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" प्रबन्धपंचशती" नी भाषासामग्री अने कथासामग्री
लेखक : – डा० हरिवल्लभ चुनीलाल भाषाणी
( अध्यापक - भाषाविज्ञान, गुजरात युनिवर्सिटी, अमदाबाद.)
बारमी शताब्दी पछीथी रचावा मांडेला संस्कृत प्रबन्धो में मोटे भागे तो गुजरात - राजस्थाननो विशिष्टपणे जैन रचनाप्रकार छे. 'प्रबन्ध चिंतामणि' 'चतुर्विंशतिप्रबन्ध' बगेरे संग्रहोना प्रबन्धो उपरथी जोई शकाय छे के तेमां अवी व्यक्तिओनो वृत्तांत गंधातो, जे व्यक्तिओ परंपराधी विख्यात होय अने जेमणे जैनधर्मना वृद्धि विकास अने रक्षण- पालनमा स्मरणीय फारो आप्यो होय. आमां जैन आचार्यो राजवीओ, मंत्रीओ श्रेष्ठीओ वगेरे जेवी इतिहास, पुराण के दन्तकथामां जाणीती व्यक्तिओनो समावेश थतो अने से प्रभावक व्यक्तिओना चरित्रनी मुख्य विगतो अने सालवारी अथवा तो तेमना जीवननी कोई विशिष्ट घटनाओ, रसिक प्रसंगो अने दुचकाओ क्वचित् आलंकारिक भाषा अने शैलीनो पुट आपीने रजू करवामां आवतां प्रयोजन इतिहास आपवानु' नहीं पण प्रभावकता दर्शाववानु होवाथी भार कथाना के दृष्टांना तत्त्व पर रहेतो अने समय जतां, जेम प्रस्तुत संग्रहमां बन्युं छे तेम, लोकप्रचलित के साहित्य-प्रचलित दृष्टांतकथाओ अने परंपरागत लोककथाओने पण प्रबन्धोमां स्थान मळ्तु गये.
धार्मिक व्याख्यान प्रसंगे उपयोगमा लई शकाय ते दृष्टिये जाणे के तैयार थया होय तेवा संप्रहोम भूतकाळी अनेक शक्तिशाली महान् व्यक्तिओओ जैन धर्मनी महत्ता अने गौरव वधारवा माटे करेला कार्योंनी वातो, उपरांत जीवननी सामान्य नीतिरीति माटे बोधप्रद होय तेवी घणीये लोकप्रिय कथा - वार्ताओ, प्रसंगो अने टुचकाओ पण अपायां छे.
आ प्रबन्धसाहित्यनी संस्कृत भाषा पोतानी आगवी विशिष्टता धरावे छे. प्रबन्धोनु संस्कृत ओ व्याकरणनी शिष्टपरंपराने मान्य अवु विशुद्ध प्रशिष्ट संस्कृत नथी. अ संस्कृत अंक प्रकार लौकिक संस्कृत छे. तेमां तत्कालीन लोकभाषानो, तेना उच्चारण, व्याकरण, शब्दभंडोळ अने रू प्रयोगोनो गाढ प्रभाव पडेलो छे. जेम जेम पाछलना समयमां आवता जईओ छीओ तेम तेम आ प्रभाव प्रमाण वध जाय छे, बौद्ध अने जैन अ बन्ने परंपरामां पंडितमान्य रूढ संस्कृतने बदले बोलचालना प्रयोगोना पासवाळु लौकिक संस्कृत वापरवानु वलण हेतु विशाळ मध्यम वर्गने 'समज' सरळ पडे, व्यवहारभाषा अने उपदेशभाषा वच्चेनुं अंतर ओछु थाय अने छतां उपदेशभाषानो ऊंचो मोभो जळवाई रहे ओवा हेतुओ आ प्रकारनी 'सबकी संस्कृत' द्वारा सिद्ध थता.
प्रशिष्ट संस्कृतथी आ संस्कृत जुदी शैलीनु होवाने कारणे, तेमज मध्यम भारतीय- आर्य तथा अर्वाचीन भारतीय आर्य लोक-भाषाओनां तत्रो धरावतु होवाने कारणे तेणे अनेक अर्वाचीन विद्वानोनु ध्यान रखेंच्यु छे. अने ते अनेक अध्ययन-संशोधननो विषय बनतु रहयुं छे. संस्कृतनां
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