नास्ति ।
ततो राज्ञा मन्त्रिणामने प्रोक्तं वस्तुचतुष्टयं भोजेनानायितं प्रेष्यताम् यद् भोजेनानायितं 20 तेषु तत्कोऽपि सम्यग न वेत्ति । तत रकः वीरम नामा सुश्राद्धः प्राह-वस्तु
तत्र नेष्यामि यथोदेशो दीयते स्वामिना । ततो राजा हृष्टोऽवग-याहि । स ततः प्रच्छन्नं वस्तुचतुष्टयं लात्वा महान्तं सार्थ कृत्वाऽवन्त्यां चलितः, राज्ञो ज्ञापितं स्वागमनं । ततो राजा सार्थमध्ये आयातः आसने उपविष्टः, पृष्टं राज्ञा, वस्तुचतुष्टयं आनीतं ? मन्त्रि गोक्तं-आनीतं ।
राझोक्तं प्रथमं वस्तु दर्शय । ततो वेश्या दर्शिता । राजा प्राह एवं विधा अत्र परत्रापि सन्ति । 25 मन्त्री प्राह अस्या वर्यभोगेन इहलोकोऽस्ति परलोको नास्ति ।१॥ द्वितीयवस्तुनि प्रोक्ते साधवो
दर्शितास्तेषां परीषहसहनेनेह लोको नास्ति स्वर्गप्राप्त्या परलोकोऽस्ति ।२। तृतीयवस्तुनि श्राद्धा वर्याः पुण्यवन्तो देवान् पूजयन्तो दर्शिताः तेषामिह परत्रास्ति अत्र सुखिनः परत्रापि सुखिनः ।३। चतुर्थवस्तुनि प्रोक्ते द्युतकृतो मिथोऽत्यन्तं कलिं कुर्वाणा दर्शिताः तेषामत्र नास्ति परत्र नास्ति ।४। राजा
चमत्कृतः प्राह-यदुच्यते पत्तने सर्व लभ्यते तत्सत्यं, तत: स मन्त्री सम्मानितो वस्खाभरणादि. 30 दानात् । इति एक वस्तु अन्नास्ति परत्र नास्तीत्यादि सम्बन्धः ।।५२६।।
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चतुर्थोऽधिकारः
[ २९५ [:27 ] अथ कपालत्रयपरीक्षासम्बन्धः । एकदा पत्तनाद् डामरमन्त्री भोजभूपपार्श्वे कपालनयमानीतवान् । राजाऽवग-मंत्रिन् । किमर्थ इदमानीतमस्ति ? मन्त्री प्राह, स्वामिनः सन्ति वहवो बुधास्ते परीक्षामेतेषां कुर्वन्तु । यदा कोऽपि न वेत्ति तदा डामरेण एकस्य कपालस्य कर्णे दवरकः क्षिप्तो वक्रेण निर्गतः, द्वितीयस्य कर्ण क्षिप्तः कर्णेऽन्यस्मिन् निर्गतः । तृतीयस्य कर्णे मितः कण्ठे निर्गतः । ततो डामरोऽवग, भावार्थोऽस्य कथ्यतां । यदा कोऽपि न वेत्ति तदा डामरः प्राह । १-यस्य कर्णे गुणः क्षिप्तः वक्त्रेण निर्गतः तस्य कपर्दिमूल्यं । श्रुतमात्रस्य दोषादेर्यथा तथा जल्पनाद् । २-योऽस्य गुणः कर्ण क्षिप्तः कर्ण निर्गतः तस्य लक्षमूल्यं, यतो दोषं विस्मारयति श्रुतमश्रतं करोति । ३-यस्य गुणः कण्ठे क्षिप्तः कण्ठस्याऽधो गतः तस्य मूल्यं न, यतो हृदये दोषादि स्थापयति । एवं त्रिविधाः मनुष्याः कपालसदृशा भवन्ति, अतो भूपतिभिरन्यैरपि लोकच यकपालवत् स्थेयं । इति कपालत्रयपरीक्षासंबंधः ।।५२७॥ 10
[ 528 ] अथ भर्तृहरिवैराग्यसम्बन्धः । अवन्त्यां भर्तृहरिराजराज्ये एको विप्रो मुईदो निःस्वो देवी लक्ष्मीहेतवे आरराध ! तया तुष्टया तस्याल्पपुण्यं मत्वा बीजपूरं ददे । प्रोक्तं च गृहाणेदं अनेन बहु जीव्यते नीरोगता च भवति । तव भाग्यं नास्ते अतो बीजपूरं दत्तमस्ति । स च विप्रो गृहे नीत्वा भोक्तमिच्छन् दध्यौ । इदं बीजपूरं बहुजीवितदायितेन य उपकारी जगदाधारः स्यात्तस्य [तस्मै] दीयते । एवं 15 विमृश्य राझे दत्तं । प्रभावोऽप्युक्तः देवीप्रोक्तः । राजा तदादाय तस्मै पारितोषिकं दस्वा भोक्तमुपविष्टो दध्यौ, मम बहुजीवितेन किं अभीष्टायै राज्यै दत्तं. भूपेन प्रभावः प्रोक्तः । तया ध्यातं मम बहुजीवितेन किं ? ततस्तया अभीष्टस्य हस्तियकस्य प्रभावकथनपूर्व दत्तं । हस्तिपकेन ध्यातं मम बहुजीवितेन कि? अतो मया अभीष्टाये वेश्याय दीयते ततस्तस्ये दत्त, वेश्यया ध्यात ममानेन भक्षितेन किं प्रजापालाय भपाय ददामि । ततो वेश्यया भर्तृहरये दत्तंभितह रिम्ततफलमुपलक्ष्य चकितः । पल्यादि-पृच्छनतः फलागमनसंबंध झातवान् । ततोऽसारसंसारं मत्वा प्राहयां चिन्तयामि सततं मयि सा विरक्ता, साप्यन्यमिच्छति जनं स जनोऽन्यसक्ता। अस्मत्कृते च परितुष्यति काचिदन्या, धिम् तां च तं च मदनं च इमां च मां च ॥ सम्मोहयन्ति मदयन्ति विडम्बयन्ति, निर्भर्त्सयन्ति रमयन्ति विषादयन्ति । एताः प्रविश्य सदयं हृदयं नराणाम् , किन्नाम वाम-नयनान समाचरन्ति ॥२॥
25 एवं ध्यात्वा तृणवद् राज्यं त्यक्त्वा भर्तृहरितं जग्राह
इति भर्तृहरिवैराग्यसम्बन्धः ॥५२८॥ _ [529 ] अथ विक्रमार्कराज्यप्राप्तिसम्बन्धः । विक्रमार्को भ्रमन्नन्यदा भट्टमात्रयुतो रोहणगिरी गतः । तत्र रोहणगिरी यो हा दैवमिति' ।
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२९६ ]
प्रबन्धपश्चशती प्रोक्त्वा [प्रोच्य ] पातं ददाति रत्नं सपादलक्षं लभते । विक्रमाः साहसी यदा हा देवमिति न वदति घातं ददाति । भट्टमात्रस्तदा छलाप्राह भवन्माता मृता श्रता। एवं अत्वा विक्रमाचा देवमिति वदन भालमाहत्य कुदालमधस्तादृढमाहतवान् ,तदाऽकस्माद्ररत्नं प्रादुरासीत् । भट्टमात्रो. रत्नं विक्रमार्कहस्ते मुक्स्वा प्राह तव माता कुशलिन्यस्ति । मया रत्नप्राप्तिनिमित्तं भवान् [एवं 5 कारितोऽत्रैव ततो रत्नं अधः क्षिप्त्वा विक्रमार्कः प्राह
"धिग् रोहणं गिरि दीनदारिद्रयव्रणरोहणम् ।
दत्ते हा देवमित्युक्ते रत्लान्यर्थिजनाय यः ॥१॥" सतो रत्नं तत्रैव त्यक्त्वा तापोतीरे समागतस्तत्र रात्रौ शिवाशब्दं श्रुत्वा भट्टमात्रोऽवक एषा शिवा वक्ति नदीप्रवाहे [तीरे] साभरणा खी मृता पतितास्ति [स] तत्र गत्वा तो तथा10 वस्थां दृष्ट्वा निर्लोभात् त्यक्त्वा पश्चात् सुप्तः । पुनः शिवाशब्दं श्रुत्वा भट्टमात्रोऽवम् एषा शिवा
वक्ति विक्रमार्कस्य मासे प्रति अवन्त्या राज्यं भविष्यति ततोऽपतश्चलितौ वर्मनि भतृहरिराज्य स्वरूपं ज्ञात्वा भट्टमानं प्रति प्राह यदि राज्यं भवति तदा त्वं मे प्रधानः। ततोऽवधूतवेषभृत् चचाल अवंत्यामागतः । तदा तत्र यो यो राज्ये निवेश्यते तं तं सोऽग्निवेतालो मारयतीत्यादि मत्वा कोऽपि राज्ये नोपविशति । एवं श्रुत्वा विक्रमार्को मंत्रिपार्श्वे प्राह अहं वैदेशिकोऽस्मि यदि मेले (समेले) समेति च तदाहं राज्ये उपविशामि । तैरुक्तोऽग्निवेतालसम्बन्धः। ततो मन्त्रिभिमानिते विशेषबलिं कारयित्वा राज्ये उपविष्टो रात्रौ शय्यायां निर्भीः स्थितो। वेतालः समागाव हन्तुं । विक्रमार्को जगो मे कृतवलिं विलोकय पश्चादहं हन्तव्यः। ततः स वलिं दृष्ट्रा हृष्टो जगो त्वं राजाऽत्र भव चिरं सदैवं बलि: कायः। भूपोऽवग एवं भवतु । ततो बेतालो गतः प्रातः
जीवन्तं तं दृष्ट्वा हृष्टा मन्त्रिणः । द्वितीयदिने बलिं कृत्वा प्रपच्छ मम कियदायुः । ततस्तेनोक्तं 90 वर्षशतं । ततो जगौ विक्रमार्कः ९९ वर्षाणि कुरु अथवा १०१ । स प्राहाधिकं न्यूनं न भवति ।
ततोऽग्रेतने दिने बलिमकृत्वा वेतालं जिस्वा स्वसेवक राजा चक्रे । ततः स्वरूपं प्रकटीकृत्य मन्त्रिणो मोदयामास । भट्टमात्रः प्रधानः कृत । इति विक्रमार्कराज्यप्राप्तिसम्बन्धः ॥५२९॥
15
[530 ] अथ प्रथमस्वर्णनृप्राप्तिविक्रमार्कसम्बन्धः ।
अवन्त्यां एकेनेभ्येन पुष्याः कर्मस्थायं कारयता महानावासः कारितः । स च देवताधिष्ठि25 तोऽभूत् एकदा वर्यमुहूर्ते इभ्य उषितुं रात्रौ स्थितो यावत् आवासे वक्त्यूव "पतामि पतामि"
इभ्यो बिभ्यन प्राह मा पत । एवं सदाऽवासो वदति योऽन्यो वसति तस्य पुरोऽप्येवं वदति तस्यान्तः स शून्य एव स्थितः । ततो राजा विक्रमार्केण लग्नं । सर्व दरवेभ्याय आवासो गृहोतः रात्रौ सुप्तस्तस्मिन्नावासे यावदावासो जगौ पतामि २ विक्रमार्क अतीव साहसी प्राह स्वर्ण
मयो भूत्वा पत। ततो विक्रमार्कसाहसात् अषः स्वर्णपुरुषः पपात । प्रातर्महोत्सवपूर्व स्वर्णपुरुष 30 तत्रैव स्थापयामास । प्रतिदिनं मस्तकं मुक्त्वा छेदं छेदं स्वर्ण गृह्यते रात्री तारगेव ।
एवं प्रथमस्वर्णनृप्राप्ति विक्रमार्कसम्बन्धः ॥५३०॥
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चतुर्थोऽधिकारः
[531] अथ विक्रमार्क द्वितीयोरैनर प्राप्ति सम्बन्धः ।
एकदक योगी धूर्त्तः कपटेन विद्या साधनाय विक्रमार्थमेकाकिनं श्मशानेऽनैषीत् । तत्र तेन ज्वलदंगारभृतं कुण्डं कृतहोमं कर्तुं लग्नं । ततो मायावी योगी प्राह उत्तरदिग्भागस्थशिंशपावृक्षशाखावलंवितं शत्रमानय यथा तेनात्र होमः क्रियते । ततो विक्रमार्क: शग्रहणाय तत्र वृक्षे तो यावदवृक्षमारुह्य शवं हस्ते गृह्णाति तावदग्निवेतालो विक्रमार्कस्य विघ्नं भवत् ज्ञात्वा 5 मधिष्ठाय प्राह प्रथमं मम पृष्टस्योत्तरं देहि । ततो नय, तत्र पञ्चविंशति कथाभिर्वेलातिक्रमं कृत्वाऽचष्ट शषं मां त्वं तत्र नयन्नसि, परं त्वया तस्य योगिनो विश्वासो न कार्यः । ततः स शबं स्कन्धे कृत्वा तत्र गतः योगिनोऽयं मुमोच योगी तु विक्रमाकंपार्श्वात् शत्रस्य पादसंवाहनं कारयन् विक्रमार्क द्वात्रिंशल्लक्षणलक्षितं कुण्डे चिक्षिपन रैनरं सिसाधयिषुः मंत्रजापहोमपरो यावद्विमार्क कुण्डे क्षिपति तावद् विक्रमाक्रेण स योगी कुण्डे क्षिप्तः सन् स्वर्णनरो जातः ततस्तमपि 10 रैनरं सुमहोत्सवं स्वपुरमध्येऽनैषीन्नृपः । इति विक्रमार्क द्वितीयो रैनरप्राप्ति सम्बन्धः ।
"
[532 ] अथ औदार्ये [ उचितदाने ] विक्रमार्कवैतालिकसम्बन्धः ।
एकक इन्द्रजालिक एक करे खङ्गं द्वितीयकरे स्त्रियं दधानो ब्रह्मायुर्ब्रह्मायुरिति वदन् विक्रमार्क सभायां समेत्य प्राह
राजन् ! सारं द्वयं मन्ये, रमारामे अहं स्फुटं । भारतीं केऽपि मन्यन्ते, तन्मे न रोचते मनाग् ॥ १ ॥
(१) मत
रमारामे यः पश्यति स गृह्वाति एव त्वं तु परस्त्रीपराङ्मुखः श्रुतः तेनाहमिमा पत्नीं तव पार्श्वे मुक्त्वा स्वर्गे [ स्वर्ग ] यास्यामि । तत्र अद्य देवदानवयोर्युद्धं भविष्यति, अहमाकारितो - ऽस्मि, ततः स भूपपार्श्व पत्नी मुक्त्वा व्योम्नि चचाल । सा चान्तःपुरे स्थापिता भूपेन ।
इतः झणान्तरे आकाशे रणतूर्याणि वाद्यमानानि राजा शुश्राव । प्राह च, अहो तेन पुरुषेण 20 व्योम्नि गतं इन्द्रसाहाय्यार्थ, क्षणान्तरे वैतालिकस्य पदहस्त मस्तकादयः देहावयवाः सभायां पेतुः । ततः सा स्त्री तत्रागताऽवम्, मम भर्ता मृतः, तस्य देहावयवा अमी, अहं अनेन समं बहौ प्रविशामि । ततो वारिताऽपिसा तैरवयवैः समं वह्नौ प्रविष्टा । क्षणान्तरे स एव वैतालिकः समागात् । पत्नीं याचते स्म । राम्रोक्तं तव पत्नी त्वां मृतं ज्ञात्वा वह्नौ प्रविष्टा । स प्राह, कूटं किं जल्पते भवतामन्तःपुरे स्थापिता मां वयितुं मैवं बदन्नस्ति । ततोऽन्तःपुरे तां दृष्ट्रा राजा कृष्णमुखो- 26 ऽभूत् । ततो वैतालिकः प्राह मयेदं इन्द्रजालिकं विद्यया तव दर्शितं । ततो राजा तुष्टः तस्मै वैतालिकाय दानं ददौ ।
अष्टौ हाटकोट्यनिवतिर्मुक्ताफलानां तुलाः,
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पंचाशन्मदगन्धलुब्ध 'मधुपक्रोधोधुराः सिन्धुराः ।
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२९८ ]
प्रबन्धपञ्चशती लावण्यावयवप्रपंचितदृशां वारांगनानां शतं,
.. दंडे पांड्यनपेण ढौकितमिदं वैतालिकस्यार्पितं ॥१॥ इति औदायें [उचितदाने] विकमार्कवैतालिकसम्बन्धः ॥५३२॥
[638 ] अथ दुष्टास्त्रीविषये मरिकासम्बन्धः । कोकिलपुरे कोकिलकौलिकस्य मयूरिका पत्नी स्वेच्छाचारिणी वारितापि गृहे न तस्थौ। एकेन वचसा वाक्यं शतं च प्रतिजल्पति । एकदा मित्राय कोकिलोऽवग् यदि पत्नी संध्या गृहे न समेष्यति तदा तव [तस्यै] शिक्षा दास्यते। मया [मित्रेण हकितापि पत्युर्वचो न कुरुते । कोकिलो रुष्टोऽन्यदा रात्रिघटिचतुष्के गते पत्नीमनागतां ज्ञात्वा गृहस्य अररिं दृढं दत्त्वा मध्ये
स्थितो दध्यौ । अद्य रंडाया गृहे प्रवेशं न दास्ये, ततः सा भ्रामं भ्रामं उत्सूरे गृहं समायाता 10 द्वारं दत्तं दृष्ट्वा पति मध्ये स्थितं ज्ञात्वा प्राह ! पते ! द्वारभुद्घाटय । स च खुंकारकं करोति,
द्वारं नोद्घाटयति वक्ति च, त्वं च मयोक्तं न कुरुषे, अतो नोद्घाटयामि द्वारं, पत्नी प्राहकीटिकाया उपरि कि कटकं ? इत्यादि जल्पिते यदा कान्तो द्वारं नोद्घाटयति तदा द्वारादहिरासन्नकूपिकापार्श्व प्रौढं प्रस्तरं मुक्त्वा जगौ-कांत द्वारमुद्घाटय, नो चेदहं कूपिकायां
पतिष्यामि । एवं तया प्रोक्तं यदा पत्या द्वारं नोद्घाटितं तदा कूपिकायां पतिष्यामीति जल्पंन्ती 15 प्रस्तरं कूपिकामध्ये चिक्षेप, स्वयं तु पार्श्व छन्नं स्थिता द्वारस्य, सध्युबकं श्रुत्वा पत्नी कूपिका
पतितां ज्ञात्वा सथो द्वारमुद्याव्य कृपिकापावेऽभ्येत्य प्राहोचःस्वरं पत्नि ! निस्सर लोका मिलिता, मंचिकामध्ये मुक्ता, पत्नि ! मंचिकायामुपविश्य बहिनिस्सर, इतः सा मयूरिका गृहमध्ये प्रविश्य प्राह तव पिता कूपे पतति अहं तु न [ “एवं द्वारं पिहितवती" तदा स च जगौ ] यदि
शक्तिर्भवति तदा द्वार उद्घाटय अहं किमपि त्वयि प्रतिकूलं न करोमि, त्वमेवं कुरु । लौकैमक्तं 20 उद्घाटय उद्घाट्य, सा जगौ अद्य प्रभृति अहमुत्सूरे [ सवारे वा ] सख्यालयादौ स्थित्वाऽया
स्वामि, अतः परं मम न करोति प्रतिकूलं. तदा द्वारमुद्घाटयामि. ततस्तेनाक्षरेषु दत्तेषु तया द्वारं उद्घाटितं । एवं दुष्टास्त्रीविषये मयूरिकासम्बन्धः ।।५३३||
[24] अथ राटिविषये सोढीसम्बन्धः । पद्मपुरी सोढी नारी कलिं सर्वैः सार्द्ध करोति । कलिं विना तस्मिन् दिने धान्यं न जीर्यति । 25 ग्राममध्ये तया सह कोऽपि न जल्पति । ततोऽन्यदा प्रातः प्रातिवेश्मिकगृहे प्राघूर्णिकाः समा
याताः ततस्तया ध्यातं अद्य को बहिः राहिं कतु यास्यति । अनया प्राघूर्णिकया समं राटिं करोमि । ततो दास्यने तया प्राघूर्णिकायां शृण्वन्त्यां प्रोक्तं, भो दासि ! शीघ्र क्षिप्रचटं रंधय । ग्रामे गमिष्यते एक मानकधान्यमध्ये पंचमानकमितं लवणं क्षिप । वयः क्षिप्रचटो भवति त्वरितं अष्ट्वावाहं सज्जीकुरु ! तमारुह्य गमिष्यते, प्रापूर्णिका प्राह भगिनि ! एवं अयुक्तं कि जल्पसि, मानक
30 (१) अश्वानामयुतं प्रपञ्च चतुरं । (२) कजीओ लडाई ।
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चतुर्थोऽधिकारः
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मध्ये पंचमानकलवणक्षेपणं । सोढी प्राह रे रंडे ! किं अहं तव पित्रा जनितास्मि यन्मां भगिनीं वदसि । रंडा धान्येन न भ्रायते परगेहस्यतप्ति [ तातिं ] कुरुषे । भगिनीं मां वदंती त्रिजाता मां कथयिष्यसि गाली | छलात् । एवं यद्यत्प्राघूर्णिका वदति तत्तत् खण्डयति, ततः प्राघूर्णिका मौनं कृत्वा नंष्ट्रा गता । ततः कोऽपि तथा समं न वदति । ततः साऽन्यस्मिन् पुरे गत्वा चतुरहट्टे तृणपूलकं घटं पयोभृतं मुक्त्वा जगौ यः को विशो वा भवति स मया समं वादं करोतु | नो चेन्तृणपूलकं भक्षयतु । पानीयं पिबतु ततः कोऽपि वादं न करोति यदा राज्ञा पटहो वादितस्तया समं यो वादं कृत्वा जयं लभते तस्मै ग्राममेकं दीयते ततः श्रेष्ठिवधूः पटहं पस्पर्श । श्रेष्ठिप्राह मम वधूर्जल्पितुं न जानाति । ततो वधूः प्राह । तात, तव प्रासादादहं जेष्यामि । ततो राज्ञो सर्वे आयाताः श्रेष्ठिवधूः प्राह भो सोढि, त्वं कया रीत्या वादं करिष्यसि, एक दैवसिक्या, वाणूमासिकया, सांवत्सरिकया, यावज्जीविकया बा ? सोढि प्राहाहं विकल्पान् म जाने ततस्तयोक्त कथं तर्हि त्वं वादं करिष्यसि ? यदि विकल्पान न वेत्सि, विकल्पान विना वादो न भवति । तदा लोकैरादावेव सोढी हसिता । ततः सोढी प्राह-राटिका देवसिकी कथं कथ्यते । सा श्रेष्टिवधूः प्राह - भाटकेन शकटं गृह्यते तस्मिन् नारीद्वयमुपविशति भाटकं दवा, तदा एका वदति त्वया सकलं शकटं रुद्धं । एक वदति यद्वा तद्वा जल्पसि ? अपरा वदति त्वमपि एका-त्वं परतातिं करोषि अन्या - वदति त्वमपि इत्यादि कलिं कुरुते, द्वे अपि सन्ध्यां 16 यावत् सायं शकटादुत्तरितयोः राटिर्निवर्त्तते एषा प्रथमा देवसिको राटिः ॥ १ ॥ साध्यं क्षेत्रं द्वाभ्यां क्रियते यदा तदा यावद् धान्यं गृहे नायाति तावद् राटिर्भवति षाण्मासात धान्यं गृह्यते ततो द्वापि राटिं न कुरुतः ||२|| यदा पाटक: पट्टको गृह्यते द्वाभ्यां तदा वर्षे यावत् एकामाषाढीमारभ्य द्वितीयामाषाढीं यावत् राटिर्भवति ततो निवर्त्तते रादिः ||३|| एकस्य पुरुषस्य द्वे पत्न्यौ यदाजायेते तदा यावज्जीवं ते द्वे कलिं कुरुतः स्म, अतो यावज्जीविकाराटिः ||४|| श्रेष्ठिवधू- 20 चातुर्यं दृष्ट्वा मानं मुक्त्वा सोढी श्रेष्ठिवधूपदयोः पतित्वा प्राह मयात्र हारितं स्वया जितं ततः श्रेष्ठ धूः भूपपार्श्वादेकं प्रामं प्राप्य सूत्सवं (सोत्सवं ) स्वगृहे समायाता ।
इति राटिविषये सोढीसम्बन्धः ||५३४ ||
[35] अथ सिद्धराज प्रशंसित भोजन श्रीहेम सूरि सम्बन्धः ।
एकदा श्रीसिद्धराजजर्यासहो यात्रायां चचाल, सार्द्ध श्रीहेमसूरयोऽप्याकारिताः । वत्र्त्मनि 25 गुरून्प्रति राजा प्राह—भगवन्, रथे उपविश्यतां, दुष्करं पादसंचरण, गुरुः प्राह - साधूनां रथोपवेशनं पापनिबन्धनं ।
पद्भ्यामध्वनि संचरेयमनिशं भुञ्जीत भैक्ष्यं सकृत् जीर्ण वासवसाय भूमिवलये रात्रौ शयीय क्षणं । निःसंगत्वमधिश्रिये वसुमती - मुन्नासयेयानिशं, ज्योतिस्तत् परमं दधीय हृदये कुर्वीय किं भूभुजा ||१|| २ सिकनिवसीय, ३ धरणीतल गतो ।
१ कबीओ बसाइ,
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उक्तं च
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३..]
प्रबन्धपत्राती
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गुरुजंगदिवान् राजन् ! यतीनां नैव युज्यते ।
परपीडाकरत्वेन वाहनाधधिरोहणम् ॥२॥ एकदा सूरिं वारां (गोचरचर्या कुर्वाणं राजा ददश । तदाचाम्लानि कुर्वाणाः साधयो दृष्टाः [राशा यतः ) बहिःस्थितेन श्रीसिद्धक्ष्मामृता सूरिरेक्ष्यत कांजिकेन समं भैक्ष्यं मुंजानं सपरिस्मदं। 5 तसो राजा जगो
तप्यतेऽमी [तपत्यमी] तपः कीदृग् महात्मानं यदन्वहं । अश्नत्यन्नं जलक्लिन्नं मार्गे चांचिप्रचारिणः ॥३॥ तदन्यजन्मसामान्यधियाऽमी माननाचिताः । नापमान्या मया किन्तु, मान्या एव महेशवत् ॥४॥ इति सिद्धराजप्रशंसितभोजन श्रीहेमसरिसम्बन्धः ॥५३५॥
[536 ] अथ हल्लदानस्थापकद्विजसम्बन्धः । एकदा कृष्णविप्रः कृषि मण्डयामास सदा हलं खेटयतोऽन्यदा हलं भग्नं तदा भ्यातं किं करिष्यामि हलं भग्नं दिनं पतिष्यति, ततो नन्दनस्याने विप्रः प्राह, देवचन्द्रकौटुम्बिकपाद्
हलं आनयिष्यामि । पुत्रोऽवग स मुधा हलं नापयिष्यति । पिता प्राह-मम विज्ञस्वं तदा यदा 15 तस्य पार्थाद् मुधाश्वचनेन हलमानयिष्यामि ततः स विप्रस्तस्योपान्ते गतः उपदेशं ददाविति । हलदानं स्वर्गाय भवति यतः
हल्लाया दीयते दानं खादिर्यास्तु विशेषतः ।
हल्लदानप्रदानेन स्वर्ग हन्नति मञ्चति ॥१॥ श्रुत्वैतत् तेन हलं दत्तं । स च विप्रो हल क्षेत्रे गत्वा [सूनवे] सूनोददौ प्राह च मुधेदं 20 हलमानीतं मया । इति हल्लदानस्थापकद्विज सम्बन्धः ॥५३६।।
[ 637 ] अथ स्वहस्तदत्तफलविषये वस्तुपाल सम्बन्धः । एकदा वस्तुपालमंत्रिणः पुरो गुरु प्राह-यत् स्वहस्तेन दीयते तत् प्राप्यते परहस्तदानस्य फलं न भवति । उक्तं च
यद् वस्तु दीयते भावात् , तत् सहस्रगुणं भवेत् । यद् दत्तं सुकृतं पुण्यं, पापे पापं च तद्गुणं ॥१॥
25
१ प्रतारण ।
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चतुर्थोऽधिकार किंचान्यद्दीयते पचद्, धनिकस्यापचीयते । सुकृतं दीयमानं तु धनिकस्योपचीयते ॥२॥ भाव्यते सुकृतं यावत्मान्तकालेऽपि तावतः । निजश्रद्धानुमानेन सदेवा न श्रुतेः फलं ॥३॥ ततः श्रावयिता पश्चाद्विधत्ते मोनितं यदि । तदा सोप्यनृणः पुण्यभाग भवेदन्यथा न तु ॥४॥ अभावितोऽपि श्रदत्ते सुकृतं यः क्वचिद् गतौ । जानन् ज्ञानादिभावेन, सोऽपि तत्फलमाप्नुयात् ॥५॥ अन्यदा सुकृतं तन्वन् , स्वजनः स्वजनाख्यया । व्यवहारप्रीतिभकिः एवं ज्ञापयति ध्रुवं ॥६॥
10 स्वहस्तेन यह सभ्यते तन संशयः ।
परहस्तेन यद्दत्तं लभ्यते वा न लभ्यते ॥७॥ असएष पुण्यवद्भिः स्वहस्तेन धनं व्यपनीयं, श्रुत्वैतन्मंत्री सप्तोत्र्यां धनं न्ययितुं लग्नः, गुरुभिः प्रोक्तं तथा व्यापारः कार्यो यथा प्रजा न सीदति, साधुवादः सर्वत्र जायते, तत् स्वस्यैव लभते । अतः पुण्यस्मारणविषये एकं काव्यं शृणु
प्रयस्त्रिंशत्कोटित्रिदशमुखवंद्योऽसि जगतां, त्वयाऽग्ने ! दधन्ते चपलपवनप्रेरिततया । अमी किं विश्वेषामुपकृतिपरा साधुतरवो ।
यदेभ्यो भस्म स्यात्तदपि मरुतस्ते पुनरधां (2) ॥८॥ इदं काव्यं श्रीउदयप्रभसूरिभणितं वस्तुपालमंत्री स्मरन् पापं न करोति ।
इति स्वहस्तदत्तफलविषये वस्तुपालसम्बन्धः ॥५३७॥
[ 8 ] अथ पुण्यलामालामसूचकवणिकत्रयसम्बन्धः । एकरमात् पुरात् त्रयो वणिजो निर्गता धनार्थ । एको मार्गे गच्छन् प्रथमे गतः पद्मपुरे । तत्र व्यवसायं कुर्वन् धनं बहु निगमयामास । उद्गरितं मार्गे समागच्छन् धाट्या मुषितमपरं निगमयामास । द्वितीयो द्विगुणं लाभ प्राप्यागतः । तृतीयो यावल्लात्वा गतस्तावलात्वागतः 25 उक्तं च-जहाय तिन्नि वणीआ, मूलं चित्तण निग्गया ।
एगो तत्थ लमे लाभ, एगो मूलेण आगओ ॥१॥
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३०१
प्रबन्धपश्चशती एगो मूलं पि हारिता, आगओ तत्थ वाणीओ । ववहारे उवमा एसा, एवं धम्मे वि आणह ॥२॥ माणुसत्तं भवे मूलं, लाभो देवगई भवे । मूलं छेएण जीवाणं निरयं तिरखत्तणं भवे ॥३॥ इति पुण्यलाभालाभसूचकवणिक्यसम्बन्धः ॥५३८॥
[539 ] अथ कुसंसर्ग-सुसंसर्गदोषे शुकद्वयसम्बन्धः । एकस्यामटव्यां शुकद्वयं जनितं, वद्धितं । एकः शुको भिल्लेन जिनदत्तगृहे विक्रीतः। द्वितीयस्तु भिल्लैगृहीतः । श्रेष्टिना धर्मशास्त्रं पाठितः, भिल्लैः स्वकला शिक्षिताः । एकदा पल्लीभूपोऽश्वापत
आगच्छत् शुकेन भिल्लानामने प्रोक्तः, भिल्ला धाविता राजा निर्धारिताः । राजा जिनदत्तगृधे 10 गतः, तत्र शुको वक्ति भूप आगतो भक्तिः क्रियते । ततो राजा प्राह-शुकस्याने त्वमेवंविधो धर्मी, एकः शुको भिल्लगृहे पापी दृष्टः, स शुकः प्राह
माताप्येका पिताप्येको मम तस्य च पक्षिणः । अहं मुनिभिरानीतः स च नीतो गवाशिभिा ॥१॥ गवाशनानां स२ गिरः शृणोति, अहं च राजन मुनिपुंगवानां । प्रत्यक्षमेतत् भवतापि रष्टं, संसर्गतो दोषगुणा भवन्ति ॥२॥ एकहं ठामि वसंतडां एवउ अन्तर होह । अहिडंके महीअल मरइ, मणिव जीवइ सहु कोइ ॥३॥ इति कृसंसर्गसुसंसर्गदोषे शुकद्वयसम्बन्धः ॥५३९।।
[ 540 ] अथ मित्रद्वयसम्बन्धः । 20 मित्रद्वयं लक्ष्मीमर्जयितुं विदेशगतं, तत्रैकः पङ्खाशद् दीनारानर्जयामास । द्वितीयः शतं,
पश्चाद् वलितौ स्वपुरप्रतोल्यामागतो। प्रतोली नागदत्त दृष्ट्वा रात्रौ वनमध्ये देवकुले गतौ । तत्र एकः सुमोऽपरो जागर्ति । ततो यक्षं मुकुटहारकुंडलायाभरणभासुरं दृष्ट्वा दध्यौ । दूरं गतो धनं स्तोकमर्जितं, अतो यक्षस्य हारं गृहामि दारिद्रयछिदे । ततो यावद्धारं लातुं हस्तं ददौ
तावद् यक्षेण स्तंभितो वेदना प्राप, प्राह च अहो महायक्ष ! मुञ्च! प्राणा यास्यति मे। यक्षोऽवग 25 मम हारं त्वं लातुं हस्तं क्षिपसि मारयिष्यामि त्वा। सः पुमान् प्राह-वद्विलोकते तन्मार्गय
यक्षोऽवग यद्धनं विदेशानीतं वत्सर्व मम भाण्डागारे मुख, ततस्तेन विभ्यता [ पञ्चाशत् दीनारं]
15
१. गदाधन, २. वचनं,
संसर्गजा, ४. महीपन-स्थलचरणीयाः ।
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चतुर्थोऽधिकारः
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तकोशे मुक्तं । सुप्तः सः । द्वितीयोप्येवं हारं गृहन दीनारशतं यक्षेण दंडितः । ततः पाद्यः प्राह स्वधनं गमनकापनायोक्तं
दरि दिसंतरि चालीआ, वडी करी पुण आस ।
___ आवि दोहिला खंधि चडि, जिम सउ तिम पंचास ॥१॥ अपरो जगौ
ग्रह अबला विहि वंकडी, दुजण पूरउ आस ।।
__आवि दोहिला खंधि चडि, जिम सउ तिम पंचास ॥२॥ पश्चात् स्वस्वसम्बन्धोज्ञापितो मिथः । एवं जीवाः प्रमादादर्जितमपि पुण्यं हारयति । इति भवितव्यतायां दूरिदिसंतरि चालीआ ।
__इति मित्रद्वयसम्बन्धः ॥५४०॥
[ 541 ] अथ शठोपरि शठेतिविषये शुककथा । एकः श्रेष्ठी सुपात्रदानं दाता । भूपस्याग्रे वेश्या नृत्यं करोति बहुधनं भूपाल्लोकाच्च लभते । श्रेष्ठी कुपात्रत्वात् किमपि न दत्ते, तदा लोकैरुक्तं, त्वं बहुलं धनं लासि न श्रेष्टिनः । ततो वेश्यया नृपे तुष्टे प्रोक्तं ममाद्य स्वप्ने श्रेष्ठिना लक्षद्रव्यमानितं तञ्च दापय, ततो राझोक्तं, श्रेष्ठिनास्यै स्वप्नमानितं देहि, ततः कृष्णमुखं गृहागतः। शुकोऽवग़-श्याममुखं कथं ते । श्रेष्ठिना वेश्योक्तं प्रोक्ते 15 शुकेनोक्तं एक रत्नमादर्शोव धृत्वा वेश्याग्रे प्रोच्यं-त्वया भूपस्य पश्यतः, इदं आदर्शमध्यस्थं रत्नं गृहाण एवं कृते यदा सा वक्ति, इदं कथं गृह्यते तदा त्वयाऽऽस्येयं स्वप्न ] सशमिदं रत्नं, तथा कृते वेश्या जिता । वेश्यया शकधीाता। ततः स शको मागयित्वा गृहीतः । शुकस्य पक्षौ छेदयित्वा दास्यग्रे वेश्यावग, अयं शुकः शाकत्वेन कार्यः कार्यार्थ गता। शुको नष्ट्वा खाले प्रविष्टः दास्या शुके नष्टे अपरं मासं शाकत्वेन कृतं, सा च शाकं तं शुकधिया 20 चखाद, जगाद च भो शुक यत्त्वया मम धनं निर्गमितं श्रेष्ठिनो बुद्धिदानात् [ तत् । कृतफलमेवं पश्य, ततस्तदुक्तं खालस्थः शृण्वन् छन्नं तस्थौ । भीतः शुकः खालागतमन्नं खादन् जातपक्ष उड्डीय गतो वने, वेश्या तु नर्तितुं कृष्णालये समागता । शुकस्तु कृष्ण पृष्ठौ स्थितः प्राह अहो वेश्ये अहं कृष्णस्तुष्टो वरं मार्गय, तयोक्तं वैकुण्ठं नय मां । तेनोक्तं मस्तकं भद्रीकृत्य लोकसमुदाय
1 तदाह तत्र नेष्ये । ततस्तथाकृत्वा यदा साऽगता तदा शूको गत्वा 23 वृक्षशाखायां प्राह
शठोपरि शठं कुर्यादादरोपरि आदरं ।
त्वया मे लुचितौ पक्षी, मया ते मुडितं शिरः ॥१॥ ततः स्ववैरवलनसम्बन्धं प्रोक्त्वा शुको गतः ।
इति शठोपरि शठेतिविषये शुककथा ॥५४१।।
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३०४ ]
प्रबन्धपती [ 543 ] अथ करहामकरि पापदाने उष्ट्रः सम्बन्धः । एकस्मिन् प्रामे एको द्विजो ग्रहणादौ जायमाने दानं गृहाति । तदा भार्या वक्ति । इदं दानं पापनिबन्धनं । ततः क्रमात् विप्रो मृत्वा उष्ट्रोऽभवत् । पत्नी मृत्वा राजपुत्री जाता । क्रमात् सा पुत्री राक्षा भीमभूपाय दत्ता, स च परिणिन्ये तां तदा स एव उष्ट्रस्तस्मै दत्तः । स भारितउपस्करैः मार्ग भीमश्चचाल । बहुभारादुष्टः आरटति भृशं. इतोऽकस्मात् तमेव ग्रामं दृष्टा राजपुत्री जातिस्मृति प्राप्य प्राम्भवं दृष्ट्वा पश्चाद्भवसंबंधिनं पति जज्ञे । ततः प्राह
करहा मकरि करक्वडो भार घणोघर दूरि ।
तूं लेतो हूं वारती राहु गिलंतइ भूरि ॥१॥ एतत् श्रुत्वोष्ट्रोऽपि जातिस्मृत्या प्राम्भवं ज्ञात्वा पश्चात्तापवान् लात्वाऽनशनं स्वगं गतः । 10
इति करहामकरि पापदाने उष्ट्रः सम्बन्धः ॥५४२।।
[ 543 ] अथ कर्मणि कृष्णसागरनीरसम्बन्धः । एकस्मिन् ग्रामे कृष्णभूपस्य मलयेन्द्रो पत्नी, सागरनीरौ पुत्रावभूताम् । गोत्रिभिः समेत्य राज्यं गृहीतम् ।
कृष्णः सकुटुम्बो रात्रौ नष्टः एकस्मिन् पुरे गतः । पत्नी परगेहेषु कम कृत्वा सर्वेषामुदराणि 15 भरंति । अन्यदा तत्रागतसार्थवाहेनापहृता, सार्थवाहस्ततोऽचलत् ता पत्नों कर्तुं तस्याः पुरः
प्राह यदा, तदा सा जगौ मया ब्रह्मचयव्रतं वर्षत्रयं यावद् गृहीतं तद्नु यथारुचिरं करिष्यते। ततः स सार्थो हष्टः, मलयेन्द्री स्वं शीलं पालयति, परं पतिपुत्रवियोगाद दुखिनो, इतः कृष्णः -पत्नीमदृष्ट्वा ततो निगतः, अग्रे गच्छतस्तस्य नदी समागता, एकं पुत्रं पूर्वनद्याः परकूले मुक्त्वा यावद् द्वितीयं पुत्रं नेतुमायाति तावत्मकरेण गृहीतो गिलितश्च । मकरो गच्छन् दूरं मात्सिकहस्ते चटितो। मासिकैर्विदारितः । पुमान निर्गतः । ततस्तैर्मुक्तश्चन्द्र पुरे । समेतो राज्ञा पुरद्वारे रक्षकः कृतः ।
इतो दैवयोगात् नदीतटयोह्रौं सागरनीरों सौवर्णिकहस्ते चटितौ, सौवर्णिकः स्वपुत्रौ कृत्वा स्थापयामास । क्रमाद् बधमानी अभ्यासं कुरुतः । ततः कस्यचित् क्षत्रियस्य अर्पितो स क्षत्रियो भूपस्य सेवा करोति ।
इतः स सार्थवाहस्तत्रायातः । राज्ञातौ क्षत्रियपुत्रौ रात्रौ रक्षा कर्तुं मुक्तौ तदा नीरसागरौ परस्परं स्वपितृमातृराज्यगमनादिकं चरित्रं सांप्रतिकमेवं सम्बन्धं प्रोचतुः तदा मलवेन्द्री स्वपुत्री जझौ, ततः सा पुत्रयोमिलिता प्राह
विहां कान्हड किहां मलयेन्द्री, किहां सायर किहां नीर । दैववसिंह मलयेन्द्री मिली, नो मिलीओ पुण कन्ह ॥१॥
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चतुर्थोऽधिकारः
[ ३०५ ता ताभ्यां वातां कुर्वाणां श्रुत्वा सार्थवाहश्चकितो भूपपाधैं गत्वा प्राइ, मद्य यो रक्षिती मुक्तौ तौ कुसोलिनी, ततो राज्ञा कष्टेन शूलायां क्षेपितुमादिध्ये यदा चलितौ तौ हन्तुं तदा तो प्रोचतुः-किहां कन्हत . गाथां श्रुत्वा द्वास्थः
किहां कान्हउ किहां मलयेन्द्रि किहां सायर किहां नीर ।
मिलीया सागर नीर मम, नो मलीया मलयेन्द्रि ॥२॥ एना गाथा श्रुत्वा पुत्रौ पितरं ज्ञातवन्ती, पितापुत्रो ज्ञातवान् , ततो राझो झापितं सर्व त:स्वसंबंधः । ततो मलयेन्द्री कृष्णस्यापिता, सब कुटुबं मिलितं । ततोऽन्यदा सूरी शत्रावभ्येत्यावग्, अधुना त्वा वरीतुं वाच्छामि त्वं स्वपुरे गच्छ, ततः कृष्णः स्वपुरं प्रति चचाल, स्तोकवलेन देव्याः सानिध्यात् गोत्रवैरिणो निर्धाट्य स्वं राज्यं जग्राह । ततो गुरुपार्श्वे धर्म श्रुत्वा जैन धर्म प्रतिपद्य स्वर्ग गतः ।
10 इति कर्मणि कृष्णसागरनीरसंबंधः ॥५४३॥
[ 544 ] अथ स्वपक्षहंतरि कच्छपसम्बन्धः । एकस्मिन् कूपे कच्छपा घहवस्तिष्ठन्ति स्म । माछिका [ मारिसकाः ] आगच्छंति तान् ग्रहीतुं यदा [ तेषु ] स एकः कच्छपो निःशंकमन्यं कच्छपं दत्ते, स च याति, तदा वृद्धकच्छपेनोक्तं नाप्यते कच्छपः, यदा स्तोका कच्छपा भविष्यति तदा स्वामपि ग्रहोध्यन्ति, स च न मन्यते 16 वृद्धोक्तं, क्रमात् स्तोकेषु कच्छपेषु जातेषु, स एव कच्छपो [ मासिकैः ] माछिकैगृहीतः आक्रन्दं करोति स्म, तदा वृद्धेनोक्तं
कि क्रन्दसि कुलांगार, स्वपक्षपरिघातक ।
स्वपक्षे हि परिक्षीणे, कोऽत्र त्राणं करिष्यति ॥१॥ . सतो वृद्धः कच्छपो नष्वाऽन्यत्र गतः ।
इति स्वपक्षहतरि कच्छपसंबंधः ॥५४४॥
[ 545 ] अथ स्वार्थसाधने सिंहोन्दिरसंबंधः । एकस्यां गुहायां उंदिरो महास्तिष्ठति । अन्यदा तत्र विवातगुहार्या सिंहः समागात् । वयं स्थानकं दृष्ट्वा तत्र तिष्ठति, उंदिरः सिंहस्योपरि हिंडन कर्करान् पातयति । सिंहस्तं हन्तुं न शक्नोति ततो दथ्यौ, मया हन्तुं न शक्यते, ततो बिडालं बिना उन्दिराः हन्तुं न शक्यते । ततः सिंहो 25 बिडालपार्श्वे गस्वाऽवग, ममैको वैरी उंदिरो विद्यते, तं त्वं यदि हंसि तदा तुभ्यं भक्ष्य ददामि, ततः सदा सिंहो बिडालाय मांसं दत्ते, यदा हंतुं उदिरं याति, तदा पत्नी प्राह, त्वयोत्तरः सदा कार्यः। यदा उंदिरो तस्ततस्तव किमपि नार्पयिष्यति एवं बहवो दिना गताः । एकदा भार्यया वार्यमाणोपि गत उंदिरं हन्तुं बिडाले नोंदिरो हतः। सतो बिष्डालो मध्य मार्गयितुं
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३०६ ]
प्रबन्धपश्वशती यदागसः सदा सिंहः प्राह अध त्वं आगतो मां मांसं मार्गयितुं, यदि कल्ये समेष्यति तदा हत एव । त्वं गच्छ स्वस्थाने । ततो बिडालः स्वपत्नीपार्वे गतो यदा तदा पत्नी प्राह
निजार्थ निखिलो लोकः सेवतेऽन्यं निरंतरं ।
अतो जीवितमिच्छेश्चेत् तदा तत्र बजाद्य मा ॥२॥ 5 सक्तं च
अपसर्पति कार्यार्थी, कृतार्थी नावसति । दधिकर्णकदुर्बुद्धिः रचणीयस्त्वया हतः ॥२॥
इति स्वार्थसाधने सिंहोंदिरसंबंधः ॥५४॥ [ 546 ] अथ पापविषये काष्टश्रेष्टि-वज्रा-गज-संबन्धः । भोगपुरे काष्टश्रेष्टिनः पत्नी वधा । देवशर्मा पुत्रोऽभूत् । गजोद्विजो मित्रं, शुकसारिके वर्ण विद्यते, काष्टश्रेष्टी गजं मित्रं गृहे मुक्त्वा विदेशे लक्ष्मीहेतवे चचाल । गजवजयोः परस्परं प्रेम जातं, वो गजपाइर्वे यांतीं दृष्ट्वा सारिका वक्ति शुकं, शुक्र ! विलोकय, श्रेष्ठिपत्नी वना परपुरुषेण सहाभोगदानात् पापिनी पापं कुर्वाणास्ति, ततः सारिका गजेन हता । ततः शुको
मौनं चक्रे । एकदा तस्य गृहे साधुयुगं विहर्तुमागात्, एकेन वृद्धेन साधुनोक्तं लघोरले अस्य कुर्कुटस्य 16 मंजरी योऽति स राजा भवति । एतत् श्रुत्वा गजः प्राह-वजां प्रति अस्य कुकुंटस्य मंजरी
मह्यं देहि, ततः कुकुटं हत्वा मंजरी रंधिता, गजः स्नानाय गतः । इतः पुत्रो लेखशालातः भागात् भोजनं याचते स्म । मात्रा मंजरी दत्ता विस्मृत्य, लेखशालायां गतः। इतो गज आगतो जेमितुमुपविष्टः, मंजरीमदृष्ट्वा पुत्रभक्षितां झात्वा प्राह-मंजरी तां देहि, सावग पुत्रं हत्वा दास्यामि,
एतत् श्रश्वा धात्री लेखशालायास्तं बालं लात्वा दूरदेशे गता, तत्र राज्यं जातं तस्य शिशोः, 20 इतः श्रेष्ठी विदेशात् लक्ष्मीमुपायं गृहागत: पत्नीपुत्रौ अष्टा शुकं पप्रच्छ । कगता में पत्नी ?
ततः शकेन गजवनयोश्चेष्टितं प्रोच्योक्तं दरे वनागजौ गतो. वैराग्यं जातं दीक्षा गृहीता काष्टेन वनागजी दैवयोगात् पुत्र राज्यपुरे गतौ वासं चक्रतुश्च । इतः स काष्टर्षिभ्रमन् वजागृहे विहतु गतः । वज्रा स्वपति उपलक्ष्य दध्यौ एष मां यदि उपलक्षयिष्यति तदा मा
गजयुतां हनिष्यति ततो भिक्षामध्ये स्वस्वर्णमुद्रां क्षिप्त्वा छन्नं पुत्कारं चक्रे एषः साधुश्चौरो 26 मम गृहांतश्छन्नं हेम लात्वा गच्छन् अस्ति, स्तन्यदोषो ददे तया, भूपपाश्र्व गता प्राहाऽयं चौरः।
ततो राझा यावद् हन्तुमादिष्ट: तावद् धात्र्या पितुः स्वरूपं प्रोक्तं तवायं पिता, ततो राज्ञा माताऽपि पापिनी पितृहन्त्री ज्ञात्वा कर्षिता । राजा श्राद्धो जातः ।
इति पापविषये काप्टश्रेष्टि-बज्रा-गज-सम्बन्धः ॥५४६॥
[547 ] अथ चतुर्जामातसम्बन्धः । 30 एकस्य विप्रस्य चतस्रः पुध्योऽभूवन् । ताश्च परिणायिताः पृथग प्रामे ! एकदा चत्वारोऽपि
जामातर आकारिताः । भक्तिः पक्वान्नादिदानात् सदा तेषां क्रियते । एकोऽपि तेषु जामाता
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चतुर्थोऽधिकारः
[ ३०७
न चलितुमिच्छति, ततो दिनेदिने बहु धनं भक्षितं ज्ञात्वा ताम् चांलयितुं भग्नभाजनानि जेमितुं मतानि । तत उत्थाय चित्रशालायामुपविष्टाः । गोविंदोऽवग् चल्यते अपमानं कृतं श्वशुरेण । ततः समुत्कलयित्वा पत्नी नीत्वा चचाल, “भग्नभाजनो गोविंदः । " यदा न त्रयश्राकन्ति तदा श्वशुरेण तैलं पर्यवेषितं, ततः माधवनामा सोऽपि अपमानं ज्ञात्वा चलितः “तिलतैलेन माधवः ।" ततो द्वावपि न चलतः ततस्तृणशय्या प्रस्तारिता, ततस्तमपमानं ज्ञात्वा विक्रमाचाळ "विक्रम- 5 सृणशय्यायां ।” ततो गागिलो यदा न चलति ततो गले धृत्वा कर्षितः, "अर्धचन्द्रेण गागिला । " भग्नभाजनो गोविंदः, तिलतैलेन माधवः । विक्रम स्तृणशय्यायामर्ध चन्द्रेण गागिलः ॥१॥
एवं चत्वारोऽपि जामातरो गताः । एवं जीवा संसारे कर्मपराभवं दृष्टवा वैराग्यभाजः केचिद् भवन्ति ।
इति चतुर्जामातृसंबंध ॥५४७ ॥
[ 548 ] अथ भाग्ये सुजाण - बूबस - संबंधः ।
श्रीपुरे भीमश्रेष्टिनः सुजाणबूबसौ पुत्रौ । सुजाणो विज्ञः बूबसो मूर्खः किमपि लेखक न वेत्ति, श्रेष्टिनो गृहे कोटिद्वयं धनस्य । एकदा श्रेष्ठी मृतः । सर्वधनसंख्यायाव्यवसायादि सुजाणः करोति ।
10
15
एकदा पत्नी प्राह बूबसो प्रति दिनं बही श्रियं व्ययति, भवानुपार्जयति, वे पृथक क्रियते, ततः पत्नीप्रेरितेन सुजाणेन अपृथगीभवन्नपि बलात् बूबसो पृथग् कृतः । टंकान सहस्राक दत्तं तेन सुजाणो हृष्टः पत्नी युतो जातो बहुश्रीस्थितेः, ततो व्यवसायं कुत्रतः क्रमात् सुजाणस्य लक्ष्मीस्त्रुटिता बूबसेन शालकपार्श्वात् हवं मंडापितं दिने दिने तथा लाभो जातः यथा स्तोकैरब्दैः कोटिद्वयं जातं, सुजाणो निःश्वोभूतो लज्जमानो रत्नद्वीपे ययौ, तत्रापि रोहणाद्री व्यवसायं 30 कुर्वतो पिनश्रीर्जाता । ततः यथा स्तोककर्मकरो भूत्वा चन्द्रश्रेष्टिगृहे स्थितः ।
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इतो बूबसो भ्रातरंगतं ज्ञात्वा दुःखी विदेशादागतान् लोकान् पृच्छं पृच्छं सुजानगमनं जलो, ततस्तत्र गतो भ्रातुर्मिलितः वस्त्रादिदत्तं लक्ष्मीही दत्ता सापि त्रुटिता, बूषसेनोकं गम्यते रोहणाद्रौ । ततस्तत्रगतो भूमिर्गृहीता सुजाणेन भूमिः खनिता परं किमपि न प्राप्तं । खूबसेन तु प्रथमे कुद्दालिकाघाते खपादलक्ष रत्नं प्राप्तं, तदपि भ्रात्रे दत्तं ततो व्यवसायं कुर्वन् सुजाण 25 स्तदपि रत्नं बुभुजे दुःस्थोऽभवत्पुनः, ततो बूब से नोकं कृषिः करिष्यते, सज्जे इलादिके कृते सुजाणः प्रादाय भद्रा विद्यते तेन वर्ये दिने हलं खेटयिष्यते । बूचसः प्राह- 'भाग्यवती का भद्रा' एवं प्रोक्स्वा हलं खेटयतः [ क्षेत्रे ] अकस्मात् निधानं क्षेत्रे बहु धनं निर्गतं राज्ञापितं राज्ञापि तस्मै दत्तं, सुजाणो बर्या वेळां विलोक्य हलं खेटयितुं लग्नः परमभाग्यात् कुत्रातादिनाधान्यं किमपि न निष्पन्नम् । ततो दुस्थोऽभवत् भृशं ततो बूबसः स्वभ्रातरं स्वपुरे [ नोवा ] भक्ति 30 करोति धान्यादिवादानात्, [ततस्तेन ] गुरवः प्राम्भवं पुष्टाः प्रोचुः बूत्रख सुजानयोः पुरः |
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३०८]
प्रबन्धपश्चाती
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सुजाणः प्राग्भवे कृषणोऽभवत् परं ज्ञानपंचमी भाराधयामास तेनात्र मवविज्ञोऽभूत, रानाभावात् दरिद्री। बूबसरतुप्राग्भवे दानं ददौहान नारराध तेन लक्ष्मीबही जाता मूर्खत्वं च इति श्रत्वा द्वावपि भ्रातरौ धर्म चक्रतुः ।
इति भाग्ये सुजाण-बस-सम्बन्धः ॥५४८॥
[ 549 ] अथ दुःस्थतायां राम-ऋषि-सम्बन्धः । यदा श्रीरामो वनं प्रति पचाल तदा ऋषेराश्रमपावं यावदागतः तावद् ऋषिः श्रीरामदृष्टेः पश्चादन्यत्र गत्वा स्थितः।
ततो राम ऋषिमनो ज्ञात्वा, वनवासे स्थित्वा, रावणं जित्वा, यदा ऋषेराश्रमे समागात तावत् ऋषयः सम्मुखा भागताः आगतस्वागतं चक्रुः । तदा श्रीरामः प्राह
स एवाहं स एव त्वं, स एवायं तवाश्रयः ।
आदरं शिथिलीकृत्य पुनरेव किमादरः ॥१॥ ऋषिः प्राह
धनमर्जय काकुस्थ ? धनमूलमिदं जगत् । अन्तरं नैव पश्यामि निर्धनस्य मृतस्य च ॥२॥ जाइ स्वं विजा तिनीवि निवईतु कन्दरे विवरे । अस्थञ्चीयपरिवुढो जेण गुणा पायडा हुंति ॥३॥
इति दुःस्थतायां रामऋषिसम्बन्धः ॥५४९॥ [ 550 ] अथ सीताशुद्धिभवनसम्बन्धः ।
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__ श्रीरामो यदा सीतां स्वगृहेऽनेषीत् तदा एके जना वदन्ति सीता इयंतं कालं रावणगृहे 20 स्थिता शीलं कथं पालितं ? [अभावि भाविरंडान्य स्त्रियोः को विशेषः । एवं श्रुत्वा श्रीरामो
यदा कृष्णमुखोऽभूत् तदा सीतयोक्तं अहं अग्नयादौ प्रविश्यात्मानं शुद्धं करिष्यामि । ततः खादिरांगारैज्वलद्भिः शतहस्तप्रमाणा खानिभृता । सीतानुप्राह
यदि राम मुक्त्वा मया कोऽप्यन्यो मनसि कुबुद्धथा भतृबुद्धया च धृतो भवति तदाह मस्मीभवामि, एवं प्रोग्य ततः मनुष्येषु लक्षेषु मिलितेषु स्वहस्ते तप्तं गोलकं लात्वा खानि25 मध्ये पदभ्यो चलित्वा खानेरपरतट गता परं मनाग न दग्धा. ततः सीताश
कृष्णमुखं [ दृष्ट्वा ] मया मुधा समयेऽसमयं कारित इति । श्रीरामः कृष्णमुखः दध्यौ मया मुधाऽ. समये सपथं कारितेति सीता श्रीराम प्रति प्राह
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चतुर्थोऽधिकारः
मा मा विषादभवनं भुवनैकवीर, निःकारणं विगुणिता किमियं मयेति । देवेन केनचिदहं दहने निरस्ता, निस्तारिता लु भवता हृदयस्थितेन ॥ १ ॥ तो लोकः
सीतया दुरपवादभीतया, पावके स्वतनुराहुतिः कृतो । पावकोऽपि जलतामियाय यत्, तत्र शीलमहिमानिबन्धनम् ||२|| इति सीताशुद्धिभवनसम्बन्धः ||५५०||
[561] अथ तीर्थप्रभावे सहिजगपुर श्रीशांतिनाथसम्बन्धः ।
सहिजगपुरे श्रीधर श्रेष्ठिनो रात्रौ श्रीशांतिजिनः स्वप्नेऽभ्येत्यावगू-उत्तिष्ठ चउरडीग्रामे गच्छ, तत्र नयास्तयोरुभयोः पार्श्वे समस्तकं [ घटः पतितोऽस्ति ] घटं च पतितमस्ति, तदत्रानीय योजयित्वा प्रासादे स्थापय । भवतो ग्रामस्यास्य वयं भविष्यति । ततः सप्ताष्टजना एक शकटं 10 लावा तत्र गत्वा प्रभोः सशीर्ष घटं च रथे स्थापयित्वा गच्छन्तो नदीतटे सायं स्थिताः ।
[ ३०९
तत्रापि स्वप्नेऽभ्येत्य प्रभुः प्राह तस्य, अधुना ग्रामे गच्छत पश्चादुःशकं भविष्यति । ततस्ते चलिता यावन्नदीमुत्तीर्णास्तावत्तथा वृष्टो मेघः यथा उभयोः कण्ठयोनें दीपूर्णा, मेघे वर्षति सा प्रतिमा पुरे प्राप्ता उत्सवः कृतः । ततः प्रभृति तन्नगरं सुखं [ सुखि) जातं । अधुना तत्तीर्थ सुप्रभावं विद्यते, तस्मिंस्तीर्थे यो यवन उत्तरति तस्य तुरङ्गमादि म्रियते, ततोऽधुना कोऽपि तस्य 15 तीर्थस्य प्रतिकूलं न चिन्तयति । लोकस्य मनोरथान् पूरयति प्रभुः ।
इति तीर्थप्रभावे सहिजगपुर शांतिनाथसम्बन्धः || ५५१ ॥
१. प्रतिमा इति वाच्यार्थः ।
5
[552 ] अथ नवसारीपुर - श्मा मल पार्श्वनाथ - सम्बन्धः ।
नवसारीपुरे प्रभुः पार्श्वः स्वप्नेऽभ्येत्य श्राद्धानां पुरः प्राह-मामितो भूतलात् कर्षयन्तु भवतः वर्यं भविष्यति । ततस्तस्माद्भुवस्तलात्प्रभुः कर्षितो यदा तदा प्रभोः शरीरे चन्दन- 20 पुष्पाणि अशुष्कतानि दृष्ट्रा लोकञ्च मत्कृतः स्तुतिः चके । ततः पार्श्वः प्रासादे स्थापितः । ततोऽद्यापि चंदनपुष्पाणि न शुष्कंति । प्रभोः शरीरादमृतं [झ ] गिरंति, लोकानां चिन्तितं पूरयति श्रीश्यामलपार्श्वः ।
इति नवसारीपुरश्यामलपार्श्वनाथसम्बन्धः || ५५२॥
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प्रबन्धपश्वशती
[663 ] अथ देलउला श्रीआदिनाथसम्बन्धः ।
F
dearer श्री आदिनाथः सप्रभावः आराधकस्य मनोरथान पूरयति । अन्यदा वोवह ग्रामबुकरः प्रतिमामुत्पाट्य रात्रौ निर्गतः । वर्त्मनि अन्धो जातः । ततो विध्यन् रात्रावेव पश्चात् स्वस्थाने मुमोच । ततः पश्यन्नभूत् । एकदा कटीपुरायवनस्तत्राभ्येत्य तां प्रतिमां नीत्वा खपुरे 5 गतः । प्रथमे दिने आसना [ना]श्वो मृतः । द्वितो दिने पुत्रः शूलरोग पीडितोऽत्यन्तं यदा मृतप्रायो जातस्तदा तां प्रतिमां श्राद्धानां दत्त्वा भोगनिमित्तं सहस्रद्रम्मा दत्ता पश्चात् स्वस्थाने प्रेषिता, प्रतिम सप्रभाव ज्ञाखा कोऽपि प्रतिकूलं न करोति । यस्य यदा यत् कार्य न सिद्धयति, यात्रादौ मानिते तस्य तत्कार्य सिद्धयति ।
इति देउला श्रीआदिनाथसम्बन्धः || ५५३ ॥
[ 664 ] अथ अभय देवसूरिकृतनवांगवृत्ति सम्बन्धः ।
श्री अभयदेवसूरयो विहरन्तः थंभणकस्थाने प्राप्ताः महान्याधिकुष्टरोगपीडिता हस्तमपि चालवितुं न शक्नुवन्ति । ततः सन्ध्यायां पाक्षिकप्रतिक्रमणं कृत्वा श्राद्धानामये गुरवः प्रोचुःशरीरे कुष्टोद्भवा पीडा विद्यते तावता कल्येऽनशनं ग्रहीष्यते, देहपीडया क्षणं स्थातुं न शक्यते । एवं प्रोक्त्वा रात्रौ पौरुषों भणित्वा सुप्ताः । अत्रान्तरे मध्यरात्री शासनदेवी समेत्य प्राह--प्रमो 15 स्वपिषि जागर्षि वा ? गुरुगोक्तं- जागर्मि । देवी प्राह-- उतिष्ठ, नवैताः सूत्रकोरउट्टिका [ कुट्टिका ] उन्मोहय, उत्खेलय | गुरुराह- कथमेवंविधशरीरेणोत्खेलयामि । देवी प्राह हस्ते गृहाण त्वं, चिरकालं जीविष्यसि [ भक्तान् बोधयिष्यसि ] नवांगवृत्तिं विधास्यसि । कथमेवंविधो देहोऽहं विधास्यामि ? देवतावग्-स्तम्भनकप्रामे सेटिकातटिनीतटे क्षेत्रं विद्यते तत्रासन्नपलाशतरोरधः श्रीपार्श्वनाथप्रतिमा सुप्रभावास्ति नागार्जुनयोगिस्थापिता । तां वंदस्व, ततः स्वस्थशरीरो 20 भविष्यसि । एवं प्रोच्य देवी तिरोऽभूत् । प्रातः श्रीसंघेन समं तत्र गताः सूरयः स्तुतिः कृता ।
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25
३१० ]
जय तिहुअण वरकप्परुक्ख, जय जिण धन्नंतरि । जय तिहुअण कल्लाणकोस दुरिअक्करि केसरि ||१|| तिहुअण जण अविलंघि आण भुवणत्तय सामिअ । कुणसु सुहाइ जिणेस पास थंभणपुरट्ठिअ ||२||
इत्यादि स्तवं कुर्वतपार्श्व प्रतिमा प्रकटीजाता । भूता ] । सम्पूर्णे स्तवे कृते ४ निरोगं वपुर्जातं । तत्र श्राद्धैः प्रासादः कारितः । तत्र प्रमुरुपवेशितः सूत्सर्व लोका महोत्सवं कुर्वन्ति । ततः श्रीअभयदेवसूरिणा नवांगवृत्तिः कृता । शासनदेव्या प्रभोः पूर्वभवा अवदाताः गुरोः प्रोक्ता इति । ततः स्तवनं कृतम् |
१- देलवाडा । २-कुचिका । ३-E-संज्ञकप्रतौ इवं स्तुतिः नोपलभ्यते । ४-नीरोगं
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चतुर्थोऽधिकारः
[३११ स्तम्भनस्थामहं स्तौमि ता पार्श्वप्रतिमां तथा । पूर्वाचार्यं यथाख्यायि नानास्थाननिवासिना[भिः] ॥१॥ एकादशाब्दलक्षाणि वरुणस्त्वामपूजयत् । नवाहरधिकान् (१) सप्तमासान् रामस्तामर्चयत् ॥२॥ अशीरयन्दसहस्राणि तक्षकेनापि पूजितः । सौधर्मसुरराज्येन चर्चयित्वा चिरं ततः ॥३॥ अदायि वासुदेवाय द्वारवत्यां जिनोत्तमः । ततः सागरतः कात्या विंशत्यब्दशतानि च ॥४॥ पथावत्या ततोऽपूजि पालिताया निदेशतः । आनीतः सेटिकानद्यां नागार्जुनेन योगिना ॥५॥ स्वामिस्ते पुरतस्तेन रसस्तंभो विनिर्ममे । स्तम्भनाख्यं ततस्तीर्थ संजातं जगती[ति] श्रुतं ॥६॥ नवांगवृत्तिकारणाऽऽचार्ये -- णाभयमूरिणा । नवांगदायको नाथ त्वं पुनः प्रकटीकृतः ॥७॥ दुष्टैम्लेंच्छैाढदेशे गुर्जराख्ये परिप्लुते । मङ्गलवग्निचन्द्राब्दे १३६८ स्तम्भतीर्थमवातरः ॥८॥ प्रातः समुत्थाय जिनाधिनाथं यः स्तोत्रमेतत्पठति प्रवीणः ।
रोगोरगारिग्रहसिंहशंकां मुक्त्वा यशःश्रीतिलकायते सः ॥९॥ इति श्रीपार्श्वस्तवः । श्री अभयदेवसरिकृतनवांगवृत्तिसम्बन्धः ॥५५४॥ [556 ] अथ पेथडसाधुसम्बन्धः ।
20 कर्करासनग्रामे पेयडसाधुवणिग उकेशज्ञातीयो वसन्नभूत् , तस्य पद्मिनी पत्नी । झांझणः पुत्रोऽभूत् । स बालः दुस्थावस्थायां सत्यां दुःखी जातः । इतस्तत्र तपागच्छाधीशाः श्रीधर्मघोषसूरय आगताः, तेषा पाश्र्व धर्म श्रुत्वा परिग्रहपरिमाणं गृहन् सहस्रटककानामुपरि मम नियमोऽभवत् इत्युक्ते गुरुरषक ज्ञानेन चेष्टया च त्वद्भाव्यं महद् वतते, एतावता किं भविष्यति ? गुरुणा कमात् वर्धिते ज्ञानातिशयात् , पेयडः प्राइ-भगवन् अधु ना मम किमपि विषेशद्रव्यं 25 नास्ति, परं कदाचिदने प्राप्नोमि तदा मया पंचलक्षटंककामामुपरि गृहे न स्थाप्यं, धर्मे व्ययनीयं १-पारो, इति भाषायाम् ।
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३१२ ]
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धनं, ततः क्रमाद् गुरुणा प्रत्याख्यानं कारितं । ततः क्रमाद्दुःस्थत्वे पुत्रं शुंडकारूढं कृत्वा मालवकं प्रति पेथडचलन मालवकसन्धौ गतः । तत्र सर्पममे उत्तरतं दृष्ट्वा यावत् स्थितस्तावदेको मारवः२ समागात्, तेनोक्तं कथं स्थितं, स च सर्पं दर्शयामास | मारवः सर्पशिरःस्थदुर्गा दृष्ट्वागयदि वहन्न अयास्यः तदा मालवकराज्यमभविष्यत्, तथापि शकुनं मानयित्वा गच्छ मालवs, 5 महाधनी भविष्यसि । ततः स मालव के गतः । गोगादेवभूपस्य मंत्रिणः सेवकोऽभूत् ।
एकदा राज्ञा गृहीतेषु बहुष्वश्वेषु मंत्री धनं याचितोऽवग् “मम पार्श्वे [कोशे] नास्ति" । ततो राम्रोक्तं “लेखकंश् देहि” स च [ दिङ्मूढो जातः ] सचालवित्वात्पूर्व (!) कागदान्नारक्षिप्यत् ततो रक्षितो राज्ञा [चारके क्षिप्तः ] । मन्त्रिपल्या पेथडाये मन्त्रिधरणसम्बन्धः प्रोक्तः । पेथडो राज्ञः पार्श्वे गत्वाऽवकू - "स्वामिन् मन्त्री जेमनाथ मोच्यतां"। राजाऽवग्-"लेखकं विना न मोक्ष्ये"। 10 स पेथडः प्राह मन्त्री मुख्यतां, लेखकमहं दास्यें, अहं त्वस्य से कोऽस्मि । ततो मुक्तो मन्त्री मुक्त्वा भूपपार्श्वे समागात् । सर्वे लेखकं वर्षसंबंधिनं पेथडो ददौ । ततो मन्त्री मुक्तः । क्रमाद्राजा पेथडं वर्य विनं मत्वा मन्त्रिणं चक्रे । ततस्तोकैर्दिनै पंचलन [ संपत्तिः] मिलिता [ततोऽधिकलाभे] पेथचतुर्विंशतितीर्थकराणां चतुरशीति (८४) प्रासादान् कारयामास । अधिके धने [तस्य] जिनधर्म्म नाम दत्ते पश्चात् धनं धर्मे व्ययति । गुरोः पुरः प्रवेशे द्वासप्ततिः ( ७२ ) 15 सहस्रकका व्ययिता । ३२ [ द्वात्रिंशद्वर्षवयसि ] वर्ष शोकवतं गृहीतं । शत्रुञ्जय गिरिनारयोरेका ध्वजा स्वर्णरूप्यपट्टकूलमया दत्ता । ५२ द्विपश्चाशद् घटोस्वर्णेनेन्द्रमाला परिदधे । सारंगराजा कर्पूरछलेन हस्तमधः कारितः, इत्यादि बहु धर्म व्ययितम् ।
afa पेथ साधुसम्बन्धः ॥ ५५५ ॥
[ 656 ] अथ प्रह्लादनविहारसम्बन्धः ।
प्रह्लादभूपः प्रह्लादनपुरे राज्यं कुर्वन्नेकदा अर्बुदाचले ययौ । तत्र कुमारपालप्रासादे जिनप्रतिमा पित्तलमय भंक्त्वा अचलेश्वरप्रासादे पित्तलमयं शंडं, पित्तमयं देवगृहोपरि कुंभ इत्यादि कारयामास । ततो गृहे समागात् कुष्टी जातः, उपवासबहवः कृताः, रोगो न याति । ब्रझादीनामपि सेवनं कृतं तथाप्यधिका वेदना । गुरवः पृष्टाः प्रोचुः त्वया जिनप्रतिमाया भंगः कृतः नात रोगो जातः परत्र तु श्वभ्रमेव । राज्ञोक्तं कथं याति रोगः । गुरुः प्राह यथत्र 26 श्रीपाश्र्वनाथस्य महान् प्रासादः कार्यते तत्र श्रीप्रभुप्रतिमा निवेश्यते पुनः पूज्यते नित्यं सदा याति रोगः । ततो राज्ञा प्रासादादिसर्व गुरूक्तं कृतं, रोगो गतः, प्रासादे हेमकपिशोर्षाणि कारितानि तानि राज्ञा, ततः सप्रभावं तीर्थ जातं, राजा धर्मी जातः तस्मिन् देवगृहे प्रति विनं अक्षता मूढकमिता आयति एका गोणीपूगानां । ८४ इभ्याः सुखासनस्था देवनत्यर्थमायतिराजा सार्द्धं ये नृपा देववंदनार्थ प्रतिप्रभातं ये समायति तेषां संख्या न शायते ।
इति प्रह्लादनविहार संबंधः ||५५६॥
१- सुंडायां स्थाप्य । २- शाकुनिकः । ३- वही-चोपडो इति भाषायां ।
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चतुर्थोऽधिकारः
[ 667 ] अथ तपागच्छभवनसम्बन्धः ।
श्रीमुनिरत्नसूरि समीपेऽन्यदा श्रीजगञ्चन्द्रसूरयः शिष्याः प्रोचुः - भगवन् ! सिद्धान्तोक किया क्रियमाणा न दृश्यते । गुरुभिः प्रोक्तं प्रमादादस्माभिः कर्त्तुं न शक्यते । जगचन्द्राचार्याः गुः - अहं यदि सिद्धान्तोता क्रियां करोमि तदा गुरुणा रोचते न वा ? । गुरवो जगुःअस्माकमनुमतिरेवास्ति । जगच्चन्द्रगुरुः प्राह तर्हि मां शिक्षयश्वं क्रियाम् । ततः श्रीगुरवो प्रोचुः - वयं सम्यक् सिद्धान्तोकां क्रियां न जानीमः । सिद्धान्तोऽर्थो ज्ञायते तर्हि शिक्षयामि । गुरुणोक्तं- चि[वि]त्रावालोपाध्यायो देवभवः क्रियाकुशलोऽस्ति तत्पार्श्वे शिक्षय । ततस्तत्र गताः जगबन्द्रसूरयः तेषां पार्श्वे चारित्रोपसंपदं कलुः । ततः श्रीजगन्चन्द्रसूरिभिस्तेषां सूरिपदं ददे । एक गच्छोऽभवत् द्वयोः । श्रीजगचन्द्रसूरयो यावज्जीवमाचाम्लाभिग्रहं ललुः ।
ततः संवत् १२८५ वर्षे तपा नाम जातम् । जगचन्द्रसूरिभिर्देवेन्द्रसूरीणां देवभद्रसूरि- 10 शिष्य विजयचन्द्रसूरीणां सूरिपदं ददे क्रमात् । तत आराधना कृत्वा स्वर्गं गताः । इति तपागच्छ भवनसम्बन्धः ||५५७||
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[ 558 ] अथ बृद्धशालालघुशाला भवनसम्बन्धः ।
श्रीदेवेन्द्र सूरयस्तत्पट्टालंकरणाजाताः लघवो विजयचन्द्रसूरयः, श्रीदेवेन्द्रसूरिभिर्दिनकृत्यवृत्तिः, सूत्रवृत्तिः, नव्यकर्मप्रन्थपंचकवृत्ति [तिः ], सिद्धपंचाशिकासूत्र वृत्ती [तिः ], षडावश्यकवृत्तिः, धर्म. 15 रत्नवृत्तिः, सुदर्शनाचरित्रं, भाष्यत्रयं, सिरिउ सहस्तवादीन् [दयः] चतुर्वेद निर्णयकर्तार [प्रन्थाः]श्चक्रिरे । देवेन्द्रसूरयो मालबके बिहारं चक्रः श्रीविजयचन्द्रसूरयस्तंभतीर्थे गताः । क्रमाद्गुरूपान्ते [गुरुभिः] कथितं दीक्षाप्रतिष्ठादि कुर्वते । क्रमात् श्रीसंघ आत्मीयः कृतः । गुरवो मालवकादागताः, यावत् गुरवो धर्मशालायामागताः ससूरिर्थदाभ्युत्थानादि अपि न चक्रे तदा गुरुभिः कर्मबन्धं दृष्ट्रा श्रीसंघः कोऽस्माकं विषयेऽस्ति । ततस्त्रयोदश साधवो गुरुसत्काः, 20 एका साध्वी, अष्ट कुटुम्बानि श्राद्धानामासन् । ततः उकेशवंशशृङ्गारसा० साजणपुत्री दीक्षिता । गुरो लघुपाश्रये स्थिताः । साध्वीद्वयं जातम् । क्रमात् तेषां सूरीणां कुमारपालविहारे व्याख्या (नं' ] [at] १८ [ अष्टादश ] शतमनुष्या धर्म श्रोतुमुपविशन्ति । तदा लोका धर्मशालायां [लां] गच्छन्तो जगुः - " वृद्धशालायां गम्यते, लघुशालायां गम्यते । ततो वृद्धशाला - लघुशालानामजाते । देवेन्द्रसूरयो वृद्धा, विजयचन्द्रसूरयो लधनः । पुन: पौषधशालायाः चारुआ वाटक सत्कावृद्धनाम 26 ततो गच्छस्यापि ।
जातम्,
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इति वृद्धशाला - लघुशाला भवनसम्बन्धः || ५५८ ।।
[ 659 ] अथ देवेन्द्रसूरि - विद्यानन्द सूरिसम्बन्ध |
श्रीसूरयः प्रज्ञावनपुरे प्रह्लावनविहारे श्रीविद्यानन्वसूरीणां सूरिपदं ददुः । तदा देवगृहे कुङ्कुमवृष्टिरभूत् । श्रीदेवेन्द्रसूरयो मालवक[ के] स्थिताः । श्रीविद्यानन्दसूर यो विद्यापुरः[रे] 30 स्थिताः । त्रयोदशदिनान्तराळे कार्मणवशाद् दिवं वयुः । गच्छस्ततः सूरिरहितो निराधारो जातः । इति देवेन्द्रसरसम्बन्धः ॥ ५५९ ॥
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प्रबन्धपञ्चशती
[ 560 ] अथ धर्मघोषसूरि सम्बन्धः ।
ततो लघुतपागच्छे धर्मकीर्तिरुपाध्यायो विद्यानन्दसूरिभ्राता बभूव । ततः संघस्यानुमति छात्वा धर्मकीर्तेरुपाध्यायस्य पात्रकम्बलसूरिमन्त्रपानवस्त्रादिदानात् प्रीणयित्वा सूरिपदं दापितम् । व्रतो धर्मकीर्तिरुपाध्यायस्य धर्मघोषसूरिर्नाम दत्तम् । धर्मघोषसूरेः पेथडसाधुमहान् श्राद्धोऽजनि ।
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३१४ ]
धर्मघोष सूरयो देवपत्तने समुद्रोपकण्ठे प्राप्ता बहिर्भूमौ यदा तदा क्षुल्लेनोक्तम्- समुद्रो 'रत्नाकर' उच्यते, रत्नानि न दृश्यन्ते । ततो गुरुणा ध्यानबलात् समुद्रपार्श्वात् क्षुल्लकस्य रत्नं दर्शितम् । ततो वेला बलात् समुद्रे गतम् ।
देवपत्तने गोमुखं यक्षं सोमनाथप्रासादे स्थितं हिंसाकुर्वाणं कारयन्तं प्रबोध्य शत्रुञ्जयतीर्थे गुरवः स्थापयामासुः ।
एकदा विद्यापुरे दुष्टश्राविका विहारितानि वटकानि गुरुभिदृष्टानि, प्रोक्तं साधूनां पुरः, एतानि स्थाप्यता कल्ये पाषाणा भवन्ति । ततस्तथाकृते तथा दृष्टानि तानि । धर्मघोषसूरीणां व्याख्यानं कुर्वतां तया दुष्ट्या श्राविकया कण्ठे केशगुळ्क्रनकं विकुर्वितम् । गुरुभिर्विद्याबलान्मुस्वाद बहिः कर्षितम् । ततो गुरुभिः मन्त्रितः पट्टकस्तस्याः श्राविकाया उपवेशाय दापितः । स च गुह्यदेशे विलग्नः । चंदनकदानावसरे अपराऽऽस्तिकाभिरुक्तम् - "उतिष्ठ वन्दनकानि ददस्व ।” सा प्राह - " पश्चाद् दास्यन्ते ।” सर्वासु श्राद्धीषु गतासु गुरूणां पुरो जगौ – “अद्यप्रभृति मया विघ्नं न कार्यम्, मुच्यतां मां, प्रसादं कुरु । ततो गुरुभिरभिग्रहं प्राहिता, ततो मुक्ता ।
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एकदोज्जयिन्यां गुरवोऽभ्येत्य तस्थुः । साधवो बहिर्भूमौ [[म] गताः योगिना दुष्टेन प्रोक्ताः । अत्रायातः स्थिरैः स्थेयम् । साधुभिः स्थिरं स्थिता स्मेति प्रोचे किं करिष्यसि ? तेन साधूनां दन्ता दर्शिता प्रौढाः । साधुभिर्गुरूणां योगिवचः प्रोक्तम् । ततस्तेन योगिना शालायां सर्पा विकुर्विता 30 गुरुभिश्च नकुलाः प्रौढाः । ततो गुरुणा तथा जप्तं यथा राटिं कुर्वाणो विहितः पर्यस्तिको व्याख्यानावसरे आनीतः । ततो गुरुपादयोः पतितोऽनुकूलः कृतः, श्राद्धैर्मोचितः । एकदा गुरुभिरन्यो योगी दुष्टः सिंहादिरूपैः साधून भापयन् निषिद्धः ।
एकस्मिन् पुरे गुरुभिर्द्वारमभिमन्त्रय सुप्यते । अन्यदा विस्मृते द्वारे शाकिनीभिर्गुरुसत्का पट्टिकोत्पादिता । चतुष्पदे गुरुभिर्ज्ञाता तत्रैव स्तंभिता वाचा दाने मुक्ता । कस्यचित् सर्पदंशे 25 प्रातः काष्टभारिकामध्ये विषापहारवल्लो दर्शिता, तया विषमुत्तारितं इत्याद्या बहवोऽवदाता जाताः ।
तत्कृता ग्रन्थाः सङ्घाचारवृत्तिः सुअधम्मकित्तोअंतं स्तोत्रं, कार्यस्थिति-भवस्थितिस्तवौ, २४ जिनभवनस्तवाः, २४ शस्त्राशमस्तोत्रं, "देवेन्द्रंरिति” श्लेषस्तत्रः, यूयं युवां त्वात्विमिति श्लेष - स्तुतयः ४, केनचित् मन्त्रिणोक्तमष्टयमकमयं काव्यं प्रोच्योक्तम् - "ईग् काव्यमधुना न केनापि क्रियते ।" ततो गुरुभिः प्रोक्तम्- "अनस्तिर्न वाच्यः ।" तेनोक्तं तर्हि दर्शयत । गुरुभिः प्रोकं 30 कल्ये यागम्यम् । ततो गुरुभिः "जय वृषभनाभि स्तूयसे नित्य ] नाभिरिति २८ काव्यानि कृतानि, रात्रौ भित्तौ लिखितानि, प्रातस्तस्मै दर्शितानि । स चर्मस्कृतो गुरून् मत्वा श्राद्धो जातः । वैः सूरिभिः सोमप्रभसूरीण सूरिपदं दत्तम् । मरणावखरे धर्मघोषसूरिभिः सिद्धान्तपुस्तिका
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चतुर्थोऽधिकारः
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मन्त्रपुस्तिका दत्ता सोमप्रभसूरिभ्यः । सोमप्रभसूरिभिश्चारित्रपालनाय सिद्धान्तपुस्तिका गृहीवा नान्या । ततः सा मन्त्र-तन्त्र - कार्मणाद्यनेककुटिलशास्त्रसम्बन्धिपुस्तिका जळे क्षिप्ता पापहेतुका । इति धर्मघोषरिसम्बन्धः ||५६०||
[661 ] अथ सोमप्रभसूरिशतार्थकथकसम्बन्धः ।
सोमप्रभसूरयः एकदा भोमपल्यां नगर्यां ११ शतमहेभ्यशोभितायां चातुर्मासीं स्थिताः । rasafe द्विकार्तिके प्रथमकार्तिके प्रान्ते चतुर्मासीप्रतिक्रमणं कृत्वा यदा चेलुः तदा एकादशाचार्यास्तत्रस्थाः प्रोचुः --- यूयं कथमेवं प्रतिक्रमणं कृत्वा चलथ ? । गुरुभिः प्रोक्तं विघ्नं दृष्टमस्ति । ततो लोकैरन्यैः सूरिभिश्वाऽवहीलितं सूविचः । ततः परपाक्षिकै रुद्धाऽऽचार्याश्च न चेलुः केचित् गुरुणा समं चेलुः । ततः परचक्रं समागतमकस्मात् । भग्ना भीमपक्की ! धनं गमितम् । सूरिभिरप्यन्यैः पुस्तकादि [ रक्षितम् ] | श्रीगुरुणां महत्त्वं वर्धितम् । तत्कृता ग्रन्थाः यतिजीत कल्पः, 10 'यत्राखिल' स्तुतयः " जनेन" स्तुतयः, श्री धर्मस्तुति [व] ।
इति सोमप्रभसूरिशतार्थकथकसम्बन्धः ||५६१||
[562 ] अथ देवसुन्दरसूरि सम्बन्धः ।
श्रीसो मतिलक सूरिशिष्याः श्रीदेवसुन्दरसूरयो ऽभूवन् । तेषां सूरिपदं दत्तं पत्तने । सो० प्रथमेन कारितम् १४२० वर्षे च युगप्रधानोपमा विहरन्ति ।
एकदा गुरवो बहिर्भूमौ गच्छन्त । तूंगडी सरसि प्राप्ताः । इतः कणयरोपावयोगिशिष्य उदायिपायोगिना नमस्कृताः तदा सं० [घपति] नरीआकेन पृष्टम् - " त्वं कुत आगाः ?” । योगी प्राह- कणयरीपादयोगिना मम गुरुणा ज्ञानिना गिरनारस्थेनोकं अधुना पत्तने तत्र गूंगडी सरसिं यः सूरिर्मिहति स मुक्तिगामी त्वया वन्दनीयः । अतो मया भक्त्या वन्दिताः । ते [तब] च गुरat यदा स्वर्गं गतास्तदा खरतर सं० [धपति] गोसलाग्नेऽभ्येत्योक्तं तैः - ' वयं तुर्ये स्वर्गे गताः सम” यतः-
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छेव ेण गम्मद चउरो, जा कप्प कीलीआई सु । चउसु दुदु कप्पवुड्डी, पढमेणं जान सिद्धी वि ॥१॥
तेषां शिष्याः श्रीसोमसुन्वरसूरयोऽभूवन् । इति श्रीदेवसुन्दरसूरि सम्बन्धः ।
[563 ] अथ श्रीसोमसुन्दर सूरि सम्बन्धः |
श्रीसोमसुन्दरसूरीणां गच्छे १००० साधवः वच्छिष्याः श्रीमुनिसुन्दरसूरि - श्रीजयचन्द्रसूरिश्रीभुवन सुन्दर सूरि-श्रीजिन सुन्दर सुरयोऽभूवन् । तेषामादेशात् गुणराज शेन यात्रा कृता । तस्मिन् स १० देवालयाः, ३५०० सेजवालकाः, ५०० पित्तलमयवाहनिका, ५०० बोटकाः, ३५००० शकटाः, आचार्याणां शतानि, मनुष्याणां लक्षद्वयं [त्रयं ] |
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प्रबन्धपत्रशती
तारंगगिरौ अनितनावप्रतिष्ठा मन्त्रि] गोविन्देन कारि(रापिता। तत्र मनुष्याणां बहयो लक्षप्रमाणा मिडिताः कल्याणको(?)द्वारो गिरि नार]गिरी सं०[धपति समरसिंहमालवदेवाम्या कारितः । राषपुरे चतुर्मुखप्रासादः सं•धरणेन कारितः।
इति श्रीसोमसुन्दरमरिसम्बन्धः ॥५६३॥
[ 564 ] अथ श्रीमुनिसुन्दरमरिसम्बन्धः । श्रीमुनिसुन्दरसूरिभिरष्टादशवारं लक्षप्रमाणसूरिमन्त्रो जपितो। यत्र तत्राऽमारिप्रवर्तनं राक्षः पार्धात् कारितम् । शान्तिकरस्तवं कृत्वा अमारिनिर्वारिता । १०८ हस्तप्रमाणा गुरुविज्ञप्तिका कृता । तत्कृतानेके प्रन्थाः सहनाभिधानविरुदधारकाः । इत्याद्या बहवोऽवदातास्तेषां बभूवुः ।
श्रीजय चन्द्रसूरिभिस्तु देवगिरिगतैः कृष्णसरस्वतीति विरुदं प्राप्तम् । तच्छिष्याः श्रीरत्न10 शेखरसूरयोऽभूवन् । तेषां वारके गिरिनारगिरी पूर्णसिंहकोष्टागारिक संघपति लवा[धा]काम्या
प्रासादो कारितो। तत्र विम्वप्रतिष्ठा च कारिता। कुंभलमेरो समवसरणाकारप्रासादः कारितः । तत्र चतुमुखेषु चत्वारि बिम्बानि प्रतिष्ठापयन् । तच्छिष्याः श्रीलक्ष्मीसागरसूरयः सोमदेयसूरयो विजयन्ते । इतिश्रीमुनिसुन्दरमरिसम्बन्धः ॥५६४॥
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[566 ] अथ साधर्मिकभक्तौ कुमारपालभूपसम्बन्धः । डोसामहास्थाने श्रीहेमचन्द्र सूरयो मरुस्थल्या विहारं कुर्वाणाः प्राप्ताः। पुरः प्रवेशोत्सवोऽजनि । गृहे गृहे सवात्सल्यमलार्चाः क्रियन्ते श्राद्धैः । इतस्तत्रैकस्य दुःस्थश्राद्धस्य पत्नी प्राहगृहे गृहे गुरवः पादौ ददन्ते, आत्मनोपि गृहे आकार्यन्ते, एक कोरकवखं विद्यते यत्तद् विहायते
श्रीमान् सहोप्यात्मनो गृहे आयाति । श्रेष्ठी प्राह-गुरूणां श्राद्धः कुमारपालभूपोऽस्ति, यदि 20 ज[डं] वसं विहारितं पश्यति तदात्मनः का गतिः ? । गुरवः आत्मनो गृहे दुर्बळे कथमाया
स्यन्ति ? । पत्नी प्राहाऽऽयास्यन्त्येव 1 ततस्तेन गुरवः ससंघाः स्वगृहे आकारिताः । तत् खासरकं जडवखं गुरुभ्यो दत्तम् । गुरुभिः तावं बाढं ज्ञात्वा विहरितम् । ततो गुरुभिः सकल्प: सीवायितः । तम् ] । स तद् च पत्तनपुरप्रवेशे परिदधे गुरुभिः । सन्मुखागतैः श्री
कुमारपालभूपवाग्मटाविभिातं न ज्ञायते कस्माद्धेतोरिदमीहग वस्त्रं परिदधे । पुरमध्ये धर्म25 शालायामागताः । उपदेशो दत्तो गुरुभिः । सो समुस्थिते कुमारपालभूपेन पृष्टं-भगवन् !
किमीदृशं वस्त्रं परिदघे, अपराणि किं न विद्यन्ते । गुरवो जगुः-महानुभाग ! इदं वयं एकस्यास्तिकस्यालये गृह वित्तमभूत् ।।
तेन भक्त्या विहारितम् । राजाऽवग-किमीदृशाः दुःस्थाः सन्ति ? । अस्य वस्खस्य दाता कुत्रास्ति ? । गुरुभिः तस्य नाम-स्थानादि प्रोक्तं, तस्य गुणाश्च गृहीताः। ततस्तस्याऽऽकारयितुं 30 सेवकाः प्रेषिताः । स प श्राद्धो भीतोऽभूत् । भार्याऽवग-भी नेया, गच्छ तत्र । तत्र गुरुपाचे
गवः रामा सम्मानितः, परिधापितः, दशसहस्रटकाना दत्तम् । ततोऽन्येषां साधर्मिकाना सीदता
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चतुषिकारः ७२ समप्रमाणान टङ्ककान पता | [ बहवी भीर्दसा इत्यपि ]
इति साधर्मिकमक्तो कुमारपालभूपसम्बन्धः ॥५६५।।
[666 ] अथ परोपकारे विक्रमार्कभूपसम्बन्धः । एकदा श्रीविक्रमार्कस्योपान्ते एको द्विजोऽभ्येत्यावग्-त्वं सत्यवान् परोपकार्यसि । मया भैरवगिरो भैरवसिद्धपुरुषोपान्ते सेवा षण्मासी कृता कायप्रवेशविद्यार्थ, स च न दत्ते । त्वं तां दापय । सतो राजा तत्र गतः । तस्य सेवा तथा चक्रे यथा सयः स प्रसन्नः प्राह-मार्गय चित्तेप्सितं । राजावग-अस्मै विप्राय देहि । सिद्धपुमान् प्राह-अनेन मम षण्मासी सेवा कृता परं तादृग् पात्राऽभावाद् विद्या न दत्ता, त्वं सुपात्रं विद्यते । ततो बलात्तस्मै विद्या दायिता । ततस्तेन राजेऽपि दत्ता, पश्चाद् वलितौ पुरोपान्ते समागसौ, पट्टहस्तिनं मृतं शुश्रवतुः ततः मन्त्र्यादयो दुस्थिता जाताः । तदा परकायप्रवेशविद्या परीक्षणाय स्वांगरक्षायै तत्र पुरा 10 बहिर्द्विजं मुक्त्वा पदहस्तिनोंडगे अविष्य स जीवो हस्ती जातः । इष्टा मन्त्र्यादयो। तदा स द्विजो विक्रमार्कशरीरे प्रविश्य राज्यग्रहणाय पुरमध्ये समागतः । ततोऽखिलो गेको राजानमागतं गजं सजीवं दृष्ट्रा हृष्टाः । सर्व मन्त्र्यादयस्तं राजानं सेवन्ते । परं स राजा आलापयितुं न जानते । सदा सर्वे जगुः राजा प्रथिलोऽभूत् । ततः पट्टराशी राजानं न मन्यते असदृश जल्पनात् ।
इतो राजा हस्तो पुराद्वहिर्गतो विप्राङ्गं शिवाभक्षितं ज्ञात्वा बने गतः । वने शुकं ब्रियन्तं राष्ट्रा तस्यांगे प्रविष्टः । स च शुको व्याघहस्ते उपविश्य जगौ-मा विक्रमार्कपट्टराई देहि, धनं प्राप्स्यसि । ततस्तेन विक्रमाकपट्टराझे दत्तः। राक्षा बहुधनं दत्तं । राशी तं शुकं रमयन्ती जीवितादधिकं मेने । कथादिभिः कालं गमयतः स्म ।
एकदा शुकोऽवग-यदि कदाचिन्मम प्राणा यान्ति तदा त्वया किं क्रियते १ राशी पाह-20 सव मृतौ मम मृतिः। ततोऽन्यदा शुको भित्तिस्थस्य गृहोलिकस्य म्रियप्राणस्य गते जीवे प्रविष्टः । शुकं मृतं ज्ञात्वा राज्ञी काष्ठभक्षणं याचते । विप्रराजाह-त्वं कथं जीविष्यसि ? राशी प्राह यदि शुको जीवति तदा मम जीवितं । ततो विप्रराजा स्वशरीरं मुक्त्वा शुकशरीरे प्रविष्टः । ततोगृहोलिकांग मुक्त्वा राजा स्वशरीरे प्रविष्टो पूर्ववत् । राझादीनालापयति । सत्यं राजानं ज्ञात्वा दृष्टाः सर्वे लोकाः । ततः स शुको धृतः हकितः । विक्रमार्केण सर्वमात्मचरित्रं जातं प्रोक्तं । 25 ततः शुकः स्वदेशाद् दूरीकृतो मृतः । राजा तु स्वराज्यमंगीकृत्य प्रजाः पालयामास ।
इति परोपकारे विक्रमार्कभूपसम्बन्धः ॥५६६॥ [67 ] अथ कुमारपालभूपाऽमारि-प्रासादकरण-दानसम्बन्धः । कुमारपालभूपालो द्वासप्तति भूपान् स्वा आक्ष प्राहयामास ।
कर्णाटे गुर्जरे लाटे,३ सौराष्ट्र कच्छ सैन्धवे । उचायां चैव भंमेयाँ, मालवे मारवे'• तथा ॥१॥
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३१८ ]
प्रबन्धपती
कौंकणे११ च तथा राष्ट्र, १२ कारे१३ जालंधरे।४ पुनः |
सपादलक्षे१५. मेवाडे, दोपे१७ कासीतटे१८ पुनः ॥२॥ एतेषु देशेषु अमारि प्रवर्सयामास भूपः । १४ देशेष्यपरेषु धनदानेन मैत्रीकरणेन च । १४४४ [ १४४०] नवीना जिनप्रासादा दंडकलशमंडिताः। १६०० जीर्णोद्धारा भूपेन कारिताः । 6 सप्त तीर्थयात्रा कृता च । २१ ज्ञानकोशा लेखिताः । ७२ लक्ष रुदतीद्रव्यपत्रं पाटितम् । ६८
लझद्रव्यं औचित्ये [ औदार्ये । दत्तम् । भग्नसाधर्मिकस्य १००० दीनारदानम् । एकस्मिन् वर्षे कोटिदीनारदानम् । एवं १४ वर्षेषु १४ कोटिदानम् ।
इति कुमारपालभूपाऽमारि-प्रासादकरण-दानसम्बन्धः ॥५६७॥
[668 ] अथ कुमारपालभूपालपरिग्रहग्रहणसम्बन्धः । 10 एकदा कुमारपालभूपो धर्म श्रोहेमचन्द्र]सूरिपार्श्वऽशृणोत्-“धर्म जग्राहेति सम्यक्त्वं
प्रथमं जग्राह । त्रिकालं श्रीजिनार्चा, अष्टमीचतुर्दश्योः पौषधोपवासः, पारणकदिने दृष्टिगोचरागतानामास्तिकानां यथार्ह दानेन सन्तोषः, साद्धं गृहीतपौषधानों सार्द्ध पारणककरणम् , साधूना संविभागकरणम् , प्रत्यहं त्रिभुवनदेवविहारे स्नात्रोत्सवः, श्रीहेमचन्द्र] सूरीणां पादयोवदनक
दानम् , ततोऽनुक्रमेण साधुवन्दनम् , पूर्वप्रतिपन्नपौषधानां यथाहवन्दनम् । प्रथमव्रते अमारि 16 प्रवत्तनम् । मारिः केनापि स्वयं च न वक्तव्या, मारिरित्यक्षरे विस्मृत्या जल्पने उपवासः ।
द्वितीयत्रते विस्मृत्याऽसत्यभाषणे आचाम्लतपः । तृतीयव्रते मृतधनोशनम् । चतुर्थव्रतेऽतः परं पाणिग्रहणाऽकरणम् । चतुदश्यां शीलम् , परखीसहोदरः । पञ्चमव्रते षट्कोटयः कन कस्य, तारस्याष्टौ कोटयः, रत्नानां दशशतानि, तुलानाम् , ३२ घृतमणसहस्रम् , ३२ सहस्रमणतैलम् ,
३ लक्षमूटकशालिः, युगन्धर्यादिधान्याना प्रत्येकं ११ लक्षाश्च ११ सहस्रगजाः, २००० उष्ट्राः, १० १८ लक्षसुभटाः, ५०० यानपात्राणि], ५०० शकटवाहिन्यः, २०००० गावा, ५०० गृहाणि, ५०० हट्टाः, ५०० सभाः इत्यादि ।
षष्ठे व्रते वर्षाकाले पसनात् दशयोजनात पुरतो गमन निषेधः । सप्तमे ते मद्याऽऽमिबमध्वादिनिषेधः, देवादत्तफलभक्षणनियमः । अष्टमे व्रते सप्तव्यसननिषेधः । नवमे व्रते सामा.
यिकग्रहणं मौनेन, गुरोर्वजम् । दशमे व्रते चतुर्मासे कटकाकरणम् । एकादशमे [वते रात्री 26 कायोत्सर्गकरणे मर्कोटकादिभिरचलनम् । द्वादशवते गुरुभ्यो दानं दत्वा साधर्मिकैः सह ओमनम्, पौषधशालाचिन्ताकारकस्य पञ्चशततुरङ्गमदानम् ।
इति कुमारपालभूपालपरिग्रहग्रहण सम्बन्धः ॥५६८॥
[669 ] अथ रावणऋद्धिसम्बन्धः । ___ समुद्र खाई दश मस्तका, वीस मुजा, ३० सहन्नवर्षायु, ३१ धनुषदेह, त्रैलोक्य कंटक, 30 कोहि राक्षस कुल, ६ कोडि ९९ लाख ९ सहन ९शत नवोत्तर राक्षसबल, कुम्भकर्ण
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चतुर्याधिकारः
[ ३१९
विमोषणप्रमुख १ छात्र भाई, मन्दोदरी प्रमुख सवा लाख भार्या, इन्द्रजित प्रमुख सवा लाख बेटा, सूर्पणखादि २९८ भगिनी, ३ कोटि बेटी,३ कोटि देव ओलग करई, ८८ सहस्र ऋषिपर्व भरई [गर्व धरइं] शिवशांति करई, बृहस्पति आगमु। म । उद्धरई, नारायण दीवटोड, गंगायमुना चामरहारि, नवदुर्गा आरती उतारई, विश्वकर्मा सूत्रधार, विश्वामित्र आमरण घडावई, छ ऋतु फूलपगर भरई, मंगल क्षेत्र खेडानह, मन्दोदरी प्रमुख ८ अग्रमहिषी, अनन्तवासुकि अमृत झरइ, तक्षक भंडारर करई, कुलिक उपकुलिकपग चांपई, चण्डिका तलारउं करई, क्षेत्रपाल मसाहणउं (१) धरइ, सरस्वती श्रति धरइ, गन्धर्व गीत गाई, महेश्वरो पडहो वजावई, ब्राझी वीणा वाई, कृतान्त कोट(रे) छइ, मंगल श्रीखण्ड घसइ, बुध सोनुं कसइ, धन्वन्तरि वैद्यकर्म करइ, केतु भामणां भमाडइ, लच्छि वस्त्र आणइ, सांतइ, धनद भण्डार करइ, मृत्यु पातालि धालि इत्यादि१-२ । इति रावण-ऋद्धिसम्बन्धः ॥५६९॥
[570 ] अथ इन्द्रऋद्धिसम्बन्धः । सौधर्मसभा, रत्नमयभूमिः, शकसिंहासन, दक्षिणलोकपालस्वामी, ऐरावणगजः, निर्मल वबं, मस्तके छत्रत्रयं, कनकदण्डचामर, दिव्य आभरण, ३२ लाख विमानस्वामी, वजाहरण, ८४ सहस्त्रसामानिकदेव, ३३ त्रायलिशक [त् ] देवा, ४ लोकपाला, ८ अप्रमहिषो सोलसहन देवीसेविता, १२००० अभ्यन्तरसभातणा देव, १४००० मध्यसभातणादेव, १६००० बाह्यसभा- 15 तणादेव, सातकटक, नाट्य,१ गन्धर्व,२ हय,३ गज,४ रथ,५ वृषभ,६ पदाति, ३ लक्ष ३६ सहर अंगरक्षकदेव इत्यादि । इति इन्द्रऋद्धि सम्बन्धः ॥५७०॥
[ 571 ] अथ चक्रवर्तिऋद्धिसम्बन्धः । ६६ कोडि प्राम, ७२ लक्ष पाटण ( पत्तन), ३६ लक्ष वेलाउल, १६००० रायतन, १८००० सामन्त, १४००० मउडाधा(?), ३२००० मुकुटबद्धभूपाः, ७०० राणा, १२००० महामण्डलेश्वर, 20 १--इतरदर्शनमतेन इदं वर्णनं संभाव्यते । २--भोजप्रबन्धे इत्थमुपलभ्यते
आवासं परिमाष्टिं वायु ऋतवः पुष्पोत्करं तन्वते कीनाशो महिषेण वारि वहते, ब्रह्मा पुरोधाः पुरः खट्वायां च नियन्त्रिता ग्रहततिनिणेजकः पावकचामुण्डा तलरक्षिका गणपतिः शुक्रीवती चारकः ॥१॥ दोपाः सर्पशिरोवसूनि सविता, सूपः सुतः शक्रजित्लका पू: परिखाम्बुधिः परिकरोऽमृक्पाचिकूटो गिरिः । देवा दास्यकृतोऽम्ििवजयी भ्राता छटादोऽम्बुंदः ।। पिष्टा यस्य विधिश्च सोपि गतवान् दुष्टा दशासो कशाम् ॥२॥
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३२० ]
प्रबन्धवती
५०० महाधरा, ४०० चतरासीया, ३६ राजकुली, (९) मवनिधान, १४ रत्न - सुवर्ण- रुप्याधिक आगरा ( बाकर ) इत्यादि । इति चक्रवर्तिऋद्धिसम्बन्धः ||५७१ ||
[572] अथ भोजोक्तसमस्या धनपालपूरित सम्बन्धः ।
एकदा स्त्रीपदयो पुरं शब्दयन्तं तस्याश्च हृदि हारं दृष्ट्वा राजा भोज: बनपाल पण्डित - पार्श्वे समस्यां पप्रच्छ " शंख पथवास ।"
ततो धनपालास्ता पूरयामासेति -
एक मंदिर ऊपन एकइ सुन्दरि वास । हार पयोधरसिउं रमइ, उ झंखर पयवास ||
यतः हार-नूपुरे स्वर्णकृता स्वाऽऽपणे घटिते । हारस्तु तथा हृदि न्यस्तः, नूपुरं तु रजो10 गुण्ठितपादे । अतो नूपुरं स्वस्य नीचं स्थानं वीक्ष्य रुदतीति संस्खति ।
इति भोजोक्तसमस्या घनपालपूरितसम्बन्धः ||५७२ ||
[578 ] अथ " चैत्रयाडि" पुरुषसम्बन्धः ।
एकस्मिन् पुरे एकस्य कौटुम्बिकस्य पुत्रस्य यथा तथा वदतो, यथा तथा कुर्वतो यथा तथा feveतो, यथा तथा वीक्ष्य [क्ष ] माणस्य "चैत्रयडि” नाम लोकैर्दसम् । स च दूनः सन् यदा 15 सन्मुखं वक्ति तदा लोका जगुः -त्वं यत्र गच्छसि तत्र “चैत्रयहि" भविष्यसि । स्रोऽवग्साहं यास्यामि यत्र मां 'चैत्रयदि' कोपि न वदति । अत्र तु मामेवं ख्यातिरभूत् । ततो निर्गतः म निदाघे तृषाकान्तः कस्यचिद् प्रामोपान्ते कूपे । जलमागृह्णानां स्त्रीणामन्तराले प्रविश्य इतस्ततो विलोकयन चुलुकेन जलं पिबन् स्त्रीभिः प्रोचे अयं चैत्रयडि: कुत्रागत: ? । स्रोऽवग्- मां मातरेवं कथं जल्पथ ? । ताः प्रोचुः तव लक्षणैः । ततः स दध्यौ योजनानां शतमागां अत्रापि मम 20 ज्ञायते । ततः स स्वपुरेऽभ्येत्य "चेन्त्रयडिं" वदत्सु लोकेषु न चुक्रोध |
इति चैत्र
पुरुषसम्बन्धः ||५७३ ||
[674 ] अथ दानभूषणपश्चकादिभीमसम्बन्धः ।
एकदा युधिष्ठिरो भोमस्याग्रे प्राह तथा क्रियते यथा श्रीः स्थिरा भवति । ततो भीमो महतीं शिलामुत्पाट्याधः स्थापयामास । युधिष्ठिरोऽवग् भ्रातः ! अधक्षिप्ताध एव याति । तत आवास25 स्योपरि स्थापयामास । तत्रापि भूपोऽवग्-अग्न्यादि भयमत्र । भीमोऽवग् भ्रातः कुत्र न्यासीकरोमि ? | युधिष्ठिरोऽवग् - दानं ददस्व । ततः सम्रागारं मण्डयित्वा यथा तथा जल्पन्, काले कदाचित् विकाले श्रियमर्थिभ्यो दत्ते । राजावग - भीम ! एवं श्रीः स्थिरा न भवति परं क्रूरजल्पनादिभिर्दानदूषणमेव भवति । भीमोऽवग् कथमेवं प्रोच्यते । राजा शाह
१ मूर्खजनस्य संज्ञाविशेषः प्रतीयते ।
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चतुर्थोऽधिकारः
[ ३२१ अनादरो' विलम्बश्च,२ वैमुख्यं विप्रियं वचः ।
पश्चात्तापश्च' दातुः स्यात, दानदूषणपञ्चकम् ॥१॥ भीमोऽवग-कथं दास्यामि ।
आनन्दाणि' रोमाञ्च,२ बहुमान प्रियं वचः ।
तथानुमोदना५ पात्रे, दानभूषणपञ्चकम् ॥२॥ पअपुरे चन्द्रयक्षान्तिके गत्वा दानफलं पृच्छ । ततो भीमस्तत्र गतः विनयपूर्व दानफलं तस्य पार्श्वेऽप्राक्षीत् । यक्षोऽवग-महानन्दपुरे अहं पूर्वभवे ककशवचो जल्पन् दानमदा तेनात्र भवे मम मुखं शूकराकारं जातम् । देहं तु काञ्चनतुल्यम् । यतः--
स्वर्णदानं रत्नदानं मुखेनैव सुभाषितम् । तेनेयं काञ्चनीकाया, तेनेदं शौकरं मुखम् ॥३॥
10 ततो मीमः स्वपुरेऽभ्येत्य पञ्चदूषणवर्ज पञ्चभूषणयुक्तं दानं ददौ । ततो राजाऽवगभ्रातरेवं दानं दत्तं सफलं भवति । इति दानभूषणपश्चकादिभीमसम्बन्धः ॥५७४॥
[575 | अथ सद्यस्कधीविषये वैष्णवीतापसीसम्बन्धः । एकस्मिन् प्रामे एका मठवासिका नारायणप्रासादे तिष्ठन्ती वर्षाकाले रात्रौ छन्नं चूरिमं भक्षयन्ती लोकाने जल्पति-अहं मासक्षपणं कुर्वाणाऽस्मि । ततो लोका विशेषाद् वस्त्रदानात् 16 भक्ति कुर्वन्ति । वर्षाकालात्यये उज्जागरिते हरौ विशेषतो धनं ददन्ते ।
एकदा निशि चूरिमं भक्षयन्तीं दृष्ट्वा नारायणस्तापसी प्रति प्राह-रे रण्डे ! रात्रौ चू (चौ) रिमं भक्षयसि, दिवा वक्षि लोकाने अहं मासक्षपणं करोमि । ततः सा उत्पन्नमतिः प्राह कृष्णं प्रति त्वमपि मम तुल्योऽसि । लोकाने बक्षिः वं अहं वर्षाचतुर्मास्यां स्वपिमि रात्रौ तु लोकचरितानि विलोकयसि । अतोऽहं यारशी तादृशस्त्वम् । ततः कृष्णो मौनं चक्रे । इयं मां 20 विगोपयिष्यति । इति सद्यस्कधीविषये वैष्णवीतापसीसम्बन्धः ॥५७५॥
[576 ] अथ स्पर्द्धयां काक-हंससम्बन्धः । हंसेन समं काकः स्पर्द्धा दधान उठ्यति व्योम्नि । ततो द्वावपि समुद्रतटे गतौ । हंसो मावद् वाीिमध्यस्थद्वीपे यियासुरभूत् तदा काकोपि चिचलिषुरजनि । हंसेनोक्तं-त्वं तिष्ठ । त्वया नोत्तीर्यते । काकोऽवग-त्वं यथा व्योम्नि गच्छसि तथाई न गच्छामि। ततो यदा हंस. 25 श्वचालान्धौ तदा काकोपि च कियति वारिधौ पश्चान्मुक्ते काकः खिन्नोऽधोमुख ऊध्र्वपादो जातः। तदा हंसेनोक्तम्
"ज जाणीइ रे ते कीजइ कागा, तलि मूडी नइउं पागा ।"
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३२२ ।
प्रबन्धपञ्चशती काकोऽवग--
"जेतई बोलिउं ते ९ हंसा मज्झहि व जासिइ निथइ हंसा ॥१॥ ततः काकोऽवग-कृपां कृत्वा मामुत्तारय । ततः कृपया हंसेन काकः पश्चानीतः, प्रोक्तं च अद्यप्रभृति त्वया स्पर्धा केनापि सार्द्ध न कार्या ।
इति स्पर्दायां काकहससम्बन्धः ॥५७६॥
[577 ] अथ चटूछिन्ना न जीवन्तीतिसम्बन्धः । एकस्मिन् प्रामे चत्वारि मित्राणि वसन्ति । ते तु एकदा कस्यचित् स्वकस्य छपणस्य प्राघूर्णका गताः। तस्य गृहे पल्यपि कृपणा विद्यते । यदा सा खी अद्वैश्वटुकैः१ परिवेषयितुं
लग्ना, तवा तेषां मध्ये एकेनोक्तम्10
"असिहत्था मसिहत्था, पुत्थयहत्था च झावपरमत्था ।
सव्वेहत्थ ममपत्था, चट्टहत्थं पलोअंति ॥१॥ अपरः प्राह
जीवन्ति खग्गछिन्ना, पव्वयपडीआ वि केवि जीवंति ।
जीवन्ति उदहिपडिआ, चटुछिन्ना न जीवन्ति ॥२॥ 15 तृतीयः प्राह
जीवन्ति अवहिपडीआ, भइखपडीआ पुणोवि जीवन्ति ।
जीवन्ति खग्गछिन्ना, चछिन्ना न जीवन्ति ॥३॥ चतुर्थः प्राह
जीवन्ति अम्गिपडीआ, भक्खिअखेडा वि केवि जीवन्ति ।
जीवन्ति सप्पगसीआ, चटूछिन्ना न जीवन्ति ॥४॥ श्रुत्वैतत् तया भृत्वा भृशं चट्टकैः परिवेषितम् ।
इति च टूछिना न जीवन्तीति सम्बन्धः ॥५७७।। [678 ] अथोत्तम-मध्यम-जघन्यमानने 'दंतिल' सम्बन्धः । एकस्मिन् प्रामे राशो दंतिलो मन्त्री मान्योऽभवत् । राज्ञः पुत्रे जाते वर्यवनामदानैर्दन्ति
20
१ दर्वी-"कडी" इति भाषायाम् ।
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चतुर्थोऽधिकारः
[ ३२३ लपार्धात् सर्वे लोकाः प्रीणिताः, परं गोरंभाह्वो भूमिमुग गेहमार्जनकर्ता मन्त्रिणा गले गृहीत्वा निष्काशितः, स च रुष्टोऽभवत् । ___अन्यदा प्रातर्गेहं मार्जयन् गोरंभो राज्ञि शृण्वति प्राह-दंतिलस्याहो धैष्ण्यं "राझी हस्तेन स्मृति"। राजा श्रुत्वैतत् चकितो रुष्टोऽभवन् मन्त्रिणि । राजा कुदृष्ट्या दंतिलसन्मुखं विलोकयति । ततो मन्त्रिणा ध्यातं-मया तु सर्व लोका मानिता एवं चिन्तयतस्तस्य गोरंभः स्मृतिमागात् । । गोरंभः पृष्टो मन्त्रिणा स्वं जल्पितं जगौ । ततो मन्त्री गोरंभाय बहु लक्ष्मी ददौ । गोरंभोऽवग् त्वया भी नेया, तथाहं करिष्ये यथा राजाऽनुकूलो भविष्यति । ___ततोऽन्यदा गृहं मार्जयन् प्रगेऽहं कूपेऽपतम् । राजा मम लक्ष्मों दास्यति । देवदत्तेन हदता चिर्भट भक्षितम् । अहं विषं भक्षयिष्यामि राजा दंडयिध्यति । दंतिल: परनारीसहोदर इत्यादि जल्पन् राज्ञा श्रुतो गोरंभः । ततो राक्षा पृष्टंभो गोरंभ ? एवं असंबद्धं किं जल्पसि ? 10 गोरंभोऽवग-मम वातूलं देहं विद्यते, तत एवं मया सदा जलप्यते कूटं । ततो राजा हृष्ठो दंतिलस्योपरि जातः । स्वचिन्तितं मारणसम्बन्धं च प्राह ।
यो न पूजयते गवोदुत्तमाधममध्यमान् ।
भूपासन्नान् स मान्योपि भ्रश्यते दंतिलो यथा ॥१॥ नरपतिहितकर्ता द्वेष्यतां याति लोके, जनपदहितकर्ता त्यज्यते पार्थिवेन्द्रः । 15 इति महति विवादे वर्तमाने समाने, नृपतिजनपदानां दुर्लभः कार्यकर्ता ॥२॥
इत्युत्तममध्यमजघन्यमान्यमानने दंतिलसम्बन्धः ॥५७८॥
[579 ] अथ बुद्धौ खञ्ज-छागी सम्बन्धः । एकस्मिन् वने अजा यूथं चरितुं याति । एकः सिंहो गुहातः निर्गत्य मारं मारमजामेका भक्षयति । यदा सिंहो धावति, छाग्यो नश्यन्त्य पराः । एकदैकां छागी खजां वीक्ष्य यदा पञ्चास्यो १० दधाव तदा सा छागी सन्मुखं चलिता । सिंहो दथ्यौ--अग्रे मम दृष्टौ सर्वाश्छाग्यः नश्यन्ति, एषा तु सन्मुखमायाति एवं ध्यायन सिंहो जगौ-कासि त्वं ?। छागी दध्यौ-एष मत्तो विभ्यनेवं जल्पनसि । तत उच्चैः स्वरं प्राह-मां किं नोपलझयसि ? । अहं त्वया अतापि न ।
सप्तसिंहा मया जग्धा, दश व्याघ्रास्त्रयो गजाः ।
एक सिहं वने नष्टं हन्तुमत्रागतास्म्यहम् ॥१॥ श्रत्वेति सिंहो नष्टः । इति बुद्धौ खञ्जछागी सम्बन्धः ॥५७९॥
[680 ] अथ कर्मणि कृष्णबलिपुत्रसम्बन्धः । एकदा सहस्रार्जुनभूपो हरमारराध । तुष्टो हरोऽवगु-मार्गय । राजावग्-मम वर्या पली वितर । हरव वर्य कंकणं वितीर्याह-यस्य हस्ते इदं कंकणं क्षेप्यसि सा ते वर्वा सो भविष्यति ।
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३२४ ]
प्रवन्धपश्चशती
ततो भूपः पप्रच्छ-मम मृतिः कदा भविष्यति । हरोवग-यदा तव मस्तके पुंसो हस्तादिका पतिष्यति तदा मृतिस्ते । ततो राजा मार्गे समागच्छन् कृष्णं वीक्ष्य तेन समं वार्ता कुर्वाण: कृष्णहस्ते कंकणमक्षिपत्, स च दिव्या स्त्री जाता। सहस्रार्जुनः पट्टराहों चक्रे । क्रमादाधानं जातं तस्याः, कृष्णं विना जगत् दुःखितं जातम् ।
इत एकदाऽकस्मात् सहस्रार्जुनमस्त के तस्यों एव पल्याः हस्तकंकणे लग्ने सति चंदिका पतिता, ततः स मृतः । पट्टराझी कंकणं यावद् मभन्ज तावत् कृष्णो जातः । लोका मुदं भेजुः, परं तस्याधानं ज्ञात्वोचुः किं करिष्यते । ततो विचार्य सर्वे हदयं विदार्य बालः कर्षितः। तस्य बलि नाम दत्तम् । इति कर्मणि कृष्णबलिपुत्रसम्बन्धः ॥५८०॥
[581 ] अथ गतधनरत्नार्कष्ठिसम्बन्धः । 10 कस्मिंश्चित् पुरे रत्नाष्टिनः पद्मपुत्रोऽभूत् । स च श्रेष्ठी पुत्रस्य पुरोरहो जगौ-लक्ष्मी
बहवीं प्रकटा राजा-वहिन-चौरा र दायादा हरन्ति । अतः श्रीः कियती मुवो मध्ये झिप्यते । ततो निधानमद्ध लात्वा पुराद् बहिर्गत्वा देवगृहपाधै मुवं खनित्वा यदा धनं स्थापयितुं सजीभूतो रत्नाकः पुत्रं प्रति माह-विलोकय देवगृहं, कोपि पुमान् कदापि धूर्तोऽन्यो वा भविष्यति
तदा स धनं लात्वा [यास्यति, ततः पुत्रस्तत्र गत्वा ] नरमेकं सुप्तं दृष्ट्वा पितुः पुरः प्राह । 15 पिताऽवग-कोपि धूर्वो निधि लातुमागतो मिषं कृत्वा स्थितोऽस्ति । ततः पित्रा प्रेषितो गतस्तत्र,
वीक्ष्य मृतप्रायं तं दृष्ट्वा पितुः पुरः प्राह ! पिता प्राह-परीक्ष्य जीवतो मृतस्य च कर्णो बानय तस्य । ततः कर्णौ छु श्चिच्छेद, स नोच्छवसितः। ततः कौँ पितुरपि [तौ] । पुनः पित्रा नासाथ प्रेषितः । स च नासायां छिन्नायां नोच्छ्वसितः । वतो मृतं निश्चित्य निधानीकृत्य धनं गृहमागतौ।
पुनरेकदा वनं गतौ तौ पितृपुत्रौ । निधानं गतं दृष्ट्वा उदरं कुट्टयित्वा गृहमागतौ । हातं 20 च ताभ्यां श्रीस्तेनैव धूर्तेन गृहीता । ततोन्यदा विटनटमध्ये लक्ष्मी विलसयन्तं गतनासिकाकर्ण
दृष्ट्वा पुत्रः [पितु पुरः] प्राह । ततः सम्यक् तमुपलक्ष्य राशोग्रे विज्ञप्तं [प्तः ] लक्ष्मीगमनसम्बन्धः । ततो राझा स आकारितः । प्रोक्तं, अस्य त्वया [ श्री गृहीता, पश्चादपेय । स प्राहमया मुधाऽस्य श्रीहीता नास्ति, मयास्य कौँ नासिके दत्ते, ततः श्रीनृहीता मम कर्ण-नासिका
ददातु पुनः पश्चालक्ष्मी लात्वाऽसौ [गच्छतु ] । ततो राजा प्राह -श्रेष्ठिन् ? अस्य यद् भवता 25 गृहीतं सदर्पय । ततः श्रेष्ठी संतोषं कृत्वा स्वगृहमगात् ।
इति गतधनरत्नार्कष्ठिसम्बन्धः ॥५८१॥
[ 682 ] अथ श्रीशंखेश्वरपार्श्व सम्बन्धः । जरासंघ-कृष्णयोः संग्रामे जायमाने जरासंधेन जरा कृष्णकट के मुक्ता । एकावतारिनरौ कृष्ण-बलभद्रो मुक्त्वाऽन्येषां जरा लग्ना । ततो नारायणः सः श्रोनेमिनं पप्रच्छ, जरासंध: 30 स्वसेना इनिध्यति, क उपायोस्ति येन स्वसेमाया जरा गच्छति ? |
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चतुर्थोऽधिकार नेमिकुमारः प्राह-अत्र पुराबहिर्वटसरोरधः श्रीपार्श्वप्रतिमाऽस्ति, सा च कयंते, तस्या विस्तरात् स्नानं क्रियते, तेन स्नात्रजलेन स्व शिबिर सिच्यते, ततो जरोत्तरति । ततः कृष्णेन नेमिषधसि कृते सर्वसैन्यं सज्जीभूतम् । ततः कृष्णेन युद्धं कुर्वता शङ्ख पूरितः । प्रमुश्रीपाश्व दृष्टौ जरासंधशिविरं भग्न, ततो जरासंधो यमगृहं प्रेषितः, ततो जयजयारावो जातः । सर्व भूपाः कृष्णं नेमुः। ततस्तत्र शंखपुरं वासितम् । ततः प्रभोः प्रासादा कारितः। तत्र प्रमुः । स्थापितः । ततः 'शङ्खश्वर' इति प्राम-पार्श्वयोर्नाम्नी जाते ।
इति शंङ्खश्वरपार्थसम्बन्धः ॥५८२॥
[ 583 } अथ कर्मणि घृषमसम्बन्धः । वंगदेशे महापुरे वर्द्धमानो धनी वणिग् दध्यौ-धनं विना नरो न मान्यते । यतःयस्यास्तस्य मित्राणि, यस्यास्तिस्य बान्धवाः ।
10 यस्यार्थाः स पुमान् लोके, यस्यार्थाः स च जीवति ॥१॥ द्विगुणं त्रिगुणं वित्तं भाण्डक्रयविचक्षणाः । प्राप्नुवन्त्युधमालोका दूरदेशान्तरं गताः ॥२॥ सुभीताः परदेशस्य बह्वालस्याः प्रमादतः ।
स्वदेशे निधनं यान्ति, काकाः कापुरुषा मृगाः ॥३॥ एवं ध्यात्वा वर्धमानः शुभवेलायां लक्ष्मीमुपार्जनाय शकट क्रयाणकैर्भूत्वा चचाल । तस्य मार्गे गच्छतः संजीवकनन्दको घृषभौ पीनस्कन्धौ वसतः । श्रेष्ठी मनसा विशिष्टचारिपानीयादि ददाति पालयति च । यमुनायां संजीवकः कर्दममग्नस्कन्धोऽसमर्थचरणो जातः । भग्नचरणं मृतःप्रायं वृषभं झात्वा वर्द्धमानो जगौ परिवारस्य पुरः, अत्र तु बहवः श्वापदाः सन्ति, सार्थस्योपद्रवं करिष्यन्ति, तेनास्य वृषभोपान्ते रक्षायै जनास्त्रयस्तिष्ठन्तु, अपरः सार्थश्वलति यतः-- 30
न स्वल्पस्य कृते भूरि नाशयेन्मतिमानरः ।
एतदेवात्रपाण्डित्यं यत् स्वल्पाद्भरिरक्षणम् ॥४॥ एवं प्रोक्त्वा [च्य] संजीवकस्य रक्षाकृते नरत्रयं संयोज्य चलितो वर्धमानो परं वृषभं शकटे नियोज्य बसन्तपुरे गतः । इतो बह्वापायं वनं दृष्ट्वा ते नराः दिनत्रयं स्थित्वा वसन्तपुरे गत्वा वर्द्धमानश्रेष्टिनः पुरो जगुः-संजीवको मृतो, न श्वसिति, तेन तत्र मुक्तः । श्रुस्वैतत् श्रेष्ठो 25 खेदं कृत्वा पुनः शोक मुमोच । इतो बहसिंहव्याघ्रादिजीवेषु दुष्टेष्वपि सत्सु जी
बलात् यमुनावातैः सज्जीभूतो रोचमानां चारिं । चरन् यथेच्छया वारि पिथन् मत्तोऽभूत् । नंदका वृषो गृहे पोष्यमाणोऽपि यत्नेन रक्ष्यमाणो मृतः। ततोऽन्येयुः श्रेष्ठी पुनरपरौ वृषभौ शकटे नियोज्य ततः पुराबलम् यमुनातटे समागतस् वृषभं संजीवक पोनं दृष्ट्रा प्राह--
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.३२६ ]
प्रबन्धपश्चशती अरक्षितं तिष्ठति दैवरक्षित, सुरक्षितं दैवहतं विनश्यति ।
जीवत्यनाथोपि वने विसर्जितः कृतप्रयत्नोऽपि गृहे न जीवति ॥५॥ ततः तं वृषभं स्वगृहे निनाय श्रेष्ठी ।
इति कर्मणि वृषभसम्बन्धः ॥५८३॥
[ 584 ] अथ परवंचने आषाढभूतिसम्बन्धः । देवपुरे देवशर्मा परिबाट धनी वसति स्म । स च कस्यापि न विश्वसिति घनगमनभयात् । एकदा धूतं आषाढभूतिस्तत्रागतो मिलति स्म । तस्य प्राह-संसारोऽसारो मया दृष्टस्तेनाई कस्यापि तापसादेः शिष्यो भविष्यामि । जीवितं तु तृणाग्नितुल्यं, लक्ष्मीश्चपला, संयोगास्तु
पक्षिण इव । ततो देवशर्मणा वैरागी मत्वा दीक्षितः स्वशिष्यवृतः। परं द्रव्यगमनभयात्तं मढी 10 द्वारे शापयति रात्रौ । क्रमावाषाढभूतिना तम्य पार्श्वे धनभृता वासनिका नाता, लातुं तां ववाग्छ।
___ एकदा देवशर्माणमभ्येस्य यजमानः प्राह-अहं चन्द्रपुरे बहून् जनान् जेमयिष्यामि धनं च दास्यामि तेभ्यः । अतस्तत्र पादावधारयध्वम् । ततस्तद्वयो मानितं । अन्यदा देवशम् शिष्ययुतश्चचाल । तां वासनिका वखर्वेष्टयित्वा चलति । अत्रान्तरे नदी समागता । देवशर्मा जगौ
इदं शंबलं विद्यते तेन त्वं गृहाण, अत्र तिष्ठाहं मलोत्सर्ग कृत्वा समेष्यामि शीघ्रं । देवशमणि 16 गते आषाढभूतिस्ता लात्वा नष्टः । देवशर्मा तु हुडयोयुद्धं विलोकयन् यावत्तत्रागतः तावत्तं शिध्यमष्ठा दुःखं चक्रे, मया मौढयादीदृशः शिष्यः कृतः ।
इति परवंचने आषाढभूतिसम्बन्धः ॥५८४॥
[585 ] अथ लौल्ये जंबूकसम्बन्धः । एकस्मिन् नदीतटे हुडुयुगं युद्धं कतु लग्नं । अथ रोषेण हुडुयुगं दूरमपमृत्यापसृत्य भूयोऽपि 20 समेत्य ललाटपट्टाभ्यां मियः प्रहरति स्म । तयोर्ललाटयो रुधिरं निर्गच्छदभूत् । इतस्तत्रैको
जम्बूकः समागात् । स च लौल्याद् रुधिरधारा पतन्तीं वीक्ष्य द्वयोरन्तरे प्रविष्य रुधिरं पिबति स्म । अथ तयोः शिरःसंपाते मध्यगतो जंबूको मृतः । अतो द्वयोः कलिं कुर्वाणयोरन्तरे न प्रवेष्टव्यं जंबूकवत् । इति लौल्ये जंबूकसम्बन्धः ॥५८५॥
[586 ] अथ दमे कौलिकसम्बन्धः । 26 वर्द्धनपुरे एकः कौलिको लक्ष्मीवान वसति । तस्य मित्रं रथकारोऽस्ति विशः। एकदा कौलिको
देवतायसने गतः । तत्रोत्सवं कृत्वा पश्चादागच्छन् वातायनस्था राजकुमारी सुरूपा दृष्ट्रा मोहितः । यतः
यत्रोदकं तत्र पतन्ति हंसा, यत्रामिषं तत्र पतन्ति गृध्राः । यत्रार्थिनस्तत्र रमन्ति वेश्या, यत्राकृतिस्तत्र गुणा वसन्ति ॥१॥
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चतुर्थोऽधिकारः
[ ३२७
ation गृहागतो राजकन्यागतचेतस्को निश्चेष्टकाष्ठो जातः । मित्रेण तचित्तस्थोऽभिप्रायो ज्ञातः । ततो वर्षकाष्ठैर्गरुडं वरं घटयित्वा गदाचक्र सुदर्शनादिशस्त्राणि कारयित्वा रथकारेण कोटिकायापितानि । प्रोक्तं त्वमेवमेवं कुरु, तव पत्नी राजकन्या भविष्यति । ततः स कौलिको नारायणवेषशस्त्रभृत् गरुडारूढो वर्यकीलिका संवरणेन च गगने गच्छति स्म । मंत्राधिष्ठित की लिकायोगेन स गरुडो व्योम्नि याति । कर्षितायां कीलिकायां भूमौ तिष्ठति । ततो गरुडारूढः कौलिकः कृष्णद्वेषाभृत् वातायनस्थराजकुमार्याः पार्श्वगतः । तया च कृष्णः आगतो ज्ञातः, मोहिता च, साव-स्वामित्वं मां परिणय । सोवगू-ममाग्रे षोडशसहस्राणि पल्यः सन्ति । त्वया किं करोमि । सावग्-अस्मिन् भवे त्वमेवशरणं । ततस्तेन गन्धर्वविवाहेन परिणीता । स च कौलिको रात्राभ्येत्य राजपुत्री सेवते स्म । क्रमात् मातृपितृभ्यां पुरुषसेविता पुत्री ज्ञाता । प्रोक्तं च मात्रा - नद्यश्च नार्यश्च समस्वभावास्तुल्यानि कूलानि कुलानि तासां । तोयैश्व दोषैश्च निपातयन्ति नद्यो हि कूलानि कुलानि नार्यः ||२||
पृष्टं च मात्रा, त्वया किं पुत्रि परपुरुषसेवनं कृतम् ? । साऽवग्-मया कृष्णः परिणीतोऽस्ति स्वयं । ततो राज्ञ्या रात्रौ कृष्णमागतं दृष्ट्वा हृष्टा, पत्युः पुरः प्रोक्तं च कृष्णागमनं । राजा कृष्णं जामातरं ज्ञात्वा हृष्टः ।
एकदा राज्ञो वैरं वैरिभिर्जातं । राजानो वैरिणः समागताः पुरं वेष्टितं वैरिभिः । ततो 15 राजा खचितोऽभूत् । राज्ञ्योक्तं- आत्मनो जामाता कृष्णः समस्ति स च वैरिणो जेष्यति । राशा पुत्र्याः पुरः प्रोक्तं- तव पत्यौ कृष्णे, त्वत्पितुराज्यं यदि वैरिणो ग्रहीष्यन्ति तदा किं ते भविष्यति । ततस्तथा पत्युः पुरः प्रोक्तं । स च संशये पतितोऽपि साहसं कृत्वा गरुडमारुह्य वैरिणो जयाय । कौलिकेन ध्यातम् --
निर्विषेणापि सर्पेण कर्तव्या महती फणा ।
विषं भवतु मा भूयात् फ[णा]टाटोप भयङ्करः ||३||
ततः कृष्णरूपः स प्राह-प्रिये दुःखं न कार्य, वैरिणो जेष्यन्ते मया । ततो द्वितीयदिने गरुडमारुह्य वैरिणं प्रति यदा चचाल कौलिकः तदा कृष्णो दध्यौ कदाचिदयं कौलिको जेष्यते वैरिभिस्तदा लोका गदिष्यन्ति कृष्णो भग्नः । ततः कृष्णः कौलिकशरीरमधिष्ठाय तथा युद्धं चक्रे यथा वैरिणो नष्टाः । केचन सेवका राज्ञो जातः । जयकारोऽभूत् । यतः -
सुप्रयुक्तस्य दंभस्य ब्रह्माप्यन्तं न गच्छति । कौलिको विष्णुरूपेण राजकन्यां निषेवते ||४||
इति मे कौलिकसम्बन्धः ||५८६||
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25
[ 687 ] अथ उपाये काकीसम्बन्धः ।
एकस्य सरसस्तीरे वटवृक्षे काक्या मालकः कृतः । तस्मिन् मालके काकी अण्डकानि मुखते ।
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३२८ ]
प्रबन्धपाती वृधकोदरस्थयो वृक्षे चटित्वा अंडकानि भक्षयति स्म । काकी दु:खिनी जाता । ततो बुद्धया तया राजपुश्या स्नानं कुर्वत्था जलतीरस्थछब्बास्थं हारमुत्पाट्य सप्पविले मुक्तः । ततो राजा पुरुषैरिं विलोकयद्भिः हारः सर्पविले दृष्टः हारं गृहाद्भिः सप्पं दृष्ट्वा सर्पस्तैर्हतः। काकी सुखि नी जाता।
उपायेन हि तस्कुर्यात् यत्र शक्यं पराक्रमैः । काक्या कनकसूत्रेण कृष्णसर्पो निपातितः ॥५॥
इति उपाये काकीसम्बन्धः ॥५८७॥
[588 ] अथ स्वजातित्यजन् दुःखे शृगालसवन्धः । एकस्मिन् वने चण्डखः शृगालस्तिष्ठति स्म । स च लोल्यात् पुरमध्ये प्रविष्टः श्वानस्तत 10 पृष्ठो धाविताः । शृगालो नश्यन् रजकस्य नीलीकुण्डरसे पपात । सारमेया अपि पेतु स्तत्पृष्ठौ
सर्व सहशा बभूवुः । शृगालो वने गतः । श्वानः स्वस्वपाटके गताः । वने व्याघ्रास्तं तादृशं दृष्ट्वा व्याघ्रादयो बिभ्यन्तः पलायनं कतुं लग्नाः वदन्ति च
न यस्य चेष्टितं विद्यात् न कुलं न पराक्रमं ।
न तस्य विश्वसेत् प्राज्ञो' य इच्छेद्धितमात्मनः ॥६॥ 16 चण्डरवो भयाकुलस्तान प्राह-मो श्वापदा मा यूयं मयं कुरुष्वं । अहं ब्रह्मणा वः
स्वामीकृतः। ततो मम छत्रछायायां सुखं तिष्ठत मां पश्यत । मम "षुषद्रम" इति नाम दत्तमस्ति । एतत श्रत्वा सर्वे श्वापदाः स्वस्थीभूताः। ततस्तेन सिंहस्यामात्यपदवी दत्ता । व्याघ्रस्य शय्यापालत्वं द्वीपिनस्ताबलिकपदवी वृकस्य द्वारपालकपदवी । ये चात्मीय जातीयाः) जास्यास्तैः सह
वाता न करोति शृगालः । यदा व्याघ्रादयः श्वापदान् हत्वा आनयन्ति तदा सर्वेषां स विभज्य 20 दत्ते । एकदा रात्रौ दूरे शृगालान् शब्दं कुर्वाणान् श्रुत्वा जातिस्वभावात् उच्चैः शब्दं कर्तु
लग्नः । ततो व्याघ्रादिभितिं अयं शृगालः । अनेन वाहिता वयं, लज्जितास्तै रुत्थाय शृगालो नश्यन् हतः । यतः--
आत्मवर्ग परित्यज्य, परवर्ग तु सेवते ।
स एव निधनं याति, यथा राजा पुषद्रमः ॥१॥ 25
इति स्वजातित्यजन् दुःखे शृगालसम्बन्धः ॥५८८।।
[589 ] अथ वैरिसेक्ने उष्ट्रमृत्युसम्बन्धः । एकस्मिन् बने सिंहस्य स्वामिनः व्याघ्रवृषभशृगालादयः सेवकाः बभूवुः । एकदा सार्थभ्रष्टः क्रमेलकस्तत्रागतः । व्याघ्रः प्राह-सिंह प्रति अयं ग्रामीणो जीवः व्यापाद्यते । सिंहोऽवग
शरणागतोऽयं न हन्यते वैयपि । यतः-- . १ यदीच्छेच्छ्रियमात्मनः इत्यपि ।
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चतुर्थोऽधिकार:
[ ३२९ गृहे शत्रुमपि प्राप्त विश्वस्तमकुतोभयम् ।
यो हन्यातस्य पापं स्यात् शतब्राह्मणघातम् ॥१॥ ततः सिंहेनाभयदानं दत्तं । प्रोक्तं स्वेच्छयात्र तिष्ठ । स्वरोचितं तृणं भक्षय । तव नामापि न गृहीष्यति । ततः स क्रमेलको मत्तः जातः । एकदा सिंहेनोक्तं-भो व्याघ्रादय ! भक्ष्य आनयत । तैः सर्व वनं विलोकितम् । कोऽपि श्वापदो न चटितः । ततस्तैः प्रोक्तं-स्वामिनयं क्रमेलको भक्ष्यते । सिंहोऽवग-मया त्वस्याभयदान दत्तमस्ति । ततस्ते प्रोचुः-स्वामिनो मृति गच्छतो यदि सेवकः स्वप्राणान् ददाति तदा वरं, अतोऽयं भक्ष्यते, परिवारो जीवति, विना सेवकान् राजाप्यराजा स्यात् । यतः
'न यज्वानोपि गच्छन्ति नैव गच्छन्ति योगिनः ।।
यां यान्ति प्रोज्झितप्राणाः स्वाम्यर्थ सेवकोत्तमाः ॥२॥ ___ ततस्तैाघ्रादिभिः क्षुद्रः सेवकैस्तथाकृतं तथा जल्पितं, यथा क्रमेलको व्याघ्रादिभिर्हतः। सिंहाथैः सर्वैः भक्षितः । यतः
बहवः पण्डिताः क्षुद्राः सर्वे मायोपजीविनः । कुयुः कृत्यमकत्यं वा उष्ट्र व्याघ्रादयो यथा ॥३॥ इति वैरिसेवने उष्ट्रमृत्युसम्बन्धः ॥५८९॥
16 [ 590 ] अथ हितवाक्ये कच्छपसम्बन्धः । मित्राणां हितकामानां यो वाक्यं नाभिनंदति ।
स कूर्म इव निर्बुद्धिः काष्ठाद् भ्रष्टो विनश्यति ॥१॥ तथाहि-एकस्मिन् जलाशये कंबुपोवकच्छपस्य संकटविकटौ पक्षिणी सुहृदौ जातौ । मिथःप्रीतिः त्रयाणां जाताः ! सायं स्वस्वस्थाने ययुः । एकदा मेघे अवर्षति सरः शोष गच्छत् 20 दृष्ट्वा संकटविकटौ कंबुग्रीवस्याग्रे प्रोचतुः-भवान् वृद्धोऽन्यत्र यातुंन शक्तोऽस्ति, ततः किं करिष्यते ? कच्छपः प्राह-आनीयतां काष्ठं प्रलंब, तस्मिन्काष्ठेऽमुपविशामि । युवाभ्यां काष्ठमुभयोः पार्श्व दन्तैधत्वोत्पाट्यान्यत्र जलाशये नेतव्यम् । ततोऽहं सखो भविष्यामि। यवां पक्षि गौ वत्र सरम्तीरे तिष्ठत । फलास्वादादि कुरुत । तौ प्रोचतुरेवं कुम्वतो आवयोस्त्वया मौनं कार्य, नो चेन्मार्गे त्वयि जल्पति लोका असदृशं दृष्ट्वोपद्रवं करिष्यन्ति ! कच्छपेन मानितोऽतो [मानिते 25 सति) काठमानीय तं तत्र स्थापयित्वा व्योम्नि चलितौ तौ सुहृदौ पक्षिणी तथा काष्ठारूढ़ कच्छपं कृत्वा यदा ज्योम्नि चेलतुः । यदा वेणापुरोपरि आगतौ तदा लोका काष्ठं तथाकारं दृष्ट्वा प्रोचुः
१. न यज्वानोऽपि गच्छन्ति, तां गति नैव योगिनः ।।
या यान्ति प्रोण्झितप्राणाः स्वाम्यर्थे सेवकोत्तमाः ॥ इत्यपि अयते ।
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३३० ]
प्रबन्धपश्चशती
अहो अपूर्व किमपि याति व्योम्नि, तदा कोलाहलं श्रुत्वा कम्बुग्रीवोऽवग्-भो सुहृदो ! ढोका कोलाहलं किं कुर्वन्ति । तं जल्पन्तं श्रुत्वा लोका जगुः - अरिष्टमेतत्पुरस्य करिष्यत्यतो हन्यताम् । तो लोकैर्लेष्टुभिराहत्याहत्य पातितो भुवि खंडशः कृतश्व स । सुहृदौ स्वं जीवं छात्वा नष्टौ । इति fecare कच्छपसम्बन्धः ॥५६०॥
[691 ] अथ अनागतमति - प्रत्युत्पन्नमति - यद्भविष्य सम्बन्धः ।
कस्मिंश्चिज्जलाशये अनागतविधाता प्रत्युत्पन्नमतिः यद्भविष्यश्च त्रयो मत्स्या वसन्ति । एकदा तस्य सरसः पार्श्वे गच्छद्भिः मत्स्यबंधकैरुक्तं-- अयं हृदो बहुमत्स्य पूर्णोऽस्ति तेनात्र मत्स्या गृचन्वे । एकेनोक्तं प्रातरत्रागत्य गृहीष्यते मत्स्या । एतदाकर्ण्य अनागतविधाता द्वयोः पुरः प्राह- कल्येऽमी निष्काषयन्ति । आत्मनो वरिष्यन्ति हनिष्यन्ति । प्रत्युत्पन्नमतिः प्राह - सत्योतमन्यत्र गम्यते । 10 एकं च
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परदेशभयाद्भीता बहुमाया नपुंसकाः ।
स्वदेशे निधनं यान्ति काका: कापुरुषा मृगाः ||१||
यस्यास्ति सर्वत्र गतिः स कस्मात्, एकत्ररात्रेण हि याति नाशम् । तातस्य कूपोऽयमिति ब्रुवाणाः, चारं जलं कापुरुषाः पिबन्ति ||२||
यद्भविष्योऽवग्- तदा हसित्वा अहो भवदुद्भ्यां सम्यग् चिन्तितं मंत्रितं च वचनमात्रश्रुतेः । एतत्पितामहं सरस्त्यक्तुं न युक्तं । आयुः क्षयादन्यत्र गतैरपि न छुट्यते । ततोऽहं न यास्यामि । युवयोर्यद् रोचते तत् क्रियते । ततः अनागतमतिप्रत्युत्पन्नमति अन्यत्र जलाशये गतौ सपरिवारौ। प्रातर्मे निकैस्तत्य जलं विलोड्य यद्भविष्यः सकुटुंबो धृतः स विनाशितस्तैः । उक्तं चअनागतविधाता च प्रत्युत्पन्नमतिश्च यः ।
द्वावेतौ सुखमाधत्ते यद्भविष्यो विनश्यति ॥ ३ ॥
इति अनागतमति प्रत्युत्पन्नमतियद्भविष्यसम्बन्धः ।। ५९१ ।।
[ 692 ] अथ चटिकासम्बन्धः |
एकस्मिन् वने चटकदंपती वसतः स्म । चटिकया वृक्षे मालकः कृतः, प्रखबो जातः । गजेनागत्य तथा धूनितो यथा तस्या अपत्यानि मृतानि । एवं चटिका रोदिति एवं पुनः पुनः 26 मालके भग्ने चटिकां प्रति चटकः प्राह-किं क्रियते अत्रान्तरे तत्रागतः काष्टकूट: पक्षी, af दन्तीं दृष्ट्वा प्राह- किं वृथा रुदितेन । उक्तं च
नष्टं मृतमतिक्रान्तं नानुशोचन्ति पण्डिताः । पण्डितानां च मूर्खाणां, विशेषोऽयं यतः स्मृतः ॥१॥
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चतुर्थोऽधिकारः
[ ३३१ वस्मान रोदितन्यं, क्रिया कार्या स्वशक्तितः । ममापि संतानमनेन हतम् । सद् दुःखं ममाप्यस्ति । सावग-मातुरपत्यानां मृतेरतीव दुःखं जायते । काष्ठकूटः प्राह-सत्यमुक्त स्वया, तत्पश्य मे अद्विप्रपनम् । मम सहत वीणारवा मक्षिकास्ति तीक्ष्णतुंडा, तया च गज आकुल: क्रियते । ततो मक्षिका आहूता कार्य प्रोक्तं तस्या अप्रे। मक्षिकावग-ते वचः प्रमाणं परं मम मेघनादो भेकः सुहृद् वर्तते । स चाकायते सोपि भेक आकारितः । चटिकाऽपत्यहननस्वरूपं प्रोक्तं तस्याने। ततः काष्टकूटः प्राह-भो मक्षिके वीणे! तथा कुरु यथा गजो व्याकुलो भवति । मक्षिकया तत्प्रतिपन्नं काष्ठक्टोऽवग-तस्य नेत्रे कर्षयिष्यामि । भो भेक ! त्वं गर्तायां गत्वा शब्द कुर तथा वारिलोभादंधीभूतो गजस्तस्यां पतित्वा म्रियते । ततो मझिकया गजो व्याकुलोकृतः । काष्टकूटेन चंच्वा नेने कर्षिते । ततोंधीभूतो गजः तृषार्तो मेघशब्दं श्रुत्वा जलभ्रान्त्या गर्ताधः पपात मृतः । उक्तं च
चटिका काष्ठकूटेन मक्षिका सह दर्दुरैः ।
महाजनविरोधेन कुंजरः प्रलयं गतः ॥२॥ इति सामान्येनापि वैरं दुःखाय स्यात् । इति चटिकासम्बन्धः ॥५९२॥
[ 593 ] अथ स्वपराभव-समुद्रजयनोपरि टिट्टिभसम्बन्धः । समुद्रोपकण्ठे टिट्टिभदंपती वसतः स्म । अन्यदा टिट्टिम्योक्तं पत्युः पुरः-रवामिन् ! मम 15 प्रसनारसरोऽस्ति कुत्र स करिष्यते मया । टिट्टिभः प्राह-अत्रैव रुचिरं दृश्यते, अब्धेः पार्श्वे क्रियताम् । टिटिभी प्राह-कदाचिद्वार्खिरंडकान्यपहरिष्यति तदात्मनो का गतिः १ टिट्टिमोऽवगसमुद्रो मया समं वैरं न करिष्यति । यतः
को गृहाति फणिमणि ज्वलमानं तेजसा भुजंगस्य । यो दृष्ट्रय प्रहरति, दुरासदं कोपपति कस्तम् ॥१॥ यः पराभवसंत्रस्तः स्वस्थानं विजही (संत्यजेत् ) नरः ।
तेन चेन्पुत्रिणी माता तद्वन्ध्या केन कथ्यते ॥२॥ टिट्टिम्यवग्-सत्यमुक्तं, परं वाद्धि बली विद्यते । टिट्टिमोऽवग-किं क्रियते वराकेन ? एतत् भुत्वा अग्धिर्दथ्यौ-अहो गर्वः टिटिभस्य वराकस्य । यतः--
स्वचित्तकरिपतो गर्वः शक्यते केन वारितम् ।
उत्क्षिप्य टिट्टिमः पादौ शेते भङ्गभयाद् भुवः ॥३॥ तन्मया कौतुकं विलोकयिष्यते । अन्यदा टिटिभी अंडकानि मुक्त्वा चुण्यथं गता। समुद्रो बेलाब्याजेन तानि जहार । टिटिभी तत्रागता स्वाण्डकानि वाद्धर्यापहतानि दृष्टा पति प्रति प्राहस्वामिन् ! मयोक्तं समुद्रोऽण्डकानि हरिष्यति, समुद्रेणापहृतानि, त्वं तस्य किं करिष्यसि । टिभिः
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३३२. ]
प्रबन्धपञ्चशती
प्राति प्रिये ! मम चेष्टितं विलोकय तथा करिष्ये यथा बिभ्यन् वाद्धिरण्डकान्यर्पयिष्यति नः । टिट्टिभी प्राह असमर्थेन पुंसा समर्थस्य किं स्यात् । यतः
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पुंसामसमर्थानां उपद्रवायात्मनो भवेत्कोपः । पिठरं वदतिमात्रं निजपार्श्वानेव दहतितराम् ||४|| अविदित्वात्मनः शक्तिं परस्य च समुत्सुकः । गच्छन्नभिमुखो नाशं याति वह्नौ पतङ्गवद् ॥५॥ टिट्टिभः प्राह - मैवं वद प्रिये १ । उक्तं च
बालस्यापि रवेः पादाः पतन्त्युपरिभूभृताम् । तेजसा सह जातानां वयः कुत्रोपयुज्यते ॥६॥
टिट्टिभी जगौ - कान्त ! कथं महदब्धेः पराभवः स्यात् । टिट्टिभोऽवग्--- अनिर्वेदः श्रियो मूलं चंचूमें लोहसन्निभा । अहोरात्राणि दीर्घाणि समुद्रः किं न शुष्यति ॥७॥
टिट्टिभी प्राह-- यद्यब्धिमा सह वैरं करिष्यते तदा सर्वान् पक्षिणः आकारय । ततचंचुभिक्षूलिं क्षिपाब्धौ । यतः—
बहूनामप्यसाराणां समुदायो हि दुर्जयः ।
तृणैर्वेष्ट्यते रज्जूर्यया नागोपि बध्यते ||९||
ततो टिट्टिभेन वक-सारस- चक्रवाकादयो विहङ्गमा आकारिताः । प्रोक्तश्च स्वपराभव20 सम्बन्धः । ते पक्षिणः प्रोचुः - वयमसमर्थाः समुद्रः कथं शुष्यते ?, वृथा प्रयत्नेन । उक्तञ्चअचलं प्रोन्नतं शत्रु, यो याति मदमोहितः ।
युद्धार्थं स निवर्तेत, शीर्णदन्तो गजो यथा ॥ १०॥
दुरधिगमः परभागो यावत् पुरुषेण पौरुषं न कृतम् । जयति तुलामधिरूढो भास्वानपि जलदपटलानि ||८||
ततः आत्मनः स्वामी गरुडो विद्यते । ततः सुस्वामिबलात् समुद्रस्य शिक्षां ददाति । ततस्तैवैनतेयस्य दुःखं ज्ञापितम् । अधुनाऽन्धिना पराभवः कृत आत्मजातेः, अन्येपि करिष्यन्ति । यतः -
एकस्य कर्म संवीक्ष्य, करोत्यन्यपि गर्हितम् । गतानुगतिको लोकः, न लोकः पारमार्थिकः ॥११॥
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चतुर्थोऽधिकार
राजा बंधुरबंधूनां राजा चक्षुरचक्षुषाम्
राजा पिता च माता च राजा रात्रिहरो (१) गुरुः ॥१२॥
सर्वेषां पक्षिणां राजा, त्वमसि गरुडोत्तम ! | कुरुते न तथाभोधिर्यथा शोषं प्रयास्यति ॥ १३॥
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ततो गरुडः स चिन्तो यावदभूत् तावत् कृष्णस्य दूतो गरुडमाकारयितुमागात् दैत्ययुद्धहेतवे । ततो गरुडः कृष्णपार्श्वे प्राह--- टिट्टिभस्य अण्डानि समुद्रेणापहृतानि वालय । यतः---
यो न वेत्ति गुणान् यस्य, न तं सेवेत पण्डितः । न हि तस्मात् फलं किञ्चिद्, सुकष्टादुषरादिव || १४ || ततः कृष्णोऽवग-भो गरुडः ! खया सत्यमुक्तम् । यतः-भृत्यापराधे यो दण्डः, स्वामिनो जायते यतः । तेन लज्जापितस्योत्था तु भृत्यस्य स्वामिनो भवेत् ॥ १५ ॥
|: ३३३ :
ततो गरुडादिपरिवारयुक कृष्णः समुद्रकण्ठे गत्वा आग्नेयं शरं धनुषि आरोप्याधि प्रत्यवग्-- टिट्टिभस्याण्डकान्यपेय, नो चेदनेन शरेण त्वां स्थलं करिष्यामि । ततः समुद्रो बिभ्यन् टिट्टिभाण्डानि पश्चादौ, जगौ चाडतो नापराधं करिष्ये । ततः सर्वे स्वस्वस्थानं ययुः । उक्तं चशत्रोर्विक्रममज्ञात्वा वैरमारभते तु यः ।
स पराभवमाप्नोति, समुद्रः टिट्टिभाद्यथा ||१६||
इति स्वपराभव समुद्रजयनोपरि टिट्टिभसम्बन्धः ॥ ५९३ ॥
[ 594 ] अथ पापे पापबुद्धिसम्बन्धः ।
भीमपुरा धर्मबुद्धिपापबुद्धी सुहृदौ विचार्य धनाजनाय चलितौ । धनमुपाये पश्चात् स्वगृहं प्रति चेतुस्त्वरितं । यतः -
प्राप्त विद्यार्थशिन्पानां देशान्तरनिवासिनाम् । क्रोशमात्रोऽपि भूभागः शतयोजनवद् भवेत् ॥ १ ॥
मार्गे पापबुद्धिर्धर्मबुद्धिं प्रत्यवम् सर्वं धनं गृहे न नीयते । कुटु बिनो बांधवा मार्गयिष्यति, वेन पुराद्वहि न्यासीक्रियते धनं कियत् । यतः -
न वित्तं दर्शयेत् प्राज्ञः कस्यचित् स्वल्पमप्यहो । मुनेरपि यतस्तस्य दर्शनाच्चलते मनः ||२||
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३३४ ]
प्रबन्धपावती यथामिषं जले मत्स्यैर्भक्ष्यन्ते श्वापदेवि ।
आकाशे पक्षिमिव तथा सर्वत्र वित्तवान् ॥३॥ ततस्तो किनिद्धनं प्रामाद्वहिासीकृत्य गृहमागतौ । एकदा रहो रात्री पापबुद्धिना तत्र गत्वा धनं गृहीतं । गर्ता पूरयित्वा स्वालये आगात् । अन्येधुः धर्मबुद्धिः प्राह-धनं विना सीदामि । तेन धनमानीयते । पापधीः प्राह-गम्यताम् । ततो द्वावपि धनं लातुं गतौ। धनस्थान धनरिक्तं दृष्ट्वा प्रथममेव पापबुद्धिः शिरस्ताब्यन्नाह त्वयैव धनं गृहोतं धर्मबुद्धे ! नान्येन । यतोऽन्यः कोपि न वेत्ति । धर्मबुद्धिः प्राह-[भो दुरात्मन्, मैवं वद, नैतचौरकर्म करोमि ] त्वया गृहीतं मायां कुर्वाणोऽसि त्वं, अहं तु धम्मधीः कस्यापि तृणमप्यदत्तं न गृहामि । यतः
मातृवत् परदाराणि परद्रव्याणि लोष्टुवा ।
आस्मवत् सर्वभूतानि वीक्षन्ते धर्मबुद्धयः ॥४॥ __ एवं द्वावपि विबदमानौ राजकुले गतौ मिथो दूषणानि प्रोचतुः । अथ धर्माधिकारिभिः प्रोक्तं-दिव्यं क्रियताम् । तदा पापबुद्धिः प्राह-अहो न दृष्टो न्यायः सम्यग् भवद्भिः । उक्तं च
विवादे त्वेष्यते पत्रं, तदभावे च साक्षिणः |
साक्ष्यमावे ततो दिव्यं प्रवदन्ति मनीषिणा ॥५॥ ॥ यदत्रविषये मे वनदेव्येव साक्षिण्यस्ति । सा च सम्यग् वक्ष्यति चौरं । ततस्तैरुकं सस्य. मुक्तं त्वया । उक्तं च
अन्त्यजोऽपि यदा साक्षी, विवादे संग्रजायते ।
न तत्र विद्यते दिव्यं, किं पुनर्यत्र देवता ॥६॥ ततो मानितमधिकारिभिः प्रातवनदेवता प्रक्ष्यते । पापबुद्धिना रात्री छमं पिता स्थापितः 20 समीकोटरे । प्रोक्तं च त्वयैवं प्रोच्यं धर्मबुद्धिर्धनं ललो । द्वितीयदिने धर्मबुद्धिः पापधी अधि
कारिणोऽन्ये बहवो लोकाः वनं गताः । वनदेव्याः पूजां कृत्वा प्रोक्तं-मो वनदेवते ! बेन धनं गृहीतं तत् कथय । ततः शमीकोटरात् शब्दो निस्ससारेति धर्मबुद्धिर्धन ललौ। ततो यदाधिकारिणो जगुस्त्वया धनं गृहीतं । तदा धर्मबुद्धिना शमी वहिना ज्वालितः । समीतरौ स्वलति
अर्धदग्धांग: पापधीपिता स्फुटिताक्षः शमीकोटरानिर्ययो । ततोऽधिकारिभिः प्रोक्त श्रेष्ठिनेतत्वि 26 त्वया वृद्धवे पापं कृतं । श्रेष्ठयाह-पुत्रेण कारितोऽहं । ततो हशितः पापधीः । सर्व धनं ददो धर्मबुद्धिसत्कं । पापबुद्धिसम्बन्धिराझा गृहोतं । पापबुद्धिः स्वदेशानिष्काशितः । उर्फ च
धर्मबुद्धिः कुबुद्धिश्च द्वावेतौ विदितौ भुवि । पुत्रेण मारितः पाप-बुद्धिना धनलोभतः ॥७॥
इति पापे पापबुद्धिसम्बन्धः ॥५९४॥
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चतुर्थोऽधिकारः [ 395 ] अथ स्वीयपापभवने बकसम्बन्धः । उपायं चिन्तयेत् प्राशस्तथाऽपायं च चिन्तयेत् ।
पश्यतो वकमूर्खस्य, नकुलेन हता बकाः ॥१॥ कस्मिंश्चिद् वने वृशे बकास्तिष्ठन्ति । तस्य तरोः कोटरे सर्पस्तिष्ठति । स चाहिर्जातमात्रान् बकबालकान भक्षयति स्म । ततो दुःखितो वको जलाशयतीरे गत्वा रोदिति । कुलीरकोऽवगबक ! कथं रुचते ?। बकेन तस्य दुःख[स्वरूपं प्रोक्तं । कुलीरो दध्यौ अयं मम सहजो वैरी विद्यते ततस्तथा वच्मि यथा सत्यानृतं भवति । बका अपि वैरिणः क्षयं यान्ति, अहिरपि च । ततो मधुरं प्राह
नवनीता समां वाणी, कृत्वा चित्तं तु निर्दयम् ।
तथा प्रबोध्यते शत्रुः, सान्वयो नियते यथा ॥२॥ ततः कुलीरोऽवग-अतो मत्स्यमांसखण्डानि लात्वा नकुलवमतः सर्पकोटरं यावत् सुन्न [ यथा नकुलस्तं दुष्टसप विनाशयति ] त्वमपि स्वभक्षणाय गृहाण । ततस्तेन कुलीरोक्तं कृतम् । सतो नकुलो मांसलुन्धः प्रथमं सर्प गृहीत्वा जघान । अतो वैरिणः पुरः स्वगुणं न [प्रकाश्यम् ।
इति स्वीयपापभवने चकसम्बन्धः ॥५९५||
[596 ] अथ मिथच्छले तुलामार सहस्रसम्बन्धः । पद्मपुरे जीर्णधनश्रेष्ठी क्रमाद् दरिद्रो भूत्वा धनमुपार्जयितुं दूरदेशं गियासुरभूत् । यतः
यत्र देशे ऽथवा स्थाने, भोगान् भुक्त्वा स्ववीयतः ।
तस्मिन् विभवहीनो यो, वसेत् स पुरुषाधमः ॥१॥ ततो लोहमयों तुला भारसहस्रघटितां धनदवणिजो गृहे ग्रहणके मुक्त्वा धनं लात्वा च सोऽचालीत् । ततो विदेशाद्धनमुपाज्य यदागतः श्रेष्ठो धनदस्याने प्राह-धन सव्याजं गृहाण, 20 निक्षेपकता तला दीयताम । धनदोऽवग तुला मषकैः खादिता । ततः श्रेष्ठी आक धनदपुत्रं नीत्वा नदीस्नानकरणमिषेण नयां गतः । तत्र वृक्षकोटरे धनदपुत्रं दृढं स्थापयित्वा धनदगृहे स्नानं कृत्वागात् । धनदोऽवग-मम पुत्र क्वास्ति । जीर्णः प्राह--स्नानं कुर्वन् नद्या शेश्ये]नेनापहृतः। धनदोऽवग जीणश्रेष्टिन्निदं कूटं किं जलयते ? । बालकं श्येनः कथमुत्पाट्यते । पुत्रमर्पय न चेत् त्वां राजकुले नेष्यामि । जीर्णः प्राह-यथा मम तुला लोहमयी महती मूषकैः 25 खादिता तथा तव पुत्रोऽपि श्येनेनापहृतः । राजकुले गतौ । तत्रापि न्यायो जातः । द्वयोरने प्रोक्तं धनद त्वमस्मै तुलां वितर । जीर्णस्ततस्तुभ्यं पुत्रं दास्यति । ततो धनदेन तुला दत्ता जीर्णाय । जीर्णेन धनदाय धनदपुत्रो दत्तः ।
तुलां भारसहस्रस्य यत्र खादन्ति मृषकाः । तत्र श्येनो हरेदालं न विस्मयोऽत्र विद्यते ॥२॥
इति मिथच्छले तुलाभारसहस्रसम्बन्धः ॥५९६॥
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वने सिंहो वसति स्म । स त्वेकदा भक्ष्यं न प्राप । ततो महतीं गुहा दृष्टा दृष्यौ- नूनमस्यां 6 गुहायां रात्रौ सत्वानि स्थास्यन्ति । ततोऽहं निभृतं तिष्ठामि । ततः सिंहस्तत्रास्थात् । तो गुहास्वामी दfधपुच्छोनाम लोभातक [ शृगालः ] आगतो गुहाद्वारे । सिंहपदानि प्रविशन्त्यपश्यत् । न निर्गच्छन्ति । लामाको दध्यो-अस्यां गुहायां लिंडो विद्यतेऽचुना, ततो मया सम्यक् कथं ज्ञास्यते । एवं ध्यात्वा स लोभातको द्वारस्थ एव पूत्कर्तु लग्न इति भो गुहे ! यदि त्वं मामाह्वयसि तदाहं मध्ये समेष्यामि, नो चेद्र द्वितीयस्यां गुहायां यास्यामि । एवं. 10 पुनः पुनः जल्पन्तं श्रुत्वा सिंहो दध्यौ -अयमाकारणं विना नैवात्रायाति । ततः सिंहो जगौ -
भो लाभातक ? आगच्छ आगच्छ । ततः सिंहशब्दं श्रुत्वान्येपि सवा दूरं नष्टाः । ततो लोभातको जगौ---"अनागतं यः कुरुते स शोभते " इदं काव्यं प्रोच्य गुहायां न गतः । ततश्चिरं जिजीव लोभातकः । सिंहो बुभुक्षितोऽन्यत्र गतः ।
इति अनागतचिन्तने लोमातकसम्बन्धः ||५९७॥
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: ३३६ ]
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[ 597 ] अथ अनागतचिन्तने लोमांतकसम्बन्धः ।
अनागतं यः कुरुते स शोभते [न शोभते] यो न करोत्यनागतम् । वने वसन्तस्य जराप्युपागता बिलस्य वाचा न कदापि निसृता ॥ १ ॥
[ 698 ] अथ स्वजातिनिकन्दनपापे गङ्गदचमेकसम्बन्धः । बुभुक्षितः किं न करोति पाप, क्षीणा नरा निष्करुणा भवन्ति । आख्याहि भद्रे प्रियदर्शनस्य, न गंगदत्तः पुनरेति कृपम् ||१||
एकस्मिन् कूपे गंगदत्त हो भेकोऽवसत् । अन्यैभे कैरुद्वेजितो दृष्यौ- इतो निर्गत्य भेकानु - पायात् हन्मि । यतः—
आपदि येनाऽपकृतं येन च हसितं दशासु विषमासु । अपकृत्य तयोरुभयोः पुनरपि जातं नरं मन्ये ॥२॥
एवं विमृश्य अरघट्टोमारुह्य भेकः कूपाद्वहिर्निगत्य कृष्णस्य विले प्रविष्टः । भेकं निर्भयमागच्छन्तो दृष्ट्वा सर्पः प्राह - भो प्रियदर्शनात्रागच्छ किं कार्यं तव । भेकोsवग्-- अहं भेोऽस्मि गंगदत्ताः त्वत्सकाशे मैत्र्यर्थमागाम् । सर्पः प्राह अश्रद्धेयमेतत् -
यो यस्य जायते बध्यः स स्वप्नेऽपि कथंचन । न च तत्पार्श्वमभ्येति तत्किमेवं प्रजल्पसि ||३||
भेकोsar - सत्यमिदं प्रोक्तं त्वया, पर स्वजात्वाहं पराभूतः, ततस्तस्या निकन्दनाय तव पार्श्वे समागमम् । यतः
यनेऽत्र संस्थस्य समागता जेरा, बिलस्य वाणी में कदापि मे श्रुता ।
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चतुर्थोऽधिकारः
[३३७ सर्वनाशे समुत्पने प्राणानामपि संशये ।
अपि शत्रं प्रणम्योचे, रक्षेत् प्राणान् धनानि च ॥४॥ सर्पोऽवग-वैरिणः कुत्र सन्ति । भेकोऽवग्-कूपे सन्ति । सर्पोऽवग्-तत्र फयं गम्यते । कथं ते दायादा: [भक्षयिष्यते] । भेकोऽवग-अहं विश्वास्य दर्शयिष्यामि दूरतो यान तान् त्वया भक्षणीया । ततो भेको गंगदत्तः सर्प अरघट्टघटमार्गेण कूपमध्ये नीतवान् । ततो भेकेन । दर्शिता भेका भक्षिताः सर्पण । अथ भेकाभावे सर्पोऽवग-तव वैरिणो भक्षिता मया। ततोऽहं बुमुभितोस्मि, प्रयच्छ भक्ष्न्यं, यतोऽहं खयानीतोऽस्मि । गंगदत्तोऽवग्-भद्रं कृतं मस्काय, त्वं स्वस्थाने गच्छारघट्टघटोमार्गेण । सर्पः प्राह-मदीयं बिलमन्यै रुद्धं भावि, तेनात्रस्थस्य मम स्ववांदेकैकं भेकं प्रयच्छ प्रतिदिनं नो चेत् सर्वानपि भक्षयामि [भक्षयिष्यामि । ततो गंगदत्तो विभ्यन् दथ्यौ-मया किमकार्य कृतम् । असौ वैरी अत्रानीतो मौढ्यात् यदि किं जल्पते सम्मुखं 10 तदा सर्वान् मया सह भक्षयत्यहिः । यत:
अमित्रं कुरुते मित्रं वीर्याभ्यधिकमात्मनः ।
स करोति निःसंदेहः स्वयं च विषमक्षणम् ॥५॥ तत्प्रयच्छाम्येकैकं सायास्मै प्रतिदिनं । सक्तं च
सर्वनाशे समुत्पन्ने, अद्धं त्यजति पण्डितः ।
न स्वल्पस्य कृते सर्व नाशयेन् मौढ्यमास्थितः ॥६॥ एवं ध्यात्वा स्वजातित एकमेकं भेकं सोय ददाति गंगदतः । परोक्षे अपरमपि सर्पोऽवसरे भक्षयति । एकदा गंगदत्तपुत्रोपि बुभुक्षितेन भक्षितोऽहिना तत् ज्ञात्वा गंगदत्तो विलापान करोति । ततो गंगदत्तपल्याभिहितं-कान्त ! असौ सपो यथा निष्काश्यते मार्यते वा तथा कुरु, किं रोदनेन । वैरी स्वगृहे आनीतो मुधा स्वजातिनिष्ठापिता । कालेन गच्छता एको गंगदत्त 20 सरितः । सर्पणोक्तं भक्ष्यं देहि बुमुक्षितोऽस्म्यहम् । त्वयाहमत्रानीतोऽस्मि । गंगदत्तः स्वजीवितरक्षणाय विचिन्त्याह-भो मित्र ! त्वमत्र तिष्ठ, अहमन्यस्मात् कूपात् विश्वास्य विश्वास्य भेकानानेष्यामि त्वया ते भक्षणीयाः । एवं प्रोक्त्वा गंगदत्तोऽरघट्टघटीमार्गेण निर्गत्यापरकूपे गतः। म च भेको यदा नायाति तदा सो गोधां प्रति प्राह-गंगदत्तं विश्वास्यात्रानय । सा च गोधा पश्यन्ती गंगदत्ताधिष्ठिते कूपे यी जगी च-मो गंगदत्त ! तव सुहृद् सप्पैः तव वरम विलोक- 25 यन्नस्ति । तव विरहात्तस्य प्राणा यान्ति । ततो गंगदत्तोऽवग् गच्छ गोधे ? कथय मम मित्राय "बुभुक्षितः किं न करोति पापं ।"
इति स्वजातिनिकन्दनपापे गंगदत्तमेकसम्बन्धः ॥५६८॥
[ 99 ] अथ मुग्धत्वे रासभसम्बन्धः । आगतश्च गतश्चैव दृष्ट्वा सिंहपराक्रमम् ।
30 अकर्ण हृदयो मूर्यो यो गत्वा पुनरागतः ॥१॥
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३३८ ]
মনী बने सिंहस्य शृगालो मित्रं । एकदा सिंहस्थ हस्तिना सह युध्यतः शरीरं जर्जरं जातम् । गन्तुं न शक्नोति । ततो दुमुधितो मित्रं प्रति प्राह-सत्त्वमेकमानय, मुमुक्षा लग्ना, प्राणा यास्यन्ति । ततः भृगाचे प्रमन् सम्बकर्ण रास रवा अवग-भो लम्बकर्ण ! सामः कथं त्वम् । सोऽम् कुम्भकद् भारं वाहबति परं किमपि न दचे । स्वयं शुभकानि तृणानि भक्षयित्वा निर्वाहक करोमि तेनाइं झामोऽस्मि । शृगालोऽवग-वदि मदुक्तं कुरुषे तदा तथा करोमि यथा प्रचुरं भक्ष्न्यं तव भवति । ततो लंबकर्णः शृगालेन सह पचाल । अप्रे सिंहस्य नोतस्तदा सिंहपेटा दातुमुद्यतोऽभूत् । तदा रासभो नष्टः स्वस्थाने गतः। सिंहोऽवग-शृगालं मित्रं प्रति, बुमुक्षा लग्ना । किं करिष्यते । शृगालोऽवग-मया तु भक्ष्यं आनीतं, त्वया स भक्षितुं न शक्तः किं
क्रियते । सिहोऽवम् पुनरानय तं तथा करिष्येऽहं यथा न पश्चाद् यास्यति । ततः शृगालो 10 रामभपाचे गत्वा भो मित्र ! त्वं कथं नष्टः । स रासमोऽवग-सिंहो मा हन्तुं धावितस्तेनाई.
नष्टः । शृगालोऽवग-न सिंहोऽयं किन्तु रासभी त्वामालिंगितुमनुरागत्वाधाव । त्वं तु नष्टः ततःप्रभृति मा रापभी त्वां विना न शेते। ततः स्वदर्शनेन तां प्रीणय । ततो रासभेन मुग्धत्वात् शृगालपचः प्रतिपन्नं । ततस्तत्र गतः सिंहेन चपेटया हतः भक्षितश्च । ततोऽन्यैरुक्तं आगतश्चगतश्चैव । इति मुग्धत्वे रासमसम्बन्धः ॥५९९।।
[600 ] अब अनुचितजल्पने मकारसम्बन्धः । स्वार्थमुत्सृज्य यो दंभी सत्यं प्रते सुमंदधीः ।
सः स्वार्थाद् अश्यते कुम्मकारो युधिष्ठिरो यथा ॥१॥ भीमपुरे युधिष्ठिरः कुम्भकारः तस्य कस्मिविदुत्सवे गच्छतो भग्नघटस्य कर्परं उलाटे रहें लग्नं । पृथ्वीचंद्रिका पतिता क्रमाद् रुद्धा ।
अथ कदाचिद् दुर्भिक्षे पतिते परदेशे चन्द्रपुरे चन्द्रभूपस्य मिलितः । ललाटे खड़ाहाराकारां चंद्रिका दृष्ट्वा स सेवकः कृतः, द्विगुणो ग्रासः कृतो रामा। अन्यदा परचक्रे समागते राज्ञोक्तंवैरिणं सम्मुखं गत्वा युद्धं कुर वैरिणवासय, त्वया पुरापि युद्धं कृतमस्ति । ततः स प्राहसत्यमसत्यं वा प्रोच्यते । राझोक्तं सत्यमेव जल्प। ततस्तेन स्वललादे चंद्रिकापतनस्वरूप प्रोक्तम् । ततो रामा अधचन्द्रदानेन सर्वप्रासं गृहीतः सः । इति अनवसरोचितजम्पने अनुचितजन्पने च कुम्भकारसम्बन्धः ।
[601 ] अथ मावृहितोपरि सिंहीसम्बन्धः । कस्मिंश्चिद्वने सिंहदम्पती तिष्ठतः स्म । अपत्यानि न भवन्ति । एकदा सिंहेन बालः शृगालो दृष्टः । स च पुत्रो ममायमिति पल्यै दत्तः । उक्तं च त्वया पुत्रबदयं पानीयः । ततः सिंही
पालयामास तं । क्रमात्विया पुत्राय जनितं । त्रयोऽपि सोदरीभूत्वा तिष्ठन्ति गच्छन्ति । एकदा 30 त्रिभिर्मत्तो गजो दृष्टः । यतः सिंहपुत्रौ धावितुं लग्नौ । तदा तृतीयः सिंहीपुत्रः प्राह-भो सोदरौ!
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चतुर्थोऽधिकारः
[ ३३९
reमात्मनो बैरी नो इनिष्यति । ततायोऽपि स्थिताः । गजो गवोऽम्यत्र । ततः सिंहजो मातापिताः पुरः प्रोचतुः - गजप्राप्ति-स्वरूपं । आवयोरयं भ्राता गजात् कथं विभेति ? शृगालभ्राता तयोरुपरि वष्टोऽत्यन्तं । ततः सिंझाकार्य शृगा (क) पुत्रं प्रति प्रोचे । तब मोदराविमौ तयोः पुत्रयोः पुरः प्रोक्तम्- अयं युवयोर्भ्राता मिथः कलहं मा कुरुवं । ततः शृगाखपुत्रो मातुः पार्श्वे प्राह-मातरहं पताभ्यां भ्रातृभ्यां हीनबलः कथं । माताऽऽपष्ट
शूरोऽसि कृतविद्योऽसि दर्शनीयोऽसि पुत्रकः । परं यत्र त्वमुत्पन्नो गजस्तत्र न इन्यते ॥१॥ इति मातृहितोपरि सिंहोसंबंधः ||६०१ ॥
[ 602 ] अथ अविमृश्यवाग्विकरणे रासभसम्बन्धः । सुगुप्तं रक्ष्यमाणोऽपि दर्शयेद्दारुणं वपुः । व्याघ्ररूपधरस्तादृग् वा कृते रासभो हतः || १॥
पद्मप्रामे रजकस्य शुद्धपटस्य गर्द्धभो घासाभावात् कृशोऽभूत् । इतो रजकेन व्याघ्रचर्मप्राप्तं । aat व्याघ्रचम्म परिवाप्य रासभशरीरो व्याघ्रतुल्यं रासभं कृत्वा यवक्षेत्रेषु यवान् चारयामास रजकः । ततः क्षेत्रेषु ठोका व्याघ्रं दृष्ट्वा दूरं नश्यन्ति । स च रासभः पीनतनुदूरादपि शब्दम[]त् । ततो यबपालकै राम्रभो ज्ञातो व्याघ्ररूपभृत् । एवं सम्यग् ज्ञात्वा व्याघ्ररूपो रासभस्तैहतः । 15 आत्मनो मुखदोषेण बध्यन्ते शुकसारिकाः । कास्तत्र न बध्यन्ते मौनं सर्वार्थसाधकम् ||१||
इति अविमृश्यवाग्वि करणे रासभसम्बन्धः ||६०२||
[ 603 ] अथ मौनं वर्यमिति एकतादितापससम्बन्धः ।
एकस्मिनदीतटे एकतं, द्वितं, त्रितं नामानो भ्रातरस्तपस्तपन्ति । तेषां तपसा धौतपोतिका: 20 आकाशे निराधारा तिष्ठति । अत्रान्तरे मध्यंदिने गृध्रेण केनचिच्छलेन मात्मिका वृता । तां धृतां दृष्ट्वा गृधं प्रति एक प्राह-- मुख मुद्देमा । ततस्तस्य धौतपोतिकाशाद् भूमौ पपात । द्वितेनापि तदा प्रोकं मा सुख तस्यापि सा पपाताधः । ततस्तृतीयो मौनं चक्रे ।
सुश्च मुञ्च पतस्येको मा मुश्च पतितोऽपरः । उभो तौ पतितौ दृष्ट्वा मौनं सर्वार्थसाधकम् ॥ १॥
इति मौनं वर्यमिति एकतादितापस सम्बन्धः ||६०३॥
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[604 ] अथ स्वजातिवशमेति सूषिकासम्बन्धः । मुमानथ शार्लकायनमुनेस्तपः कुर्वतः स्नानं च | एकदा तस्य पश्यतः श्येनो मूषिका
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३४० ]
प्रवन्यपणाती
aat | af श्येनगृहीतां दृष्ट्रा करुणस्तापसः प्राहेति--मुख मुद्देमां वराकिकां । तामसुंबानं श्येनं प्रति ततः प्रस्तरान् तापसः प्राक्षिपत् । स्रोऽपि श्येनः पाषाणहतो भूमौ पपात । मूषिका-मुनेः शरणं प्राप्ता । इयेनोऽपि लब्धचैतन्योऽवग्-भो मुने ! मदीयं भवत्यं उद्दालितं त्वया विधिना' वचम् | ततस्तव तपः कृतं निष्फलं भविष्यति । शालंकायनो जगौ — एनां शरणागतां प्राणात्ययेsपि न मुखाम्यहम् | ततः श्येनो गतः । मूषिकाथ प्राह-मां स्वाश्रयं नय नोचेदपरो हनिष्यति । ततस्तेन ऋऋषिणा सा मूषिका कुमारी कृता पुत्रीतिकृता स्थापिता । क्रमाद् यौवनं प्राप्ता । ऋषिवरं विलोकयते । यतः --
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कुलं च शीलं च सनाथता च विद्या च वित्तं च पूर्वयश्च । एतान् गुणान् सप्त परीक्ष्य देया, कन्या बुधैः शेषमचिन्तनीयम् ॥ १ ॥
ततो मुनिना वरो रविरानीतः । स च तापकत्वात् त्यक्तः । ततो मेघ आनीतो मुनिना स च कृष्णत्वात् तया न वरितः । ततो वायुरानीवोऽपि मुनिना चपलत्वान्नांगीचक्रे । ततो सुनना पर्वत आनीतः कठिनत्वान्नांगीचक्रे । ततो मुनिना पुनः सा मूषिका कृता । यतः -सूर्यमेघवायुपर्वतमूषका यथाक्रमं बलिनः, अतो भूषकपत्नी जाता । स्वजातिं प्राप्य संतुष्टाभूत्
खा, यतः---
सूयं भर्तारमुत्सृज्य पर्जन मारुतं गिरिम् । स्वयोनिं मूषिका प्राप्ता स्वजातिर्दुरतिक्रमाः ||१|| इति स्वनाविषयमेति मूषिकासम्बन्धः ||६०४|| [ 605 ] अथ भये वणिक्-प्रिया सम्बन्धः ।
या मामुद्विजते नित्यं साऽद्य मामवगूहति । प्रियकारक ! भद्रं ते यन्ममास्ति हरस्व तत् ॥ १॥
हीरप्रामे धीरो वणिग् बभूव । तस्य वृद्धत्वेन पत्नी मृता । अपरा परिणीता च तेन । स्रा च वृद्धस्याचमति न मन्यते । एकदा चौरः प्रविष्टः । तं च प्रविष्टं दृष्ट्वा भयभीता पतिपार्श्व गत्वा प्राह - स्वामिन् ! चौरः प्रविष्टः मां अपहरिष्यति । रक्ष रक्ष मां । ततो वणिजा तां स्थिरीकृत्य चौरस्याग्रे प्रोक्तं छन्नं । मतस्त्वं भयं मा कार्षीः । यन्मम धनं तत्तवैव यतस्त्वया ममोपकारः 25 कृतः, यन्मम पत्नी मयि जल्पन्ती कृता त्वया । कल्ये अभ्येत्य प्रोक्तव्यं-"भो श्रेष्ठिन् ! तब पत्नीमपहरिष्यामि सहस्रदीनारान् गृहीयाः ।" ततो द्वितीयदिने वा विशेषतो भीता चौरेण पतिभक्ता स्त्री जाता । यतः --- या मामुद्विजते नित्यं ।
इति भये वणिप्रिया सम्बन्धः ||६०५||
[ 606 ] अथ अकार्यकरणे हालिकखी - शृगालिकासम्बन्धः ।
बालिमा हालिकपनी हालिकं त्यक्त्वान्यं पतिं चिकीर्षुरभूत् । एकदा तस्मा परवित्ताप
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चतुर्वाजधिकारः
[३५१ हारका मिलितः । तेन समं प्रीतिर्जाता । हालिक उवाच मम पाव बहु धनं विद्यते तद्गृहीत्वाम्पत्र गम्यते । ततः आवाभ्यां सुखेन स्थीयते । ततः सा रात्री पतिं सुप्तं मुक्त्वा बहुवखाभरणादि लास्वा तेन सह चचाल । मार्ग नदी समेता। चौरश्चितयामास-किमनया सिया यया पतिस्त्यक्तः मा च मम पापे न स्थास्यति अतो धंचायत्वैनां यामि । ततस्ता प्रति प्राह--नदी अगाधा वियते, प्रथमं वनादि मधमप्पय । नद्याः परकूले मुक्त्वा त्वां नेयामि । ततस्तया एकं त्रुटितं 5 जीर्णवखं परिधानाय रक्षयित्वा परं तस्यापितम् । स च सर्व लात्वा नदीमुत्तीये नष्टः यदा स नागच्छति तदा शीते पतति एकाकिनी निर्वखा गल्लदत्तहस्ता साभूत ।
इतस्तत्र तटैका शृगालिमांसपिडिं लात्वाऽऽगात् । तदा जलाग्निर्गत्य मत्स्यो मांसपिंडलोलुपो मृतप्रायो भूत्वा स्थितः । तं मत्स्यं लातुकामा भृगालिका स्वाऽऽस्यात् मांसपिंडमधो मुक्त्वा मत्स्य गृहीतुमधावत् । अत्रान्तरे व्योम्नः गृध्रोऽभ्येत्य मांसपिण्डं लात्वाकाशे गतः । मत्स्योऽपि नदो- 10 जले गतः। ततस्तां शृगाली व्यर्थना गृध्रसम्मुखमवलोकयंती सवेलं किंयंती दृष्ट्वा लिया तयोकं शृगाली प्रति
गृध्रेणापहतं मांस, मत्स्योऽपि सलिलं गता ।
मत्स्यमांसपरिम्रप्टे किं निरीक्षसि मंधुके ॥१॥ शृगालिका प्रत्युचरं जगो
यारशं मम पाण्डित्यं ताशं द्विगुणं तव ।
न बारो न च मारो कि निरीक्षसि नग्निके ॥२॥ ततः सा बी चिरं दुःखं प्राप्ताकायकरणात् ।
इति अकार्यकरणे हालिकनीशृगालिकासम्बन्धः ॥६०६॥
[607 ] अथ स्वदेश-स्वजनसुखे श्वानसम्बन्धः । सुभिक्षाणि च सर्वत्र, शिथिलाश्चापि योषितः ।
एको दोषो विदेशे स्यात् , स्वजातिश्च विरुध्यते ॥१॥ एकस्मिन् प्रामे चित्राङ्गः श्वानस्तिष्ठति । तत्र दुर्भिक्षे पतिते सर्व लोका अभाभावात् दुःखिसा जाताः । अत्रान्तरे चित्रांगः क्षुत्झामः सुभिक्षं श्रुत्वा तत्राऽचलत् । वंगदेशे गतः । तत्रैकस्य गृहे शिथिला पत्नी यथा तथानं निपति । स च तदन्नं भक्षयन तृप्तोऽभूत् । परं बहिर्निगतोऽन्यैः 26 . श्वानः पराभूतः । ततः श्वा दध्यौ-अहो वरं स्वदेशस्तत्र दुर्भिक्षेपि स्वेच्छया हिण्डते स्थास्यते तत श्वाऽसौ स्वदेशे गतः । देशान्तरायातःस चान्यैः पृष्टः-भो चित्रांग ! कथय देशान्तरवार्ता । स प्राह-सुभिक्षं, शिथिला नियः, परं तत्र देशे सुहृद्-स्वजनः कोपि न । अन्ये श्वानोऽन्यं देशान्तरायातं कदर्थयन्ति । स्वजातिने सुखावहाऽन्यत्र ।
इति स्वदेश-स्वजनसुखे श्वानसम्बन्धः॥६०७॥
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३४२ ]
प्रदी
[ 608 ] अथ तृष्णार्या कुष्टकपरीक्षित परीक्षादौ नापित सम्बन्धः । कुदृष्टं कुपरिज्ञातं, इभुतं कुपरीक्षितम् । तारेण न कर्तव्यं नापितेनास्त्र यत्कृतम् ॥१॥ पाटलिपुरे माणिभद्रश्रेष्ठो बने क्षीणे सुप्तो दध्यौ
शीलं शौषं क्षान्तिर्दाचियं मधुरता कुले जन्म न विराजन्ते हि सर्वे, वित्तविहीनस्य पुरुषस्य || २ || aratha नष्टतारं, शुष्कमिव सरः श्मशानमिव रौद्रम् । प्रियदर्शनमपि रुक्षं, भवति गृहं धनविहीनस्य ||३||
इत्येवं संप्रधार्य रात्रौ सुप्तो दध्यौ - प्रातरनशनेन प्राणत्यागं करिष्यामि । माणिभद्रे सुप्से 10 पद्मनिधिनिधानदेवोऽभ्येत्याऽवग्-मरणं मा कुरु, तब पूर्वकृतशुभ [क]र्म्मणा कल्ये मध्याह्ने क्षपणकरूपभृदहं तबालये समेष्यामि त्वयाहं लकुटप्रहारेण ताडितव्यः शिरसि पादयोश्च । ततोऽहं कनकमयोनिधिर्भविष्यामि । एवं प्रोक्त्वा स गतः । प्रावदध्यौ श्रेष्ठी
15
व्याधितेन सशोकेन चिन्ताग्रस्तेन जन्तुना ।
कामार्त्तेन च मत्तेन दृष्टः स्वप्नो न विद्यते ||४||
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अयं स सत्य एव दृश्यते । ततो लकुटानय नादि सामग्री कृता श्रेष्ठिना । अत्रान्तरे पत्या नखप्रक्षालनाय नापित आकारितः स्वगृहे । इतः पद्मनिषिः क्षपणकरूपः सभागात् । अथ स तमालोक्य प्रहृष्टमना भोजनं कारयित्वा यथासनकाष्ठदण्डेन तं शिरस्यताडयत् । व हेममयः पुरुषोऽभवत् । ततस्तं गृहमध्ये मुक्त्वा श्रेष्ठी प्राइ नापितं प्रति, दीनारशतं त्वया ग्राह्यं कस्याप्य न प्रोच्यम् ।
ततो नापितो निजगृहे गतो दध्यौ । क्षपणका लकुटाहताः कनकमयाः पुरुषा भवन्ति । ततोऽहमपि क्षपणक भोजयित्वा लकुटप्रहारदानात् कनकपुरुषं कृत्वा सुखीभविष्यामि । ततः प्रातः क्षपणकपार्श्वे गत्वा नापितोऽवगू- अथास्मद्गृहे भिक्षा सपरिवारेण कार्या । तेनोकं भो श्रावक धर्मज्ञ त्वं वयमेवं कस्यापि गृहे यथा तथा भिक्षा न करिष्यामः तेन भाव्यमेवं । ततो नापितोऽप्याह- प्रभूतश्रावका वयं सर्वसामग्री कृता, यद्यस्मद्महे न समेष्यति [भवान् ] तदा 25 मया न भोक्तव्यं । पुस्तक लिखनाय यद्धनं त्रिलोकयिष्यते तदहं दास्ये । एका वर्षा शर्वरी आनीतास्ति [ तत् सर्वथा कालोचितं कार्यम् ] । ततो मध्याह्ने क्षपणकं स्वगृहे नीत्वा वर्याहारैश्वरों कारयित्वा नापितः क्षपणकं दृढलकुट प्रहारैः शिरसि पादयोः पुनः पुनराजघान । [क] पायुगलं हढं दप्ते । ( बहिः) निस्सर्तुमशक्तः उच्चैः पूत्कारं चकार । लोका मिलिताः, राजाप्यागतः, जर्जरगात्रं क्षपणकं दृष्ट्रा प्रोचुः । कथमयमेवं कुट्टितः । स च यथा दृष्टं माणि30 भद्रश्रेष्ठिकृतं कनकपुरुषप्राप्ति (प्र) युतं वृत्तं ] जगौ । ततः श्रेष्ठी पृष्टो राशा, पद्मनिघिदेववरप्राप्ति जगौ । ततः सर्वैरपि प्रोकं—
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. चतुर्थोऽधिकारः
[ ३४३ एकाकी स्यक्तसंकेत: पाणिपात्रो दिगम्बरः ।
सोऽपि संबाध्यते लोके तृष्णया पश्य कौतुकम् ॥५॥ नापिताप्रे चोक्तं कुदृष्टं कुपरिज्ञातं । इति तृष्णायां कुदृष्टकुपरीक्षितपरीक्षादौ नापितसम्बन्धः ॥६.८॥
[609 ] अथ लोमे मस्तकचक्रभ्रमपुरुषसम्बन्धः । एकस्माद् प्रामाद् चत्वारोऽपि सुहृदः धनार्जनाय निर्गताः । क्रमाद् रत्नद्वीपोपान्ते गताः। यदा ते धनप्राप्तिकामा बनमध्ये गताः तदा एकः सिद्धपुमान् हस्ते एकैका दीपिका ददौ प्राह च-यस्य दीपिका यत्र पतति तत्र स्खनित्वा धनं प्राचं । ततस्तेषामग्रे चलतामेकस्य हस्तादीपिका पतिता तत्र तानं निर्गतम् । तन ताम्रपोट्टलको बद्धः । अन्ये कथयन्ति वयं तानं न गृहामः । द्वितीयस्याने गच्छतः द्वितीयहस्तापत्र दीपिका पतिता तत्र रुप्यं जग्राह । सतो तदने गच्छत- 10 स्वतीयस्य यत्र दीपिकाऽपतरत्र हेम निर्गतम । चतों लोभाद बह बभ्राम परं दीपिका न पतति । हषा लग्ना तत्रैकः पुमान् मस्तकस्थचको भ्रमन् दृष्टः । स च पयस्थानं पृष्टो यदा तस्य मस्तकाचर्क तस्य मस्तके घटति स्म । अग्रेतनः पुमान् वर्षशताष्टकान्मुत्कलोऽभूत् । स च मस्तकस्थचक्रः पूर्वपुरुष इव भ्रमितुं लग्नः । अन्ये तं तथास्थं लोभाद् भ्रमन्तं पूर्वपुरुषाद् मात्वा स्वस्वकर्मार्जितं धनं लात्वा स्वगृहं जग्मुः।
अतिलोभो न कर्तव्यो लोभं नैव परित्यजेत् । अतिलोभामिभूतस्य चक्रं भ्रमति मस्तके ॥१॥
इति लोमे मस्तकचक्रभ्रमपुरुषसम्बन्धः ॥६.९॥
[ 610 ] अथ अज्ञाने हितोपदेशाऽकरणे खरसम्बन्धः । ___ एकस्मिन् प्रामे रजकस्य सद्धतो रासभो दिवा रजकगृहे कर्म कृत्वा रात्री स्वेच्छया परति 20 भक्षयति स्म । बन्धनभयात् प्रातः स्वयमायाति । एकदा खरस्य शृगालेन सह मैत्री जाता । द्वावपि रात्रौ स्वेच्छया वाड्यो प्रविश्य कर्कटिका भक्षयतः स्म । प्रातः स्वस्वस्थाने यातः स्म । ___ एकदा रात्रौ सरेणो[क्तम् }-भो भगिनीसुत ! निर्मला रात्रिर्षियते । तेनाहं गोतं वयं करोमि त्वं शृणु कतमेन रागेण च । शृगालः प्राह-अलं गीतेन, वयं चौराः । चौरः निभृतं स्थीयते । उक्तं च
कासं विसर्जेयेचौराः निद्रालुश्चेत् स चोरिकाम् ।।
जिह्वालौन्यं तु रोगा” जीवितं योऽत्र वांछति ॥१॥ सः कठोरं गीतं तव श्रुत्वा क्षेत्रपः सुप्त उत्थाय आवयोवधबन्धनं च करिष्यति । तद्भक्षयकर्कटिका शनैः। ततः खरोऽवग-त्वं न वेत्सि गीतरसम् । शृगालः प्राह-माम ! त्वं गीतभेदान् न देसि । तर्हि कथं गीतं करोषि । खरोऽवग-अहं गीतभेदान् वेनि । तथाहि
गाजरमः।
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३५४ ]
प्रामपञ्चशती सप्तस्वराजयो प्रामा, मुर्छनास्त्वे कविंशतिः । ताला स्वेकोनपञ्चाशव, तिस्रो मात्रा लयाशयः ॥२॥ स्थानत्रयं यतीनां च पहास्यानि रसा नव ।
वर्णाः षट्त्रिंशद् मावा द्विचत्वारिंशत् स्मृताः ॥३॥ [ रागाः षट्त्रिंशतिर्भावाः द्विचत्वारिंशव ततः स्मृताः ॥३॥]
पंचाशीत्यधिकं घेतद् गीताङ्गानां शतं स्मृतम् ।
स्वयमेव पुरा प्रोक्तं, भरतेन श्रुतेः प्रियम् [ परम् ] ॥४॥ इत्यादितो गीतस्वरूपमहं जानामि । ततः शृगालः प्राह-यदि त्वं गीतं गायसि तदाह वृत्तेबहिस्थस्त्वदुक्तं गीतं शृणोमि । त्वं तु स्वेच्छया गाय । ततो राममो रदितु लग्न उचैः । 10 तदा जागरितः क्षेत्रपः क्रोधात् धावित्वा खरं लकुटेराहत्योदूखले बंधयित्वा क्षेत्रपा सुप्तः । म
खरः प्रहारपीडितोपि गतवेदन उत्थाय उदूखलयुतो वृत्तिं चूर्णयित्वा बहिनिर्गतः । तदा मातुलमागचन्तं खरं दृष्ट्वा भृगालः प्राहोपहास ।
साधु मातुल ! गीतेन मया प्रोक्तोऽपि न स्थितः । कंठेऽपूर्वा मणिबंद्धः, संप्राप्तं गीतजं फलम् ।। इति अज्ञाने हितोपदेशाकरणे खरसम्बन्धः ॥६१०॥
[ 611 ] अथ वृद्धहितवाक्ये वृद्धवानरसम्बन्धः । भीमपुरे चंद्रचूडभूपस्य पुत्रा वानः सह क्रीडां कुर्वन्ति । तेषां वर्यफलाधाहारं ददम्ति । तेषां वानराणां वृद्धो वानरो विचमणो विद्यते । एकदा वृद्धवानरेण प्रोक्तं-महानसमध्ये
रसवती बलादयितुं मेषयूथादेकोऽजः प्रविश्य लौल्याद् रसवती भक्षयति यदा तदा सूपकार 20 उल्मुकं लात्वा तं ताडयति । स च सम्मुखो भवति यदा तदा पृष्ठौ ताडयति मिथः कलहः
सदा जायते हुडसूपकारयोः । राजवल्लभत्वात् कोऽपि तस्योपद्रवं मरणान्तं न करोति । वृद्धवानरस्तं कलह दृष्टा वानराणा पुत्राणां पुरः सूपकार-हुडकलिं प्राह । कदाचित् सूपकारेणोल्मुकेन ज्वलता हुड आहतो भविष्यति यदा तदास्य हुडस्योर्णा लगिध्यति । स च अश्वतृष्णकुटीरमध्ये
यास्यति । अश्वतृणकुटीराणि ज्वलिष्यति । अश्वा अजल्पति दग्धा भविष्यन्ति तदा च वैद्याः 25 तेषामश्वानां चिदिकारूजनाय वानरतलमादिशति । तदा राजा भवतो हत्वा वानरतैलं कार
यिष्यन्ति । अतः सकाले एवान्यत्र गम्यते तदा वरं । वानरैरुक्तम् त्वं वृद्धो प्रथिलोऽभूः । त्वं गच्छ, वयं कुत्रापि न यास्यामः । वृद्धो वानरोऽन्यत्र वने अश्रुपातं मुख्छन् गतः। ततो हुदोर्णा बलताश्वशालाज्वलिता, अश्वज्वलनादौ च जाते वानरतैलेनाश्वानां चिकित्सा कारिता राहा। तदा
केचिन् नंष्टा पितुः पार्श्वे ये गतारते जीविता अन्ये वानरा मारिताः एवं वृद्धोक्तं ये न कुर्वन्ति ते 30 वानरा इव मरणं गच्छन्ति ।
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चतुर्थोऽधिकारः
[३४५ इति वृद्धहितवाक्ये वृद्धवानरसम्बन्धः ॥६११॥
[ 612 ] अथ मातुर्वचाषालने द्विजसम्बन्धः । एका स्वादु न भुञ्जीत नैक: स्वार्थान् प्रचिंतयेत् । एको न हि व्रजेन्मार्गे नैकः सुप्तेषु जागृयात् ॥१॥ एक: कापुरुषो मार्गे द्वितीयः क्षेमकारकः ।
कर्कटेन द्वितीयेन सात पान्यः प्ररक्षितः ॥२॥ पद्मपुरे ब्रह्मदत्तो नाम द्विजः प्रतिवसति स्म । एकदा विप्रो गुरु कार्यत्वाचन्द्रपुरं गन्तुं यावल्लग्नः तावन्मात्रोक्तं पुत्र ! न त्वया एकाकिना गम्यम् । एकाकिनो गच्छतः कदाचिद्विघ्नं जायते । पुत्रोऽवग मातः मा भैषीः, निरुपद्रवाः सर्वे मार्गाः । मातुः पितुः गुरोः प्रसादात् अधुना द्वितीयः पुमान् कोऽपि सहायो न दृश्यते । माताऽवग-अयं [कर्कटः ] सहेळक: सहा. 10 योऽस्तु ते । स च मातृगौरवात् तं ककटं सहेलकं कपूरादिवस्तुग्रंथिमध्ये दृढं कृत्वा चचाल । एकस्मिस्तरोस्तले मध्याह्ने विश्रामार्थ स तस्थौ । ततः भक्ष यित्वा सहेलकं तत्र मुक्त्वा सुप्तः स । इतः कोटगरसो निर्गतः । तेन समं युद्धं कुर्वता सहेलकेन सर्पस्य पुच्छं मुखे गृहीत्वा स्ववपुः पंजरे प्रविष्टः । सर्पस्ते शूलाभिर्विद्धो मृतः। स द्विजो जागरितः । सर्प मृतं दृष्ट्वा रथ्यौ अद्याह मातुः कथितं नाकार्ष तदाहमय मृतोऽभविष्यम् । तेन गुरूणां यः कथितं करोति स सुखी 15 भवति । यत:
मन्त्रे तीर्थे तथा देवे, दैवज्ञे गुरुमेषजे । पादृशी भावना यस्य, सिद्धिर्भवति तादृशी ॥३॥ सर्पाणां च खलानां च सर्वेषां दुष्टचेतसां । अभिप्राया न सिद्धयन्ति तेनेदं वर्तते जगत् ॥४॥
इति मातुर्वचःपालने द्विजसम्बन्धः ॥६१२॥ [ 613 ] अथ लोमे "क्षिणिक्षिणि पाहिं चिणि चिणि मली" सम्बन्धः ।
एकस्मात् पुरात् एकः भत्रियो वर्यबहुवलोऽश्वारूढो वर्त्मनि पचाल ! मागे एको द्विजो मिलितः सन् आशीर्वादमेवं ददौ
वदान्यः क्षत्रियोत्सः कर्णविक्रमसभिभः । चिरं जयास्तु ते दीर्घमायुर्लक्ष्मीबहुः पुनः ॥१॥ उपानयां विना तीक्ष्णकण्टकैश्चरणौ मम । दुखितस्तेन मह्यं त्वं, वितरोपानही द्रुतम् ॥२॥
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प्रवन्धपती
ततस्तेनोपानही दत्तौ । ततस्तेन मागिता पादशीषिका दत्ता । ततो धौतिकं, ततो जलभाजनम् । ततो द्विजोऽप्रतो गच्छन् यद्यहमश्वममार्गयिध्यं तदा स तमपि मह्यमदास्यत एवं पुनर्विमृश्य खिणिखि णि दधानः पश्चाद् वलितः सन् [ तस्य यजमानपार्श्वे घोटकं याचते स्म] ततः ताजनकेन द्विजपृष्टिं ताडयन् प्राह-गृहाण घोटकान् बहून् । तव मौक्तिकघूधरिका सर्चा वा विद्यन्ते । एतैर्दत्तन वांछा पूर्णा । ततो विप्रोऽवग-खिणिखिणिपाहिं चिणिचिणिभली । क्षत्रियोऽवग-स्वयैवं किमुच्यते । विप्रोऽवग-अहं तव पाश्वाद्ववादोनि इलया प्राप्याग्रतो गच्छन् दध्यो-यदि घोटकममार्गयिध्यं तदा क्षत्रियस्तमपि अदास्यत् एवं क्षिणिमिणरभूव । सा अनया ताजनचणिचणिकया भग्ना । अतो मयोध्यते क्षिणिक्षिणिपाहिं चिणिचिणि भली
तः क्षत्रियोऽवग-बहुलोभो न क्रियते । यद्यपि द्विजा लोभिनो सन्ति तथा स्तोक एक 10 क्रियते । यत:
धनेषु जीवितव्येषु [स्त्रीषु ] चाहारकर्मसु ।
अदप्ता प्राणिनः सर्वे याता यास्यति यति च ॥३॥ ततो विप्रः "खिणिखिणि पाहिं चिणि चिणि भलीइति चचाल । इति लोभे "क्षिणिक्षिणि पाहिं चिणिचिणि भली" कथा ॥६१३॥
[614 ] अथ मुलाणजयने देपालकविसम्बन्धः । एकदा देपालकविना योगिनीपुररथेन श्रुतं यः काश्मीर देशे गत्वा सरस्वती स्तौति तस्मै सा सा विद्या दत्ते। तदनु देपालः काश्मीरदेशं प्रत्यचालीत् । तदा सरस्वत्या देपालमागच्छतं ज्ञात्वा स्वसेवकाना पुरः प्रोक्तं-यः कल्ये मम पादौ नत्यर्थ नरः समायाति स देवगृहमध्ये न
मोकव्यो, हढं शेयमिदम । ततस्तथागीकते तैपाल: सरस्वत्या देवगहद्वारे आगात । प्राह च 20 पूजारकाणामग्रेऽहं दूरदेशादभिप्रहबद्धोऽन्त्रागतोऽस्मि देवीनमस्करणार्थम् । देवीदर्शनं विना [न]
भोक्ष्ये। तैरुक्तं-देव्यादेशो नास्ति ते मोचनाय । ततो देपालस्य विंशतिलेचनानि जातानि, तथापि ते तस्य तत्र प्रवेशं न ददन्ति ! ते] । भाग्ययोगेनै कविंशतितमे दिने छलात् प्रासादमध्ये प्रविश्य द्वाराणि दत्त्वा सरस्वत्याः समीपं गत्वोक्तं-भो देवि ! मह्यं वरं देहि, नो चेत् त्वां लोष्टेन
चूर्णयिष्यामि । देव्या ध्यातं यद्यस्मै नाहं प्रत्यक्षीभवामि सदासौ मां चूर्णयिष्यति । ततो देव्या 25 प्रत्यक्षीभूयोर्क-तुष्टाऽहं वरं याचस्व । पालोऽवग-मह्यं विद्या देहि । देव्योक्तं यत् किमप्यतीतं
वतमानं सांप्रतिकं योजयिष्यसि तत् सर्व ज्ञानवशात् तव मेले समेष्यति । ततो देपालः कृतपारणको देवों पुष्पैः प्रपूज्य स्तुत्वा च प्राप्तवरो योगिनीपुरं समागात् ।
एकदा मुख्यमस्रीते म्लेच्छाना गुरवः उपविष्टाः सन्ति । तदास्मिन् मार्गे देपाल समागात् तदा चाकस्मात् भूतेल: प्रचण्डः समागात् तदैकेन कलंदरेन (ण) देपालः प्रोक्त:-अयं वंतोल: 30 कस्माद् भ्रमणं करोत्यत्र । देपालोऽवग-प्रथमं वृद्धकलंदरः प्रत्युत्चरयतु पश्चादहं । ततो वृद्धकलंदरः
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चतुर्थोऽधिकारः
[ ३४७
प्राह — अयोगोवरहो ( ? ) [ अयोगोलक: ] मृत्वा अस्मद्धम विना भूतेलो जातः । अतो न क्वापि प्रवेशं लभते ।
देपालेनोक्तं-त्वं सत्यं न वेत्सि । असौ मुशलमानो खंडशरीरः किरतारपार्श्व गतः । किरतारोऽवग्-त्वमग्निप्रवेशं विना चाशुद्धोऽत्र कथं समागात् । यदि त्वं तत्र गत्वा स्वशरीरं वह्निना शुद्धं कृत्वाऽगच्छसि तदात्र स्थातुं तव दास्ये । ततः स्वशरीरस्य शुद्धयर्थं भ्रमन्नस्ति । सर्वत्र स्वगोहरिमध्ये ? [ स्वं वह्निमध्ये ] स्वांगस्य दाहं कर्तुमशक्तोऽस्ति ।
इति मुलाणजयने देपालकविसम्बन्धः ॥ ६१४॥
[615 ] अथ देपालकविप्रीणित दिल्लीपुरस्थयोगिनीप्रीणन सम्बन्धः ।
एकदा योगनीपुरे महान् रोग उत्पन्नः । तदा पाटकादौ बहवो मनुष्या त्रियन्ते । ततो [लो] कै: पुराद्वहिर्वासः कृतः । तदा सारंगसाधुप्रभृतिव्यवहारिभिर्देपालस्या प्रोक्तं- भो नेपाल १ तथा कुरु यथा ६४ योगिनीस्थानं महद्विवरयुतमस्ति तत्र योगिनीविवरमध्ये ६४ योगिनीप्रतिमाः 10 साधिष्ठायिकाः संति । ततस्तत्र गत्वा तथा पूजोपहारस्तुत्यादिभिस्ताः प्रीणय यथा यथा पुरे रोगोशांतिर्भवति । ततो देपालः सुमुहूर्ते वर्यपुष्पकस्तूरिकादिवलिं छात्वा देव्या भवनद्वारे गतः । ततः सर्वे लोकास्तत्र मुक्त्वा स्वयं निर्भयो पालो विवरेण प्रविश्य प्रभाते यावद्देवीनां भक्ति चक्रे । ताः प्रीताः देपालवचसा पुरमध्ये रोगोपशान्ति चक्रुः । ततो देपाको व्यवहारिभिर्मानितो भृशं धनेन ।
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कविलाणके बहुजनसमुदाये मिलिते नीरं त्रुटितं । श्राद्धेषु तृषया पीडितेषु गुरुणा शुष्ककूपे नखेन चंदनं क्षिप्तं । तत्र [त्रा]मृतोपमं जलं बहु जातं । ततः श्रीसंभश्च मत्कृतः सुस्थितो जातः । तत्रायापि 'नखामृताख्य' कूपो विद्यते ।
इति श्रीयश्च मद्रसूरिणैकलग्न प्रतिष्ठित पंचपुरप्रतिष्ठाधिकारः ॥ ६१६ ||
ततो वे पालेन भरहेसरबाहुबलिप्रबन्धः १, जावड प्र० २, कालिकसूरि प्र० ३ श्रेणिक प्र० ४, रोहिणक प्र० ५ आर्द्रकुमारप्रबन्ध० ६ इत्यादि अनेकशो प्रन्थाः कृताः ।
इति पालकनिप्रीणित दिनीपुरस्थ योगिनी प्रीणनसम्बन्धः ||६१५||
[ 616 ] अथ श्रीयशोभद्रसूरिणैकलग्न प्रतिष्ठित पंचपुर प्रतिष्ठाधिकारः ।
एकदा आघाटपुरे यशोभद्रसूरिरस्ति । करहेटकपुरे १ कविलाणकपुरे २ सयंभरिपुरे ३ 20 मंडोरपुरे ४ मेसराणपुरे ५ पंच जिनप्रासादाः निष्पन्नाः तदा गुरुणा यशोमद्रेण पंचसु पुरेषु जिनप्रतिष्ठायै एकं लग्नं दत्तं । प्रोक्तं च- अहं प्रतिष्ठां सर्वत्र करिष्यामि स्वशयेन । तदा छोकाश्रमत्कृता दध्यु:-रे ते गुरवः कथं पश्चसु प्रासादेषु प्रतिष्ठां करिष्यन्ति । तेभ्यः पुरेभ्यः सुआं कारणं समागतं । ततो गुरुणा स्वांगस्य देवशक्त्या द्वाभ्यां २ अंशाभ्यां चत्वारि रूपाणि कृतानि । पंचमं सहजं रूपं च । ततो व्योम्नि गत्वा तत्र सर्वत्र प्रतिष्ठा कृता गुरुणा ।
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३४८ ]
प्रबन्धपश्चशती
[ 616 ] अथ श्रीकर्णामूलीराजमरणकथनादि भीयशोभद्रसरिसम्बन्धः ।
[ तपस्वी रूपवान् धीरः कुलीनः शीलदाढर्ययुक् ।
षट्त्रिंशद्गुणाढ्योऽभू-च्छीयशोभद्रसरिराट् ॥१॥] एकदा संधेन सह धीयशोभद्रसूरयः पत्तने प्राप्ताः । श्रीमूलराजा गुरुं सुप्रभावं ज्ञात्वा वंदनायै गतः। धर्मदेशना अता। राजा रंजितः प्राह मम प्रसधात्रपुरे स्थेयम् । गुरुणोक्तम्साधवो नैकत्र तिष्ठन्ति । ततो राजा स्वगृहे स्वगृहपवित्रीकरणायाकारितवान् । राजा तु गुरुन् भक्त्या प्रपीण्य स्वगृहान्तरे स्थापितवान् द्वारं दत्तवान् । गुरुणा ध्यातं राजानुबलेन मा स्थापयिष्यति यत् तन्न युक्तम् । ततो वमनि श्रीसंघवहमानं कारयित्वा कपाटछिद्रेण लघु.
रूपं कृत्वा निर्गत्य च संघस्य गुरवो मिलिता: । भद्रमुखेनाशीर्वाद ददौ राझो झापयामासुश्च । 10 राज्ञा ध्यातम्-अपवरकमध्यात् कथं गुरवः सङ्घमध्ये प्राप्ताः । ततो गृहमध्ये गुरूनदृष्ट्वा गुरुपार्श्वे
राजाभ्येत्य प्राह-भगवन् ! यूयं सुप्रभावाः । मयापराधः कृतः झम्यताम् । गुरूणा प्रोक्तंसाधवो बलेन न रक्ष्यन्ते । ततो राज्ञा स्वायुः पृष्टम् । गुरुणा षण्मासाः प्रोक्ताः । धर्मोषधं कुरु । ततो राजा गुरूम् प्रणम्य पश्चाद् धनेन बहुजनान् संतोष्य स्वं पुत्रं राज्ये [ अभिसिध्य ] गुरूक्तदिने धमकम्मपरः स्वर्ग जगाम राजा, गुरुवोऽप्रतः शत्रुञ्जयादौ यात्रा चक्रः । । इति श्रीकणे[मूल] राजमरणकथनादि श्रीयशोभद्रसूरिसंबंधः ॥६१७॥
[618 ] अथ चन्द्रोदयोपशांतिसम्बन्धः । आघाटपुरे उल्लूरनृपमान्यो गणधरामात्यो राजव्यापार चलं मत्वा राजानुमत्या महान्तं प्रासादं कारयामास । श्रीयशोमवसूरि चित्रकूटाचलतः आकार्य प्रासादे श्रोपावबिबं प्रातिष्ठिपत्
गुरुपामात्यश्रीसंघयुतश्चैत्यपाटीं करोति स्म । 20 अत्रावसरे कोप्यवधूतो गुरु दृष्ट्वा स्वहस्तेनाननं पस्पर्श । गुरुणा तन्मनोभिप्रायं ज्ञात्वा
स्वपाणी धृष्ट्वा श्यामौ दर्शितो सबाढं चमत्कृतः राजापि च । एषः महान् कलावानिति मत्वा म गुरु नत्वा प्रयातः । राजामात्यादिभिगुरवः पृष्टाः-किमेतद् गुरुणा कृतम् ? गुरु प्राहउज्जयिन्यां महाकालप्रासादे प्रदीपेन चंद्रोदयो लग्नोऽनेन च देवप्रभावात् तं झास्वास्माकं हापितं सर्वज्ञपुत्रा एते इति। अतोऽस्माभिः करो धृष्टा श्यामो दर्शितौ तस्य । ततः संकेते प्राप्ते सति नतः स गतः। ततो राजा विशेषतश्चमत्कृतः राज्ञोकं प्रकटं गुरोः [गुरो १] कथय । ततो गुरुणा महाकालदीपलग्नादिसम्बन्धः प्रोकोऽस्माभिः स विध्यापितः । राजा तत्रोजयिन्या स्वनरान् प्रेध्य प्रत्ययाय । तस्मिन्नेव दिने उमोचनज्वलनं तच्छातिभवनं च ज्ञातवान् । ततो राजा हृष्टः । श्रीयशोभद्रसूरिपार्श्वे जिनधर्ममनीचक्रे ।
इति चन्द्रोदयोपशान्तिसम्बन्धः ॥६१८॥
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चतुर्थोऽधिकारः
[ ३४९ [619 ] अथ विजयमंत्रमहिमा । एकदा श्रीजिनप्रभसूरिः सुरत्राणेन पृष्टोऽधुना कोऽपि मन्त्रः सुप्रभावो विद्यते न वा । सूरिणोकं विजयमन्त्रोऽस्ति । सदनु पंचविंशतिभिः द्रम्मैः सचिन्ने लिखितः [ लेखितः ] । सघ सुरत्राणायापितः । प्रोक्तं च यत्रायं तिष्ठति सत्र वैरी न प्रभवति । ततः सुरत्राणेन स्वछत्रे बद्धः । छत्रछायाया अध आखुर्मुक्तः । मार्जारी आनीता तदृष्टौ । ततश्छत्रछायाया अधो नायाति । सूरिणोक्तं-यस्याओं बध्यते तस्य प्रहारो न लगति । तदनु सुरत्राणेन छागमानाय्य तस्यांगे विजयमन्त्री बद्धः । बहवः खगप्रहारा दत्तास्तस्यैको न लग्नः ।
इति विजयमन्त्रमहिमा ॥६१९॥ [ 620 ] अथ बलमुनिना बौद्धगृहीतश्रीरैवततीर्थमोचनसम्बन्धः । श्रोशालिसरियंदा सूरिपदे उपविष्टः तदा बलभद्रो इझिकासमपर्वते गुहायां स्थितोऽव्यक्त. 10 वेषधारी छागीवृन्दमौषधीश्वारयर तत्पुरीषेण होमं करोति । इतो महान् [एकः ] संघः श्री शत्रुक्षये देवान् वंदित्वा रैवततीर्थे प्राप्तः । तदा बौद्धैः खेंगारभूपबलेन तीर्थ गृहीतम् । श्वेताम्बराः देवं नन्तुं न शक्ताः। क्रमाञ्चतुरशीतिः संघाः मिलिताः । यो बौद्धो भवति स वंदते नेमि नान्यः । १२वर्षाणि जातानि । तसः शासनदेव्योक्तं यदि यशोभद्रसूरिशिष्यो बसममुनिरत्रायाति सदा तीर्थ मोचयति । ततः श्रीसंधेन बलमनमुनिमाकारयितुं भृत्याः प्रेषिताः । मुनिस्तीथे बुद्ध- 15 गृहीतं श्रुत्वा प्रतिज्ञा चक्रे-"तदा विकृतिमा यदा तीर्थ काळयामि खेंगारनृपं स्वपदे पातयामि" ततस्तत्रैत्य श्रीसंघस्य मिलित्वा श्रीसंघमेकत्र कृत्वा परितोऽग्निप्राकारमकरोत् । ततो मंत्रवलादग्नेः पुरतो जलपूर्णामगार्धा खातिका चक्रे । ततः कणवीरकं[बा] लात्वा माषाक्षांश्च पावं कृत्वा मुल्यमाद्धैः सह राज्ञः पाद्यं गत्वाशीर्वादं ददौ, प्राह च मुनि:--"इदं गिरनारतीय जैनं बौद्धगृहीतं त्वबलात् , पश्चादापय नो चेत्तवाऽकुशलं भविष्यति ।"
28 ___ ततो राजा रुष्टः प्राह-रे मुंड पाखंडिन् ! मदो मा जल्प एवं । मृतेः किं न बिभेषि ! बौद्धीभूय तीर्थ वंदस्व नो चेद्धनिष्यसे त्वम् । ततो रुष्टो मुनिः प्राह-रे दुष्ट भूप! मैवं जल्प, पापजल्पनफलमिह परत्र च लभिष्य से [लप्स्यसे] इत्युक्त्वा राड्या उपरि माषामतान् प्राक्षिपत् । राज्या अरु तीवस्फोटका जाता वेदना च । तज्ज्ञात्वा राज्ञा सेनानी मुनि श्वेताम्बरसंघ मारयितुमादिष्टः । सेनानी संघस्य परतोऽग्नि जलयोवप्रं प्रेक्ष्य मुनेरपि परतः तथा दृष्ट्वा जगाद । 28 ततो राजा मंत्री प्रोक्त:-किमत्र करिष्यते । मंत्र्याह देव ! न कोऽपि सामान्यो जैनमुनिजैनसंघश्च त्वयापमानितः । तेनासौ न पराभूयते संधिरेव कृता वीक्ष्यते ।
ततो राक्षादिष्टो मंत्री मुनिपार्श्वे गत्वा जगौ-भो मुने ! यदि वहयपः सारणात् मार्ग ददस्य तदा तवोपान्तेऽभ्येत्य विज्ञापयामि । वह्निजलयोरपसारिते मन्त्री मुनिपार्श्वे गत्वावर त्वं क्षमावान तेन तव राज्ञा समं विरोधो न युक्तः । विप्रहे कृते च तव विघ्नं भविष्यति । 33 श्रत्वैतन्मुनिहास । ततो रक्तकणवीरकंबामादाय गिरिमारोदुव्रजन मंत्रिणं प्रति जगौ-मत्कृतं
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३५. ]
प्रबन्धपञ्चशती
प्रथमं विलोकय, पश्चात्संधिः कार्या । कंबा संहारेण भ्रामयित्वा वृक्षशीर्षाणि बहूनि मुनिः पातयामास । प्राह च यथा वृक्षशीर्षाणि पातितानि तथाहं वैरिशीर्षाणि पातयिष्यामि, परं दया कुर्वाणोस्मि । जैन द्विष्टस्य योऽपराधः क्रियते स मुक्तये भवति । चकितो मंत्री प्राह-मूषकोपि
ढंकनिका पातयति [पातने शक्तः न तूद्धरणे }। यदि तव सामयं स्यात्तदा वृक्षशीर्षाणि 6 वृक्षेषु योजय । ततो मुनिः मृमिथ्था कंधो भ्रामयित्वा वृक्षशीर्षाणि यथास्थाने अयोजयत् ।
एवं मुनेबलं राजा मंत्री च दृष्टा चमत्कृतौ । ततो राजा जगाद-त्वं धन्योऽसि, राज्या: पीडामपसारय । मुनिः प्राह-यदि त्वं राशोयुतः श्वेताम्बरसंघ नेमि नन्तुं गिरेरुपरि याथः बौद्धान् दूरीकुरुत सदा राझी सज्जा करोमि । ततो राज्ञा सर्व मुन्युक्तमजीकृतं । ततो राजा बौद्धान्
दूरीचकार । ततो राजा खेंगारः श्रीबलभद्रमुनिः श्रासंघयुतो महोत्सवं कुर्वाणतीर्थस्यापरि चटति 10 स्म । श्रीनेमिमभ्यय॑ पुष्पकेसरकपूरादिभिः स्नात्रं कृत्वाऽऽरात्रिमंगलप्रदीपादि चक्रे श्री श्रीसंघः ।
ततो राजा खेंगारो जिनधर्मानुरागी जातः । बलभद्रयशोभद्रो शासनस्य प्रमावको । जातो तो प्रत्यहं वंदे स्तौमि मक्तिगुणाश्चितः ।।१।
इति बलमुनिना बौद्धगृहीतश्रीरैवततीर्थमोचनसंबन्धः ॥६२०॥
_[621 ] अथ जिनशासनप्रभावनायां देवसरिसम्बन्धः । 15 भृगुपुरे श्रीदेवसूरिपार्श्वे कान्हडयोगी ८४ सर्पकरण्डकयुत आगात् वादार्थ, प्राह च वारं
कुरुत, नो चेदासनं त्यजत । गुरुमिरासनोपविष्टैरेव परितः सप्त रेखां कृत्वोचे-मुन्न सान् । तेनैकोऽहिर्मुक्तः एका रेखामाकम्य ववले । द्वितीयोऽहिद्वितीयां रेखाम् । एवं बहवोऽपि मुक्ताः परं षष्ठी रेखा केनापि नाकान्ता । योगी भूमावुपविशत्येकशः। सूरिः प्राह--किं भूम्युपवेशनेन
यः सबलस्तं मुछेत्युक्ते नलिकात आकृष्य रक्त: संदूरिकोऽहिर्मुक्तः । स च दृष्टया कदलीपत्राणि 20 भस्मीकरोति । वाहनसर्पो रेखां न लवते । संदूरिक उत्तीय रेखा जिह्वया बभत । वाहमाहेरु
परिस्थस्य प्रेरणाया बलाद् गुरोरासनपादोपरि चटितुं लग्नः । जने हाहाकारे जाते गुरवो व्याने स्थिता: तावदकस्मादागत्य शकुनिकया मर्पद्वयमुत्पाट्य दूरे क्षिप्रम् । जितो योगी । ततः टोडरमुत्तार्य गुरोरंह्रौ विलग्याऽवग्-ममैतदेवाजीविका तेन स सप्पो दीयताम् । सूरिः प्राह
नर्मदानदीतीरेऽस्ति । रात्रौ"लादेव्याऽगत्याऽऽचष्ट-मासचतुष्टयं संमुखवटाधिरूढया [व्याल्यानं 25 श्रतं तव मया, तत्कथं प्रभूणामुपद्रवं द्रष्टुं शक्नोमि । अतो मया सर्पोऽपहृतः । गुरुभिः स्तुति
रूपं काव्यं प्रोक्तम् । (देव्योक्तं-] इदं कोशे तिष्ठतु, न प्रकाश्यम् । प्रातरिदं काव्यत्रयं लिखित यस्तुतिरूपं यः पठति तस्य सर्पोपद्रवो न भवतीति प्रोच्य गता देवी । "घंटाकर्णोमहावीर" इत्यादि । ततः स योगी कान्हडो जिनधर्म प्रपेदे, गुरुभक्तिपरोऽभूत् ।
इति जिनशासनप्रभावनायां देवमूरिसम्पन्धा ॥६२१।।
[ 622 ] अथ विमलमन्त्रीकृतार्मुदप्रासादसम्बन्धः । अन्यदा अम्बिका श्रीमातवा(१) सल्या निमन्त्रिताऽर्बुदाद्रो गता। जिनप्रासाद विना मम
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चतुर्थोऽधिकार
[ ३५१ स्थितिर्न शोभते तेन श्रीमातया बकुलचम्पकयोरधः ७२ द्रम्मल क्षयुता भूरर्पिता । ततोऽम्बिकावचनात् जीर्णा ऋषमप्रतिमा भूमिमध्यगता कर्षिता । ततोऽम्बिकागिरा चन्द्रावतीशविमलदण्डनायकेन पुत्राप्ति-जिनप्रासादनिर्मापणयोः प्राप्ति स्ति, एकतरं वरं वृणु । इत्युपवासत्रयाराद्धाऽम्बिकातो लब्धवरेण पुत्रात् [ प्रासादो] वरमिति तत्त्वं विमृश्य कुंकुमाहलीचिडून प्रासादः कार्यते । परं दिवा कृतो रात्रौ पतति । एवं षडमासाः । स्मृता देवी चागत्याह-एतस्या मुवो नेता बालीनाह (?) नाग उपवासत्रयेण पूजोपहारयुतेन त्वया चाराध्यः । निरवचनैवेद्यं याचते तदा देयम् । मद्यादि तु न दास्यते, खड्गमाकृष्य भापनीयः। खनन भापनात वालीनाहो नष्टः। क्षेत्रपालीवचसा भूयः स्थितः। निर्विघ्नं प्रासादे निष्पन्ने १०८ रीरीमयबिम्बं ऋषभस्य नागेन्द्रादिभिः सूरिभिः प्रतिष्ठितम् ।
ततो विमलः पत्तनेशभीमभूपेन छत्रचामरादि दत्वा नृपतिः कृतः। तत्पुत्रेण चाहिलेन 10 तत्र रंगमण्डपः कारितः । अत्र चारणोक्ति एवं
मंडी मुरकीरइ करइ, छंडीम सम्गाह ।
विमल डिखाडउं कड्रिउ, नाठउ बालीनाह ॥१॥ इति विमलमन्त्रीकता दिप्रासादसम्बन्धः ॥६२२॥
[ 623 ] अथ अर्बुदतीर्थे लूणिगवसतिनिष्पत्तिसम्बन्धः । पूर्व धवलाके लूणिग-मालदेव-वस्तुपाल-तेजपाला भ्रातरो वसन्ति निद्रव्याः। लूणिगस्य मरणसमये पुण्यव्ययेन नमस्कारा लक्षा मानितास्तैः । प्रोक्तं चापरं याचस्व । लूणिगोऽवग-विमलवसतौ देवकुलिकाकरणे मनोरथो विद्यते मम । भ्रातृभिः प्रोक्तं यदि लक्ष्मीभविष्यति तदा तव मनोरथ: पूरयिष्यते । तदनु व्यापारे जाते अबु दे तीर्थे भ्रातृमनोरथपूरणाय श्रीमाता,कस्य बोड़ाकस्य चन्द्रावतीशधारावर्षराणकस्य च पार्थात् तत्र भूर्द्रम्मैराच्छाच गृहीता । ३६ द्रम्ममूढका 20 विस्तारिता भूग्रहणाय । तैरुक्तं भरटकैरयं द्रम्मैः पर्वतं समग्र ग्रहीष्यात ततो न ददाति । ततस्तत्र १२-३ वर्षे प्रामादारम्भः, ५२९२ वर्षे पूर्णः । द्रव्यकाटि १२, लझ ५३ लग्नम् । लूणिगवसतीति नाम दत्तम् ।
लूणिगवसतिप्रतिष्ठायां समाहूताः ८४ राणकाः, २० मंडलिकाः, ४ महाधराः,८४ महाजनाः । जावालिपुरेश श्रीउदयननृपप्रधानमन्त्री यशोवीरो मन्त्रिवस्तुपाल प्रासादगुणदोषान् प्रपच्छ । प्राह 23 च शोभनदेवसूत्रधारः शोभन: । परं तन्मातुः कीर्तिस्तंभे हस्तोतंभनमयुक्तम् ।
सत्र स्तम्भस्थविवानामाशातना । गर्भगृहप्रवेशे सिंहाभ्यां तोरणं देवस्य विशेषपूजानाशाय । पूर्वजमूर्तीना जिनपृष्ठे आरोपणात् संततीनां ऋद्धिनाशः । आकाशे मुनिमूर्तिरोपणं स्वत्तः परं दर्शनपूजाऽत्पत्वाय । रङ्गमण्डपे पुत्तलिकाविन्यास अहंञ्चैत्ये नाहः । सोपानानि हस्वानि । भारपट्टाः लंबाः । कृष्णा गूंहलिका । प्रासादपृष्ठे हस्तिशाला इत्यादि दाषाः । तदा सर्वः 30 सत्यमित्युक्तम् । भवितव्यतामे कोपि न छुटति ।।
इति अर्बुदतीर्थे लूणिगवसतिनिष्पत्तिसम्बन्धः ॥६२३॥
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३५२ ]
प्रबन्धपश्चशती [ 624 ] अथ भावस्वदारसंतोष यतिशुद्धाहारग्रहणे भूपयतीसम्बन्धः । श्रीपुरे पमभूपस्य पावती पत्नी बभूव । कुमारदेवचन्द्रौ पुत्रो अभूताम् । पितरि मृते कुमारदेवो राज्ये निविष्टः । कुमारदेवभूपः स्वदारसंतोषी मनोविना भोगसुखमनुभवति स्म । चंद्रो दीक्षा प्राप्य शुद्धाहारं गृहानो बभूव । __एकदा विहारं कुर्वन् श्रीपुरासनदेवकुळे समेत्य तस्थौ । तदा राजा वंदित्वा गतः । राहो चन्द्रयति देवं वंदित्वा जिमिध्यामीत्यभिमहं ललौ। राज्ञो यदा वंदितुं यति गता तदातरा नदी जलपूर्णा जातोपरिजलददृष्टितः । राजी नदीमुत्तरितुं न शक्नोति तदा राज्ञोक्तं-च्छ, नक्षाः उपकंठं गत्वा त्वयेति वक्तव्यम्
__ यदि मम भर्ता शीलं शुद्धं पालयन विद्यते तदा [नदी नदि ?] त्वं मार्ग देहि । ततः सा 10 दध्यौ अहं तु पत्युः शी उसम्बन्ध जानन्नस्मि तथापि भतुवैचो मान्यं देवचन्द्र इत्र इति ध्यावा
पत्युः वयो जस्पन युक्त्या नदीपार्श्व गता पत्युक्तं [विनयेन ] यदोक्तं-चदा नद्या मार्गो दत्तः । देवकुले गत्वा देवरं वन्दित्वा स्वजेमनाय शुद्धाहारेग सार्थमानीतेन देवरं प्रतिलाभितवती । ततः सा स्वयं बुमुजे । पश्चाद् गन्तुकामा यदाभूत् तदा यसिना प्रोक्तं-च्छ. नदीकूले, जल्पनीयं च-भो नदि ! मम देवरेण दीक्षाग्रहमादनु उपवासा एव कृताः स्युः तदा मामे देहि । एतच्छ्रुत्वा तया ध्यातं अधुनैव मम हस्तदत्ताहारेण बुमुजे, एवं कथं भवतीति दध्यो सा । यद्यतिनोच्यते तन्मन्यते सत्यमेव ततो यतिवचसा नदी तयोत्तोर्णा । ततो भर्ता पृष्टः शीलादिसम्बन्धः प्राह-अहं मनो विनव त्वया सह भोगं करोमि अतो मे शीलम् । यतः 'मन एवं प्रमाणम्' । ततो यतिः पृष्ठः प्राह-मया शुद्धाहारो धर्मरक्षणाय गृहीतः अतो नद्या मार्गो दत्तः । ततश्त्रोक्तम्
विरयाविरयसहोदर उदगस्समरेण भरिअसरिअए ।
भणीआइ सावीआ दिनो मग्गत्ति भाववस ॥१॥ इति भाव-स्वदारसंतोषे यतिशुद्धाहारग्रहणे भूपयतिसम्बन्धः । ६२४॥ इति श्रीसोमसुन्दरसूरि पट्टालङ्करण धोमुनिसुन्दरसूरि श्रोजयचन्द्रसूरि पट्टालङ्करण श्रो रत्नशेखरसूरि पट्टालङ्करण श्रीसमोसागरसूरि श्रीसोमदेवसूरि श्रोरत्नमण्डनसूरिशिष्य पं. 25 शुमशीलगणिविरचित [प्रबन्ध पश्चातोसम्बन्धे चतुर्थोऽधिकारः समाप्तः ।। छ ।
विक्रमार्काद् विधुद्वीषुचन्द्र ( १५२१) प्रमितवत्सरे । अमु व्यधात् प्रबन्धं तु शुभशीलाऽमिधो बुधः ॥
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चतुर्थोऽधिकारः
[ ३५३
श्रीसिद्धाचले प्रासादादिवर्णनम् । श्रीसिद्धाचलप्रासाद, सोपानादिस्फुरत्प्रभम् । कुम्भ, गध्वजायुक्त-महन्तं तं स्तवाम्यहम् ॥१॥ तावनीलाविलासं कलयति मलयो विन्भ्यशैलोऽपि तावत् , धत्ते मत्तेभगवं तुहिनधरणिभृत् तावदेवामिरामः । तावन्मेरुमहत्वं वहति हरिगिरिगाहते तावदामा,
यावतीर्थाधिराजो न तु नयनपुटैः पीयते पर्वतेन्द्रः ॥२॥ एकदा श्रीतपागच्छाधिराजधीसोमतिलकसूरयो प्रहता श्रीसंघेन समं धीशत्रुञ्जये जिनान् वन्दितुं ययो । तत्रैवं
संवत् १३९......."वर्षे देवास्तैवन्दिताः । मुख्यप्रासादे गर्भगृहे पुण्डरीकातिमा यम् । ५६ जिनानन्यांश्च वन्दन्ते स्म ।
ततस्त्रिद्वारपासादे ४६५ जिनान् , ततो मोढेरकशंखेश्वर-सस्यपुर-समलिकाविहारेषु १००८ त्रिद्वारप्रासादवलानकं यावत् ।
ततः समरसिंहवसहिकायां ३३ जिनान् । ततः कोडाकोडिप्रासादे २९१ जिनान् । ततः श्रीवीरप्रासादे ६८ जिनान् । ततोऽष्टापदावतारे देवकुलिकायां कुन्तीयुतपञ्चपाण्डवप्रतिमाः । ततो मठमध्ये १५ जिनान् । ततो घोषावसाहिकायों ९५ प्रतिमाः ।
ततो राजादनीतले, सेरोसाऽवतारे, कलिकुण्डावतारे, गृहिकापत्रकस्तंभद्वारेषु च १४२५ (१४२५ ) जिनान् ।
ततो जिनभवनद्वारे बहिस्तोरणशिखरे देवगृहिकायुगे २९ जिनान् । ततः प्रासादसंमुखासु देवगृहिकासु ४० प्रतिमाः । ततः पश्चिममंडपसहितनन्दोश्वरावतारे १९४ जिनान् ।
ततो वस्तुपालमंत्रिभगिनीसप्तककारित-सप्तदेवकुलिकासु ४२ जिनाम् । १ "वन्दन्ते स्म" इति सर्वत्र योज्यम् ।
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प्रबन्धपश्चशती
ततः स्तम्भनकावतारे इन्द्रमण्डपे व २४८ जिनान् ।
ततो वस्तुपाठ मंत्रिकारित- गिरनारावतारे १६ जिनान् ५२ जिनां ।
ततः खरतरवसहिकायां १०५४ जिनान् ।
ततः स्वर्गारोहणप्रास्त्रादे नमि-विनमिसेवक सहित श्रीयुगादिनिप्रतिमायुतान् १६ जिनान् । ततोऽजितनाथविहारे अणुपमसर : सरीरस्थ ( ? ) [ समीपस्थ ] देवगृहिकायुगे, श्रेयांस - जिनभवने च हर जिनान् ।
३५४ ]
चिल्लताल्लिकासमीपस्थदेवगृहे ६ प्रतिमाः ।
ततः श्रीनेमिनाथभवने २८ जिनान् । श्रीवीरभवने ३६ जिनान् ।
ततः कर्पादयक्षभवने ७१ जिनान् । तत्रासन्नदेव गृहिकायुगे १८ जिनान । ततो मणूआविहारे २९ जिनान् ।
ततः छिपावसहिकायां १३ जिनान् ।
ततो मरुदेवीभवने मरुदेबीमातरं ११ बिना ।
ततः श्रीशान्तिनाथप्रासादे २४ जिनान् ।
तत: चिल्लतालीमीपे अशदेवकुळिकार्या, अजितनाथभवने, जीरापल्लीपार्श्वभवने १४ जिनान् । एवमन्यानपि लघुजिनान् बहून् ।
सर्बाङ्केन ५८४२ जिनान्, अन्याम्यपि बहूनि वन्दन्ते स्म भोसोमतिलकसूरयः ।
एवं जिनानां यानि विम्बानि भवन्ति, बभूवुः भविष्यन्ति तान्यहं सोमविककसूरिर्बदे
भावेन ।
इति श्रीशत्रुञ्जय महातीर्थे श्रीसो मतिलकसूरिवन्दितविम्वसंख्या संक्षेपात् मया कृता ।
*
समाप्तोऽयं ग्रन्थः ग्रन्थानं ७९४१
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________________
अ
करे करकर्ता च
अफलं किविणघणं
अक्लरेनो पोक्स्खरे ह
कालचर्या विषया च गोष्टी
अक्खाण (र)सणी कम्माण अत्रम अवंतरवर्षाकाठ
अङ्गुष्ठमात्रमपि यः अज्जवि सा परितप्पड़
जाते चित्रलिखिते
अज्ञानतिमिरान्धान अट्ठोत्तर सुबुद्धिखी अठ्ठय मूढसहस्सा डी पत्ती नई
अतितृष्णा न कर्तव्या
अकाराद्यनुक्रमेण पद्यनिर्देशिका
अतिथिश्वापवादी च
अतिलोभो न कर्तव्यः
अथैतत्कर्म निर्माति
अदायि वासुदेवाय
अद्धाणे पासार
अद्य मे फलवती पितुराशा
अथः क्षिपन्ति कृपणाः
अधिकं रेखया मध्ये अधीता न कला काचित्
पृष्ठं
७८
१६७
१४६
२१७
१०, २६७
२०५
१३१
२६५
१२
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G
१९६
२१६
२१३
२२४, ३४३
१३३
३११
१३५
१८३
२६०
२३८
अधीत्य चतुरो वेदान्
अधुना क्रियते पुण्यं
अन्नदानैः पयःपानैः अन्नदातुरधस्तीर्थकरोऽपि अनादरो विलंबश्व अनादिरव्यक्ततनूरभेद्यः
अनासादितपुण्यः सन्
अनाहूतो मया यात
अनुत्तर विमानात्तु अनेकानि बहस्राणि
अम्नो वि हु भासतो
अन्यदा सुकृतं तन्वन्
अन्याय संभवा श्रीः
अन्येद्युर्मनुजाः
अपच्छर नच न पिक्खणइ
अपया तह पयमुका
अपरीक्ष्य न कर्तव्यं अवमर्पति कार्यार्थी
अप्रतिमल्लोवादीह जो
अप्राज्ञेन च कातरेण च गुणः
अपूर्वा दृश्यते वाणी
अपूर्वेयं धनुर्विद्या
अमित्रं कुरुते मित्र अमुष्मै चोराय
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पृष्ठ
१५५
१५०
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(३५६)
पृष्ठं
१९९
२८२
२८५
३५७
२६
२६२
१४९
३२१
२६४
अमृतं मधुसंयुक्त अम्बा तुष्यति न मया अम्भः प्लावयति क्षितौ अयं चंदो वट्टल अयमवसर: सरस्ते अयसाभियोगसंदूमियस्त्र अरक्षितं तिष्ठति देवरक्षित अरघट्टो घरदृश्च अरमल्लिअंतरे दुन्नि अरिहंत नमुक्कारो अरे त्वया पशुीना अर्थस्योपार्जनं कृत्वा अवाप्य धर्मावसरं अव्यापारेषु व्यापारं अविहिकए वरमकयं अवोचधं पश्येत्यवतु अभावितोऽपि श्रद्धचे अश्वा वहन्ति भवनानि अष्टमे मरुदेव्यां तु अष्टौ हाटककोट्यखिनबति असमंजसाइ जंपद अमिहत्था मसिहत्या मह तस्स दिणस्संते अह मंसमि पहाणो अहो प्रागुरुपायद्रोः बहो संसारजालस्य अहं विदं मन्ये अहं मुखोऽस्मि मुढोऽस्मि भई वेमि शुको वेति
___ अहं साविकमूर्धन्यः
___ अहिंसालक्षणो धर्मः १२
आ: खुदा जस कूदिइ २७६
आगतो द्वारि भूपाल: २५५ लागतश्च गतश्चैव १२६ आखि म मोचिसि मिचि मन २१३ आचारः कुलमाख्याति
आत्मनो मुखदोषेण आत्मवर्ग परित्यज्य অনাগুলি বক্স:
आन्भ्यं यद् ब्रह्मदत्ते १८१ आपातगुरू क्षयिणी क्रमेण २१६ आवाल्याधिगमान्मयैव १३१ आयुर्योवनवित्तेषु
भारम्भाणां निवृत्तिः आरम्भे नथि दया आरोहन्ती शिरः स्वान्ताद् आर्योचे मम बालोऽयं आलस्योपहतः पादः
आवयोश्च पितृपुत्रयोः ३२२ आशीत्यब्दसहस्राणि २२५ बाहूतस्याभिषेकाय १०९ १५० इकपुरिसाई
इको वि नमुक्कारो २८५ इच्छामि द्विसमन्विते
इदमतुलमनन्तं २१ इदमंतरमुपतये
२९४ २३८
२८६
१५४ २३८
१३४ २००, २२६
२१७
२२५
१६७ २७०
१८.
२२
२७९
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________________
इडिका भ्रमरीभ्यानात् इह निवसति मेक
२८४
२१३
२७०
२१८
२२२
२६०
एकादशादिलक्षाणि एकेनोद्वासिता स्वर्ग: एकोदरसमुत्पन्नाः एकोदराः पृथगप्रीवा एगा हिरण्णकोडि एगो मूलं पि हारिता एगोहं नस्थि मे कोई एण इन्दु परविंद एयारिसं महं सत्तं एवं धरणंमि ठिओ एवं थेरेहिं इमा एषा तटाकमिषता
३४
२१०
उजितसेलसिहरे उत्तम प्रणिपातेन उत्तरतः सुरनिलयं उत्तिष्ठ नृपशार्दूल मस्थितस्य पदौ दातुं मद्यमेन हि सिद्धयन्ति उद्यमे नास्ति दारिद्रम उपदेशो न दातव्यः रुपानश्या बिना पायेन हि तत्कुर्यात् उयहिंसरविण संगम हर अंतर बाहलया उर्वशीगर्भसम्भूतः उवयारहवयारडी उसमे भरहो अजिए
५७
१०४
२२२ ३४५
३२८
७६
ऐदंयुगीनकाले ऐदंयुगीनकालेऽपि
६९ १३, २६
२५१ २६२
औषधि पग घडावीणा
२५३
३५१
२९.
३२०
२८०
एक: स्वादु न मुञ्जीत एक: कापुरुषो मार्ग एकइ मंदिरि ऊपना एकई दी'हविवात एकई ठामि वसंता एकवृक्षसमारूढा एकस्यैकं झणं दुःखं एक ध्याननिमीलितं एक पादं त्रयः पादाः एकाकी त्यसंकेत:
३०२
कः कण्ठीरव केसरबहाभारं कणयामलसारपहाहिं कतिपयपुरस्वामी कतिपयदिवसस्थायी कथमुत्पद्यते धर्मः कत्थई जीवो बलिओ कप्पीउ तं जलपीयह कमरदलसुनेत्रे कम्म कुणंति सवमा करकण्डु कलिङ्गेसु करहा मकरि करक्खडो
१८८ २००, २२६
३४३
७३ ९४
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________________
कर्णभूमिपतिते कर्णस्त्वचं शिविमस कर्णाटे गुर्जरे ढाडे कलो बोरन बीणवी
कवाड मासज्ज वरंगणाए
काई झुरई तू राम
काके शौचं द्यूतकारे च सत्यं
कामक्रान्तं व्रजे स्थानं
कार्यः सम्पदि नानन्दः काली काली चरखप्रकाकी काव्यं करोमि न थ काष्ठादीना जिनावासे कासं विवर्जयेोराः
किं क्रन्दसि कुठाङ्गार
किं चान्यद्दीयते यत्तद् किचिद्गुरोराननतो निशम्य
किन्नु किमपि विज्ञाप्यते
किं दीखसि पिए संपइ किं नन्दी किं मुरारिः किंहा कान्हड fिort
किंहा कान्हड किहाँ
कीर पण्डितचार्वाक
कीर्तिस्ते जातजाड्येव
कुदृष्टं कुपरिज्ञातं
कुमारपाल नवि चिंत करि
कुमुदवनमपि
कुरङ्गः काचन पूर्व
कुलं च शीलं च सनाथता च कुमङ्गाङ्गदोषेण
पृष्ठं
३९
२६०
३१७
१५२
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१६०, २६४
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३०४
६१
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३५८ )
३४२
२७४
२८९
१४८
३४०
७०
कैवर्तीगर्भसम्भूतो
कृतप्रयत्नानपि नैति कश्चिन
कृत्वा पापसहस्राणि
कृत्वा यूपसहस्राणि
कृत्वा समयं यदि वा महये
कृपणोऽप्यकुलीनोऽपि
कृष्णात्प्रार्थय मेदिनी
कोडि टंक कलक्लय
कोसिं च होइ वित्तं
कोड़ो पीई पणासेs
कोंकणे च तथा राष्ट्र
ख
खणि खांडर खणि आधिse
चण्डी पेषणी चुन्ही
खरो द्वादशजन्मानि
क्ष
अमाखङ्गः करे यस्य
क्षिप्तो तोयनिघेतले
क्षिप्त्वा वारिनिधिस्तळे
ग
गंगाया नाविको नन्दः
गन्तव्यं नगरशर्त
गगनमिव नष्टतारं
गतौ कर्णौ गतं पुच्छं
गच्छन् जल्पन् इसंस्तिष्ठन्
गजाः सन्ति दयाः सन्ति
गयगयर ह गय तुरयगय
गयानानां स गिरः भणोति गुरवो यत्र पूज्यन्ते
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எச்
१३, २६
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२८३
३०० ३४१ २४१
चुल्ली गेहस्व मझे चेइपदव्वं साहारणं चेतः सार्द्रतरं वचः घेतोहरा युवतयः चौरस्य करुण जावा
६५
३०३
२६६
गुरुजंगदिवान् राजन् गृध्रेणापहृतं मां गृहचिन्ताभरणहरणं गृहे कुशलता कान्ते प्रह भवना निहि बंकडी प्रावाणो मणयो हरि प्रीष्मे तुल्यगुग गात्रं संकुचित गोगाकस्य सुतेन मन्दिरमिदं गौरव कोजह अलवरी गौरी रागवती त्वयि
२३६ १३२
२७६
छंडिवि पिम्म गहिल्लपिन लिच्छमद्रुम इव छेबढेण गम्मद घरो
२०४
२२
অৰি জৰ অৰি মজি घसि घोघर ढुणि
१६५
२१६
२६३
२५८
२६१
४१
२८५
जं जाणीइ रे ते जं विहि करुणातरंगिय जंगदूर जसहार जा गिलइ गिलइ उदरं जइ जलइ जलबो डोर जइ सो मुणी महप्पा जइ फुल्ला कणी जणणी जम्मुप्पची जन्मना तु ध्रुवं वय जन्मस्थानं न खलु विमर्क जय तिहुमण बरकप्पडम्स जया रज्जं च रिद्धि च जया ते पियपरजे जया सर्व परिचज जलजन्तुचरैनित्यं जल्ल तैलं खळे गुवं ज्वरो भगन्दरः कुष्टं ज्वलनजलचौरचारण
घदसपु०वी आहारगा चकि दुगं हरिपणगं चत्तारि बट्ट दस दोय चन्द्रोदयस्य माहात्म्य चहन चहरीए सूलीए च्यारि बइला धेनु चलं चित्तं चलं विसं चित्त विसाय न आणी धितां पश्यामि पुत्रस्य चितां प्रज्वलितां दृष्ट्वा चिन्ता लोहागरिए चिरिवियराजलपिहि च्युतां चादी लेखा
२७६
२७६ २२०
१०३ २४० २८४
१६०
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११७,३०८
११८ १६०
२२६
'६५
१०५
३४८
जह अह पएसितं जह नरवाइणो आणं जह रमो चिसएसुं जहाय तिमि वणीमा जाई रूवं विज्जा जाता जण जुहार जालान्तरगते सूर्ये शानं मददर्पहरं जिअसत्तुदेविचित्तसहपविमर्ण जिणपवयणबुटिकर जिणभवणाई जे जिणभवणबियपुत्व । जीअं जलविंदुसमं जीवजीव जीव जीवन्ति अग्गिपडीमा जीवन्ति अवहिपडीमा जीवन्ति खग्गछिमा जीववधता नरगगह जेण पूर्ण आयत्तं जो जस्स उखसमई जो जस्स कम्माचर जो पुण जईण समिश्रण
१३७ ३०१
१५४ १८१ २६८ १७१
२०४
सतः भावयित्ता पश्चात् तणय दुहियाइ वतो ततो योगो जगौ डोकाः ततो लोका वराहारैः ततो निसीह सम तदन्यजन्मसामान्यधिया तदन्यथा न भवति तपनियमविधान तपस्वी रूपवान् धौरः तप्यतेऽमी ( तप्यन्त्यमी ) तपः तरियव्वा च पइना प्रयधिसकोटिविदनवन्योऽमि तहवि न जाया रण्डा तांथा तुंबा दोहो मूया ता जुत्तं देवयं तावबलं महस्तावत् तावन्महत्वं पाण्डित्यं सावल्लीलाविलासं त्वं किं पृच्छसि हे मतः त्वमेव विदुरो धीमान् स्वं वाणिजोऽपि जात्यारे तिनेव य कोडिसया तिबालगमुहे मुक्को तिहुअणजण अविलंघिय त्रिपंचसंख्याशततापसाना तीर्थानामुत्तमं तीर्थ तुल्यार्थ तुल्यसामर्थ्य तू कालु कंबल बनइ नीबडु
३२२
१९२
३२२
२०१ १८३
१२५
२६०
१०६
टाडी छोय पलासडा
दुदुती दुटि दुटि
१८७
६३
नईया महनिग्गमणे
२६६
२५६
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________________
तृषाकान्तो गतो हस्ती
तृषाकान्तो गतो हस्ती
सेजःपाल कृपालु तो भइ सिट्टिसंतो
तो भणियं रुणपणं
दक्खत्तं पंचरूयं
गाणं पुष्फलं
दप संगह भयकारणिव
दर्श दर्श सदा तेष
दानेन तुल्यो निधिरस्ति नान्यः
Meri
दानं वित्ताद् ऋतं वाचः दायादाः स्पृहयन्ति तस्कर गणाः
दाद्रि पुण रहिमामणू
द्वाभ्यां सहोदराभ्वा त्वं
द्वात्रिंशद् द्रम्मखान् दिors asites
दिवं याते देवात्
दिवा निरीक्ष्य वकव्यं
दिवा बिभेति काकेभ्यः
दिशां हराकाराः
द्विगुणं त्रिगुणं वित्तं
दीनो वृद्धो गढद्गात्रो
दीपं विधाय देवस्म
दशलक्षणि
दो दीसह दुगवळंति दुर्बारा वारणेन्द्राः
( ३६१ )
पृष्ठं
६२
६२
७४
१९८
१९८, १९९
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२५७
१५६
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५६
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२६९
५०
६६
१३७
२८४
३२५
६६
९१
२५९
१२०
२०५
दुष्टैर्लेले लोडदेशे
दूरि दिसंतरि वालीक्षा
तपोषी निजद्वेषी
प्यद्भुजाः क्षितिभुजः दृश्यन्ते बहवो वृक्षाः
देवाज्ञापय किं करोमि
देव त्वं जय का खि
देवद्रव्येण या वृद्धिः
देव सेवकजनः
देवाय नन्दनोद्याने
etara farar
घ धणवन्तो मम गव्वकरि
धनदो धनमिच्छूत
धनमजय काकुत्स्थ
धन्यस्त्वं पुण्यवान्
धनेषु जीवितव्येषु
धम्मेण धर्ण बिवलं
धराय पतितं पुष्पं
धर्मो धर्मकर्ता च
धर्म सिद्धौ ध्रुवं विद्धिः
धर्मादधिगतैश्वर्यः
धर्मो जयति नाधर्मः
घारयित्वा त्वयात्मानं
far रोहणं गिरिं
न
न कर्यं दीद्धरणं
न किं कुर्यान किं दद्यात्
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३११
२०३
१२८
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( ३६२)
पृष्ट २४४
२८२
३२५
३२७
३२७ २५४
६६
२००
निय उदर पूरणमि निर्गुणेष्वपि सत्वेषु निर्विषेणापि सर्पण निवपुच्छोएण गुरुणा निव्व चिऊण पावं निःशूकैः शकितं न निःसीमद्रविणानुबन्धिसुकृताः नूतनाह द्वरावासे नृत्यदर्हिषि दर्दुरारबपुषि नृपब्यापारपापेभ्यः नेवदारं पिहावेह नैते प्रावगुणाः नो द्वयं भवन्तं तु नो चेव मासिवं नो वापी नैव कूपी
२२७
३२८
२३१
न खानिमध्यादुदकानि न स्वल्पस्य कृते भूरि नद्यश्च नार्वश्च समस्वभावा: न दैवमिति संचिन्त्य नन्दवैरोचनावश्वाः न पश्यन्त्रि हि जात्यन्धाः न भूतपूर्व न कदापि संस्मृतं नमस्कारसमो मन्त्रः न मे दुखं हृता सीता न यथैकेन इस्तेन न यस्य चेष्टितं विद्यात् नरपतिहितकर्ता नवः श्रोतः भवद्विन नव स्युः शयने पुत्राः नवागवृत्तिकारण नवि मारीइ नवि पोरीह न हि प्राग्जन्मसम्बन्ध न हि भवति यन्न भाव्यं न ह्यविज्ञातशीलस्य नान्देन भ्रमता रात्री नान्यः कुतनयादाधिः नारीसको जनस्तातं नास्ति तीर्थमिह पार्थिवात्परं नाहं स्वर्गकलोपभोगरसिकः निजकरनिकरससद्धया निजार्थ निखिो लोकः निहुरभासी पुत्ताइ निद्रा काप्यपमानितेव
२०१
२०५
१३२
२६२ ७६, २८१
२१८
१२२
२७५
२४
१८७
पंच अरहते बंदते पक्ष नश्यन्ति पमामि पञ्च पन्न प्रदीयन्ते पञ्चभिः सोदरैः पञ्चाशत्पश्चवर्षाणि पञ्चाशद्योजने मुक्तिः पञ्चाशदादौ किल मूलभूमेः पञ्चाशीत्यधिकं ह्येतत् पडिकमणं पडियरणा पढमं जईण दाऊण पत्तपरिक्खह किं करुह पतिश्वशुरता ज्येष्ठे
२३७
२९१ २७९
१३५
३०६ १९८ २८२
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पृष्ठं
पृष्ठ
१२८
३११
१५०
२७६
६० २८२
पितृव्यस्य पितेत्येन प्रीतियंत्र निजैगैहे पुण्यमेवं प्रमाणे स्यात् पुण्याय कुर्वते धर्म पुण्यैः सम्भाव्यते सर्व पुरा भरतभूपेन पुरिसार होइ तित्थं पुरिसेहि रईयतिस्थं पुहविकरण्डे बभण्ड पूर्व न मन्त्रो न तदा विचार: पूर्व वीरजिनेश्वरेऽपि पूर्व श्रीऋषभान्वयो पृथक् पृथक् स्थिते काष्ठे
१२४
२८६
२४९ २४६
१५३ १९४
१८४
पत्नी प्रेमवती सुतः पद्मपत्रविशालाक्षि पद्मावत्या ततोऽपूजि पद्भ्यामध्वनि सखरेयं पमण मुञ्ज मृणालवह परद्रोहादिकं पापं पर(पत्थणा पवणं परस्परस्य मर्माणि पर्वताने रथो याति प्रजापोडनसन्तापात् प्रज्ञागुप्तशरीरस्य प्रणिहन्ति क्षणार्द्धन प्रथमे स्यामहं मूर्खः प्रपतेद् यौः सनक्षत्रा प्रमादः परमद्वेषी प्रयुक्तपत्कारविशेषमात्मना प्रशमरसनिमग्नं दृष्टियुग्म पस्योपमसहस्रन्तु पश्य कर्मवशात्प्राप्तः पातालतः किमु सुधारसमानयामि पादा कन्दुकवत् पापनिकन्दनं धर्मसदनं पापिनापि मनुष्येण प्रातः समुत्थाय जिनाधिनाथ प्रापं प्रापं धनं भूरि प्रासादप्रतिमायात्रा पित्तलसुवामरूप्पय पितृव्यश्वैष भवति
२१८ २२६ २५८
फलं च पुष्पं च तरुस्तनोति
.४१
२०१ २८३. २२०
२८५
२१६
ब्रह्मणा स्वशिरो दत्तं २३५ बल्यरिक्रत्वरी पाता
___ बहवो न विरोद्धव्याः २२७ बहन्देभ्योऽधुना
बहुबुद्धिसमायुक्ताः
बहूनि हि सहस्राणि १५० बाणवइ कोडीओ ३११ प्रामणा गणका वेश्याः
ब्राह्मणजातिरनालु: १९१, २६४ ब्राह्मण
बालाईणणुकंपा १३४ बाठा चंक्रमंती
१५९
१४०
२८५ ૨૮૮
१५८
१०४
२६५
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२८६
विइ मेअं गयकुलाणं विइअं मेअं कुरंगाणं बिन्दुनाप्यधिका चिन्ता वृहद्भानोमहाज्वाला
२६८
१५४
१९५
१९८
23
पृष्ठं
मदःप्रमादः कलहोऽसिनिद्रा १०५ मद्भर्तुः सोदर इति
मन एव मनुष्याणां मनसा मानसं कर्म मनोहरपुरोपान्ते मन्त्रे तीर्थे तथा देवे
ममैव तनुजन्मा च ३२ मयैकवखदानेन
मर्दय मानमतंगह दप्पं १५२ मसिविण माथा माहि
मह परिवेसमो बह १४९ महाबतिसहस्रेषु २६० मा गा विवादभवनं २०८ माणुसरा दम दम १३४ माणुसत्तं भवे मूलं १३५ मातः पितरहं दूरे २६६ मा त्वमाकन्द मार्जार
माता गङ्गासमं तीर्थ २५९ माता पत्युर्मदीयस्य २२७ मातापितासमं तीर्थ
माताप्येका पिताप्येकः
मानाद्वा क्रोधाद्वा २५७ मान्धाता स महीपतिः ___ मा मा पृच्छसि हे कान्ते
मा मा मुश्व ७२० मार्गागतपतुः साधु १३, २६ मिध्यादृष्टिसहस्रेषु
मुक्खमम्गं पवत्तेसु
भवखणे देवदत्वस्म भक्खेह जो उवक्खेह भक्ते द्वषो जरे प्रीतिः भग्नभाजनो गोविन्दः भयं लोभस्तथा स्नेहः भरीयाता पहूइ भरइ भवता (ती) युवती काचित् भवन्ति भूरिभिर्भाग्ये माऊ गुरुगुणघेरता भ्रातासि सनुजन्मासि भ्रातृजायापि भवति भिक्खायरो पिच्छा मिक्षा में पथिकाय देहि भिक्षुर्दिदृक्षुरायातः मुक्त स्म भोजनपरे भूमि कामगवि भूमेश्च देशस्य गुणान्वितस्य भूरिमारभराकान्तः मो नागा जलचरवामि
२८३
३०२
६७
२०३ २४७
मग्नैः कुटुम्बजम्बाले मण्डकीगर्भसम्भूतो मत्स्यः कर्मो वराहश्च
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२७५
मुणिसुम्बए नमिम्मि मुण्डीगुरकीर मुन्ना मुझ पसत्येकः मुख भणइ मृणासवड मूर्खस्तपस्वी राजेन्द्र मृगतृष्णां सदा दर्श मृतका यत्र जीवन्ति मेदिनीशेन मान्यस्त्वं मेस्सर्षपयोः
१६ २८६
२९२
यस्य बुद्धिबलं तल यस्य यद्विहितं स्थान यस्य यारक स्वभाष: स्यात् यस्यास्तिस्य मित्राणि यस्यास्ति वित्तं स नरा यस्यै निजं कुलं त्वतं या च बालक ते माता या चिन्तयामि सतत यामः स्वस्ति तवास्तु या मामुद्विजते नित्यं बादशं किंयते गि याशं मम पाण्डित्य याऽस्साम्बा था ममाप्यन्याः युगादिदेवादिमबर्द्धमाना ये मज्जन्ति निमबन्ति येन येन हि मायन যাগিতায় यो ध्रुवाणि परित्यज्य यो न पूजयते गर्वात योऽस्य वप्ता स मे प्राता
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३२३.
२००
यत्तृणमीमपि कुटी बत्याएं प्रयाहत्यायो यत्रोत्साहसमालम्ब बत्रोदकं तत्र पचन्ति हंगाः सबा चित्तं तथा वाचः बया कामातपो नित्यो क्या तथा प्रजाः सर्वाः क्या धेनुमासु पद् वस्तु दीयते भावात् बदनस्तमिते सूर्ये यदा शत्रुक्षये तीर्थ यदास्ति पात्रं न तदास्ति विसं यतत् चन्द्रान्तर्जलदखवली बस्तनोति वरपौषधशा यव बालक ते पिता यस्मात् भीमरतेश्वराग्रिमनृतः यस्मिन रुष्टे भयं नासित यस्य नास्ति स्वयं प्रज्ञा
२२६
१५८
१३४
रक्तस्त्वं नवपक्षवैः रनो तणघरकरणं रमणी विहाय न भवति रसातलं यातु यदन्न पौरर्ष रसामृङमासमेदोऽस्थि रागी देवो दोसो देवो राजनित्यो दिशि प्राच्या
२०८ २९० २३१
२५०
२२४
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--------------------------------------------------------------------------
________________
राजन् शान्ति व्रजाहाय राजन् सारं द्वयं मन्ये
राजमाषनिभैर्दन्तैः
राजा बन्धुरबन्धूर्ना
ये जाते नृणां सर्वे
रुढ पारसनाथ
See वा परो मा वा
रूपं रहो धनं तेजः
रे रे यन्त्रक मा रोदीः
रोगिणां सुहृदो वैद्याः
ल
लक्षत्रयीविरहिता लक्षं लक्षं पुनर्लक्ष
लक्ष्मणं रज्यरक्षायै
लक्ष्मि प्रेयसि केयमास्यशितता
क्ष्मीर्यास्यति गोविन्दे
लक्ष्मीसागर सूरीणां
खज्जिज्जइ जेण जणो
लांबा ताणा नहि तणंति
लाभकलंतरि ति वि लावण्यामृतसारसारणिसमा लोकः पृच्छति मे बात
लोबिज्जइ तुह गुठडा
व
asfree निगादको वक्त्रं पूर्णशशी
वक्त्राम्भोजे सरस्वती
वजयित्वा जनानेतान्
( ३६६ )
पृष्ठं
६१
२२७
२८५
६७
३१
१८३
९५
२४६
३१४
१३३
४५
२८०
२२५
ઢ
२७६
१
२६८
२०९
१५४
२७०
२०, २३८
१२०
२६९
२६७
२८१
२३१
वणसंडसरे जलचर
बत्थाई पत्याई
वदान्यः क्षत्रियोत्तंसः
raattaarभिः
वपुरेव तवाचष्टे
वरं बुद्धिर्ना विद्या
वरं भट्टैर्भाव्य
वरं वनं व्याघ्रगणैः
बसी सयणासण
वरसु वरसु अंबरहत
वर्षाकाले प्रणा
बस इंदकेऊ
व्ययन्ति केचिन्मनुजाः
वाराणस्य बटुः पुर्या
वारिमष्यस्थिता गावः
वासःखण्डमिदं
वासरेऽपि क्षुधा नास्ति
वाहनौषधपाथेयं
वाहरा न कृताः किं भोः
व्याघ्रवानरसर्पाणां
व्याधितेन सशोकेन
विrs अब्भक्खाणं
विक्रमाद् विधुद्वीषु
विदेशे मनुजाः प्राप्ताः
विद्ययैव मदो येषां
विद्वत्वं च नृपत्वं च
द्विन वद क चलितोऽसि
विन्यासस्तटवत्
"Aho Shrutgyanam"
ஏழ்
६८
१९३
३४
२०८
२६२
२२३
५०
.३५
१४, १४४
४६
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३७
११५
६१
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६०
२३६
२०८
२१७
३४२
३३
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२८
२१
११
२८६
૨૦૧
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________________
(३६७)
१४
३५२ २०८
१५१
विरयाषिरयसहोदर विषं मुञ्चति सोऽपि पोतरागं स्मरन् योगी बीसल तूं विरुद्ध करह श्रृद्धानाराधयन्तोऽपि वेगवईए देहे वेश्याका नृपतिौरः
यस्तर्कविहीनः बैरं वर्षसहस्रेषु बैरिकुम्भिकेसरि
२४१
को
श्रीरामो रावणः कंसः श्रीरियं पुरुषान् प्रायः श्रीवीरे परमेश्वरेऽपि श्रीसिद्धाचलप्रासादं शीलं प्रधानं न कुलं प्रधान शीलं शौचं शान्तिः शुद्धानवसपात्रादि शुशुको (सशकी ) गर्भसम्भूतः श्रुत्वैतद्विक्रमादित्यः श्रुत्वैतद् भूपतिर्दथ्यौ शूराः सन्ति सहस्रशः शूरोऽपि कृतविद्योऽसि शैत्यं नाम गुणस्तवैव
३४२
१४१ १३, २६
२८१
६८ १७५
का
२७२
२६८
सठोपरि शठं कुर्यात् शतबुद्धिः शिरस्थोऽयं शत्रवोऽपि हिताय स्युः शस्त्रं शवं कृषिर्निया भव्यं वाक्यं हि वृद्धानां श्वानचर्मगता गङ्गा शाखा प्रकम्पिता येन श्राव्यते सुकृतं यावत् शिभिलाश्च सुबुद्धाश्च श्रियो वा स्वस्य वा नाशो
२२४, २२५
२२० २६६ २१८ १५२
२६२
१६०
३०१ ५७, ५८
२४१
ur
२४
संजम मेली रिद्धिडी संती कुन्थू अ अरो संतो बिहु बत्तठवो सम्प्रतिवर्तयामास संयमः सूनृतं शौचं संसारम्मि असारे संसारे हयविहिय सठ चित्तह सही स एवाहं स एव त्वं यकुलोणी नइ शीलवंती सकृत्कन्दुरुपातं हि सस्थवाहसुओ सत्यं सत्यं पुनः सत्यं सत्यं सिंहो गतस्तत्र
शीतेनोद्धषितस्य
२७६ ३०८ २०९
शीतो वह्निर्मारत्तो निष्पकम्पः श्रीचौलुक्यसदक्षिणस्तबकरः भीतीर्थ पान्धरजसा श्रीनाभेयजिनेश्वर श्रीभूपनन्दराजेन्द्र भीमज्जैनगृहे
२५५ १५६ १८२ २६०
१५९
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________________
( १६८)
५१
३४४ ३२३
४
२५९
४०
१९९ ३४५ १८१
२१२ ९३, १११
२२७
सत्येनोपयते धर्मः सप्तद्वीपाधिपस्यापि सप्तषष्ठियुता फोटो सप्तस्वराजयो प्रामा: सप्तसिंहा मया जग्धाः सरस्वतीस्थिता वक्त्रे सरिसो गिहिधम्मो सर्पाणां च खलानां । सर्वेझो हृदि वापि सर्वत्र सुखिनो सौख्य सर्वथा स्वहितमाचरणीयं सर्वदा सर्वदोऽसीति सर्वनाशे समुत्पन्ने सम्पत्य अस्थि धम्मो सम्वो पुवकयाणं सयहर खीणो कांड सस्नेहा यत्र नि:स्नेहा महमा विदधीत न क्रिया स्पृष्ट्वा शनुभयं तीर्थ स्तम्भनस्थामहं स्तौमि रचं स्वं चिन्तितं मा स्वच्छन्दतः स्वमवने स्वर्णवान रत्नदान स्वर्भोगभङ्गी नृपतिः स्वशक्त्या कुर्वतः कर्म स्वहस्तेन यहत्तं माकारोऽपि सवियोऽपि माधु मातुलगीसेन
३३७ २९० २४९ २२६ २८६
साधूनां दर्शनं श्रेष्ठ सामाइथं कुणतो पामाईसुद्विमाणं सामाईअसामग्गि सामाइयंमि इकए साम्प्रतं दृश्यतेऽत्रैष स्थानत्रयं यतीना च स्थानभ्रंशं कुलवंसं स्थाने स्थाने कलत्राणि स्नात्रजलैस्तैलरिव स्याच्छैशवे मातृसुखः स्वाख्यातः खलु धर्मोऽयं स्वामिनहं निशीथिन्या स्वामिस्ते पुरतस्तेन स्वामी दुर्णयवारण स्वार्थमुत्सृग्म यो दम्भी लियोऽर्थे च हतो वाली सीतया दुरपवादमीतया सीता सुरुमा तहणी सीवनिसरिसमोअग मीणां गुह्यं न वक्तव्यं बीपुंवञ्च प्रभवति सुखदुःखानां कर्ता सुखसेव्यं तपो भीम सुगुप्तं रक्ष्यमाणोऽपि सुप्रयुत्तस्य दम्भस्य सुभिक्षाणि च सर्वत्र सुभीताः परदेशस्य
२४७ ३३८
२८४
३११
१०५
२११
११३
१५२
३०१
३२७
३४४
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________________
(३६९)
१३२
१५३
२२२
सुरगिरि एकापना लुही महातारहित सूधरीकाकपट्यादि सूचीमुखि दुराचारे सूतह सूतई मांडा सूर्य भारमुत्सृज्य स्नेहः साधुजनेन सोनईशाखा धनि सो सरह नियतणयं
२०७ ३०० १५४
३७
हंसर्लन्धप्रशंसः हत्यिग्गहणं गिम्हे हत्थी दम्मा संवच्छरेण इलाया दीयते दान इस्ततलप्रमाणं तु हस्तपादसमायुक्त हस्तौ दानविवर्जिवी हस्ताश्वव्यापाराः हे मालिके न ते भतुः हेला महल कमोल
२२२
"
२२०
२८५
२८३
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--------------------------------------------------------------------------
________________
अकारादिक्रमेण विशेषनाम्नां सूचिः
अ
अवालीयाग्राम (ग्राम ) अङ्गद ( बलिपुत्र )
अग्निवेताल ( पिशाच )
अचलनाथ ( योगी )
अचलेश्वर प्रासाद ( मन्दिर )
अजमेर नगर
अजयपाल ( राजा )
अजितनाथ ( तीर्थंकर )
अञ्जन (पर्वत)
अक्षक (कुंभकारः )
अहिलपुर ( पत्तन )
अतिबल (सर्वज्ञ)
अतिमुक्तक ( राजपुत्र )
अनिरुद्ध (राजा) अनुपमादेवी (राज्ञी )
अप्सरा (बी)
अभया (राज्ञी )
अभयकुमार ( राजपुत्र ) अभयदेवसूरि (जैनाचार्य )
अमितवेग (पक्षी )
अम्बादेवी (देवी)
अम्बिका (देवी)
.
पृष्ठं
२४२
१८६
१८५
५५
३१२
३६
५०
३१६
११५
१५२
५४
२२५
२३३
२९
२३४
२२४
४३
११०
३१०
८२
१८२
१३२
अयोध्या (नगरी)
अरनाथ ( तीर्थंकर ) अरिमर्दन (राजा)
अर्जुन (पांडव )
अर्जुन (राजपुत्र)
अर्जुनमालिक (माली)
अर्बुद (पर्वत)
अहंक (मुनि)
अलिञ्जरनाग
अवन्ती (नगरी)
अवन्ती सुकुमाल (र) ( राजपुत्र )
अष्टपद (तीर्थ)
अष्टापदावतार (तीर्थ )
अहम्मद सुरत्राण ( राजा )
आधाटपुर ( नगर )
आदिदेव (जिन )
आदिनाथ
"
आदित्य (राजा)
आनाक ( पुरुष )
आनाक ( राजा )
अ ( वणिगू )
आभढ़ (मन्त्री)
आभू (न्त्री
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ទូភ្នំ
२२
* *
२६२
१०
४३
१०३
१२
११
५९
२४६
२५८
२५८
१
३५३
७
३४७
१३१
३१०
१८९
२३४
२७३
४९
१९२
२३४
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--------------------------------------------------------------------------
________________
(३७१)
पृष्टं
१८६
२
५०
१३२
१५४
सज्झितकुमार (राजपुत्र) उदयन (राजा) उदयन (पणिग) उदयप्रभसूरि ( जैनाचार्य) उदायन ( मन्त्री) उदाक ( वणिग) उदायिपा(द ) ( योगी) उन्देलिक (प्राम) उल्लूर (राजा)
ओ ओंकारनगर (नगर)
३१५ २४६ ३४८
बाम (राजा) माम्बड़ (मन्त्री) आम्बड (उदयनपुत्र) माम्बाक (श्रेष्ठी) बाम्रदेव ( श्रेष्ठो) आम्र (राजा) आम्रभट ( मन्त्री) बारासण (नगर) भाद्रकुमारप्रवन्ध (प्रन्थ ) आJखपट ( जैनाचार्य) आर्थनन्दिल ( जैनाचार्य) मार्यरक्षित , आर्यसुहस्ति. . आलिज (ब्राह्मण) आलिङ्गवमति (स्थानविशेष) माशापल्ली (नगरी) आषाढभूति (जैनमुनिः) बासधर (राजा) भासधीर (कर्मकर) भासराज (राजा)
२५१
.२५०
२५८
२४४
१०४
: १५ १९० ३२६ १९७
२३१
१२४
२४४
कच्छ (देश) कशनपुर (नगर) कथाचूड (राजा) कदम्ब कदर्य (श्रेष्ठी) कन्दपदेव कपर्दिक ( यक्ष) कपर्दी ( , ) कपर्दी ( श्राद्ध) कपिला (राज्ञी) कमल ( श्रेष्ठी) कमल (राजा) कमल (ब्रामण) कमला कमलेश्वर (व्यवहारी) कम्बलिका (ग्राम)
प
इन्द्रजित् (रावणपुत्र) इयदरनगर (नगर) इलावती (नगरी)
२४८
२८२
उकेशशाति (जाति) 8. . I सीर्थ) उन्नायिनी (नगरी)
२५३ १०४
"Aho Shrutgyanam"
Page #439
--------------------------------------------------------------------------
________________
कंम ( दैत्य )
करकण्डू ( राजा, मुनि: )
करटकपुर (नगर)
कर्ण (राजा)
कर्ण (ब्राह्मण )
कर्ण
कर्णपुर
कर्णमेक (प्रसाद)
कर्णाट ( देशः )
कर्णाटक
कर्णावती
"
कणयरीपाद ( योगी )
कण्टेश्वरी (देवी)
कविणी (नदी
फलापुर
-फलाणकपुर
कलिकुण्डावतार
कल्की
कलिङ्ग ( देश )
कलिपुर
कल्याणपुर
कविखाणकपुर
काकन्दी (नगरी)
कानपुर
कान्तिपुरी
कान्यकुब्ज ( देशः )
कान्हड ( ग्राम ) कान्हडो महावीर
(३७२ )
ਬੰ
१४८
९३
३४७
३९
*
२६०
८४
१७२
३१७
२०२
४९
३१५
२७२
४८
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२९३
९३
८५
१६०
३४७
२३१
२२९
११
२५०
२
२
कान्हक (योगी)
कामकेतु
कामदेवी
कामरूप (नगर)
कामलता ( वेश्या )
काम्पोल्यपुर
कार ( देश )
कायस्थितिस्तव ( ग्रंथ )
कालक (वणिग)
कालिकसूरि ( आचार्य )
hifonसूरिप्रबन्ध (प्रंथ
कार्तिकेय
काश्मीर (देश) )
काष्ठकूट (पक्षी)
काष्ठ ( श्रेष्ठी )
कासी
कीर्तिपर
sterचन्द्र (कवि )
कङ्कणद्वीप
कुणाल ( तापसशिष्य )
कुन्तल ( श्रेष्ठी )
कुन्सलपुर
कुन्थुनाथ (तीर्थंकर)
कुबेर
कुबेरदन्त
कुबेर सेना
कुमार
कुमारदेवी
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पृष्ठं
教
१४५
३४
७१
३८
२०
sta
२१४
३४
११०
૪૭
१८६
२१
३३०
२०६
Be
२३२
२८३
७७
८१
१०
१६१
२६२
२९१
१३४
१३५
३५२
२३४
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--------------------------------------------------------------------------
________________
पृष्ठं
२१८
२५, ५०
३११
कुमारपाल (राजा) कुमारपाळपासाद (चैत्व) कुमारविहार कुंभकर्ण ( राक्षसः) कुंभलमेर (गिरिः) कुमुदचन्द्र (भाचार्य)
कौशाम्बी (लता) कौस्तुभ क्षिविप्रतिष्ठिसपुर
१५१
२५६
२००
सारसरवाहिका (चैत्य) सर (राक्षसः) बरसाणी (वणिग) खण्सप्रशस्तिकाम्ब (ब) खेंगार (राजा)
२४२
२३९ ३४२
खेटपुर
कुरुचन्द्र (राजा) कुर्मारपुर कुसुमपुर कूष्माण्डी (दवी) कृपावती कृष्ण (वासुदेव) कृष्ण (पामपति)
गंगदत्त
२३१
१
मंगा मंगिता
२२७
गणधर
३४८
३०४
गान्धार (राखा) गया (नदी, तीर्थ)
कृष्ण (राजा) कृष्णद्वैपायन केदारभूमि फेलिपुर शीराज
२५६
२०२
३८७
कोकिल कोकिलपुर
२०४ २९७ २९७ ४८
गलिककोटपुर गागिल गिरिनार गिरिड गिजनीसुरत्राण गुब्शवपुर गुणराज (संघपतिः) गुणवती गुणसार गुणसेनसूरि
२५१
१९०
कोडाकोडिप्रासाद कोरियाम कोममसूरि कौशाम्बी ( नगरी)
"Aho Shrutgyanam"
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--------------------------------------------------------------------------
________________
(३७४)
प्रध
पृष्ठं
२७१
३१७ ३१५
२०
२४८
३५
५४
२६४
२१४ २८
१८९
१४५
३२३
गुर्जर (देश) गूङ्गडो ( सरोवर) गूर्जर ( देश) गोगाक ( वणिम्) गोगादेव (राजा) गोदावरी (नदी) गोपगिरि (नगर) गोपाल गोपालनगर गोभद्र ( श्रेष्ठी) गोमुख ( यक्ष) गोरंभ गोला (नदी) गोविन्दनाणावटी ( श्रेष्ठी) गोविन्द ( मन्त्री) गोविन्द (ब्राह्मण) गोविन्द (,) गोसळ (संघपति) गौड (देश) गौतमस्वामी (गणधर) गौरी (ब्राह्मणी) गौरी गौरी
८८५
१८५
१४४
बङ्गदेव ( पाहिणीपुत्र) चंडप्रद्योतन (राजा) चंदन (चर्मकार ) चंद्र (श्रेष्ठी) चंद्र (राजपुत्र) चंद्र (पुरोहित ) चंद्र (मन्त्री) चंद्र (ब्राह्मण) चंद्र ( यक्ष) चंद्रकान्ता ( राही) चन्द्रकुण्ड चन्द्रचूड (श्रेष्ठी) चन्द्रचूड (राजा) चन्द्रदेव (श्रेष्ठी) चन्द्रपुर चन्द्रलेखा (सातवाहनपल्ली) चन्द्र ( वैद्य) चन्द्रसूरि (जैनाचार्य) पन्द्रावती (राझो) चन्द्रावती ( नगरी) चन्द्रोमाण (ग्राम) चम्पकद्वीप चम्पक (राजा) चम्पक ( श्रेष्ठी) पम्पा (नगरी) चम्पापुरी (,) चम्पावती (सी) चाचिग
३०७
9.
१४३
२७५
१२१
२५
२४२
१८८, २२४
२३७
घोषावसाहिका (चैत्य)
च चसरडी (प्राम) चक्रेश्वरी (देवी)
१८७
"Aho Shrutgyanam"
Page #442
--------------------------------------------------------------------------
________________
२०३
११६ १८६ ३५१ .
३२४ ३१८
१८९
३४७
चाखही चाणिक्य ( मन्त्री) थाहर (पुरुष) चाहट ( मन्त्री) चाहिल चारुदत्त चिगल्लक (नगर) चिङ्गाडिक (देश) चित्रकूट (पर्वत) चेटक ( राजा) चौलुक्यकर्ण (राजा) चौलुक्य (वंश)
३६
१०३
20
२३०
२५६
२० ५४ २०३
जयहेम (सिद्धहेम-ग्रंथ) जराकुमार जरासन्ध जालन्धर (देश) जावट (श्रेष्ठि) जावडप्रबन्ध (जैनप्रन्थ) जितशत्रु (राजा) जितसेन (राजा) जिनदत (राजपुत्र) जिनदत्ता जिनदास ( वणिक) जिनप्रभसूरि जिनसुन्दरसूरि जिनभवनस्तवः (अन्य ) जीमूतवाहन जीरापल्ली (ग्राम) जीर्णधन (श्रेष्ठी) जीवदेवसूरि जीवपाल ज्ञानवती
२, ३४२
३१५ ३१४
८
छल (राजा) छाण्डा ( श्राविका) छिपावसाहिका ( चैत्य) छिम्पिका (श्राविका)
३५३
३५३
३३२ २५०
sex
३११
जाडू ( मणिग) जगञ्चन्द्रसूरि ( जैनाचार्य) जगत्सिंह जमसिंह जबरालपुर (नगर) जम्बूद्वीप (देशः) जयकेसरि (आचार्य) जयत ( ताक.) (पल्लीपतिः). जयन्तसिंह जयसिंहदेव ( चौलुक्यकर्णपुत्र) जयासह (गजा)
झाझण (पेथडपुत्रः) झाझणदेव , झालोवाटिका ( देश)
१८०
२२७ २०४ १३३ २३४
टीडा (ज्योतिष्क)
१५६. ठाडाक { व्यवहारी)
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--------------------------------------------------------------------------
________________
इ
डामर (मन्त्री)
डीआणक (ग्राम )
डीसा (पतन ) डीसावाल
इम्बावधि ( प्राम )
ढ
ढोली ( देहली पचन ) ढुङ (पर्वत)
त
तगरपुरी (नगरी ).
साजिक ( ग्रंथ )
तापी (नदी)
ताम्रलिप्ति (नगरी ) तार (पर्वत)
तिलकमखरी (कविपुत्रो, प्रन्थनाम ) सिकसुन्दरी
तिलन ( देशः )
तिलोत्तमा ( मन्त्रिपुत्री )
त्रिभुवनपाल (राजा) त्रिभुवनविहार (चैत्य )
त्रिषष्ठि ढाका पुरुषचरित्र ( ग्रंथ )
तुळछी (स्त्री)
तेजलपुर (नगर)
तेजपाल (मन्त्री)
तेजुका ( वस्तुपाल पुत्री )
तैलपदेव (राजा)
त्र्यम्बावती ( नगरी )
(३७६ )
ரஜ்
શ્ય
२७१
३१६
१८
१६३
२
१०
५९
४१
२९६
३९
१९१
२९२
२१२
२७५
५२
१८०
३५
१९३
११६
२४४
७४
२३४
२७५
२२
यम्भणक (ग्राम )
थिरापद्र ( ग्राम )
द
दक्षिणापथ ( देशः )
वीर्य (राजा)
इण्डाक
दच
दधिवाहन (राजा)
दधीचि
दन्तिल (मन्त्री)
दमघोषसूरि
दशरथ (राजा)
दाहब (राजा)
द्वारिका
द्वारवती
} नगरी
दीप ( देश )
दीर्घदर्शी (तापस)
दुर्गा (देवी)
दुर्योधन (कौरव) दुर्मुख (राजा)
दूषण (राक्षस)
देपाल (कवि )
does (ग्राम)
देवक (वणिग पुत्र)
देवपत्तन
देवकी ( कृष्णजननी )
देवगिरि ( ग्राम )
"Aho Shrutgyanam"
E
पृष्ठ
३१०
१७६
२७५
१८४
५९
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१५
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१४८
७
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________________
( ३७७)
पृष्ट
३५२ १९४
८.
१९७ १२८
७७
१६४ १६९ १७४ २३०
३२६
३१३
५८
-
देवचन्द्र (राजपुत्र) देवचन्द्रसूरि देवर (कुम्भकार) देनर ( श्रेष्ठी) देवदत्त ( तापम) देवदत्त (पुरुष) देवपत्तन देवपाल (राजा) देवपाल (कवि) देवपुर देवभद्रसूरि देवल देवशर्मा (ब्राह्मण) देवशर्मा (परिवाद) देवशकि (राजा) देवसिंह (श्रेष्ठी देवसुन्दरसूरि देवमूरि देवसेन देवादित्य (ब्रामण) देविका (सी देवेन्द्र सूरि (जैनाचार्य) देसल देहल (भाविका) द्रोणाचार्य द्रौपदी
२२३ ३२६ २२१ ११८
धन (वणिक) धन (धनी) धन (साथवाह) धन (पुरुष) धन (श्रेष्ठी) धन ( वणिक ) धन (पुरुष) धन ( गृहस्थ ) धन ( श्रेष्ठो) धन ( गृहस्थ ) धनगुप्त (वणिक) धनदत्त ( वणिक) धनदत्त धनदत्त ( वणिक) घनदत्त घनदत्त धनदेव (राजा) धनदेवी (सी) धनपति (कुबेर) धनपाल ( कवि) धनभूय धनमहेभ्य घनमित्र धनमित्रा (त्री) धनवती धनश्रेष्ठी धनसार धनसेन
१३३
३५, ४५
२३४ १८८
२६१ २५६
१८२
धन (पुरुष)
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________________
( ३७८)
७३
२८७
धीर ( वणिक ) धीर (राजा) धुंधुक्कक ( नगर)
३४० १९५
२७१
३४७
१९॥
२९२ ३१४
१२४
२
274
३१३
२३२
धनावह धनेश्वर धनेश्वरसूरि (जैनाचार्य) धन्य ( श्रेष्ठी) धन्या ( स्त्री) धम्भिल्ल ( राजा) धरणी ( श्रेष्टी) धरापुर धर्म ( पण्डित ) धर्मकीर्ति ( उपाध्याय) धर्मघोषसूरि धर्मदत्त ( श्रेष्ठी) धर्मराज (राजा) धर्मरत्नवृत्तिः ( जैनकृति) धर्मरुचि (राजा) धर्मश्री (स्त्री) धवलक ( प्राम) धवलक ( ग्रामः) घान्यसखयपुर धारा ( नगर ) धारावर्ष (राजा) धारिणी (बी) धारिणो ( राझो) धीमती धीर (बणिक) धीर (पुरुष) धीर (गृहस्थ ) धीर ( श्रेष्ठी)
११५
१०८
२३९
नकुल (पाण्डुपुत्र) नत्रामृत (कूप) नगरपुराण (अन्य) नग्नक (राजा) नन्द ( राजा) नन्द ( नाविक ) नन्दगोकुल (पुरुष) नन्दनोचान नन्दनक ( वृषभ) नन्दिपुर नमिभूय नरचन्द्रसूरि नरीआक (संघपति) नर्मदा (बी) नल (राजा) नलवन मवदुर्गा ( देवी) नवसारिका (नगर) नवसारीपुर ( , ) नागदत्त ( श्रेष्ठी) नागपुर (नगर) नागवली (लता) नागश्रेष्ठी नागार्जुन
३१५
२३४ २३३ २०३
२९१
२४०
२
१०
२०५
१७४
२५० ३६, १८२
२४२
१०१
११
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--------------------------------------------------------------------------
________________
( ३७९)
नागार्जुन (योगी) नागेश्वर
२८७
नाणाबाल
२८२
३९२
२८२
७३
१७५
२५५
९१० ३५२
३०४
१९३
२४९
१८६
पाराज पश्मिनी (सी) पायश पनवन पद्मश्रेष्ठी पमा ( स्त्री) पद्माकर पद्मावती पद्मावती (देवी) पद्मावती ( रणसिंहपत्नी) पन्नावती ( राज्ञो) पनिनो ( राझी ) पद्मिनीखण्डपुर पम्पासर परमहंस ( मुनिः) पाहिणी प्रतिष्ठानपुर ( नगर ) . प्रद्योतन ( राजा) प्रभाचन्द्र (जैनाचार्य) प्रमाडि (राजा) प्रज्ञादन ( राजा) प्रहादनपुर (नगर) पवनवेग ( विद्याधर ) पाग्वाट् (वंश) पाज पाटलपुत्रपुर पाटलीपुत्र पाटलिपुर ( नगरम् )
२६
नारद नारसिंह नारायण ( पुरुष ) निःपुण्यक निम्बश्रेष्ठी निसढ (पुरुष) निर्वाणकलिका ( प्रन्य) नीवणी (सी) नीर (पुरुष) नेपाल (देश) नेमिनाग नेमिनाथ मोसा (पम्मकार )
प पञ्चवाण (मन्नन) पञ्चशतीप्रबोषसम्न्यः पनाल (रेश) रत्तन (ग्राम) पत्र (राजा) पच (पुरुष) पद्मनाम पानिधि पमपुत्र पापुर पचपरी
२६३
१६६
२४
२७८
३१२
२४२ १०२ ३२४ ३३९ ૨૪૨
१३
१५२
२९७
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________________
( ३८०)
२३३
२५३
पोलासपुर
फ फलबर्षि ( प्राम)
२६७
२५.
बङ्गालदेश बप्पमट्टि (क्षत्रिय ) पप्पष्टिसूरि (जनाचार्य। बम्बेरक ( पत्तन)
१५४
११९
१५७
२७१ २६४
३४५
१८५
२४२
२२७
पावलिप्तसूरि (जैनाचार्य) पादलिप्तानकपुर (नगर) पारस ( श्राद्ध) पारिजात (वृक्ष) पार्श्वदेव तीर्थकर पार्श्वनाथ तीर्थकर पासिल (वणिम्) पाहाक ( वैय) पाहिणी (स्त्री) पिचु (वृक्ष) पीरोजसुरत्राण (राजा) पुण्डरीक (मुनि) पुण्डरीकिणी (नगरी) पुण्डर पुण्यधवल पुण्यसार ( श्रेष्टिपुत्र) पुष्कलावतीविजय (देश) पुष्पचूला ( साध्वी) पुष्पबटुक पुष्पाकर (वन) पूनर ( श्रेष्ठी) पूनसिंह ( कोठारी) पूर्णसिंह ( श्रेष्ठि) पेयड ( मन्त्री, प्रेमवती (स्त्री) प्रेमवती ( राशी) प्रेमवती ( श्रेष्ठिपत्नी)
२४४
२४९ १८६
ब्रह्मदत्त ( चक्री) ब्रह्मदत्त (ब्राक्षण) बलभद्र बलि ( राजा) बहुला (बी) बहुलकपुर बालचन्द्र बाहट (उदयनपुत्र) बाइड (पुर) बाहर ( मन्त्री) बाहुबलि (राजा) बुद्धदास (बौद्धः)
१५७
४७
१०
२४२
२२६
४१
१८२ १९२ ३१६ ३१॥
११२ १८२
बुद्धिसार ( मन्त्री) बिम्बेरपुर बूबस (पुरुष) बोडा ( अधिष्ठात्री देवी)
३०७
१२०
१७२
६१
भक्तामर ( जैनकृति )
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________________
(३८१)
पृष्ट
३८ १६३
१००
२८२
५९ २५८
१३४
१०८
१४
-
૨૮૨
भीम ( क्षत्रिय ) भीम (सूत्रधार) मीम ( वेच) भीम (प्रामण) भीमपर्वत भीमपली ( नगरी) भीमपुर (ग्राम) भीम ( श्रावकः) भीमसेन ( राजा) भीमा (स्त्री) मुवनसुन्दरसूरि भूपर ( राजा) भृगुकच्छ (नगर) भृगुपुर (नगर) भेसराणपुर ( नगरम् ) भंभेरी (देश) भैरवगिरि (गिरि) भोगपुर भोगमार भोज (श्रेणी) भोजपुर ( नगर) भोपाला (स्त्री)
१८९
भट्टमात्र ( राजमन्त्री) भट्टि ( कवि) भद्रा (सी) भद्रा ( सुभद्रा ) भद्रबाहुसूरि ( जैनाचार्य) भद्र (मेष्ठी) भदिलपुर ( प्राम) भद्रिका ( श्राविका) भद्रेश्वर ( प्राम) भरत ( चक्रवर्ती) भरत (मुनि) भरतेश्वर (चक्री) भरहेसरबाहुबलिप्रवन्ध (जैनग्रंथ ) भर्तहरि (राजा) भव स्थितिस्तव (अन्य ) माकु (स्त्री) भारण्ड मारल (राजा) भानु ( राजा) भानुप्रम ( राजा) भानुश्रेष्ठी भीम ( राजा) भीम ( वणिक् ) भीम ( पाण्डव ) भीम ( वणिक) भीम ( भार्गव ) भीम ( तापस) भीम ( राजपुत्र)
२७
३४७
२१४
१२३
२६४
८५
२४६
मनोचिकी (बी) मणक मणलदेवी ( केशिराजपुत्री) मणिभद्र ( श्रेष्ठी) मणूआविहार
२०२
१०३
३५३
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________________
( ३८२)
१७९
२४६
१५८
२३४ ३४७
२६१ ४८
१६४
२६२
३२५
१६१ १७२
२७२
२०७
मण्डपगढ़ मण्डपदुर्ग मण्डलिक मण्डलीनगरी मण्डोरपुर ( नगरम् ) महासक मतिसागर (मन्त्री) मथुरा मदन ( प्राक्षण) मदन (पुरुष) मदन (भेष्ठी) मदन (गणिक) मदन (रामा) मदनभूम मदनभ्रेधी मदनसेना मदना (वेश्वा) मदना (सी) मदना (वी) मधुमती ( स्थान) मधुरा मधूक (वृक्ष) मनु ( स्मृतिकार) मनुपुराण (प्रन्थ) मन्दमति (सिंह) मन्दोदरी ( राक्षी) मरोट ( प्राम) मयूरिका (स्त्री)
मलय (पर्वत) मलयेन्द्री (मी) मक्षा (पुरुष) महादेव मल्लबादी मल्लिकार्जुन (राजा) मल्लि ( तीर्थकर ) महणसिंह महाकालप्रामाद महादेव (राजा) महापध महापुर महिणिक ( पर्व) महिपाल ( राजा) महेन्द्र (पाध्याय) महेन्द्रपुर महेश्वरदच महोदय (मुनि) माकु (सी) माख माप ( कवि) माणिभद्र (प्रेष्ठि) माणिक्यसूरि माण्डव्य (मुनि) माधव (पुरुष) मान्धाता ( राजा) मारुमण्डल (देश) मालदेव (वस्तुपाठ भ्राता)
८.
२५३
२०७
१४३
२३४
१८६
२८१
४२
३४२
२०१
१५५ १५५
३०७
२७५
२९७
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________________
( ३८३)
३१७
मोढेरक ( प्राम)
३१५
२६४
२६४
१६१
२०३
मालव मालवक (देश) मालवदेव ( संघपति) मालवमण्डल माहडकग्राम ( प्राम) मिणालाकुण्डपुर ( नगर ) मुकुन्द (ब्राह्मण) . मुकुन्द (पुरुष) मुज्ज ( राज) मुनिचन्द्रसूरि मुनिरलसूरि मुनिसुन्दरसूरि मुलाणक (ग्राम) मुहणसिंह ( वणिक) मुहूडासकपुर (नगर) मूलदेव (राजा) मूलराज ( राजा) मृगावती (राशी) सणालवती (राजा) मेघ ( वणिक) मेघरथ ( विद्याधर ) मेवपाट ( देशः) मेडता ( प्राम) मेरु ( पर्वत ) मेवाड (देशः) मोजदीन सुरत्राण मोट ( झाति) मोढेरकविहार ( चैत्य
३१६ यज्ञदत (ब्रामण)
यतिजीतकल्प (ग्रन्थ)
यमुना ( नदी) ३३ यशोदेवी ( राशी)
यशोधर्म (राजा) यशोभद्रसूरि ( जैनाचार्य) यशोवर्म (राजा)
यशोवीर ( मन्त्री) ३१३ यायला
याज्ञवल्क्य ( योगी) युधिष्ठिर ( पाण्डव) युधिष्ठिर ( कुम्भकार) योगशाला योगशास्त्र ( जैनप्रन्थ ) योगिनीपुर ( नगरम् )
३१५
३३८ १८४ १९३
रउलाणि रजोहरण ( मुनेः सपकरणविशेषा) रणघण्टा (स्त्री) रणसिंह ( राजा ) रत्न ( वणिक) रत्नद्वीप रत्नमती ( राझी) रलशेखरसूरि रत्नश्रावक रत्नसार (राजा) रत्नार्क (श्रेष्ठी)
३५ २८४ ३१८ १८२ २७१ ३५५
१९२
२४४
२३२
३२४
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________________
. (३८४)
२२४ २०२ १५७
२८८
रति (बी) राकाचार्य रागभट्ट राजगृह (नगर) राजसिंह राणक (क्षत्रिय ) राणपुर (मामा) राणकपुर राम (दाशरथि) राम (पुरुष) राम ( बलराम) रावण ( लंकापति) रुक्मिणी ( राशी )
२४६ २७१ ३१६ १९१
२६
२५०
२०४ २५
बक्ष्मण (दाशरथि) लक्ष्मी (देवी) लक्ष्मी (खी) लक्ष्मीचन्द्र (राजा) लक्ष्मीधर ( राजा) लक्ष्मीधर ( ब्राह्मण ) लक्ष्मीपुर लक्ष्मीसागरसूरि (जैनाचार्य) लथाक (संघपति ) लल्ला ( श्रेष्ठी) ललिता ललितादेवी लवणप्रसाद ( पुरुष) लाट (देश) डीम्बी (सी) लूणिग ( वस्तुपाल भ्राता) लूणिगदेव ( , ) लूणमा ( डोहकार) स्टेप ( श्रेष्ठी) . लोडणपुर लोमश ( ऋषि )
२१३
११३
२७६
२६९
११२
२३४
रुद्रादित्य (राजा) रूपवती (स्त्री) रूपवती (स्त्री) रूपश्री (खी) रैवत ( पर्वत ) शेर (ब्राह्मण) रोहणगिरि रोहणपुर रोहिणक प्रबन्ध (प्रन्य) रोहित ( मन्त्री) रोहीतकपुर (नगर)
१६९
१५९ २९३ २६४ २९४
३४७
३२५
२७२
२३४
८१
वज (देश) वजह ( खी) बजकर्ण ( राजा ) वजसिंह (राजा) बन्ना (श्री) वटप्रद (देश)
२२०
३०६
हङ्का (देश) लक्षणवतोपुरी
२६४
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________________
१८४
बडवाण (प्राम) बनक (वृक्ष) वप्रक वरदत्त परसधि (मन्त्री) वरुण (पुरुष)
३८
२३३
वर्धनपुर
६६ २२९ ५२६
२५ २३५
१७५ २३४
२४२
११६
७३
२०८
२२७
वर्धमान (प्राक्षण) वर्धमान ( वणिक) वर्धमानपुर वर्धमानसूरि वसभी (नगर) वसन्त (भिल) बसन्तदत्त वसन्तपुर बपिष्ठ (मुनि) वसुदत्त वसुन्धरा वसुमती (सी) बस्तुपा (मन्त्री) वाग्भट्ट ( मन्त्री) वामम ( विष्णु) पायट ( प्राम) बायपुर ( प्रामा) वाराणसी वाहक (प्राम) बाढी वासुकि (सर्प)
वासुदेव बाहर व्यास (मुनि) विक्रमादित्य ( राजा) विजय ( राजा) विजयचन्द्रसूरि विजयसिंहसूरि विजयसेनसूरि विद्यापुर विद्यानन्दसूरि विदेह (देश) विधि (ब्रह्मा) विनयन्धर ( श्रेष्ठी) विभीषण ( रावणानुज ) विमल ( पुरुष ) विमल ( मन्त्री) बिमल ( राजा) विशालनगरी ( नगरो) विश्वकर्मा विश्वामित्र (ऋषि) विसद ( पुरुषः) वोणा (प्राम) वीतरागस्तव (अन्य ) वीर ( वणिकू) वीर ( पुरुष ) वीर (श्रेष्टी ) वीरधव (राजा) बीरपुर
१९७
६०
२२९
२१५
२३४
१०
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--------------------------------------------------------------------------
________________
(३
)
पृष्ठ
२६०
वीरम (श्रावक) वीरमपुर वीरमती वीसलदेव (राजा) वृद्धपुर वृद्धभोज वृद्धवादी वृषभदेव वेगवती ( स्त्री)
१४
१७२
३१४
२५६
२६०
२४०
२६१
३३
वेनातटपुर
२४५
१११
वेसर वैताढ्य ( पर्वत ) वैभारगिरि (पर्वत) वैरोचन ( मन्त्री) वैरोच्या (सी)
शान्तिजिन (सीकर) शालकायन (योगी) शालिभद्र ( श्रेष्टि) शालिभद्र शारिसूरि (जैनाचार्य) शास्त्रशमस्तोत्र (अन्य ) शिवि (राजा) शिलादित्य (राजा) शिवभूति ( तापस) शिवभूति ( पुरुष ) शिवा (स्त्री) शिवासमुद्र (स्थान) शुद्धपट ( रजक) शुभशील (प्रस्तुतमन्थकार) शृगाड ( वणिक) शादत्त ( वणिक् ) शोभन ( सूत्रधार ) शोभन ( जैन मुनिः) श्रीधर (राजा) भीधर (मुनि) श्रीधर (ब्राह्मण) श्रीधर (श्रेष्ठो) श्रीधराचार्य मीधरपुर (प्राम) श्रीनगर (प्राम) श्रीपति (पणिक ) भोपाल (राजा) श्रीपुर (प्राम )
१२४
२४०
२४२
शकटाल ( मन्त्री) शक्रावतार ( तीर्थ) शकुनिकाविहार ( तीथे) शङ्ग्रेश्वर ( प्राम) रद्धेश्वर विहार ( तीर्थ ) सतबल ( राजपुत्र) शतानन्द (राजा) शतानीक (राजा) शत्रुञ्जय ( तीर्थ ) शाकम्भरी (गरी) शातवाहन (राजा) शान्तिकरस्तष (प्रन्थ )
११ ११६
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________________
(३०)
नीति (पुरोहित) श्रीमती (रामपुत्री) बीमार (जाति) श्रीमान (श) श्रीमालपुर मेणिक (राजा) अषिक प्रबन्ध (ब)
४२
२३१
५४
३२३
३०९
१०
५ परस्वती (गो)
सरस्वती (नदी) सरस्वती (देवी)
स्वर्णद्वीप २८८ महदेव ( पाण्डव)
सहदेवी (राशी) सहसमन ( राजा)
पहनलिज ( सरोवर) २५५ सहस्रार्जुन ( राजा) १८२ पाहिजगपुर (प्राम)
साक ३१४ साकेतनपुर ३२५ सागर (पुरुष)
साजण (पुरुष)
सान्त (पुरुष) ३१. सान्तल (पुरुष)
सान्तू ( मन्त्री) २६२
सामारकपुर
सारङ्ग (मन्त्री) १८५ सारङ्गदेव (राजा) ३१६ सालय (मेष्ठी)
मालवाहन (राजा) १६. सिद्ध पंचाशिकावृत्ति
सिद्धपाल
सिद्धपुर २२७ सिद्धराज जयसिंह (राजा)
सिद्धसेन (ब्राह्मण) ३७ सिद्धसेन दिवाकर (बैनाचार्य)
५४
कविन्दाचार्य मगर ( चक्रवती) मगर ( श्रेष्ठी) समाचारवृति (जैनमन्व) सजीयक ( वृषभ) सत्यपुरविहार स्तम्भतीर्थ स्तम्भनकप्राम स्तम्भनपुर सनत्कुमार ( पक्रपती) सपादलक्ष (देश) समर ( राजा) समरसिंह ( संघपति) समरसिंहवसहिका ( चैत्य ) सम्प्रति ( राजा) पराक (ष्ठि) समटिकाविहार (चैत्व) समुद्र ( वणिक् ) समेतशिवार ( तीर्थ) मयंभरिपुर (नगर)
२६९
२८६
.
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________________
( ३८८ ) :
• ५४ १८० २३१ २७४
२३१
२१०
११८
१६४ २४५
३३
१५१
२४५
२३२ ३०७
सिद्धि सिन्धु ( देश) सिन्धुर (पुरुष) सिन्धुल ( राजा) सिंह (पुरुष) सिंहवैरी ( राजा) सिंह ( श्रेष्ठी) सीता ( राशी ) सीमन्धर (जिन) सुअधम्मकित्तीअंतस्तोत्र (प्रन्थ) सुकोशल ( राजपुत्र) सुजाण (पुरुष) सुदर्शन ( श्रेष्ठी) सुदर्शनाचरित्र (प्रथ) सुनन्द (सर्व) सुन्दर (राजपुत्र) सुन्दरी (राजपुत्री) सुन्दरी (बी) सुबुद्धि (कवि) सुबुद्धि (पुरुष) सुभग ( पुरुष ) सुभद्रा ( श्राविका ) सुभौम सुमति ( मन्त्रो) सुरत्राणमोजदीन सुरप्रिय ( यक्ष) सुराष्ट्र (देश) सुरी (देवी) .
४३ ३१३
सुरूप ( राजपुत्र) सुललितादेवी ( राशी ) सुलसा (श्राविका) सुव्रत ( अहन ) सुसर ( राजपुत्र ) सुस्थित (ग्राम) सुहस्ति ( पुरुष ) सूरडप्राम सूरपाल (क्षत्रिय) सूपणखा ( राक्षसी) सूर्यपुर सूहवदे ( जयंतसिंहपत्नी) से टिका ( नदी) सेढी (नदी) सेरीसावतार ( तीर्थ ) सेलहस्त ( मन्त्री) सैन्धव (देश) सोढी (स्त्री) सोनीसमरसिंह सोपारकपचन सोम (चित्रकार) स्रोम ( वणिक) सोम (राजा) स्रोम ( मन्त्री) मोम ( राजपुत्र) सोम (पुरुष) सोमतिलकसूरि सोमदेवसूरि
४७
१४४
१६
PO.
१२४
२४३
१०
२३७
२०४
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________________ पृष्ट 314 175 119 231 . 215 54 261 181 19. सोमनाथप्रासाद सोमप्रभसूरि मोमपुर सोमवसु (मायण) सोमवीर सोमशर्मा सोमसुन्दर / मोमिलक (बसकार) सोमेश्वर सोळ (मन्त्री) सोझ (उदयनपुत्र) सोहग (बी) सौराष्ट्र ( देश) सोवपुर 157 हनूमान (पञ्जनेय ) हम्मीर (राजा) हंस (मुनि) हरिदत्त ( दूत) हरिपाठ हरिभद्र (प्राक्षण) हरिषेण (राजा) हरीमजद्वीप (देश) हस्तिनापुर (नगर) हिमाद्रि हीर (प्राम) हेम. ( प्राण) हेमचन्द्रसूरि हेमपुर हेमसूरि होदर (पुरुष) 10 54 49 340 234 317 हवाला (प्राम) 236 "Aho Shrutgyanam"