Book Title: Namokar Granth
Author(s): Deshbhushan Aacharya
Publisher: Gajendra Publication Delhi
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार ग्रन्थ आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज द्वारा सम्पादित प्रकाशक : गजेन्द्र ग्रन्थमाला दिल्ली- 110006 Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यरस्न १०१ बी वेशभूषण जी महाराज भाशीर्वादात्मक दो शब्द 'णमोकार ग्रन्थ' पाठकों को देते हुए परम बानन्द का अनुभव हो रहा है। हम कुछ समय पूर्व वंदवाड़ा दिल्ली के दिगम्बर जैन मन्दिर में प्रधान के लिये गये थे। जिस मन्दिर में हम जात हैं, उसक शास्त्र-भण्डार का अवलोकन करने की हमारी प्रवृत्ति रहती है। अतः इस मन्दिर के शास्त्र-भण्डार का भी हमने अवलोकन किया। अवलोकन करते हुए हमें प्रस्तुत सचित्र 'णमोकार ग्रन्य' प्राप्त हो गया। इसके रचयिता खण्डेलवाल जातीय लक्ष्मीचन्द्र नाड़ा दिल्ली वासी हैं । यह ग्रन्थ इंढारी और बरी बोली दोनों मिशित भाषाओं में लिखा गया है। यह अन्य अब तक अप्रकाशित था। हमें प्रन्थ देखकर बहुत उपयोगी लगा । इसी प्रकार सेठ के कूचे के दिगम्बर जैन मन्दिर के शास्त्र-मण्डार का अवमोकम करते हए इस ग्रन्थ की एक और प्रति प्राप्त हो गई। हमने दोनों प्रतियों का मिलान करके भाषा का परिमार्जन किया, जो पाठकों के समक्ष है हस्तलिखित प्रति में जो चित्र थे, वे भी ज्यों के त्यों इस प्रन्य में दे दिये गये हैं । इससे उनकी कला की मौलिकसा अक्षुण रही है। इस ग्रन्य में णमोकार मन्त्र का महात्म्य और उससे सम्बन्धित कमायें दी गई हैं। इसके अतिरिक्त बन धर्म के सिमान्तों और रत्नत्रय आदि का विवेचन किया गया है। हमें पूर्ण विश्वास है, कि इस ग्रम्य के पठन-पाठन और मनन-चिन्तन से सभी पाठकों को लाभ होगा और वे अन धर्म के सिवान्तों का भली प्रकार समाह सकेंगे। इस प्रन्य के प्रकाशन में हमारी भावना यही रही है। सितम्बर-1977 Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय णमोकार ग्रन्थ के इस संस्करण को प्रकाशित करते हुए मेरा हृदय परम पूज्य आचार्य रत्न श्री देशभूषण जी महाराज के प्रति श्रद्धा एवं कृतज्ञता से नतमस्तक हो उठा है। आचार्य श्री ने अपने जीवन में अनेकों ग्रन्थ लिखे हैं जिनमें से प्रस्तुत अन्य आचार्य श्री का श्रावक समाज के लिए अद्भूत संस्करण हैं । ___आचार्य श्री को यह धारणा थी कि सन्त समाज को क्षमता से अधिक पुरुषार्थी करना चाहिए । इस प्रन्थ के सम्पादन में अथाह परिश्रम करके उन्होंने अपने को सामाजिक ऋण से मुक्त कर लिया था। प्रस्तुत ग्रन्थ जो आप सभी श्रावकों को पढ़ने के लिए उपलब्ध हो सका, उसका श्रेय सर्वश्री आचार्य वेशभूषण जी महाराज को जाता है जिनको अनुकम्पा से यह प्रन्ध स्वाध्याय के लिए बायक समाज को उपलब्ध हो सका। ___इस प्रन्थ के पुनः प्रकाशन में श्री राजेन्द्र प्रसाद जी जैन (कम्मोजो) एवं श्री 108 आचार्य श्री देशभूषण जी महाराज (ट्रस्ट) के सभी पदाधिकारियों व श्री मदन लाल जैन (घंटे वाले) एवम कुमारी स्वेता जैन (दिगम्बर) का हृदय से आभारी हूँ। यह ग्रन्थ श्रावकों को उपयोगी सिद्ध होगा ऐसा मुझे विश्वास है यदि इस ग्रन्थ में व्यक्तियों के लिए क्षमा प्रार्थी होते हुए पाठकों से निवेदन है कि अपने बहुमूल्य सुझाव हमें भेजें जिससे को अगली आवृत्ति में सुधार किया जा सके । नीरज जैन (दिगम्बर) Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना प्रस्तुत ग्रन्थ का नाम णमोकार है। जिसके संकलनकर्ता लक्ष्मीचन्द जी वैनाड़ा, दिल्ली हैं। उन्होंने यह ग्रंथ स्वाध्याय करने वाले साधर्मी भाईयों के हितार्थ संवत् १६४६ में बनाकर समाप्त किया था इस ग्रन्थ में दो अधिकार हैं, प्रथम में णमोकार मन्त्र और उससे सम्बद्ध पंच परमेष्ठियों प्रादि का स्वरूप दिया है । और दूसरे प्राधिकार में रत्नत्रय का विवेचन किया गया है । ग्रन्थ की इस प्रस्तावना में दोनों अधिकारों के सम्बन्ध में संक्षिप्त विचार किया गया है। प्राशा है पाठकों के लिए यह रुचिकर होगा। इस संसार में मानव जीवन के उत्थान का मूल कारण णमोकार मंत्र है। जिसके चिन्तन वंदन स्मरण से आत्मा दुःखों से छुटकारा पा सकता है। मानवों की तो बात क्या पन्नू भी णमोकारमंत्र को श्रवणकर शान्तभाव से प्राणों का परित्याग कर उच्चगति को प्राप्त करते हैं अतः प्रत्येक जीवात्मा को प्रातः काल ब्रह्ममूहूर्त में उठकर हाथ मुंह धोकर शुद्ध वस्त्र धारणकर णमोकार मन्त्र का जाप्य करना अत्यावश्यक है । क्योंकि संसारी जीव राग-द्वेष-मोह और कषाय की परम्परा से पराधीन है। अनादिकाल से दुखी है । राग-द्वपादि विभाष भावों से आत्मा सदा अशान्त एवं दुखी रहता है, कभी भी निराकुल नहीं हो पाता । और दुःख सहा भी नहीं जाता । यद्यपि उससे छूटने का भी उपाय करता है परन्तु उपाय के विपरीत होने से कर्मबन्धन से छूट नहीं पाता और इच्छाओं की पूर्ति न होने से रागो द्वषो-कोधी होता हमा इन्द्रिय विषयों में प्रवृत्ति करता रहता है, तथा मिथ्यादर्शनादि के वश संसार परिभ्रमण करता रहता है। इन विभात्र भावों से छूटने का एक मात्र उपाय मिथ्यात्व का परित्याग करना है, मोर पंच नमस्कार मंत्र के चिन्तन बंदन से परिणामों को विशुद्ध बनाना है जिससे अशुभोदय को शक्ति निर्बल हो जाती है. पण्य की यद्धि होती है, और पुण्य वद्धि से सांसारिक सुख तो मिलता ही है. किन रिणाम विशुद्धि से कर्म को निर्जरा भी होती है और सांसारिक कार्य निर्विघ्न सम्पन्न होने लगते हैं। इतना ही नहीं केवल शुभ-भावों में प्रवृति ही नहीं होती, किन्तु उनकी विशुद्धि भी निरन्तर बढ़ती रहती है । पापों में प्रवृत्ति नहीं होती, तथा आलस्य और भोग लिप्सा कम हो जाती है और आत्मा में विराग रस की अनुभूति उत्पन्न होती है । इस अपराजित मन्त्र में ३५ अक्षर हैं और वह पंचपरमेष्ठियों के स्वरूप को लिए हुए हैं। प्रातःकाल का समय व्यक्ति के जीवन की सुषमा का समय है। उस समय इस मन्त्र का पाराधन-चितन पापों का नाशक है और उसकी मनोकामना का पूरक होता है। णमो अरिहंताण-पद का उच्चारण करते ही प्रात्मा में अरिहंत की मूर्ति का--धातिकमं के नाशक अरि रज-रहस्य से बिहीन, चौतीस मतिशय और अष्ट प्रातिहार्यो, चार पनन्त चतुष्टय से युक्त, परम वीतरागरूप, देवेन्द्र, नागेन्द्र, और नरेन्द्रों से पूजित वीतराग देव का-साकार स्वरूप सामने ना जाता है । इसी तरह णमो सिद्धाणं' पद से प्रष्टकर्म के विनाशक, प्रव्याबाध सुख से सम्पन्न, लोक के पन्त में विराजमान शान शरीरी सिद्धों के विमल स्वरूप का बोध होने लगता है। णमो माइरियाण Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार ग्रंथ पद का उच्चारण करते ही रत्नत्रय के धारक, छत्तीस मूलगुणयुक्त समभाव के साधक प्राचार्यों का स्मरण हो जाता है । और णमो उवज्झायाणं' पद से पच्चीस मूलगुणों के साधक, अंग पूर्वादि के पाठी उपाध्यात्रों के स्वरूप पर दृष्टि जातो है । णमो लोए सवसाहूणं-के उच्चारण करते ही पढ़ाई द्वीप में विराजमान अट्ठाईस मूलगुणों के धारक, सुस्त्र-दुख-जीवन, मरणादि में समभाव के धारक, आत्मसाधनमें निरत साधुओं का स्वरूप सामने प्रा जाता है। इस तरह णमोकार मन्त्र के उच्चारण, आराधना स्मरण करने से पंचपरमेष्ठियों के स्वरूप का सहज ही बोध हो जाता है । यद्यपि इस मन्त्र में किसी भी कामना की अभिव्यक्ति नहीं की गई है फिर भी प्राधिक इसे सब सिद्धियों का प्रदाता बतलाते हैं। इसमें सन्देह नहीं कि जिन्होंने इस मन्त्र की मिनावना राधा एवं मिसल भावपूर्ण किया है उनकी समस्त प्रापदाओं का विनाश स्वयमेव हो गया है, और उन्होंने सद्गति प्राप्त की है। जैन शासन में इस मन्त्र को अनादि एवं अपराजित बतलाया है। पंचपरमेष्ठियों के स्वरूप का निर्देशक पूरा नमस्कार मंत्र इस प्रकार है-- नमस्कार मंत्र पंचपरमेष्ठियों का वाचक है नमो प्ररिहताणं, णमो सिद्धाणं, णमो पाइरियाणं । णमो उवज्झापाणं, णमो लोए सव साहूणं ।। अरिहन्तों को नमस्कार हो, सिद्धों को नमस्कार हो, आचार्यों को नमस्कार हो, उपाध्यायों को नमस्कार हो और लोक में सर्व-साधुनों को नमस्कार हो । इस महामन्त्र में पंचपरमेष्ठियों को नमस्कार किया गया है। णमो अरिहंताणं' इस पद में अरिहंतों को नमस्कार किया गया है । परि शत्रुओं के नाश करने से परहंत संज्ञा प्राप्त होती है, नरक, तिरयंच, कुमानुष और प्रेत इन पर्यायों में निवास करने से होने बाले समस्त दु:खों की प्राप्ति का निमित कारण होने से मोह को अरि-शत्रु कहा गया है। शंका-केवल मोह को ही परि मान लेने पर शेष कर्मों का व्यापार कार्य निष्फल ही जाएगा? समाधान-यह शंका ठीक नहीं है, क्योंकि अवशिष्ट सभी कर्म मोह के अधीन हैं। मोह के अभाव में पवशिष्ट कर्म अपना कार्य उत्पन्न करने में असमर्थ हैं । अतः मोह की ही प्रधानता है। शंका-मोह के नष्ट हो जाने पर भी कितने ही काल तक शेष कर्मों की सत्ता रहती है, इसलिये उनको मोह के प्राधीन मानना उचित नहीं है। समाधान-ऐसा नहीं समझना चाहिए, क्योंकि मोहरूप शत्रु के नष्ट हो जाने पर जन्म-मरण परम्परा रूप संसार के उत्पादन की शक्ति शेष कमों में नहीं रहने से उन कर्मों का सत्व असत्व के समान हो जाता है। तपा केवलज्ञानादि समस्त प्रात्मगुणों के माविर्भाव के रोकने में समर्थ कारण होने से भी मोह को प्रधान शत्रु कहा जाता है । अत: उसके नाश करने से ही परिहत संशा प्राप्त होती है। अपवा रज-प्रावरण कर्मों के नाश करने में परिहत' यह संज्ञा प्राप्त होती है। ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्मधूलि की तरह बाह्य और अन्तरंग समस्त त्रिकाल के विषय भूत अनन्त अर्थ पर्याय और व्यंजन स्वरूप वस्तुमों को विषय करने वाले बोध और अनुभव के प्रतिबन्धक होने से रज कहलाते है। मोह को भी रज कहा जाता है, क्योंकि जिस प्रकार जिनका मुख भस्म से व्याप्त होता है, उनमें कार्य Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमौकार ग्रंप की मन्दता देखी जाती है, उसी प्रकार मोह से जिनकी प्रात्मा व्याप्त रहती है, उनकी स्वानुभूनि में कालुष्य, मन्दता पायी जाती है। अथवा रहस्य के प्रभाव से भी अरिहन संजा प्राप्त होती है। रहस्य अन्तराय कर्म को कहते हैं । अन्तराय का नाश शेष तीन घातिया कर्मों के नाश का अविनाभावो है और अन्तराय कर्म के नाश होने पर अधातिया कर्म भ्रष्ट बीज के समान नि:शा हो जाते हैं। इस तरह अन्तराय कर्म के नाश होने पर अरिहंत संज्ञा प्राप्त होती है। अथवा सातिशय पूजा के योग्य होने से प्रहन् मंज्ञा प्राप्त होती है, क्योंकि गर्भ, जन्म, दीक्षा, केवल और निर्वाण इन पाँचों कल्याणकों में देवों के द्वारा की गई पूजाएँ देव, असुर, मनुष्यों को प्राप्त पूजाओं से अधिक है । अत: इन अतिशयों से योग्य होने से अहन संज्ञा प्राप्त होती है। इन्द्रादि के द्वारा पुज्य, सिद्ध गति को प्राप्त होने वाले अर्हन्त या राग-द्वेष रूप शत्रुओं को नाश करने वाले अरिहन्त अथवा जिस प्रकार जला हुया वीज उत्पन्न नहीं होता उसी प्रकार कर्म नष्ट हो जाने के कारण पुनर्जन्मरहित अर्हन्तों को नमस्कार किया है। कर्मरूपी शत्रुओं के नाश करने तथा कर्मरूपी रज न होने से अनन्त दर्शन, अनन्तज्ञान और अनन्त सुख और अनन्तवीर्य रूप अनन्त चतुष्टय के प्राप्त होने पर इन्द्रादि के द्वारा निर्मित पूजा को प्राप्त होने वाले प्रहन्त अथवा घातिया--ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्त राय इन चारों कर्मों के नाश होने से अनन्तचतुष्टय-रूप विभूति जिनको प्राप्त हो गयी है उन प्रहन्तों को नमस्कार किया गया है । णमोसिद्धाणं-सिद्धाः निष्ठिताः कृत्कृत्याः सिद्धसाध्याः नष्टाष्टकर्माणः । __ --धव. पु. १ पृष्ठ ४६ सिद्धों को नमस्कार हो । जिन्होंने अपने साध्य को सिद्ध कर लिया है और ज्ञानावरणादि पाठ कर्मों को नष्ट कर दिया है, वे सिद्ध है। और जो अपने ज्ञानानन्द स्वरूप में सदा अवस्थित रहते हैं । जो शानशरीरी हैं, द्रव्य कर्म, भाव कर्म और नौकर्मरूपी मल से रहित हैं-जिन्होंने गृहस्थ मवस्था का परित्याग ग कर मूनि होकर तपश्चरण द्वारा घातिकम रूप मल का नाश कर अनन्त मतुष्टय रूप भाव को प्राप्त किया है, पश्चात् योग निरोधकर अघातिकर्म का विनाश कर परमौदारिक शरीर को छोड़कर लोक के अग्र भाग में विराजमान हैं, उन निरंजन सिद्धों को नमस्कार हो। णमो पाइरियाण-पञ्चविधमाचारं घरन्ति चार यन्तीत्याचार्याः चतुर्दश विद्या स्थान पारगाः एकादशांगधराः प्राचाराङ्गधरोवा तात्कालिक स्वसमय परसमय पारगो वा मेरु निश्चल: क्षितिरिव सहिष्णुः सागर इव वहिः क्षिप्तमल: सप्तभयविप्रमुक्तः प्राचार्यः । __ प्राचार्य परमेष्ठी को नमस्कार है। जो दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप और वीर्य इन पांच माघारों का स्वयं आचरण करते हैं। और दूसरों साधुनों से कराते है, उन्हें प्राचार्य कहते हैं । जो चौदह विद्यास्थानों के पारंगत हों, ग्यारह अंग के धारी हों, अथवा प्राचारोग के धारी हों, अथवा तत्कालीन स्वसमय परसमय में पारंगत हों, मेरु के समान निश्चल हों, पृथ्वी के समान सहनशील हों, जिन्होंने समुद्र के समान मल दोषों की बाहर फेंक दिया हो और जो सात प्रकार के भय से रहित हों उन्हें प्राचार्य कहते हैं। प्राचार्य परमेष्ठी के छत्तीस मूलगुण होते हैं-१२ तप, १० धर्म, ५ पाचार, ६ मावश्यक और ३ गुप्ति । इन छत्तीस मूलगुणों का वे सावधानी से पालन करते हैं। और जो शिष्यों के निग्रह Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ अनुग्रह करने में कुदाल होते हैं ऐसे धर्माचार्य सदा वंदनीय होते हैं । जो मुनि रत्नत्रय की प्रधानता के कारण संघ के नायक हैं, और मुख्य रूप से स्वरूपाचरण चारित्र में निमग्न रहते हैं किन्तु कभी-कभी रागांश का उदय होने पर धर्म- पिपासु भव्य जीवों को धर्म का उपदेश देते हैं, दीक्षा देते हैं तथा शिष्यों के दोष निवेदन करने पर प्रयाश्चित भी देते हैं। परन्तु स्वयं अपने भुलगुणों में निष्ठ रहते हैं । णमोकार ग्रंथ परमागम के अभ्यास से और अनुभव से जिनकी बुद्धि निर्मल होती है जो छह ग्रावश्यकों का निर्दोष रूप से पालन करते हैं। मेरु पर्वत के समान निष्कम्प हैं, शूरवीर हैं। सिंह के समान निर्भीक हैं, श्रेष्ठ हैं, देश कुल और जाति से शुद्ध हैं, सौम्य मूर्ति हैं, अन्तरंग परिग्रह से रहित हैं, आकाश के समान निर्दोष हैं ? ऐसे प्राचार्य परमेष्ठी होते हैं । जो संघ के संग्रह-दीक्षा और निग्रह-शिक्षा और प्रायश्चित देने में कुशल हैं, परमागम के कार्य में, जिनकी कीर्ति सब जगह फैल रही है, जो सारण याचरण, वारणनिषेध, व्रतों के संरक्षण में सावधान हैं, ऐसे आचार्य परमेष्ठी सदा वन्दनीय होते हैं । णमो उवज्झायाणं – चतुर्दशविद्यास्थानव्याख्यातारः उपाध्यायाः तात्कालिक प्रवचन व्याख्यातारो वा । प्राचार्यस्यो क्ता शेषलक्षणसमन्विताः संग्रहानुग्रहादि गुणहीनाः । बोस पुरव महोय हिमहिगम्य-सि वस्थिनो सिवत्थीणं । सोलंधरा पत्ता होइसुणीसो उवज्झायो ॥ उपाध्याय परमेष्ठी को नमस्कार हो, चौदह विद्यास्थान के व्याख्यान करने वाले उपाध्याय होते हैं । श्रथवा तत्कालीन परमागम के व्याख्यान करने वाले उपाध्याय होते हैं वे संग्रह, यनुग्रह यादि गुणों को छोड़ पूर्व में गए गुगों से युक्त होते हैं । जो साधु चौदह पूर्व रूपी समुद्र में प्रवेश करके परमागम का अभ्यास करके मोक्षमार्ग में स्थित हैं, तथा मोक्ष के इच्छुक श्रावकों-मुनियों को उपदेश देते हैं, वे मुनीश्वर उपाध्याय परमेष्ठी हैं । जो १५ मूलगुणों का पालन करते हैं। रत्नत्रय से सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र रूप रत्नत्रय के धारक हैं, निरंतर धर्मोपदेश में निरत रहते हैं-मुनियों और श्रावकों को परमागम का अध्ययन कराते हैं, और स्वाध्याय में निष्ठ रहते हैं, ऐसे उपाध्याय परमेष्ठी सदावंदनीय होते हैं । णमो लोए सव्व साहूणं मनन्तज्ञानादिशुद्धात्मस्वरूपं साधयन्तीति साधवः । पंचमहाव्रतधरास्त्रिगुप्ति-गुप्ताः अष्टादशशी लसहस्र मैश्चतुरशीतिशत सहस्रगुणधराश्च साधयः । सीह-गय, सह-मि-पशु- मारुद सुरुवहि-मंदिरिन्दू-मणी । लिरिगंबर- सरिता परम-पय-विमग्गया साहू ॥ ढाई द्वीपवर्ती उन सभी साधुयों को नमस्कार हो जो अनन्त ज्ञानादि शुद्ध श्रात्मा के स्वरूप की साधना करते हैं, पंच महाव्रत, पंच समिति मौर तीन गुप्तियों से सुरक्षित हैं, अठारह हजार शील के भेदों को धारण करते हैं मौर चौरासी हजार उत्तर गुणों का पालन करते हैं वे साधु परमेष्ठी १. छत्तीस गुण समग्गे पंच विचारकरण संदरिसे । सिस्सागुग्गहकुसले धम्मायरिये सदा बंदे ।। - धवला पु० १, पृ० ४६ ३.भवला पु० १ १० ५० Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार पंथ हैं। जो सिंह के समान पराक्रमी, गज के समान स्वाभिमानी वा उन्मत्त, बल के समान भन्न प्रकृति मृग के समान सरल, पशु के समान निरीह गौचरीवृत्ति करने वाले, पवन के समान निर्सग तथा बिना किसी रूकावट के विचरण करने वाले, सूर्य के समान तेजस्वी, समस्त तत्वों के प्रकाशक, समुद्र के समान गम्भीर और सुमेर के समान उपस और पारंप पाने पर प्रकम्प अथवा निश्वल रहने वाले, चन्द्रमा के समान शान्तिदायक, मणि के समान प्रभापुन्ज पृथ्वी, के समान सहनशील, सर्प के समान अनियत प्राश्रय में रहने वाले, आकाश के समान निरालम्बी अथवा निर्भीक और सर्वदा मोक्ष का अन्वेषण करने वाले साधु परमेष्ठी होते हैं । जो अपने चिदानन्द स्वरूप में तन्मय रहते हैं प्रात्म-निरीक्षण एवं निदा पहरे द्वारा अपने दोषों को दूर करने का प्रयत्न के-ते हैं। जो समता भाव के धारक हैं, जिनकी प्रशान्त मुद्रा बिना किसी उपदेश के प्रात्मा के शान्त स्वरूप का उपदेश देती है। ऐसे वे सर्व साधु नमस्कार करने योग्य हैं मैं उनकी वन्दना करता हूं। इस तरह पंच परमेष्ठी का यह स्वरूप णमोकार मंत्र के पदों में अन्तनिहित है। उसका ध्यान और अध्ययन प्रात्मशान्ति का प्रधान कारण है। अतएव उसका चिन्तन वन्दन करना परम कर्तव्य है । अपराजित महामन्त्र की महत्ता जिसका पाट मात्र करने से कार्य की सिद्धि होती है उसे मन्त्र कहते हैं। और जिसका जप तथा हवन आदि के द्वारा कार्य सिद्ध करना पड़ता है उसे विद्या कहते हैं। मन्त्र और विद्य। में भेद है क्योंकि विद्या की अधिष्ठात्री देवता स्त्री है और मन्त्र का अधिष्ठाता देवता पुरुष है। यही दोनों की भिन्नता का निर्देश है । मन्त्र देवाधिष्ठित होते हैं और साधक मंत्र की साधना द्वारा उन अधिष्ठाता देवों को वश में करने का प्रयास करता है। इस प्रयत्न में वही सफल हो सकता है जो अपने को शक्तिशाली और पात्मविश्वासी मानता हो। अथवा जो अपने को देवता से भी अधिक बलवान अनुभव करता है और यह समझता है कि देवता मेरा कुछ बिगाड़ नहीं कर सकता। किन्तु जो देवता के नाम से घबराते हैं और अपने को उनका दास समझते हैं ऐसे पुरुष उक्त कार्य में कभी सफल नहीं हो सकते हैं। प्रस्तुत मंत्र मंत्रशास्त्र की दृष्टि से विश्व के समस्त मन्त्रों से अलौकिक है । इसकी महानता को वे ही समझते हैं जिन्होंने निष्काम होकर इसका आराधन कर सिद्धि या फल प्राप्त किया है। दुनिया की ऐसी कोई ऋद्धि सिद्धि नहीं है जो इस मन्त्र के द्वारा प्राप्त न की जा सके । इस मन्त्र की महत्ता को प्रगट करते हुए लिखा है कि यह पंच नमस्कार मन्त्र सब पापों का नाश करने वाला है और सब मंगलों में पहला मंगल है। ऐसो पंच णमोकारो सम्वपावप्पणासमो। मंगलाणं च सवेसि पलम हवाइ मंगलं ।। इतना ही नहीं किंतु यह नमस्कार मंच संसार में सारभूत है। तीनों लोकों में इसकी तुलना के योग्य कोई दूसरा मन्त्र नहीं है। यह समस्त पापों का शत्रु है । संसार का उच्छेद करने १ घडला पुस्तक १ पृ. ५२ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार वाला है। विषम विष को दूर करने वाला है । कर्मों को जड़ मूल से नष्ट करने वाला है। अतएव सिद्धि का देने वाला है मुक्तिसुख का जनक है और केवलज्ञान का समुत्पादक है। अतएव इस मंत्र का बार बार जाप करना चाहिए क्योंकि यह कर्म परम्परा का विनाशक है। इस मंत्र की प्राराधना का फल बतलाते हुए प्राचार्य शुभचन्द्र ने ज्ञानार्ण में कहा है कि लोक में जितने भी योगियों ने आध्यात्मिक लक्ष्मी (मोक्ष लक्ष्मी) को प्राप्त किया है। उन सबों ने श्रुतशानभूत इस महामन्त्र की आराधना से ही प्राप्त किया है । रामस्त जिनवाणी रूप इस मन्त्र की महिमा एवं इसका तत्काल होने वाला अमिट प्रभाव योगी मुनि पुगवों के भी अगोचर है वे इसके वास्तविक प्रभाव का निरूपण करने में असमर्थ हैं। इस मन्त्र का प्रभाव केवली ही जानते हैं। पाप से मलिन प्राणी भी इसी मन्त्र से विशुद्ध होते हैं और इसी के प्रभाव से मनीषोमण संसार के क्लेशों से छूटते हैं। श्रियमात्यन्तिको प्राप्ता योगिनो येत्र केचन | अमुभेव महामन्त्रं ते समाराध्यकेवलम् ।। मराहत णमोक्कारं भावेणाय जो करेदि पयऽमदी। सो सय्य दुक्खं मोक्खं पाविय प्रचिरेण कालेण ।। जो विवेकी जीव प्ररहन्त को भाव पूर्वक नमस्कार करता है वह शीघ्र ही समस्त दुखों से छूट जाता है । अतएव सोना, खाना, जाना, वापिस पाना, शास्त्र का प्रारम्भ करना आदि क्रियायों में प्ररहंत नमस्कार अवश्य करना चाहिए । प्रत्येक जीवात्मा को इस मन्त्र का निरन्तर जाप कर पात्महित साधन करना जरूरी है। एक समय भारत में मन्त्र विद्या का बड़ा प्रचार था। बौद्ध सम्प्रदाय में लोग मन्त्र तन्त्र विद्या का बड़ा अभ्यास करते थे। किन्तु उस समय में भी जैन साधु विद्यानुवाद में उल्लिखित मन्त्र विद्या से सुपरिचित थे। अनेक जैनाचार्य मन्त्र विद्या में निष्णात थे। उनकी वह तपश्चरण युक्त मन्त्र विद्या कभी निष्फल नहीं जाती थी। परन्तु मंत्र तन्त्रादि की शक्ति से सम्पन होते हुए भी किसी कामना के लिए वे इसका प्रयोग नहीं करते थे । यद्यपि उन्हें तपश्चर्या से भी अनेक ऋद्धियाँ प्राप्त थी, परन्तु किसी भी सांसारिक कार्य के लिए उनका उपयोग करना वे अनचित समझते थे। उनकी निष्काम तपश्चर्या कर्मों की वज शृंखला को तोड़ने के लिए थी । इसीलिए वे भीषण उपसर्ग पौर परीषहों को सहने का उपक्रम करते थे। उनकी समस्त जीवों के प्रति सदभावना कल्याणदायिनी थी। शरीर से भी उनकी निरीहवृत्ति उक्त बात को संद्योतक थी। इस सब कथन से स्पष्ट है कि उनकी सकामाभक्ति की अपेक्षा निष्कामाभक्ति विशेष उपयोगी और कार्य साधिका है। दूसरे जिनकी भक्ति की जाती है वे वीतराग सर्वश हितोपदेशी आदि अनेक गुणों से विशिष्ट है उनके पास ऐसी कोई सामग्री नहीं जिसे वे भक्तों को अर्पित कर सकें। हां उनकी प्रशान्त वीतराग मुद्रा का दर्शन ही दर्शक की भावनाओं की सम्पूर्ति में परम सहायक है। उनका निन्दक और वन्दक के प्रति कोई राग द्वेष नहीं होता। फिर भी भवत के मन की प्रसन्नता, विशुद्ध भावना बाधक कर्मों के रस को हल्का करने पथवा उसे सुखाने में जिनेन्द्र की प्रशांत दिव्य मुद्रा निमित्त होती है। इसी से यह बात स्पष्ट चरितार्थ होती है कि भगवान के प्रसाद से यह सब कार्य सम्पन्न हुया है। इस अधिकार में रत्नत्रय का कपन किया गया है। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र ही रत्नत्रय कहलाते हैं। इन तीनों की एकता मोक्ष का मार्ग है। रत्नत्रय की पूर्णता होने पर प्रात्मा Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार च कर्मबन्ध से छूटकर स्वात्मोपलब्धि को पा लेता है । शात्मसिद्धि का उपाय रत्नत्रय की प्राप्ति है । आत्मा मुक्त वस्था में अपने शाश्वत ज्ञानानन्द में मग्न रहता है। मुक्तात्मा के सभी कार्य सिद्ध हो चुके हैं। इसी से वे कृतकृत्य, निष्कलंक, बोस्कल्मष, सिद्ध, निरंजन, और अजर अमर कहे जाते हैं । ग्रतः जन्म-जरा-मरण से छूटने और अविनाशी सुख प्राप्त करने के लिए आत्मा को रत्नत्रय की धाराधना एवं उपासना जरूरी है। रत्नत्रय की प्राप्ति के विना स्वात्मोपलब्धि की प्राप्ति संभव नहीं है । रत्नत्रयश्रात्मा की अमूल्य निधि है। जिन जीवों ने सांसारिक भागोपभोगों का परित्याग कर श्रीर दीक्षित होकर तपश्चरण द्वारा आत्मा का शोधन किया है और घोर उपसर्ग एवं परिषहों से जरा भी विचलित नहीं हुए प्रत्युत उसमें तन्मय रहे हैं। उन्होंने ही निराकुल सुख का उपभोग किया है। मुक्ति प्रकाशक होने से जिसने स्त्र औौर पर के भेद विज्ञान द्वारा इस लोक में लोकोत्तर महिमा प्राप्त की है। मोहरूपी अन्धकार को दूर करने वाले उस परम तेज रूप रत्नत्रय को निरन्तर नमस्कार हो । सम्यग्दर्शन. जीव, जीव, प्रसव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष रूप सप्त तत्वों का विपरीताभिनिवेश रहित श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है। धर्म का मूल सम्यग्दर्शन ही है । सम्यग्दर्शन को बड़ी महिमा है उससे ही जीव का कल्याण होता है । सम्यग्दर्शन की महत्ता का बोध इसी से होता है कि सम्यग्दर्शन के बिना ज्ञान और चरित्र सम्यक् नहीं हो सकते | इनकी समीचीनता का द्योतक सम्यग्दर्शन है । यह मोक्ष रूपी महल की पहली सीढ़ी है। इसके बिना ज्ञान और चारित्र सम्यक् नहीं हो पाते । इसी से सम्यग्दर्शन को धारण करने की आवश्यकता बतलाई गयी है। जो जीव सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट हैं वे भ्रष्ट ही हैं। उन्हें मोक्ष नहीं मिलता। क्योंकि जो सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट होते हैं वे नियमत: ज्ञान और चारित्र से भी भ्रष्ट होते हैं । इसी से वे मोक्ष मार्ग से दूर ही रहते हैं । ऐसी स्थिति में वे मोक्ष के पात्र कैसे हो सकते हैं। जिस तरह वृक्ष के मूल (जड़) के बिनिष्ट हो जाने पर वृक्ष की शाखा उपशाखा मौर फलादि की वृद्धि नहीं होती उसी तरह धर्म के भूल सम्यग्दर्शन के विनिष्ट होने पर धर्म के परिवार स्वरूप ज्ञान मीर चारित्र मादि की वृद्धि भी सम्भव नहीं है । अतएव सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट जीव मुक्ति का पात्र नहीं होता | १. मुक्तेः प्रकाशक तथा समवापि येन, लोकोत्तरो व महिमा स्वपरावाध्य । विश्वस्त मोहतपसे परमाय तस्मै, रत्नत्रयाय मह्ते सततं नमोस्तु ||२० २. दंसणमूलो घम्मो उवदिट्टो जिणवरेहि सिस्साणं । दंसणपाहुण २ ३. मोक्ष महल की प्रथम सीड़ी या बिन ज्ञान चरित्रा । सम्यकूता न लहे सौ दर्शन घारो भव्य पवित्रा | छहढाला - पं० दौलतराम ४. (क) जमूलम्मि विणले दुमएस परिवार पत्थिपरिवडि । तह जिणदणभट्टा मूलविणा ण सिज्यंति ।। दंसण भट्टा भट्टा, सण भट्ठस्य पश्थिविष्वाणं । ४. (ख) विद्या वृत्तस्य संभूति स्थिति वृद्धि फलोदयः ११ दंसण पा० १० दंसण न सन्यसति सम्यक्त्वे बीजाभावे तरोरिव । रहन करण्श्रावकाचार ३० Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार नय तीन लोक और तीन काल में ऐसी कोई वस्तु नहीं है जो सम्यग्दर्शन के समान जीव का कल्याण कर सकती हो । और मिथ्यात्व के समान ऐसी कोई अन्य वस्तु नहीं है जो जीव का अकल्याण कर सकती हो । जिस तरह संसार समुद्र में पड़ी हुई नाव को खेवटिया उस पार ले जाने में समर्थ है । उसी तरह सम्यग्दर्शन भी जो वन-नौका को लेकर मोक्ष तट के पार पहुचाने में समर्थ है। सम्यग्दर्शन का ही यह प्रभाव है, जो सम्यक्त्व से सम्पन्न नाण्डाल कुलोत्पन्न मानव भी पूज्य हो जाता है। और सम्यक्त्व के बिना मुनिधर्म का पालन करने वाले द्रालगी साधु को सम्यग्दृष्टि गृहस्थ से हीन बतलाया गया है। उसकी हीनता का कारण सम्यक्त्व का अभाव ही है। सम्यग्दर्शन की प्राप्ति से पूर्व यदि कोई जीव नरक, तियंचायु का बासुष्क हो गया हो तो उसके सम्यग्दर्शन होने पर उसके प्रभाव से उनकी स्थिति में अवश्य है सुधार हो जाता है । वे मरकर नरक, तिर्यंच गति को जरूर प्राप्त करेंगे। यातिनि बन्द नहीं छूना, गिरमिति अल्पता हो जाती है, जैसा कि चारित्रसार के निम्न पद्य से प्रकट है : बुर्गतीवायुषोबन्ध सम्यक्त्वं यस्य जायते। गतिश्छेदो न तस्यास्ति तथाल्पतरा स्थिति: ॥ यह भी सम्यग्दर्शन का ही प्रभाव है जो प्रवद्धायुष्क शुद्ध सम्यग्दृष्टि जीव अन्नती होते हुए भी नरक, तिथंच गति, नपुंसक और स्त्री पर्याय को प्राप्त नहीं होते, और निद्यकुल, विकलांग, अल्पायु और दरिद्रता को प्राप्त नहीं होते । और न स्थावर एवं विकलत्रय पर्याय को प्राप्त करते हैं । ८ बद्धायुष्क होने पर भी वे सम्यग्दर्शन के प्रभाव से सप्तमादि नरकों को आयु बांधने वाले प्रथम नरक से आगे नहीं जाते । तथा विकलत्रय पर्याय को म धारण कर संजी पंचेन्द्रिय पुल्लिग पर्याय को ही धारण करते हैं । सम्यग्दृष्टि जीव प्रथम पृथ्वी को छोड़कर अधस्तन छहों पृथ्वियों में, ज्योतिषी, व्यंतर, भवनवासी देवों में मौर सर्व प्रकार की स्त्रियों में तिर्य चिनी, मनुष्यनी और देवियों में बारह मिथ्यावाद में-एफेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय पौर असंज्ञी पंचेन्द्रिय सम्बन्धी तिमंचों के द्वादश जीव समासों में उत्पन्न नहीं होता। इन सब उल्लेखों से सम्यक्त्व की महत्ता का स्पष्ट बोध होता है । सम्यग्दर्शन के होने पर इस जीव के ४१ कर्म प्रकृतियों का बन्ध नहीं होता । सम्यग्दर्शन की प्राप्ति से जीव की अभद्र परिणति भद्रता में परिणित हो जाती है । उसके भावों में विचित्र परिणमन हो जाता है । मिथ्यादृष्टि के पलटते ही दृष्टि ६. न सम्यक्त्व समं किंचित्रकाल्ये विजगत्यपि । श्रेये श्रेयश्य मिथ्यात्वसम नान्यत्तनुभृताम् ।। रल फ० श्रा०३४। ७. भवाबधो भव्य सायंस्प निर्माण दीवियापिनः । चारित्र यान पात्रस्य कर्णधारी हि दर्शनम् ॥ ६. सम्यग्दर्शन सुद्धा नारक-नियंइ-नपंसक-स्त्रीत्वानि । कल-विता ल्पामर्दरिद्रतो च जति नाप्रप्रतिकाः ॥ रत्न क. पा. ३१ ६. (क) हसु हैट्टिमासु पुढवीसु जोइस-वण-भवण सब्बाइस्थी । वारस मिच्छावादे सम्माइटिस णस्थि उववादो।। पंच सं. १६३ । जीवसमास इस्य) ज्योतिर्भावनभोमा पदम्वधः पवधभूमिषु । तियंग्नर-सुरात्री सष्टिनव जायते ।। सं.पं.सं. रडा १.२२७ स Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार ग्रन्थ सम्यक् हो जाती है। भावों में समता और उदारता आ जाती है । सम्यग्दष्टि हो जाने के बाद समागत सम्पदा में उसे हर्ष नहीं होता और न विपत्ति प्राने पर विवाद ही होता है, इसी से वह कभी दिलगीर या दुखी नहीं होता, अविषयों में उसकी परिणति नहीं जाती । विवेक उमको परिणनि को सदविचारों से परिपूर्ण करता रहता है, वह किसी भी जीव का अहित नहीं करना चाहता और न कोई ऐसा कार्य हो करना चाहता है जिससे दूसरों को कष्ट पहुँचे । वह अपने सच्चे स्वार्थ को ओर प्रवृत्त होता है, परमार्थ में भी वह सच्चा रहता है, वह सदा सच बोलने का प्रयास करता है, वह बुद्धिपूर्वक किसी के विरुद्ध कार्य नहीं करता, और न पर्याय में प्रात्मबुद्धि रखता है, अहंकार और ममकार उसके नहीं होते, परद्रव्य में उसका कर्तृत्वभाव भी नहीं होता। पर पदार्थों से उसको राग परिणति हट जाती है, भोग सम्पदा भी उसका कुछ बिगाड़ नहीं कर सकती, क्योंकि इन्द्रिय-विषयों से उसको आन्तरिक परिणति में उदासीनता रहती है, उसकी किसी पदार्थ में आसक्ति नहीं होती। वह जीवन से भी निस्पृह रहता है। राज्य कार्य करते हुए भी उसमें लिप्त नहीं होता। वह प्रात्म-निरीक्षण द्वारा अपने दोषों के प्रति सावधान रहता है और मानव जीवन की सफलता के लिए वह सदा प्रयत्नशील रहता है । वह घर में जल में कमल की तरह अलिप्त रहता है, और अपने को कारागार में रहने के समान मानता है। क्योंकि पर पदार्थ में उसकी अपनत्व बुद्धि और स्वामित्व नहीं होता। कदाचित् इन विषयों में प्रवृत्ति हो भी जाय तो विवेक के जाग्रत होते ही वह अपनी निदा गहरे द्वारा दोषी का दूर करने में सदा प्रयत्न करता है और चित्तवृत्ति को सदा निर्मल बनाने का प्रयत्न करता है । जितने संसार में सदृष्टि मानव हुए हैं उनकी चित्तवृत्ति ही उनके परिणाम की साधिका रही है । दूसरों के द्वारा दुखी किये जाने पर भी वे चन्दन के समान अपनी शमवृत्ति का परित्याग नहीं करते । जिस तरह चन्दन जलाये जाने या घिसे जाने पर भी अपनी सुरभि (सुगन्धी) का परित्याग नहीं करता । उसी तरह वे सम्यग्दृष्टि सन्त भी अपनी वृत्ति का परित्याग नहीं करते। सम्परव की प्राप्ति ___ अनादि मिथ्यावृष्टि जीब प्रर्द्धपुद्गल परिवर्तन मात्र काल शेष रहने पर सब से पहले प्रथमोपशम सम्यक्त्व प्राप्त करता है। उसकी प्राप्ति के अभिमुख हुमा जीव निश्मय से चेन्द्रिय संजी मिथ्यादृष्टि और पर्याप्त होता है। एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय, प्रसंजीपंचेन्द्रिय और अपर्याप्त जीव उस सम्यग्दर्शन को प्राप्त नहीं कर सकते। इसी तरह सासन सम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और वेदक सम्यग्दृष्टि जीव भी उक्त प्रथमोपशम सम्यक्त्व को प्राप्त नहीं होते। पूर्वोक्त जीव जब अध:करण, अपूर्वकरण और प्रनितिकरण रूप तीन प्रकार की विशुद्धि को प्राप्त होता है तब वह अनिवृत्तिकरण रूप तीन प्रकार की विशुद्धि से युक्त होता है तब बह अनिवृत्तिकारण विशुद्धि के अन्तिम समय में प्रथमोपशम सम्यक्त्व को प्राप्त होता है । सम्यक्त्व प्राप्त करने से पहले जीव के पांच लब्धियां होती हैं। क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना, प्रायोग्य और करण । इनमें से प्रारंभ की चारों लब्धियाँ भव्य जीव के समान प्रभव्य के भी संभव है। परन्तु अन्तिम करण लब्धि भव्य जीव के ही होती है, जब वह सम्यवत्व के सन्मुख होता है। पूर्वोक्त चार लब्धियों के होने पर जीव करण लब्धि के योग्य भाववाला हो जाता है । १. चमनं घृष्यमाणं हापमानोपथा गुरुः । न याति बिकियां साधुः पौषितोऽपि तथा परैः सुभाषितम् । Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार प्रत्थ श्रधःकरण, अपूर्वकरण र प्रनिवृत्तिकरण रूप तीन प्रकार के परिणामों की प्राप्ति का नाम ही करण लब्धि है। इन तीनों करणों में जीव कर्मप्रकृतियों के अनुभाग को उत्तरोत्तर होन करता हुआ अनन्त गुणी विशुद्धि को प्राप्त करता है। अधःकरण और प्रपूर्वकरण के बीत जाने पर जब अनिवृत्तिकरण का भी बहुभाग व्यतीत हो जाता है, तब जीव श्रनिवृतिकरण के काल में अन्तरकरण किया जाता है । इससे प्रथम और द्वितीय स्थिति में परिणाम विशेष के द्वारा अन्तर्मुहूर्त काल तक मिध्यात्व के उदय को रोक दिया जाता है। इस अन्तरकरण के अंतिम समय में मिथ्यादर्शन को लोन भागों में विभक्त करता है । सम्यक्त्व, मिथ्यात्व और सम्यस्मिथ्यात्व । इन तीनों के साथ अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ के उदय का भी प्रभाव हो जाने पर हूर्त काल के लिए प्रथमोपशम सम्यक्त्व होता है । इतनी विशेषता है कि वह प्रथमोपशम सम्यक्त्व चारों गतियों में से किसी भी गति में प्राप्त किया जा सकता है । सम्यक्त्व के प्रभिमुख जोव अपूर्वकरण परिणाम द्वारा कोद्रव धान्य के समान मिथ्यात्व के तीन पुंज करता है। अनुभाग की अपेक्षा उसे सम्यक्त्व, मिथ्यात्व और सम्यक् मिध्यात्व रूप परिणमन करता है, तथा श्रनिवृत्तिकरण द्वारा सम्यक्त्व प्राप्त करता है। सम्यग्दर्शन के भेद १४ सम्यग्दर्शन दो प्रकार का है- निसर्गज और अधिगमज । जो सम्यग्दर्शन स्वभाव से बिना किसी उपदेश के उत्पन्न होता है वह निसर्गज कहलाता है। थोर जो परोपदेश पूर्वक होता है वह श्रधिगमज है । यद्यपि दोनों का अन्तरंग कारण दर्शन मोह का उपशमादिक है, सो वह दोनों में समान है किन्तु जो अन्तरंग कारण के होते हुए भी बाह्य में सुगुरु के उपदेशादिक निमित्त से होता है वह प्रधिगमज कहा जाता है । श्रपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक के भेद से सम्यग्दर्शन तीन प्रकार का है। इनमें श्रपशमिक सम्यक्त्व दो प्रकार है -- प्रथमोपशम और द्वितीयोपशम प्रथमोपशम सम्यक्त्व का स्वरूप पहले कहा जा चुका है। सातिशय अप्रमत्त गुणस्थानवर्ती जीव जब उपशम श्रेणी पर मारूढ़ होने के भिमुख होता है तब वह श्रतानुबंधिचतुष्टय का विसंयोजन करता हुआ क्षायोपशमिक सम्यक्त्व से जिस उपशम सम्यक्त्व को प्राप्त करता है वह द्वितीयोपशम कहलाता है । दर्शन मोहनीय के क्षय से जो सम्यक्त्व उत्पन्न होता है वह क्षायिक कहलाता है । पट् खंडागम में दर्शन मोहनीय की क्षपणा का विधान इस प्रकार बतलाया है - दर्शन मोहनीय की क्षपणा का प्रारम्भ ढ़ाई द्वीपों में वर्तमान कर्मभूमि का मनुष्य हौ करता है। भढ़ाई द्वीपों में भी जहाँ तीर्थंकर केवली जिन • ( जिन, श्रुतंकेवली, सामान्य केवली या तीर्थकर केवली ) विद्यमान हों, वहां उनके पादमूल में ही वह उसे प्रारम्भ करता है । परन्तु उस क्षपणा की समाप्ति चारों गतियों में होती है । किन्तु उसका प्रारंभ केवल मनुष्यगति में होता है ।" नानुबन्धिचतुष्टय मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व के उपशम से सदवस्थारूप उपशम से तथा सम्यक्त्व प्रकृति के देशघाति स्पर्धेकों के उदय से जो तत्वार्थ श्रद्धान होता है, उसे क्षायोपशमिक या वेदक सम्यक्त्व कहा जाता है । 3. दंसण मोहणीयं कम्मं खनेदुमाश्वेतु कम्हि प्राइवेदि ? अड्डाहज्जे दीव-समुद्देषु पण्णारस कम्मभूमी त्रिपुरा दुर्भुवि गदी शिद्धबेदि । जम्हिणिा केवली सिरपयरासहि प्रावेदि ॥ - दुखं. पथ० पुस्तक ६ पु. २४३-४७ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार पंप प्रात्मानुशासन और यशस्तिलक-सम्र में शासन दर्शन के दश भेद बतलाए हैं. प्राज्ञा, मार्ग, उपदेश, सूत्र, बीज, संक्षेप, विस्तार, अर्थ, अवगाढ़ प्रौर परमावगाढ़ । इन सबका स्वरूप उक्त ग्रन्थों से जानना चाहिये। सम्यक्त्व के २५ दोष हैं'–शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, मूढदृष्टि, अनुपगृहन, अस्थितिकरण, पवात्सल्य और अप्रभावना, ये शंकादिक ८ दोष, पाठ मद-ज्ञानमद, जातिमद, कुलमद, बलमद, तपमद, रूपमद, धनमद और प्रतिष्ठामद। तीन मूढ़ता-देवमुढ़ता, गुरुमूढ़ता, लोकमुढ़ता। पद्मनायतनकुगुरु, कुदेव, कुधर्म और तीन इनके सेवक। ये सब मिलाकर २५ दोष होते हैं । इनसे रहित सम्यक्त्व का पालन करना चाहिये । जिस प्रकार प्रक्षर न्यून मंत्र विष की वेदना को दूर नहीं कर सकता, उसी प्रकार अंगहीन सम्यग्दर्शन भी भव सन्तति को छेदने में समर्थ नहीं होता। निर्दोष सम्यक्त्व का धारक जीव, श्रेष्ठ मानव नौज और तेज से सम्पन्न, विद्या, वीर्य और यश से परिपूर्ण होता है, वह लोक प्रतिष्ठित नर पुंगव महान विभूति का धारक होता है, चक्रवर्ती, नारायण और प्रतिनारायण विभूति का भी धारक होता है। सम्यग्दृष्टि जीव निर्भय और प्रात्मरस का प्रास्वादी होता है। प्राचार्य कुन्दकुन्द के समयसार में सम्यग्दृष्टि को सप्तभय रहित और निशंक बतलाया है। निर्भय ही अहिंसक होता है, भयवान सम्यग्दृष्टि नहीं हो सकता, वह कायर हिंसक होता है । भय सात प्रकार का है-इहलोकभय, परलोकभय, व्याधिमय, मरणभय, आकस्मिकभय, अरक्षणभय, असंयमभय, ये सप्तभय सम्यग्दृष्टि के नहीं होते । इसी कारण लोक में उसकी बड़ी प्रतिष्ठा होती है। सम्यग्दर्शन ज्ञान और चारित्र का बीज है । इसके बिना सम्यग्ज्ञान और सम्यचारित्र नहीं होता। भय और प्रशम (बिशुद्धभाव) का जीवन स्वरूप है । इसके बिना उनमें जीवन नहीं पाता । यह तप पौर स्वाध्याय का भी प्राश्रय है । जिसके निर्मल सम्यग्दर्शन है, वही पुण्यशाली है यह मैं मानता हूं। सम्यग्दर्शन मोक्षमार्ग में प्रधान है। यह सम्यग्दर्शन अतुल सुख का निधान है । समस्तं कल्याण का बीज है। संसाररूपी समुद्र से तारने के लिए जहाज है । भध्यजीव ही इसे धारण कर सकते हैं। अभव्यजोन इसके पात्र नहीं होते। यह सम्यग्दर्शन पापरूपी वृक्ष को काटने के लिये कुठार के समान है और पुण्यतीर्थों में प्रधान है, मिथ्यात्वरूपी विपक्षी शत्रु का जीतनेवाला है। भव्यजीवों का कर्तव्य है कि वे ऐसे सम्यग्दानरूपी अमृत का पान करें। जैसाकि निम्न पद्य से स्पष्ट है प्रतुलसुखनिधानं सर्वकल्याणबीजं जननजल धिपोतं, भव्यसत्वंकपात्रम् । दुरिततस्कुठार, पुण्पतीर्थ प्रधानं पिवत जित विपक्षं दर्शनाख्यं सुधाम्बुम् ।। ज्ञाना० ६.५६ । सम्यम्झान पदार्थों का यथार्थ जानना सम्यग्ज्ञान है । प्राचार्य पूज्यपाद ने लिखा है कि येन केन प्रकारेण जीवादयः पदार्था व्यवस्थितस्तेनावगमः सम्यग्ज्ञानम् । विमोह संशय विपर्यय निवृत्यर्थ सम्यग्विशेषणम् । १. मूढ़त्रयं भवश्चाष्टो तथा मायतनानिषट् । भष्टो शंकादरश्चेति दुग्दोषा पंच विंशति ।। २. नांगहीनमल छेत दर्शनं जन्म सन्तति । नहिमंत्रो झरन्यूनो निहन्ति विषवेदनम् ॥ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ णमोकार ग्रंथ जिस जिस प्रकार से जीवादिक पदार्थ अवस्थित हैं उस उस प्रकार से उनका जानना सम्यग्ज्ञान है। ज्ञान से पूर्व सम्यक् विशेषण विमोह (अनध्यवसाय ) संशय और विपर्यय ज्ञानों का निराकरण करने के लिये दिया है। सम्यग्दर्शन से पहिले जो ज्ञान होता है वह मिथ्याज्ञान कहलाता है। यद्यपि दर्शन और ज्ञान एक साथ उत्पन्न होते हैं । उसी प्रकार श्रात्मा में जिस समय दर्शनमोहनीय का उपशम, क्षय या क्षयोपशम होने पर सम्यग्दर्शन रूप पर्याय की अभिव्यक्ति होती है। उसी समय उसके मत्वज्ञान, श्रुताशान का निराकरण होकर मतिज्ञान श्रुतज्ञान प्रकट होते हैं। प्रतएव ज्ञान की समीचीनता का कारण सम्यग्दर्शन है। उसके बिना मिथ्याज्ञान कहलाता है । पदार्थ के यथार्थ स्वरूप का परिज्ञान होने पर केवल अज्ञान से ही छुटकारा नहीं मिलता, प्रत्युत श्रात्मा अपने स्वरूप का ज्ञायक भी हो जाता है। ज्ञान का कार्य स्वरूप का बोध कराना है। विवेक ज्ञान के जागृत होते ही उसकी रुचि परपदार्थ से कम हो जाती है और आत्मा ज्ञान और वैराग्य की ओर अग्रसर होने लगता है । संसार के कारणों के प्रति उसका अनुराग कम हो जाता है, उसे हेय उपादेय का यथार्थं बोध हो जाता है, वह हैय का परित्याग करने और उपादेय को ग्रहण करने का प्रयत्न करने लगता है। उसका विवेक ज्ञान उसे विषय में प्रवृत्त नहीं होने देता। और वह भेद विज्ञानी हुआ कर्मबन्धन को कड़ियों को काटने के लिये कटिबद्ध हो जाता है । धन, समाज, हाथी, घोड़ा, राजवैभव और कुटुम्ब परिवार आदि से उसे मोह नहीं होता, क्योंकि वह उन्हें आत्मा से भिन्न पर पदार्थ मानता है। उसकी दृष्टि स्वरूप साधिका होती है । वह भेद विज्ञान को परम हितकारी मानता है और उसके प्रशान्तरस में वह इतना संलग्न हो जाता है कि उसकी दृष्टि सांसारिक कार्यों की ओर नहीं जाती । इन्द्रिय विषयों में भी उसकी प्रवृत्ति नहीं होती । यदि कदाचित् उनमें प्रवृत्ति हो भी जाय तो उसे वेदना का इलाज मात्र मानता है, वह उनमें आसक्त नहीं होता, क्योंकि उसके ज्ञान और वैराग्य की झलक होती है वह उन्हें कर्मोदय का विकार मात्र समझना है। अतएव वह शीघ्र ही अपने स्वरूप की ओर दृष्टिपात करने के लिए तत्पर हो जाता है। जो वस्तु पहृत हो जाती है, नष्ट हो जाती है, छिपा ली जाती है अथवा गिर जाती है, उसे याद कर वह कभी दिलगीर नहीं होता और न विभूति के समागम से हर्षित ही होता है। आगामी काल को उसे कभी चिन्ता नहीं होती । वह वर्तमान में विवेकपूर्वक प्रवृत्ति करना अपना कर्तव्य मानता है। बुद्धिपूर्वक सो वह रागादि में प्रवृत्ति नहीं करता। यदि उनमें कदाचित प्रवृत्ति हो जाय तो वह गर्हा, निन्दा, मालोचना यदि द्वारा उसका प्रतिकार करने का प्रयत्न करता है, और भविष्य में ऐसी प्रवृत्ति न हो, इसके लिये यह सावधानी रखता है, क्योंकि कथायों की मन्दता और विवेकशान की जागृति उसे निरन्तर श्रात्मनिरीक्षण करने के लिये प्रेरित करती रहती है । श्रतएव वह सदा सावधान रहता है। सम्यग्ज्ञान के सिवाय उसे कोई दूसरा पदार्थ हितकारी नहीं प्रतीत होता । यद्यपि कषाय का for प्रत्मघाति है, और संसार वर्धक है, इसीलिए ज्ञानी उनमें प्रवृति करने से कतराता रहता है। उसकी दृष्टि में ज्ञान मूल्य पदार्थ है जो उसे निरन्तर श्रात्महित में प्रवृत्ति करने की निर्भत्र दृष्टि देता है और विवेक उसे ज्ञान में प्रवृत्त नहीं होने देता । ज्ञान ही परमामृत है वह जन्म जरा और मरणरूप रोगों का विनाश करता है। जिनने संसार का अन्त कर सिद्ध पद प्राप्त किया है। यह सब भेद विज्ञान की महिमा है और जो भागे शिवपद प्राप्त करेंगे वह सब भेद विज्ञान से ही प्राप्त करेंगे। इससे सम्यग्ज्ञान की महत्ता का स्पष्ट बोध होता है। अज्ञानी जीव के करोड़ों वर्ष तपश्चरण करने पर जितने कर्म झड़ते हैं उतने कर्म सम्यग्ज्ञानी के मन, वचन, काय की त्रिगुप्ति से क्षणमात्र में सहज ही दूर हो जाते हैं । अतएव सम्यग्ज्ञान उपादेय है । Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार ग्रंथ वह सम्यग्ज्ञान पांच प्रकार है-मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, प्रवधिज्ञान, मनः पयज्ञान और केवलज्ञान पांच इन्द्रिय और मन की सहायता से जो पदार्थ माना जाता है उसे मतिज्ञात कहते हैं। इसके अनेक भेद हैं-मतिकशान-से जाने हुए पदार्थ से विशेष जानने को श्रुतज्ञान कहते हैं। श्रुतज्ञान भी मनेक प्रकार का है। द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की मर्यादा लेकर रूपी पदार्थ को स्पष्ट जानना अवधिज्ञान है। अवधिज्ञानावरण के सर्वघाती स्पर्धकों के उदयाभावी क्षय और अनुदय को प्राप्त इन्हीं का सदवस्था रूप उपशम इन दोनों के निमित्त से जो होता वह क्षयोपशमनिमित्तक प्रधिज्ञान है। यह मनुष्य तिर्यन्चों के होता है भव निमित्तक अवधिज्ञान देव नारकियों और छमस्थ तीर्थंकर भगवान के होता है। क्षयोपशम निमित्तक अवधिज्ञान पर्याप्त मनुष्य और संजी पंचेन्द्रिय तिर्यचों के होता है। इसके छह भेद हैं-यह अवधिज्ञान भव से भवांतर, क्षेत्र से क्षेत्रान्तर चला जाता है। कोई अवधिज्ञान बढ़ता है, कोई घटता है, कोई ज्यों का त्यों अवस्थित रहता है और कोई नहीं रहता। ___ अवधिज्ञान के तीन भेद हैं--देशावधि, परमावधि और सविधि । इनमें देशावधि मनुष्य, तिर्यचों के होता है। परमावधि उत्कृष्ट चरितवाले संयत मनुष्यों के होता है। यह ज्ञान बर्धमान और अप्रतिपाती है, अवस्थित है। पर्याय में क्षेत्रान्तार में साथ जाने से अनुगामो भी है। सर्वावधि ज्ञान उत्कृष्ट संयमी मुनि के होता है, यह न वर्धमान है न हीयमान, न अनवस्थित मोर न प्रतिपाती है, केवल शान होने तक अवस्थित रहता है, अप्रतिपाती है। वीर्यान्तराय और मनः पर्यय ज्ञानावरण का क्षयोपशम होने पर पंचेन्द्रिय और मन की सहायता के बिना द्रव्य, क्षेत्र, काल भाव की मर्यादा लिए हुए दूसरे के मन में स्थित पदार्थ को जानता है। इसके दो भेद हैं- ऋजुमति और विपुलमति । ऋजुमति मनःपर्यय मन, वचन और काय की सरलता से अन्य के मन में स्थित पदार्थ को किसी के पूछे या विना पूछे ही जानता है किन्तु विपुलति मनःपर्ययज्ञान मन, वचन, काय की सरलता का या वक्रता रूप चिन्तित अचिन्तित और अर्धचिन्तित पदार्थों को प्रत्यक्ष रूप से जानता है। यह जघन्य रूप से सात-आठ भव की बात और उत्कृष्टता से पैंतालीस लाख योजन प्रमाण ढाई द्वीप में स्थित पदार्थों को जानता है । जीव के सुख-दुख, जीवन-मरण, और लाभ-अलाभ को भी जानता है। चिताएं चिताए प्रचिताएं विविहभेमेयगयं । जै जाणह परलोए त चिय मणपज्जयं णाणं । तिलो०प०९७३ 1 केवलज्ञान--धातिया कर्म के क्षय से होने वाला केवलज्ञान त्रिकालवर्ती विषयभूत समस्त द्रव्य पौर पर्यायों को एक साथ युगपत् जानता है। इसमें इन्द्रिय क्रम का विधान नहीं रहता, यह ज्ञान असहाय मनन्तचतुष्टय से सम्पन्न है । कहा भी है असवत्त सयलभावं लोपालोऐसु तिमिर परिचत्तं । केवलमखंडभेदं केवलणाण भणति जिणा ॥६७४ । इस तरह सम्यग्शान जीव का महान उपकारी है, वह उसकी यज्ञानता को हटाता है और हित में लगाता है। सम्याचारित्र मोह तिगिरापहरणे वर्शनलाभाववाप्त संज्ञानः । राग-द्वेष-निवृत्य परणं प्रतिपद्यते साधुः ।। रत्न क० । Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ णमोकार ग्रंथ मोहरूपी अंधकार के नष्ट होने पर सम्यग्दर्शन के लाभ से सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति हो गई है ऐसे सम्यग्दृष्टि पुरुष को चारित्र धारण करना चाहिए। पाप से निवृत्ति और पात्मस्वरूप में प्रवृत्ति का. नाम सम्यक् चारित्र है। वह दो प्रकार है। निश्चय चारित्र और व्यवहार चारित्र। संसार के पर पदार्थों से रागद्वेष रूप प्रवृति का परित्याग कर प्रारमा के शुद्ध स्वरूप में लीन होना निश्चय सम्यक्चारित्र हिंसा, झूठ, चोरी, और परिग्रह कुशील । पंच पापों का और इनके साधक कारणों का त्याग करना व्यवहार सम्यक्चरित्र है सम्यग्दर्शन से पहले जो चारित्र होता है वह सब मिथ्या है । व्यवहार चारित्र के पालन से निश्चय चारित्र की प्राप्ति होती है। साधक की प्रथम अवस्था में निश्चय साध्य और व्यवहार साधक है। प्रात्म स्वरूप में स्थित का नामनिश्चय चारित्र है, चारित्र की पूर्णता से मुक्ति होती है । चारित्र की बड़ी महत्ता है । इस चारित्र के प्रभाव से जाति विरोधी जीव भी अपना बर-विरोध छोड़ देते हैं। इन्द्रादिक पूजा करते हैं। चारित्र के प्रभाव से ही सौधर्मादिक स्त्रों में इन्द्र पद प्राप्त करते हैं और वहां से च्युत होकर चक्रवर्ती की विभूति प्राप्त करते और दीक्षित होकर तपश्चरण द्वारा कर्म-काष्ठ को जलाकर केवल ज्ञान प्राप्त करते हैं पश्चात अघाति कर्मनाश कर अविचल अविनाशी सुख प्राप्त करते हैं। ऐसा चारित्र रूपी रत्न जीवों के चित्त में निरन्तर प्रकाश करे. जैसाकि निम्न पद्य से प्रकट है घेनान्योन्य-विरोध-वेरि-विस्टजा शकादि पूजाकृता, सोधर्माधिप चक्रपूर्वक पर्व श्रीमुक्ति शर्मामृतम् । पायं पाप मापदरमाचलं भव्याधियं प्राप्यते। तदच्चारू-चरित्र-रत्नमनिशंश्योतिता चेतसि ॥६॥ चारित्र के दो भेद हैं - सकलचारित्र और विकलचारित्र । सकलचारित्र के धारक मुनि होते है, और विकलचारित्र गृहस्थों के होता है। जो जीव अन्तर्वाह्य परिग्रह का त्याग कर जिनेश्वरी दीक्षा अंगीकार करते और अहिंसादि २८ भूनगुणों का निर्दोष रूप से पालन करते हुए पंच महाव्रत, पंच समिति और तीन गुप्ति रूप तेरह प्रकार के चारित्र का पालन करते हैं, और अनशनादि द्वादश तपश्चरणों द्वारा प्रात्मा का शोधन करते हैं तथा उपसर्ग परिषहों के आने पर सुदढ़ रहते हैं.-गड़बड़ाते नहीं हैं, प्रत्युत अपने चिदानन्द स्वरूप में तन्मय रहते हैं । स्वात्मसंवित्ति में मग्न रहते हुए परबस्तु में उन का अणुमात्र भी राग नहीं होता, समितियों का पालन करते हुए वे बहुत सावधान रहते हैं, और गुप्तियों में संलग्न रहने का निरन्तर प्रयत्न करते रहते हैं। जब वे गुप्तियों के पालन में असमर्थ होजाते हैं तब यत्नाचार पूर्वक समितियों में प्रवृत होते हैं। इस तरह वे श्रमण धर्म का यथार्थ रीति से पालन करते हैं। कभी स्वरूपाचरण चारित्र में प्रवृत्त होते हैं और कभी ध्यान अध्यनादि में निमग्न रहते हैं। वे तपश्चरण रूप अग्नि से कर्मरूपी ईधन को जलाकर, केवलज्ञानी वन स्वात्मसुख को प्राप्त करते हैं, और परम पद में स्थित हो जाते हैं तथा अनन्तकाल तक वहां चिदानन्द स्वरूप में मग्न रहते हैं। जो गृहस्थ हिंसादि पंच पापों का एक देश परित्याग कर अणुव्रतादि द्वादश ब्रतों का अनुष्ठान करते हैं वे विकलचारियो गृहस्थ कहलाते है । वे अपने पद में रहते हुए उसका निर्भय होकर पालन करते है और मन्द कार्यों के द्वारा पुण्य का संवर्धन करते हैं । वे विकलचारित्र के धारक गृहस्थ हैं, जिन्हें देशव्रती भी कहा जाता है । श्रावक तीन प्रकार के होते हैं-पाक्षिक, नैष्ठिक और साधक ! जिन्हें जैनधर्म की पक्ष होती है वे पाक्षिक कहलाते हैं जो अतिचार सहित मूलगुणों का और अणुव्रतों का पालन करता है, जिन पूजन Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार ग्रंथ में अनुराग रखता है और व्रतों के धारण करने की इच्छा करता है वह पाक्षिक श्रावक कहलाता है। जो अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ का क्षयोपशम होने से दर्शन, व्रतादि एकादश प्रतिमाओं का अनुष्ठान करता है। वह नैष्ठिक धावक कहलाता है, वह निष्ठा से प्रतिमानों का निर्दोष रीति से पालन करता हुआ परिणामों को स्वच्छ रखने का प्रयत्न करता है, और भावशुद्धि के द्वारा प्रागे बढ़ता रहता है। उसमें अतिचार अनाचार नहीं लगने देता। इन प्रतिमाओं में से पहली दर्शनादि छह प्रतिमाओं का पालक जघन्य धावक कहलाता है और सातवीं से हवीं मध्यम श्रावक, और अन्तिम दो प्रतिमानों का धारक उत्तम श्रावक कहलाता है। यह श्रावक अपनी भावविशुद्धि द्वारा सांसारिक देह-भोगों से उदासीन रहता है. और ऐलक तथा क्षुल्लक पद में रहते हुये लंगोटी का भी त्याग करने के लिए उत्कंठित रहता है। तीसरा पद साधक श्रावक का है: जो अपनी प्रात्मरक्षा का साधन करता है । जो व्रती श्रावक देह-भोगों से विरक्त हो पाहारादि का त्यागकर ध्यान शुद्धि द्वारा आत्मा का शोधन करता है और मरण के अन्तिम समय में प्रातै रौद्र प्रादि संक्लेश परिणामों का परित्याग करते हुए अपने शुद्ध चैतन्य रूप का ध्यान करता है। और संल्लेखना या समाधि द्वारा शुभ भावों से शरीर का विधिपूर्वक त्याग करता है। इस तरह रत्नत्रय प्रात्मा की अमूल्य निधि है, और उसके पालन द्वारा मात्मा कर्म-कलंक से मक्त होकर प्रात्मानन्द में निमग्न हो जाता है । अतः इस रत्नत्रय की सदेव आराधना करनी चाहिए। परमानन्द जैन शास्त्री ६५ जवाहरपार्क लक्ष्मीनगर दिल्ली-११००५१ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RESE चत्तारि मंगलं- अरिहंता मंगल, सिद्धा मंगलं, साहू मंगलं, केवलिंपन्नत्तो धम्मो मंगल॥ ___ चत्तारि लोगुत्तमा - अरिहंता लोगुत्तमा, सिद्धा भोल्गुत्तमा, ICE साहू लोगुत्तमा, केवलिपन्नत्तो धम्मो लोगुत्तमो॥ चत्तारि सरणं पवज्जामि अरिहंते सरणं पवज्जामि, सिद्ध सरणे पयज्जामि, माह्मरणं पयज्जामि. HYA केवलियनतं धम्म सरणं पपज्जामि॥ TI .. . गिल 4A Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय मंगलाचरण श्री अरहन्त भगवान गुणवर्णन आठ मंद नाम, कारण सास प्रकार भय छयालीस गुणों का वर्णन जिनेन्द्र देव के १००८ लक्षण दस अतिशय देव कृत चौदह अतिशय आठ मंगल द्रव्य माठ प्रातिहार्य अनंत चतुष्टय जिन भगवान् के १००८ नाम प्राचार्य के गुणों का वर्णन षडावश्यक नाम उपाध्याय के गुणों का वर्णन ग्यारह अंग नाम ग्यारह अंग वर्णन बारह प्रकार की भाषा दस प्रकार का सत्य साधु परमेष्ठी का वर्णन पंच महाव्रत पंच समिति छयालीस दोष बत्तीस अन्तराय चौदह मलदोष पंचेन्द्रिय निरोध षट प्रावश्यक ऋक्षियों का वर्णन णमोकार ग्रंथ विषय-सूची पृष्ठ १ १ ५. ८ १० १२ ११ विषय रत्नत्रयनाम द्वितीय अधिकार ७३ ७३ ७४ ७७ ७८ ५० 50 सम्यग्दर्शन का वर्णन जीवतत्व का वर्णन ६० ८१ ८२ ८३ ८३ ८३ ८५ उपयोग अधिकार वर्णन श्रमूर्तिक कर्ता २० ६५ धर्म द्रव्य ७२ भोक्ता }} १५ स्वदेह परिणामत्व १६ संसारत्व १६ सिद्धत्व १८ उर्ध्वगतित्व satta द्रव्य वर्णन 17 अधर्म द्रव्य आकाश द्रव्य 17 יז 75 "P काल द्रव्य सात सत्य वर्णन षोडस भावना दस धर्मं वर्णन " ty 23 द्वादश मनुप्रेक्षा बाईस परिषह पांच प्रकार का चारित्र तप के भेद सम्यवश्व के माठ अंग सम्पज्ञान वर्णन सम्यक्चारित्र वर्णन श्रावक की तिरेपन क्रिया पाक्षिक श्रावक वर्णन पृष्ठ ८६ £0 ६१ શ્ १२ ६२ ६३ १४ * ६५ २६ ६६ ६६ ६६ ६७ १०३ ११५ G १२० १२२ १२४ १२६ १६३ ૧૭ १६६ te Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + २२ विषय आठ मूल गुण जीवदया वर्णन सप्त व्यसन वर्णन नैष्ठिक श्रावक वर्णन ग्यारह प्रतिमाओं का वर्णन साधक श्रावक वर्णन लोक स्वरूप वर्णन धोलोक वर्णन मध्यलोक वर्णन कल्पकाल वर्णन चौबीस तीर्थकर ऋषभदेव जी प्रजित नाथ जी संभवनाथ जी अभिनंदननाथ जी सुमतिनाथ जी पद्मप्रभु जी सुपार्श्वनाथ जी चन्द्रप्रभु जी पुष्पदन्त जी शीतलनाथ जी श्रेयान्सनाथ जी वासुपूज्य जी विमलनाथ जी मनन्तनाथ जी $ पृष्ठ १६६ १७६ १८६ २३० २३६ २४६ २४६ २४६ २५६ २५८ २६२ २६६ २७० २५१ २७२ २७२ २७३ २७४ २७४ २७५ २७६ २७७ २७८ २७८ विषय धर्मनाथ जी शान्तिनाथ जो कुंथुनाथ जी अरहनाथ जी मल्लिनाथ जी मुनिसुव्रतनाथ जी नमिनाथ जी नेमिनाथ जी पार्श्वनाथ जी सम्मेद शिखर वर्णन महावीर स्वामी द्वादश चक्रवर्ती नव नारायण वलभद्र प्रतिनारायण नव नारद रुद्र वर्णन चौबीस कामदेव अकलंकदेव चरित्र कुंद कुंद आचार्य वर्णन उर्ध्वलोक वर्णन छह लेश्या श्रीपाल चरित्र णमोकार पूजा णमोकार प्रत्य पृष्ठ २७६ २८० २५१ २८२ २८६ २५३ २८४ २८५ २६० ३०४ ३०५ ३०८ ३१४ ३१५ ३१६ ३१७ ३१७ ३१८ ३२५ ३३२ ३४३ ३५५ ३६८ ३६६ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार प्रन्य णमो अरहन्ताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आइरियाणं । णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्व साहूणं ॥ ऐसो पंच णमोकारो, सव्व पावप्पणासणो । मंगलाणं च सम्वेसि, पदम हवइ मंगलं ।। प्रातकाल मंत्र जपो णमोकार भाई, अक्षर पैतीस शुद्ध हृदय में धराई । नर भव तेरो सुफल होत पातक टरजाई, विघन जासों दर होत संकट में सहाई ॥१॥ कल्पवृक्ष कामधेनु चिन्तामणि जाई, | ऋद्धि सिद्धि पारस तेरो प्रगटाई ॥२॥ मंत्र जंत्र तंत्र सब जाही से बनाई, सम्पति भण्डार भरे अक्षय निधि आई ॥३॥ तीन लोक मांहि सार वेदन में गाई, जगत में प्रसिद्ध धन्य मंगलीक भाई ॥४॥ -चौलतराम Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ H HIRALE COM JLAMAU N AVI 177 णमोकार मन्त्र SSS णमो अरिहन्तार णमो सिद्धाणं एमो पाइरियाण णमो उबझापा पभो लोए सम्म साहूर्ण । SAIRS ALtd l er 'Mil RECardiksha ANA.xnxNXSHRADIRAKA FOKSAKA AAAAM Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार ग्रंथ मंगलाचरण आकृष्टि सुर संपदांविषधते मुक्ति श्रियो वश्यता, उच्चाट विपदा चतुर्मतिभुवां विद्वेषमात्मनसाम् । स्तंभं दुर्गमनं प्रति प्रयततो मोहस्य संमोहनम्, पायात्पंच नमस्क्रियाक्षरमयी साराधना देवता ॥ णमो अरहताणं । णमो सिखाणं । णमो आइरियाणं । णमो उवज्झायाणं । णमो लोए सव्व साहूणं । णमो प्ररहताण-प्ररहत भगवान् को मेरा नमस्कार हो। णमो सिद्धाणं-सिद्ध भगवान् को मेरा नमस्कार हो। णमो पाइरियाण-प्राचार्यों को मेरा नमस्कार हो।। मो उवज्झायाण-उपाध्यायों को मेरा नमस्कार हो । णमो लोए सध्व साहूर्ण-लोक में जितने साधु हैं उन सबको मेरा नमस्कार हो। इस प्रकार भगवान् पंच परमेष्ठी को नमस्कार कर मागे उनके गुणों का पृथक्-पृथक् वर्णन किया जाता है। अथ ऋमागत भी परहन्त भगवान् गुण वर्णन कैसे हैं वे परहन्त भगवान् ? ये अष्टादश दोष रहित एवं छियालोस गुण सहित है। अष्टावश दोष कौन से हैं ? Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार प्रन्य रत्नकरण्डश्रावकाचारोक्तं श्लोकम् क्षत्पिपासाजरातंक, जन्मांतक भयस्मया। न राग द्वेष मोहाइच, यस्याप्ताः स प्रकीत्यतं ॥धा पुनश्च दोहा जनम जरा तिरषा क्षुधा, विस्मय प्रारत खेद । रोग शोक मन मोह भय, निद्रा चिता स्वेद ॥१॥ राग द्वेष अरु मरण जुत, ये अष्टादश दोष । नाहि होत प्ररहन्त के, सो छवि सायक मोष ॥२॥ प्ररहल भगवान के (१) जन्म, (२) जरा, (३) तृषा, (४) क्षुधा, (५) विस्मय, (६) अरति, (७) खेद, (८) रोग, (६) मोक, (१०) मद, (११) मोह, (१२) भय, (१३) निद्रा, (१४) चिंता, (१५) स्वेद, (१६) राग, (१७) द्वेष और (१८) मरण । ये अठारह क्षोप नहीं होते हैं। भावार्थ-सत्यार्थ देव के ये अठारह दोष नहीं होते हैं । ये अठारह दोष सन्म ही संसारी जीवों को लगे हुए हैं और जो यह दोष देव में भी हों तो वह देव काहे का । अन्न: सध्यार्थ देव अर्थात् ईश्वर उपरोक्त अष्टादश दोष रहित है। यथार्थ में विचार किया जाए तो प्राप्तता जो पूर्वोक्त दोप रहित और जन्मातिशय आदि गुण युक्र हो उस ही के सम्भव है और जो राग द्वेष सहित देव हैं वे कहने मात्र के ही देव हैं । दोषों में प्रथम दोष जन्म दोष कहा है। (१) जन्म दोष---उसके दुःख प्रत्यक्ष दीखते हैं। कैसा है जन्म दोष ? माता का रुधिर और पिता का वीयं -इन दोनों के सम्बन्ध विशेष से इस शरीर की उत्पत्ति होती है। और माता जो पाहार करती है उसके रस से यह वृद्धि को प्राप्त होता है। कारागार के समान उदर में नव मास पर्यन्त दुःख भोग कर इसका निकलना होता है। कारागार में तो चारों ओर से पवन और और भी नाना प्रकार के चरित्र देखने में पाते हैं और सीमा के मध्य हस्तपाद प्रादि अंगों का यथेच्छित हिलाना-डुलाना हो सकता है, परन्तु उदर रूपी कारागार के मध्य हस्त, पाद, ग्रीवा प्रादि के संकुचित रूप से बहुत दुःख से रहना होता है। कारागार में तो रहने की जगह भी मलमूत्र आदि से दुर्गन्ध रहित निर्मल होती है, पर उदर रूपी कारागार के मध्य मल-मूत्र प्रादि की दुर्गन्ध तथा बाल के समान मांस और रुधिर से ब्याप्त एक प्रकार की थैली के मध्य रहना होता है। वहरि नव मास पूर्ण होने पर प्रत्यन्त दुस्सह कष्ट के साथ बाहर निकलता है। पुनः विचार करो कि बालपने में कैसी-कैसी असाध्य बाधाएँ सहन करनी पड़ती हैं। ऐसा जन्म रूप दोष यथार्थ तत्त्व प्ररूपा सत्यार्थ देव प्राप्त के नहीं होता है। (२) जरा दोष-जरा अर्थात् बुढापे के आने पर कुन्द के पुष्प के समान श्वेत दशनावलि अर्थात् दांतों की पंक्ति तो रहती ही नहीं। जैसे कृतघ्नी अपना कार्य सिद्ध होने के पश्चात् दूर हो जाता है वैसे ही दौत भी कृतघ्नी के समान दूर हो जाते हैं और हाड़ों की सधियाँ ढीली हो जाती है। मानों देह बुढ़ापे को प्राता देखकर भय मानकर कोपती है और काया रूपी नगरी ऐसी दीखती है मानों जरा रूपी तस्कर द्वारा लूट ली गई हो अतः वह पहचान में नहीं पाती है । बालों का रंग पलट जाता है और वे श्वेत हो जाते हैं । शरद ऋतु में जैसे फले हए डाभ (कांस) वर्षा ऋतु का बुढ़ापा प्रगट करते हैं वैसे ही Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार पंथ ये केश भी मानों बुढ़ापा प्रगट करते हैं । शरीर अनेक प्रकार के रोगों से ग्रसित हो जाता है और परिणाम भी चंचल हो जाते हैं। रोगावस्था में वैसे ही अपने प्राण समान प्रिय पुत्र भी जब निकट नहीं पाते हैं जैसे दुष्ट मित्र नापत्ति के समय पास नहीं पाते हैं, तब अन्य कुटम्नी जनों की क्या बात? सब ही अपने अपने स्वार्थ के सगे हैं निज स्वार्थ के बिना कोई भी किसी का प्रिय नहीं । जैसे नीतिकार ने कहा भी है। शार्दूल छन्द वृक्ष क्षीण फलं त्यजन्ति विहगाः, वग्धं बनान्तं मृगाः । पुष्पं पीत रसं त्यजन्ति मधुपाः, शुष्क सरः सारसाः ॥ निन्न व्यं पुरुषं त्यजन्ति गणिका, भृष्ट नपं मंत्रिणः । सर्वः कार्य वशाज्जनोभिरमते, कः कस्य ने वल्लभः ।। अर्थ-जिस प्रकार विग अर्थात् पक्षी वृक्ष के फलहीन होने पर, मृग हरी दूब बाले वन के भन्म होने पर, मधुप अर्थात् भौरे पुष्प के रस पान कर लेने पर, सारस सरोवर के जल रहित होने पर, गणिका अर्थात् वेश्या पुरुष के द्रव्यहीन होने पर, और मंत्री राजा के राज्य भ्रष्ट होने पर त्याग कर देते हैं उसी प्रकार कुटुम्बी जन भी अपने-अपने कार्य के वशीभूत होने पर उससे प्रेम भरा वार्तालाप करते हैं और उसे अपना वल्लभ अर्थात् प्यारा समझते हैं। अपना प्रयोजन सिद्ध होने पर अथवा आपत्ति आई जानकर तत्समय ही उससे पृथक हो जाते हैं। अतः निष्पक्ष सिद्ध हुअा कि 'सव ही अपने अपने कार्य की सिद्धि के लिए दूसरे की सेवा सुश्रूषा करते हैं, पर के लिए कोई नहीं।' बुढ़ापा आने पर श्रोत्रेन्द्रिय की शक्ति भी न्यून हो जाती है अत: वह अब सुन नहीं पाती है। जठराग्नि भी जरा के मागमन से मन्द हो जाती है अतः परिणाम स्वरूप क्षुधा भी न्यून हो जाती है । क्षुधा के न्यून होने से शरीर की शक्ति घट जाती है अत: चाल अटपटी हो जाती है और नेत्रों की ज्योति कम हो जाती है । मस्स के द्वारा दूसरों को ग्लानि उपजाने वाला कफ झरने लग जाता है और शरीर इतना पराक्रमहीन हो जाता है कि अपने तन के वस्त्रों की भी सुध नहीं रहती तो और बात का क्या कहना? ऐसा दुःखदाई जरा रूप दूसरा दोष भी सत्यार्थ मार्ग के प्रवतंक सकल परमात्मा ईश्वर के नहीं होता है प्रतः ऐसे निर्दोष ईश्वर को मेरा नमस्कार हो । (३) तृषा अर्थात् प्यास दोष-कैसा है यह दोष? इसके होते ही समस्त संसारी जीव व्याकुल हो जाते हैं और जब तक प्यास शमन नहीं हो जाती तब तक निराकुलता नहीं होती है। ऐसा तीसरा तृषा दोष भी सर्वत्र हितोपदेशी सकल परमात्मा ईश्वर के नहीं होता। ऐसे निर्दोष ईश्वर को बारम्बार नमस्कार हो । (४) क्षुधा दोष-कैसा है यह दोष ? इसके वश में होकर ब्रह्मा, विष्णु, महेश प्रादि ने इन में फल भक्षण कर इस क्षुधा रूपी पिशाचिनी को आहार रूप वलि देकर शान्त किया। और कैसी है यह क्षुधा ? जिस समय चौथे काल के आदि में उत्पन्न होने वाले चौदहवें कुलकर नाभिराय के नन्दन धर्मतीर्थ के प्रवर्तक तीर्थंकर आदिनाथ भगवान नीलांजना अप्सरा को नृत्य करते हुए देखकर वैराग्य को प्राप्त हुए और सुरेन्द्रादि द्वारा पालकी चढ़ वन को गए एवं केशलोंच कर षट मास पर्यन्त आहार का निरोध किया। उस समय उनके संग अनेक राजाओं ने राज्य : त्याग कर मोक्ष की इच्छा से तप धारण किया। पर कुछ समय पश्चात् क्षुषा रूपी पिशाचिनी कृत उपसगं को न सह सकने पर, व्याकुल होकर भरत चक्रवर्ती के भय से स्व स्थान को न जाकर वन में प्राप्त वृक्ष प्रादि के फलों से क्षुषा Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार ग्रंथ शान्त कर, वृक्षों के बक्कल तथा गेरू प्रादि से रंगे दाहारण कर उन्होंने पानंद काल संसार में परिभ्रमण कराने वाले तीन कर्म का बंध किया। इस क्षुधा के वशीभूत होकर संसार के समस्त प्राणी व्याकुल होकर अच्छे बुरे का ज्ञान खो देते हैं । और जैसे भी बन सके योग्य, अयोग्य कार्य करके अपनी क्षुधा को शान्त करने के लिये पाहार उपार्जन करने का प्रयत्न करते हैं । और कैसी है यह क्षुधा ? इसके वश होकर मनुष्य अपने प्राणों के समान प्रिय इष्ट स्त्री, पुत्र प्रादि को तज देश देशान्तर में प्रति गमन करते हैं। इसके निमित्त मनुष्य चोरी करते हैं और झूठ बोलते हैं । पर जीवन का घात करते हैं और यदि देवयोग से पकड़े जाएँ तो राजारों के द्वारा अनेक प्रकार के खोटे-खोटे दण्ड पाते हैं, पिटते हैं और दुष्ट वचन सहते हैं। किसी कवि ने सत्य कहा है : छप्पय मूख बुरी संसार में, भूख सबही गुण खोये। भूख बुरी संसार, भूख सब को मुख जोवे ।। भूख बुरी संसार में, भूख कुल काण घटावे। मुख सूरी संसार, मुख प्रावर नहि पावे।। भूख गमाघे लाज, पति भूषण कार में। मन रहस मनोहर इम कहें, मुख बुरी संसार में ।। अर्थ सुगम है। ऐसा क्षुधा रूपी चौथा दोष भी सकल परमात्मा अरिहन्त भगवान् के नहीं होता। उन्हें मेरा बारम्बार नमस्कार हो। (x) विस्मय दोष- कैसा है यह दोष? इसके होते हुए जीवों के तन, मन, वचन सब काँप जाते हैं। भावार्थ-विस्मय नाम आश्चर्य तथा अचम्भे का है सो मोश्चर्यकारी वार्ता के श्रवण करने से विद्या, बल, ऐश्वर्य, व्रत, संयम प्रादि सब ही को बिसराकर चेतनात्मा डावांडोल हो जाती है। ऐसा विस्मय नामक पंचम दोष महन्त अर्थात, सकल परमात्मा के नहीं होता है। उन परहंत के चरण-कमल मेरे हृदय में बसें। (६) प्रति शेष- यह दोष भी महन्त के नहीं होता है। पूर्व जिस इष्ट वस्तु के लिए उत्सुकता तथा मासक्ति थी उसका वियोग होने से उसका बारम्बार चितवन करना परति दोष है । कैसा है यह दोष ? यह ब्रह्मा, विष्णु, और शिव तीनों के गभित है। भावार्थ-ब्राह्मा उर्वशी जाति की तिलोत्तमासुरी के राग से प्रति भाव प्राप्त होकर दुःख को प्राप्त हुए। इस कारण से ब्रह्मा में परति दोष विद्यमान है मत: वे दुःखी हैं । कृष्ण महाराज का ग्वालिनियों के साथ रतिभाष या प्रतः जब ग्वालिनियां छिप जाती थी तब वे प्रति भाव को प्राप्त होकर व्याकुल हो बखित हो जाते थे अतः इस कारण से कृष्ण महाराज दःखी हए और शिवजी पार्वती के वियोग से परति भाव को प्राप्त होकर दुःखी होते ये पतः ईश्वरत्व भाव न होने से नाम मात्र ईश्वर कहलाते हैं 1 ईश्वर तो वही है जिसके परति दोष नहीं होता। ऐसा दुःखदायक परति नामक दोष सकल परमात्मा महन्त के नहीं होता। उनको मैं हस्त मस्तक पर धारण कर और मस्तक को पृथ्वी से लगाकर नमस्कार करता हूं। .. (७) बमोष-खेद प्रति दुःख, कैसा है वह दुःख ? इसका नाम ही सुनकर जीव भय-भीत हो जाते हैं। यह दुःख संसारी जीव के ही होता है । मोर संसार नाम वार-बार जन्म धारण करने का है। Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार अंथ भावार्थ-वार-बार अबतार लेना ही संसार है । विष्णु महाराज ने बार-बार परतार धारण किया है पत: वे दुःखी हैं । परन्तु सकल परमात्मा प्रहन्त के दुःख रंचमात्र भी नहीं । दुःख के बीजभूत जो दोष हैं वे स्वप्न में भी उनके पास नहीं पाते हैं प्रतः उन्हें मेरा बारम्बार नमस्कार हो। (८) रोग दोष --कैसा है यह दोष ? इसके होते हुए जीव की घेष्टा प्रति ही व्याकुम रूप हो जाती है और वह सुध-बुध रहित हो जाता है। यह रोग नामक दोष भी शिवजी के था तब व्याकुल होकर धतूरा खाकर उन्होंने रोग शान्त किया। पर यह रोग दोष जिनेन्द्र भगवान के महीं होता। प्रतः उन्हें मेरा बारम्बार नमस्कर हो । (E) शोक दोष-यह दोष भी परहंत के नहीं होता। इष्ट पदार्थों के वियोग होने पर परिणामों में व्याकुलता होना शोक है और सकल परमत्मा प्ररहंत भगवान के सकल पदार्थों में समभाव है अतः उनमें यह दोष भी नहीं है । ऐसे परमात्मा को मेरा बारम्बार नमस्कार हो । (१०) मद अर्थात गर्व दोष--इसे मान भी कहते हैं। कैसा है यह दोष ? यह पर्वत के समान है मान रूपी पर्वत के आश्रय को पाकर जीब अपने आप को भूल जाते हैं और संसार में नीच दिशा को प्राप्त होते हैं । यह मान माठ पदार्थों का प्राश्रय पाकर जीव के हो जाता है। उन अष्ट मद के कारण के नाम इस प्रकार हैं : यथोक्तं रत्नकरण्डश्रावकाचारे श्लोकम् ज्ञानं पूजां कुलं जाति, बलमृद्वितपोवपुः । अष्टावाश्रित्य मानित्वं, स्मयमादुर्गतस्मयाः ॥ अर्थ-शान, पूजा, कुल, जाति, दल, ऋद्धि तप और शरीर की सुन्दरता -इन प्रष्ट पदार्थों के सम्बन्ध से आठ प्रकार का मद हो जाता है। अपनी विद्या का मद--कि मैं बहुत बुद्धिमान हूं, मेरी बुद्धि स्मृति तथा तर्कशक्ति बहुत तीन है। यह ज्ञान मद है। अपनी पूजा अर्थात् प्रतिष्ठा का मद कि मैं सर्वजन प्रतिष्ठित हूं. मुझे सबसे ऊंचा मानते हैं, यह पूजा-मद है । २। अपने कुल का मद है कि जितना ऊंचा मेरा कुल है उतना ऊँचा और किसी का नहीं है सो कुल मद है । ३। "" उच्च जाति का मद कि मैं ब्राह्मण हूं क्षत्रिय हूं वैश्य हूं। मैं तो ऊँची जाति का हूं पोर वह नीच जाति है सो जाति मद है । ४ । बल अर्थात पराक्रम का गर्व कि मैं ऐसा बलवान हूं मेरे समान पोर कोई नहीं । यदि में किसी को एक मुष्टि की चोट लगा दूं तो उसमें ही वह परलोक सिधार जाए। सो बल मर है ।५। अपने तप का मंद कि मैं जैसा तप करता हूं वैसा कोई और तप नहीं कर सकता सो तप मद है। ऋद्धि का मद कि जितना मेरे पास धन तथा ऐयर्य है उतना और किसी के पास नहीं सो ऋद्धि मद हैं।७। बपु अर्थात शरीर की सुन्दरता का मद, कि जैसा मेरा कांतिवान सुन्दर शरीर है ऐसा और किसी का नहीं, सो शरीर के रूप का मद है ।। Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार ग्रंथ ज्ञान मव-इस प्रकार उक्त पाठ पदार्थों का प्राश्रय पाकर मद प्रादुर्भत होता है। इन मदों को अज्ञानी जन ही धारण करते हैं, ज्ञानी नहीं। ज्ञानी विचार करते हैं कि मैं किसका मद करूं? मेरी निज वस्तु अर्थात निजात्मा का स्वभाव जो ज्ञान व दर्शन है वह अभी मुझे प्राप्त हुआ ही नहीं तो जब मेरी हो वस्तु मुझ प्राप्त नहीं तो मैं इन पर वस्तुयों को पाकर कैसा मद करूं? मेरा तो केवल एक ध्येय है - केवल ज्ञान, उस ज्ञान को जानावरणी कर्म ने प्राच्छादित कर दिया है और अब किंचित् ज्ञानावरणी कर्म के क्षयोपशम में किचित् ज्ञान प्राप्त हुआ तो मैं किस बात के लिए मद करूं ? कभी मैंने तिर्यच गति में जाकर जन्म लिया तब अज्ञान में मग्न होकर आत्महित का विचार नहीं किया और कभी थाबर में जा उपजा तो अक्षर के अनन्तवें भाग ज्ञान पाया। जब कुछ सुध-बुध ही नहीं तो आत्महित के विचार का क्या कहना। अब कुछ जाड्य.सस्थिवत (वस्तु) का स्वरूप कुछ तो समझ में पाये और कुछ न आवे । संक्षेप ज्ञान पाकर मद करूंगा तो पुन: नरक निगोद में भटक भटककर अनन्त काल पर्यन्त दुःख पाऊँगा । ऐसा विचार कर ज्ञानी जन शान का मद नहीं करते हैं। ये मद बिष्णु आदि अन्य देवों में पाए जाते हैं परन्तु ये दोष लोकालोक प्रकाशक सकल परमात्मा अर्हन्त के नहीं होते हैं प्रतः उन्हें मेरा बारम्बार नमस्कार हो । (२) प्रतिष्ठामद---इसे भी ज्ञानी जन नहीं करते हैं । ज्ञानी जन विचार करते हैं कि मेरी प्रात्मा शुद्ध स्वरूप तीन जगत द्वारा पूज्य है । और यह ही मेरा आत्म विभाव रूप में परिणमित हो गया है, अतः स्थावर योनि में अनेक पर्याय धारण कर पैसों में बिका है । अतः मैं मद कैसे करूं ? मेरा आत्मा तीन लोक का स्वामी है सो अब मैं नामकर्म की प्रकृति प्रादेयता के क्षयोपशम से इन मनुष्यों द्वारा आदर भाव को प्राप्त हो गया है । यह तो मेरा जब तक पुण्य प्रकृति का उदय है, तब तक मेरा प्रादर सत्कार होता है पुण्य के क्षीण होते ही मेरे पास कोई नहीं पायेगा और अब भी मैं यदि मद कगा तो नरक निगोद में सड़कर बहुत दुःख भोगना पड़ेगा। ऐसा विचार कर ज्ञानी ऐश्वर्य मद (प्रतिष्ठा मद) नहीं करता है। (३) कुलमन । ज्ञानी लोग अपने कुल का मद नहीं करते हैं। कारण कि ज्ञानी ऐसा विचार करते हैं कि यह जो कुछ है सो मेरा नहीं है। सब स्वार्थ के साथी हैं मेरा तो निश्चित कुल चार अनन्त चतुष्टय ही है। वह तो मुझे प्राप्त नहीं हुआ है और जो कोई अब शुभ कर्म के उदय से उत्तम कुल पाया है जब तक मेरा शुभ उदय है तब तक ही यह है तब मैं इस नाशवान कुल का क्या मद करू ? यदि मैं रद करूंगा तो फिर नरक गति में पड़कर अनेक दुःख भोगना पड़ेगा। ऐसा समझकर के ज्ञानी जन कुल का मद नहीं करते हैं। (४) जातिमद-उसको भी ज्ञानी कभी धारण नहीं करते हैं । कारण कि ज्ञानी ऐसा विचार करते हैं । कि मेरी जाति तो केवल सिद्ध पद ही है और ये उच्च जाति को अब मैं प्राप्त हो गया हूं तो जब तक मेरा शुभ कर्म का उदय है तब तक मैं उच्च जाति में हूं। अब जो मैं इस जाति का मद करूंगा तो फिर एकेन्द्रिय, दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चार इन्द्रिय इन नीच जातियों में भटक-भटक कर दुःख भोगना पड़ेगा । ऐसा विचार करके ज्ञानी कभी भी जाति मद नहीं करते हैं। (५) बल मद- ज्ञानी बल मद भी नहीं करते हैं । ज्ञानी विचार करता है कि यह बल मेरे अन्तराय कर्म के क्षयोपशम से प्राप्त हुआ है, सो अब यह बल जब तक मेरा पूर्व पुण्य है तब तक मेरे साय रहेगा। चैतन्य प्रात्मा इसके अन्दर रहता है जब तक बल भी शरीर के अन्दर ठहरता है पीछे वह बल भी नष्ट हो जाता है अब यह बल पाना तो मेरा तब सफलता को प्राप्त हो, जब छ: काय के जीवों Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार च की दया करू: तब ही इसी शरीर बल की सफलता है। विनाशिक बल का मद मैं कैसे करूं, कारण कि यह बल तो रोग के पाते ही घट जाता है इसलिए मैं इस प्रकार शरीर बल की प्राप्ति के बारे में कैसे मद करूं? दूसरे यह बल तो घी, दूध, फल प्राधि भक्षण करने से ही प्राप्त होता है । और यदि घी, दूध, प्रादि पुष्टिकारक पदार्थों का भक्षण न करूं तो-शरीर का पराक्रम आदि सब नष्ट हो जाता है इसलिए विनाशी बल का मद करना व्यर्थ है। मेरा बल तो अनन्त बल है । जब तक वह प्राप्त नहीं है तब तक मद कैसा करूं। ऐसा समझर ज्ञानी बल का मद नहीं करते हैं। (६) ऋद्धि मद -अर्थात् ऐश्वर्य मद-उसका ज्ञानी लोग मद नहीं करते हैं। ज्ञानी लोग ऐसा विचार करते हैं कि यह एश्वर्य तो क्षण भंगुर एवं विनाशीक है । यह तभी तक रहता है जब तक मेरे शुभ कर्म का उदय है। पीछे अशुभ कर्म के उदय होने पर यह रंक कर देता है तथा अनेक प्रकार के दुःख उठाने पड़ते हैं-ऐमा जानकर ज्ञानी लोग धन का मद नहीं करते हैं। (७) तप मद -- ज्ञानी लोग अपने तप का भी मद नहीं करते हैं। कारण कि ज्ञानी ऐसा विचार करते हैं कि मैं तप कहाँ करता हूं? सम्यक्त्व नप तो मुझको अभी तक प्राप्त नहीं ना । जो प्राप्त हो जाता तो अब तक संसार में जन्म-मरण को क्यों प्राप्त होता । इतना दुःख क्यों सहता ? मेरा तप करना तो तभी सफल हो सकता है जबकि मैं दर्शनावरणीय आदि धातिया कर्मों का क्षय करके निज चतुष्टय अर्थात अनन्त दर्शन, अनन्त ज्ञान, अनन्त सुख. अनन्त वीर्य को प्राप्त हो जाऊँ । तब ही मेरा तप करना सफल है और इस क्ष द्रत का जो मैं मकरमा तो पुनः संसार में प्र काल तक नाना प्रकार के दुःखों को मुझे भोगना पड़ेगा। ऐसा विचार करके ज्ञानी जीव तप का मद नहीं करते हैं। (८) शरीर मद-शरीर के प्रति भी ज्ञानी लोग मद नहीं करते हैं । अज्ञानी अर्थात बहिरात्मा जीव ही अपने शरीर का मद करते हैं । ज्ञानी इसके बारे में ऐसा विचार करता है कि यह शरीर अस्थिर, विनाशी, सप्त धातु अर्थात् मांस, रस, अस्थि, रक्त, मज्जा, दा, वीर्य और सात ही उप धातु अर्थात् वात, पित्त, कफ, शिर, स्नायु, चाम और जठराग्नि ऐसे सात से भरे हुऐ घर के समान है, तब ऐसे शरीर का मैं कैसे मद करूं? यह जल के बुलबुले के समान चंचल और विनाशीक है । ज्ञानी जन ऐसा विचार करते हैं कि यह शरीर महादुर्गन्धमय घृणा रूप है जो प्रातः काल के समय सुन्दर दिखता है पौर शाम को इस के अन्दर रोग प्रकट हो जाता है ऐरे रोगमयी शरीर के प्रति कैसा मद करूं? ये शरीर कृतघ्नी सदृश है। भावार्थ-जैसे कृतघ्नी का पोषण करते-करते भी समय पर वह काम नहीं आता है इसीतरह से यह देह भी कृतघ्नी के समान घी, दूध आदि उत्तमोत्तम रस महण करते रहने से भी दुर्बल हो जाता है और यह देह बहुत मूल्यवान सुगन्धित पदार्थ के लगते रहने से भो दुधन्ध रूप हो जाता है अत: ऐसे अवगुण से भरी हुई देह का ज्ञानी कभी भी मद नहीं करते हैं। ज्ञानी ऐसा विचार करते हैं कि मनुष्य देह मुझे बहुत दुर्लभता से प्राप्त हुई है सो यह मनुष्य जन्म और देह का पाना तब ही सार्थक होता है जब इससे मैं तप करूंगा और निज स्थान को पाऊं तब ही यह सार्थक है। अन्यथा मैंने चिन्तामणि रत्न के समान दुर्लभ यह शरीर अनेक बार पाया और जैसे काग रत्न को फेंक देते हैं उसी प्रकार में अनादि काल से इस शरीर रत्न को फेंकता पा रहा हूं और मैंने विषय भोगों में रत होकर दुर्लभ मनुष्य पर्याय को खोया परन्तु मैंने निज स्थान मोक्ष पद को नहीं पाया इसलिए अब भी मैं. उपाय करके संसार से छूटने का यत्न नहीं करूंगा तो बारम्बार मुझे ससार में भटक-भटक कर मनेक प्रकार की नीच योनियों में जाना पड़ेगा और अनेक प्रकार के दुःख भोगने पड़ेगे ऐसा विचार कर Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार प्रेम सानी जीव रंच मात्र भी मद नहीं करते हैं । ऐसा जो मद नाम दसवा दोष है महंत भगवान् में नहीं पाया जाता है। ऐसे प्रहन्त भगवान् के चरण की भक्ति मेरे चित्त में हमेगा बसी रहे। (११) मोह रोष-यह कैसा दोष है ? मोह रूपी दोष जिसके होता है वह प्रचेतन हो जाता है। भावार्य-मोह मदिरा के समान है। जैसे मदिरा पीकर प्राणी बेहोश हो जाता है उसी प्रकार मोह में मग्न होते हुए वह पागल की तरह हो जाता है। दोहाः से मदिरा पान त, सुष पुष सर्व विलाय । से मोह कर्म उवय, जीव गहल हो जाय ॥ सो यह मोह कैसा है ? जब बलदेव, कृष्ण महाराज के प्रचेतन कलेबर को छ: महीने पर्यन्त प्रपने कन्धे पर लेकर भ्रमण करते रहे तो क्षुद्र पुरुष की क्या बात? ऐसा मोह रूपी शत्र प्रहन्त रमात्मा ने ध्यान रूपी खड़ग से जीत लिया है। ऐसे परमात्मा के चरण कमल हमेशा मेरे हदय रुपी सरोवर में वास करें और अर्हन्त की वाणीरूपी किरण से वह कमल सदा काल बिकसित रहे । (१२) भय दोष-कैसा है यह भय दोष? भय नामक दोष के पाते ही जीव मात्र थर थर कापने लग जाता है। जब सुध-बुध भूल जाता है और जान जाता है कि यह भय मरण के लष भ्राता के समान है। भावार्ष-जिस प्रकार मृत्यु से जीव कांपता है उसी प्रकार भय से भी जीव कापता है। यह भय सात प्रकार का है बोहा-इस भव भय, परलोक भय मरन वेदना जानु । अनरक्ष, अनुगुप्ति भय, अकस्मात भय सात ।। अर्यात-१, इह लोक भय, २. परलोक भय , ३, मरण भय, ४. वेदना भय, ५, अरक्षा भय, ६. अनुगुप्ति भय, ७. अकस्मात् भय ये सात प्रकार के भय हैं। यह भय कैसा है ? जिसको भय होता है वह व्याकुल होकर इधर-उधर छिपता रहता है। जैसे कि भय के होते ही महादेव जी नाम मात्र 'स्वयम्भू' नाम धारक भस्मासुर के भय से विष्णु महाराज के सिंहासन के नीचे जाकर छिप गये और कृष्ण महाराज जन्म समय ही कंसराज के भय से मथरा को छोड कर बन्दावन को चले गये और ग्वालिनी यशोदा की पुत्री को कृष्ण के बदले में कंस को सौंपा। तब कंस ने उस कन्या की नासिका को. दबाकर चपटा कर दिया। भावार्थ-नासिका के ऊपर मुष्टिका प्रहार कर देने से नासिका चपटी हो गई । ऐसा जो दामोदर पौरों की बलि देखकर स्वयं बचे तो धन्य है ऐसे ईश्वरपने को! पुन:यशोदा नामक ग्यालिनियों के स्ननसे उत्पन्न दुग्धपान करके कृष्ण वृद्धि को प्राप्त हुए। तत्पश्चात् गायों और भैसों को जाकर घेर लिया और ग्वालिनियों के दधि कोचुराकर खाया । फिर भी उन्हें ईश्वर मानते हैं। ऐसे भोले-भाले जीवों की अज्ञानता को क्या कहें ? ये लोग मिथ्यात्व के अन्धकार में अन्धे हो गये हैं। अब विचारिए कि जिस भय नामक दोष ने धूर्जटी पौर प्रनंग पिता को भी सताया तो अन्य पुरुषों का क्या कहना? ऐसा भय नामक दोष अरहन्त भगवान् सकल परमात्मा के नहीं है, अतः ऐसे सकल परमात्मा हमारी रक्षा करें। Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गमोकार प्रेम (१३) निवा दोष—यह निद्रा कैसी है ? निद्रा के प्रावेश में यह जीव अचेतन होकर गाफिस हो जाता है ऐसी अवस्था में उसे कुछ भी सुध-बुध नहीं रह जाती। सोते हुए को चाहे जो भी कुछ कर डालो उसे खबर नहीं रहती। निद्रा रूपी नशा भी विष्णु महाराज के अन्दर पाया जाता है क्योंकि कालो नाग की पीठरूपी शय्या पर छः माह तक हाथ पांव पसार कर निद्रा में मग्न रहे । उधर षट्मास के वियोग हो जाने से ग्वालिनियाँ दुःखी होकर रोने लगीं। तो विचार कोजिये कि ऐसे ईश्वर का क्या ठिकाना है।? ऐसा निद्रा नामक दोष महन्त सकल परमात्मा में नहीं है सो परम पुरुषोत्तम मेरी रक्षा करें। (१४) चिन्ता दोष-यह दोष कैसा है ? जिसके होते ही जीव के मन में वैचेनी हो जाती है। पुनः यह चिन्ता कसो है ? भस्म से ढकी हुई अग्नि के समान अन्दर शरीर को भस्म कर देता है। उक्तं घ, गिरधर कवि की कुण्डली इस प्रकार है चिन्ता ज्वाल शरीर बिन, बावानल लग जाय । प्रकट धूम नहि देखिए, उर अम्बर बुधकाय ॥ उर अन्दर बुधकाय जले, ज्यों कांच की भट्टी। जल गए लोहूं, मांस, रह गई हाड़ की रट्टी ॥ कहें गिरधर पापिया तुनः हो मी गित वे नर कैसे जियें, जाहिं तम व्यापे चिन्ता ॥ प्रर्य-ऐसी चिन्ता रूपी अग्नि कांच की भट्टी के समान जिनके अन्दर रहती है उनके दुःख का क्या पूछना? घोष - चिन्ता चिता समान, विन्दु मात्र अन्तर लखो। चिता वहत निःप्राण, चिन्ता वहत सजीव को॥ ऐसा चिन्ता नामक दोष भी ब्रह्मा, विष्णु, और महेश में पाया जाता है । क्योंकि चिन्ता वहां पर अवश्य होती है जहां पर राग-ष मौजूद रहता है और जहाँ पर राग-दोष है वहाँ पर देवत्वपना नहीं। भावार्य- भक्ति वानों से राग असुरों से बैर, सो असुरों को मारने की चिन्ता होने से निश्चय ही यह दोष भी इनमें पाया जाता है । जव वे स्वयं दुःखी हैं तो अपने भक्तों को कहां से सुख दे सकते हैं ? अतः राग द्वेष रहित बीतराग देव ही सर्बशता और सर्वथा सुखी दीखते हैं। कारण कि वे न भक्तों से प्रेम और न वैर करने वालों से द्वेष रखते हैं इस कारण उनको चिन्ता नहीं, तब राग हुष से रहित होने के कारण वीतराग देव ही सर्वत्र सुखी है और जब वे स्वयं सुखी हैं तभी हम सभी को भी राग ष रहित सुखदायी उपदेश देते हैं, पर जो स्वयं सुखी नहीं वह दूसरे को क्या सुख का उपदेश दे सकता है ? इस बात से यह निश्चय हो गया कि राग-द्वष युक्त जो है उसे चिन्ता है और चिन्ता से वह दुःखी है जो राग-द्वेष से रहित होगा वहीं चिन्ता से रहित हो सकता है जहाँ चिन्ता नहीं है वहाँ दुःख नहीं है। इसी लिए भरहन्त परमात्मा में जो अनन्त सुख विद्यमान है वह राग-द्वेष से रहित होने के कारण है। अतः में भी उन्हीं की शरण प्राप्त हो जाऊँ जिससे कि मैं भी उनके सुख को धारण कर सकू। Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमीकार ग्रंथ (१५) स्वेद वोष–अर्थात् पसीना यह दोष कैसा है ? इससे शरीर में सुगिन्धत वस्तु का लेपन करने पर भी क्षण मात्र में वह पुनः उसे नष्ट करके दुर्गन्ध को प्राप्त करा देता है और प्रगट होते ही बेचैनी होने लगती है। इसके संग से सुगन्धित वस्त्र भी दुर्गन्धित हो जाते हैं ऐसा दुर्गन्ध रूप स्वेद दोष है यह दोष अरहन्त परमात्मा को नहीं होता । ऐसे अरहन्त सकल परमात्मा मेरे भी दोष को दूर करें। (१६) राग (प्रेम) दोष-कैसा है यह राग ? इस राग रूप जाल की विचित्र गति है। इसमें समस्त संसारी जीव फंसे हुए हैं । जैसे जाल में पशु-पक्षी नाना प्रकार के दुःखों को भोगते हैं, इसी प्रकार जो भी इस जाल में फंसा वह भयानक दुःख को भोगता रहता है। पुन: यह राग कैसा है? अग्नि के समान प्रातापकारी है। भावार्थ-जिस वस्तु से जीप को सा प्रयतम होता है उसका वियोग हो जाने से आताप अर्थात् दुःख होता है। यावत् अभीष्ट वस्तु प्राप्त न हो तावत् चाह रूपी अग्नि से वह जला करता है। ऐसा राग नामक दोष ब्रह्मा, विष्णु और महेश में भी पाया जाता है। भावार्थ- ब्रह्माको देवांगनाओं से, विष्णु को सुदर्शन चक्र से और महेश को त्रिशूल से राग होने से वे सभी दुःखी हैं । ऐसे देव नाम मात्र सुखी हैं । अतः राग रूपी दोष की अग्नि को श्री जिनेन्द्र भगवान ने समता रूपी शीतल जल से शान्त किया है । उनके चरणारविन्द सदा मेरे हृदय रूपी सरोवर में निवास करें। (१७) द्वेष अर्थात वैर दोष-यह दोष कैसा है ? जब मन में द्वेष पैदा हो जाता है तब मित्र भी शत्रु हो जाते हैं । यह द्वेष दोष अन्य देवों में भी पाया जाता है। भावार्थ-विष्ण ने राक्षसों से वैर किया था। उनके लिए नरसिंह अवतार धारण करके दैत्येन्द्र हिरण्यकश्यप के वक्षःस्थल को बड़े यत्न से नाखूनों से विदीर्ण किया था । पुनः अर्जुन के सारथी कृष्ण ने महाभारत संग्राम में कौरवों को मारा और महादेवजी ने भस्मासुर का वध किया तथा वाण से अग्नि उत्पन्न करके तीन पुरों को जला दिया । मतः द्वेष इनके अन्दर है पर केवली भगवान को किसी से भी द्वष नहीं है। वे षटकायिक जीवों के रक्षक अरहन्त परमात्मा भव समुद्र से मुझे पार करें। (१८) मरण दोष-यह मरण कैसा है ? इस मरण के मुख का ग्रास सभी संसारी जीव है। यह दोष भी परहन्त सकल परमात्मा में नहीं है। इति अष्टादश दोष वर्णन समाप्तम् । प्रारम्भ में ही कहा था कि-अठारह दोष रहित और आत्मिक अनन्त चतुष्ट्य व वाह्य ३४ अतिशय से युक्त तथा अष्ट प्रातिहार्य से युक्त परहन्त देव हैं। इसलिए ऊपर अठारह दोषोंका संक्षेप में वर्णन किया गया है। अब ४६ गुणों का संक्षिप्त स्वरूप कहते हैं योहा-चौतीसों प्रतिशय सहित, प्रातिहायं पुन पाठ। अनन्त चतुष्टय गुण बरें, यह छियालोसों पाठ ॥ अर्थ सुगम है । अन्योक्तं : दोहा-विगत दोष मतिशय गरिम, प्रतिहार्य चतुनंत । एवंछियालीस गुण सहित, विरक्ततानंतानंत ॥ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार मंच मब जन्म के दस अतिशयों का वर्णन करते हैं : दोहा-- अतिशय रूप सुगन्ध तन, नहीं पसेव निहार । प्रिय हित वचना, अतुल बल, रुधिर श्वेत प्राकार ॥ लक्षण सहस अरु पाठ तन, समचतुष्क संठान । बनवृषभनाराचयुत, ये जनमत दस जान ॥ अर्थ-(१) अत्यन्त सुन्दर शरीर है, वह ऐसा नहीं है, कि जैसा काले नाग की फुकार से विष्णु जी का शरीर श्याम वर्ण हो गया, ऐसा शरीर नहीं कि जैसे शिवजी के शरीर में रोग हो जाने से धतूरे का सेवन किया जिससे कि वह रोग जाता रहा, ऐसा श्री जिनेन्द्र भगवान का शरीर नहीं होता। जिनेन्द्रदेव के शरीर की प्रशंसा व स्तुति इन्द्रादि भी अपनी सहस्र जिह्वा से करते समय असमर्थ हो गए तो फिर मनुष्य की बात ही क्या है ? (२) जिनका शरीर अत्यन्त सुन्दर व सुगन्धित है उनके शरीर सुगन्धि से रोगियों का रोग नाश हो जाता है। (३) अस्वेद-भगवान का शरीर पसीने से रहित होता है । यदि पसीना पा जाय तो उससे दुर्गन्ध का प्रसंग आ जाता है इसलिए भगवान् के शरीर में पसीने का प्रभाव है। (४) भगवान् जिनेन्द्र देव के शरीर में मल मूत्र नहीं। यदि मल मूत्र होता तो उनके शरीर में दुर्गन्ध अवश्य पाती । अतः जिनेन्द्र भगवान् का शरीर अत्यन्त सुगन्धित है। (५) जिनेन्द्र भगवान् का हितमित वचन-हित का अर्थ सभी जीवों के लिए हितकारा अर्थात् सन्देह उत्पन्न न करने वाला हो, ऐसा अल्प बचन, प्रिय कहिए अमृत के समान प्रिय वचन जैसे अमृत रोग को दूर करता है बसे भ्रम रूपी रोग को हरण करने वाला श्री जिनेन्द्र भगवान का वचन होता है। ऐसे नाम मात्र के महादेव के समान वचन नहीं कि किसी को वर दिया और किसी को श्राप भगवान् जिनेन्द्रदेव के वचन ऐसे कदापि नहीं होते। (६) प्रतुल बल-जिनके शरीर के पराक्रम के समान किसी अन्य का पराक्रम या वल नहीं है। (७) दुग्धवत् श्वेत वर्ण के समान रुधिर होता है । (८) समचतुरस्त्र संस्थान- अर्थात् जिनका शरीर ऊँचे नीचे और मध्य में समान भाग से यथायोग्य प्राकृति वाला है। भावार्थ-- जैसे सांचे में ढ़ाली हुई वस्तु ज्यों की त्यों सुन्दर रहती है उसी प्रकार परम शान्त मुद्रा भगवान् का शरीर सुशोभित रहता है । (8) पनवृषभनाराच संहनन-अर्थात् जिनेन्द्र भगवान के शरीर में वज्र अर्थात् रुप्टन, नाराच अर्थात् कील और संहनन अर्थात् अस्थि पंजर-- ये तीनों ही वन के समान अभेद्य हैं । इस कारण श्री जिनेन्द्र देव का वल भी प्रवर्णनीय है। ___ भगवान् श्री जिनेन्द्रदेव के शरीर में १००८ शुभ लक्षण होते हैं जिनमें से कुछ लक्षणों को यहां कहेंगे। Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ममोकार श्री वृक्षशंख सरोज स्वस्तिक, शक्तिचकसरोवरो। चमर सिंहासन छत्रतोरण, रंगपति नारी नरो॥ सायर विवायरकल्पबेली, कामधेनुध्वजाकरी । वरयनमानकमान कमल, फलश करछपकेहरी॥ गंगा गौ वस्त गरुड़ गोपुर, वेण वीणा वीजमा। जगमीन महल मृदंगमाला रत्न हीपेन्द्यना ॥ नागेन्द्र भवन विमान अंकुश वृक्षसिद्वारथसही । भूषण पटवर हट्ट हाटक, चन्द्रचूडामणि महा॥ जम्मू तरोवर नयन सुबश बाग जन मम भावना । नौ निधि नक्ष सुमेर सारव सालवन्त सुहावना । प्रहमंगलाष्टक प्रातिहार्य प्रमुख और विराजहि । परमित अठोत्तर सहस प्रभु के अंग लक्षण साजहि ॥ अर्थात्-१-श्री वृक्ष, २- शंख, ३-सरोज अर्थात् कमल, ४-स्वस्तिक, ५-शक्ति, ६-चक्र, ७---सरोवर अर्थात् तालाब. ५-- चंवर, ६-सिंहासन, १०-छत्र, ११ --तोरण, १२तुरग पर्थात् घोड़ा, १३--नारी, १४-नर, १५– सायर अर्थात् समुद्र, १६ -दिवाकर यानी सूर्य १७-कल्पवेल, १८- कामधेनु १६.--ध्वजा, २०-हाथी, २१–बरबञ्ज, २२-बाण, २३ - कमान २४०-कमल, २५–कलश, २६- कच्छप, २७–केहरि पर्यात् सिंह, २८-गंगा, २६-वृषभ यानी बैल, ३०-गरुड़, ३१ --गोपुर ३२-वेणु, ३३-वीणा, ३४-चिजणा अर्थात् पंखा, ३५ -- युगमीन, ३६ इल, ३७-मृदंग, ३८-माला, ३६-रत्नदीप ४०--नागेन्द्र, ४१-भवन, ४२-विमान, ४३- अंकुश, ४४-सिद्धार्थ वृक्ष, ४५-भूषण, ४६–पटम्बर, ४७-हट्ट, हाट, ४८-चन्द्र, ४६चूड़ामणि, ५०-जम्बूवृक्ष ५१ --बाग, ५२-नौनिधि, ५३-नक्षत्र, ५४-सुमेरू, ५५-शारद, ५६शालि-खेत ५७-घन्टा, ५०-दर्पण ५६-भामन्डल, ६० प्रशोकवृक्ष इत्यादि बहिरंग १००८ लक्षण भगवान् के अंग में विरामान होते हैं। केवल-ज्ञान के उत्पन्न होने पर १० प्रतिशय प्रकट होते हैं, वे इस प्रकार हैं वोहा--योजन एक शत में सुमिष, गगन गमन मुख चार । नहि प्रवया उपसर्ग नहि, नाहीं, कंवलाहार ।। सब ईश्वर विद्यापनों, नाहीं बढे नख केश । प्रनिमिष दग छाया रहित व केवल के वेश ॥२।। भावार्थ-(१) जहाँ मिनेन्द्र भगवान् समवशरणादि वाय विभूति सहित विराजते हैं वहाँ से शत-शत योजन चारों ओर अर्थात् पार सौ कोस तक दुभिक्षता रहित सभी जीवों को आनन्दकारी दशों दिशाओं में सुभिक्ष प्रवर्तता है। (२) जिनेन्द्र भगवान् का केवल-शान होने के बाद पृथ्वी पर गमन नहीं होता। षट्काय के जीवों की बाधा रहित माकाश में ही गमन होता है। Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ I णमोकार प्रत्ये (३ (३) मुख तो एक ही है परन्तु जिनेन्द्र के श्रतिशय से चार मुख दिखाई देते हैं। कारण यह है कि मनुष्य, देव एवं तिर्यंच ये चारों तरफ से भगवान् के दर्शन करते हैं । सो चारों तरफ से उनको दर्शन होता है । इस कारण से भगवान् चतुर्मुख दीखते हैं । यहाँ कोई प्रश्न करे कि चार मुख तो ब्रह्मा के भी हैं यह ठीक है परन्तु अधिक मुखों के होने से ईश्वर नहीं कहलाया जा सकता। यदि अधिक मुखों के होने से ही ईश्वर कहलाया जाय तो शिवजी के पुत्र कार्तिकेय के छः मुख हैं उनको भी ईश्वर कहो सो नहीं कहलाया जा सकता। ईश्वर तो वहीं है जो प्रलोकाकाश सहित भूत, भविष्यत और वर्तमान काल सम्बधी अन्तानन्त पर्यायों को परिणति सहित समस्त तीनों लोकों को स्वयमेव इन्द्रिय उद्योतादिक की सहायता से रहित प्रत्यक्ष देखे जाने और अपने निजात्मिक अतिशय से चतुर्मुख युक्त सभी जीवों का हितोपदेष्टा हो वही ईश्वर है। एक बार ब्रह्मा इन्द्र की पदवी लेने की अभिलाषा से दण्ड पात्र कोण करता या उपकर पर इन्द्र की उर्वशी नामक अप्सरा इन्द्र की श्राज्ञा से इनके तप को भ्रष्ट करने के निमित्त आई। उस उर्वशी नामक अप्सरा के रूप में राग को बाहुल्यता को प्राप्त होने से उसने अपने चतुर्मुख की रचना की । सो ऐसा चतुर्मुख ब्रह्मा हम लोगों के समान है वह ईश्वरत्व को प्राप्त नहीं हो सकता। जो क्षुधा, तृषा, राग द्वेष, कामादिक रहित होकर अनन्य प्रविनाशी सुख में लीन होकर कृतकृत्य हुआ वही सर्वज्ञ वीतराग चतुर्मुख धर्मोपदेशी ब्रह्मा हमारे मान्य हैं, अन्य नहीं । (४) दया का प्रभाव अर्थात् जहाँ जिनेन्द्र भगवान् केवलज्ञान से युक्त तिष्टते हैं वहाँ पर जीवों के दया रहित परिणाम नहीं होते हैं । भावार्थ -- दयाहीन जीव भी दया सहित हो जाते हैं । (५) जहाँ पर केवली भगवान् का समवशरण तिष्ठता है वहाँ पर किसी प्रकार का उपसर्ग नहीं होता । भला ईश्वर के होते हुए उपद्रव हो तो बड़े आश्चर्य की बात है । जैसे कृष्ण महाराज के होते हुए भी द्वारिकापुरी जलकर भस्म हो गयी । इस प्रकार के उपद्रव यदि ईश्वर के सन्मुख होवें तो वह ईश्वर काहे का ? इस कारण उनकी शक्ति ही ईश्वरत्व को प्रप्रगट करती है इसलिए वह ईश्वर नहीं । ईश्वर तो वही होता है जिसके होते हुए किसी जीव को किसी प्रकार की भी उपसर्ग बाधा न हो सके । (६) केवल ग्रास वर्जित अर्थात देवाधिदेव जिनेन्द्र भगवान् को केवलज्ञान होने के पश्चात् कंवलाहार नहीं होता । अर्थात् वे मन्न के ग्रास उठाकर नहीं खाते हैं यहां श्वेताम्बर मत धारण करने वाले कहते हैं कि वे बाहार करते हैं अर्थात् ग्रास उठाकर खाते हैं इसका उत्तर यह है कि यह बात बिलकुल सम्भव है । कारण कि परमात्मा कंबलाहार नहीं करते और यदि करते हैं तो परमात्मा पद के अधिकारी नहीं हो सकते। ये कहते हैं कि भगवान अवश्य ही कंवलाहार करते हैं तो बताम्रो स्वयं बाहार (भिक्षा मांगले) को जाते हैं कि शिष्यों से मंगाते हैं यदि यह कहा जाय कि भिक्षा लेने प्राप जाते हैं तो भी उचित नहीं ठहरता क्योंकि स्वामी केवली भगवान् तो आकाश में विराजमान होंगे और माहार देने वाला श्रावक पृथ्वी पर खड़ा होगा तो वह किस प्रकार प्रहार देता होगा और यदि यह कहा जाय कि माहार लेते समय केवली भगवान भी पृथ्वी पर खड़े हो जाते हैं आकाश विहार कर माभाव हुआ । यदि यह कहा जाय कि भगवान अपने लिए आहार शिष्यों से मंगवाते हैं तो उन्हें शिष्यों को प्राशा देनी होगी और यदि शिष्य माहार लेने न जाय तो उन्हें द्वेष होगा और भगवान के मन में द्वेष उत्पन्न होता है तो वे भीतराग कहां रहे। इससे सिद्ध हुआ कि वे अपने शिष्यों से अपने लिए माहार Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ णमोकार ग्रंथ नहीं मंगाते, फिर भोजन करेंगे तो भोजन में राग हुमा तथा दूसरे भोजन की इच्छा मोहनीय कर्म का कार्य है इसलिए मोहनीय कर्म का सद्भाव सिद्ध हुआ और मोहनीय कर्म के विद्यमान होने से केवलज्ञान की प्राप्ति सम्भव है । कारण कि शास्त्र में मोहनीय कर्म के क्षय होने के पश्चात् अन्तर्मुहुर्त पर्यन्त क्षीण कषाय नामक बारहवां गुण-स्थान पाकर उसके बाद युगपत् श्रर्थात् एक समय में ज्ञानावरण दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय इन चारों घातिया कर्मों के सर्वथा नष्ट होने से केवलज्ञान प्राप्त होता है इसलिए केवली भगवान् के आहार का न करना सर्व प्रकार से सिद्ध है, और यदि शिष्य पर आहार लाने की आज्ञा न पाली गई तो द्वेष हुआ और पाली गई तो राग हुमा, तो वीतरागता का अभाव हुआ और जब राग द्वेष हुआ तो हितोपदेश का भी निश्चय नहीं हुआ, क्योंकि जिससे राग होगा उसको हित का उपदेश देंगे और जिससे द्वेष होगा उसे अहित का उपदेश करेंगे तो उनके कहने के अनुसार वीतराग और हित उपदेश का बराबर प्रभाव सिद्ध हुआ, पुनः जब मुनीश्वर थाहार के समय बत्तीस प्रकार का सतरा मानते हैं तो क्या नहीं मानेंगे? इस कारण भी केवली को कंवलाहार सदैव बर्जित है, क्योंकि केवली युगपत् एक समय में सर्व लोकालोक को अपने ज्ञान रूपी चक्षु से अवलोकन करते हैं और जगत में ही उपद्रव से अन्तराय हो तो प्रन्तराय को देख जानकर केवली भगवान् श्राहार कैसे ग्रहण करेंगे ? इस युक्ति से भी बहार का न होना ही सिद्ध है और जो यह कहा जाय कि भगवान् प्रन्तराय को नहीं देखते तो उनके प्रति सर्वज्ञता का प्रभाव सिद्ध हुआ और सर्वज्ञता, वीतरागता और हितोपदेश के अभाव होने से देवत्व का प्रभाव हुआ, क्योंकि सर्वज्ञ वीतराग व हितोपदेशी इन तीनों गुणों के बिना देव सत्यार्थ कभी किसी काल में कदापि नहीं हो सकता। इसलिए निश्चय हुआ कि केवली के कंवलाहार नहीं है । (७) समस्त विद्याओं का स्वामित्व, प्रर्थात् ऐसा नहीं कि एक विद्या अर्थात् व्याकरण पढ़े तो व्याकरण शुद्ध हो, छन्द पढ़े तो छन्द शास्त्र का ज्ञान हो और छन्द के पीछे व्याय शास्त्र तथा प्रलंकारादि पढ़े | यह बात नहीं, बल्कि उन्हें सम्पूर्ण विद्याओं का विचार रहित युगवत् भास होता है। (८) भगवान् के नख और केश भी नहीं बढ़ते हैं। ऐसा नहीं कि महादेववत् केशों की जटा लटकती रहे । केवली भगवान् के केश नहीं बढ़ते । ( ९ ) भगवान् निमेष रहित श्रर्थात् भगवान् के नेत्रों की पलक नहीं गिरती । (१०) छाया रहित शरीर होता है अर्थात् उनके शरीर की छाया नहीं पड़ती। कारण यह है कि जिसके छाया होती है उसके शरीर की दीप्ति ( ज्योति) में मंदता रहती है, परन्तु श्री जिनेन्द्र भगवान् के शरीर की दीप्ति के आगे तो कोटि सूर्य मौर चन्द्रमा को भी देदीप्यता लुप्त हो जाती है, इसलिए भगवान् के शरीर को छाया नहीं होती । भावार्थ - श्री जिनेन्द्र देव के शरीर के तेज के बराबर सूर्य और चन्द्रमा उपमा पाते हैं, क्योंकि सूर्य रात्रि को लुप्त हो जाता है और चन्द्रमा दिन को ठाक के समान प्रभा हीन हो जाता है, परन्तु जिन्हेंन्द्र भगवान् के शरीर का तेज प्रनिश सदैव एक सा रहता है, इससे उनके शरीर की उपमा सूर्य चन्द्र नहीं धारण कर सकते। ऐसे केवलज्ञान के होने पर जिनेन्द्र के दश प्रतिशय होते हैं। Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार मंत्र श्रयं - देवकृत चौदह अतिशय दोहा-देव रचित हैं जारदश, अर्द्ध मागधी भाष । श्रापस मांहि मित्रता, निर्मल दिश श्राकाश ॥१॥ होत फूल फल ऋतु सर्व पृथ्वी को समान । चरण कमल तल कमल दल, मुखतें जय जयवान ॥ २ ॥ मंद सुगंध व्यार पुनि, गंधोदक की वृष्टि । भूमि विषै कंटक नहीं, हर्षतई समसृष्टि ॥३॥ धर्म चक्र प्रागे थलं. पुति बसु मंगल सार । प्रतिशय श्री महंत के ये चौतीस प्रकार ॥४॥ उत्पन्न हुए श्रम का अन्त है । वह प्राप्त होता है। इसलिए वहाँ पर जीवन १५ पर्थ - १. अर्द्ध भागधी भाषा का होना। जिसका शब्द एक योजन श्रर्थात् चार कोश तक सुनाई दे । २. समस्त जीवों में परस्पर मित्रता का होना अर्थात् समस्त जाति विरोधी जीव यथा-हस्तीसिंह, गौ- सिंह, सर्पगरूड, मार्जार-स्वान (कुत्ता) मार्जार - मूषक, इत्यादि समस्त मित्र भाव को धारण कर भगवान् के निकट एकत्र होकर बैठते हैं । ३. आकाश का निर्मल होना । ४. दिशाओं का निर्मल होना ऐसा नहीं कि जहां केवल ज्ञान युक्त देवाधिदेव जिनेन्द्र भगवान् तिष्ठते हैं वहीं प्रांधी से धूलि की भोर मेघों द्वारा पानी की वर्षा हो अर्थात् ये उस समय नहीं होते। ऐसा अतिशय जिनेन्द्र के केवलज्ञान का ही है जो समस्त दिशायें मल रहित निर्मल दीखती हैं । ५. सभी ऋतुओं के फलादिक का एक समय फलना षड् ऋतुओं में होने वाले फल पुष्प धान्यादिक निज निज समय को छोड़ कर समस्त एक ही समय में फलते हैं, यह भी भगवान् के केवलज्ञान का ही प्रभाव है । ६. एक योजन पर्यन्त पृथ्वी का तृण कंटकादि रहित दर्पणवत् निर्मल होना । ७. भगवान् के बिहार के समय युगल चरणारविंद के नीचे देवगणों द्वारा श्राकाश में स्वर्णमयी कमल की रचना करना । ८. देवों के द्वारा प्रकाश में जय जयकार शब्द का किया जाना । ६. शीतल, मन्द, सुगन्ध पवन का चलना जिसके स्पर्श से असाध्य रोगियों के रोग दूर हो जाते हैं, यह भी जितेन्द्र भगवान् के केवलज्ञान का प्रतिशय है । १०. सुगंधित जल की वर्षा होना अर्थात् जहाँ पर जिनेन्द्र भगवान् केवल ज्ञान संयुक्त तिष्ठते हैं वहाँ पर मंद-मंद सुगन्धि युक्त जल की वृष्टि प्राकाश से होती है। वह वृष्टि जीवों के माताप को हरण करने वाली है । ११. पवनकुमार जाति के देवों द्वारा भूमि का तृण कंटक रहित करना । अर्थात् जहां पर जिनेन्द्र भगवान् तिष्ठते हैं वहाँ पर पवन कुमार देवों के द्वारा भूमि स्वच्छ, तृण कंटकादि रहित निर्मल रहती है, मानों जिनेन्द्र भगवान् के अतिशय से पापरूपी रज दूर करके पृथ्वी पर निर्मलता प्रगट हुई हो। १२. समस्त जीवों का श्रानन्दमय होना । अर्थात् प्रानन्दमय क्यों नहीं हों ? जहाँ पर किसी प्रकार की बाधा नहीं, उपद्रव नहीं और किसी का भय नहीं वहीं तो मानन्द होता ही है । विचार करके देखिए कि वर्तमान समय में ग्रीष्म ऋतु में किचित् शीतल पवन मौर पान करने के लिए मिष्ट शीतल जल यदि प्राप्त हो जाय तो मनुष्य बहुत ही मानन्द मानता है और वहां समवशरण में तो सुगन्धमय पवन और षट् ऋतु के फल फूलों का एक ही समय में फलना तथा वापिकाओं का मिष्ट, शीतल जल और धर्मोपदेश मिलता है जिससे तीन लोक के भ्रमण से होकर मव्याबाध, निराकुलित मनन्त सुख का स्थान जो मोक्ष का मार्ग समवशरण में जो सुख है वैसा संसार में अन्य स्थान में नहीं मिल सकता । श्रानन्दमय होता ही है । १३. भगवान् के भागे धर्मचक्र का चलना Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमोकार च कैसा है वह धर्म चक्र ? वह मोक्ष मार्ग का प्रकाश करने वाला है। १४. चमर छत्रादिक अष्ट मंगल द्रव्यों का साथ रहना। प्रष्ट मंगल द्रव्यनामदोहा-छत्र, चमर, घंटा, ध्वजा, भारी, पंखा, नव्य । स्वस्तिक वर्पण संग रहे, जिन बसुमंगल द्रव्य ।। अर्थ- छत्र, चमर, घण्टा, ध्वजा, भारी, पंखा, स्वस्तिक और दर्पण खण्ड ये पाठ मंगल द्रव्य हैं जो जिन भगवान के साथ रहते हैं । इत्यष्ट मंगल द्रव्य नाम । ऐसे ही जन्म के दश प्रतिशय, केवलज्ञान के दस प्रतिशय और चौदह देव रचित अतिशय ये सब मिलकर ३४ अतिशय अर्हन्त परमात्मा के होते हैं.... अब पाठ प्रातिहार्य का वर्णन करते हैं तर प्रशोक के निकट में, सिंहासन छविवार । तीन छत्र सिर पर लस, भामण्डल पिछवार ॥१॥ दिव्य ध्वनि मुख से खिरे, पुष्प वृष्टि सुर होय । हार चौसठ पमर भष, बाजे दुन्दुभि जोय ॥२॥ अर्थ-- प्रशोक वृक्ष का होना। भावार्थ-जहां केवली भगवान् तिष्ठते हैं, वहां अशोक वृक्ष जिनेन्द्र भगवान् के शरीर से सात गुणा ऊंचे होता है ऐसे अशोक वृक्ष की प्रभा से ऐसा मालूम पड़ता है कि मानों जिनेन्द्र भगवान् का प्राश्रय पाकर दीप्तिवान हो गया हो । पुनः वह अशोक वृक्ष ऐसा होता है कि जिसके दर्शन से जीव का शोक दूर हो जाता है ॥१॥ रत्नमयो सिंहासन भावार्थ-जहां पर केवली होते हैं वहां प्रशोक वृक्ष के समीप रत्नमयी सिंहासन पर विराजमान श्री जिनेन्द्र देव ऐसे शोभित होते हैं मानों उदयाचल पर्वत के शिखर पर प्राकाश में निकली हुई किरणों द्वारा सूर्य का विम्ब ही शोभायमान हो रहा हो॥२॥ भगवान् के सिर पर छत्र का द्वरना भावार्थ-जिनेन्द्र भगवान् के मस्तक पर चन्द्रमा और सूर्य की प्रभा के प्रताप का हरण करने वाले और मोतियों की माला के समूह से बढ़ी है जिनकी शोभा -ऐसे तीन छत्र भगवान् की तीन लोक की परमेश्वरता को प्रकट करते हैं। इससे तीन लोक की ईश्वरता तथा तीन लोक के नाथ ऐसा नाम जिनेन्द्र देव का सम्भव है और ब्रह्मा, विष्णु और महेश मादि सब नाम मात्र के देव हैं । इनको त्रिलोकीनाय नहीं कहा जा सकता। कारण कि नाथ ऐसे शब्द का प्रयोग रक्षा करने वाले के लिए होता है, जो तीन लोक की रक्षा करे उनको त्रिलोकीनाथ कहते हैं। त्रिलोक अर्थात् ऊध्र्व लोक, मध्य लोक, पाताल लोक इन लोकों के जीवों की जी रक्षा करे उनको त्रिलोकीनाथ कहते हैं। त्रिलोकी नाय जब होता है सब वह किसी की प्राशा नहीं करता और जो पाशा करता है वह ईश्वर नहीं है। इसलिए ब्रह्मा ईश्वर पद को प्राप्त नहीं है। उसका कारण यह है कि ब्रह्मा ने इन्द्र के सिंहासन को प्राप्त करने की इच्छा से चार हजार वर्ष तक तप किया । पर उसे सिंहासन प्राप्त नहीं हुआ अर्थात् हजारों वर्षों तक तप करके उन्होंने इन्द्र के पासन की इच्छा की इसलिए ऐसा ब्रह्मा ईश्वर पदवी के योग्य नहीं है ब्रह्मा उन्हीं को Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ # T णमोकार प्रथ {" हैं कि जो नित्य का भान करे। यदि उसे यानी ब्रह्मा को निजात्मा का ध्यान होता तो ध्यान च्युत होकर वह उर्वशी जाति की तिलोत्तमा वेवी को अथवा उसके रूप को राग की दृष्टि से देखकर काम भाव से प्रेरित होकर उसको देखने के लिए चार सिर नहीं बनाता। इस प्रकार ऐसे नाम मात्र का ब्रह्मा जो कामी, क्रोधी व मानी है हमको ईश्वर रूप में मान्य नहीं है । साक्षात् ब्रह्म तो वही है जो निज ब्रह्म को जानकर कृतकृत्य होकर निजात्म तत्व के प्रास्वादन में लवलीन हो, ऐसा कृतार्थ ब्रह्म सर्वज्ञ, वीतरागी, हितोपदेशी परम पद में रहने वाला, निरंजन अर्थात् कर्म ले से रहित, आदि, मध्य, अन्त, रहित सर्व हितकारक ब्रह्म समवशरण में तीन छत्र से शोभायमान तीन लोक की ईश्वरता को प्रकट करता है सो परम ब्रह्म मेरे रक्षक हों । पुनः विष्णु को त्रिलोकीनाथ कहा जाय तो वह भी त्रिलोकीनाथ नहीं हो सकते, क्योंकि तीन जगत का नाथ अर्थात् ईश्वर तो उसे ही कहेंगे जो तीन लोक की रक्षा करे, सर्व जीवों पर दया करे, सो यदि विष्णु लोक का नाथ अर्थात् रक्षक होता तो तीन लोक में जरासिंध को क्यों मारता और मथुरापति राजा कंस को क्यों मारता ? और दैत्यों के इन्द्र हिरण्डकश्यपु (हिरणाकुंश ) का नृसिंह रूप धारण कर अपने नख के द्वारा वक्षःस्थल क्यों विदारण करता ? महाभारत में युद्ध के समय अर्जुन का सारथी बनकर संग्राम में कौरवों का क्यों विध्वंस करता । ऐसा कोई विष्णु नहीं हो सकता | विष्णु शब्द का अर्थ तो यह है कि जिनका ज्ञान अनन्त काल तक व्याप्त रहता है और समस्त क्षेत्र, काल सम्बन्धी और समस्त लोकालोक में व्याप्त होकर फैलता है उसको विष्णु कहते हैं । उसको भोले प्राणी ऐसा कहते हैं कि जो समस्त लोक में व्याप्त हो वह विष्णु है । कहा भी है : श्लोक -- जले विष्णुस्त्रले विष्णु, विष्णुः पर्वत मस्तके | ज्वालमाला मुखी विष्णुः, विष्णुः सर्व जगन्मयः ॥ भावार्थ - जल में विष्णु है, थल में विष्णु है, पर्वत में विष्णु है, अग्नि में विष्णु है अर्थात् समस्त जीवों में विष्णु व्याप्त है। सो ऐसा समझना मिथ्या है । यदि विष्णु सर्व व्यापी है तो हिरण्यकश्यप को मारने के लिए नृसिंह रूप क्यों धारण किया ? इसलिए यह नाम मात्र के विष्णु है, साक्षात् विष्णु नहीं । परन्तु जिसका ज्ञान त्रिकालवर्ती पर्याय से सहित समस्त पदार्थों में व्याप्त हो रहा है, ऐसे सर्वज्ञ वीतराग अन्तही विष्णु हैं अन्य कोई और नहीं । पुनः महादेव को भी त्रिलोकीनाथ कहा जाता है, परन्तु वह भी तीन जगत का नाथ-- ईश्वर नहीं हैं वह भी रक्षक नहीं हैं। तीन लोक का नाथ वही हो सकता है जो सबसे श्रेष्ठ कार्यकर्ता, जीवों का प्रतिपालक तथा उत्तम मार्ग में चलने का उपदेश करे। उस शिव ने वाणी से श्रग्नि उत्पन्न करके निर्दय होकर तीन पुरों को दग्ध किया। वे अपने साथ पार्वती एवं पुत्र कार्तिकेय को रखते हैं। इसलिए योगी नहीं है । और जो शंकर को ईश अर्थात् सामर्थ्य युक्त ईश्वर कहो तो शंकर का लिंग छेदन कैसे हुआ अर्थात् उनका लिंग कैसे छेदा गया। अगर वह भय रहित है तो त्रिशूल आयुष श्रादि क्यों धारण करते हैं ? ऐसे नाममात्र के शंकर हैं, ये सुख देने वाले नहीं है ये रक्षा करने वाले भी नहीं है, और जीवों की दया करने वाले भी नहीं हैं। जैसे अकलंक अष्टक स्तोत्र में कहा है कि शार्दूलविक्रीडित छन्द त्रैलोक्यं सकलं त्रिकाल विषय, सालोक्यमालोकितं । साम्राश्वेन यथा स्वयं करतले रेलात्रयं सांगुलिः ॥ रागद्वेष भया मर्यात कजरालोलत्वलोभावयो। नामपवलंघनाय स महादेवो मया बंद्यते ॥ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार मंय अर्थ-वह महादेव कैसे हैं ? जो तीन लोक के गोचर और अलोक सहित समस्त लोक को जानने वाले हैं जैसे अंगुलि सहित हथेली में तीन रेखा साक्षात् दिखाई देती हैं। और रागद्वेष, भय, रोग, मृत्यु, जरा, लोभ आदि दोष जिनका पद उल्लंघन न कर सकें, उस महादेव की मैं वंदना करता हूं। इस जगत में ब्रह्मा, विष्णु, शिव, जिन तथा बुद्ध आदि नाम के धारी देवप्रसिद्ध है परन्तु जिनका ज्ञान एक समय में तीन लोक की अनन्तानन्त द्रव्य, गुण और त्रिकालवर्ती अनन्त पर्याय इन समस्त पदार्थ को प्रत्यक्ष जाने वह ही तीन जगत का नाथ, तीन- छत्र से शोभायमान ईश्वर कहलाता है। उस ईश्वर को मेरा बार-बार नमस्कार हो ॥३॥ । भगवान के प्रति भामण्डल का होना-बह भामाडल कैसा है ? जिसमें भव्य राशि के सात भव झलकते हैं। भावार्थ-तीन भव पिछले और तीन भव आगे के और एक भव वर्तमान ऐसे सात भव जिनेन्द्र के पीछे भामण्डल में दिखते हैं सो ये जिनेन्द्र का ही अतिशय है और वह भामण्डल कैसा है ? अपने अतिशय से तीन लोक के पदार्थों की छुति को तिरस्कार करता हुआ प्रकाशमान, अनेक सूर्य के समान तेजस्वी होने पर भी चन्द्रसमान शीतल, प्रभा से रात्रि को भी जीतता है।।। भगवान के मुख से निरक्षर ध्वनि होना : भावार्थ-भगवान की दिव्य ध्वनि खिरते समय होट, तालु, रसना, दन्त आदि में क्रिया नहीं होती है। मेघ की गर्जना के समान उनकी ध्वनि होती है स्वर्गापवर्ग का मार्ग बताने में इष्ट समीचीन धर्म और वस्तु स्वरूप कहने में अद्वितीय समस्त भाषा स्वभाव परिणमयी भगवान् की दिव्य ध्वनि होती है ॥५॥ देवों के द्वारा पुष्प वृष्टि होना भावार्ष-मन्दार सुन्दरनमेरु, सुपारीजात आदि कल्प वृक्षों के पुष्पों की जो वृष्टि देवों द्वारा को जानी है, वह मालूम होती है मानों भगवान के दिव्य गुणों की पंक्ति ही प्रसारित हो रही है ।।६।। यक्ष जाति के देवों के द्वारा भगवान के दोनों ओर ३२-३२ चमरों का ढोरना ॥७॥ भगवान् के समवसरण में दुन्दुभि बाजे बजना ।।८।। जब आगे चार अनन्त चतुष्टयों का वर्णन करते हैं ? दोहा-शान प्रनन्तानन्त सुख, दर्शन अनन्त पषाण। बल अनन्त अर्हन्त सो इष्ट देव पहचान ॥ अर्थ-जिनेन्द्र भगवान के अनन्त चतुष्टय हैं-शान अनन्त, दर्शन अनन्त, बल अनन्त, सुख अनन्त ऐसे चार अनन्त चतुष्टय केवली भगवान सकल परमात्मा के होते हैं। भावार्थ-- सकल परमात्मा की आत्मा के चार घातिया कर्म दूर हो जाते हैं इस कारण चार अनन्त चतुष्टय प्रगट होते हैं । 'अर्थात् १- ज्ञानावरणीय, २-दर्शनावरणीय, ३-मोहनीय, ४-अन्तराय, ये घातिया कर्म आत्मा के निजगुण ज्ञान, दर्शन, सुख, बल को धात करने वाले हैं अतः इनको पातिया कर्म कहते हैं । ये घातिया कर्म अनादि काल से जीवन के साथ लगे हैं, और जब तक यह जीवात्मा सकल परमात्मा न होगा तब तक यह कर्म उसके साथ लगे रहेंगे जैसे स्वर्ण में मैल है उसी प्रकार जीव से अनादि काल से कर्म रूपी मल सम्बन्धित है। जिस प्रकार स्वर्ण अग्नि में तपने से मैल से पृथक होकर अपने निज स्वभाव को प्राप्त हो जाता है, उसी प्रकार जीव सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र पोर तप रूपी अग्नि में तप कर कर्म रूप मैल से अलग होता है । अलग होकर अपने निज स्वभाव पनन्त चतुष्टय को Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार ग्रंथ प्राप्त होकर वह प्रात्मा सकल परमात्मा पद को प्राप्त कर लेता है। उस समय इन्द्रादिक देव पाकर सामान्य केवलियों के लिए गन्ध कुटी और भगवान् तीथंकरों के लिए समवशरण की रचना करते हैं। नों का रहस्य ले करके समवशरण का वर्णन करते हैं-प्रथम समवशरण की भूमि सव भूमि से पांच हजार धनुष पाकाहा में ऊँचाई है जिसकी, ऐसी श्री आदिनाथ भगवान के समवशरण की पृथ्वी बारह योजन प्रमाण, नील मणि के समान प्रभावशाली और देदीप्यमान किरणों के समह से अत्यन्त उज्जवल गोलाकार है। इसी पर समवशरण की समस्त रचना है। आदिनाथ भगवान के समवशरण की भूमि का जो प्रमाण था वह नेमिनाथ भगवान् पर्यन्त प्राधा प्राधा योजन कम होना गया । भगवान् पार्श्वनाथ और महावीर स्वामी के समवशरण में भूमि का यह प्रमाण पाव पाव योजन कम था। भावार्थ-महावीर स्वामी के समवशरण की भूमि का प्रमाण एक योजन का था उसके चारों दिशाओं में समस्त भूमि से लगाकर समवशरण भूमि तक प्रत्येक दिशा में २०, २० हजार स्वर्णमयी सीढ़ी होती हैं, उनकी चौड़ाई तथा ऊंचाई एकर हाथ प्रमाण और लम्बाई एक कोश की होती है। उन सीढ़ियों का प्रमाण भी आदिनाथ भगवान् से लेकर वर्द्धमान भगवान् तक कम होता गया । अब भगवान् ऋषभदेव के समवशरण की रचना, के लिए भूमि का जो प्रमाण है उसको २: का भाग दीजिा उममें, एक भाग घटाइये. ऐसे नेमिनाथ तक एक भाग घटाना और पार्श्वनाथ तथा महावीर भगवान के उससे प्राधा भाग घटाना। प्रथम कहा है जो दिला उस शिला के सम्बन्ध में शिलानमन की चारों दिशाओं में चार गलियां हैं । उन गलियों की चौड़ाई, शिलानमन को लम्बाई के प्रमाण है जैसे ऋषभ देव भगवान् के समवशरण में तेईसको लम्ची और एक काश चौड़ी गली है, इस प्रकार धूनी साल के द्वार से गन्ध कुटी-द्वार तक लम्बाई जानना । इन गलियों के दोनों ओर स्फटिक मणियुक्त भीत है उसको वेदी कहते हैं । इन दोनों वेदियों के बीच जो चौड़ाई है सो गली की चौड़ाई है उन वैदियों की चौड़ाई वृषभदेव के साढ़े सात सौ धनुष है और फिर यह चौड़ाई कम होती गई है। उन गलियों के मध्य चार अन्तगल भुमि है और उसमें चार कोट पांच बेदी है। इन नौ के अन्तराल में पाठ भमि हैं। फिर शिला के अन्त में कोट है, उसके ऊपर दूसरा कोट है, उससे आगे उपवन की भूमि है । उससे आगे वेदी है, उसके ऊपर ध्वजा समूह भूमि और तीसरा कोट है । उससे आगे कल्प वृक्ष भूमि है, उसके आगे दी है उसके ऊपर मन्दिर की भूमि है, उसके ऊपर चौथा कोट है, उसके ऊपर सभा की भुमि है फिर बेदी है। ऐसे तीन गनी है। नोन गली के अन्तराल भूमि में-भूमि सम्बन्धी रचना जानना चाहिये । उन गलियों में चार कोट पांच वेदी के द्वारा एक गली सम्बन्धी नौ द्वार हैं इस प्रकार चारों गली सम्बन्धी ३६ द्वार हो गये । प्रथम कोट और प्रथम वेदी के मध्य प्रथम भूमि है। प्रथम कोट और प्रथम वेदी के द्वार के बीच जो गली है उसे प्रथम भूमि कहते हैं। ऐसे ही अन्य दारों के बीच द्वितीया आदि भूमि है, वहां प्रथम भूमि की गली के मध्य भाग में मानस्तंभ है चारों दिशाओं सम्बन्धी चार मानस्तम्भ हैं। हर एक मानस्तंभ के चारों, दिशाओं में चार बावड़ी हैं हर गली के दोनों ओर दो नाट्य शालाए हैं। ऐसे ही चौथी गली । भी दो नाट्यशालाए हैं। छोटी गली के दोनों ओर इससे दुगनी नाट्यशालाएं है । सप्तम भूमि में चारों दिशाओं में 8-६ रत्न स्तूप हैं और आठवीं भूमि में द्वादश सभा हैं। उन सभामों में कौन कौन बैठते हैं उसका वर्णन करते हैं। धर्मसंग्रह श्रावकाचार में पाया है : तेषुमुम्यशर : स्वाया । घोतिभोमासुरस्त्रियः । नागव्यन्तरचंद्रागाः। स्वमूनपशवः क्रमात् ।। Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार ग्रंथ अर्थ-उन १२ सभाओं में अनुक्रमसे मुनि तथा गणधरदेव १, कल्पवासी देवोंकी देवांगनाएं, २. श्रजिका, ३. ज्योतिस देवों की स्त्रियों, ४. व्यंतर देवों की स्त्रियाँ ५. भवनवासी देवों की स्त्रियां, ६. भवनवासी, ७. व्यन्तर, ८. ज्योतिषी, ६. कल्पवासी, १० मनुष्य, ११. पशु, १२. बैठते हैं । स्वर्णमाणिक्य | मयंत्री ठप्रयं ततः । अष्टचतुरचतुश्चाप। प्रपि परिस्थितिम् || २० अर्थात् उस प्रष्ट भूमि के मध्य में बैड्र्यमणि स्वर्ण माणिक्य में तीन पीठ क्रम से पाठ धनुष हैं, चार चार धनुष ऊंचे एक के ऊपर एक स्थित हैं । श्लोक सोपानाः षोडवाष्टार्ता नानारत्म विचित्रताः । क्रमशः त्रिधुपीठेसु चतुमार्गेषु भांतिते ॥ अर्थात् उन तीनों पीठों में क्रम से सोलह पाठ और आठ सीढ़ियाँ नाना प्रकार के रत्नों से सुशोभित चारों और शोभायमान थीं। यह शोभा चारों ओर से दिखाई दे रही थी सबके ऊपर के तीसरे पीठ पर छह सौ धनुष लम्बी व इतनी ही चौड़ी तथा नौ सौ धनुष ॐ वो जिसमें रत्नों की दीपिका प्रज्वलित हो रही थी व प्रत्यन्त सुगन्धित पुष्प व ध्वजायें जिसके चारों तरफ सुशोभित हो रही थीं, ऐसी जिन भगवान के विराजमान होने की गन्धकुटी बनी थी उसके ऊपर अत्यन्त मनोहर नाना प्रकार के रत्नों से जड़ित स्फटिक मणि का बना हुआ एक सिंहासन है। उसके बीच में अत्यन्त कोमल, पवित्र व अनुपम सहस्रदलवाला एक रक्त वर्ण कमल है। उसके मध्य मार्ग में चार अंगुल अन्तरिक्ष श्राकाश में जिन भगवान् लोकाकाश व आलोकाकाश को देखते हुए विराजमान होते हैं। और जीवों के शुभाशुभ को जानकर त्रिजगपति अर्थात् तीनों लोक के नाथ श्री जिनेन्द्र देव अपनी मेघ के समान सर्वभाषा भावयुक्त निरक्षर दिव्य ध्वनि से सत्य धर्म के उपदेश की वर्षा करते हैं, और द्वादस सभाओं में असंख्यात जीव अपने अपने भवताप से संतापित आत्मा की शन्ति के लिए धर्मोपदेशामृत का पान करते हैं, जिनेन्द्रदेव के समवशरण में मिथ्यादृष्टि, अभव्य असंशी, अनध्वसायी जीव नहीं रहते । श्री धर्मसंग्रह श्रावकाचार में कहा है--- मिध्यादृष्टिरमव्योध्य-संज्ञी कोपि न विद्यते । यश्चान व्यवसायोपितः संदिग्ध विपर्ययः ॥ और भगवान् के समवशरण में जीवों में परस्पर शत्रुभाव भी नहीं रहता है । कहा भी है कि हा प्रतिष्ठायां तत्वन्निधौ वैरत्याग : । - अर्थ- बहुत काल तक अहिंसा धर्म पालन करने भी परस्पर में वैरभाव त्याग का व्यवहार हो जाता है। प्रभाव है । वाले के समीप जाति विरोधी जीवों में यह केवल जिनेन्द्र भगवान् का ही इति समवशरण वर्णनसमाप्तः जिन भगवान् को १००८ नामों से विनय सहित नमस्कार करते हैं: ॐ ह्रीं श्रीं श्रीमते नमः ॥१॥ अनंतचतुष्टयरूप अन्तरंगलक्ष्मी व समवशरणरूप बहिरंग लक्ष्मी से सुशोभित हैं, इसलिए आप श्रीमान् कहलाते हैं ॥ १ ॥ ॐ ह्रीं अर्ह स्वयम्भुवे नमः || २ || बिना गुरु के अपने श्राप समस्त पदार्थों को जानते वाले हैं अथवा अपनी आत्मा में सदैव रत रहते हैं, अथवा अपने आप हो अपना कल्याण किया है, अथवा अपने ही गुणों से स्वयमेव वृद्धि को प्राप्त हुए हैं । Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार प्रेष अपने आप केवल शान और केवल दर्शम के द्वारा समस्त लोकालोक में व्याप्त हो रहे हैं, प्रयया भव्य जीवों को मोक्षरूपी सम्पति को देने वाले हैं, तया द्रव्य पर्यायों को इन्द्रियादि की सहायता रहित अपने प्राप मानने वाले हैं अथवा ध्यान करने वाले योगियों को पाप प्रत्यक्ष दिखाई देते हैं प्रथया लोक शिखर पर अपने माप जाकर विराजमान होने वाले हैं इसलिए आप स्व्यंभू कहलाते हैं ।।२।। ॐ ह्रीं महं वृषभाय नमः ॥३।। आप वृष प्रर्थात् धर्म से भा अर्थात् सुशोभित होते हैं अथवा धर्म की वर्षा करते हैं अथवा भक्त जमों के लिए इष्ट वस्तु की वर्षा करने वाले हैं. इसलिए आप वृषभ कहलाते हैं ॥३॥ ॐ ह्रीं अहं सम्भवाय नमः ॥४॥ आपके द्वारा सभी जीवों को सुख प्राप्त होता है एवं आप का भाव जन्म प्रत्यन्त उत्कृष्ट है, अथवा प्राप सुखपूर्वक उत्पन्न हुए हैं, इसलिए माप सम्भव वा शम्भ कहलाते हैं ॥४॥ ___ ॐ ह्रीं अर्ह शम्भुवे नमः ।।५।। पाप परमानन्द मोक्षरूपी सुख को देने वाले हैं। इसलिए प्राप शम्भू कहलाते हैं ।।५ *ह्रीं मह प्रात्मभवे नमः !! अाप अपने प्रात्मा के द्वारा ही कृतकृत्य हैं अथवा माप शुद्ध-बुद्ध चित्चमत्कार स्वरूप प्रात्मा में लीन रहते हैं अथवा ध्यान के द्वारा योगियों के प्रात्मा में ही प्रत्यक्ष होते हैं । इसलिए आप प्रात्मभू कहलाते हैं ।।६।। ॐ ह्रीं अह स्वयम्प्रभाय नमः ॥७॥ आप अपने आप ही प्रकाशमान होते हैं अथवा शोभायमान होते हैं इसलिए आप स्वयं-प्रभ कहलाते हैं 11७॥ ह्रीं अहं प्रभवते नमः |८| सबके स्वामी है या सर्वथा समर्थ हैं, इसलिए आप प्रभु हैं | ॐ ह्री महं भोवतये नमः ।।६।। प्राप परमानन्द स्वरूप सुख का भोग करने वाले होने से अपने प्राप भोवता हैं ।।६।। ॐ ह्री अहं विश्वभुवे नमः ||१०|| पाप केवलज्ञान के द्वारा सब स्थानों पर व्याप्त हैं, अथवा समस्त लोकों में मंगल करने वाले हैं, अथवा ध्यानादि के द्वारा समस्त लोक में प्रगट होते हैं अथवा समस्त लोकालोक को जानने वाले हैं, इसलिए माप विश्वभू हैं ॥१०॥ ॐ ह्रीं अह अपुनर्भवाय नमः ॥११॥ अब आपके जन्म, जरा, मरणरूप संसार शेष नहीं रह गया है प्रथवा भाप संसार में ही पुन: उत्पन्न होने वाले नहीं हैं इसलिए पाप को अपुनर्भव कहते हैं ॥११॥ ह्रीं पहं विश्वात्मने नमः ।।१२।। आप समस्त लोक को अपने समान जानते हैं अथवा आप विश्व अर्थात् केवलज्ञान स्वरूप हैं इसलिए आप विश्वात्मा कहे जाते हैं ॥१२॥ ॐ ह्रीं अहं विश्वलोकेशाय नमः ॥१३॥ तीनों लोकों में रहने काले समस्त प्राणियों के माप स्वामी हैं इसलिये विश्व लोकेश हैं ।।१३।। ॐ ह्रीं महं विश्वतच्चक्षुषे नम : ||१४॥ माप के चक्षु मर्थात् केवल दर्शन सर्व जगत् में व्याप्त है इसलिए माप विश्वतच्चक्षु हैं ।।१४।। ॐ ह्रीं मह प्रक्षराय नमः ।।१५॥ कभी नाश नहीं होते इसलिए माप अक्षर हैं ॥१५॥ ॐ ह्रीं मह विश्वविदे नमः ॥१६॥ माप षट् द्रव्यों से भरे हुए इस विश्व प्रर्थात् जगत का जानते हैं । इसलिए विश्ववित् है ॥१६॥ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार मंथ ॐ ह्री ईश्वर नमः ॥६७॥ समलवियों के ईश्वर आप हैं, आप केवल ज्ञान के स्वामी हैं, आप समस्त विद्याओं के जानने वाले गणधरादिकों के स्वामी हैं इसलिए आप विश्वविद्यश कहे जाते हैं || १७ || ॐ ह्रीं ग्रह विश्वयोनये नमः || १८ || आप समस्त पदार्थों की उत्पत्ति के कारण हैं श्रर्थात् सब पदार्थों का उपदेश देने वाले हैं इसलिए आप विश्वयोनि कहलाते हैं || १८ || २२ ॐ ह्रीं अर्ह अनश्वराय नमः || १६ || आपके स्वरूप का कभी नाश नहीं होता इसलिए श्राप अनश्वर कहे जाते हैं ।। १६ ।। ॐ ह्रीं अहं दर्शने नमः ||२०|| आप समस्त लोकालोक को देखने से विश्व द्रष्टा कहलाते हैं ||२०|| ॐ ह्रीं श्रीं विभुवे नमः ||२१|| केवलज्ञान के द्वारा आप सब जगह व्याप्त हैं अथवा जीवों को संसार से पार करने में समर्थ हैं और आप परम त्रिभूति संयुक्त हैं, इसलिए आप को विभू कहते हैं ||२१|| ॐ ह्रीं अर्ह पात्रे नमः ||२२|| चारों गतियों में परिभ्रमण करने वाले जीवों का उद्धार कर मोक्ष स्थान में पहुंचाने वाले हैं तथा दयालु होने से आप सब जीवों की रक्षा करते हैं इसलिए आप धाता कहलाते है ||२२|| ॐ ह्रीं ग्रहं विश्वेशाय नमः ||२३|| समस्त जगत के स्वामी होने से श्राप विश्वेश कहलाते हैं ||२३|| ॐ ह्रीं विनाय नमः ||२४|| समस्त जीवों को सुख की प्राप्ति का उपाय श्रापने दिखलाया है इसलिए आप जीवों के नेत्रों के समान होने से विश्वलोचन कहलाते हैं ||२४|| ॐ ह्रीं यह विश्वव्यापिने नमः ||२५|| केवलज्ञान के द्वारा समस्त लोकालोक में आप व्याप्त हैं और केवल समुद्घात करते समय आप के आत्मा के प्रदेश समस्त लोकाकाश में व्याप्त हो जाते हैं। इसलिए आपको विश्वव्यापी कहते हैं ||२५|| ॐ ह्रीं ग्रह विधवे नमः ||२६|| आप कर्मों का नाश करने वाले हैं अथवा केवलज्ञान रूपी किरणों के द्वारा मोहरूपी अंधकार का नाश करने वाले हैं इसलिए आप विधु हैं ॥ २६ ॥ ॐ ह्रीं श्रई बेधाय नमः ॥ २७ ॥ आप धर्म रूप जगत को उत्पन्न करने वाले हैं इसलिए आप - वेधा कहलाते हैं ॥२७॥ ॐ ह्रीं शाश्वताय नमः ||२६|| प्राप सदा विद्यमान रहते हैं, नित्य हैं इसलिए शाश्वत् कहे जाते हैं ||२८|| ॐ ह्रीं अहं विश्वतोमुखाय नमः ||२६|| आप के चारों दिशाओं में चार मुख दीखते हैं तथा आपके मुख के दर्शन मात्र से जीवों का संसार नष्ट हो जाता है जल का मुख्य नाम विश्व है, आप जल के समान कर्मरूपी मल को धोने वाले हैं। विषयों की तृष्णा को नष्ट करने वाले और अत्यन्त स्वच्छ हैं इसलिए श्राप विश्वतोमुख कहलाते हैं ||२६|| ॐ ह्रीं अहं विश्वकर्मणे नमः ||३०|| आप के मत में समस्त कर्म ही दुख आप ने जीविका के लिए षट् कर्मों का उपदेश दिया है इसलिए आपको है ||३०|| देने वाले हैं एवं विश्वकर्मा कहते Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार ग्रंथ २३ जगज्ज्येष्ठाय नमः ||३१|| आप जगत के समस्त प्राणियों में वृद्ध हैं अथवा श्रेष्ठ हैं इसलिए श्रापको जगज्ज्येष्ठ कहते हैं ||३१|| ॐ ह्रीं ॐ ह्री विमूर्तये नमः ||३२|| आप अनन्तगुण मय हैं इसलिए प्राप विश्व मूर्ति कहलाते हैं ॥ ३२ ॥ चौथे ॐ ह्रीं श्रीं जिनेश्वराय नमः ||३३|| अनेक कर्मों के नाश करने में गणधर देवों को अथवा 'गुण स्थान से बारहवें गुणस्थान तक रहने वाले जीवों को जिन कहते हैं, आप उनके ईश्वर हैं इस लिए आपको जिनेश्वर कहते हैं ॥ ३३ ॥ विश्वदुवे नमः || ३४ || भाप समस्त लोक को देते हैं इसलिए श्राप विश्वदृक् ॐ ह्रीं कहलाते हैं ||३४|| ॐ ह्रीं यह विश्वभूतेशाय नमः ||३५|| आप समस्त प्राणियों के ईश्वर हैं और तीन जगत की लक्ष्मी के पति हैं इसलिए आप विश्व भूतेश कहे जाते है ।। ३५ ।। ॐ ह्रीं श्रीं विश्वज्योतिषे नमः ||३६|| श्रापका केवल दर्शन रूपी तेज सब जगह भरा हुआ है तथा आप समस्त जगत में प्रकाश करने वाले हैं। इसलिए विश्वज्योति कहलाते है || ३६॥ ॐ ह्री भई अनीश्वराय नमः ||३७|| आपका कोई ईश्वर या स्वामी नहीं है इसलिए आपको अनीश्वर कहते हैं ||३७| ॐ ह्रीं श्रीं जिनाय नमः || ३८ || आप ने कर्मरूपी शत्रु अथवा काम क्रोध आदि राग द्वेष शत्रु जीते हैं इसलिए आप जिन कहलाते हैं ।। ३८ ।। ॐ ह्रीं जिष्णवे नमः ||३१|| आपका स्वभाव ही सबसे उत्कृष्ट रूप तथा प्रकाश रूप है इसलिए जिष्णु कहे जाते हैं ॥ ३९ ॥ ॐ ह्रीं श्रीं श्रमेयात्मने नमः ॥ ४० ॥ भ्रापका ज्ञान प्रमाण रहित अनन्त है इसलिए श्राप श्रमेयात्मा कहलाते हैं ||४०|| ॐ ह्रीं यह विश्वरीशायनमः || ४१ || आप विश्वरी अर्थात् पृथ्वी के ईश यानी स्वामी हैं इसलिए विश्वरीश कहलाते हैं ॥४१॥ ॐ ह्रीं श्रहं त्रिजगत्पतये नमः || ४२ ॥ प्राप तीनों लोकों के स्वामी हैं, इसलिए त्रिजगत्पति कहे जाते हैं ||४२|| ॐ ह्रीं श्रहं श्रनन्तजिते नमः ||४३|| श्राप अनन्त संसार को जीतने वाले हैं तथा मोक्ष को रोकने वाले अनन्तनाम के ग्रह को जीतने वाले हैं, इसलिए आप अनन्त जित् कहे जाते हैं ||४३|| ॐ ह्रीं चित्यात्मने नमः || ४४ || आपके आत्मा का स्वरूप मन से भी चित वर्णन नहीं किया जा सकता इसलिए आपको अचित्यात्मा कहते हैं ||४४ || ॐ ह्रीं श्रहं भव्य बांधवे नमः || ४५ || ग्राप भव्य जीवों का सदा उपकार करते हैं इसलिए भव्य बन्धु कहलाते हैं ।। ४५ ।। प्रबंधनाय नमः || ४६ || आपको कर्म का बन्ध नहीं है, अथवा घातिया कर्मों के द्वारा श्राप बंधे हुए नहीं है, इसलिए श्राप अबंधन कहे जाते है || ४६ || ॐ ह्रीं यह युगादि पुरुषाय नमः || ४७ || आप कर्मभूमि के प्रारम्भ में हुए हैं इसलिए युगादि पुरुष कहलाते हैं ॥ ४७ ॥ ॐ ह्रीं श्रीं ब्रह्मणे नमः || ४८ || आपके यहां केवलज्ञान आदि समस्त गुण वृद्धि को प्राप्त होते हैं इसलिए आप ब्रह्मा कहे जाते हैं ॥ ४८ ॥ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार च ॐ ह्रीं श्रहं पंचब्रह्ममयाय नमः || ४६|| माप पंचपरमेष्ठी स्वरूप हैं इसलिए आप पंचब्रह्ममय कहलाते हैं ॥४६॥ ॐ ह्रीं श्रीं शिवाय नमः ||५० || माप सदा परमानन्द में रहते हैं, तथा प्राय सब का कल्याण करने वाले हैं इसलिए भ्रापको शिव कहते हैं ॥ ५० ॥ ॐ ह्रीं महं पराय नमः ॥ ५१॥ आप जीवों को मोक्ष स्थान में पहुचाते हैं इसलिए पर कहे जाते हैं || ५१|| ॐ ह्रीं श्रीं परतराय नमः । ५२ ।। धर्मोपदेश देने से आप सबके गुरु हैं एवं सबसे श्र ेष्ठ हैं इसलिए परतर कहे जाते हैं ।। ५२ ।। २४ सूक्ष्माय नमः || ५३ || आप इन्द्रियों के द्वारा नहीं जाने जा सकते। आप केवलज्ञान के द्वारा ही जाने जा सकते हैं इसलिए श्राप सूक्ष्म कहलाते हैं || ५३ || ॐ ह्रीं ॐ ह्रीं यह परमेष्ठिने नमः || ५४ || इन्द्रादिकों के द्वारा पूज्य ऐसे मोक्षस्थान में एवं अरहंत पद में रहने के कारण श्राप परमेष्ठी कहलाते हैं || ५४ || ॐ ह्रीं श्रीं सनातनाय नमः || ५५ ॥ तीनों कालों में आप सदा नित्य रहते हैं इसलिए सनातन कहे जाते हैं ।। ५५।। ॐ ह्रीं श्रीं स्वयं ज्योतिषे नमः || ५६ ॥ श्राप स्वयं प्रकाश रूप हैं, इसलिए स्वयं ज्योति हैं ।। ५६ ।। ॐ ह्रीं श्रहं प्रजाय नमः || ५७ || आप संसार में उत्पन्न नहीं होते इसलिए आप अज हैं ।। ५७ ।। ॐ ह्रीं प्रजन्मने नमः || ५८ || आप किसी शरीर को धारण नहीं करते इसलिए प्राप अजन्मा हैं ||५८ || ॐ ह्रीं अहं ब्रह्मयोनये नमः || ५१ || आप ब्रह्म अर्थात् सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र की योनि अर्थात् खान हैं, इसलिए श्राप ब्रह्मयोनि कहे जाते है ।। ५६ ।। ॐ ह्रीं अहं अयोनिजायनमः || ६० || माप मोक्ष स्थान में चौरासी लाख योनियों से रहित हो कर उत्पन्न होते हैं, इसलिए प्राप प्रयोनिज कहलाते हैं || ६ || ॐ ह्रीं मोहारिविजयिने नमः || ६१|| श्राप मोहनीय कर्म रूपी शत्रु को जीतने वाले हैं इसलिए आप मोहरिविजयी कहे जाते है ।। ६१॥ ॐ ह्रीं यह जेत्रे नमः ||६२|| माप सब से उत्कृष्ट रीति से रहते हैं इसलिए आप जेता कहे जाते हैं ॥६२॥ ॐ ह्रीं धर्मचक्रिणे नमः ।। ६३ ।। गमन करते समय सदा आपके भागे धर्मचक्र रहता है इसलिए आपको धमंचकी कहते हैं || ६३ || ॐ ह्रीं अर्ह दयाध्वजाय नमः || ६४ || सब प्राणियों पर दया करते रूपी भापकी प्रसिद्ध ध्वजा फहरा रही है इसलिए माप दयाध्वज कहलाते हैं || ६४ || ॐ ह्रीं प्रशतारिणे नमः ||६५ | | आपके कर्मरूपी शत्रु शति हो गए हैं इसलिए आप प्रशांतार कहलाते हैं ॥ ६५ ॥ ॐ ह्रीं अनंतात्मने नमः ॥ ६६ ॥ श्राप अनंत गुणों को धारण करने वाले हैं तथा आपकी आत्मा कभी नष्ट नहीं होती और भाप केवलज्ञानी हैं इसलिए अनंतात्मा कहे जाते हैं ।। ६६ ।। Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गमोकार मंच ॐ क्लीं महं योगिने न :: ॥६॥ प्रापने अपने योगों का निरोध किया है इसलिए प्राप योगी है ॥६७॥ __ ॐ ह्रीं महं योगीवरार्चिताय नमः ॥६८।। गणधरादि योगीश्वर भी प्रापको पूजा करते हैं इसलिए पाप योगीश्वरार्चित हैं ।।६।। ॐ ह्रीं मह ब्रह्मविदे नमः १६६|| पाप अपने ब्रह्म पर्थात् पात्मा का स्वरूप जानते हैं इसलिए आप ब्रह्मवित् हैं ॥६॥ ॐ ह्रीं मह ब्रह्मतत्वशाय नमः ||७०11 पाप ब्रह्म तत्व प्रयाँत् प्रात्मतत्व का अथवा केवलज्ञान का मा. दया का अथवा कामदेव के नष्ट करने का मर्म जानते हैं इसलिए आप ब्रह्मतत्वश है ७०॥ ॐ ह्रीं अहं ब्रह्मोधाविदे नमः ॥७१।। आप ब्रह्म अर्थात् प्रात्मा के द्वारा कहे हुए समस्त तत्वों को मथवा प्रात्मविद्या को जानते है। इसलिए पाप ब्रह्मोद्यावित् कहलाते हैं ||७१॥ ॐ ह्रीं पह यतीश्वराय नमः ॥७२॥ रत्नत्रय सिद्ध करने वाले यतियों में भी आप श्रेष्ठ हैं इसलिए यतीश्वर कहे जाते हैं॥७२॥ ___ॐ ह्रीं मई शुशायनमः ॥७३॥ क्रोष प्रादि कषायों से रहित होने से आप शुद्ध हैं ॥७३॥ ___ॐ ह्रीं मह मुखाय नमः ||७४|| केवलज्ञानी होने से अथवा सबको जानने से प्राप दुर हैं ॥४॥ ॐ ह्रीं मई प्रमुखात्मने नमः ॥७॥ अपने पारमा का स्वरूप जानते हैं इसलिए प्रबुद्धात्मा हैं ॥७॥ ___ॐ ह्रीं अहं सिद्धार्थाय नमः ।।७६।। धर्म,अर्थ, काम और मोक्ष चारों पुरुषार्थ पापको सिद्ध हो चुके है तथा मोक्ष प्राप्त करने का ही प्रापका मुख्य प्रयोजन है एवं आपके द्वारा ही जीवादि पदार्थों की सिद्धि होती है तथा मोक्षका अर्थ अर्थात् कारण रत्नत्रय पापको सिद्ध हो चुका है इसलिए मापको सिवाणं कहते हैं ।।७।। ____ *ही अहं सिक्षपासनाय नमः ॥७७॥ मापका शासन अर्थात् मत पूर्ण तथा प्रसिर है, इसलिए पाप सिद्ध शासन कहलाते हैं ॥७७।। ॐ ह्रीं मह सिद्धाय नमः ॥७८॥ प्रापके द्वारा कमों के मारा होने से प्राप सिद्ध कहलाते हैं ७ ॐ ह्रीं पहं सिमान्तविवे नमः ॥७६।पाप द्वादशांग सिद्धान्त के पारगामी हैं, इसलिए भाप सिद्धान्तविद कहलाते हैं ॥७६ ____ॐ ह्रीं अहं ध्येयाय नमः ।।८।। योगी लोग भी प्रापका ध्यान करते हैं, इसलिए पाप ध्येय हैं ।।८।। ॐ ह्रीं पहं सिवसाध्याय नमः ॥१॥ मापकी पाराधना मुनिजन तथा सिद्ध जाति के देव भी करते हैं इसलिए पाप सिव साध्य कहलाते हैं ।।८१॥ ॐ ह्रीं मह जगविते नमः ||२॥ माप सम्पूर्ण जगत के हितकारी हैं, शसलिए श्राप जगत हित कहलाते हैं ।।२।। " ह्रीं पई सहिष्णवे नमः ॥८३ पाप सहनशील होने से सहिष्णु कहलाते हैं ॥८३।। Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ णमोकार म ॐ ह्रीं पह अच्युताय नमः ॥४॥ पाप प्रात्मा से स्वरूप से कभी भी व्युत नहीं होते इसलिए आप अच्युत हैं ।1८४ । ॐ ह्रीं अर्ह अनन्ताय नमः ।।८।। पापके गुणों का पन्त नहीं है तथा पापके गुण नाशवान् नहीं इसलिए माप अनन्त हैं ।।८५॥ ___* ह्रीं अहं प्रभविष्णुवे नमः ॥८६॥ माप के मन्दर अनन्त शक्ति है इसलिये प्राप प्रभविष्णु कहलाते हैं 11८६॥ ___ॐ ह्रीं अहं भवोभवाय नमः ॥८७॥ संसार में जन्म मरण से माग मुक्त हो चुके हैं एवं संसार में प्रापका जन्म उस्कृष्ट गिना जाता है इसलिये माप भवोभव है ॥७॥ ॐ ह्रीं पह प्रभविष्णवे नमः ॥८॥आपकी स्वाभाविक परिणति समय-समय में परिणमनशील है अथवा सौ इन्द्रों के प्रभुत्व को प्राप्त करने का मापका स्वभाष है इसलिये पाप प्रभविष्णु कहलाते है ||८|| ॐ ह्रीं अहं प्रजराय नमः ॥८६॥ पाप बुढ़ापे से रहित है मतः माप मजर कहलाते हैं ॥६॥ ॐ ह्रीं मह प्रजयाय नमः ||१०|| मापको कोई भी जीत नहीं सकता इसलिए माप प्रजम हैं ॥६॥ ___ॐ ह्रीं अहं भ्राजिष्णवे नमः ।।११।। करोड़ों सूर्य और चन्द्रमा को कान्ति से भी प्रापकी कान्ति अधिक है इसलिए पाप भ्राजिष्णु कहलाते हैं ।।१।। ॐ ह्रीं श्रहं धीश्वराय नमः ॥६२|| पाप पूर्ण ज्ञान के स्वामी है इसलिए पाप धीश्वर कहलाते हैं ।।१२।। ___ ॐ ह्रीं महं अव्ययाय नमः ॥६३|| पाप सदा अविनाशी है । पाप कभी नाशक रूप अथवा न्यूनाधिक नहीं होते इसलिए पाप अव्यय कहलाते हैं ।।६३॥ ॐ ह्रीं मह विभावसवे नमः ॥१४|| कर्मरूपी काष्ठ को जलाने से भाप विभावसु अर्थात् मग्नि हैं। मोहरूपी अन्धकार को नाश करने से आप विभावसु अर्थात् सूर्य है, पयवा धर्म रूपी प्रमृत की वर्षा करने से विभावसु अर्थात् सूर्य हैं, तथा राग-पप्रादि विभाव परिणामों को आपने नाश किया है इसलिए भी पाप विभावसु कहलाते हैं ॥४॥ ॐ ह्रीं मह पसंभूष्णवे नमः ।।१५।। संसार में उत्पन्न होने का पापका स्वभाव नहीं है इसलिए पाप प्रसंभूष्णु हैं ।।६।। ॐ ह्रीं अहँ स्वयम्भूष्णवे नमः ।।६६॥ अपने पाप ही आप प्रगट अर्थात् प्रकाशमान हये है इसलिये प्राप स्वयम्भूष्णु कहलाते हैं ।।१६॥ ॐ ह्रीं ग्रह पुरातनाय नमः ।।६७॥ पाप मनादि सिद्ध है, इसलिए पुरातन हैं ।।७।। ॐ ह्रीं अह परामात्मने नमः |६८॥ पापका पात्मा परमोत्कृष्ट है इसलिये माप परमात्मा कहलाते हैं। ॐ ह्रीं मह परंज्योतिषे नमः ||६ माप मोक्षमार्ग को प्रगट करने वाले है इसलिये पाप परंज्योति कहलाते हैं और तीनों लोकों में भापही उत्कृष्ट है 18ET ___ॐ ह्रीं मह त्रिजगत्परमेश्वराय नमः ।।१०।। माप तीनों लोकों के स्वामी है इसलिए पाप त्रिजगरपरमेश्वर कहलाते हैं ।।१००॥ * हीं पहं दिव्य भाषा पतये नमः ॥१०॥ माप दिव्य ध्वनि के स्वामी है, इसलिये पाप दिव्य भाषा पति है ।।१०१॥ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार पंथ ॐ ह्रीं प्रहं दिव्याय नमः ।।१०२।। पाप अत्यन्त मनोहर होने से दिव्य है ।।१०।। * ही बाई पमनाये नम: ! १०३।। प्रापकी वाणी सर्वथा निर्दोष है इसलिये पाप पूतदाक कहलाते हैं ।।१०३॥ ___ॐ ह्रीं प्रर्ह पूतशासनाय नमः ।।१०४॥ प्रापका उपदेश अथवा मत पवित्र होने से पाप पून शासन है ॥१०४।। ॐ ह्रीं अह पूतात्मने नमः ।।१०५|| आपका आत्मा पवित्र है अथवा पाप भन्य जीवों को पवित्र करने वाले हैं । प्रतः पाप पूतात्मा कहलाते हैं ।। १०५।। ॐ ह्रीं ग्रह परम ज्योतिषे नमः ॥१०६॥ प्रापका केवलज्ञान रूपी तेज सर्वोत्कृष्ट है। इसलिये पाप परम ज्योति है ।।१०६॥ ॐ ह्रीं मई धांध्याय नमः ।। १०७॥ पाप धर्म के प्रमुख अधिकारी है इमाला धर्माध्यक्ष हैं॥१०॥ . ॐलीं रह पमीश्वराय नमः ।।१०८॥ पाप इन्द्रियों को निग्रह करने में श्रेष्ठ हैं इसलिए दमीश्वर कहलाते हैं ।।१०८॥ __ * हीं पहं श्रीपतये नमः ||१०६ | पाप मोक्षादि लक्ष्मी के भोक्ता वा स्वामी है अनाव पाप श्रीपति हैं ॥१०॥ ॐ ह्रीं पह महते नमः ।।११०॥ माप महाशानी होने से भगवान् हैं ।। ११०।। ॐहीं ग्रह बहते नमः ॥१११॥ श्राप परम पूज्य होने से तथा सभी के द्वारा पाराधना करने के योग्य होने से अहंन्त हैं ॥१११।। ॐ ह्रीं मह परमाय नमः ।। ११२॥ पाप कर्म रूपी रज से रहित होने से अरजा है ।।११।। ॐ ह्रीं मह बिरजाय नमः ।।११३।। आप के द्वारा भव्य जीयों के कर्म मल दूर होते हैं तथा पाप शानावरण दर्शनावरण से रहित हैं अलएन बिरजा हैं ।।११३।।। ॐ ह्रीं मह शुचये नमः ॥११४॥ प्राप परम पवित्र है कि वा पूर्ण ब्रह्मचर्य को पालन करने वाले है अथवा मलमूत्र रहित हैं एवं मोहरहित हैं अतः प्राप शुचि हैं ॥११॥ ____ॐ ह्रीं ग्रह तीर्थकृते नमः ॥११५॥ पाप धर्मरूपी तीर्थ के कर्ता है तथा संसार से पार करने वाले द्वादशांग रूपी तीर्थ कर्ता हैं इसलिए पाप तीर्थकृत हैं ।।११।। ॐ ह्रीं श्रहं केवलिने नमः ॥११६॥ पाप के बलशान से युक्त होने से केवली है ।।११।। ॐ ह्रीं मह ईशानाय नमः ।।११७|| माप अनन्त शस्तिमान है तथा सबके ईश्वर है इसलिए पाप ईशान है ।।११७॥ ॐ ह्रीं मह पूजाहाय नमः ।।११८॥ प्राप झाठ प्रकार की पूजा के लिए योग्य होने से पूजाई हैं ।।११।। ॐ ह्रीं मह स्मातकाय नमः ।। ११६|| प्रापने अपने पातिया कर्मों का नाश कर दिया है तथा पूर्ण शान प्राप्त कर लिया है इसलिये माप स्नातक हैं ।।११६॥ ___ॐ ह्रीं मह प्रमलाय नमः ।।१२०॥ पाप धातु उपधातु प्रादि मल रहित होने से अमल हैं ॥१,२०॥ *ह्रीं महं अनन्तदीप्तये नमः ॥१२१॥ प्रापको केवलशान दीप्ति अथवा प्रापके शरीर की कान्ति मनन्त है अतः माप अनन्तदीप्ति कहलाते हैं ।।१२१।। Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार प्रेम ___ ॐ ह्रीं महं ज्ञानात्मने नमः ॥१२२।। पाप ज्ञानरूप होने से ज्ञानात्म कहलाते हैं ।। १२२॥ ॐ ह्रीं पह स्वम्बुद्धये नमः ॥१२३३ पपमे पाप ही मोक्ष मार्ग में पाप प्रवृत हुये हैं अथवा विना गुरु के स्वयं महाशानी हुए हैं इसलिए पाप स्वम्मुख कहलाते हैं ।।१२।। ॐ ह्रीं मह प्रजापतये नमः ॥१२४|| प्राप तीनों लोको के स्वामी होने से प्रयया सभी को उपदेश देने से प्रजापति हैं ।।१२४॥ ॐ ह्रीं महं मुक्तये नमः ॥१२५॥ माप संसार और कर्मों से रहित होने से मुक्त हैं ॥१२॥ ॐ ह्रीं पहं शपतये नमः ।।१२६।। पाप में सामर्थ्य होने से अथवा अनन्त शम्ति होने से प्राप शक्त हैं ॥१२६11 ॐ ह्रीं प्रहं निरावाधाय नमः ।।१२७।। पाप बाधा पपवा दुख से रहित होने से निराबाध हैं ।।१२७॥ ॐ ह्रीं यह निकलाय नमः ॥१२८॥ पाप शरीर रहित होने से निष्कल है ।।१२८।। ॐ ह्रीं पहँ भुवनेश्वराय नमः ॥१२६।। आप तीनों लोकों के स्वामी होने से भुवनेश्वर हैं ।।१२।। ॐ ह्रीं अहं निरंजनाय नमः ।।१३०॥ पाप कर्मरूपी अंजन से रहित होमे से निरंजन कहलाते हैं ।।१३०॥ ॐ ह्रीं अहं जगज्ज्योतये नमः ।। १३॥ जगत् को प्रकाशित करने से अथवा मोक्ष मार्ग का स्वरूप दिखलाने से आप जगज्योति हैं ।।१३।। ___* ह्रीं प्रहं निशक्तोक्तये नमः ।।१३२॥ आपके वचन पूर्वापर प्रविष्ट होने से प्रमाण हैं इसलिये प्रापको निरुक्सोक्ति कहते हैं ।।१३।। ॐ ह्रीं प्रहं निरामयाय नमः ॥१३३॥ पाप रोग रहित अथवा शेष राहत होने से निरामय हैं ॥१३३।। ॐ ह्रीं महं अचलस्थिताय नमः ।।१३४॥ अनन्तकाल बीतने पर भी प्रापकी स्थिति अचल रहती है इसलिये पाप अचल स्थिति कहलाते हैं ॥ १३४।। ॐ ह्रीं पहं प्रक्षोन्याय नमः ॥१३५।। पाप व्याकुलता रहित है अथवा पापकी शांति कभी भंग नहीं होती इसलिये माप प्रक्षोभ्य कहलाते हैं ॥१३॥ ॐ ह्रीं श्रह कूटस्थाय नमः ॥१३६॥ माप सदा नित्य रहने से अथवा लोक शिखर पर विराजमान होने से कूटस्थ कहलाते हैं ।।१३६॥ ह्रीं मह स्थाणु के नमः ॥१३७।। माप गमनागमन से रहित होने से स्थाणु हैं ।।१३७।। *ह्रीं महं प्रक्षयाय नमः ॥१३८।। पाप क्षय रहित होने प्रक्षय है ॥१३॥ ॐ हीं पहं अग्रणीयेनमः ॥१३। तीनों लोकों में सबसे श्रेष्ठ होने के कारण पाप मग्रणी कहलाते हैं ।।१३।। ॐ ह्रीं मह प्रामिण्ये नमः ।।१४०।। माप मोक्षपद को प्राप्त होने से ग्रामणी कहलाते हैं ॥१४॥ * ह्रीं पई नेत्राय नमः ।।१४१।। माप समस्त प्रजा को धर्मानुसार पलाते हैं इसलिये माप नेता हैं ।।१४।। ॐ ह्रीं महं प्रणेताय नमः ।।१४२॥ माप शास्त्र से उत्पन्न करने वाले प्रथवा धर्म अथवा धर्म व मोक्षमार्ग का उपदश देने वाले हैं इसलिये भाप प्रणेता कहलाते हैं ॥१४२।। Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार प्रय ॐ ह्रीं मह न्यायशास्त्रकृते नमः ॥१४३।। पाप प्रमाण पौर नयों के स्वरूप को दिखाने वाले है अतः भाप न्यायशास्त्रकृत कहलाते हैं ॥१४३॥ ॐ ह्रीं महं शास्ताय नमः ।।१४४।। पाप सभी को हितरूप उपदेश देने से शास्ता है ।।१४४।। ॐ ह्रीं मह धर्मपत्तये नमः ।।१४५।। रत्नत्रय प्रपवा उत्तम क्षमादि धर्मों के स्वामी होने से माप धर्मपति है ॥१४॥ ॐ ह्रीं महं धर्माय नमः ।।१४६।। माप धर्मरूप होने से धर्म है ॥१४६।। ॐ ह्रीं महंधर्मारमाय नमः ॥१४७॥ आप धर्मात्मामों की वृद्धि करने से धरिमा ॥१४७॥ ॐ ह्रीं महं धर्मतीर्थकुते नमः १४८।। पाप धर्मरूपी तीर्थ की प्रवृत्ति करमे से धर्मतीकत कहलाते हैं ॥१४॥ ॐ ह्रीं प्रहं वृषध्वजाय नमः ॥१४६॥ पापकी ध्वजा पर बैल का चिन्ह होने से अथवा इषभ पर्यात् धर्म की ध्वजा फहराने वाले प्राप वृषध्वज कहलाते हें ॥१४६।। ॐ ह्रीं मह वृषाधीशाय नमः ।।१५०॥ बाप अहिंसा रूपी धर्म के स्वामी होने से वृषाधीश कहलाते हैं ।। १५०॥ ॐ ह्रीं प्रहं वृषकेतवे नमः ॥१५१|| पाप धर्म को प्रसिद्ध करने से वृषकेतु है ॥१५॥ ॐ ह्रीं मह वषायुषाय नमः ॥१५२॥ आपने कमरूपी शत्रु को नाश करने के लिये धर्म रूपी शस्त्र को धारण कर रखा है इसलिये वृषायुध कहलाते हैं ॥१५२॥ ही अह वृषाय नमः । १५३१ माप धर्म की वृष्टि करने से वष हैं ॥१५॥ ॐ ह्रीं ग्रह वृषपतये नमः ॥१५४|| पाप धर्म के नायक होने से वृषपत्ति है ।। १५४।। ॐ ह्रीं पहं भवे नमः ॥१५५॥ पाप सबके स्वामी होने से भी हैं ॥१५५।। ॐ ह्रीं अहं वृषभाकाय नमः ।। १५६।। प्राप वृषभ का चिह्न होने से वृषाक है ॥१५६।। ॐ ह्रीं पहं वृषोद्भवाय नमः ।।१५७।। माता को स्वप्न में वषम दिखाई देकर माप उत्पन्न हुये हैं अथवा महान् पुण्य से उत्पन्न हुये है। इसलिये आप पृषभोद्भव कहलाते हैं ।।१५७।। ॐ ह्रीं पहं हिरण्यमामये नमः ।।१५८।। प्राय सुन्दर नाभि वाले होने से अथवा नाभिराजा की संतति होने से हिरण्यनाभि है ।।१५।। ॐ हीं महं भूतात्मने नमः ।।१५६।पापका स्वरूप यथार्थ है, कभी नाश महीं होता इसलिये पाप भूतात्मा हैं ॥१५॥ ॐ ह्रीं अहं भूतमृते नमः ।।१६०॥ प्रापजीवों की रक्षा करने से मपवा कल्याण करने से भूतमृत कहलाते हैं ।।१६०॥ * ह्रीं पह भूतभावनाय नमः ।।१६।। पापको भावना सदा मंगल रूप है इसलिये माप भूतभावन कहलाते हैं ॥१६॥ ही प्रह प्रभन्ने नमः ॥१६२|| पापका जन्म प्रशंसनीय है पथवा मापसे प्रापके वंश की बखि हुई है इसलिये प्रभव कहे जाते हैं ॥१६२।। ॐ ह्रीं महं विभवे नमः ॥१६३॥ संसार रहित होगे से पाप विभव है ।।१६३॥ ॐ ह्रीं पहं भास्थने नमः ॥१६४॥ केवलज्ञान नीति से प्रकाशमान होने से पाप भास्वम् है ॥१६॥ * हीं मई भवाम ममः ।।१६।। पाप में समय-समय में उत्पाव होता रहता है इसलिये पाप भव है ॥१६शा Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार प्रय ॐ ह्रीं महं भावाय नमः ॥१६६।। प्राप अपने स्वभाव में समा लीन हैं इसलिये पाप भाव हैं ।।१६६।। ऊँ ही मह भवान्तकाय नमः ॥१६॥ संसार भ्रमण का पाप अत करने वाले हैं, इसलिए भवान्तक को जाते हैं ||१६७।। ॐ ह्रीं ग्रह हिरण्यगर्भाय नमः ।।१६८।। आपके गर्भावतार के समय सुवर्ण की दृष्टि हुई थी इसलिये पापको हिरण्यगर्भ कहते हैं ॥१६॥ __ॐ ह्रीं प्रहं श्रीगर्भाय नमः ।। १६६| मापके गर्भावतारके समय लक्ष्मी ने भी सेवा की थी अथवा मापके प्रग-भंग में स्फुरायमान लक्ष्मी शोभायमान हैं, इसलिये आप को श्रीगर्भ कहते हैं ।।१६।। ॐ ह्रीं प्रहं प्रभूतविभवे नमः ।। १७०।। मनन्त विभूति के स्वामी होने से भापको प्रभूत विभव कहते हैं ।।१७०।। ॐ ह्रीं मह अभवाय नमः ।।१७।। पाप जन्म रहित होने से प्रभव कहे जाते हैं ॥१७१।। ॐ ह्रीं मह स्वयंप्रभुवे नमः ॥१७२।। प्राप अपने पापही समर्थ होने से स्वयंप्रभु कहलाते हैं ॥१७२॥ ॐ ह्रीं प्रहं प्रभूतात्मने नमः ॥१७३।। केवलज्ञान के द्वारा प्रापका आत्मा व्याप्त होने से पाप प्रभूतात्मा कहलाते हैं ११७३| ॐ ह्रीं पहं जगत्प्रभवे नमः ।।१७४॥ तीनों लोकों के स्वामी होने से पाप जगतप्रभु कहलाते हैं ।।१७४।। ॐ ह्रीं मह भूतनाथाय नमः ॥१७५५॥ समस्त जीवों के स्वामी होने से प्राप भूतनाथ हैं ।।१७५|| ॐ ह्रीं ग्रह सर्वादये नमः ।। १७६।। सबसे प्रथम अर्थात् श्रेष्ठ होने से प्राप सर्वादि है ॥१७६॥ ॐ ह्रीं अर्ह सर्वदृशे नमः ।।१७७॥ माप समस्त लोकालोक को देख सकते हैं इसलिये सबंदक हैं ॥१७७।। ॐ ह्रीं महं सर्वाय नमः ॥१७८|| प्राप हितोपदेश कर सभी का कल्याण करने से सर्व है ।।१७॥ ॐ ह्रीं महं सर्वशाय नमः ॥१७६।। माप पूर्ण सम्यमत्व को धारण करने से सर्वज्ञान हैं ।।१६।। केही मह सर्व दर्शनाय नमः ।।१०।। मापका दर्शनपूर्ण प्रवस्था को प्राप्त हुमा है इसलिए माप सर्व दर्शन कहलाते हैं ॥१०॥ ॐ ह्रीं महं सर्वात्मने नमः ॥१८१|| पाप सबके प्रिय होने से सर्वारमा है ॥११॥ *हीं प्रहं सर्वलोकेशाय नमः ।१८२॥ प्राप तीनों लोकों के समस्त जीवों के स्वामी होने से सर्वलोकेश हैं ।।१८।। ॐ ह्रीं महं सर्वविदे नमः ।।१८३|| माप समस्त पदार्थों के ज्ञाता होने से सर्वविद् है ।।१८।। ॐ ह्रीं ग्रह सर्व लोकजिते नमः ॥१८४|| पाप अनन्तवीर्य होने के कारण समस्त लोक को जीतने वाले हैं इसलिए सर्वलोकजित कहलाते हैं ।।१८४॥ *लों पहं सुगतये नमः ॥१८५|| भापकी पंचम मोक्षगति प्रतिशय सुन्दर होने से मथवा पापका ज्ञान प्रशंसनीय होने से पाप सुगति कहलाते हैं ।।१८५।। ॐ ह्रीं अहँ सुश्रुतायनमः ॥१८६॥ पाप अत्यन्त प्रसिद्ध होने से अथवा उत्तम शास्त्रज्ञान को धारण करने से पाप सुश्रुत हैं ॥१६॥ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार प्रेष ॐ ह्रीं पहं सुश्रुते नमः ।।१८७॥ पाप भक्तों की प्रार्थना को अच्छी तरह से सुनते हैं इसलिए सुश्रुत कहलाते हैं ॥१७॥ ॐ ह्रीं मह सुवाचे नमः ॥१८८11 प्रापकी वाणी सप्तभंग स्वस्थ होने प्रथम हितोपदेश देने से पाप सुवाक कहलाते हैं ॥१८८|| ॐ ह्रीं ग्रह सूर्य नमः ।।१८।। पाप सबके गुरु होने से सूरि है ।।१६।। ___ॐ ह्रीं मह बहुश्रुताय नमः ।।१६०॥ माप शास्त्रों के पारगामी होने से बहुश्रुत कहलाते हैं ॥१९०| ॐ ह्रीं पहं विश्रुताय नमः ।।१६१।। प्राप जगत् प्रसिद्ध होने से पथवा बास्त्रों से भी पापका यथार्थ स्वरूप जाना नहीं जाता इसलिये पाप विश्रुत है ।।१६१॥ ॐ ह्रीं पहं विश्वतः पादाय नमः १९२।। पापकी केवलज्ञान रूपी किरणें सब पोर फैली हुई हैं इसलिये मापको विश्वतः पाद कहते हैं ।।११२॥ ॐ ह्रीं प्रहं विश्वशीर्षाय नमः ।।१९३॥ लोक के शिखर पर विराजमान होने से पाप विश्वशीर्ष है ।।१६।। ॐ ह्रीं मह शुचित्रवाय नमः ।।१६४॥ आपका शान अत्यन्त निदोष है इसलिये पापको शुकिसबा कहते हैं ॥१४॥ ॐ ह्रीं महं सहस्रशीर्षाय नमः ॥११॥ अनन्त सुखी होने से भाप सहस्रशीर्ष हैं ॥१९॥ ॐ ह्रीं मह क्षेत्रशाय नमः ॥१९६॥ प्रारमा के स्वरूप को जानने से अथवा लोकालोक को जानने से भाप क्षत्रश हैं ।। १६६॥ ॐ ह्रीं पह सहस्राक्षाय नमः ।। १९७|| पाप अनन्तदर्शी होने से सहलाक्ष है॥७॥ ॐ ह्रीं महं सहनपदे नमः ॥१६८॥ अनन्त वीर्य को धारण करने से आप सहस्रपाद हैं॥१९८।। ॐ ह्रीं प्रहं भूतभव्य भवदपत्रे नमः ॥१९६|| भूत, भविष्यत्, वर्तमान तीनों कालों के स्वामी होने से आप भूतभव्यभवदपत्रा हैं ||१६६।। ॐ ह्रीं महं विश्वविद्यामहेश्वराय नमः ॥२००॥ पाप समस्त विद्यामों के लषा केवलशान के स्वामी होने ये विश्वविद्यामहेश्वर कहे जाते हैं ॥२०॥ ____ॐ ह्रीं मह स्थविष्ठाय नमः ॥२०१॥ सद्गुणों के पूर्ण होने से अथवा आपके प्रदेशों में समस्त जीवों के प्रकाश देने की शक्ति होने से प्रापको स्थविष्ट कहते हैं ।।२०१॥ ॐ ह्रीं पह स्थविराय नमः ॥२०२।। पाप प्रादि, मन्त रहित होने से भत्पन्त वृद्ध अथवा ज्ञान से वृक्ष है इसलिए स्थविर कहलाते हैं ॥२०२।। ॐ ह्रीं पह ज्येष्ठाय नमः ॥२०३।। मुरुप होने से पाप ज्येष्ठ हैं ।।२०३।। * ह्रीं पहं पृष्ठाय नमः ।।२०४१। सबके मनगण्य होने से पाप पृष्ठ है ॥२०॥ ॐ ह्रीं महं प्रेष्ठाय नमः ॥२०५।। प्रत्यन्त प्रिय होने से पाप प्रेष्ठ है ।२०।। ॐहीं पहं वरिष्ठधिये नमः ॥२०६॥ अतिशय बुद्धि को धारण करने वाले होने से माप वरिष्ठधी कहलाते हैं ।।२०६॥ ॐ ह्रीं ग्रह स्थेष्ठाय नम: ॥२०७॥ प्राप प्रपन्त स्थिर पर्थात् अविनाशी होने से स्प्ष्ठ कहलाते है ॥२०॥ ॐ ह्रीं ग्रहं गरिष्ठाय नमः ॥२०६।। अत्यन्त गुरु होने पाप गरिष्ठ हैं ॥२०८।। Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार ग्रंथ ॐ ह्रीं मह वहिष्ठाय नमः ॥२०६|| अनन्त गुणों के धारक होने तथा अनेक स्वरूप हो जाने से भाप वहिष्ठ है ।।२०६॥ ॐ ह्रीं महं श्रेष्ठाय नमः ॥२१०॥ प्रशंसनीय होने से प्राप श्रेष्ठ है ।।२१।। ॐ ॐ हं अनिष्ठाय नमः ॥२११॥ अतिशय सूक्ष्म अर्थात् केवलज्ञान गोचर होने से प्राप अनिष्ठ कहलाते हैं ॥२११।। ॐ ह्रीं प्रहं गरिष्ठगिरे नमः ॥२१२।। मापकी वाणी पूज्य होने से पाप गरिष्ठगी कहलाते हैं ।।२१२।। ॐ ह्रीं प्रहं विश्वभृवाय नमः ॥२१३॥ चतुर्गतिरूप संसार को नष्ट करने के कारण श्राप विश्वभृद कहलाते हैं ॥२१३।। ॐ ह्रीं पहं विश्वश्रषे नमः ।।२१४॥ विधि विधान के कर्ता होने से भापविषवसुद हैं ॥२१४॥ ॐ ह्रीं मह विश्वाय नम: 1॥२१५॥ तीन लोक के स्वामी होने से पाप विश्वेट कहलाते हैं ॥२१५॥ ॐ ह्रीं प्रहं विश्व के नमः ॥२१६॥ जगत् की रक्षा करने वाले होने से प्राप विश्वभुत् कहलाते हैं ॥२१६॥ ॐ ह्रीं अर्ह विश्वनायकाय नमः ।।२१७।। सबके स्वामी होने से पाप विश्वनायक है ।।२१।। ॐ ह्रीं पहं विश्वासिने नमः ॥२१८।। समस्त प्राणियों के विश्वास योग्य होने से मथवा केवलशान के कारण सब जगह निवास करने से पाप विश्वासी कहलाते हैं ॥२१८।। ॐ ह्रीं पहं विश्वरूपात्मने नमः ॥२१॥ प्रापका प्रात्मा अनन्त स्वरूप है, इसलिए माप विश्वरूपात्मक कहलाते हैं ।।२१६॥ ॐ ह्रीं ग्रह विश्वजिते नमः ॥२२०॥ संसार को जीतने से पाप विश्वजिन कहलाते हैं ॥२२०॥ ॐ ह्रीं पहँ विजिनान्तकाय नमः ॥२२१॥ काल को जीतने के कारण आप विजितान्तक कहलाते हैं ॥२२१॥ ॐ ह्रीं ग्रह विभवाय नमः ।।२२२॥ आपको किसी प्रकार का मनो विकार नहीं है इसलिए प्राप विभव कहलाते हैं ॥२२२॥ ॐ ह्रीं मह विभयाय नमः ॥२२३॥ भय रहित होने से माप विभय कहलाते है ।।२२३॥ ॐ ह्रीं मह वीराय नमः ।।२२४॥ लक्ष्मी के स्वामी होने से तथा अतिशय बलवान होने से आपको वीर कहते हैं ॥२२४॥ ॐ ह्रीं मह विशोकाय नमः ॥२२५ शोक रहित होने से पाप विशोक कहलाते है ।।२२५॥ *ह्रीं मह विजराय नमः ॥२२६|| जरा रहित होने से पाप विजर है ॥२२६।। ॐ ह्रीं ग्रह जरणाम नमः ॥२२७।। नवीम न होने से अर्थात् प्रनादि कालीन होने से पाप जरत वा पर है।।२२७॥ ही पहं विरागाय नमः ॥२२८।। राग रहित होने से पाप विराग है ।।२२।। ॐ ह्रीं मई विताय नमः ॥२२६।। समस्त विषयों से घिरस्त होने से भापको विरत कहते हैं ॥२२॥ ही पह प्रसंगाय नमः ॥२३०।। पर वस्तु का सम्बन्ध न रखने से पाप प्रसंग है ॥२३०॥ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार प्रथ ॐ ह्रीं प्रहं विविस्ताय नमः ।। २३१ ॥ प्राप एकाकी प्रयवा पवित्र होने से विविक्त हैं ।।२३।। ॐ ह्रीं अहं वोतमत्सराय नमः ।। २३२ ॥ ईर्षा द्वेष न करने से आप बीतमत्सर कहलाते हैं ॥ २३२ ॥ ___ॐ ह्रीं अह विनेयजनसावधये नमः ॥ २३३ ।। आप अपने भवतजनों के बंधु हैं इसलिए आप विनेयजनता बंधु कहलाते हैं ।। २३३ ॥ ॐ ह्रीं ग्रह विलीनाशेषकरमषाय नमः ।। २३४ ।। कर्मरूपी समस्त कालिमा रहित होने से प्राप विलीनाशेषकल्मष हैं ।। २३४ ॥ ॐ ह्रीं महं वियोगाय नमः ।। २३५ ॥ अन्य किसी वस्तु के साथ सम्बन्ध न होने से अथवा राग रहित होने से आप वियोग हैं ।। २३५॥ ॐ ह्रीं अहं योगविदे नमः ।। २३६ ।। योग के जानकार होने से आप योगवित् हैं ।। २३६ ॥ ॐ ह्रीं मह विद्वानाय नमः ॥२३७॥ महापंडित अर्थात् पूर्ण ज्ञानी होने से प्राप विद्वान हैं ॥२३७॥ ॐ ह्रीं अहं विधाताय नमः ।।२३।। धर्मरूप सृष्टि के कर्ता होने से अथवा सबके गुरु होने से पाप विधाता हैं ॥२३८।। ___ॐ ह्रीं ग्रह सुविधये नमः ॥२३६॥ आपके अनुष्ठान एवं क्रिया अत्यन्त प्रशंसनीय होने से प्राप सुविधि हैं ॥२३६।। ॐ ह्रीं श्रह सुध्ये नमः ॥२४०॥ अतिशय बुद्धिमान होने से अाप सुधी हैं ।।२४०।। ॐ ह्रीं मह क्षोतिभाजे नमः ||२४१|| पाप उत्तम शांति के धारण से शांतिभाक् हैं ॥२४॥ ॐ ह्रीं अहं पृथ्वी मूर्तये नमः ।।२४२॥ आप में पृथ्वी के समान सबको सहन करने की शक्ति होने से पृथ्वी मूर्ति हैं ।।२४२।। ॐ ह्रीं ग्रह शांतिभाजे नमः ॥२४३।। आप शान्ति को धारण करने से शांतिभाक् कहलाते हैं ।।२४३|| ॐ ह्रीं ग्रह सलिलात्मकाय नमः ॥२४४॥ जल के समान अत्यन्त निर्मल होने से तथा अन्य जीबों को कर्ममल रहित शुद्ध करने से पाप सलिलात्मक हैं ।।२४४॥ ॐ ह्रीं अर्ह वायुमूर्तये नमः ।।२४५।। पाप वायु के समान पर के सम्बन्ध में रहित होने के कारण वायुमूर्ति हैं ॥२४५।। ह्रीं अर्ह प्रसंगात्मने नमः ॥२४६।। परिग्रह रहित होने से प्राप प्रसंगात्मा हैं ॥२४६॥ ॐ ह्रीं मह वह्नि मूर्तये नमः ॥२४७॥ अग्नि के समान ऊध्र्वगमन स्वभाव होने से अथवा कर्मरूपी ईन्धन को जला देने से पाप यह्निमूति हैं ॥२४७।। ॐ ह्रीं ग्रह अधर्मणे नमः ।।२४८॥ अधर्म का नाश करने से आप अधर्मधुक कहलाते हैं ॥२४॥ ॐ ह्रीं अर्ह सुयज्वने नमः॥२४६॥ कर्मरूपी सामग्री का हवन करने से आप सुयज्वा हैं ।।२४६।। ॐ ह्रीं अहं यजमानात्मने नमः ॥२५०॥ स्वभाव भाव की प्राराधना करने से अथवा भाव पूजा के कर्ता होने से प्राप यजमानात्मा है ॥२५०।। ॐ ह्रीं अहँ सुत्वाय नमः ॥२५१॥ परमानन्दसागर में अभिषेक करने से पाप सुत्वा कहलाते हैं ।।२५१॥ 3 Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ णमोकार ग्रंथ ॐ ह्रीं श्रीं सुत्रामपूजिताय नमः || २५२ ॥ इन्द्र के द्वारा पूज्य होने से श्राप सुत्राम पूजित हैं ।। २५२ ॥ ॐ ह्रीं ऋत्विजे नमः || २५३ || ध्यान रूपी अग्नि में शुभाशुभ कर्मों को भस्म करने में अथवा ज्ञानरूप यज्ञ करने से श्राप प्राचार्य कहलाते हैं। इसलिए आपको ऋत्विक कहते हैं ।। २५३ ।। ॐ ह्रीं भई यज्ञपतये नमः || २५४ || यक्ष के मुख्य अधिकारी होने से श्राप यशपति हैं ।। २५४ ।। ॐ ह्रीं श्रहं यज्याय नमः ।। २५५|| सर्व पूज्य होने से आप राज्य हैं ॥ २५५॥ ॐ ह्रीं अहं पशांगाय नमः || २५६ ।। यज्ञ के साधन अर्थात् मुख्य कारण होने से प्राप यशांग है ।। २५६ ।। ॐ ह्रीं अमृताय नमः ॥ २५७ || मरण रहित होने से अथवा संसार तृष्णा को निवारण करने से आप अमृत हैं ।। २५७ ॥ ॐ ह्रीं अहं हविषे नमः || २५८ ॥ हैं ||२५८ || ॐ ह्रीं श्रीं व्योममूर्तये नमः || २५६ || श्राप श्राकाश के समान निर्मल श्रथवा केवलज्ञान के द्वारा सर्वव्यापी होने से व्योममूर्ति हैं ||२५|| अमूर्तात्मने नमः || २६० ॥ रूप, रस, गंध, स्पर्श, रहित होने से आप अमूर्तात्मा ॐ ह्रीं हैं ॥ २६० ॥ श्रपने आत्मा में तल्लीन रहने से प्राप हविष कहलाते ॐ ह्रीं निर्लेपाय नमः || २६१ ॥ कर्मरूपी लेप से रहित होने से आप निर्लेप हैं ।। २६१।२ ॐ ह्रीं श्रीं निर्मलाय नमः || २६२ ॥ रागादि रहित होने से अथवा मलमूत्रादि से रहित होने से श्राप निर्मल हैं ।। २६२|| ॐ ह्रीं ग्रहं श्रचलाय नमः || २६३|| आप सर्वदा स्थित रहने से चल हैं ॥ २६३ ॥ ॐ ह्रीं श्रहं सोममूर्तये नमः || २६४ || चन्द्रमा के समान प्रकाशमान और शांति होने से प्रथवा प्रत्यन्त सुशोभित होने से श्राप सोममूर्ति हैं ॥ २६४॥ ॐ ह्रीं श्रीं सुसौम्यात्मने नमः || २६५ ।। प्राप प्रतिशय सौम्य होने से सुसौम्यात्मा हैं ||२६|| ॐ ह्रीं सूर्यमूर्तये नमः || २६६ || आप सूर्य के समान अतिशय कांतियुक्त होने से सूर्यमूर्ति हैं ॥ २६६॥ ॐ ह्रीं श्रीं महाप्रभाय नमः ॥ २६७ ॥ आप प्रतिशय प्रभावशाली होने से अथवा केवलज्ञान रूपी तेज से सुशोभित होने से महाप्रभ हैं ॥ २३७॥ ॐ ह्रीं मंत्रविदे नमः || २६८ || आप मंत्र के जानने वाले होने से मंत्रविद् हैं ॥ २६८ ॥ ॐ ह्रीं श्रह मंत्रकृते नमः ॥ २६६ ॥ प्रथमानुयोग आदि चारों अनुयोग रूप मन्त्रों के प्रथवा जप करने योग्य मन्त्रों के कर्त्ता होने से प्राप मन्त्रकृत् हैं ॥ २६६ ॥ ॐ ह्रीं प्रर्ह मंत्रिणे नमः || २७० || अथवा मुख्य होने से आप मन्त्री हैं || २७० || ॐ ह्रीं यह मंत्रमूर्तये नमः || २७१|| आत्मा का विचार करने से अथवा लोक की रक्षा करने मंत्रस्वरूप होने से आप मन्त्रमूर्ति हैं ।। २७१ ॥ ॐ ह्रीं श्रीं अनन्तगाय नमः ॥ २७२ ॥ अनन्त ज्ञानी होने से श्राप अनंता हैं । २७२ ॥ से भाप स्वतन्त्र हैं ॥ २७३॥ ॐ ह्रीं अहं स्वतंत्राय नमः ॥ २७३॥ स्वाधीन होने से मंयदा आत्मा हो मापका सिद्धान्त होने Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ गमोकार प्रय ॐ ह्रीं प्रहं तंत्र कृते नमः ।।२७४।। प्रागम के मुख्य कर्ता होने से भाप तन्त्रकृत है ॥२७४११ ॐ ह्रीं अहं स्वांताय नमः ।।२७५।। गुद्ध अंतःकरण होने से आप स्वांत हैं ॥२७॥ ॐ ह्रीं अहं कृतांताय नमः ।।२७६॥ यम अर्थात् मरण को नाश करने से प्राप कृतात कहलासे हैं ॥२७६॥ ॐ ह्रीं प्रहं कृतांतकृते नमः ॥२७॥ यम अर्थात मरण को नाश करने से पौर पुष्य की वृद्धि के कारण होने से भाप कृतांतकृत हैं ॥२७७॥ ॐ ह्रीं अहं कृतये नमः॥२७८|| प्रवीण अथवा अतिशय पुण्यवान् तथा हरिहरादि द्वारा पूज्य होने से पाप कृती हैं 11२७८11 ___ॐ ह्रीं अहं कृतार्थाय नमः ॥२७६।। मोक्ष रूप परम पुरुषार्थ को सिद्ध करने से पाप कृतार्थ ३२४ ॐ ह्रीं मह सत्कृत्याय नमः ॥२८०।। माप का कुल्य अतिशय प्रशंसनीय होने से पाप सस्कृत्य हैं ॥२०॥ ॐ ह्रीं प्रहं कृतकृत्याय नमः ।।२८ करने योग्य समस्त कार्य करने से अथवा समस्त कार्य सफल होने से प्राप कृतकृत्य हैं ॥२१॥ ____ॐ ह्रीं मह कृतकृत्वे नमः ।।२२।। ध्यान रूपी अग्नि में कर्म, नौ कर्म मादि को भस्म करने से अथवा ज्ञान रूपी यश करने से प्रथवा तपश्चर्या रूपी यज्ञ समाप्त होने से प्राप कृतकृत्य हैं ।।२८२॥ ॐ ह्रीं अहं नित्याय नमः ॥२८३॥ अविनाशो होने से प्रर्थात् सदा वर्तमान रहने से माप नित्य हैं।र८३॥ ॐ ह्रीं अहं मृत्युंजयाय नमः ॥२८४।। मृत्यु को जोतने से पाप मृत्युन्जय हैं ।।२८४।। ॐ ह्रीं भर्ह अमृतये नमः ।।२८५।। मापका प्रात्मा कभी मृत्यु को प्राप्त नहीं होता इसलिए आप अमृत्यु हैं ।।२८५॥ ॐ ह्रीं अह अमृतात्मने नमः ॥२८६॥ मरण रहित होने से प्रयवा अमृतस्वरूप शांतिदायक होने से पाप अमृतात्मा हैं ।।२८६।। ॐ ह्रीं पहं अमृतोद्भवाय नमः ।।२८७।। जन्म मरण से रहित होने के कारण अथवा अनिश्वर अवस्था को प्राप्त होने से अथवा भव्य जीवों के लिये मोक्ष प्राप्ति का कारण होने से पाप समतोद्भव हैं ॥२७॥ ___ॐ ह्रीं मह ब्रह्मनिष्ठाय नमः ॥२८॥ शुद्ध पात्मा में तल्लीन रहने से आप ब्रह्मनिष्ठ कहलाते हैं ॥२८॥ ॐ ह्रीं अहं परब्रह्मणे नमः ॥२८६॥ सबसे उत्कृष्ट प्रथया केवलज्ञान को धारण करने से पाप परब्रह्म हैं. ॥२८६) ॐ ह्रीं अहं ब्रह्मात्मने नमः ॥२६० ज्ञान स्वरूप होने से पाप ब्रह्मात्मा हैं ॥२६॥ ॐ ह्रीं महं ब्रह्मसंभवनाय नमः ।।२६१३ पाप से जान की उत्पत्ति होती है अथवा शुद्धात्मा की प्राप्ति होती है इसलिए आप ब्रह्मसंभव हैं ॥२६॥ ॐ ह्रीं मह महाब्रह्मपतये नमः ।।२६ गणरादि बड़े शानियों के स्वामी होने से पाप महाबह्मपति हैं ॥२६॥ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार र ॐ ह्रीं पहं ब्रह्मशाय नमः ॥२६॥ केवली भी मापकी स्तुति करते हैं प्रथवा केवलज्ञान के स्वामी हैं इसलिए ब्रह्मश हैं ॥२६३।। ॐ ह्रीं मह महा ब्रह्मपदेश्वराय नमः ॥२६४॥ मापमोक्ष के स्वामी प्रथया समवशरण के स्वामी होने से महाब्रह्मपदेश्वर हैं ।२६४।। ॐ ह्रीं अहं सुप्रसन्नाय नमः ।।२६५।। पाप भक्तों को स्वर्ग मोक्ष देने से प्रथवा सदा पानन्दस्वरूप होने से सुप्रसन्न हैं ॥२६॥ ॐ ह्रीं अहं प्रसन्नात्माय नमः॥२६६।। प्राप मल रहित होने से प्रसन्नात्मा हैं ॥२६६।। ॐ ह्रीं मह ज्ञानधर्मदमप्रभवे नमः ।।२६७11 माप केवलज्ञान दया धर्म और इन्द्रिय निग्रहरूप सपश्चरण के स्वामी होने से ज्ञान धर्मदमप्रभु कहलाते हैं ।।२६७।।। ॐ ह्रीं मह प्रशमात्मने नमः ॥२६८॥ क्रोधादि रहित होने से आप प्रशसात्मा हैं ॥२६॥ ॐ ह्रीं ग्रह प्रशांतात्मने नमः ॥२६॥ प्राप परम शांतरूप होने से प्रशांतात्मा हैं ॥२६९।। ॐ ह्रीं अह पुराण पुरुषोत्तमाय नमः ।।३००॥ अनादि काल से मोक्षस्थान में निवास करने से अथवा अनादि काल से सदा होने वाले तिरेसठ शलाका पुरुषों में उत्कृष्ट होने से पाप पुराण पुरुषोत्तम कहलाते हैं ।।३००॥ ॐ ह्रीं हूँ हमेशदनाय ? अमान प्रलोक पक्ष हो आपका चिह्न है इसलिए पापको महाशोकध्वज कहते हैं ।।३०१|| ॐ ह्रीं ग्रह अशोकाय नमः ।।३०२।। माप शोक रहित होने से अशोक हैं ॥३०॥ ॐ ह्रीं महं काय नमः ।।३०३॥ सबके पितामह होने से अथवा सबको सुख देने से आपको 'क' कहते हैं ॥३०३॥ ॐ ह्रीं ग्रह सृष्टाय नमः ।।३०४।। भक्त लोगों को स्वर्ग, मोक्ष, देने से प्राप सृष्टा है ।।३०४॥ ॐ ह्रीं ग्रहं परमविष्ट राय नमः ॥३०५।। आपका प्रासन कमल है अथवा कमल ही आपका सिंहासन है इसलिए आपको पविण्टर कहते हैं ॥३०५।। ॐ ह्रीं अहं पद्मशाय नमः ॥३०६॥ लक्ष्मी के स्वामी होने से पाप पद्मश है ॥३०६।। ॐ ह्रीं अहं पदम संभूतये नमः ॥३०७ विहार करते समय इन्द्र लोग आपके चरण कमलों के नीचे कमलों की रचना करते हैं इसलिए आप पद्म संभूति कहे जाते हैं ॥३०७॥ ॐ ह्रीं अहं पद्मनाभये नमः ॥३०८॥ कमल के समान सुन्दर नाभि होने स पचनाभि कहे जाते हैं ।।३०८।। ___ ॐ ह्रीं अहं अनुत्तराय नमः ॥३०६।। पाप से श्रेष्ठ अन्य कोई नहीं है अतएव अाप मनुत्तर कहलाते हैं ॥३०॥ ॐ ह्रीं अहं पद्मयोनये नमः ॥३१०॥ लक्ष्मी के उत्पन्न होने का स्थान होने से आप पद्मयोनि हैं ॥३१॥ ॐ ह्रीं आई जगद्योनये नमः ॥३११॥ धर्म रूप जगत की उत्पत्ति होने के कारण से प्राप जगद्योनि हैं ॥३११॥ ॐ ह्रीं प्रहं इत्याय नमः ।।३१२॥ ज्ञान गम्य होने से पाप इत्य हैं ॥३१सा ॐ ह्रीं मह स्तुत्याय नमः ॥३१३॥ सबके द्वारा स्तुति करने योग्य होने से प्राप स्तुत्य Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जमोकार प्रय ॐ ह्रीं है स्तुतीश्वराय नमः ३३१४॥ समस्त स्तुतियों के ईश्वर होने से पाप स्तुतीश्वर हैं ।।३१४॥ ॐ ह्रीं अर्ह स्तवनायि नमः ।।३१५॥ स्तुतियों के पात्र होने से पाप स्तवनाह हैं ॥३१॥ ॐ ह्रीं प्रहं हषीकेशाय नमः ॥३१६।। इन्द्रियों को वश में करने से आप हृषीकेश हैं ।।३१६ ॐ ह्रीं अह जितजेयाय नमः ॥३१७॥ काम, क्रोध, रोग मादि को जीत लेने से जिसजेय हैं ।।३१७॥ ॐ ह्रीं महं कृतक्रियाय नमः ॥३१८॥ पापने शुद्ध पात्मा के प्राप्ति के कुत्य पूर्ण किये है, इसलिए पाप कृतक्रिय हैं ॥३१८॥ ॐ ह्रीं महं गणाधिपाय नमः ॥३१॥ बारह प्रकार की समानों के स्वामी होने से पाप गणाधिप हैं ॥३१॥ ॐ ह्रीं भई गणज्येष्ठाय नमः ॥३२०॥ समस्त संघ के मुख्य होने से माप गण ज्येष्ठ ॐ ह्रीं अहं गण्याय नमः ॥३२१॥ अनन्त गुणों के स्वामी होने से पाप गण्य हैं ।।३२१।। ॐ ह्रीं मह पुण्याय नमः ॥३२२। पवित्र होने से प्राप पुण्य हैं ।।३२२॥ ॐ ह्रीं पहं गणाग्रण्ये नमः ।।३२३।। सब के अग्रेसर होने से गणाग्रणी हैं ॥३२॥ ॐ ह्रीं पहँ गुणाकराय नमः ॥३२४।। गुणों की खान होने से गुणाकर हैं ॥३२४।। ॐ ह्रीं अहं गुणांबोषये नमः ॥३२५।। गुणों के समुद्र होने से गुणांबोधि है ।।३२५१ ॐ ह्रीं महं गुणशाय नमः ।।३२६।। गुणों को जानने से गुण हैं ।।३२६।। ॐ ह्री अहं गुणनायकाय नमः ।।३२७|| समस्त गुणों के नायक होने से गुणनायक हैं ।।३२७॥ ॐ ह्रीं मह गुणादरये नमः ॥३२८।। गुणों का आदर करने से गुणादरी हैं ॥३२८।। ॐ ह्रीं अहं गुणोच्छेदये नमः ।।३२६।। क्रोधादि वैमानिक गुणों का नाश करने से प्रपवा इन्द्रियों का नाश करने से गुणोच्छेदी हैं ।। ३२६।। ॐ ह्रीं ग्रह निर्गुणाय नमः ॥३३०॥ केवलज्ञानादि गुण निश्चित रूप होने से अथवा वैमानिक गुणों का नाश करने से अथवा गुण अर्थात् तन्तु वा वस्त्र रहित होने से निर्गुण हैं ।।३३०।। ॐ ह्रीं अहं पुण्यगिरे नमः ॥३३१॥ आपकी वाणी पवित्र है इसलिए पुण्यगी हैं ॥३३॥ ॐ ह्रीं अह गुणाय नमः ॥३३२।। शुद्ध गुण स्वरूप होने से गुण हैं ॥३३॥ ॐ ह्रीं अहं शरण्याय नमः ॥३३३॥ सब के शरण भूत होने से शरण्य हैं ॥३३३॥ ॐ ह्रीं मह पुण्यवाचे नमः ।।३३४|| पुण्य रूप वचन होने से पुण्यवान हैं ।।३३४|| ॐ ह्रीं पह पूताय नमः ॥३३५।। पवित्र होने से पूत हैं ॥३३॥ ॐ ह्रीं मह वरेण्याय नमः १३३६।। सब में श्रेष्ठ होने से पथवा जीवों को अपना सा मुक्त स्वरूप करने से वरेण्य हैं ॥३३६॥ ॐ ह्रीं पहं पुण्यनायकाय नमः ॥३३७।। पुण्य के स्वामी होने से पुण्य नायक हैं ।।३३७॥ ॐ ह्रीं प्रहं प्रगण्याय नमः ।।३३८॥ प्रापका परिमाण नहीं किया जा सकता अथवा मापके गुण नहीं गिने जा सकते इसलिए मगण्य हैं ॥३३८|| ॐ ह्रीं मह पुण्यधिये नमः ॥३३६॥ पवित्र शान होने से पुण्यपी है ॥३३॥ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार ॐ ह्रीं महंगण्याय नमः || ३४० ॥ सर्व कल्याण करने से अथवा समवशरण के योग्य होने से गण्य हैं ।। ३४० || ६५ हैं ।। ३४२ ॥ हैं २३४३|| ॐ ह्रीं श्रीं पुण्यकृते नमः || ३४१ || पुण्य का कर्ता होने से पुण्य कृत हैं ।। ३४१॥ ॐ ह्रीं महं पुण्य शासनाय नमः || ३४२ || प्रापका मार्ग पुण्य रूप होने से प्राप पुण्य शासन ॐ ह्रीं धर्मारामाय नमः || ३४३ || धर्म का बगीचा रूप (समूह) होने से माप धर्माराम ॐ ह्रीं अहं गुणग्रामाय नमः || ३४४ || गुणों के समूह होने से गुणग्राम हैं ।। ३४४ || ॐ ह्रीं पुण्यापुण्यनिरोधकाय नमः || ३४५|| पुण्य और पाप दोनों का नाश करने से पाप पुण्यापुण्य निरोधक कहे जाते हैं ||३४५ || ॐ ह्रीं महं पापापेताय नमः || ३४६ ।। हिंसादि समस्त पापों से रहित होने से पापात कहे जाते हैं ॥ ३४६ ॥ ॐ ह्रीं नमः ॥३४७॥ पाप रहित होने से विपात्मा कहे जाते हैं ||३४७ || ॐ ह्रीं श्रविपात्माय नमः || ३४८ ।। पाप कर्म नष्ट होने से विपात्मा कहे जाते हैं || ३४८ || ॐ ह्रीं मह वीतकल्मषाय नमः || ३४६|| कर्म मल रहित होने से वीतकल्मष हैं ।। ३४६ ॥ ॐ ह्रीं अहं निन्दाय नमः || ३५० || परिग्रह रहित होने से निर्द्धन्द हैं ||३५० || ॐ ह्रीं श्रीं निदाय नमः || ३५१ ।। अहंकार के न होने से निर्मद हैं ।। ३५१ ।। ॐ ह्रीं अर्हताय नमः ।। ३५२ ।। उपाधि रहित होने से शांत हैं || ३५२ ॥ ॐ ह्रीं ग्रहं निर्मोहाय नमः || ३५३ || मोह रहित होने से निर्मोह हैं ।। ३५३ ।। ॐ ह्रीं हें निरुपद्रवाय नमः || ३५४ ।। उपद्रव रहित होने से निरुपद्रव हैं ।। ३५४ ।। ॐ ह्रीं श्रहं निर्निमेषाय नमः || ३५५ || आपके नेत्र के पलक दूसरे पलक से नहीं लगते हैं इसलिये माप निर्निमेषा हैं ।। ३५५ ।। ॐ ह्रीं ॐ ह्रीं महं निराहाराय नमः || ३५६ ।। कवलाहार न करने से निराहार हैं ।। ३५६ ॥ निष्क्रियाय नमः || ३५७ ॥ क्रिया रहित होने से निष्क्रिय हैं ।। ३५७ ॥ ॐ ह्रीं ग्रह निरुत्वाय नमः || ३५८ || सब प्रकार के संकट रहित होने से निरुपप्लव हैं ।। ३५८ ।। ॐ ह्रीं श्रीं निष्कलंकाय नमः || ३५६ ॥ सब प्रकार के कलंक रहित होने से निष्कलंक हैं ।। ३५२ ।। ॐ ह्रीं श्रहं निरस्तेनाय नमः || ३६०|| पापों के दूर करने से निरस्तेन हैं ॥ ३६० ॥ ॐ ह्रीं अहं निर्चुतांगाय नमः ।। ३६१ ।। म्रपराधों का नाश करने से निर्ऋतांग हैं ।। ३६१|| ॐ ह्रीं श्रीं निरास्त्रवाय नमः || ३६२ || आस्त्रव रहित होने से निरास्त्रय हैं ॥३६२॥ ॐ ह्रीं महं विशालाय नमः || ३६३ || अतिशयविशाल होने से विशाल हैं ।। ३६३।। ॐ ह्रीं यह विपुलज्योतये नमः || ३६४|| केवलशान रूप अपार ज्योति को धारण करने से विपुल ज्योति है ॥ ३६४ ॥ ॐ ह्रीं श्रहं अतुलाय नमः || ३६५ ॥ श्रापके समान ग्रन्य कोई न होने से अतुल हैं ।। ३६५ ।। ॐ ह्रीं श्रीं श्रचित्य वैभवाय नमः || ३६६ ।। आपकी विभूति का कोई चितन भी नहीं कर सकता इसलिए भाष भविष्य वैभव हैं ।। ३६६ ॥ | Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार ॐ ह्रीं मह सुसंवत्राय नमः ॥३६७॥ संबर रूप होने से अथवा गणधरादि से वेष्ठित रहने से सुसंवृत हैं ॥३६७।। ॐ ह्रीं अहं सुगुप्तात्मने नमः । ३६८॥ प्रापका पात्मा गुप्त होने से अथवा मालवादि से अलग होने से पाप सुगुप्तात्मा है ।।३६६।। ॐ ह्रीं अर्ह सुभृताय नमः ।। ३६६।। आप उत्तम ज्ञाता होने से सुभत हैं ।।३६६।। ॐ ह्रीं अहं सुनयतत्वविदे नमः ॥३७॥ पाप नगगम, संग्रह प्रादि नयों का मर्म जानते हैं इसलिये सुनयतत्यविद् कहलाते हैं ।।३७०।। ॐ ह्रीं प्रहं एकविधाय नमः ।।३७१।। एका केवलशान अथवा एक प्राध्यात्मविद्या धारण करने से पाप एकविध हैं ।।३७१।। ॐ ह्रीं ग्रह महाविद्याय नमः ॥३७२१। आप अनेक विद्याओं को जानने के कारण महाविद्य हैं ॥३७२।। ॐ ह्रीं मह मुनये नमः ||३७३ ।। माप प्रत्यक्ष शानी होने से मुनि हैं ॥३७३।। ॐ ह्रीं श्रह परिवृद्धाय नमः ॥३७४।। तपस्वियों के स्वामी होने से बाल परिवृद्ध हैं ॥३७४।। *ह्रौं प्रहं पतये नमः ॥३७॥ जगत् की रक्षा करने से प्रथवा दुख दूर करने से पाप पति है ॥३७॥ ॐ ह्रीं मह धोशाय नमः ।।३७६।। प्रापबुद्धि के स्वामी होने से धीश हैं ।।३७६।। ॐ ह्रीं पह विद्यानिधये नमः ।।३७७|| आप शान के सागर होने से विद्या निषि हैं ||३७७॥ ॐ ह्रीं महे साक्षिणे ममः ॥३७८॥ तीनों लोकों को प्रत्यक्ष जानने से पाप साक्षी हैं ॥३७८।। ॐ ह्रीं पह विनेताय नमः ॥३७६॥ मोक्षमार्ग को प्रगट करने से पाप विनेता हैं ॥३७६।। ॐ ह्रीं महं विहितातकाय नमः ।।३८०॥ यम का नाश करने से प्राप विहितातक कहलाते है॥३८०॥ ॐ ह्रीं मह पित्रे नमः ।।३८१॥ नरकादि गतियों से रक्षा करने के कारण आप पिता है ॥३८॥ ॐ ह्रीं अहं पितामहाय नमः ॥३८२।। आप सबके गुरु होने से पितामह हैं ॥३८२॥ ॐ ह्रीं महं पातवे नमः ॥३८३।। सबकी रक्षा करने से प्राप पात है ॥२८॥ ॐ ह्रीं मह पवित्राय नमः ।।३८४।। भक्ति को पवित्र करने से पाप पवित्र हैं ॥३८४॥ ॐ ह्रीं मह पावनाय नमः ॥३८५।। सबको शुद्ध करने से आप पावन हैं ॥३८५।। ॐ ह्रीं अहं गतये नमः ॥३८६।। ज्ञानस्वरूप होने से पाप गति हैं ॥३८॥ ॐ ह्रीं ग्रह त्राताय नमः ।।३८७।। सबकी रक्षा करने से पाप त्राता हैं ।।३८७।। ॐ ह्रीं अहं भिषग्वराय नमः ॥३८८|नाम लेने मात्र से ही समस्त रोगों को अथवा जन्म, जरा, मरणादि रोगों को दूर करने से प्राप भिषा अथवा उत्तम वैध हैं ।।३८८।। ॐ ह्रीं अहं वर्याय नमः ।।३८६।। आप सबसे श्रेष्ठ होने से वर्ष है ॥३६।। ॐ ह्रीं प्रहं बरवाय नमः ॥३६०॥ स्वर्ग, मोक्षादि को देने के कारण पास वरद हैं ।।३६०॥ ॐ ह्रीं भह परमाय नमः ॥३६१॥ भक्तों की इच्छा पूर्ण करने से पाप परम हैं ॥३६॥ ॐ ह्रीं पह से नमः ॥३६२॥ अपने प्रात्मा सयर भक्तों को पवित्र करने के कारण माप पुमान हैं ॥३६२॥ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० णमोकार च ॐ ह्रीं कवये नमः || ३६३ ॥ धर्म, अधर्म का तिरूपण करने से श्राप कवि है || ३६३ ॥ ॐ ह्रीं हे पुराण पुरुषाय नमः ||३४|| अनादि कालोद होने से आप पुराण पुरुष हैं ।। ३६४|| ॐ ह्रीं ग्रह वर्षीयानाय नमः || ३६५ || आप अतिशय वृद्ध होने से वर्षीयान हैं ॥ ३६५॥ ॐ ह्रीं श्रहं वृषभाय नमः || ३६६ ।। शानी होने से प्राप वृषभ हैं || ३६६ ॥ ॐ ह्रीं श्रीं पुरुषे नमः || ३६७।। सबसे अग्रगण्य होते से श्राप पुरु हैं ।। ३६७॥ ॐ ह्रीं र्ह प्रतिष्ठा प्रसवाय नमः ॥ ३६८ ॥ प्रापसे स्थैर्य गुण की उत्पत्ति हुई है अथवा प्राप की सेवा करने से यह जीव जगत मान्य हो जाता है इसलिये प्राप प्रतिष्ठा प्रसव कहलाते हैं ।। ३६८ ॥ ॐ ह्रीं श्रहं हेतवे नमः ||३६|| मोक्ष के साक्षात्कार होने से प्रथवा सभी को जानने से आप हेतु हैं ॥ ३६६॥ ॐ ह्रीं भुवनेक पितामहाय नमः ॥ ४०० ॥ प्राप तीनों लोकों के जीवों की रक्षा करने अथवा उपदेश देने से भुवनैक पितामह हैं ॥४०॥ ॐ ह्रीं श्रीं श्रीवृक्षलक्षणाय नमः ॥४० १ || श्रीवृक्ष का चिन्ह होने से भाप श्रीवृक्ष कहलाते हैं ॥४०॥ ॐ ह्रीं आप लक्षण हैं ।। ४०२ ॥ हैं ॥४४॥ ॐ ह्रीं महं लक्षणाय नमः || ४०३ || लक्षण सहित होने से प्राप लक्षण्य हैं ॥ ४०३३॥ ॐ ह्रीं शुभलक्षणाय नमः || ४०४ || अनेक शुभलक्षणों से सम्पन्न होने के कारण शुभलक्षण हैं ॥ ४०६ ॥ ॐ ह्रीं श्रहं निरक्षाय नमः ॥४०५॥ इन्द्रिय रहित होने से प्राप निरक्ष हैं ॥४०५॥ ॐ ह्रीं ॐ ह्रीं ॐ हैं ॥ ४०८ ॥ श्लेक्षणाय नमः ॥ ४०२ ॥ सूक्ष्म होने से अथवा लक्ष्मी के द्वारा प्रालिंगन करने स हैं ॥ ४१० ॥ हैं ।।४१२।। पुण्डरीकाक्षाय नमः १४०६ ॥ कमल के समान नेत्र होने से श्राप पुण्डरीकाक्ष ॐ ह्रीं भई सिद्धिदाय नमः ॥ ४०६ ॥ मोक्षरूप सिद्धि को देने से भाप सिद्धिदा हैं ॥ ४०६ ॥ ॐ ह्रीं महे सिद्धसंकल्पाय नमः ॥ ४१० ॥ समस्त मनोरथ सफल होने से माप सिद्धसंकल्प पुष्कलाय नमः ॥ ४०७ || केवलज्ञान से वृद्धिगत होने से आप पुष्कल हैं ॥ ४०७ ॥ पुष्करेक्षणाय नमः ॥ ४०८ ॥ आप कमलदल के समान दीर्घ नेत्र होने से पुष्करेक्षण ॐ ह्रीं श्रीं सिद्धात्मने नमः ॥ ४११ ॥ म्राप पूर्णानन्दस्वरूप होने से सिद्धात्मा हैं । ४११ ।। ॐ ह्रीं सिद्धिसाधनाय नमः ||४१२|| मोक्षमार्ग रूप साधन भूत होने से आप सिद्धि साधन सम्यग्दृष्टियों प्रथवा विशेष शानियों के द्वारा जानने ॐ ह्रीं श्रीं बुद्धबोध्याय नमः || ४१३ ॥ योग्य होने से भाप बुद्धबोध्य है ।।४१३ ॥ ॐ ह्रीं श्रहं महाबोधाय नमः ॥ ४१४ ॥ बोषि हैं ।।४१४ ॥ ॐ ह्रीं मान हैं ||४१५।। प्रापका रत्नत्रय मति प्रशंसनीय होने से प्राप महावर्तमानाय नमः ॥। ४१ ।। आपका पूज्यपना अतिशय बढ़ा हुमा होने से माप वयं Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार न ___ ॐ ह्रीं अहं महद्धिकाय नमः ॥४१६।। प्रांत अधिक विभूति को धारण करने से महाद्धिक हैं ।।४१६।। ॐ ह्रीं अर्ह वेदांगाय नमः ॥४१७।। प्रथमानुयोग मादि चारों वेदों के कारण होने से अथवा शान स्वरूप होने से आप वेदांग हैं ॥४१७।। ॐ ह्रीं प्रहं वेदविदे नमः ॥४१॥ चारों अनुयोगों के जानने से अथवा आत्मा का स्वरूप जानने से प्राप वेदविद् हैं ॥४१८॥ ___ॐ ह्रीं अहं वेद्याय नमः ।।४१६।। पागम के द्वारा जानने योग्य होने के कारण पाप वेद्य हैं ।।४.१६॥ ॐ ह्रीं अहं जातरूपाय नमः ।।४२०।। उत्पन्न होने के समान ही आपका स्वरूप है अथवः प्राप रूप रहित हैं इसलिये आप जात रूप हैं ।।४२०॥ ॐ ह्रीं ग्रहं विदांबराय नमः ॥४२१॥ प्राप विद्वानों में श्रेष्ठ होने से बिदाम्बर हैं ।।४२१।। ॐ ह्रीं अहं वेदवेद्याय नमः ।।४२२।। केवलज्ञान के द्वारा अथवा पागम के द्वारा जानने योग्य होने से आप वेदवेद्य हैं ।।४२२।। ॐ ह्रीं महं स्वसंवेद्याय नमः ।।४२३।। अनुभव गम्य होने से आप स्वसंवेद्य हैं ।।४२३॥ ॐ ह्रीं ग्रह विवेदाय नमः ।।४२४।। प्रापं विलक्षण ज्ञानी होने से अथवा आगम के अगोचर होने से विवेद हैं 11४२४॥ ॐ ह्रीं मह वदतांबराय नमः ।।४२५|| वक्ताओं में श्रेष्ठ अथवा उत्तम होने से आप बदतांबर है ॥४२५|| ॐ ह्रीं अह अनादिनिधनाय नमः ॥४२६।। आदि, अंत रहित होने मे आप अनादि निधन हैं ।।४२६।। ॐ ह्रीं अहं व्यक्ताय नमः ।।४२७}ज्ञान के द्वारा स्पष्ट प्रतिभासित होने से प्राप व्यक्त हैं ॥४२७|| ॐ ह्रीं ग्रह व्यक्तवाचये नमः ।।४२८॥ आपके वचन समस्त प्राणियों के समझने योग्य हैं इसलिये पाप व्यक्तवाक् हैं ।।४२८।। . ॐ ह्रीं अह व्यक्त शासनाय नम: ।।४२६।। आपकी प्राज्ञा अथवा मत समस्त संसार में प्रसिद्ध होने से अथवा आपके कहे हुये शास्त्रों में पूर्वापर विरोध न होने से ग्राप व्यक्त शासन हैं ।।४२६।। ॐ ह्रीं ग्रह युगादिकृते नमः ।।४३०।। आप युग की आदि अर्थात् कर्म भूमि के कर्ता हैं, इसलिये युगादिकृत हैं ।।४३०॥ ॐ ह्रीं महं युगाधाराय नमः ।।४३१।। ग्राप युगों का प्राधार होने से युगाधार है ।।४३१।। ॐ ह्रीं अहं युगादये नमः ।।४३२।। युग के प्रारम्भ में होने से पाप युगादि हैं । ४३२१॥ ॐ ह्रीं मह जगदादिजाय नमः ।।४३३॥ जगत् के आदि में अर्थात् कर्मभूमि के प्रादि में उत्पन्न होने से प्राप जमदादिज हैं ||४३३।। ___ॐ ह्रीं अहं प्रतीन्द्राय नमः ॥४३४॥ इन्द्र, नरेन्द्र, प्रादि सबके विशेष स्वामी होने से आप प्रतीन्द्र हैं ॥४३४॥ __ॐ ह्रीं ग्रह अतींद्रियाय नमः ॥४३५।। इन्द्रिय गोचर न होने से आप अतींद्रिय हैं ।। ४३५।। ॐ ह्रीं अहं घींद्राय नमः ।।४३६॥ ज्ञान होने से अथवा शुक्लध्यान के द्वारा परमात्मस्वरूप होने से घींद्र हैं ॥४३६॥ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ णमोकार ग्रंथ ॐ ह्रीं अह महेंद्राय नमः ॥४३७।। पूजा के अधिपति होने से अथवा इन्द्र से भी अधिक संपतिवान् होने से आप महेन्द्र हैं ॥४३७॥ ॐ ह्रीं ग्रह अतींद्विवीय नमः । ४६५८६न्द्रित के प्रशन्न पदार्थों को भी जानने से श्राप अतींद्रियार्थदक हैं ।।४३८॥ ॐ ह्रीं अह अनोंद्रियाय नमः ।।४३६।। इन्द्रिय रहित होने से आप अनिद्रिय हैं ।।४३६॥ ____ॐ ह्रीं अह अहमिद्राचार्याय नमः ॥४४०।। आप अहमिन्द्रों के द्वारा पूज्य होने से अमिद्राचार्य हैं ।।४४०॥ ॐ ह्रीं अह" महेन्द्रमहिताय नमः ॥४४१शा समस्त बड़े-बड़े इन्द्रों के द्वारा पूज्य होने से प्राप महेन्द्रमहित हैं ।।४४१।। ॐ ह्रीं ग्रह महते नमः ।।४४२।। आप सबसे पूज्य व बड़े होने से महान् हैं ॥४४२॥ ॐ ह्रीं ग्रह उद्भवाय नमः ॥४४३।। जन्म, मरण रहित होने से अथवा सर्वोत्कृष्ट होने से आप उद्भव है ।।४४३॥ ॐ ह्रीं अर्ह कारणाय नमः ।।४४४।। मोक्ष के कारण होने से पाप कारण हैं ॥४४४|| ॐ ह्रीं अहं कृते नमः ॥४४५।। शुद्ध भावों के कर्ता होने से आप कर्ता हैं ।।४४५।। ॐ ह्रीं अहं पारगाय नमः ।।४४६॥ संसार समुद्र के परागामी होने से आप पारग हैं ||४४६॥ ॐ ह्रीं अहं भवतारकाय नमः ।।४४७॥ भव्य जीवों को संसार ससुद्र से पार कर देने से आप भवतारक हैं ॥४४७॥ ॐ ह्रीं अह अगाडाय नमः ।।४४८|| किसी के भी द्वारा अबगाह्न न करने से आप अगाय हैं ।।४४८।। ॐ ह्रीं अहं गहनाय नमः ।।४४६।। प्रापका स्वरूप हर एक कोई नहीं कह सकता और न जान सकता है इसलिए गहन हैं ।।४४६।। ___ॐ ह्रीं अह गुह्याय नमः ॥४५०। परम रहस्यरूप अर्थात् गुप्त रूप होने से आप गुह्य हैं ।।४५०॥ ॐ ह्रीं ग्रह परााय नमः ॥४५१|| आप उत्कृष्ट विभूति के स्वामी होने से परायं हैं॥४५॥ ॐ ह्री अहं परमेश्वराय नमः ||४५२|| सबके स्वामी होने से अथवा मोक्षलक्ष्मी के स्वामी होने से आप परमेश्वर हैं ।।४५२।। ___ॐ ह्रीं अह अनंतर्द्धये नमः ॥४५३।। आप अनन्त ऋद्धियों के धारण करने से अनंतद्धि हैं ॥४५३॥ ॐ ह्रीं अह अमेयर्द्धये नमः ॥४५४।। आप अपरिमित ऐश्वर्य को धारण करने से अमेद्धि हैं ||४५४॥ ॐ ह्रीं अहं अचित्यर्द्धये नमः ।।४५५।। आपकी सम्पति का कोई चितवन भी नहीं कर सकता इसलिए आप अचियद्धि हैं ॥४५५॥ ॐ ह्रीं अहं समाधिये नमः ॥४५६।। जगत के समस्त पदार्थों को जानने योग्य होने से अथवा पूर्ण ज्ञानी होने से प्राप समग्रधी हैं ।।४५६॥ ॐ ह्रीं अहं प्राग्यग्राय नमः ।।४५७।। आप सब में मुख्य होने से प्राग्नय हैं ॥४५७।। Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जमोकार प्रेष ॐ ह्रीं मह प्राग्रहराय नमः ॥४५८।। सबमें श्रेष्ठता प्राप्त करने म प्राप प्राग्रहर हैं॥४५॥ ॐ ह्रीं पहूँ अभ्यग्ग्रयाय नमः ॥४५६।। श्रेष्ठों में भी सबसे श्रेष्ठ होने से पाप अभ्यम्प्रय हैं ।।४५६।। ॐ ह्रीं अहं प्रत्यग्राय नमः ॥४६०॥ बलवानों में भी अत्यन्तश्रेष्ठ होने से अथवा लोक का मुख्य भाग पसंद करने से प्रत्यय हैं ।।४६०।। ॐ ह्रीं अहं अग्ग्राय नमः ।।४६१।। सबके नायक होने से आप अग्मय हैं ।।४६१॥ ॐ ह्रीं यह अग्रिमाय नमः ।।४६२।। सबके अग्रेसर होने से भाप अग्रिम हैं ॥४६शा ___ॐ ह्रीं अहं अग्रजाय नमः ।।४६३।। आप सबसे बड़े होने से अग्रज हैं ।।४६३॥ ॐ ह्रीं अहं महातपाय नमः ।।४६४।। कठिन तपश्चरण करने से आप महातपा है ।।४६४।। ॐ ह्रीं अहं महातेजाय नमः ॥४६शा अतिशय तेजस्वी होने से व अतिशय पुण्यवान होने से आप महातेज हैं ।।४६५॥ ॐ ह्रीं अहं महोदर्काय नमः ।।४६६।। आपकी तपश्चया का फल सबसे बड़ा प्रांत केवलज्ञान है इसलिए आप महोदकं कहलाते हैं ।।४६६।। ॐ ह्रीं अह महोदयाय नमः ।।४६७।। अतिशय प्रतापी होने से अथवा आपका जन्म सबको पानन्द देने वाला होने से आप महोदय हैं ।।४६७।। ॐ ह्रीं महं महायशसे नमः ।।४६८१॥ अतिशय यशस्वी होने से आप महायशा हैं ।।४६८।। ॐ ह्रीं प्रहं महाधाम्ने नमः ॥४६॥ अतिशय प्रकाशन रूप होने से आप महाधामा हैं ॥४६॥ ॐ ह्रीं मह महासत्वाय नमः ॥४७०॥ अतिशय बलवान् होने से पाप महासत्व है ।।४७०।। ॐ ह्रीं अहं महाधृतये नमः ।।४७१।। पाप अतिशय धीर वीर होने से महाधुति हैं ।।४७१।। ॐ ह्रीं मह महापर्याय नमः ॥४७२॥ कभी भी व्यग्न न होने से माप महाघय हैं ।।४७२॥ ॐ ह्रीं ग्रह महावीर्याय नमः ॥४७३॥ अतिशय सामर्थ्यवान होने से माप महावीर्य हैं ॥४७॥ ॐ ह्रीं पह महासंपदे नमः ।।४७४।। समवशरण रूप अद्वितीय विभूति को धारण करने से प्राप महासंपत हैं ॥४७४॥ ॐ ह्रीं अह महाबलाय नमः ॥४७५॥ अतिशय बलवान होने से आप महाबल हैं ।।४७५॥ ॐ ह्रीं मह महाशक्तये नमः ॥४७६।। अनन्त शक्ति होने से भाप महाशक्ति हैं ।।४७६।। ॐ ह्रीं महं महाज्योतिये नमः ।।४७७॥ अतिशय कांति युक्त होने से आप महा ज्योति हैं ।।४७७॥ ह्रीं अहं महाभूतये नम : ॥४७८॥ पंचल्याणकों की महाविभूति के स्वामी होने से प्राप महाविभूति हैं ॥४७॥ ॐ ह्रीं अहं धुतये नमः ॥४७६॥ अतिशय शोभायमान होने से प्राप महाद्य ति हैं mel ॐ ह्रीं अहं महामतये नमः ॥४८०॥ अतिशय बुद्धिमान होने से पाप महामति है ॥४०॥ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार ॐ ह्रीं अह महानीतये नमः ॥४८१॥ अतिशय न्यायवान होने से प्राप महानीति हैं ॥४५१11 ॐ ह्रीं ग्रह महाक्षांतये नमः ।।४८२।। अतिशय क्षमावान होने से आप महाांति हैं ॥४८२॥ ॐ ह्रीं अर्ह महादयाय नमः ।।४८३॥ अतिशय दयालु होने से आप महादय है ।।४५३॥ ॐ ह्रीं अह महाप्राज्ञाय नमः ।।४८४।। अतिशय प्रवीण होने से प्राप महाप्राज्ञ हैं ।। ४८४॥ ॐ ह्रीं अहं महाभागाय नमः ॥४८५॥ अतिशय भाग्यशाली होने से आप महाभाग हैं ।।४८५॥ ॐ ह्रीं अह महानंदाय नमः ।।४८६॥ अतिशय प्रानन्द स्वरूप होने से अथवा भव्य जीवों को आनन्द देने से प्राप महानन्द हैं ।।४८६।। ॐ ह्रीं मह महाकवये नमः ॥४८७॥ शास्त्रों के मुख्य कर्ता होने से पाप महा कवि हैं ॥४८७॥ ॐ ह्रीं अह महामहाय नमः ॥४८८।। अत्यन्त तेजस्वी होने से पाप महा महा हैं ॥४८८।। ॐ ह्रीं अहं महाकीतिये नमः ।।४८६।। अापकी कीति सब जगह व्याप्त होने से प्राप महाकीति हैं ।।४८६।। ॐ ह्रीं अह महाकांतये नमः ।।४६०॥ अत्यन्त काँति युक्त होने से अाप महाकौति हैं ॥४६॥ ॐ ह्रीं अह महावपुषे नमः ॥४६१।। अतिशय सुन्दर शरीर होने से आप महावपु है ॥४६॥ ॐ ह्रीं अह महादानाय नमः ।।४६२।। बड़े भारी दानो होने से प्राप महादान हैं ।।४६२॥ ॐ ह्रीं अह महाज्ञानाय नमः ॥४६३॥ सबसे बड़े केवलज्ञान को धारण करने से पाप महा ज्ञान हैं ।।४६३॥ ॐ ह्रीं मह महायोगाय नमः ॥४६४|| योगों का अत्यन्त निरोध करने से प्राप महायोग हैं ।।४६४॥ ॐ ह्रीं अहं महागुणाय नमः ।।४६५।। लोकों का कल्याण करने वाले गुणों से सुशोभित होने से आप महागुण हैं ।।४६५।। ॐ ह्रीं अर्ह महामहापतये नमः ॥४६६।। पंच कल्याण रूप महापूजा के स्वामी होने से प्राप महापति हैं ॥४६६11 ॐ ह्रीं अहं प्राप्त महाकल्याण पंचकाय नमः ||४६७।। आपको गर्भाचतार आदि पांचों कल्याणक प्राप्त हुए हैं इसलिए पाप महाकल्याणक पंचक कहे जाते हैं ।।४६७॥ ॐ ह्रीं अह महाप्रभवे नमः ॥४६॥ अतिशय समर्थ अथवा सबसे बड़े स्वामी होने से प्राप महा प्रभु हैं ॥४६॥ ॐ ह्रीं अह महाप्रातिहार्याधीशाय नमः ।।४६६1 अशोक वृक्षादि पाठों प्रातिहार्यों के स्वामी होने से आप महाप्रातिहार्याधीश कहे जाते हैं ।।४६६।। ___ ॐ ह्रीं अहं महेश्वराय नमः ।।५० ०।1 सब मुनियों में उत्तम होने से अथवा प्रत्यक्ष ज्ञानी होने से पाप महा मुनि हैं ।।५००॥ ॐ ह्रीं ग्रहं मुनये नमः ।।५०१॥ सब मुनियों में उत्तम होने से अथवा प्रत्यक्ष ज्ञानी होने से माप महामुनि हैं ॥५०॥ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ I ! : , ↑ | णमोकार ग्रंथ ॐ ह्रीं हैं । ५०२ || ॐ ह्रीं अह महाध्यान्याय नमः ||५०३ ॥ हैं ।। ५०३।। ॐ ह्रीं श्रीं महादमाय नमः || ५०४ || विषय कषायों का दमन करने से अथवा शक्तिमान होने से आप महादम हैं ॥ ५०४ ॥ ॐ ह्रीं श्रह महाक्षमाय नमः || ५०५ || अतिशय क्षमावान होने से आप महाक्षम हैं । ५०५ ।। ॐ ह्रीं श्रह महाशीलाय नमः || ५०६ ।। पूर्ण ब्रह्मचारी होन से अथवा शील युक्त होने से आप महाशील हैं ।। ५०६ ।। - ४५ महामोन्याय नमः || ५०२ ॥ श्राप के वचनांलाप पर रहित होने से श्राप महामोनी शुक्ल ध्यान का ध्यान करने से श्राप महाष्यानी ॐ ह्रीं ग्रह महायज्ञाय नमः ||५०७ || स्वाभाविक परिणति रूप अग्नि में विभाव परिणति रूप सामग्री को हवन कर अथवा तपश्चरण रूप श्रग्नि में विषयाभिलाषा को हवन कर महायज्ञ करने से अथवा केवलज्ञान रूप महायज्ञ प्राप्त होने से श्राप महायज्ञ कहलाते हैं ||५०७ || ॐ ह्रीं ग्रह महामखाय नमः ||५०८ || प्रतिशय पूज्य होने श्राप महामख कहे जाते महातपतये नमः || ५०६ ॥ पंचमहाव्रतों के स्वामी होने से आप महाव्रतपति कहे है ॥ ५०८ || ॐ ह्रीं जाते हैं ||५०६ ॥ ॐ ह्रीं ग्रह' मह्याय नमः || ५.१० || जगत पूज्य होने से आप मा हैं ।। ५.१० ॥ ॐ ह्रीं श्रीं महाकांतिधराय नमः ॥ १११ ॥ अत्यन्त तेज को धारण करने से आप महाकोतिर हैं ॥५१॥ ॐ ह्रीं यह अधिपाय नमः ॥ ५१२ ॥ सब जीवों की रक्षा करने से अथवा सबके स्वामी होने से आप अधिप हैं ।। ५१३ ।। ॐ ह्रीं महामैत्रीमयाय नमः ॥ ५१३|| समस्त जोवों से मंत्रीभाव रखने से आप महा मैत्रीमय हैं ||५१३|| ॐ ह्रीं श्राप अमेय हैं । ५१४॥ श्रमेयाय नमः || ५१४ || किसी भी परिणाम से गिने अथवा नापे नहीं जाते इसलिए ॐ ह्रीं हैं ।। ५१५ ।। ॐ ह्रीं महोमय हैं ॥ ५१६॥ ॐ ह्रीं जाते हैं ।। ५१७॥ महाप्रायो नमः || ५१५|| मोक्ष के लिए सब से बड़ा उपाय करने से आप महोपाय महोमयाय नमः || ५१६ ॥ मंगलमय, ज्ञानमय अथवा तेज स्वरूप होने से प्राप महाकायकाय नमः ।।५१७ ॥ सब जीवों पर दया करने से भाप कारुणिक कहे ॐ ह्रीं श्रह मंत्रे नमः || ५१८ ।। सबको जानने से ग्राप मंता है ।। ५१८ ॥ ॐ ह्रीं भह महामंत्राय नमः ॥ ११६ ॥ अनेक मंत्रों के स्वामी होने से आप महामंत्र हैं । ५१६॥ ॐ ह्री ग्रह महायतये नमः ॥ ५२० ॥ इन्द्रिय निग्रह करने वालों में सबसे श्रेष्ठ होने से आप महायति हैं ।। ५२० ।। Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪૬ णमोकार ग्रंथ ॐ ह्रीं ग्रह महानादाय नमः || ५२१ || गंभीर दिव्य ध्वनि सहित होने से माप महानाद हैं ।। ५२१ ।। हैं ॥ ५२८ ॥ ॐ ह्रीं श्रहं महाघोषाय नमः || ५२२|| आपकी ध्वनि अतिशय सुन्दर होने से श्राप महाघोष हैं । ५२२ ॥ ॐ ह्रीं श्रीं महेज्जाय नमः || ५२३|| बड़े पुरुषों के द्वारा पूज्य होने से अथवा केबल ज्ञान रूप यज्ञ करने से आप महेज्य हैं ।। ५२३ || ॐ ह्रीं श्रह महसपतये नमः ।। ५२४ ॥ समस्त तेज के अधिकारी होने से प्राप महासपिति हैं ।। ५२४ ।। ॐ ह्रीं ग्रह महाध्वरधराय नमः ।। ५२५ ॥ अहिंसादिव्रतों के धारण करने से आप महाध्वरधर कहलाते हैं ।। ५२५|| ॐ ह्रीं ॐ ह्रीं घुर्याय नमः ॥ ५२६ || धुरंधर होने से आप घुर्य हैं ।। ५२६ ।। महौदार्याय नमः ॥ ५२७ ॥ अतिशय उदार होने से प्राप महौदार्य हैं ।। ५२७॥ ॐ ह्रीं यह महिष्ठवाचे नमः || ५२८ || आपकी वाणी परमपूज्य होने से श्राप महिष्ठवाक् ॐ ह्रीं श्रहं महात्मने नमः ।। ५२६ ।। सब में बड़े अथवा पूज्य होने से आप महात्मा हैं ||५२६॥ ॐ ह्रीं श्रीं महसांधात्मने नमः ॥ ५३० ॥ समस्त प्रकाश का तेज स्थान होने से प्राप महासांघाय हैं ।। ५३० || ॐ ह्रीं श्रीं महर्षये नमः ॥ ५३१|| सब प्रकार की ऋद्धियों को प्राप्त हने से प्राप महर्षि हैं ।।५३१।। ॐ ह्रीं महितोदयाय नमः ॥ ५३२॥ प्रापका तीर्थंकर रूप ग्रवतार सबको पूज्य है इसलिए आप महितोदय कहलाते हैं ।। ५३२ || ॐ ह्रीं अर्ह महाबलेशांकुशाय नमः ।। ५३३ ।। बड़े बड़े क्लेशों को दूर करने से प्रथवा महाक्लैश अर्थात् तपश्चरण रूप अंकुश वारण करने से आप महाक्लेशांकुश हैं ।। ५३३ ।। ॐ ह्रीं श्रर्ह श्राय नमः || ५३४ ।। घातिया कर्मों को जीत लेने से आप शूर हैं ।। ५३४।। ॐ ह्रीं यह शूराय नमः ।। ५३५|| गणधर चक्रवर्ती आदि बड़े-बड़े पुरुषों के स्वामी होने से बाप महाभूतपति हैं ।। ५३५|| ॐ ह्रीं गुरुवे नमः || ५३६ || धर्मोपदेश सब को देने से श्राप गुरू हैं ।। ५३६ ॥ ॐ ह्रीं श्रीं महापराक्रमाय नमः || ५३७ || अतिशय पराक्रमी होने से अथवा ज्ञान शक्ति अधिक होने से माप महापराक्रमी हैं ॥ ५३७॥ ॐ ह्रीं ॐ ह्रीं हैं ।। ५३६ ।। मनंताय नमः || ५३८ || अन्त रहित प्रपार होने से आप अनन्त हैं || ५३८ । महाक्रोध रिपुवे नमः || ५३६|| क्रोध के भारी शत्रु होने से श्राप महाकोषरिपु 'करने से अथवा इन्द्रियों को वश मे ॐ ह्रीं श्रीं वशिने नमः || ५४०|| सब प्राणियों को वश करने से आप बशी हैं ।। ५४० ।। ॐ ह्रीं श्रीं महाभवाब्धिसंतारिणे नमः ॥ १४१ ॥ संसार रूप महासागर से पार कर देने से आप मह|भवाब्धि संसारी हैं || ५४१|| Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | णमोकार ग्रंथ ॐ ह्रीं मह महामोहाद्रिसूदनाय नमः || ५४२ || माह रूपी महापर्वतको भेदन करने से प महाद्रि सूदन हैं || ५४२ ॥ ॐ ह्रीं महागुणाकार हैं || ५४३॥ महागुणाकराय नमः || ५४३ || सम्यग्दर्शन आदि श्रनेक गुणों की खान होने से ४७ ॐ ह्रीं श्रीं शांताय नमः || ५४४ ।। कषाय रहित होने से प्राप शान्त हैं ॥१५८४ | ॐ ह्रीं श्री योगीश्वराय नमः ||५४५ || आप गणधर यदि महा योगियों के स्वामी होने से महा योगीश्वर हैं । । ५४५॥ ॐ ह्रीं श्रहं महाशमिने नमः || १४६ ।। समस्त कर्मों का क्षय करने से अथवा परम सुखी होने से श्राप शमी हैं ।। ५४६ ।। ॐ ह्रीं यह महाध्यानपतये नमः || ५४७ || परम शुक्लध्यान के स्वामी होने से आप महाध्यान पति है।७ ॐ ह्रीं श्रीं महाध्यान महाधर्माय नमः ||५४८ || अहिंसा धर्म का ध्यान करने से याप ध्यान महाधर्म हैं || ५४८ || ॐ ह्रीं श्रीं महाताय नमः || ५४६ || महावतों को धारण करने से आप महाव्रती है ।।५.४६।। ॐ ह्रीं यह महाकर्मारिहाय नमः || ५५० ।। कर्मरूप महाशत्रुओंों को नाम करने में ग्राप महाकर्मा रिहा हैं || ५५० ।। ॐ ह्रीं ॐ ह्रीं ॐ ह्रीं श्रीं कहलाते हैं ।। ५५३ ।। ॐ ह्रीं सर्वलेश पहाय नमः || ५५४ || शारीरिक और मानसिक कणों को दूर करने से आप सर्वशाप हैं ।। ५५४ ।। आत्मज्ञाय नमः ।।५५१ ।। श्रात्मा का स्वरूप जानने से आप आत्मज्ञ है १२५५२२ महादेवाय नमः || ५५२|| समस्त देवों के स्वामी होने से श्राप महादेव है ||५५२ महेशिताय नमः || ५५३ || विलक्षण ऐश्वर्य को धारण करने में ग्राम महंगिता ॐ ह्रीं अर्हं साधवे नमः || ५५५ || निश्चय रत्नत्रय को सिद्ध करने में आप साथ हैं ।। ५५५ ।। ॐ ह्रीं अहं सर्वदोषापहराय नमः || ५५६ || भव्य जीवों के समस्त दोष दूर करने में आप सर्वदोषापहर हैं || ५५६ ।। ॐ ह्रीं श्रहं हराय नमः ।। ५५७ ।। अनेक जन्मों में किये हुए पापों का हरण करने से आप हर ।। ५५७।। ॐ ह्रीं यह असंख्येयाय नमः || ५५८ || आप असंख्य गुणों को धारण करने में असंख्येयाय योगीश्वर हैं ।। ५६२॥ हैं ।। ५५८६ ।। ॐ ह्रीं श्रीं प्रमात्मने नमः || ५५६ || प्रमाण रहित शक्ति को धारण करने से या अप्रमेयात्मा हैं ।।५५६|| ॐ ह्रीं ग्रहं शमात्मने नमः ।। ५६० ।। आप परम शांतस्वरूप होने से शमान्मा हैं || ५६० ॥ ॐ ह्रीं प्रशमाकराय नमः || ५६१ ।। आप शांतता की खान होने से प्रशमाकर हैं ॥५६१ ॥ ॐ ह्रीं अहं सर्वयोगीश्वराय नमः || ५६२ || आप समस्त योगियों के ईश्वर होने से सर्व Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार ग्रंथ ॐ ह्रीं मह मचिन्त्याय नमः ॥५६३।। आप किसी के चितवन में नहीं पाते इसलिए अचिन्त्य हैं ।।५६३॥ ___ॐ ह्रीं महं श्रुतात्मने नमः ।।५६४।। समस्त शास्त्रों के रहस्यरूप होने से अथवा भावश्रुतज्ञानरूप होने से प्राप श्रुतात्मा हैं ॥५६४॥ ॐ ह्रीं अहं विष्ठरवाय नमः ॥५६५॥ तीनों लोकों के समस्त पदार्थों के जानने से आप विष्टरश्रवा है ॥५६॥ ॐ ह्रीं महं दातात्मने नमः ॥५६६।। जितेन्द्रिय होने से अथवा सबको शिक्षा देने से प्राप दातात्मा हैं ।।५६६॥ ॐ ह्रीं अह दमतीर्थेशाय नमः ॥५६७|| प्राप इंद्रियों को दमन करने रूप तीर्थ के स्वामी होने से अथवा योग शास्त्र के स्वामी होने से बनतीश कहलाते हैं ।। ५६७।। ॐ ह्रीं ग्रह योगात्मने नमः ।।५६८॥ पाप योगस्वरूप होने से योगात्मा हैं ||५६८।। ह्रीं मह ज्ञानसर्वगाय नमः ॥५६६।। ज्ञान के द्वारा सब जगह होने से प्राप ज्ञानसर्वग कहलाते हैं ॥५६६।। ॐ ह्रीं अहं प्रधानाय नमः ॥५७०॥ आप एकाग्नता से आत्मा का ध्यान करने से प्रधान है ।।५७०।। ___ हीं ग्रह मात्मने नमः|५७१|| आप ज्ञानस्वरूप होने से ज्ञानात्मा हैं ||५७१। ॐ ह्रीं ग्रह प्रकृतये नमः ॥५७२॥ आप समवशरण रूप लक्ष्मी उत्कृष्ट है अथवा धर्मोपदेश के रूप कार्य प्रशंसनीय है अथवा सबके कल्याणकारी हैं इसलिए प्रकृति हैं ॥५७२।। ॐ ह्रीं मह परमाय नमः ॥५७३।। उत्कृष्ट लक्ष्मी को धारण करने से आप परम है ।।५७३।। ॐ ह्रीं अहं परमोदयाय नमः ।।५७४॥ परम उदय को धारण करने से अथवा मापका उदय कल्याणकारी होने से पाप परमोदय है ।।५७४।। ॐ ह्रीं अर्ह प्रक्षीणबंधाय नमः ।।५७५॥ कर्मबन्ध सब नष्ट होने से आप प्रक्षीणबंध हैं ॥५७५।। ॐ ह्रीं अहं कामारये नमः ॥५७६॥ कामदेव के परम शत्र होने से आप कामारि ॐ ह्रीं अहं क्षेमकृते नमः ॥५७७|| सबका कल्याण करने से आप क्षमकृत हैं ।।५७७।। ॐ ह्रीं महामशासनाय नमः ।।५७८।। प्रापका मत वा उपदेश सबको कल्याणकारी होने से पाप-क्षेमशासन कहलाते हैं ।।५७।। ॐ ह्रीं पहं प्रणवाय नमः ॥५७६।। भोंकार स्वरूप होने से आप प्रणव हैं ।।५७६।। ॐ ह्रीं मह प्रणयाय नमः ।।५८०|| सबके मित्र होने से आप प्रणय हैं ।। ५८०॥ ॐ ह्रीं महं प्राणाय नमः ॥५८१॥ जगत् को प्रिय होने से अथवा सबको शरण देने से आप प्राण हैं॥५८१॥ ॐ ह्रीं महं प्राणदाय नमः ।।५८२॥ अतिशय दयालु होने से आप प्राणों को देने वाले हैं इसलिए पाप प्राणद हैं ॥५८२॥ ॐ ह्रीं अहं प्राणेश्वराय नमः ॥५८३॥ आप प्रणाम करते हुए इंद्रादिकों के स्वामी हैं अथवा प्रणाम करते हुए भव्य जीवों का पालन-पोषण करने वाले हैं इसलिए आप प्राणेश्वर है ।।५८३।। हैं ॥५७६।। Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार ग्रंप ॐ ह्रीं अर्ह प्रमाणाय नमः ।।५८४॥ प्रमाण नय के वक्ता होने से अथवा ज्ञानस्वरूप होने से या ज्ञान का साधन होने अथवा लोक प्रमाण एवं देह प्रमाण होने से आप प्रमाण है ।।५८४१ ॐ ह्रीं अहं प्रणधिये नमः ।।५८५।। योगी लोग आपको बड़ी गुप्त रीति से चितवन करते है अथवा आप सबके मर्मी वा जानने वाले हैं इसलिए प्रापको प्रणधि कहते हैं ॥५८५११ ॐ हीं अहं दक्षाय नमः ॥५८६।।मोक्ष प्राप्त करने में चतुर होने से आप दक्ष हैं ।।५८६॥ ॐ ह्रीं अहं दक्षिणाय नमः ।।५८७।। सरल स्वभावी होने से आप दक्षिण हैं 11५८७१। ॐ ह्रीं मह अध्वर्यवे नमः ॥५२॥ केवलज्ञान रूप यज्ञ को करने से अथवा पाप रूप कर्मों का हवन करने से आप अध्वर्यु हैं ॥५ ॥ ॐ ह्रीं अहं अध्वराय नमः ॥५८६।। सन्मार्ग की प्रवृत्ति करने से पाप अध्वर है ॥५८६।। ॐ ह्रीं अह मानन्दाय नमः ।।५६०।। सदा संतुष्ट रहने से पाप मानन्द हैं 11५६०।। ॐ ह्रीं प्रहं नन्दनाय नमः ||५६१।। सबको आनन्द देने से माप नन्दन हैं ॥५६१॥ ॐ ह्रीं प्रह नंदाय नमः ॥५६२।। सदा बढ़ते रहने से पाप नन्द हैं ॥५६२॥ ॐ ह्रीं अहं वंद्याय नमः ॥५६३॥ सभी के द्वारा वंदना और स्तुति करने से आप वैद्य हैं ||३|| ॐ ह्रीं अहं अनिंद्याय नमः ॥५६४॥ पाप अठारह प्रकार के दोषों से रहित होने के कारण सब प्रकार की निन्दा के अयोग्य हैं 11५६४॥ ॐ ह्रीं अहं अभिनन्दनाय नम: ५५ नया मानन्दायक होते मे मदद माप के समयशरण के चारों बन भयरहित होने से आप अभिनन्दन हैं ||५६५१] ॐ ह्रीं अर्ह कामहाय नमः ।।५६६।। कामदेव को नाश करने से आप कामहा हैं ॥५६६।। ॐ ह्रीं यह कामदाय नमः ॥५६७॥ भक्त, भव्य जीवों की इच्छा पूर्ण कर देने से आप कामद है ॥५६७|| ॐ ह्रीं महं काम्याय नमः ।।५६८।। अतिशय मनोहर होने से अथवा प्रापकी प्राप्ति की इच्छा सबको होने से आप काम्य हैं १५६८। ॐ ह्रीं अहं कामधेनवे नमः ||५६६|| इच्छित पदार्थों को देने से आप कामधेनु हैं ।। ५.१६।। ॐ ह्रीं अहं अरिजयाय नमः ॥६००1। रागादि समस्त शत्रुओं को जीतने से माप अरिजय कहलाते हैं ॥६००॥ ॐ ह्रीं अहं असंस्कृतसुसंस्काराय नमः ॥६०१॥ बिना किसी संस्कार के स्वभाव से ही सुन्दर होने से आप प्रसंस्कृत सुसंस्कार हैं ॥६०१।। ॐ ह्रीं अह अप्राकृते नमः ।। ६०२।। आपका स्वरूप प्रकृति से उत्पन्न नहीं हुमा है। वह असाधारण अथवा अद्वितीय है इसलिये आप अप्राकृत हैं ।।६०२।। ॐ ह्रीं पह वैकृतांतकृते नमः ॥६०३।। रोग अथवा विकारों को नाश करने से आप वैकृतांतकृत हैं ॥६०३।। ॐ ह्रीं अहं मंतकृते नमः ॥६०४।। जन्म, मरा संसार को नाश करने से अथवा मोक्ष को समीप करने से पाप अंतकृत हैं ॥६०४।। ॐ ह्रीं प्रहं कांतगवे नमः ।।६०५॥ सुन्दर वाणी अथवा सुन्दर प्रभा होने से माप कोतगु है॥६०५॥ - - Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार ग्रंथ ॐ ह्रीं अर्ह कांतायनमः ।।६०६।। शोभायुक्त होने से माप कांत हैं ।।६०६।। ॐ ह्रीं अहं चितामणये नमः ।।६०७।। चितामणि के समान इच्छित पदार्थों को देने से प्राप चितामणि हैं ।। ६०७।। ॐ ह्रीं ग्रह अभीष्ठदाय नमः ।।६०८।। पाप भव्य जीवों को इष्ट पदार्थों की प्राप्ति कराते हैं इसलिये आप अभीष्ठदा हैं ।।६०८|| ___ॐ ह्रीं ग्रह अजिताय नमः ।। ६०६।। काम क्रोधादि किसी भी योद्धा से पाप जीते नहीं जाते इसलिये आप अजित हैं ॥६०६।। ___ॐ ह्रीं अर्ह जितकामारिणे नमः ।।६१०]। कामरूप शत्रु को जीतने से प्राप जितकामारि है ।।६१०।। ॐ ह्रीं मह अमिताय नमः ॥६११।। मर्यादा रहित होने से आप प्रमित हैं ॥६११|| ॐ ह्रीं अहं अमितशासनाय नमः ॥६१२|| आपका शासन अपार होने से प्राप अमितशासन ॐ ह्रीं अहं क्रोधजिताय नमः ॥६१३॥ क्रोध को जीत लेने से पाप जितक्रोध है ।। ६१३॥ ॐ ह्रीं अर्ह जितामित्राय नमः ॥६१४|| कर्मरूपी शत्रुओं को जीतने से आप जितामित्र हैं ॥६१४।। ॐ ह्रीं अहं जितक्लेशाय नमः ।।६१५॥ समस्त क्लेशों को जीत लेने से प्राप जितक्लेश ॐ ह्रीं भई जितांतकाय नमः ।।६१६।। यम को जीत लेने से पाप जितांतक कहलाते हैं ।।६१६।। ॐ ह्रीं अहं जिनेन्द्राय नमः ॥६१७।। गणधरादि जिनों के इन्द्र होने से प्राप जिनेन्द्र हैं ॥६१७।। ॐ ह्रीं अह परमानंदाय नमः ।।६१८।। उत्कृष्ट आनन्द स्वरूप होने से आप परमानन्द हैं ॥६१८।। ॐ ह्रीं ग्रह मुनींद्राय नमः ।।६१६।। मुनियों के इन्द्र होने से पाप मुनीन्द्र है ।।६१६॥ ॐ ह्रीं अहं दुदुभिस्वनाय नमः ॥६२०॥ दुदुभियों के समान प्रापकी ध्वनि होने से पाप दुदुभिस्वन हैं ।।६२०॥ ॐ ह्रीं ग्रह महेन्द्रवंदाय नमः ॥६२१।। महेन्द्र के द्वारा पूज्य अथवा वंदनीक होने से प्राप महेन्द्रवंद्य हैं ।। ६२१।। ॐ ह्रीं ग्रहं योगीन्द्राय नमः ।। ६२२॥ योगियों के इन्द्र होने से प्राप योगीन्द्र है ।।६२२।। ॐ ह्रीं अह यतीन्द्राय नमः ॥६२३।। यतियों के इन्द्र होने से आप यतीन्द्र हैं ।।६२३।। ॐ ह्रीं अह नाभिनन्दनाय नमः ।।६२४॥ महराजा नाभिराजा के पुत्र होने से आप नाभिनन्दन कहलाते हैं ।।६२४।। ॐ ह्रीं मह नाभेयाय नमः ।।६२५।। पिता का नाम नाभि होने से पाप नाभेय कहलाते हैं ॥६२५|| ॐ ह्रीं प्रहं नाभिजाय नमः ॥६२६॥ महाराज नाभि के घर जन्म लेने से भाप नाभिज हैं ॥६२६। Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार ग्रंथ ॐ ह्रीं महं अजाताय नमः ॥६२७॥ माप उत्पत्ति रहित होने से मजात हैं ।। ६२७।। ॐ ह्रीं पहँ सुप्रताय नमः ।।६२८।। पाप अहिंसा आदि उत्तम प्रतवान् होने से सुबत हैं ॥६२८। ॐ ह्रीं महं मनुबे नमः ॥६२६॥ कर्मभूमि की रचना का पथवा मोक्ष मार्ग का स्वरूप बतलाने से प्राप मनु हैं ।।६२६।। ॐ ह्रीं अहं उत्तमाय नमः ।। ६३०।। सबसे श्रेष्ठ होने से प्राप उत्तम कहलाते हैं ।। ६३०।। ॐ ह्रीं महं प्रभेशाय नमः ॥६३१।। किसी से भी भापका भेद नहीं हो सकता इसलिये प्राप प्रभेछ हैं ॥६३१॥ ॐ ह्रीं अहं प्रनत्याय नमः ।। ६३२॥ पाप नाश रहित होने से अनत्य हैं ।।६३२।। ॐ ह्रीं पह अनाश्वानाय नम: ।।६३३॥ पाप भनशन प्रादि तपश्चरण करने से मनाश्वान है ।।६३३।। ॐ ह्रीं महं अधिकाय नमः ।।६३४॥ सबमें अधिक अर्थात् पूज्य होने से पाप अधिक ____ *ली अहं अधिगुरवे नमः ॥६३५॥ आप सबसे उत्तम उपदेश को देने से प्रधिगुरु ॐ ह्रीं मह सुगिरे नमः ५:३६ आ ज सबके लिये राणकारी है इसलिये माप सुगी कहलाते है ।।६३६॥ ॐ ह्रीं मह सुमेधे नमः ॥६३७॥ पाप सम्पश्चाती होने से सुमेधा है ।। ६३७॥ ॐ ह्रीं पई विक्रमिणे नमः ।। ६३८।। महापराक्रमी होने से पाप विक्रमी हैं ।। ६३८।। . *हीं पह स्वामिणे नमः ।।६३९॥ सबके स्वामी होने से अथवा सब पदार्थों के यथार्थ ज्ञानी होने से प्राप स्वामी है ।।६३६। ___ॐ ह्रीं पहँ दुराधर्षाय नमः ।।६४०।। किसी के द्वारा निवारण नहीं किये जाने से प्राप दुराधर्ष हैं।६४०॥ ॐ ली अहं निरुत्सुकाय नमः ॥६४१।। अभिलाषा रहित होने से अथवा स्थिर भाव होने से प्राप निरुत्सुक हैं ॥६४१|| ॐ ह्रीं महं विशिष्टाय नमः ॥६४२।। विशेष रूप होने से प्राप विशिष्ट हैं ॥६४२।। * ह्रीं ग्रहं शिष्टभुजे नमः ॥६४३।। आप शिष्ट पुरुषों का पालन करने से शिष्टभुक है ॥६४३॥ ॐ ह्रीं अहं शिष्टाय नमः ।।६४४।। राग, द्वेष, मोहं प्रादि दोषों से रहित होने से माप शिष्ट हैं ॥४॥ ॐ ह्रीं अहं प्रत्याय नमः ॥६४५।। विश्वास रूप होने से अथवा ज्ञान रूप होने से माप प्रत्यय है ।।६४५६ ॐ ह्रीं पहं कामनसे नमः ।।६४६॥ माप मनोहर होने से कामन हैं ।।६४६।। * ह्रीं मह मनद्याय नमः ।।६४७॥ पाप पाप रहित होने से अनद्य है ॥६४७।। *ह्रीं पई क्षेमिणे नमः ।।६४८॥ पाप मोक्ष प्राप्त करने से क्षेमी है ।। ६४८।। ॐ ह्रीं महं क्षेमंकराय नमः ॥६४६।। सबका कल्याण करने से भाप कमंकर हैं ॥६४६।। Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गमौकार पंथ ॐ ह्रीं मह प्रक्षयाय नमः ।।६५०1। प्रापका कभी क्षय नहीं होता इसलिये माप प्रक्षय हैं ॥६५०।। ॐ ह्री अह क्षेमधर्मपतपे नमः ।। ६५१।। सभी जीवों का कल्याण करने वाले जैन धर्म के प्रवर्तक होने से आप क्षेमधर्मपति है ॥६५१५ ॐ ह्रीं आई क्षमिणे नमः ॥६५॥ क्षमावान होने से प्राप क्षमी है ।।५॥ ॐ ह्रीं मह भग्राणाय नमः ।। ६५३॥ इन्द्रियों के द्वारा ग्रहण न होने से अथवा मिथ्यात्वियों के द्वारा ग्रहण न होने से आप अग्राह्य हैं ॥६५३॥ ॐ ह्रीं अर्ह ज्ञान निग्राह्याय नमः ॥६५४।। निश्चय ज्ञान के द्वारा ग्रहण करने योग्य होने से आप शान निग्राह्य हैं ।।६५४|| ॐ ह्रीं अहं ध्यान गम्याय नमः ॥६५५।। आप ध्यान के द्वारा जानने योग्य होने से ध्यानगम्म हैं ।।६५५॥ ॐ ह्रीं महं निरुत्तराय नमः ॥६५६।। पाप सबसे उत्कृष्ट हैं इसलिये निरुत्तर हैं ।। ६५६।। * हीं अहं सुकृतये नमः ॥६५७|| पाप पुण्यवान होने से सुकृती हैं ॥६५७।। ॐ ह्रीं अहं धातवे नमः ।।६५८|| शब्दों की खान होने से पाप धातु हैं ||६५८॥ ॐ ह्रीं अहं इज्याहस्य नमः ॥६५६।। पाप पूजा करने के योग्य होने से इज्याई हैं ।।६५६।। ॐ ह्रीं अहं सुनयाय नमः ॥६६०।। नयों के सम्यक् प्रकार ज्ञाता होने से आप सुनय हैं ॥६६॥ ॐ ह्रीं अहं निवासाय नमः ॥६६१।। लक्ष्मी के निवास स्थान होने से आप श्री निवास हैं ।।६६१॥ ॐ ह्रीं अहं चतुराननाय नमः ॥६६२।। चतुर्वक्रः ॥६६३॥ चतुरास्य १६६४।। चतुर्मूखः ।।६६५॥ एक मुख होकर भी चारों ओर से दर्शन होने से अथवा लोगों को चार मुख दीखने से पाप चतुरानन तथा चतुर्मुख कहलाते हैं ।।६६२, ६६५! __ ॐ ह्रीं अहं सत्यात्मने नमः ॥६६६॥ सत्यस्वरूप होने से अथवा जीवों का कल्याण करने से पाप सत्यात्मा हैं ||६६६॥ ॐ ह्रीं प्रहं सत्यविज्ञानाम नमः ।।६६७|| प्रापका विज्ञान सत्य अथवा सफल होने से प्राप सत्य विज्ञान है ॥६६७॥ ___ॐ ह्रीं ग्रह सत्यवाचे नमः ।।६६८|| मापको वाणी यथार्थ पदार्थों का निरूपण करने वाली है इसलिये पाप सत्यवाक् कहलाते हैं ।।६६८।। . ॐ ह्रीं पह सत्यशासनाय नमः ॥६६६॥ मापका शासन (मत) यथार्थ होने से अथवा सफल मर्यात साक्षात मोक्ष प्राप्त करने वाला होने से ग्राप सत्यशासन हैं | ॐ ह्रीं श्रहं सत्याशीर्षे नमः ।।६७०॥ दोनों लोकों में फलदायक होने से माप सत्याशीर्ष हैं॥६७०।। ॐ ह्रीं अहं सत्यसंधानाय नमः ।।६७१॥ प्रतिज्ञा को दृढ़ रखने से अथवा सत्य स्वरूप रखने से पाप सत्यसंधान हैं 11६७१!! ॐ ह्रीं अई सत्याय नमः ॥६७२।। माप शुद्ध मोक्षस्वरूप होने से सत्य हैं ॥६७२।। Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमाकार ग्रंथ ॐ ह्रीं अहं सत्यपरायणाय नमः ॥६७३|| प्राप सत्यस्वरूप में तत्पर होने से सरयपरायण कहे जाते हैं ।। ६७३॥ ॐ ह्रीं प्रहं स्थेयसे नमः ॥६७४।। अत्यन्त स्थिर होने से आप स्थेयान हैं ॥६७४।। ॐ ह्रीं मह स्थवीयसे नमः ।।६७५|| अतिशय स्थूल होने से पाप स्थवीयान् हैं ।। ६७५॥ ॐ ह्रीं अहं नेदीयसे नमः ॥६७६३ भक्तों के समीप होने से प्राप नेदीयान हैं ।।६७६।। ॐ ह्रीं अर्ह दवीयसे नमः ।।६७७॥ पापों से दूर रहने के कारण आप दवीयान् हैं ॥६७७।। ॐ ह्रीं अर्ह दूरदर्शनाय नम: ।।६७८|| प्रापके दर्शन दूर ही से होते हैं इसलिये आप दूरदर्शन हैं ।।६७८॥ ॐ ह्रीं पह अणोरणीयसे नमः 11६७६।। परमाणु से भी अत्यन्त सूक्ष्म होने से आप अणोरणीयान हैं ॥६७६।। ॐ ह्रों ग्रह अनणुवे नमः ।।६८०॥ सूक्ष्म न होने से पाप अनणु हैं ॥६८०॥ ॐ ह्रीं अहं गरीसयां आद्यगुरवे नमः ।।६८१॥ बड़ों में सबसे बड़े होने से पाप गरीयसां प्राद्य गुरू कहलाते हैं ।।६८॥ ॐ ह्रीं अहं सदा योगाय नमः ॥६८२॥ सदा योग स्वरूप होने से आप सदायोग है ।।६८२॥ ॐ ह्रीं मह सदा भोगाय नमः ॥६८३॥ आप सदा आनन्द के भोक्ता होने से सदा भोग हैं ॥६८३।। ॐ ह्रीं अहं सदा तृप्ताय नम. ||६८४॥ सदा तृप्त रहने से आप सदा तृप्त हैं ||६५४॥ ॐ ह्रीं अह सदाशिवाय नमः ।।६८५।। सदा कल्याण स्वरूप अथवा मोक्ष स्वरूप रहने से प्राप सदा शिव कहलाते हैं ॥६६५॥ ॐ ह्रीं अहं सदा गतये नमः ।।६८६।। प्राप सदा ज्ञान स्वरूप होने से सदागति हैं ॥६८६॥ ॐ ह्रीं अहं सदा सौख्याय नमः ।।६८७॥ सदा सुख स्वरूप रहने से सदा सौख्य है ।।६८७|| ॐ ह्रीं अहं सदा विद्याय नमः ।।६५८॥ आप सदा ज्ञानस्वरूप रहने से सदा विद्य हैं ॥६८८|| ॐ ह्रीं अर्ह सदोदयाय नमः ॥६८६॥ पाप सदा उदय रूप होने से अर्थात् सदा कल्याण रूप अथवा प्रकाश स्वरूप रहने से आप सदोदय कहलाते हैं ॥६६॥ ॐ ह्रीं अहं सुघोषाय नमः ।।६६०॥ आपका सुन्दर शब्द होने से आप सुघोष हैं ॥६६०।। ॐ ह्रीं अर्ह सुमुखाय नमः ॥६६१।। सुन्दर मुख रहने से आप सुमुख हैं ॥६६१। ॐ ह्रीं अहं सौम्याय नमः ।। ६६२।। शान्त रहने से आप सौम्य हैं ।।६६२॥ ॐ ह्रीं अहं सुखदाय नमः ।।६६३॥ सबको सुख देने से आप सुखद हैं ॥६६३।। ॐ ह्रीं अर्ह सुहिताय नमः ।।६६४।। सबका हित करने से पाप सुहित हैं ।।६६४॥ ॐ ह्रीं अहं सुहृदे नमः ॥६६॥ निष्कपट, शुद्ध, निर्मल होने से आप सुहृत् हैं ।।६६५॥ ॐ ह्रीं अहं सुगुप्तये नमः ॥६६६॥ मिथ्यादृष्टियों द्वारा आपका स्वरूप न जानने से आप सुगुप्त हैं ॥६६६॥ ॐ ह्रीं अहं गुन्तिभृते नमः ॥६९७॥ आप तीनों गुप्तियों को पालन करने से गुप्तिभृत हैं ।। ६६७॥ ॐ ह्रीं अहं गोप्तये नमः ॥६९८॥ पापों से प्रात्मा की रक्षा करने से मथवा जीवों की रक्षा करने से आप गोप्ता हैं ।। ६१८ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार बर्ष ॐ ह्रीं अहं लोकाध्यक्षाय नमः ।। ६६६।। तीनों लोकों को प्रत्यक्ष देखने से आप लाकाध्यक्ष हैं ।।६६६ ॐ ह्रीं अहं दमेश्वराय नमः ॥७००।इंद्रियदमन करने से तपश्चरण के स्वामी होने के कारण माप दमेश्वर कहलाते हैं ।।७००|| ___ॐ ह्रीं अहं बहद वृहस्पतये नमः ॥७०१॥ इन्द्रों के सबसे बड़े गुरु होने से भाप बृहद् वृहस्पति हैं ॥७०१।। ॐ ह्रीं अहं वाग्म्ये नमः ॥७०२।। विलक्षण वक्ता होने से आप वाग्मी हैं ॥७०२।। ॐ ह्रीं अई वाचस्पतये नमः ।।७०३॥ वाणी के स्वामी होने से वाचस्पति हैं ॥७०३॥ ॐ ह्रीं अहं उदारधिये नमः ॥७०४।। उदार बुद्धि होने से अर्थात् सब को धर्म का उपदेश देने से आप उदारधी हैं ॥७०४॥ ॐ ह्रीं महं मनीषिणे नमः १७०५॥ बुद्धिमान होने से पाप मनीषी है ॥७०५।। ॐ ह्रीं महं धीषणाय नमः ।।७०६।। अपार बुद्धिमान होने से आप धीष्ण हैं ।।७०६॥ ॐ ह्रीं ग्रह धीमते नमः ॥७०७॥ धारण पटु बुद्धि सहित होने कारण धीमान् कहलाते हैं।॥७०७॥ ॐ ह्रीं आई शेमुषीशाय नमः ।।७०८।। बुद्धि के स्वामी होने से आप शेमुशीष हैं ।१७०८।। ॐ ह्रीं अहं गिरांपतये नमः ॥७.६|| सभी भाषाओं के स्वामी होने से आप गिरापति हैं ॥७०६।। *ह्रीं अह नेकरूपाय नमः ॥७१०॥ अनेक रूप होने से आप नेकरूप हैं ।।७१०। *ह्रीं अहं नयोगाय नमः ॥७११॥ नयों का उत्कृष्ट स्वरूप कहने से आप नयोलुन्ग हैं ॥७११॥ ॐ ह्रीं अहं नैकात्मने नमः ।।७१२॥ आप अनेक गुणों को धारण करने से नेकात्मा हैं ।।७१२॥ ॐ ह्रीं अहं नकधर्मकृते नमः ॥७१३॥ पदार्थों को अनेक धर्मरूप कथन करने से पाप नै धर्मकृत हैं ॥७१३॥ ॐ ह्रीं मह अविज्ञय नमः ॥७१४|| साधारण पुरुषों के द्वारा जानने के अयोग्य होने से याप मविज्ञेय हैं ॥७१४॥ ___ॐ ह्रीं अहं अप्रतात्मने नमः ॥७१५।। आपके स्वरूप का कोई तर्कवितर्क नहीं कर सकता इसलिये पाप मप्रतक्यत्मिा हैं ।।७१५३॥ ॐ ह्रीं अहं कृतशाय नमः ॥७१६॥ जीवों के समस्त कृत्य जानने से प्राप कृतज्ञ हैं ॥७१६।। ॐ ह्रीं महं कृत लक्षणाय नमः ।।७१७॥ समस्त शुभ लक्षणों से संयुक्त होने के कारण प्राप कृत लक्षण हैं।७१७॥ ॐ ह्रीं अहं ज्ञानगर्भाय नमः ।।७१८|| अंतरंग में ज्ञान होने से प्राप ज्ञानगर्भ हैं ।।७१८॥ ॐ ह्रीं अर्ह दयागर्भाय नमः ।।७१६|| दयालु होने से प्राप दयागर्भ हैं ।।७१६॥ ॐ ह्रीं अहं रत्नगर्भाय नमः ॥७२०। रत्नत्रयों को धारण करने से अथवा गर्भावस्था ही में रत्नत्रय का स्वरूप जानने से अथवा गर्भावतार होने से पहले ही रत्नों की वर्षा होने से पाप रत्नगर्भ हैं ॥७२०॥ ॐ ह्रीं अहं प्रभास्वराय नमः ।।७२१॥ अतिशय प्रभावशाली होने से आप प्रभास्वर हैं ।।७२१॥ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार ५.५ ॐ ह्रीं पद्मगर्भाय नमः ||७२२|| गर्भावस्था में ही लक्ष्मी प्राप्त होने से श्राप पदमगर्भ हैं ||७२२|| ॐ ह्रीं श्री जगगर्भाय नमः ॥ ७२३ ॥ श्रापके ज्ञान के भीतर समस्त जगत होने से आप जंगल गर्भ हैं || ७२३ ॥ ॐ ह्रीं गर्भाय नमः || ७२४ ॥ श्रापका आत्मा स्वर्ण के समान निर्मल होने से प्रथवा गर्भावतार के समय सुवर्ण की वर्षा होने से आप भगर्भ हैं ।।७२४ ।। ॐ ह्रीं सूदनाय नमः || ३२५|| आपका सुन्दर दर्शन होने से आप सुदर्शन हैं ।। ७२५ ।। लक्ष्मी नमः ॥७२६ ।। समवशरणादि ऐश्वर्य सहित होने से आप लक्ष्मीत्रान् ॐ हैं ७२६॥ ॐ ह्रीं त्रिदशाध्यक्षाय नमः ||७२७|| देवों को प्रत्यक्ष होने से अथवा तेरह प्रकार के चारित्र को धारण करने वाले मुनियों को प्रत्यक्ष होने से अथवा वाल, युवा, वृद्ध तीनों ग्रवस्थाओं में एक सा प्रत्यक्ष होने से आप त्रिदशाध्यक्ष हैं ||७२७॥ ॐ ह्रीं श्रहं दृढीयसे नमः || ३२८ || प्रत्यन्त दृड होने से आप दृढीयान हैं ॥ ७२८ || ॐ ह्रीं श्रीं इनाय नमः | ७२६|| सबके स्वामी होने के आप इन हैं ||७२६ || ॐ ह्रीं अर्ह ईशिताय नमः ॥७३०|| तेजोनिधि अर्थात् ऐश्वर्यवान् होने से आप ईशिता ॥७३०॥ ॐ ह्रीं श्रीं मनोहराय नमः ॥७३१|| भव्य जीवों के अंतःकरण को हरण करने से आप मनोहर हैं || ७३१|| ॐ ह्रीं यह मनोज्ञांगाय नमः ॥७३२ || अंग उपंग मनोहर रहने से आप मनोज्ञांग हैं ||३२|| ॐ ह्रीं अर्ह धीराय नमः || ७३३ || बुद्धि को प्रेरणा देने से अथवा भव्य जीवों को सुबुद्धि देने से श्राप धीर हैं ।। ७३३॥ ॐ ह्रीं श्रहं गंभीरशासनाय नमः | ७३४|| आपका शासन अथवा शास्त्र गंभीर होने से आप गंभीरशासन हैं ||७३४ ।। ॐ ह्रीं अर्ह धर्मपाय नमः || ७३५|| आप धर्म के स्तंभ होने से धर्मयुप हैं ।।७३५ ।। ॐ ह्रीं श्रहं दयायागाय नमः ||७३६ || सब जीवों पर दया करना एवं आपकी पूजा होने से आप दयायाग है ।।७३६ ॥ ॐ ह्रीं श्रर्ह धर्मनेमिने नमः || ७३७ || धर्मरूपी रथ की धुरी होने से श्राप धर्मनेमि हैं || ७३ ॥ ॐ ह्रीं मुनीश्वराय नमः ।।७३८ || आप मुनियों के ईश्वर होने से मुनीश्वर हैं || ७३८६|| धर्माधाय नमः || ७३६ ॥ धर्मचक्र ही आपका आयुध होने से श्राप धर्मचक्रायुध ॐ ह्रीं हैं ।।७३६ ॥ ॐ ह्रीं ग्रह देवाय नमः ॥ ७४० ॥ परमानन्द में क्रीड़ा करने से आप देव हैं || ३४० ॥ ॐ ह्रीं ग्रह कर्महाय नमः | ७४१ || शुभाशुभ कर्मों को नाश करने से आप कर्महा है ||७४१ | ॐ ह्रीं ग्रई धर्म घोषणाय नमः ॥ ७४२ || धर्म का उपदेश देने से आप धर्मघोषण हैं || ७४२ ॥ ॐ ह्रीं अमोघवाचे नमः ॥७४३ || श्रोताजनों को यथार्थ बोध कराने वाली आपकी वाणी होने से आप अमोघवाक् हैं ||७४३ ॥ ॐ ह्रीं श्रहं अमोघाज्ञाय नमः ॥ ७४४ || आपकी आज्ञा कभी व्यर्थ न होने से श्राप अमोघाज्ञ हैं ।। ७४४ ।। Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गमोकार प्रय । ॐ ह्रीं अहं निर्मलाय नमः ॥७४५॥ आप ममत्व रहित होने से निर्मल हैं ।।७४५।। ___ॐ ह्रीं प्रहं अमोघशासनाय नमः ॥७४६॥ पापका शास्त्र कभी व्यर्थ म होने से अर्थात् जीवों को मोक्ष प्राप्त करा देने से आप अमोघशासन हैं ॥७४६॥ ॐ ह्रीं मह सुरूपाय नमः ॥७४७॥ आपका स्वरूप आनंददायक होने से प्राप सुरूप हैं ॥७४७।। ॐ ह्रीं अहं सुभगाय नमः ॥७४८।। अापके ज्ञान का अतिशय महात्म्य होने से प्राप सुभग हैं ॥७४८॥ ॐ ह्रीं अर्ह त्यागिने नमः ॥७४६।। ज्ञानदान, अभयदान प्रादि देने से पाप त्यागी हैं ।।७४६॥ ॐ ह्रीं अह समयज्ञाय नमः ॥७५०॥ प्रात्म सिद्धांत तथा कालस्वरूप जानने से पाप समयश हैं ॥७५०॥ ॐ ह्रीं प्रहं समाहिताय नमः ॥५१॥ समाधान रूप होने से अथवा ध्यान स्वरूप होने से प्राप समाहित हैं ॥७५१॥ ॐ ह्रीं अहं सुस्ताय नमः !:५६ ।। निगपत एयर हाल में निमग्न रहने से पाप सुस्थित हैं ॥७५२।। ॐ ह्रीं अहं स्वास्थ्यभाजे नमः ।।७५३॥ आत्मा को निश्चलता को सेवन करने से प्राप स्वास्थ्यभाक् हैं ॥७५३॥ ॐ ह्रीं अहं स्वास्थाय नमः ॥७५४|| सदा प्रात्मनिष्ठ होने से आप स्वस्थ हैं ।।७५४|| ॐ ह्रीं अहं नीरजस्काय नमः ॥७५५॥ कर्मरूप रज से रहित होने से अथवा ज्ञानावरण, दर्शनावरण कर्म रहित होने से आप नीरजस्क हैं ॥७५५।। ॐ ह्रीं अहं निरुद्धवाय नमः ॥७५६।। आपका कोई स्वामी न होने से आप निरुद्धव हैं ।।७५६।। ॐ ह्रीं अर्ह अलेपाय नमः ।।७५७।। कर्म के लेप रहित होने से आप निर्लेप हैं ।।७५७।। ॐ ह्रीं ग्रहं निष्कलंकात्मने नमः ।।७५८॥ दोष रहित होने से आप निष्कलंकात्मा हैं ॥७५८॥ ॐ ह्रीं मह वीतरागाय नमः ।।७५६॥ रागादि दोषों से रहित होने से अथवा मोक्ष लक्ष्मी में प्रेम होने से आप वीतराग हैं ।।७५६॥ ॐ ह्रीं मह गतस्पृहाय नमः ।।७६०। आप इच्छा रहित होने से गतस्पृह हैं ।।७६०॥ ॐ ह्रीं मह वश्यंद्रियाय नमः ॥७६१॥ इन्द्रियों को वश करने से पाप वश्यन्द्रिय हैं ॥७६१॥ ॐ ह्रीं ग्रह विमुक्तात्मने नमः ॥७६२।। संसार रूपी बंधन से रहित होने के कारण भाप विमुक्तात्मा हैं ॥७६२॥ ॐ ह्रीं अहं निःसपलाय नमः ॥७६३॥ दुष्ट भाव न रहने से अथवा निष्कंटक होने से आप निःसपल हैं 11७६३।। ॐ ह्रीं प्रहं जितेंद्रियाय नमः ॥७६४॥ आप इन्द्रियों को जीतने से जितेंद्रिय है ॥७६४॥ ॐ ह्रीं मह प्रशांताय नमः ॥७६५॥ शांत होने से अथवा राष रहित होने से आप प्रशांत हैं ॥७६॥ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 1 ro णमोकार ग्रंथ ॐ ह्रीं ग्रहं अनंत धामर्षये नमः ॥७६६ ।। अनन्त प्रकाश को धारण करते हुये भी पूज्य होने से प्राप अनंतधामषि हैं ॥ ७६६ ।। ॐ ह्रीं श्रहं मंगलाय नमः ।।७६७ || सबको सुख देने से श्राप मंगल हैं || ७६७॥ ॐ ह्रीं अर्ह मलने नमः || ७६८ || पापों को दूर करने से श्राप मलहर हैं ।।७६८ ।। ॐ ह्रीं श्रहं अनघाय नमः ॥ ७६६ ॥ समस्त पापों से रहित होने से आप श्रनध है || ७६६ ॥ ॐ ह्रीं अहं मनीदृद्धे नमः ||७७० || आप के समान अन्य कोई न होने से प्राप प्रतीदृक् हैं ।। ७७० ॥ ॐ ह्रीं श्रीं उपमाभूताय नमः ॥ ७७१|| सबके लिये उपमा योग्य होने से भाप उपमाभूत महाभाग्यशाली होने से अथवा शुभाशुभ दाता होने से ॐ ह्रीं आप दिष्टि है ।। ७७२ ॥ ॐ ह्रीं महं देवाय नमः ॥ ७७३ || प्रबल अथवा स्तुति करने योग्य होने से भाप देव हैं ।। ७७३ ।। ॐ ह्रीं महं प्रगोचराय नमः | ७७४ || इन्द्रियों के अगोचर अथवा वचनों के प्रगोचर होने से माप अगोचर हैं ||७७४॥ हैं ।। ७७१।। ॐ ह्रीं मह प्रमूर्तये नमः ।। ७७५॥ शरीर रहित होने से श्राप अमूर्त हैं ।। ७७५॥ मूर्तिमते नमः | ७७६ || पुरुषाकार होने से आप मूर्तिमान हैं ॥ ७७६ ॥ ॐ ह्रीं ॐ ह्रीं म प्राप्त कर लेने से प्राप ॐ ह्रीं होने से नैक हैं । ७७८६ ॥ दिष्टये नमः ॥ ७७२ ॥ एकस्मै नमः ॥७७७ ॥ श्रद्वितीय होने से अथवा बिना किसी भी सहायता के मोक्ष एक हैं ।।७७७॥ कस्मै नमः ||७७८ || श्राप अनेक रूप होने से अथवा सब भव्य जीवों का सहायक ॐ ह्रीं मह नानैकतस्त्वदृशे नमः ||७७६ ॥ आत्मा से अतिरिक्त अन्य तत्वों को न देखने से र्थात् उनमें तल्लीन न होने से आप नाननैकतत्वदृक् कहलाते हैं ||७७६ || योगदित हैं ||७८३॥ ॐ ह्रीं श्री अध्यात्मगम्याय नमः ॥ ७८० || केवल अध्यात्म शास्त्रों के जानने योग्य न होने से आप अध्यात्मत्मगम्य हैं ||७८६० ॥ ॐ ह्रीं श्रगम्यात्मने नमः | ७८१|| संसारी जीवों के जानने योग्य न होने से श्राप प्रगम्यामा हैं ||७८१॥ ॐ ह्रीं श्रीं योगविदे नमः || ७८२ ॥ | योग के जानकार होने से प्राप योगवित् हैं ||७८२ ॥ ॐ ह्रीं योगवंदिताय नमः ।।७८३|| योगियों के द्वारा वंदना करने योग्य होने से प्राप ॐ ह्रीं श्रीं सर्वत्रगाय नमः ||७८४ ॥ ज्ञान के द्वारा सर्वत्र व्याप्त होने से भाप सर्वत्रय 1195811 ॐ ह्रीं अर्ह सदा भाविने नमः ॥७६५ || सदा विद्यमान रहने से माप सदा भावी हैं ।। ७८५ ।। त्रिकालविषयार्थदुगे नमः ॥७५६॥ तीनों काल अर्थात् भूत, भविष्यत् वर्तमान काल सम्बन्धी समस्त पदार्थों को देखने से त्रिकाल विषयाथंद्ग हैं ||७८६ ॥ ॐ ह्रीं ॐ ह्रीं हुं शंकराय नमः ।। ७८७ ।। सबको सुख का कर्त्ता होने से आप शंकर हैं !७८७॥ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार मंग ॐ ह्रीं मह शवदाय नमः ।।७८८|| यथार्थ मुख के अर्थात् मोक्ष रूप मुख के वक्ता होने से प्राप गंवद हैं ।।७८८।। *ह्रीं मह दांताय नमः ॥७८३॥ मन को वश करने से आप दांत है ।।७८६| ॐ ह्रीं मह दमिने नमः ||१०|| पाप इन्द्रियों को निग्रह करने से दमो हैं ।।७६०॥ ॐ ह्रीं अह मांतिपरायणाय नमः ॥७९॥ क्षमा करने में तथा तत्पर रहने से आप क्षतिपरायण हैं 11७६१|| ॐ ह्रीं अहं अधिपाय नमः ||७६२।। जगत् के अधिपति होने से पाप अधिप हैं ।।७६२॥ ॐ ह्रीं अह परमानंदाय नमः ॥७९॥ पाप अत्यन्त सुखी होने से परमानन्द हैं ।।७६३।। ॐ ह्रीं अह परात्मज्ञाय नमः ।।७९४|| निज पर के ज्ञाता होने से अथवा विशुद्ध आत्मा का स्वरूप जानने से आप परात्मश हैं ॥७६४।। ॐ ह्रीं अहं परात्पराय नमः ॥७६५|| सबसे श्रेष्ठ होने से आप परात्पर हैं ॥७६५ ॐ ह्रीं अह विजगवल्लभाय नमः ॥७६.६।। तीनों लोकों को प्रिय होने से आप विजगदल्लभ । है ।।७६६॥ ॐ ह्रीं ग्रह अभ्यर्चाय नमः ।। ७६७।। सबसे पूज्य होने से आप अभ्यचर्य हैं ।।७६७।। ॐ ह्रीं प्रहं जगन्मंगलोदयाय नमः ।।७६८|| तीनों लोकों में मंगलदाता होने से पाप विजगमंगलोदय हैं ११७६८|| ॐ ह्रीं अर्ह त्रिजगत्पतिपुज्याध्रिने नमः ||७६६ प्रापके चरण कमल तीनों लोकों में इन्द्रों के द्वारा पूज्य होने से प्राप त्रिजगत्पतिपूज्यांघि कहलाते हैं ।।७६६।। ॐ ह्रीं अहं त्रिलोकाशिखामणयेनमः ।।८००।। तीनों लोकों के शिखर के शिखामणि होने से पाप त्रिलोकाग्रशिखामणि कहलाते हैं ।।८००।। ___ॐ ह्रीं अहं त्रिकालदशिने नमः ।।८०१॥ भूत, भविष्यत्, वर्तमान तीनों कालों को प्रत्यक्ष देखने से प्राप त्रिकालदर्शी हैं ।।८०३।। _____ॐ ह्रीं ग्रह लोकेशाय नमः ।।८०२।। तीनों लोकों के ईश (स्वामी) होने से पाप लोकेश हैं ।।०२।। ॐ ह्रीं अह लोकधारे नमः ।। ८०६।। समस्त प्रापियों की रक्षा का उपदेश देने से पाप लोकधाता है ।।८०३॥ ॐ ह्रीं अहं दृढ़वाय नम: ।।८०४। स्वीकार किये हुए निश्चय चारित्र को निश्चय कर देने से पाप दवती हैं।।८०४।। ॐ ह्रीं मह गर्व लोकातिशाय नमः ।।८०५|| तीनों लोकों के प्राणियों में सर्वोत्कृष्ट होने से प्राप सर्वलोकातिशय है ॥८०५।। 'ॐ ह्रीं अहं पूज्याय नमः ।। ८०६।। पूजा के योग्य होने से प्राप पूज्य हैं ॥८०६॥ ___ॐ ह्रीं मह सर्व लोकसारथिये नमः ।।८०७|| समस्त प्राणियों के लिये मुख्य रीति से मोक्ष. मार्ग का स्वरूप दिखलाने से आप सर्वलोकै कसारथि कहे जाते हैं ।।८०७॥ *ह्रीं पहं पुराणाय नमः ॥८॥ सबसे प्राचीन होने से अथवा मुक्ति पर्यन्त शरीर में निवास करने से पाप पुराण हैं ।।०८।। ॐ ह्रीं अहं पुरुषाय नमः ।।८०६॥ सबसे बड़े होने से भयका सबको तृप्त करने से अथवा पूज्य Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार प्रय समवशरण में स्थित रहने से पाप पुरुष है ०६॥ ॐ ह्रीं अह पूर्वस्मैः नमः ॥८१०1। सबसे पूर्व अर्थात् अग्रसर होने से आप.पूर्व हैं ।।८१०॥ ॐ ह्रीं मह कृतपूर्वाग विस्तराय नमः ८११।। ग्यारह अंग, चौदह पूर्व का समस्त विचार निरूपण करने से आप कृतपूर्वाग विस्तार हैं ।।११ ॐ ह्रीं मह प्रादिदेवाय नमः ।।१२। सब देवों में मुख्य होने से पाप अादिदेव हैं ।।८१२।। ॐ ह्रीं अहं पुराणाद्याय नमः ।।८१३।। सब पुराणों में प्रथम होने से प्राप पुराणाय हैं ।। ८१३॥ ॐ ह्रीं मह पुरुदेवाय नमः ८१४|| इंद्रादि देव मुख्यता से आपकी ही आराधना करते हैं अथवा माप सबके ईश है इसलिये पुरुदेव हैं 11८१४।। ॐ ह्रीं अहं युग मुख्याय नमः ।।१५।। इस प्रक्सपिणी काल के मुख्य होने से पाप युगमुख्य कहे जाते हैं 11८१५॥ ॐ ह्रीं अहं अधिदेवाय नमः ।।८१६॥ वेवों के भी देव होने से प्राप अधिदेव है |१६|| ॐ ह्रीं प्रह युगज्येष्ठाय नमः ८१७। इसी युग में सबसे बड़े होने से माप युगज्येष्ठ कहलाते हैं ॥१७॥ ॐ ह्रीं महं युगादिस्थितिदेशकाय नमः ।।८१८|| कर्मभूमि के प्रारम्भ में कर्मभूमि की स्थिति के मुख्य उपदेशक होने से प्राप युगादिस्थिति देशक कहलाते हैं ।।१।। ____ॐ ह्रीं महं कल्याणवर्णाय नमः ।।८१६।। आपके शरीर की कान्ति सुवर्ण के समान होने से कल्याण वर्ग है॥१९॥ *हीं अहं कल्याणाय नमः ||२०|| कल्याण स्वरूप होने से प्राप कल्याण हैं ॥२०॥ ह्रीं अहं कत्याय नमः ।।८२१|| सबके कल्याण करने में समर्थ होने से आप कल्य हैं ।।८२१॥ ॐ ह्रीं अहं कल्याणलक्ष्मणाय नमः ।।२२।। मंगलस्वरूप होने से अथवा कल्याणरूप लक्षणों को धारण करने से पाप कल्याणलक्षण कहलाते हैं ।।२२।। ॐ ह्रीं प्रहं कल्याण प्रकृतये नमः ॥८२३।। प्रापका स्वभाव ही कल्याणस्वरूप होने से प्राप कल्याण प्रकृति कहे जाते हैं ॥२३॥ ॐ ह्रीं महं दीप्तकल्याणात्मने नमः ।।८२४॥ चारों मोर प्रकाशमान होता हा पुण्य प्रथवा कल्याण ही मापका स्वभाव है, इसलिये माप दीप्तकल्याणास्मा कहे जाते हैं ।।५२४॥ ॐहीं अहं विकल्पषाय नमः ॥८२५|| पाप पाप रहित होने से विकल्पष हैं 11८२५| ॐहीं पह विकलकाय नमः ।।८२६॥ काम प्रादि कलंक से रहित होने के कारण प्राप विकलंक हैं ।।८२६॥ ॐ ह्रीं अहं कलातीताय नमः ।२७।। पाप शरीर रहित होने से कलातीत है ।।२७|| ॐ ह्रीं महं कलिलाय नमः ॥२॥ आप पापों को नाश करने वाले होने से कलिलच्न है ॥२८11. ___ॐ हीं महं कलाधराय नमः ।।१२।। अनेक कलाओं को धारण करने से पाप कलाधर हैं ।।८२६॥ *ह्रीं पहं देवदेवाय नमः ॥३०॥ इंद्रादि सभी देवों के देव होने से प्राप देव देव हैं ।।८३०।। Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार ग्रंथ ॐ ह्रीं अहे जग-नाया म.,६३६।। प्रा८ तीनों लोकों के स्वामी होने से जगन्नाथ कहलाते हैं 11८३१|| ॐ ह्रीं मह जगद्धघवे नमः ।।८३२॥ आप तीनों लोकों की हित भावना रखने से जगत्वंधु हैं ।।८३२।। ॐ ह्रीं अह जगद्विभुवे नमः ।।८३३।। समस्त जगत् के प्रभु होने से आप जगद्विभु हैं ॥८३३॥ ॐ ह्रीं अह जगजितषे नमः ।।८३४।। तोनों लोकों के लिये कल्याण करने की इच्छा रखने से पाप जगद्धितैषी हैं ।।८३४।। ॐ ह्रीं अर्ह लोकशाय नमः ।।८३५।। तीनों लोकों के जानने से पाप लोकश हैं ।।८३५।। अह्रीं मह सर्वगाय नमः ॥८३६।। केवलज्ञान के द्वारा सब जगह व्याप्त होने से पाप सर्वग हैं ।।८३६॥ ॐ ह्रीं अहं जगदग्रजाय नमः ।।८३७।। समस्त जगत में श्रेष्ठ होने से अथवा जगत् के मुख्य स्थान में उत्पन्न होने से प्राप जगतग्रज हैं ।।८३७।। ॐ ह्रीं ग्रहं चराचर गुरुवे नमः ।।८३८॥ पाप त्रस, स्थावर मादि सभी जीवों के गुरू होने से घराचर गुरू हैं ॥८३८|| ॐ ह्रीं अहं गोप्याय नमः ।।८३६॥ हृदय में बड़े यल से स्थापना करने के योग्य होने से प्राप गोप्य हैं ।।८३६॥ ॐ ह्रीं अहं गूढात्मने नमः ।।८४०॥ पापका स्वरूप अत्यन्त गुप्त होने से प्राप गूढात्मा हैं ।।८४० ॐ ह्रीं प्रहं गूढ़ गोचराय नमः ।।८४१।। गूढ़ अर्थात् जीवादि पदार्थों के जानने से पाप गूढ़ गोचर हैं ।।८४१॥ ॐ ह्रीं अहं सद्यो जाताय नमः ।।८४२|| सदा तुरन्त ही उत्पन्न होने के समान देख पड़ते हैं अर्थात् सदा नवीन ही जान पड़ते हैं इसलिये आप सद्योजात हैं ॥८४२।। ॐ ह्रीं मह प्रकाशात्मने नमः ।।८४३|| पाप प्रकाशरूप होने से प्रकाशात्मा हैं ।।८४३।। ॐ ह्रीं अह ज्वलनज्वलनसप्रभाय नमः ।।८४४|| प्रज्वलित हुई अग्नि के समान दैदीप्यमान होने से प्राप ज्वलन ज्वलन समभ कहलाते हैं ||८४४॥ ॐ ह्रीं अहं आदित्य वर्णाय नमः ॥८४५।। सूर्य के समान तेजस्वी होने से प्राप आदित्य वर्ण कहलाते हैं ।१६४५।। ॐ ह्रीं प्रर्ह भर्मामाय नमः ।।८४६।। सुवर्ण के समान कान्तियुक्त होने से प्राप भर्माभ हैं ।।८४६॥ ॐ ह्रीं मह सुप्रभाय नमः ।।८४७॥ मन के लिये प्रानन्द दायक सुन्दर कान्ति होने से प्राप सुप्रभ है ||८४७|| ॐ ह्रीं ग्रह कनकप्रभाय नमः ।।८४८॥ ॐ ह्रीं ग्रहं सुवर्णवर्णाय नमः ।।८४६।। ॐ ह्रीं अहं रुक्माभाय नमः ।।८५०॥ सुवर्ण के समान उज्वल कान्तियुक्त होने से पाप कनकप्रभ है ।। ८४८1 सुवर्णवर्ण हैं ।।४६।। तथा रुक्माभ कहे जाते हैं ।।५०॥ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमौकार ग्रंथ ॐ ह्रीं ग्रह सूर्य कोटिसमप्रभाय नमः ।।८५१।। करोड़ों सूर्यों के समान प्रभा होने से पाप सूर्य कोटिसमप्रभ हैं ।1८५१॥ ॐ ह्रीं अहं तपनीयर्यानभाय नमः ।।८५२।। सुवर्ण के समान सुन्दर पीतवर्ण होने से प्राप तपनीयनिभा कहलाते हैं ॥८५२॥ ॐ ह्रीं ग्रह तुंगाय नमः ।।८५३॥ ऊंचे शरीर को धारण करने से पाप तुंग है ॥८५३॥ ॐ ह्रीं मह वालार्कभाय नमः ।।८५४।। प्रातःकाल के उदय होते हुए सूर्य के समान कान्तिमान और सुन्दर होने के कारण आप बालार्कीभ कहलाते हैं ।।८५४॥ ॐ ह्रीं अर्ह अनिलप्रभाय नमः ।।८५५॥ अग्नि के समान प्रभावान होने से आप अनिलप्रभ हैं. १८५५|| ___ ॐ ह्रीं अर्ह सन्ध्याभ्र वभ्र वे नमः ।।८५६।। सन्ध्या के बादलों के समान सुन्दर वर्ण होने से आप सन्ध्याभ्र वभ्र कहलाते हैं ।३८५६।। ॐ ह्रीं ग्रह हेमाभाय नमः ।।८५७।। सुवर्ण के समान होने से पाप हेमाभ हैं ।।८५७।। ॐ ह्रीं अह तप्त चामीकर प्रभाय नमः ||८५८] सुवर्ण के समान कान्तियुक्त होने से प्राप चामीकरप्रभ कहलाते हैं ।।८५८।। ॐ ह्रीं मह निप्तप्तकनकच्छायाय नमः ||५६। कनकाचन सनिभायाय नमः ||१६|| हिरण्यवर्णाय नमः ।।८६१।। स्वर्णाभाय नमः ।।८६२।। शांतिकुंभनिभ प्रभाय नमः ।।८६३।। घुम्नाभाय नमः ॥८६४।। जातरूपाभाय नमः ॥८६५।। तप्तजाम्बूनदा तये नमः ॥८६६|| सुधौत कलधौत श्रिये नमः ।।६७॥ हाटका तये नमः ।।८६८।। सुवर्ण के समान उज्ज्वल और कांतियुक्त होने से प्रार निप्तप्तकनकच्छाया ||८५६।। कनकाचन सनिभा ।। ६०| हिरण्यवर्गा ।।८६१।। स्वर्णाभा ।।८६२।। शांतकुंभनभप्रभा ।।८६३॥ गुस्नाभा ।।८६४॥ जातरूपाभ 1।८६५|| तप्तजाम्बूनद | ति ।।८६६।। सुधोतकलधौत श्री ।।८६७।। पौर हाटका ति कहलाते हैं ।।८६८॥ ॐ ह्रीं अर्ह प्रदीप्ताय नमः ।।६६६।। देदीप्यमान होने से पाप प्रदीप्त कहलाते हैं ।।८६६|| ॐ ह्रीं अहं शिष्टेष्टाय नमः ॥८७०॥ इंद्रादि उत्तम पुरुषों को प्रिय होने से प्राप शिष्टेष्ट हैं॥७ ॥ ॐ ह्रीं अहं पुष्टिवाय नमः ।७१॥ पुष्टि के दाता होने से प्राप पुष्टिदाता हैं ।।८७१॥ ॐ ह्रीं ग्रह पुष्टाय नमः ।।८७२|| महाबलवान् होने से पाप पुष्ट हैं ।।८७२।। ॐ ह्रीं पहँ स्पष्टाय नमः ।।८७३।। सबको प्रगट दिखाई देने से माप स्पष्ट हैं ।।८७३।। ॐ ह्रीं महं स्पष्टाक्षराय नमः ॥८७४।। आपकी वाणी स्पष्ट तथा आनन्ददापनी होने से आप स्पष्टाक्षर हैं ।।०७४। ॐ ह्रीं महं क्षमाय नमः ।।८७५।। आप समय होने से क्षम हैं ।८७५॥ ॐ ह्रीं ग्रह शत्रुघ्नाय नमः ॥८७६।। कर्म रूपी शत्रुओं को नाश करने से माप शत्रुघ्न कहलाते हैं ॥८७६|| ॐ ह्रीं पह प्रप्रतिगाय नमः ।।८७७। क्रोध रहित होने से आप अप्रतिग हैं ।।८७७॥ ह्रीं अहं प्रमोघाय नमः ।।८७८| सफल अर्थात् कृतकृत्य होने से पाप अमोघ हैं ।।८७८|| ॐ ह्रीं ग्रह प्रशास्त्रे नमः ।।८७६।। धर्मोपदेश देने से आप प्रशास्ता हैं 11८७६॥ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार ग्रंथ ॐ ह्रीं अह शासिताय नमः ॥८८०॥ श्राप रक्षक होने से शासिता हैं ॥८८०।। ॐ ह्रीं अहँ स्वभुषे नमः ॥८८१।। अपने आप उत्पन्न होने से आप स्वयंभू हैं ।।८८१॥ ॐ ह्रीं महं शान्तनिष्ठाय नमः 11८८२| काम, क्रोध, मादि को नष्ट करने से प्रथवा शान्त होने से प्राप शान्तनिष्ठ हैं ।।। ॐ ह्रीं अहं मुनिज्येष्ठाय नमः ।।८८३।। मुनियों में श्रेष्ठ होने से आप मुनि ज्येष्ठ हैं ॥८८३|| ॐ ह्रीं महं शिवतातये नमः ॥८८४॥ सुख को परम्परा होने से आप शिवतात है ।।४।। ॐ ह्रीं महं शिवप्रदाय नमः ।।८८५॥ कल्याण के दाता होने से पाप शिवप्रद है ।।८८५।। ॐ ह्रीं ग्रह शान्तिदाय नमः ॥८८६।। शान्तिदायक होने से आप शान्तिद है ॥६६॥ ही प्रहशान्सिकताय नमः ||८८७समस्त उपद्रवों को शान्त करने से प्राप शान्तिकृत हैं ||८८७॥ ॐ ह्रीं अई शान्तये नमः ।।८८८।। कर्मों का क्षय करने से आप शान्ति हैं ।।८८८।। ॐ ह्रीं ग्रह कान्तिमते नमः ॥८८६|| कान्तियुक्त होने से प्राप कान्तिमान् हैं ।।८८६|| ॐ ह्रीं पहं कामित्प्रदाय नमः ॥८६०|| मनवांछित फलों को देने वाले होने से ग्राप कामित्प्रभ हैं ॥८६॥ ॐ ह्रीं मह श्रेयोनिधये नमः 11८६१॥ कल्याण के समुद्र होने से पाप श्रेयोनिधि हैं ॥१॥ ॐ ह्रीं अह अधिष्ठानाय नमः ।।८६सा धर्म के मूल कारण और आधार होने से आप अधिष्ठान हैं ||६२॥ ॐ ह्रीं ग्रह अप्रतिष्ठाय नमः ।।८६३।। मपमे माप ही ईश्वर होने से पाप मप्रतिष्ठ हैं ।।८६॥ ॐ ह्रीं अहं प्रतिष्ठिाय नमः ॥८६४॥ सब जगह प्रतिष्ठित होने से आप प्रतिष्ठित हैं ।।८६४।। ॐ ह्रीं ग्रह सुस्थिताय नमः ||८६५।। मतिशय स्थिर होने से.पाप सुस्थित हैं IE६५|| ॐ ह्रीं अहं स्थावराय नमः ।।१६।। विहार रहित होने आप स्थावर हैं ||१|| ॐहीं अहं स्थाणशे नमः ||१७|| निश्चल होने से पाप स्थाण हैं ||१७|| ॐ ह्रीं ग्रह पृथीयसे नमः ।।८६८॥ विस्तृत होने से आप पृथीयान हैं ।1८६८॥ ॐ ह्रीं अहं प्रथिताय नमः ८६६।। अतिशय प्रसिद्ध होने से प्राप प्रथित हैं ॥८|| ॐ ह्रीं प्रई पृथुवे नमः ।।६०० बहुत बड़े होने से पाप पृथु कहलाते हैं ॥१०॥ ॐ ह्रीं अहं दिग्वाससे नमः।।६०१३। दिशारूप वस्त्र धारण करने से प्राप दिग्वासा हैं ।।६०१॥ ॐ ह्रीं पहं वातरशनाय नमः ||६०२।। वायुरूपी करधनी को धारण करने वाले होने से माप बातरशन है ।१६०२॥ ॐ ह्रौं प्रहं निर्ग्रन्थेराय नमः ॥१०३।। निनन्य मुनियों में भी श्रेष्ठ होने से पाप निग्रंन्येश हैं ॥६०३॥ ॐ ह्रीं मह निरम्बराय नमः ॥९०४] वस्त्र रहित होने से भाप निरम्बर हैं ॥९०४|| ॐहीं मह निष्कचनाय नमः ॥१०॥ परिग्रह रहित होमे से पाप निष्कंधमा०५॥ ॐ ह्रीं वह निराशंसाय नमः ॥६० ६।। इच्छा अथवा प्राशा रहित होने से पाप निराशंस है ।।६०६|| ॐ ह्रीं पह भानचक्षुषे नमः ॥९०७॥ ज्ञानरूपी नेत्रों को धारण करने से प्राप शानचक्षु कहलाते हैं ॥१०॥ ॐ हीं पहं प्रमोमुहाय नमः ।..! अत्यन्त निर्मोह होने से पाप प्रमोमुह हैं ।।१०।। Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार ग्रंथ ॐ ह्रीं अहं तेजोराशये नमः ||६०६।। तेज के समूह होने से आप तेजोराशि है ।।६०६॥ ॐ ह्रीं श्रहं अनस गाने नमः । अनन्त न मी होने से यार अनन्तीजा है ।।६१०॥ ॐ ह्रीं अर्ह अनंतज्ञानाब्धये नमः ।।६११॥ ज्ञान का सागर होने से ग्राप ज्ञानाब्धि हैं ||१११॥ ॐ ह्रीं ग्रह शीलसागराय नमः ||६१२॥ शील के सागर अथवा स्वस्वभाव के सागर होने से ग्राप शीलसागर कहलाते हैं ।।६१२।। ॐ ह्रीं अर्ह तेजोमयाय नमः ।।११३|| तेजरूप होने से ग्राप तेजोमय हैं ॥१३॥ ॐ ह्रीं अहं अमितज्योतिषे नमः ||६१४॥ अनन्त ज्योति के धारक होने से प्राप प्रमितज्योति कहलाते हैं ।।६१४॥ ॐ ह्रीं ग्रह ज्योति मूर्तये नमः ।।६१५|| तेजस्वरूप होने से आप ज्योतिमूर्ति है ।।१५।। ॐ ह्रीं अई तमोपहाय नमः ।।६१६|| प्रज्ञान रूपी अधिकार के नाश हो जाने से आप तमोपह कहलाते हैं ॥१६॥ ॐ ह्रीं अहं जगच्च डामणये नमः ॥११७|| तीनों लोकों के मस्तक के रत्न होने से प्राप जगत के चूडामणि कहलाते हैं ।।६१७॥ ॐ ह्रीं मह दीप्तये नमः ।।११८॥ तेजस्वी होने के कारण अथवा प्रकाशमान होने से प्राप दीप्त हैं ।।६१८॥ *ह्रौं ग्रह शेवते नमः १६१६।। अत्यन्त सुखी होने से आप शंवान् कहलाते हैं ||१६|| ॐ ह्रीं अर्ह विघ्नविनायकाय नमः ।।९२०॥ विघ्नों के अथवा अन्तराय कर्मों के नाश होने से पाप विघ्नविनायक कहलाते हैं .।। ६२० ।। ॐ ह्रीं महं कलिघ्नाय नमः ।।६२१॥ दोषों को दूर करने से पाप कलिघ्न है ।।१२१।। ॐ ह्रीं ग्रह कर्मशत्रुघ्माय नमः ॥६२२।। कर्म रूपी शत्रुओं का नाश करने मे आप कर्मशत्रुधन हैं ॥६२२|| ॐ ह्रीं अई लोकालोकप्रकाशाय नमः ।। २३|| लोक और प्रलोक को देखने और जानने वाले होने से प्राप लोकालोक प्रकाशक हैं ।।६२३।। ॐ ह्री अहं अनिद्रालुये नमः ।। ६२ ४।। निद्रा रहित होने से प्राप अनिद्रालु हैं ।।१२४॥ ॐ ह्रीं अर्ह प्रतन्द्रालुवे नमः ॥२५॥ प्रमाद रहित होने से पाप प्रतन्द्रालु हैं ।। ६२५|| ॐ ह्रीं अहं जागरूकाय नमः ।१६२६। अपने स्वरूप की सिद्धि के लिए सहा जागरूक रहने से पाप जागरूक कहलाते हैं ||२६|| ॐ ह्रीं मह प्रमामयाय नमः ।।९२७॥ पाप ज्ञानरूप होने से प्रमामय हैं ॥६२७॥ ॐ ह्रीं पई लक्ष्मीपतये नमः ||६२८|| मोक्षरूपी अविनाशी लक्ष्मी के स्वामी होने से प्राप लक्ष्मीपति हैं ।।१२८॥ ___ॐ ह्रीं महं जगज्ज्योतये नमः ॥९२६।। अगत् को प्रकाशित करने से आप जगज्योति हैं ।।६२६॥ ॐ ह्रीं मह धर्मराजाय नमः ।।६३०|| धर्म के स्वामी होने से पाप धर्म के राजा है ।।६३०|| ॐ ह्रीं ग्रह प्रजाहिताय नमः ।।६३१|| प्रजा के हितैषी होने से प्राप प्रजाहित कहलाते हैं ।१९३१॥ ॐ ह्रीं मह मुमुक्षवे नमः १९३२॥ निर्वाण के विरूप होने से माप मुमुक्षु कहलाते हैं ।।९३२॥ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार प्रेम ॐ ह्रीं पहं बंध मोक्षशाय नमः ॥६३३|| बंध और मोक्ष का स्वरूप जानने से आप बंध मोक्षश हैं ।।६३३॥ ॐ ह्रीं अहं जिताक्षाय नमः ॥९३४॥ श्राप इन्द्रियों को जीतने से जिताक्ष हैं ||३४।। ॐ ह्रीं अर्ह जितमन्मथाय नमः ।।२३५१: मानदेय को होने से धातिमन्मथ कहलाते हैं ।।६३५१. ॐ ह्रीं अहं प्रशांतरसशेलुषाय नमः ॥६३६॥ शान्तरूपी रसामृत का पान करने से आप प्रशान्त रसशैलूष कहलाते हैं ॥६३६॥ ॐ ह्रीं ग्रह भव्यपेटकनायकाय नमः ।।६३७|| भव्य जीवों के समुदाय के नायक होने से प्राप भव्यपेटकनायक कहलाते हैं ।।६३७|| ॐ ह्रीं अर्ह मूलकर्ताय नमः ॥६३८॥ धभं के मुख्य प्रकाशक होने से आप मूलकर्ता हैं ॥६३८| ॐ ह्रीं महं जगज्योतिषे नमः ॥६३६॥ अनन्त ज्योति स्वरूप होने से प्राप जगज्योति हैं ॥३६॥ ॐ ह्रीं अहं मलघनाय नमः ।।६४०।। रागद्वेषादि मल को नाश करने से आप मलम्न हैं ||१४०॥ ॐ ह्रीं अह मूल कारणाय नमः ॥१४१॥ पाप मोक्ष के मूल कारण होने से मूलकारण हैं ॥१४॥ ॐ ह्रीं अहं प्राप्ताय नमः ॥९४२॥ यथार्थ वक्ता होने से आप प्राप्त हैं ।।९४२।। ॐ ह्रीं अह वागीश्वराय नमः ।।६४३।। स्व प्रकाश की वाणी के स्वामी होने से आप वागीश्वर कहलाते हैं ।।६४३॥ ॐ ह्रीं प्रहं श्रेयसे नमः ।।६४४|| कल्याणस्वरूप होने से प्राप श्रेयान् हैं ।।६४४|| ॐ ह्रीं अहं श्रायसोक्तये नमः ।।६४५।। मापकी वाणी कल्याणरूप होने से माप श्रायसोक्ति कहलाते हैं ।।६४५॥ ॐ ह्रीं अहं निरुक्तवाचे नमः ॥६४६।। निःसन्देह वाणी होने से प्राप निरुक्तवाक कहलाते ॐ ह्रीं अहं प्रवक्त्रे नमः ।।६४७।। सबसे उत्तम वक्ता होने से पाप प्रवक्ता हैं ||९४७॥ ॐ ह्रीं अहं वचसामीशाय नमः ॥९४८॥ सब प्रकार के वचनों के स्वामी होने से माप वचसामीश हैं ।।६४८॥ ॐ ह्रीं अहं मारजिते नमः ॥६४६॥ कामदेव को जीतने से आप मारजित है ॥६४६॥ ॐ ह्रीं प्रहं विश्वभाविदाय नमः ॥६५॥ संसार के समस्त पदार्थों को जानने से अथवा समस्त प्राणियों के अभिप्राय जानने से माप विश्वभाववित् कहलाते हैं ।।६५०॥ ॐ ह्रीं प्रहं सुतनुवे नमः ।।६५१।। उस्कृष्ट शरीर को धारण करने से पाप सुतनु है ।।५।। ॐ ह्रीं अहं तनुनिर्मुक्ताय नमः ।।६५२।। शरीर रहित होने से पाप तनुनिर्मुक्त हैं ||६५२।। ॐ ह्रीं महं सुगतये नमः ॥९५३॥ पास्मा में तल्लीन होने से अथवा सम्यग्ज्ञान धारण करने से माप सुगत हैं ॥१५३॥ ॐ ह्रीं महं हतदुनंयाय नमः ।।९५४।। मिथ्यावृष्टियों की खोटी नयों का नाश करने से भाप हतदुर्मय हैं ॥१५४।। Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोकार प. ॐ ह्रीं मह श्रीशाय नमः ॥६५५॥ अंतरंग और बाह्यलक्ष्मी के स्वामी होने से आप श्रीश हैं ॥१५॥ ॐ ह्रीं अहं श्रीश्रितपादाभाय नमः ।।६५६॥ मापके चरण कमलों की सेवा लक्ष्मी करती है इसरिए माप श्रीश्रितपादाब्ज है ॥६५६।। ॐ ह्रीं अह वीतभीराय नमः ।।९५७।। भय रहित होने से प्राप वीतभीर हैं ॥६५७।। ॐ ह्रीं अह मभयंकराय नमः ॥६५८|| भक्त लोगों के भय दूर करने से माप भभयंकर हैं ॥१५॥ ॐ ह्रीं अहं उत्सन्नदोषाय नमः ॥१५६।। समस्त दोषों को नष्ट कर देने से माप उत्सन्न दोष कहलाते हैं ॥१५॥ ॐ ह्रीं अहं निर्विघ्नाय नमः ॥६६०॥ विघ्न रहित होने से आप निर्विघ्न है ॥६६॥ ॐ ह्रीं अहं निश्चिलाय नमः ॥९६१॥ स्थिर होने से आप निश्चल हैं ॥६६॥ ॐ ह्रीं अहं लोकवत्सलाय नमः ।।६६२। लोगों को प्रत्यन्त प्रिय होने से प्राप लोकवत्सल कहे जाते हैं ॥९६२॥ ॐ ह्रीं ग्रह लोकोत्तराय नमः ॥९६३|| समस्त लोक में उत्कृष्ट होने से प्राप लोकोत्तर है ।।९६३।। ॐ ह्रीं अर्ह लोकपतये नमः ॥६६४॥ तीनों लोकों के स्वामी होने से पाप लोकपति है ।।१६। ॐ ह्रीं श्रह लोकचक्षुषे नमः ।।६६५समस्त लोक को चक्षु के समान यथार्थ पदार्थों के दर्शन होने से प्राप लोकचक्षु है ॥६५॥ *हीं अहं अपारधिये नमः ॥६६॥ अनंतज्ञान को धारण करने से पाप अपारधी हैं ।।६६६।। "ॐ ह्रीं अहं धीरधिये नमः ॥९६७|| पाप का ज्ञान सदा स्थिर रहता है इसलिये अाप धीरथी ___ॐ ह्रीं अहं बुद्धसन्मार्गाय नमः ।।६६८॥ यथार्थ मोक्षमार्ग को जानने से पाप बुद्ध सन्मार्ग हैं ॥६॥ ॐ ह्रीं अहं शुद्धाय नमः ।।६६६।। शुद्ध स्वरूप होने से आप शुद्ध हैं ।।६६मा ॐ ह्रीं अहं सुनृतपूतवाचे नमः ।।६७०आपके वचन यथार्य और पवित्र होने से प्राप सुनृतपूतवाक् हैं ।।१७०॥ ॐ ह्रीं मह प्रज्ञापारमिताप नमः ॥९७१।। बुद्धि के पारगामी होने से आप प्रज्ञापारमित हैं ॥७॥ ॐ ह्रीं अहं प्राशायनमः ॥९७२।। अतिशय बुद्धिमान होने से आप प्राश हैं ॥७२॥ ॐ ह्रीं अर्ह यतिये नमः ।।१७३|| मन को जीतने से अथवा सदा मोक्षमार्ग का प्रयत्न करने से पाप यति हैं ॥६७३|| ॐ ह्रीं मह नियमितेंद्रियाय नमः ।।१४४॥ इन्द्रियों को वश में करने से प्राप नियमितेंद्रिय हैं ॥९७४॥ ॐ ह्रीं महं भवंताय नमः ।।६७५॥ पाप पूज्य होने से भवंत हैं ॥७॥ ॐ ह्रीं मई भरकृते नमः ॥९७६॥ कल्याणकारी होने से आप भद्रकृत है ।।९७६॥ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ णमोकार ग्रंथ ॐ ह्रीं ग्रह भद्राय नमः ||६७७॥ निष्कपट ग्रथवा कल्याणस्वरूप होने से भाप भद्र हैं ।। ६७७ || ॐ ह्रीं कल्पवृक्षाय नमः || ६७८ ॥ इच्छित पदार्थों के दाता होने से श्राप कल्पवृक्ष है ।। ६७८ ॥ ॐ ह्रीं श्रीं वरप्रदाय नमः ||६७६॥ इष्ट पदार्थों की प्राप्ति करा देने से श्राप वरप्रद कहलाते हैं ।६७६॥ ॐ ह्रीं समुन्मूलित फर्मारये नमः ||६८० ॥ कर्मरूप शत्रुओं को उखाड़ फेंक देने से श्राप समुन्मूलित कमर कहे जाते हैं ||८०|| ॐ ह्रीं श्रीं कर्मकाष्ठशुशक्षिणिये नमः ||६८१ ॥ कर्मरूपी लकड़ी को जलाने के लिये प्राप अग्नि के समान हैं इसलिए श्राप कर्मकाष्ठशुशक्षण हैं ||६८१ ॥ ॐ ह्रीं अर्ह कर्मण्याय नमः ||६८२ ॥ क्रिया अर्थात् चारित्र में नितांत कुशल होने से आप कर्मण्य हैं ||६८२|| ॐ ह्रीं अहं कर्मठाय नमः ||३|| क्रिया करने में शूरवीर श्रथवा सर्वथा तैयार रहने से आप कर्मठ हैं ॐ ह्रीं श्रीं प्रशिवे नमः ||१४|| सबसे ऊँचे अर्थात् उत्कृष्ट या प्रकाशमान होने से श्राप प्रांशु हैं ||४|| ॐ ह्रीं यह यादेयविचक्षणाय नमः ।। ६८५|| त्यागने योग्य और ग्रहण करने योग्य पदार्थों के जानने में चतुर होने से ग्राप हेयादेय विचक्षण कहलाते हैं ||६८५ ॥ ॐ ह्रीं अनंतशक्तये नमः ||६८६ ॥ प्राप में ग्रनन्त शक्तियां प्रगट होने से आप अनंत शक्ति हैं ।।६८६|| ॐ ह्रीं अर्ह अवाय नमः || १८७२ छिन्न भिन्न करने योग्य न होने से प्राप प्रछेद हैं ॥ ६८७ || ॐ ह्रीं अहं त्रिपुरारये नमः ॥६८८ || जन्म जरा थोर मरण इन तीनों को नाश करने से आप त्रिपुरारि कहलाते हैं ||६८८ || ॐ ह्रीं त्रिलोचनाय नमः ॥६८॥ ॐ ह्रीं यह त्रिनेत्राय नमः ६६०॥ ॐ ह्रीं यह त्र्यंबकायनमः ||६६१|| ॐ ह्रीं ग्रह यक्षाय नमः ॥२॥ भूत, भविष्यत और वर्तमान तीनों कालों के जानने और देखने से प्राप त्रिलोचन ||६८६॥ त्रिनेत्र ॥ ६०॥ त्र्यंबक ॥६६१ ॥ तथा दक्ष कहे जाते हैं | ||६६२ ॥ ॐ ह्रीं केवलज्ञानवीक्षणाय नमः ॥ ६३ ॥ केवलज्ञान ही आप के नेत्र होने से आप केवलज्ञान वीक्षण कहलाते हैं ||३|| ॐ ह्रीं श्रर्ह समंतभद्राय नमः ||६६४॥ सर्वथा मंगल स्वरूप होने से श्राप समंतभद्र हैं ॥६४॥ ॐ ह्रीं श्रीं शतारिणे नमः ||६६५॥ कर्मरूप शत्रुओं को नाश करने से श्राप शांतार हैं ।। ६६५॥ ॐ ह्रीं धर्माचार्याय नमः ॥ ६६ ॥ धर्म के आचार्य होने से आप धर्माचार्य हैं । ६६६ ।। ॐ ह्रीं अर्ह दयानिधये नमः ॥६७॥ जीवों पर अतिशय क्या करने से आप दयानिधि हैं ||६६७।। ॐ ह्रीं ग्रह सूक्ष्मदर्शये नमः ||८|| सूक्ष्म पदार्थों को भी साक्षात् देखने से आप सूक्ष्मदर्शी कहलाते हैं ||८|| ॐ ह्रीं श्रीं जितानंगाय नमः |IEEE || कामदेव को जीतने से आप जितानंग हैं ||६|| ॐ ह्रीं यह कृपालुवे नमः ॥१०००|| दयावान होने से आप कृपालु है ॥ १००० ॥ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार ग्रंथ __ॐ ह्रीं अहं धर्मदेशकजिनाय नमः ॥१००१॥ धर्म का उपदेश देने से आप धर्मदेशक कहलाते हैं ॥१००१ ॐ ह्रीं अई शुभयवे नमः ॥१००२|| मोक्षरूप शभ को प्राप्त करा देने से प्राप शभंय है।॥१००२॥ ॐ ह्रीं अहं सुखसाद्भूताय नमः ।।१००३। सुख को अपने स्वाधीन करने से पाप सुखसाद्भूत कहलाते हैं ।।१०.३॥ ॐ ह्रीं अहं पुण्यराजये नमः ॥१००४।। पुण्य का राशि (समूह) होने से प्राप पुण्क राशि कहे जाते हैं ॥१००४॥ ॐ ह्रीं अहं अनामयाय नमः ॥१.०५॥ रोग रहित होने से आप अनामय है ।।१००५|| ॐ ह्रीं ग्रह धर्मपालाय नमः ।।१००६।। धर्म की रक्षा करने से आप धर्मपाल हैं ॥१००६।। ॐ ह्रीं अहं जगत्पालाय नमः ।।१००७।। जगत् की रक्षा करने से आप जगत्पाल हैं ।।१००७॥ ॐ ह्रीं अहं धर्मसाम्राज्यनायकाय नमः ।।१००८॥ पाप धर्मरूप साम्राज्य के स्वामी होने से धर्मसाम्राज्यनायक कहलाते हैं ।।१००८|| इति अष्टोत्तर सहस्रनाम समाप्तः ।। वाहा वश त प्रष्टोत्तर कहे सार्थक श्री जिननाम । पड़े सुने जे भविक जन पाये सौख्य ललाम ॥१॥ इस प्रकार महा तेजस्वी श्री जिनेन्द्र देव के विद्वान् लोगों ने ये एक हजार आठ नाम संचय किये हैं। जो पुरुष इन नामों का स्मरण करता है उसकी स्मृति बहुत ही पवित्र हो जाती है। इति श्री अहंद् भगवद् गुण वर्णन समाप्तः ॥१॥ अर्थ निकल परमात्मा (सिद्ध ) गुण प्रारम्भः ।। कैसे है सिद्ध भगवान् ? वे अष्टकमों के प्रभाव से प्रादुर्भाव सम्यक्त्वादि प्रष्ट गुणों से सुशोभित हैं। प्रष्ट गणनाम श्लोकः सम्यक्त्वदर्शनं मामम तबीयमद्भुतम् । सौषम्यावणायाम्यावाधाः सहागुरुलघुत्वकाः ॥१॥ सोरठा समकित वर्शन शान, प्रगुरु लघुप्रवगाना। सूक्ष्मवीरनवान, निरावाषगुणसिद्ध के ॥२॥ अर्थात् सम्यक्त्वादि अष्ट गुण सिद्ध भगवान् के मोहनीयादि कर्म के प्रभाव से प्रादुर्भूत व्यवहार मात्र कहे हैं। निश्चय से तो अनंतगुण हैं। भावार्थ-मोहनीय कर्म के प्रभाव से क्षायिकसम्यक्त्व प्रगट हुा ।।१।। दर्शनावरणी कर्म के प्रभाव से केवलदर्शन प्रगट हुा ।।२।। और ज्ञानावरणी के दूर होने से केवलज्ञान प्रगट हुमा ।।३।। पानराय कर्म के प्रभाव से अनंत वल प्रगट हुा ।।४।। प्रायु कर्म के प्रभाव से प्रावगाहनत्व गुण प्रगट हुआ ।।५।। Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार ष गोत्र कर्म के प्रभाव से प्रगुरुलधुत्व गुण प्रगट हुमा १६|| नाम कर्म के प्रभाव से सूक्ष्मत्व गुण प्रगट हुमा ।।७॥ वेदनीय कर्म के प्रभाव से निरावाधत्व गुण प्रगट दुधा ||८॥ इस प्रकार प्रष्ट कर्मों के प्रभाव से सिद्ध भगवान् निकल परमात्मा हैं उनके पाठ गुण प्रगट होते हैं। उस निकल परमात्मा को मेरा बारबार नमस्कार हो । और कैसे हैं वे निकल परमात्मा ? वे इन्द्रिय अगोचर ज्योति स्वरूप सुख पिड़ समुद्रबत् स्थिर हैं। प्रतिम शरीर से किचितदून शरीराकार प्रमाण सीन लोक प्रम के भाग में तिष्ठते हैं सो उनका भाकार दृष्टान्त पूर्वक जिनागम के अनुसार लिखते हैं : भासना हाहा.. कासे शोक वृक्षस जी। सांचों करो इक मोम को फिर गारा लेप षरांत जी ।। सुखवायतको अग्नि घेकर मोम काहानिये। पोलाखा में हैं जैसे सिद्ध प्राकृति जानिये ॥१॥ भावार्थ-जैसे मोम का एक पुतला नख शिख पर्यन्त समचतुरस्र संस्थानवाला पुरुषाकार बनाया जावे फिर उसके ऊपर जैसे मनुष्य की त्वचा होती है वैसे मूतिका.लेप करके, सुखाकर अग्नि में तपाकर मोम के शरीराकार प्राकृति गीली मिट्टी के साँचे के मध्य केवल पुरुषाकार आकाश रह गया, वैसे ही निकल परमात्मा जो सिद्ध भगवान् है । उनका स्वरूप जानना चाहिये । प्राकाश तो शून्य और जड़ है और वह पूरन चेतन चिद् प है । इतना ही इसमें अन्तर है । प्राकृति में कुछ अन्तर नहीं है। इस प्रकार परम ब्रह्म का स्वरूप निराकार और साकार इस दृष्टान्त से अनुभव करना चाहिये । पुन कैसे है वे सिद्ध भगवान् ? सिद्धालय में विराजमान हैं ज्ञान नेत्र से प्रगट होते हैं, चर्म नेत्र से दिखाई नहीं देते । सिद्ध भगवान् द्रदत्वापेक्षा स्थिर और अर्थ पर्याय से उत्पाद्, व्यय, धौव्य से युक्त हैं । भावार्थसंख्यात गुणावृद्धि अनंतगुणानुद्धि, संख्यात भाग गुणवृद्धि, असंख्यातगुणवृद्धि, अनंतभागगुण हानि असंख्यातमाग गण हानि. अनंतभाग गुण हानि, ऐसे षट पतित हानि बद्धि अर्थ पर्याय से सिद्धों के होते हैं। और कैसे हैं सिद्ध भगवान् ? ध्यान रूपी अग्नि से कर्मकाष्ठ जलाकर विकार रहित, अविनाशी अनंतकाल पर्यन्त, तीन लोक के शिरोमणि, उत्कृष्ट स्थान ऐसे लोक शिखर पर स्थित ज्ञान स्वरूप, तीन लोक के द्वारा बंदनीय सिद्ध परमात्मा को मेरा बारम्बार नमस्कार हो । इतिसिद्धगुण वर्णन समाप्त ः॥ प्राचार्य के गुणों का वर्णन करते हैं :दोहा-द्वादश तप वशधर्मयुत् पालें पंचाचार । षड्मावश्यक त्रयगुप्तिगुण, प्राचारजपरसार ॥१॥ बाहर प्रकार का तप, दस प्रकार के धर्म, पांच प्रकार के पंचाचार, षट् प्रावश्यक और तीन गुणत इस प्रकार छत्तीस गुण प्राचार्य के होते हैं। ऐसे गुणों के धारक प्राचार्य को मैं नमस्कार करता हूं। प्रथम द्वादश प्रकार के तप के स्वरूप का निरूपण करते हैं : बोहा- अनशन नोबर करें, प्रत संख्या रस छोरि । विवक्ति वनग्रासन बरे, कायक्लेश को ठौर ॥१॥ मनशन तपप्रथ-अनशन अर्थात् उपवास करना । Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार - ग्रंथ भावार्थ श्राचार्य और मुनि उपवास करते हैं, नित्य प्रति बाहर नहीं करते, क्योंकि नित्य आहार करने से शरीर पुष्ट हो जाता है और शरीर के पुष्ट हो जाने से बल बढ़ता है और बल बढ़ने से इंद्रिय बल बढ़ता है इसलिए इंद्रियां वश में नहीं रहती जिससे तप का उद्यम नहीं होता इसलिए श्राचार्य मुनि श्रनशन तप धारण करते हैं । ६६ कनोदर - तप अर्थात् कम भोजन करने को ऊनोदर तप कहते हैं । भावार्थ - प्राचार्य व मुनि कम आहार ग्रहण करते हैं । कारण की उदर परिपूर्ण श्राहार करने से थालस्य अर्थात् प्रमाद बढ़ जाता है प्रमाद चढ़ने से तप, जप संयम, पठन-पाठन प्रादि क्रियाओं में सावधानी होती है। ऐसा समझकर आचार्य मुनि ऊनोदर तप करते हैं अर्थात् आहार कम मात्रा में लेते हैं । प्रतिपरिसंख्यान तप अर्थात् आहार के विषय में प्रटपटी वृत्ति लेकर विचरता । भावार्थ - जब श्राचार्य या मुनि श्रहार के लिए वन से गमन करते हैं तब ऐसी वृत्ति विचारे कि आज हम एक दो, चार या पाँच घर में ही प्राहार के लिए जायेंगे अथवा किसी एक मुहल्ले में ही जायेंगे, इतने में यदि भिक्षा मिल गयी तो आहार लेंगे अन्यथा नहीं लेंगे तथा मिट्टी के कलश, चांदी के कलश, पीतल के कलश, ताँबे के कलश आदि जहाँ मिलेंगे तो उस घर में जायेंगे. मैदान में या अमुक स्थान में अमुक भोजन मिलेगा तब ग्राहार ग्रहण करेंगे अन्यथा नहीं । इस प्रकान की अटपटी वृत्ति लेकर वन से गमन करना और नियमानुसार यदि आहार की विधि न मिले तो पुनः वन में वापिस लौट कर उपवास करना । इस प्रकार के नियम को प्रतिपरिसंख्यान कहते हैं ॥ ३॥ रस परित्याग तप इन्द्रियों को दमन करने के लिए, संयम की रक्षा के लिये, जिह्वेन्द्रिय की लोलुपता के निवारण के लिए दूध, घी, दही, तेल, शक्कर नमक श्रादि रसों का यथासमय त्याग करना रसपरित्याग तय है ॥ ४ ॥ विविक्त शय्यासन - जीवों की रक्षा करने के लिए प्रासुक स्थान में जैसे मठ, गुफा, पर्वत तथा बनखंडादि एकान्त स्थान में जहाँ पर ब्रह्मचर्य, स्वाध्याय, ध्यान, पठन पाठनादि क्रियाओं में विघ्न न हो, वहां पर शयन तथा प्राशन करना विविक्त शय्याशन तप है ॥ ५ ॥ कायक्लेश तप- शरीर के सुख स्वभाव को मिटाने के लिए तथा दुःख प्राप्त होने पर कायरता न होने के लिए शरीर को याशक्ति कष्ट देते रहना अर्थात् शरीर का ममत्व भाव त्याग करना, जैसे उष्ण ऋतु में सूर्य सम्मुख होकर तप करना तपे हुए पहाड़ पर जा कर तपकरना काय क्लेश तप है || ६ || ये छह प्रकार के के बाह्य तप हैं तथा लोगों को दिखाई देने के कारण बाह्य तप कहलाते हैं उपर्युक्त छह वाह्य तपों का पालन करने वाला ही श्राभ्यन्तर तपों का सम्यक प्रकार से पालन कर सकता है इसलिए सबसे पहले बाह्य तप का वर्णन किया गया । अब छह प्रकार ग्राभ्यन्तर तप का वर्णन करते हैं दोहा - प्रायश्चित बिनय व वैयावृत स्वाध्याय । पुनव्यत्सगं विचारके, धरें ध्यान मन लाय ॥ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार ग्रंथ अर्थ - प्रायश्चित १. विनय २. वैयावृत्य ३ स्वाध्याय ४ व्युत्सर्ग ५. और ध्यान ६. ये छह अभ्यन्तर तप कहलाते हैं । فف प्रमाद अर्थात् आलस्य से जो दोष लगा हो उसे दूर करने के लिए ध्यान करना तथा गुरु से निवेदन करके दंडादि लेना प्रायश्चित तप है || १|| पूज्य पुरुषों का आदर सत्कार करना विनय तय है || २ || मुनि आदि के रोगादि से ग्रस्त होने पर उनकी सेवा टहल करना वैयावृत्य तप है || ३ || आलस्य को त्याग कर ध्यानाध्ययन करना व उपदेश देना स्वाध्याय तय है ॥४॥ धनधान्यादि बाह्य परिग्रह तथा अंतरंग क्रोधादिपरिग्रह को छोड़कर शरीर से ममत्व का त्याग करना व्युस्सर्ग तप है | ५ | चित्तवृत्ति को सब तरफ से संकोच कर एक ओर चित्त को स्थिर करना ध्यान तप |६| इस प्रकार से छह तप हैं आगे हम इन तपों के भेद कहते हैं : सबसे पहिले प्रायश्चित के नौ भेदों का विवेचन करते हैं प्रायश्चित के आलोचना १. प्रतिक्रमण २. तदुभय अर्थात् यालोचना और प्रतिक्रमण ये दोनों ३. विवेश ४ व्युत्सर्ग ५ तप ६. छेद ७. परिहार ८. तथा उपस्थापनानी प्रकार हैं। मूलगुणों में यदि कोई दोष लग जाए तो उसका बारम्बार चिन्तन करते हुए अपने को freकारना करना गुरु के हुए दोपों को स्पष्ट रीति से कहना ग्रावोचना है ||१|| मैंने जो प्रमादवश अपराध किया है, मेरे सामायिक आदि करने में जो दोष लगा हो वह मिथ्या हो इस प्रकार कहना प्रतिक्रमण है ||२|| कोई दोष हो जाय तो आलोचना मात्र से शुद्ध हो जाता है और कोई दोष प्रतिक्रमण करने से शुद्ध होता है और कोई दोनों के करने से शुद्ध होता है । इस प्रकार चालोचना और प्रतिक्रमण करने को उभय प्रायश्चित कहते हैं || ३ || आहार पान उपकरणादि का किसी नियमित समय तक त्याग कर देना विवेक प्रायश्चित है। विवेक अर्थात स्याग की हुई वस्तु यदि अनजान से उदय में ग्रा जाय तो उसे न लेना और इस प्रकार का विचार करके आहार ग्रहण करना विवेश है ||४|| काल का परिमाण करके कायोत्सर्ग करना ब्युत्संग है ||५|| अनशन आदि तप अथवा बेला, तेला श्रादि उपवास करना प्रायश्चिततप है || ६ || दिन पक्ष, मास संवतरादि का परिमाण कर दीक्षा का छेत्र करना छेद प्रायश्चित है ||७|| पक्ष मासादि के नियम से संघ से पृथक कर देना परिहार प्रायश्चित है ||६|| समस्त दीक्षा को छेद कर पुनः दीक्षा को देना उपस्थापना प्रायश्चित है | इस प्रकार प्रायश्चित के नौ भेद जानने चाहिए । दूसरा आभ्यन्तर विनय तप है। जिसके दर्शन विनय, ज्ञान विनय, चारित्र विनय और उपचार विनय ऐसे चार भेद हैं। निःशक्ति प्रादि दोष रहित सम्यग्दर्शन की आराधना करना दर्शन विनय है। ||१|| प्रमाद रहित होकर वृद्ध मन से अत्यन्त सम्मान पूर्वक जिन सिद्धान्त को पढ़ना ज्ञान विनय है || २ || सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान के धारी पाँच प्रकार के चरित्र को पालन वाले मुनिजनों से प्रेम करना चारित्र विनय है ||३|| आचार्य आदि पूज्य पुरुषों को देखते ही खड़े हो जाना, सन्मुख जाकर हाथ जोड़ना, उनके 'पीछे-पीछे गमन करना मन से उनका गुणगान करना तथा वार-बार उनका स्मरण करना उपचार विनय है । तीसरा क्यान्यव तप है । प्राचार्य १. उपाध्याय २. तपस्वी ३ शैशिक्ष ४. ग्लान ५. राण ६. कुल ७. संघ ८. साधु . और मनोज्ञ १०. इन दस प्रकार के साधुओं की वैयावृत्य करना अर्थात् शरीर सम्बन्धी व्याधि अथवा दुष्ट जीवों द्वारा किये हुए उपसर्गादि के समय सेवा करना ये दश प्रकार के वैयावत्य हैं। Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गमोकार ग्रंथ चौथे तप स्वाध्याय के पांच भेद हैं-निर्दोष ग्रन्थ का तथा उसके अर्थ का स्वयं पठन करना बांधना स्वाध्याय है ।।१।। पठन करते हुए जहाँ संशय हो, उसको बड़े ज्ञानियों से प्रश्न करके अपनी शंका को दर कर लेना प्रच्छना स्वाध्याय है ॥२१ विचार द्वारा तथा गुरूजनों से जाने समझेहए तत्व को बारम्बार चिन्तवन करना अनुप्रेक्षा स्वाध्याय है ॥३।। जो विचार करके निर्णय किया हो उसको आचार्यों के वारयों से मिलाकर प्राम्नाय स्वाध्याय है ॥४|| उन्मार्ग को दूर करने के लिए पदार्थों का समीचीन स्वरूप प्रकाश करना, उपदेश रूप कथन करना धर्मोपदेश स्वाध्याय है ।।५।। पांचवा व्युत्सर्ग तप दो प्रकार का है-एक बायोपधित्याग है । १॥ क्रोधादि प्रतरंग परिग्रहों का त्याग प्राभ्यन्तरोपधि त्याग तप है ।।२।। छठा ध्यान नामक आभ्यंतर तप ध्यान पिंडस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत इन भेदों से चार प्रकार का है। प्रथम लोक के स्वरूप का चितवन, पाताल, मध्य, नरकादिक का चितवन, मध्य लोक मैं द्वीप, क्षेत्र, पर्वतादि का चितवन, ऊर्ध्वलोक के स्वार्गादि का चितवन, करना पिंडस्थ ध्यान है। अपने हृदय के मध्य कमल स्थापन कर उसमें कणिका की स्थापना करें, कणिका के मध्य में ओंकार स्थापन कर उन कीणिकाओं में स्वर-व्यंजन स्थापन करके ध्यान करना पदस्थ ध्यान है ॥२॥ समवशरणादिक विभूति सहित सिंहासन पर अन्तरिक्ष विराजमान घातिया कर्म रहित अनन्त चतुष्टय परहंत भगवान् के स्वरूप का चितवन करना रूपस्थ ध्यान है ॥३॥ सब कर्मा से रहित, पौदगलिक मूर्तिक शरीर से रहित, अनन्त गुणों के भंडार ऐसे भगवान् सिद्ध परमात्मा का जो ध्यान करता है सो रूपातीत ध्यान है ।।४॥ ऐसे बारह प्रकार के तप का वर्णन किया। आगे दश प्रकार का जो धर्म प्राचार्य प्राचरण करते हैं, उसे लिखते हैं-- दोहा-क्षमारुमार्दव पासवा, सस्य शोधतापाग। संयम तप त्यागी सरब, प्राकिचनतियत्याग ॥१॥ प्र-१. उत्तम क्षमा, २. माव, ३. प्रार्जव, ४, सत्य, ५. शोच, ६. संयम, ७. तप, ८. त्याग, ६. प्राचिन्य पोर १०. ब्रह्मचर्य ऐसे दश प्रकार के धर्म हैं । दुष्ट मनुष्यों के द्वारा तिरस्कार, हास्यादि क्रोध की उत्पत्ति के कारण होने पर भी, सम्यग्ज्ञान पूर्वक संपनी दण्ड देने की शक्ति होते हुए भी अपराध को क्षमा करना उत्तम क्षमा है ।।१।। सम्यग्ज्ञान पूर्वक अभिमान के कारण होते हुये भी गर्व न करना उत्तम मार्दव है ॥२|| मन, वचन, काय की कुटिलता त्याग कर सरल रूप से रहना उत्तम प्रार्जव है ॥३॥ पदायों का स्वरूप ज्यों का त्यों वर्णन करना और प्रशस्त वचन अर्थात धर्म के अन अनकल स्व पर हितकारी वचन बोलना सत्य है ॥४|| प्रात्मा को कषायों द्वारा मलिन न होने देना उत्तम शौच है ।।५।। इन्ट्रिय प्रार मन को विषयों से रोकना और षड् प्रकार के जीवों की रक्षा करना उत्तम संयम है ।।६।। सांसारिक विषयाभिलाषा तजकर अनशनादि द्वादश प्रकार का तप करना उत्तम तप है ॥७॥ धनधान्यादिक का त्याग बाह्य त्याग और देषादिक को छोड़ना अंतरंग तप है ।। प्रात्मस्वरूप से भिन्न शरीरादिक में ममत्व रूप परिणामों का प्रभाव उत्तम प्राकिचन्य है ।।६।। स्त्री मात्र से चित्त घटाकर अपना ब्रह्म जो प्रात्मा है उसमें चित्त का स्थिर करना सो उत्तम ब्रह्मचर्य है ।।१०।। ऐसे दश प्रकार उत्तम धर्म का प्रतिपादन किया है। मम पंचाचार और तीनगुप्ति का वर्णन करते हैं : Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार ग्रंप दोहा-दर्शन शाम चारित्र तप, बीरज पंचाचार । मना पत्र मात्र सो, प्राचारज सुखकार ॥ अर्थ – भावकर्म, द्रव्यकर्म, नौकर्म आदि समस्त पदार्थों से भिन्न शुद्ध चैतन्य स्वरूप प्रात्मा ही उपादेय है, ऐसा श्रद्धान करना तथा इसकी उत्पत्ति के कारण षड् द्रव्य, सप्त तत्त्व अथवा सुगुरु, सुदेव, सुधर्म का श्रद्धान सभ्यग्दर्शन है। इस सम्यग्दर्शन रूप प्रवृत्ति को दर्शनाचार कहते हैं ॥१॥ शुद्ध चैतन्य प्रात्मा को मिथ्यात्व, रागादि पर भावों से पृथक जानकर उपाधि रहित जानना तो सम्यग्ज्ञान है। इस सम्यग्ज्ञान रूप. प्रवृत्ति को ज्ञानाचार कहते हैं । २१ उपाधि रहित शुखात्मा के स्वाभाविक सुखास्वाद में निश्चल चित्त होना अथवा संसार के कारण भूत हिंसादि पापों का प्रभाव करना सम्यक्चारित्र है। इस सम्यकचरित्र रूप प्रवृत्ति को चारित्राचार कहते हैं ।।३।। समस्त पर द्रव्यों से इच्छा रोककर अनशनादि रूप प्रवर्तन करना तप है । इस तपरूप आचरण को तपाचार कहते हैं ।।४।। पूर्वोक्त कहे चार प्रकार के प्राचारों के रक्षण करते में शक्ति न छिपाना अथवा परिग्रह पाने पर भी इनसे च्युत नहीं होना वीर्य है। इस वीर्य रूप प्रवृत्ति को वीर्याचार कहते हैं ।५। मन से राग द्वेष रूप परिणामों का परिहार करना मनोगुप्ति है ।।१।। असत्य वचन का परिहार कर मौनपूर्वक ध्यान अध्ययन प्रात्मचितवनादि करना वचनगुप्ति है ॥२१॥ हिंसादि पापों से निवृत्तिपूर्वक तथा काय सम्बन्धी कुचेष्टा की निवृत्ति कर कायोत्सर्ग धारण करना काय गुप्ति है ॥३॥ ॥अथ षडावश्यकनाम || बोहा-समतावर चंदन करें, नानास्तुति बनाय । प्रतिक्रमण स्वाध्याययुत, कायोत्सर्ग लगाय ॥१॥ अर्थ ---भेदज्ञान पूर्वक सांसारिक पदार्थों को अपने प्रात्मा से पृथक जानकर जीवन मरण, लाभप्रलाभ, संयोग-वियोग, शत्रु-मित्र, सुख-दुःख में समान भाव रखना तथा शुभाशुभ कर्मों के उदय में राग ?ष रूप परिणामों को न करना समता है ॥१॥ चतुर्विशति तीर्थकरों में से एक तीर्थकर की या पंचपरमेष्ठी में से एक की मुख्यता कर मन, वचन, काय की शुद्धता पूर्वक स्तुति करना वंदना है ॥२।। मुख्यता बिना चौबीस तीर्थकरों की अथवा पंचपरमेष्ठी की स्तुति करना स्तवन है ॥३।। आहार, शरीर, शयन, आसन, गमनागमन और चित्त के व्यापार के द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव के आश्रयभूत काल में लगे हुये व्रत सम्बन्धी अपराधों को शोधना, निन्दा गृहीयुक्त अपने अशुद्ध परिणाम पूर्वक किये हुए दोषों का परित्याग करना प्रतिक्रमण है ।।४।। काय से निर्ममत्र होकर खड़े हुए या बैठे हुए शुद्धात्म का चितवन करना कायोत्सर्ग है ।।५।। वाचना, पृच्छनादि पंच प्रकार शास्त्रों का अध्ययन अथवा शुद्धात्मा चितवन करना स्वाध्याय है ॥६॥ इस प्रकार प्राचार्य के अनशनादि बारह तप, उत्तम क्षमादि दशधर्म, दर्शनाधारादि पंचाचार, समता वंदनादि षडावश्यक कर्म तथा त्रिगुप्ति सहित गुणों का वर्णन किया। इन छसीस गुणों के अतिरिक्त भावार्य अवपीडक अपरिश्रावी आदि अष्ट गुणयुक्त होते हैं और अपने संघ के मुनि समूह को लगे हुए दोषों का प्रायश्चित और धर्मोपदेश, शिक्षा-दीक्षा देते हैं। Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार प्रेष अब यहाँ प्रसंगवश प्राचार्य शिष्य को कैसे कौन से काल में पौर कौन से देश काल को त्याग कर दीक्षा देते हैं सो कहते हैं :-- प्रथम मुनि धर्म के धारण करने योग्य पुरुष का लक्षण कहते हैं -मुनि धर्म का धारण करने वाला पुरुष उत्तम देश का उत्पन्न हुमा हो । उत्तम वर्ण अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य हो, शूद्र न हो, क्योंकि जाति का असर भी कुछ न कुछ अवश्य रहता है । उत्तम कुल और उत्तम गोत्र का हो। शरीर के अंगोपांग शुद्ध हों और अन्धा, बधिर, लूला, लंगड़ा. कुबड़ा प्रादि दोषों से रहित हो। कुष्ठ, उन्माद, मृगी, मूर्छादि बड़े रोगों से रहित हो । राज्य विरुद्ध तथा लोक विरुद्ध आचरण का धारक न हो। कषायों से रहित हो अर्थात् मन्द कषायो हो । पंचेन्द्रिय के विषय भोगों में अरुचि करने वाला हो । शुभ चेष्टा वा उत्तम प्रवृति का धारक शुभाचरण पालने वाला, हास्य, कौतुहल से उपराम बुद्धि वाला, मोक्ष का इच्छुक महावैराग्य परिणामी ऐसा शिष्य संघ में कुशलता और धर्मवृद्धि का कारण दीक्षा देने योग्य होता है । ऐसे मुमुक्षु को प्राचार्य योग्य, अयोग्य समय विचार कर दीक्षा देते हैं । प्राचार्य जो देश अवसर प्राप्त होने पर मनुष्य को दीक्षा नहीं देते, उनके नाम इस प्रकार हैं। __ जहां पर प्रथम प्रहारोप अर्थात् कोई अशुभ ग्रह हो तो दीक्षा नहीं देते ॥१॥ सूर्यग्रहण, ||२|| चायण ॥ इन्द्र धनब ४।। इसका उल्टा ग्रह अर्थात वक्री ग्रह माया हो ||५|| प्राकाश मेघ के बादलों से प्रान्छादित हो रहा हो ॥६॥ तथा उसको वह महीना कष्टदायक हो ॥७॥ अधिक मास हो ॥८॥ संक्रान्ति अर्थात् उसी दिन सूर्य उस राशि से दूसरी राशि पर बदलने वाला हो ॥६॥ असंपूर्ण तिथि हो ॥१०॥ इन दश कारणों का परित्याग कर निमित्तज्ञान के वेत्ता प्राचार्य शुभ मास, शुभ दिन, शुभ नक्षत्र, शुभयोग, शुभ मुहूर्त, शुभग्रह देख शुभ लग्न में शिष्य को दीक्षा देते हैं । और स्वयं पंचाचार पालते तथा संघ के सब मूनि समूहको प्रवतति हैं ।। जिस प्रकार राजा प्रजा की कक्षलता की वद्धि तथा रक्षा करता है उसी प्रकार ये अपने संघ के प्राचार और रत्लश्यादि की रक्षा और वृद्धि करते हैं इसलिये इनको संघपति भी कहते हैं। और ये अपना शरीर भी बहुत वृद्ध तथा इन्द्रिय शिथिल होता जानकर अधिक से अधिक बारह वर्ष पहले से समाधिमरण करने योग्य द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव का समागम मिलाते हैं और अपने संघ का राम घटाने के लिए त्याग कर पर संघ में जाकर अपवित्र शरीर के निमित्त कुछ भी ममत्व न कर रत्नत्रय धर्म की रक्षा के लिए कायकषाय को कृश करते हुए द्वादशानुप्रेक्षा की आराधना युक्त पंचपरमेष्ठी के स्वरूप तथा प्रात्मध्यान में लवलीन हो देह सजते हैं। ॥ अथ उपाध्याय गुण प्रारम्भ ।। दोहा- चौवह पूरव में धरें, ग्यारह अंग सुजान । उपाध्याय पंचवीस गुण पढ़े पड़ावे ज्ञान ॥श अर्थ-ग्यारह अंग और चौदह पूर्व का पाठीपना इन पच्चीस गुणों से युक्त उपाध्याय, जिस प्रकार अध्यापक शिष्यों को पठन पाठन के द्वारा ज्ञान की वृद्धि कराता है और स्वयं उस ज्ञान की वृद्धि के लिए पठन-पाठन करता है उसी प्रकार उपाध्याय सब संघ को अंग पूर्वादि शास्त्रों का ज्ञान कराते और स्वयं पठन-पाठन करते हैं। ऐसे उपाध्याय परमेष्ठी मेरे ज्ञान की वृद्धि करें। ।। अथ ग्यारह अंग नाम ॥ बोहा- प्रयमंहि पाचारांग गिन, बूजा सूत्र कृतांग। स्वानांग तीजा सुभग, चौथा समवापांग ॥ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार ग्रंथ और प्रमाण अध्ययन विशेष के बीच अक्षर होते है। व्याख्याप्रज्ञप्ति पंचमो, ज्ञातुकथा षट जान । पुनि उपासकाध्ययन, अन्तः कृतदश ठान ॥२॥ अनुसरण उपपायवश, सूत्र विपाक पिछान । ग्यारह प्रश्नव्याकरणजुत, ग्यारह अंग प्रमाण ॥३॥ अर्थ-याचारांग १, सूत्रकृतांग २, स्थानांग ३, समवार्याग ४, व्याख्याप्रज्ञप्त्यंग ५, ज्ञातृधर्मकथांग ६, उपासकाध्ययनांग ७, अन्तः कृद्दशांग ८, अनुत्तरोपपादकदशांग ६, प्रश्नव्याकरणांग १०, पौर विपाक सत्रांग११ये ग्यारह अंग हैं । अब प्रकरण वश यहाँ पर द्वादशांग तथा चौदह पूों में से किस-किस पूर्व में कितने-कितने पद हैं तथा उनमें किस-किस विषय का वर्णन है, उसे संक्षेप में लिखा जाता है। प्रथम प्राचारोग अठारह हजार पद का है । इसमें यती के धर्म का वर्णन है । विशेष सूचना-इस जिनवाणी की संख्या मध्यम पद से जाननी चाहिये । पद तीन प्रकार के होते हैं । अर्थपद, प्रमाण पद और प्रमाण अध्ययनपद। इनमें से शास्त्र को वेष्टन में वांधो, वह पुस्तक लाओं' इत्यादि अनियमित अक्षरों के समुदाय रूप किसी विशेष के बोध वाक्य को अर्थ पद कहते हैं । पाठ आदिक अक्षरों के समुदाय को प्रमाण पद कहते हैं। जैसे श्लोक के एक चरण में आठ अक्षर होते हैं । इसी प्रकार अन्य शब्दों के पदों में भी अक्षरों का न्यूनाधिक प्रमाण होता है, परन्तु गाथा में कहे हुए पद के चार प्रक्षरों का प्रमाण सदैव के लिए निश्चित है, इसी को मध्यम पद कहते हैं। एक मध्यम पद में सोलह सौ चौंतीस करोड़, तिरासी लाख, सात हजार, माठ सौ अठासी अक्षर होते हैं। १॥ दूसरा सूत्रकृतांग छत्तीस हजार पद का है। उसमें स्व समय और पर समय का विशेष वर्णन है । २। तीसरे स्थानांग के बयालिस हजार पद हैं। इसमें से एक से दस तक गिनती का व्याख्यान है जैसे एक केवलज्ञान, एक मोक्ष, एक आकाश, एक अधर्म इत्यादि और दो दर्शन ज्ञान, प्रथवा राग द्वेष, इत्यादि तीन रत्नत्रय, तीन सत्य, तीन दोष, तीन प्रकार कर्म, तीन वेद इत्यादि । चार गति, चार अनन्त चतुष्टय, चार कषाय इत्यादि । पंच महानत, पंचस्तिकाय, पंच प्रकार का ज्ञान इत्यादि प्रष्ट द्रव्य, पट्लेश्या, आदि। सप्त तत्व, सप्त व्यसन, सप्त नरक यादि । अष्ट कर्म, अष्ट मद, अष्ट गुण, अष्ट ऋद्धि, अष्टांग निमित्त ज्ञान, इत्यादि । नव पदार्थ, नवधा शील, नवधा भक्ति इत्यादि । दश प्रकार धर्म, दशधा परिग्रह, दश दिशा इत्यादि की चर्चा तीसरे स्थानांग में है ।। ३ ।। चौथा समवायांग एक लाख चौसठ हजार पद का है। इस में द्रव्यादिक की तुल्यता का वर्णन है कि कोई द्रव्य किसी से न्यून नहीं। तभी द्रव्य सत्ता लक्षण से समान हैं ॥ धर्म, अधर्म जीव और लोकाकाश प्रदेशों के समान हैं । यह तो द्रव्य की तुल्यता का वर्णन हुआ और क्षेत्र में ढाई द्वीप । प्रथम स्वर्ग का ऋजु विमान । प्रथम नरक का सीमंतक नामा बिल और सिद्धशिलाएँ पैतालिस २ लाख योजन के हैं । यह क्षेत्र समानता कही। दश कोड़ाकोड़ी सागर की एक उत्सपिणी और दस कोडाकोड़ी सागर की एक अवसर्पिणी यह काल की समानता का वर्णन हुमा । ज्ञान की अनंतता और दर्शन की अनन्तता यह भाव की सत्यता कही गयो। इस भांति समवायांग में निरूपण किया है ।४॥ पांचवां व्याख्या प्राप्ति दो लाख अट्टाईस हजार पद का है। इसमें सांसारिक विषय सुख से विरक्त शिष्य के जीव है या नहीं, वक्तव्य है अथवा भवक्तव्य है, नित्य है या मनित्य, एक हे या अनेक, इत्यादि साठ हजार प्रश्नों का विस्तार पूर्वक व्याख्यान है ।५ ॥ छठा भात धर्म कांग पांच लाख छप्पन हजार पद का है। इसमें जीवादि वस्तुमों का स्वभाव, सीर्थंकरों का महात्म्य, उनकी दिव्य ध्वनि का समय तथा महात्म्य, उत्तम क्षमा प्रादि दशविध धर्म, सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रय धर्म का Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार ग्रंथ स्वरूप इत्यादि जिनधर्म की अमृत कथा का कथन है ।।६॥ सातवां उपासकाध्यनांग ग्यारह लाख सत्तर हजार पद का है। इसमें धावक के सम्पूर्ण व्रतों का वर्णन है ।।७॥ पाठवां अंतः कृशॉग तेईस लाख प्रट्टावन हजार पद का है । इसमें प्रत्येक तीर्थकर के तीर्थ में (एक तीर्थकर का तीर्थ कहते है 1) जो दश-दश भुमि चार प्रकार का तीन उस सहन करके संसार के अन्त को प्राप्त हुए अर्थात् अन्तः कृत केवली हुए हैं उसका वर्णन है । अन्तः कृत केवली कहने का भाव यह है कि जिनका केवल कल्याणक और निर्वाण कल्याणक साथ हो अर्थात् अायु का अन्त होने पर ही केवल ज्ञान उत्पन्न होता है । नवमां अनतरोपपादक दशांग वानदे लाख चवालीस हजार पद का है उसमें एक एक तीर्थकर के तीर्थ में दशदश मुनि उपसर्ग जीतकर नव अनुदिश, पंच अनुत्तर को प्राप्त हुए उन का कथन है । उपसर्ग दश प्रकार का है उनका ब्योरा इस प्रकार का है तीन प्रकार मनुष्य कृत स्त्री १, पुरुष २, नपुसक ३. तीन प्रकार तिर्य चकृत स्त्री , पुरुष ५, नपुसक ६, । नपुसक देवों में नहीं होते। इससे दो प्रकार के देवकृत देव और देवांगना ८. स्वशगेर कृत ६ तथा दशवां अचेतन, पत्थरादिक अचेतन कृत उपसर्ग होता है ।। १०॥ ऐसे दम प्रकार के उपसर्ग को शुद्धात्मवादी मुनि जन ही जीतते हैं ।।६। दशवां प्रश्न व्याकरणांग निगन लाख सोलह हजार पद का है। इसमें अपेक्षिणी ।१। विक्षेपिणी २, संवेगिनी ३, और निवैदिनी ४ । ऐसे चार प्रकार की कथानों का वर्णन है ||१०|| ग्यारहवां विपांग सुत्रांग एक करोड़, चौरासी लाख पर का है। इसमें कों के विपाक अर्थात् उदय का वर्णन है ॥११॥ इन ग्यारह अंगों के सर्व पद चार करोड़ पन्द्रह लाम्ब दो हजार हैं। इति ग्यारह अंग वर्णन ॥ वारहवां मष्टिवादांग । एक सौ पाठ करोड़ अड़सठ लाख छप्पन हजार पांच पद का है। इस में तीन सौ तिरेसठ कुत्रादियों का कथन है। इसमें पहले क्रियावादियों के मूल भेद एक सौ अस्सी है। दूजे अक्रियावादियों के चौरासी भेद, तीसरे अज्ञान वादियों के सड़सठ भेद, चौध विनयवादियों के बनीस भेद, ऐसे समस्त भेद तीन सौ तिरेसठ हुए। अब प्रथम एक सौ अस्सी क्रियावादियों का कथन करते हैं-नियत कहिये निश्चय स्वभाव कहिये वस्तु का स्वभाव, काल कहिए समय, देव कहिये पूर्वकर्म का उदय और पौरुष कहिये उद्यम ये पाँच, स्व कहिए पाप, पर कहिए दूसरा, नित्य कहिए स्थिर, अनित्य कहिए अस्थिर, इन चारों से गुणा करने पर बीस भेद होते हैं । इन बीसों को नव पदार्थों से गुणा करने पर एक सो अस्सी होते हैं । यह क्रियावादियों के भेद हैं । ये एक एक अंश का बल ग्रहण कर वाद करने वाले हैं ॥१|| अक्रियावादियों के भेद जीवादिक सात तत्वों का स्वतः कहिए पापसे और परसे गुणा कीजिए तो चौदह भेद होते हैं। इन चौदहों को नियत, स्वभाव काल देव पौरुष इन पांचों से गुणा करने पर सत्तर भेद होते हैं । नियत, काल ये दो भेद स्वतः सप्त तत्वों से गुणा करने पर चौदह भेद हुए। पूर्वोक्त मत्तर पौर चौदह भेद मिलाने पर समस्त चौरासी भेद प्रक्रियावादी के होते हैं ।।२॥ मोक्ष के उपाय से विमुख, उदय को मुख्य मानकर पौरुष नहीं करते और एक एक स्थल का पालंबन ग्रहण करके वाद करते हैं । Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ णमोकार ग्रंथ अज्ञानवादी के भेद : नव पदार्थों को सप्तभंगों से गुणा करने पर तिरेसठ होता है। सप्तभंग स्वरूप का वर्णन - प्रथम भंग स्यात् अस्ति कहिए कथंचित् अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की अपेक्षा जीवादि द्रव्य है ।। १।। दुजा भंग स्यादनास्ति कहि कथंचित् पर द्रण पर क्षेत्र, पर काल और परभाव की अपेक्षा नहीं है ||२|| तीजा भंग स्यादस्तिनास्ति कहिए एक ही अस्तिनास्ति है इससे प्रस्ति नास्ति उभयरूप है ॥१३॥ चौथा भंग स्यादवक्तव्य कहिए वचन से अगोचर है। + अस्ति कहिए तो नास्ति का प्रभाव और नास्ति कहिए तो अस्ति का अभाव इससे अवक्तव्य है ||४|| पाँचवाँ प्रस्ति वक्तव्य कहिए स्वभाव से तो है, किन्तु वचन अगोचर है । अस्ति कहिए तो नास्ति के प्रभाव से अवक्तव्य है ॥ ५॥ छठवां भंग स्यात्नास्ति वक्तव्य कहिए जीवादि तत्वों परभाव की अपेक्षा नहीं हैं, परन्तु नास्ति ही कहिए तो अस्ति के प्रभाव से प्रवक्तव्य है || ६ || सातवां भंग अस्ति नास्ति श्रवक्तव्य कहिए जीवादि पदार्थ श्रस्ति नास्ति हैं, परन्तु कहने में अनुक्रम से आते हैं, एक साथ नहीं कहे जाते अतः अस्ति नास्ति श्रवक्तव्य है ॥७॥ विज्ञानवादी के प्रश्न को एक सदभावपक्षी कोई सत्यासत्य पक्षी और कोई अवक्तव्य पक्षी ऐसे इन चारों शून्य एक एक अंश को ग्रहण करवाकर पूर्वोक्त सरसठ भेद होते हैं। ये भी तत्व के यथार्थ ज्ञान से एक एक नय का बल लेकर वाद करते हैं ॥ ३॥ विनयवादी के भेद मन, वचन, काय और दान से माठ प्रकार के विनय को गुणा करें तो बत्तीस भेद होते हैं । आठ विनय के नाम -- माता १, पिता २, देव ३, नृप ४, जाति ५, बाल ६, वृद्ध ७, और तपस्वी ८. इन ग्राठों का मन, वचन और काय से दान सत्कार करना, इस भांति विनयवादी के बत्तीस भेद कहे हैं । भावार्थ - यह जान कि विनय करना तो जिनधर्म का मूल है, परन्तु विनयवादी के भेद को जानकर मूर्तिमात्र को देव, भेष मात्र को गुरू, पत्र तथा अक्षर मात्र को शास्त्र और जल मात्र को तीर्थ मानते हैं और स्वरूप ज्ञान से शून्य होते हैं। इस प्रकार वादियों का कथन है जिसमें ऐसे दृष्टिवाद नामक बारहवें अंग के पांच भेद हैं । पहला परिकर्मक १, दूसरा सूत्र २ तीसरा प्रथमानुयोग ३, धौथा पूर्व ४, और पाँचवा चूलिका ||५|| परिकर्मक के पांच भेद हैं- पहला भेद चन्द्रप्रज्ञप्ति है १, छत्तीस लाख पाँच हजार पद का है । उसमें चन्द्रमा के भोगादि का वर्णन है || १|| दूसरा भेद सूर्यप्रज्ञप्ति २, पाँच लाख तीन हजार पदों का है। उसमें सूर्य के योगादिक सम्पदा का वर्णन है ||२|| तीसरा भेद जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति ॥ ३ ॥ तीन लाख पच्चीस हजार पद का है। उसमें जम्बू द्वीप का विस्तार सहित वर्णन है || ३|| चौथा भेद द्वीपोदधिप्रज्ञप्ति ४, वाचन लाख छत्तीस हजार पद का है । उसमें सम्पूर्ण द्वीप समुद्रों का वर्णन है ||४|| पाँचवा भेद व्याख्याप्रज्ञप्ति ५, चौरासी लाख छत्तीस हजार पद का है। उसमें पुद्गल द्रव्य मूर्तिक और जीवादिक पाँच समूर्तिक इन षद्रव्यों का विस्तारपूर्वक वर्णन है ||५|| ऐसे समस्त परिकर्म के एक करोड़ इक्यासी लाख पाँच हजार पद हैं। पुनः दृष्टि-वादांग का दूसरे भेद सूत्र के मठासी लाख पद हैं। उनके प्रथम भेद में बंध के प्रभाव का कथन, दूजे भेद में श्रुति स्मृति, पुराण का अर्थ, श्रुति कहिए केवली को दिव्य ध्वनि, स्मृति कहिए गणधरों की वाणी, पुराण कहिए मुनियों के वचन, तीसरे भेद में नियत कहिए निश्चय का कथन और चौथे भेद में सम्यक्त्व और मिथ्यात्व का निरूपण ये नाना भेद सूत्र में हैं। बारहवें अंग का तीसरा भेद प्रथमानुयोग पांच हजार पद का है। इसमें तिरेसठ शलाका पुरुषों का वर्णन है। बारहवें दृष्टिवादांग का चौथा भेद पूर्व है। वह चौदह प्रकार का है। प्रथ चौदह पूर्व नाम ॥ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भमोकार पंथ शेष वोहा-उत्पाद पूर्व अमायणी, तीजा वीरजवाद । प्रस्ति मास्ति परवाद पुनि पंचम भान प्रवाद ॥१॥ षष्ठम कर्म प्रवाद है सत्यवाम पहिचान । प्रात्मवार है पाठवा, नवमों प्रत्याख्यान ॥२॥ विद्यानुवाद पूरवरशम, पूर्वकल्याण महंत । प्राणवाद कियावाव है लोकवाव है अन्त ।।३।। अर्थ - पहला उत्पाद पूर्व एक करोड़ पद का है। उसमें द्रव्य के उत्पाद, व्यय और प्रीव्य का वर्णन है ।।१।। दूसरा अग्रायणीपूर्व छयानबे लाख पद का है। उसमें चौदह वस्तुओं का वर्णन है चौदह वस्तुओं के नाम इस प्रकार है : पूर्वांत, अपरांत, ध्र व, अभ्रक, अच्यबनलब्धि, संप्रणिलब्धि, कल्प, अर्थ, भौमवाय सर्वार्थकरुपक निर्वाण, प्रतीत, अनागत, सिद्ध, उपाय ये चौदह वस्तु दूजे पूर्व में हैं उनमें पांचवीं वस्तु अच्यवनलब्धि के पाहुड बीस में चौथे पाहुद्ध कर्म प्राकृत में योगदार हैं उन योगद्वारों के नाम कृति १, वेदना २, स्पर्श ३, कर्म ४, प्रकृति ५, बंधन ६, निबंधन ७, सौत ८, प्रकृम ६, उपक्रम १०, उदय. ११. मोक्ष १२ संकम १३, लेश्या १४, लेश्याकर्म १५, लेश्या परिणाम १६, असातासाता १७, दीर्घल्लस्व १८, भवधारण १६, पुद्गलात्मा २०, निधतानिधत २१, सनिकांचित अनिकांचित२२. कर्म स्थितिक २३, और स्कम्घ २४ ये दजे पर्व की पांचवी वस्तु के चौथे पाहह में चौबीस योगतार कड़े हैं। उनमें अल्प। वर्णन है और भी पूर्व के वस्तुओं के सिद्धान्तों में अन्यान्य पाहुड है ॥२॥ तीसरा वीर्यानुवाद पूर्व सत्तर लाख पद का है। इसमें वीर्यवंत संतों के पराक्रम का वर्णन है ।।३॥ चौथा अस्ति नास्ति प्रवाद पूर्व साठ लाख पद का है। उसमें जीवादि पदार्थों के अस्ति नास्ति भंग का निरूपण है । स्वभाव से सभी प्रस्तिरूप और परभाव से सभी ही नास्ति रूप हैं ॥४॥ पांचवां ज्ञानप्रवाद पूर्व एक कम एक करोड़ पद का है उसमें ज्ञान के पाँच भेदों का निरूपण है ।।५।। छठ वा कर्मप्रवाद पूर्व एक करोड़ अस्सी लाख पद का है उसमें कर्मबंध के बंध का वर्णन है ।।६।। सातवां सत्य प्रवाद पूर्व एक करोड़ छह पद का है । उसमें द्वादश प्रकार की भाषा और दश प्रकार सत्य का निरूपण है। अब प्रथम बारह प्रकार की भाषा का वर्णन करते हैं। प्रथम माम्याख्यान भाषा कोई हिंसादिक का प्रकर्ता और कोई हिंसादिक का कर्ता है । शठबुद्धि ऐसा कहते हैं कि हिंसा कर्तव्य है ऐसे दुर्वचन का नाम प्राभ्याख्यायिनी भाषा है १जिनके कहने से परस्पर कलह हो जाय सो कलहनी भाषा है ॥२॥ तीसरी पैशून्य भाषा, पर के दोष तथा गुप्त वार्ता प्रगट कर दूसरे के सम्मुख प्रगट करना ।।३।। चौथी प्रबद्ध प्रलापभाषा-निष्प्रयोजन तथा वितथ्यवथा बकवाद करना ॥४॥ पांचवीं रत्युत्पादक भाषा जिससे विषयों के भोगने की इच्छा हो ।।।। छठी अरत्पुत्पादक भाषा जिससे प्रति उत्पन्न हो ॥६।। सातवीं वचन श्रवण भाषा जिससे श्रोतामों की अययार्थ वस्तुओं में असक्सता हो ॥७॥ पाठवीं निष्कृति भाषा मर्यात् मन में मायाचार रखकर वार्ता करना ॥८॥ नवमी अन्नति भाषा जो स्वयं से विद्या भायु तथा ज्ञान वृद्ध हैं उनको नमस्कार तथा विनययुक्त वचन न कहना ।।९।। दसवीं मोधभाषा जिससे मनुष्य की स्तेय अर्थात् चोरी रूप प्रवृति हो जाय ॥१०॥ ग्यारहवीं सम्यक्त्व भाषा जिसके श्रवण करने से जीव सम्यकत्व को प्राप्त हो जाय ॥११॥ और बारहवीं मिथ्यादर्शन भाषा Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार ग्रंथ जिसके श्रवण करने से जीवों की मिथ्यामार्गरूप प्रवृति हो जाय ।।१२॥ ऐसी बारह प्रकार की भाषा है । वे स जीवों में यथायोग पायी जाती हैं उनमें से पंचेन्द्रियों में तो सभी पायी जाती हैं । अब दश प्रकार के सत्य का वर्णन करते हैं :-- प्रथम नाम सत्य जैसे कोई मनुष्य नेत्रहीन अथवा प्रसुन्दर नेत्र वाला हो तो उसको कमलनयन अथवा नयनसुख संज्ञावश कहना ।।१। दूसरा रूप सत्य-जैसे चित्रकार अथवा शिल्पकार के द्वारा बनाये गये मनुष्य के प्राकार तथा कुंजराकार को अचेतन व शक्ति रहित होने पर भी पराक्रमी कहना ||२|| तीसरा स्थापना सत्य-व्यवहार के लिये छतो अनछती वस्तु की स्थापना करके तदाकार प्रतिमा मंदिरादिक में विराजमान करके उसमें अपने इष्ट की कल्पना कर लेना ।।३।। चौथा प्रतीतिसत्य श्रीपशमिक आदि पंचभावों को पागम प्रमाण प्रतीत करके व्याख्यान करना। भावार्थ-शास्त्र पर श्रद्धान करके व्याख्यान करना प्रतीनि सत्य है ।।४।। पांचवां स्मरणसत्य भेरी आदि अनेक प्रकार के वादित्र का शब्द होते हये उच्च स्वर का जो वादित्र हो उसका नाम लेना ||५|| छठा संयोजन सत्य जिनमें चेतन अचेतन द्रव्य की रचना का विभाग नहीं है। जैसे युद्ध के समय दोनों सेनाओं में चक्रव्यूह' गरव्यूह, क्रौंचव्यहादि अनेक प्रकार के व्यूह रने जाते हैं। उनमें सेना तो चेतन हैं पर अचेतन द्रव्यों से और उसको चक्रव्यूह कहना, सा चव्रता अचेतन परन्तु चक्र के आकार सेना रची गई अतः उसको चक्रव्यूह कहते हैं । इसको सयोजना सत्य कहते हैं ।।६।। सातवां जनपद सत्य-जनपद नाम देश का है। देश में कई मार्य और कई ग्लेच्छ देश है। उसमें धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष शब्द का व्यवहारो करना ।।७।। प्राठवां उपयोग सत्य-ग्राम नगर की रीति आचार्य पद-साधुपद का उपदेश, जो पुरुष इन बातों में प्रवीण है उनका वचन उन विषयों में प्रमाण करना यथा ग्रामाचार तथा नगराचार के जानने में जो दक्ष हो, उनका बचन प्रमाण राजनीति में राजगुरू का वचन प्रमाण योगरीति में योगीश्वरों के वमन का प्रमाण करके उपदेश देना आदि उपयोग सत्य हैं ।।८।। नवबां भावसत्य जैसा यथार्थज्ञान केवली भगवान के होता है वैसा छदमस्थ के नहीं होता । जो छद्मस्थ हैं वे ज्ञान से मंद हैं ऐसा समझकर केवली के वचन का श्रद्धान करके अपने भावों में मानना अर्थात् केवली का वचन अन्यथा नहीं हो सकता ऐसा कहा गया है इस प्रकार उनके वचन को अपने भाव में प्रतीति करके कहना।।दशवां समय सत्य -जो षट दक्ष्य का तथा सप्त तत्वों का और उनके भेद प्रभेद के स्वरूप का यथार्थ वक्ता (कहने वाला एक जैन धर्म ही है उसमें जो निरूपण किया है सो अक्षर प्रत्यक्षर सत्य है ऐसी जिनवाणी की दृढ प्रतीति करना ॥१०॥ इस प्रकार से दश प्रकार के सत्य का निरूपण किया गया ।७॥ पाठवां प्रात्मप्रवाह पूर्व है । यह छब्बीस करोड़ पद का है। इसमें जीव का कर्तृत्व, भोक्तव, नित्यत्व, अनित्यत्वादि अनन्त स्वभाव का तथा प्रमाण, नय, निक्षेप का निरूपण किया गया है ।। नवां प्रत्याख्यानपूर्व है। इसमें चौरासी लाख पद हैं। उसमें द्रव्य संवर और भावसंघर का प्ररूपण है । दशवां विद्यानुवाद पूर्व है । वह एक करोड़ दश लाख पद का है। उसमें प्रसेना आदि सातसो छद्र विद्या और रोहिणी प्रादि पांचसौ महाविद्याओं का वर्णन है ।।१०॥ ग्यारहवां कल्याण प्रवाद पूर्व है। इसमें २६ करोड़ पद हैं । उनमें समस्त ज्योतिषगण, अष्टांग निमित्त ज्ञान, तिरसठ शलाका पुरुषों का तथा असुरेन्द्रों का विस्तारपूर्वक वर्णन है ॥१॥ बारहवां प्राणवादक्रियापूर्व है। वह तेरह करोड़ पद का है। उसमें अष्टांग चिकित्सा, श्वासोच्छवास की निश्चलता और पवनाभ्यास का साधन तथा पृथ्वी, आप, तेज, वायु, आकाश इन पांच तत्वों के पवन के परिवार का वर्णन किया गया है ।।१२।। Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गमोकार ग्रंग तेरहवां क्रियाविशालपूर्व । इसमें नौ करोड़ पद हैं इसमें पिंगल व्याकरण तथा शिल्पादि अनेक कलाओं का निरूपण है ॥१३॥ चौदहवाँ त्रिलोक बिन्दुसार है । इसमें धारह करोड़ पचास लाख पद हैं। इसमें नक्षत्र राशि व्यवहार विधि तथा परिक्रम विधि आदि का कथन है समस्त पूर्वो के ६५ करोड ५० लाख पांच पद हैं ॥इति चौदह पूर्व वर्णनम् ।। पुनः द्वादशांग का पांचवां भेद चूलिका है इसके पांच भेद हैं । इनका नाम जलमत १. थलगन २. ग्राकाशगत ३. रूपगत ४. मायागत ५. हैं । पांचों में प्रत्येक चूलिकाओं के दो करोड़, नव लाख, नवासी हजार, दो सौ पद हैं। पांचों चूलिका के एकत्र किये दा करोड़, उनचास लाख, छियालिस हजार पद हैं । यहाँ तक तो अंगप्रविष्ट का कथन किया । सर्व द्वादशांग वाणी के एक अरब, बारह करोड़ तिरासी लाख, अट्ठावन हजार, पांच पद हैं। इनके उपरान्त पाठ करोड एक लाख आठ हजार एक सौ पचसत्तर अक्षर और बचे । इनका पद पूर्ण न हो सका। इसलिये इनके बत्तीस अक्षर प्रमाण बत्तीस लाख, तीन हजार तीन सी अस्सी हये और चन्द्रह प्रक्षर शेष बचे । इन इलोकों के चौदह अंग प्रकीर्णक रचे। पहला सामायिक प्रकीर्णक इसमें साम्यभाव का वर्णन है ।।१।। दूसरा स्तवन प्रकीर्णक । इसमें चतुविशनि तीर्थंकरों का स्तवन है॥२॥ तीसरा वंदना प्रकोणक । इसमें पंच परमेष्ठी, चैत्य, चैत्यालय तथा तीर्थवंदना का प्रकरण है ॥३॥ चौथा प्रतिक्रमण प्रकीर्णक । इसमें द्रव्य, क्षेत्र काल, भाव से किये गये अपराध उनके शोधन तथा प्रायश्चित्तादि का वर्णन है ।।।। पांचवां वनयिक प्रकीर्णक । पंचविध विनय अर्थात् दर्शन विनय १. ज्ञान विनय २. चारित्र विनय ३. तप विनय ४, और उपचार विनय ५. इनका विशेप वर्णन है।शा छठा कृतिकर्म प्रकीर्णक । इसमें त्रिकाल सामायिक विधि का विशेष वर्णन है ॥६॥ सातवां दस वैकालिक प्रकीर्णक । इसमें ग्रहगोचर और ग्रहण गादि का वर्णन है ||७|| आठवां उत्तराध्ययन प्रकीर्णक है। इसमें अन्तिम तीर्थकर महावीर स्वामी के निर्वाणगमन का वर्णन है ।।८॥ नववां कल्पव्यवहार प्रकीर्णक है । इसमें सुयोग्य प्राचरण जनित दोषों के प्रायश्चित का वर्णन है ।।९दशवां कल्पाकल्प प्रकीर्णक। इसमें विषय कषायादिक हेय तथा ज्ञान वैराग्यादि उपादेय के विधि निषेध का वर्णन है॥१०।। ग्यारहवा महाकल्पप्रकीर्णक है। इसमें यति के उचित अर्थात् योग्य वस्तु, क्षेत्र काल का विशेष वर्णन है ।।११।। बारहवां पुण्डरीक प्रकीर्णकहै । इसमें प्रायश्चित विधि का वर्णन है। किन किन कर्मों के द्वारा देवादिक किन किन गतियों का जीव प्राप्त होता है, इसका वर्णन है ।।१२।। तेरहवां महापुण्डरीक प्रकीर्णक है। इसमें किन किन शुभ कर्मों के उदय से महा ऋद्धि के धारक देवों की पदवी प्राप्त होती है. इसका वर्णन किया गया है ।।१३।। चौदहवां पुण्डरीक निशीत का प्रकीर्णक है। इसमें दोषों की शुद्धि के लिये प्रायश्चित सूत्रों का वर्णन है ।।१४। इस प्रकार श्री उपाध्याय परमेष्ठी के ग्यारह अंग चौदहपूर्व के ज्ञान स्वरूप २५ गुण होते हैं ।। ये उपाध्याय परमेष्ठी स्वयं प्राचार्य के निकट शिक्षा ग्रहण और तत्व चर्चा करते रहते हैं। तथा प्राचार्य के आदेशानुसार निकटवर्ती अन्यशिष्यों को भी पढ़ाते हैं इसलिए उनको पाठक भी कहते हैं । यद्यपि ये भी द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव के ज्ञाता, पंचाचार परायण, उत्तम क्षमादि दशलक्षण रूप धर्म के धारक होने से प्राचार्य के समान सर्वदा तत्पर रहते हैं, परन्तु अन्तर इतना ही है कि प्राचार्य शिक्षा दीक्षा देने के अधिकारी व संघ के अधिष्ठाता समझे जाते हैं और ये उपाध्याय नहीं, क्योंकि संघ में संधाधिपति तो एक ही होता है परन्तु उपाध्याय अनेक होते हैं। इनका अध्ययन और अध्यापन करना ही मुख्य कर्म होता है। ऐसे शान के सागर श्री उपाध्याय परमेष्ठी की भक्ति पूजा तथा गुणानुवाद करने से आत्मज्ञान की प्राप्ति होती है। इसके समान मुझे भी ज्ञान की प्राप्ति हो । समाप्तोऽयं उपाध्यायगुणानुबादः ।। Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार ग्रंथ मागे साधु परमेष्ठी का वर्णन करते हैं:दोहा -पंचमहावत पंचसमिति पंच इंद्रियरोष । षट् प्रावश्यक नियम गुण, अष्टाविंशति बोध ॥१॥ अर्थ-पंच महावत, पंच समिति, पचेन्द्रिय निरोध, षडावश्यक; सप्तनियम गुण इस प्रकार २८ मूल गुण के धारक साधु होते हैं और दया के उपकरण पीछी, शौच के उपकरण कमंडलु और ज्ञान के उपकरण शास्त्र से युक्त होते हैं । आगम कथित ४६ दोष, ३२ अन्तराय, १४ मलदोष को बचाकर शुद्धाहार को ग्रहण करते हैं । ये ही मोक्षमार्ग के साधक होने से साधु और सच्चे गुरू कहलाते हैं । पंचमहावत का दोहा हिंसा अन्त तस्करी, अब्रह्म परिग्रह पाप । मन बच तन से त्याग बो, पंचमहावत थाप ॥ अर्थ --हिंसा, अन्त, स्तेय, अब्रह्म और परिग्रह-इन पांच पापों से सर्वथा त्यागरूप महाग्रत पाँच प्रकार का है। अहिंसा महाव्रत-प्रमत्त गोगपूर्वक षट् । इनके सीन के दामों सौरभन से प्राणों के घात का सर्वथा त्याग करना ॥१॥ अचौर्य महाव्रत-प्रमत्त योग पूर्वक बिना दी हुई वस्तु को ग्रहण करने का त्याग करना। मद्यपि प्रचौर्य व्रत का प्रयोजन विना दी हुई वस्तु को ग्रहण करने का है तथापि मुनि धर्मोपकरण और अन्न के सिवाय दी हुई वस्तु को भी नहीं ग्रहण करते-क्योंकि साधु सर्व प्रकार परिग्रह त्यागी होते हैं ॥२१॥ सत्य महावत-प्रमत्तयोग पूर्वक असत्य वचन का सर्वथा त्याग सत्य महावत है ।।३।। ब्रह्मचर्य महाव्रत वेद के उदय जनित मैथुन सम्बन्धी संपूर्ण क्रियाओं का त्याग करना ब्रह्मचर्य महावत है ॥४॥ परिग्रहत्याग महाव्रत १४ प्रकार अंतरंग परिग्रह और दश प्रकार वाह्य परिग्रह का मन, वचन, काय से सर्वथा त्याग करना परिग्रह त्याग महावत है ॥५॥ पंचसमिति नास बोहा-ईर्याभाषाएषणा, पुनि क्षेपण मादान । प्रतिस्थापना युत किया, पांचों समिति विषान ॥३॥ पर्य--भली प्रकार गमनादि में प्रवृतिसमिति है वह पांच प्रकार है। प्रथम ईर्या समिति जो मार्ग पशु मनुष्याधिक के गमनागमन से खुद गया हो ऐसे प्रासुक मार्ग के सूर्य के प्रकाश में चार हाथ प्रमाण भूमि को भली प्रकार से निरखते हुए सावधानतापूर्वक तीर्थ, दर्शन, गुरूयात्रादि धर्म कार्य तथा आहार, विहार, निहार आदि आवश्यकीय कार्यों के निमित गमन करना ई समिति है। दूसरी भाषा समिति-सर्व प्राणियों के हितकारी, कोमल मिष्ट, प्रिय, सत्य, प्रामाणिक, शास्त्रोक्त मिषयात्व रूपी रोग को दूर करने वाले बचन बोलना भाषा समिति है । तीसरी एषणा समिति-छियालिस दोष, बत्तीस अंतराय और चौदह मल दोष टालकर कुलीन श्रावक के घर तप पीर पुष्टी के प्रयोजन से रहित, अपने निमित्त न किया हुमा अनुनिष्ट पाहार ग्रहण करना एषणा समिति है॥३॥ यहां प्रसंगवश संक्षिप्तरूप से पाहार सम्बन्धो छियालिस दोष, बत्तीस मंतराप और १४ मल का वर्णन किया जाता है। Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार ग्रंथ द दोष है ।। ११।। तत अथ छियालिस दोष-प्रथम उद्गम दोष कथन । जो दातार के अभिप्राय से प्रकट हों वे उद्गम दोष कहलाते हैं । षट् काय के जीवों के बध द्वारा ग्राहार उत्पन्न करना अधः कर्म दोष है ॥शा साधु का नाम लेकर भोजन तैयार कराना उद्देशिक दोष कहलाता है॥२॥ संयमी का प्रागमन जानकर भोजन बनाने का प्रारम्भ करना अध्वसाय दोष है ।।३॥ प्रासुक भोजन में अप्रासुक भोजन मिला देना पूतिदोष है ॥४॥ संयमो के ग्रहण योग्य भोजन में प्रसंयमी के योग्य भोजन का मिलाना मिश्रदोष है ॥५१॥ रसोई के स्थान से अन्यत्र पकाये हुए या दूसरे के स्थान में रक्खा हुमा भोजन लाकर देना स्थापित दोष है ।।६।। यक्ष नागादि के निमित्त बनाया हया भोजन देना बलि दोष है ।।७॥ पात्र को पड़गाहकर पीछे काल (समय) की हानि वृद्धि करना अथवा नवधा भक्ति में शीघ्रता व बिलम्ब करना प्रावर्तित दोष है ।।।। अंधेरा जानकर मंडप मादि को प्रकाशरा करना प्राविशकरण दोष है l अपने घर में किसी वस्तु के विद्यमान न होने पर दूसरे से उधार लाकर देना प्रामिशिक दोष है ॥१०॥ जो बस्तु अपने घर में मौजूद हो उसको दूसरे गृहस्थी से अपने बस्तु के बदले में लाकर देना परिवर्तक शा तत्काल दरदेश से अ.ई हई वस्त देना अभिघट दोष है |१|| बंधी व छोदा लगी हई वस्तु को खोल कर देना उभिन्न दोष ||१३|| रसोई के स्थान से ऊपर को मंजिल में रखी हुई वस्तु को सीढ़ी पर चढ़कर लाकर देना मालारोहण दोष है ।।१४।। उद्वेग, वास, भय के कारण भोजन देना पाच्छेय दोष है ॥१५।। दातार का असमर्थ होना अनिसार्थ दोष है ॥१६॥ सोलह उत्पादन दोष-जो पाहार प्राप्त करने में अभिप्राय संबन्धी दोष पात्र के प्राश्रय लगते हैं यथा गृहस्थ को मंजन मंडल क्रीडनादिधात्री कर्म का उपदेश देकर माहार ग्रहण करना धात्री दोष है ॥१॥ दातार को अन्य देश का समाचार सुनाकर प्रहार ग्रहण करना दूत दोष है ।।२।। अष्टांग निमित्त ज्ञान दातार को बताकर आहार ग्रहण करना निमिस दोष है ।। ३।। अपनी जाति. कुल, तपश्चरणादि बतलाकर पाहार लेना पाजीवक दोष है ।।४॥ दातार की अभिरुचि के अनुकूल वचन कहकर माहार लेना बनीयक दोष है ॥५॥ दातार को मौषधि बताकर माहार का ग्रहण करना चिकित्सा दोष है ।।६।। क्रोध, मान, माया, लोभ पूर्वक पाहार ग्रहण करना क्रोध, मान, माया, लोभ दोष है॥७-८-६-१०॥ भोजन के पहले दातार की प्रशंसा कर र ग्रहण करना पूर्वस्तुति दोष ॥११॥ माहार ग्रहण करने के पश्चात दाता की प्रशंसा करना पश्चात् स्तुति दोष ।।१२।। प्राकाशगामिनी, जलगामिनी आदि विद्या दातार को बताकर माहार ग्रहण करना विद्या दोष ॥१३॥ सर्पविषधारी विच्छू प्रादि जीवों के विष दूर करने वाला मंत्र बताकर आहार ग्रहण करना मंत्र दोष है ॥१४॥ शरीर की सुन्दरता तथा पुष्टता के निमित्त चूर्णादि बताकर पाहार ग्रहण करना चूर्ण दोष है ॥१५॥ दातार को अवश के वश करने की युक्ति बताकर प्राहार लेना मूल कर्म दोष है ॥१६॥ १४ आहार सम्बन्धी दोष--जो दोष भोजन के माश्रय से लगते हैं । यथा-यह भोजन योग्य है, अयोग्य है, खाद्य है या आखाद्य है, भोजन में ऐसी दौका का होना शंकित दोष है ।।११। सचिक्कन (चिकने) हाप तथा बर्तन में रक्खे हुए भोजन को ग्रहण करना मृक्षित दोष है ॥२॥ सचित्त पात्रादि पर धरा हुमा भोजन ग्रहण करना निक्षप्त दोष है ॥३।। सचित्र पात्रादि में ढका हुमा भोजन ग्रहण करना पिहित दोष है ॥४॥ दान देने की शीघ्रता से भोजन को न देकर या अपने वस्त्रों को संभालकर माहार देना संव्यवहरण दोष है ॥५॥ सूतक पाटि दोषयुक्त अशुब माहार ग्रहण करना दायक दोष है॥६॥ सचित्त मिश्रित पाहार ग्रहण करना उन्मिय दोष है ।।७॥ पग्नि से परिपूर्ण, नहीं पका हुमा है मा जला हुआ प्रयवातिल, तंदुल, हरण मादि से स्पर्श, रस, गंध, वर्ण बदले बिना जल ग्रहण करना Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ णमोकार मंच अपरिणत दोप है ।।८।। हरताल, गेरु, खड़िया आदिक अप्राशुक, द्रव्य से लिप्त हुए भोजन वा हस्त द्वारा लिया हुआ आहार ग्रहण करना लिप्त दोष है ।।६।। दातार द्वारा पात्र के हस्त में स्थापन किया हुआ पाहार जो पाणिपात्र से गिरता हो अथवा अपने पाणिपात्र में आये हुए पाहारको छोड़ भोर पाहार लेकर ग्रहण करना परित्यजन दोष है ॥१०॥ शीतल भोजन य जल में उष्ण वस्तु अथवा उष्ण भोजन व जल में शीतल वस्तु मिलाना संयोजन दोष है ॥११॥ प्रमाण से अधिक गृद्धता से भोजन करना अप्रमाण दोष है ॥१२॥ और प्रति गृद्धता सहित आहार लेना अंगार दोष है ॥१३॥ यह भोजन प्रकृति विरुद्ध है'-ऐसा संक्लेश या ग्लानि करते हुए पाहार लेना धूमदोष है ॥१४|| ॥ इति ४६ दोष वर्णनम् ॥ अपने निमित्त स्वतः भोजन तथा उसकी सामग्री तैयार करना अधः कर्म दोष है । यह दोष ४६ दोषों के अतिरिक्त महान् दोष कहलाता है ।। बत्तीस अन्तराय। अन्तराय सिद्ध भक्ति होने के पश्चात् माना जाता है। भोजन को जाते समय ऊपर से काकादिक पक्षियों का बीट कर देना ॥१॥ गमन समय पग को विष्टा मल से लिप्त हो जाना ॥२॥ वमन हो जाना ॥३॥ भोजन को गमन करते हुए किसी के द्वारा मनाकर देना ॥४॥ रुधिर तथा पीव प्रादि का किसी अंग में से बह निकलना ।।५।। भोजन के समय अश्रुपात हो जाय अथवा अन्य को अश्रुपात व विलाप करते देखना ।।६।। भोजन को जाते समय यदि घुटने से ऊँचे चढ़ना पड़े ॥७॥ साधु का हाथ घुटने के नीचे स्पर्श हो जाय ।।८।। भोजन के निमित्त नाभि से नीचा माथा करके द्वार में से निकलना पड़े ।।६।। स्थान की हुई वस्तु भोजन में भाजाय ।।१०॥ भोजन करते हुए अपने सन्मुख किसी प्राणी का बध हो जाय ।।११।। भोजन करते हुए काकादि पक्षी ग्रास ले जाय ।।१२।। भोजन करते हुए पात्र के हस्त में से पास गिर जाय ॥१३॥ किसी प्रकार का त्रस जीव साधु के हाथ में गिरकर प्राण रहित हो जाय ।।१४।। भोजन के समय मृतक पंचेन्द्रिय का कलेवर दृश्य पड़ जाय ॥१॥ भोजन के समय किसी प्रकार का उपसर्ग आ जाय १६॥ भोजन करते हुए साघु के दोनों पावों के मध्य में से मेंढ़क मूषकादि पंचेन्द्रिय जीव निकल जाय ।।१७।। दाता के हाथ में से भोजन का पात्र गिर पड़े ॥१८॥ भोजन करते समय साधु के शरीर से मल तथा मूत्र निकल जावे ।।१६।। भोजन निमित्त भ्रमण करते हुए शुद्र के घर प्रवेश होजाय ।।२०।। साधु भ्रमण करते हुए मूर्खा खाकर गिर पड़े ।।२१।। भोजन करता हुमा साधु रोगवश बैठ जाय ॥२२॥ भ्रमण करते हुए श्वानादि पंचेन्द्रिय जीव काट खाय ॥२३।। सिद्ध भक्ति किये पीछे हस्त का मि से स्पर्श हो जाय ॥२४॥ भोजन के समय कफ थकादिगिर पडे ॥२५॥ भोजन के समय साधु के उदर से कृमि निकल पाये ॥२६॥ भोजन करते समय साधु के हस्त से किसी परवस्तु का स्पर्श हो जाय ॥२७॥ भोजन करते समय कोई दुष्ट साधु को या किसी प्रन्य को खड्ग से मारे या हत्याकरे तो भोजन छोड़ देना चाहिए ॥२८॥ भोजन के निमित्त जाते समय प्राग लग जाए या आग लगने की सबर सुने तो माहार छोड़ दे ॥२६भोजन करने समय साधु के चरण से किसी वस्तु का स्पर्श हो जाम तो भोजन छोड़ देना चाहिए ॥३०॥ भोजन करते समय भूमि में पड़ी हुई वस्तु को हाथ से छू ले या उठा ले तो अंतराय हो जाता है ॥३१॥ पवित्र वस्तु का स्पर्श हो जाय ॥३२॥ इन ३२ अंतराय के प्रतिरिक्त चाण्डाल आदि से स्पर्श हो जाय या किसी का कलह हो या इष्ट शिष्यादिक का या अन्य प्रधान पुरुषों के भरण की सूचना सुन ले तो पंतराय माना जाता है। Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोकार ग्रंथ चौवह मल दोष नख, बाल, प्राण रहित शरीर, अस्थि, कण, (जो गेहूं आदि का तुष) राध, स्वचा, बीज, रक्त मास, सचित्त फल, कन्द, सचित्ताचित्त फल और मूल इस प्रकार ये चौदह मल दोष हैं । इस प्रकार अन्तराय के छयालिस दोष का वर्णन किया गया है। ॥ इति छयालिस दोष वर्णनम् ।। अव चोथो प्रादान निक्षेषण समिति का वर्णन करते हैं :--- रखी हुई वस्तु को ग्रहण करने को प्रादान कहते हैं और ग्रहण की हुई वस्तु के धारण करने को निक्षेपण कहते हैं। जिससे किप्ती जोव को बाधा न पहुंचे इसी प्रकार ज्ञान के उपकरण शास्त्र. संयम के उपकरण पोछी. शौच के उपकरण कमंडलु तथा संस्तर आदि को यत्नाचार पूर्वक उठाने धरने को प्रादान निक्षेपण समिति कहते है। पांचवीं प्रतिष्ठापन समिति जीव जन्तु रहित तथा एकान्त स्थान में अर्थात जहां असंयमो पुरुषों का प्रचार न हो. अचित्त अर्थात हरि काय मादि रहित, शहर से दूर, गुप्त जगह. विल छिद्र आदि से रहित, जोवरोध से रहित अथवा जहां किसी का माना जाना न हो ऐसे निर्जन स्थान पर मल मूत्र प्रादि का त्याम करना प्रतिष्ठापन समिति है। इस प्रकार ये पांच प्रकार की समिति हैं। ॥पचेन्द्रिय निरोधम् ।। सपरस रसना मासिका, नयन श्रोत को रोष । षट प्रायशि मंजन तमन शयन भूमि को शोध ॥ प्रर्थ-स्पर्शन श्रादि पचेन्द्रिय विषयों में राग द्वेष रहित हो जाना पंचेन्द्रिय निरोध कहा जाता है । उसका स्वरूप इस प्रकार है ___ स्पर्शन इन्द्रिय निरोष चेतन पदार्थ स्त्री पुत्र आदि, अचेनन पदार्थ शय्या आदि, स्पर्शन इन्द्रियों के विषय भुत कठोर, कोमल, शीत, उष्ण, सचिक्कन और रूक्ष पदार्थों में राग द्वेप न करना स्पर्शन इन्द्रिय निरोध है। रसना इन्द्रिय निरोध-प्रनशन, पान, खाद्य स्वाध .. ये चार प्रकार का प्राहार पोर दूध. दही, घी, नमक, शक्कर, तेल प्रादि ये छ: रस हैं और तीखे, कड़वे, कषायले, खद, मीठे, पंचरस रूप इष्ट अनिष्ट प्राहार में राग द्वेष न करना सो रसन इन्द्रिय निरोध है। घ्राणेन्द्रिय निरोध --सुख दुख के कारण रसरूप सुगन्धित दुर्गन्धित पदार्थों में राग द्वेष नहीं करना यह घ्राण इन्द्रिय निरोध है। चक्ष इन्द्रिय निरोष-कुरूप, सुहावने, भय उत्पन्न करने वाले पदार्थों का तथा रक्त, पोत, हरित, स्वेत प्रादि रंगों को देखकर राग द्वेष न करना चक्षु इन्द्रिय निरोध है। __ श्रोत्रिय निरोष-चेतन स्त्री, पुरुष, पशु आदि पौर अचेतन मेघ, बिजली आदि और मिश्रित तबला, सारंगी प्रादि से उत्पन्न शुभ प्रशंसा निन्दा मादि के शब्द सुनकर राग, द्वेष नहीं करना ये प्रोत्र इन्द्रिय निरोध है। प्रम षट् प्राबल्या अवश्य करने योग्य क्रिया को आवश्यक कहते हैं । ये छ: प्रकार की हैं-- सामायिक, बन्दना, स्तवन, प्रतिक्रमण, स्वाध्याय और कायोत्सर्ग-इस प्रकार ये छ: मावश्यक Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ णमोकार ग्रंथ क्रियायें हैं । इनके स्वरूप का वर्णन आचार्य के छत्तीस गुणों में प्रा चुके हैं तो भी यहाँ केवल दिग्दर्शन मात्र इनका वर्णन किया जाता है- परद्रव्यों के राग, द्व ेष रहित होकर साम्य भाव रखना सामायिक है | ११ चौबीस तीर्थंकरों में से किसी एक तीर्थंकर का स्तवन करना वन्दना है |२| चोबीस तीर्थंकरों की स्तुति करना स्तवन है | ३| अतीत काल में अशुभ परिणाम किये हुए दोषों का परित्याग करना प्रतिक्रमण है |४| वांचना, पृच्छना आदि पांच प्रकार शास्त्रों का अध्ययन श्रथवा आत्म चिंतन करना स्वाध्याय है | ५| शरीर से ममत्व रहित होकर श्रात्मा में लीन होना कायोत्सर्ग है । ६ । इस प्रकार ये षट् आवश्यक हैं । अब शेष सात नियम गुणों को कहते हैं (१) प्रस्नान गुण जल तथा मल-युक्त शरीर होने पर भी स्नान नहीं करने को जल सिंचन आदि शरीर संस्कार नहीं करने को प्रस्नान गुण कहते हैं । परन्तु साधु को शूद्र के स्पर्श हो जाने पर तथा दीर्घ शंका, लघुशंका को जाने के पश्चात् षड् आवश्यक शुद्धि के निमित्त शुद्धता करना आवश्यक है । (२) भूमि शयन गुण जीवादि रहित प्राशुक भूमि में अथवा सस्तर रहित जिससे संयम का घात न हो ऐसी चटाई, लड़की के पटड़े तथा शिला आदि संस्तर पर एकान्त स्थान में पौधे प्रथवा सीध रहित एक करवट से दंड अथवा धनुष के समान शयन करने को भूमि शयन गुग कहते हैं । वागे पाँच नियम गुण कहते हैं दोहा - वस्त्र त्याग केशलोंच कर, लघु भोजन इकबार । मुख वांतन ना करें, ठाढ़ लेय श्राहार ॥ श्रर्थ - ( ३ ) वस्त्र त्याग गुण -मुनि धर्म के विराधक कपास, रेशम, सन के टाट आदि वनस्पति के वस्त्रों तथा भृगादिक से उत्पन्न मृगछाल मादि चर्म तथा वृक्षों के पत्र, छाल श्रादिक से शरीर को माच्छादित न करना और न सत्सम्बन्धित मन, वचन, काय प्रादि से राग करना वस्त्र त्याग गुण है । (४) केशलोंच गुण अपने हाथ से सिर, दाढ़ी, मूछों के केशों का उत्कृष्ट दो मास में, मध्यम तीन मास में, जघन्य चार मास में लोंच करना चौथा केशलोंच गुण है । (५) एक मुक्ति गुण ---तीन घड़ी दिन चढ़ने के बाद, तीन घड़ी दिन शेष रहने के पहले, मध्य में दो तीन मुहूर्त काल के भीतर ही भीतर दिन में केवल एक ही अल्प आहार लेना एक मुक्ति गुण कहलाता है । (६) प्रदन्त घोषन गुण इन्द्रिय संयम की रक्षा और वीतरागता को प्रगट करने के निमित्त हाथ की अंगुली से नख से व दातोंन के द्वारा दांतों का घोवन न करना मदन्त धोवन गुण है । (७) एक स्थिति भोजन - दीवार आदि के आसरे के बिना, दोनों पाँवों में चार प्रगुल का तर रखकर ४६ दोष, बत्तीस अन्तराय, चौदह मल दोष टालकर पाणिपात्र में प्राहार लेने को एक स्थिति भोजन कहते हैं । उपर्युक्त भट्ठाईस मूल गुणों को समुचित रूप से पालन करने से आत्मा के चौरासी लाख गुणों की उत्पत्ति होती है । उसका वर्णन इस प्रकार है । हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और तृष्णा पाँच पाप; कोष, मान, माया, लोभ ये चार कषायः मन, वचन, काय की तीन दुष्टता; मिथ्या दर्शन, प्रमाद, पैशुन्य, प्रज्ञान, भय, रति, परति, हास्य जुगुप्सा, इन्द्रियों का निग्रह इन २१ दोषों का त्याग करना और प्रतिचार, अनाचार, प्रतिक्रमण और व्यतिक्रमण I Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८५ णमोकार प्रय ऐसे चार प्रकार से पृथ्वी कायिक प्रादि १० के परस्पर संयोग रूप (१००) सौ, की हिंसा का त्याग, दस प्रब्रह्म के कारणों का त्याग १०, आलोचना दोषों का त्याग १०. प्रायश्चित के भेदों से परम्पर गुणों से (२१४४४१००x१०x१०x१०-८४०००००) उपर्युक्त प्रकार दोनों के प्रभाव से प्रारमा में अहिंसा के चौरासी लाख उत्तर गुणों की प्राप्ति होती है। अतिचार, अनाचार, अतिक्रमण, व्यतिक्रम के लक्षणइलोक-अतिक्रमो मानस शुद्धि हानि, व्यतिक्रमोयो विषयाभिलाषः । तथाति वारकरणालसत्वं, भंगोपनाचारमिहनतानि ।। अर्थ-मन की शुद्धता में हानि होना अतिक्रमण है। विषयों की अभिलाषा को व्यतिक्रम कहते हैं। व्रत के आचरण में शिथिलता होना अतिचार है। सबंया बन का भंग होना अनाचार है। रत्नत्रयात्मक प्रात्मस्वरूप साधने में तत्पर और बाह्य में शास्त्रोक्त दिगम्बर वैपधारी, मलाईस मल गुणों के साधक साधु मेरी रक्षा करो। कैसे हैं वे साथ? जिनके आत्मधान के बल से अनेक प्रकार की वृद्धि प्राप्त होती है इस अपेक्षा से उनको ऋद्धि भी कहते हैं । उन ऋद्धियों का संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है बुद्धि ऋद्धि, औषधिऋद्धि, क्षेत्रऋद्धि, वलम.द्धि, तपऋद्धि, रस ऋद्धि, विक्रिया ऋद्धि, और Pाति-पाखिनी है। इसमें पहली बुदिऋद्धिके अठारह प्रकार है (१) केवल ऋद्धि-केवलज्ञान ब केवलदर्शन होना जिसमें त्रिकालवर्ती सर्व रूपी प्ररूपी द्रव्य के गुण समस्त गुण, पर्याय को जानना तथा देखना । (२) मनः पर्यायऋद्धि-यह ऋद्धि ऋजुमति, तथा विपुलमति दा प्रकार की है। पर के मन में स्थित पदार्थ को किसी की बिना सहायता से जान लेना ननः पर्याय ऋद्धि है। (३) अवधि ऋद्धि-यह देशावधि, सविधि परमावधि, नाम से तीन प्रकार को त्रिकालगोचररूपी पदार्थों को देशकाल की मर्यादा लिए जान लेना अवधि ऋद्धि है। (४) वीर्यवृद्धि ऋद्धि-किसी ग्रन्थ के एक श्लोक को ग्रहण करके सम्पूर्ण ग्रन्थ का भान होना। (५) कोष्ठबुद्धिऋद्धि-जिस प्रकार कोठे में नाना प्रकार की वस्तुएं रखी रहती हैं और पावश्यकता होने पर अलग-अलग वस्तु निकाल कर देते हैं इसी प्रकार मुनीश्वर जो कुछ पड़े अथवा सुने, यह भिन्न-भिन्न याद रहे, एक वार्ता का अक्षर दूसरी वार्ता में न मिले उसको कोष्ठवुद्धिऋद्धि अथवा कोष्ठस्थाधान्योपम् ऋद्धि कहते हैं। (६) सम्भिन्नस्रोतऋद्धि-बारह योजन लम्बे, नौ योजन चौड़े क्षेत्र के मनुष्य पशुत्रों का शब्द एकत्र एक काल में भिन्न-भिन्न श्रवण करना । (७) पदानुसारिणीकऋद्धि-प्रादि मध्यान्त के एक-एक पद से ही समस्त ग्रन्थ का कंठान हो जाना। (6) दूरी स्पर्शन ऋद्धि-आठ प्रकार के स्पर्श का ज्ञान पवन के स्पर्श होने से हो जाना। (६) दूरी रसनऋद्धि- मनुष्य क्षेत्र के रसों का स्वाद जान लेना। (१०) दूरी गंधादि-बहुत दूर के सुगन्ध, दुर्गन्ध का मानना। Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार ग्रंथ (११) दूरावलोकनऋद्धि-प्रत्येक पदार्थ को दूर से देखना तथा जानना ! (१२) दूरीश्रवणऋद्धि-सात प्रकार के स्वर और पाँच प्रकार की वादि ध्वनि को दूर से देखना तथा जानना। सप्तस्थर नाम- (१) ऋषभ (मनुष्य शब्द) (२) रिषाद (मेघ गर्जना) (३) गन्धार (बकरी की बोली) (४) खरज (बिलाई को बोलो) (५) मध्यम (उपरोक्त चारों बोली एक साथ) (३) धैवत (हामी नी रिंभार) १५) पना (कोयल की बोली) ये सात स्वर हैं। पंच वादित्र- (१) चर्म (मृदंग प्रादि) (२) फूक (बांसुरी प्रादि) (३) तांततार (वीणा यादि) (४) ताल (मंजीरा आदि) (५) जल लहर (पानी का शब्द) ये पांच प्रकार वादित्र हैं। (१३) दस पूर्वऋद्धि-जिससे दस पूर्व का ज्ञान होवे । (१४) चौदह पूर्वऋद्धि-जिससे चौदह पूर्व का ज्ञान होवे । (१५) इन्द्रियदमनऋद्धि-जिसके द्वारा पांच इन्द्रियों का दमन कर तपश्चरण करे। (१६) बाद बुद्धि ऋद्धि-दूसरे को वाद में जीतना । (१७) प्रज्ञाऋद्धि-तत्वार्य अथवा पदार्थों के भेद को बिना शास्त्र को पढ़े स्वयं जान लेना। ( निमित्तकद्धिऋद्धि---इसके अाठ भेद हैं- पश-पक्षियों की भाषा सुनकर उस भाषा से शुभाशुभ फल को जानना, सो स्वर भेद है ॥१॥ ग्रह नक्षत्रादिक को देखकर शुभाशुभ को जानना सो अन्तरिक्ष है ॥२॥ पृथ्वी कम्पनादि लक्षणों को जानकर शुभाशुभ फल को बताना अंगभूत है ।।३॥ वैद्यक सामुद्रिक मादि से मनुष्य तथा चौपायों का शुभाशुभ जानना सो मंड है ।।४॥ वस्त्र, शस्त्र, पशु, पक्षी और अग्नि आदि से शुभाशुभ जानना चिह्न है ।।५।। तिल, मस्सा, लहसन आदि प्रग के चिन्हों को देखकर उनके शुभाशुभ को जानना सो व्यंजन है ॥६॥ श्री वत्स, शंख, चक्रादि चिह्न को देखकर उनके शुभाशुभ को जानना सो लक्षण है ॥७॥ स्वप्न से शुभाशुभ जानना सो स्वप्न चिह्न है ।1।' ये अठारह भेद बुद्धि ऋद्धि के हैं। दूसरी औषधऋद्धि पाठ प्रकार की हैं। (१) विष्टा ऋद्धि-मुनि की विष्ठा रोगी के शरीर से लग जाए तो सर्व रोगों का नाश होना। (२) मल ऋद्धि - मुनि का कान नाक आदि का मल रोगी के लग जाए तो सर्व रोगों का नाश होना। (३) आम्र ऋद्धि-रोगी या दरिद्वी को मुनि महाराज के शरीर का स्पर्श हो जाए तो रोग वा दरिद्रता जाती रहे ! (४) उजज्वल ऋद्धि- मुनि के शरीर का पसेव दरिद्री अथवा रोगी के लग जाए तो दरिद्रता पौर रोग जाता रहे। (५) घुल्लक ऋद्धि-दरिद्री वा रोगी मनुष्य के मुनि का मूत्र, कफ थूक, लग जावे तो दरिव्रता व रोग जाता रहे। (६) सौषधि ऋद्धि-मुनि के शरीर का स्पर्श कर जो पवन आवे, उसके लगते ही रोगी का सर्व रोग नाश होवे। Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गभौकार प्रय (७) दृष्टि विष ऋद्धि-किसी को किसी सांप ने काटा हो पथवा किसी ने विष खा लिया हो जो मुनि के देखते ही निविष हो जावे। (८) विष नाशन ऋद्धि-मुनि को भोजन में कोई बिष दे दे तो बाधा न करे । तीसरी क्षेत्र ऋद्धि है उसके दो भेद होते हैं - (१) अछिन्न ऋद्धि --मुनि जिसके घर में प्राहार लें तो उस दिन भोजन अटूट हो जाये।। (२) अविछिन्न ऋद्धि-मुनि जिस चौके में आहार ले उसमें चक्रवर्ती की सेना अलग बैठकर भोजन करे तो भी कमी न होवे।। चौथी बल ऋद्धि के तीन प्रकार हैं(१) मनोबल' ऋद्धि-जिसके बल से द्वादशांग वाणी का अंतर्मुहूर्त में पाठ कर लिया जाए। (२) बचन बल ऋद्धि-जिसके बल से द्वादशांग वाणी का अन्तर्मुहूर्त में वचन द्वारा पार कर लिया जाए। (३) काय बल ऋद्धि-द्वादशांग वाणी का पाट अन्तमुहूर्त में काय द्वारा कर लेना अथवा पहाड़ समान भारी बोझ को उठा लेना । पांचवी तप ऋद्धि सात प्रकार की है(१) घोर ऋद्धि-श्मशान आदि भयानक स्थानों में नि:शंक ध्यान लगा कर परिपह सह लेना (२) महत् ऋद्धि-निविघ्न १०८ ब्रत का क्रम पूर्वक पालन करना और उपवास करना । (३) उन तप ऋद्धि-एक दो अथवा तीन दिन तथा पक्ष मासादिक का उपवास प्रारम्भ कर मरणासन्न होने पर भी विचलित नहीं होता। (४) दीप्ति ऋद्धि-घोर तप करने से भी देह की कान्ति न घटना। (५) तप ऋद्धि-- जो वस्तु ग्रहण की जाए अथवा पान की जाए उसका मल, मूत्र, मॉस कुछ भी न बने । जिस प्रकार अग्नि में गिरने से सब पदार्थ भस्म हो जाते हैं उसी प्रकार भोजन का मल, मूत्र मादि रूप में परिणमन न होना । (६) धोर गुण ऋद्धि-रोग आदि के होने पर भी अनशन प्रादि व्रत का अतिचार रहित पालन करना। (७) घोर ब्रह्मचर्य ऋद्धि-ऐसा ब्रह्मचर्य का पालन करना कि जिससे स्वप्न में भी चित्त चलायमान न हो। छठी रस ऋद्धि के ४ भेद हैं (१) पयस्त्रया ऋद्धि-मुनि जिस गृहस्थ के घर भोजन करें तो उनके पाणिपात्र में रुक्षमोबन भी क्षीर रस रूप में परिणमन हो जाए प्रोर उस दिन समस्त रसोई दुग्धमय हो जाए। (२) घृतस्त्रवा ऋद्धि-मुनि जिस गृहस्थ के घर भोजन करें तो उस दिन समस्त रूक्ष भोजन भी घृतसहित हो जाए। (३) मिष्टास्त्रव ऋद्धि-मुनि जिस गृहस्थ के घर भोजन करे तो उस दिन रसोई मिष्टरस हो जाए। (४) पमृतस्त्रदा ऋद्धि-मुनि जिस गृहस्थ के घर भोजन करे उस दिन रसोई ममतमय हो बाए। Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमोकार पंप सातवीं विक्रिया प्रादि-ग्यारह प्रकार की होती है (१) अणिपा ऋद्धि-जिस के बल से अपना शरीर छोटा कर सकते हैं। । (२) महिमा ऋद्धि-जिससे पर्वत के समान दीर्घ शरीर धारण कर सकते हैं। (३) लघिमा ऋद्धि-जिसके बल से पाक वक्ष के तूल समान हलका शरीर धारण कर सकते हैं। (४) गरिमा ऋद्धि-जिसके बल से पा से हसान गरीहारीत भारत का सका है। (५) प्राप्ति ऋद्धि -जिससे पृथ्वी पर बैठे मेरु प्रादि को पादांगुष्ठ से स्पर्श कर सकते हैं। (६) प्राकाम्य ऋद्धि-जिससे समुद्र, सरोवर आदि के जल में पृथ्वी पर गमन करने के समान गमन करे। (७) ईश्वरत्व ऋद्धि-जिससे अपनी इच्छा के अनुसार वैभव धारण कर सकते हैं । (८) वशित्व अद्धि-जिससे मनुष्य, पशु आदि को इच्छानुसार वश में कर सकते हैं । (8) अप्रतिघात ऋद्धि-जिससे पर्बत, कोट आदि को भेदकर अनिरुद्ध प्राकाशवत् चले जावें। (१०) अन्तर्ध्यान ऋद्धि-जिससे अन्य मनुष्यों से दृष्टि अगोचर होकर स्वयं सब मनुष्यों को देख सकते हैं। (११) कामरूपित्व ऋद्धि - जिससे पशु, पक्षी प्रादि का रूप इच्छानुसार बना सकते हैं। पाठवीं क्रिया ऋद्धि के दो मूल भेद और दश उत्तर भेद हैं । दो मूल भेद--(१) चारण ऋद्धि काशगामिनी ऋद्धि । चारण ऋद्धि आठ प्रकार की है{१) जल चारण ऋद्धि-जिसमें भूमि, वायु और जल पर गमन कर सकते हैं। (२) जंघाचारण ऋद्धि-जिससे पृथ्वी से चार अंगुल ऊपर चल सकते हैं। (३) पुष्प चारण ऋद्धि-पुष्पों पर पांव रखतेहुए गमन करे परन्तु फिर भी फूल न टूटे। (४) फल चारण ऋद्धि-जिससे फलों पर पर रखकर चलने पर भी फल न टूटें। (५) पत्र चारण ऋद्धि-जिससे पत्तों पर पैर रखकर चलने पर भी पत्र न टूटे । (६) शयन चारण ऋद्धि-जिससे कोमल तन्तु वाली बेल पर पैर रखकर चलने पर भी बेल न टूटें। (७) तन्तुचारण ऋद्धि-जिससे मकड़ी के तन्तु पर पैर रखकर चलने पर भी तन्तु न टूटें। (८) अग्निशिखा चारण ऋद्धि-जिससे अग्नि शिखा पर पैर रखकर चलने पर भी पैर न जले। आकाशगामिनी ऋद्धि दो प्रकार है(१) पद्मासन ऋद्धि-जिससे पद्मासन बैठे हुए प्राकाश में गमन कर सकते हैं । (२) कायोत्सर्ग ऋद्धि-जिससे खड़े हुए प्राकाश में जा सकते हैं। पाठ प्रकार की चारण ऋद्धि और दो प्रकार आकाशगामिनी ऋद्धि-इस प्रकार क्रिया ऋद्धि के दश भेद हैं। ॥ इति साधु गुण वर्णन समाप्त । अब अन्त में पंच परमेष्ठी की स्तुति कर प्रथम अधिकार समाप्त करेंगे। Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गमौकार प कैसे हैं अहंत भगवान ? जो गृहावस्था को छोड़कर, मुनिव्रत धारण कर कर्मों की निर्जरा कर उत्कृष्ट शुक्ल ध्यान के बल से मोहनीय प्रादि चार कर्मा का नाश कर अनन्त दर्शन, अनन्त ज्ञान, अनन्त सुख पौर अनन्त वीर्यरूपी अन्तरंग लक्ष्मी और समवशरण आदि बाह्य लक्ष्मी को प्राप्त कर परमौदारिक शरीर से भव्य जीवों को निज उपदेशामृत की वर्षा कर संसार भ्रमण से प्राप्त हुई संतप्तता को शान्त करते हैं अर्थात् उससे छुड़ा देते हैं। ऐसे अर्हन्त भगवान को मेरा बारम्बार नमस्कार हो । कैसे हैं सिद्ध भगवान ? जो कर्म रहित सम्यक्त्वादि प्रष्ट गुण मंडित, जन्म, जरा, मरण रहित अविनाशी, निष्कल' परमात्मा लोक के शिखर में स्थित हैं उनको मेरा बारम्बार नमस्कार हो। कैसे हैं प्राचार्य महाराज? जो दादशांग रूप श्रुतसागर के पारगामी स्वपर कल्याण के कर्ता स्वयं पंच' चार रूप का पालन करते हैं और संघ समूह को करवाते हैं उन प्राचार्य को मेरा बारम्बार नमस्कार हो। कैसे हैं उपाध्याय परमेष्ठी ? ग्यारह भंग और चौदह पूर्व के पाठी पच्चीस गुण के धारक, मोक्ष मार्ग के उपदेशक उपाध्याय को निजात्म सत्य की प्राप्ति के लिए बारम्बार नमस्कार हो। . कसह साप परमेष्ठी? संसारी विषय कषात्रों से विरक्त, निर्ग्रन्थ मद्रा के धारी मोक्ष माग का साधन करने में तत्पर, मनशनादि व्रत करके कर्मों की संवर व निर्जरा के कर्ता ऐसे साधू परमेष्ठी मुझे मोक्ष मार्ग का उपाय बताएं। इति पंच परमेष्ठी गुण का वर्णन करने वाला प्रथम अधिकार सम्पूर्ण हुमा । ॥अथ रत्नत्रय नामक द्वितीयोऽषिकारः॥ संसारी जीवों की दुखमय दशा को देखकर परम पूज्य तीर्थकर भगवान ने अपार संसार से विरक्त होकर गृहस्थ अवस्था को छोड़कर मुनि पद धारण करके शुभाशुभ कमों को जीतकर परम शुक्ल ध्यान के बल से धार धातिया कर्मों का नाश करके अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सुख, अनन्त वीर्य इन चार मनन्त चतष्टय से युक्त परमौदारिक शरीर में रह कर संसारी जीवों को मोक्ष मार्ग का उपदेश दिया जिसमें मोक्ष व मोक्ष के कारण तथा संसार के कारण और स्वरूप को सम्यक् प्रकार से दर्शाया और मोक्ष प्राप्ति के लिए पात्मा के निज स्वभाव सम्यक् दर्शन, सम्यग्ज्ञान सिद्ध करने के लिए कम जनित विभावों को छोड़कर निजस्वभाव में प्रवृत होने के लिए सम्यक् चारित्र धारण करने का उपदेश दिया। मनादि काल से किए हुए गृहीत, अगृहीत, मिथ्यात्व स्वरूप रोग को एकदम दूर करने की शक्ति सर्वसाधारण मनुष्य में नहीं है इसलिए जैसे बहुत काल पर्यन्त सेवन करतं अफीम के व्यसनी मनुष्य का एकदम व्यसन को छोड़ने में असमर्थ जानकर क्रम क्रम से छोड़ने की परिपाटी बताई जाती है उसी प्रकार जिनेन्द्र भगवान ने निज दिव्य ध्वनि के द्वारा संसार रोग से मुक्त होने के लिए संसारी जीवों का मुनि और श्रावक धर्म ऐसी दो श्रेणियों का उपदेश दिया। पूर्ण सुखी होने का यत्न तो यद्यपि मुनि पद ग्रहण करने से होता है परन्तु जब तक ऐसा न हो सके, जब तक उस शक्ति को धारण करने में असमर्थता हो तब तक गृहस्थाश्रम में रहकर मनुष्य यथाशक्ति, यथाक्रम, सम्यक् प्रकार और रुचि पूर्वक अभ्यास करते रहने से, प्रत की वृद्धि होने से मुनिव्रत धारण करने की शक्ति प्राप्त कर सकता है प्रतः यहां प्रथम अणुक्त रूप गृहस्थ धर्म का वर्णन करते हैं । प्रथम सम्यक् दर्शन का वर्णन करते हैं, क्योंकि सम्यकत्व रूपी नींव के बिना चरित्र रूपी महल नहीं बन सकता जैसे कहा भी है कि Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Eo श्लोक -- मंदिराणामधिष्ठानं तरूणां सुबुद्ध जड़म् । यथा मूलं व्रतादीनां सम्यक्त्वमुदितं तथा ॥ अर्थ -- जिस तरह मकानों की नींव जब तक दृढ़ न हो तब तक मकान चिरकाल पर्यन्त नहीं ठहर सकता तथा वृक्षों के सुदृढ़ रहने का भूल कारण जड़ है उसी तरह कितने भी व्रत नियमादि धारण किए जाएं पर जब तक सम्यकस्व न होगा तब तक वे ग्रंक के बिना शून्य ( बिन्दी ) लिखने वत् निष्फल हैं । ग्रतएव व्रतादिकों का मूल कारण सम्यकत्व को समझ कर प्रथम उसी के धारण करने में प्रयत्नशील होना चाहिए | इसी कारण प्राचार्यों ने कहा है- 'सम्मं धम्मं मूलो' । प्रर्थात् सम्यकत्व धर्म की जड़ है जिसके प्रभाव से सम्यग्दृष्टि गृहस्थ को द्रव्यलिंगी मुति से भी श्रेष्ठ कहा है क्योंकि यद्यपि द्रव्यलिंगी मुनि व्रतादि धारण करता है तथापि सम्यकत्व रहित होने से मोक्षमार्गी नहीं और गृहस्थ चरित्र रहित है तो भी सम्यकत्व महित होने से मोक्षमार्गी कहा है। है सम्यग्दर्शन प्रकरण : सम्यग्दर्शन स्वरूप - जीवादी सद्दहणं सम्मत्त रूपमप्पणो तं तु बुरभिणिवेसविमुक्कं गाणं सम्मं खु हो दि सदि जहि ॥ - जीवादिक तत्वों का श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है वह आत्मा का स्वरूप अर्थात् आत्मा का खास स्वभाव है और उसके होने पर ज्ञान दुरभिनिवेश रहित होकर सम्यग्ज्ञान रूप हो जाता है जिस का श्रद्धान करने से सम्यग्दर्शन होता है। rater वह तत्व क्या वस्तु है ? अपने स्वभाव को छोड़कर पर स्वभाव को ग्रहण नहीं करना और सदा निज स्वभाव में रहना तत्व है और वह तत्व जीव, अजीव, ग्रास्त्रव, बंध, सवर, निर्जरा और मोक्ष सात होते हैं | इनका संक्षिप्त स्वरूप कहा जाता है । प्रथम जीव तत्व वर्णन जीव शब्द के कहने से निश्चयरूप से उस वस्तु से प्रयोजन है जो ज्ञान, दर्शन (देखना, जानता ) लक्षण से संयुक्त असंख्यात प्रदेशी है क्योंकि ज्ञान रूपी गुण जीव के ही पास है अन्य किसी के पास नहीं । जिस वस्तु से जीव नहीं होता है उसे जड़ कहते हैं। जड़ में देखने व जानने की शक्ति नहीं होती, यह शक्ति जीव के ही पास है । जीव त्रिकालवर्ती समस्त द्रव्य पर्यायों को जानने में समर्थ है तथापि मनादि काल से द्रव्य कर्म के संयोग से राग, द्वेष वश परिणमन करता हुआ विभावरूप हो रहा है इसलिए इस में स्वभाव, विभाव रूप से नौ प्रकार की परिणति पाई जाने के कारण श्रीमन्नेमिचन्द्राचार्य ने इसका नौ प्रकार से वर्णन किया है। वे नव अधिकार इस प्रकार हैं:गाथा --- जीवो जो गम श्रमुत्तिकत्ता सर्वपरिमाणो । भोला संसारत्थो, सिद्धो सो विस्ससरेड्डगई ॥ अर्थ - जीवत्व, उपयोगत्व प्रमूत्तित्व, कर्तृत्व, भोक्तृत्व, सदेह परिमाणत्व, संसारत्व, सिद्धत्व मौर उवंगतित्व — इस प्रकार जीव के ज्ञान कराने वाले नव अधिकार हैं । महापुराण का श्लोक प्रस प्रकार है चेतना लक्षणो जीवः सोऽनादिनिधनः स्थितिः । माता वृष्टा च कर्त्ता च भोक्ता बेह प्रमाणकः ॥1 गुणवाकर्म मिता मूर्ध्ववज्यास्याभावकः परितोपसंहारः विसर्पाभ्यां प्रवीपवत् ॥ २४/६२-६३ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जमोकार अन्य इस श्लोक का तात्पर्य भी ऊपर की गाथा के अनुसार है इसीलिए अर्थ नहीं लिखा है। अब पृथक-पृथक अधिकारों का वर्णन करते हैं । प्रथम जीवाधिकार:यथार्थ में जिसके एक चेतना ही प्राण है और व्यवहार से इन्द्रिय, बल, आयु, श्वासोच्छवास ये चार प्राण लेकर तीनों कालों में जीवन धारण करे वह जीव है । इन प्राणों के दश विशेष भेद हैं यथास्पर्शन, रसना, घाण, चक्ष और श्रोत्र ये पांच इन्द्रियाँ, मन, वचन, काय तीन बल, और पा श्वासोच्छवास इन दश प्राणों से ही यह जीव अनादिकाल से जीता है। प्रत्येक जीव के कम से कम चार प्राण और अधिक से अधिक दश प्राण होते हैं। एकेन्द्रिय जीवों के चार प्राण अर्थात् स्पर्श, इन्द्रिय, शरीर का बल, आयु और श्वासोच्छवास होते हैं ! दो इन्द्रिय जीवों के पूर्वोक्त चार प्राणों से रसना इन्द्रिय और बल, ये दो प्राण अधिक होते हैं अर्थात् उनके छः प्राण होते हैं । तीन इन्द्रिय वाले जीवों के पूर्वोक्त छः प्राण और एक प्राण इन्द्रिय ये सात प्राण होते हैं । चार इन्द्रिय वाले जीवों के पूर्वोक्त सात प्राण और एक चक्षु इन्द्रिय ये पाठ प्राण और श्रोत्र इन्द्रिय ये नव प्राण होते हैं। इन्हें मनबल रहित होने से प्रसनी पंचेन्द्रिय कहते हैं और जिनके पूर्वोक्त नव प्राण मन बल सहित हों अर्थात् समस्त दश प्राण हो उन्हें सैमी पंचेन्द्रिय कहते हैं। द्वितीय उपयोग अधिकार का वर्णन निश्चय नय शुद्ध चैतन्य भाव ही जीव का लक्षण है और व्यवहार नय से चार प्रकार का दर्शन, प्रवधि और पाठ प्रकार सामान जीव का लक्षण है। बार बार के दर्शन से हैं-चक्षदर्शन, अपक्ष दर्शन, प्रबधि दर्शन और केवल दर्शन । सुमति, सुश्रुति, कुमति, कुश्रुति, सुअवधि, कुअवधि, मन: पर्यय भौर केवल ज्ञान ये साठ प्रकार का ज्ञान है नेत्र इन्द्रिय से सामान्य रूप से देखता चक्षु दर्शन है। नेत्र इन्द्रिय बिना धार इन्द्रिय और मन से द्रव्य की समान रूप में देखना अचक्षु दर्शन है पंचेन्द्रिय और मन की सहायता बिना मूत्तिक पदार्थ का सामान्य रूप से प्रत्यक्ष देखना अवधि दर्शन है ।समस्त मूर्तिक प्रमतिक पदार्थों को केवल ज्ञान से सामान्य रूप से प्रत्यक्ष देखना केवल दर्शन है। पाँचों इन्द्रियों और मन के द्वारा पदार्थ को जानना मतिज्ञान है। मतिज्ञान पूर्वक जाने हुए पदार्थ से सम्बन्धित अन्य पदार्थों का जानना श्रुत्रज्ञान है। पंचेन्द्रिय और मन की सहायता बिना मूर्तिक पदार्थ को एक देश प्रत्यक्ष जानना अवधिज्ञान है। मति, श्रुति और अवधि ये तीनों ज्ञान मिथ्यादृष्टि के जब होते हैं तब कुमति, कुश्रुति कुअवधि कहलाते हैं । सम्यग्दृष्टि के मति, श्रुति,प्रवधि कहलाते हैं । किसी जीव के मन में चितवन किए हुए पदार्थ को जानना प्रत्यक्ष मनः पर्ययज्ञान है। यह शान सम्यग्दृ- मनुष्य के ही हो सकता है अन्य किसी के नहीं। ___समस्त मूर्तिक, प्रमूर्तिक द्रव्य गुण पर्याय को प्रत्यक्ष जानना केवलशान है ऐसा केवलज्ञान सबसे बड़ा है। तृतीय प्रमूर्तिक अधिकार निश्चयनय से जीव स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण इन चार गुणों से रहित होने से पामूर्तिक है । परन्तु म्यवहारनय से कर्मबंध (शरीरादि) से सहित होने के कारण जीव मूर्तिक भी कहा जाता है। Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमोकार ग्रंथ चतुर्थ कर्ता अधिकार व्यवहार से जीव ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अंतराय इन चार घातिया कर्मों का तथा प्रायु, नाम, गोत्र और वेदनीय इन चार अधातिया-ऐसे पाठ कर्मों का कर्ता है और प्रशुद्ध निश्चयनय ये अशुद्ध चेतन परिणाम रागादिक भावकों का कर्ता है और शुद्ध निश्चयनय से अपने शुद्ध चैतन्य भावों का अर्थात् शुक्रज्ञान व दर्शन का ही कर्ता है। पांचवा भोक्ता अधिकार व्यवहारनय से यह जीव अपने शुभाशुभ परिणामों द्वारा बाँधे हुए ज्ञानवरणादिक पौद्गलिक कर्मों के सुख दुःख स्वरूप फल का भोक्ता है और अशुद्ध निश्चयनय से विषय, कषाय, दया, समता आदि अपने भावों का भोक्ता है और गुट विजयनय में लाने गुरु गोमाय मावों का ही मोक्ता है छठा स्ववेहपरिमाणत्व अधिकार शुद्ध निश्चयनय तो प्रत्येक जीव लोक के बराबर असंख्यात् प्रदेश वाला है। अर्थात् लोकाकाश के प्रदेश जितनी संख्या में हैं उतने ही प्रदेक प्रत्येक जीव के हैं परन्तु व्यवहारय से नाम कर्म के उदय से जैसा कोटा-जडा वन्द शरीर धारण करता है उसी के आकार के उसके प्रात्म प्रदेश संकोच विस्तार कर हो जाते हैं। जैसे दीपक का प्रकाश जब मकान छोटा होता है तो भी सारे मकान में फैला हुमा होता है और यदि उस ही दीपक को बड़े मकान में रख दिया जाये तो भी सारे मकान में प्रकाश विस्तृत हो जाता है उसी प्रकार यह हाथी के शरीर में जाता है तो हाथी के शरीर का प्रमाण हो जाता है और वही जीव जव किसी छोटी वस्तु का शरीर धारण करता है तो संकुचित होकर उतना ही छोटा हो जाता है । इसी प्रकार बालक की देह में जीव बालक के शरीर के बराबर होता है और ज्यों-ज्यों शरीर बढ़ता जाता है त्यों-त्यों जीव भी विस्तृत हो जाता है परन्तु केवल समुद्घात प्रवस्था में प्रात्मप्रदेश शरीर के बाहर निकलते है। कषाय यादि सात कारणों के उपस्थित होने पर मूल शरीर को न छोड़कर प्रात्म प्रदेश के बाहर निकलने को समुद्घात कहते हैं । वे सात हैं (१) कषाय (२) वेदना (३) मरणांतिक (४) प्राहारक (५) वैक्रियिक (६) तेजस (७) कार्माण । जहाँ असह्य पीड़ा में जीव प्रदेश घबराहट से निकले और पौषधि स्पर्श कर फिर शरीर में आवें सो वेदना समुद्घात है। जहाँ किसी शत्रु के मारने से क्रोधवश जीव प्रदेश सर्व पोर को देह से बाहर निकलें सो कषाय समुद्घात है। मरण समय प्रात्म प्रदेशों का शरीर के बाहर एक ही दिशा को निकलना सो मरणांतिक समुद्घात है। जब मुनि को किसी पदार्थ में संदेह उत्पन्न होता है तब जो प्रमत्त गुणस्थानवर्ती ऋद्धिधारी महामुनि के दशम द्वार (मस्तक) से एक हाथ प्रमाण वाले रसादिक धातु और संहनन से रहित समचतुरस्त्रसंस्थान संयुक्त चन्द्रकांति के समान श्वेत पुतलाकार प्रात्मप्रदेश निकल जहां केवल ज्ञान के घारी स्थित हों वहाँ जाकर पदार्थ का निश्चयकर पन्तमुहूर्त में उलटा आकर शरीर में प्रवेश करताहे और वह एक ही ओर निकलता है वह आहारक समुद्घात है। देव नारकी व मनुष्यों के आत्म प्रदेश कारण से विक्रिया करने को अपने अंग से प्रात्म प्रदेशों का बाहर निकलना वैक्रियिक समुद्धात है। मुनि के द्वारा जब दुष्टों द्वारा हुमा अनिष्ट, उपद्रव मादि देखकर क्रोध सहा न जावे तब पायें कन्धे से मारम प्रदेश रक्तवर्ण पुतलाकर निकल मुनि मे जिस बात को घनिष्ट समझा था उस Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૩ णमोकार ग्रंथ सहित १२ योजन प्रमाण के समस्त जीव पुद्गलों को भस्म करता है और फिर उल्टा आकर मुनि को भस्मकर आप भी भस्म हो जाता है। सुचना -- किसी स्थान पर ऐसा भी लिखा है कि मुनि के बांए कंधे से प्रात्मप्रदेश पुतलाकार रूप में निकल १२ योजन लम्ब, नव योजन चौड़े क्षेत्र को मुनि सहितभस्म कर देते वह अशुभ तैजस समुद्घात है। लोक में किसी प्रकार को दुभिक्षादि व्याधि देखकर करुणावश मुनि के बांए कंधे से मनुष्य के श्राकार समान श्वेत वर्ण श्रात्म प्रदेशों का पुतला निकलकर अपनी शक्ति से बारह योजन प्रमाणक्षेत्र के जीवों की व्याधि दुर्भिक्षादि को दूरकर फिर उलटा आकर शरीर में प्रवेश करता है। वह शुभ तैजस है। ऐसे दो प्रकार तैजस समुद्घात है । तेरहवें गणस्थान में जब केवली भगवान की प्रायु थोड़ी रह जाती है और कुछ संसार भ्रमण शेष रहता है तब मुनि दंडक पार करते हैं तब प्रथम समय में दंड रूप आत्मा के प्रदेश निकलें दूसरे में कपाट रूप हो जाएं तीसरे में प्रतर रूप, चौथे में लोक पूर्ण हो जाएं, फिर पांचवे में संकुचित होकर प्रतर रूप हो जाएं, छठे में कपाट रूप, सातवें में केवली शरीर में प्रवेश कर शरीर प्रमाण मात्मा के प्रदेश हो जाते हैं। इन कारणों के उपस्थित होने पर ही चैतन्य शरीर से बाहर निकलता है । इनके सिवाय आत्मा देह प्रमाण ही रहता है और निष्कर्म अवस्था (सिद्धावस्था) में चरम शरीर से किंचित न्यून आकार प्रमाण आत्मप्रदेश रहते हैं । विशेष - जो महामुनि उत्कृष्ट रूप से आयु के छह मास अवशेष रहने पर केवल ज्ञानी होते हैं उनके तो नियम से केवल समुद्घात होता है और जो प्रायु के षट् मास से अधिक अवशिष्ट रहने पर केवल ज्ञानी होते हैं उनके यदि अन्त में आयु की स्थिति अन्तर्मुहूर्त शेष रह जाए और वेदनीय, नाम तथा गोत्र इन तीन कर्मों की स्थिति विशेष हो तो उनके उक्त तीनों कर्मों की स्थिति श्रायुकर्म के समान करने के लिए नियम से समुद्घात होता है जिससे आत्म प्रदेशों के विस्तारित होने से वेदनीय यादि तीनों कर्म शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं। जैसे किसी गीले वस्त्र को यदि फैला दिया जाता है तो उस में से जल परमाणु शीघ्र ही क्षय होकर श्रल्प समय में हो सूख जाते हैं उसी प्रकार श्रात्मा के प्रदेश केवल समुद्धात के समय दंड कपाट आदि रूप विस्तृत होने से वेदनीय श्रादि तीनों कर्म शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं। जिन केवलियों के खड़े हुए समुद्घात होता है उनको प्रथम समय में आत्मा के प्रदेश वातवलयों की मोटाई को छोड़ कर चौदह राजू लम्बे और द्वादश अंगुल परिणाम मोटे धन रूप दंडाकार निकलते हैं । और यदि बैठे हुए समुद्घात होता है तो अपने शरीर से तिगुने मोटे और वातवलयों की बहुलताहीन चौदह राजू लम्बे दंडरूप आत्म- प्रदेश होते हैं । दूसरे समय में दंडाकार को तजकर यदि केवली पूर्व मुख स्थित हों तो पूर्व पश्चिम खड़े हुए समुद्घात करने वालों के द्वारा दस अंगुल परिमित और बैठे हुए वं अपने शरीर से तिगुने मोटे कपाट रूप आत्म-प्रदेश होते हैं । तीसरे समय में आत्मा के प्रदेश वातवलय बिना समस्त लोक में प्रतररूप और चौथे समय में वातवलयों सहित ३४३ राजू प्रमाण लोक में घन रूप भ्रात्मा के प्रदेश व्याप्त होकर लोकपूर्ण होते हैं । पश्चात पाँचवे समय में संकुचित होकर प्रतर रूप छठे में कपाट रूप, सातवें में दंड रूप आठवें में मूल शरीर प्रमाण हो जाता है । सातवां संसारस्य अधिकर जब तक यह जीव कर्मों के वशीभूत होकर नाना प्रकार जन्म मरण करते हुए संसार में भ्रमण करता रहता है तब तक संसारी है । संसारी जीवों के मुख्यतः दो भेद हैं—स्थावर और जस । स्थावः पाँच प्रकार के हैं Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ EY कायिक | णमोकार ग्रन्थ (१) पृथ्वी कायिक ( २ ) जलकायिक ( ३ ) प्रतिकायिक ( ४ ) वायुकायिक ( ५ ) वनस्पति सजीव चार प्रकार के होते हैं-दो इन्द्रिय सद, शंख आदिक, तीन इन्द्रिय पिपीलका (चोटी) खटमल बिच्छू आदि, चतुः इन्द्रिय भ्रमर, ममी आदि। पंचेन्द्रिय के दो भेद हैं- समनस्क और श्रमनरक । पशु, पक्षी, देव, नारकी, मनुष्य प्रादि पंचेन्द्रिय हैं जिनको अपने हित-अहित पथवा गुण दोष आदि का विचार हो उनको समनस्क पंचेन्द्रिय और जो विचार शून्य हों उनको भ्रमनस्क पंचेन्द्रिय कहते हैं और बाकी के सर्वजीव अमनस्क ही जानने चाहिए। जिनमें से एकेन्द्रिय जीव बादर तथा सूक्ष्म दो प्रकार के हैं । जो पृथ्वी आदि से रुक जाए अथवा दूसरों को रोकें उन्हें बादर और पृथ्वी यादि से स्वयं न रुके और न दूसरे पदार्थों को रोकें उनको सूक्ष्म कहते हैं और ये एकेन्द्रिय भादि से लेकर सर्व ही जीव पर्याप्त पर्याप्त भेद से दो प्रकार के होते हैं । (१) आहार ( २ ) शरीर (३) इन्द्रिय (४) श्वासोच्छवास ( ५ ) भाषा और (६) मन ये छ: पर्याप्त हैं । इनमें से एकेन्द्रिय के आहार शरीर, इन्द्रिय और श्वासोच्छवास ये चार पर्याप्ति होती हैं। संनी पंचेन्द्रिय के छहों पर्याप्ति होती हैं। पर्याप्ति सहित जीव को पर्याप्त कहते हैं और जिस जीव के उत्पन्न होने पर जब तक उपर्युक्त चार पांच या छः पर्याप्त पूर्ण न हो तब तक उसे अपर्याप्त जीव कहते हैं । सिद्धत्व अधिकार यदि सामान्यतः देखा जाय तो भ्रष्ट कर्मों के नाश होने से जीव निजात्मीक, निराकुलित सुख को प्राप्त होकर धरम शरीर से किंचत न्यून आकार लिए लोक के अग्रभाग में जाकर स्थित हो जाता है और अनन्त काल पर्यन्त इसी सुखी अवस्था में रहता है ऐसे सिद्ध होजाने पर जीव सिद्ध कहलाता है। एक एक सिद्ध की उत्कृष्ट अवगाहना में अनन्त सिद्ध विराजमान होते हैं, परन्तु प्रत्येक सिद्ध महाराज की आत्मा पृथक रहती है अन्य सिद्धों से मिलकर एकीभाव नहीं होती। वह सिद्ध महाराज समुद्रवत स्थिर हैं अर्थात् उनके प्रदेश चलायमान नहीं होते हैं परन्तु समुद्र लहरवत उत्पाद, व्यय, श्रीव्य से एक सत्ता लिए स्थित है। यदि विशेष रूप से देखा जाए तो भ्रष्ट कर्मों के प्रभाव से सम्यक्त्वादि भ्रष्ट गुण उत्पन्न होते हैं जो अनादिकाल से कर्मों से आच्छादित हो रहे थे यथा— मोहनीय के प्रभाव से सम्यकरव, ज्ञानावरणी के प्रभाव से केवलज्ञान, दर्शनावरणी के प्रभाव से मनन्त दर्शन, अंतराय के प्रभाव से अनन्तवीर्य, नामकर्म के प्रभाव से सूक्ष्मत्व, भायु के प्रभाव अवगाहनत्व, गोकर्म के प्रभाव से अगुरुलधुत्व, वेदनीय के अभाव से प्रन्याबाध गुण सिद्धों के उत्पन्न होते हैं । गरिव भिकार जीव चार प्रकार के कर्म बंध के सर्वथा प्रभाव होने से यता रहित सीधापन वर्जित, प्रग्नि की शिखावत उध्यंनमन कर एक ही समय में सिद्ध क्षेत्र में जा पहुंचता है, और जब तक कर्म रहित होता है तब तक मृत्यु होने पर नवीन शरीर धारण करने के लिए आग्नेय, नैऋत्य, वायव्य, ईशान इन चार विदिशाओं को न जाकर, पूर्व, दक्षिण, पश्चिम, उत्तर चारों दिशाओंों में तथा ऊपर नीचे को, इस प्रकार छ: दिशाओं में श्रेणीबद्ध गमन करता है । संसारी जीव की गति जैसे तीर चलता है वैसी भी होती है। इसमें एक समय लगता है। यह गति मुक्त और संसारी दोनों की होती है और एक मोड़ लाकर भी होती है जैसे पानी को हाथ से अलग कर देने में एक मोड़ा जाता है। इसमें काल के दो समय लगते Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फमोकार पर हैं और दो मोड लिए भी होती है जैसे हल, इसमें तीन समय लगते हैं और तीन मोड़ा लिए भी होती है जैसे गौ का मुतना, इसमें चार समय लगते हैं। मोड़ वाली तीन प्रकार की गति संसारी जीव के होती है विग्रह गति में जीव एक या दो या तीन समय बिना आहार के रहता है और इससे अधिक रहकर फिर अवश्य नो कर्म वर्गणा रूप आहार ग्रहण कर लेता है । सारांश यह है कि जब तक वह जीव स्वाभाविक शुद्ध चैतन्य केवल ज्ञान को प्राप्त न करे तब तक अनादि कर्म संयोग से शरीर रूप प्रौर मतिज्ञान आदि विकल ज्ञान रूप रहता है। प्रथ अजीव तत्व वर्णन __ इस प्रकार जीव तत्व का कथन करने के पाश्चात दूसरे अजीव तत्व का वर्णन करते हैं चतना रहित प्रर्थात अपने प्रयवा दूसरे के न देखने जानने की शक्ति को अजीव कहते हैं । वह अजीव जिनागम में पांच प्रकार के कहे गये है। यथा -- पुद्गल, धर्म, अधर्म, प्रकाश और काल । यह लोक सर्वत्र षट् द्रव्यों से भरा हुआ है । वह छः द्रव्य ऊपर कहे हुए पाँच प्रकार के अजीव और एक जीव द्रव्य है । इन पांच द्रव्यों में धर्म, अधर्म, आकाश, काल और पुद्गल प्रमूर्तिक पौर। पुद्गल द्रव्य रूपाणि गुण संयुक्त होने से मूर्तिक है इसमें शब्द, बंध, सूक्ष्मता, स्थूलता, संस्थान, भेद, यम, छाया, आताप और उद्योत प्रादि पर्यायें होती हैं। इसकी स्वाभाविक पर्याय परमाणु और स्वभाव गुण दो अविरोधी स्पर्श, रस, वर्ण, गंध ऐसे पांच हैं जो परमाणु में होते हैं। पुद्गल की वैभाविक पर्याय स्कंध और वैभाविक गुण संयुक्त स्पर्श से स्पर्शान्तर रस से रसान्तर आदि बीस हैं तथा पुद्गल द्रव्य संख्यात प्रसंख्यात, अनन्त प्रदेशी मूर्तिक परतन्त्र क्रियावान हैं । शरीर, मन, वचन, श्वास, निश्वास से जीव द्रव्य का उपकार करता है । भावार्थ-पाहार, वर्गणादि पांच तरह के पुद्गल समूहों से शरीरादि बनते हैं । तथा सुख दुःख और जीना-मरना. ये उपकार भी पुगलों के हैं क्यों सुख दुःख मरना भी कर्म रूप पुद्गलों के कारण से होता है। पुद्गल वर्गणा छ: प्रकार की हैं (१) स्थूल स्थूल-जो खंड होकर सहज में न मिले ऐसे दुल पदार्थ जैसे पत्थर मिट्टी लकड़ी प्रादि । (२) स्थूल-जो खंड़ करने पर किसी चीज की सहायता के वैसे ही मिल जाए जैसे जल, तैल, दुग्ष मादि । (३) स्थलसूक्ष्म- जो देखने में बहुत मालूम हों परन्तु पकड़ने में न पा जैसे चांदनी, धूम, छाया प्रादि । (४) सूक्ष्म स्थल-जो नेत्रों से दृष्णिगोचर न होकर अन्य इन्द्रियों से जाने जावें जैसे शब्द, सुगन्ध, दुर्गन्ध प्रादि । ये नेत्रों के द्वारा देखने में नहीं पाते परन्तु अन्य इन्द्रियों द्वारा साक्षात् प्रगट होते हैं। कर्मवर्गणा अनेक प्रकार की है। यह इन्द्रियों को भी प्रतीत नहीं होती। बाँधा हुआ यह मात्मा प्रनादि काल से संसार में भ्रमण कर रहा है। (५) सूक्ष्म-भनेक भाति की कर्म धर्गणा जो इन्द्रिय सान गोपर नहीं होती जिनसे बंधा हुमा मह पात्मा अनादि काल से संसार में भ्रमण कर रहा है। (६) सूक्ष्म सूक्ष्म--- सबसे छोटा पुद्गल परमाणु जिसका फिर विभाग न हो सके। यह पुद्गल बज्य लोक के भीतर ही हैं। परमाणु नित्य पोर स्कंध परमाणु नाशवान है। Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११ नमोकार भेद और परमाणु संघात मिलकर स्कंध रूप होता है । स्निग्य और रूक्ष गुण से बंध होता है। यदि गुणहीन हो अथवा दोनों में समान हो अथवा एक तीन से कितने ही गुण अधिक परिच्छेद हो तो बंध नहीं होता। तात्पर्य यह है कि बंध तब ही होता है जब एक में दूसरे से दो गुण अधिक हो जैसे चार स्निग्ध वाले के साथ पांच, सात, नौ अधिक स्निग्ध वा रुक्ष बाले के साथ ही बंध होगा इसी प्रकार समस्त बंधों में दो दो गुण अधिक वाले का ही बंध होता है। इस नियम के अनुसार एक गुण वाले और तीन गुण वाले का भी बंध होना चाहिए, किन्तु वह नहीं होता क्योंकि यह नियम है कि 'न जघन्य गुणानान्तृ अर्थात जघन्य गुण सहित परमाणुषों में बंध नहीं होता है । अतएव एक गुण वाले का तीन गुण वाले के साथ बंध नहीं होता । किन्तु तीन गुण वाले का पांच गुण वाले के साथ बध हो सकता है क्योंकि तीन गुण वाला जघन्य गुण वाला नहीं है। एक मुण वाले को ही जघन्य गुण कहते हैं । पौर बंध अवस्था में अल्प गुण के स्कंध अधिक गुण वाले के ही स्कंध रूप हो जाते हैं। यह पुद्गल द्रव्य का संक्षेप में वर्णन किया है। धर्म द्रव्य वर्णन यह धर्म द्रव्य गमन करते हुए पुद्गल और जीवों को उदासीन रूप से सहकारी होता है। धर्म द्रव्य के बिना जीव या पुद्गल चल नहीं सकता है । परन्तु धर्म द्रव्य किसी स्थिर वस्तु को बलपूर्वक भी नहीं चलाता है पानी मछलियों के चलने में सहकारी होता है। किन्तु प्रेरक नहीं होता। यह द्रव्य असंख्यात प्रदेश, नित्य अविनाशी, विभाग पर्याय रहित, निष्क्रिय तिल में तलवत समस्त लोकाकाश में व्याप्त है। __ अधर्म द्रव्य वर्णन __यह पधर्म द्रध्य पुद्गल और जीवों को स्थित होते हुए उदासोन रूप से सहायता देता है जैसे मार्ग में चलने वाला पथिक वृक्ष की छाया में बैठ जाता है परन्तु वह चलते हुए मनुष्य को प्रेकर होकर नहीं ठहराता है उसी प्रकार अधर्म द्रव्य स्थिर होने को प्रेरणा नहीं करता है । यह द्रव्य भी प्रसंख्यात, प्रदेशी, अविनाशी, निष्क्रिय, प्रमूर्तिक है और तीन लोक में सर्वत्र व्याप्त है। आकाश द्रव्य वर्णन यह आकाश द्रव्य जीवादि पाँच तत्वों को अवकाश दान देने वाला, जड़, मरूपी, अनन्त प्रदेशी एक है इसमें भी स्वभाव पर्याय होती है विभाग पर्याय नहीं होती । जितने प्राकाश में धर्म द्रव्य, अधर्म द्रव्य, काल द्रव्य, पुद्गल द्रव्य और जीव द्रव्य स्थित हैं वह लोकाकाया है और जहाँ ये एक भी नहीं हैं केवल प्राकाश ही प्राकाश है वह प्रलोकाकाश है। काल द्रव्य वर्णन यह काल द्रव्य वर्तना लक्षण युक्त है। प्रत्येक द्रव्य का परिवर्तन करने वाला अर्थात् पर्याय से पर्यायांतर होने में उदासीन रूप से सहकारी होता है जिस प्रकार कुम्हार के बाक के फिरने में चाक के नीचे की कीली कारण है यद्यपि फिरने की शक्ति चाक है, चाक ही फिरता है किन्तु वह बिना नीचे की कीली के फिर नहीं सकता, इसी प्रकार जीव, पुद्गल प्रादि समस्त पदार्थ जो अपने पाप परिणमन होते रहते हैं उनके परिणमन में काल निमित कारण है। व्यवहार नय से इसकी पर्याय समय, पल, घटिका, मुहूर्त पौर दिन, सप्ताह, पक्ष, मास. अयम वर्षादि है यह निश्चय काल की पर्याय है। नवीन से पराना. पराने से नवीन करना काल द्रव्य का ही उपकार है। समय काल की पर्याय का सबसे छोटा अंश है। इसी के समूह से पावली, घटिका मादि व्यवहार काल का प्रमाण होता है। यह व्रव्य प्रवि Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार भर नाशी, प्रमूत्तिक और जड़ है इसके अणु लोकाकाश के प्रदेशों के बराबर असंख्यात हैं क्योंकि लोकाकाश के एक एक प्रदेश पर काल द्रव्य का एक-एक अणु रत्नों की राशि के समान भरा है। रत्नों की राशि का उदाहरण देने का अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार रत्न-राशि एकत्रित होने पर भी उनमें प्रत्येक रत्न पृथक-पृथक रहता है उसी प्रकार काल के अणु पृथक-पृथक हैं वे मिलकर एकत्र नहीं हो सकते, एक प्रदेशी हैं। इस कारण काल को काय संज्ञा नहीं दी जा सकती। काल को छोडकर दोष पाँच द्रव्य अर्थात धर्म, अधर्म, पुद्गल, आकाश व जीव को अतिकाय कहते हैं इनमें स्वभाव पर्याय होती है विभाव नहीं होती। इति उपरोक्त छ: द्रव्यों में से चार द्रव्य वर्णन समाप्त हुआ। धर्म, अधर्म, आकाश और काल उदासीन स्वभाव रूप और स्थिर रहते हैं और बाकी दो द्रव्यजीव और पुद्गल में ही लोकाकाश में भ्रमण की शक्ति है इससे इन दोनों को क्रियावान कहते हैं शेष चार द्रव्य निष्क्रिय होते हैं। अंजीव तत्त्व वर्णन समाप्त हुमा। इनमें जीन-अजीव दो तत्वों के अतिरिक्त शेष पाँच तत्त्वों की उत्पत्ति जीव और अजीव (पुद्गल) के संयोग तथा वियोग की विशेषता से है । जीव पुद्गल का संयोग रहना, संसार और जीव व पुदगल का अत्यन्त वियोग हो जाना मोक्ष है। इसी प्रकार मोक्षमार्ग में ये सप्त तत्त्व अति ही कार्यकारी हैं। ये प्रात्मा के स्वभाव व विभाग बताने के लिए दोपक के समान है। इसलिए सबसे पहले हमको जानना चाहिए क्योंकि इसके जाने विना दृढ विश्वास नहीं हो सकता और विश्वास बिना कर्तव्य और अकर्तव्य को यथार्थ प्रवृत्ति नहीं हो सकती। इन सप्त तत्वों को जानने का मुख्य प्रयोजन यही है जिससे प्रात्मा के स्वभाव-विभाग का श्रद्धान ऐसा हो जाए कि प्रास्त्रव के द्वारा बंध होता है और बंध जीव, अजीब का संसर्ग कर दुःख पाता है और संवर से प्रास्त्रव थकता है तथा निर्जरा से क्रमशः बंध छटता है। कर्म के सर्वथा अभाव होने से जीव को मोक्ष होता है, इससे ये दोनों मोक्ष रूप कार्य के कारण हैं इनमें से अजीव, आस्त्रब बंध हेय अर्थात त्यागने योग्य हैं और जीव, संवर, निर्जरा मोर मोक्ष ये उपादेय अर्यात ग्रहण करने योग्य हैं और मोक्ष होने पर संवर, निर्जरा भी हेय है. प्रास्त्रव, संवर और निर्जरा कारण हैं, बंध और मोक्ष कार्य हैं इन सातों तत्त्वों में पाप, पुण्य मिलाने से नव पदार्थ हो जाते हैं, इस प्रकार इन सबका श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है और तत्त्वों के ज्ञान बिना धद्वान होना असम्भव है। इसी कारण साक्षात् प्रात्मा का श्रद्धान कराने वाले सप्त तत्त्वों के वर्णन में से दो तत्त्वों का पूर्ण वर्णन कर शेष पांच तत्वों का वर्णन करते हैं। प्रास्त्रव तत्व वर्णन जीवों की मिथ्यात्व, अविरत कषायादि भावों से युक्त मन, वचन, काय को प्रवृत्ति होने से तथा उनके अभाव में पूर्व बद्ध कर्म के उदय होने से, केवल योगों द्वारा प्रात्म-प्रदेशों के चंचल होने से प्रात्मा के बद्ध होने के लिए पुद्गल परमाणुओं को सन्मुख होना द्रव्यास्त्रव और मात्मा के जिन भावों से पुद्गल द्रव्य कर्म रूप होते हैं उन भावों को भावास्थव कहते हैं। इस भावास्थय के (१) मिथ्यात्व (२) मविरति (३) कषाय (४) प्रमाद (५) योग ये पांच भेद हैं। जीवादि तत्व का अन्यथा श्रद्धान करना मिथ्यात्व है। इसके दो भेद हैं (१) ग्रहीत मिथ्यात्व और (२) प्रग्रहीत मिथ्यात्व। पर के उपदेश के बिना पूर्वोपार्जित मिथ्यात्वकम के उदय से जो प्रतत्व श्रद्धान हो उसे अगृहीत मिथ्यात्व कहते हैं। ग्रहीत Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ प णमोकार ग्रंथ मिध्यात्व के ( १ ) एकांत मिध्यात्व ( २ ) विपरीत मिथ्यात्व ( ३ ) संशय मिथ्यात्व ( ४ ) वैनयिक मिथ्यात्व और (५) प्रज्ञानिक मिथ्यात्व ऐसे पाँच भेद हैं। (१) पदार्थों में अनेक धर्म होते हैं उनमें से सबका प्रभाव कर एक ही धर्म को मान केवल उसीका श्रद्धान करना उसे एकांत मिथ्यात्व कहते हैं । (२) सग्रंथ निर्ग्रन्थ हैं, केवली ग्रासाहारी हैं, स्त्री को मोक्ष होता है, इस प्रकार विपरीत रुचि को विपरीत मिथ्यात्व कहते हैं । (३) घने मतों को सुनकर रत्नत्रय मोक्ष मार्ग है या नहीं तथा धर्म, अहिंसा लक्षण है या नहीं इत्यादि संदेह रूप श्रद्धान को संशय मिध्यात्व कहते हैं । ( ४ ) समस्त देव, कुदेव, धर्म, अधर्म, शास्त्र, कुशास्त्र' इन सबको एक-सा समझना या सच्चे तत्वों और झूठे तत्त्वों को एक-सो महत्त्व की दृष्टि से देखना, मानना, वैनियिक मिध्यात्व कहते हैं । (५) देव, कुदेव, धर्म, कुधर्म, शास्त्र, कुशास्त्र, तत्व, कुतत्त्व तथा वक्ता, कुवक्तादि संसार तथा मोक्ष के कारणों में हिताहित की परीक्षा रहित श्रद्धान करना श्रज्ञानिक मिध्यात्व है । काय के जीवों की रक्षा तथा इन्द्रिय और मन की विषयों से प्रवृत्ति के न रोकने को प्रति रत कहते हैं। वह बाहर प्रकार का है 1 स्पर्शंन, रसना, घ्राण. चक्षु और श्रोत्र तथा मन इनको वश में न करना इनके विषयों में सदैव लोलुपी बने रहना तथा पृथ्वी कायिक अपकायिक, तेजकायिक, वायुकाधिक और वनस्पतिकायिक तथा द्वीद्रियादि सकाय वाले जीवों की रक्षा करना सो अविरति है । जो ग्रात्मगुण धातकर क्लेशित करें सो कषाय है। इसके चार भेद हैं-क्रोध, मान, माया और लोभ, इन चारों में से प्रत्येक के शक्ति की अपेक्षा के तीव्रतर तीव्र, मन्द श्रौर मन्दतर ऐसे चार भेद हैं। ऐसे कषाय के क्रोध, मान, माया, लोभ १६ भेद और हास्य, रति, श्ररति श्रादि नौ कषाय के नवभेद, इस प्रकार सब मिलाकर इसके २५ भेद हैं । चार अनंतानुबन्धी कोष, मान, माया, लोभ ये कषाय अनन्त संसार का कारण मिथ्यात्व तथा सप्तव्यसनादि अन्याय रूप क्रियाओं में प्रवृत्ति कराने वाला और ग्रात्मा स्वरूपाचरण चारित्र का घातक चार प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ, यह कषाय आत्मा के देश चारित्र का घातक है अर्थात् श्रावक के व्रत इसके उदय होते हुए रंचमात्र भी नहीं होते, तथापि अनन्तानुबन्धी कषाय के प्रभाव से सम्यत्व होने पर अन्याय रूप विषयों में प्रवृति नहीं होती है। चार प्रत्याख्यान क्रोध, मान, माया, लोभ ये कषाय आत्मा के सकल चारित्र के घातक हैं अर्थात इसके होते हुए पंच महाव्रत नहीं हैं । यह कषाय भेद हैं । इस कारण क्षयोपशम के अनुसार श्रावक व्रत हो सकते हैं। चार संज्वलन कोष, मान, माया, लोभ यह कषाय, मात्मा के यथाख्यात चारित्र के घातक हैं अर्थात यह कषाय प्रति मन्द होने के कारण संयम के साथ उदय होते हुए भी संयम का घात नहीं करता है केवल इसका उदय यथाख्यात चारित्र का ही घातक है। नौ कषाय के नौ भेद: (१) हास्य - जिसके उदय होने से हँसी उत्पन्न हो । (२) रति-जिसके उदय होने से विषयों में ग्रासक्खता हो । (३) परति-जिसके उदय होने से पदार्थों में मप्रीति उत्पन्न हो । (४) शोक – जिसके उदय होने से वित्त में खेद उत्पन्न हो । (५) भय - जिसके उदय से चित्त में उद्वेग हो । Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मौकार प्रय (६) जुगुप्सा–जिससे पदार्थों में ग्लानि रूप भाव हो । (७) वेद-जिसके उदय से स्त्री से रमने की इच्छा हो । (८) स्त्रीवेद-जिसके उदय से पुरुष से रमने की इच्छा हो। (६) नपुंसक वेद-जिसके उदय होते ही स्त्री-पुरुष दोनों से रमने के भाव हों। इस प्रकार कषाय के समस्त पच्चीस भेद होते हैं ? निरतिधारपर्वक चारित्र पालने में निरुत्साही व मन्दोद्यमी होने को प्रमाद कहते हैं। इसके पन्द्रह भेद होते हैं-स्त्रीकथा, राजकथा, भोजनकथा, और देशकथा ये नार विकथा, क्रोध, मान, माया लोभ ये चार कषाय, स्पर्श, रसना, घ्राण, चक्षु और कर्ण ये पांच इन्द्रिय, स्नेह और निद्रा-ऐसे पन्द्रह प्रकार प्रमाद है। स्त्रियों के अंग, हाव, भाव, वस्त्र और आभूषण प्रादि का वर्णन करना, उसके नेत्र कमल समाहै, गतिहिने रमाग है जिसः स बहुत सुन्दर रूपवान है इत्यादि वर्णन करना स्त्रीकथा है। प्रमुक राजा कायर है, हमारा राजा शूर है, अमुक राज्य में घोड़ा तथा हाथी बहुत अच्छे होते हैं, अमुक राज्य में सेना बहुत है इत्यादि वर्णन करना राजकथा है। लड्डू बरफी प्रादि पदार्थ खाने में अच्छे होते हैं, अमुक मनुप बहुत प्रोति से भक्षण करता है, मुझको भी ये पच्छे लगते हैं अमुक मिष्ठान अमुक देश में बहुत अच्छा बनता है, उसको मैं भी मंगाकर खाऊंगा। इस प्रकार खाने पीने की कथा को भुव कथा या भोजनकथा कहते हैं। दक्षिण देश में अन्न की उपज अधिक होती है. वहाँ के निवासी भी अधिक विलासी है, पूर्व देश में अनेक प्रकार के वस्त्र, गुड़, शक्कर, बावल आदि होते हैं, उत्तर देश के पुरुष शूर होते हैं, वहीं गेहूं अधितर उत्पन्न होते हैं, कुम-कुम, दाख, दाहिम प्रादि सुगमता से मिलते हैं, पश्चिम देश में कोमल वस्त्र होते हैं, वहाँ जल निर्मल और स्वच्छ होता है इत्यादि देशों का वर्णन करना सो देशकथा है। ___इस प्रकार ये चार विकथाएं हैं। यदि ये ही कथायें राग-द्वेषरहित धर्मकथा के रूप से केवल प्रथं और काम पुरुषार्थ दिखलाने के लिए कहे जायें तो विकथा नहीं कही जा सकती हैं। कषाय के चार भेद (१) अपने और पर के घात करने के परिमाण तथा पर के अपकार करने रूप भाव अथवा क्रूर भाव क्रोध है। (२) जाति, कुल एश्वर्यादि से उद्धत रूप तथा अन्य से नम्रोभूत न होने रूप परिणाम मान है। (३) अन्य के ठगमे निर्मिस कुटिलता रूप माया है। (४) अपने उपकारक द्रव्यों में अभिलाषा रूप भाव व लोन है। ऐसे धार कषाय हैं । स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र इन पांचों इन्द्रियों के विषयों में स्वच्छन्द रूप से प्रवृत्ति और स्नेह के वशीभूत होकर-यह मेरा है, मैं इसका स्वामी हूँ -इत्यादि दुराग्रह। को स्नेह वा प्रणय अथवा मोह कहते हैं । जो खाये हुए अन्न के परिपाक होने में कारण हैं अथवा मद, खेद प्रादि दूर करने के लिए जो सोना है उसे निद्रा कहते हैं । ऐसे पन्द्रह प्रमाद का वर्णन किया। योग-मन, वचन, काय के निमित्त से प्रारमा के प्रदेशों के चंचल होने को योग कहते हैं। वे योग पन्द्रह प्रकार के हैं --चार मनोयोग, बार वचन योग पोर सात काययोग, अब इनका वर्णन Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० णमोकार मंच (१) मन की सत्यरूप प्रवृत्ति सत्य मनोयोग है । (२) मन की प्रसत्यरूप प्रवृत्ति असत्य मनोयोग है। (३) मन को सत्यासत्य मिश्ररूप प्रवृत्ति उभय मनोयोग है (४) मन को असत्य-सत्य के विकल्प रहित प्रवृत्ति अनुभव मनोयोग है। (५) वचन की सत्यरूप प्रवृत्ति सत्यवचन योग है। (E) वचन की असत्यरूप प्रवृत्ति असत्यवचन योग है। (७) वचन की सत्यासत्य मिथरूप प्रवृत्ति मिश्र वचन योग है। (८) वचन की सत्य-असत्य के विकल्प रहित प्रवृत्ति अनुभव वधन योग है (6) प्रौदारिक शरीर की प्रवृत्ति प्रौदारिक काय योग है। (१०) प्रौदारिक मिथ काय योग प्रवृत्ति प्रोदारिक मिश्र काय योग है। (११) वैक्रियिक शरीर पर प्रवृत्ति कि कामो है। (२) इंजियिक मिश्र काययोग की प्रवृत्ति बैंक्रियक मिश्र काययोग है । (१३) पाहारक शरीर की प्रवृत्ति आहार काययोग है। (१४) आहारक मिश्र काययोग की प्रवृत्ति प्राहारक मिश्र काययोग है । (१५) कार्माण शरीर की प्रवृत्ति कार्माण काययोग है। जब मन, वचन, काय केभावती कषाय रूप होते हैं तब पायास्त्रव होता है और जब मंद कषाय रूप होते हैं तब पुण्यासव होता है । कषाय सहित जीव के स्थिति लिए हुए संसार का कारण रूप जो प्रास्त्रव होता है इसे सोपरायिक प्रास्त्र कहते हैं और जब कषाय रहित पूर्ववद्ध कर्मानूसार योगों की क्रिया से स्थिति रहित आस्त्रव होता है उसे ईपिकि प्रास्त्रव कहते हैं। साँपरायिक पासव में प्रकृति बंध, प्रदेश बंध स्थिति बंध और अनुभाग बंध प्रादि चारों प्रकार का बंध होता है ये प्रास्त्रव समस्त संसारी जीबों के होता है। ईपिथिक मास्त्रव में केवल प्रकृति बंध और प्रदेश बंध ऐसे दो ही प्रकार का बंध होता है। ये प्रास्त्रव उपशांत कषाय, क्षीण कषाय तथा सयोग केवली नामक गुणस्थान बालों के होता है और प्रयोग केयली नामक चोदहवें गुणस्थान में मन, वचन, काय के योगों का प्रभाव होने से प्रास्त्रव का प्रभाव है ये समान्यप्रास्त्रव के भेद हैं। अब ज्ञानावरणादि माठ कर्मों के प्रास्त्रव होने के विशेष-२ कारण कहते हैं । {१) यदि कोई धर्मात्मा मोक्ष मार्ग के कारण भूत तत्व ज्ञान को कथनी कर रहा हो परन्तु उसका श्रवण कर ईर्ष्या भाव से न सराहना तथा चुप हो जाना, इस प्रकार के भाव को प्रदोष कहते हैं। २) शास्त्र ज्ञाता जानकर कोई तत्वार्थ धर्म का स्वरूप पूछे तो उस विषय को जानते हुए भी "मैं इस विषय को नहीं जानता" ऐसा कह कर उसको न बताना निह्नव भाव हैं। (३) यह पढ़कर मेरे समान विद्वान हो जाएगा । इस ईष्या से किसी को न पढ़ाना मात्सर्य भाव है। १४) किसी के विद्याभ्यास में विघ्न कर देना पाठशाला पुस्तकादि का विच्छेद कर देना प्रथवा जिस कार्य से विद्या की वृद्धि होती हो उसमें विध्न कर देना अंतराय है। (५). पर प्रकाशित ज्ञान को रोक देना आसादन तथा आच्छादन भाव है। (६) प्रशस्त ज्ञान को दूषण लगा देना उपघात है। यदि ये छ: कारण के विषय में हों तो शानावरण कर्मों का और दर्शन के विषय में हों तो दर्शनावरण कर्मों का पास्त्रव होता है । यद्यपि मास्त्रव प्रत्येक समय प्रायु कर्म के अतिरिक्त सातों को का होता है तथापि स्थिति बंध और अनुभाग बंध की अपेक्षा से ये विशेष कारण कहे गए हैं । अर्थात ऐसे - भावों से इन-इन शानावरणादि प्रकृतियों में स्थिति अनुभाग अधिक-अधिक पड़ते हैं और शेष प्रकृसियों में कम-कम पड़से हैं जैसे शुभयोग से पुण्य प्रकृतियों में स्थिति अनुभाग अषिक पड़ता है पोर पाप Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार ग्रंथ प्रकृतियों में कम पड़ता है और जब अशुभ योग होता है तब पाप प्रकृतियों में स्थिति अनुभाग अधिक और पुण्य प्रकृतियों में कम पड़ता है। प्रथ असाता वेदनीय कर्म के कारण:(१) पीड़ा रूप परिणाम दुःख है । (२) अपने उपकारक द्रव्य के वियोग होने पर परिणाम मलिन करना, चिंता करना, खेदरूप होना सो शोक है। (३.) निद्य कार्यजनित अपनी अपकीर्ति सुनकर पश्चाताप करना ताप है । (४) ताप होने के कारण प्रश्रुपात सहित विलाप करना, रुदन करना आक्रन्दत है । (५) आयु, वल इन्द्रियादि प्राणों का वियोग करना वध है।। (६) अश्रुपात सहित ऐसा विलाप करना कि जिससे सुनने वाले के चित में दया, उत्पन्न करने से असाता वेदनीय कर्म का प्रास्त्रव होता है। प्रय प्रसाता वेरनीय कर्म के मुख्य कारणःभूत अर्थात् सामान्य प्राणी और वृत्ति अर्थात् अहिंसादि ब्रतों के धारण करने वाले धाबकादि की पर पीड़ा देखकर ऐसे परिणाम होना मानों यह दुःख हम को ही हो रहे हैं, उनको दत्त चित्त होकर दूर करने का प्रयत्न करना भूतवत्यनुकम्पा ही अपने और पर के उपकार के लिए प्रौषधि माहारादि चार प्रकार के पदार्थों का देना दान है। दृष्टकर्मों के नाश करने में राग सहित संयम को तथा धर्मानुराग सहित संयम अणुबत ग्रहण करने को सराग संयम कहते हैं। अपने अभिप्राय रहित पराधीनता से यथा रागादि के भोगोपभोग का अवरोध होना अकाम निर्जरा और तत्त्वों के यथार्थ स्वरूप से अनभिज, मिथ्या दृष्टियों का अज्ञान पूर्वक तप करना, मन, वचन, काय के योगों का शुभ रहना, क्रोध का प्रभाव कर क्षमा भाव करना, लोभ का निराकरण कर उत्तम शौच धारण करना--इन छ: प्रकार के भावों से साता वेदनीय कर्म का प्रास्त्रव होता है । वर्शन मोहनीय प्रास्त्रव के विशेष कारण (१) चार घातिया कर्म रहित, अनन्त चतुष्ट्य संयुक्त केवली भगवान के क्षुधा, तृषा, प्राहार निहार आदि असम्भव दोषों का कहना केवली का प्रवर्णवाद है। (२) आप्तोक्त अहिंसा धर्मोपदेशी शास्त्र में मद्य, मांस मधु तथा रात्रि-भोजन आदि का ग्रहण कहा है इत्यादि दोष लगाना शास्त्र का प्रवर्णवाद है। (३) परिग्रह वजित निम्रन्थ दिगम्बर मुनियों के संघ को निर्लज्ज आदि दोष लगाना मुनि संघ का प्रवर्णवाद है। (४) हिंसा रहित दयामयि जैन धर्म के सेवन करने वाले परभव में नीच गति को प्राप्त होते हैं इत्यादि दोष लगाना धर्म का प्रवर्णवाद है। (५) चार प्रकार के देवों को मांस भक्षी, सुरापानी तथा सप्त धातुमय मानुषी शरीर से काम सेवन करने वाला बताना देवावर्णवाद है। उपर्युक्त इन भावों से दर्शन मोहनीय कर्म का पात्रक होता है। द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव के कारण कषायों के उदय होने से तीन परिणाम होना और इसी कारण वचन भी कठोर निकालना शरीर से दुष्टाचरण करना इनसे चरित्र मोहनीय के कषाय वेदनीय फर्म का प्रास्रव इस भांति जानना चाहिए। Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार (१) दीन दु:खी की हंसी तथा वृथा प्रलाप करने से हास्य का प्रास्त्रव होता है। (२) योग्य काम को नहीं रोककर दीन दुःखी की बाधा दूर करने से रति का आस्रव होता है। (३) दुष्ट क्रिया में उत्साह करने तथा कुसंगति से अति का पासव होता है। (४) स्वयं रंज के करने से तथा दूसरों के कराने से तथा दूसरे को शोकयुक्त देखकर प्रसन्न होने से शोक प्रास्त्रव होता है। (५) आप भययुक्त रहने, दूसरे को भय कराने भययुक्त देखकर निर्दयी होकर हर्षित होने से भय का आस्रव होता है। (६) पात्मज्ञानी, शरीर संस्कार रहित तपस्वियों की निन्दा करने से तथा उनके शरीर को देखकर घृणा उत्पन्न करने से जुगुप्सा का पारख व होता है । (७) काम की अनि तीनता से पर स्त्री का रागपूर्वक प्रादर करने तया स्त्रियों के समान हाव भाव, आलिंगन आदि करने से स्त्रीवेद का प्राव होता है। (८) रत्री सेवन में अल्प राग करने अर्थात् अपनी ही स्त्री में सन्तोष रखने से तथा बार-बार संस्कार जो गंध पुष्पमालादि आभरण से अनादर करने में निष्कपट रहने से पुरुषभेद का प्रास्रव होता है । (8) चार कषायों को तीव्रता से गुह्य न्द्रिय के छेदन करने से, स्त्री पुरुष के काम सेवन के अंगों को छोड़कर अनंग सेवन करने से, तथा ब्रह्मचारियों को बत से चलायमान करने से, महावतियों को बत से डिगाने से नपुसकवेद का प्रायव होता है। अथ आयु कर्म के आसव के विशेष कारण : बहुत प्रारम्भ करना और परिग्रह में बहुत ममत्व करना नरकायु के प्रास्रव के कारण हैं अर्थात् जो जीव पृथ्वी, वस्त्र, प्राभूषण आदि अपने उपकारक पदार्थों का बहुत संग्रह करने की तीव्र इच्छा अन्याय, चोरी, मायाचार असत्य भाषण प्रादि जिस उपाय से प्राप्त वे हों चाहें दूसरे का सर्वस्व जाता रहे हमें तो लाभ हो जाये ऐसे सोचने वाले मनुष्यों के अवश्य नरकायु का प्राव होता है। दुष्ट विचारों का करने वाला दुराग्राही, निर्दयी, मद्य, मांस के सेवन में लंपटो अनंतानुवन्धी कषायों सहित हिंसक, र परिणामी, कृत्य, प्रकृत्य, का विचार न करने वाला, बहुत परिग्रह और प्रारम्भ करने बाला इत्यादि कृष्ण लेश्या के धारक तथा रौद्र ध्यानी मनुष्यों को भी नरकायु का ही प्रास्त्र व कहा है। बहुत मायाचार करना तिर्यंच आयु के प्रास्त्रव का कारण है। अन्य के ठगने के निमित्त कुद्धिलता करना, माया और उसका प्राचरण करने वाला मायाचारी कहलाता है। शोक, भय, मत्सरता, ईया, पर निन्दा करने में तत्पर, सदा अपनी प्रसंशा करने वाला, अहंकाररूप ग्रह से घिरा हुमा, दूसरे के यश का नाश करने वाला, इत्यादि कापोत लेश्या के धारण करने वाला तथा चेतन अथवा प्रचेतन, प्रिय बस्तु के वियोग होने पर शोक करना अनिष्ट चेतन व प्रचेतन पदार्थ के संयोग होने से चित्त कुलषित रखना, योगी होने पर उपाय को न करने से सदैव चिन्ता में मग्न रहना, और मरण पश्चात पागामी भोगों-उपभोगों की प्राप्ति में चित्त की इच्छा बनाए रखना, ऐसे प्रात्त ध्यानी मनुष्य भी तिर्यच पायु के पास्रव करने वाले होते हैं। थोड़ा पारम्भ, थोड़ा परिग्रह, कोमल परिणाम और सरल स्वभाव से मनुष्य प्रायु का पासव होता है सपा सबको समान देखने वाला हितकारी प्रिय, मिष्टभाषण, दान, शूर, दयालु, सत्कर्मों में निपुण विनयवान, दान, पूजा, सज्जन पुरुषों का प्रेमी, निष्कपट श्रादि शुभ भाव, शुभ व्यवहार से प्राणी मनुष्य पायु का पालन करते हैं। Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पमोकार प्रेम दिखत, देशवत प्रादिवत, सप्तशील तथा अहिंसा प्रादि पंचाणुव्रतों को धारण न करने वाले के शुभ-अशुभ भाव और व्यवहार के अनुसार चारों गतियों का प्रास्रव होता है और सरल स्वभाव पारम्भ गरिहवाहित मनात माहित होने पर भी वायु का प्रारूव होता है। जैसे-भोग भुमि में उत्पन्न होने वाले स्वर्ग ही जाते हैं और सराग संयम, संयमासंयम, अकाम निर्जरा और बाल नप ये भी देव प्रायु के पासव के कारण हैं । सराग संयम (राग सहित संयम) संयमागंयम (वस हिमा के त्याग संयम और स्थावर हिंसा के प्रत्यागरूप संयम) से प्रर्थात सम्यकत्व सहित प्रणवत ग्रादि द्वादमा बों के पालन करने से स्वर्गीय देव प्रायु का प्रास्रव होता है और अकाम निर्जरा अर्थात परवश भुख. 'यास ताइन, मारन, दुर्वचन सहना, दीर्घकाल पर्यत रोग आदि कष्ट भोगना और उसी अवस्था में मन्द कयाय रूप परिणाम रखना तथा प्रज्ञान तप अर्थात आत्मज्ञान रहित, भावना को शुद्धता में न पहुंच कर लप करना इनसे भवन्त्रिक देवनायु का अथवा स्वर्ग में नीच देव प्रायु का प्राव होता है 1 जो गीत सम्यग्दृष्टि होते हैं उनके नियम से भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी देव प्रायु यजित कल्पवासी देव प्राय का ही पासव होता है। नाम कर्म के प्रास्त्रव के कारण ___ मन, वचन, काय की कुटिलता अथवा मिथ्या सम्वाद के परिणाम, अशुभ नाम के प्राव के कारण हैं जैसे झूठी शपथ खाना, मद करना, दूसरों को कुरूप अथवा बुरे अंगोपांग वाला देखकर नकल चिढ़ाना तथा देखकर प्रसन्न होना इत्यादि तथा इससे विपरीत मन, वचन, काय को सरलता, विसंवाद के परिणाम का अभाव, शुभ नाम कर्म के मानव का कारण है जैसे धर्मात्मा पुरुषों को देखकर प्रसन्न होना, दूसरे को रूपवान तथा सुन्दर अंगोपांग सहित देखकर द्वेष भाव न करना, प्रमाद न करना इत्यादि और षोडश कारण भावना के धारण करने से तीर्थंकर नाम कर्म प्रकृति का प्रास्रव होता है। षोडश कारण भावना: (१) पच्चीस दोष (शंका कांक्षा प्रादि पाठ दोप, पाठ मद, छ: अनायतन और तीन मूढ़ता) रहित निरतिचार सम्यकत्व धारण करना दर्शन विशुद्धि भावना है । (२) दर्शन, ज्ञान, चरित्र में तथा दर्शन ज्ञान, चरित्र के धारकों तथा देव, शास्त्र गुरु, और धर्म में प्रत्यक्ष रूप से निरभिमानी होकर सविनय प्रणाम करना, प्रादर सत्कार और उच्चासन देना विनय सम्पन्नता है। (३) अहिंसा आदि अणुव्रत और दिग्विरत प्रादि सप्तशीलों का निरतिचार पालन करना शीलनतेष्वतीचार भावना है। (४) सदैव ज्ञान में उपयोग लगाना प्रभीक्षण ज्ञानोपयोग भावना है। (५) संसार के दुखों से डरते रहना संवेग भावना है। (६) शक्ति समान दान देना शक्तितस्त्याग है। (७) शक्ति के अनुसार तप करना तप भावना है । (८) मुनियों का उपसर्ग मिटाना साधु समाधि है। (8) रोगी मुनियों की सेवा करना वयावृत्य है । (१०) अरहन्त भगवान की भक्ति करना और उनके गुणों का चिन्तवन करना पहंदभक्ति है। (११) स्वय पंचाचार पालन करने वाले तथा मुनि समूह को पालन करवाने वाले संघाधिपति माचार्य के गुणों में अनुशासन करना- आचार्य भक्ति है। Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ममौकारप (१२) ग्यारह अंग और चौदह पूर्व के ज्ञाता, एवम् पच्चीस गुण के धारक उपाध्याय परमेष्ठी की भक्ति करना बहुश्रुत भक्ति है।। (१३) अहिसा धर्म के प्रापक वीतरागोक्त शास्त्र के गुणों में अनुराग करना प्रबचन भक्ति है। (१४) सामायिक, वन्दना, स्तवन, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और कायोत्सर्ग इन छ: प्रावश्यकों में हानि न करने, इनको सम९९ करनायकापरिहापिमान है। (१५) स्यावाद विद्या का अध्ययन कर अज्ञान रूप अन्धकार के विस्तार को दूर कर अन्य मतावलम्बियों को ग्राश्चर्य में डालने वाले मोक्षमार्ग का प्रभाव बढ़ाना मार्ग प्रभावना है। (१६) साधर्मी जनों से निष्कपट समीचीन भाव सहित गोवत्ससम् अटूट प्रीति करना प्रवचनवात्सलत्व है। इस प्रकार ये सोलह भावना तीर्थकर प्रकृति के प्रास्रव का कारण हैं। गोत्र कर्म के प्रालय के कारणः -- अपने गुण तथा दूसरे के दोष, अभिमान तथा ईर्ष्या से प्रगट करना तथा अपने अवगुण और दूसरे के गुणों का माच्छादन करना, निर्दोष को दोष लगाना, अपनी जाति, कुल, रूप, बल, ऐश्वर्य, विद्यादि का गर्व करना, दूसरे के विद्यमान गुण देख कर उसकी निन्दा करना, हंसी करना तथा उसे मानी बताना देव, गुरु, धर्म तथा अपने से वृद्धजनों का आदर, विनय, सत्कार नहीं करना ये सब नीव गोत्र के प्रास्त्रव के कारण हैं। नीच गोत्र के प्रास्रव के विपरीत के कारण अर्थात अपनी निंदा, पर की प्रशंसा करना, पराए, गुण व अपने अवगुण प्रकाट करना, अपने गुण व पर के अवगुण ढांकना, अभिमान न करना, अपने से बद्धों की विनय करना, जाति, कुल, ऐश्वर्य, बल, रूप, विद्यादि गर्व के कारण होते हुए मद नहीं करना ये ऊँचे गोत्र कर्म के प्रास्रव के कारण हैं । अन्तराय कर्म के प्रास्त्राव के कारण ___कोई दान देता हो अथवा दान देने की इच्छा करता हो उसमें विघ्न करने से दान अन्तराय का, किसी को लाभ होते देखकर उसमें विघ्न करने से लाभ अन्तराय का, दूसरे के उपयोग या भोग में आने योग्य सामग्री के प्राप्त होने में विघ्न करने से भोगोपभोग अन्तराय का, किसी के बल, वीर्य में विघ्न डालने से वीर्यान्तराम कर्म का प्रास्रव होता है। __इस प्रकार ज्ञानावरणादि पाठ कर्मों के शुभाशुभ प्रास्त्रब होने के प्रधान-प्रधान कारणों का वर्णन किया। अथ वष तथ का वर्णनजो आत्मा के राग, द्वेष प्रादि अशुद्ध परिणाम कर्मरूप पुद्गल परमाणुओं को मात्मा के प्रदेश से वचने के कारण हों उनको भाव बंध कहते हैं और वही कर्मरूप पुद्गल जब प्रात्मा के प्रदेशों से एक क्षेत्रवागाही होते हैं उसे द्रव्य बंध कहते हैं। वह बंध चार प्रकार का होता है-(१) प्रदेश बंध (२) प्रकृति बंध (३) स्थिति बंध (४) अनुभाग बंध । (१) प्रात्मा के मन, वचन, काय की क्रिया से कमरूप पुद्गल परमाणुमों का आत्मा के प्रदेशों से एक क्षेत्रावगाही रूप होना प्रदेश बंध है। (२) कर्म वर्गणाओं में पृथक्-पृथक् प्रात्मगुण के घात करने को प्रकृति बंध कहते हैं । Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार ग्रंथ (३) जितने काल तक कर्म वर्गणा ससा रहे, रस देकर निर्जरित हो, उस काल की मर्यादा को स्थित बंध कहते हैं। (४) तीन, मंद रस देने की जो कर्मों की शक्ति है उसे अनुभाग बंध कहते हैं। प्रवेश बंध वर्णन प्रात्मा के मन, वचन, काय रूप योग विशेषों के द्वारा ज्ञानावरणादि प्राप्ट कर्मों के होने योग्य कर्म वर्गणानों का प्रात्मा के साथ एक क्षेत्रावगाही होना प्रदेश बंध है। सर्व संसारी जीवों के प्रत्येक समय में अभव्य राशि से अनन्त गुणा और सिद्ध राशि से अनन्तवें भाग ऐसे मध्य के अनन्तानन्त प्रमाण को लिए हुए कार्माण वर्गणाओं का बंध होता है । इन प्रत्येक समय में प्रष्ट कर्मों का भिन्न-भिन्न न्यूनाधिक विभाग होता है वह इस प्रकार का है सबसे अधिक वेदनीय का, क्योंकि वेदनीय कर्म सुख-दुख का कारण है इसलिए इसकी निर्जरा बहुत होती है, इससे किंचित् न्यून मोहनीय का है, उससे किंचित् न्यून ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अन्तराय इन तीनों को बराबर-बराबर भाग इनसे कचित् न्यून नाम और गोत्र दोनों का बराबर-बराबर और सबसे कम प्रायुकर्म का विभाग होता है। प्रत्येक समय में बंधी हई कार्माण धर्गणामों में सात कर्म रूप बंटवारा और प्रायु बंध के योग विभाग के अन्तम हर्त काल में आठ कम रूप बंटवारा होता है जैसे एक बार ही खाया हुआ एक ग्रास रूप में अन्न का, रक्त, रस, मांसादि सप्तधातु रूप में परिणमन हो जाता है। प्रकृति बंध का वर्णन-- प्रकृति नाम स्वभाव का है जैसे नीम की प्रकृति कटु, गन्ने की मीठी, नीबू की खट्टी, ऐसे ही कर्मों के विभाग में आई हुई वर्गणाओं में उसी स्वभाव वाली प्रकृति का पड़ जाना प्रकृति बंध है जैसे ज्ञानावरण की प्रकृति ज्ञान रोकने की, दर्शनावरण की प्रकृति दर्शन रोकने की, वेदनीम की सुख-दुःख जानने की, मोहनीय की भ्रम उपजाने की, अन्त राय की विघ्न करने की, आयु की भव में रखने की, गोत्र की ऊँच-नीच करने की, नाम कर्म की अनेक योनियों में नाना प्रकार शरीर रचने की प्रकृति होती है। ये प्रष्ट कर्मों की सामान्य प्रकृति बंध का स्वरूप वर्णन किया। अब विशेष तथा अन्तर प्रकृतियों के बंध तत्त्वों का स्वरूप कहते हैं। प्रथम कर्म ज्ञानावरणी की पांच प्रकृतियां हैं। (१) प्रावरण नाम परदे वा ढकने का है जो मन पोर इन्द्रियों से उत्पन्न मतिज्ञान का प्रावरण करे वह मतिज्ञानावरण है। (२) जो मन अनित अक्षरात्मक, प्रनक्षरात्मक ज्ञान का आच्छादन करे वह श्रुत ज्ञानावरण है । (३) जो देशावधि, परमावधि, सर्वावधि इन तीनों भेद रूप अवधिज्ञान का प्रावरण करे वह अवधिज्ञानावरण है। (४) ऋजुमति, विपुलमति भेद रूप जो मनःपर्यय ज्ञान का भावरण करे वह मनःपर्यय सानावरण है। (५) जो सर्व द्रव्यवर्ती, त्रिकालवर्ती अनन्त पर्शयों के जानने वाले केवल ज्ञान का प्रावरण करे यह केवल ज्ञानावरण है। ये पाच प्रकृतियां प्रात्मा की शान शक्ति को रोकती है। दूसरी मूल प्रकृति दर्शनावरण की है उसको उत्तर प्रकृति नौ हैं। Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार ग्रंथ (१) जो नेत्रजनित दर्शन को रोके अर्थात् जिसके उदय से नेत्र रहिन एकेन्द्रिय तथा विकलत्रय अथवा पंचेन्द्रिय शरीर प्राप्त हो तो नेत्रान्ध वा न्यून दृष्टि हो वह चक्षुदर्शनावरण है। (२) जिसके उदय होने से नेत्र रहित त्वचा, जिल्ला, घाण, यात्र जनित स्पर्श, रस, गन्ध का दर्शन न हो, वह श्रचक्षु दर्शनावरण हैं । (३) विषय और इन्द्रियों के योग से सामान्य सत्तामात्र के ज्ञान को दर्शन कहते हैं उसके उदय से द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, की मर्यादा के अवधि ज्ञान से पहले होने वाला सामान्य दर्शन न हो वह अवधि दर्शनावरण है । १०६ (४) केवल ज्ञान के साथ होने वाले सामान्य अवलोकन का जो प्रावरण करे वह केवल दर्शनावरण प्रकृति है । ( ५ ) जो सामान्य रूप से अचेत कर पदार्थों के देखने को रोकती है वह निन्द्रा, दर्शनावरण प्रकृति है । (६) जो अधिक अचेत कर पदार्थों के सामान्य अवलोकन को रोकती है वह निन्द्रा, निन्द्रा दर्शनावरण प्रकृति है । (७) जिसके उदय से बार-बार निन्द्रा प्राती है और कुछ चेत सहित श्रम, मद आदि के कारण बैठे-बैठे शरीर में निन्द्रा का आवेश हो व जो पंचेन्द्रियों के व्यापार का निरोध कर पदार्थों के देखने को रोकती है वह प्रचला दर्शनावरण प्रकृति है । (८) जो एक निद्रा पूर्ण न हो और दूसरी गहरी निन्द्रा का श्रावेश हो जाये, मुख से राल बहने लग जाय, नेत्र, गात्र चलायमान हो जायें, सुई आदि तीक्ष्ण पदार्थों के लगने से भी चेत न हो उसे प्रचला दर्शनावरण प्रकृति कहते हैं । (६) जिस निन्द्रा के आने से मनुष्य चैतन्य सा होकर अनेक रौद्र कर्म कर लेता है और अचेत हो जाता है प्रथवा सचेत होने पर उसे कुछ भी स्मरण नहीं रहता कि मैंने अचेत अवस्था में क्या-क्या काम कर डाले तब उसको स्त्यानगृद्धि दर्शनावरण कर्म प्रकृति कहते हैं । पदार्थों के समान्य अवलोकन को रोकने वाले दर्शनावरण कर्म के ऐसे नी भेद हैं । तीसरी मूल प्रकृति वेदनीय कर्म के दो भेद हैं । - ( १ ) साता वेदनीय (२) असाता वेदनीय । जिसके उदय से जीव की इच्छा के अनुकूल शारीरिक, मानसिक सुख के कारण पदार्थों की प्राप्ति हो उसे सातावेदनीय कहते हैं और जिसके उदय से दुःख दायक जीव की इच्छा के प्रतिकूल अन्य पदार्थों की प्राप्ति हो उसे असातावेदनीय कहते हैं । atrt मूल प्रकृति मोहनीय है। उसके दो भेद हैं - ( १ ) दर्शन मोहनीय और (२) चरित्र मोहनीय | इनमें से दर्शन मोहनीय के सम्यक्त्व, मिध्यात्व और सम्यक् मिथ्यात्व अर्थात् मिश्र मोहनीय ये तीन और चरित्र मोहनीय के श्रकषाय मोहनीय और कपाय मोहनीय ये दो भेद हैं । कषाय मोहनीय हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद ऐसे नौ प्रकार का है और कषाय मोहनीय अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ, प्रप्रत्याख्यानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ और संज्वलनानुबन्धी शोध, मान, माया, लोभ ऐसे सोलह प्रकार का है। इसके उदय से सर्वज्ञ भाषित मार्ग में अर्थात् जीवादि तत्वों में जिसके श्रद्धान के कारण देव शास्त्र, गुरु में पराङमुखता तथा अरुचि हो और मतत्वों में श्रद्धान हो उसे मिथ्यात्व कहते हैं । उसके Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गमौकार ग्रंथ १०७ उदय से सम्यक्त्व नाममात्र को भी नहीं होता है। जब शुभ परिणाम के उदय से मिथ्यात्व प्रकृति का अनुभाग न्यून हो जाता है तब सम्यग् मिथ्यात्व के उदय से कुछ-कुछ भाव नम्पग् श्रद्धान रूप अन्तम हुन को होते हैं अर्थात् जिसको न तो सम्यकत्व रूप कह सकते हैं 1 और न मिथ्यात्व रूप, उसे सम्यक् मिथ्यात्व कहते हैं और जिसके उदय से सम्यकत्व का मूलघात तो न हो परन्तु चल, मल, प्रगाढ़ इन तीनों दोषों का सहभाव रहे उसे सम्यकत्व प्रकृति कहते हैं । इन मिथ्यात्व प्रकृतियों के उपशम से उपशभ सम्यकत्व, क्षयोपशम से क्षायोपशामिक सम्यकत्व और क्षय से क्षायिक सम्यकत्व होता है। चारित्र मोहनीय की पच्चीस प्रकृति के आचरण कहते हैं। चारित्र विगाड़ने से चारित्र मोहनीय अथवा कषायों को प्रगट करने से कषाय मोहनीय कहलाती हैं। इनमें से चार अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ मिथ्यात्व के साथ मिलकर सम्यक श्रद्धान को बिगाड़ते हैं। इनके उदय से जीव, राज विरुद्ध, लोक विरुद्ध, धर्म विरुद्ध, अन्याय रूप किया तथा सप्त व्यसन प्रादि पापों को निरर्गल सेवन करता है। इनका उदाहरण पाषाण रेखावत् क्रोध, पाषाण स्तंभवत मान, बाँस की जड़वत् माया, धुंधची के वर्णवत लोभ होता है। अप्रत्याख्यानावरण कोष, मान, माया, लोभ श्रावक के अणुव्रतों को नहीं होने देते और न्यायपूर्वक विषय में अति लोलुपता कराते हैं। इनका उदाहरण--हल रेखावत् क्रोध, अस्थिस्तंभवत् मान, मोटे के सींगवत् माया और मजीठ के रंगवत् लोभ हैं। प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ इनके उदय से जीव महाव त धारण नहीं कर सकता है।क्षयोपशम के अनुसार देशवत धारण कर सकता है। इनका उदाहरण __ धूल तथा बालू रेखावत् क्रोध, काष्ठ स्तम्भवत् नान, हिरण शृंगवत् माया, कुसुम वर्णवत् लोभ है। संज्वलन क्रोध, मान, माया, लोभ ये यथाख्यात चारित्र के घातक है अर्थात् इनके उदय से चारित्र में कुछ शिथिल भाव रहते हैं । इनके उदाहरण जल रेखावत् क्रोध, बैत के स्वत नवत् मान, गौ श्रृंगवत् माया और हल्दी के रंगवत् लोभ कहा है । ऐसे ये सोलह कषाय प्रवल हैं और हास्यादिक नव कषाय मंद हैं पर ये भी शुद्ध चारित्र में मल लगाने वाले हैं। . (१) जिसके उदय से हास्यरूप भाव हो उसे हास्य प्रकृति कहते हैं। (२) जिसके उदय से इष्ट भोगोपभोग वस्तु का इष्टजनों में प्रेमरूप भाव हो वह रति है। (३) जिसके उदय से इष्ट पदार्थों के वियोग में अथवा अनिष्ट पदार्थों के संयोग में प्रात्त रूप भाव हो वह परति है। (४) जिसके उदय से चित्त में खेद व उग उत्पन्न हो वह शोक है। (५) जिसके उदय से परिग्रह, प्राणों के नाश का व रोग का, चोर का अकस्मात् अग्नि, जल, दुष्ट जंतु आदि का डर हो वह भय है। (६) जिसके उदय से ग्लानिरूप भाव हो वह जुगुप्सा है। (७) जिसके उदय से स्त्री से रमने की इच्छा हो और स्वभाव निष्कपट हो वह पुरुषवेद है। (८) जिसके उदय से पुरुष से रमने की इच्छा हो वह स्त्री वेद है। (९) जिसके उदय से स्त्री पुरुष दोनों से रमण करने के भाव हो वह नपुंसक वेद है। Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार ग्रंथ चौथी मूल प्रकृति प्रायु है उसके चार भेद हैं-(१) नरकायु, तिर्यवायु, मनुष्यायु और देवायु । (१) जिसके उदय से नरक में नारको के शरीर को धारण कर स्थिति काल पर्यंत रहना होता है वह नरकायु है। (२) जिसके उदय से एफेन्द्रिय वृक्ष प्रादि से लेकर पंचेन्द्रिय पशु पक्षी पर्यन्त तिर्यंच शरीर में रहना होता है वह तिर्यंच प्रायु है । (३) जिसके उदय से देव शरीर धारण कर स्थिति काल पर्पन्त रहना पड़े वह देवायु है। (४) जिसके उदय से मनुष्य शरीर धारण कर स्थिति काल पर्यन्त रहना होता है वह मनुष्यायु है। पांचवी मूल प्रकृति नाम कर्म है । इसकी १३ प्रकृति हैं । जिसके उदय से यह जीव पूर्वभव से भवान्तर प्रतिगमन करता है वह गति नाम कर्म है । वह चार प्रकार है जिसके उदय से प्रात्मा नरक जावे उसको नरक गति नाम कर्म, जिसके उदय से तिर्यच योनि में जाये उसे तिर्यंच गति नाम कर्म, जिसके उदय से मनुष्य भव में जाये उसे मनुष्य गति नाम कर्म और जिसके उदय से देव पर्याय को प्राप्त हो उसे देव गति नाम कर्म कहते हैं । उक्त नरकादि गतियों में जो अविरुद्ध सदृश धर्मों से प्रात्मा को एक रूप करता है उसे जाति नाम कर्म कहते हैं। वह पांच प्रकार हैंजिसके उदय से आत्मा पृथ्वी, अप, तेज, वायु, बनस्पति प्रादि स्थावर योनि पाते हैं उसे #. जिसके उदय से त्रस योनि में स्पर्शन, रसना दो इन्द्रिय, काय और वचन दो बल श्वासोच्छवास और प्रायु इस प्रकार छः प्राण होते हैं उसे द्वीन्द्रिय जाति नाम कम, जिसके उदय से नासिका एवं उपरोक्त छ: प्राण होते हैं उसे श्रीन्द्रिय जाति नाम कर्म, जिसके उदय से चक्ष एवं उपरोक्त सात प्राण हों उसे चतुरिन्द्रिय नाम कमं, जिसके उदय से श्रोत्र सहित पाठ प्राण हो अर्थात् मन रहित नौ प्राण हो उसे प्रसंशी पंचेन्द्रिय नाम कर्म और जिसके उदय से नव प्राण मन सहित हो उस संज्ञी पंचेन्द्रिय जाति नाम कर्म कहते हैं। जिसके उदय से शरीर की रचना होती है उसे शरीर नाम कर्म कहते हैं । यह शरीर नाम कर्म पांच प्रकार का है १. सौदारिक शरीर २. वैक्रियक शरीर ३. प्राहारक शरीर ४. तेजस शरीर और ५. कार्माण शरीर। १. जिसके उदय से स्थावर (पृथ्वी, आप, तेज, वायु, वनस्पति) पाँच, विकलत्रय (द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, चतुरेन्द्रिय) सम्मूर्छन (अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की विशेषता के तीन लोक में भरे हुए चारों ओर के पुदगल परमाणुओं से माता पिता के रज पीर वीर्य के संयोग के विना उत्पन्न होने वाले शरीर) गर्भज (माता पिता के श्रोणित शुक्र से उत्पन्न होने वाले शरीर) जीवों के स्थूल अर्थात् इन्द्रियों से देखने योग्य शरीर की रचना हो उसे प्रोदारिक शरीर कहते हैं। २. जिसके उदय से उत्पाद स्थान से पृद्गल वर्गणा ग्रहण कर अनेक प्रकार की बिक्रिया शक्ति वाला देवनारकियों का शरीर उत्पन्न हो उसको वैक्रियिक शरीर कहते हैं। Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार ग्रंथ (३) जिसके उदय से छठे गुणस्थानवर्ती मुनियों के सूक्ष्म विषय के निर्णय के लिए जो आहारक शरीर की रचना हो उसे आहारक शरीर कहते हैं। (४) जिसके उदय से उपांगरहित तेजस शरीर की रचना हो उसे तेजस शरीर कहते हैं। (५) जिसके उदय से अंगोपांग का भेद प्रगट हो उसको अंगोपांग नाम कर्म कहते हैं। मरमना, पीठ, छाती का पंजर, बाहु, उदर, जांघ, हाथ और पात्र ये अंग और इनकी छोटी शाखा उंगली, नाक कान अदि उपांग है । यह अगोपांग नामकर्म तीन प्रकार का है (१) प्रौदारिफ शरीरांगोपांगः (२) वक्रियिक शरीरांगोपांग (३) आहारक शरीरांगोपांग । इस प्रकार के शरीर के ही अंगोपांग होते हैं । जिससे अंगोपांग की ठीक-ठीक रचना हो- उसे निर्माण नाम कर्म कहते हैं जिस कर्म के उदय से प्रौदारिक प्रादि शरीरों के परमाणु परस्पर सम्बन्ध को प्राप्त हों उसक बंधन नामकर्म कहते हैं। बंधन नामकर्म इस प्रकार है-(१) प्रौदारिक बंधन (२) वैकियिक बंधन (3) पाहारक बंधन (४) तेजस बंधन और ( ५) कार्माण बंधन । जिस-जिस प्रकार का शरीर होता है उसमें उसी प्रकार के बंधन होते हैं। पांच प्रकार की संघात प्रकृति है। संघात नाम मांस के लेशन का है। जैसे गारे में ईट मिली रहती है लेशन होने से बिखरती नहीं वै' ही मांस के संघात से हाड चिपके रहते हैं अर्थात जिस कर्म के उदय से औदारिक शरीरों से परमाणु छिद्ररहित एकता को प्राप्त हों वह संघात-(१) औदारिक संघात (२) वैक्रियक संघात (३) आहारक सघात (४) तेजस संघात और (५) कार्माण संघात ऐसे पांच प्रकार है। जिस प्रकार का शरीर है उसमें उसी प्रकार संघात होता है। जिस कर्म के उदय से शरीर की प्राकृति हो उसे संस्थान नामकर्म कहते हैं। वह छह प्रकार का है: (१) जिसके उदय से सर्व अंग यथोचित सुन्दर शोभायमान हों वह सम चतुरस्त्र-संस्थान है। (२) जिसके उदय के नाभि से नीचे के अंग छोटे और ऊपर के बड़े हों जैसे वृक्ष, वह न्यग्रोधपरिमंडल संस्थान है। (३) जिसके उदय से नीचे का भाग स्थूल और लम्बा हो और ऊपर का कद छोटा हो वह स्वाति संस्थान है। {४) जिसके उदय से नीचे का भाग कुवडा हो, पीठ में कूबडा हो और छाती में गढा हो जिससे झुक कर चले वह कुब्जक संस्थान है। (५) जिसके उदय से बौना शरीर हो वह वामन संस्थान है। (६) जिसके उदय से सर्व अंगोपांग छोटे-बड़े बेडोल हों वह हुंड़क संस्थान है। जिस कर्म के उदय से हाड़ों के बंधन में विशेषता हो उसे संहनन नाम कर्म कहते हैं। वह छः प्रकार है: -(१) बमवृषभनाराच संहनन (२) वशनाराच संहनन(३) नाराच संहनन (४) अर्थ नाराच संहनन (५) कीलक संहनन और (६) असंप्राप्तासृपाटिका संहनन । (१) नशों के हाडों के बंधने का नाम वृषभ है। नाराच नाम कीलने का है और संहनन नाम हाडों के समह का है प्रतः जिस कम के उदय से वषम (बष्टन) नाराच (कील) और संहनन नाम (अस्थिपंजर) ये तोनों वववत् अभेद्य हों वह बनवृषभनाराच संबना है। (२) जिस कर्म के उदय से नाराच संहनन तो अज में हों और वृषभ सामान्य हो यह वजनाराच संहनन है। Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जमोकार ग्रन्थ (३) जिसके उदय मे हाड़ और संधियां कोलित हों, परन्तु वनमय न हों और वज्वमय वेष्टन भी न हों वह नाराच संहनन नामकर्म है। (४) जिसके उदय से हाड़ों की संधियां पद्धंकीलित हों अर्थात एक तरफ से कोलित हों दूसरी तरफ न हों वह मर्द्धनारान संहनन नाम कर्म हैं। (५) जिसके उदय से हाथ परस्पर कोलित हों वह कीलक संहनन नाम कर्म है। (६) जिसके उदय से हाड़ों की संधियाँ तो कीलित नहीं होती परन्तु नस, स्नायु मोर मांस से बंधी हों वह असंप्राप्तासृपाटिका संहनन है। जिस कर्म के उदय से शरीर में स्पर्श हो उसे स्पर्श नाम कर्म कहते हैं यह पाठ प्रकार का है(१) कर्कश स्पर्श नामकर्म ... जिसके उदय से कोमल शरीर प्राप्त हो। (२) मृदु स्पर्श नामकर्म –जिसके उदय से कोमल शरीर प्राप्त हो। (३) गुरु स्पर्श नामकर्म -जिसके उदय से भारी शरीर प्राप्त हो । (४) लघु स्पर्श नामकर्म-जिसके उदय से हल्का शरीर प्राप्त हो। (५) स्निग्ध स्पर्श नामकर्म-जिसके उदय से चिकना शरीर प्राप्त हो । (६) रुक्ष स्पर्श नामकर्म- जिसके उदय से खुरदरा शरीर प्राप्त हो। (७) शीत स्पर्श नामकर्म-जिसके उदय से शीतल शरीर प्राप्त हो । (८) उष्ण स्पर्श नामकर्म-जिसके उदय से उष्ण शरीर प्राप्त हो । यह माठ प्रकार का स्पर्श कहा। जिसके उदय से शरीर में रस (स्वाद) उत्पन्न हो उसे रस नामकर्म कहते हैं। यह कर्म पांच प्रकार का है: तिक्त रस नामकर्म-जिसके उदय से चरपरा शरीर प्राप्त हो। (२) कदुरस नामकर्म-जिसके उदय से कड़वा शरीर प्राप्त हो । (३) कषायला रस नामकर्म-जिसके उदय से कषायला शरीर प्राप्त हो। (४) अम्ल रस नामकर्म-जिसके उदय से खट्टा शरीर प्राप्त हो । (५) मधुर रस नामकर्म-जिसके उदय से मीठा शरीर प्राप्त हो। ये पाँच रस नामकर्म प्रकृति हैं। जिसके उदय से शरीर में गंध हो वह गंध नामकर्म है। यह दो प्रकार का है-एक सुगंध नाम कर्म-जिसके उदय से सुगन्धित शरीर प्राप्त हो और दूसरा दुर्गन्ध नामकर्म-जिसके उदय से दुर्गन्धित शरीर प्राप्त हो। जिसके उदय से शरीर में वर्ण उत्पन्न हो यह वर्णनाम कर्म प्रकृति है। यह पांच प्रकार की है(१)शुक्ल वर्ण नामकर्म-जिसके उदय से श्वेत शरीर प्राप्त हो। (२) कृष्ण वर्ण नामकर्म-जिसके उदय से श्याम शरीर प्राप्त हो । (३) पीत वर्ण नामकर्म-जिसके उदय से पीला शरीर प्राप्त हो। (४) नील वर्ण नामकर्म-जिसके उदय से नीला शरीर प्राप्त हो। (५) रक्त वर्ण नामकर्म-जिसके उदय से लाल शरीर प्राप्त हो । Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पौफार ग्रंथ जिस कर्म के उदय से प्रात्मा के प्रदेश मरण के पीछे और नवीन शरीर धारण करने के पहले मार्ग में पूर्व शरीराकार रहें वह विग्रहगति नामकर्म है. वह चार प्रकार का है (१) नरकगति प्रायोग्यानुपूर्व्य नामकर्म जिस समय जीव मनुप्य या नियंच शरीर को त्याग कर नरक गति जाने को सम्मुख होता है उस समय मार्ग में जिसके उदय से प्रात्मा के प्रदेश पूर्व शरीराकार रहे उसे नरकमति प्रायोग्यानुपूर्य कहते हैं। (२) देव गति प्रायोग्यानुपूयं नामकर्म-जिस समय जीव मनुष्य या तिथंच शरीर को त्याग कर देवगति में जाने को सन्मुख होता है उस समय मार्ग में जिनके उदय से आत्मा के प्रदेश पूर्व शरीराकार रहैं उसे देव गति प्रायोग्यानुपूर्य कहते हैं । (३) मनुष्य गत्यानुपूर्वी नामकर्म-जब देव शरीर वा नारक शरीर को छोड़ वा मनुष्य शरीर अथवा तियंच शरीर को छोड़कर मनुष्य गति को जाता है तब मार्ग में मनुष्य गत्यानुपूर्वी प्रकृति का उदय होता है। (४) नियंच गत्यानुपूर्वी-जब तिर्यंचगति को जाता है तब तिर्यंच मत्यानुपूर्वी प्रकृति का उदय होता है। इस कर्म का उदय जघन्य काल एक समय, मध्यम दो समय और उत्कृष्ट तीन समय मात्र है। जिस कर्म के उदय से शरीर लोहे के गोले की तरह भारी और पाक, तूल' की तरह हल्का न हो उसे अगुरुलघु नामकर्म कहते हैं। जिसके उदय से अपने शरीर के (बड़े सींग, बड़ा पेट, कस्तूरी का बैना आदि) अवयव अपना ही घात करने वाले हों उसे उपघात नामकर्म कहते हैं । जिसके उदय से तीक्ष्ण नख व सींग, बिच्छू वा तय के डंक मादि अंगोपांग, घर के बात करने वाले होते हों उसे परघात नाम कर्म कहते हैं । जिसके उदय से पातापमय शरीर होता है उसे आताप नामकर्म कहते हैं जैसे सूर्य के विमान में पृथ्वीकारिक जीव मणि स्वरूप होते हैं । उद्योत प्रकृति के उदय से आताप रहित प्रकाश रूप शरीर होता है, जैसे चन्द्रमा के विमान में पृथ्वीकायिक जीव मणिस्वरूप होते हैं। जिस कर्म के उदय से शरीर में श्वासोच्छवास हो उसको उच्छयास नामकर्म कहते हैं । जिस कर्म के उदय से आकाश में गति हो उसे विहायोगति नामकर्म कहते हैं । यह दो प्रकार जो हाथी की गति के समान सुन्दर गति का कारण होता है उसे प्रशस्तविहायोगति नामक कहते हैं और जो ऊंट, गर्दभ मादि की गति के समान भसुन्दर गति का कारण होता है, उसे अप्रशस्त विहायोगति नामकर्म कहते हैं। जिसके उदय से एक शरीर का भोक्ता एक ही जीव होता है उसे प्रत्येक नामकर्म कहते हैं। जिसके उदय से पृथ्वी, प्रप, तेज आदि एकेन्द्रिय शरीर प्राप्त हो उसे स्थावर नामकर्म कहते हैं। जिसके उदय से भारमा विन्द्रियादि शरीर धारण करता है उसे त्रस नामकर्म कहते हैं । जिस कर्म के उदय से दूसरे जीव अपने को स्नेह दृष्टि से अवलोकन करें उसे सुभग नामकर्म कहते हैं। जिस कर्म के उदय से रूप मादि गुण युक्त होने पर दूसरों की दृष्टि में निंद्य प्रतीत हो वह दुभंग नामकर्म है। जिसके उदय से मनोहर, सुन्दर स्वर हो उसे मुस्वर नामकर्म कहते हैं । Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार ग्रंथ जिस कर्म के उदय से एक शरीर के अनेक जीव स्वामी हो उसे साधारण नामकर्म कहते हैं । जिस कर्म के उदय से बुरा असुहावना स्वर हो उसे दुःस्वर नामकर्म कहते हैं। जिसके उदय से शरीर के अंगोपांग मुन्दर हों उसे शुभ नामकर्म कहते हैं। जिसके उदय से मसाक यादि अवयव रमणीक न हो उसे अशुभ नामकर्म कहते हैं । जिसके उदय से अग्नि, जल, पर्वत, दुर्ग, पृथ्वी, वज्रपटल मादि को भेदकर निकल जाने वाला सुक्ष्म शरीर प्राप्त हो उसे सक्ष्म नामकर्म करते हैं। __जिसके उदय से स्वयं रूकने तथा अन्य को रोकने वाला स्थूल शरीर प्राप्त हो उसे बादर शरीर नामकर्म कहते हैं। जिसके उदय से जिस पर्याय में जाए उसके अनुसार पाहार प्रादि की पूर्ण प्राप्ति हो वह पर्याप्ति नामकर्म है । वह छः प्रकार का है : (१) आहार पर्यारिन (२) शरीर पर्याप्ति (३) इन्द्रिय पर्याप्ति (४) प्राणपान पर्याप्ति (५) भाषा पर्याप्ति और (६) मनः पर्याप्ति । केन्द्रिय जीवों के भाषा और मन को छोड़कर चार, द्विन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चार इन्द्रिय और अपनी पंचेन्द्रिय जीवों के भाषा सहित पाँच और सनो पंचेन्द्रिय के छहों पर्याप्ति होती हैं। जिसके उदय से जीय को पूर्ण शरीर प्राप्त न होने से पूर्व ही मरण को प्राप्त हो वह अपर्याप्ति नामकर्म है। जिसके उदय से धातु, उपधातु अपने-अपने स्थान में स्थिर रहें वह स्थिर नामकम है और जिस कर्म के उदय से शरीर में धातु-उपधातु स्थिर न रहे वह अस्थिर नामकर्म है । जिसके उदय से कान्ति सहित शरीर हो वह प्रादेय और कान्ति रहित शरीर हो तो वह अनादेय नामकर्म है। ___जिसके उदय से संसार में जीव की प्रशंसा हो वह यशस्कोति और जिसके उदय से अवगुण प्रगट हों वह अयशस्कीति नामकर्म है । जिसके उदय से समवशरण लक्ष्मी का धारक तीर्थकर पद के लक्षणयुक्त शरीर हो यह तीर्थकरत्व नामकर्म है। इस प्रकार नामकर्म की मुख्य व्यालीस प्रकृति हैं और इनके अवांतर भेदों को जोड़ने में सब तिरानवें हो जाती हैं। गोत्र कर्म :-- जिस कर्म के उदय । संतान के क्रम से चले पाये जीव के सदाचरण निषिद्धाचरण रूप ऊँचनीच गोत्र में जन्म हो वह गोयकर्म है और वह उच्च गोत्र मौर नोच गोत्र के भेद से दो प्रकार का है। जिसके उदय से उत्तम चरित्र वाले लोक पूज्य इक्ष्वाकू मादि कुलों में जन्म हो उसे उच्च गोत्रकर्म और जिसके उदय से निषिद्धाचरण वाले निध, दरिद्री, प्रसिद्ध, दुखों से प्राकुलित कुल में जन्म हो उसे नीच गोत्रकर्म कहते हैं। अन्तराय कर्म : अब अन्तराय कर्म की प्रकृतियां कहते हैं : (१) दानांतराय-जिस कर्म के उदय से या तो दान देने की शक्ति ही न हो और यदि हो तो दान देने का यत्न करते हुए भी किसी विघ्न से दान न दे सके वह वानांतराय है। Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार ग्रंथ ११३ (२) लाभांतराय - जिसके उदय से वांछित इष्ट पदार्थों की प्राप्ति के लिए प्रयत्न करते हुए भी लाभ न हो । (३) भोगांतराय - जिसके उदय से या तो भोग्य पदार्थ प्राप्त न हों और यदि प्राप्त हों तो रोग श्रादि के होने से भोग न सकेँ बहू भोगांतराय है । (४) उपभोगांतराय --जिसके उदय से या तो उपभोग्य पदार्थ ही न मिलें और यदि मिलें तो किसी विघ्न से भोग न सकें। गंध, अतर, पुष्पमाला, तांबुल, भोजन, पान आदि जो एक ही बार भोगने में आए वे भोग हैं और शय्या, आसन, स्त्री, आभरण, घोड़ा गाड़ी श्रादि जो बार-बार भोगने में आए वे उपभोग हैं । (५) वीर्यान्तराय - जिसके उदय से पौरुषहीन, निर्बल चित्त हो, वे जप, तप, व्रन आदि कुछ भी न कर सकें वह वीर्यान्तराय है । अब बन्ध पदार्थ से अन्तर्भूत पुण्य और पाप बंध भी हैं इसलिए उनमें से पहले पुण्य प्रकृतियों को कहते हैं । सातावेदनीय, शुभ आयु, शुभ नाम, शुभ गोत्र ये पुण्य रूप हैं। वे इस प्रकार हैं :१) साता वेदनीय (२) तिर्यंच प्रायु ( ३ ) मनुष्य प्रायु (४) देव श्रायु (५) उच्च गोत्र ये पांच और नाम कर्म की नरेसठ मनुष्य गति (१) देव गति (२) पंचेन्द्रिय जाति (३) निर्माण (४) समचतुरस्त्र संस्थान (५) वञ्च नृपभनाराच संहनन ( ६ ) मनुष्य गत्यानुपूर्वी (७) देव गत्यानुपूर्वी (८) अगुरु लघु ( 2 ) परघात (१०) (१) (२) उद्योद् (4) वास्तविहायोगति (१४) प्रत्येक शरीर (१५) अस (१६) सुभग (१७) सुस्वर (१८) शुभ (१६) बादर ( २० ) पर्याप्ति ( २१) स्थिर (२२) प्रादेय (२३) यशस्कोत (२४) तीर्थंकरत्व : २५) और पांच शरीर (२६-३०) तीन अंगोपांग (३१-३३) पांच बंधन ३४-३८) पांच संघात ३९-४३) माठ प्रशस्त स्पर्श (४४-५१ ) पाच प्रशस्त रस ( ५२-५६ ) दोगंध ( ५७-५८ ) चार प्रशस्त वर्ण ( ५६-६३ ) उक्त ( ६८ ) प्रकृतियों में शेष कर्म प्रकृतियां पाप रूप हैं। स्थिति बंध वर्णन - कषाय की तीव्रता मन्दता के अनुसार जितने काल तक कर्म वर्गणा सत्ता में रहे, फल देकर उनकी निर्जरा हो उस समय की मर्यादा पड़ने को स्थिति बंध कहते हैं। स्थिति बंध दो प्रकार का है (१) जघन्य स्थिति बंध और (२) उत्कृष्ट स्थिति बंध । - इसमें उत्कृष्ट स्थिति ज्ञानावरणी, दर्शनावरणी अन्तराय और वेदनीय सागर है । इस उत्कृष्ट स्थिति का बंध मिध्यादृष्टि संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक जीवों के नाम कर्म और गोत्र कर्म की उत्कृष्ट स्थिति बीसकोड़ाकोड़ी सागर की मोहनीय की उत्कृष्ट स्थिति सत्तर कोड़ा कोड़ी सागर की तथा श्रायु कर्म की उत्कृष्ट स्थिति तैंतीस सागर की होती है । अब कर्मों की जघन्य स्थिति कहते हैं की बीस कोड़ाकोडी होता है । ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय, अन्तराय और प्रायु इन पांच की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्न (जो दो घड़ी के भीतर-भीतर हो उसे प्रन्तर्मुहूर्त कहते हैं) नामकर्म और गोत्र कर्म की जघन्य स्थिति पाठ मुहूर्त और वेदनीय कर्म की जघन्य स्थिति प्राठ मुहूर्त है। इस प्रकार स्थितिबंध का वर्णन किया । Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ णमोकार ग्रंथ अनुभाग बंध वर्णन - कषायों की तीव्र मंदता के अनुसार कर्म वर्गेणाओं में जो फलदायक तीव्र मन्द शक्ति का उत्पन्न होना है वह अनुभाग बंध है । वह फल दान शक्ति कर्मों को मूल प्रकृति तथा उत्तर प्रकृति उत्तर प्रकृतियों के नामानुसार ही होती है जैसे ज्ञानावरण का फल ज्ञान का याच्छादन करना दर्शनावरण का फल दर्शन का आवरण करना है इसी प्रकार मूल प्रकृति और उत्तर प्रकृतियों में जैसा जिसका नाम है वैसी ही फल शक्ति जाननी चाहिये । इन प्रकृतियों में बंध उदय आदि ये दस अवस्थाएं होती हैं छप्पय जीवकरम मिली बंध वेय रस तास उवं मति, जद्दीरमा उपाय रहें अब लो ससा गनि, उत्करसन थिति बढ़ें घंटे प्रपकरसन कहियत, संकरमन पर रूप उवीरन बिन उपसम मत संक्रमण, उदोरन बिन निधत घट बढ़ उदरन संक्रमण, तिबंध बस भिन्न पद जानि मन अर्थात् (१) राग द्वेष, मिथ्यात्व आदि परिणामों से जो पुदगल द्रव्य का ज्ञानावरण यादि रूप होकर श्रात्मा के प्रदेशों से परस्पर सम्बन्ध होना है वह बन्ध है । (२) अपनी स्थिति पूरी करके कर्मों का फल देने के सन्मुख प्राप्त होना उदय है । (३) तप आदि निमित्तों से स्थिति पूरी किए विना अपकर्षण के बल से कर्मों का उदयावली काल प्राप्त करना उदीरणा है । (४) बंधकाल से स्थिति काल पर्यंत जब तक उदय, उदीर्णादि दूसरे भेद का प्रवर्तन न हो उस अवस्था का नाम सत्ता है । (५) कर्मों के निमित्त से कर्मों की स्थिति व अनुभाग का बढ़ना उत्कर्षण है । (६) स्थिति व अनुभाग का कम हो जाना श्रपकर्षण है । ( ७ ) श्रायु कर्म के बिना शेष सात कर्मों की किसी एक बंध रूप प्रकृति की दूसरी प्रकृति में परिणमन हो जाना संक्रमण है । (८) कर्मों का उदय व उदीरणा रहित सत्ता में स्थिर रहना उपशम है । (६) जो कर्म संक्रमण व उदयावलि में प्राप्त न हो वह नियंत्त है। (१०) जिस कर्म की उदीरणा, संक्रमण, उत्कर्षण और अपकर्षण चारों ही अवस्थायें न हों वह निकांचितकरण ( अवस्था ) है । इस प्रकार बंध की दस अवस्था जिनेन्द्र भगवान ने कही है इस प्रकार बंध तत्व का वर्णन किया मागे संवर तत्व का वर्णन करते हैं । संवर तत्व का वर्णन - श्रास्त्रवों का निरोध करना संवर है। वह द्रव्य और भाव के भेद से दो प्रकार का है। कम स्त्रव के निरोध करने को कारण भूत व्रत और समित्यादि के पालन रूप में परिणाम हो जाना भाव Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार ग्रंथ संवर है । कर्मवर्गणाओं का प्रागमन रुकना द्रव्य संवर है । यह नीति है कि जिस कारण से जिस कार्य की उत्पत्ति होती है उस कारण के अभाव में उस कार्य की उत्पत्ति का भी प्रभाव हो जाता है। इसलिए इस जीव के जो संसार परिभ्रमण के कारण हैं, मिथ्यात्व, अविरत, प्रमाद, कषाय और योगों द्वारा प्रास्त्रव होकर बंध होता है, उस प्रास्रव को रोकने के लिए सम्यग्दर्शन से मिथ्यात्व का देशवत तथा महावत धारण करने से अविरत रूप भावों का निरालसी तथा ध्यानी होने प्रमादों का यथाख्यात चारित्र की प्राप्ति से कषायों का मन, वचन, काय की प्रवृत्ति के निरोध से योगों का संवर करना प्रत्येक मुमुक्षु का कर्तव्य है। इसी संवर को प्राप्त करने लिए प्राचार्यों ने ये कारण बतलाये है-पांच व्रत, पंच समिति, तीन गुप्ति, दस धर्म, बारह अनुप्रेक्षा, बाईस परिषह, पाँच प्रकार का चारित्र, यह संवर के लिए कारण हैं। तीन गुप्ति(१) मनोयोग का रोकना मनोगुप्ति है। (२) वचनयोग का रोकना वचनगुप्ति है। (३) काययोग का रोकना कायगुप्ति है। पांच समिति (१) जो मार्ग मनुष्यों और तिर्यचों के गमनागमन से खुद गया हो, सूर्य के प्राताप से तप्त हो गया हो, हलादि से जोता गया हो, ऐसे प्राशुक मार्ग से रवि के प्रकाश में आगे को चार हाथ भूमि को भली प्रकार देखकर मंद-मंद गमन करना, जिससे कोई जो प्रमाद अथात् असावधानी से न विराधा जाये। ऐसे शास्त्र श्रवण, तीर्थ यात्रा तथा आहार विहारादि आवश्यक कार्य के निमित्त गमन करना सम्यगोर्या समिति है। (२) सर्व प्राणियों के लिए हितकर, कोमल, मिष्ट, सत्य वचन बोलना और लौकिक कर्कश हास्यरूप परामनिंदा प्रशंसक शब्दों का न बोलना सम्यम्भापा समिति है। (३) निर्दोष (उदगमादि ४६ दोष रहित) शुद्ध (१४ मल दोष रहित) निरंतराय (३२ अन्तरायरहित) उत्तम श्रावक के घर अपने निमित्त नहीं किया हुआ एक बार लघु भोजन ग्रहण करना सम्यगेषणा समिति है। (४) ज्ञान के उपकरण शास्त्र, संयम के उपकरण पीछी, शौच के उपकरण कमंडल आदि को नेत्रों से देखकर निर्जतु भूमि में यत्न पूर्वक उठाना, रखना, पटकना नहीं और हाथ पर देखकर पसारना समेटना निक्षेपण' समिति है। (५) जीव जन्तु रहित उचित प्रासुक भूमि पर मलमूत्र आदि क्षेपण करना सम्पग्उत्सर्ग समिति है। दस धर्म का वर्णनउत्तम क्षमा, उत्तम मार्जव, उत्तम प्रार्जब, उत्तम सत्य, उत्तम शौच, उत्तम संयम, उत्तम तप, उत्तम त्याग, उत्तम आकिंचन और उत्तम ब्रह्मचर्य इन दस लक्षणों से प्रात्मा के स्वभाव की परीक्षा होती है। उत्तम क्षमा दुष्ट लोगों के द्वारा तिरस्कार, हास्य, ताइन, मारण प्रादि क्रोध उत्पत्ति के कारण उपस्थित होने पर भी उन्हें दण्ड देने की शक्ति होने पर भी उन पर क्रोध नहीं करना, उनके विषय Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार थ मेंदुबिचार भी नहीं करना, निन्दा तिरस्कार न स्वयं करना न औरों से कराना सुख दुख क्लेश को पूर्व पूर्वोपार्जित कर्मों के फल जानकर समभावों से सहन करना उत्तम क्षमा है । ११६ उत्तम मार्दव धर्म अपने रूप, ज्ञान, बल, ऐश्वर्य आदि का अभिमान नहीं करना, विद्वत्ता का अभिमान नहीं करना, धर्मात्मा, व्रती व विद्वानों को देख कर श्रथवा गुरुजनों को देखकर खड़ा होना तथा नमस्कार करना, उच्च ग्रासन देना, आदर सत्कार करना, उनके सामने खड़ा होकर नहीं बोलना, मन, वचन काय से उनकी आज्ञा का पालन करना, देव, गुरु, शास्त्र का चित्त से प्रदर, उनके गुरुओं का चितवन करना उत्तम मार्दव धर्म है उत्तम आर्जव धर्म मन, वचन, काय की कुटिलता को त्याग कर परिणाम सरल नही करना, जैसा मन में हो वैसा ही वचन के द्वारा प्रकाश में लाना तदनुसार ही देह से करना उत्तम आर्जव है । उत्तम सत्य धर्म छल कपट रहित बचन बोलना, सर्व हितकारी प्रामाणिक मिष्ट कोमल वचन बोलना, धर्म की हानि या कलंक लगाने वाला प्राणियों को संक्लेश दुःख पहुँचाने वाला वचन ेन कहना उत्तम सत्य धर्म है । - उत्तम शौच धर्म अनीति से दूसरों के धन, सम्पसि, गृह प्रादि पदार्थों को श्रभाव और सुकृत की प्राप्ति में संतोष कर मलिन श्राचरण का लोभादिक कषायों को दूर कर सदा निर्मल रखना उत्तम शौच धर्म है । रखना अर्थात् कभी छल कपट और जो कुछ प्रकाश में लाया है। - ग्रहण करने की ती अभिलाषा का त्याग करना तथा अंतरंग श्रात्मा से उत्तम संयम धर्म इन्द्रियों को विषयों से रोकना संयम है। उत्तम संयम धर्म के दो भेद हैं। पहला प्राणि संयम दूसरा इन्द्रिय संयम । बाह्य पंचेन्द्रियों और मन को विषय सेवन से रोकना, दुराचारों से बचना इन्द्रिय संयम है । अन्तरंग से छह काय के जीवों की रक्षा करना प्राणि संयम है । उत्तम तप धर्म सांसारिक विषयाभिलाषा रहित होकर मनादि कर्म बन्ध से सचिवानन्द स्वरूप निर्मल बात्मा को अनशनादि बारह प्रकार के तप से तपाकर कर्म मल रहित करना उसम तप है। उत्तम त्याग धर्म निश्चय त्याग तो अपनी म्रात्मा से अनादिकाल से लगे हुए राग, द्वेष, मोहादि परभावों से जिसके कारण वह सदा भयवान दुखी रहता है, छुटाकर निर्भय कर देना है । व्यवहार में आहार, प्रौषधि शास्त्र और प्रभय, ये चार दान है । व्यवहार में साधु, मुनि प्रादि गुरुजनों को वा सम्यकत्ववान व्रती श्रावक को उनके दर्शन, ज्ञान और चरित्र की वृद्धि के लिए भक्ति भाव से और दुखित, भूखे, अंगहीन रिद्रियों को करुणा भाव से भूख-प्यास में बाहार पानी देना, रोग अवस्था में शुद्ध औषधि देना, विद्याभिलाषियों को शास्त्र दान देना, भयभीत जीवों को अभयदान देना उत्तम त्याग है । Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गमोकार प्रय उत्तम आकिंचन्य धर्म शुद्ध चैतन्य प्रमूर्तिक प्रास्मा से सर्वथा भिन्न स्वरूप पुद्गलमयी रूपी अन्तर्बाह्य चौबीस प्रकार के परिग्रह का त्याग तथा शरीर से निर्ममत्व का होना प्राकिचन है। उत्तम ब्रह्मचर्य धर्म स्पर्श इन्द्रिय के विषय, मैथुन कर्म से सर्वथा परान्मुख होने को ब्रह्मचर्य और ब्रह्मा अर्थात् निजारमा में रमण करने को निश्चय ब्रह्मचर्य कहते हैं अर्थात उत्तम ब्रह्मचर्य कहते हैं। इस प्रकार उक्त दस धर्म मम को धारण करने चाहिये । डावश प्रमुशा जो वैराग्य उत्पन्न करने को माता समान और बारम्बार चिन्तवन करने योग्य हो वह अनुप्रक्षा कहलाती है। वह बारह हैं। (१) अनित्य (२) प्रशरण (३) संसार (४) एकत्व (५) अन्यत्व (६) अशुचि (७) प्रास्त्रव (८) संवर (९) निर्जरा (१०) लोक (११) वोधिदुर्लभ (१२) स्वाख्यातत्व (धर्म)। इन बारह प्रकार के स्वरूप का बारम्बार चिन्तवन करना अनुप्रेक्षा है। १. अनित्य अनुप्रेक्षा सांसारिक पदार्थ देह, धन, सम्पत्ति, घोड़ा, हाथी, स्त्री, कुटुम्बी, मित्रादि तथा प्राज्ञा मानने वाले चाकर तथा पंचेन्द्रियों के भोग ये सब घोड़े-थोड़े दिन रहने वाले हैं और जल के बुलबुले के समान अस्थिर है, अनित्य हैं जैसे इन्द्र धनुष देखते ही विलय हो जाता है व बिजली शीघ्र ही चमक कर विलय हो जाती है, ऐसा ही इन पदार्थों का संयोग है, पुण्य क्षीण होने पर सब चले जाते है । इस प्रकार चितवन करना प्रनित्यानुप्रेशा है। २. प्रशारण अनुप्रेक्षा जैसे वन के एकान्त स्थान में सिंह के द्वारा पकड़े हुए मृग की कोई शरण नहीं होती उसी प्रकार इस संसार में काल के मुख का ग्रास बने हुए प्राणियों को कोई शरण नहीं है । इन्द्र, धरणेद्र, चक्रवर्ती, बलभद्र, नारायण, प्रतिनारायण, राजा महाराजादिक भी अवधि पूर्ण होने पर काल के गाल में चले जाते हैं तो पौरों की क्या रक्षा करेंगे । जल में, थल में, नभ में, नरक में, सर्व संसार में कोई भी स्थान शरण योग्य नहीं हैं । जितनी चाहे मणि हो, चाहे जितने मंत्र, यंत्र औषधि प्रादि किये जायें परन्तु कोई भी काल से नहीं बच सकते हैं । काल से वे ही बचे हैं जिन्होंने प्रात्म कल्याण करके सब कमों से मुक्त हो अविनाशी पर पाया है । यह पद जिस पूज्य धर्म से प्राप्त होता है वह धर्म ही व्यवहार में शरण है और निश्चय में यह प्रात्मा अपने को माप ही शरण रूप है। इस प्रकार चिन्तबन करना प्रशरण अनुप्रेक्षा है। संसाराभुप्रेक्षा यह संसार जन्म, जरा, मरण दुःखस्वरूप है । इसमें जीव निरन्तर एक देह से दूसरे शरीर में जन्म ले-लेकर चतुगंति में दुःख सहन करते है । पृथ्वी काय योनि सात लाख, जल काय योनि सात लाख, अग्निकाय योनि सात लाख, पवन काय योनि सात लाख, प्रत्येक वनस्पति काय योनि दस लाख ये सब मिला कर बावन लाख भेद स्थावर एकेन्द्रिय के हैं। जिन्हें स्पर्शन इन्द्रिय मात्र का ज्ञान है वे खनन, तपत Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ णमोकार च शीत, उष्णादि की बाधा से प्रत्यन्त दुःखी हैं। दो इन्द्रिय योनि दो लाख, तीन इन्द्रिय दो लाख, चौ इन्द्रिय दो लाख ये सब छह लाख विकलत्रय योनि हैं और चार लाख पंथेन्द्रिय तिर्यंच योनि हैं, ऐसे समस्त बासठ लाख तियेच योनि जो ताड़न मारन, छेदन, भेवन, खनन, तापन, बधबंधन, भारारोपण, खान, पान, प्रादि विरोध से महाःदुखी हैं नारकी योनि चार लाख जो प्रगट रूप में महा दुःख रूपही हैं । देव योनि चार लाख जो नाम मात्र सुखाभास को ही सुख मानती है. वास्तव में वह दुख ही है। पराई सेवा अथवा पराया वैभव देखकर जलना मादि महान दुःख देवों में हैं और बौदह लाख योनि मनुष्य जिनमें कोई दरिद्रता से, कोई रोगों से, कोई सन्तान के न होने से, कोई स्त्री.. पुत्रादि के वियोग से, कोई शत्रुषों से, प्रत्यन्त दुखी है अर्थात् प्रत्येक जीव को कोई न कोई दुःख लगा हुमा है। इसमें कोई भी सुली नहीं है इस प्रकार मनुष्य को इन चौरासी लाख योनियों में भ्रमण करना है प्रतः संसार को दुखमय चितवन कर उसमें समिकई करना देगार प्रेश ! ४. एकस्वानुप्रेक्षा यह जीव पकेला स्वयं ही जन्मता है और स्वयं ही मरता है, अकेला ही नरक की वेदना सहता है, तिर्यच व मनुष्य गति में नाना दुःख है । अपना पुत्र, अपनी स्त्री कोई भी दुःख के साथी नहीं हो सकते अर्थात् दुःख नहीं बटा सकते और न कोई साथ ही प्राने-जाने वाले हैं। अपने शुभाशुभ बांधे हुए कर्मों का सुख-दुख रूप फल स्वयं ही भोगना पड़ता है। दूसरा कोई साथी नहीं होता है। फिर किसके प्रेम में फंसना ? स्वयं प्रात्म कल्याण में पुरुषार्थ करना ही श्रेष्ठ है। इस प्रकार अपने को निःसहाय एकाको चितवन करना एकत्वानुप्रेक्षा है । ५. अन्यत्वानुप्रेक्षा जब अपनी मात्मा से शरीर ही भिन्न है तो कुटुम्बी नातेदार, पुत्र, मित्र, धन, धान्य मादि अन्य सब पदार्थ तो प्रत्यक्ष रूप से भिन्न ही हैं जो क्षण भर में किंचित वैमनस्यता होने पर अपने से बिगड़ जाते हैं फिर किससे स्नेह करना और वृथा किसके लिए पापोपार्जन करना? जगत में सब संबन्ध मतलब का है अतः प्रात्महित करना ही श्रेष्ठ है ऐसा चितवन करते हुए इनसे संबंध नहीं बाहना अन्यत्वमनुप्रेक्षा है। ६. पशुचिस्यानुप्रेक्षा यह शरीर अस्थि, मांस मज्जा, रक्त, मल, मूत्र प्रादि अपवित्र पदार्थों से भरा हमा है। धर्म की चादर से ढका हुना सुन्दर दीखता है । जिस शरीर के नव द्वारों से चिस को घृणाकारी मल-मूत्र मादि अशुचिता बहती है इससे अधिक अपबित्रकौन है। इससे प्रेम करना वृथा है । यदि यह पवित्र है तो मात्मा के सम्बन्ध से हो है। जीव के निकलते ही इसे स्पर्श करने पर स्नान करते हैं तो ऐसे मलिन से । स्या प्रेम करना । इस प्रकार शरीर के स्वरूप का चितवन कर राग भाव घटाना पशुचित्वामुक्षा है। ७. प्रामानुप्रेक्षा मिथ्यात्व, मविरत, कषाय मौर मन, वचन, काय के योगों द्वारा फर्मों का मानव होता है पौर वह कर्म बंध होकर प्रात्मा को संसार में परिभ्रमण का कारण होता है । प्रतएव पास्त्रव के निरोष के लिए उसके मुख्य कारण कषायों को रोकना पास्त्रबानुभक्षा है । Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार म ८.संवरामुप्रेक्षा कर्म वर्गणाओं के प्रागमन में निमित्त रूप मन, वचन, काय के योगों के तथा मिध्यात्व और कषाय मादि के मन्द होने से कर्म यास्त्रव का घटना संवर है। संवर से प्रास्वव रुकता है और बंध का प्रभाव होता है और बंध के न होने से संसार का प्रभाव होता है और जीव मुक्त हो जाता है। इस प्रकार संवर के स्वरूप का चितवन करना संवरानुप्रेक्षा है । ६. निराशुप्रेक्षा पूर्वोपार्जित शुभाशुभ कर्मों के उदय के अनुसार इष्ट अनिष्ट सामग्री के समागम होने पर राग ष रहित साम्य भाव धारण करने से सत्ता में स्थित कर्मों का स्थिति अनुभाग न्यून होकर बिना फल दिये ही कर्म वर्गणायें कर्मस्व शक्ति रहित होकर समाप्त होती हैं। इस प्रकार संवरपूर्वक प्रात्मा के प्रदेशों के कमों का एकोदेश क्षय होना निर्जरा और समस्त कर्मों का प्रभाव मोक्ष कहलाता है। इस प्रकार निर्जरा के स्वरूप का बारम्बार चिन्तवन करना निर्जरानुप्रेक्षा है। १०. लोकानुप्रेक्षा: यह समस्त लोक अनन्तानन्त प्राकाश के बीचोंबीच प्रनादि निधन तीन सौ तैतालीस राजू प्रमाण पनाकार है । वास्तव में तो लोक एक ही है। परन्तु व्यवहार में उसके उध्वं लोक, मध्य लोक पौर पाताल लोक ऐसे तीन लोक हैं । यह लोक उत्तर से दक्षिण को सात राजू लम्बा है और चौदह राज अंधा है और पूर्व से पश्चिम को तल में सात राजू चौड़ा है फिर ऊपर को कम से घटकर सात राजू को ऊंचाई पर मध्य लोक में एक राजू चौड़ा है पौर फिर क्रम से बढ़कर साढ़े दस राजू की ऊंचाई पर चौड़ाई पांच राज है । फिर क्रम से घटकर अन्त में एक राजू चौड़ाई है । यह लोक चारों तरफ से (१) घनोदधि वातवलय (२) धन वातवलय (३) तनु धातबलय, इन तीन वातवलयों से घिरा हमामाकाश के प्रदेशों में निराधार है। उसमें भरे हुए अनन्तानन्त जीव अनादि काल से अपने गुद्ध ज्ञान दर्शन को भूलकर इन्द्रिय जनित सुखों को प्राप्त करने के लिए यथार्थ स्वरूप जाने बिना प्रज्ञान वश मिथ्या मार्ग का सेवन कर नित्य प्रसह्य दुःख सहते हुए चतुर्गति में भ्रमण कर रहे हैं । जीवों के अतिरिक्त पुद्गल धर्म, अधर्म, माकाश मौर काल ये पाँच द्रव्य भोर भी इस लोक में स्थित है। इस प्रकार लोक के स्वरूप का चितवन करना लोकानुप्रेक्षा है। ११. बोषिकुलभ भावमा :--- साधारण स्थावर काय से प्रत्येक स्थावर काय होना दुर्लभ है फिर क्रमश: उत्तरोत्तर दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चौधन्द्रिय मोर असैनी पंचेन्द्रिय पशु, भवनत्रिक देव, मलेच्छ शूद्र, स्वर्गवासी देव मार्य क्षेत्र में उत्तम कुलीन मनुष्य पर्याय का होना ऊंच गोत्र, दीर्घायु समस्त इन्द्रियों की परिपूर्णता, आत्म ज्ञान होने योग्य क्षयोपशम, पवित्र जिनधर्म की प्राप्ति, साधर्मी का सत्संग मोर बोधि प्रर्थात् रत्नत्रय का प्राप्त होना अतिशय दुर्लभ है । इस दुर्लभता का बारम्बार चितवन करना बोधिदुर्लभ अनुप्रेक्षा है। १२. धर्मग्रनुप्रेक्षा :-- निश्चय में धर्म वस्तु का स्वभाव है । व्यवहार में रत्नत्रय स्वरूप तीन प्रकार उत्तम क्षमा मावि वश लक्षण रूप दश प्रकार व अहिंसा लक्षण रूप ही धर्म है । पास्मा का शुद्ध निर्मल स्वभाव ही Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार ग्रंथ १२० अपना धर्म है। इसकी प्राप्ति के बिना यह जीव अनादिकाल से संसार में परिभ्रमण करता रहता है। वह धर्म ही संसारसागर से निकाल मोक्षस्थान में पहुंचाने वाला है इस प्रकार से धर्म स्वरूप का चितवन करना धर्म मनुप्रेक्षा है । ॥ इति द्वादशानुप्रेक्षा । अथ बाईस परीषह वर्णन - असातावेदनीय कर्म के निमित्त नाना प्रकार के कष्ट प्रर्थात् दुःख होने पर भी व्याकुल न होकर उस दुःख और क्लेश को पूर्वोपार्जित कर्म का फल समझकर समताभाव से कर्मों की निर्जरा के लिए सहन करना परिषह है । परिषद् बाईस प्रकार का है -- (१) क्षुधा, (२) तृषा, (३) शीत, (४) उष्ण, ( ५ ) वंशमशक ( ६ ) नग्नता, (७) परति (८) स्त्री, (६) चर्या, (१०) निषद्या, (११) शय्या, (१२) प्राक्रोश, (१३) वर्षा, (१४) याचना, (१५) अलाभ, (१६) रोग, (१७) तृणस्पर्श, (१८) मल, (१६) सत्कार पुरस्कार (२० ) प्रज्ञा, (२१) श्रज्ञान श्रौर, (२२) प्रदर्शन | इस प्रकार ये बाईस परीषह हैं । (१) अनशन उनोदर आदि त बहुत काल तक करने पर भी निर्दोष, शुद्ध, निरंतराय महार मिले तो ग्रहण करना और नहीं मिले तो खेद खिन्न न होकर क्षुधा श्रादि वेदना को धैर्यपूर्वक सहन कर लेना क्षुधा परीषह विजय है । (२) मुनि का भोजन दूसरे के आधीन है, इससे प्रकृति के विरुद्ध उष्ण प्रकृति वाले भोजन से अथवा ऋतु के ग्रीष्म प्रताप से तृषा सताए तो विकल चित न होकर शांतिरूपी जल से शान्त कर देना वह तृषा परी जय है । (३) संसारी जीव अंतरंग से विषय-वासना को और बाह्य लोक-लज्जा के वशीभूत होकर नग्न नहीं रह सकते हैं, नग्न होना बड़ा कठिन कार्य है परन्तु तपस्वी साधु वस्त्र रहित नग्न होकर भी माता की गोद के बालक के समान निर्विकार नग्न रूप से उत्पन्न हुई लोक-लाज को जीतकर निर्भय रहते हैं, निर्भय होकर रहना ही नग्न परीषह जय है । (४) अनेक प्रकार के देश, काल आदि जनित कष्ट माने पर तथा अत्यन्त क्षुधा, तृषा प्रादि की बाधा होने पर भी व्याकुलता रहित, शांतचित रहना वह अरति परिषह जय है । (५) जिन स्त्रियों के हाव-भाव आदि से महान बड़े-२ शूरवीरों का मन भी विकृत हो जाता है यह मुनि उसे जीतते हैं मतः यह स्त्री परिषह का जीतना है । (६) चार हाथ प्रमाण भूमि को भली प्रकार से देखकर नंगे पाँव मार्ग में गमन करते हुए सूखे तृण, कंटक पैरों में लगने पर भी प्रथवा छेदने पर प्रथम गृहस्थ अवस्था में भोगे हुए वाहन उपवाहनों को स्मरण न करना, व्याकुल तथा खेद खिन्न न होना वह चर्या परीषह जय है । (७) पर्वत को गुफा, शिला तथा वृक्षों के कोटरों में ध्यान करने के निमित्त संकल्प किए हुए प्रासन से उपसर्ग के कारण प्राने पर भी तथा मनुष्य चोर, सिंह, बाघ, वैरीकृत आक्रमण मादि की व धूप, शीत आदि की बाधा से आसन से न हटना, कायरता तथा व्याकुलता रहित निर्भय स्थिर रहना बह निषद्यापरीष जय है 1 Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार म (८) डांस, मक्षिका, मच्छर, बिच्छू प्रादि तथा जंगली जन्तु पक्षौ जनित काटने, मारने की पीड़ा को ध्यान में मग्न रहते हुए शांतिपूर्वक बेदरहित सहन करना वह दंशमशक परीषहजय है । (2) पिछली रात्रि में कोमल या कठोर ककरीली भूमि पर अथवा शिला पर खेद न मानते हुए एक श्रासन से ग्ररूप निद्रा लेना और पूर्वकाल में कोमल शय्या पर शयन करते थे मौर महल में सुरक्षित रहते थे ऐसा न सोचना वह शय्या परीषह जय है । १२६ (१०) ग्रीष्म काल में सूर्य के प्रताप से तपते हुए पर्वतों पर प्रतापन योग धारण कर गर्मी की बाधा को समभावों से सहन करना वह उष्ण परीषहजय है । (११) शीतकाल में जलाशयों के निकट ध्यान स्थित होते हुए शीतल पवन वा पाले की प्रसा घर बाधा को समभावों से खेद रहित सहन करना वह शीत परीषह्जय है । (१२) सर्व प्राणियों के हितकारक साधुओं को कोई दुष्ट, अनिष्ट, दुर्वचन चोर, ठग, पाखण्डी, लज्जा रहित, मूर्ख बताए तो उसको सुनकर क्षमा तथा शांति ग्रहण करना वह श्राक्रोश परीषहजय है । (१३) जहाँ कोई निरपराध ही अपने दुष्ट स्वभाव से मारने लग जाए वा बाँध दे तो उस पर रोष नहीं करना और शांतिपूर्वक खेदरहित सहन करना वह बंध परीषह का जीतना है। (१४) चिरकाल पर्यंत घोर तप करते समस्त शरीर शुष्क हो जाने पर निर्दोष, शुद्ध, निरन्तराय, आहार आदि की प्राप्ति न होने पर भी लाभ के समान संतुष्ट रहना अर्थात् भोजन, पान औषध प्रादि की किसी से इच्छा प्रगट न करना याचना परीषह जय है । (१५) साघु शास्त्रोक्त नियत समय पर प्रहार के निमित्त दातार के घर जाकर याचना न करे, नवधा भक्ति सहित निरंतराय शुद्ध भोजन मिले तो लेवे नहीं तो महीनों का अंतर पड़ने पर भी तप से शिथिल, कायर न होकर उससे पूर्वसंचित कर्मों की निर्जरा जानकर साम्यभाव धारण कर खेदयुक्त न होना वह भलाभ परीषह का जीतना है। (१६) वात, पित्त, कफ आदि की न्यूनाधिकता से उत्पन्न हुई पीड़ा की चिकित्सा की वांछा नहीं करना, रोग जनित पीड़ा को लेदरहित सह लेना वह रोग परीषह जय है । (१७) मार्ग में गमन करते समय तृण, कंटक, कंकरों के चुनने पर भी उससे उत्पन्न वेदना को साम्यभाव से सह लेना तथा पाँव में अथवा अन्य मंगों में कांटा फांस श्रादि के लगने पर अपने हाथ से न निकाला और न निकलवाने की इच्छा करना और यदि कोई स्वतः निकाल दे तो उसमें हर्ष नहीं मानना वह तृण स्पर्श परीषह जीतना है। (१८) यावज्जीवन स्नान का त्याग करने पर अपने शरीर पर पसेव से भीगे अंगों पर धूल पड़ने से उत्पन्न हुआ ग्लानि का कारण मल को देखकर उसके दूर करने के निमित्त स्नान आदि की इच्छा न करना मौर न ही उसके कारण चित्त में खेद करना वह मल परीषद् जीतना है। (१६) स्वयं अत्यन्त प्रौर वृद्ध होने से सत्कार के योग्य होते हुए भी कोई आदर, सत्कार, प्रणाम आदि न करे तो चित्त में खेद न करना और मानापमान में समभाव रखना सत्कार पुरस्कार परीषह का जीतना है। (२०) तर्क, छन्द, कोष, व्याकरण आदि का विशेष ज्ञान होते हुए भी विद्वत्ता का अभिमान न करना प्रज्ञा परोषह जय है । Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ णमोकार रेप (२१) घोर तपश्चरण प्रादिगार पर भी प्रयथि, मनः पप गोपाल नाम की स्वयं को प्राप्ति नहीं होती तथा अन्य को अल्पकाल और थोड़े तपश्चरण आदि से ज्ञान की प्राप्ति देखकर खेद खिन्न-न होना और तप से शिथिल न होना अज्ञान परीषह जय है। (२२) बहुत काल पर्यन्त घोर तप करते हुए भी ऋखि प्राप्त न हो तो चित्त में ऐसा विकल्प न करना कि शास्त्र में ऐसा सुना है कि तप के बल से अनेक प्रकार की ऋद्धि प्राप्त होती है । परन्तु मुझे बहुत काल से कठिन-कठिन तप करते हुए भी किसी प्रकार की ऋद्धि प्राप्त नहीं हुई। कदाचित् यह शास्त्रोक्त वार्ता असत्य तो नहीं है इस प्रकार संदेह न करना प्रदर्शन परीषह जय है। ___ इन बाईस परीषह जनित पीड़ा को समभावों से सहन करना भी परम संवर का कारण है। ये सब परीषह किन-२ कर्म कृत कितनी पौर किन-२ गुणास्थानों में कितनी-२ होती हैं उनका वर्णन करते हैं : इनमें से ज्ञानावरण के उदय से प्रज्ञा, अज्ञान दो और दर्शन मोह के उदय से प्रदर्शन होती हैं। नग्न, निवद्या, स्त्री, सत्कार, पुरुस्कार, दुर्वचन याचना, मरति-धारित्र, मोह के उदय से होती है । अलाभ अन्तराय के उदय से होती है और क्षुधा, तृषा, शीत, उष्ण, देशमशक, चर्या, शय्या, बधर्वधन, रोग, तण स्पर्श, मल वेदनीय के उदय से होती है। नवमें गुण स्थान तक बाईस परीषह होती है साथ उन्नीस परीषह तक हो सकती है, क्योंकि शीत उष्ण में से एक काल में एक ही होगी और चर्या' शय्या, निषद्या इन तीनों में से एक काल में एक ही होगी। इस प्रकार उन्नीस परिषह ही एक साथ उदय हो सकते हैं दशर्वे, ग्यारहवें और बारहवें गुण स्थानों में शानावरण, अन्तराय, वेदनीय के उदय से जनित चौदह परीषह होती है यथा प्रज्ञा, प्रज्ञान, अलाभ, क्षुधा, तृषा, शीत, उष्ण, दंशमशक, चर्या, शय्या, बंध, रोग, तृण स्पर्श और मल होती है । बारहवें गुणस्थान के अन्त में शेष तीन घातिया कर्मों का नाश करके सयोग केवली नामक तेरहवें गुण स्थान को प्राप्त होकर संसार के समस्त त्रिकालवी चराचर पदार्थों को युगपत हस्तकमलबत् प्रत्यक्ष जानते हैं । इस गुण स्थान में चारों घातियाकर्मों के प्रभाव से केवल वेदनीय कर्म जनित ग्यारह परीषह होती है। परन्तु मोहनीय कर्म के प्रभाव होने से वेदनीय कर्म का उदय ; पग्नि से जली हुई रस्सी के बल के समान नाम मात्र रहता है परन्तु जोर नहीं कर सकता है अर्थात् यह ग्यारह परीषह केवली भगवान् को किसी प्रकार की बाधा नहीं पहुंचा सकती हैं इसीलिए यह न होने जैसी है। पांच प्रकार का चारित्र धर्म सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहार विशुद्धि, सूक्ष्म सांपराय, भौर यथाख्यात-इस प्रकार पांच प्रकार का चरित्र है । व्रत धारण करना, पंच समिति पालन, कषायों का निग्रह, मन, वच, काय, की पशुभ प्रवृत्ति का त्याग और इन्द्रियों की विजय जिस जीव के हो उसे संयम गुण प्रगट होता है । सामायिक चारित्र सम्पूर्ण सावध योगों का भेद रहित त्याग करना सामायिक चारित्र है। छेदोषस्थापना चारित्र प्रमादश सावध कम हो जाने से तज्जनित दोष की निवृत्ति के लिए प्रायश्चित लेकर खेद देना और पुनः प्रारमा को बत धारणादि संयम रूप क्रिया में प्रवर्तावने को छेदोपस्थापना चारित्र कहते हैं। परिहार विशुद्धि चारित्र-- जीवों की पीड़ा का परिहार करने से प्रादुर्भूत पात्मा की शुद्धि विशेष को परिहार विशुद्धि चारित्र कहते हैं। Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गमोकार च सूक्ष्मसाम्पराय चारित्र उपशम श्रेणी अथवा अपक श्रेणी वाले जीव के अति सूक्ष्म कषाय के उदय से सूक्ष्म सांपराय नामक दसवें गुणस्थान में जो चारित्र होता है उसे सूक्ष्म सांपराय चारित्र कहते हैं। ययाख्याप्त चारित्र कषायों के सर्वथा प्रभाव होने से उत्पन्न हुई शुद्धि विशेष को यथास्यात चारित्र कहते हैं। सामायिक मौर छेदोपस्थापना चारित्र प्रमत्त विरत संशक छठे गुणस्थान से अनियतिकरण नामक नव गुणस्थान तक होते हैं। परिहार विशुद्धि चारित्र प्रमत्त और अप्रमत्त संज्ञक छठे, सातवें गुणस्थान में होते हैं । सूक्ष्म सांपराय चारित्र सूक्ष्म सांपराय संझक दसवें गुण स्थान में होता है और यथाख्यात पारित उपशांत कषाय नामक ग्यारहवें गुणस्थान में से प्रायोग केवली नामक चौदहवें गुणस्थान तक होता है । इसमें विशेषता ये है कि ग्यारहवें चारित्र मोहनीय कर्म के उपशम से पौर ऊपर के तीन गुणस्थानों में भय से यह संयम होता है । इस प्रकार संकर के होने के मुख्य छ: कारणों का वर्णन किया गया है। निर्जरा तत्व का वर्णन प्रात्मा के प्रदेशों से कर्मों का एकोदेश क्षय हो जाना निर्जरा है। निर्जरा दो प्रकार की है। निर्जरा के दो भेद - सविपाक निर्जरा और प्रविपाक निर्जरा। सविपाक निर्जरा-- सत्ता स्थित कर्मों का उदय में प्राकर एकोदेश क्षय हो जाना सविपाक निर्जरा है । यह निर्जरा सम्पूर्ण संसारी जीवों के अपने आप सदाकाल होती रहती है। यह मोक्ष में कार्यकारी नहीं होती क्योंकि जैसे-जैसे क्रम पूर्वक पूर्व संचित कर्म वर्गणा उदय काल आने पर प्रपना फल देकर निर्जरती है, उसी प्रकार नवीन-नवीन कर्म वर्गणामों का प्रागमन होकर फिर नूतन कर्म बंध होता है । अतः संसार का ही कारण है। जैसे वृक्ष के पके हुए फल भोगने पर वीर्य उपजन शक्ति से नवीन वृक्ष उगाए जाने पर फल देते हैं। यह परिपाटी क्रमशः चलती रहती है । प्रविपाक निर्जरा कर्मों का उदय काल के प्राए बिना ही, बिना फल दिये ही, यात्मा के प्रदेशों से एकोदेश क्षय हो जाना प्रविपाक निजरा है । यह मोक्ष के लिए कारण है क्योंकि इसमें नवीन कर्मों का बंध नहीं होता जैसे वृक्ष के ऐसे कच्चे फल जिनमें बीज उगने योग्य न हुए हों और पकने योग्य न हुए हों और कच्चे ही तोड़कर भोगे जाएं तो आगे के लिए बीज नष्ट हो जाता है जिससे पुनः वृक्षोत्पत्ति नष्ट हो जाती है और वक्ष को मल से खोद कर भस्मीभत करे तो वक्ष और बीज दोनों का प्रभाव हो जाए: उसी प्रकार घोर परीषह, जीव, तप करके कर्मों को बलात्कार उदय में लाएं तो वीर्य नष्ट हो जाता है। वे फिर शुक्ल ध्यान रूपी पावक से मोहनीय मादि कर्म वृक्षों को समूल नष्ट करे तो मोस प्राप्त होता है। अब अविपाक निर्जरा के कारण बारह प्रकार के तप का वर्णन किया जाता है । यद्यपि तप दस प्रकार के धर्मों के अन्तर्गत हैं परन्तु संवर पूर्वक निर्जरा का प्रधान कारण होने से इनको भिन्न कहा गया Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ नमोकार अंक है । सांसारिक विषयों की इच्छा रहित होकर प्रात्मा को तपाना अर्थात् कर्म मल रहित निर्मल करना तप है । अन्तरंग और बाह्य के भेद से तप वो प्रकार का है। बाह्य तप के भेद अनशन, अवमौदर्य, वत परिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्तशय्यासन, और काय क्लेश छ; प्रकार के बाह्य तप है। अनशन तप __ ख्याति लाभ की इच्छारहित गर सिद्धि के प्रभाव को पास तान स्वाध्याय की सिद्धि के अर्थ प्रमाद प्रभाव के लिए एक दिन की मर्यादा रूप चार प्रकार के भोजन का त्याग करना अनशन तप है। अवमौदयं तप मिष्ट भोजन के लोभ रहित निद्रा के प्रभाव तथा संयम की सिद्धि के अर्थ व ध्यान की निश्चलतादि के लिए प्रल्प भोजन करना अवमौदर्य तप है । व्रत परिसंख्यान तप प्राहार लेने को अटपटी प्रतिज्ञा करके चित्त के संकल्प को रोकना-जैसे प्राज वन में मिलेगा तो लेवेंगे या दो तीन घर से अधिक में न जावेंगे, ऐसी प्रतिज्ञा करके आहार के लिए गमन करना और संकल्प के अनुसार भोजन प्राप्त न होने पर वापिस बन में आकर उपवास धारण कर लेना व्रत परिसंख्यान तप है। रस परित्याग तप संयम की सिद्धि और लोलुपता के त्याग के निमित्त घृत, तेल आदि षट् रसों में से एक दो प्रादि का त्याग करना रस परित्याग तप है। विविक्तशय्यासन तप---- जीवों की रक्षार्थ प्रासुक क्षेत्र में पर्वत, गुफा, मठ, वन खंड प्रादि एकान्त स्थान में ब्रह्मचर्य, स्वाध्याय, ध्यान की निश्चलता के लिए शयन व प्रासन करना विविक्तशय्यासन तप है। कायक्लेश तप शरीर के सुखिया स्वभाव को मिटाने के लिए, कष्ट सहन करने के अभ्यास के लिए साम्यभावपूर्वक, शक्ति के अनुसार ग्रीष्म में पर्वत पर, वर्षा में वृक्ष के नीचे, शीतकाल में जलाशय के तट पर ध्यान धरना व कठिन-कठिन प्रासन लगाना कायक्लेश तप है। यह छः प्रकार का बाह्य तप है, जो प्रगट रूप में देखने में प्राता है। अब अभ्यंतर तपों का वर्णन किया जाता है। अभ्यन्तर तप के भेद पायश्चित, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग और ध्यान अभ्यन्तर तप के छ: भेद हैं। प्रायश्चित तप अपने तप, प्रत में लगे हुए दोषों को उनके शुद्ध होने के निमित्त गुरु से स्पष्ट प्रगट कर देना कि . Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार ग्रंथ मुझको यह दोष लगा है, मालोचना है। दोष दूर होने के लिए प्रार्थना करना अथवा मैंने जो अपराध किए हैं सो निष्फल हों-इस प्रकार कहना प्रतिक्रमण है । पालोचना और प्रायश्चित प्रतिक्रमण दोनों का एक साथ करना तदुभयपादियत त है। जिस वस्तु के ग्रहण करने से व जिस कार्य के करने से दोष लगा हो उसका त्याग करा देना विवेक प्रायश्चित तप है। नियमित समय तक कायोत्सर्ग दंड लेना व्युत्सर्ग प्रायश्चित तप है । अनशन प्रादि तप करना तप प्रायश्चित है। दिवस, पक्ष, मासादिक की दीक्षा का घटाना छेदप्रायश्चित है। नियत समय के लिए संघ से बाहर कर देना परिहार प्रायश्चित तप है। पिछली समस्त दीक्षा को छेदकर फिर से नवीन दीक्षा देना छेदोपस्थापना प्राचित है । इस प्रकार प्रायश्चित तप नौ प्रकार का है। विनय तप शंकादि दोष रहित तत्वार्थ श्रद्धान करना दर्शन बिनय है। संशय, विपर्यय, अनध्यसायरहित अष्टांग रूप ज्ञानाभ्यास करना ज्ञान विनय है । विवेक सहित निरतिचार क्रिया धारण करना चारित्र विनय है । देव, शास्त्र, गुरु तथा तीर्थ भादि का हृदय में वंदना रूप प्राचरण करना उपचार विनय है । वैयावृत्य तप यह चार प्रकार का विनय तप है । जो शिक्षा, दीक्षा दें वह प्राचार्य हैं। जिनागम अध्ययन, अध्यापन करायें बह उपध्याय हैं । उपवासायिक विशेष तप करें वह तपस्वी हैं । जो श्रुतज्ञान के अध्ययन करने के अधिकारी हों वह शिष्य हैं । जिनका शरीर रोगादि से पीड़ित हो वह ग्लान है। वृद्ध मुनियों का समूह गण है । दीक्षा लेने वाले एक प्राचार्य के शिष्य कुल है । ऋषि (ऋद्धिधारी), मुनि (अवधि, मन पर्ययज्ञानी), यति (तेरह प्रकार चरित्र पालने में यत्न करने वाले तथा श्रेणी मांउने वाले), अनागार (शेष सर्व निनन्य साधु ) इन चार प्रकार के मुनियों का समुह संघ है । जो बहुत काल के दीक्षित हों उन्हें साधु कहते हैं । जो लोकमान्य प्रशंसनीय हों वह मनोज्ञ हैं। इन सबका शरीर सम्बन्धी व्याधि तथा दुष्टजनों द्वारा कृत उपसर्गादिक में सेवा टहल करना वैयावृत्य तप है। स्वाध्याय तप विनयवान धर्म के इच्छुक पात्रों को धर्म श्रवण कराना वांचना स्वाध्याय है । जाने हुए प्रर्य को बारम्बार विचारना अनुप्रेक्षा स्वाध्याय है। शुद्ध आचरण से घोषना प्राम्नाय स्वाध्याय है। संशय की निवृति के लिए बहुसानियों से पूछना पृच्छनास्वाध्याय है। उन्मार्ग को दूर करना प्रौर धर्म वृद्धि के लिए उपदेश देना धर्मोपदेश स्वाध्याय है। इह प्रकार यह पाँच प्रकार का स्वाध्याय तप है। Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार ग्रंथ व्युत्सर्ग तप-- ___ धनधान्यादि बाह्य परिग्रह और राग द्वेष मोह प्रादि अभ्यन्तर परिग्रह का त्याग करना व्युत्सर्ग तप है। ध्यान सप चिस की वृत्ति को अन्य सब क्रियाओं से खींचकर एक ज्ञेय की तरफ स्थिर करना एकाग्रचिन्तानिरोध वा ध्यान तप है । यह ध्यान उत्तम सहनन वालों के प्रर्थात् छह संहननों में से पहले वा वध वृषभ नाराच संहनन, वमनाराच संहनन और नाराच सेंहनन के धारक पुरुषों के अतिरिक्त अधिक से अधिक अन्तमुहर्त पर्यन्त रहता है। फिर दूसरे ज्ञेय पर चला जाता है । यही तीन संहनन ध्यान के कारण है। यह ध्यान पात, रौद्र, धर्म, शुक्ल के भेद से चार प्रकार है। इनमें से प्रात, रौद्र ये दो अप्रशस्त- धर्म पौर शुक्ल ध्यान प्रशस्त हैं । अब पार्तध्यान का लक्षण वर्णन किया जाता है जिससे परिणाम दुखरूप हो वह प्रार्तध्यान है। इसके चार भेद हैं । इष्ट, प्रिय, स्त्री, पुत्र, कुटुम्बी, मित्रादि, चेतन, प्रचेतन पदार्थों के वियोग होने पर उनकी प्राप्ति के लिए बारम्बार चिन्तवन करना, चिन्तातुर होना इष्ट वियोगज पार्तध्यान है अनिष्ट दुखदाई स्त्री पुत्रादि तथा पशु व खोटे पदार्थ का संयोग होने पर कलुषित परिणाम होना अनिष्ट संयोगज आर्तध्यान है। रोगनित पीड़ा होने पर अधीर होकर संक्लेशस्वरूप परिणाम होना वेदनाजनित प्रार्तध्यान है और प्रागामी काल में भोगोपभोगादि की प्राप्ति के लिए निदान करना और सदैव इसको वाधा रूप परिणाम रखना निदानबंध प्रार्तध्यान मुख्यतया तिर्यच गति का कारण है। परन्तु सम्यक्त्व के प्रादुर्भाव होने के पश्चात् (थावर विकलत्रय पशुमेंनहि उपजत सम्यकधारी) इस वाक्य के अनुसार तियच गति का कारण नहीं होता है । मिथ्यात्व गुणस्थान प्रादि से लेकर पांचवे देशविरत संशकगुणस्थान तक चारों पौर छठे प्रमत्तसंयत नामक गुणस्थान में निदान बंध रहित शेष तीन बार्तध्यान होते हैं। ये संसार की । परिपाटी से उत्पन्न भावभ्रमण के कारण स्वतःस्वभाव बिना प्रयत्न होते हैं। वह त्यामने योग्य निर्दय भावों का होना रौद्र ध्यान है । यह चार प्रकार का होता है। अपने मन, वचन, काय से जीवों की हिंसा करने, कराने, कराना करे हुए में हर्षमानना मृषानन्द रोद्र ध्यान है। चोरी कराना व की हुई में आनन्द मानना चौर्यानन्द है । संसारिक सामग्री का बहुत संग्रह करना, कराना व की हुई देखकर हर्ष मानना परिग्रहानन्द रौद्रध्यान है । यह चार प्रकार का ध्यान है। यह चार प्रकार रौद्रध्यान नर्क गति का कारण है । परन्तु सम्यक्त्व का सद्भाव होने से (प्रथम नरक बिन षट् भू ज्योतिषवान भवन षड् नारी, पावर विकलत्रय पशु में नहि उपजत समकितधारी) इस वाक्य के अनुसार मन्द होने से नरक गति के कारण नहीं होते हैं। (प्रथम नरक बिन षड् भू) इस पद का अभिप्राय यह है कि सम्यक्त्व उत्पन्न होने से पहले जिसने नरक मायु का बन्ध कर लिया हो वह रत्नप्रभ भूमि मर्थात् पहले नरक में ही जीव जघन्य व मध्यम स्थिति पर्यन्त ही दुखों को अनुभव करता है उसे वहाँ बहुत दिवस पर्यन्त दुःख सहन नहीं करने पढ़ते यह सम्यक्त्व की महिमा है । यह पंचम गुणस्थान तक बिना प्रयत्न स्वतः होता है, इसलिए त्यागने योग्य हैं। धर्म ध्यान भाझा विजय, अपाय विषय, विपाक विषय और संस्थान विषय, यह धर्म ध्यान के चार प्रकार Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार प्रेम १२५ हैं। विशेष शानी उपदेशवक्ता के प्रभाव से और अपनी बुद्धि की मन्दता से पदार्थ के सूक्ष्म स्वरूप को न जान सके तो ऐसे स्थल पर प्ररंहत शास्त्र रूप भगवान की प्राज्ञा को प्रमाण मानकर तप चिन्तवन करना आशा विचय धर्मध्यान है। निरन्तर कर्म शत्रुनों के दूर करने और मोक्ष के कारण मानव, बंध, संवर, निर्जरा, मोक्ष तथा जप, तप, शील, संयम, नियम, नतादिक चितवन करना अपाय विचय धर्मध्यान है। ज्ञातावरणानि बाट कर्मों का दव्य क्षेत्र काल, भाव के निमित्त से जो विपाक अर्थात् फल है उससे जो आत्मा की नाना प्रकार की सुखदुखादि रूप अवस्था होती है उसका निजस्वरूप से भिन्न उपाधिक कमजनित विचारते रहना विपाक विचय धर्मध्यान है। प्रकृत्रिम लोक और उसके प्रधः, उर्ध्व, मध्य विभागों का तथा उसमें स्थित पदार्थों का और पंचपरमेष्ठी व निजात्मस्वरूप का चितवन करना संस्थान विचय धर्मध्यान है । यह ध्यान शुभ और सुगति का कारण चौथे असंयत गुणस्थान से सांतवे अप्रमतसंपत गुणस्थान तक होता है। इस संस्थान विचय धर्मध्यान के पिंडस्थ,-पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत, चार भेद हैं।। ____लोक का माकार विचारकर दृष्टि संकोच जम्बूद्वीप का विचार करना, फिर क्रम से भरतक्षेत्र, पाय खण्ड, फिर निज देश, नगर, गृह, कोठा, फिर अपने पिड का ध्यान कर विचारना पिंहस्थ ध्यान है। पंचपरमेष्ठी के वाचक पैतीस अक्षरों का, सोलह अक्षरों का, छ: अक्षरों का पांच अक्षरों का चार अक्षरों का, दो अक्षरों का, एक अक्षर का, णमो अरिहंताणं । णमो सिद्ध गं, णमो अइरियाणं । णमो उवज्झायाणं । णमो लोए सव्यासाहणं (३५) अरहन सिद्ध प्रहरिया,. उवझाया साहु। (१६)। परहंत सिद्ध अथवा अरहतसिद्धा (६) असि मा उ सा (५), अरहंत (४) सिद्ध (२), (१) तया गुरु प्राशानुसार अन्य पदों का आश्रय लेकर जो ध्यान किया जाए उसको पदस्थ ध्यान कहते हैं । समवशरण में चार धातिया कर्म रहित, अनन्त चतुष्ठय संयुक्त, सप्तधातु रहित, परमौदारिक शरीर में स्थित और अष्टादश दोष रहित, गंधकुटी में स्फटिकमयी सिंहासन के मध्य अत्यन्त कोमल पवित्र, अनुपम, सहस्त्र दल वाले रक्त कमल की कणिका के मध्य में चार अंगुल अंतरिक्ष शांतस्वरूप श्रीजिनेन्द्र भगवान स्थित हैं। अपने मन में ऐसा प्ररहंत भगवान का स्वरूप क्रमशः मुक्त होने तक विचारना रूपस्थ ध्यान है। शुक्लध्यान वर्णन-- यह ध्यान प्रतीन्द्रिय कर्ता, कर्म, क्रिया तथा ध्यान, ध्याता, ध्येय के विकल्प रहित होता है। इसमें चित्तवृत्ति स्वस्वरूपाभिमुख होती है। इसके चार भेद हैं । पृथक वितर्क विचार, एकत्व वितर्क सूक्ष्म क्रिया प्रतिपरिश, और व्युपरत्त क्रिया निति ! इनमें प्रथम पाया पृथक वितंक विचार तीनों शुभ सहननों में प्रौर शेष तीन पाए वज. वृषभ. नाराच संहनन में ही होते हैं। आदि के दो भेद अंग पूर्व के पाठी श्रुत केवली के होते हैं। प्रागे सूक्ष्म क्रिया प्रतिपाति और न्युपरतक्रिया निवति ये दो शुक्ल ध्यान सगोग केवली और प्रयोग केवली के होते हैं । ये चारों शद्धोपयोग रूप ध्यान है। वितर्क विचार तो सत, मन, वचन, काय तीनों योगों में बदलने वाला प्रथम शुक्ल ध्यान है सयह श्रुत केवली के होता है । पृथक-पृयक ध्येय भी विर्तक के पाश्रय से बदलते रहते हैं। इसके फल से मोहनीय कर्म शांत होकर एकत्वं वितर्क ध्यान की योग्यता होती है। यह प्रपूर्व करण संशक भष्टम् Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार च १२८ गुणस्थान से उप-शांत नामक एकादश गुणस्थान तक होता है। इसे प्रथक वितर्क विचार को शुक्ल ध्यान कहते हैं । घातिया कर्मों के प्रभाव से श्रुत केवली के प्रर्थात् विचार रहित मणि दीपकवत् ग्रडोल जो ध्यान होता है उसे एक वितर्फ विचार कहते हैं। तीनों योगों में से किसी योग द्वारा यह क्षीण मोहसंज्ञक बारहवें गुथस्थान के अन्त में होता है । जो केवली मन, वचन योग और वादरकाय योग का निरोध होने पर एक सूक्ष्म काय योग में तेरहवें गुणस्थान के अन्त में होता है । उसे सूक्ष्म क्रिया प्रतिपाति कहते हैं । 1 जो केवली मन, वचन, काय तीनों योगों के निरोध हुए योगों के प्रभाव को मपेक्षा प्रयोग गुणस्थान में कहा गया है। उसे व्युपरत क्रिया निवति कहते हैं। ऐसे बारह प्रकार संवर पूर्वक निर्जरा के कारण बाह्याभ्यन्तर तपों का वर्णन समाप्त होता है । मोक्ष तत्व का वर्णन - सब कर्मों का अत्यन्त प्रभाव होने से श्रात्मा के निजस्वभाव का प्रगट हो जाना मोक्ष है। जिस में से चार घातिया कर्म तो बारहवें गुणस्थान के अन्त में दूसरे शुक्ल ध्यान द्वारा नाश करके अनन्त ज्ञान अनन्तदर्शन, अनन्तवीर्य अनन्त सुख क्षायिक चरित्र आत्मा के छहों गुणों को निर्विकार प्रगट कर सयोग केवली नामक तेरहवें गुणस्थान को प्राप्त होकर भव्य जीवों को मोक्ष मार्ग दिखलाते हैं। तब यह समस्त प्राणियों से पूज्य होने की अपेक्षा श्रत तथा शरीर सहित होने की अपेक्षा सकल परमात्मा और अल्पकाल के पीछे नियम से मोक्ष जायेंगे तथा आयु कर्म के उदय से वर्तमान काल में जीवित हैं, इसलिए जीवन्मुख कहलाते हैं। इसके पश्चात् अपने गुणस्थान के अन्त में योग निरोध कर अयोग केवली नामक चोदहवें गुणस्थान को प्राप्त होकर चतुर्थ शुक्ल ध्यान की पूर्णता ते श्रात्मा चारों श्रघातियाँ कर्मों का अभाव कर अपने उगमन स्वभाव से जिस स्थान से कर्मों से मुक्त होता है. उस स्थान से सीधा पवन झकोरों से रहित प्रग्निशिखावत् उर्ध्वगमन को एक ही समय में लोक के अग्रभाग में स्थित होकर ( पहुंच कर निकल परमात्मा हो जाता है । यह मुक्त आत्मा श्रागे अलोकाकाश में घर्म द्रव्य का प्रभाव होने से श्रागे नहीं जा सकता इस कारण समस्त मुक्त जीव लोक के शिखर पर विराजमान रहते हैं। माकार इस शुद्धात्मा का जिस शरीर से मुक्ति को प्राप्त हो जाता है; उस शरीर से कुछ कम, पुरुषाकार रहता है । इस निष्कर्म श्रात्मा के ज्ञानावरण कर्म के अभाव से अनन्त ज्ञान, दर्शनावरण कर्म के प्रभाव से अनन्तदर्शन, अन्तराय के प्रभाव से अनन्त वीर्य, दर्शन मौहतीय के प्रभाव से शुद्ध सम्यक्त्व, चारित्र मोहनीय के प्रभाव से शुद्ध चारित्र और समस्त घातिया कर्मों के प्रभाव से अनन्त सुख इस प्रकार घातिया कर्म के प्रभाव से आत्मा के छह गुण प्रकट होते हैं। तथा वेदनीय कर्म के प्रभाव से भयाबाध; गोत्रकर्म के प्रभाव से ऊंचनीच प्रर्थात् प्रगुरुलघुत्व, नामकर्म के प्रभाव से श्रमूर्तित्व अर्थात् सूक्ष्मत्व, आयु कर्म के प्रभाव से अवगाहनत्व गुण की प्राप्ति होती है। इस प्रकार मुक्त जीव भ्रष्ट कर्म के अभाव से श्रात्मीक सम्यक्त्वादि भ्रष्टगुण मंडित है । परन्तु निश्चय नय से एक शुद्ध चैतन्य रस का पिडं है । यह संसारी जीव पुरुषार्थं करके इस प्रकार परमात्मा परमैश्वर्य पद को प्राप्त कर मोक्ष धाम में अविनाशी अनन्त सुख को भोगता हुमा नित्यानन्द सागर में मग्न रहता है और संसार के आवागमन से छूट जाता है । इस मानन्दमय सिद्ध प्रवस्था को पाने का कारण निश्चय और व्यवहार ऐसे दो भेदरूप सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यग्चरित्र की एकता है। ऐसा जान अनादि काल काय से सेवन किए हुए Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ !! णमोकार ग्रंथ ERA विषय कषायों को छोड़कर श्रालस्य दूर कर, साहस करके अपने ( सिद्ध) पद की प्राप्ति के लिए भव्य जीवों को इन सात तत्वों का स्वरूप जानकर उन पर दृढ़ विश्वास करना ही सम्यग्दर्शन, सम्यक्त्व या श्रद्धान कहलाता है । यह श्रद्धान निश्चय सम्यक्त्व का कारण है। इसीलिए व्यवहार सम्यक्त्व कहलाता है | इस सम्यक्त्व को माठ अंगसहित घोर पच्चोस दोष शंकाकांक्षा आदि आठ दोष, आठ मद पट् अनायतन और तीन मूड़ता ) रहित निर्मल धारण करना चाहिए। सम्यक्त्व के आठ अंग नाम सम्यक्त्व के निःशंकित, निःकांक्षित, निर्विचिकित्सा श्रमूदृष्टि, उपगूहन, स्थितिकरण, वात्सल्य और प्रभावना, ये आठ अंग हैं । सम्यक्त्व के प्राठ अंगों का स्वरूप -- निःशंकित अंग - शंका नाम संशय तथा भय का है। श्री अरहंत भगवान कथित परमागम में जो लोकालोक का वितरण तथा पदार्थों का जो स्वरूप वर्णन किया है वह सत्य है या नहीं श्रथवा राम रावणादि पूर्वज मनुष्यों का वृतान्त तथा दूरवर्ती मेरु पर्वतादि का कहा है वह सत्य है या असत्य है ऐसा शंकारहित, जिनशासन में खड़ग की धार के समान प्रचल श्रद्धान करना निःशंकित अंग है। अब उदाहरणार्थ सम्यग्दर्शन के प्रथम निःशंकित अंग में प्रसिद्ध होने वाले अंजन चोर की कथा, लिखते हैं। इस भरत क्षेत्र में मगध देश के मध्य नाना प्रकार की शोभा सहित राजग्रह संज्ञक नगर में उत्कृष्ट धर्माचरण करने वाला, जिनेन्द्र भगवान के चरण सरोज का भंवरवत् लोलुपी, श्रावकाचार मंडित, साधु मुनि प्रादि गुणीजनों को वारित्र की वृद्धि के अर्थ निर्दोष, निर्मल, शुद्ध यथायोग्य समयानुसार चार प्रकार के दान को भक्तिपूर्वक सहर्ष देने वाला तथा दीन-दुखी दरिद्वियों को करुणा पूर्वक दान देने वाला दानी, विचारवान दान, पूजा व्रत उपवासादिक तथा ध्यान स्वाध्यायादि धर्मध्यान में मग्न रहने वाला एक जिनदत्त नामक सेठ रहता था। सांसारिक विषय भोगों से परान्मुख विरक्त रहने वाले जिनदत्त सेठ एक दिन चतुर्दशी की अर्द्धरात्रि के समय श्मशानभूमि में कायोत्सर्ग स्थित ध्यान कर रहे थे। उसी समय श्रमितप्रभ और विद्युत्प्रभ नामक दो देव वहां माये । इनमें से प्रमितप्रभ जैनधर्म विश्वास और विद्युत्प्रभ अन्य मत विश्वासी था । वे दोनों अपने २ स्थान से एक दूसरे के धर्म की परीक्षा निमित्त निकले। वहाँ पर उन्होंने प्रथम ही एक पंचाग्नि तप करने वाले तापस की परीक्षा की । वह उपसर्ग को न सहनकर अपने ध्यान से तत्काल ही विचलित हो गया। इसके पश्चात् श्मशानभूमि में जिनदत्त - सेठ को कायोत्सर्ग स्थित ध्यान करते हुये देखकर अमितप्रभ जैनधर्म का श्रद्धानी देव विद्यत्प्रभ से कहने लगा कि हे मित्र ! उत्कृष्ट चारित्र के पालन करने वाले मोक्ष साधन में तत्पर निर्ग्रन्थ मुद्राधारी जिनधर्म के सच्चे साधुयों की परीक्षा की बात तो अब जाने दो। परन्तु देखो वह गृहस्थ जिसे तुम कायोत्सर्ग ध्यान करते हुये प्रत्यक्ष अवलोकन करते हो। यदि तुम अपने में कुछ पराक्रम रखते हो तो तुम उसी को ध्यान करते हुये ध्यान से चलायमान कर दो। यदि तुम इसे ध्यान से चलायमान कर दोगे तो हम तुम्हारे कथन को ही निष्पक्ष होकर सत्य स्वीकार कर लेंगे। समितप्रभ के उसेजना युक्त वचन को सुनकर विद्युत्प्रभ ने जिनदत्त पर अत्यन्त दुस्सह प्रौर भयंकर उपद्रव किया। परन्तु जिनदत्त उसकी की हुई बाधा से रंचमात्र भी विचलित न होकर प्रलयकाल के पवन से प्रविचलित मेरु पर्वत के समान ज्यों के त्यों स्थित रहे। जब प्रातःकाल हुमा तब दोनों श्रमितप्रभ और विद्युत्प्रभ देवों ने विक्रिया कृत वेष को छोड़कर अपना असली वेष धारण कर महान् भक्तिपूर्वक विनय सहित भली प्रकार मादर-सत्कार - Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार प्रय किया और उनकी बहुत प्रशंसा कर संतुष्ट चित हो जिनदस को भाकाशगामिनी विद्या प्रदान कर कहा कि हे शाक्कोसम ! तुमको प्राज से आकाशगामिनी विद्या सिद्ध हुई। तुम पंच नमस्कार मंत्र की साधना विधि के साथ मन की इच्छानुसार जिसको प्रदान करोगे तो उसको भी यह सिर होगी । ऐसा जिनदत्त से कहकर अपने स्थान पर चले गये। बिना उद्यम अनायास माकाशगामिनी विद्या को प्राप्त हो जाने से जिनदत्त सेठ प्रति हर्षित हुमा । एक दिन उसे अकृत्रिम चैत्यालयों के दर्शन करने की इच्छा हुई । वह उसी समय प्राकाशगामिनी विद्या के प्रभाव से भगवान् के प्रकृत्रिम चैत्यालयों के दर्शन करने को गया। और पूर्ण भक्तिभाव से स्वर्ग मोक्ष मुख को देने वाली पार से भगवान की पूजा की। इसी प्रकार अब जिनदत्त निस्य प्रति भगवान के प्रकृत्रिम जिनमंदिरों के दर्शन करने के लिये जाने लगा। एक दिन वह चैत्यालयों के दर्शन करने को जाने के लिये तैयार खड़ा हुमा था कि उसी समय एक सोमदत्त नामक माली हाथ जोड़कर निवेदन करने लगा। कि हे स्वामिन् ! आप नित्य प्रति प्रातःकाल उठकर कहां जाया करते हैं ? सब उन जैनधर्म परायण जिनदत्त सेठ ने उसके वचनों को सुनकर उत्तर दिया कि मुझे दो देवों की कृपादृष्टि से प्राकाशगामिनी विद्या की प्राप्ति हुई है । सो उसके प्रभाव से सुवर्णमय प्रकृत्रिम जिनालयों की पूजा करने के लिये नित्य जाया करता हूं। भगवान् की पूजा महासुख को देनेवाली होत है। सेठ के वचन को सुनकर सोमदत्त पुनः जिनदत्त से निवेदन करने लगा कि हे प्रभो! कृपा करके यह विधा मुझको भी प्रदान कीजिये जिससे मैं भी अनेक प्रकार के उत्तमोत्तम सुगंधित पुष्पों को लेकर प्रति दिन प्रकृत्रिम जिनालयों की पूजा करने को जाया करूँ। पौर उसके द्वारा अशुभ कर्मों का निराकरण कर शुभ कर्म उपार्जन करूं, यदि प्राप विद्या प्रदान करेंगे तो परम अनुग्रह होगा। तब जिनदत्त ने सोमदत्त की जिनेन्द्र भगवान् के चरण कमलों की भक्ति और पवित्रता को देखकर उसे संपूर्ण विद्या साधन करने का उपाय बतला दिया । सोमदस उससे समस्त विधि सम्यक् प्रकार समझकर विद्यासाधन करने के निमित कृष्णपक्ष की चतुर्दशो की अर्द्धरात्रि के समय श्मशानभूमि में गया। वह भूमि बड़ी भयंकर थी । वहां उसने एक वटवृक्ष की छाया में एकसौ पाठ लड़की का एकदर्भ मर्यात् दूब का सींका बांधकर उसके नीचे अनेक भयंकर तीखे-तीस या सीधे मुख गाड़कर उनकी पुष्पादिक से पूजा की। इसके पश्चात् वह सीके पर बैठकर पंच नमस्कार मंत्र जपने लगा। मंत्र का जाप प्रमाण समाप्त होने पर जब छींके को काटने का समय हुमा और उसकी दृष्टि नीचे चमधमानी हुई शस्त्र समूह पर पड़ी तब उसको अवलोकन करते ही वह सिंह से भयभीत मृगी के समान कांप उठा तत्पश्चात अपने मन में विचार करने लगा कि यदि जिनदत ने मुझे असत्य कह दिया हो तब तो मेरे प्राण ही चले जायेंगे। यह विचार कर वह नीचे उतर पाया। कुछ समय पश्चात् उसको फिर यह कल्पना हुई कि भला जिनदत्त सेठ को मुझसे क्या सेनादेना है, जो यह असत्य भाषण कर मुझे साक्षात् मृत्यु के मुख में डालेगा। और फिर वह तो जिनधर्म का विश्वासी परम अहिंसा धर्म का पालन करने वाला है। उसके रोम-रोम में दया भरी हुई है । उसे मेरे प्राणान्स करने से क्या ? इत्यादि विचारों द्वारा मन सन्तुष्ट कर फिर वह सीके पर चढ़ा, परन्तु जैसे ही उसकी वृष्टि नीचे गड़े हुए शस्त्रसमूह पर पड़ी वैसे ही पुनः भयातुर होकर नीचे उतर भाया। इसी प्रकार वह संकल्प कर बारम्बार सीके पर बढ़ने-उतरने लगा, लेकिन उसकी हिम्मत सीका काट घेने की न हो सकी । सच कहा है कि जिसको स्वर्ग मोक्ष का सुख प्रदान करने वाले श्री जिनेन्द्र देव के वचनों पर विश्वास नहीं, मन में उन पर निश्चय नहीं; उनको संसार में किसी प्रकार के साध्य की सिद्धि नहीं हो सकती । उसी रात को एक ओर तो यह घटना हुई और दूसरी पोर इसी समय माणिक कांचन सुन्दरी Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार ग्रंथ नामक एक वेश्या ने अपने में प्रत्याशक्त और प्रत्यन्त प्रेम रखने वाले मंजन नामक चोर से कहा कि हे प्राणबल्लभ ! भाज मैंने इसी नगराधीश प्रजापाल महाराज की कनकवती नाम की पटरानी के कंठ में प्रत्यन्त मनोहर रत्नों का हार देखा है । यह बहुत सुन्दर है । मेरा तो ऐसा विश्वास है कि उस हार की तुलना करने वाला शायद ही कोई दूसरा हार हो। इसलिये प्राप उस मनोश हार को किसी न किसी प्रकार से मुझे लाकर दीजिये तभी पाप मेरे भरतार हो सकते हैं, अन्यथा नहीं। अन्जन पोर माणिक कांचन सुन्दरी की ऐसी कठिन प्रतिज्ञा को सुनकर प्रथम सो वह संकुचित हुमा, परन्तु साथ ही उसके प्रेम ने उसको अपने जाल में फंसाकर हार हरण करने के लिये प्रेरित किया। तब वह अपने जीवन की भी कुछ परवाह न कर हार के निमित्त राजमहल में प्रवेश कर रानी के शयनागार में जा पहुंचा और धीरेधीरे अपनी दक्षता से रानी के कंठ में से हार को निकालकर चल दिया। वह सहस्रों कोटपालों (पहरेदारों) की मांखों में धूल डालकर निकल जाता, परन्तु अपने दिव्य प्रकाश से घोर मन्धकार के समूह को दूर करने वाले निर्वयी हार ने उसके प्रयत्न को सफल नहीं होने दिया। पहरेदार उसके प्रकाश में प्रजन को हार लेकर जाते हुये जानकर उसे पकाने को दोर पडे। अन्जन चोर भी जी छोडकर बड़ी तेजी से भागा पर पाखिर कहां तक भाग सकता या? पहरेदार उसे पकड़ लेना ही चाहते थे। तब उसने एक नवीन युक्ति की। वह हार को पीछे की तरफ फेंकर भागा । सिपाही लोग तो उसको उठाने के लिए ठहरे मौर उधर अन्जन चोर बहुत दूर निकल गया। तब सिपाही बहुत प्रन्तर हो जाने से तथा उसका पीछा करना साध्य की सिद्धि हो जाने से निष्प्रयोजन जानकर छोड़ दिये और अपना मार्ग लिया। उधर अन्जन चोर भागता-२ श्मशान की पोर जा निकला, जहां जिनदत्त के उपदेश से सोमदत्त विद्या साधन करने के लिये व्यपश्चित हो क्षण भर में वृक्ष पर चढ़ता और क्षण भर में उत्तरता था। उसका यह भयंकर उपक्रम देखकर मन्जन मे सोमदत्त से पूछा कि तुम यह क्या कर रहे हो? क्यों अपने प्राण दे रहे हो; ऐसा कहने पर उसने अन्जन चोर से समस्त वृतान्त वर्णन कर दिया। सोमदत्त को वार्ताश्रवण कर अन्जन चोर बहुत हर्षित हुमा। उसने सोचा कि सिपाही लोग तो मुझे मारने के लिए पीछे प्रा ही रहे हैं और मिलते ही मुझे मार भी गलें, क्योंकि मेरा अपराध कोई साधरण मपराध नहीं है। फिर यदि मरना है तो धर्म के प्राधित ही मरना अच्छा है। ऐसा विचार कर सोमदस से कहा, बस ! इतनी सी बात के लिये क्या आप इतने उरते हैं ? अच्छा आप जरा मुझको अपनी तलवार दे दीजिये जिससे मैं भी प्रपनी परीक्षा करूँ । ऐसा कहकर सोमवस्त से खड्ग लेकर वटवृक्ष की शाखा में बन्धे हुए सीके पर आ बैठा और सींका काटने के लिये जैसे ही वह तैयार हुमा कि इतने में बतलाये हुये मंत्र को वह भूल गया। पर उसकी परवाह न करके केवल इस बात पर कि ताणं ताणं ताणं सेठ वचन परमाण । अर्थात् जिनदत्त सेठ ने जो कहा है वही प्रमाण है । ऐसा मन में निश्चय करके निश्शक भाव से दृढ़ विश्वास करके एक ही झटके में सारे सीके को काट दिया । काटने के साथ ही जब तक नीचे गड़े हुये शस्त्रों तक ग्राता है उसके पूर्व ही पाकशगामिनी विधा प्रकट होकर कहने लगी कि हे देव ! प्राज्ञा कीजिये । में उपस्थित है। विद्या को अपने सन्मुख अम्जन चोर अवलोकन करके प्रत्यन्त हर्षित हुमा मानों उसे तीन लोक की संपदा प्राप्त हो गई है। वह विद्या से कहने लगा कि जहाँ मेग पर्वत पर जैनधर्म परायण रत्नत्रयभूषित विचारशील विवेकी धर्मात्मा जिनदत्त सेठ जिमेन्द्र भगवान के युगल परण कमलों की पूजा कर रहे हैं वहीं पर मुझको पहुंचा दो। उसके कहने के साथ ही माकाशगामिनी विद्या ने क्षण मात्र में ही उसे जिनदत्त के पास पहुंचा दिया। सच है कि जिनधर्म के प्रसाद से लोन लोक में ऐसा कौन सा प्रलभ्य पदार्थ है जो न प्राप्त हो सके ? पर्थात सभी पदार्थ प्राप्त हो जाते हैं सेठ के पास पहुंच कर अन्जन ने Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ णमोकार ग्रंथ अत्यन्त भक्ति और विनय पूर्वक उनको प्रणाम किया और बोला कि हे दया के सागर ! मैंने प्रापकी कृपा से प्राकाशगामिनी विद्या तो प्राप्त की, परन्तु अब आप कृपा करके कोई ऐसा मंत्र बतलाइये जिससे कि मैं इस दुस्तर संसार सागर से पार होकर भ्रष्ट कर्मों के प्रभाव से अनन्त, अविनाशी, प्रात्मिक सुख को प्राप्त हो जाऊँ, अर्थात् सिद्धपद को प्राप्त हो जाऊं । अन्जन चोर की इस प्रकार वैराग्य सूचक वार्ता श्रवण कर परोपकारी जिनदत्त ने उसे एक चारण ऋद्धिधारक मुनिराज के पास ले जाकर मोक्षपद को प्रदान करने वाली जिनदीक्षा दिलवा दी। अन्जन चोर साधु पद का धारी होकर ईर्ष्या समिति पूर्वक धीरे-२ गमन करता हुआ कुछ काल में कैलाश पर्वत पर जा पहुंचा । यहाँ पर घोराघोर तपश्चरण कर द्वितीय शुक्ल ध्यान के प्रभाव से बारहवें गुणस्थान के अंत में ज्ञानावरणादि चारों घातिया कर्मों का नाश करके केवलज्ञज्ञान प्राप्त किया। जिससे त्रैलोक्य द्वारा पूज्य होता हुआ अन्त चार प्रघातिया कर्मों का भी नाश कर अन्जन मुनिराज ने सदा के लिये श्रजर, अमर, अनंत, अविनाशी श्रात्मिक लक्ष्मी को प्राप्त कर लिया । भावार्थ -- प्रन्जन मुनि ने चारों प्रघातिया कर्मों का प्रभाव करके ऊर्ध्वगमन स्वभाव के कारण एक ही समय में लोक के अग्रभाग ( अन्त) में जाकर अजर, अमर, शान्तिरसपूर्ण स्वाधीन श्रानन्दमय fear को प्राप्त किया। सम्यग्दर्शन के निःशंकित अंग का पालन कर जब अन्जन चोर निरंजन होकर कर्मों के नाश करने में समर्थ हुआ इससे भव्य पुरुषों को तो अवश्य निःशंकित अंग का पालन करना चाहिये । इति निःशंकित गेऽन्जन चोरस्य कथा समाप्तः ॥ १॥ मथ द्वितीय निःकामित अंगस्वरूप : विषय भोगों की इच्छा करना श्राकांक्षा तथा बांछा है। ज्ञानी पुरुषों को जब तक सांसारिक पदार्थ की चाह है तब तक वे मोक्ष से विमुख हैं। गले में शिला बाँधकर विस्तृत नदी के पार जाना चाहे तो प्रवश्य ही डूबेगा । ऐसे ही कांक्षावान् व्रती संसार में ही भ्रमण करेंगे। सम्यग्दृष्टि यद्यपि चारित्र मोहनीय कर्म के उदय से परवश इन्द्रियों से उत्पन्न हुए सुखों का अनुभव करता है और चक्षु, रसना आदि इन्द्रियों के रूप रस प्रादि इष्ट पदार्थों का सेवन करता है, परन्तु वह अपने चित्त में यही समझता है कि अपने को अच्छा लगने वाले स्त्री प्रादिक विषय सुख त्याग करने योग्य हैं। कभी सेवन करने के योग्य नहीं हैं, क्योंकि इनके सेवन करने से दुःख देने वाले अशुभ कर्मों का बंध होता है तथा रत्नश्रय रूप उपयोग के द्वारा अपने मात्मा से उत्पन्न हुआ नित्य अविनाशी मोक्ष सुख सदा ग्रहण करने योग्य है। ज्ञानी जीव इस प्रकार का श्रद्धान करता है कि मेरा आत्मा हाथ में दीपक लेकर अंधकूप में गिर रहा है, अतः मुझे बारम्बार धिक्कार है। इस प्रकार अपने बाप ही श्रात्मनिन्दा करता है और व्रतादि शुभाचरण करता हुआ भी उनके उदय जनित शुभफलों की बांछा नहीं करता, किन्तु उनको शान्त मोर दुःख से मिले हुए विषमिश्रित मिष्टान्नवत् हेय जानता हुप्रा श्रात्मस्वरूप के साधक जान सांसारिक सुख की इच्छा रहित प्राचरण करता है सरे निःकांक्षित भंग युक्त है ||२|| इस दूसरे निःकांक्षित गुण को प्रकाश करने वाली अनन्तमती की कथा लिखते हैं । अथ अनन्तमत्याः कथा - संसार में विख्यात अंगदेश की राजधानी चम्पा नगरी थी। उसके राजा बसुवर्द्धन थे और उनकी रानी का नाम लक्ष्मीमती था। वह सतीत्वगुण भूषित और बड़ी सरलहृदय श्री । उनके एक प्रियदत नामक पुत्र जिनधर्म पर पूर्ण विश्वास रखने वाला था। उसकी स्त्री का Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार ग्रंथ नाम अंगवती था। वह सच्ची पतिभक्तिपरायणा, धर्मात्मा और सुशीला थी। अंगवती के एक अनन्तमती नामक पुत्री बहुत सुन्दर, रूपवान् और गुणों की खान थी। एक समय अष्टान्हिका पर्व पर प्रियदत्त ने धर्मकीर्ति मुनिराज के निकट पाठ दिन के लिये ब्रह्मचर्य व्रत धारण किया और साथ ही अपनी प्रियपुत्री अनन्तमती को भी विनोद के वश होकर ब्रह्मचर्य व्रत ग्रहण करा दिया। कभी-कभी सत्पुरुषों का विनोद भी सन्मार्ग का सूचक बन जाया करता है। अनन्तमती के अन्त:करण पर भी प्रियदत्त के दिलाये हुए ब्रह्मचर्य व्रत का ऐसा ही प्रभाव पड़ा। जब अनन्तमती के विवाह का अवसर पाया और उसके लिये प्रायोजन होने लगा तब अनन्तमती ने अपने पिताजी से सविनय पूछा कि हे पिताजी ! जब आप मुझको ब्रह्मचर्य व्रत दिला चुके हैं तब फिर यह विवाह का आयोजन आप किस लिए कर रहे हैं ? इसके उत्तर में प्रियदत्त ने कहा कि पुत्री ! मैंने तो तुम्हें ब्रह्मचर्य व्रत दिलवाया था वह केवल मेरा विनोद था। क्या तू उसे सत्य समझ बैठी है ? प्रियदत्त के ऐसे बाक्य श्रवण कर अनन्तमती बोली कि हे पिताजी ! धर्म और व्रत में विनोद कैसा, .: मैं नहीं समझी । पुनः प्रियदत्त ने कहा कि मेरे कुल की प्रकाशक प्यारी पुत्री मैंने तो तुझे ब्रह्मच! या कंबल दि से दिया था। तु उसे यथार्थ मान बैठी है तो भी वह पाठ दिन के लिए ही था। फिर तू अब विवाह के लिए क्यों इन्कार करती है ? अनन्तमती ने कहा कि पिताजी! मैं मानती हूं कि आपने अपने भावों से मुझको केवल पाठही दिन का ब्रह्मचर्य व्रत दिलाया होगा, परन्तु उस समय अट दिन नयन त के लिए न तो आपने ही प्रगट किया और न मुनिराज ने ही। तब मैं कैसे समझ कि वह केवल पाठ ही दिन के लिए था। इसलिए अब जैसा भी कुछ हो मैं तो अब जीवन पर्यन्त उसे पालुंगी। अब मैं किसी तरह भी ब्याह न कराऊँगी । अनन्तमती की वार्ता श्रवण कर प्रियदत्त को निराश होकर इस में अपने को अशक्त जानकर, अपने सभी विवाह के आयोजन को समेट लेना पड़ा। इसके बाद उन्होंने अनन्तमनी के जीवन को धार्मिक जीवन व्यतीत करने के लिते उसके पठन-पाठन का अच्छा प्रबन्ध कर दिया। अनन्तमती भी पूर्ण रूप से निराकुलित चित्त हो शास्त्रों के अभ्यास में परिश्रमपूर्वक समय व्यतीत करने लगी। इस समय अनन्तमती पूर्ण यौवन सम्पन्न है। उसने स्वर्गीय देवांगनाओं की सुन्दरता धारण की है। उसके अंग-अंग से लावण्य रूप सुधा का झरना बह रहा है। उसके अप्रतिम मुख की शोभा को देखकर चन्द्रमा का प्रकाश मन्द पड़ गया। और नखों के प्रतिबिंब के बहाने उसके पाँवों पड़कर अपनी इज्जत बचा लेने के लिए उससे प्रार्थना करता है। उसको बड़ी-बड़ी प्रफुल्लित आंखों को देखकर कमल बेचारे संकुचित हो ऊपर को भी नहीं देख सकते। उसके सुन्दर मधुर स्वर को सुनकर कोकिला मारे चिन्ता के काली पड़ने लगी और सिंहनी उसकी अनुपमता को देखकर निरभिमानी बन पर्वतों की गुफा में शरम के मारे गुप्त रूप से रहने लगी। यह अपनी दंतपंक्ति की श्वेतता से कुसुमावली की शोभा को जीतने लगी। इस प्रकार स्वर्गीय सुन्दरियों को भी पलभ्य रूपधारिणी घेत्र के महीने में विनोदवश अपने बगीचे में अकेली झूले पर झूल रही थी। उस समय विद्याधरों की दक्षिण श्रेणी के अन्तर्गत किन्नरपर नामक एक प्रसिद्ध प्रौर मनोहर नगर का अधिपति विद्याधरों का राजा कण्ठल-मण्डित अपनी प्रिया के साथ विमान में बैठा हुप्रा इसी मार्ग से जा रहा था। एकाएक उसकी दृष्टि बाग में अकेली झूला झूलती हुई अनन्तमती पर पड़ी । उसकी इस अनुपम स्वर्गीय सुन्दरता को देखकर कुण्डलमण्डित का हृदय काम के बाणों से घायल हो गया। वह अनन्तमती की प्राप्ति के बिना अपने जीवन को व्यर्थ समझने लगा। यद्यपि वह उस बेचारी बालिका को उसी समय उड़ाकर ले जा सकता था, परन्तु साथ में अपनी प्रिया के होने से ऐसा अनर्थ करने के लिए उसका साहस न हो सका । Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार मंथ परन्तु उसे अनामती के बिना कब न पड़ सकता था? इसालये वह अपने विमान को बहुत शीघ्रता से अपने कुण्डलपुर नगर को लौटा ले गया और वहाँ राजमहल में अपनी प्रिया को छोड़ कर उसी समय तीव्र गति से गमन कर अनन्तमती के बगीचे में पा उपस्थित हुआ और बड़ी फुर्ती से उस भोली बालिकाको बलात् विमान में विठलाकर चल दिया। इधर इसकी प्रिया को भी इसके दुष्कर्म का कुछ-कुछ अनुमान लग गया था। इसलिये कुण्डलमण्डित तो उसे घर पर छोड़कर पाया था, पर वह घर पर न ठहरकर गुप्त रूप से उसके पीछे पोछे चल पड़ी थी। जिस समय कुण्डलमण्डित अनन्तमती को लेकर आकाश मार्ग में जा रहा था कि उसकी दृष्टि अपनी प्रिया पर पड़ी। पत्नी को क्रोधावेश से लाल मुख किये हुए देखकर कुण्डलमण्डित के शरीर में अचानक एक साथ शीतलता पड़ गई। उसके शरीर को काटो तो खून नहीं । ऐसी स्थिति में उसने अधिक गोलमाल के होने के भय से बड़ी शीघ्रता के साथ अनन्तमती को एक पर्णलघ्त्री नाम की विद्या के आधीन कर उसे एक भयंकर वन में छोड़ देने की शाजा दे दी और स्वयं अपनी प्रियपत्नी को साथ लेकर अपने राजभवन का मार्ग लिया और अपनी निर्दोषता का उसके सम्मुख यह प्रमाण दे दिया कि अनन्त मती को न तो विमान में और न पर्णलध्वी विद्या को सुपुर्द करते समय ही उसने (पत्नी) देखा। उस भयंकर वन में अनन्तमती अति उच्च स्वर से रुदन करने लगी, लेकिन उस भयानक निर्जन अटवी में उसके रुदन के शब्द को सुनता भी कौन था । वह कोसों तक मनुष्य के संचार से रहित थी। देवयोग से कुछ समय के पश्चात एक भीलों का राजा शिकार खेलता हा उधर आ निकला। रुदन का शब्द सुनकर वह उस के निकट गया और अनन्तमती की स्वर्गीय सुन्दरता का देखकर वह भाकामबाण के वशीभूत हो गया। अनन्तमती ने अपने विचार किया कि आज मुझको देब ने इसको सुपुर्द करके मेरी रक्षा की है और अब मैं अपने पिता के घर पहुंचा दी जाऊँगी । परन्तु उसकी यह समझ ठीक नहीं थी, क्योंकि उसको तो छुटकारे की जगह दूसरी आपत्ति ने पाकर घेर लिया। वह भीलपति अपने महल में ले जाकर बोला कि हे बाले ! आज तुमको अपना सौभाग्य समझना चाहिए कि एक राजा तुम पर मुग्ध होकर तुम्हें अपनी पटरानी बनाना चाहता है। प्रसन्न होकर तुम उसकी प्रार्थना को स्वीकार करो और अपने स्वर्गीय समागम से उसके हृदय में जलती हुई इच्छारूप कामाग्नि को शमन के हाय जोड़े खड़ा है अपनी मनोकामना पूर्ण करने के लिये तुमसे वर मांगता है। उसकी नम्रता पर ध्यान देकर उसकी प्राशा पूरी करो। वह बेचारी भोली-भाली अनन्तमती उसकी बातों का क्या उत्तर दे सकती थी? वह अधीर होकर फूट-फूट कर उच्च स्वर में रुदन से आकाश-पाताल को एक करने लगी। पर उसके रुदन को सुनता भी कौन था? वह तो राज्य ही मनुष्य जाति के राक्षसों का था। निर्दयी दरात्मा भीलपति के हृदय में कामवासना वसी हुई थी। उसने और भी बहुत प्रार्थना की। विनय अनुनय किया, पर अनन्तमती के चित्त को अपने पर किंचित मात्र भी ध्यान दिया हुआ न देखकर उसने दिल में समझा कि यह नम्रता तथा विनयपूर्वक कहने से वश में नहीं पाती। अतः अब इसको भय दिखलाना चाहिये। इस विचार से अपने साध्य की सिद्धि के लिए उसने अनेक प्रकार का भय दिखलाया। पर अनन्तभती ने फिर भी उस पर ध्यान नहीं दिया। किन्तु यह सोचकर कि इन नारकियों के सम्मुख सदन करने से कुछ काम नहीं चलेगा, अतः उसने उसे फटकारना शुरू किया। उसके नेत्रों से क्रोधरूप अग्नि को चिनगारियां निकलने लगीं। उसका मुख क्रोध के मारे संध्या के बादलों के समान रक्तवर्ण हो गया। पर इतना होने पर भी उस भीलपति के हृदय में कुछ भी प्रभाव न पड़ा। उसने प्रमन्तमती पर बलात्कार करना चाहा । इतने में उसके पुण्य प्रभाव से नहीं किन्तु प्रखंड शील के प्रभाव से उसी समय Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार च वनदेवी ने प्रगट होकर ग्रनन्तमती के व्रत की रक्षा की। उस पापी दुरात्मा भीलपति को उसके दुष्कृत का खूब फल दिया और कहा कि अरे नीच ! तू नहीं जानता कि यह कौन है ? याद रख यह एक संसार पूज्य महादेवी है। जो इसे तूने सताया तो देख-समझ तेरे जीवन का कुल नहीं। यह कहकर वनदेवी अपने स्थान पर चली गई । उसके कहने का भीलपति के हृदय पर बहुत प्रभाव हुआ और पड़ना भी चाहिए था । प्रातःकाल होते ही वनदेवी के भय से अनन्तमती को पुष्पक नामक सेठ के अधीन कर दिया और उससे कहा कि आप कृपा करके अनन्तमती को इसके घर पहुंचा दीजियेगा । पुष्पक सेठ ने उस समय तो अनंतमती को उसके घर पहुंचा देने की प्रतिज्ञा करके भीलराज से ले लिया, लेकिन यह किसको मालूम था कि इसका हृदय भीतर से पापपूर्ण होगा। अनंनमती को पाकर पुष्पक सेठ श्रपने मन में विचार करने लगा कि मेरे हाथ बिना प्रयास किये हुये श्रनाथारा ही यह स्वर्ग सुन्दरी लग गई यदि यह मेरी बात को प्रसन्नता से मान ले तब तो अच्छा है, नहीं तो यह मेरे पंजे से छूटकर कहाँ जा सकती है ? यह विचार कर उस दुष्टात्मा कपटी ने अनंतमती से कहा कि हे स्वर्ग सुन्दरी ! तुमको प्राज श्रपना बड़ा भाग्योदय समझना चाहिए जो एक नरपिशाच के हाथ से छूटकर पुण्य पुरुष के प्रधोन हुई हो। कहां तो यह तुम्हारी अनुपम स्वर्गीय सुन्दरता और कहाँ वह भोलाधिपति भीमराक्षस कि जिसके महाभयानक कुरुप को देखते ही हृदय कपि उठता है । मैं तो आज अपने को राजा, महाराजा, तथा चक्रवर्त्यादि देवों से भी अधिक बढ़कर भाग्यशाली समझता हूं जो मुझे प्रमूल्य स्त्रीरत्न बड़ी सुलभता के साथ प्राप्त हुआ। भला बिना महाभाग्य के कहीं ऐसा रत्न मिल सकता है ? कभी नहीं । सुन्दरी ! देखती हो हमारे पास जो अक्षय धन और अनन्त वैभव है वह राव तुम पर न्यौछावर करने को तैयार हूँ और तुम्हारे चरणों का कीतदास बनता हूँ। मेरी विनयपूर्वक की हुई प्रार्थना को स्वीकार करके मुझे श्राशा है कि तुम प्रसन्न होकर वचन दोगी और अपने हृदय में मुझे जगह दोगी। इसी प्रकार अपने स्वर्गीय समागम से मेरे जीवन तथा धन वैभव को सफल कर मुझे सुखी करोगी। अनंतमती ने तो यह समझा था कि देव ने मेरी रक्षा करने के लिये निर्दयी भीलराज के पंजे से छुड़ाकर इसके श्राधीन किया है और अब मैं इस सेठ की कृपा से सुखपूर्वक अपने पिताजी के पास पहुँच जाऊँगी। पर वह बेचारी पापियों के हृदय की बात क्या जाने ? उसे जो भी मिलता था उसे वह भला ही समझती थी। यह स्वाभाविक बात है जो मनुष्य जैसा होता है वह दूसरे को भी वैसा ही समझता है। उसे यह नहीं मालूम कि छुटकारा पाने की जगह एक विपत्ति से निकलकर दूसरी विपत्ति के मुख में फँसना पड़ा है। वह बेचारी भोलीभाली अनंतमती उस दुरात्मा सेठ की पाप पूर्ण बातें सुनकर बड़े कोमल शब्दों में कहने लगी कि महाशय जी, श्रापको देखकर तो मुझे विश्वास हुआ था कि अब मेरे लिये किसी प्रकार का भय नहीं रहा। मैं निर्विघ्न अपने घर पहुँचा दी जाऊँगी, क्योंकि मेरी रक्षा करने के लिये एक दूसरे धर्म के पिता माकर उपस्थित हो चुके हैं, परन्तु मुझको अत्यन्त दुःख के साथ कहना पड़ता है कि भाप जैसे उत्तम पुरुषों के मुख से क्या ऐसे निद्य वाक्य प्रकट हों ? जिसे मैंने रस्सी समझकर हाथ में लिया था, मैं नहीं समझती थी कि वह ऐसा विकराल भयंकर सर्प होगा। क्या यह बाहरी, चमक-दमक और सोधापन केवल संसार को ठगने के लिए और दिखाऊ धर्मात्मापने का वेष धारण कर लोगों को धोखा देकर अपने मायाजाल में फंसाने के लिए है ? काक के समान ढीठ स्वभाव और कपटी होकर क्या यह वेब हंसों में गणना कराने के लिए है ? यदि ऐसा है तो तुम्हें तुम्हारे कुल को, तुम्हारे धन-वैभव और जीवन को धिक्कार है। जो मनुष्य ऐसा मायाचार करता है वह मनुष्य नहीं अपितु पशु, पिशाच और राक्षस है। वह पापी मुख देखने योग्य नहीं है । उसे जितना भी धिक्कारा जाय थोड़ा ही है । मैं नहीं जानती थी कि आप भी १३५ Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ णमोकार ग्रंथ उन्हीं पुरुषों में से एक होंगे। अनंतमती ऐसे कुल कलंकी पुरुषों के सन्मुख होना उचि न समझ कोष को शांत करके चुप होकर बैठ गई । इसकी जली-भुनी बातों को सुनकर पुष्पक सेठ क्रोध के मारे भीतर दबी हुई ग्रग्नि को तरह दग्ध होने लगा। उसका चेहरा लाल सुखं पड़ गया, प्रांखों से क्रोध के मारे चिनगारियाँ निकलने लगी और समस्त शरीर कांपने लगा । परन्तु तब भी तेजोमयी मूर्ति अनंतमती के दिव्य तेज के सम्मुख उससे कुछ न बन पड़ा। उसने अपने क्रोध का बदला अनंतमती से इस प्रकार चुकाया कि उसे अपने नगर में ले जाकर एक कामसेना नाम की कुट्टनी के हाथ सौंप दिया । सच बात तो यह है कि यह सब दोष किसे दिया जा सकता है ? अर्थात् किसी को नहीं। क्योंकि कर्मों की ही ऐसी विचित्र गति है । जो जैसा कर्म करता है उसे वैसा ही भोगना पड़ता है । यथोक्तं प्रवश्यं भोक्तव्यं कृतं कर्मशुभाशुभम् । अर्थात् जो जैसा शुभाशुभ कर्म करता है। उसको तज्जनित शुभाशुभ फल अवश्य भोगना पड़ता है। फिर इसके लिए को कोई नई बात नहीं है । कामसेना ने भी अनंतमती को जितना उससे बना उसने भय और लोभ से पवित्र मार्ग से पतित कर सतीत्व धर्म से भ्रष्ट करना चाहा, पर अनंतमती रंचमात्र भी नहीं डिमी | वह सुमेरु पर्वत के समान निश्चल रही । अन्त में कामसेना ने अपना अस्त्र उस पर चला हुआ न देखकर उसे सिहराज नामक राजा को सौंप दिया। वह दुरात्मा भी अनंतमती के मनोहर रूप को देखकर मुग्ध हो गया । उसने भी जितना उससे हो सका उतना प्रयत्न अनंतमती के चित्ताकर्षण करने को किया, पर अनंतमती ते उसकी ओर ध्यान न देकर उसको भी फटकार दिया। अन्त में पापी सिहराज ने अनंत पती पर बलात्कार करने के लिए ज्योंही अपना पैर आगे बढ़ाया त्यों ही वनदेवी उपस्थित होकर कहने लगी कि खबरदार इस सतीदेवी का स्पर्श भूलकर भी मन करना नहीं तो समझ लेना तेरे जीवन का कुशल नहीं । यह कह कर बनदेवी संतति हो गई । बहु देवी को देखते ही भय के मारे चित्र लेखवत् निश्चेष्ट रह गया। कुछ समय के बाद सावधान होकर उसी समय सेवक के द्वारा श्राज्ञा दी कि इसे भयंकर वन में छोड़ आओ । उस निर्जन वन में वह पंचपरमेष्ठी का स्मरण करती और फल फूलादि से निर्वाह करती हुई अयोध्या जा पहुंची। वहाँ पर उसे पद्मश्री प्रायिका के दर्शन हुए। प्रायिका ने अनंतमली से उसका परिचय पूछाउसने अपना सब वृत्तांत सुना दिया। श्रार्थिका ने उसकी कथा से दुःखित होकर उसे एक सत शिरोमणि समझकर अपने पास रख लिया। उधर प्रियदत्त अपनी पुत्री के वियोग से दुःखी होकर तीर्थयात्रा के निमित्त से पुत्रो को ढूंढ़ने के लिए निकल पड़ा। बहुत-सी यात्रा करते-करते वह अयोध्या जा पहुंचा और वहीं पर स्थित अपने साले जिनदत्त के घर पर ठहरा। उसने अपने बहनोई की सादर सेवा की। पश्चात् स्वस्थता के समाचार पूछने पर प्रियदत्त ने समस्त घटना कह सुनाई। यह सुनकर जिनदत्त बहुत दुःखी हुआ। दुःख सभी को हुआ पर कर्म की विचित्रता को देखकर सभी को संतोष करना पड़ा। दूसरे दिन प्रातःकाल जिनदत्त तो स्नान कर शुद्ध वस्त्र पहन कर श्री जिनमंदिर में चला गया। इधर इसकी स्त्री भोजन तैयार कर पद्मश्री भायिका के निकट स्थित बालिका को भोजन करने और चोक पूरने के लिए बुला लाई । यह कन्या भोक पूर कर भोजन करके अपने स्थान पर वापिस चली भाई। जब दोनों जिन भगवान् की पूजा कर घर पर प्राये तब प्रियदत्त चौक को देखते ही अनंतमत का स्मरण कर और कहा कि जिसने यह चौक पूरा है क्या मुझ प्रभागे को उसके दर्शन होंगे ? जिनदत्त अपनी स्त्री से पता पूछ कर उसी समय उस बालिका को अपने घर पर बुला लाया। उसे देखते ही प्रियदत्त के नेत्रों से पड़ा सू बह निकले। उसका हृदय भर श्राया और बड़े प्रेम के साथ अपनी प्यारी पुत्री को छाती से लगाकर सब बातें पूछनी प्रारम्भ की। उस पर बीती हुई घटनाओं को सुनकर प्रियदत्त बड़ा दुःखी हुआ। जिन Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार ग्रंप दस ने पिता-पुत्री के मिलाप हो जाने की खुशी में जिन भगवान् का. रथ निकलवाना और बहुत दान दिया । प्रियदत्त जब घर चलने को तैयार हुषा तब पुत्री से भो चलने को कहा। बह वोलो पिताजो मैंने संसार को लोला बहुत देखो है । अत्र उसे देखकर मुझे बहुत अब लगता है। इससे मैं अब घर नहीं चलूंगी । अब तो पाप मुझे जंन दीक्षा दिला दीजिए 1 पुत्रो को बात सुनकर जिनदत्त ने कहा कि हे पुत्री! जिनदीक्षा पालन करना अत्यन्त कठिन है और तेरा यह शरीर अत्यन्त कोमल है। अत: कुछ दिन घर ही में रहकर अभ्यास कर और धर्मध्यान में समय बिता। पीछे दीक्षा ले लेना। इत्यादि वचनों से रोका किन्तु उसके राम-रोम में वैराग्य प्रवेश कर चुका था। इससे वह कब रुकती ? उसो समय मोहजाल तोड़कर पद्मश्री प्रायिका के निकट जाकर जिनदीक्षा ले ली। दीक्षित होकर पक्षमासोपवासादि दारुण तप करने तथा धोर परीषह सहन करने लगी । अन्त में पंचपरमेष्ठी का स्मरण करती हुई संन्यास विधि से मरण कर सहस्रार स्वर्ग में जाकर देव हुई व वहां पर नित्य नये रत्नों के स्वर्गीय आभूषण पहननो है। हजारों देव-देवांगनायें जिनकी सेवा में रहते हैं उसके ऐश्वर्य का पार नहीं और न उसके सुख की ही सीमा है । वह सदा श्री जिनेन्द्र भगवान को भक्तिपूर्वक पूजा करती है और उनके चरणों में लीन रहकर बड़ो शांति के साथ अपना समय गतीत करती है। सच तो यह है कि पुण्य के उदय से क्या-क्या नहीं होता? इससे आत्महितेच्छु भव्य पुरुषों को चाहिए कि वे सांसारिक सुख की प्रतादि शुभाचरण करते हुए भी उनके उदय जनित शुभाकर्मों की बांछा नहीं करनी चाहिए। जिस पुरुष के भोग की अभिलाषा न हो सो नि:कांक्षित अंगयुक्त है । देखो अनंतमती को उसके पिता ने केवल विनोदवश शीलवत दे दिया था । पर उसने उसको बड़ी दृढ़ता क साथ पालन किया । कर्मों के पराधीन सांसारिक सुख की उसने स्वप्न में की अभिलाषा नहीं की। उसके प्रभाव से वह स्वर्ग में जाकर देव हुई। स्वर्ग के सुख का पार नहीं है । इसलिए भव्य पुरुषों को सम्यग्दर्शन के निःकाक्षित गुण का अवश्यमेव पालन करना चाहिए ॥२॥ इति श्री निःकांक्षितांगे अनंतमती कथा समाप्तः ।। प्रथ तृतीय निविचिकित्सा अंगस्वरूप वर्णन ॥३॥ अपने में उत्तम गुणों से युक्त समझकर व अपने को श्रेष्ठ मानकर दूसरे के प्रति अवज्ञा, तिरस्कार व ग्लानिरूप भाव होना विचिकित्सा या ग्लानि है । यह दोष मिथ्यात्व के उदय से होता है । इसके बाह्य चिह्न इस प्रकार हैं--किसी दीन, दरिद्री, विकलांग रोगी को देखकर निदा, ग्लानि, तिरस्कार, निरादर व उपहास आदि करना । सम्यग्दृष्टि जीव विचारता है कि कर्मों के उदय की विचित्र गति है। कदाचित् पाप का उदय आ जाय तो क्षणमात्र में धनी से निर्धन, रूपवान्, कुरूप, विद्वान से पागल, कुलवान् से पतित मोर स्वस्थता से रोगी हो जाते हैं । इससे वह दूसरों को होनबुद्धि से नहीं देखता और ऊपर से अपवित्र शरीर पर ध्यान नहीं देकर अंतरंग गुणों को देख शान, चरित्रादि ग्लानियुक्त होते हुए भी जुगुप्सा रहित सेवा सहायता करता है । यही निविचिकित्सा गुण है । अव उदाहरणार्थ सम्यग्दर्शन के तीसरे निविचिकित्सा अंग में प्रसिद्ध होने वाले उद्दायन राजा की कथा लिखते हैं । इसी भरत क्षेत्र में कच्छ देश के अन्तर्गत रोरवक नामक बहुत सुन्दर नगर था । उस नगर के राजा उदायन सम्यग्दृष्टि थे। वे बड़े धर्मात्मा. विचारशील, जिन भगवान् के चरण कमलों के भंवर और सच्चे भक्त थे। आप राजनीति के अच्छे विद्वान्, तेजस्वी और दयालु थे। वे दुराचारियों को उचित दण्ड देते और प्रजा का नोतिपूर्वक पालन करते थे। इससे प्रजा का उन पर बहुत प्रेम था। और वे भी सदा प्रजा हित में उद्यत रहा करते थे। उनकी रानी का नाम पद्मावती था। वह भी सती, धर्मात्मा और दयालु थी। उनका मन सदा Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार प्रेम पुर्णिमा के चन्द्रमा के समान परम निर्मल और पवित्र रहता था। वह अपने समय को प्रायः दान, जिनपूजा, वत, उपवास, शास्त्रस्वाध्यायादिधर्मध्यान में व्यतीत करती थी। उद्दायन अपने राज्य का शान्ति व सुखपूर्वक राज्य करने और अपनी शक्ति के अनुसार जितना बन पड़ता उतना धार्मिक कार्य में समय बिताते थे। कहने का प्रयोजन यह है कि वे सर्वथा सुखी थे। उनको किसी प्रकार की चिन्ता नहीं थी। अपनी कार्यकुशलता और नीति परायणता से शत्रु रहित हो निष्कंटक राज्य करते थे। एक दिन सौधर्म स्वर्ग का इन्द्र अपने देवों के मध्य सभामंडप में बैठा हुआ धर्मोपदेश कर रहा था कि संसार में सच्चे देव अरहंत भगवान है, जो कि क्षुधा, तृषा, रोग, शोक, भय, विस्मय, जन्म, जरा, मरण राग, द्वेषादि अष्टा दश दोष रहित भूत, भविष्यत्, वर्तमान का ज्ञाता, सत्यार्थवक्ता और सबके हितोपदेशक, संसार के दुःखों से हटाने वाला है । सच्चा धर्म, उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव, सत्य, शौचादि दशलक्षण रूप तथा रत्नत्रय रूप है । सच्चे गुरुदेव हैं जिनके पास परिग्रह नाम-मात्र भी न हो । अर्थात् दस प्रकार के बाह्य और चौदह प्रकार के अंतरंग एवं चौबीस प्रकार के परिग्रह से रहित निरारंभी, निरभिलाषी, ज्ञान ध्यान और तप रूपी रत्न के धारक हो वही गुरु प्रशंसनीय है और वही सच्ची श्रद्धा है जिससे जीवादिक पदार्थों में रुचि होती है। यही रुचि स्वर्ग मोक्ष को प्रदान करती है । यह रुचि अर्थात् श्रद्धा धर्म में प्रेम करने से, तीर्थयात्रा करने, जिन भगवान का रथोत्सव कराने, प्राचीन मंदिरों का जीर्णोद्धार कराने, प्रतिष्ठा कराने, प्रतिमा बनवा कर विराजमान करने और अपने साधर्मी भाइयों में गौ तत्पवत अट प्रीति रखने से उत्पन्न होतो है । आप लोग ध्यान रखिए कि सम्यग्दर्शन एक वह श्रेष्ठ तत्व है जिसको समानता कोई दूसरा नहीं कर सकता । यही सम्यग्दर्शन' नरक, तिर्यचादि दुर्गतियों का नाश करके स्वर्ग मोक्ष सुख को प्रदान करने वाला है। इससे सर्वोत्तम रत्न को तुम धारण करो। इस प्रकार सम्यग्दर्शन का और उसके आठ अंगों का वर्णन करते हुए जब इन्द्र ने निवि चिकित्सा पंग के पालन करने वाले रोरवक नगराधिपति उदायन राजा की बहुत प्रशंसा की तव इन्द्र के मुख से एक मध्य लोक के मनुष्य की प्रशंसा सनकर वासवका नामक देव उसी समय स्वर्ग से भरत क्षेत्र में आया और उदायन राजा की परीक्षा करने के लिए एक कोढ़ी मुनि का मायावी वेष धारणकर भिक्षा के लिए मध्यान्हकाल में उद्दायन के महल गया। उसके शरीर से कोढ़ गल रहा था। उसकी तीव वेदना से उसके पैर इधर-उधर पड़ रहे थे । रुधिरस्राव से समस्त शरीर पर मक्खियां भिन-भिना रही थीं । शरीर की ऐसी विकृत अवस्था होने पर भी जब बह राजद्वार पर पहुंचा और महाराज उदायन की उस पर नजर पड़ी तब वे उसी समय सिंहासन से उठकर सन्मुख पाए और भक्तिपूर्वक मायावी मुनि का आव्हान किया। इसके पश्चात् सप्तगुण सहित नवधाभक्ति' पूर्वक हर्ष सहित राजा ने मुनि को प्रामुक प्राहार कराया। राजा माहार कर निवृत्त हुए कि इतने में उस कपटी मुनि ने अपने मायाजाल से महा दुर्गन्धित वमन कर दिया । उसकी असाह्य दुर्गन्धि के मारे जितने और लोग पास में खड़े थे वे सभी वहां से चलते बने। केवल उद्दायन और उसको रानी मुनि के शरीर की सम्हाल करने के लिए वहीं स्थित रहे। रानी मुनि का शरीर साफ करने के लिए उनके पास गई । कपटी मुनि ने उस बेचारी पर भी महा दुर्गन्ध उवात्त कर दी। राजा और रानी ने इसकी कुछ भी परवाह न करके उल्टा इस बात पर पश्चाताप किया कि हमसे मनि को प्रकृति विरुद्ध न जाने क्या माहार दे दिया गया ? जिससे मुनि महाराज को हमारे निमित्त इतना कष्ट हुमा। हम लोग बड़े पापी व भाग्यहीन हैं जो ऐसे उत्तम पात्र का हमारे यहाँ निरन्तराय पाहार न हो सका। सच है कि हम जैसे पापी प्रभागे लोगों को मनोवाछित फल प्रदान करने वाला चिंतामणि रत्न और कल्पवृक्ष प्राप्त नहीं होता। Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार ग्रंथ १३६ उसी तरह सुपात्र के दान का योग भी पापियों को नहीं मिलता। इस प्रकार अपनी आत्मनिंदा कर अपने प्रमाद पर बहुत-बहुत खेद और पश्चाताप करते राजा-रानी ने मुनि का सब शरीर प्रासुक जल से धोकर साफ किया। उनकी इस प्रकार अचल भक्ति को देखकर देव अपनी माया समेटकर बड़ी प्रसन्नता के साथ बोला कि हे राज राजेश्वर ! आपके विचित्र और निर्दोष सम्यक्त्व की तथा निविचिकित्सा अंग के पालन करने को अपने सभामंडप के मध्य धर्मोपदेश देते हुये सोधर्मेन्द्र ने धर्मप्रेमवदा होकर प्रशसा की थी वैसी अक्षरशः ठोक निकली। संसार में आप का ही मनुष्य जन्म प्राप्त करना सफल और सुख देने वाला है। तुम यथार्थ सम्यग्दृष्टि और महादानी हो । वास्तव में तुम्हीं ने जैन शासन का रहस्य समझा। यदि ऐसा न होता तो तुम्हारे बिना और कौन मुनि की दुर्गन्धित उधान्त को अपने हाथों से साफ करता? राजन् ! तुम धन्य हो । शायद ही इस भूमंडल पर इस समय आप जैसा सम्यम्दष्टियों में शिरोमणि कोई होगा। इस प्रकार वासव नामक देव उहायन की प्रशंसा करता हया अपने स्थान पर चला गया। प्रथानन्तर राजा फिर अपने राज्य का शांति और सुखपूर्वक पालन करते हुये दान, पूजा, नत स्वाध्यायदि धार्मिक कार्य में अपना समय व्यतीत करने लगे। इसी तरह प्रानन्द पूर्वक निर्विघ्न राज्य करते-करते उद्दायन का कुछ और समय व्यतीत हो गया । एक दिन वह अपने महल पर बैठे हुये प्रकृति की शोभा देख रहे थे कि इतने में एक बड़ा भारी बादल का टुकड़ा उनके नेत्रों के सामने से निकला। वह थोड़ी सी दूर पहुंचा होगा कि एक प्रबल वायु के वेग ने उसे देखते-देखते नाम शेप कर दिया।क्षण भर में एक विशाल मेघखंड की यह दशा देखकर उद्दायन की अखं खुल गई । और अब उन्हें सारा संसार ही क्षणिक भासने लगा। प्रयोजन यह है कि उनके हृदय पर वैराग्य ने अपना अधिकार कर लिया। चित्त में विचारने लगे कि स्त्री, पुत्र, भाई, बंधु, धन, धान्य, दासी, दास, सोना, चांदी आदि जितने चतन अचेतन पदार्थ है वह सब विद्युत् प्रकाशवत् क्षण भर में देखते-देखते नष्ट होने वाले हैं और संसार दुःख का समुद्र है । यह शरीर भी जिसे रात-दिन प्यार किया जाता है वह भी मजा, अस्थि, मांस तथा रक्तादि अपवित्र वस्तुओं से भरा हुआ है । ऐसे अपावन क्षण भंगुर शरीर से कौन बुद्धिमान् प्रेम करेगा? ये पांच इन्द्रियों के विषय ठगों से भी बढ़कर ठग हैं । इनके द्वारा ठगा हुआ प्राणी एक पिशाचिनी की तरह उनके वश होकर अपनी सब सुधि भूल जाता है। ये जैसा नाच नचाते हैं वैसा ही नाचने लगता है । इस प्रकार संसार शरीर भोगादिक की अनित्यता विचारता हुआ उसी समय महल से उतरकर अपने पुत्र को बुलाया और उसके मस्तक पर राजतिलक करके आप अन्तिम तीर्थंकर महावीर भगवान के समवशरण में पहंचे और भक्ति पूर्वक भगवान् के चरणारविंद की पूजा कर उनके चरणों के निकट ही उन्होंने जिन दीक्षा ग्रहण कर ली। जिसका इन्द्र नरेन्द्र चक्रवर्ती प्रादि सभी आदर करते हैं । दीक्षित होकर उद्दायन राजा कठिन से कठिन तपश्चरण करते हुये वैराग्य के साथ क्रमशः रत्नत्रय की पूर्णता कर वारहवें गुणस्थान के अंत घातिया कर्मों के प्रभाव से प्रादुर्भूत लोकालोक का प्रकाशक केवलज्ञान प्राप्त कर इंद्र धरणेन्द्र चवादि द्वारा पूज्य हुये । उसके द्वारा उन्होंने मुक्ति का मार्ग बतलाकर अंत में प्रघातिया कर्मों का नाश कर अविनाशी, अनंत मोक्षपद को प्राप्त किया। उन स्वर्ग मोक्ष सुख को देने वाले श्री उद्दायन केवली को हम भक्ति पूर्वक बारम्बार नमस्कार और पूजन करते हैं। वे हमें भी मोक्षपथ में लगाकर केवलज्ञान रूपी लक्ष्मी प्रदान करें और उनकी रानी सती प्रभावती भी उस समय ही दीक्षा ग्रहण कर तपश्चरण करती और भनेक प्रकार की परीषह सहन करती हुई प्रायु के अंत में समाधिमरण कर ब्रह्म स्वर्ग में जाकर देव हुई । जिस प्रकार उद्दायन मुनिराज ने सम्यग्दर्शन के तीसरे निविचिकित्सा अंग को पालन कर प्रकाशित किया उसी तरह सभी भव्य पुरुषों को भी करना उचित है । वह अनुपम सुख प्रदान करने वाला है। इति निविचिकित्सांगे श्रीमदायनस्थ कथा समाप्ता। Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार ग्रंथ प्रय समय इणि अंग मर्णन प्रारम्भ प्रतत्वों में तत्व श्रद्धान करना मूढदृष्टि है। यह मिथ्यात्व कर्म के उदयवश जिन्होंने गुणदोषों के विचार रहित अनेक पदार्थों को धर्मरूप वर्णन किया है और जिनके पूजन तथा नमस्कार करने से जो उभय लौकिक कार्यों की सिद्धि बताई है और उनके निमित्त हिंसा करने में धर्म माना प्रादि मूढदृष्टि अंग का धारक इन सबको मिथ्या जानता और निस्सार तथा अशुभ फल का उत्पादक जान दूर ही से तजता है और इनके धारकों में मन से सम्मत न होना, काया से नहीं सराहना. वचन से प्रशंसा नहीं करना यही सम्यक्त्वी का अमूढदृष्टि अंग के पालन करने में प्रसिद्ध होने वाली रेवती रानी की कथा लिखते हैं। विजयाई पर्वत की दक्षिण श्रेणी में मेघकूट नामक एक प्रसिद्ध और मनोहर नगर था। उसका स्वामी चन्द्रप्रभ नाम का राजा बड़ा विचारशील और राजनीति का अच्छा बिद्वान था। उन्होंने बहुत समय तक शत्रुरहित, निष्कंटक, शान्ति और नीतिपूर्वक अपने राज्य की प्रजा का पालन किया । एक दिन वे बैठे हुए थे कि एकाएक उन्हें तीर्थयात्रा करने की इच्छा हुई। राजकार्य अपने प्रियपुत्र चन्द्रशेखर के अधीन करके वे तीर्थयात्रा के लिए चल दिए । बहुत से सिद्ध क्षेत्रों और अतिशयक्षेत्रों की यात्रा करतेकरते वे दक्षिण मथुरा में पाये, वहाँ उनको श्री गुप्ताचार्य के दर्शन हुए। चन्द्रप्रभ ने प्राचार्य से उपदेश सुना । धर्मोपदेश का उनके चित्त पर बहुत प्रभाव पड़ा। वे प्राचार्य महाराज के द्वारा प्रोक्त 'परोपकारोऽत्र महापुण्याय भूतले' प्रथा परोपकार करना महान् पुण्य का कारण है. यह सुनकर तीर्थयात्रा करने के लिए एक विद्या को अपने अधिकार में रखकर क्षुल्लक बन गये। एक दिन उनकी इच्छा उत्तर मथुरा की यात्रा करने की हुई। जव चे जाने को तत्पर हुए तब उन्होंने अपने गुरु महाराज से पूछा हे दया के समुद्र ! मैं यात्रा करने लिए जा रहा है। क्या आपको किसी के लिए कुछ समाचार कहना है ? तब गुप्ताचाय बोले मथुरा में सूरत नाम के बड़े ज्ञानी और गुणी मुनि महाराज हैं उन्हें मेरा बार-बार नमस्कार कहता और सम्यग् नी धर्मात्मा रेवती के लिए मेरी धर्मवृद्धि कहना । क्षुल्लक ने फिर पूछा कि महाराज ! इन दो के अतिरिक्त क्या किसी और को कुछ कहना है ? प्राचार्य महाराज ने कहा नही। तब क्षल्लक मन में :ि:ने लगा कि प्राचार्य महाराज ने एकादशांग ज्ञाता भब्यसेन आदि मन्य मुनि तथा सभ्यक्तियों के होते हुए उन सबको छोड़कर केवल सूरत मुनि और रेवती के लिए ही नमस्कार किया तथा धर्मवृद्धि दी ! इसका कोई कारण प्रवश्य होना चाहिए । अस्तु ! जो इसका कारण होगा, वह स्वयं मालूम हो जायेगा, व्यर्थ चिंता में मग्न होने से क्या लाभ यह सोचकर चन्द्रप्रभ क्षुल्लक वहां से चल दिये। उत्तर मथुरा पहुंच कर उन्होंने सूरत मुनि को गुप्ताचार्य की वन्दना कह सुनाई। उससे सूरत मुनि बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने चन्द्रप्रभ के साथ खूब वात्सल्य किया जिससे चन्द्रप्रभ को बहुत खुशी हुई । बहुत ठीक कहा है कि 'ये कुर्वन्ति वात्सल्यं भव्याः धर्मानुरागतः । सामिकेषु तेषां हि सफल जन्म भूलते।' अर्थात् इस पृथ्वी माल पर उन्हीं का मनुष्य जन्म प्राप्त करना सफल और सुख देने वाला है जो धर्मानुराग से सामियों के प्रति समीचीन भावों से वात्सल्य प्रेम करते हैं। इसके अनन्तर क्षुल्लक चन्द्रप्रभ एकादशौंग के ज्ञाता, न, गत्र के भव्यसेन मुनि के पास गये। उन्होंने भव्यसेन को सादर Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जमोकार पुष नमस्कार किया । पर भव्यसेन मुनि ने अभिमानवश चन्द्रप्रभ को धर्म-वृद्धि तक नहीं दी। ऐसे अभिमान को धिक्कार है कि जिन अविचारियों के वचनों में भी दरिद्रता है । बहुत ठीक कहा है 'यत्र वामयेऽपि दारिद्रयमविवेक विकलात्मनि । प्रापूर्णक किया तत्र स्वप्ने स्यावपि दुर्लभा।' जिन अविवेकी पुरुषों के आए हुए अतिथि का वाचनिक सत्कार करने में भी दरिद्रता है तो उनसे और सत्कार सादर होना तो स्वप्न में भी दुर्लभ है । जैन शास्त्रों का ज्ञान सब दोषों से निर्दोष है, उसे प्राप्तकर हृदय पवित्र होना ही चाहिए गरन्तु अध्यान लेक के पास कहना इसा है कि उसके प्राप्त होने पर भी मान प्रकट होता है । पर यह शास्त्र का दोष नहीं, किन्तु यों कहना चाहिए कि 'सत्यं पुण्यविहीनानाममृतं च विजायते' अर्थात् पापियों के लिए अमृत भी विष हो जाता है जैसे उत्तम गौदुग्ध सर्प के मुख में गया हुआ विषरूप ही हो जाता है। जो भी हो, फिर भी यह देखना चाहिए कि इनमें कितना भव्यपना है या केवल नाम मात्र के ही भव्य सेन हैं, ऐसा विचारकर जब दूसरे दिन प्राप्तः काल भव्यसेन मुनि कण्डल को लेकर शौच से निवत होने के लिए वहिमि जाने लगे तब चन्द्रप्रभ क्षुल्लक भी उनके पीछे-पीछे हो लिए। आगे चलकर चन्द्रप्रभ क्षुल्लक ने अपने विद्याबल से भव्यसेन के अग्रभाग की भूमि को कोमल और हरे-हरे तृणों से युक्त कर दिया तब मध्यसेन ग्रागे को भूमि को कोमल तृणांकुरों से अच्छादित देखकर यह विचारने लगे कि जिनागम में तो इनको एकेन्द्रिय जीव कहा है, इनकी हिंसा का विशेष पाप नहीं होता है, यह सोचकर उनकी कुछ परवाह न करते हुए उन पर से निकल गए । आगे चलकर जब वे शौच से निवृत्त हो चुके तो तब शुद्धि के लिए कमण्डलु की पोर देखा तो उसमें जल का एक बूंदु भी नहीं मिला, वह आँधा पड़ा हुआ था। तब तो इनको बहुत चिंता हुई। इतने में ही एकाएक क्षुल्लक जी भी वहां आ पहुंचे। कमण्डलु का जल यद्यपि क्षुल्लक महाराज ने ही प्रपनी विद्या के बल से सुखाकर उसे प्रौधा गिरा दिया था। तथापि वे बड़े पाश्चर्य के साथ बोले- मुनिराज आगे चलकर कुछ दूरी पर एक निर्मल जल का सरोवर भरा हुआ है। वहीं पर जाकर शौच शुद्धि कर लीजिए। भच्यसेन अपने पद के कर्तव्य का कुछ भी ध्यान न रखते हुए जैसा क्षुल्लक ने कहा वैसा ही कर लिया । सच बात तो यह है कि कि करोति न मूढ़ास्मा कार्य मिथ्यात्वदूषितः । न स्यान्मुक्तिप्रदंशानं पारिनं दुर्दशामपि । उदगतो भास्करश्चापि कि घुकस्य सुखायते । मिथ्यावृष्टे: श्रुतं शास्त्र कुमार्गाय प्रवर्तते । यथा मष्टं भवेत्कष्टं सुबुषं सुम्बिकागतम् । अर्थात् मूर्ख पुरुष मिथ्यात्व के वश होकर क्या निषिद्ध कार्य नहीं करते हैं । इन मिथ्यात्वदूषित पुरुषों के ज्ञान और चारित्र मोक्ष का कारण नहीं होते। जैसे सूर्य का उदय उल्लू को सुख का कारण नहीं होता। मिथ्या श्रद्धानियों का शास्त्र श्रवण करना, शास्त्राभ्यास करना कुमागं में ही प्रवर्ताने का कारण है जैसे मीठा दूध भी बड़ी के सम्बन्ध से कड़वा हो जाता है। इस प्रकार विचारकर चन्द्रप्रभ क्षुल्लक ने भव्यसेन मुनि का प्राचरण समझ लिया कि नाममात्र के जैनी हैं। वास्तव में इनका जैनधर्म पर श्रवान नहीं । ये मिथ्यात्वी हैं। उस दिन से चन्द्रप्रभ क्षुल्लक ने मध्यसेन का नाम अभव्यसेन रखा । सत्य बात है कि दुराचार से क्या-क्या नहीं होता। इस प्रकार भुल्लक चन्द्रप्रभ ने भव्यसेन की Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार ग्रंथ परीक्षा कर अब रेवती रानी की परीक्षा करने का विचार किया। दूसरे दिन अपनी विद्या के बल से कमल पर बैठे हुए और वेदों के मन्त्रों का महाध्वनि के साथ उपदेश करते हुए चार मुख वाले ब्रह्म का वेष बनाया। और नगर से पूर्व दिशा की ओर कुछ दूरी पर ठहर गये । ये हाल सुनकर राजा वरुण तथा भव्यसेन आदि अनेक जन उनके दर्शन के लिए वहाँ गये और ब्रह्माजी को उन्होंने नमस्कार किया। उनके चरण स्पर्श कर बहुत प्रसन्न हुए और अपना अहोभाग्य समझने लगे। राजा वरुण ने जाते समय अपनी प्रिया रेवती से भी चतुर्मुख ब्रह्माजी की वन्दना के लिए चलने को कहा था। पर रेवती सम्यक्त्व रत्न से भूषित सौर जिन भगवान की अनन्य भक्त थी, इसलिए वह नहीं गयी। उसने राजा से उत्तर में कहा-'महाराज! मोक्ष और सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र प्राप्त कराने वाला सच्चा ब्रह्मा जिनशासन में प्रादि जिनेन्द्र कहा गया है। उनके सिवा कोई अन्य ब्रह्मा नहीं हो सकता और जिस ब्रह्मा की वन्दना के लिए पाप जा रहे हैं वह ब्रह्मा नहीं किन्तु कोई धूर्त मनुष्यों के चित्तरंजन करने के लिए ठगने के निमित्त ब्रह्मा का वेष बनाकर आया है । मैं तो कदाचित् नहीं चलूगी।' दूसरे दिन क्षुल्लक ने गरुड़ पर बैठे हुए चतुर्भुज, शंख, चक्र, गदा मादि से युक्त और दैत्यों को कंपायमान करने वाले खड़ग सहित विष्ण भगवान का वेष बनाकर दक्षिण दिशा में अपना डेरा जमाया और फिर तीसरे दिन बुद्धिमान क्षुल्लक ने बैल पर बैठे हुए पार्वती के मुख कमल को देखते हुए, शिर पर जटा और अंग में भस्म लगाए हुए, गणपति युक्त और जिन्हें हजारों देव आकर नमस्कार कर रहे हैं, ऐसे शिव का वेष धारण कर पश्चिम दिशा की तरफ शोभा बढ़ाई। चौथे दिन उस बुद्धिमान क्षुल्लक ने अपनी विद्या के बल से समवशरण में सिंहासन पर विराजे हुए आठ प्रतिहार्यों से विभूषित मिथ्यादृष्टियों के अभिमान को नष्ट करने वाले मानस्तंभादि से युक्त निग्रंथमुक्तधारी और हजारों देव विद्याधर, चक्रवर्ती, राजा, मनुष्यादि पाकर जिसके चरणारविदों को नमस्कार करते हैं, ऐसा संसार श्रेष्ठ तीर्थकर का भेष बनाकर उत्तर दिशा को अलंकृत किया। तीर्थकर भगवान का प्रागमन सुनकरसब मनुष्यों को प्रानन्द हुआ । सम प्रसन्न होते हुए भक्तिपूर्वक उनकी बन्दना करने को गये। राजा वरुण तथा भव्यसेन आदि भी बन्दना करने को गये। भगवान के दर्शन करने के लिए भी रेवती रानी को न जाती हुई देखकर सबको बड़ा आश्चर्य हुआ। बहुतों ने उससे वन्दना करने को चलने के लिए प्राग्रह भी किया पर वह नहीं गई । कारण कि वह सम्यक्त्व रूपी रत्न ने भूषित थी । उसे सर्वत्र देवाधिदेव जिनेन्द्र भगवान के भाषण किये हुए वचनों पर पूर्ण तथा दृढ़ विश्वास था कि तीर्थकर परमदेव चौबीस ही होते हैं और वासुदेव नौ तथा रुद्र ग्यारह होते हैं, फिर उनकी संख्या का उल्लंघन करने वाले ये दसवें वासुदेव, बारहवें रुद्र तथा पच्चीसवें तीर्थकर कहाँ से मा सकते हैं ? वे तो अपने ने शुभाशुभ कर्मों के अनुसार जहा उन्हें जाना था, चले गये, फिर ये नवीन रचना कैसी? इनमें न तो कोई सच्चा रुद्र है, न वासुदेव है और तीर्थकर है, किन्तु कोई मायाबी इन्द्रजालिक अपनी धूर्तता से लोगों को ठगने के लिए अनेक रूप धारण कर लेता है। यह विचार कर रेवती रानी तीर्थकर बन्दना के लिए भी नहीं गई । सच है कहीं सुमेरु पर्वत भी वायु से चलायमान हुमा है ? कदापि नहीं। उसी प्रकार रेवती भी सुमेरुवत् निश्चल रही। इसके बाद क्षुल्लक चन्द्रप्रभ शुल्लक ही के वेष में परन्तु अनेक प्रकार की व्याधि से प्रसित हो मलिन शरीर होकर रेवती रानी की परीक्षा के लिए मध्याह्नकाल में भोजन के निमित्त रेवती के महल में पहुंचे। पांगन में पहुंछते ही मूळ खाकर पृथ्वी पर धड़ाम से गिर पड़े। उसको देखते ही धर्मवत्सला Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार ग्रंथ रेवती रानी 'हाय-हाय' शब्द उच्चारण करती हुई उनके पास दौड़ी पाई और बहुत भक्ति तथा विनयपूर्वक उनको सचेत किया । इसके पश्चात् अपने महल में ले जाकर बहुत कोमल और पवित्र भात्रों से हर्षपूर्वक रानी रेवती ने प्राशुक पाहार कराया। सच है जो दयावान होते हैं, उनकी बुद्धि दान देने में स्वभाव से ही तत्पर रहती है । चन्द्रप्रभ क्षल्लक को अब भी सन्तोष न हुमा अतः उन्होंने भोजन से निवृत्त होने के पश्चात् ही अपनी माया से असह्य दुर्गधयुक्त वमन कर दिया। क्षुल्लक की यह दशा देखकर रानी रेवती को बहुत दुःख हुआ। उसने बहुत पश्चात्ताप किया कि मुझ पापिन के द्वारा प्रकृतिविरुद्ध न जाने क्या प्राहार दे दिया गया जिससे इनको इतना कष्ट हुआ । मैं बड़ी प्रभागिनी हूँ जो ऐसे उत्तम पात्र का हमारे यहां निरंतराय पाहार नहीं हुआ । इस प्रकार बहुत-कुछ पश्चाताप और यात्मनिन्दा कर अपनी असावधानता को धिक्कारते हुए उसने क्षुल्लक का शरीर पोंछा और किंचित उष्ण जल से धोकर निर्मल किया। क्षल्लक रेवती की इस प्रकार अचल भक्ति देखकर बहत प्रसन्नता के साथ बोले.-देवी! संमार में श्रेष्ठ मेरे परम गुरु महाराज गुप्ताचार्य की धर्म वद्धि तेरे मन को पवित्र करे जो कि सब सिद्धियों को देने वाली है और तुम्हारे नाम से मैंने यात्रा में जहां-तहां जिन भगवान की पूजा को है वह भी तुम्हें कल्याण को देने वाली हो । हे देवी ! यथार्थ में तुम ही सभ्यस्त्वी हो वास्तव में तुम जैन शासन के रहस्य को ज्ञाता हो । तुमने जिन संसार श्रेष्ठ और संसार समुद्र पार करने वाले मनु टिम प्रहग किया है उसकी मैंने अनेक तरह से परीक्षा की, पर उसमें तुमको मेरु के समान अचल पाया। तुम्हारे इस त्रिलोकपूज्य सम्पयत्व की कौन प्रशंसा करने में समर्थ हैं । अर्थात् कोई नहीं। आप ही का मनुष्य जन्म पाना सफल है । इस प्रकार उत्तमोत्तम गुणभूषित रानी रेवती की प्रशंसा कर उससे सर्ववृत्तान्त वर्णन कर क्षुल्लक अपने स्थान पर चला गया। इसके अनन्तर वरुण नृपति और रेवती रानी अपने राज्य का सुखपूर्वक पालन करते हुए दान-पूजादि शुभ कार्य में अपना समय बिनाने लगे। इसी प्रकार राज्य करतेकरते बहुत समय व्यतीत हो गया। एक दिन राजा को किसी कारण से वैराग्य हो गया और संसार, शरीर भोगादिकों से उसे बड़ी धूणा हुई । मैं आज ही मोहमाया का नाश कर अपने हित के लिए तत्पर हो जाऊं। यह विचार कर उसी समय अपने शिवकीति नामक पुत्र को राज्य भार सौंपकर आप वन की ओर रवाना हुए मौर उसी समय मुनिराज से दीक्षा ग्रहण कर ली जोकि संसार का हित करने वाली है । दीक्षित होकर उन्होंने पंचाचार आदि मुनिव्रतों का निरतिचार पालन करते हुए कठिन-से-कठिन तपश्चर्या करने लगे और अंत में मृत्यु प्राप्त कर समाधिमरण के प्रभाव से वे माहेन्द्र स्वर्ग में जाकर देव हुए। जिन भगवान के चरणकमलों की परमभक्त महारानी रेवती भी संसार के सुख को सुखाभास और अनित्य समझकर सब माया जाल सोड़ जिन-दीक्षा ग्रहण कर अपनी शक्ति अनुसार तपश्चर्या कर प्रायु के अन्त में ब्रह्म स्वर्ग में जाकर महविक देव हुई। हे भव्य पुरुषो ! यदि तुम भी स्वर्ग या मोक्ष सुख को चाहते हो तो जिस तरह श्रीमती रेवती रानी ने मिथ्यात्व छोड़ प्रमूढ़ दृष्टि अंग का प्रकाश किया उसी तरह तुम भी मिथ्यात्व छोड़कर स्वर्ग मोक्ष सुख के देने वाले अत्यन्त पवित्र और बड़े-बड़े देव विद्याधर राजा-महाराजामों से भक्तिपूर्वक ग्रहण किये हुए सम्यग्दर्शन का अंग सहित निरतिधार पालन करो। इति श्री अमूढदृष्टयंगे रेवती कथा समाप्ता॥ Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ णमोकार पंथ मशरना तस्य५ !' गायनथा प्रारम्भ ।। पवित्र जैन मार्ग को अज्ञानी तथा असमर्थ जनों के द्वारा की गई निन्दा को यथायोग्य रीति से दूर करना तथा अपने गुण और पराये दोषों को ढकना उपगहन अंग है । इस सम्यग्दर्शन के पांचवें उपगहन अंग के पालन करने में प्रसिद्ध होने वाले जिनेन्द्र भक्त की कथा इस प्रकार है नेमिनाथ भगवान् के जन्म से पवित्र और दयालु पुरुषों से परिपूर्ण इस भारतवर्ष में सौराष्ट्र नाम का एक देश है । उसके अन्तर्गत पाटलिपुत्र नाम का मनोहर नगर है। जिस समय को यह कया है उस समय वहाँ के राजा यशोध्वज थे। उनकी रानी का नाम सुसीमा था। यह बड़ी सुन्दरी थी। उसके एक पुत्र था। उसका नाम सुवीर था। बेचारी सुसीमा के पूर्वोपार्जित कर्म के उदय से वह महाव्यसनो और चोर हो गया है। सच तो यह है कि जिन्हें प्रागे कुयोनियों के दुःख भोगने होते हैं उनके न तो उत्तम कूल में जन्म लेना काम आता है और न ऐसे पुत्रों से बेचारे माता-पिता को कभी सुख होता है। गौड़देश के अन्तर्गत एक तामलिप्ता नाम की सुन्दर नगरी है इसमें जिन भक्त नाम के एक सेठ रहते थे। उनका जैसा नाम था वैसे ही वे जिनेन्द्र के भक्त भी थे। वे जिनेन्द्र भगवान् के भक्त थे। वे जिनेन्द्र भक्त सच्चे उदारात्मा और विचारशील थे। वे अपने श्रावक-धर्म का बराबर पालन करते रहते थे। उन्होंने बड़े-बड़े विशाल नवीन जिन मन्दिर बनवाए. बहुत से जीर्ण मन्दिरों का उद्धार किया जिन प्रतिमार बनबाकर उनकी प्रतिष्ठा करवाई। वह चविध संघ को भक्तिपूर्वक दान देता और वैयावस्य करता था। सम्यग्दृष्टि शिरोमणि जिनेन्द्रभक्त सेठ का महल सात मंजिल या उसकी अन्तिम मंजिल पर्यात् सातवीं मंजिल पर एक बहुत ही सुन्दर जिन चैत्यालय में श्री पाश्वनाथ भगवान् की बहुत मनोहर और रत्नमयी प्रतिमा थी। उसपर रत्नों के बने हुए तीन छत्र बड़ी शोभा दे रहे थे। उन छत्रों में एक पर बड्यमणि नाम का प्रत्यन्त कांतिमान बहुमूल्य रत्न लगा हुआ था। इस रत्न का वृत्तांत राजा यशोध्वज सुबीर ने सुना। उसने अपने साथियों को बुलाकर कहा-सुनिये ! जिनेन्द्रभक्त सेठ के चैत्यालय में प्रतिमा पर लगे हुए छत्रत्रयों में एक वैडूर्यमणि नाम का बहुमूल्य रत्न लगा हुआ है । क्या तुम लोगों में से कोई उस रत्न को लाने का साहस रखता है ? उनमें से सूर्यक नाम का एक चोर बोला महाराज ! यह तो एक अत्यन्त साधारण बात है । पर यदि वह रल इन्द्र के मस्तक पर भी होता तो मैं उसे क्षणभर में ला सकता था। सच है जो जितने दुराचारी होते हैं वे उतना ही पाप कर्म भी कर सकते हैं । सूर्यक के लिए सुवीर को पोर से रत्न लाने की प्राशा हुई। वहाँ से आकर उसने एक मायावी क्षुल्कक का वेष धारण किया। क्षल्लक बनकर लोगों को ठगने के लिए वह ब्रत उपवासादि करने लगा। उससे उ शरीर कुछ ही दिनों में बहुत कृश हो गया। __ तत्पश्चात् वह अनेक नगरों पौर ग्रामों में घूमता हुआ और लोगों को अपने कपटी वेष से ठगता हुमा कुछ दिनों में तामलिप्तापुरी आ पहुंचा। जिनेन्द्र भक्त सेठ बड़े धर्मात्मा थे इसलिए धर्मात्मानों को देखकर उन्हें बड़ी प्रसन्नता होती थी। उन्होंने जब इस धूर्त क्षुल्लक के आगमन का समाचार सुना तो उन्हें बहुत प्रसन्नता हुई। वे उसी समय सब गृह कार्य छोड़कर क्षुल्लक महाराज की वंदना के लिए गये। तपश्चर्या से उनके क्षीण शरीर को देखकर उनकी उस पर और अधिक श्रद्धा हो गयी। उन्होंने भक्ति के साथ क्षुल्लक को प्रणाम किया और फिर वे इस क्षुल्लक को अपने घर पर ले पाए। सच बात तो यह है कि 'अहो धूर्तस्य धूर्तत्वं लक्ष्यते के न भूतले। पल्प प्रपंचतो गाई विद्वाम्सश्चापि वषितः॥ क Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार ग्रंथ अर्थात् जिनकी धूर्तता से अच्छे-अच्छे विद्वान भी जब उगे जाते हैं तो बेचारे साधारण पुरुषों को क्या मजाल जो वे उनकी धूर्तता का पता पा सकें । क्षुल्लक जी ने चैत्यालय में पहुंचकर जब उस जैडूर्यमणि को देखा तो उनका हृदय आनन्द के मारे बाँसों उछलने लगा । वे उसी प्रकार संतुष्ट हुए जिस प्रकार कोई सुनार अपने पास कोई वस्तु वनar के लिए लाए हुए सोने को देखकर संतुष्ट होता है क्योंकि उसकी अभिरुचि सदेव चोरी की ओर ही लगी रहती है। जिनेन्द्र भक्त को उसके मायाचार का कुछ पता नहीं लगा। इसीलिए उस मायाचारी क्षुल्लक के मना करने पर भी उसे बड़ा धर्मात्मा समझकर उन्होंने याग्रहपूर्वक अपने जिनालय की रक्षा करने के लिए उसे नियुक्त कर दिया और श्राप उससे पूछकर समुद्र यात्रा करने के लिए चल पड़े । जिनेन्द्रभक्त के घर से बाहर होते ही क्षुल्लक महाराज की मनोकामना सिद्ध हो गयो । उसो दिन श्रद्ध रात्रि के समय वह उस तेजस्वी रत्न को कपड़ों में छिपाकर घर से बाहर हो गया, पर पापियों का पाप कभी नहीं छिपता । कहा भी है- दारी तत्प्रसिद्ध पेलव पापतः । भवस्येव भवभ्रमणवtयकः ॥' १४५ अर्थात् पापी लोग बहुत छिपकर भी पाप करते हैं, पर वह छिपता नहीं और प्रकट हो ही जाता है और परिणाम में अनन्तकाल तक दुःख भोगना पड़ता है। यही कारण था कि रत्न लेकर भागते हुए उसे सिपाहियों ने देख लिया। वे उसे पकड़ने को दौड़े। शुल्लक जी दुबले-पतले पहले से ही हो रहे थे, इसीलिए भागने में अपने को श्रसमर्थ समझ विवश होकर सेठ जिनेन्द्र भक्त हो की शरण में गये और प्रभो ! बचाइये, बचाइये ! यह कहते उनके चरणों में गिर पड़े। "चोर भागा जाता है. उसे पकड़ना" ऐसे शब्दों को श्रवण कर जिनेन्द्र भक्त ने समझ लिया कि यह चोर है, और क्षुल्लक का वेष धारण कर लोगों को ठगता फिरता है। यह जानकर भी दर्शन की निन्दा होने के भय से जिनेन्द्र भक्त ने क्षुल्लक को पकड़ने को आये हुए अपने सिपाहियों से कहा- आप लोग बड़े नासमझ हैं । आपने बहुत बुरा किया जो एक तपस्वी को चोर बताया। रत्न तो ये मेरे कहने से लाए थे। आप नहीं जानते कि ये बड़े सच्चरित्र साधु हैं। अस्तु, आगे से ध्यान रखिए ।' जिनेन्द्र भक्त के वचनों को सुनते ही सब सिपाही ठंडे पड़ गये और उन्हें नमस्कार कर अपने स्थान पर चले गये। जब सब सिपाही लोग चले गये तब जिनेन्द्र भक्त ने क्षुल्लक जो से रत्न लेकर एकांत में कहा- मुझको अत्यन्त दु:ख के साथ कहना पड़ता है कि तुम ऐसे पवित्र वेष को धारण कर ऐसे नीच कर्मों से कलंकित कर रहे हो। क्या तुम्हें यह उचित है ? स्मरण रखो, जो मनुष्य केवल संसार को ठगने के लिए ऐसा भायाचार करता है, बाहर धर्मात्मा बनने का ढोंग रचता है, लोगों को धोखा देकर अपने मायाजाल में फंसाता है, वह मनुष्य तिर्यंचादि दुर्गति का पात्र होता है। क्या यह बाहरी दमक और सीधापन केवल दिखाना है। केवल बगुलों की हंसों में गणना कराने के लिए है ? ऐसे अनयों से तुम्हें कुगतियों में अनन्तकाल पर्यंत दुःख भोगने पड़ेंगे। शास्त्रकारों ने पापी पुरुषों के लिए लिखा है- 'ये कृत्वा पातकं पापाः पोषयंति स्वकं भुवि । न्यायक्रमं तेषां महादुःखभवार्णवे ॥1 अर्थात् जो पापी लोग न्याय मार्ग छोड़कर पाप के द्वारा अपना निर्वाह करते हैं, वे संसार समुद्र में अनन्तकाल तक दुःख भोगते हैं । ध्यान रखो कि अनीति से चलने वाले और प्रत्यन्त तृष्णावान् तुम Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ णमोकार ग्रंथ जैसे पापी लोग बहुत ही शीघ्रता से नाश को प्राप्त हो जाते हैं । तुम्हें उचित है कि तुम बड़ी कठिनता से प्राप्त हुए इस मनुष्य जन्म को इस प्रकार अनर्थों में न लगाकर कुछ ग्रात्महित करो।' इस प्रकार श्रीर भी भव्य पुरुषों को दुर्जनों के मलिन कर्मों से निंदा को प्राप्त होने वाले सम्यग्दर्शन की रक्षा करना योग्य है । जिन भगवान् का शासन पवित्र है निर्दोष है, उसे जो सदोष बनाने का प्रयत्न करता है, वह मूर्ख है, उन्मत्त है। ऐसा ठीक भी है क्योंकि उनको वह निर्दोष, पवित्र जैन वर्म अच्छा जान भी नहीं पड़ना जैसे पित्तज्वर वाले को अमृत के समान मीठा गोदुग्ध भी कड़वा ही लगता है। जिस प्रकार सम्यग्दर्शन के उपगूहन अंग का जिनेन्द्र भक्त ने पालन किया उसी प्रकार अन्य भव्य पुरुषों को भी अवश्य उपगूहन अंग का पालन करना चाहिए । इति उपगूहनाङ्गे जिनेन्द्रभक्तस्य कथा समाप्ता । ॥ मथ स्थितिकरण अंग वर्णन प्रारम्भः ॥ कर्म के उदयवश किसी कारण से स्वयं को था पर को धर्म से शिथिल होते हुए देखे तो उस समय जिस तरह बने उस तरह धर्म में दृढ़ तथा स्थिर करना स्थितिकरण है । सम्यग्दृष्टि को उचित है कि चित्त चलायमान होने वाले को धर्मोपदेश देकर दृढ़ करे । निर्धन को धन, प्राजीविका देकर, रोगी को औषध देकर भगवान को निर्भय कर धर्म में लगाए । सम्यग्दर्शन के इस स्थितिकरण गुण पालन करने में प्रसिद्ध होने वाले वारिषेण मुनि की कथा इस प्रकार है भगवान् के पचकल्याणकों से पवित्र और संसार श्रेष्ठ वैभव के स्थान भारतवर्ष में मगध नाम का एक देता है ! उसके सन्त राम नाम का एक सुन्दर और प्रसिद्ध नगर है। उसकी सुन्दरता संसार को चकित करने वाली है। नगर निवासियों के पुण्योदय से वहाँ के राजा श्रेणिक बड़े गुणी थे । वह सम्यग्दृष्टि उदार धर्म प्रेमी और राजनीति के अच्छे विद्वान थे। उनकी महारानी का नाम चेलना था। वह भी सम्यक्त्व रूपी श्रमूल्य रत्न से भूषित थी । वह बहुत सुन्दर, बुद्धिमती सती सरल स्वभाव वाली और विदुषी थी। वह सदा दान देती और जिन भगवान की पूजा करती थी, बड़ी श्रद्धा के साथ उपवास, स्वाध्याय करती थी और पवित्रचित्त थी । उसके वारिषेण नाम का एक पुत्र था। वारिषेण बहुत गुणी श्रावकधर्म प्रतिपालक और धर्मप्रेमी था। एक दिन मगधसुन्दरी नाम की एक वेश्या राजगृह के उपवन में क्रीड़ा करने को आई हुई थी। उसने वहां श्रीकीति नामक सेठ के गले में एक बहुत ही सुन्दर रत्नों का हार पड़ा हुआ देखा, उसे देखते हो मगवसुन्दरो उस हार पर मुग्ध हो गई, उस हार के प्राप्त किये बिना उसको अपना जीवन व्यर्थ प्रतीत होने लगा । समस्त संसार उसे हारमय दिखाई देने लगा । वह उदास मुख होकर अपने घर पर लौट आयी। जब रात्रि के समय उसका प्रेमी विद्युत चोर उसके घर पर श्राया, तब वह मगधसुन्दरी का उदास मुख देखकर बड़े प्रेम के साथ पूछने लगा हे प्रिय ! मैं आज तुमको उदास मुख देख रहा हूं। इसका क्या कारण है, मुझे सत्य सत्य बताइये क्योंकि तुम्हारी यह उदासी मुझे अत्यंत दुःखी कर रही है। तब मगधसुन्दरी ने विद्युत् चोर पर कटाक्ष बाण चलाते हुए कहा प्राणवल्लभ ! तुम मुझ पर इतना प्रेम करते हो, पर मुझको तो जान पड़ता है कि यह सब तुम्हारा दिखाऊ प्रेम है धौर यदि तुम्हारा मुझ पर सच्चा प्रेम है तो श्रीकीर्ति के गले का हार जिसे कि आज मैंने बगीचे में देखा है, लाकर मुझे दीजिये, जिससे मेरी मनोकामना पूर्ण हो। वह हार बहुत ही सुन्दर है । मेरा तो विश्वास है कि वह, अद्वितीय हार एक ही है। आप यदि उसे लाकर दें तभी मैं समभूंगी कि आप मुझसे सच्चा प्रेम करते हैं और तब ही मेरे प्राणवल्लभ होने के अधिकारी हो सकेंगे, अन्यथा नहीं । Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार श्रेय विद्युत चोर मगधसुन्दरी की ऐसी कठिन प्रतिज्ञा सुनकर पहले तो कुछ हिचका, पर साथ हो उसके प्रेम ने उसे हार चुराकर लाने को बाध्य किया । उसे अपने जीवन को भी कुछ परवाह न करके इस कठिन कार्य के लिए भी तत्पर होना पड़ा। वह उसे संतोष देकर उसी समय वहां से हार चुराने के लिए थीकीति सेठ के महल पहुंचा । उसने उनके शयनागार में पहुंचकर उनके गले में से अपनी कार्यकुशलता के साथ हार निकाल लिया। फिर बड़ो शीघ्रता से वहाँ से चलता बना । वह पहरेदारों के मध्य में से साफ निकल जाता पर अपने दिव्य तेज से घोर अन्धकार का नाश करने वाले हार ने उसके परिश्रम पर कुछ भी दृष्टि न देकर उसके प्रयत्न को सफल न होने देने के लिये अपने दिव्य प्रकाश कोन रोका । इससे उसे भागते हुए सिपाहियों ने देख लिया और फिर उसे पकड़ने को दौड़े विद्युत चोर भी खब तीव्रता से भागा और भामता-भामता शमशान की ओर जा निकला। उस समय वारिषेण वहाँ कायोसर्ग ध्यान कर रहा था । विद्य त् बोर ने वहां ही उचित मौका देकर अपने पीछे आने वाले सिपाहियों के पंजे से छूटने के लिये उस हार को वारिषेण के आगे डाल दिया और वहां से भाग गया । इतने में सिपाही भी वहाँ प्रा पहुंचे । वे सिपाही ध्यान में स्थित वारिषेण को हार के पास खड़े देखकर भौच्चके से रह गये । वे उसे उस अवस्था में देखकर हँसे और बोले-वाह ! चाल तो खूब खेली। मानों हम तो कुछ जानते ही नहीं मुझे धर्मात्मा और ध्यानी जानकर सिपाही छोड़ जाएंगे ऐसा सोच रहे हो पर याद रखिए। हम लोग अपने स्वामी की सच्ची नौकरी करते हैं। हम तुमको कभी नहीं छोड़ेंगे।' यह कह कर वारिषेण को बाँधकर राजा श्रोणिक के पास ले गये और कहने लगे -महाराज! ये हार चुराकर लिये जा रहे थे । अतः हमने इन्हें पकड़ लिया। यह सुनते ही राजा श्रोणिक के हृदय में क्रोध का प्रावेश हो गया और उनका चेहरा लाल हो गया । अाँखों से क्रोधाग्नि की चिनगारियां निकलने लगीं। उन्होंने सिंह के समान गरज कर कहा-देखो ! 'इस पापो का नीच कम, जो श्मशान में जाकर ध्यान करता है और लोगों को यह दिखलाकर कि मैं बड़ा धर्मात्मा और ध्यानी हूँ, ठगता है। धोसा देता है । रे पापी ! कुल कलंक ! देखा मैंने तेरे धर्म का ढोंग 1 सच कहा है कि दुराचारी मनुष्य लोगों को धोखा देने के लिये क्या अनर्थ नहीं करते ? जिसको मैं राज्य सिंहासन पर बैठाकर जगत् का अधीश्वर बनाना चाहता था, अच्छा जो इतना दुराचारी है, प्रजा को धोखा देकर ठगता है उसे यहां से ले जाकर इसका मस्तक छेदन कर दो ! अपने खास पुत्र के लिये ऐसी कठोर आज्ञा सुनकर सब चित्रलेख से होकर श्रेणिक महाराज की ओर देखने लगे सबकी आंखों में पानी भर आया-पर किसका साहस, जो उनकी प्राज्ञा का प्रतिवाद कर सके ! जल्लाद उसी समय वारिषेण को बध्यभूमि में ले गये और उसी समय उनमें से एक ने खड़ग निकालकर उनकी गर्दन पर मारा। पर कैसा आश्चर्य ! उनकी गर्दन पर बिल्कुल घाव नहीं हुआ, अपितु वारिषेण को उल्टा यह जान पड़ा मानों किसी ने उस पर फूलों को माला फेंकी हो । जल्लाद लोग देखकर दांतों तले उंगली दवा गये । वारिषेण के पुण्य ने उस समय इसकी रक्षा की। सब कहा है बने रणे शत्रजलाग्निमध्ये महार्णवे पर्वतमस्तके था। सुप्तं प्रमत्त विषमस्थित वा रक्षति पुण्यानि पुरस्कृतानि ।। अर्थात निर्जन वन, रण, (संग्राम) शत्रु, जल, अग्नि इनके मध्य में, तथा महार्णव के मध्य में, पर्वत के शिखर पर, सुषुप्तावस्था में, विकराल विषम स्थान में स्थित होने पर पूर्वोपाजित पुण्य कर्म रक्षा करता है । और धर्मात्मा व पुण्यवान मनुष्यों को कहीं कष्ट नहीं होता। उनके पुण्य के प्रभाव से दुःख रूपी सामग्री भी सुख रूप में परिणित हो जाती है। Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार ग्रंथ यथोक्तं अहो पुण्येन तोवाग्निर्जलरवं भूतले, समुद्र स्थलतामेति विषं च सुधायते (१) शत्रु मित्रत्वमाप्नोति विपत्तिः सम्पदामते । तस्मान्सुखैषिणो भन्योः पुण्यं कुर्वतु निर्मलम् । (२) अर्थात् पुण्य के उदय से हवन से उत्तेजित ऊपर को उड़ रहे हैं स्फुलिंग जिसके, ऐसी तीवाग्नि भी जल रूप हो जाती है, भयंकर विकराल समुद्र स्थवरूप हो जाता है। प्राणों का घातक हलाहल विष अमत हो जाता है। अपने नाममात्र के उच्चारण को श्रवण करने में असमर्थ ऐसे शत्रु मित्रा मित्र हो जाते हैं। दुःस्त्र चिंता रूपी ज्वालाओं से मन को संतप्त करने वाली विपत्ति संपत्ति के रूप में परिणत हो जाती है । इसलिए जो मनुष्य सुख की इच्छा करते हैं, उनको पवित्र कार्यों द्वारा पुण्योत्पादन करना चाहिए। जिन भगवान् के चरण कमलों की पूजा करना, चतुर्विध दान देना, व्रत उपवास करना, स्वाध्याय करना, परोपकार करना, सब जीवों को अभयदान देना, सदा मायाचार रहित पवित्र चित्त रहना, पंचपरमेष्ठी की भक्ति करना, हिंसा, मठ, चोरी आदि पाप कर्मों का न करना, पुण्य उत्पन्न होने के कारण हैं। वारिषेण की यह आश्चर्यजनिक अवस्था देखकर सब उसकी जयजयकार करने लगे। देवों ने प्रसन्न होकर जयजयकार उच्चारण करते हुए उन पर सुगंधित फूलों की वर्षा की । नगर निवासियों को इस समाचार के सुनने से बड़ा आनन्द हुआ । सबने एक स्वर में कहा वारिषेण तुम धन्य हो । वास्तव में तुम साधु पुरुष हो ! तुम्हारा रिट बहुंत निर्मल है। तुम हिट भगवान् के सच्चे सेवक हो । तुम पवित्र और पुरुषोत्तम हो ! तुम जैन धर्म के सच्चे पालन करने वाले हो । पुण्यपुरुष ! तुम्हारी जितनी प्रशंशा की जाए उतनी थोड़ी है। सच है, पुण्य के प्रभाव से क्या नहीं होता? महाराजा थेणिक ने जब इस अलौलिक घटना का वृत्तांत सुना तो उनको भी इस अपने बिना विचारे किये हुए कृत्य पर बहुत पश्चाताप हुमा । ये दुःखी होकर बोले ये कुर्वति जड़ात्मानः कार्य लोकेऽविचार्य च ते सीदति महत्तोऽपि मावृशा दुख सागरे। अर्थात् जो मूर्ख लोग आवेश में प्राकर विना बिचारे किसी कार्य को कर बैठते हैं वे फिर बड़े ही क्यों न हों, उनको मेरी तरह से दुःख सागर में पड़ना पड़ता है । अतएव चाहे कैसा भी काम क्यों न हो, उसकोबड़े विचार के साथ करना चाहिये । श्रेणिक महाराज इस प्रकार बहुत कुछ पश्चाताप करके अपने पुत्र वारिषेण के पास वध्यभूमि में पाये । वारिषेण की पुण्यमूर्ति को देखते ही उनका हृदय पुत्र प्रेम से भर पाया । उनकी प्रॉखों से अश्रुपात होने लगे । बड़े प्रेम के साथ उसने अपने पुत्र को छाती से लगाया और रोते हुये कहने लगे--प्यारे पुत्र ! मेरी मूर्खता को क्षमा करो। मैं क्रोध के प्रावेश में पाकर अंधा हो गया अर्थात् विचारहीन हो गया था। इसलिए पूर्वापर का कुछ विचार न करके मैंने तुम्हारे साथ बड़ा अन्याय किया । हे पुत्र ! पश्चाताप रूपी अग्नि में मेरा हृदय जल रहा है । उसे अपने क्षमा रूपी जल से शान्त कर दो। मैं दुःख रूपी सागर में डूबा हुमागात खा रहा हूँ। मुझ प्रब कृपा रूपी सहारा देकर निकाली। अपने पूज्य पिता की यह हालत देखकर वारिषेण को बहुत कष्ट हुआ। वह बोला पिता जी! आप यह क्या कहते हैं ? आप अपराधी कैसे ? आपने तो अपने कर्तव्य का पालन किया है अपने कर्तव्य का पालन करना कोई अपराध नहीं। न्यायी पुरुषों का यही धर्म हैं कि चाहे अपना पुत्र हो या भाई तथा कैसा ही स्नेही क्यों न Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार ग्रंथ १t हो. उसको अपराध करने पर अवश्य ही यथायोग्य दण्ड देते हैं । पक्षपात कदाचित नहीं करते। जैसे नीतिकार ने कहा है-- बडो हि केवलीहलोकमिमंचामुच रक्षति । राशा शत्रौ च पुत्रे च यथा दोष शमं धृतः । प्रति चाहे राजा का शत्रु हो अथवा पुत्र हो, उसके किए हुए दोष के अनुसार दण देना हो राजा को इस लोक और परलोक में रक्षा करता है। मान लीजिए कि यदि पाप पुत्र-प्रम के वश होकर मेरे लिए बाज की प्रासादे तो सोना क्या समझती ? चाहे मैं मपराधी नहीं भी था, तब भी क्या प्रजा इस बात को देखती ? कदापि नहीं । वह तो यही समझती कि राजा ने अपना पुत्र जानकर छोड़ दिया । पिताजी ! आपने बहुत बुद्धिमानी का कार्य किया है । आपकी नीति परायणता को देखकर मेरा हृदय प्रानन्द समुद्र में मग्न हो रहा है । मापने प्राज पवित्र वंश को लाज रख ली। यदि माप ऐसे भी अपने कर्तव्य से शिथिल हो जाते तो सदा के लिये कुल को कलंक का टीका लग जाता। इसलिए आपको तो प्रसन्न होना चाहिए न कि दुःखी । हाँ, इतना अवश्य हुआ कि मेरा इस समय पाप कर्म का उदय था जो मुझे निरपराधी होते हुए भी अपराधी बनना पड़ा, परन्तु मुझे इस बात का किंचित भी खेद नहीं क्योंकि 'अवश्य मेवभोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम् ।' जो जैसा शुभाशुभ कर्म करता है उसको तदनुसार शुभाशुभ फल भी अवश्य भोगना पड़ता है। फिर मेरे लिए कर्मों का फल भोगना कोई नई बात नहीं है। पुत्र के ऐसे उन्नत और उदार विचार सुनकर श्रेणिक बहुत प्रानन्दित हुए और सब दुःखों को विस्मरण कर कहने लगे -पुत्र ! सत्पुरुषों ने बहुत ठीक लिखा है चंदन शुष्यमाणं , वह्यमानो यथाऽगुरु: नयाति विक्रिया साधुः पीडितोऽपि तथाऽपरः ।। अर्थात चंदन को कितना भी घिसिये, अगरु को खूब जलाइये, उससे उनका कुछ न दिगड कर उल्टी उनमें से सुगंधि निकलती है । उसी प्रकार सत्पुरुषों को दुष्ट लोग कितना भी सतावें, कितना ही कष्ट दें, पर वे उससे कुछ भी विकृत अवस्था को प्राप्त न होकर सदा शान्त रहते हैं और अपने को कष्ट देने वाले पर प्रत्युपकार ही करते हैं। बारिपेण के पुण्य का प्रभाव देखकर विद्य त् चोर को बहुत भय हेया। उसने सोचा कि यदि राजा को मेरा इनके चरणाग्र भूमि में हार फेंकने का वृत्तांत मालूम हो जाएगा तो मुझे बहुंत कठोर दण्ड देंगे। इससे मैं स्वयं ही जाकर उनसे सब सत्य-सत्य वृत्तांत कह दू जिससे कदाचित मुझको वे क्षमा कर दें। ऐसा विचार कर विद्युत्चोर राजा के सम्मुख उपस्थित होकर हाथ जोड़ सविनय निवेदन करने लगा-महाराज ! यह सब पाप कर्म मेरा है । पवित्रात्मा वारिषण सर्वथा निर्दोष है । पापिन देश्या के मोहजाल में फंसकर यह नीच कृत्य मैंने किया था। पर भाष से मैं ऐसा कभी नहीं करूंगा। मुझे दयाकर क्षमा कीजिए। राजा श्रेणिक विद्युत चोर को अपने नीचकर्म के पश्चाताप से दुखित देखकर अभयदान देकर अपने प्रिय पुत्र वारिषेण से बोले-पुत्र ! अब राजधानी में चलो। तुम्हारी माता तुम्हारे वियोग से बहुत दुखी हो रही होंगी। अपने दर्शन देकर उनके नेत्रों को तृप्त करो । तव सांसारिक विषय भोगों से पराइ.. मुख वारिषेण अपने पूज्य पिता के इन स्नेह युक्त वचनों को सुनकर बोले-'हे पिता ! मुझको क्षमा कीजिए। मैंने संसार की लीला बहुत देख ली । मेरी आत्मा पब उसमें प्रवेश करने के लिए मुझे रोकती Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार ग्रंथ है । अतएव आप मुझसे घर पर चलने का आग्रह न करके अब मुझे शीघ्र ही उस अखंड अविनाशी चिरस्थायी सच्चा पात्मीक सुख प्राप्त करने की सीढ़ी जिनदीक्षा लेने की प्राज्ञा दीजिए क्योंकि प्रयम तो इस काल में प्रयु ही बहुंत न्यून है और उसमें से बहुंत भाग तो पहले ही व्यतीत हो चुका और शेष भी पब पल, घड़ी, पहर, दिन, पक्ष, मासादि करके व्यतीत होता जाता है तथा गया हुंग्रा समय कोटि प्रयत्न करने पर भी वापिस नहीं आ सकता। इसलिए अब विलंब करना उचित नहीं हैं । आशा हो जिन (णा कामाश्रय ग्रहण करूगा । सुनिये, अब से मेरा कत्तव्य होगा कि मैं सदंब वन में रहकर मुनि मार्ग पर चलता हुआ निर्दोष शुद्ध पाहार अपने पाणि पात्र में लूंगा। निजात्मध्यान में लवलीन हो प्रात्म-हित करूंगा। मुझे अब यह संसार दुःखमय और केलि के स्तम्भवत् निस्सार मालूम पड़ता है । इसलिए मैं जानबूझ कर अपने को दुःखों में फंसाना नहीं चाहता क्योंकि हाथ में दीपक लेकर भी यदि कोई कूप में गिरना चाहे तो उस दोपक से क्या लाभ ? मुझे अक्षरों का ज्ञान है । और संसार की लीला से भी परिचित हूं। इतना होते हुए भी यदि मैं इसमें फंसा रहूं तो मुझ जैसा कौन मूर्ख होगा? मैं प्रापकी प्राज्ञा का उल्लंघन कर विरोध कर रहा हूं अतः मुझे आप क्षमा कीजिए।" ऐसा कह पिता को नमस्कार कर वारिषेण उसी समय वन की ओर चल दिए और सुखदेव मुनि के पास जाकर उनसे दीक्षा ग्रहण कर ली। तपस्वी बनकर वारिषेण मुनि बड़ी दृढ़ता के साथ मुनियों का चारित्र निरतिचार पालन करते हुए कठिन से कठिन तपश्चर्या करने लगे । वे अनेक देश विदेशों में घूमकर धर्मोपदेश करते हुए एक बार पलाशकूट नामक नगर में पहुंचे। वहाँ उस नगर में श्रेणिक का.मन्त्री अग्निभूति रहता था। उनके पुत्र का नाम पुष्पडाल था । वह बहुत धर्मात्मा थापौर दान, पूजा, व्रत आदि शुभ कार्यों में सदैव तत्पर रहता था। वह वारिषेण मुनि को भिक्षार्थ आते हए देखकर प्रसन्नतापूर्वक उनके सम्मुख पाया और भक्तिपूर्वक आह्वान कर उसने नवधाभक्तिपूर्वक हर्ष के साथ मुनि को प्रासुक भोजन कराया । आहार करके जब वारिषेण मुनि वन में जाने लगे तब पुष्पडाल मन्त्रो पुत्र भी कुछ तो भक्ति से, कुछ बाल्यावस्था की मित्रता के सम्बन्ध से और कुछ राजपुत्र के लिहाज से थोड़ी दूर उन्हें पहुँचा पाने के लिए अपनी स्त्री से पूछ कर उनके पीछे-पीछे चल दिया । दूर तक जाने इच्छा न होते हुए भी वह मुनि के साथ-साथ चला गया क्योंकि उसे विश्वास था कि थोड़ी दूर जाने के पश्चात वे मुझे लौट जाने के लिए कहेंगे ही, पर मुनि ने उससे कुछ नहीं कहा तो उसकी चिन्ता बढ़ गई। उसने मुनि को यह समझाने के लिए कि मैं नगर से अधिक दूर मा गया हूँ, मुझे घर पर शीघ्र वापिस जाना है, कहने लगा-कुमार ! यह वही सरोवर है जहां हम मौर आप खेला करते थे । यह वही छायादार और उन्नत आम्रवृक्ष है जिसके नीचे पाप और हम बाललीला का सुख लेते थे। इस प्रकार के अपने पूर्व परिचित चिन्हों को बार-बार दिखलाकर पुष्पडाल ने मुनि का ध्यान अपने दूर निकल गाने को प्रोर माकर्षित करना चाहा. पर मनि उसके इदय लौट जाने को न कह सके क्योंकि उनका वैसा मागं नहीं था। इसके प्रतिकूल उन्होंने पुष्पडाल के कल्याण की इच्छा से उसे खूब वैराग्य का उपदेश दे देकर जिन-दीक्षा दे दी। पुष्पडाल मुनि हो गया पौर संयम का पालन करने लगा। वह शास्त्राभ्यास भी करने लगा परन्तु तब भी उसकी विषय वासना मिटी नहीं। उसको बार-बार अपनी स्त्री स्मरण आने लगी। भाचार्य कहते हैं कि विक्कामं विङ् महामोहं बिङ भोगान्यस्वसबंचितः । सन्मार्गोपि स्थितो जन्तुमहानाति निहितम् । Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार प्रेष प्रर्थात् उस काम को, उस मोह को और उन भोगों को धिक्कार है जिनके वश होकर उत्तम मार्ग में चलने वाले भी अपना हित नहीं कर पाते। यही हाल पुष्प डाल का हुआ जो मुनि होकर भी मपनी स्त्री को हृदय से न भुला सका। इस प्रकार पुष्पडाल को बारह वर्ष व्यतीत हो गये । उसकी तपश्चर्या सार्थक होने के लिए गुरु ने उसे तीर्थ यात्रा कर पाने की माज्ञा दी और उसके साथ स्वयं भी चल दिए। वे दोनों मुनि तीर्थ यात्रा करते-करते एक दिन भगवान महावीर के समवशरण में पहुंचे। भगवान को उन्होंने भक्तिपूर्वक नमस्कार किया। उस समय गंधर्व देव भगवान की भक्ति कर रहे थे। उन्होंने काम की निंदा में एक पथ पड़ा। वह पद्य यह या महल कुचली दुम्मणी पाहेपसियण्ण, कह जोवे सहसणिय घर उम्भते विरहेण ॥ अर्थात् स्त्री चाहे मैली हो, कुचली, हो, हृदय की मलिन हो पर वह भी अपने पति के प्रवासी होने पर, विदेश में रहने पर नहीं जीकर पति वियोग से बन-बन पर्वतों-पर्वतों में मारी फिरती है अर्थात् काम के वश होकर न करने योग्य काम भी कर डालती है।। उक्त पद्य को सुनते ही पुष्पडाल मुनि भी काम से पीड़ित होकर अपनी स्त्री को प्राप्ति के लिए व्रत से उदासीन होकर अपने नगर की पोर चले गये । वारिषेण मुनि भी उनके हृदय की बात जानकर उनको धर्म में दृढ करने के लिए उनके साथ-साथ चल दिए। शिष्य सहित वारिषण मुनि भी नगर में पहुंचे। उन्हें देखकर चेलना रानी ने सोचा कि मालूम होता है पुत्र चारित्र से चलायमान हो गया है नहीं तो इस समय इनके यहाँ पाने की क्या आवश्यकता थी? यह विचार कर उनको परीक्षा के लिए उनके बैठने को एक काष्ठ का और दूसरा रत्न जड़ित ऐसे दो सिंहासन दिए । वारिषेण मुनि रत्न जड़ित सिंहासन पर न बैठकर काष्ठ के सिंहासन पर बैठे ! सच है सच्चे मुनि ऐमा कार्य नहीं करते जो प्राचरण में संदेहजनक हो। इसके पश्चात वारिषेण मुनि अपनी माता का संदेह दूर करने के लिए कहा--माताजी, कुछ समय के लिए मेरी सब स्त्रियों को तो यहाँ बुलावा लीजिए। महारानी ने वैसा ही किया। वारिषेण की समस्त स्त्रियां बस्त्राभूषणों से सुसज्जित होकर मुनि के सम्मुख उपस्थित होकर उनके चरणारविंदों को नमस्कार कर उनकी आज्ञा की प्रतीक्षा करने लगीं । वारिषेण ने अब अपने शिष्य पुष्पडाल मुनि से कहा-देखो! ये मेरी स्त्रियां हैं, यह राज्य है यह सम्पत्ति है, यदि तुम्हें ये प्रच्छी जान पड़ती हैं और तुम्हारा संसार से प्रेम है तो इन सबको तुम स्वीकार करो। वारिषेण की यह आश्चर्य में डाल देने वाली बात सुनकर पुष्पडाल को बड़ा खेद हुया वह गुरु के चरणों को नमस्कार कर कहने लगा-प्रभो! आप धन्य हैं। अपने ही लोभरूपी विशाच को नष्ट कर जिन धर्म का सच्चा सार समझा है। कृपासागर ! वास्तव में मैं तो जन्मांध हूँ। इसीलिए तो तप रत्न को प्राप्त करके भी अपनी स्त्री को चित्त से पृथक नहीं कर सका ! प्रभो! मुझ पापी ने बारह वर्ष व्यर्थ व्यतीत कर दिये। मात्मा को कष्ट पहुंचाने के अतिरिक्त और कुछ नहीं किया । स्वामी ! मैं बहुत अपराधी हूं। अतएव कृपया प्रायश्चित्त देकर पवित्र कीजिए। पुष्पडाल के भावों का परिवर्तन और कृतकर्म के पश्चाताप से उनके परिणामों की कोमलता व पवित्रता देखकर बारिषेण मुनिराज बोले धीर! इतने दुःखी न बनिए । पाप कर्मों के उदय से कभी Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ णमोकार मंथ कभी अच्छे-अच्छे बुद्धिमान भी हतबुद्धि हो जाते हैं। इसमें कोई श्राश्वर्य की बात नहीं। यह मच्छा हुआ जो तुम अपने मार्ग पर ग्रा गये । इसके पश्चात उन्होंने पुष्पडाल मुनि को उचित प्रायश्चित देकर फिर उनका धर्म में स्थिति करण किया । पुष्पडाल मुनि गुरु महाराज की कृपा से अपने हृदय को शुद्ध कर महः वैराग्य परिणामों से कठिन से कठिन तपस्या करने लगे । इसी प्रकार अज्ञान व मोह से कोई धर्मात्मा धर्म रूपी पर्वत से पतित होता हो तो उसे श्रालम्बन देकर न गिरने देना ही स्थितिकरण है। जो धर्मज्ञ पुरुष इस पवित्र अंग का पालन करते हैं वे मानों स्वर्ग और मोक्ष सुख को प्रदान करने वाले धर्मवृक्ष को सींचते हैं । शरीर, सम्पत्ति, कुटुम्ब आदि विनाशक पदार्थों की रक्षा भी जब समय परक उपकारी हो जाती है तो अनन्त सुख प्रदान करने वाले धर्मको रक्षा से कितना महत्व होगा, यह सहज में ही जाना जा सकता है । श्रतएव धर्म प्रेमी सज्जनों के लिए उचित है कि दुःखदायी प्रमाद को छोड़कर संसार समुद्र से पार करने वाले धर्म का सेवन करें। ।। इति स्थितिकरणाने वारिषेण श्रीमुनेः कथा समाप्ता ॥ ॥ श्रथ सप्तम् वात्सल्यगस्वरूप व कथा प्रारम्भः ॥ धर्म और धर्मात्माओं में अन्तःकरण से अनुराग करना, भक्ति तथा सेवन करना इन पर किसी प्रकार का उपसर्ग या संकट आने पर अपनी शक्ति भर उसके हटाने का प्रयत्न करना और निष्कपट गौवत्ससम प्रीति करना वात्सल्यत्व गुण है । सम्यग्दर्शन के सातवें वात्सल्यांग के पालन करने में प्रसिद्ध होने वाले श्री विष्णुकुमार मुनि की कथा उदाहरण स्वरूप प्रस्तुत है || अथ कथारंभ | इस ही भरत क्षेत्र में प्रतिदेश के अन्तर्गत उज्जयिनी नाम की एक प्रसिद्ध मनोहर नगरी है। जिस समय की एक कथा है. उस समय वहां के राजा श्रीवर्मा थे । वे बड़े धर्मात्मा विचारशील, बुद्धिवान, शास्त्रवेत्ता और नीतिपरायण थे। उनकी महारानी का नाम श्रीमती था। वह भी विदुषी थी और उस समय की स्त्रियों में प्रधान समझी जाती थीं । वह बड़ी दयालु थी और सदैव दीन दुःखी दरिद्रियों के दुःख दूर करने में तत्पर रहती थीं । बलि, बृहस्पति प्रहलाद और नमुचि ये चार श्रीवर्मा के राज्यमंत्री थे। ये चारों ही धर्म के कट्टर शत्रु थे । इन पापी मन्त्रियों से युक्त राजा ऐसे मालुम होते थे मानों सर्पों से युक्त चन्दन का वृक्ष हो । एक दिन ज्ञानी अकंपनाचार्य देश विदेश में पर्यटन कर भव्य पुरुषों को धर्मोपदेश रूपी अमृतपान कराते हुए उज्जैनी में आये। उनके साथ सात सौ मुनियों का बड़ा भारी संघ था। वे नगर के बाहर पवित्र भूमि में ठहरे। कम्पाचार्य को निमित्त ज्ञान से उज्जयनी की स्थिति प्रनिष्टकर जान पड़ी। इसलिए उन्होंने अपने संघ से कह दिया- देखो ! राजा आदि कोई दर्शनार्थ श्रावे तो उनसे वाद-विवाद न कीजियेगा, अन्यथा सारा संघ कष्ट में पड़ जायेगा अर्थात उस पर घोर उपसर्ग होगा। गुरु की प्राशा मान सभी मुनि मौन पूर्वक ध्यान करने लगे। सच है - शिष्यस्ते प्रणश्यते ये कुर्वन्ति गुरोर्वचः । प्रीतितौ षियोयेता भवन्त्यन्ये कुपुत्रवत् ।। अर्थात शिष्य वे ही प्रशंसा के पात्र हैं जो विनय और प्रेम के साथ अपने गुरु की आज्ञा पालन करते हैं । इसके विपरीत चलने वाले कुपुत्र के समान निंदा के पात्र हैं । Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार प्रेम नगर निवासी अकम्पनाचार्य के प्रागमन का समाचार सुनकर प्रष्टद्रव्य ले भक्ति पूर्वक प्राचार्य की बन्दना के निमित्त जाने लगे। प्राज एकाएक लोगों के प्रानन्द की धूमधाम देखकर महल पर बैठे हुए श्रीवर्मा ने अपने मंत्रियों से पूछा-ये सब लोग प्राण ऐसे सजधज कर कहाँ जा रहे हैं ? उत्तर में मन्त्रियों ने कहा -महाराज ! सुना जाता है कि अपने नगर में जैन साधु पाये हुए हैं। ये सब उनको पूजने के लिये जाते हैं। ___ राजा ने प्रसन्नता के कहा -'तब तो उनके दर्शन के लिये हमको भी चलना चाहिये वे महापुरुष होंगे। यह विचार कर रामा भी मन्त्रियों को साथ लेकर प्राचार्य महाराज के दर्शन करने गये। उन्हें प्रारमलीन ध्यान में देखकर वे बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने क्रम से एक-एक मुनि को भक्ति पूर्वक नमस्कार किया सब मुनि अपने प्राचार्य की प्राज्ञा के अनुसार मान रहे। किसी ने भी उनकी धर्मा भदौ । राजा पाचार्य की वंदना कर वापस चल विए । लौटते समय मन्त्रियों ने राजा से कहा-'महाराज ! देखा, साधुनों को। बेचारे बोलना तक भी नहीं जानते । सब नितांत मूर्ख हैं। यही तो कारण है कि सब मौन बैठे हुये हैं।' इस प्रकार परमात मुनिराजों की निन्दा करते हुए ये मलिनहुयी मन्त्री राजा के साथ वापिस पा रहे थे। कि रास्ते में इन्हें एक मुनि मिल गये जो कि नगर से पाहार करके वन की मोर जा रहे थे। मुनि को देखकर इन पापियों ने उनकी हंसी की। वे बोले--महाराज ! देखिये, यह एक बैल पौर पेट भर कर पला पा रहा है। मुनि ने मन्त्रियों के निन्दा वषनों को मुन लिया । सुनकर भी उनका कर्तव्य था कि वे शान्त रह जाते, परन्तु वे शान्त न रह सके । कारण कि वे भोजन के लिए नगर में चले गये थे इसलिए उन्हें अपने प्राचार्य महाराज कीमाशा मालूम न थी। मुनि ने यह सोचकर, कि इनको अपनी विद्या का बड़ा अभिमान है, मैं इसे चूर्ण करूगा, कहा-'तुम व्यर्थ क्यों किसी को निन्दा करते हो ? यदि तुम में कुछ विद्याबल है तो मझसे शास्त्रार्थ करो। फिर तमको ज्ञात हो जायेगा कि बैस कौन है।' भला ये भी तो राजा के मन्त्री थे और उनके हृदय में कटुता भरी हुई थी, फिर ये कैसे एक प्रकिं चन्य साधु के वचनों को सह सकते थे। मुनि से उन्होंने शास्त्रार्थ करना स्वीकार कर लिया। प्रभिमान में प्राकर उस समय उन्होंने कह तो दिया पर शास्त्रार्य हुमा तब उनको भली-भांति ज्ञात हो गया कि शास्त्रार्थ करना बच्चों का सा खेल नहीं है। एक ही मुनि ने अपने स्वादाद के बल से बात की बात में चारों मन्त्रियों को परास्त कर दिया। सच है एक ही सूर्य समस्त संसार के घोर अन्धकार को नाश करने में समर्थ होता है। श्रुतसागर मुनि ने विजय लाभ कर अपने प्राचार्य के पास जाकर मार्ग की सब घटना ज्यों की त्यों कह सुनाई । प्राचार्य बोले--तुमने बहुत बुरा किया जो उनसे शास्त्रार्थ किया । तुमने अपने हाथों से सारे संघ का घात किया। संध की मब कुशल नहीं है। प्रब जो हुआ सो हुमा । अब यदि सुम सारे संघ की जीवन रक्षा चाहते हो तो पीछे जाम्रो पौरजहाँ तुम्हारा राजमन्त्रियों के साथ शास्त्रार्थ हुमा था, वहीं कायोत्सर्गस्थित होकर ध्यान करो। अपने प्राचार्य की प्रामा को सुनकर श्रुतसागर मुनिराज परिणामों में किंपित मात्र भी विकलता न लाकर संघ रक्षा के लिए निशंक हो उसी समय वहां से चल दिये । शास्त्रा के स्थान पर पाकर वे मेरुवनिश्चल होकर भयंपूर्वक कायोत्सर्ग ध्यान करने लगे। शास्त्रार्थ में मुनि से पराजित धारों मन्त्री अपने हृदय में बहुत लज्जित हुए । अपने मान-भंग का बदला चुकाने का विचार कर मुनि का प्राणांत Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ णमोकार प्रय करने के लिए वे चारों अर्द्धरात्रि के समय नगर से बाहर निकले 1 मार्ग में उनको शास्त्रार्थ होने के स्थान पर श्रुतसागर मुनि कायोत्सर्ग ध्यान करते हुए मिले। पहले उन्होंने अपना मानभंग करने वाले को ही परलोक पहुंचा देना चाहा उन्होंने मुनि का मस्तक छेदन करने को अपना-अपना खड्ग म्यान से निकाला और उनका काम-तमाम करने के लिए उन्होंने एक साथ उन पर वार करना चाहा कि इतने में ही मुनि के पूर्वोपार्जित पुण्य कर्म के प्रभाव से पुरदेवी ने उपस्थित होकर उन चारों राजमन्त्रियों को तलवार हाथ में उठाये हुए पापाण के स्तम्भ के समान कर दिया अर्थात् उन्हें खड्ग उठाए हुए ज्यों का त्यों स्थिर कर दिया। प्रातः काल होते ही सूर्य की किरणों की तरह सारे नगर में मस्त्रियों के इस दुष्ट कर्म का वृतान्त फैल गया। नगर के सब मनुष्य और राजा भी देखने को आये । सबने उन्हें एक स्वर से धिक्कारा राजा ने भी उन्हें धिक्कार कर कहा-'पापियों ! जब तुमने मेरे सम्मुख इन निर्दोष और जीव-मात्र का उपकार करने वाले मुनियों की निंदा की थी, तब मैं तुम्हारे विश्वास पर निर्भर रहकर यह समझा था कि सम्भव है मुनि लोग ऐसे ही हों। पर आज मुझे तुम्हारी नीचता का ज्ञान हुआ । तुम इन्हीं निर्दोष साधुओं की हत्या करने को प्राये थे पापियो ! तुम्हारा मुंह देखना अच्छा नहीं । तुम्हारे इस घोर कर्म का दण्ड तो यही होना चाहिये, जिसके लिए तुम यहां आये थे, पर पापियों ! तुम ब्राह्मण कुल में उत्पन्न हुए हो और तुम्हारी कितनी ही पीढ़ियां मेरे यहां मन्त्री पद पर प्रतिष्ठा पा चुकी है। इस कारण तुम सबको प्राणांत करने का दण्ड न देकर अपने नौकरों को प्राशा देता हूं कि वे तुम्हें गधों पर बैठाकर मेरे देश की सीमा से बाहर कर दें। राजा की प्राज्ञा का उसी समय पालन हुआ । चारों मन्त्री उसो समय निकाल दिये गये । सध है पापियों की ऐसी दशा होना उचित ही है । धर्म के ऐसे प्रभाव को देखकर लोगों के पानन्द का ठिकाना न रहा । उन्होंने हर्षित होकर जय-जय ध्वनि के मारे आकाश-पाताल एक कर दिया । मुनि संघ का उपद्रव टला । सब के स्थिर चित्त हुए। प्रकम्पनाचार्य भी उज्जैनी से विहार कर गये। हस्तिनापुर नाम का एक शहर है उसके राजा महापण और उनकी रानी का नाम लक्ष्मीमती उसके पय और विष्ण' नाम के दो पत्रए । एक दिन राज संसार की दशा पर विचार कर रहे थे। उसकी अनित्यता और निस्सारता देखकर उन्हें वहुंत वैराग्य हुमा। उनको संसार दुखमय दिखाई देने लगा। वे उसी समय अपने बड़े पुत्र विष्णुकुमार के साथ वन में चले गये और श्र तसागर मुनिराज के पास दोनों ने दीक्षा ग्रहण कर ली। विष्णु कुमार बालपन से ही संसार से विरक्त थे, इसलिए पिता के रोकने पर भी वे दीक्षित हो गये। विष्णुकुमार मुनि बनकर घोर तपश्चर्या करने लगे । कुछ दिनों पश्चात् तपश्चर्या के प्रभाव से उन्हें विक्रिया ऋद्धि प्राप्त हो गयी। पिता के दीक्षित होने पर हस्तिनापुर का राज्य पपराज करने लगे। उन्हें सब सुख प्राप्त होने पर भी एक बात का बड़ा दुःख था । बह यह कि कुम्भपुर का राजा सिंहबल के अधिकार में एक बड़ा भारी सुदृढ़ दुर्ग (किला) था इसलिये वह अचानक पाकर पमराज के राज्य में उपद्रव फैलाकर अपने दुर्ग में जा छिपता था । इसलिए पपराज उसका कुछ उपाय नहीं कर सकने के कारण बहुत चिन्तातुर रहता था । इसी समय श्री वर्मा के चारों मन्त्री उज्जन यनी से निकलकर कुछ दिनों पश्चात् हस्तिनापुर की ओर प्रा निकले । उन्हें राजा के इस गुप्त दुःख का भेद लग गया इसलिये वे राजा से मिले और उनको इस दुःख से मुक्त करने का वचन देकर कुछ सेना लेकर सिंहबल पर जा चढ़े और अपनी बुद्धिमानी से किले को तोड़ सिंहबल को बांध कर पधराप के सम्मुख लाकर उपस्थित कर दिया । पपराज ने प्रसन्न होकर उनको मंत्रीपद प्रदान किया और कहा कि Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार प्रय १५५ तुमने मेरा बहुत उपकार किया है, इसलिये मैं तुम्हारा वहुत कृतज्ञ हूँ। यद्यपि उसका प्रतिफल दिया नहीं जा सकता तथापि तुम को जो रुचिकर हो सो मैं देने को तैयार हूं। उत्तर में बलि नाम के मन्त्री ने कहा--- महाराज ! जब आपको हम पर कृपा है तो हमको सब कुछ मिल चुका। इस पर भी प्राग्रह है तो हम उसे अस्वीकार भी नहीं कर सकते। अभी हमें कुछ प्रावश्शाता नहीं है। जब समय होगा तब श्राप से प्रार्थना करेंगे। इसी समय प्रकपनाचार्य अनेक देशों में विहार करते-करते हस्तिनापुरके उपवन में आकर ठहरे। सब लोग उनके प्रागमन का समाचार सुन कर हर्ष पूर्व वंदना करने को गये। जब उनके माने का समाचार राज-मंत्रियों ने सुना तो उनको उसी समय अपने अपमान का स्मरण हो पाया और परस्पर विचारने लगे कि देखो ! हमें इन्हीं दुष्टों के द्वारा कितना दुख उठाना पड़ा था अतएव इनसे बदला चुकाने के लिए कोई यत्न करना आवश्यक है पर राजा इनका परम भक्त है वह अपने होते हुए इन का अनिष्ट कैसे होने देगा। इतने में बलि मन्त्री बोल उठा-इसकी माप चिन्ता न करे । सिंहबल को पकड़कर लाने का अपना पुरस्कार राजा से पाना बाकी है। अब हमें उस पुरस्कार के रूप में सात दिन का राज्य ले लेना चाहिये फिर जैसा हम करेंगे वैसा ही होगा। यह युक्ति सबको सर्वोत्तम जान पड़ी । बलि मंत्री उसी समय राजा के पास पहुँचा और बहुत विनय के साथ बोला-महाराज ! आप पर हमारा एक पुरस्कार शेप है कृपया अब उसे देकर हमारा उपकार हाजिए। राजा इनके अन्तरंग कपट को न जाकर उनके ऋण से उऋण होने के लिए बोला - अच्छा ! वलि बोला-महाराज! यदि आप वास्तव में ही हमारी इच्छा पूर्ति चाहते हैं तो आप हमें सात दिवस के लिए अपना राज्य प्रदान कीजिये। राजा सुनते ही अवाक रह गया। उसे किसी बड़े भारी अनर्थ की प्रागंका हुई। पर उसे वचनबद्ध होने के कारण स्वराज्य देना ही पड़ा। राज्य के प्राप्त होते ही उन्होंने परमानन्दित होकर मुनियों के मध्य में उनके प्राणों के नाश के लिए यज्ञ-मंडप की रचना प्रारम्भ की। उसके चारों और काष्ठ रखा गया। सहस्त्रों पशु एकत्र किये गये और यज्ञ प्रारम्भ हुआ। वेदविद् वेदध्वनि से यज्ञ मंडप को जाने लगे | बेचारे निरपराध पशुओं की आहुतियां दी जाने लगीं। थोड़ी ही देर में महादुर्गन्धित धूम्र से प्राकाश परिपूर्ण हो गया उससे सारे मुनिसंघ पर भयंकर उपसर्ग हुआ। पर जैन साधु का यही मार्ग है कि आये हुये कष्टों को धीरतापूर्वक सहन करें। उन परमशांत मुनियों ने मेरुवत प्रबल होकर एकाग्रचित्त से परमात्मा का ध्यान करना प्रारम्भ किया । अपने कमों का फल जान रागोषरहित साम्यभावपूर्वक सहन करने लगे। मिथिला नगरी में स्थित श्रुतसागर मुनि को निमित्त ज्ञान से यह वृत्तांत विदित हुमा । उनके मुख से बहुत खेद के साथ ये वचन निकले ---हाय-हाय ! इस समय मुनियों पर बहुत उपसर्ग हो रहा है। उस समय वहाँ पर स्थित पुष्पदन्त नामक क्ष ल्लक पूछने लगे प्रभो ! यह उपसर्ग कहाँ हो रहा है? उत्तर में श्रुतसागर मुनि बोले- हस्तिनापुर में सात सौ मुनियों का संघ ठहरा हुआ है। जक संरक्षक अकम्पनाचार्य हैं । उस सारे संघ पर बलि नाम के मन्त्री द्वारा यह उपसर्ग हो रहा है।' क्षल्लक ने फिर पूछा 'प्रभो ! कोई ऐसा उपाय भी है जिससे यह उपसर्ग दूर हो ।' मुनि ने कहा-'हो, एक उपाय है। श्री विष्णुकुमार मुनि को विक्रिया ऋद्धि प्राप्त हो गयी है वे अपनी ऋद्धि के बल से उपसर्ग दूर कर सकते हैं।' Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ममोकार अंप क्षुल्लक पुष्पदन्त जी महाराज काम मात्र भी किसम्म न कर उसी समय विष्णुकुमार मुनिराज के पास पहुंचे और उनको सब वृतांत कह सुनाया। विष्णुकुमार मुनि को अपने विक्रया ऋद्धि प्राप्त होने की खबर न थी । जब उनको पुष्पदन्त के द्वारा मालूम हुआ तब उन्होंने परीक्षार्थ अपना हाथ फैलाया हाय फैलाते ही उनका हाथ बहुत दूर तक चला गया । तब उन्हें विश्वास हुमा । वे उसी समय हस्तिनापुर प्राये और अपने भाई से बोले-भाई ! पाप किस घोर निन्द्रा में प्रचेत हो रहे हैं। पपने राज्य में तुमने ऐसा घोर अनर्थ क्यों होने दिया ? परमशांत मूर्ति, किसी से राग द्वेष न रखने वाले मुनियों पर ऐसा अत्याचार ! और वह भी तुम जैसे धर्मात्माओं के राज्य में ! भाई, साधुओं का सताना ठीक नहीं। कहीं उनको किचित भी क्रोध आ जाए तो तेरे समस्त राज्य को भस्म कर दें। अतएव जब तक तुम पर आपत्ति पाए, उससे पहले हो तुम उसका उपाय करो । अर्थात इस घोर उपसर्ग की शांति करवा दो।' उत्तर में पधराज विनीत होकर बोले -"मुनिराज ! मैं क्या करू ? मैं वचनबद्ध होकर इनको सांत दिवस के लिए राज्य प्रदान करने के कारण बिल्कुल विवश हूं। मुझे क्या मालूम था कि ये ऐसा घोर उपद्रव करेंगे । अब मेरा उसमें तर्क करना सूर्य को दीपक दिखाना है अब तो पाप ही बिलम्ब न करके शीघ्र ही किसी उपाय से मुनियों का उपसर्ग दूर कीजिए, आप सब प्रकार से समर्थ हैं।" तव विष्णुकुमार मुनि ने विक्रिया ऋद्धि के प्रभाव से वामन् ब्राह्मण का वेष बनाया और बड़ी मधुर ध्वनि से वेदमन्त्रों का उच्चारण करते हुए बलि के यज्ञ मंडप में पहुंचे। उनके सुन्दर स्वरूप और मधुर वेदोच्चारण को सुनकर बलि बहुत प्रसन्न हुए मोर कहने लगे-"महाराज! मापने पधार कर मेरे यश की अपूर्व शोभा बढ़ा दी । मैं बहुत प्रसन्न हुम्ना । आपको जो इच्छा हो, सो मांगिए, इस समय मैं सब कुछ देने को तैयार हूँ। विष्णुकुमार बोले-"मैं एक गरीब ब्राह्मण हूं। जैसी भी स्थिति हो, मुझे तो उसो में संतोष है । मुझे किसी पदार्थ की आवश्यकता नहीं, पर जब पापका इतना पाग्रह है तो मैं प्रापको अप्रसन्न भी नहीं करना चाहता। मुझे केवल तीन पग पृथ्वी की आवश्यकता है। यदि पाप मुझे प्रदान करेंगे तो उसमें झोपड़ी बनाकर स्थान की निराकुलता से वेदाध्यनादि में अपना समय सुख से व्यतीत कर सकूँगा । इस समय मुझको किसी और पदार्थ की इच्छा नहीं। विष्णुकुमार को यह तुच्छ याचना सुनकर बलि ने कहा कि "प्रापने तो कुछ भी नहीं मांगा। यदि मेरे वैभव और शक्ति के अनुसार माँगते तो मुझको सन्तोष होता। अब भी माप अपनी इच्छानुसार मांग सकते हैं 1 मैं वही देने को तत्पर हूँ।" विष्णकुमार बोले-"मुझे अधिक की इच्छा नहीं है। जो कुछ मैंने मांगा, मेरे लिए बहुत है। यदि आपको देना ही है तो और बहुत-से ब्राह्मण मौजूद है उनको दे दीजिए।" बलि ने कहा-'अस्तु ! जैसी आपकी इच्छा । पाप तीन पग पृथ्वी नाप लीजिए 1" ऐसा कह कर जल से विष्णुकुमार के प्रति संकल्प छोड़ दिया। संकल्प छोड़ते ही उन्होंने पहला पांव मेरु पर्वत पर रसा, दूसरा मानुषोत्तर पर्वत पर, अब तीसरा पांव रखने की जगह नहीं रही, उसे वे कहां रखें? उनके इस कार्य से समस्त पृथ्वी कांपने लगी। पर्वत चलायमान हो गये। समुद्रों ने मर्यादा तोड़ दी। देवों व ग्रहों के समूह मारे पाश्चर्य के भौंचक्के से रह गए। वे सब विष्णुकुमार के पास पाये और बलि को बांधकर बोले-"प्रभो ! भमा को जिए । यह सब दुष्कर्म इसी पापी का है । यह पापके सम्मुख उपस्थित है।" बलि ने मुनिराज के घरणों में पड़कर अपने अपराध की क्षमा मांगी और अपने कृतकर्म पर बहुत पश्चाताप किया। विष्णुकुमार मुनि द्वारा उपद्रव दूर करने से सबको शाम्सि हुई पौर चारों मन्त्री Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ I णमोकार प्रेम १५७ तथा प्रजा के सब लोग भक्तिपूर्वक श्रकम्पनाचार्य को बंदना को गये। राजा और मन्त्रियों ने उनके चरणों में अपना मस्तक रखकर अपने अदाय की माना की और उसी दिन से मिध्यात्व मत का याग कर अहिंसामय जिन धर्म के उपासक बने । जिस प्रकार जिन भगवान के परम भक्त विष्णुकुमार ने धर्मप्रेम के वश हो मुनियों का उपसर्ग दूर कर वात्सल्य अंग का पालन किया और पश्चात् ध्यानाग्नि द्वारा कर्मकाण्ठ को भस्म कर शिवपुर पधारे। उसी प्रकार भव्य पुरुषों को भी अपने और पर के हित के लिए समय-समय पर दूसरों का कष्ट निवारण कर वात्सल्य अंग का पालन करना चाहिए । ॥ इति वात्सल्याने विष्णुकुमारमुनेः कथा समाप्ता ॥ ॥ अथ प्रभावनाऽङ्ग खकुमारमुनेः कथा प्रारम्भः ॥ परभय के अज्ञानरूपी अंधकार को जिस प्रकार बने उस प्रकार दूर करके जिन शासन का सर्व साधारण में महत्व प्रकट करना और अपनी श्रात्मा को रत्नत्रय के तेज से उद्योत रूप करना अर्थात् तप विद्या, ऋद्धि सिद्धि आदि का प्रतिशय प्रकट करके जैन धर्म का प्रभाव बढ़ाना प्रभावना नाम का पाठवा अंग है। सम्यग्दर्शन के आठवें प्रभावना श्रंग का पालन करने में प्रसिद्ध होने वाले वज्रकुमार मुनि की कथा इस प्रकार है इस भरत क्षेत्र में एक हस्तिनापुर नगर है। जिस समय का यह उपाख्यान है, उस समय हस्तिनापुर के राजा बल थे। वे धर्मात्मा और राजनीति के अच्छे वेत्ता थे। उनके मन्त्री का नाम गरुड था । उसके एक पुत्र था जिसका नाम सोमदत या । वह भी शास्त्रविद् मौर बहुत सुन्दर था । एक दिन सोमदत अपने मामा के यहां गया जो कि महिच्छत्रपुर में रहता था उसने अपने मामा से विनयपूर्वक कहा - मामा जी ! यहां राजा से मिलने की मेरी तीव्र उत्कंठा है। कृपा कर आप मेरी उनसे मुलाकात करवा दीजिये । सुभूति ने अभिमान में पाकर सोमदत्त की मुलाकात राजा से नहीं करवाई। सोमदत्त को मामा की यह बात बहुत खटकी। अन्त में वह स्वयं ही दुर्मुख महाराज के पास गया और मामा का अभिमान नष्ट करने के लिए राजा को अपने पांडित्य और प्रतिभाशालिनी बुद्धि का परिचय करवा कर स्वयं भी उनका राज्यमंत्री बन गया ठीक भी है, सबको अपनी ही शक्ति सुख देने बाली होती है । सुभूति ने सपने भानजे का पांडित्य देखकर प्रति प्रसन्न हो उससे अपनी यशदत्ता नाम की पुत्री का विवाह कर दिया । दोनों सुख से रहने लगे । कुछ समय पश्चात यज्ञदत्ता गर्भवती हो गई। समय चातुर्मास का था। यशवत्ता को दोहद उत्पन्न हुआ और उसे ग्राम खाने की प्रबल इच्छा हुई। ग्रामों का समय न होने पर भी सोमदत्त ग्राम ढूंढने को मन में पहुंचा। वहां एक उपवन में एक प्राम्रवृक्ष के नीचे एक परम योगीराज महात्मा बैठे हुए ये। उस वृक्ष में फल लगे हुए थे। फलों को देखकर उसने विचारा कि यह मुनिराज का प्रभाव है नहीं तो असमय में मात्र कहाँ ? वह बहुत प्रसन्न हुमा भौर बहुत से फल तोड़कर अपनी प्रिया के पास पहुंचा दिये और स्वयं मुनिराज को नमस्कार कर उनके निकट बैठ निवेदन करने लगा - महाराज ! संसार में सार क्या है ? इस बात को आपके मुख से सुनने की प्रति उत्कंठा है। कृपा कर कहिए। मुनि बोले - हे भव्य ! संसार में सार श्रात्मा को कुगतियों से बचाकर सुख देने वाला एक धर्म है । उसके दो भेद हैं- एक मुनिधर्म और दूसरा श्रावकधर्म । मुनियों का धर्म पंच महाव्रत, पंच समिति तीन गुप्ति, दशधर्म, रत्नत्रय द्वादशतप तथा पंचेन्द्रियदमन और शेष सप्तगुणों प्रादि का पालन है और श्रेष्ठ है। श्रावक मष्ट मूलगुण तथा उत्तर गुणों का पालन करना भादि है। मुनिधर्म का पालन सर्व Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५% णमोकार ग्रंथ देश किया जाता है और श्रावक धर्म का एकदेश । श्रावक धर्म परम्परा से मोक्ष का साधन है और मुनि धर्म साक्षात् मोक्ष का साधन ! मुनिधर्म से तद्भव मोक्षगामी होते हैं, ऐसा नियम नहीं। इसमें सब बात परिमाणों पर निर्भर है । ज्यों-ज्यों परिणामों की विशुद्धता होती जाती है त्यों-त्यों अन्तिम साध्य मोक्ष के निकट मनुष्य पहुंचता जाता है परन्तु मोक्ष होता है मुनिधर्म धारण करने से ही । इस प्रकार श्रावकधर्म, मुनिधर्म तथा उनकी विशेषताएँ जानकर वैराग्यवश हो सोमदत्त ने जिनदीक्षा ग्रहण कर ली और अपने गुरु से शास्त्राध्ययन कर सर्व शास्त्रों में अच्छी योग्यता प्राप्त करने के पश्चात बिहार करते हुए सोमदत्त मुनिराज नाभिगिरी पर्वत पर पहुंचे। वहां उग्र तपश्चरण और परीषह सहन द्वारा अपनी यात्म शक्ति को बढ़ाने लगे । इधर समय पाने पर यज्ञदत्ता के पुत्र उत्पन्न हुप्रा । वह उसके सौन्दर्य को देखकर बहुत प्रसन्न हुई। एक दिन उसे किसी के द्वारा अपने स्वामी के समाचार मालूम हुए। उसने वह समस्त वृतान्त अपने कुटुम्बियों से कहा और उनसे उनके पास चलने का आग्रह कर अपने साथ ले नाभिगिरी पर पहुंची। उस समय सोमदत्त मुनिराज तापस योगध्यान कर रहे थे। यज्ञदत्ता उन्हें मुनिवेष में देखकर क्रोधित होकर बोली-रे पापी ! दुष्ट ! यदि तुझे ऐसा ही करना था तो पहले से ही मझे न ज्याहता । जरा बता तो सही, अब मैं किसके पास जाकर रहूं? और इस बच्चे का पालन-पोषण कौन करे ? मुझसे इसका पालन नहीं होता। तू ही इसे लेकर पाल । ऐसा कहकर वह निपी सादत्ता हिम श्रीका सेना पति मुनि चरणों में उस बेचारे बालक को पटक कर अपने स्थान पर चली गई । इतने में ही दिवाकर देव नाम का एक विद्याधर जो कि अपने लघु भ्राता पुरसुन्दर से पराजित होकर उसके देश से निकाल देने के कारण अपनी स्त्री को साथ लेकर तीर्थ यात्रा के लिए चल दिया था, वह इधर या निकला। पर्वत पर मुनिराज को देखकर व्योममार्ग से नीचे उतरा। मुनिराज की वन्दना करते उसकी दष्टि उस प्रसन्नमूख तेजस्वी बालक पर पडी।बालक को भाग्यशाली समझकर उसने गोद में उठा लिया और उसे अपनी प्रिया को देकर कहने लगा-प्रिये ! यह कोई बड़ा पुण्य जीव है। आज अपना जीवन ऐसे पुत्ररत्न की प्राप्ति से अनायास ही कृतार्थ हो गया। उसकी स्त्री भी बच्चे को पाकर बहुत प्रसन्न हुई। बालक के हाथों में वज्र का चिज होने से उसका बजकुमार नाम रखा । इसके पश्चान वे दोनों मुनि को प्रणाम कर बच्चे को साथ लेकर अपने घर पर लौट गये। वह वकुमार विद्याधर के घर पर शुक्ल पक्ष के चन्द्रमा के समान बढ़ते हुए अपनी बाल लीलानों से सबको मानन्द देने लगा। दिवाकर देव के सम्बन्ध से वज्रकुमार का मामा कनकपुरी का राजा बिमलबाहन हुआ। अपने मामा के यहां रहकर वनकुमार थोड़े ही दिनों में शास्त्राभ्यास कर एक प्रच्छा विद्वान बन गया। उसका प्रतिभाशालिनी बुद्धि को देखकर सब प्राश्चर्य करने लगे। एक दिन वजकुमार ह्रीमन्त पर्वत पर प्रकृति की शोभा देखने को गया हुआ था । वहीं पर एक विद्याधर की पुत्री पवनवेगा विद्या साध रही थी। विद्या साधते हुए ही एक तृण उसकी प्रौख में पड़ने से उसके चित्त की चंचलता के कारण विद्या सिद्ध होने में बड़ा विघ्न उपस्थित हुश्रा। इतने में ही वचकुमार इधर मा निकला। उसे ध्यान से विचलित देखकर उसने उसकी आँख में से तिनका निकाल दिया। पवन धेगा स्वस्थ होकर फिर विद्या साधने में तत्पर हो गई। मंत्रयोग पूरा होने पर जब विया सिद्ध हो गई, तब वह समस्त सपकार वकाकूमार का समझकर उसके पास प्राकर कहने लगी-मापने मेरा जो उपकार Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार पंथ १५६ किया है उसका बदला में एक क्षुद्र बालिका कैसे चुका सकती हूँ ? पर यह जीवन आपके लिए समर्पण कर प्रापके चरणों की दासी बनना चाहती हूं, मुझे स्वीकार कर कृतार्थ कीजिए । वजकुमार ने उसके प्रेमोपहार को सादर ग्रहण किया। दोनों वहां से विदा होकर अपने-अपने स्थान पर चले गये। शुभ दिन में गरुडवेग ने विधिपूर्वक अपनी पुत्री का वचकुमार के साथ पाणिग्रहण कर दिया फिर दोनों दम्पति सानन्द रहने लगे। एक दिन वजकुमार को मालूम हा कि मेरे पिता थे तो एक राजा पर हमारे चाचा ने इनको युद्ध में पराजय कर देश से निकाल दिया है। इस बात पर उसको अपने चाचा पर बहुत क्रोध पाया। वह पिता के रोकने पर कुछ सेना और अपनी पत्नी की विद्या को लेकर उसी समय प्रमरावती पर जा चढ़ा। पुरसुन्दर को इस चढ़ाई का प्राभास न होने से बात की बात में वह पराजित कर बांध लिया गया। पीछे राज्य पिहासन दिवाकर देव के अधिकार में पाया। इस वीरता के कारण वञ्चकुमार बहुत प्रसिद्ध हो गया। अच्छे-अच्छे शूरवीर उसका नाम सुनकर भय मानने लगे। इसी समय दिवाकर देव की प्रिया जयश्री के भी पुत्र उत्पन्न हुआ। वह तब से ही इस चिंता से दुःखी होने लगी कि बजकुमार के उपस्थित होते हुए मेरे पुत्र को राज्य कैसे मिलेगा ? मेरे पुत्र को राज्य के मिलने में यह एक कंटक है। इसे किसी तरह उखाड़ फेंकना चाहिए। यह विचार कर वह मौका देखने लगी। एक दिन बच्चकुमार ने अपनी माता के मुख से किसो को यह कहते सुना कि बजकुमार बड़ा दुष्ट है । देखो ! कहां तो यह उत्पन्न हुप्रा और कहाँ पाकर दुःख दे रहा है। ऐसा सुनते ही उसका हृदय जलने लगा। फिर एक क्षण भी न रुककर वह उसी समय अपने पिता के पास पहुंचा और कड्ने लगा--पिताजी ! सत्य बताइये कि मैं किसका पुत्र हूं, कहां उत्पन्न हुआ हं और यहां क्योंकर पाया? मैं जानता हूँ कि मेरे सच्चे पिता तो पाप ही हैं क्योंकि आपने मेरा अपने पुत्र से भी अधिक पालन-पोषण किया है। पर तब भी यथार्थ वृतांत जानने की मेरी बड़ी उत्कंठा है, इसलिए कृपया ज्यों का स्यों वृतांत कहकर मेरे प्रशांत हुश्य को शान्त कीजिये । अगर यथार्य नहीं कहेंगे तो मैं प्राज से भोजन नहीं करूंगा। दिवाकर देव बोले -पुत्र ! आज तुम्हें कुछ हो तो नहीं गया है, जो तुम ऐसी बहकी-बहकी बातें कर रहे हो । समझदार होकर भी मभको कष्ट देने वाली ऐसी बातें करना तम्हें शोभा नहीं देता। बञकुमार बोला पिताजी ! मैं यह नहीं कहता कि मैं प्रापका पुत्र नहीं। सच्चे पिता तो प्राप ही हैं, परन्तु मुझको तो यथार्थ जानने की जिज्ञासा है । अतएव मुझे प्राप कृपा करके बतला दीजिए। वनकुमार के अत्यधिक प्राग्नह से दिवाकर देव को उसका पूर्व वृतांत बताना पड़ा । वमकुमार अपना हाल सुनकर बड़ा विरक्त हुआ । वह उसी समय अपने पिता की बन्दना करने को चल पड़ा, तब उसके माता पिता व कुटुम्बी जन भी साथ गये। सोमदत्त मुनिराज मथुरा के निकट एक गुफा में ध्यान कर रहे थे। उन्हें देखकर सबको पानन्द हुमा सब बड़ी भक्ति के साथ मुनि को नमस्कार कर बैठ गये। तब वमकुमार ने मुनिराज से कहा-'पूज्यपाद ! प्राज्ञा दीजिए, जिससे मैं साधु बनकर निजात्म कल्याण करूं।' धनकुमार को एकाएक संसार से विरक्त हुमा जानकर दिवाकर देव कहने लगे-'पुत्र! तुम ये क्या करते हो ? तप करने का मेरा समय है या तुम्हारा ? तुम पब सब तरह योग्य हो। तुम राजधानी में जाकर अपना राज-काज सम्भालो। तब वजकुमार बोले-हे पिसा ! ये भोग भुजंग के समान है पौर संसार क्षणभंगुर है । मैं पर पर न जाकर अब नहीं दीक्षा लेकर स्वारमानुभव करूंगा। यह कहकर दिवाकर देव के रोकने पर मी Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० णमोकार म उसने वस्त्राभूषण त्याग कर उसी समय दीक्षा ग्रहण कर ली। वञ्चकुमार मुनि साधु बनकर खूब तपश्चर्या करने लगे । वनकुमार के दीक्षित होने के बाद की कथा इस प्रकार है उस समय मथुरा के राजा पूतगंध थे। उनकी रानी का नाम था उमिला। वह बड़ी धर्मात्मा, सम्यक्त्व रूपी रत्न से भूषित जिन भगवान की परम भक्त थी । वह प्रत्येक अष्टान्हिका में भगवान की पूजा और रथोत्सव बहुत धूमधाम के साथ करती थी। इसी मथुरा नगरी में एक सागरदत्त नाम का सेठ था। उसकी स्त्री का नाम समुद्रदत्ता था। उसके पूर्वोपाजित पाप के उदय से दरिद्रा नाम की पुत्री हुई। उसके पाप के उदय से माता-पिता दरिद्र होकर पन्त में परलोक पधार गये । अब यह बेचारी दरिद्रा दूसरों के उच्छिष्ट भोजन खाकर दिन व्यतीत करने लगी । एक दिन नन्दन और अभिनन्दन नाम के दो मुनि भिक्षा के लिए मथुरा पाये । दरिद्रा को प्रन्न का एक-एक कण खाती हुद देखकर लघु मुनि अभिनन्दन ने नन्दन से कहा मुनिराज! देखिये, यह बेचारी बालिका कितने कष्ट से जीवन व्यतीत करती है। तब नन्दन मुनि ने कावधिको विमार लामा - होमसर इस समय इसकी दशा अच्छी नहीं, तथापि इसका पुण्य कर्म बड़ा प्रबल है, उसी से यह पूतिगंध राजा की पटरानी बनेगी।' मुनि ने जब दरिद्रा का भविष्य सनाया. सब एक भिक्षार्थ पाए हए बौद्ध साधने यह भविष्य सन लिया। जैन ऋषियों के वचनों पर उसका बहुत विश्वास था इसलिए दरिद्रा को अपने स्थान पर ले जाकर उसका पालन करने लगा। दरिद्रा जैसे-जैसे बड़ी होती गई वैसे यौवन में भी अपनी कान्ति से उसका सम्मान करना प्रारम्भ किया अर्थात् वह यौवन सम्पन्न होकर अपने शरीर से सुन्दरता की सुधा धारा बहाने लगी। एक दिन बह यवती नगर के समीप एक उपवन में भले पर कल रही थी कि इतने में कर्मयोग से राजा भी वहां ना निकले । एकाएक उनकी दृष्टि भूले पर झूलती हुई दरिद्रा पर पड़ी। उस स्वर्गीय सुन्दरता को देखकर वह काम के बाणों से बिध गया। उसे दरिद्रा की प्राप्ति के बिना अपना जीवन व्यर्थ प्रतीत होने लगा । वह मोहवश होकर दरिद्रा के निकट जाकर उससे उसका परिचय पूछने लगा। उसने किसी प्रकार का संकोच न करके अपना स्थानादि सब पता बतला दिया । उस बेचारी भोली-भाली बालिका को क्या मालूम था कि मुझसे स्वयं मयुराधीश ही वर्तालाप कर रहे हैं । राजा काम के वेग से व्याकलचिस होकर किसी प्रकार से अपने महल पर पाए। माते ही उन्होंने अपने मंत्री पास भेजा। मंत्री ने पहुंचते ही श्रीबंधक से कहा प्राज तुम्हारा मौर तुम्हारी पुत्री का बड़ा भाग्य है जो उसको मयुराधीश अपनी पटरानो बनाना चाहते हैं । कहो, तुमको स्वीकार है या नहीं। श्रीबंदक बोला यदि महाराजा बौद्ध धर्म अंगीकार कर लें तो मैं महाराजा से दखिा का विवाह करने को प्रस्तुत हूं। __ मंत्री ने यह बात राजा से जाकर निवेदन की । महाराजा ने इस बात को स्वीकार कर लिया और दरिद्रा का उनके साथ विवाह हो गया। दरिद्रा मुनिराज के कपनानुसार बड़ी पटरानी हुई। दरिद्रा इस समय बुखवासी के नाम से प्रसिद्ध हो गई । बुद्धदासी पटरानी बनकर बुद्ध धर्म का प्रचार करने में सदा तत्पर रहने लगी। ____ इसके मन्तर मष्टान्हिका पर्व प्राया। उमिला महारानी ने सदा के लिए नियमानुसार सबकी मार भी उत्सव करना प्रारम्भ किया। जब रप निकलने का समय माया तब बुखदासी ने राजा से कहा कि 'मेरा रय पहले निकलना चाहिए, उर्मिला का पीछे।' राजा ने बुखदासी के प्रेम में अन्धा होकर उर्मिला का रप रुकवा दिया। उर्मिला रानी ने अपने में दुःखित चित्त होकर प्रतिज्ञा की कि जब तक Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 णमोकार ग्रंथ *11 मेरा रथ नहीं निकलेगा, तब तक मुझे भोजन का त्याग है। यह प्रतिज्ञा कर जिस क्षत्रिया नाम की गुफा में सोमदत्त श्रीर वज्रकुमार मुनिराज रहा करते थे, वहाँ पहुँचकर उन दोनों को भक्तिपूर्वक नमस्कार करके कहने लगी 'हे अज्ञानरूपी अन्धकार के नाश करने वाले सूर्यो ! आप को मैं शरणागत हूं पौर प्राप मेरे दुःखहर्ता हैं । इस समय जैन धर्म पर उपसर्ग या रहा है । उसे नष्ट कर उसकी रक्षा कीजिए।' इस प्रकार उनसे निवेदन कर अपने रथ के निकलने में अवरोध का कारण वह मुनिराज से कह रही थीं कि इतने में ही वखकुमार तथा सोमदत्त मुनि की वन्दना करने को दिवाकर देव श्रादि बहुत विद्याधर पाए । वज्रकुमार मुनि ने उनसे कहा- माप लोग समर्थ हैं मोर इस समय जैन धर्म पर संकट उपस्थित है । बुद्धदाशी ने महारानी उर्मिला का रथ रुकवा दिया है। अब माप जाकर यथायोग्य उपाय से इसका रथ निकलवा दीजिए । कुमार मुनि की भाशा को शिरोधार्य कर सब विद्याधर अपने-अपने विमान पर श्रारूढ़ होकर मथुरा आए । प्रथम तो जो धर्मात्मा होते हैं, वे स्वयं हो धर्म प्रभावना करने में तत्पर रहते हैं, तब इनको तो पुतिराज ने प्रेरणा दी है. इसलिए सब विद्याधरों ने उर्मिला रानी के साध्य की सिद्धि के लिए बुद्धदाशी को बहुत समझाया और कहा- जो पुरानी रीति है, जैसे ही कार्य करना मच्छा है ।' पर बुद्धदाशी तो श्रभिमान के वशीभूत हो रही थी, इसलिए वह क्यों मानने लगी ? विद्याधरों ने अपना सीधे तरीके से न होता हुआ देखकर बुद्धिदाशी के नियुक्त किए हुए सिपाहियों से युद्ध कर उनको बात की बात में भगा दिया। तत्पश्चात् बड़े समारोह और उत्सव के साथ उर्मिला का रथ निकलवा दिया । रथ के निकलने से सबको बड़ा श्रानन्द हुआ, इससे जैन धर्म की बहुत प्रभावना हुई और सर्वसाधारण पर इस रथोत्सव से जैन धर्म का बहुत प्रभाव पड़ा। बहुतों ने मिथ्यात्व का त्याग कर सम्यक्त्व को ग्रहण किया । बुद्धदाशी और राजा पर भी इसका अच्छा प्रभाव पड़ा । उन्होंने भी शुद्धान्तकरण से जैन धर्म स्वीकार किया । जिस प्रकार श्री वण्यकुमार मुनिराज ने धर्म प्रेम के वश होकर जैन धर्म की प्रभावना कराई, उसी प्रकार और भव्य पुरुषों को भी संसार का उपकार करने वाली और स्वर्ग मोक्ष सुख को प्रदान करने वाली प्रतिष्ठा, रथोत्सव, जिनयात्रा, चतुर्विधान, जीर्णोद्धार तथा स्याद्वाद विद्यालय यादि द्वारा जैन धर्म की प्रभावना करनी चाहिए । धर्म प्रेमी श्री ब्रजकुमार मुनि बुद्धि को नित्य जैन धर्म में दृण करें जिसके द्वारा में भी मोक्ष मार्ग पर चलकर अपना अन्तिम साध्य अर्थात् मोक्षसुख को प्राप्त कर सकूं । इस प्रकार यह सम्यक्त्व के माठ अंगों का प्रत्येक अंग में प्रसिद्ध होने वाली कथा के सहित स्पष्ट वर्णन किया गया । सम्यक्त्व के २५ मल दोषों का स्वरूप संक्षेप में इस प्रकार हैअष्टदोष नाम-उपर्युक्त सम्यक्त्व के प्रष्ट थंगों से प्रतिकूल शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, मूढदृष्टि, अनुपगूहन, अस्थितिकरण, अवात्सल्य और अप्रभावना ये आठ दोष हैं, जो पच्चीस दोषों में गर्भित है । प्रतएव निर्दोष सम्यक्त्व पालन करने के इच्छुक भव्य जीवों को मन, बचन, काय से इनका त्याग करना चाहिए, क्योंकि यथोक्तं श्री समंतभद्राचार्यकृत रत्नकरण्ड श्रावकाचारे नाङ्गहीनमलं दर्शनं जन्मसंततिम् । नहि मंत्रोऽक्षरन्यूनो निहन्ति निषवेदनाम् ॥ अर्थात् जैसे अक्षर न्यून मंत्र (अशुद्ध मंत्र ) विष की वेदना को दूर नहीं कर सकता, उसी Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार प्रेष प्रकार अंगरहित सम्यग्दर्शन भी संसारसंतति को अर्थात् संसार भ्रमण को नहीं मिटा सकता मतएव ये प्रष्ट दोष त्यागने योग्य हैं। तीन मढ़ता देव मूढ़ता--किसी प्रकार के संसारिक भोगों को प्राप्ति की इच्छा करके राग-द्वेष रूपी मैल से मलिन, अस्त्र-शस्त्र अलकारधारी देवों की भक्ति पूजा करना देव मूढ़ता है। गुरु मूढ़ता - कुदेवों के सदृश आडम्बर रखने वाले, परिग्रह प्रारम्भ और हिंसादि दोषयुक्त, कामी, क्रोधी, अभिमानी, पाखण्डी, साधु तपस्वियों का प्रादर, सम्मान, पूजा, भक्ति, पाराधना, प्रशंसा करना गुरु मूढ़ता है। लोक मूढ़ता-जिस क्रिया में धर्म नहीं उसमें अन्य मतावलम्बियों के उपदेश से तथा देखा-देखी उनमें धर्म समझकर प्रवृत्त होना लोक मूढ़ता है । यथा-गंगा यमुना आदि नदियों में स्नान करना, देहली पूजना सूर्य तथा चन्द्र को मर्घ देना, सती होना आदि। ___षड् अनायतन-कुधर्म, कुगुरु, कुदेव तथा इनके सेवकों को धर्म का आयतन समझ कर उनकी स्तुति करना षड् अनायतन है । ये षड् बनायतन भी सम्यग्दृष्टि को हेय हैं। अष्ट मद-विद्या, प्रतिष्ठा, कुल, जाति, वल, संम्पत्ति, तप तथा अपने शरीर की सुन्दरता का मद करके अपने पात्महित को भूल जाना, ये माठ मद दोष हैं। सम्यक्त्वी को ये भी अपनी मात्मा से पृथक और क्षणभंगर आनकर इनकी छोड देना चाहिए क्योंकि ये सब ही कारण पाकर क्षणमात्र में नष्ट हो जाते हैं। इसीलिए सम्यग्दृष्टि को कदापि क्षणभंगुर अवस्था का मद नहीं करना चाहिए । इस प्रकार सम्यक्त्व की निर्मलता के लिए पाठ मल दोष, पाठ मद दोष, षड् अनायतन, तीन मूढ़ता इस प्रकार २५ दोषों का सर्वथा त्याग करना चाहिए । इन उपर्युक्त २५ दोषों से रहित सम्यक्त्व का अष्टांग सहित जो पालन करता है, वह सम्यग्दृष्टि है । यह सम्यग्दर्शन जब किसी जीव के पूर्व जन्म के तत्व विचार के संस्कारों से, वर्तमान में पर के उपदेश के विना अपने प्राप ही उत्पन्न होता है तो निसर्गज सम्यग्दर्शन कहलाता है तथा जब किसी जीव के वर्तमान पर्याय में अन्य के उपदेश के द्वारा तत्व विचार करने से उत्पन्न हो तो उसे अधिगमज सम्यग्दर्शन कहते हैं। इस प्रकार निर्मल सम्यक्त्व के धारण करने से शुद्ध अन्तःकरण वाले यदि चारित्र मोहनीय कर्म के अधीन होने से किचित् ब्रत उपवासादि न कर सकें तो भी सम्यक्त्व के प्रभाव से नरक, तिर्यच नपुंसक पौर स्त्रीलिंग को तथा नीच कुल, विकलांग, अल्पायु और दरिद्रता को प्राप्त नहीं होते हैं। सारांश यह है कि इस जीव का सम्यक्त्व के समान तीन लोक में सच्चा कल्याण करने वाला कौन मित्र नहीं और मिथ्यात्वसम शत्रु नहीं प्रतएव शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, अन्य दृष्टिप्रशंसा, अन्यदृष्टिसंस्तव इन पांच मतिचारों को त्याग सम्यक्त्व को निर्दोष धारण करना चाहिए क्योंकि सम्यक्त्व रूपी बीज के बिना बीज और वृक्षवत् ज्ञान और चरित्र की उत्पत्ति, वृद्धि पौर फल का लगना असम्भव है। भावार्थ-सम्यक्त्व रूपी बीज को अपने हृदय रूपी भूमि में निर्मल धारण किये बिना शान की उत्पत्ति, स्थिति तथा चारित्र की वृद्धि द्वारा मोक्षफल नहीं लगता। इसके बिना जो हमारा शान है, वह मिथ्याज्ञान कहलाता है और ब्रतादिक धारण करना कुचारित्र कहा जाता है। सम्यक्त्व के प्राप्त होने पर हेयोपादेय का ज्ञान होकर पारमाहित के मार्ग में क्पार्थ प्रवृत्ति हो सकती है अतएव सबसे पहले सम्यक्त्व को ही धारण करना चाहिए ऐसा प्रत्येक मुमुक्षु का कर्तव्य है। ।। इति श्री सम्यक्स्वविवरण समाप्तम् ।। Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार ग्रंथ ॥अथ सम्यग्ज्ञान विवरण प्रारम्भ ॥ सम्यक्त्व रूपी रत्न से अपनी मात्मा को पवित्र करने के पश्चात् स्व तथा पर के गुण अर्थात् धर्मों के प्रकाश करने में सूर्य के समान सम्यग्ज्ञान की पाराधना करना चाहिए। यद्यपि सम्यग्दर्शन के साथ ही जो ज्ञान होता है, वह सम्यग्ज्ञान कहलाता है तथापि लक्षण भेद होने से उसकी भिन्न माराधना करनी चाहिए क्योंकि सम्यग्दर्शन कारण और सम्यग्ज्ञान कार्य है जैसे दीपक प्रकाश होने का कारण है वैसे ही सम्यक्त्व अर्थात यथार्थ श्रद्धान सम्यग्शान होने का कारण है। गाथा संसय विमोह विभम विवस्जिय अप्प परसहवस्स । गहणं सम्मणाणं सायारमणेयमे ।। अर्थात् संशय, विपर्यय और मनध्यवसाय रहित, पाकार सहित अर्थात् विशेष स्वरूप सहित अपने और पर के स्वरूप का जानना सम्यग्ज्ञान है। यद्यपि वास्तव में वह सम्यग्ज्ञान प्रात्मा का प्रसिद्ध गुण है जिसके द्वारा ही मात्मा का बोर होता है, वह असर पतन्य रूप एक ही प्रकार है, तथापि अनादि काल से मानावरण कर्म की प्रकृतियों से प्रावृत होने के कारण अनेक भेद रूप है। परन्तु मुख्यतया मति, श्रुत, अवधि, मनः पर्यय और केवल ज्ञान ऐसे पांच प्रकार हैं। इनमें से प्रथम के चार शान तो अपने-अपने आवरण के क्षयोपशम के अनुसार होनाधिक होते रहते हैं, इसलिए इनको क्षयोपशामिक ज्ञान कहते हैं, परन्तु केवलज्ञान केवल ज्ञानावरणीय कर्म के सर्वथा प्रभाव होने से प्रकट होता है अतएव इसको क्षायिक ज्ञान कहते हैं । उपरोक्त पांचों शानों में से मति, श्रत और अवधि ये तीन ज्ञान मिथ्यादर्शन के उदय से विपर्यय अर्थात मियाज्ञान भी होते सम्यक्त्व के प्रादुर्भूत होने पर सत्यासत्य के निर्णय रूप यथार्थ ज्ञान हो जाता है तब मति, श्रुत और अवधि हो समीचीन ज्ञान कहलाते हैं और ये ही पाँचों ज्ञान प्रत्यक्ष परोक्ष के भेद से दो प्रकार भी होते हैं। उनमें मतिज्ञान और श्रुतज्ञान तो परोक्ष हैं क्योंकि ये पांच इन्द्रियों और मन की सहायता से होते हैं, पर मतिज्ञान को इंद्रिय प्रत्यक्ष होने से व्यावहारिक प्रत्यक्ष कहते हैं। अवधि और मनःपर्ययज्ञान किंचित प्रत्यक्ष हैं क्योंकि रूपी द्रव्य और मर्यादित क्षेत्र की बार्ता की जानते हैं । केवलज्ञान पूर्ण प्रत्यक्ष है क्योंकि अन्य इन्द्रियादिक की सहायता के बिना अपने अच्छे स्वच्छ स्वाभाविक ज्ञान से युगपत् समस्त द्रव्यों को उसको अनन्त पर्यायों सहित जानता है। एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक प्रत्येक जीव के मति और श्रुत ये दो ज्ञान प्रत्येक अवस्था में रहते हैं यदि तीन हों तो मति, श्रुत और अवधि या मति, श्रुत मौर मनः पर्यय ये तीन होते हैं। यदि चार हों तो मति, श्रत, प्रवधि और मनः पर्यय ज्ञान ये चार होते हैं। यदि एक ज्ञान हो तो ज्ञान को खंड-खंड करने वाले ज्ञानावरणोय कर्म के क्षय होने से एक प्रखंड, स्वच्छ, स्वाभाविक केवलज्ञान होता है। इन पांचों ज्ञानों का स्वरूप इस प्रकार है। मतिमान-मतिज्ञानावरण के क्षयोपशम के अनुसार पांच इंद्रियों और मन के द्वारा जो ज्ञान होता है, उसे मतिज्ञान कहते हैं । वाद्य कारणों की अपेक्षा इसके छह भेद हैं-- १ स्पार्शन, २ रासन, ३ घ्राणज, ४ चाक्षुष, ५ श्रावण ओर ६ मानस । स्पर्शन इन्द्रिय से स्पर्श का जानना स्पार्शन, रसना इन्द्रिय से रस का जानना रासन, प्राणेन्द्रिय से सुगन्ध दुर्गन्ध का जानना प्राणज, चक्ष्वींद्रिय से रूप का जानना चाक्षुष, कर्णेन्द्रिय से शब्द का जानना श्रावण और मन से किसी विषय का मनन करना मानस मतिज्ञान है। स्मृति, संज्ञा, चिता, अभिनिबोध ये भी मतिज्ञान के ही नामांतर हैं पर्थात् ये सब मतिज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से ही होते हैं। Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार ग्रंथ श्रुतमान-श्रुतज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम के अनुसार मतिज्ञान से जाने हुए पदार्थ से सम्बन्ध लिए हुए अन्य पदार्थ का जो ज्ञान होता है, उसे श्रुतज्ञान कहते हैं । श्रुतज्ञान के भी दो भेद अनक्षरात्मक श्रुतज्ञान-जैसे स्पर्शनेन्द्रिय से अन्य पदार्थ का सम्बन्ध होने पर अधिक शीतल या उष्ण होने से ये मुझे अहितकारी हैं, ऐसा जो ज्ञान है उसे अनक्षरात्मक श्रुतज्ञान कहते हैं । वह समनस्क लीयों के मन के गाय से साफ पपौर मानरक जीवों के आहार, भय, मैथुन और परिग्रह, इन संज्ञाओं के द्वारा यत्किचित प्रतिभास रूप होता है। अक्षरात्मक श्रतज्ञान-'चट' इस शब्द के दो प्रक्षरों के पठन तथा श्रवण करने से घट पदार्थ का जानना अक्षरात्मक श्रुतज्ञान का विषय केवलज्ञानवत् असीम है अन्तर इतना है कि केवलशान तो विशद प्रत्यक्ष प्रौर श्रुतदान प्रविशद परोक्ष है। अवधिज्ञान-अवधिज्ञानावरण के क्षयोपशम के अनुसार पंचेन्द्रिय और मन की सहायता बिमा द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की मयांदा लिए हुए रूपी पदार्थ का स्पष्ट जानना अवधिज्ञान है । वह अवधि दो प्रकार का है (१) भवप्रत्यय अवधिज्ञान --जो देव, नारकी तथा छपस्थ तीर्थंकर भगवान के मुख्यतया भव के कारण उत्पन्न हो, उसे भयप्रत्ययावधिक कहते हैं । (२) क्षयोपशम निमित्तक अवधिज्ञान-पर्याप्त मनुष्य तथा संशी पंचेन्द्रिय पर्याप्त तिर्यंच के सम्यग्दर्शन तथा तपगुणकरि नाभि के ऊपर शंख, पम, वन, स्वस्तिक, कलश आदि जो शुभ चिन होते हैं, उस जगह के प्रात्म-प्रदेशों में अवधिज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से जो ज्ञान होता है, उसे क्षयोपशम निमित्तक अवधिशान कहते हैं यह क्षयोपशम निमित्तक अवधिज्ञान अनुगामी, अवस्थित, अनवस्थित, बद्धमान और हीयमान इस तरह छह प्रकार का होता है। जो अवधिज्ञान जीव के साथ एक भव में, एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में साथ चला जाए, तथा भय से भवांतर व क्षेत्र से क्षेत्रांतर में चला जाए, उसे क्रमश: भवानुगामी, क्षेत्रानुगामी कहते हैं। भव में भवांतर में, क्षेत्र से क्षेत्रांतर में साथ न जाए, उसे क्रमशः भवानगामी और उभयानगामी कहते है। जैसा उपजे वैसा ही बना रहे उसे अवस्थित, हीनाधिक होता रहे उसे अनवस्थित, जो क्रमशः घटकर नष्ट हो जाए उसे हीयमान अवधिशान कहते हैं तथा अवविज्ञान सामान्यतः १ देशावधि, २ परमावधि और सर्वावधि भेद से तीन प्रकार का है। इसमें देशावधि सो भवप्रत्यय, और क्षयोपशमनिमित्तक दोनों रूप होता है और परमाधि व सर्वावषि ये दोनों क्षयोपशभनिमित्तक रूप ही होते हैं। मनःपर्ययज्ञाम-मनःपर्ययज्ञानावरणीय कर्म के क्षययोपशम होने से पचेन्द्रिय और मन की सहायता बिना द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव को मर्यादा लिए हुए जो अन्य के मन में तिष्ठते हुए सविधि ज्ञान के विषय (अवधिज्ञान के देशाधि प्रादि तीन भेदों में से सर्वावधि का सबसे सूक्ष्म विषय होता है) के अनंतवे भाग सूक्ष्मरूपी पदार्थ को स्पष्ट जाने, उसे मनपर्ययज्ञान कहते हैं । इसके भी दो प्रकार हैं--- (१) चुमति मनःपर्यय- मन, वचन, काय की सरलता रूप अन्य के मन में पाए हुए पदार्ष को किसी के पूछे या बिना पूछे ही जानने को ऋजुमति मनःपर्यय ज्ञान कहते हैं। (२) विपुलमति मनःपर्यय- सरलता तथा वक्ररूप मन, वचन, काय द्वारा चितित, अर्द्धपितित तथा अचिंतित और ऐसे ही कहे हुए. किए हुए, पर के मन में रहते पदार्थ को किसी के पूछे बिना पूछे ही जानना विपुलमति मनःपर्यय ज्ञान है । Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार ग्रंथ केवलज्ञान केवलज्ञानावरणीय कर्म के सर्वथा प्रभाव होने से अलोकाकाश सहित सम्पूर्ण रूपी, रूपी पदार्थों का अपनी भूत, भविष्यत, वर्तमानकालिक अनन्तानन्त पर्याय सहित समस्त तीन लोक को स्वतः इन्द्रिय उद्योतादिक की सहायता बिना ही प्रत्यक्ष जानना केवलज्ञान है। यह ज्ञान परमात्म भवस्था में होता है । इस प्रकार सम्यग्ज्ञान १६५ पांच भेदों का यह संक्षिप्त स्वरूप कहा गया । सम्यग्ज्ञान के उत्पन्न होने का कारण 'श्रुतज्ञान है, उसका वर्णन संक्षेप में इस प्रकार है - श्रुतज्ञान विषय भेद से प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग इस प्रकार से भगवान् की दिव्य ध्वनि के अनुसार श्री गणधर देव ने चार विभाग रूप वर्णन किया है। इनमें श्रात्मज्ञानोत्पति की कारणता होने से इनको वेद कहते हैं। इन चारों का स्वरूप इस प्रकार है प्रथमानुयोग - प्रथमानुयोगमस्थानं चरितं पुराणमपि पुष्यम् । बोधिसमाधिनिधानं बोधति बोधः समीचीनः ॥ अर्थात् जिस सम्यग्ज्ञान में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष चारों पुरुषार्थों का कथन है, जिसमें एक प्रधान पुरुष की श्राश्रय कथा है तथा उसमें मुख्यतया त्रेसठ शालाका पुरुषों का अर्थात् चौबीस तीर्थंकर बारह चक्रवति, नव बलभद्र, नव नारायण, नव प्रतिनारायण इन त्रेसठ शलाका पुरुषों का चरित्र है और जो पुण्य का आश्रय करने वाला, बोधि अर्थात् रत्नत्रय समाधि अर्थात् ध्यान का निधान (खजाना ) है - ऐसे उस प्रथमानुयोगरूपी शास्त्रों के विषय को सम्यग्ज्ञान ही सम्यक् प्रकार जानता है। मनुष्य इस प्रथमानुयोग के अध्ययन, अध्यापन करने से चरित्र के श्राश्रय पुण्य पाप रूप कार्य और उसके फल को शुभ कार्यों से निवृत्त होकर शुभ कार्य में प्रवृत्त होने का प्रयत्न करता है और धर्म का सामान्य स्वरूप समझकर विशेष सुक्ष्म स्वरूप के जानने की अभिलाषा से अन्यान्य का भी अवलोकन करता है । प्रारम्भ में धर्माभिमुख करने में उपयोगी होने से इसका प्रथमानुयोग सार्थक नाम है । करणानुयोग --- लोकालोक वित्त युगपरिवृत अंतुर्गतीनांच | भावर्शमिव तथा मतिरवंति करणानुयोग चं ॥ अर्थात् उक्त प्रकार का सम्यग्ज्ञान ही लोकालोक विभाग को, युगों के प्रर्थात् काल के परिवर्तन को, चार गतियों को और लेश्या, कषाय योगादि में कर्मों की न्यूनाधिकता से उसके परिवर्तन को तथा कर्मों के बंध, उदय, सत्ता, क्षय. उपशम, क्षयोपशमादि ऐसे करणानुयोग को दर्पण सदृश जानता है । इसका प्रत्येक विषय गणित से सम्बन्ध रखता है, इसलिए इसका करणानुयोग सार्थक नाम है । चरणानुयोग गृहमेष्यनधारणां चारित्रोत्पत्तिवृद्धिरांग म् । वरणानुयोगसमयं सम्यग्ज्ञानं विजानाति । अर्थात् उक्त प्रकार का सम्यग्ज्ञान ही गृहस्थ और मुनियों के राग द्वेष की निवृत्ति पूर्वक चारित्र की उत्पत्ति वृद्धि और रक्षा के कारणभूत अंगों का वर्णन है जिसमें ऐसे चरणानुयोग शास्त्र को भली प्रकार जानता है । पाप कार्यों के त्यागने से क्रमशः श्रात्म-परिणाम उज्ज्वल होकर प्रात्मा शुद्ध भवस्था को प्राप्त हो सकता है । ऐसी धाचरण विधि का प्ररूपक होने से इसको चरणानुयोग कहते हैं । Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार चंय द्रव्यानुयोग - जीवाजीवसुतत्त्वे पुण्यापुण्ये च बंधमोक्षोप।। ब्यानयोगदीपः भतविद्यालोकमातनते॥ अर्थ-द्रव्यानुयोग रूपी दीपक जीव अजीव रूप सुतत्वों को तथा संयोग वियोग को विशेषता से उत्पन्न शेष पांच तत्वों को, पुण्य पाप को और जीव के स्वभाव विभावों को प्रकाशित करता है। इसमें द्रव्यों का विस्तृत वर्णन होने के कारण यह द्रव्यानुयोग कहलाता है। उक्त प्रकार के चार अनुयोग शास्त्र को सम्यग्ज्ञान ही सम्यक् प्रकार जानता है, अन्य नहीं, अतएव आत्म कल्याण के लिए धार्मिक विषय के जानने की उत्कंठा रखने वाले भव्य जीवों को यह सम्यग्ज्ञान इसके अष्टांग सहित पालन करना चाहिए। सम्यग्ज्ञान के प्रष्ट अंगों के नाम ग्रन्थार्थोभयपूर्ण काले विनयेन सोपधान छ। बहुमानेन समन्धितमनिङ्गवंज्ञानमाराव्यम् । अर्थात् (१) ज्ञान के शब्दाचार (२) अर्थाचार (३) उभयाचार (४) कासाचार (५) विन याचार (६) उपधानाचार (७) बहुमानाचार और (८) अनिहन्वाचार ये पाठ अंग हैं । पठन-पाठन करने वालों को इनका सदैव पालन करना चाहिए। व्याकरण के अनुसार प्रक्षर, पद, वाक्यों का उच्चारण कर मूल-मात्र के प्रागम के पठन-पाठन करने के शब्दाचार या व्यंजनाचार कहते शब्द मे र पूर्ण अर्थ को अवधारण कर पागम का पठन-पाठन करना प्रर्थाचार कहलाता है। शुद्ध शब्द और शुद्ध अर्थ सहित सिद्धांत के पठन-पाठन करने को उभयाचार व शब्दार्थोभपूर्ण कहते हैं। प्रातःकाल, मध्याह्नकाल, संध्याकाल, अर्द्धरात्रि, ग्रहण, भूकम्प, उल्कापातादि सदोष समय में पठन-पाठन न करके योग्य काल में श्रुत अध्ययन करना कालाचार व कालाध्ययन है। गोसर्ग काल अर्थात् दोपहर के दो घड़ी पहले और प्रातःकाल के दो घड़ी पीछे, दोपहर के दो घड़ी पीछे और प्रातः काल के धड़ी पहले इन कालों के सिवाय दिग्दाह, उल्कापात, इन्द्रधनुष, सूर्यग्रहण, चन्द्रग्रहण तथा भूकम्पादि उत्पादों के समय सिद्धांत (जो शास्त्र गणधर देवों के रचे हुए हैं) प्रथया ग्यारह अंग दश पूर्वधारियों के रचे हुए हैं तथा श्रुतकेवलियों के रचे हुए हैं पथवा प्रत्येक बुधि ऋखि के धारण करने वाले योगियों के रचे हुए हैं । उन ग्रथों का ऐसे समय में प्रध्ययन वजित है। तीर्थंकरों के पुराण स्तोत्र, पराधना तथा चरित्र और धर्म को निरूपण करने वाले ग्रथों का पठन-पाठन वजिस नहीं है । वे सदा पढ़ने योग्य हैं । शुद्ध जल से हस्त-पादादि प्रक्षालन कर पवित्र स्थान में पर्यकासन बैठकर पागम की स्तुति और नमस्कारादि कर श्रुतभक्ति पूर्वक पागम का अध्ययन अध्यापन करना, शान का उत्तम विनयाचार कहलाता है। धारणा सहित अराधना करना अर्थात् स्मरण सहित स्वाध्याय करना. भूलना नहीं, उपधानाधार है। शान का, पुस्तक का पौर पढ़ाने वाले का तथा शानी का बहुत प्रादर करना, प्रन्थ को लाते से जाते समय उठ खड़ा होना, पीठ न वेना, पागम को उच्चासन पर विराजमान करना, अध्ययन करते मय लोकिक वातान करना और प्रशुचि प्रग तथा पवित्र वस्त्रादि का स्पर्श न करना बहमान-पाचार कहलाता है। जिस शास्त्र, जिस पाठक व गुरु से पागम ज्ञान हुमा हो, उसके नाम के गुण को नहीं छिपाना तथा लघु शास्त्र या पल्पज्ञानी पाठक का नाम लेने से मेरा महत्व घट जायगा, इस भय से बड़े ग्रन्थ या Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार प १७ बहुशानी प्रध्यापक का नाम न लेना क्योंकि ऐसा करने से मायाचार का दोष पाता है, सो निवाचार हैं। ____ इस प्रकार जो भव्य जीव इन अष्टविध प्राचारों के रक्षापूर्वक पागम का पठन-पाठन करते हैं, उन्हें शानावरण कर्म का क्षयोपशम विशेष होकर सम्पूर्ण ज्ञान की प्राप्ति होती है, सम्पूर्ण विद्यानों की सिद्धि हो जाती है. वे शीघ्र ही परिशीलन (अभ्यास) रूप नौका के द्वारा ज्ञान सागर में पारंगत हो जाते हैं, उनकी बुद्धि प्रतिशय विशाल हो जाती है, हेयाहेय का ज्ञान होकर सन्मार्ग रूप प्रवर्तन करने से अनेक कर्मों का संवर और क्षय हो जाता है और साथ-साथ कौति विवेक प्रदि उत्तम गण भी सदा बढ़ते रहते हैं, इसलिए बुद्धिमान पुरुषों को मालस्य रहित होकर सदैव सम्पग्यज्ञान (जिनागम) का अभ्यास करते रहना चाहिए । ज्ञान की उपासना करने से भव्य जीव भुक्ति और मुक्ति दोनों को प्राप्त कर लेते हैं क्योंकि शास्त्राभ्यास करते रहने से यह मेरा स्वरूप है यह पर का है, ये पदार्थ हेय हैं, ये उपादेय हैं ? इत्यादि पदार्थों के स्वरूप का ज्ञान होता है । जब तक ये पदार्थ भेद अवगत नहीं होता है, तब तक जीव मात्म स्वरूप को नहीं जान सकता। जिस समय से प्रात्मा की स्वपर विवेक होकर हेयोपादेय रूप प्रवृत्ति होने लगती है । तब ही से अशुभ कर्मों की निर्जरा तथा संवर होने से प्रतिक्षण में शुम (पुण्य) कर्मों का प्रास्त्रव होने लगता है जिसके फल से वाल्पवासी व महद्धिक देवों में उच्चपद का धारी देव होता है और वहाँ अनेक भोगोपभोगों को भोगकर अायु के अन्त में मनुष्य भव धारण कर परिग्रह त्यागी होकर अपना ध्यानामिकेद्वार यातियतथ्य को प्रभाव करके भूत, भविष्यत् वर्तमान तीनों काल सम्बन्धी समस्त शेय पदार्थों को प्रतिभासित करता हुआ अपने धर्मोपदेशामृत रूपी वर्षा से भव्य जीवों के संसार परिभ्रमण से संतप्त चित्त को शांत कर वह जीवन्मुक्तात्मा अन्तिम शरीर को छोड़कर सदैव के लिए परम पतींद्रिय, अविनाशी, तृष्णा रहित अनंत सुख का भोक्ता हो जाता है। इस प्रकार से सम्यग्ज्ञानपूर्वक किया हुप्रा शास्त्राभ्यास परम्परा से मोक्ष का कारण जानकर प्रत्येक व्यक्ति को निरन्तर पागम का और उसके अनुसार हितोपदेष्टा गुरुपों का भक्ति व श्रद्धा पूर्वक प्रत्यक्ष तथा परोक्ष में भक्ति, पूजा, उपासना तथा गुणानुवाद करते रहना चाहिए जिससे साहस, धैर्य, दृढ़ता तथा गम्भीरता बढ़ती है, बुद्धि निर्मल होती है, ज्ञानानुभव बढ़ता है और दया, क्षमा, संतोष, विनय, वात्सल्य, श्रद्धा, शील, निराकुलता, निष्कपटता प्रादि अनेकानेक उत्तमोत्तम गुण सदा बढ़ते रहते हैं, इसलिए भव्यों को सदैव शास्त्राभ्यास करते रहना चाहिए। ।। इति श्री सम्यग्ज्ञान विवरण समाप्त् ।। ॥अप सम्यक् चारित्र वर्णन प्रारम्भ ।। जिस जोव के सम्यक्त्व के नाश करने वाले मिथ्यात्व, सम्पक मिथ्यात्व और सम्यक् प्रकृति । मिथ्यात्व इन सम्यक्त्व धातक दर्शन मोह की तीनों प्रकृतियों के नाश होने पर सम्यग्दर्शन की प्राप्ति से दुरभिनिवेश रहित सभ्यशान विद्यमान है तथा जिसके चारित्र मोहनीय कर्म का क्षयोपशम हुमा है और जो विषय भोगादिकों से परान्मुख दृढ़ संहनन का धारक और प्रासन्न भव्य है ऐसा पुरुष तो एकाएक हिंसादि पांच पापों का पूर्ण रीति से त्याग कर परम दिगम्बर नग्न रूप धारण करके मोक्ष के मार्ग स्वरूप सम्यम्मान सहित तेरह प्रकार के चारित्र को भली प्रकार धारण कर ग्रामस्वरूप में लीन होता है और जिनके सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, विद्यमान है, अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ रूप चारित्र मोहनीय Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ णमोकार ग्रंथ कर्म का प्रभाव हो गया ऐसा पुरुष स्वयं की प्रिय लगने वाले चक्षु रसमा आदि इन्द्रिय जनित सुखों को निद्य और अनुपसेव्य जानता है और अपनी आत्मा से उत्पन्न नित्य प्रविनाशी मोक्षमुख के प्राप्त होने की उत्कट इच्छा रखता है तथापि अप्रत्याख्यानावरणं, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन सम्बन्धो क्रोध, मान, माया, लोभ रूप चारित्र मोहनीय कर्म के उदय से जनित सुख दुःखों का अनुभव करता है क्योंकि अपने समय के अनुसार आए हुए कर्मों के उदय फल को अवश्य भोगना पड़ता है ऐसा जो सम्यग्दृष्टि जीव है वह चारित्र मोहनीय कर्म की अल्पमंदता होने से अप्रत्याख्यानावरण का उपशम हुआ होने से तथा शक्ति रहित अथवा हीन संहनन होने के कारण हिंसादि पापों का पूर्ण रूप से त्याग करने की उत्कट लालसा रखता हुआ देशवती का श्रभ्यास करते हुए क्रमपूर्वक राग द्वेष मोहादि को घटाकर पीछे हिंसादि पंच पापों का पूर्ण त्याग कर मुनिव्रत धारण करता है और मोक्ष का पात्र बनता है यही राज मार्ग है क्योंकि विषय, कषाय आदि के घटे बिना मुनिव्रत धारण कर लेना किसी कार्य के न करने वाला व्यर्थं स्वांग मात्र है । इसीलिए सम्यक्त्व प्राप्त होने पर रागद्वेष की निवृति के लिए सम्यक् चारित्र को अवश्य धारण करना चाहिए। जैसा कि रत्नकरण्ड श्रावकाचार में कहा गया है आर्या छन्द मोहतिमिरापहरणं दर्शनलाभाववान्तसंज्ञानः । रागद्वेषनिवृत्यैः चरणं प्रतिपद्यते साधुः || अर्थ-दर्शन मोहनीय रूप अन्धकार के नाश होने पर जिसको सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति से संशय विपर्यय और श्रध्यवसाय रहित सम्यग्ज्ञान प्राप्त हो गया है जिसको ऐसे सम्यदृष्टि भव्य पुरुष को राग द्वेष दूर करने के लिए सम्यक् चारित्र धारण करना चाहिये वह चारित्र सकल और विकल रूप से दो प्रकार का है । समस्त प्रकार के परिग्रहों से विरक्त अनागार (साक्ष्यों) का तो मन, वचन, काय, कृत, कारित, अनुमोदनों से पंच पापों का सर्वथा त्याग रूप सकल चारित्र है और गृह यदि परिग्रह सहित गृहस्थियों का इन पापों के एक देश त्याग रूप विकल चारित्र है । अव प्रथम ही मुनि के चारित्र को कथन न करके एकोदेश त्याग रूप गृहस्थ के विकल चारित्र का स्पष्ट और विस्तृत वर्णन किया जाता है क्योंकि मुनि धर्म तो उन लोगों के लिये है जिनके चारित्र मोहनीय कर्म का क्षयोपशम हो चुका है तथा दु संहनन के धारण और विषय भोगों से निस्पृही प्राप्त हुए कष्टों के सहन करने को पूर्ण शक्तिवान है। गृहस्थ धर्म उस मुनि धर्म के प्राप्त करने का मार्ग है । जिस प्रकार बहुत काल से माने वाले ज्वर से अशक्त मनुष्य को पहले पीने योग्य पेय पदार्थ प्रौर तत्पश्चात् खाद्य पदार्थ सेवन कराये जाते हैं उसी प्रकार विषय रूपी विषय भन्न के सेवन करने से जो मोह जर उत्पन्न हुआ है और उस मोह ज्वर के सम्बन्ध से जिसको विषय सेवन करने की लालसा रूप तीव्र तृष्णा प्रगट हुई है ऐसे पुरुष को प्रथम ही योग्य विषयों का सेवन करना प्रौर क्रम से छोड़ना कल्याणकारी होता है। इसका दूसरा दृष्टान्त मे हैं कि जैसे बहुत समय से किसी नशे का सेवन करने वाले मनुष्य का एकाएक उस व्यसन से छूटना मशक्त जान क्रम क्रम से उसे न्यून सेवन करने का उपदेश दिया जाता है जिसे वह क्रमशः कम करते-करते अन्त में उसको सर्वथा त्याग करना ही कल्याण कारी जान, छोड़ देता है उसी प्रकार अनादि काल से सेवन किये हुये पंचेन्द्रिय जनित विषय सुख से छुड़ाने और स्व में प्राप्त होने के लिए एकदम सर्व परिग्रह को छोड़ मुनि धर्म धारण करने की 'शक्ति सर्व साधार जीवों में न जान ऐसे हीन पराक्रमी मनुष्यों के लिए जिनेन्द्र भगवान ने गृहस्थाश्रम में रहकर श्रावक व्रतों के धारण करने का उपदेश दिया है क्योंकि जिससे उनको यथाक्रम धावक व्रती Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमोकार म १६१ के पालन करने से मुनि धर्म धारण करने की शक्ति उत्पन्न हो जाती है। यद्यपि प्रथमानुयाग सम्बन्धी पुराण तथा चारित्रादि नषों में सामान्य रूप से साधारण सी अतिशा लेने वाले गृहस्य को भी धायक शब्द से स्मरण किया है तथापि चरणानुयोग सम्बन्धी उपासकाध्ययन (श्रावकाचार) ग्रंथों में बहुधा पाक्षिकनैष्टिक और साधक ऐसे तीन प्रकार के ही श्रावक कहे हैं। क्योंकि श्रावक के अष्टमूलगुण और सप्त व्यसनों का त्याग इन तीनों में हीनाधिक्यता से पाया जाता है। सागारधर्मामृत प्रादि ग्रयों में स्पष्ट कहा है कि मद्य त्यागादि श्रायकों के पाठ मूलगुण और अहिंसा प्रादि बारह अणुव्रत उत्तर गुण हैं। इन्हीं बारह व्रतों के विशेष भेद श्रावक को तरेपन क्रिया है। इन तरेपन क्रियानों की पूर्णता भी वारह प्रतों के साथ-साथ पहली प्रतिमा से लेकर ग्यारवी प्रतिमा में हो जाती है। ॥ श्रावक की तरेपन क्रियाओं के नाम । गुण वय तव सम पडिमा, वाणं जलगालणं च प्रणयमियं । बसंणणाण चरित', किरिया तेवण सावया भणिया ॥ अर्थ-अष्टमूलगुण, द्वादश वत, द्वादशतप, समता, एकादश प्रतिमा, चतुर्विधदान, जलगालन, अंथक (ध्यालू), दर्शन, ज्ञान और चारित्र इस प्रकार श्रावक की तरेपन क्रियाएँ हैं । अब पक्षचर्या, साधन के द्वारा जो श्रावक के पाक्षिक, नैष्ठिक ब साधक श्रावक ऐसे तीन भेद कहे हैं उनका पृथक-पृथक वर्णन किया जाता है। ॥ अथ पाक्षिक श्रावक वर्णन प्रारम्भ ।। सम्यग्दष्टे: सातिवार, मूलाणुक्तपालकः। पर्चाविनिरतस्त्वगु, पदं कांक्षीहपाक्षिकः ॥ अर्थात्-सम्यग्दृष्टि प्रतीचार सहित मूलगुण और अणुव्रत का पालन करने वाला जिन भगवान की पूजा प्रादि में अनुरागो तथा प्रागे-मागे अधिक व्रतों के धारण करने की इच्छा रखने वाला पाक्षिक श्रावक कहा जाता है । प्राशय यह है कि जिसे वीतराग सर्वज्ञ देव के अनुलंध्य शासन द्वारा मात्म कल्याण का मार्ग तथा यथार्थ धर्म का स्वरूप ज्ञात हो जाने से एक देश हिंसा के त्याग करने रूप श्रावक्र धर्म के ग्रहण करने का पक्ष है। प्रथवा जिसने उस पर आचरण करना प्रारम्भ कर दिया है पर उस धर्म का निर्वाह जिससे यथेष्ट नहीं होता ऐसे चतुर्थ गुणस्थानी सम्यग्दृष्टि प्रारब्ध देश संयमी को पाक्षिक श्रावक कहते हैं। प्रारब्ध देश संयमी कहने का अभिप्राय यह कि जिसने देश संयम को पालन करने का प्रारम्भ स्वीकार किया है उसको नैगम नय की अपेक्षा से देश संयमी कहते हैं । इनके सप्त व्यसन का त्याग तथा अष्ट मूलगुण धारण सातिचार होते हैं । यद्यपि ये निरतिधार पालन का प्रयत्न करते हैं तथापि अप्रत्याख्यानावरण कषाय की चौकड़ो के उदय से विवश प्रतीचार लगते हैं । अब यहां शुद्ध सम्यग्दृष्टि पाक्षिक श्रावक के अहिंसा धर्म की रक्षा के निमित्त मध्य विरति आदि आठ मूलगुण और सप्त व्यसन के त्याग का वर्णन किया जाता है। पाठ मूल गुण॥ जो जीव गृहास्थाश्रम में रहकर जिनेन्द्र भगवान की पाशा का पालन करता हुआ देश संयम के धारण करने की उत्कंठा रखता है ऐसे गृहस्थ को भाव हिंसा और द्रव्य हिंसा को त्याग करने के लिए मद्य, मांस, मधु इन तीन मकार तथा बड़, पीपल, ऊमर (गूलर) कठूमर और पाकर इन पाँच प्रकार के क्षीर वृक्ष के फलों का अवश्य त्याग कर देना चाहिये । इन ही के त्याग करने को आठ मूलगुण कहते हैं। इन माठ मूलगुणों को अन्य भाचार्यों ने दूसरे प्रकार से भी लिखा है। Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७. णमोकार ग्रंथ जैसा कि श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार में श्री स्वामी समन्तभद्राचार्य ने कहा है मधमास मधुत्यागः सहाणुव्रतपञ्चकम् । प्रष्टोमूलगुणानाहगंहिणां श्रमणोसमः ॥ अर्थ-मद्य, माँस और मधु के त्याग सहित पांचों अहिंसा अणुव्रतों का पालन करना गृहस्थियों के पाठ मूलगुण कहे गये हैं । ऐसा मुनियों में उत्तम गणधर आदि ने कहा है। इस प्रकार श्री समन्तभद्राचार्या ने पंच उदम्बरों की जगह हिंसादि पंच पापों का एक देश त्याग करना कहा है । तथा भगवज्जिनसेनाचार्य ने श्री समन्तभद्राचार्य के कहे हुए अष्ट मूलगुणों में से मधु के बदले जुए का त्याग कहा है। थी आदिपुराण में कहा गया है-- आर्या छन्द हिंसा सत्यमस्तेयाद, प्रब्रह्मपरिग्रहाच्यवादर भेदात् । चूतामासान्मधाद्विरति, गहिणोऽष्टसंयमीमूलगुणाः ॥ हिंसा, झुठ, चोरी, प्रब्रह्म और परिग्रह इन पांच पापों का स्थूल रीति से अर्थात् एक देश त्याग करना तथा जुया, मद्य, मांस का त्याग करना ये श्रावकों के प्रष्ट मूलगुण होते हैं। सागरधर्मामृत तथा अन्य ग्रथों में श्रावक के प्रष्ट मूलगुण दूसरे प्रकार से भी कहे हैं। वैसे कहा गया है मद्य फल मधुनिशासन, पंच फलीविरति पंच काप्तनुती। जीवदया जलगालनमिति, छ पचिवष्टमूलगुणाः ॥ अर्थ-मद्य, मांस, मधु इन तीन मकार का त्याग, रात्रि भोजन का त्याग, पांच उदम्बर फलों का त्याग, नित्य त्रिकाल देव प्रार्थना करना, दया करने योग्य प्राणियों पर दया करना और जल छान कर पीना अर्थात् काम में लाना इस प्रकार पाठ मूलगुण कहे हैं । तथा और भी कहा है-- प्राप्तपंच नुतिर्जीक, दया सलिलगालनम् । त्रिमयादि निशाहारो; उदम्पराणांच वर्जनम् ।। अष्टोमूलगुणानेतान्, केबिवाहुर्मुनीश्वराः । तत्पालेनभवत्येष, मूलगुणप्रताग्वितः ॥ पर्थ-देव बंदन, जीवों की दया पालना, जल छानना, मद्य, मांस, मदिरा का त्याग, रात्रि भोजन का त्याग तथा पांच उदम्बर फल का त्याग ये भी पाठ मूलगुण हैं । इन सब पूर्वोक्त कई प्रकार में प्राचार्यों के द्वारा भिन्न कथित मूल गुणों पर जब सामान्यतः विचार किया जाता है तो प्रायः सभी प्राचार्यों का अभिप्राय, अभक्ष्य, अन्याय और परिणामों की निर्दयता को छुड़ाकर महिसा यत पालन करने के लिये धर्म में लगाने का सबका, एकसा विदित होता है अतएव पाक्षिक को अहिंसा पालन करने के लिए प्रष्ट मूलगुणों को यावज्जीवन धारण करना चाहिए और इनके साथ ही मद्य, मांस, मधु आदि जैसे अनुपसेव्य और हिंसामय होने से नवनीत अर्थात् मक्खन के सेवन करने से, रात्रि भोजन करने और बिना छने पानी पीने में भी बड़ा पाप बंध होता है और जीवहिंसा का पाप बंध लगता है, मांस खाने का दोष लगता है इसलिये इनका भी पाक्षिक को अवश्य त्याग करना चाहिये। इन सब मभिप्रायों को पीछे कहे हुए रात्रि भोजन त्याग, त्रिकाल बंदना आदि मप्ट गुणों में मूल अन्तर्भूत हो जाने के कारण उन्हीं के अनुसार मब यहां पर वर्णन किया जाता है । जैसे Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार ग्रंथ मद्यवम्बर कामिष मधुत्यागाः कृपाप्राणिनां नक्तं भुक्ति विमुक्तिराप्त विनुति स्तोयं सुवस्त्रस्त्र त ॥ अष्टौ ते प्रगुणागुणागण घरं रागारिणा एके कीर्तितां । नगेहाश्रमी ॥ १७१ अर्थ- - मद्य का त्याग, पांच उदम्बर फलों का त्याग, मांस का त्याग, मधु का त्याग, रात्रि भोजन का त्याग तथा प्राणियों पर दया करना, देव वन्दना करना और छना हुआ पानी प्रयोग में लाना-ऐसे ये अष्ट मूलगुण श्रावकों के लिए गणधर देव ने कहे हैं। यदि इनमें से एक भी गुण कम हो तो उसे गृहस्थ अर्थात् श्रावक नहीं कह सकते । मद्यदोष -मथ के बनाने के लिए महुआ, दाख श्रादि अनेक पदार्थों को बहुत दिन तक सड़ाकर पीछे यन्त्र के द्वारा उनकी शराब उतारी जाती है । यह महा दुर्गन्धित होती है और इसके बनने में असंख्यात और अनन्त त्रस व स्थावर जोवों की हिंसा होती है। इसके अतिरिक्त इसके पीने से मोहित हुए जीव धर्म कर्म को भूलकर निशंक पंच पापों में प्रवृत्ति करते हुए इस भव और परभव दोनों लोकों का सुख नष्ट करते हैं । मद्य के पान करने से मोहित चित्त वाला पुरुष माता, स्त्री, पुत्र, बहिन यादि की सुध-बुध भूलकर निर्लज्ज होकर यद्वा तद्वा बर्ताव करता हुआ, दुर्वचन बोलता हुआ, सेव्य, मनुपसेव्य से विवेक रहित मांस आदि भक्षण करता हुआ और न पीने योग्य पदार्थों का पान करता हुआ वह अन्त में नरकगति को प्राप्त होकर अति तीव्र, घोर दुःख अनन्तकाल पर्यन्त भोगता है। इस प्रकार विचार कर संयम, ज्ञान, सत्य, पवित्रता, क्षमा, दया आदि उत्तम गुणों को अग्नि के कणवत् भस्म करने वाले उभय लोक दुखदायी नरक आदि दुर्गति के कारण मद्य को पीने का आत्महितेच्छुक पुरुषों को अवश्य त्याग कर देना चाहिए। चरम, चंडू, अफीम, गांजा, भांग, माजून आदि समस्त मदकारक पदार्थों को मदिरापान के सदृश धर्म, कर्म दोनों से भ्रष्ट करा देने वाला जानकर मद्यपान त्यागी को इनका भी त्याग करना चाहिए । -- मांसदोष- यह त्रस जीवों की द्रव्य हिंसा करने से उत्पन्न होता है। इसके स्पर्श, आकृति, नाम और दुर्गन्ध से ही चित्त में महाघृणा उत्पन्न होती है। यह जीवों के रक्त, वीर्य, मज्जा आदि सप्त धातु मौर, उपधातु रूप स्वभाव से ही अपवित्र पदार्थों का समूह है। मांस पिंड चाहे कच्चा हो चाहे अग्नि मे पकाया हुआ हो अथवा पक रहा हो उसमें प्रत्येक अवस्था में उसी जाति के साधारण जीव, प्रत्येक जीव संख्या अनन्त पैदा होते रहते हैं। ऐसा मांस सेवी पुरुष उभय लोक में दुःख पाता है और द्रव्य, क्षेत्र, काल, भद मौर भाव इन पंच परावर्तन रूप दुःखमय संसार में अनन्त काल पर्यन्त नरकादि दुर्गतियों में परिभ्रमण करता हुआ महान दुःसह दुःख भोगता है। अतएव मांस भक्षण को उभयलोक दुःखदायी जानकर अहिंसा धर्म पालन करने वालों को मांस भक्षण नहीं करना चाहिए। मधुदोष - जिसको मधुमक्खी, केतकी, नीम आदि के एक-एक पुष्पं के मध्य भाग से रस को चूस चूसकर लाती है और फिर उसे वमन कर अपने छत्ते में एकत्र कर उसकी रक्षार्थ वहीं रहती है मौर जिसमें प्रत्येक समय संमूर्च्छन जाति के छोटे-छोटे अंडे उत्पन्न होते रहते हैं भील मादि शहद निकालने वाले निर्दय क्रूर परिणामी नीच जाति के मनुष्य धूम यादि के प्रयोग से मधुमक्षिकाओं को उड़ाकर उन मधुमक्खियों के छत्ते को तोड़कर शेष बची मक्खियों पौर घंडो सहित दाव निचोड़कर निकालते हैं ऐसे संस्य प्राणियों के समुदाय को विनाश करने से उत्पन्न हुए, लार समान घृणित भोर मांस के समान Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ णमोकार संथ दोष युक्त महान अपवित्र मधु का जो मनुष्य एक विन्दु भी ग्रहण करता है उसे सात ग्राम के भस्म करने से भी अधिक पाप का भागी होना पड़ता है । जैसा कि कहा गया ग्राम सप्तक विदाहि रेफसा, तुल्यतान मधुमक्षि रेफसः । तुल्यमंजलिजलेन कूत्र चि, निम्नगापति अलं न जायते॥ अथ-सात ग्राम के सा करने से जो पाप होता है नह छ मधु के सेवन करने से उत्पन्न हुए पाप की समानता नहीं कर सकता क्योंकि हाथ की हथेली पर रखा हुआ पानी क्या समुद्र के जल की समानता कर सकता है अर्थात् कभी नहीं । प्रतएव मधु को नाना प्रकार के दुर्गतिजनित दुःखों का दाता जानकर अहिंसा धर्म पालन करने वालों को इनका सर्वथा त्याग कर देना चाहिए। जिस प्रकार मधु में समय-प्रतिसमय असंख्यात बस जीवों की उत्पत्ति होती रहती है उसी प्रकार नवनीत अर्थात् मक्खन में भी दो मूहर्त के पश्चात अनेक त्रस जीवों का उत्पन्न होना शास्त्र में कहा है यन्मुहूर्तयुगतः परं सदा मूर्छतिप्रचुर जीव राशिभिः । त गिलंति नवनीत मात्रये, ते ब्रजति खलुः कामति मृताः ॥ अर्थ-दो मुहूर्त अर्थात् चार घड़ी के पश्चात् जिसमें अनेक सम्मूर्छन जीव निरन्तर पैदा होते रहते हैं ऐसे नवनीत अर्थात् मक्खन का जो पुरुष सेवन करते हैं वे अन्त में दुर्गति के पात्र होते हैं। इस विषय में अन्य प्राचार्यों का ऐसा भी मत है - अंतर्महत्पिरतः समाजंतुराशयः। पत्र मूछन्तिनायंत नवनीतं विवेकिभिः ।। अर्थ-तैयार होने के अन्तमुहूर्त के पीछे नवनीत अर्थात् मक्खन में अनेक सूक्ष्म सम्मूर्छन जीव उत्पन्न हो जाते हैं इसलिए विवेकी पुरुषों को वह ग्रहण नहीं करना चाहिए। अभिप्राय यह है कि धर्मात्मा पुरुषों को मधु आदि तीन मकारवत नवनीत को सम्मूर्छन जीवों का हिंसामय उत्पत्ति स्थान होने से अभक्ष्य जानकर इसका भी सर्वथा त्याग कर देना चाहिए। पांच उदम्बर फल नाम :-- जो वृक्ष के काठ को फोड़कर निकलते हैं वे उदम्बर फल कहलाते हैं । जैसे उदुम्बरबटप्लक्ष, फरगुपिप्पल जानि च । फलानि पंच बोध्यान्यु, उदुम्बरास्यानिधीमताम् ।। अर्थ-बड़, पीपल, ऊमर अर्थात् गूलर, कठूमर या अंजीर और प्लक्ष अर्थात् पाकर इन पांचों वृक्षों के हरे फलों को भक्षण करने वाला पुरुष सूक्ष्म प्रौर स्थूल दोनों प्रकार के जीवों की हिंसा करता है। इन पांच प्रकार के फलों में स्थूल जीव कितने भरे हुए होते हैं वे तो प्रत्यक्ष हो हिलते, चलले, उड़ते हुए अनेकों दृष्टिगोचर होते हैं परन्तु उनमें सूक्ष्म जाति के भी अनेक जीव होते हैं जो प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर नहीं होते ये केवल शास्त्र रूपी ज्ञान नेत्र से ही जाने जाते हैं । यथोक्तम्-- अश्वत्यो उदुम्बरप्लक्ष, म्यग्रोधादि फलेश्वपि । प्रत्यक्षाः प्राणिनः स्यूलः, सूक्ष्माश्चागम गोचरः ॥ जो पुरुष इन फलों को सुखाकर तथा बहुत दिन पड़े रहने से जिनके सब त्रस जीव नष्ट हो गए हैं ऐसे फलों को भक्षण करता है वह पुरुष उनमें अधिक राग रखने से मुख्यतया भाव हिंसा पोर गौणतया द्रव्य हिंसा के दोष का भागी होता है । अभिप्राय यह है कि जो इन पांचों वृक्षों के हरित फलों के खाने से द्रव्य हिंसा और भाव हिंसा दोनों होती थी तो उनके सूखने पर जब त्रस जीव मर गए हैं तो Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार ग्रंथ उनके मृतक कलेवर के उसी में रहने से उनके भक्षण करने से मांस दोष और भक्षण करने रूप प्रति उत्कट इच्छा होने से राग रूपो भाव हिंसा अवश्य होती है । इसीलिए हरे और सूखे दोनों प्रकार के पंच उदम्बर फल त्याज्य हैं । जिस प्रकार पंच उदम्बर फल हरे पौर सूखे दोनों प्रकार से त्याज्य हैं उसी प्रकार मद्य, मांस, मधु को भी रस सहित और रसरहित दोनों को प्रभक्ष्य एवं हिंसामय होने से धार्मिक सज्जन पुरुषों को सर्वथा त्यागने योग्य हैं । इनके अतिरिक्त जिनमें बस जीवों की उत्पत्ति होती हो ऐसे सभी फलों का गीली, सूखी दोनों प्रयस्थानों में भक्षण करना सर्वथा छोड़ देना चाहिए। इसी प्रकार सड़े, घुने हुए अनाज को भी स जीवों की हिंसामय होने से छोड़ देना चाहिए क्योंकि उसके भक्षण करने से मांस भक्षण के समान दोष पाता है इसलिए धार्मिक पुरुषों को ये त्याज्य हैं। रात्रि भोजन दोष--- जिस प्रकार अहिंसा धर्म पालन करने के लिए धर्मात्मा पुरुष मद्य प्रादि प्रष्ट पदार्थों का त्याग करते हैं उसी प्रकार उन्हें निषिज और हिंसा का कारण होने से रात्रि भोजन का भी अवश्य त्याग कर देना चाहिए क्योंकि रात्रि में भोजन करने से दिन में भोजन करने की अपेक्षा अधिक जीवों का घात होता है। कारण कि रात्रि को गोबन हुन्दाने में मान्यतः - लिस्ट ने बाड़े हत सूक्ष्म जाति के जीव, घृत, जल, साग, चून श्रादि में पड़ जाते हैं तथा तैयार किए हुए भोजन में मिल जाते हैं और यह सब खाने में आते हैं उससे बड़ा पाप बंध होता है । जीव हिंसा का पाप लगता है। मांस भक्षण का दोष पाता है। इसके अतिरिक्त रात्रि में भोजन बनाने से, आग जलाने से, वर्तनों के धोने से अन्धकार व थोड़े प्रकाश में न दिखने वाले जल में स्थित जीवों का विध्वंस होता है तथा धोवन का जल जहां तहां रात्रि में जीव जन्तु न दिख पड़ने के कारण डाल देने से वहां की चींटी, मच्छर प्रादि बहुत से जीवों की हिसा होती है । इसके अतिरिक्त जिस वस्तु के खाने का त्याग कर रखा है वह भी यदि भोजन में मिल जाए तो रात्रि में उसकी परीक्षा करना असंभव हो जायगा और विना पहचाने खाली जाएगी तो प्रतिज्ञा भंग का दोष होगा। रात्रि में अच्छी तरह न दिखने के कारण इस अनिवारित हिंसा (पाप) के अतिरिक्त रात्रि भोजन करने वालों की शारीरिक नीरोगता में भी बहुत हानि होती है। जू खाने से जलोदर रोग हो जाता है, मकड़ी खा जाने से कुष्ट रोग हो जाता है, मक्खी खा जाने से वमन हो जाती है, केश (बाल) खा जाने से स्वर भंग हो जाता है, कीड़ी खा जाने से पित्त निकल पाता है तथा विषभरी (छिपकली) के विष से प्रादमी तक मर जाता है। इस प्रकार के अनेक दोषो से कलंकित रात्रि भोजन करने वाला पुरुष इस लोक में अनेक जीवों को हिंसा के पाप से मनेक दुर्गतियों में भ्रमण करता हुमा अनन्त दुःख भोगता है। अनेक दोषों से भरी हुई इस रात्रि में जब देव कर्म, स्नान, प्रदान आदि सत्कर्म नहीं किए जाते हैं तो फिर भोजन करना कैसे सम्भव हो सकता है अर्थात् कभी नहीं । बसुनंदि श्रावकाचार में स्पष्ट कहा है कि रात्रि में भोजन करने वाला पुरुष किसी भी प्रतिमा का धारी नहीं हो सकता प्रतएव धार्मिक पुरुषों को सूर्योदय से एक मुहूर्त दिन चढ़ने के पश्चात् सवेरे और एक मुहूर्त सूर्य अस्त से पहले शाम को भोजन कर लेना चाहिए। शेष काल में भोजन करमा तथा दिन में अंधेरे क्षेत्र (जहाँ पर अंधकार रहता हो) व काल (यथा मांधी माने के समय) में भोजन न करना चाहिए, ये रात्रि में भोजन करने के समान है। यथा विवसस्यमुखेचान्ते, मुक्त्वा हुने सुमामिकः । घटिके भोजन कार्य, श्रावकाचार चुमिः।। धर्मारमा धावकों को सवेरे और शाम को प्रारम्भ पौर मम्त की दो-दो पड़ी छोड़कर भोजन Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ णमोकार ग्रंथ करना चाहिए । इस प्रकार रात्रि भोजन करना उत्तम जाति और धर्म कर्म को दूषित करने वाला तथा दुर्गति एवं नाना प्रकार के दुःखों का दाता जानकर इसे सर्वथा त्यागने योग्य है । अब रात्रि भोजन के त्याग करने से उत्तम फल को प्राप्त करने वाले प्रीतिकर कुमार की कथा लिखी जाती है : इस ही भरत क्षेत्र के आर्य खंड में एक मगध नाम का देश है । उसमें सुप्रतिष्ठपुर नाम का एक बहुत प्रस्सिार सुन्दर मारा। बह सम्पत्ति और अनुपम सुन्दरता से स्वर्गपुरी की शोभा को जीतता था । जिस समय का यह उपाख्यान है उस समय इसके राजा जयसेन थे। वे धर्मज्ञ, राजनीति निपुण, न्यायी, यशस्वी, महाबली और प्रजाहितैषी थे मोर वहां अनेक धीमान श्रेष्ठि (सेठ) निवास करते थे । वहां एक धनमित्र नाम का सेठ रहता था। उसकी स्त्री का नाम धनमित्रा था। दोनों ही की जैन धर्म पर प्रखंड प्रीति थी। एक दिन सागर सेन नाम के प्रयधिज्ञानी मुनि को निर्दोष, शुद्ध यथा विधि नवधा भक्ति सहित प्रासुक आहार देकर इन्होंने उनसे पूछा हे नाथ ! हमें पुत्र सुख होगा या नहीं । यदि न हो तो म व्यर्थ आशा करके अपने दुर्लभ मनुष्य जीवन का संसार की मोह माया में फंस कर दुरुपयोग क्यों करें? फिर क्यों न पापों का नाश करने वाली जिन दीक्षा को ग्रहण कर प्रात्म कल्याण करें? मुनि ने इनके प्रश्न के उत्तर में कहा-तुम्हारा अभी दीक्षा ग्रहण करने का समय नहीं पाया है तुमको अभी कुछ दिन और गृहवास में रहना पड़ेगा क्योंकि तुम्हारे एक महाभाग, कूलभूषण, धर्मधुरंधर, महातेजस्वी पुत्ररत्न उत्पन्न होगा जो इस मोहजाल को तोड़कर जिनदीक्षा ग्रहण करके अनेक प्राणियों का उद्धार करता हुआ शुक्लध्यान रूपी अग्नि के द्वारा कर्मकाष्ठ को भस्म कर स्वात्मानुभूतिरूपि सच्चे सुख निर्वाण को प्राप्त करेगा। अवधिज्ञानी मुनि की यह भविष्यवाणी सुनकर उस दम्पति को असीम आनन्द हुआ। उस दिन से ये दोनों सेठ-सेठानी अपना समय जिन पूजन, स्तवन, अभिषेक, सत्पात्रदान करुणादान आदि धार्मिक कार्यों में विशेषता से व्यतीत करने लगे। ___इस प्रकार प्रानन्द और उत्सव सहित कुछ समय व्यतीत होने के पश्चात् धनमित्रा ने एक प्रतापी पुत्ररत्न को उत्पन्न किया। मुनि की भविष्यवाणी यथार्थ हुई। पुत्ररत्न के उपलक्ष्य में सेठ ने बहुत उत्सव किया याचकों को दान दिया। भगवान को नाना प्रकार की पूजा और धर्म प्रभावना कराई। सज्जन, सुहृदय इत्यादि पुरुषों का भी यथायोग्य सम्मान किया गया। इसके जन्म से बन्धु बान्धवों को बड़ा प्रानन्द हुमा । अनेक प्रकार मंगलगान होने लगे। इस नवजात शिशु को देखकर सबको प्रत्यन्त प्रीति हुई । इसीलिए इसका नाम प्रीतिकर रख दिया गया । प्रब ये बालक दिन-प्रतिदिन शुक्ल द्वितीय चन्द्रमा की तरह बढ़ने लगा। इसकी सुन्दरता इतनी बढ़ी चढ़ी थी कि इसके रूप को देखकर बेचारे कामदेव को भी नीचा मुंह कर लेना पड़ता पा मोर स्वभाव सिद्ध कांति को देखकर लग्ना के मारे बेचारे चन्द्रमा का हृदय काला पड़ गया। तेज से सूर्य की समानता करने वाला, ऐश्वर्यवान भाग्यशाली, यशस्वी पौर महाबली था क्योंकि वह परम शरीर का धारी अर्थात् इसी भव से मोक्ष याने वाला था। जब प्रीतिकर पांच वर्ष का हो गया तब इनके पिता घनमित्र श्रेष्ठि ने इसको अध्ययन कराने के लिए एक सुयोग्य गुरु के माधीन कर दिया। एक तो पहले ही उसकी बुद्धि डाभ की पनी के समान बड़ी तीक्ष्ण थी और फिर इस पर गुरु की कृपा हो गई इससे ये पोड़े ही समय में पढ़ लिखकर अच्छा विद्वान बन गया। कितने ही शास्त्रों में इसकी प्रवाष प्रवति हो गई। गुरु सेवा रुपी नाव द्वारा इसने शास्त्ररूपी समुद्र का प्रायः भाग पार कर लिया । नीतिकार ने बहुत ठीक कहा है ___ जले तेल पते गुहा, पात्र वानमनागपि । प्राले हार स्वयं याति, विस्तारं बस्तु शक्तितः॥ Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गमोकार ग्रंप १७५ अर्थ-जिस प्रकार जल में तेल, मुखों में गुप्त वार्ता, सत्पात्र के प्रति दिया हुआ दान मुख्यतया वस्तु की शक्ति की अपेक्षा अल्प भी बहत्वता को प्राप्त हो जाता है उसी प्रकार बिशुद्ध बुद्धि पवित्रात्मा शिष्य के प्रति दिया हुया शास्त्र ज्ञान बुद्धि की निर्मलता से विस्तृतता को प्राप्त हो जाता है। पूर्ण विद्वान पौर धनी होकर भी उसे अभिमान का स्पर्श तक भी न हुआ था। वह निरन्तर लोगों को धार्मिक बनाने के प्रयोजन से धर्मोपदेश का श्रवण कराता और लिखाता पढ़ाता था। इसमें गुणों की सत्ता देख कर पोलस्य, ईर्ष्या, मत्सरता प्रादि दुर्गुणों ने इसके निकट अपने सजातियों का प्रभाव देखकर इसके समीप से भी निकलना बन्द कर दिया था यह सब से प्रेम करता और सबके सुख दुःख में सहानुभूति रखता था। इसी कारण इसको सब छोटे बड़े एकचित्त होकर चाहते थे। महाराजा जयसेन भी इसकी सज्जनता, परोपकारिता और उदारशीलता को देखकर बहुत प्रसन्न होते थे और स्वंय इसका वस्त्राभूषणों से आदर सत्कार कर इसकी प्रतिष्ठा बढ़ाते । यद्यपि प्रीतिकर को धन सम्पदा प्रादि किसी प्रकार कमी न थी परन्तु तब भी अपने मन में विचार किया कि कर्तव्यशीलों का यह काम नहीं कि वे बैठे-बैठे अपने पिता व पितामह आदि की संचय की हुई सम्पत्ति पर मानन्द उड़ाकर पालसी और कर्तव्यहीन बने अतएव मुझको वित्तोपार्जन करना चाहिए, कोई यल करना चाहिए। यह विचार कर उसने प्रतिज्ञा की जब तक मैं अपने बाइबल से कुछ द्रव्य संग्रह न कर लंगा सब तक में अपना विवाह न कराऊंगा। ऐसी प्रतिज्ञाकर अपने माता पिता तथा गरुजनों को नमस्कार कर उनसे प्राज्ञा ले विदेश गमन को चल पड़ा । कितने ही वर्षों तक उसने विदेश में रहकर नीति तथा म्याय पूर्वक बहुत धन सम्पत्ति का उपार्जन किया और साथ में यश भी संपादन किया । अपने घर से आये बहुत दिन हो जाने के कारण अपने माता-पिता उसे स्मरण पाने लगे। तब यह वहां बहुत दिन ठहरकर अपना सब सामान लेकर अपने घर को वापिस लौट प्राया। प्रीतिकर अपने माता-पिता से मिला। इसके विदेश से आने का समाचार सुनकर समस्त बन्धु वर्ग तथा नगर निवासियों को बहुत मानन्द हुआ। महाराजा जयसेन ने प्रीतिकर की पुण्यवाणी और प्रसिद्धि सुनकर इस पर अत्यन्त अनुराग कर अपनी कन्या पृथ्वीसुन्दर और एक अन्य देश से प्राई हुई वसुन्धरा तथा और भनेक सुन्दर रूपवती राजकुमारियों का इस महा भाग्यशाली वेष्ठि पुत्र के साथ विवाह कर दिया और इनके साथ अपना प्राधा राज्य भी इसे दे दिया। प्रयान्तर प्रीतिकर को पुण्योदय से जो राज्य विभूति प्राप्त हुई उसे वह सुखपूर्वक भोगने लगा। उसके दिन प्रानन्द और उत्सव के साथ बीतने लगे । अनेक प्रकार के भोगोपभोगों को यथाचित्त सेवन करता हुमा विषय भोगों में प्रत्यासक्त न होकर निरंतर जिन भगवान का अभिषेक पूजन करता था और शास्त्र स्वाध्याय में समय बिताता था जो स्वर्ग या मोक्ष सुख का देने वाला पौर अशुभ कर्मों का नाश करने वाला है । वह श्रद्धा भक्ति प्रादि सप्त गुणों से युक्त नवधा भक्ति पूर्वक सत्पात्रों को दान देता तथा दीन दरिद्रों, अंगहीन पुरुषों को करुणापूर्वक दान देता था जो दान इस लोक परलोक दोनो भवों में महान सुख का कारण है । वह जिन मन्दिरों, जिन प्रतिमाओं, तीर्थ क्षेत्रों मादि सप्त क्षेत्रों को जो शांति रूपी धान के उपजाने में कारण है उनकी यावश्यकतामों को अपने धन रूपी जल वर्षा से पूरी करता था पौर परोपकार करना तो उसके जीवन का एक मात्र उद्देश्य था। स्वभाव में बड़ा कोमल था। विद्वानों से उसे प्रेम था इस कारण लौकिक, पारलौकिक दोनों लोक सम्बन्धी कार्यों में सदा तत्पर रहता और प्रजा का प्राणों के समान रक्षण करता था। प्रीतिकर इस प्रकार मानन्द मोर उत्सव के साथ समय बिताने लगा। Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकरा य एक समय सुप्रतिष्ठपुर के सुन्दर उपवन चारण ऋषिधारी ऋजुमति और विपुलमति ज्ञान के धारक मुनि प्राए । प्रीतिकर तब बड़े वैभव के साथ पुरजन तथा परिजन सहित प्रत्यानंद को प्राप्त होकर मुनि के दर्शनार्थ गया । मुनिराज के चरणों में साष्टांग नमस्कार कर पदचात् भ्रष्ट द्रव्य से पूजा की और बड़ी विनती के साथ विनय की 'हे नाथ! मुझे संसार से पार करने वाले धर्म का उपदेश दीजिये । तव ऋजुमति मुनि ने उसे इस प्रकार संक्षेप में धर्म का स्वरूप कहा हे प्रीतिकर धर्म उसे कहते हैं जो संसार के दुःखों से छुड़ाकर उत्तम सुख को प्राप्त करने में कारण हो । वह धर्म दो प्रकार का है एक मुनि धर्मं दूसरा गृहस्य धर्मं । मुनियों का धर्म सर्व त्याग रूप होता है और गृहस्थ का धर्म एक देश त्याग रूप होता है । मुनि धर्म तो उन लोगों के लिए है जिनकी आत्मा पूर्ण बलवान है, जिनमें प्राप्त हुए कष्टों को सहन करने की पूर्ण शक्ति है और गृहस्थ धर्म मुनि धर्म को प्राप्त करने की सीढ़ी है। जिस प्रकार एक साथ सौ पचास सीढ़ी नहीं पढ़ी जा सकती उसी प्रकार साधारण लोगों में एकदम मुनि धर्म धारण करने की शक्ति नहीं होती श्रतएव मुनि धर्म प्राप्त करने के लिए उन्हें क्रम-क्रम से अभ्यास रूप ग्यारह प्रतिमानों का साधन करना चाहिए जिनका मुनियों ने निरूपण किया है। उनके यथाक्रम ठीक-ठीक अभ्यास करने से वे ही श्रावक के व्रत ग्यारवी प्रतिमा में महाव्रत रूप को प्राप्त हो जाते हैं इसीलिए अल्प शक्ति वाले पुरुषों को पहले गृहस्थ धर्म धारण करना पड़ता है। मुनि धर्म और गृहस्थ धर्म में सबसे बड़ा अन्तर तो यह है कि मुनि धर्म तो साक्षात मोक्ष सुख का कारण है और दूसरा परम्परा मोक्ष सुख का कारण है श्रावक धर्म मूल कारण है सम्यग्दर्शन का पालन । यही मोक्षबीज है । इसके प्राप्त किए बिना सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र होता ही नहीं । सम्यग्दर्शन के बिना जो ज्ञान है वह मिथ्या ज्ञान कहलाता है और व्रत आदि का धारण करना कुचारित्र है प्रतएव ज्ञान और चारित्र की अपेक्षा सम्यग्दर्शन की मुख्यतया उपासना की जाती है इसी अभिप्राय से यद्यपि द्रव्यलिंगी मुति चारित्र धारण करता है तथापि सम्यक्त्व रहित होने से मोक्षमार्गी नहीं कहा है क्योंकि उसे जीव के स्वभाव विभाव का दृढ़ निश्चय हुए बिना कर्तव्य प्रकत्र्तव्य की यथार्थं प्रवृत्ति नहीं हो सकती। इसके जाने बिना और उद्देश्यों के समझे बूझे बिना व्रत श्रादि धारण करने में अन्धे की दौड़ के समान अपनी असली स्वाभाविक सुख अवस्था को वह नहीं पा सकता इसीलिए प्रत्येक व्यक्ति को सबसे पहले सम्यग्दर्शन को इसके प्राठों अंगों सहित पालना चाहिए सम्यक्त्व धारण करने के पहले मिथ्यात्व को छोड़ना चाहिए क्योंकि मिध्यात्व ही प्रात्मा का एक ऐसा प्रबल शत्रु है जो इस जीवात्मा को अनन्तकाल पर्यन्त इस संसार चक्र में घुमाया करता है। मिथ्यात्व का संक्षिप्त लक्षण है जिन भगवान के द्वारा उपदिष्ट तत्व या धर्म से उल्टा चलना और धर्म से यही उल्टापन दुःख का कारण है इसीलिए आत्म हितेच्छु भव्य पुरुषों को मिथ्यात्व के परित्याग पूर्वक शास्त्र अभ्यास द्वारा अपनी बुद्धि को दर्पणवत् निर्मल बनाकर मद्य मादि भ्रष्ट पदार्थों का त्याग कर श्रावक के अहिंसा आदि बारह उत्तर गुणों को धारण करना चाहिए । ये मद्य त्याग प्रादि आठ मूल गुण धारण करने के पीछे धारण किए जाते हैं और मूल गुणों से उत्कृष्ट हैं इसीलिए उन्हें उत्तर गुण कहते हैं । मद्य, मांस आदि के त्यागी को रात्रि भोजन का, चर्म पात्र में रखे हुए हींग, घी, जल, तेल आदि का तथा कन्दमूल, प्रचार, मुरब्बे तथा मक्खन का भी त्याग कर देना शाहिए क्योंकि इनके खाने से मांस त्याग व्रत में दोष आता है। जुम्रा खेलना, मांस भक्षण, मदिरा पान, वेश्या सेवन, शिकार खेलना, चोरी करना, परस्त्रीगमन ये सप्त व्यसन दुर्गति के दुस्सह् दुःखों को प्राप्त करने वाले जान सर्वथा त्यागने योग्य है। इनका सेवन कुल, जाति, धन, जन, शरीर, सुख, कीर्ति १७६ Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार गंध मान मर्यादा प्रादि सबका नाश करने वाला है। इनमें लवलीन (पासक्न) पुरुषों को इस लोक और परलोक दोनों भवों में कष्ट उठाना पड़ता है। इन दृर्य लनों के सेवन में जिन-जिन व्यक्तियों ने महान दुःख उठाना वे पुराण प्रसिद्ध हैं। इनके नाम ये हैं - जया खेलने से महाराजा युधिष्ठिर ने, मांस भक्षण से राजा बक ने, मद्यपान करने से यदुवंशियों ने, वेश्या सेवन करने से चारुदत्त सेठ ने, चोरी करने से शिवभुति ब्राह्मण ने, शिकार खेलने से ब्रह्मदत्त अन्तिम चक्रवर्ती ने, और पर स्त्री की अभिलाषा करने से रावण ने बड़ी विपत्ति उठाई थी । प्रतएव इनको दुर्गति एवं दुःखों का कारण जानकर दूर हो से मन, वचन, काय और कृत, कारित, अनुमोदनापूर्वक त्याग कर देना चाहिए । इनके अतिरिक्त जल का छानना पात्रों को भक्तिपूर्वक दान देना श्रावक का मुख्य कर्तव्य है। ऋषियों ने पात्रों के तीन प्रकार बतलाग हैं -उत्तम पात्र-मुनि, मध्यम पात्र ती धावक और जघन्य पात्र-अविरत सम्यग्दृष्टि। इनके अतिरिक्त जा दीन, दुःखी, रोगी अंगहीन आदि हैं इनको करुणा बुद्धिपूर्वक दान देना चाहिए। सत्पारों को जो थोड़ा भी दान देते हैं उनको उस दान का फल बटबीजवत् अनन्न गुणा मिलना है। जिन भगवान का अभिषेक करना, जिन प्रतिमानों की प्रतिष्ठा करना. रथोत्सव करना, तीर्थयात्रा करना प्रादि भी श्रावकों के मुख्य कर्तव्य हैं । ये सब दुर्गति एवं दुःखों का नाश कर स्वगं या मोक्ष सुख के प्रदान करने वाले हैं अतएव अात्महितेच्छक धर्मात्मानों को इस प्रकार अपना धार्मिक जीवन बना कर अन्त में भगवान का स्मरण चितवन पूर्वक संन्यास मरण करना चाहिए । यही जीवन की सफलता का सच्चा और सीधा मार्ग है। इस प्रकार मुनिराज द्वारा यथार्थ धर्म का उपदेश सुनकर बहुत सज्जनों ने मिथ्यात्व का त्याग कर व्रत. नियम आदि ग्रहण किये। जैनधर्म पर उनकी खड्ग से भेदे जल के समान निश्चल श्रद्धा हो गई। प्रोतिकर ने मुनि महाराज को नमस्कार कर पुन: प्रार्थना की, हे भगवन् करुणानिधान योगिराज ! कृपा कर मुझे मेरे पूर्व भव का वृतान्त सुनाइये। तव निराज बोले-हे राजा ! सुनो। इसी उपवन में कुछ समय पहले सागरसेन नाम के मुनि पाकर ठहरे थे। उनके ग्राममन का समाचार सुनकर अत्यानन्द को प्राप्त हुए उनके दर्शनार्थ प्रायः राजा मादि पुरजन बड़े गाजे-बाजे और प्रानन्द उत्सव के साथ आये थे। वे मुनिराज की पूजा स्तुति कर नगर में वापिस चले गये । तब एक वहां निकटस्थ सियार ने अपने चित्त में विचार किया कि ये नगर निवासी मनुष्य बड़े गाजे-बाजे के साथ किसी मर्नेको डालकर गये हैं । अतः वह उस मुर्दे को खाने के साहस से प्राया। उसे प्राता देखकर मुनिराज ने अवधिज्ञान द्वारा भव्य जानकर और यह सोचकर कि चाहे अभी इसके मन में दुर्ध्यान है परन्तु यह दूसरे भव में व्रतों को धारण कर मोक्ष जायेगा अतएव इसको संबोधित करना आवश्यक है। ___ मुनिराज ने उसे समझाया-हे अज्ञानी पशु ! तुझे मालूम नहीं कि पाप का परिणाम वहुत ही बुरा होता है । देख पाप ही के फल से तुझे इस पशु पर्याय में आना पड़ा और फिर तू पाप करने से मुह न मोड़कर मृतक कलेवर का मांस भक्षण करने के लिए इतना व्यग्र हो रहा है। यह कितने प्राश्चर्य की बात है। तेरी इस इच्छा को धिक्कार है। प्रिय तुझको उचित है कि तेरा जब तक नरकों में पतन न हो उससे पहले अपने उद्धार का यत्न कर ले । तूने अब तक जिनधर्म को ग्रहण न कर बहुत दुःख उठाया पर अब तेरे लिए बहुत अच्छा समय है। इसको व्यर्थ न खोकर कुछ आत्महित की इच्छा यदि रखता है तो त इस पुण्य पथ पर चलना सीख । सियार की होनहार प्राछी थी या उसकी काललब्धिमाई थी यही कारण था कि वह मुनि के उपदेश को सुनकर बहुत शांत हो गया। उसने जान लिया कि मुनिराज मेरी अंतरंग इच्छा को जान गये । मुनिराज उसको शांत चित्त देखकर पुनः कहने लगे'हे प्रिय ! तू और प्रतों को तो धारण नहीं कर सकता इसलिए तू केवल रात्रि का ही खाना पीना Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ णमोकार ग्रंप छोड़ दे ! यह व्रत सब बलों का मूल और सब प्रकार के सूखों का देने वाला है' सियार ने उपकारी मुनिराज के वचनों को सुनकर रात्रि भोजन त्याग वत ग्रहण कर लिया। कुछ दिनों तक तो उसने इसी बत को पाला पश्चात मांस भक्षण का भी त्याग कर दिया। उसे जो कुछ न्यून अधिक पवित्र भोजन मिल जाता तो कर लेता नहीं तो निराहार ही गुरु का स्मरण चितवन करता हुप्रा संतोष और साम्यभाव पूर्वक समय व्यतीत करने लगा। इस वृत्ति से उसका शरीर बहुत कुश हो गया। ऐसी दशा में एक दिन उसे केवल शुष्क आहार ही खाने को मिला । ग्रीष्म ऋतु का समय था। सियार तब बहुत तृषातुर हमा वह एक कुएं पर पानी पीने को गया। भाग्य से कुएं में पानी भी बहुत नीचे मिला। जब वह पानी पीने की इच्छा से कुएं में उतरा तो वहां उसे अंधकार ही अंधकार मालम होने लगा क्योंकि वहाँ सुयं के प्रकाश का संचार न था इसलिए सियार ने समझा कि रात हो गई अतः वह बिना पानी पिये कुये के या। बाहर आकर जब उसने सूर्य को देखा तो फिर पानी पीने के लिए नीचे उतरा और फिर पूर्ववत् अन्धकार के भ्रम से रात्रि समझकर वापिस लौट आया। इस प्रकार वह कितनी ही बार उतरः वहा पर पानी न पी । अल्ल बार-बार उतरनेचढ़ने से वह इतना अशक्त हो गया कि फिर उससे बाहर नहीं पाया गया। तब वह और भी घोर अंधकार के होने से सूर्य को अस्त हमा जानकर संसार समुद्र से पार करने वाले अपने गुरु महाराज का चितवन करने लगा। तृषा रूपी अग्नि उसके तन को भस्म किये डालती थी । परन्तु तब भी वह अपने व्रत में बहुत दृढ़ रहा । उसके परिणाम क्लेश रूप आकुल व्याकुल न होकर बढ़े शांत रहे अन्त में उसी दशा में मर कर कबेरदत्त और उसकी स्त्री धनमित्रा के त प्रीतिकर हना है. तेरा यही अन्तिम शरीर है । अब त कर्मों का नाश कर मोक्ष जायेगा इसीलिए सत्पुरुषों का कर्तव्य है कि कष्ट के उपस्थित होने पर वतों की धैर्यपूर्वक दृढ़ता से रक्षा करे । इस प्रकार मुनिराज के मुख से प्रीतिकर के पूर्वभव का वृतांत सुनकर उपस्थित मंडलो के जनों की जिनधर्म पर अचल व पूर्ण श्रद्धा हो गई और बहुत से मनुष्यों ने यथाशक्ति प्रत धारण किये । प्रीतिकर ने अपने इस पूर्व जन्म के वृतान्त को सुनकर जिनधर्म की बहुत प्रशंसा की और अन्त में उन परोपकार के करने वाले मुनिराज के चरण कमलों को भक्ति से नमस्कार कर व्रतों के प्रभाव को हृदय में विचारता हुआ वह अपने घर पर पाया। मुनिराज के उपदेश का उस पर बहुत गहरा असर पड़ा। उसे अब संसार अस्थिर विषय भोग दुःखों के देने वाले शरीर अपवित्र वस्तुमों से भरा महा घिनावना और जल के बुदबुदेवत् महाविनाशी, धन सम्पदा उल्कापातवत् चंचल मौर केवल बाहर से देखने में सुन्दर प्रतीत होने वाली तथा स्त्री, पुत्र, भाई, बन्धु आदि ये सब अपनी प्रात्मा से पृथक जान पड़ने लगे। उसने सोचा कि ये अपने-अपने स्वार्थ के सगे हैं। किसी रोग अथवा प्रापत्ति के माने पर सब दूर चले जाते हैं । यदि कोई अपना हितकारी है तो वही श्री गुरु हैं जो निष्प्रयोजन हम लोगों को भवसागर में डुबते हुए हस्तावलम्बन देकर पार लगाते हैं। सब वस्तुएं क्षण भंगुर हैं। जब हमारा रात दिन पालन पोषण किया हुआ शरीर नाश होने वाला है तो इससे सम्बन्धित पदार्थ भी अवश्य ही नाशवान हैं इसलिए अवसर पाकर हाथ से नहीं देने देना चाहिये और फिर यह समय हाथ नहीं पायेगा । काल अचानक पाकर अपना ग्रास बना लेगा और ये सब विचार यहां के यहीं रह जायेंगे। प्रतएव प्रब संसार में भटकने वाले इस मोह जाल को तोड़कर आत्महित करना उचित है । इस शुभ संकल्प के दृढ़ होते ही प्रीतिकर ने पहले अभिषेक पूर्वक भगवान की सब सुखों को देने वाली पूजा की, खूब दान किया। और दुःखी अनाथ अपाहिजों की सहायता की। अन्त में अपने प्रियकर पुत्र को राज्य देकर अपने बन्धु-बान्धयों की सम्मति से योग लेने के लिए विपुलाचल पर भगवान Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार ग्रंथ बर्द्धमान के समवसरण में पाया और उन त्रिलोक पूज्य भगवान के पवित्र दर्शन कर उसने भगवान के द्वारा जिनदीक्षा धारण कर ली। इसके पश्चात् अनेक प्रकार की परिषहों को साम्यभाव पूर्वक सहा करते हुये नाना उग्र तपश्चरण करने लगे और अंत में शुक्लध्यान के प्रभाव से घातिया कमों का नाश करके केवलज्ञान प्राप्त किया। उनके केवल ज्ञान को प्रगट हुआ जान कर विद्याधर, चक्रवर्ती, स्वर्ग के देव आदि बड़े बड़े महापुरुष उनके दर्शन, पूजन को माने लगे। प्रीतिकर भगवान ने तब संसार तम को नाश करने वाले पवित्र उपदेशामृत से अनेक जीवों को दु:खों से छुटाकर सुखी बनाया। अन्त में प्रधानिया कर्मों का भी नाशकर परम पद मोक्ष स्थान को कम करते पर वे काका, नहीं रहेंगे। ऐसे श्री प्रोतिकर स्वामी मुझे शान्ति प्रदान करें। जो एक अत्यन्त अज्ञानी पशु योनि में जन्मे सियार ने भगवान के पवित्र धर्म का अंशतः व्रत अर्थात केवल रात्रि भोजन त्याग व्रत स्वीकार कर मनुष्य जन्म प्राप्त किया और उसमें प्रानन्द पूर्वक सुरू भोगकर अन्त में अविनाशी मोक्ष लक्ष्मी की प्राप्ति की तब उसे यदि गृहस्थजन धारण करें तो फिर उन्हें क्यों न उत्तम गति प्राप्त हो अर्थात् अवश्य होगी। मथ जीव या प्रकरण : सब जीवों को अपने प्राणों के समान जानकर उनको किचित दु:ख या कष्ट देने के परिणाम न रखना किन्तु दुःखी जीवों के दुख दूर करने की इच्छा रखना दया है। ऐसा जानकर प्रात्महितेच्छुक धर्मात्मा पुरुषों को चाहिये कि जिनपूजा, पात्र दान और कुटुम्ब के पालन पोपण श्रादि के लिए खेती व्यापार आदि आजीविका के कार्यों में जीवमात्र पर दया रखते हुए यत्न पूर्वक प्रवृत्ति करे क्योंकि सदा सब प्राणी अपने-अपने प्राणों की रक्षा चाहते हैं जिस प्रकार अपने प्राण अपने को प्रिय हैं उसी प्रकार ऐकेन्द्रिय से पंचेद्रिय पर्यन्त सब प्राणियों को अपने-अपने प्राण प्यारे हैं। जैसा कि कहा गया है प्राणायथ्यात्मनो भोटा, भूतानामपितेतथा। आत्मौपम्येन भूतानां बयां कुर्वीतमानवः ॥ अर्थ-जिस प्रकार तुम्हें अपने प्राण प्रिय हैं उसी प्रकार सब जीवों को अपने-अपने प्राणप्रिय हैं। इसीलिए मनुष्यों को अपनी आत्मा की तरह सब जीवों पर दया करनी चाहिये । जिस प्रकार अपने पैर में जरा सा कांटा लगने पर भी वे तजनित वेदना को सहन नहीं कर सकते उसी प्रकार कीड़े घोंटी आदि विकलत्रय तथा पशु, मनुष्य प्रादि कोई भी प्राणधारी दुःख भोगने की इच्छा नहीं करते और न उसके कष्ट को सह सकते हैं अतएव जीवों को अपने मामा के समान दुःखों का अनुभव कर रंचमात्र कष्ट न पहुंचाना चाहिये । धर्म का मुख्य सार यही है कि अपने को अनिष्ट लगने वाले, प्रात्मा के प्रति कूल जो दुःख आदि है उन्हें किसी दूसरे जीव को मत दो। सदा सब पर दया करो। यह दया ही धर्म का मूल है। अहिंसा परमो धर्मः यह शास्त्र वाक्य भी है। इसके विषय में अन्य ग्रन्थों में भी लिखा ही है अहिंसा लक्षणो धर्मो, षर्म: प्राणिनां वधः । तस्माद्धर्माधिभिलोंके, कर्तव्या प्राणिना क्या । अर्थ-जिसमें अहिंसा है वह धर्म और जिसमें जीवों का वध है वह प्रधर्म है। इस कारण धर्माभिलाषी पुरुषों को सदा सब जीवों पर दया करनी चाहिये। जिसके हृदय में क्या नहीं है वह जैन धर्म धारण करने का पात्र नहीं क्योंकि निर्दयी मनुष्य के हृदय में बीज के बिना वृक्ष की तरह पहिंसा लक्षण धर्म की उत्पत्ति, स्थिति और वृद्धि कदापि नही हो सकती ऐसा जानकर निरन्तर जीवमात्र पर दया करता योग्य है दया पालक में हिंसा, झूठ, खोरी, कुशील का स्वत: त्याग होकर सब गुण माकर निवास करते हैं। Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० णमोकार बंथ देव बंदना सर्वज्ञ, हितोपदेशी परम पीतरागो शान्तस्वरूप श्री अरिहन्त देवाधिदेव की जीवन्मुक्त साक्षात् अवस्था में अथवा उसी सकल परमात्मा के स्मरणार्थ और परमात्मा के प्रति प्रादर सत्कार रूप प्रर्वतन के पालम्बन स्वरूप स्थापना, निक्षेप से मित्रों द्वारा प्रतिष्ठित तदाकार प्रतिबिम्ब रूप में विशुद्ध अन्तः करण से अपना भाग्योदय समझ अत्यन्त हर्षित होते हुए दर्शन करने, परमात्मा के गुणों में अनुराग बढ़ाने परमात्मा का भजन और स्वरूप का चिंतन करने रूप देव बन्दना करने से इस जीवात्मा को मागामी दुःखों और पापों की निवृत्तिपूर्वक महत् पुण्योपार्जन होता है पुनः वीतराग और परम शान्त मूति के निरन्तर सप्रेम दर्शन आदि करने से सम्यकत्व की निर्मलता, धर्म में श्रद्धा और अन्तःकरण शुद्ध होता है। इस देव वंदना का अन्तिम फल मोक्ष कहा है । इसका तात्पर्य यह है कि जो जीवात्मा गृहस्थ के प्रपंच व संसार के मोह जाल में फंसे हए हैं उनका प्रात्मा इतना बलिष्ठ नहीं होता है कि जो केवल शास्त्रों में परमात्मा का स्वरूप वर्णन सुनकर अर्थात् प्रागम द्वारा परमात्मा का स्वरूप जानकर एकाएक बिना किसी चित्र के पालम्बन के परमात्मा के स्वरूप का चित्र अपने हृदय में अंकित कर ही इस मूर्ति के द्वारा परमात्मा स्वरूप का कुछ ध्यान और चितवन करने में समर्थ हो अपने प्रात्म स्वरूप की प्राप्ति अवसर हो जाती है। जिस प्रकार जब कोई चित्रकार चित्र खींचने का अभ्यास करता है तब वह सबसे पहले सुगम और सरल चित्रों को देखकर चित्र खींचने का अभ्यास करता है एकदम किसी कठिन और गहन चित्र को नहीं खींच सकता जब उसको दिन प्रतिदिन का अभ्यास पड़ जाता है तब वह कठिन और गहन चि, बनाने के साथ-साथ छोटे को बड़ा और बड़े को छोटा भी बनाने लगता है। जब वह उत्तरोत्तर अभ्यास करते-करते चित्रकारी में पूर्णतया दक्ष हो जाता है तब चित्र नायक के बिना देखे ही केवल उसको व्यवस्था जानकर उसका साक्षात् चित्र अंकित करने लग जाता है । उसी प्रकार यह संसारी जीव भी एकदम निरालम्बन परमात्मा का ध्यान नहीं कर सकता इसीलिए वह परमात्मा की ध्यान मुद्रा पर से ही अपना अभ्यास बढ़ाता है । मूर्ति के निरन्तर दर्शन आदि अभ्यास में जब यह ध्यान मुद्रा से परिचित हो जाता है तब शनैः शनैः एकान्त में स्थित होकर उस मूर्ति का चित्र अपने हृदय पर अंकित करने लगता है ऐसा करने से उसका प्रात्मबल, मनोबल दिनोंदिन वृद्धि को प्राप्त होकर । मूर्ति के नायक श्री अरिहन्त देवाधिदेव की समवशरण प्रादि विभूति सहित साक्षात चित्र को अपने हृदय में प्रतिकृति करने लगता है इस प्रकार के ध्यान को रूपस्थ ध्यान कहते हैं और वह ध्यान प्रायः मुनि अवस्था में ही होता है। प्रात्मीय बल के इतने उन्नत हो जाने की अवस्था में फिर उसको धातु पाषाण की मूर्ति पूजन प्रादि अर्थात् परमात्मा के ध्यान आदि के लिए मूर्ति का पालम्बन लेने की प्रावश्यकता नहीं रहती। किन्तु वह रूपस्थ ध्यान के अभ्यास में परिपक्व होकर विशेष उन्नति कर साक्षात् सिद्धों के चित्र को खीचने लगता है । इस प्रकार ध्यान के बल से वह अपनी आत्मा के कर्ममल को पृथक् करता रहता है और फिर उन्नति के सोपान पर चढ़ता हुमा प्रशस्त शुक्लध्यानाग्नि के बल से समस्त कर्मों का क्षय कर देता है और इसी प्रकार अपने प्रात्मत्व को प्राप्त कर लेता है और उस प्रवस्था को प्राप्त करना अर्थात् परमात्मा बनना सब ग्रात्माओं को प्रभीष्ट है। अब प्रात्म स्वरूप की दूसरे शब्दों में ओं कहिये कि परमात्मा स्वरूप को प्राप्ति के लिए परमात्मा की भक्ति, पूजा और उपासना करना हमारा परम कर्तव्य है परमात्मा का ध्यान, परमात्मा के गुणों का चितवन ही हमें अपनी पात्मा का स्मरण कराता है । अपनी भूली हुई निधि की स्मृति कराता है। इसका अभिप्राय यह है कि परमात्मा का दर्शन, स्तवन और पूजन करना हमारी पारमा के लिए पात्मदर्शन का प्रथम सोपान है और Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार ग्रंथ इसकी पावश्यकता प्रथमावस्था अर्थात् गृहावस्था ही में होती है यही कारण है कि हमारे प्राचार्यों ने परमात्मा की पूजा, भक्ति, उपासना करना गृहस्थों का मुख्य धर्म बताया है । यथा श्री पद्मनंदि प्राचार्य गृहस्थों के लिए दर्शन. स्तवन और पूजन की अत्यन्त प्रावश्कता को प्रकट करते हुए लिखते हैं : ये जिनेन्द्र न पश्यंति, पूजयंति स्तुवंति न।। निष्फलं जीवितं तेषां तेषाधिकच गृहाश्रमम् ।। अर्थ-जो जिनेन्द्र भगवान को पूजन, दर्शन और स्तवन नहीं करते उनका जीवन निराफल है और उनके गृस्थाश्रम को धिक्कार है। तथा सुभाषितावली से श्री सकनकी नि आचार्य ने यहां तक लिखा है-- पूजा विना न कुर्येत् भोग सौख्यादिक कदा।' अर्थात् गृहस्थों को भगवान का पूजन किए बिना कदापि भोग, उपभोग आदि न करना चाहिए। सबसे पहले पूजन करके फिर अन्य कार्य करने चाहिए तथा इसी आवश्यकता को प्रकट करते हुए श्री स्वामी कुंदकंदाचार्य रयणसार में यहां तक लिखते हैं : पाणं पूजा भूमवं, सायधम्मो साथया तेणविण।। झाणमयणं मुक्खं, जइ धम्मो तं विणा सोवि ॥ प्रर्थ-दान देना और पूजन करना धायक का मुख्य धर्म है। इसके बिना कोई धावक नहीं कह ला सकता और ध्यानाध्ययन करना मुनि का मुख्य धर्म है । जो इससे रहित है वह मुनि नहीं है। भावार्थ - यह है कि मुनियों के ध्यानाध्ययन की तरह दान देना और पूजन करना ये थावक के मुख्य कर्तव्य कर्म हैं । इत्यादि उपरोक्त वाक्यों से स्पष्ट विदित होता है कि पूजन करना गृहस्थ का धर्म तथा नित्य और प्रावश्यक कर्म है । विना पूजन के मनुष्य जन्म निष्फल और गृहस्थाश्रम धिक्कार का पात्र है। बिना पूजन के कोई गृहस्थ श्रावक का नाम ही नहीं पा सकता । यथा :. प्राराध्यते जिनेन्ना गुरुपू ष विनति धामिर्क: प्रोतिरुच्चं, पात्रेभ्यो दानमापन्निहत जनकृते तच्च कारुण्य बुद्धया। __ तत्वाभ्यासः स्वकोयवतरतिरमल वर्शनं यत्र पूज्यं, तमाहस्थ्यं बुधानामितरविह पुन:खदो मोहपाशः ।। अर्थ---जिनेन्द्र देव की आराधना, गुरु के समीप विनय, धर्मात्मा लोगों पर प्रेम, सत्पात्रों को दान, विपत्ति में फंसे हुए लोगों का करुणा बुद्धि से दुःख दूर करना, तत्वों का अभ्यास, अपने व्रतों में लीन होना और निर्मल सम्पग्दर्शन का होना-ये सब क्रियाएं जहां मन, वचन, काय से होती हैं वही गहस्थपना को मान्य है और जहां ये क्रियाए' नहीं हैं वहीं गृहस्थपना इस लोक और परलोक दोनों में दःख देने वाला केवल मोह का जाल है अतएव यात्महितेन्छूक सभी प्राणियों को मोक्ष रूपी महानिधी को प्राप्त कराने वाली यह देव वन्दना अर्थात् जिन दर्शन, पूजन प्रादि पूर्ण शक्ति एवं योग्यता के अनुसार अपना कर्तव्य समझकर नित्य अवश्य ही करना चाहिए। पूजन कई प्रकार की होती है यथा भगवज्जिनसेन प्राचार्य ने आदिपुराण में लिखा है प्रोक्ता पूज्याहतामिया, साचतुर्धासदाचर्नम् । चतुर्मुखमहः कल्प, व मश्चाष्टान्हिकोऽपि च ॥ अर्थ-अरहंतों की पूजा का नाम इज्या है और वह चार प्रकार की है -नित्यमह. अप्टान्हिकमह, चतुर्मुख और कल्पवृक्ष । इनके अतिरिक्त एक पांचवां ऐंद्रध्वज यज्ञ है जिसको इन्द्र ही करता है। Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ णमोकार प्रय चतुर्मख प्रादि पूजा सदा काल नहीं बन सकती और न ही वर्तमान समय में सब गृहस्थ जैनियों से इसका अनुष्ठान हो सकता है। अतएव मव साधारण नियों के लिए नित्य पूजा को हो मुख्यता है अर्थात् सभी नित्य पूजा कर सकते हैं । नित्य पूजा का मुख्य स्वरूप भगबज्जिनसेनाचार्य ने प्रादिपुराण में इस प्रकार लिखा है तत्र नित्यमहोनाम, शश्वजिनगृहं प्रति । स्वगृहाम्नीयमानाऽ , गंधपुष्पाक्षसाविका ॥ अर्थ-प्रत्येक दिन जिन मन्दिर में अपने घर से गन्ध, अक्षत, पुष्प प्रादि पूजन की सामग्री ले जाकर प्रतिदिन जिनेन्द्रदेव की पूजा करने को नित्यमह कहते हैं। ऐसा ही धर्मसंग्रहश्रावकाचार में जलाचं धौतपूतांगे, हामीतसिमालयम् । यक्षर्यते जिनायुक्तया, नित्य पूजाऽभ्यधापिसा ॥ प्रथ --पवित्र शरीर होकर गहस्थ लोग जो अपने गृह से लाए हुए जल, चन्दन, अक्षत, पुष्प आदि द्रव्यों से जिन भगवान की पूजन करते हैं वह नित्य पूजा कही जाती है। पुनः देवार्चनं गृहेस्वस्य, त्रिसंध्यं वेव वंदनम् । मुनि पावर्चनं वाने, सोऽपि नित्यार्थतामता ।। अर्थ-अपने घर में जिन भगवान की पूजन करना, तीनों काल देव वन्दना करना तथा दान देने के समय मुनियों के चरणों की पूजन आदि करना ये सब नित्य पूजन के भेद हैं अतएव प्रत्येक गृहस्थ को पूजन या दर्शन करने के लिए अपनी शक्ति एवं योग्यता के अनुसार अष्ट द्रव्य अवश्यमेव निरन्तर अपने घर से ले जाकर इन्द्र आदि देवों के द्वारा पूज्य परमात्मा वीतराग सर्वश देव की प्रतिदिन पूजा करनी चाहिए । प्रकट रहे कि दर्शन के समय जो जिनेन्द्र देव आदि की स्तुति पूर्वक नाम आदि का उच्चारण करके जिन प्रतिमा के सम्मुख एक दो प्रादि द्रव्य चढ़ाए जाते हैं सामान्यतः वह भी नित्य पूजन है। उपरोक्त कथन का अभिप्राय यह नहीं हैं कि द्रव्य के बिना मन्दिर जी में जाना ही निषिद्ध है। जाना निषिद्ध नहीं हैं क्योंकि यदि किसी समय द्रव्य उपलब्ध न हो तो केवल भाव पूजन भी हो सकता है । तथापि गृहस्थों के लिए द्रव्य से पूजन करने की अधिक मुख्यता है । इस कारण नित्य पूजन का ऐसा स्वरूप वर्णन किया है । पूजन फल प्राप्ति के विषय में पूजन के संकल्प और उद्यममात्र से देवगति को प्राप्त करने वाले मेंढक की कथा सर्वत्र जैन शास्त्रों में प्रसिद्ध है । यथा---पुण्यास्त्रयकोश, महावीरपूराण, धमसग्रहथावकाचार आदि अब यहा उस कथा का सार लिखा जाता है। यह भरत क्षेत्र जिसमें हम सब प्राणी निवास कर रहे हैं जम्बूद्वीप के सुदर्शन मेरु को दक्षिण दिशा में है । इसमें अनेक तीर्थंकरों का जन्न हुआ है अतएव यह महान् व पवित्र है । मगघ भारतवर्ष में एक प्रसिद्ध और घनशाली देश है मानों सारे संसार की लक्ष्मी जैसे यहीं पाकर एकत्रित हो गई हो। यहां के निवासी प्रायः सभी धन सम्पत्ति युक्त, धर्मात्मा, उदार और परोपकारी हैं। जिस समय का यह व्याख्यान है उस समय मगध देश की राजधानी राजगृह नामक एक बहुत मनोहर नगर था। सब प्रकार के उत्तमोत्तम भोगोपभोग योग्य पदार्थ वहां बड़ी सुलभलता से प्राप्त होते थे। विद्वानों के समूह वहां निवास करते थे । वहां के पुरुष देवों से और स्त्रियां देव बालानों से कहीं बढ़कर सुन्दर थीं । स्त्री-पुरुष प्रायः सब ही सम्यक्त्व रूपी भूषण से सपने को विभूषित किए हुए थे और इसीलिए राजगृह उस समय Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार पंथ १५३ पा. मध्य लोक का स्वर्ग कहा जाता था। वहाँ समस्त देश में बहुषा विशेषतया जैनधर्म का प्रचार था। उसे प्राप्त कर सर्वसाधारण सुख शान्ति का लाभ करते थे। उस समय उसके राजा श्रेणिक थे। श्रेणिक धर्मज्ञ उदार मन, न्यायप्रिय, प्रजाहितैषी और बड़े विचारशील थे। जैनधन और जैनतत्व पर उनको पूर्ण विश्वास था। भगवान के चरण कमलों की भक्ति उसे इतनी प्रिय थी जितनी भ्रमर को कमलिनी। इनका प्रतिद्वन्दी या कोई शत्रु नहीं था। वे निर्विधन राज्य किया करते थे । सदाचार में उस समय उनका नाम सबसे ऊंचा था। सत्पुरुषों के लिए वे शीतल चन्द्रमा थे। प्रजा को अपनी सन्तान के समान पालते थे। श्रेणिक के कई रानियां थी। चेलना उन सबमें उन्हें सबसे अधिक प्रिय थी । सुन्दरता, गुण और चतुरता में चेलना का प्रासन सबसे ऊँचा था। उसे जैन धर्म से, भगवान की पूजा प्रभावना से बहुत प्रेम कृत्रिम भूषणों द्वारा सिंगार करने को महत्व न देकर उसने अपनी मात्मा को अनमोल सम्यग्दर्शन रूप भूषण से विभूषित किया था। जिनवाणी सब प्रकार के ज्ञान-विज्ञान से परिपूर्ण है और इसीकारण वह सुन्दर है। चेलना में किसी प्रकार के ज्ञान-विज्ञान की कमी न थी इसलिए उसकी रूप सुन्दरता ने और पधिक सौन्दर्गा कर लिया था। राजगृही में एक नागदस नाम का सेठ रहता था। वह जैनी न था। उसकी स्त्री का नाम भवदता था। नागदत्त बड़ा मायाचारी था। सदा माया के जाल में वह फंसा हुप्रा रहता था। इस मायाचार के पाप से मरकर वह अपने घर के प्रांगन की बावड़ी में मेंढक हुआ। नागदत्त यदि चाहना तो कर्मों का नाश कर मोक्ष चला जाता पर पाप कर वह मनुष्य पर्याय से पशु जन्म में आया और मेंढक हुमा । प्रतएव भव्य जनों को उचित है कि वे संकट-समय में पाप न करें। एक दिन भवदत्ता इस बावड़ी पर जल भरने को आई । उसे देखकर मेंढ़क को जाति स्मरण हो गया। वह उछल-उछल कर भवदत्ता के कपड़ों पर चढ़ने लगा । भवदत्ता ने भय के मारे उसे कपड़ों पर से भिड़क दिया । मेंढ़क फिर भी उछल-उछल कर उसके वस्त्रों पर चढ़ने लगा। उसे बार-बार अपने पास प्राता देखकर भवदत्ता बड़ो चकित हुई और डर भी लगा पर इतना उसे विश्वास हो गया कि इस मेंढक का और मेरा पूर्व भव का सम्बन्ध कुछ न कुछ अवश्य होना चाहिए क्योंकि ये मेरे बार-बार झिड़कने पर भी फिर-फिर आना है। प्रस्तु किसी मुनिराज का समागम होने पर मैं इसका वृतान्त अवश्य पूछगी। भाग्य से एक दिन अवधिज्ञानी सुव्रत मुनिराज राजगृही में प्राकर ठहरे। भवदत्ता को मेंढक का वृतान्त जानने की प्रति उत्कंठा थी प्रतएव मुनि प्रागमन का समाचार सुनते ही वह उनके पास गई। मुनि के युगल चरणों में सविनय नमस्कार कर प्रार्थना करने लगी-हे प्रभो ! मुझे मेंढक का पूर्व भव का वृतान्त जानने की अति उत्कंठा है अतः माप कृपा करके कहिए। सुव्रत मुनि ने तब उससे कहा जिसका तू हाल पूछने को आई है वह दूसरा कोई न होकर तेरा इसी भव का पति नागदत्त हैं । वह बहुत मायाचारी होने के कारण इस तिर्यंच (मेंढ़क) योनि को प्राप्त हुआ है। उन मुनिराज के संतोषजनक वचनों का श्रवण कर भवदत्ता अपने घर पर मा गई। उसने फिर मोहवश हो उस मेंढ़क को भी अपने यहां ला रखा । मेंढक वहां प्राकर बहुत प्रसन्न हुआ। अथानंतर इसी अवसर में वैभार पर्वत पर मन्तिम तीर्थंकर श्री महावीर भगवान का सेमवशरण पाया। वनमाली ने पाकर छहों ऋतु के फल-फूल लाकर राजा को समर्पित किए और विनय पूर्वक निवेदन किया कि स्वामिन् ! जिनके चरण कमलों की इन्द्र, नागेन्द्र, चक्रवर्ती, विद्याधर आदि सभी महापुरुष स्तुति पूजा करते हैं वे महावीर भगवान समवशरण विभूति सहित वैभार पर्वत पर पधारे हैं जिसके Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ णमोकार बम प्रभाव से षट् ऋतुओं के फल-फूल आ गए हैं। वापी, कूप, सरोवर प्रादि मिष्ट जल से भरपूर हो गये हैं । और सब वन, उपवन हरे-भरे दृष्टिगोचर हो रहे हैं। भगवान के प्रागमन का अानन्दमय समाचार सुनार राजा श्रेणिक बहुः प्रमज हुग गौर तत्क्षण दो सिंहासन से उतर कर सात पग चलकर भक्ति भाव से उन्होंने भगवान को परोक्ष नमस्कार किया। पश्चात् वनमाली को वस्त्राभूपण रूप पारितोषिक न्होंने नगर निवासी मनुष्यों को इस शभ समाचार से परिचित करवाने के लिए सारे नगर में मानन्द घोषणा करवा दी। श्रेणिक बड़े वैभव के साथ प्रानन्द भेरी बजवाते हुए परिजन और पुरजन सहित श्री वीर जिनेन्द्र की पूजा और बन्दना को चले। दूर से ही संसार का हित करने वाले भगवान के समवशरण को देखकर वे उतने ही प्रसन्न हुए जितने मेघ को देखकर मोर प्रसन्न होते हैं। __ जब समवशरण के निकट पहुंचे तब राजा पैदल चलने लगे । भगवान के समवशरण में प्रवेश र अत्यानन्द को प्राप्त होकर तीन प्रदक्षिणा देकर वीर जिनेन्द्र को साष्टांग नमस्कार किया। पश्चात उत्तमोत्तम द्रव्यों द्वारा भगवान की पूजा करके अंत में उनके गुणों का गान किया-हे भगवान दया के सागर । ऋषि महात्मा प्रापको 'अग्नि' कहते हैं। क्योंकि आप शुक्ल ध्यान रूपी अग्नि के द्वारा कम काष्ट को भस्म कर देने वाले हैं। पाप को मेघ भी कहते हैं वह इसलिए पाप प्राणियों को संतप्त करने वाली दुःख, शोक, चिन्ता, क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष प्रादि दावानलाग्नि को, अपने धर्मोपदेशामृत रूपी वर्षा से शांत कर देते हैं। आपको सूरज भी कहते हैं वह इसलिए कि आप अपनी उपदेश रूपी किरणों के द्वारा भव्यजन रूपी कमलों को प्रफुल्लित कर अज्ञान रूपी अन्धकार के नाशक और लोक अलोक के प्रकाशक हैं और आपको सर्वोत्तम वैद्य भी कहते हैं वह इसलिए कि धन्वन्तरि जसे वैद्य से भो नाश न होने वाली जन्म, जरा, मरण रूप व्याधि प्रापके उपदेशामृतरूप प्रौषधि के सेवन करने से जड़ मुल से नष्ट हो जाती है। आपको परम हितोपदेष्टा तथा परम हितैषी भी कहते हैं वह इसलिए कि आप अपनी दिव्य ध्वनि के द्वारा अनादि काल से अविद्या ग्रसित संसारी जीवों को उनकी प्रात्मा का स्वरूप और मोक्ष के कारणों वा संसार और संसार के कारणों का स्वरूप भली भांति दरशाते हैं जिससे अपना हित साधन करने में उनकी प्रवृति होती है। हे जगदीश ! जो सुख प्रापके पवित्र चरण कमलों की सेवा करने से प्राप्त हो सकता है वह अनेक प्रकार से कठिन परिश्रम के द्वारा भी प्राप्त नहीं हो सकता इसीलिग हे दया के सागर मुझ गरीब अनाथ को अपने चरणों की पवित्र और मुक्ति का सुख देने वाली भक्ति प्रदान कीजिए। जब तक मैं संसार से पार न हो जाऊँ।' इस प्रकार बड़ो देर तक श्रेणिक ने भगवान का पवित्र भावों से गुणानुवाद किया। तत्पश्चात् वे गौतम गणधर प्रादि महर्षियों की नाना प्रकार से स्तुति कर भक्ति पूर्वक प्रणाम कर अपने योग्य स्थान पर बैठ गए । भगवान के दर्शनों के लिए जिस समय राजा श्रेणिक जा रहे थे उस समय मेंढक भी जो नागदत्त श्रेष्ठी की बावड़ी में रहता था और जिसको अपने पूर्ण जन्म की स्त्री भवदत्ता को देखकर जाति स्मरण हो गया था वह भी तब बावड़ी में से श्री जिनेन्द्र की पूजा के लिए एक कमल की कली को अपने मुख में दबाए हुए बड़े प्रानन्द और उल्लास के साथ उछलता और कूदता हुमा नगर के लोगों के साथ समवशरण की ओर चल दिया। मार्ग में जाता हुअा वह मेंढक राजा श्रेणिक के हाथी के पैर के नीचे पाकर मर गया पर उसके परिणाम त्रिलोक पूज्य महावीर भगवान को पूजा में लगे हुए थे इसीलिए वह पूजा के प्रेम से उत्पन्न होने वाले पुण्य से सोधर्म स्वर्ग में महद्धिक देव हया 1 देखिए कहां तो मेंढक और कहां अब वह स्वर्ग का देव। सच है कि जिन भगवान की पूजा के फल से क्या नहीं प्राप्त होता अर्थात् जिन भगवान की पूजा से सब कुछ प्राप्त हो सकता है। एकदम Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार अंप प्रन्समाहर्त में वह मेंढक का बीय प्रांखों को चकाचौंध लाने वाला तेजस्वी पौर सुन्दर योवनावस्था का घारक देव बन गया । अनेक प्रकार के दिव्य रत्नमयी पलकारों की दीप्ति से उसका शरीर प्राच्छादित हो रहा था। अतिसुन्दर शोभा संयुक्त होने से बह ऐसा मालूम होता था, मानों रत्नराशि या रत्नशम बनाया गया हो । उसके सुन्दर बहुमूल्य वस्त्रों की शोभा मनुष्यों के पित्त को पकित करने वाली पी। उसके कंठ में अपनी सुगन्ध से दसों दिशात्रों को सुगन्धित करने वाले स्वर्गीय कल्प-वृक्ष अनित पुष्पों की माला अद्भुत शोभा दे रही थी। उसे अवधिकान से जान पड़ा कि मुझे जो यह सम्पत्ति मिली है और रोग हुभाईरसर भनगान की पूजा की रविन भावना का फल है अतएव सबसे पहले मुझे जाकर पतित पावन भगवान की पूजा करनी चाहिए । इस विचार के साथ ही प्रब वह अपने मुकुट पर मेंढक का चिन्ह बनाकर महावीर भगवान के समवशरण में प्राया। भगवान की पूजन करते हुए इस जीव के मुकूट पर मेंढक का चिन्ह देखकर श्रेणिक को बड़ा भापपर्य हुमा। तब राजा श्रेणिक ने हाथ जोड़कर गौतम भगवान से विनय पूर्वक पूछा-हे प्रभो ! संशयरूपी हृदयगत मन्धकार को नाश करने वाले सूरज 1 में इस मैठक के चिन्ह से मंफित शेखर नामक देव का विशेष वृतान्त सुनना चाहता हूं प्रतः रुपा करके कहिए । तब शान की प्रकाशमान ज्योति रूप गौतम भगवान ने श्रेणिक को नागदत्त के भव से लेकर ममापषि पर्यन्त सब कथा कह सुनाई। उसे सुनकर श्रेणिक को तथा अन्य भष्यजनों को बड़ा मानन्द हुमा । भगवान की पूजा करने में उनकी बड़ी या हो गई। जिन पूजन का इस प्रकार उत्कृष्ट फल जानकर अन्य भब्धजनों को भी उचित है कि वे सदाचार, सविद्या. धन, सम्पत्ति, राज्य वैभव, स्वर्ग तथा मोक्ष प्रावि के सुख का कारण जिन भगवान की पूजा पालस्य तथा प्रमाद रहित किया करें क्योंकि 'अब मुझको भी समवशरण में चलकर श्री जिनेन्द्र की पूजा करनी चाहिए। अब ऐसे संकल्प पार उद्यम करने मात्र से जिनपूजन करने वाला राजगृह नगर के सेठ नागदत्त का जीव स्वर्ग में भी पूज्य हुमा तो फिर जो अपने शरीर से प्रष्ट-द्रव्य लेकर तथा वचनों से मनेक प्रकार के शब्द और प्रर्षों के दोषों से रहित माधुर्य आदि गुण तथा उपमा प्रादि पलंकार संयुक्त गद्य पद्यमय रमणीय कामों के द्वारा जल चन्दन प्रादि सामग्री की स्वाभाविक निर्मलता और सुगन्ध मादि गुणों का वर्णन करते हुए तथा भगवान के गुणानुवाद पूर्वक पवित्र भावों में भगवान की पूजा करते हैं उसके सुख का तो पूछना ही क्या। थोड़े में ऐसा समझना चाहिए कि जो भग्यजन भक्तिपूर्वक भगवान की प्रतिदिन पूजन किया करते है वे सर्वोत्तम सुख वा मोक्ष भी प्राप्त कर लेते हैं तब सांसारिक सुखों की तो बात ही क्या है, वह तो उनको विशेष रूप से मिलता है पौर मिलना भी चाहिए । पतएव भव्यजनों को उचित है कि वे जिन भगवान का अभिषेक, पूजन, स्तवन, ध्यान मादि सत्कर्मों को सदा प्रयत्नशील होकर किया करें। नलगालन: धर्मात्मा पुरुष जिस प्रकार रात्रि भोजन स्याग करते हैं उसी प्रकार उन्हें बिना छने पानी का त्याग भी करना चाहिए । क्योंकि मनछने पानी में सूक्ष्म त्रसजीव होते हैं मतएव जीव दया के पालन करने के निमित भव्यजनों को उमित है कि स्वछ, निर्मल और गाढ़े दुपरता छन्ने से जल को छानकर उपयोग में लाया करें। छोटे छेद वाले, पधिक बारीक, मैले और पुराने कपड़े से जल छानना योग्य नहीं, जल छानने योग्य वस्त्र का परिमाण सामान्यतया शास्त्रों में छत्तीस पंगुल लम्बा और चौबीस मंगुल चौड़ा वर्णन किया है । जैसा कि पीयूषवर्ष श्रावकाचार में कहा है Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ णमोकार ग्रंथ षट् त्रिशंबगुल वस्त्र, चतुविशति विस्तृन्तं । तवस्त्रं द्विगुणी कृत्य, सोयं तेन तु गालयेत् ।। मर्थ - छत्तीस अंगुल लम्बै भौर पौबोस अंगुल चौड़े वस्त्र को दोहरा करके पानी छानना चाहिए ! उसको दुपरता करने से चौबीस मंगुल लम्बा और अठारह अंगुल चौड़ा होता है। यदि बर्तन का मुख अधिक बड़ा हो तो बर्तन के मुख से तिगुना कपड़ा लेना चाहिए । जल छानने के पश्चात् बची हुई जिवाणी को रक्षापूर्वक उसी जलाशय में पहुँचाना चाहिए जिस जलस्थान से जल लाया गया हो । अन्य स्थान में जल गलने से स्पर्श, रस, गंध पौर वर्ण की असमानता होने के कारण जीव मर जाते हैं जिससे जिवाणी डालने का प्रयोजन अहिंसाधर्म नहीं पालता है । अतएव उसी जलाशय में जल पहुँचाना चाहिए । यद्यपि जैनधर्म में जल को छान कर पीने में अहिंसा मुख्य हेतु बताया गया है परन्तु आरोग्य की रक्षा भी एक प्रबल हेतु है क्योंकि अनछना पानी पीने से बहुधा मलेरिया, ज्वर प्रादि दुष्ट रोग उत्पन्न हो जाते हैं । ऐसी सावधानी के लिये सायुर्वेदिक शास्त्र भी उपदेश करते हैं । अतएव धर्म हितेच्छक प्रत्येक पुरुष को उचित है कि शास्त्रोक्त रीति से जल छान कर पिएं । जल छानने से एक मूहुतं पश्चात् उसी जल को पुनः छान कर उपयोग में लाना चाहिए क्योंकि एक मूहूर्त के पश्चात् त्रस जीव उत्पन्न हो जाने से अनछने जरन के समान वह जल हो जाता है। ऐसा सागार धर्मामृत प्रादि शास्त्रों में कहा है । अयानंतर जिस प्रात्महितेच्छु धर्मात्मा भव्य पुरुष ने मद्य, मांस, मध्वादि को त्याग दिया प्रतिपाठभूल गुण धारण कर लिए है, ऐसे पाक्षिकश्रावक को अपनी शक्ति के अनुसार पाप होने डर से स्थूल हिंसा, अनृत, स्तेय, कुशील, परिग्रह-इन पाँच पापों का त्याग करने की भावना तथा अभ्यास करना चाहिए, राजा प्रादि के डर से नहीं, क्योंकि यदि राजा आदि के भय से अभ्यास करेगा तो उससे कर्म नष्ट नहीं होंगे । जिन धर्मात्मा भव्य पुरुषों ने पांचों पापों के एकदेश हिंसा के त्याग करने रूप पाचरण करना प्रारम्भ कर दिया है, उन्होंने वेश्या आदि के समान महाअप की खान जूत्रा, खेटक, वेश्या और परस्त्री सेवन का भी त्याग करना चाहिए क्योंकि इन सब में हिंसादि पाप होते हैं । अभिप्राय यह है क पाक्षिकश्रावक को दुगात व दुःखो के कारण और पापा को उत्पन्न करने वाले ऐसे धत, मांस, मद्य, वेश्या, चोरी, खेटक और परस्त्री-इन सातों व्यसनों को त्याग देना चाहिए क्योंकि इनके सेवन करने से वह इस लोक में समाज एवं धर्मपद्धति में निन्दनीय होता है और मरने पर दुर्गति में दुस्सह दुःख भोगने पड़ते हैं । इनमें लवलीन पुरुषों को पंच पापों से बचना असंभव है अतएव भागे शुद्ध सम्यग्दृष्टि पाक्षिक श्रावक से अहिंसा एकदेशवस का पालन करने के लिए इनके त्याग को कहते हुए इनसे विपत्ति उठाने वालों की कथा उदाहरणरूप लिखी जाती है। सस्य व्यवसन वर्णन: जहाँ अति अन्याय रूप कार्य को बार-बार सेवन किये बिना राजदंड, जातिदंड, लोकनिन्दा होने पर भी चुनना पड़े, वह व्यसन कहलाता है और जहां किसी कारण विशेष से कदाचित् लोक निन्ध व गृहस्थ धर्म विरुद्ध कार्य बन जाए, वह पाप हैं इसी भेद के कारण चोरी और परस्त्री व्यसन को पंच पापों में गणना कराकर पुनः इनको सप्त व्यसनों में भी गणना की है। अब इनका स्वरूप, इनके सेवन से दुःख उठाने वाले पुरुषों की कथा संक्षेप से लिखते हैं जिसमें हार-जीत हो, वह जुआ है । जिन पुरुषों को बिना परिश्रम किए हुए द्रव्य के प्राप्त होने की अधिक तृष्णा होती है, ऐसे ही पुरुष विशेषतया जुमा खेलते हैं । यह शुमा सप्त व्यसनों का मूल पौर सब पापों की खान है । जुमारी मनुष्य नीच जाति के मनुष्यों के साथ भी स्पर्शनीय, मस्पर्शमीय का Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार ग्रंथ विचार न करके राज्य के भय से छिपकर मलिन और शून्यागारों में जुड़ा खेलते हैं। अपने विश्वासपात्र ] कुटुम्ब जनों से सदा द्व ेष रखते हैं। इस व्यसन के निराकरण सम्बन्धी शिक्षा देने वाले पूज्य और बड़े तथा कुटुम्बणियों को अपना शत्रु समझते हैं। चोर तथा जुआरी इनके मित्र होते हैं । लुच्चे, लफंगे इनके सहायक होते हैं। जुवारी सब झूठों का सरदार होता है। इसके समान कोई झूठा नहीं होता । जीतने पर तो मांस भक्षण, मद्यपान, वेश्या सेवन तथा श्रत्यन्त मांसाशक्त होने पर वेटकादिक निद्यकर्म करते हैं और हार ही जाने पर जब द्रव्य नहीं रहता, तब चोरी करने को उद्धत होते हैं तुच्छ घन के लिए पर के बाल-बच्चों के प्राण ग्रहण करने में होते हैं। इकराम को करते हैं। सारांश यह है कि जुप्रा खेलने वालों से कोई दुष्कर्म नहीं बचा रहता। इसी कारण द्यूत व्यसन को सब व्यसनों का उत्पादन मूल (जड़) के समान कहा है। इस व्यसनसेवी मनुष्य से न्यायपूर्वक कोई आजीविका संबंधी रोजगार-धंधा नहीं हो सकता। इस व्यसन में फंसकर दूसरों को ठगना ही इनका व्यापार होता है । जुधारी की बात का कोई विश्वास नहीं करता और न कोई श्रादर-सत्कार करता है। जुझारी, पुत्र, पुत्री, स्त्री, गृह, क्षेत्राविक पदार्थों को जुए में हराकर दरिद्री हो उनके वियोग जनित प्रार्तध्यान के प्रभाव से मरने पर दुर्गति में अनेक प्रकार के दुःस्सह दुःख भोगते हैं । द्यूत व्यसन के विषय में भूवरदास जी ने कहा है कि सकल पाप संकेत ग्राम बाहेत कुलचछ, कलह खेत वाव देत वीसल निज प्रछन गुणसमे तजससेत केतर विशेकत जैसे, प्रोगुण निकर समेत केत लखि बुधजन ऐसे । जुमा समान इहलोक में धान अनीति न पेखिये, इस विसराय के खेल को कौतुक कूं नहीं देखिए ।। १६७ अतएव धर्म, अर्थ, काम इन पुरुषार्थों से भ्रष्ट करने वाले हिंसा, झूठ, चोरी, लोभ, कपट प्रादि यों के कारण इस लोभ में सामाजिक एवं धर्म पद्धति में निद्य बना देने वाले मरने पर दुर्गति एवं महान दुस्सह दुःखों के दाता इस द्यूतव्यसन को सर्वथा त्यागना योग्य है। देखो, पुण्यशाली पाण्डवों ने इस व्यसन के सेवन से अपने राज्य को हार कर कैसे-कैसे दारुण दुःख भोगे और उन्होंने अनेक देशों में भ्रमण करते हुए कैसी-कैसी कठिन श्रापदाएं भोगीं। इस व्यसन के सेवन से जो अनेक भीषण भीषण दुःख भोगने पड़ते हैं, उन सब दुःखों का वर्णन कैसे हो सकता है ? तात्पर्य यही है कि यह संसार का वक एक प्रधान कारण है । प्रतएव बुद्धिमानों को इस घोर दुःखकारी क्रिया का दूर ही से त्याग कर देना चाहिए। इस व्यसन के सेवन से दुःख उठाने वालों में प्रसिद्ध युधिष्ठिर महाराज का उपाख्यान है जिसके दचित्त होकर अध्ययन, अध्यापन तथा श्रवण करने से लोग घोर दुःख जनक प्रन्याय रूप क्रिया से रुचि हटाकर सुमार्ग के प्रन्वेषण करने में प्रवृत्त होंगे। धूतव्यसम कथा : भगवान् के जन्म से पवित्र इस ही भरत क्षेत्र श्रार्यखंड में कुछजंगल देश के अंतर्गत महामनोहर हस्तनागपुर नाम का एक प्रसिद्ध नगर था। उसके राजा थे- धृत। इनका जन्म कुरुवंश में हुआ था। वे धर्मश, नीतिश, दानी, प्रजाहितैषी और शीलस्वभावी थे। इनके तीन रानियां थीं। उनके नाम क्रम से अम्मा, बालिका तथा अम्बिका थे । तीनों हां रामियां अपनी-अपनी सुन्दरता में मद्वितीय थीं। इन तीनों 1 Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार प्रेष रानियों के नाम क्रम से धृतराष्ट्र, पांडु, और विदुर नाम के तीन पुत्र हुए। इनमें धृतराष्ट्र की स्त्री का नाम गांधारी था और पांडु के दो स्त्रियां थी । उन के नाम थे -कुन्ती तथा माद्री। इनमें से घृतराष्ट्र के तो दुर्योधनादिक पुत्र हुए और पांडु की कुन्सी नाम की स्त्री के युधिष्ठिर, भीम और अर्जुन तथा माद्री के सहदेव प्रौर नकुल पुत्र हुए 1 कुन्ती का कन्या अवस्था में ही किसी कारण विशेष से, परस्पर संसर्ग हो जाने से कर्ण का प्रसव पहले ही हो चुका था। इस प्रकार महाराज घृत धन, संपत्ति, राज्य, वैभव, कुटुम्ब, परिवार तथा पुत्र-पौत्रादि से पूर्ण सुखी रहते हुए अपनी प्रजा का नीति-पूर्वक पालन करते थे। एक बार उन्होंने शरद ऋतु में गगन मंडल में नाना प्रकार के वर्षों से शोभित बादल को क्षणमात्र में ही वायु के वेग से नाम शेष होते देखा प्रर्थात् देखते-देखते ही बादलों को नष्ट होते देखा तब उन्हें संसार से वैराग्य हुप्रा । वे विचारने लगे कि ये बादल जिस प्रकार दृष्टिगोचर होते हुए ही नष्ट हो गए उसी प्रकार यह संसार क्षणभंगुर है । इन स्त्री, पुत्र, भाई, बन्धु प्रादि तथा धन, संपत्ति और इन्द्रिय भोगों की घोर प्रासक्त होकर अपने हित की मोर मैंने कभी ध्यान नहीं दिया। मोह रूपी गहन अंधकार ने मेरी दोनों प्रांखों को ऐसा अन्धा बना डाला जिससे मुझे अपने कल्याण का मार्ग नहीं दिखाई दिया इसी से मैं प्रब अपने प्रात्म-हित के लिए अनादि काल से पीछा करते हुए इन कर्म-शत्रुनों का नाश कर मोक्ष सुख को देने वाली जिन-दीक्षा ग्रहण करूं जिसके प्रभाव से मैं सच्चा प्रात्मीक सुख प्राप्त कर सकूँ । इस प्रकार की स्थिति विचार कर महाराज धूत ने बड़े पुत्र धृतराष्ट्र को तो राज्य-भार सौंपा और पांधुनो सुनमाज पह देकर निमुद के मार-माग होता-सुख की साधक जिन दीक्षा धारण कर ली। जिन-दीक्षा का लाभ कुगति में जाने वालों के लिए बहुत कठिन है। इसके बाद धुत मुनि ने तो अनेक दिनों तक कठिन से कठिन तपश्चरण कर शुक्लध्यान के बल से केवलज्ञान को प्राप्त कर अन्त में शाश्वत प्रक्षयानंत मोक्ष-लाभ प्राप्त किया। इधर विदुर मुनिराज देश विदेश में धर्मोपदेश के लिए विहार करने लगे, उधर धृतराष्ट्र पार के साथ राज्य का पालन करते सुखपूर्वक प्रपना समय बिताते थे । एक दिन दोनों भाइयों ने एक भ्रमर को कमल के भीतर मराहमा देखा। उपके अवलोकन मात्र से उन्हें बड़ा वैराग्य हमा। उन्होंने उसी समय अपने राज्य के दो विभाग कर एक भाग दुर्योधनादिक के लिए और एक भाग युधिष्ठिरादि के लिए सौंप दिया और स्वयं दोनों भाइयों ने जिमदीक्षा ग्रहण कर ली। इसके प्रनतर कौरव और पांडव परस्पर अनुराग पूर्वक प्रजा का पालन करते हुए सुखपूर्वक दिन व्यतीत करने लगे वे काल की गति को नहीं समझते थे । कौरवों के मामा शकुनि से अपने भानजे दुर्योधनादिक के लिए और पाडु के पुत्र युधिष्ठिरादिक के लिए समान राज्य-भाग की व्यवस्था देखकर अपने मन में विचारा कि माघा राज्य तो केवल पांच पांडवों के लिये दिया गया है और प्राधा राज्य सौ कौरवों के लिए इससे पांडव तो बडे प्रतापी मालूम होते हैं और कौरवों का प्रताप इनके सम्मुख कुछ भी मालूम नहीं होता ऐसा विचार कर उसने प्रेमवश होकर कौरवों के कान भरे कि तुम्हें कुछ ध्यान भी है ? कहां तो तुम सौ भाइयों के लिए आधा राज्य, जिससे तुम लोगों का वस्त्र-शस्त्रादि का प्रबन्ध भी ठीक-ठीक नहीं हो सकता और कहा इन पांच पांडवों के लिए प्राधा राज्य जिससे ये लोग कैसे तेजस्वी और धनपूरित दिखाई देते हैं। ठीक तो यह है कि सब वेषों में धन का ही वेष उत्तम गिना जाता है। तुम स्वयं ही यह बात सोचो कि जितना राज्य पांच व्यक्तियों को दिया गया उतना ही सो व्यक्तियों के लिए देना उचित पा क्या? इस प्रकार शनि के प्रतिदिन उत्तेजित करते रहने से कौरवों की प्रकृति में दुष्टता मा ही गई । पीछे कुछ समय के पश्चात् दुर्योधन ने अपनी बुद्धि से कल्पना कर एक लाख से युक्त सुन्दर महल बनवाया। उसके पूर्ण होने Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकाय Pet पर उसने एक दिम नबीन मन्दिर में भोजन करने के लिए पांडवों को निमंत्रित किया। निमंत्रण के मनुसार पौषों पांडव अपनी माता कुन्ती सहित पाये । पाते ही मंदिर के अपूर्व शोभा का प्रलोकन कर बहुत प्रसन्न हुए । दुर्योधन ने इनको बड़े आदर-सत्कार के साथ भोजन कराकर इनके सोने का भी वहीं प्रबन्ध कर दिया जिमडोहानि को रोसन ग्रहः शया करें निन्द्रा पाने पर पांडवों ने वहीं पर शयन किया। उनके शयन करने के कुछ समय पश्चात् ही कौरवों ने अपनी दुष्टता से लाख के सदन में पग्नि लगा दी। लाख के कारण मग्नि ने अपनी भयंकरता बहुत शीघ्र ही धारण कर ली। जब लाख तप-तप कर पांडवों के ऊपर गिरने लगी तब वे सब के सब सचेत होकर कौरवों की दुष्टता जानकर बाहर निकलने का मार्ग न देख बहुत चितित हुए तब ज्योतिष-शास्त्रज्ञ सहदेव कहने लगे कि हे भाता पर एक सुरंग है। उसके मार्ग से हम सब निकल सकेगें यह सुनते ही भीम ने इधर-उधर दृष्टि दौड़ाई तो उसको एक शिला दिखाई दी । भीम उसे उठाकर अपने मार्ग को निष्कंटक कर कुन्ती सहित पापों भाई उस मार्ग से निषिधन बाहर निकल गये और इच्छानुसार पृथ्वी पर भ्रमण करते हुए इस्तनापुर पहुंचे। उधर सब लोग कौरवों की दुष्टता जानकर उनकी निन्दा करने लगे। पांडव लोग वहाँ कुछ दिन रहकर देश यात्रा करते हुए पीछे लौटकर भाकंदी नगरी में प्रा पहुंचे। उसके स्वामी द्र.पत थे उसकी स्त्री का जयावती था। उसके द्रोपती नाम की पुत्री थी। रूप की सुन्दरता में वह प्रसिर यी।। जब महाराज दूपत ने देखा कि पुत्री युवती हो गयी है । तब उन्हें उसके विवाह की चिंता ने चिन्तित किया। फिर उन्होंने अपने मंत्रियों से परामर्श कर एक शुभ मुहूर्त में पुत्री का स्वयंवर मार्रम करवाया ! देश-देश के राजामों और महाराजामों के लिए निमंत्रण-पत्र भेजा गया। दुर्योधन प्रादि सभी राजा-महाराजा स्वयंवर मण्डप में उपस्पित हए। उस समय यह नियम निश्चित किया गया कि जो इस राधावेश को देधेगा, वही कन्या का स्वामी होगा । वैवयोग से पांडव कुमार भी वहां मा गये। इन्हें वे लोग पहचान न सके क्योंकि वे अपने वेष को पलट कर कृत्रिम वेष में रहते थे। स्वयंवर में पाये हुए राजा-महाराजा मावि में से किसी का साहस नहीं हुमा कि राधावेध को वेधे । सबके मुख निष्प्रभ हो गये। तब प्रर्जुन ने उठकर कहा 'जो मनुष्य इस राधावेष को वेधेगा, उसे कलहीन या जातिहीन होने से कन्या के मिलने में तो कोई संदेह नहीं होगा। ऐसा यदि संशय न हो तो में भी अपने पुरुषार्थ की परीक्षा कहे। तब राणामों ने कहा कि 'हमें जाति तथा कुल से कुछ प्रयोजन नहीं, तुम अपने पुरुषार्थ से इस कर्तव्य को पूरा करो।' तब उनके कहते ही महाबाहु, पराक्रमी अर्जुन ने कटिबद्ध होकर सब राजामों की उपस्थिति में ऊपर दी और नीचे दृष्टि करके बात की बात में उस राधावेष को वेष दिया । वेध होते ही द्रौपदी मे पाकर पांचों पाण्डवों के मध्य में बुद्धिमान प्रर्जुन के कंठ में माला डाल दी। इतने में वायु के अधिक वेग से माला टूट जाने से पांचों पर पुष्प गिर गये । माला के टटते ही लोगों में हल्ला मच गया कि प्रौपदी अपने धर्म से भ्रष्ट है। इसमे पांचों को अपना पति बनाया है। पश्चात् राजा लोग भी बिगड़ पड़े पौर कहने लगे-'हम राजकुमारों के होते हुए क्या ये कंगाल भिखारी इस राजपुत्री को परणेंगे । इन को मारकर सुम्बरी को इनसेलेना चाहिए।' ऐसा फहकर सब युद्ध की तैयारियां करने लगे। इतने में किसी विचारवान पुरुष ने उनसे कहा-'पहले उनके पास दूत भेजकर कन्या को वापिस लौटाने के लिए कहलाना चाहिए। यदि ये इसे स्वीकार न करें तो युद्ध का समारम्भ है ही।' Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार पंप तब सबने सहमत होकर अर्जुन के निकट दूत भेजा। दूत ने जाकर कहा-'राजकुमारी ने बड़ी मूर्खता की जो राजाओं को छोड़कर तुम्हें अपना स्वामी बनाया। अब तुम्हें चाहिए कि इस राजकन्या को राजाओं के प्रति दान करके उनके प्रेमभाजन होकर सुखपूर्वक भली प्रकार जीवन-यात्रा करो।' शोध के प्रावेश में हो उत्तर में अर्जुन ने दूत से कहा- 'तुम प्रभी जाकर अपने स्वामी से कह दो कि हम राजकूमारी को नहीं देंगे। क्या तुमने इस प्रकार कभी किसी को अपनी वल्लभा देते देखा प्रथवा सुना है । यदि वे लेने का साहस रखते हैं तो रणक्षेत्र में सम्मुख पाकर अपने पराक्रम से हमें पराजित कर लें लेवें । न जाने तुम्हारे स्वामियों में ऐसी दुर्बुद्धि क्यों उत्पन्न हुई है?' ऐसा कहकर अर्जुन ने दूस को उसी समय वहां से निकलवा दिया । दूत ने जाकर सब समाचार राजा लोगों को ज्यों का त्यों सुना दिया । सुनते ही राजा लोग बहुत बिगड़े और युद्ध के लिए तैयार हो गये । तब महाबली अर्जुन युद्ध भूमि में वीर लोगों को एकत्रित हुए देख कर उसी समय श्वसुर के साथ अपने भ्राप्ता और द्रौपदी सहित युद्ध के लिए निकल पड़े । दोनों तरफ के योद्धाओं की मुठभेड़ हो गयो । घोर युद्ध होना प्रारम्भ हुमा । अर्जुन के द्वारा अपने योद्धाओं को विध्वंस होते देखकर दुर्योधन उसी समय अपने भीष्म प्रादि वीरों को साथ लेकर रण-भूमि में प्रा उपस्थित हुए। तब अर्जुन ने भी देखकर विचार किया 'ये तो मेरे पूज्य हैं। इनका वध मेरे हाथ से कैसे हो सकेगा?' निदान उसने अपने एक बाण पर नाम लिखकर भीष्म के ऊपर फेंका। बाण उनकी गोद में जाकर गिरा। तब उन्होंने उसे पढ़कर दुर्योधन से कहा--'देखो जानते हो ये लोग पांडव हैं और ठीक भी है इनके अतिरिक्त इतना पुरुषार्थ और किस का हो सकता है ?' दुर्योधन ने पूछा-'मापने यह कैसे जाना? तब गांगेय (भीष्म) ने पार्थिव (अर्जुन के नाम का बाण दिखला दिया उसे पढ़ते हो दुर्योधन रही-सहो हिम्मत भी हारकर बड़े दुःख के साथ रथ से नीचे उतर कर माया से अश्रुपात करता हुआ पांडवों के सम्मुख जाकर बाहु पसार कर मिला और गद्गद स्वर से कहने लगा-'नाथ । मैं बड़ा प्रभागा हूं। लोकनिंदा से मेरा हृदय जला जा रहा है। परन्तु प्रच्छा हा जो आप सब मेरे पुग्योदय से पा गये । न तो मैंने यह जाना था कि यह लाख का घर बना हमा है प्रोर नहा मुझ यह मालमहाक किस दुष्ट ने उसे जला दिया। परन्तु फिर भी मुझ निरपराधी को लोगों ने अपराधी ठहराया। मेरा बहुत अपयश हुमा । पर ये नियम है कि शुद्धचित्त के मनुष्यों पर कलंक नहीं लगता। इसी कारण मेरे पुण्योदय से मेरा अपयश मिटाने के लिए पाप आ पहुँचे । मापके वियोग रूपी अग्नि से जलता हुँमा मेरा हृदय प्रब शांत हुपा हैऐसा कहकर दोनों पक्ष परस्पर प्रानंदपूर्वक मिले । सब लोगों के चित्त में बड़ा पानंद हुआ। फिर शुभ मुहूर्त में अर्जुन का विवाह दौपदी के साथ हो गया। सब लोग विवाह-कार्य पूर्ण करवा कर अपनी-अपनी राजधानी में गये मोर पूर्ववत् प्रीति पूर्वक रहने लगे। कुछ समय पश्चात् फिर उसी शकुनि ने उनके दिन-प्रतिदिन वैभव को बढ़ते हुए देखकर कौरवों पांडवों की परस्पर मैत्री में बाधा डालना मारंभ किया। सच है-दुष्टों का यही स्वभाव होता है कि उन्हें दूसरों को लड़ाये बिना चैन नहीं पाता। निदान शकुनि ने अपनी बुद्धि की पतुरता से उनके स्नेह को तोड़ ही डाला। अब कौरव लोग शकुनि की उत्तेजना से पांडवों में दोष दूटने लगे जैसे उत्सम पुरुषों के पीछे शाकिनी लग जाती है। एक वित युधिष्ठिर के जी में पाया कि जूमा खेलना चाहिए। उन्हें यह विचार क्या उपजा, इसे दूसरे शब्दों में यों कहना चाहिए कि पाण से ही उनके भाग्य का चमकता हमा सितारा (सूर्य) मस्त हो गया । सन Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार मेष कहा है कि - बुद्धि उत्पद्यते ताबुक, व्यवसायश्च तावृशः । सहायास्तावृशश्चय यावृशी भवितव्यता ।। अर्थात् जैसी भवितव्यता (होनहार) होती है वैसी ही बुद्धि उत्पन्न हो जाती है वैसा ही व्योसाय (काम) सूझता है। वैसे ही सहायक मिल जाते हैं। ठीक यही हाल युधिष्ठिर का हुमा । अतः एक दिन सभा में कौरवों की उपस्थिति में मिटर दुर्योधन के साथ नमः मने लाने लो। दुर्योधन का पासा पड़ता तो बहुत उत्तम था परंतु भीम के हुंकार से वह उल्टा हो जाता या । तब दुर्योधन चितातुर होकर विचारने लगा कि भीम मुझे जीतने नहीं देगा अत: इसको किसी पालम्बन से कहीं भेज देना चाहिए । इतने में ही उसकी बद्धि ने उसका साथ दिया । दुर्योधन भीम से कहने लगा--'महाभाग ! इस समय मैं तृषा से बहुत व्याकुल हो रहा हूँ। उसका उपाय तुम्हें ही करना चाहिए।' तब भीम बोला--'पाप घबराचें नहीं । मैं अभी शीतल और सुगंधित जल लाता हूं। दुर्योधन बोला-'नहीं नहीं, मुझे ऐसे जल की आवश्यकता नहीं। ऐसे जल के लाने वाले तो मेरे यहां भी बहुत हैं।' दुर्योधन बोला---'गंगा के निकलने वाले दुद में कटिपर्यंत प्रवेश कर तुम अपनी गदा से पानी घात करना और उससे जो पानी के छींटे उड़ें, उस पानी को मेरे पीने की इच्छा है।' इस बात को सुनकर यद्यपि भीम की इच्छा जाने की नहीं थी नथापि उसको लज्जाव जाल लाने के लिए जाना पड़ा। इधर दुर्योधन के मन की चिंता मिटी और जीत का पांसा पड़ने लगा। युधिष्ठिर महाराज ने सर्वप्रथम अपना भंडार, दूसरी बार देश, तीसरी बार हाथी, चौथी बार घोड़े, पांचवी चार वाहन तथा गौ आदि पशु हारे और अंत में वे द्रौपदी सहित अंतःपुर भी हार गये। निदान शेष बचे कुछ वस्त्राभूषणादिक भी सब वे हार गये। इतने में भीम जल लेकर पा गये और दुर्योधन से कहने लगे-'लीजिए, आपकी इच्छानुसार मैं जल आया हूं। इसे पीकर माप अपनी तृषा शांत कीजिए। दुर्योधन ने कहा-'अब तो मेरी तृषा शांत हो गयी ।' यह सुनकर भीम को बड़ा प्राश्चर्यमा परन्तु जब युधिष्ठिर को निष्प्रभ देखा तब पूछने लगे-'भाई प्राप विकलचित्त मालूम होते हैं। इसका क्या कारण है ?' तब उत्तर में युधिष्ठिर ने कहा "हे माता ! सुनमात ठगो गयो या खुष्ट करि । जीत लियो हम माप, राज पाट घर विभी सब ।।" युधिष्ठिर के ऐसे वचन सुनते ही-- भीम भयो तब विकल मति, मन में बडू पछताय ! को ठगो मैं हूँ साही, दियो जु अन्यत्र पठाय ॥' निदान भीम को इसका बड़ा दुःख हुना। इसी समय दुर्योधन इनको यहां से बाहर निकालने के अभिप्राय से कहने लगा-'युधिष्ठिर ! तुम जानते हो कि जो लोग अपना गौरव चाहते हैं उन्हें दूसरे के देश और दूसरे के घर में रहना अच्छा नहीं लगता क्योंकि दूसरों की वसुंधरा उनके लिए लघुता का कारण होती है, जैसे सूर्य मण्डल को प्राप्त Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार अप होकर चंद्र प्रभाहीन हो जाता है, प्रतएव तुमको अपने आसामा सहित ' है। मेरे देश से पले जाना चाहिए।' दुर्योधन के घचन रूपी स्वरों से वेधे हुए युधिष्ठिर अपने प्रातामों सहित चलने को उठ खड़े हुए। तब द्रौपदी भी उनके पीछे-पीछे चलने को तत्पर हुई । तब दुर्योधन बोला-'द्रौपदी। युधिष्ठिर तुम्हें हार चुके हैं, इसलिए अब तुम्हें हमारे अंतःपुर में रहना होगा। परन्तु उसके वचनों पर ध्यान न देकर जब द्रौपदी चलने लगी, तव पापी दुर्योधन ने उसका माचल पकड़ कर खींच लिया। तब साध्वी द्रौपदी अपने पर संकट पाया जान जिनेन्द्र भगवान के चरण कमलों का स्मरण करने लगी । उसके अप्रतिम शील ने उसको वस्त्रहीन नहीं होने दिया अर्थात् दुर्योधन के प्रांचल पकड़कर खींचने पर भी अपने सतीत्व के प्रभाव से द्रौपदी वैसे ही की रही । धर्मशील महाराज युधिष्ठिर इस दुष्कृत्य को देखते हुए भी, अपने चित में किषित् भी विकार को प्राप्त न होकर शांत रहे, परन्तु जब मंत्रियों से दुर्योधन की ऐसी दुष्टता न सही गयी तब वे धिक्कार कर कहने लगे-'पापो ! क्यों इस सती को कोषित कर यमके घर का अतिपि बना चाहता है। तब उसने लज्जित होकर द्रौपदी का प्रांचल छोड़ा। तब वह फिर स्वामी के पीछे चलने लगी। दृढ़प्रतिश पांडव द्रौपदी को साथ लेकर धीरे-धीरे नगर से बाहर निकले। तब सब लोग यही कहने लगे देखो "राजपुत्र रचित लियाल, हारि विभौ सब गये विहाल । तात सजो सूमा भरबान, प्रपया गेह महा गुमान ॥" अयानंतर ये सब द्रौपदी के कारण धीरे-धीरे गमन करते हुए अनेक वन, देश, पुर तथा ग्राम आदि में धूमते हुए फलादिक से क्षुधा निवारण करते हुए साम्यभावपूर्वक सुख दुःख भोगते हुए कितने ही वर्षों तक घूमते-घूमते विराटपुर में मा पहुंचे । यहाँ के राजा का नाम भी विराट ही पा। ये सब नाना प्रकार के वेष धारण कर राजा के पास पहुंचे। बरो कलावत रूप पुषिष्ठिर ने वहाँ । भीम रसोईवार बनो सोतो जहाँ । नट माटक म ज्योतिषि सहदेव है। नकुल बरा पशु बोपरी मालिन कहे ॥ राजा ने इनको सज्जन जानकर प्रसन्न हो इनके वेष के अनुसार ही अपने-अपने काम पर सब को नियुक्त कर दिया । सब लोग राजा के सेवक होकर रहने लगे । एक दिन महाराजा विराट का साला अपनी भगनी से मिलने पाया। पंतःपुर में मालिन के वेष में द्रौपदी को देखकर कामबाग पोलित हुमा वह द्रौपदी से प्रतिदिन अपनी बुरी भावना प्रकट करने लगा । सती द्रौपदी लज्जा के मारे नीचा मुल कर लेती थी, परन्तु जब उसकी बुरी बासमा को नष्ट न होते देखा, तब उसने एक दिन समस्त वृत्तांत भीम को कह सुनाया। तब भीम कही सुन होपती, पहियो त एव जाय। पुर बाहिर मठ है जहाँ, तहो तुम चालो राय॥ दूसरे दिन भीम के कथनानुसार ही द्रौपदी ने कीपक से कह दिया । द्रोपदी की ऐसी इच्छा प्रकट करने पर वह बहुत संतुष्ट हो रात्रि के समय मठ में पहुंचा। वहां भीम गुप्त रूप से द्रोपदी के रूप में बैठा हुमा था। कीचक ने पीड़ित होकर ज्योही द्रोपदी रूपी भीम का अपनी भुजामों से मालिंगम किया, त्योंही उसने भी मालिंगन के छल से दोनों भुजामों के बीच में उसे पार कर इतनी जोर से Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमोकार दबाया कि वह अचेत हो गया। जब वह सचेत हुना, तब उसने उस दुःख से वैराग्य पाकर भीम को नमस्कार कर निर्जन वन में जाकर जिन-दीक्षा ले ली। जब प्रातःकाल होने पर कीचक के नौकर ने उसे नहीं देखा, तब उन्होंने महाराज विराट से आकर कहा । उस समय राजा ने यह सोचकर कि कहों वह अपने देश में न चला गया हो, एक सेवक को उसके भाइयों के पास समाचार लाने को भेज दिया उसने जाकर उनके भाइयों से पूछा--'क्या कीचक यहाँ पाया है ?' यह सुनकर उसके भाइयों को बड़ा संदेह हुआ। वे सौ के सौ भाई उसकी खोज लगाने के लिए अपनी नगरी से चल पड़े। ग्राम, नगर, वन, उपवन आदि में देखते लोगों से पूछते हुए विराट नगर में पाए। वहाँ पूछने पर इनसे किसी मनुष्य ने कहा--'मैंने महाराज कीचक और एक मालिन को नगर के बाहर संध्या के समय अमुक मठ में प्रवेश करते हुए देखा था, परन्तु निकलते समय एक मालिन ही दिखाई दी। कीचक को नहीं देखा' यह सुनकर उसके भाइयों को बड़ा क्रोध पाया और कहने लगे कि 'हमारे भाई कीचक को उस दुष्ट मालिन ने मार दिया है, यह हमको पूर्ण निश्चय हो गया है इसलिए अभी उस दुष्टा को मग्नि में भस्म कर परलोक वासी बना देना चाहिए।' _ इसी विचार से वे लोग मालिन रूप द्रोपदी को पकड़ कर ले प्राये और चिता बनाकर द्रोपदी को जलाने लगे । इतने में ही उस मालिन के जलाने का समाचार किसी मनुष्य ने भीम को कह सुनाया। यह सुनते ही भीम क्रोधित होकर वहां पाया जहां चिता तैयार की जा रही थी। उसने देखा कि कीचक के भाई द्रौपदी को जलाने के लिए चिता तैयार कर उसको जलाने का यत्न कर रहे हैं। उसने सती द्रौपदी को चिता पर से उठा लिया और कीचक के भाईयों को उठा कर अग्नि में होम दिया। उनमें से एक को उसकी जिह्वा काट कर छोड़ दिया। वह जिह्वारहित हुमा नगर में जाकर राजा से अपना अभिप्राय समझाने के लिए कुछ संकेत करने लगा। तब राजा ने कर्मचारियों से कहा-देखो तो, ये मूक मनुष्य क्या कहता है ?' उत्तर में भीम बोला-महाराज ! यह कहता है कि कीचक के दुःख से उसके सब भाई अग्नि में जलकर भस्म हो गये । इसको मैंने बचा लिया प्रतः संकेत द्वारा कहता है कि इसने मेरे प्राण बचा लिए । विराट ने कहा-ये ठीक कहता है।' निदान उस मूक को इसी दुःख में अपने स्थान पर चले जाना पड़ा। उसकी कुछ सुनाई नहीं हुई । अयानंतर पांडव बारह वर्ष सुखपूर्वक विराट नगरी में व्यतीत कर राजा से विदा लेकर द्वारका पहुंचे और वहां जाकर वासुदेव से मिले। इनका दुःख दूर हुआ वहां श्रीकृष्ण की बहिन सुभद्रा का पाणिग्रहण अर्जुन से हो गया । श्रीकृष्ण चाहते थे कि कौरव और पांडव फिर किसी तरह मिल जाएं इस प्राशय से उन्होंने उनका दूत तक बनना स्वीकार कर बहुत कुछ उद्योग किया परन्तु सब निष्फल हना। निदान कौरवों मार पांडवों की शत्रुता की बात संसार भर में हो गयी। कुरुक्षेत्र में दोनों की सेनाओं की मुठभेड़ होकर बड़ा भारी भीषण संग्राम हुआ । अन्त में कौरवों का सर्वनाश हुआ और जय लक्ष्मी ने पांडवों की दासता स्वीकार कर भूमंडल पर उनकी पताका फहरा दी। श्रीकृष्ण पांडवों के सहायक थे। इन्होंने पांडवों को बड़ी भारी सहायता दी थी। कौरवों और पांडवों का युद्ध भारत वर्ष में प्रसिद्ध है, जो प्रायः महाभारत के नाम से स्मरण किया जाता है। उस समय श्रीकृष्ण ने प्रीतिपूर्वक पांडवों को हस्तिनापुर का राज्य दिया और तत्पश्चात् पांडव इच्छानुसार स्वतन्त्रता से राज्य करने लगे। Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार प्रय देखो। पांडवों ने जुमा खेलने से कैसी-कैसी भयंकर मापदाएं और दारुण दुःख सहे उनके मतिरिक्त भी नल प्रवृति कितने ही राजानों ने इसके खेलने से दुःख भोगे तो सामान्य जनों का क्या कहना ? मौर सब व्यसनों के लिए तो द्रव्य की अवधि हो सकती है और ये सब धीरे-धीरे उसाड़ते हैं, परन्तु जुए के लिए धन की कोई सीमा नहीं क्योंकि समस्त राज्य को एक दांव पर लगाया जा सकता है । यही नहीं वस्त्राभूषण तथा स्त्री को भी दाव पर लगाकर एक क्षण भर में कंगाल बन बैठते हैं। यदि वह दैवयोग से जीत भी जाए तो जीतने पर मद्य पान, मांसभक्षण, वेश्यासेवन, परस्त्रीसेवन प्रादि निछ कर्म कर इस जुए की कृपा से इनकी सहायता पाकर और भी शीघ्र ही अधोगति को प्राप्त हो जाते हैं। (कविता) सात विसन को राजा यह याते अहित बनें सब काम, हारत चोरी परचित धारत कर पापधन कारत ताम । अथवा हनत जीव नहीं डरपे जीते सेवत खोटे धाम, पा सम पाप और नहीं जग में जाते परत नीच प्रति नाम ॥ (पवैया) प्रारति अपार कर सांच सों विचार घरै, यश सुख धन पुनि प्रभुता विनाश है। जीति के तृपत नाहि हारे ना गांठ माहि, लत है उधार देत महादुखराश है। और कौन बात तात कौन इतवार भात, नारि को नहीं सुहात मातदून वास है। जाय गति पति भाय परं अति विपति, प्राय तातें खेल चोपड़ हू महादूख पास है ॥ प्रतएव बुद्धिमानों को इस पाप व्यसन जुए तथा इसके परिवार रूप चौपड़, शतरंज, तास व मूठ आरि की शर्त लगाकर खेलने का सर्वथा परित्याग करना चाहिए। ॥ इति चूतव्यसन वर्णनम् ॥ ॥अथ मासव्यसन वर्णन प्रारम्भः ॥ इसका वर्णन तीन मकार में हो चुका है तथापि सप्त व्यसनों में गणना होने के कारण यहां भी संक्षिप्त स्वरूा कहा जाता है । यह जंगम जीवों की द्रव्य हिंसा करने से उत्पन्न होता है प्राकृति, नाम और मंध से ही चित्त में घृणा उत्पन्न होती है। इसकी दुर्गन्ध से जब उल्टी हो जाती है, तब उत्तम लोग इसे कैसे ग्रहण करेंगे इसका स्पर्श तक ही महा बुरा है। जब स्त्री रक्त के बहने मात्र से निंद्य और अपवित्र गिनी जाती है, तब रक्त, वीर्य एवं मूत्र, पुरीषादि सप्त धातु, सप्त उपधातु रूप स्वभाव से ही महा अपवित्र पदार्थों के समूह से उत्पन्न हुंभा मांस भला कैसे पवित्र हो सकता है ? अर्थात कदापि नहीं और फिर मांस पिड चाहे कच्चा हो या पक्का, उसमें प्रत्येक समय अनन्त साधारण निगोद जीवों का समूह सदा उत्पन्न रहता है। उसकी कोई प्रवस्था ऐसी नहीं कि अब इसमें जीव उत्पन्न न होते हों। कहा भी है-- Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार ग्रंप प्रामा वा पक्वा वा खादति यः स्पृशति वापिशिनपेशी। म निहन्ति सतत, निचितं पिडं बहुजीय कोटीनां । पर्थात् जो जीव कच्ची या पकी हुई मांस पेशो को अपना मांस पुष्ट करने लिए खाता है। पथवा मांस खाने के संकल्प से स्पर्श करता है वह पुरुष निरंतर इकट्ठे हुए प्रनंत साधारण जीवों के समूह को नष्ट करता है। जब अपने प्रयत्न के विना अन्य के मारे हुए अथवा स्वयं मरे हुए जीव का मांस स्पर्श करने अथवा भक्षण करने से हिंसक होता है तो प्रयत्न पूर्वक प्राणियों का घात कर उसे जो खाता है उस ऋर कर्म करने वाले हिंसक का क्या कहना है ? वह तो महाहिसक है हो । मांस भक्षियों के परिणाम सदा नियम करके घातक रहते हैं । उनके परिणामों में दया तो गन्ध मात्र भी नहीं होती। जैसा कि कहा गया है कि महाशक्तस्य नो विद्या, नो क्या मांसभोजिनः । इपलुष्पस्य नो सत्यं, स्त्रीणुस्य न पवित्रता॥ पर्थ-जिसकी घर में प्रासक्ति है, उससे विद्या अध्ययन नहीं होता, मांसभक्षी के हृदय में दया नहीं होती, जो द्रश्य का संचय करने में तीव्र लोभी है, वह सत्य वक्ता नहीं होता और जो स्त्रियों के सुखभोग में पासक्त होता है, वह पवित्र नहीं माना जाता । दया के अतिरिक्त और भी उत्तम गुण प्रायः मांसभक्षी पुरुषों में से गमनकर जाते हैं । जैसा कहा भो है यतो मसाशिषः पुसो, दमो वानं यानंता । सत्यशोचवताचारा, न स्युविद्यावयोऽपि च ॥१॥ अर्थ---मांसभक्षण करनेवाले लोगों के इंद्रिय दमन, दान, दया, सत्य, पवित्रता, व्रत, प्राचार, विद्या हिताहित का विचार प्रादि समस्त गुण नष्ट हो जाते हैं। इसका खाना भी सामाजिक एवं धर्म पति में निंद्य मिना जाता है । सब लोग उससे वार्तालाप तक करने में घृणा करते हैं। यह दोष परलोक में भी नरक में ले जाने का कारण है अतएव बुद्धिमानों को मांस भक्षण के परिहार पूर्वक महिसा धर्म का धारण करना श्रेय है । देखो ! इसी मांस भक्षण के बारने से बकु नाम के राजकुमार ने राज्य के प्रधः पतन को प्राप्त कर भीषण कष्ट उठाये मोर अंत में नरक निवास किया। उसके उपख्यानों से मनुष्य को इस विषय में बहुत शिक्षा मिलेगी, प्रतएव पूर्वोक्त प्राचार्यों के कथनानुसार यहां संक्षिप्त विवरण लिखा जाता है इस जंबुद्वीप में भरत क्षेत्र के मध्य मनोहर नाम के देश के अन्तर्गत कुशाग्रह नाम का एक प्रसिद्धमौर मनोहर नगर था। उसमें भूपाल नाम का राजा विदुषी महारानी लक्ष्मी सहित राज्य करता पा। सर्वगुण विभूषित महारानी लक्ष्मी और राजा जिन भगवान के परम भक्त थे, परन्तु उनका पुत्र घकु अशुभोदय से मांस भक्षण करने में बड़ा लोलुपी था। जब प्रतिवर्ष अष्टाह्निका पवं पाता तब महाराज अपने सारे नगर में बड़ा महोत्सव करवाते और यह घोषणा करा देते कि मेरे नगर में कोई मनुष्य जीवधात न करे । यदि कोई करेगा तो उसे राजद्रोही समझ कर दण्ड दिया जायगा। यह सुनकर नगर निवासी मनुष्यों ने राजाज्ञा के अनुसार सर्वथा हिंसा करना छोड़ दिया, मांसलोलुपी बकु को बड़ी चिन्ता हुई । वह विचारने लगा कि मुझे मांस भक्षण करने की आदत पड़ गई है। मैं बिना मांस के कैसे रह सकूगा? अब क्या करूं? ऐसी चिंता करता हुमा अपने रसोइये के पास जाकर कहने लगा-हे मित्र ! मेरे भोजन के निमित्त मांस तैयार करो।' Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार ग्रंथ रसोइया यह सुनकर बड़ी चिता में पड़ गया। वह सोचने लगा कि मैं जीवघात करता हूं तो राजाज्ञा के प्रतिकूल होने से राजा नियम करके मुझे प्राण दण्ड देगा और यदि राजकुमार को मांस लाकर देने से इन्कार करता हूं तो मेरा उद्यम जाता है राजकुमार मुझ पर असंतुष्ट हो जाएंगे। ऐसा विचार कर रसोइया नगर के बाहर गया और वहां किसी मरे हुए बालक को गड़ा देख उसे निकाल कर वस्त्र में लपेट कर गुप्त रीति से ले प्राया और मांस लोलुपी राजकुमार के लिए उसे ही बनाकर रख दिया । जब राजकुमार भोजन के लिए आया तो उस रसोइये ने प्रथम षड्स व्यंजन परोसकर पीछे वह मांस भी परोस दिया । प्राज के मांस को नवीन स्वाद बाला देखकर राजकुमार ने रसोइये से। पूछा ये किसका मांस है ? मैंने श्रद्य पर्यन्त कभी ऐसा मांस नहीं खाया था । ' १६६ रसोइये ने कहा - कुमार ! यह मांस मयूर का है।' राजकुमार ने फिर कहा- क्या मैंने कभी मयूर का मांस नहीं खाया है ? वह तो ऐसा स्वादिष्ट नहीं होता इसमें और मयूर के मांस में तो बहुत भेद है। मैं तेरे लिए क्षमा प्रदान करता हूँ। ठीक-ठीक से कह ये स्वादिष्ट मांस किसका है ?' तब रसोइये ने कहा - कुमार ! मैंने पहले आपके भय से यथार्थ नहीं कहा था, परन्तु आप क्षमा प्रदान कर चुके हैं अतः मैं सत्य कहता हूं। यह मांस मनुष्य का है।' सुनकर राजकुमार बोला'देख ! ब्राज से मेरे संतोषार्थ प्रतिदिन ऐसा ही स्वादिष्ट मांस लाकर खिलाया कर। इसके लिए जितने द्रव्य की आवश्यकता हो, उतना में दे दिया करूँगा ।" रसोइये ने सुनकर विचारा कि मैं प्रतिदिन मनुष्य का मांस कैसे ला सकूंगा ? इसकी उसे बड़ी ही चिन्ता हुई। वह मनुष्य का मांस प्राप्त करने का उपाय सोचने लगा । ज्ञाने में कुबुद्धि ने उसका साथ दिया। मांस के उपलब्ध होने का कोई और उपाय न देखकर संध्या के समय कुछ अन्धेरा हो जाने पर जहां बहुत से बालक खेला करते थे, वहाँ लड्डू प्रादि मिष्ठान्न बांटने लगा बेचारे बालक इस लोभ के वश से उसके पास नित्य प्रति आने लगे। सच कहा है कि मोहों में स्वाद का मोह सबसे बलवान है । इस प्रकार जब बालक रसोइये से हिल गये, तब वह जो बालक पीछे रहता, उसे ही अवसर पाकर पकड़ कर ले जाता और उसके प्राण हर कर गुप्त रीति से वस्त्र में छिपाकर घर ले प्राता और राजकुमार को उसके मांस से प्रसन्न करता । उसे ऐसा करते बहुत समय व्यतीत हो गया । इसी समय राजा भूपाल सांसारिक विषय भोगों से विरक्त होकर संसार का सब माया जाल तोड़कर जैनेंद्री दीक्षा ले मुनि हो गये और राज्याधिकार बकु को मिल गया । यह स्वच्छन्द होकर राज्य करने लगा । इसी प्रकार बहुत समय व्यतीत होने पर बालकों को नित्य प्रति कमी होने से प्रजा के मनुष्य बहुत घबराये । सबने मिलकर यह विचारा कि यह बात क्या है ? इस विषय का पता लगाना चाहिए कि ये बच्चे जाते कहां हैं? बहुत से मनुष्य इस विषय का गुप्त-रीति से अन्वेषण करने लगे । एक दिन रसोइया पूर्ववत् बालकों को मिष्ठान देकर ज्योंहि उनमें से एक बालक को पकड़ कर ले जाने लगा, त्योंही गुप्तचरों ने भाग कर उसे पकड़ लिया। पकड़ते ही रसोइये ने अधमरे बच्चे को नीचे डाल दिया। बालक को देखते ही लोगों का क्रोध उमड़ आया। उन्होंने उसे खूब भारा, और जब उससे पूछा गया, तब उसने यथार्थं वृत्तांत कह दिया। राजा की इस अनीति को देखकर सब लोग विस्मित होकर कहने लगे अब तो माके ग्राम में, बसवा नाहिं लगार । येत महावुख प्रजा को, भक्षत बालक मार ॥१॥ 1 Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४७ णमोकार मेष जब हम बालक ही मरे, प्राणन प्यारे जाहि । तौ जननी अरु तातु को, जीय रहैगो काहि ।।२।। जहां बालक तह ग्रहस्थई होत सो निह आन । प्राइमही के कारणं जोरत धन अधिकान ॥३॥ फिर जहां बालकों का नाश होता है, वहां हम रहकर क्या करेंगे? निदान सब लोगों ने विचार कर निश्चय किया कि यह राजा बड़ा दुष्ट और पापी है अतः इसे ही देश से निकाल देना चाहिए अतएव प्रातःकाल होते ही सब लोगों ने मिलकर बकु को राज्य-सिंहासन से उतार कर उसके गोत्रीय पुरुष को राज्य सिंहासन पर बैठा दिया । कहा भी है जापर को पंच, परमेश्वर हु सास। तातें भोभविरंच, कुचलन कबहु न चाहिए ॥१॥ लहें न फिर सुखतेह, व्यापे अपशय लोक में। वेखो नपसुत जेह, भूप कियो अन्याय लखि ।।२।। तदनंतर वह राज्य भ्रष्ट होकर अनेक दुस्सह दुःखों को भोगता हुम्रा अपनी पाय वासना को न रोकता हुमा नगर के बाहर श्मशान भूमि में घूमता हुआ मुदों का मांस खा-खाकर दिन बिताने लगा। अन्त में वसुदेव में दाग मरण कर सातवें नरक में गया, जहां पर अगणित दारुण दुःख सहने पड़ते हैं। अतएव इस मांस-भक्षण को प्रति निंद्य एवं दुःखों का जन्मदाता जानकर सर्वथा त्याग कर देना चाहिए। ॥ इति मांस व्यसन वर्णन समाप्तम् ।। ॥अथ मदिरा ध्यसन वर्णन प्रारंभः ॥ यद्यपि इसका वर्णन तीन मकार में हो चुका है, तथापि सप्त व्यसनों में गणना होने के कारण यहां भी संक्षिप्त स्वरूप कहा जाता है। दोहा-सड़ उपजें प्राणी अनंत, मद में हिंसा भौत। हिंसा से प्रघ ऊपज, अघ ते अति दुख होत ॥१॥ मदिरा पी दुर्नु धि मलिन, लोटें नीच बजार । मुख में मूते कूकरा, बाद बिना विचार ॥२॥ मानुष हके मद पिवे, जाने धर्म बलाय। प्रांस मुंबकचे पर तासों कहा बसाय ॥३॥ इस मदिरा के बनाने के लिए गुड़, महुमा, दाख तथा बबूल प्रादि वृक्षों की छाल को बहुत दिनों तक पानी में सड़ाते हैं। वह सड़कर दुर्गपित हो जाती है तथा उसमें पसंख्यात, अनन्त, सजीव, उत्पन्न हो जाते हैं पीछे उसको मसलकर यन्त्रों द्वारा अर्क निकालते हैं, वहीं खींचा हुआ मर्क, मदिरा तथा शराब व सुरा कहलाता है। वह मदिरा क्या है, मानों उसमें उत्पन्न होने वाले असंख्यात अनन्त पस जीवों के मांस का अर्फ ही है और इसको प्रायः नीच जाति के मनुष्य ही बनाते हैं । उस मर्क में कुछ पदार्थों के स्पर्श, रस, गंध, वर्ण की तारतम्यता से एक प्रकार का ऐसा नशा उत्पन्न हो जाता है, जिसको पान करने से मनुष्य अपने पाप को भूलकर कर्तव्याकर्तव्य के विचार-रहित हो जाता है। कहा भी है चित्त भ्रातिपिसे मद्यपानाङ्, भ्रांते बिते पापचया॑मुपैति । पापं हत्वा दुर्गात याम्ति, मुद्रास्तस्मान्मयं नैव पेयम् ॥ Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार अंथ अर्थात् मद्य के पान करने से चित्त में भ्रांति उत्पन्न हो जाती है और चित्त में भ्रांति होने से फिर मनुष्य पाप कर्मों को करता है। पाप करके फिर दुर्गति को प्राप्त हो जाता है। इस कारण से ही मूढ़ पुरुषों को तथा विवेकी जनों को शराब पीना योग्य नहीं है और भी कहा गया है मतो हिनस्ति सर्व मिथ्या, प्रलपिति हि विकल या बुद्धया। मातरमपि कामयते, सायचं मद्यपानमतः परम् ॥ अर्थात मद्यपान करने से मदोन्मत्त हा पुरुष बेसुध होकर माता-पिता और गुरु को भी मार देता है और विकलबुद्धि करके झूठ भी बोलता है और मद्य पीकर माता, पुत्री, बहन पादि की सुध भूलकर निर्लज्ज हुमा अनुचित वर्ताव भी करता है । शराबी को जब विशेष नशा हो जाता है, तब व्याकुल होकर चलता-चलता पृथ्वी पर गिर पड़ता है। अयोग्य बकवास करने लगता है। जितने सन्निपात के चिन्ह हैं, वे सब मद्यपान में दिखाई देते हैं । इस पर एक कवि कहते हैं--- सवैयाकृमि रासि कुवास सराय दहे शुचिता सब छूवत जात सही। जिहि पान किये सुधि जाए हिये जननी जन जानत नारि यही ॥ मदिरा सम और निषिद्ध कहा यह जानि भले कुल में न गही, धिक है उनको वह जीभ जलो जिन मइन के मतलीन कही। इसके पीने वालों की जो दुर्गति होती है, वह आँख से नहीं देखी जा सकती, उसका वर्णन नहीं किया जा सकता। वहुत लोगों का विचार है कि मदिरा पान करना बल प्रदान करता है और भोजन को पचाने में बहुत लाभदायक होता है, किन्तु यह विचार युक्तिसंगत नहीं है क्योंकि जितने मद्यपायी हैं उनको मदिरापान करने के पश्चात् कुछ समय के लिए अंगों में पुष्टता मालूम होती है और शरीर में कुछ बल भी मालूम होता है परन्तु वह आंतरिक और असली नहीं होता इसलिए उनका बल शीघ्र ही नष्ट हो जाता है। जिस प्रकार क्रोध के आवेश के समय में मनुष्य में एक प्रकार की शक्ति पा जाती है और वह उस अवस्था में साधारण अवस्था से कुछ विशेष बल का काम कर लेता है, पर नशा या जाने पर कुछ नहीं रहता वरन् उस समय असलो बल भी कम हो जाता है। उसी प्रकार मद्यपान द्वारा प्राप्त बल की यही दशा है । जिस समय मद्य का नशा उतर जाता है उस समय उनकी हालत जब देखी जाती है तब वे अपने मुख से ही अपनी खराब दशा बताते हैं कि मेरा शरीर टूट रहा है, बिना मदिरा पान किये मुझसे कोई काम नहीं हो सकता है और वह उस वक्त बिलकुल निकम्मा हो बैठता है मद्यपान से मूळ, कंपन, परिश्रम, भय, भ्रम, क्रोध, काम, अभिमान, नेत्रों के रक्त वर्ण हो जाने आदि के सिवाय शारीरिक शक्ति भी घटती जाती है और अनेक रोग उत्पन्न हो जाते हैं और यह मानसिक एवं मात्मिक उन्नति में भी बहुत बाधा डालती है, इसको पानकर मनुष्य मात्मिक उन्नति तो कुछ भी नहीं कर सकता है। क्योंकि मात्म-ध्यान के लिए मन का वश करना तथा इन्द्रियों को उनके विषय से पराछ मुख करना पत्यावश्यक है, परन्तु यह बात मदिरा के सेवन करने वालों में नहीं हो सकती क्योंकि यह मस्तिष्क को मैलाकर वासना तथा इच्छाओं के तृप्त करने की कांक्षा को बढ़ाती है। हम लोगों की इच्छाएं तो हले से ही प्रबल हैं और यह उनको और भी अधिक बढ़ाकर उन्नति के बदले अवनति के मार्ग पर गिरा देती है । मद्यपायी का चित्त अचल रूप से पूज्यदेव पर तथा ध्येय के ध्यान करने पर तथा प्रात्म-विचार पर लगना सर्वथा असंभव है और कहा भी है-- Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पमोकार अंप यावन्न मचमासादि अनस्ताव लोलुपः । भुक्ते तस्मिन्सन्मनाः स्यात्क्व जपःक्य च देवताः ।। प्रर्थात् जब तक पुरुष मांस और शराब को नहीं ग्रहण करता है नब तक उसका मन नंचल नहीं होता। जब पुरुष मांस और मदिरा को पी लेता है तब मन तो चंचल हो ही जाता है, फिर देवता का ध्यान और जप उससे कहां बनता है अर्थात नहीं बनता है । अतएव जो मनुष्य अपने को धामिको. लसि के पथ पर लगाकर मोक्षसुख के प्राप्त होने की कामना रखना है, उसे मद्य-मांसादि के परिहारपूर्वक अहिंसा धर्म का प्रतिपादन करने वाले जिन धर्म को स्वीकार कर यात्म-वल्याण करना चाहिए। देखो ! भ्रम से मादक जलमात्र पीने से यादब अति दुःस्वी और पथ-भ्रष्ट हुए, फिर जो जान-बूझकर पीने वाले हैं, उनकी क्या दशा होगी? अतएव सबको मद्यपान करना सर्वथा ही छोड़ देना श्रेयस्कर है। अब मद्यपान व्यसन के सेवन करने से तीब्र दुःख उठाने वाले यादवों का उपाख्यान कहते हैं. जिससे उनके दुःखानुभव से सर्वसाधारण को शिक्षा प्राप्त हो... इस जंबूद्वीप के मध्य भरत-क्षेत्र में कौशल देश के अंतर्गत एक सौरपुर नामक सुन्दर नगर था। वहां यदुवंशियों में प्रधान महाराजा समुद्रविजय राज्य करते थे। इनके सबसे छोटे भाई थे-बमूदेव । वे पृथ्वी पर प्रसिद्ध थे। जिस समय मथुर का रजा कम वशुद्धत के साथ अपनी बहन देवकी का विवाह कर प्रपनी राजधानी में ले गया था और सुखपूर्वक राज्य कर रहा था, उसी समय किसी कारणवश इसने अपने पिता से रुष्ट होकर उन्हें कारागार में डाल दिया था। इसकी इस मनोति को देखकर कंस के लघभ्राता प्रतिमुक्तक विरक्त होकर मुनि हो गये थे । अतः एक दिन वे मुनि अहार के लिए पाए। उन्हें पाते हुए देखकर कंस की प्रधान रानी जीवंयशा देवकी का मलिन वस्त्र दिखाकर उनके साथ हास्य करके बोली--'देखो, जिसे तुमने बाल्यावस्था से ही छोड़ रखा है, उसी का यह वस्त्र है।' वस्त्र देखकर मुनि क्रोधित होकर बोले- 'मूर्खे! तू हंसती क्यों है ? तुझे तो रोना चाहिए। इसी के गर्भ से प्रसूत बालक के द्वारा तेरे पिता और स्वामी दोनों की मृत्यु होगी।' यह कहकर मुनिराजपतराय हो जाने के कारण वन में वापिस लौट पाए। इधर मुनिमुख से यह भवितव्यता सुनकर जीवंयशा बहुत दुःखी हुई। इतने में राजा कंस भोजन के लिए महल में आए और अपनी प्रिया को उदास मन देखकर पूछने लगे--'प्रिये ! आज तुम्हारा मुख-कमल कुम्हलाया हुआ मालूम होता है । क्या तुमको किसी ने दुःख पहुंचाया है ?" तब दुखीचित्त हो जीवंयशा बोली "हे नाथ अाज मम गेहा, आये अतिमुक्ति मुनेहा । मैं हंसि रतिवस्त्र दिखाया, तब इम वच मुनी कहाया।कि हे मूर्ख ! तुझे तो शोक करना चाहिए। हंसती क्यों है ? क्योंकि इसके गर्भ से उत्पन्न होते वाले पुत्र के द्वारा तेरे स्वामी और पिता की मृत्यु होगी। बस यही मेरे दुःखी होने का कारण है।' कांता की इस दुःखमरी कथा को सुनकर कंस भी बड़ा व्याकुल हुमा । सच है, मृत्यु का भय सबसे बड़ा होता है । तब कुछ विचारकर कंस वसुदेव के घर पर गया । वसुदेव ने कंस का प्रागमन देख यथायोग्य पादर सत्कार किया। कंस कपट भाव से वसुदेव की बहुत प्रशंसा कर कहने लगा-'आप सब विद्याओं में मेरे गुरु हैं, इसमें किसी प्रकार का संदेह नहीं, परन्तु मुझे पापसे कुछ मांगना है। यदि आप कृपा करें तो बहुत अच्छा हो।' Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार ग्रंथ वसुदेव बोले- 'ऐसा क्यों कहते हो ? क्या कभी मैंने तुम्हारे कहने का निषेध किया है, फिर किसलिए इतना आग्रह करते हो ? कंस बोला - 'यदि ऐसा है तो मुझे वचन दे दीजिए-ताकि में प्रार्थना करूँ ।' जब वसुदेव वचन दे चुके तब कंस बोला - "आगे से मेरी बहन का प्रसूत मेरे घर पर ही हुआ २०० करे ।' तब उत्तर में वसुदेव ने कहा- 'अस्तु, यह तुम्हारी भगिनी है। इसकी प्रसूति तुम्हारे घर पर होने में हमारी कोई हानि नहीं है। कंस अपना अभीष्ट सिद्ध हुआ जान प्रसन्न होकर अपने घर पर चला गया। उसके चले जाने के पश्चात् वसुदेव के किसी हितू ने कंस के आग्रह का यथार्थ कारण बता दिया । सुनकर वसुदेव और देवकी बहुत दुःखी हुए। पर बन भी क्या सकता था ? क्योंकि वह पहले ही वचन बद्ध हो चुका था, बस यहीं से कंस और वसुदेव में परस्पर प्रांतरिक वैमनस्यता रहने लगी, परन्तु बाहर से वैसा ही दिखाऊ प्रेम रखते थे जिससे दूसरे उनके वैमनस्य को न जान सकें । प्रथानंतर कुछ समय व्यतीत होने पर देवकी गर्भवती हुई। जब गर्भ सात मास का हो चुका तो कंस देवकी को अपने घर ले गया और बड़ी सावधानी के साथ उसकी रक्षा करने लगा। नवम् मास संपूर्ण हो जाने पर देवकी ने युगल पुत्रों को जन्म दिया । तब देवों ने उसके पुत्रों को उठाकर उनके स्थान पर मृतक युगल ला रखा । जब कंस को देवकी के मृतक युगल पुत्र प्रसूत होने का समाचार मालूम हुआ तभी निर्दध कंस ने उन पुत्र युगलों को जंषा पर पैर रखकर चीर दिया । कंस की यह निर्दयता देखकर देवकी और वसुदेव बहुत दुःखी हुए। मागे और भी दूसरे और तीसरे युगलों को निर्दयी कंस ने इसी प्रकार मार डाला। कुछ समय बीतने पर जब देवकी के गर्भ में नवें नारायण श्रीकृष्ण ने आकर अवतार लिया तब देवकी को शुभ समाचार के सूचक माठ स्वप्न हुए । उनके फल को जानकर दोनों दम्पत्ति सुखपूर्वक रहने लगे। उधर गर्भं धीरे-धीरे बढ़ने लगा । यह गर्भं पांच ही महीने का हुआ था कि कंस आकर फिर देवकी को अपने घर पर ले गया और प्रतिदिन सावधानी से उनकी रक्षा करने लगा। सातवें महीने में भाद्रपद कृष्णपक्ष की अष्टमी को रात्रि के समय रोहिनी नक्षत्र में शुभ लक्षणों युक्त सुन्दर पुत्र रत्न को देवकी ने उत्पन्न किया। उस समय देवकी ने बड़ी बुद्धिमान और सावधानी के साथ गुप्तरीति से अपनी अनुधरी को वसुदेव के पास भेजा। अनुचरी ने जाकर कहा - 'महाराज ! प्रापके पुत्र रत्न उत्पन्न हुआ है। किसी प्रकार उसकी रक्षा करिये।' यह सुनते ही वसुदेव प्रसूतिगृह में गये और पुत्ररत्न को लेकर वहां से गुप्त रीति से चल दिये। उनकी रक्षा करने के लिए उनके साथ बलभद्र भी थे ये दोनों बालक को लिए हुए उस प्रतापी पुत्र के प्रभाव से कुशलतापूर्वक यमुना में से लेकर दूसरी पार वृन्दावन पहुँचे। यद्यपि यमुना वर्षा ऋतु होने के कारण किनारों को तोड़ती हुई बड़े वेग के साथ बह रही थी। परन्तु श्रीकृष्ण के प्रभाव से घुटना तक का जल रह गया वहां एक नन्द नाम का ग्वाला रहता था। उसकी स्त्री का नाम यशोदा था । नन्द ने इन्हें प्राते हुए देखकर विचारा कि आज किसलिए पूज्य महात्मा घर पर आये हैं। उनके निकट आने पर वह बोला- 'महाराज ! आप किसलिए पधारे हैं । तब वसुदेव ने नन्द को अपने पर बीती हुई सारी व्यथा कह सुनाई और श्रीकृष्ण की उन्हें रक्षार्थ सौंप दिया और कहा कि देखो, कहीं कस को मालूम न हो जाए नहीं तो किये कराये पर पानी फिर जाएगा । Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जमोकार पंप २०१ नंद ने कहा -'अस्तु, ऐसा ही होगा। प्राप किसी प्रकार का संदेह न करें, पर मेरा आपसे यह कहना है कि मेरे यहां प्राज ही पुत्री उत्पन्न हुई है । आप उसे वहां ले जाकर देवकी को दे दीजिए और इस बालक को मेरे घर पर छोड़कर निःशंक हो जाइये. इससे कंस को किसी तरह मालूम नहीं होगा और पुत्री का प्रसव जानकर वह कोई विधन भी उपस्थित नहीं करेगा। यदि उसने कोई अनुचित कार्य किया भी तो पाप ये न समझे कि मेरी पुत्री को वृथा जान जायेगी। यह बालक जोवित रहा तो मैं समझंगा कि मेरे सैकड़ों पुत्रियां हैं।' नंद की इस सहानुभूति को देखकर वसुदेव बहुत प्रसन्न हुए और अपने पुत्र को रक्षार्थ सौंपकर उसकी पुत्री को लेकर शीघ्र ही घर पर पाकर देवकी को सौंप दिया और आप अपने घर चले गये। उधर प्रातः काल होने पर कंस की स्त्रियाँ जागी और पुत्री को उत्पन्न हुई जानकर अपने स्वामी से कहने लगीं-नाथ ! अबकी बार जानकी के पुत्री उत्पन्न हुई है। ये सुनकर कंस सोचने लगा कि मेरी मृत्यु इसके द्वारा होगी या इसके पति के द्वारा । यदि इसके पति के द्वारा मेरा मृत्यु होगो ती पहले ही ऐसा उपाय न करूं जिससे कोई इसे चाहे ही नहीं। ऐसा विचार कर वह उसी समय प्रसूति गृह में पहुंचा और वास्तव में ही लड़की को देखकर उसको कुरूप बनाने के लिए उसकी नाक काटली और फिर देवकी को दे दी। देवकी कुछ समय पर्यन्त वहां रहकर फिर अपने घर चली गयी । इधर बालक तो ग्वाले नंद के घर दिनों-दिन शुक्ल पक्ष की द्वितीया के चन्द्रमा की तरह बढ़ने लगा और उधर कंस के सुख की इति श्री होने के कारण तथा भावी कुल के विनाश के सूचक उत्सात दिनोंदिन बढ़ने लगे। तब कंस ने किसी विचक्षण बुद्धि निमित्तज्ञानी को बुलाकर पूछा-मेरे घर में उत्पात क्यों होते हैं ? नैमित्तिक ने कहा-'राजन् । प्रापका कोई शत्रु वन में वृद्धि को प्राप्त हो रहा है। उसी के द्वारा प्रापकी जोवन यात्रा समाप्त होगी। उत्पात होने का यही कारण है।' यह सुनकर कंस मानसिक व्यथा से बहुत दु:खित हुआ। उसने अपनी रक्षा का कोई पौर उपाय न देखकर अपने पूर्व भव के मित्र देवों का पाराधन किया। वे प्रत्यक्ष हुए तब उसने कहा-'मरे मित्रों मेरा पात्र वृद्धि को प्राप्त हो रहा है। जिस प्रकार से भी बने उसे निर्मूल को।' उसी समय एक देव उसकी पाशानुसार पूतना का वेष धारण कर नंद के घर पहुंचा और पपने स्तनों पर हलाहल विष लगाकर बालक को दुग्ध पिलाने लगा। बच्चे ने उसकी बुरी वासना जान ली और दूध पीने के छल से उसके स्तनों को काट लिया तब कपट वेषी देव चिल्लाकर भागा । दूसरे दिन पन्य देव भी अनेक रूप धारण कर कृष्ण को कष्ट पहुंचाने के लिए प्राए परन्तु उस भाग्यशाली बालक का वे कुछ भी न कर सके। देवों ने सब घटना ज्यों की त्यों कंस को जा सुनाई । कंस सुनकर बहुत चिंतातुर हुआ। निदान कंस ने अपने शत्रु श्रीकृष्ण को मारने के लिए यमुना से कमल लाने को भेजना, नाग शय्या पर शयन करना, सारंगधर धनुष को चलना, पांचजन्य शंख को बजवाना मादि उपायों द्वारा कृतकार्य होना चाहा, पर बेचारे कस को देव ने कुछ भी सफलता प्राप्त नहीं होने दी। इससे कंस को बड़ा दुःख हुमा। फिर उसने एक और उपाय सोचा। उसके यहाँ चाणूर भीर मुष्टिक नाम के दो पहलवान थे। कंस ने उन्हें बुलवाकर एकांत में उनसे पूछा--'क्या तुम लोग शत्रु का कुछ उपाय कर सकोगे? ... उन्होंने कहा-'महाराज! आपकी पाशा होनी चाहिए। फिर देखो । शत्रु को यमपुर ही पहुंचा देंगे।' Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ गमोकार ग्रंथ यह सुनकर कंस ने बहुत ही संतुष्ट होकर मल्लशाला रचवानी प्रारंभ कर दी और नंद के पास सेवक को भेजकर कहलवा दिया--'मेरे यहां अखाड़े में पहलवानों की कुश्तियां होंगी । तुमको भी अपने ग्वालों सहित सम्मिलित होना चाहिए।' यह सुनकर बलभद्र ने सब वृत्तांत श्रीकृष्ण से कह दिया और उधर वसुदेव ने कंस का यह मायाजाल रचा जानकर अपने भाइयों के बुलाने के लिए एक दूत को सोरीपुर भेज दिया । समाचार सुनते ही यादव आ पहुंचे। इधर बलदेव और श्रीकृष्ण मल्लवेष धारण कर अपने ग्वालों सहित ही वृदावन से चलकर मथुरा में प्रा पहुंचे जहां कंस ने मल्लशाला रचवा रखी थी । पहुँचते ही श्रीकृष्ण निःशंक होकर लड़ने के लिए मल्लशाला के मध्य बैठ गये। कंस ने भयभीत होते हुये अपनी प्राज्ञा की पूर्ति के लिए चाणूर और मुष्टिक को लड़ने के लिए कहा, भयभीत होने का कारण यह था कि एक तो वह पहले ही श्रीकृष्ण का पराक्रम सुन-सुनकर चिंतातुर हो रहा था, दूसरे यादत्रगण सेना सहित आ पहुंचे थे। चाणूर और श्रीकृष्ण का तथा मुष्टिक और बलदेव का परस्पर कुछ समय तक मल्लयुद्ध होता रहा । अंत में इन दोनों वीरों ने उन दोनों मल्लों को यम का अतिथि बना दिया। तब कंस को अपने दुर्जेय मल्लों का मरण देखकर बहुत क्रोध प्रामा ओर लाल-लाल अखि कर श्रीकृष्ण से बोला-'क्यों रे दुष्ट ! तूने मेरे मल्लों का प्राणांत कर दिया । वे तो बेचारे केबल लीलामात्र ही लड़ रहे थे यदि उन्हें तेरी यह दुष्टता मालूम हो जाती तो वे पहले ही तुझे यमपुर पहुंचा देते । अस्तु । तेरे इस अत्याचार का बदला तुझे अभी दिखा देता हूं। मालूम होता है तेरा अंत समय आ गया है ।' - यह कहकर खड्ग लेकर श्रीकृष्ण को मारने के लिए कंस सम्मुख आया। श्रीकृष्ण ने कंस को प्राते हुए देखकर और कुछ न पाकर हाथी को बांधने का खूटा उखाड़ा और उसी के द्वारा उसके प्राण हर लिए । कंस के मरते ही उसकी सारी सेना भाग गई और सब जगह श्रीकृष्ण की प्राज्ञा का विस्तार हुमा। कंस का अग्नि-संस्कार कर अपने नाना उग्रसेन को छुड़ाकर सब यादव-गण अपने घर आ गये। उधर जब कस राजा के श्वसुर जरासिंघ को अपनी पुत्री द्वारा अपने जामाता के मरण का समा. चार मालूम हुआ तब उसने बड़े क्रुद्ध होकर अपने छोटे भाई अपराजित को बहुत सी सेना साथ देकर यादव-गणों का नाम शेष करने के लिए भेजा दोनों सेनामों का भीषण युद्ध हुआ। बहुत-से लोग मारे गये। अंत में श्रीकृष्ण ने अपराजित को यमपुर पहुंचा दिया। मपराजित के मरते ही, उसकी सेना को जिधर रास्ता मिला, उधर भाग गयी । उधर जरासिंध ने अपने भाई का जब मरण सुना तब उसे बड़ा क्रोध प्राया। वह उसी समय विपुल सेना लेकर मथुरा पर आक्रमण करने के लिए चल पड़ा। इधर जब यदुवंशियों ने सुना कि रासिंध बहुत सेना लेकर चढ़ा पा रहा है । तब वे जरासिंध से युद्ध करना अनुचित जान उसे दुर्जेय समझकर वहां से चल दिए और सौराष्ट्र नगरी के समीप जाकर रहने लगे। जरासिंध नगरी को खाली देखकर थोड़ी दूर और चलकर उनको यहां न देखकर भागा हुआ जान निःशंक होकर घर पर वापिस आकर राज्य करने लगा। तदनंतर कुछ समय व्यतीत होने पर राजग्रह के व्यापारी मिलकर व्यापार करने के लिए वारकापुरी में आये। जो कि कृष्ण तथा नेमिनाथ भगवान के रहने के लिए इंद्र की प्राज्ञासे कुवेर के द्वारा निर्माण की गई श्री उसको अपनी राजधानी बनाकर श्रीकृष्ण वहां निष्कंटक राज्य करते थे मौर वहां से बहुत उत्तम उत्तम वस्तुएं खरीदकर वापिस राजगृह आए तथा उत्तम वस्तुएँ भेंट में देकर अपने राजा से मिले । जरासिंघ ने उनसे पूछा-'तुम लोगों ने किन-किन देशों की यात्रा की और अब कहाँ से Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार ग्रंथ २०३ आ रहे हो ? उत्तर में व्यापारियों ने कहा - 'हम लोग द्वारका गये थे ।' जरासिंध ने फिर पूछा- 'द्वारिका कहां है ? उसका स्वामी कौन है ? उसका किस कुल में जन्म हुआ है ? क्या नाम है ? कितनी सेना और कितना बल है ? व्यापारियों ने जैसा सुना या वंसा सब वृत्तांत कह सुनाया । सुनते ही जरासिंध कोधाग्नि से भड़क उठा और कहने लगा- 'पापी यादव पृथ्वी पर अभी तक जीते हैं । ग्रस्तु मैं उनको भी यमपुर पहुँचाऊंगा।' जरासिंध ने उसी समय अपने मंत्रियों से परामर्श कर यादवों को ग्राज्ञानुवर्ती होने के लिए अपने बुद्धिशेखर नाम के दूत को उनके पास भेजा। जब उन्होंने अधीनता को स्वीकार नहीं किया तब अपनी fage सेना को लेकर युद्ध के लिए चल पड़ा। उधर कृष्ण ने जब सुना कि जरासिंध सैन्य-संग्राम के लिए सुरक्षेष में प्रयुक्त है। तब वे अपनी सेना लेकर रणभूमि में या पहुंचे और दोनों सेनाओं में बड़ा भारी युद्ध हुआ । अंत में जरासिंध और श्रीकृष्ण को मुठभेड़ हो गयी । जरासिंध ने जब शत्रु को दुर्जेय समझा तो star होकर श्रीकृष्ण को मस्तक शून्य करने के लिए चक्र चलाया तो वह चक्र श्रीकृष्ण को तीन प्रद क्षिणा देकर उनके हाथ में श्रा गया। फिर श्रीकृष्ण ने उसी चक्र को जरासिंध पर चलाया । चक्र ने जरासिंध का मस्तक छेद दिया और फिर श्रीकृष्ण के हाथ में आ गया। जरासिंध के मरते ही उसकी सेना भी इधर उधर भाग गयी और सब जगह श्रीकृष्ण की श्राज्ञा का विस्तार हुआ। श्रीकृष्ण जरासिंध के पुत्र को राज्य देकर अपने स्थान पर वापस आ गये ! जिस समय का यह कथन है उस समय यादवों को संख्या छप्पन करोड़ थी। वे संसार भर में प्रसिद्ध हो गये थे । श्रथानंतर कुछ समय पश्चात् भगवान् नेमिनाथ का विवाह जूनागढ़ के राजा उग्रसेन की राजमती नाम का पुत्री के साथ होना निश्चित हुआ । थोड़े ही दिनों में नेमिकुमार की बारात जूनागढ़ आ पहुँची । भगवान् तोरण के पास आए थे कि इतने में स्वामी ने पशुओंों के हृदय द्रावक चिल्लाने का स्वर सुना। उन्होंने अपने सारथी से पूछा ये पशु क्यों किलकार रहे हैं प्रौद निरपराध पशु क्यों बाँध रखे हैं । तब उत्तर में सारथी ने कहा--'महाराज आपकी बरात में जो मांसाहारी राजा ग्राए हैं उनके भोजन के लिए इनको वध करने के निमित्त एकत्रित कर रखा है ।' r 1 यह सुनते ही नेमकुमार के हृदय पर बड़ी चोट लगी और उसी समय अपने रथ को लौटा दिया और ये विवाह का सारा शृंगार तजकर रथ से उतर गिरनार पर्वत पर जा चढ़े और जिनदीक्षा ले ली। उग्र तपश्चरण कर छप्पन दिन के पश्चात् शुक्ल ध्यानाग्नि द्वारा चातिया कर्मों का नाश करके भगवान् केवलज्ञानी हो गये । केवलज्ञान के होते ही इन्द्र ने ग्राकर गिरनार पर्वत पर बारह सभायों से सुसज्जित समवशरण की रचना की। भगवान् को केवलज्ञान होने का समाचार सुनकर द्वारकापुरी से भी श्रीकृष्ण तथा द्वारिका के लोग भगवान् के दर्शन करने को आये और उनके साथ बहुतसी स्त्रियां भी श्राव और भगवान् का उपदेश सुनकर राजमती यादि अनेक स्त्रियों ने प्रायिकाओं के व्रतों की दीक्षा ले ली। बहुत से भव्यों ने उसी समय मुनिव्रत ग्रहण कर लिए। बहुतों ने ग्रणुव्रत धारण किये । कितनों ने केवल सम्यक्त्व ग्रहण किया। उस समय भगवान से देवकी ने तथा श्रीकृष्ण की स्त्रियों ने अपने-अपने अभीष्ट प्रश्न पूछे । भगवान् ने सय का यथार्थ उत्तर दिया। इसके पश्चात् बलदेव ने कुछ भविष्यवार्ता जानने की प्राकांक्षा से भगवान् से पूछा कि हे भगवान् ! जो संसार में जन्म लेते हैं उनका मरण अवश्य Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ - होता है और यही आपके शासन में भी उपदिष्ट है प्रतएव आप कृपा कर कहिये किद्वारावति को नाश हेतु किम होयगो । और कौन विधि कृष्ण मरण सो जोगो ॥ तब बोले भगवान् बलदेव तुम शुभ करि । सो सुन कारण सूप कहीं सब इस घरी ॥ भगवान ने कहा - ' बलदेव सुनो- मद के दोष उपाय द्वीपायन मुनि तें सही । बारह वरष सोजाय, होसी भसमी द्वारिका ॥ १ ॥ ग्रह पुनि जरद्कुमार ताके कर हरि मौत है । यह निश् चित घार तपलेसी सो उवरि है ॥२॥ णमोकार ग्रंथ जिनेंद्र भगवान् के मुखारविंद से ये वचन सुनकर बलदेव ने तत्क्षण ही श्रीकृष्ण के पास जाकर यह वृत्तांत सुनाया। सुनकर श्रीकृष्ण पुरी में यह घोषणा करवा दी कि जो कोई मनुष्य आज से मदिरापान करेगा वह राजाज्ञा का विद्रोही समझा जाकर उचित दण्ड का पात्र होगा और मदिरा सम्बन्धी जितनी सामग्री तथा पात्र जिसके यहां उपस्थित है वह आज ही सब ले जाकर नगर के बाह्र पर्वत की कन्दरात्रों में फेंकों और साथ ही यह भी घोषणा करवा दी कि मेरे परिजन तथा पुरजनों में से जिसकी दीक्षा ग्रहण करने की इच्छा हो वह ले लेवें। इस समय मैं किसी को नहीं रोकूंगा । यह राजाज्ञा होते ही मंदिरा की उत्पादक सामग्री तथा पात्रों को सब लोग कंदराओंों ने फेंक आये । श्रीकृष्ण की थाठों स्त्रियों तथा उनके पुत्र और प्रजा के अनेक लोगों ने निःशंक होकर जैनेन्द्री दीक्षा ग्रहण की। उधर यह वृत्तांत जब जरत्कुमार ने सुना तो वह भी अपने कुटुम्बी जनों को समझाकर घर से निकल कर वन में गुप्त रूप से खेटक का वेष बना कर रहने लगा । जब यह वृत्तांत द्वीपायन मुनि को मालूम हुआ तो वह भी द्वारकापुरी को छोड़कर अन्य देश में जाकर रहने लगे। परन्तु भावी को कौन रोक सकता है ? जैसाकि कहा गया है श्रवश्यं भाषि भावनां प्रतिकरोभवेद्यादि । तथा दुःखेन लिप्येन, बलराम युधिष्ठरा || अर्थात् जो होनहार है वह तो अवश्य होती है। यदि भावी को रोकने का कोई उपाय होता तो राजा नल, श्रीरामचन्द्र और राजा युधिष्ठिर दुःख को प्राप्त नहीं होते । तदनंतर बारह वर्ष में कुछ समय शेष रहने पर एक समय यादव गण कोड़ा करने को गये । क्रीड़ा करते-करते बहुत देर हो गयी तब उन्हें प्यास ने बहुत व्याकुल किया परन्तु वहां जल का कोई पता नहीं लगा । प्रन्त में खोज करते-करते वे उस स्थान तक पहुंचे जहां मंदिरा की निष्पन्न सामग्री डाली गयी थी। वहाँ वर्षा के होने से उस मादक सामग्री में जल के मिलने से वह गर्त भर गया और वे उसे पाकर बहुत प्रसन्न हुए। वे उसे जल समझकर पीकर द्वारकापुरी के पथ को ओर चल दिये । मार्ग में ही उनको बहुत तेज नशा हो गया। वे उन्मत्त होकर नाना प्रकार की निषिद्ध वेष्टाएँ करते हुए द्वारका के पास आए। वहां बारह वर्ष व्यतीत हुए जान नगरी को देखने के लिए द्वीपायन मुनि पाए थे। उन्हें देखकर इन्हें द्वीपायन मुनि के द्वारा नगरी के ध्वंस होने की बात स्मरण हो आयी। इससे क्रोधित होकर उन्होंने मुनि को असह्य कष्ट दिया। इससे मुनि अत्यंत क्रुद्ध हुए। मुनि के क्रोधित होते ही उनके बाए कंधे से अशुभ तैजस का पुतला निकला और उसके द्वारा समस्त द्वारका भस्म हो गयी । Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार ग्रंथ. २०५ श्री कृष्ण को जब इस भयंकर बृतान्त का ज्ञान हुआ तो वे उसी समय बलदेव सहित अपने माता-पिता को बाहर ले जाने का प्रयत्न करने लगे। परन्तु सब द्वारों के कपाट बन्द हो गये अतएव वे उसमें सफलता प्राप्त न कर सके। श्री कृष्ण को व्याकुल देखकर किसी देव ने कहा कि तुम व्यर्थ ही खेद उठा रहे हो समस्त द्वारका में तुम्हारे और बलदेव के सिवाय और कोई नहीं बचेगा । यह सुनते श्री कृष्ण समुद्र पर पहुंचे और वहां से जल का नाला लाकर अग्नि को शान्त करने लगे परन्तु प्रशुभोदय से वह जल भी तेल रूप होकर दूना दूना जलने लगा। ठीक ही है जब देव ही प्रतिकूल हो जाता है तब न तो पांडित्यता काम श्राती है न चतुराई। देवकी श्रौर वासुदेव अपना बचना कठिन समझकर सन्यास मरण कर उसके प्रभाव से स्वर्ग में देव हुए। देखते-देखते समस्त द्वारिकाभस्म हो गयी। इस घटना को देखकर श्रीकृष्ण और बलदेव बहुत दुःखी हुए और व्याकुलचित्त होकर साश्रुपात रुदन करने लगे । बहुत देर पश्चात् कुछ धैर्य धारण कर दोनों वहां से चल दिए । जब कौशांबी नगरी के वन में श्राए तत्र श्रीकृष्ण बहुत व्याकुल हुए। उन्होंने बहुत तृपातुर होकर वलदेव से जल लाने के लिए कहा। बलदेव उनको एक वृक्ष की छाया में बैठाकर आप जल लाने के लिए चल दिए परन्तु वहां वन में जल कहां ? पर वे खोज करते-करते बहुत दूर चले गये वहां उनको एक सरोवर दिखाई दिया। वे वहां पहुँचे और कमलपत्रों का पात्र बनकर उसमें जल लेकर आने लगे। इधर उनके जाते ही श्रीकृष्ण शीतल पवन चलने के कारण वृक्ष के नीचे लेट गये और उन्हें निद्रा भी आ गयी । अकस्मात् दैवयोग से उधर जरत्कुमार आ निकले। श्रीकृष्ण के पांव में चमकते हुए पद्म को देखकर उनके चित्त में कल्पना उठी कि यह कोई मृग सो रहा है और जो यह चमक रहा है वह उसका नेत्र है। ऐसा विचारकर उन्होंने शीघ्रता से वाण चला दिया। बाण के लगते ही श्रीकृष्ण चिल्ला उठे और बोले कि- 'मुझको वन में अकेले सोते हुए देखकर किस पापी ने बाण मारा है ? मुझको मारकर उसने क्या लाभ उठाया ? रुदन का यह शब्द सुनकर जरत्कुमार दौड़े आए। देखा तो श्रीकृष्ण सिसक रहे हैं। उससे यह घटना देखी न गयी और वह मूर्छित होकर भूमि पर गिर पड़ा। कुछ देर पीछे सचेत होकर कहने लगा हा हा तात कहा भयो, यह दुःखकारण प्राय । मैं खल प्राय रहो लहां तो भी भषो बनाय ॥ श्रीकृष्ण जरत्कुमार को पश्चात्ताप करते हुए देखकर क्षमा करके बोले - 'भाई ! जो होना था वह तो हो चुका। सब तुम व्यर्थं शोक न करो। मेरे कहने से तुम अभी यहां से चले जाओ । बलदेव मा गये तो तुमको मार डालेंगे। तुम ये सब वृत्तांत पांडवों को जाकर कह देना ।' निदान श्रीकृष्ण ने जरत्कुमार को बलदेव के आने से पहले पांडवों के पास भेज दिया और परलोकवासी हो गये । इतने में बलदेव भी जल लेकर आ गये । श्रीकृष्ण को मृत्यु शय्या पर शयन करते देखकर भी मोह के वशीभूत हुए उन्हें रुष्ट हुआ जानकर प्रसन्न करने के लिए अनेक प्रकार से विनययुक्त वचन कहते हुए जल पीने का प्राग्रह करने लगे। कभी उनसे हास्य करने लग जाते और कभी रोने लग जाते । श्रीकृष्ण के शोक से उनकी पागलों जैसी अवस्था हो गयी। पांडवों को जब जरत्कुमार के द्वारा इस घटना का वृतांत विदित हुआ तब वे भी बलदेव के पास माए और उनकी इस अवस्था को देखकर बहुत दुःखी हुए। पांडवों ने बलदेव को बहुत कुछ दिलासा दिया और श्रीकृष्ण के शव का अग्नि-संस्कार करने के लिए कहा, परन्तु वलदेव ने उनके कहने को बिल्कुल नहीं माना और उल्टे उनसे रुष्ट हो गये । Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार ग्रंथ जब देवों के प्रतिबोधन के द्वारा उनकी बुद्धि स्थिर हुई तब उन्होंने श्रीकृष्ण के शव का अग्नि संस्कार कर दिया और संसार को लीला से विरक्त होकर भगवान के निकट दीक्षा ग्रहण कर कठिन तपश्चरण करते हए अंत में समाधिमरण कर स्वर्ग में देव हए। इधर पांडवों ने भी भगवान के समाप जैनेंदी दीक्षा ग्रहण कर ली, देखो? यादवों ने केवल प्रज्ञान के कारण मादक जल का पान किया, उससे जब उनको ये अवस्था हई कि अपने कुल सहित सब नष्ट-भ्रष्ट हुए, तब जो जानकर मदिरा का पान करते हैं, उनको जानें क्या दशा होगी ? मदिरा पान से दोनो लोक बिगड़ते है। इसको पोकर जो अपने पापको पवित्र मानते और धर्मानुरागी कहते हैं, उनकी बुद्धि पर बड़ा आश्चर्य है क्योंकि इसको बनाने के लिए पहले तो महुअा, दाख प्रादि पदार्थ सड़ाए जाते हैं, जब उसमें दुर्गध पैदा हो जाती है तब उसमें असंख्यात, अनंत त्रस जीव उत्पन्न हो जाते हैं तब उन्हीं का यंत्रों के द्वारा अर्क निकालते हैं, उसी को मदिरा कहते हैं और इसको नीच जाति के मनुष्य हो निकालते हैं । फिर जो इसका पान करते हैं, उनका धर्म कैसे रह सकता? कदापि नहीं रह सकता और इसके पान से अविवेकी होकर दराचरण करताना मनष्य अन्त में दुर्गति का पात्र होता है। इससे बहुंत से शारीरिक और मानसिक कष्ट भी सहने पड़ते हैं । मदिरा-पान से ही यादवों का सर्वनाश हुआ, यह प्रसिद्ध ही है । अतएव मदिरा पान को अतिनिद्य, दुर्गति एवं दुःखों का दाता जान कर सर्वथा त्याग कर देना चाहिए । यही नहीं, इसका स्पर्श भी नहीं करना चाहिए। ॥ इति मदिरा व्यसन वर्णनम् ।। ॥ अथ घेश्या-ध्यसन-वर्णन-प्रारम्भः ।। छंद- धन कारण पापिनि प्रीति करें, नहि तोरत नेह जया तिनको। लब चाखत नोचन के मुख की, शुचिता कब जाय छिये तिनको। मद मस बजारम खाय सबा, अन्धले विसनी न करे घिमको। गनिका संग जे शठ लीन भये, धिक है धिक है धिक है तिनको ।। जिस प्रविवेकिनी ने तीव्र लोभ के वश में होकर वेश्यावृति को अंगीकार कर अपने कोमल तन को अपनी प्रतिष्ठा लज्जा को अपने प्रमूल्य पतिव्रत को नीच लोगों को बेच दिया है, ऐसी वेश्या का सेवन करना महानिद्य हैं। यह वेश्या बड़ी ठगनी है। जो एक बार भी इसके पास मा जाता है, उसको अपने जाल में फंसाने के लिए मीठी-मीठी बातें करती है फिर दूसरे का विश्वास तो अपने ऊपर करा लेती है परन्तु पाप दूसरे के ऊपर विश्वास नहीं करती है और धन के लोभ से उसको अपने हाव-भाव विलास प्रादि के द्वारा अपने पर प्रासक्त कर निरन्तर द्रव्य हरण का प्रयास करती है। इस पर एक कवि ने कहा है : वर्शनात् हरते चिस, स्पर्शात हरते यलम् । भोगात् हरते बोय, मेश्या साक्षात् राक्षसी ।। Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार ग्रंथ २०७ वर्ष :-अर्थात् देखने से मन का हरण करती है" स्पर्श करने से बल को हरती है और काम सेवन करने से वीर्य को प्रतएव वेश्या साक्षात् राक्षसी है। दूसरे यह धन की दासी है। किसी पुरुष विशेष की स्त्री नहीं है क्योंकि जब तक मनुष्य के पास धन रहता है तब तक उससे दिखाऊ प्रीति करते हुए सम्पूर्ण धन को हरकर अपने उस प्रेमी को मृतक के समान छोड़ देती है जैसे कि लक्ष्मी पुण्य क्षीण होने पर पुरुष को जोड़ देती है। द्रव्य को हरना तथा कष्ट प्रापदा मौर रोगों को देना हो इसका कार्य है । जो इस वेश्या का सहवास करता है और समागम करता है, यह उन अपने भक्तों को मांस, मदिरा जूमा आदि दुर्व्यसनों में फंसाकर कष्ट मापदा का कोष बनाकर सर्वस्व हरण कर उसके बदले में उपदंश मूत्रकृच्छ प्रादि रोग रूप पारितोषक देकर दुर्गति का पात्र बना देती है। यह अपवित्रता की भूमि और विष की बेल है । जैसा कि कहा है वृष्टि विषा यह नागनी, देखत विष चढ़ जाय । जीवन का प्राण को, मरे नरक ले जाय । हीन चीन तें लीन है लेती अंग मिलाय । लेती सरवस सम्पदा, देती रोग लगाय ।। यह सुयश तथा धर्म-कर्म का मूलोच्छेदन करने वाली है। जो लोग वेश्या सेवन में फंस जाते हैं, उनके जाति-पाति विचार प्रतिष्ठा प्रोर लज्जा तथा धर्म-कर्म सब नष्ट हो जाते हैं । धर्महीन प्रविवेकी इस लोक में निंद्य गिने जाते हैं और परलोक में कुगति को प्राप्त होते हैं। प्रतएव वेश्या संगम अति दोषों का स्थान होने से विचारशील पुरुषों के लिए सर्वथा त्यागने योग्य है । देखो ! वेश्या सेवन से सेठ चारूदत्त नाम के पुरुष ने कैसे-कैसे दुःख भोगे? उसके दुखानुभव से सर्वसाधारण को शिक्षा प्राप्त हो, इसलिए उसका उपाख्यान करते हैं इस जंबूदीप के भरत क्षेत्र में प्रग देश के अन्तर्गत चम्पा नाम की सुन्दर नगरी है । उसके राजा विमलवान थे। उनके राज्य में भानुदत्त नाम का एक सेट रहता था उसकी स्त्री का नाम देविला था बहुत दिन प्रतीक्षा करने पर बड़े ही कष्ट से उसे एक पुत्र प्राप्त हुमा जिसका नाम था चारुदत्त । भानुदत्त ने पुत्र जन्म के उपलक्ष में बहुत उत्सव किया, दान दिया, पूजा प्रभावना की। बंधु-बांधयों को बड़ा मानन्द हुमा । जब चारुदत्त सात वर्ष का हो गया तब इनके पिता ने इसे पढ़ाने के लिए इसके गुरू को सौंप दिया। इसकी बुद्धि बड़ी तीक्ष्ण थी और फिर इस पर गुरू को कृपा हो गयी। इससे वह थोड़े दिनों में पढ़-लिख कर अच्छा विद्वान बन गया। पढ़ने-लिखने में इसकी इतनी अधिक कचि थी कि इसका ये एक प्रकार से व्यसन हो गया था अतएव उसे पढ़ने-लिखने के अलावा और कुछ सूझता ही नहीं था। तदन्तर इसकी बुद्धिमत्ता पर प्रसन्न होकर चम्पा नगरी के रहने वाले सिद्धार्थ नामक सेठ ने अपनी पुत्री मित्रावती का विवाह चारुदत्त के साथ कर दिया। यद्यपि चारुदत्त ने गृहस्थाश्रम में प्रवेश किया तथापि वह अपना समय पढ़ने-लिखने के सिवाय दूसरे किसी काम में व्यतीत नहीं किया करता या। एक दिन उसकी स्त्री अपनी माता के यहां गयी। उसने अपनी पुत्री को वस्त्राभूपण सुगंधादि से सुसज्जित देखकर कहा, "प्यारी पुत्री जसा मैंने कल तुझको सांयकाल भूषणादि से सुसज्जित देखा था वैसे ही अब भी देख रही हूं भौर चन्दन भी वैसा ही लगा हुआ मालूम होता है। इसका तो रात्रि के समय नियम से परिवर्तन हो जाना चाहिए था। क्या तेरा प्राणप्यारा तुमसे कुपित तो Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० णमोकार बंग नहीं है। सुनकर मिश्रावती ने कहा- माताजी । तुम अपने जमाता का मुझ पर कुपित होना समझती हो। पर यह बात नहीं है। उनका तो समस्त समय पढ़ने-लिखने में ही जाता है। इससे मेरा उनसे समागम नहीं होने पाता । अस्तु, हो या न हो मुझे इस बात की कोई चिन्ता नहीं।' पुत्री के बचन सुनते ही सुमित्रा को क्रोध आ गया । वह उसी समय चारुदत्त को माता के पास गयी और कहने लगी-सेठानी तेरा पुत्र पढ़ा तो बहुत है परन्तु मेरी दृष्टि में तो अभी मूर्ख ही मालुम होता है जो विवाह हो जाने पर भी स्त्रियों के सम्बन्ध की बात को बिल्कुल नहीं सोचता जानता जिन पर कि सारे संसार की स्थिति निर्भर है । यदि तुमको रात दिन पढ़ाना ही था तो मेरी पुत्री के साथ उसका विवाह करके वृथा ही इसको क्यों कुए में ढकेली। सुमित्रा के क्रोधायुक्त वचन सुनकर देविला ने उसको कोमल वचनों से समझाकर उसे उसके घर भेज दिया और अपने देवर को बुलवाकर समस्त वृतान्त समझाकर उसको इसका यल करने के लिए कहा ! सुनकर रुद्रदत्त ने कहा-आप इसकी चिन्ता न करें मैं अभी इसका प्रबन्ध करता हूँ। ___ यह कहकर रुद्रदत्त वहां से चल दिया और उसी चम्पापुरी में रहने वाली बसन्ततिलका नामक गणिका के निकट स्थित रूप लावण्य में प्रसिद्ध वसन्तसेना नामक वेश्या के पास गया और उससे कहने लगा कि देखो मेरे बड़े भाई का एक पुत्र है जिसका नाम चारुदत्त है और जिसका विवाह भी हो चुका है परन्तु वह अभी तक यह भी नहीं जानता कि भोग विलासादि क्या है ? अतएव तुम ऐसा कोई उपाय करो जिससे वह सब बात जानकर काम क्रीड़ा की ओर झुक जाय । तुम्हें इसका उचित पारितोषिक दिया जायगा । यह कह कर रुद्रदत्त अपने घर पर चला गया और एक महावत को बु से गप्त रीति से कहा-देखो जब हम चारुदत्त को लेकर बाजार में घूमने जावें तब तुम बसन्तसे के घर के सामने दो हाथियों को लड़ा देना जिससे लड़ाई के कारण मार्ग न मिलने से चारुदत्त को विवश होकर उसके घर का प्राश्रय लेना पड़े। तब सहज ही हमारे अभीष्ट की सिद्धि हो जायगी। तदन्तर एक दिन रुद्रदत्त चारुदत्त को लेकर नगर की शोभा देखने यहां प्रा निकले और महावत ने भी जैसे उसे कहा गया था उस समय वैसा ही किया। हाथियों के लड़ने से जब मार्ग बन्द हो गया तो वह चारुदत से बोला-जब तक हाथियों की लड़ाई शान्त न हो जाए तब तक ऊपर चलकर ठहरो। ऐसा कहकर शीघ्रता से हाथ पकड़कर उसे ऊपर ले गया। चारुदत्त उसके मन्दिर की शोभा देखकर चकित सा रह गया। वेश्या ने इनको बहुत आदर-सत्कार के साथ बिठाया और समय व्यतीत करने के छल से रुद्रदत्त के साथ चौपड़ खेलने बैठ गयी। खेल में रुद्रदत्त ही बार-बार हारने लगा। तब चारुदत्त ने सोचा कि चाचाजी बार-बार क्यों हार रहे हैं ? ऐसा सोचकर कहने लगा चाचा जी लामो एक दो बार मैं भी खेल जिस से भापकी जीत हो । ' सुनकर वसंततिलका चारुदत्त से कहने लगी हे सेठ के नन्दन । देखो मैं तो अब वृद्धा हो एकी प्रौर तुम प्रभी नवयुवक हो इसलिए तुम्हारा मेरे साप खेलना शोभा नहीं देता तुम्हारा खेलना तो मेरी पुत्री वसन्तसेना के साथ ही शोभा देगा क्योंकि वह तुम्हारी जैसी ही नवयौवन सम्पन्न है। तुम अब उसी के साथ खेलना । मैं अभी उसको बुलाए देती हूँ। बसन्तसेना बुलाई गयी। चारुवत्त उसी के साथ खेलने लगा५ खेलते हुए चारुदत्त को तृषा ने सताया। बसन्त सेना से पहले गुप्त मन्त्रणा Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार ग्रंथ २०९ हो चुकी थी अत: वह जल में नशीली कामोत्पादक वस्तु मिला लाई और उसे चारुदत्त को पिला दिया। जल के पीने के कुछ समय पश्चात ही क्रामदेव ने उसे पीड़ित किया। उसने तव अपने चाचा रुद्रदत्त से अपने घर पर चले जाने के लिए कहा। सद्रदत्त के घर जाने पर पाप वसन्तसेना को एकांत में ले जाकर उसके साथ सब का प्रभव करने लगा । ज्यों-ज्यों यह विषय सेवन क उसकी कामाग्नि घृत में अग्नि के समान अधिक होती गयी वह निरन्तर बसन्तसेना के निकट रहने लगा और बहुत सा धन अपने घर से मँगा-मँगाकर उसे समर्पित कर दिया । __जब इसके पिता भानुदत्त को यह वृतान्त मालूम हुआ कि पुत्र वेश्या पर आसक्त हो गया है अतएव न तो घर आया है और न ही घर माने की उसकी इच्छा ही है बहुत सा द्रव्य भी नष्ट कर डाला है। तब तो इनको बड़ी चिन्ता हुई। उन्होंने अपने एक अनुचर को उसे बुलाने के लिए भेजा, परन्तु चारुदत्त ने आने से इन्कार कर दिया। फिर दूसरी बार उन्होंने कहलवाया-तेरे पिता असाध्य रोग से पीड़ित हैं अत: उनका इलाज करवाना माहिए। परन्तु वह तब भी नहीं पाया । कुछ दिन के अन्तर से तीसरी बार फिर सेवक को भेजा और कहलवाया-तेरे पिता की जीवन यात्रा समाप्त हो चुकी है उनका अग्नि संस्कार तो कर आ। पर वह इस पर भी नहीं आया और उल्टा कहलवा दिया कि हमारे कुट म्बीजनों से कह देना कि पिताजी के शव का चन्दन प्रादि सुगंधित वस्तुओं से अग्नि संस्कार कर देखें। दुल के बचा गुनका भानु दिदाग विग्रब इसका इस दुर्व्यसन से छूटना असंभव है। जैसा जिसका कर्म होता है उसी के अनुसार उसका भविष्य होगा। अत: मैं भी अपने कर्तव्य कर्म से क्यों चूक यह सोचकर चारुदत के पिता ने जैनेद्री दीक्षा ग्रहण कर ली भौर मुनि होकर विचरने लगे। उधर चारुदत्त की दिनों दिन वरी दशा होने लगी। बहत साधन तो पहले ही नष्ट कर चका था और रहा सहा प्रब कर डाला । जब अन्त में कुछ भी पास नहीं रहा तब अपने घर को भी गिरवी रख दिया अन्तिम परिणाम यह हुआ कि उसने अपना सब कुछ नष्ट कर दिया। उसकी माता तया स्त्री एक अच्छे धनाड्य घर की ग्रहणी होकर भी झोंपड़ी में रहने लगी। सच है कर्म का परिपाक बड़ा बुरा होता है । जब चारुदत्त की निर्धनता का वृतान्त वसन्ततिलका को मालुम हुमा तब उसने अपनी पुत्री वसन्त सेना को एकान्त में ले जाकर कहा पुत्री मब चारुदत्त बिलकुल दरिद्र हो गया है । प्रतएव तुझको उचित है कि अब इससे प्रेम हटाकर किसी धनिक युवा से प्रेम कर क्योंकि देश्यामों का यही कर्तव्य है कि वे द्रव्य से प्रेम करती हैं किसी पुरुष विशेष से नहीं। कामदेव के समान सुन्दर शरीर होने पर भी निर्धन होने के कारण वह उसे छोड़ देती है। अभी तू बालक है । सम्भव है तुझको यह बात न मालूम हो इसलिए तुझको मैंने इससे परिचित करा दिया है। अब निज कर्तव्य का पालन कर । __ वसन्तसेना अपनी माता के बचनों को सुनकर कहने लगी। माताजी यद्यपि भाप सत्य कहती हैं परन्तु मुझसे तो ऐसा अनर्थ नहीं हो सकेगा। इस जीवन से तो मेरा यही दरिद्र स्वामी होगा। मेरा ऐसा हार्दिक दृढ़ संकल्प है। वसन्तसेना प्रपनो माता के बुरे भाव जानकर निरन्तर चारुदत्त के पास रहने लगी। एक दिन अवसर पाकर पापिनी बसन्ततिलका ने भोजन में कुछ नशीली वस्तु मिला चारुदत्त और वसन्तसेना Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१. णमोकार ग्रंथ को खिलादी । अत: भोजन करने के थोड़े समय बाद उन दोनों पर निद्रा देवी ने अपना अधिकार कर लिया । निदा के अधीन हुमा देखकर वसन्ततिलका ने चारुदत्त को एक कपड़े से बाँधकर विष्ठाधाम में डाल दिया। कुछ समय पश्चात वही एक सुपर आ निकला चारुदत्त के मुख को विष्टायूक्त देखक उसे चाटने लगा। चारुदत्त नशे में चूर हुआ कहने लगा-प्यारी वसन्तसेने मुझे इस समय बहुत नींद पा रही है। अभी जरा मुझे सोने दो। वह बार-बार यही कह रहा था कि इतने में ही नगर का रक्षक कोतवाल अपने नौकरों सहित इधर प्रा निकला। उसने वार-बार इसी आवाज को सुनकर अपने नौकरों से कहा देखो । इस पुरीषागार में कोन बोलता है ? नौकरों ने जब इसे बंधा हुआ पड़ा देखा तो पाखाने में से बाहर निकाला और पूछा कि तू कोन है और यहां इस पाखाने में कैसे गिर पड़ा है ? यह सुनकर चारुदत्त की अक्ल कुछ ठिकाने आई तब उसने उस प्रवस्था का समस्त वृतान्त कह सुनाया। कोतवाल ने इसे बहुत धिक्कारा और इस व्यसन की निन्दा करता हुआ अपने नौकरों सहित चला गया । इधर चारुदत्त वहाँ से चलकर अपने घर पर गया । परन्तु द्वारपालों ने उसे भीतर नहीं जाने दिया। तब चारुदत्त ने उन नौकरों से कहा कि यह घर तो मेरा है फिर तुम मुझे अन्दर क्यों नहीं जाने देते ? उमपर चारुदत्त से उन लोगों ने कहायद्ययि यह घर तेरा ही है परन्तु अब तो यह हमारे स्वामी के यहां धरोहर रूप में रखा हुआ है इस लिए तेरा इस पर कुछ अधिकार नहीं है।" चारुदत्त ने पूछा-प्रस्तु क्या तुम यह जानते हो कि मेरी माता और स्त्री अब कहाँ रहती हैं ? यह सुनकर नौकरों ने उनके रहने की झोंपड़ी बतला दी । चारुदत्त तब अपनी माता के पास गया। चारुदत्त की माता को उसकी यह दशा देखकर बड़ा दुःख हमा। यही दशा अपने प्राण प्यारे को देखकर उसकी स्त्री की हुई। माता ने पुत्र को गले लगाया और स्नान कराकर उसको शुद्ध किया। माता ने पुत्र के लिए भोजन तैयार किया। चारुदत्त ने भोजन कर माता से कहा-माता इस समय पैसा पास न होने से हम लोग बड़ी दुःख पूर्ण अवस्था में हैं। मेरी आकांक्षा है कि विदेश में जाकर कुछ धन अर्जित करूं इस दरिद्रावस्था में न मुझे सुख हो सकता है और न तुम्हें, इसलिए तुम मुझे जाने की माज्ञा दो। जब इसके मामा को इसके विदेश जाने का वृतान्त मालुम हुआ तो उसने आकर कहा-यदि तुम्हारी व्यापार करने की इच्छा हो तो मेरे घर पर चलो और वहां पर यथेच्छित द्रव्य से व्यापार करना । परन्तु चारुदत्त ने इसको स्वीकार नहीं किया। वह बोला मामाजी! अब तो मेरी विदेश जाने की आकांक्षा है । चारुदत्त के मामा ने फिर उससे विदेश न जाने का आग्रह नहीं किया । चारुदत्त अपनी माता व धर्मपत्नी को संतुष्ट कर वहां से चल दिया। घर से निकलने पर प्रथम तो बेचारे चारुदत्त ने प्रति प्रयत्न और परिश्रम से कई बार धनोपार्जन किया परन्तु अशुभोदय से वह भी तस्करों द्वारा लूटा गया तथा अग्नि द्वारा भस्म हो गया उसने अनेक कष्ट तथा आपदायें भोगीं। फिर भी वह सुख मोक्ष सुख को देने वाली जिन भक्ति पूजा दान प्रादि सत्कों से प्रवृत रहता था। जन्त में जब अधिक पुण्य कर्म का उदय पाया तब तो वह देव, विद्याधर तथा राजा महाराजाओं द्वारा सम्मानित होने लगा। अपनी कौति रूप पताका को उसने प्रचल रूप से फहरा दिया। बड़े-बड़े महापुरुषों के द्वारा उसका Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार ग्रंथ यशोगान होने लगा। चारुदत्त की प्रसिद्धि तथा परोपकारता से प्रसन्न होकर इसके सिवा विद्याधरों ने अपनी सुन्दर-सुन्दर राजकुमारियों का विवाह बड़े वैभव के साथ कर दिया। कुछ वर्षों तक विदेश में ही अपनी स्त्रियों के साथ सुखोपभोग करते हुए उसने प्रचल कीर्ति अजित की। अपने घर से गये बहुत दिन हो चुके थे इसीलिए अपना सब माल असबाब लेकर अपनी प्रियाओं सहित जब वह अपने घर प्राने लगा तब उसके साथ बहुत से विद्याधर उसे पहुंचाने के लिए चम्पानगरी तक पाए । महाराजा विमलवाहन ने जब चारुदत्त के विदेशागमन का समाचार सुना तो वे भी अगवानी करने को उसके सम्मुख आये और उसे देखकर बहुत प्रसन्न हुए। चारुदत्त भी महाराजा के आगमन का समाचार जानकर बहुत प्रफुल्लित हो स्वयं उत्तमोत्तम वस्तुएं भेंट में देकर मिला । पारुदत्त की भेंट से महाराजा बहुत प्रसन्न हुए। चारुदत्त कुमार को सुयोग्य समझकर उन्होंने अपना प्राधा राज्य उसे प्रदान कर दिया। महाराज से मिलने के अनंतर चारुदत्त अपनी दुखिनी माता और प्राण प्रिया से मिलने को गया। माता बहुत दिनों से बिछड़े म पु को पाकर बहुत प्रसन्न हुई। चारुदत्त को स्नेह से गले लगाया और शुभाशीष दिया । अपने प्यारे प्राणनाथ को पाकर उसकी प्रिया को भी सुख हुआ । वसंतसेना को जब यह वृत्तात विदित हुआ कि उसकी माता ने 'वरुदत्त को पुरोषागार में डाल दिया था और वह यहां से चला गया था तो उसने भी अपने मन में यह दृढ़ संकल्प कर लिया कि मेरे इस जीवन का स्वामी चारुदत्त है। उसके अतिरिक्त अन्य किसी को विकार दृष्टि से नहीं देखूगी। इसलिए वह भी चारुदत्त का विदेशगमन सुनकर बहुत संतुष्ट हुई और चारुदत्त ने अपनी पूर्वावस्था में जितना धन उसको समर्पित कर दिया था, वह सब अपने साथ लेकर वह चारुदत्त के यहाँ आ गयी। चारुदत्त का भव सब कार्य पूर्ववत् होने लगा। उसे पुथ्योदय से जो राजलक्ष्मी प्राप्त हुई, उसे वह मुखपूर्वक भोगने लगा इसके दिन प्रानन्द और उत्सव के साथ बीतने लगे। एक दिन अपने महल पर बैठा हुआ वह प्रवृति की शोभा को देख रहा था इतने में ही उसे एक बादल का टुकड़ा देखते-देखते छिन्न-भिन्न होता दिखाई दिया। उसको देखने से इसे संसार लीला भी वैसी ही प्रतीत होने लगी । वह उसी समय संसार से उदासीन हो गया और अपने बड़े पुत्र को राज्य देकर बहुत से राजाओं के साथ संसार सागर से उद्धार करने बाली जिन दीक्षा ग्रहण कर ली। सत्पश्चात कठोर तपश्चरण कर सर्वार्थ सिद्धि में जाकर देव हुआ। देखो ! पहले तो चारुदत्त की क्या अवस्था थी । कसा उसका बैभव था? परन्तु जब से वह वेश्या के जाल में फंसा तब से उसकी कत्ती दशा होने लगी थी? अंत में उसने कैसे प्रसह्य दुख भोगे । जब वह परिहार पूर्वक जिनेन्द्र भगवान के चरणारविंदों का भक्त हुआ उनके द्वारा भाषित दयामयी धर्म का सेवन करने लगा तो वही पब स्वर्ग भोक्ता हुमा प्रतएव भव्य जीवों को उचित है कि चारुदत्त की कथा पर पूर्णतया विचार कर इस धर्म कर्म, पवित्रता, सत्यता, पौर दया का मूलोच्छेदन करने वाली वेश्याओं के सेवन दूर से हो त्याग करें। (इति वेश्या व्यसन कयन समाप्तम्) ।। अथ खेटक व्यसन-वर्णन प्ररम्भः ।। पपनी रसना इन्द्रिय की लोलुपता से तथा अपना शौक पूरा करने के लिए प्रयवा कौतुक निमित्त बेचारे निरपराधी, भयभीत, अरण्वासी पशु पक्षियों को मारना-इससे बड़कर और क्या निष्टरता तथा निर्दयता हो सकती है ? देखो जैसे हमें अपने प्राण प्रिय होते हैं और जरा सा काँटा लग जाने Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ णमोकार मंथ प्रत्यन्त दुखी होते हैं इसी प्रकार वे भी सुख-दुःख ग्रानन्द और पीड़ा का अनुभव करते हैं। खाद्य पदार्थ तथा जल के न मिलने से दुःखी होते हैं चोट लगने से कष्ट पाते हैं। प्यार करने और भोजन पाने से हर्षित होते हैं। मनुष्य की तरह खाते हैं, पीते हैं, हंसते हैं, रोते हैं, बोलते हैं, सोते हैं, और अन्य कार्य करते हैं अपने सहवासियों के साथ दानन्द में मग्न हुए तृणादिक से उदरपूर्ति करते वन में ही श्रानन्द से दिन व्यतीत करते हैं । ऐसे निरपराधी मृगादिक जीवों को अनेक प्रकार के छलछद्मों द्वारा विश्वास उपजाकर उनके प्राणों का संहार करना अन्याय और निर्दयता है । इस शिकार के व्यसनी मनुष्य का हृदय बड़ा ही कठोर और निर्दय होता है। जैसे कहा गया है कानन में बसैरो सो श्रानन गरीब जीव, प्रानन सों प्यारों प्रात पूंजी जिस यहै है । कायर सुभाव घरै काहूं सों न द्रोह करें, सबही सों डरे दाँत लिये तृण रहे हैं | काहू सोंन रोष पुनि काहू पै न पोष चहे. काहू के परोष पर दोष नाहिं कहै है । नैक स्वाद सारिये को ऐसे मृग मारिये को हाहरे कठोर ! तेरो कैसे कर बहै है |1 इस शिकार के व्यसनी मनुष्यों का हृदय बड़ा ही कठोर और निर्दय होता है। बुद्धि उनकी बड़ी क्रूर होती हैं निरन्तर उनके हृदय में छलछिद्र और विश्वधात रूप पाप वासनाएं जाग्रत रहती हैं। बहुत से लोग इस व्यसन के सेवन को बड़ी वीरता का काम बताते हैं, परन्तु वह केवल उनकी स्वार्थान्धता है । वीरों का कर्तव्य है कि निस्सहाय, गरीब दीन अनाथ जीवों की कष्ट से रक्षा करें वही सच्चा बलवान क्षत्रिय है जो बलावान होकर इस निय, निर्दय और दुष्ट कृत्य में अपने बल का प्रयोग करता है वह वीर नहीं किन्तु धर्महीन है। निवेश आके द्वारा इस लोक में निद्य भौर दुःखित होते हैं व परलोक में कुगति को प्राप्त होते हैं। देखो ! इसी व्यसन के कारण ब्रह्मदत्त राजा राज्य भ्रप्ट होकर नरक गया । उसके दुखों से परिचित होने से सर्वसाधारण को शिक्षा प्राप्त हो श्रतः उसका उपाख्यान कहते हैं इस जम्बूद्वीप में भरत क्षेत्र के अन्तर्गत उज्जयिनी नाम की नगरी है। जिस समय का यह उपाख्यान है. उस समय वहां के राजा ब्रह्मदत्त को शिकार खेलने में बड़ी रुचि थी । उससे भी अधिक धर्म सेवन में उसकी अरुचि थी ठीक ही है, 'ऐसे निर्दयी परिणामी का धर्म से कैसा सम्बन्ध ? वह प्रतिदिन शिकार खेलने जाया करता था। जब उसे शिकार मिल जाता तो बहुत प्रसन्न होता श्री जब नहीं मिलता तो उससे अधिक दुःखी होता । इस प्रकार राज्य करते-करते बहुत दिन व्यतीत हो गये। एक दिन की बात है कि जब वह शिकार के लिए गया तो उसे किसी वन में मुनिराज के दर्शन हो गये। मुनिराज जी एक पाषाण की शिला पर ध्यानारूढ़ स्थित थे। मुनि के प्रभाव से ब्रह्मदत्त को उस दिन शिकार नहीं मिला और वह अपने घर लौट आया। दूसरे दिन भी वह शिकार खेलने को गया, परन्तु उसे शिकार नहीं मिला । यह देखकर बड़ा क्रोधित हुआ उसने मुनि से बदला लेने के लिए फिर एक दिन यह दारुण कर्म किया कि उधर मुनिराज तो नगर में आहार के लिए गए और इधर ब्रह्मदत्त ने प्राकर मुनिराज के ध्यान करने की शिला को अग्नि की तरह गरम करवा दिया। मुनिराज भोजन कर नगर से वापिस आये और निःशंक हो उसी शिला पर ध्यान करने के लिए बैठ गये। बैठते ही मुनिराज का शरीर जलने लगा । प्रसह्य वेदना होने लगी, परन्तु मुनिराज निश्चल रूप से घोर उपसर्ग सहते रहे अन्त में कुछ काल व्यतीत होने पर शुक्ल ध्यानाग्नि से कर्मों का नाश कर अन्तःकृत केवली हो मनन्तकाल स्थायी प्रविनश्वर धाम में जा बसे । Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गमोकार ग्रंथ २१३ इधर सात दिन भी न बीत पाये थे कि उस घोर पाप कर्म के उदय से ब्रह्मदत्त के सारे शरीर में कोढ़ निकल पाया 1 उसे इससे इतनी प्रसह्य पीड़ा हुई कि वह इस पीड़ा से एक जगह बैठ भी नहीं सकता था और अन्य लोग भी उसे घृणा की दृष्टि से देखने लगे। जब उसने देखा कि इस व्याषि की निवृति होना असाध्य है तो उसने प्रति दुःखी हो जोवित ही तन को अग्नि में भस्म कर डाला और इस मार्तध्यान से मरकर सप्तम नरक में गया। नरक में उसने सैंतीस सागर पर्यंत छेदन, भेदन, यन्त्रों के द्वारा पिलना और प्रग्नि में जलना प्रादि कठिन-कठिन दुःख भोगे । वहां से निकलकर तिर्यच गतियों में भी अनेक बार जन्म-मरण करता हुमा अन्त में फिर नरक में गया। वहां उसने बहुत दुःख सहे। कपा तहां के दुःख की, कोकर सके बखान । भुगतं सो जाम सही, के जाने की भगवान ।। प्रतएव बुद्धिमानों को उचित है कि इस निर्दयी व्यसन को प्रति निद्य, दुर्गति एवं दुःखों का दाता जान कर सर्वथा त्याग करें । देखो इस ही व्यसन के कारण ब्रह्मदत्त को नरक के दुःख भोगने पड़े ! उसने उस पाप से कितने-कितने दुःख भोगे, उनको लेखनी से, लिखना भी असंभव है। ॥ इति खेटक व्यसन वर्णन समाप्तः ॥ ॥ मथचोरी व्यतन वर्णन प्रारम्भः॥ बिना दिये किसी की वस्तु लेने को चोरी कहते हैं। चोरी करने में पासक्त हो जाना चोरी ज्यसन है। जिनको इस निंदनीय कम को करने को प्रादत पड़ जाती है, वह धन-सपत्ति युक्त होते हुए भी तीव्र लोभ के वशीभूत हो महान् कष्ट आपदा का कारण जानते हुए भी चोरी करता है। ऐसे पुरुषों को न तो कोई मपने समीप बैठने देता है। चोर से सब ही जन भयभीत रहते हैं; वह भाप भी सदेव भयभीत रहता है। प्रति क्षण प्राण जाने तक का संकट उपस्थित रहता है। धन का हरण करना तो चोर का काम है ही। यदि धन का हरण करते हुए कोई जाग्रत हो जाए और रोके तो चोर प्राणों का भी हरण कर लेता है। पकड़ा जाए तो आप भी अनेक दुःखों का भागो होता है शारीरिक और मानसिक कष्ट उठाने पड़ते हैं। राजदंड, जातिदंड के दुख भोगकर निदा का पात्र बनते हरभव में नीच गतियों के दुःख भोगते हैं। ऐसा जानकर दृढ़चित्त शुभबुद्धि पुरुषों को उचित है कि दूसरी की भूली हुई तथा अपने पास घरो हर रखी हुई वस्तु को दबा लेने की इच्छा न करे और न बहुमूल्यपदार्थ के बदले में अल्पमूल्य पदार्थ देने की तथा न बहुमूल्य में अल्पमूल्य को मिला कर देने की इच्छा करे क्योंकि ये सब चोरी के ही पर्याय हैं। देखो, इस चोरी के कारण ही शिवभूति पुरोहित कितनी-कितनी आपदाओं को भोगकर दुर्गति को प्राप्त हुआ। उदारणार्थ उसका उपाख्यान प्रस्तुत है जिससे उसके दुःखों से परिचित होने से सर्वसाधारण इन पन्याय रूप प्रसत्क्रियामों से चित्त को हटाकर सक्रिया में प्रवृत्ति करेंगे इसी भरतक्षेत्र के अन्तर्गत बनारस नगर में जयसिंह नाम का राजा अपनी विदुषी महारानी जयवती सहित राज्य करता था। उसके नगर में शिवभूति नाम का पुरोहित रहता था। शिवभूति बड़ा सत्यवादी था। उसकी इस सत्यता के कारण वह सत्यघोष के नाम से स्मरण किया जाता था। राजा इसे सत्यवादी समझकर इसका बहुत सम्मान करता। इसी विश्वास के कारण लोग इसके यहां अपनी अमानत का धन रख जाया करते थे। Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार प्रय एक दिन पचपुर के सेठ धनपाल ने देवयोग से द्रव्योपार्जन करने के लिए देशांतर जाने का विचार किया और वहाँ से चलकर इस बनारस नगर में पाया। चित्त में विचारने लगा कि अपना धन धरोहर किसके यहाँ रखू ? उसने वहां के लोगों से पूछा तब निर्णय हुमा कि सत्यघोष नाम का पुरोहित निष्कपट मौर महासत्यवादी है । धनपाल लोगों के कथनानुसार सत्यघोष के पास गया और सविनय निवेदन करके बोला- महाराज । मैं आप को सेवा में इसलिए प्राया हूँ कि मेरे पास पांच पांच करोड़ के चार रत्न है । मैं उन्हें वस्त्र में बाँध कर आपको सौंप देता हूँ। पाप सावधानी से इनकी रक्षा करें। यदि दैवयोग से मुझे कदाचित धनहानि उठानी पड़ी तो मैं इनसे अपनी जीवन-लीला सुखपूर्वक व्यतीत कर सकूगा । धनपाल पुरोहित के पास अपने रत्नों को रख कर विदेश गमन के लिये चला गया। वह रह वर्ष तक विदेश में रहा । उसने वहां व्यापार के द्वारा बहुत सा धन अजित किया। जब वह जहाज से वापस पा रहा था तो देव के दुविपाक से उसका जहाज मार्ग में फट गया अर्थात टक्कर खाकर टुकड़े टुकड़े हो गया। उस बेचारे का समस्त धन जहाज के साथ ही डूब गया परन्तु उसे एक लकड़ी का टुकड़ा हाथ लग गया जिससे वह उसके प्राश्रय से कठिनाइयों को उठाता हुमा समुद्र के तट पर प्राकर अपने नगर में मा गया। उसने जिन मंदिर में जाकर भगवान के दर्शन कर उनका गुणानुवाद किया और मार्ग जनित श्रम की निवृत्ति के लिए दो दिवस पर्यंत वहीं ठहरा । तीसरे दिन यह पुरोहित महाराज के पास पहुंचा। पुरोहित जी महाराज सेठ को देशांतर से उल्टा पाया जान झट से चलकर अपने सभानिवासी मनुष्यों से कहने लगे—'देखो, शकुन के द्वारा जाना जाता है कि प्राज मुझको कोई बड़ा भारी कलंक लगेगा। बेचारे सभास्थित सरल स्वाभावी मनुष्यों ने उसके हृदय स्थित कपट को न जानकर कहा'महाराज! पाप तो महासत्यवादी हैं । भला पाप को कैसे कलंक लग सकता है।' लोग यह कह ही रहे थे कि इतने में मलिन वस्त्र पहने हुए धनपाल वहीं उपास्थित हो गया और नमस्कार करने के प्रमन्तर अपना समस्त वृत्तान्त निवेदन कर कहने लगा-"महाराज पाप मेरी पमानत वस्तु दे दीजिए।" कुछ न सनने की चेष्टा दिखाते हए सत्यघोष ने कहा-"भाई ! देव की गति विचित्र है। जैसा भाग्य त्य होता है वैसा ही भोगना पड़ता है। अच्छा, ठहरो, तुम्हें कुछ दान दिये देता हूं जिससे तुम फिर अपना प्रबन्ध कर लेना।" पुरोहित का कहना सुनते ही सेत का रहा-सहा धैर्य भी आता रहा और कहने लगा--"महाराज! यह माप क्या कहते हैं ? मुझे तो श्राप के वान की आवश्यकता नहीं है। आप तो केवल मुझे मेरे रत्न दीजिए।' रत्नों का नाम सुनने ही सत्यघोष के कपट-क्रोध का कुछ ठिकाना नहीं रहा। वह लाल प्रांखें बनाकर बोला-"देखो, यह कैसा झूठ बोल रहा है। मैंने तुम लोगों से पहले ही कहा था कि मुझको माज का दिन अच्छा नहीं है। यही होकर रहा । तत्रस्थित मनुष्यों ने भी हां में हां मिलाकर कहा-"महाराज! वेचारे का सब धन नष्ट हो गया है। उसी के कारण यह विक्षिप्त-सा मालुम होता है क्योंकि धन के नष्ट हो जाने से बुद्धि ठिकासे नहीं रहती । श्रम सा हो गया है।" बेचारे धनपाल को सभी ने विक्षिप्त ठहरा कर घर के बाहर निकलवा दिया। तब धनपाल ने राधा के पास जाकर पुकार करी। अपना सब बृत्तांत कह सुनाया। परन्तु उसका भी कुछ फल नहीं हुमा । सब उसे ही विक्षिप्त बताने लगे। निदान धनपाल को उसी दुखी दशा में लौट पाना पड़ा। Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार पंच २१५. उसकी कुछ सुनाई नहीं हुई। वह अपने निर्वाह का कुछ उपाय न देखकर जिनमंदिर में जाकर रहने लगा जो कोई श्रावक उसे बुलाकर ले जाता उन्हीं के यहाँ जाकर वह भोजन कर माता और जिनमंन्दिर में ही रहा करता था । अन्त में उसने एक युक्ति की । जब मर्द्धरात्रि होती, तब वह राजा के महल के नीचे एक वृक्ष पर बैठकर उच्च स्वर से पुकारता - "महाराज ! आप धर्म प्रधर्म के जानने वाले हैं। प्राप को मेरो प्रार्थना पर ध्यान देना चाहिए कि जब मैं समुद्र यात्रा को गया था तब पाँच करोड़ लागत के रत्न आपके पुरोहित के पास रख गया था। जब मैं समुद्र यात्रा से लौट कर भाने लगा, तो देव दुर्विपाक से मेरा जहाज फट गया और मैं बड़ी कठिनाई से निकला । अब मैं अपने रत्न वापिस मांगता हूं तो मुझे देता नहीं है उल्टा मुझे विक्षिप्त बताकर प्रसिद्ध कर दिया। आप मुझे मेरे रत्न दिलवा दीजिए।" इसी तरह प्रतिदिन वह चिल्लाने लगा । ऐसा करते करते उमे बहुत दिन व्यतीत हो गये । एक दिन रानी जयवती ने महाराज ने कहा- "प्राणनाथ ! यह मनुष्य कौन है जो बहुत दिनों से रत्नों के लिए पुकारता है ? " तब राजा ने कहा- "यह मनुष्य विक्षिप्त हो गया है ।" महारानी बोली -नाथ प्राप इसे विक्षिप्त बताते हैं यह नहीं समझ में भाता कि इसमें विक्षिप्त होने की बात क्या है ? विक्षित मनुष्य एक ही बात को बहुत दिनों पर्यंत नहीं कह सकता वरन् प्रतेक प्रकार के वचन कहता । सुझ मालुम होता है कि इस सहाय के न्याय को और आपका लक्ष्य ही नहीं जाता ।" उत्तर में महाराज बोले- "यदि तुम इसे निर्दोष समझती हो तो तुम ही इसका न्याय करो । महाराज के वचनों को सुनकर महारानी जयवती ने इसकी परीक्षा का भार अपने ऊपर ले लेना स्वीकार किया और कहा - "महाराज ! आपको इतनी देर यहाँ हो ठहरना होगा ।" राजा ने कहा - "अस्तु स्वीकार है । " महारानी ने उनसे चौसर खेलना आरम्भ कर दिया । इतने में पुरोहित महाराज भी वहां पहुंच गये और भाशीर्वाद देकर तिथिपत्र पढ़ने लगे। जब वे अपना पाठ पूरा कर चुके तो महारानी ने उनसे भी खेलने के लिए कहा। पुरोहित जी बोले- 'महारानी ! मैं क्षुद्र पुरुष आपके साथ कैसे खेल सकता हूं ? " महारानी बोली- ---"आपने यह अच्छा कारण बतलाया। क्या पिता पुत्री के साथ नहीं खेल सकता महाराज ने भी महारानी के वचनों का समर्थन कर कह दिया- "पुरोहित जी खेलिए । इसमें क्या दोष है ?" महाराज के आग्रह से बेचारे पुरोहित को खेलना पड़ा। खेलते-खेलते महारानी ने अपनी चतुरता से एक चाल चली । वह पुरोहित जी से बोली- 'महाराज ! अब ऐसा कीजिए कि प्राप मुझे खेल में हरा दोगे तो मैं अपनी मुद्रिका आपको दे दूंगी और यदि मैंने आपको हरा दिया तो आप अपनी मुद्रिका दे देना । पुरोहित जी ने लोभवश रानी के इस बचन को स्वीकार कर लिया । अव दोनों वास्तविक हार जीत से खेलने लगे। महारानी ने उनके साथ में दोसार खेलकर मुद्रिका जीत ली और अपनी दासी को गुप्त रूप से मुद्रिका देकर धनपाल वाले रत्नों के लिने के लिए उनके घर पर भेजा दासी ने पुरोहित के घर जाकर वह मुद्रिका दिखाकर कहा--"देखो पुरोहित जी ने यह अपनी मुद्रिका की निशानी देकर कहलवाया है कि इसके देखते ही धनपाल के जो चार रत्न रखे हुए है वे दे देना ।" वह बिगढ़ कर बोली - "जा चली जा यहां से जाकर कह देना मेरे पास कोई रन नहीं है । Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार च दासी चली आई | जाकर अपनी स्वामिनी को ज्यों का त्यों सारा वृतांत कह सुनाया। रानी ने दूसरी बार पुरोहित के गले का हार जीत लिया। उसे दासी को देकर फिर ब्राह्मणी के पास भेजा । दासी फिर पुरोहित की स्त्री के पास गई और जाकर कहने लगी- "देख तेरे स्वामी ने अबकी बार हार की निशानी देकर मुझसे कहलवाया है कि मैं बड़े संकट में फस गया हूं यदि मुझको जीता देखना चाहती हो तो हार को देखते हो रत्नों को दे देना ।" ब्राह्मणी ने अपने पति को संकट में आया हुआ जानकर शीघ्रता से घर में से उन्हीं चार रत्नों को हार के लाने वाले को दे दिया। महारानी ने उन रत्नों को लेकर खेलना बन्द कर दिया औरत की यो मुद्रा तथा गने का हार जीता था वह उसको वापिस देकर कहा - "पुरोहित जी अब समय बहुत हो गया है प्रतएव खेलना बन्द कीजिए ।" महारानी के कहने से उसी समय हो खेल बन्द कर दिया गया। तत्पश्चात रानी जयवती उन रत्नों को अपने स्वामी को गुप्त रीति से देकर वहाँ से विदा हुई। महारानी के चले जाने के अन्तर राजा ने शिवभूति से पूछा - "पुरोहित जी चोरी करने वालों के लिए नीति शास्त्र में क्या दण्ड विधान है ? २१६ सुनते ही सत्यघोष कहने लगा- "महाराज ! या तो उसे सूली पर चढ़वाना चाहिए या तीक्ष्ण शास्त्रों द्वारा उसके खण्ड-खण्ड करा देना चाहिए।" इस पर कुछ न कहकर महाराज ने वे चारों रत्न पुरोहित जी के सामने रख दिए और कहा कि- "पापी, द्विज कुलकलंक, कह तो सही, अब इस पाप का तुझे क्या दण्ड देना चाहिए ? तूने बेचारे भोले पुरुषों को इस तरह धोखा देकर ठगा है " पुरोहित जी रत्नों को देखते ही चित्रलेख के समान निश्चल हो गये। मुख की कांति जाती रही। फिर महाराज बोले- "पुरोहित जी ! आपको सूली का सुख तो अभी दिलवा देता परन्तु मापने ब्राह्मण कुल में जन्म लिया है इसलिए इससे प्रापकी रक्षा करके कहा जाता है कि मेरे यहाँ बार मल्ल हैं। तुम या तो उनमें से प्रत्येक के हाथ के चार-चार मुक्कों की मार या एक थाल गोबर की भक्षण करो यदि ये दोनों प्रस्वीकृत हों तो अपना सर्वस्व मेरे सुपुर्द कर देश छोड़कर चले जाओ । निदान उसने अपने लिए दण्ड की योजना सुनकर चार मल्लों द्वारा मुक्कियां सहना स्वीकार किया । राजाशा होने पर मल्लों ने घूंसे लगाने आरम्भ किये। घूंसों की मार पूरी भी नहीं हुई थी कि सत्यघोष के प्राण निकल गये । पाप का उचित दंड मिल गया। पुरोहित जी प्रातध्यान से मरकर सूर्य की गति में गये । तदनन्तर राजा ने धनपाल को बुलाया । उसकी प्रशंसा कर उसके रत्न और पारितोषिक देकर धनपाल को उसके घर पहुंचा दिया। बुद्धिमानों ! देखो, चोरी कितनी बुरी भावत है। चोरी के करने से पाप का बन्ध होता है । सब गुण नष्ट हो जाते हैं। धन का नाश हो जाता है । कुल को कलंक लगता है शारीरिक, मानसिक अनेक कष्ट उठाने पड़ते हैं। राजदंड, जातिदंड के दुःख भोग निंदा और कुगति का पात्र बनना पड़ता है। किसी कवि ने ठीक कहा है "चिता तर्जन चोर रहत चौंकाय सारे पोटं घनी विलोक लोक निर्वयि मान मरे । प्रजापाल करि कोप तोष सों रोप उड़ायें, ऐसे महामुख पेरिव अंत नोची गति पावे । प्रति विपत मूल चोरी विसन, प्रकट त्रास भावे नदर । वित्त पर प्रदत्त अंगार, गिन नीतिनिपुन परसे न कर ॥ Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार ग्रंप ऐसा जानकर बुद्धिमान पुरुषों को उचित है कि इस दारुण दुःखदाई पाप कर्म का परित्याग कर पात्मा को पूर्ण शांति देने वाले पवित्र जिन शासन की शरण ग्रहण करें। 11 इति चोरी व्यसन वर्णन समाप्तः ।। ॥प्रय परस्त्री व्यसन प्रारम्भः ॥ देव, गुरु, धर्म और पंचों की साक्षीपूर्वक पणिग्रहण की हुई स्त्री के प्रतिरिक्त अन्य स्त्रियों के साथ समागम करने में आसक्त हो जाना परस्त्री व्यसन कहलाता है । लज्जा, मर्यादा, उज्वल सुयश, सत्यता, प्राचौर्य प्रादि उत्तम गुण नष्ट होकर राजदंड, जातिवंड जनित धन हानि और शारीकि कष्ट प्राप्त हो निदा एवं परलोक में नरक आदि कुगतियों के पात्र बनते हैं। कहा भी है कुगति बहन गुण गहन, बहन दावानल सी है। सुजना इंद्र धम घटा, वेहश करमणई है। षम सर सोषण धूप परम दिन साँझ समानी । विपत्ति भुजंग निवास, मोबई व बसानी। इहि विधि अनेकौगुण भरी, प्राण हरन फासी प्रवस । मत कर कुमित्र यह जानि जिय, परवमिता सौ प्रीतिपल । इस पापाचार से होने वाली हानियों का विचार कर बुद्धिमानों को उचित है कि इसका शुद्ध चित्त से सर्वथा परिहार करें। जो परस्त्री संसर्ग का परित्याग कर देते हैं वे संसार में निर्भय हो जाते हैं। उनकी उज्जवल कीति सब दिशामों में विस्तृत हो जाती है। देखो इसी व्यसन की इच्छा तथा उपाय करने मात्र से विखण्ड का स्वामी रावण मरकर नरक में गया। उसके कुल में कलंक लगा, लोक में एब तक उसका अपयश चला पाता है। अब यहाँ पर उसी के उपख्यान का वर्णन किया जाता है जिससे उसके तज्जनित दुःखों से परिचित होने से सर्वसाधारण इस प्रन्याय रूप पसत्यकर्म का परिहार कर सत्कर्म में प्रवृत्ति करेंगे राक्षस द्वीप के अन्तर्गत लंका नाम की नगरी में राक्षस वंशीय त्रिखंडेश रावण प्रपनी विदुषि प्रधान महारानी मंदोदरी सहित प्रजा का पालन करता था। रावण के कुम्भकर्ण मौर विभीषण नाम के दो भाई थे और इंद्रजीत तथा मेघनाथ आदि बहुत से उसके पुत्र पे। रावण बड़ा प्रतापी, भाग्यशाली और महान पराक्रमी था। सब राजा-महाराजा उसका पादर करते थे। रावण का बहनोई सरदूषण था उसकी राजधानी अलंकारपुर थी । वह भी रावण के समान त्रिखंडाधिपति और महाबली था। राक्षसदेशी तथा बानरबंशी सब इसके प्राशाकारी थे। एक समय कैलाश पर्वत पर जब केवली भगवान की गंधकुटी में विद्याधर प्रादिधर्मोपदेशामृत का पान करने पाये थे । उस समय सब धर्मोपदेश श्रवण कर अपनी अपनी शक्ति के अनुसार प्रत नियम मादि ग्रहण किये तब रावण ने भी अपनी सुन्दरता के घमण्ड में माकर यह प्रतिक्षा ग्रहण की कि जब तक मुझे परस्त्री न चाहेगी तब तक मैं बलात्कार से उसके साथ समागम नहीं करूंगा। तदनन्तर रावण व्रत धारण कर अपने घर चला गया और फिर सुखपूर्वक प्रजा का पालन करने लगा। प्रब रावण ने जो दूसरे की स्त्री हरी थी, वह कौन थी किसकी स्त्री पी मौर कैसे हरी थी, ऐसे प्रश्न उपस्थित होने पर इस कथा से सम्बन्ध रखने वाले रामचन्द्र की कथा इस प्रकार है Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१% णमोकार ग्रंथ कौशल देश के अन्तर्गत अयोध्या नाम की नगरी में राजा दशरथ राज्य करते थे । इनका जन्म इक्ष्वाकु बंश में हुआ था। ये नीतिज्ञ और बुद्धिमान थे इनकी धार रानियां थी। उनके नाम क्रमशः कौशल्या, सुमित्रा, केकई तथा पराजिता थे। चारों के क्रमशः रामचन्द्र, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न ये चार पुत्र हुए। अपने सुशील पुत्रों के साथ महाराजा दशरथ मानन्द भोगते हुए सुख पूर्वक अपनी प्रजा का पालन करते थे। बड़े-बड़े राजा महाराजा इनकी प्राशा के अधीन थे। एक दिन उन्होंने दर्पण में अपने मुख मण्डल की शोभा का निरीक्षण करते हुए कानों के पास एक हवेत केश देखा । इसके देखने मात्र से इनके हृदय में वैराग्य का अंकुर उत्पन्न हो गया वे विचारने लगे काल के घर का दूत अब प्रा पहुंचा इसलिए इन विषयों से इन्द्रियों को खींचकर अपने वश करू । इन इन्द्रियजन्य क्षणिक सुखों को मैंने बहुत दिन भोगा है ! त स अंनिशावामा में भाग उति है कि राज्यभार को रामचन्द्र को सौंपकर अविनश्वर मोक्ष महल के देने वाली जैनेन्द्री दीक्षा स्वीकार करू । इसके पश्चात अपने विचारानुसार राजा दशरथ ने अपने सभी कुटुम्बी जनों को बुलाकर उनके समक्ष रामचन्द्र को राज्यभार देना चाहा । जब यह वत्तांत 'रानी केकई को मालम हा तो वह उसी समय राजा के पास प्राई और अश्रुपात करती हुई बोली-"महाराज ! मुझ दासी को प्रकेली छोड़कर प्राप कहाँ जाते हैं ? मैं भी आप के साथ चलूंगी। प्रापके न होते हुए मुझ पुत्र और राज्य से क्या प्रयोजन ? कुलवती बिदुपी स्त्रियों को प्रापति के साथ वन में भी क्यों न रहना पड़े उनके लिए वही सुख स्थल और महतों से भी बढ़कर सुखदाई है ।" दशरथ बोले -"प्रिये ! तुम मेरे साथ वन में चलकर क्या करोगी? तुम यहां रहकर अपने पुत्र को सुखी देखते हुए मानन्दपूर्वक अपने दिन बितामो।" यह सुनकर भरत बोल उठा-"पिताजी ! मुझे घर से कुछ प्रयोजन नहीं है। पापके साप ही साप में भी दीक्षा धारण करूंगा।" भरत का भी दीक्षा लेना जानकर केकई बोल उठी-"प्राणनाथ ! जो आपने मुझे स्वयंवर के समय वचन दिया या वह यदि प्रापको स्मरण हो तो मुझे देकर मेरी प्राशा पूर्ण कीजिए।" उत्सर में दशरथ ने कहा- "प्रिये ! यह न समझो कि मैं अपने वचन को भूल गया हूं। मुझे भली प्रकार स्मरण है तुम्हें जो अभीष्ट हो वही मांगो मैं तुम्हारी इच्छा पूरी कहंगा क्योंकि सब ऋणों में बचन ऋण बड़ा भारी है।" यह सुन केकई नीचा मुखकर बोली-"प्राणनाथ यदि पापका आग्रह है तो सुनिये ! खेद की बात यह है । इधर तो ग्राप चले उधर पुत्र भी दीक्षा लेना चाहता है। ऐसी अवस्था में पति पुन रहित होकर मैं प्रभागिनी ही अकेली रहकर क्या करूगी ? प्रतएव यदि प्राप उचित समझते है तो भरत को अपना राज्य और राम को वनवास दीजिए।" कैकई की यह बुरी भावना जानकर राजा दशरथ चिता के मारे चित्रलिखित से हो गये । मुख कमल कान्ति विहीन हो गया । वे विचारने लगे कि यदि इस समय भरत को राज्य नहीं देता तो मेरे वचनों को कलंक लगता है और भरत को राज्य दे भी दिया जाय तो कुछ नहीं परन्तु मुझसे कैसे कहा जा सकेगा कि रामचन्द्र तुम वनवास सेवन करो, अब यह राज्य भरत को दिया जाएगा। वे इस चिता के मारे मन ही मन बड़े दुखी हो रहे थे कि इतने में ही श्री रामचन्द्र प्रा पहुंचे और पिता जी के मुख को निष्प्रभ देखकर मंत्रियों से पूछते लगे-"पिताजी, आज कुछ चिन्तायुक्त क्यों मालूम पड़ते हैं ?" " उत्तर में मंत्रियों ने चितित होने का समस्त वृत्तात कह सुनाया। सुनते ही रामचन्द्र बड़ी धीरता के साथ बोले-"क्या यही छोटी-सी चिंता महाराज के दुःख का कारण है? इस लघु वार्ता के Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ममोकार प्रेम २१६ लिए पिताजी को चितित नहीं होना चाहिये । मेरी समझ में तो यही उचित जान पड़ता है कि पिताजी को अपना वचन पूर्ण करने के लिए माता कैकई की अभिरुचि के अनुकूल भरत को राज्य-तिलक कर देना चाहिए और मेरे लिए जो माता की प्राशा हुई है उसको मैं सानन्द पालन करने के लिए तत्पर हूं। क्या प्राप नहीं जानते हैं कि संसार में वे ही पुत्रपद' को प्राप्त हैं जो पिता के पूर्ण भक्त और सदैव माज्ञानुवर्ती हों प्रतएव मैं पिताजी के वचनों को प्राणप्रण से पूर्ण करने का उद्योग करूगा । ___इतना कह कर रामचन्द्र ने उसी समय भरत के ललाट पर राज्यतिलक कर दिया और माप पिताजी के चरणों को नमस्कार का जपण भाई को साय लेकर वहां से चल दिये । पुत्र की यह अभूतपूर्व बीरता महाराज दशरथ नहीं देख सके । पुत्रों के जाते ही मूछित हो गये । रामचन्द्र जी वहां से चल कर अपनी माता के पास पहुंचे और उन्हें सादर नमस्कार कर माता से सविनय प्रार्थना की --'माता जो, हम पिता जी के वचनों को पालन करने के लिए बन जाते हैं। जब हम अपनी कहीं सुव्यवस्था पौर सुयोग्य प्रबंध कर लेंगे तब हम पापको भी ले जायेंगे। अतएच आप किसी प्रकार का दुःख न करना।" इस प्रकार अपनी माता को समझाकर वे दोनों भाई जनकनन्दिनी सीता को साथ लेकर घर से निकलकर वन की पोर चल दिये । उनको जाते हुए देख प्रजा के बहुत से मनुष्य राम-लक्ष्मण के साथ हो लिए। उन्होंने उनको बहुत समझाया, और अपने साथ चलने से रोका पर उनको अपने युवराज का प्रगाष प्रेम वापिस कैसे जाने देता ? रामचन्द्र जो के बहुत रोकने पर भी वे लोग उनके पोछे पीछे ही चले जाते थे। कुछ दूर चल कर उन्हें एक अन्धकारमय भयानक अटवी मिली। वहीं एक बड़ी भारी और गहरी नदी बह रही थी। धीर वीर राम और लक्ष्मण तो नदी के पार हो गये, परन्तु और लोगों के लिए यह मसंभव हो गया । अन्त में जब उन्हें अपने नदी पार होने का कोई उपाय न सूझा तब उन्हें इनके वियोग रूप दुःख दशा में अपने स्थान को लौट पाना पड़ा। इसके अतिरिक्त ये बेचारे और कर भी क्या सकते थे। जब भरत ने सब लोगों के साथ रामचन्द्रजी को न पाते हुए देखा तो उन्हे बड़ा दुःख हुमा । रे उसी समय माता के पास जाकर कहने लगे-"माताजी! मैं रामचन्द्र जी के बिना किसी प्रकार भी राज्य का पालन नहीं कर सकता प्रतः या तो उन्हें वापिस लाने का यल करो, नहीं तो मैं भी वन में जाकर मा ग्रहण करता है। मागे पाप जसा उचित समझो वैसा करो। मुझजा कहना था, वह कह चका।" पत्रके ऐसे मावचर्य भरे वचन सुनकर उसे बहस चिता हई। वह उसी समय उठी मोर पत्र तथा प्रौर कितने ही सुयोग्य पुरुषों को साथ लेकर रामचन्द्र के पास जा पहुंची। रामचन्द्र ने अपनी माता कापागमन जानकर कुछ दूर जाकर उनके चरणारविन्वों को नमस्कार किया। भरत रामचन्द्र जी को देखते ही उनके पारों पर गिर पड़े और गद्गद् स्वर से प्रश्रपात करते हुए बोले-"महाराज ! मुझ पर दया कीजिए । पाप पलकर अपना राज्य सम्हालिए । यह राज्य शासन प्राप हो को शोभा देगा। पाप बल कर अपने परण-कमलों से सिंहासन को पोभित कीजिए । नाथ ! यदिमाप प्रयोध्या की मोर गमन नहीं करेंगे तो यह निश्चय समझ लीजिए कि मैं भी वहां नहीं रहूंगा। प्रापके बिना मुझे राज्य से कुछ प्रयोजन नहीं है।" उत्तर में रामचन्द्र ने कहा-"भाई, तुम यह मत समझो कि मैंने माता से द्वेष करके वन में माना विचारा है किन्तु मुझे तो पिताजी के वचनों का पालन करना है। मैं प्राणप्रण से उनके वचन पूरे Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० नमोकार च करूगा, प्रतएव में किसी तरह से पीछे नहीं लौट सकता। तुम जानो और बारह वर्ष पर्यन्त प्रजा का पालन करो तब तक मैं इधर नहीं माऊगा। रामचन्द्र के ऐसे दृढ़ प्रतिज्ञासूचक वचन सुनकर भरत बहुत दुःखी हुए। उन्होंने फिर भी रामचन्द्र से उल्टा प्रयोध्या चलने का बहुत माग्रह किया। भरत का प्रति प्रामह देख श्री रामचन्द्र ने उत्तर में कहा कि-"भरत तुम अयोध्या में जाकर राज्य करो। पिताजी ने तुमको बारह वर्ष राज्य शासन करने की प्राशा दी है । तुम उनकी प्राज्ञा का पालन करो। इसका मुझे बड़ा प्रानन्द है। इसके अतिरिक्त मैं अपनी तरफ से और भी दो वर्ष के लिए तुम्हें राज्य प्रदान करता हूं। बौदह वर्ष से पूर्व मैं इधर न पाने की प्रतिज्ञा करता हूं। मैं कदापि नहीं लौटूगा प्रतएव तुम मुझसे अधिक प्राग्रह करना छोड़ दो। प्रषिक कहने से क्या लाभ ?" श्री रामचन्द्र के इस उत्तर से भरत यद्यपि बहुत खिन्न हुए परन्तु अन्त में अब उन्हें उनके वापिस लौटाने का कोई उपाय न सूझा तब उन्हें उसी दुख दशा में रामचन्द्र के चरणों में नमस्कार कर वापिस लौट जाना पड़ा भरत राज्य तो करने लगे पर रामचन्द्र के बिना सदा व्याकुलचित्त रहा करते थे। भरत के चले जाने के प्रनन्तर श्री रामचन्द्र भी वहां से चलकर चित्रकूट पर्वत पर पहुंचे। यहाँ पर कुछ दिन विश्राम करके उन्होंने मालवा देश की प्रोर प्रयाण किया और मार्ग में धर्मात्मा वनजंघ आदि गर्ने सत्पुरुषों के मामा निवारण कर रक्षा करते हुए अनेक राजा महाराजामों की सुन्दर-सुन्दर कन्याओं का लक्ष्मण से पाणिग्रहण कराते तथा वंशस्थल गिरि पर श्री देशभूषण-कुलभूषण मुनि पर हो रहे उपसर्ग का निराकरण कर धीरे-धीरे कुछ दूरी पर विश्राम करते बहुत दिन पीछे कम से दंडकवन में आ पहुंचे। यह बन भयानक प्रौर विषम था। पर ये दोनों धीर वीर भाई जनकनन्दिनी सहित यहां ही ठहरे। कुछ दिन चढ़ चुका था अतएव भोजन सम्बन्धी सामग्री लक्ष्मण ने एकत्रित की । सीता ने कुछ देर पीछे भोजन तैयार कर अपने स्वामी से कहा-प्राणनाथ रसोई तयार है। अब आप पूजन कीजिए। दिन बहुत चढ़ा जाता है। सीता के कहे अनुसार श्री रामचन्द्र जिनेन्द्र भगवान का पूजन कर अतिथि संविभाग के लिए सुयोग्य पात्र की प्रतीक्षा करने लगे। इतने में उनके प्रबल पुण्य से एक मास के उपवास किए हुए मुनिराज वहाँ उपस्थित हुए । रामचन्द्र ने उन मुनि महाराज के दर्शनों द्वारा अपने नेत्रों को पवित्र कर तीन प्रदक्षिणा देकर उनसे निवेदन किया-महाराज । पत्र तिष्ठ तिष्ठ तिष्ठ अन्न जल शुद्ध है। इस प्रकार प्रार्थना कर उनके चरण कमलों को धोया और उस पवित्र जल को अपने मस्तक पर लगाया। पश्चात रामचन्द्र और सीता ने मुनिराज को नवधा भक्ति पूर्वक प्राहार करवाया । उसी जगह एक वृक्ष की शाखा पर जटायु नाम का पक्षी बैठा हुमा था। उसने रामचन्द्रद्वारा की हुई क्रिया को देखकर विचारा कि हाय, धिक्कार है मेरे इस जीवन को जो मुझे पशु पयाय मिली। धन्य है इस जीवन को ओ इन्हें वैसे महात्मा की सेवा तथा भक्ति करने का अवसर मिला। ये बड़े पुन्यात्मा पौर भाग्यशाली हैं। यदि मैं भी पाज मानव पर्याय में होता तो क्या माण इस सुमवसर को खाली जाने देता, हे ! भगवान यदि कभी मुझे भी पुण्य के प्रभाव से मानव पर्याय प्राप्त हो तो में भी नियम से ऐसे महात्मानों की भक्ति सेवा करूगा। . इस प्रकार के पवित्र विचार उसके हृदय रूपी सरोवर में लहर लेने लगे । मुनिराज भोजन करने के अनन्तर वहाँ पर बैठे। तब रामचन्द्र ने नमस्कार कर पूछा-स्वामी यह स्थान इस प्रकार सूना कैसे Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमोकार प्रेष २२१ हो गया है और इसका नाम दंडकवन क्यों पड़ा है? तब मुनिराज बोले-सुन रामचन्द्र । इस देश के राजा का नाम था-दंडक । वह बड़ा तेजस्वी था। सारी पृथ्वी पर 'उसकी प्रसिद्धि हो रही थी। फिसो समय उसके राज्य में बहुत से दिगम्बर मुनि प्राए । पापो दण्डक ने उनके नग्न रूप को देखकर उनसे बरी घणा की और इसी घ्रणा के कारण उसने उन सब मुनियों को पानी में पेल दिया। उनमें से एक मुनि संघ के बाहर रह गये थे अतः जब वह मुनि पाए और नगर में प्रवेश करने लगे तो नगर निवासी मनुष्यों ने पूर्व मुनियों का पानी में पेलने का बतान्त कहकर उनसे नगर में जाने की प्रार्षना की मुनिराज साधुनों पर किए गए ऐसे अत्याचार की बात सुनकर बड़े क्रोधित हुए और क्रोष के आवेश में भरे हुए राजा के पास पहुंचे और बोले-रे दुष्ट पापी ! क्या हमारे निरपराध संघ को तूने ही मरवाया है । देख ! तू मब अपनी जीवन यात्रा को कैसे सुख से बिताता है। इस विषम कोप के साथ ही उनके वामस्कंध से पुरुषाकार एक तेजोमयी मूर्ति निकली और देखते-देखते राजा, प्रजा, पश्व प्रादि सबको भस्म कर साथ ही मुनिराज को भी भस्म कर दिया। राजा ने किए के अनुसार ही फल पाया और नरक में गया ! वहो नाना प्रकार के दुख भोगकर नरकायु पूर्ण कर प्रब जटायु का जीव हुआ है। यह तो इस स्थान के सुनसान होने का कारण है और इसके राजा का नाम दंडक होने से इसका नाम दंडक वन पड़ा। यह सब मुनि शाप का फल है । मुनि के द्वारा अपने पूर्व भव का बृतान्त सुनकर पक्षी को बहुत दुख दुगा। वह मूछित होकर शाखा पर से पृथ्वी पर गिर पड़ा। उसे पड़ा हुमा देखकर सीता को बहुत दया आई। उसने उसी समय उठकर पक्षो के ऊपर ठंडा जल छिड़का। कुछ समय पीछे उसकी मूर्छा दूर हो गयो । सचेत होकर रकता-सरकता मुनि के चरणारविन्दों में जा पहा और अपनी मात्रभाषा में बोला -स्वामी कृपानाथ मझ अनाथ, दोन पशु पर भी कुछ कृपा कीजिए जिस में मैं कुछ अपना मात्म कल्याण कर सकू। मेरा चित्त इस संसार दुख से बहुत भयभीत हो रहा है। मुनिराज ने जटायु की इस दशा को देखकर उसे सम्यकत्व ग्रहण करने का उपदेश दिया। जटायु ने मुनिराज की माज्ञा प्रमाण सम्यकत्व ग्रहणकर पंचाणुव्रत ग्रहण किए और जीवहिंसा का परिहार कर धर्म को मोर चित्त को लगाया। तत्पश्चात मुनिराज भी अपना उपदेश देकर वहां से विहार कर गये। सीता को जब यह ज्ञात हुआ कि इस पक्षी ने जीव हिंसा का त्याग किया है एवं इसकी जीवन रक्षा होना कठिन है तो वह स्वयं उसका पालन पोषण करने लगी। तदन्तर संध्या के समय भाई से प्राशा लेकर लक्ष्मण यह देखने निकले कि इस वन में कहीं हिंसक जीवों का निवास तो नहीं है। वे निर्भीक पले पा रहे थे कि इतने में उनके समीप एकाएक सुगंध मिश्रित पवन आई। लक्ष्मण भी उसी पोर चल दिए जिस मोर से सुगन्ध पा रही थी। थोड़ी दूर जाकर उन्होंने देखा कि एक गहन वास के बाहर के ऊपर केसर, चन्दन प्रादि सुगन्धित द्रव्यों से लिप्स तथा अन्य प्रकार के पुष्पों से सजा हुमा याद्रहास नाम का खड्ग लटका हुआ है। उन्होंने कौतुकवश उसे हाथ में ले लिया और उसे पलाना चाहा उन्हें न तो यह माल स था कि इस बांस के बीहड़ में कोई ध्यान लगाए हुए बैठा है और न खड्ग की दाकिा का ही परिचय था अतः खड्ग के बलाते ही बांस का बीहड़ और उसमें ध्यानावस्थित शंबूक कट कर गिर पड़ा। तत्पश्चात वह खड्ग उनका वंश कर उल्टा ही लक्ष्मण के हाथ में प्रा गया। खड्ग लेकर लक्ष्मण वहां से चल दिए पोर अन्य स्थान पर जा ठहरे। शंबूक कौन था और किसका पुत्र था उसको कथा इस प्रकार है Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३ णमोकार प्रेष प्रलंकारपुर नामक नगर के राजा का नाम खरदूषण था और उसकी स्त्री का नाम सूर्पनखा था । वह रावण की बहन थी। इसके बाम्बूक नाम का एक पुत्र या । यही शम्बूक उस गहन बोस के बीहड़ में चन्द्रहास खड्ग के सिद्ध करने के लिए बारह वर्ष से मन्त्र साधन कर रहा था। उसको गुरू ने मन्त्र साधन करने की विधि के साथ-साथ यह भी बतला दिया था कि बारह वर्ष के उपरान्त जव खड्ग प्रादुर्भूत हो तब सात दिन पीछे जिनेन्द्र भगवान का पूजन करने के पश्चात उसे ग्रहण करना । खड्ग को पाए पूरे सात दिन होने को पाए थे कि वैवयोग से लक्ष्मण उधर प्रा निकले मौर उनके द्वारा ध्वस हो गया । लक्ष्मण के खड्ग ले जाने के कुछ समय के अनन्तर उसकी माता सूर्पनखा भी भोजन लेकर मा पहुंची और वन को बिलकुल साफ देखकर मन में विचारने लगी कि मालूम होता है कि पुत्र में खङ्ग की शक्ति की परीक्षा की है। पुत्र को मन्त्र सिद्धि हुई जानकर वह बहुत प्रसन्न हुई परन्तु जब नीचे पाकर उसको खण्ड-खण्ड होते हुए देखा तो उसे खुशी के बदले महान दुख हुमा । परन्तु फिर भी भ्रम से यह समझकर कि कदाचित पुत्र ने यह अपने मन्त्र की प्राया फैलाई हो शीघ्रता से पुत्र के पास प्राकर कहने लगी-प्यारे पुत्र उठो, उठो । क्या तुम्हें मुझसे ही मायाचार उचित था । तू मेरे दुल की भोर तो जरा देख कि पाज बारह वर्ष हो गये मैंने अपने हृदय के टुकड़े को किस दुःखी दशा में छोड़ रखा है। हे पुत्र प्रब अपनी माया को छोड़कर मुझ से वार्तालाप कर। बहुत समय तक सूर्पनखा इसी प्रकार प्रार्थना करती रही परन्तु पुत्र उसी अवस्था में पड़ा रहा । प्रन्स में उसने पुत्र को मरा हुमा समझा । वह निराश होकर पुत्र के विषम वियोग से प्रषीरता पूर्वक साश्रुपात रुदन करने लगी, छाती कूटने लगी। उसे प्रपार दुख हुआ। बहुत समय तक चोर दुःख से प्रधीर होकर वह विलाप करती रही। पन्त में जब शोक का प्रावेग कुछ कम हुमा तो उसने विचारा कि अब रोने से ही क्या होगा? अब तो उस दुरात्मा की खोज लगाऊँ जिसने मेरे जीवन पवलम्ब निरपराधी पुत्र का प्राणहरण किया है। उस पापी को भी इसी दशा में पहुंचा जिससे मुझे कुछ संतोष हो। ऐसा विचार कर वह वहां से चलकर देखती-देखती वहीं प्रा निकली जहां धीर वीर लक्ष्मण ठहरे हुए थे। उनके हाथ में खड्ग को देखकर वह यह तो जान गयी कि मेरे पुत्र का प्राणघातक निश्चय पूर्वक यही है पर साथ ही लक्ष्मण की अनुपम स्वर्गीय सुन्दरता देखकर उसका हृदय उन पर मम्ध हो गया और काम ने भी इसके हृदय में निवास जमाना प्रारम्भ किया पत: कामातुर होकर पुत्र के शोक का विस्मरण कर वह विचारने लगी पुत्र तो प्रब मर ही दुका पुनः मब वीवित नहीं हो सकता । अतः इस मपूर्व सुन्दर पुरुष से विरोध करने तथा प्राणहरण कराने का यस्ल करने से क्या लामो सारतो इसमें है कि यह किसी प्रकार से मेरा स्वामी हो जाय तो फिर कहना ही क्या है? तब ही मेरा जीवन सुखरूप हो सकता है। ऐसा विचार कर उसने उसी समय अपने मायावल से अपमे को सोलह वर्षीय नवयौवन सम्पन्न कुमारी रूप में बदल लिया । सूर्पनखा बालिका बनकर लक्ष्मण के निकट गयी पौर रोने लगी। लक्ष्मण ने उसे रोती हुई देखकर पूछा-हे पालिके ! तू कौन है ? किसलिए इस मुनसान बन में पाई फोर किसलिए रोती है? मालिका ने उत्तर में कहा-4 छोटी अवस्था से अपने मामा के मही रहती थी। मेरा पालमा पोषण मामाजी ने ही किया है । जब मैं बड़ी हुई और मुझको ज्ञात हुमा कि मामा मुझको दुरी नजर से देखने लगे हैं तब यह वृतान्त मैंने गुप्त रीति से पिताजी के कानों तक पहुंचा दिया । पिताजी मुझको उसी समय ही सेनेमा गये। उनके साप अपने घर को जा रही थी कि मार्ग में उनको यहाँ विधाम करना पड़ा। कुछ रामि शेष रहने पर हम उठकर चले परन्तु सेव है कि पलते-चलते पिताजी तो माणे: Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार पंप २२३ निकल गये और मैं पीछे रह गयी। यही मेरा वन में रहने का कारण है। प्रब न तो मैं घर का मार्ग जानती हू मोर न पिताजी ही लौटकर मुझको लेने पाये हैं। प्राज मेरा बड़ा भाग्योदय है जो इस निर्जन वन में आप जैसे महाभाग्य के दर्शन हुए हैं। सुन्दर स्वरूप ! प्रापके इस कामदेव सदृश रूप पर मेरा हृदय न्यौछावर हुआ जाता है। प्रतः मापसे मेरा निवेदन है कि मुझ प्रनाथ बालिका को ग्रहण कर मुझको कृतार्य करें तो बहुत अच्छा हो। उत्तर में लक्ष्मण ने कहा-तुम जो कहती हो वह तो ठीक है परन्तु मैं तुमसे एक बात कहता है कि मेरे बड़े भाई के उपस्थित होते हुए मैं स्वयं तुम्हें ग्रहण नहीं कर सकता। प्रतएव तुम मेरे बड़े भाई के पास जाकर अपनी प्रार्थना करो। तुम यह न समझो कि मैं ही सुन्दर हूं किन्तु मेरे भाई मुझसे भी अधिक मुन्दर है तुम्हारी सुन्दरता के योग्य वह ही उचित जान पड़ते हैं। तुम उन्हीं के निकट जाओ। ___ इस प्रकार लक्ष्मण के कहने पर मूर्पनखा रामचन्द्र के पास पहुंची और कहने लगी मुझे प्राप से कुछ प्रार्थना करनी है। उसे आप ध्यान देकर सुन लें तो आपको बहुत कृपा हो मैंने पहले लक्ष्मण जी से विवाह करने का निवेदन किया था। उन्होंने कहा है कि मेरे बड़े भाई के पास जाकर निवेदन करो। मुझे अभी प्रवकाश नहीं है। उनके कथनानुसार मैं पापकी सेवा में उपस्थित हूं। मुझ प्रनाथ बलिका परं क्या कर पाणिग्रहण करके मेरे जीवन को कृतार्थ कीजिए ! प्राशा है कि प्राप मुझ मनाथ मजला पर दया कर स्वीकृति वचन प्रदान करेंगे।" रामचन्द्र ने उस कामातुर सूर्पनखा को वार्ता श्रवण कर उत्तर में कहा-“हे बाले ! अब तुम मेरे ग्रहण करने योग्य नहीं रही हो क्योंकि तुम मेरे छोटे भाई लक्ष्मण से अपने विवाह की प्राकांक्षा कर चुकी हो प्रतएव तुम अब लघु भ्रातृ जाया कहलाने योग्य हो । तुम लक्ष्मण के ही पास जाओ और उसी से अपनी इच्छा पूर्ण करो।" रामचन्द्र के वचन श्रवण कर सूर्पनखा फिर लक्ष्मण के पास गयी और उनको समस्त वृत्तांत सुनाया । लक्ष्मण ने फिर उत्तर में कहा-"तुम हमारे बड़े भाई से विवाह की इच्छा प्रकट कर चुकी हो प्रतएव तुम प्रब मेरे योग्य भी नहीं रही क्योंकि यह प्रसिद्ध ही है कि बड़े भाई की स्त्री माता के समान होती है प्रतएव तुम श्री रामचन्द्र के पास जाकर उनसे ही अपनी इच्छा पूर्ण करो।" निदान वह काम से पीड़ित होकर कितनी ही बार राम और लक्ष्मण के पास आई और गयी । पंत में कपटी बालिका रूप सूर्पनखा की यह दशा देखकर सोता ने उससे कहा-"तू बड़ो मूर्ख है। जरा अपने माप का भी तो ध्यान कर । जरा विचार तो कर कि कहीं काक के संसर्ग से मकान भी काला हुप्रा है।" सीता के कटाक्ष भरे वचन को सुनकर वह कहने लगी कि-"अच्छा ! तुझे काक संसर्ग से ही मकान काला होता दिखाऊँगी।" यह कहकर वह चली गयी । जाकर उसने मायामल से सपने शरीर को नखों से नोच कर केशों को बिखेरे हए धूल रमाकर अपने पति के पास गमन किया और मूछित होकर गिर पड़ी । खरदूषण ने शीतोपचार कराकर उसे सचेत किया और उससे पूछा-प्यारी। प्राज यह क्या हमा? किस पापी की मृत्यु पाई है जिसने तुम्हारी यह दुर्दशा की है ? प्रिय शीघ्र कहो ! मुझसे तुम्हारी यह दुर्दशा नहीं देखी जाती।" Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ णमोकार ग्रंप सूर्पनखा बोली-" प्राणनाथ ! मैं क्या कह | प्रपनी दुखी दशा को मैं ही जानती हूं।" इतना कहकर वह रो पड़ी और छाती कूटने लगी। तब खरदूषण ने उसे बहुत दिलासा दिया और इस प्राकस्मिक दःख का कारण पछा तब सर्वनला ने धैर्य धारण कर कहा-प्राण वन में दो मनुष्य और एक स्त्री ठहरे हुये हैं । उन्होंने मेरे प्राणों से प्यारे पुत्र को मार डाला और जब मैंने प्यारे पुत्र को यह दशा देखी तो मेरा साहस जाता रहा और मैं पुत्र के मस्तक को गोद में रख कर रो रही थी कि इतने में उन पापियों में से एक ने पाकर मुझसे अपनी बुरी वासना प्रकट की। मैंने उसको बहुत धिक्कारा, पर फिर भी उसने मुझसे बलात्कार करना चाहा तब मैं बड़ी कठिनता से आपके पुण्य के प्रसाद से अपने सती धर्म की रक्षा कर आपके पास पा सकी हूँ। मैं अपना बड़ा ही पुण्योदय समझती हूं जो आज उन पापियों के पंजे में पाए हुए भी मेरा धर्म सुरक्षित रह सका। प्राणनाय ! बड़े खेद की बात है कि प्रापके उपस्थित होते हुए भी नीच छुद्र पुरुषों के द्वारा पुत्र का मरण और मेरी ये दशा हो । मुझसे इन रंको द्वारा कृत अपमान नहीं सहा जाता। ऐसे जीवन से तो मरना हजार गुना अच्छा है । मुझे संतोष तो तभी होगा जब मैं उन दुष्टों के मस्तक को ठोकरों से ठुकराते हुए देखूगी।" सुनकर उत्तर में खरदूषण ने कहा-"प्रिये ! तुम अब इस चिंता को छोड़ो और महल में जाकर बैठो मैं अभी उनको इस दुष्कृत का परिणाम दिखा देता हूं। इस प्रकार प्रिया को तो धीरज बंधाकर महल में भेज दिया और पाप संग्राम के लिए तत्पर हो गया और एक दूत के द्वारा ये सब वृतांत रावण के पास भी कहला भेजा । उधर लक्ष्मण भी राम के पास पहुंचे। राम ने लक्ष्मण से कहा"लक्ष्मण ! तुमने जाना कि ये बालिका का रूप बनाये कौन थी ? मैं तो जहाँ तक समझता हूँ ये कोई राक्षसी थी।" इस प्रकार दोनों भाई परस्पर वार्तालाप कर ही रहे थे कि इतने में खरदूषण प्रचुर सेना सहित युद्ध के लिए भाता हुमा दिखाई पड़ा । प्रस्कमात ही इतना भारी समारंभ देखकर सीता बहुत डरी और राम की गोद में जा गिरी। रामचन्द्र जी ने भी जब दृष्टि उठाकर देखा तो उन्हें भी कुछ सन्देह हुमा। मोर संकेत करके लक्ष्मण से कहा-“भाई! ये लोग जो पा रहे हैं. वे छली मालम होते हैं । अतएव अब असावधान रहना उचित नहीं । यह सुन कर लक्ष्मण ने कहा- "स्वामी, पाप किसी प्रकार की चिंता न करें मैं इनको प्रभी इस कार्य का फल दिखाए देता हूँ। आप यहीं स्थित रहें क्योंकि सीता को ऐसी जगह अकेली छोड़ना उचित नहीं है। एक और प्रर्थना है कि जब तक मैं वापिस नहीं माऊँ तब तक माप यहीं रहें। कोई मापत्ति पामे पर मैं सिंहनाद करूंगा तब पाप प्राकर मेरी सहायता करना।' ___ यह कह कर लक्ष्मण धनुष-बाण ले युद्ध भूमि की ओर चल दिये। मुख भूमि में पहुंचते ही लक्ष्मण ने विद्याधरों की प्रोर दृष्टि उठाकर उन्हें ललकारा-"हे विद्याधरो ठहरो, कहां जाते हो? यदि कुछ वीरता रखते हो तो मुझे उसका परिचय दो।" लक्ष्मण का इसना कहना था कि ये सब चारों प्रोर से इसके ऊपर आक्रमण करने लगे और वाणों की वर्षा करने लगे। यद्यपि ये अकेले ही थे तथापि इनकी कुछ भी हानि नहीं पहुंचा सके। लक्ष्मण ने उग में प्राकर ऐसे जोर से बाण चलाए कि उन पर चक्र के पाने वाले बाणों को काटते हुए हजारों योद्धा धाराशायी हो गये । उस सेना में विराधित नाम का एक विद्याधर भी था। उसने लक्ष्मण के इस अलौकिक पराक्रम को देखकर मन में विचारा कि.खरदूषण मेरे पिता का वध कर्ता मेरा शत्रु है। उस समय तो मुझे शक्ति और सहायताहीन होने से शत्रु की ही सेवा करनी पड़ी थी, परन्तु अब सुयोग्य Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गमोकार व २२५ अवसर प्रा मिला है। अब इस महावीर की सहायता से मेरी इच्छा पूर्ण हो जाएगी प्रतएव इससे मैत्री करनी चाहिए । ऐसा विचार कर वह ससैन्य लक्ष्मण के पास पहुंचा और नमस्कार करके बोला-"महाराज ! हे स्यामी, मैं प्रापकी सेवा करने के लिए उपस्थित हुमा । दुरारमा खरदूषण ने मेरे पूज्य पिता का वध कर डाला है । उसके बदले की इच्छा से मैं प्रापकी सहायता लेने के लिए माया हूं। प्रागंतुक को सहायता देना आप जैसे उत्तम पुरुष का कर्तव्य है।" यह सुनकर लक्ष्मण ने कहा-"तुम इसकी चिता न करो। तुम्हारी इच्छा पूर्ण होगी, परन्तु मुझे एक बात यह पूछनी है कि मुझे धोखा देने तो नहीं आये हो! यदि तुम धोखा देने भी पाए हो तो मुझे इसकी चिंता नहीं। मैं तुम्हारी सहायता करूंगा।" उसर में विराधित ने कहा..."महाराज ! मैं शपथ पूर्वक कहता हूं कि मैं केवल अपने पिता का बदला लेने के अभिप्राय से सहायतार्थ प्रापके पास पाया हूं और किसी दुष्प अभिप्राय से नहीं । महाबाहु ! भाप तो खरदूषण से युद्ध करें क्योंकि वह महाबली हैं और शेष सेना के लिए मैं अकेला ही ऐसा कह विराधित तो खरदूषण की सेना से युद्ध करने लगा और लक्ष्मण की वरदुषण से मुठभेड़ हो गयी । इधर तो विराधित ने अपने वचन के कयनानुसार खरदूषण की सारी सेना को वश में कर लिया और उधर लक्ष्मण ने खरदूषण को जीत लिया । जब खरदूषण की पराजय का वृत्तांत रावण को मालूम हुआ तो यह उसी समय पुष्पक नामक विमान पर प्रारुट होकर खरदूषण की सहायतार्थ वहाँ से जल दिया। जब चलते चलते दंडक वन में पाया तो वहां पर रामचन्द्र के समीप बैठी हुई सीता की अप्रतिम सुन्दरता को देखकर उसका हदय काम के बाणों से भेदा गया। उसने काम बेदना से पीड़ित हो सीता को उठा लाने के लिए अनेक उपाय किये परन्तु उसका उपाय कभी भी अभीष्ट सिा नहीं कर सका । तब अन्त में उसने अपनी विधा को उसको लाने के लिए भेजा परन्तु विद्या महातेजस्वी पूज्यमूर्ति श्री रामचन्द्र के भागे कुछ न कर सकी और निष्प्रभ हो वापिस आकर रावण से बोली- स्वामी ! मैं रामचन्द्र के निकट से सीता को लाने में असमर्थ हूं।" सुनकर रावण ने कहा-"प्रस्तु। प्रब सू ये उपाय बता कि वह कैसे लाई जा सकती है।" तब विद्या ने कहा- यदि लक्ष्मण युद्ध में सिंहनाद करें तो राम उसकी सहायतार्य चले जाएंगे तब सीता को ला सकते हो।" सुनकर रावण ने विद्या से कहा--"तुम यहाँ से थोड़ी दूर जाकर सिंहनाद करो। उसे सुनकर रामचन्द्र अपने भाई का किया हुमा सिंहनाद समझ वहां से सहायतार्थ चले जाएंगे।" विद्या ने ऐसा ही किया । उसे रामचन्द्र और सीता ने सुन लिया । रामचन्द्र अपने भाई को संकट में पाया जान कर जटायु को सीता की रक्षा के लिए छोड़कर आप वहां से चल दिये। उधर राषण भी यही चाह रहा था अतः रामचन्द्र के जाते ही रावण सीता को बलात्कार उठा ले गया जैसे पक्षी मासपिण्ड को उठा ले जाता है। जटायु अपनी स्वामिनी को ले जाते देखकर रावण को अपने तीखेतीखे नुकीले नखों से घायल करने लगा। यह देख रावण को बड़ा क्रोध पाया और उसने उस बेचारे पक्षी के ऐसा थप्पड़ मारा कि वह अधमरा होकर धड़ाम से पृथ्वी पर गिर पड़ा। यह घटना रत्नजटी नाम के विद्याधर ने जाते हुए देखी। उसने आकर रावण से कहा- "हे नीच विधाघर! बेचारो एक अबला स्त्री को चुराकर कहां लिए जाते हो। तुम्हें इस कर्म को करते हुए लज्जा नहीं पाती।" उस Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ णमोकार पंथ बेचारे से सीता का हृदय द्वावक रुदन न सहा गया। बह निरुपाय हो उसे छुड़ाने के लिए युद्ध करते लगा। अपने से एक बहुत छोटे विद्याधर की ऐसी धृष्टता देखकर रावण को बड़ा क्रोध भाया । उसने उसकी समस्त विद्यानो का हरण कर विना पंख के पक्षी के समान समुद्र में डाल दिया, परन्तु उसका परम प्रकर्ष पुण्योदय था जिससे वह समुद्र में एक स्थल पर पला मोर उसे एक युषित सूझो वह अपने कुछ कपड़े एक लकड़ी से बौध ध्वजा के समान उड़ाने लगा जिससे ग्राकाश मार्ग में आने-जाने वालों को इधर दृष्टि पड़ जाए । उधर पापी निर्दयी रावण ने सती साध्वी सीता पर कुछ दया न कर उसे रुदन विलाप करते हुए ले जाकर लंका के उपबन में बैठा दिया और नित्यप्रति उसको वश में करने का उपाय सोचने लगा. परन्तु यह काम सम्भव न था कि जिस साध्यो ने अपने प्राणायारे के चरण कमलों में अपने मन रूपी भ्रमर को समर्पित कर दिया था वह अब दूसरे की अङ्कशायनी हो अर्थात् कभी नहीं । अब आगे रामचन्द्र का वृत्तांत लिना जाता है। जब रामचन्द्र लक्ष्मण के पास पहुंचे तो लक्ष्मण को भली प्रकार देखा और लक्ष्मण ने भी देखते ही कहा - "पूज्य ! आप कैसे पाए ? मीता को अकेली ही कहाँ छोड़ पाए ?" । रामचन्द्र ने कहा- मैं तुम्हारा सिंहनाद मुनकर पाया हूं।" लक्ष्मण ने कहा "मैंने तो सिंहनाद किया ही नहीं किसी दुष्ट ने सीता को ले जाने के लिये दुष्टता की है श्राप शीघ्र जाइये । कुछ अमंगल होने की संभावना है । जब मैं इन दुष्ट राक्षसों को वश में कर चुका था तो मुझे सिंहनाद करने की क्या आवश्यकता थी?" ऐसा मुनते ही रामचन्द्र वापिस लौटे और वहां पाकर देखा कि सीता वहां पर नहीं है । उन्होंने चारों ओर घूम घूम कर देखा तो एक स्थान पर अधमरा जटायु पक्षी दिखाई दिया । उसके प्राण कंठगत जानकर उन्होंने उसे पंच नमस्कार मंत्र सुनाया जिम मंत्र के प्रभाव से वह परम अभ्युदय का धारक देव हुना । रामचन्द्र सीता के न मिलने के कारण उसके असह्य वियोग से धड़ाम से मूछित हो पृथ्वी पर गिर पड़े । जब कुछ मंद मंद शीतल पवन का स्पर्श हुआ तब वे सचेत हुए। वे सीता के वियोग से इतने अधीर हुये कि उन्हें अपने स्वरूप का भी वोध नहीं रहा और पशु तथा पक्षो तो क्या, वे तो वृक्ष और पर्वतों से भी अपनी प्रिया का वृत्तांत पूछने लगे इधर उधर उन्होंने बहुत कुछ खोज की, परन्तु जब कहीं पता न लगा तब वे पुनः सीता के वियोग रूप बच के प्राघात से मूछित हो पृथ्वी पर गिर पड़े। इतने में लक्ष्मण और विराधित भी वहां आ पहुंचे । लक्ष्मण अपने बड़े भाई की दशा देखकर जान गए कि सीता निश्चय पूर्वक हरी गई है। लक्ष्मण ने निकट जाकर भाई को अभिवंदना की परन्तु इस समय राम तो अपने प्रापे में ही नहीं थे । लक्ष्मण से कहने लगे-"तू कौन है और क्यों ऐसे विकट प्ररण्य में पाया है ?" तब लक्ष्मण ने कहा--"पूज्य ! क्या प्राग भूल गये? मैं तो वहीं पाप का दास लक्ष्मण हूं।" यह सुनकर रामचन्द्र को कुछ स्मृति प्राई, वे लक्ष्मण से बोले- 'भाई ! सीता हरी गयी। उसको कोई पापी उड़ा ले गया।" यह सुनकर लक्ष्मण भी बहुत दुःखी हुए। दोनों मिलकर रुदन करने लगे। विराधित ने इन दोनों को जैसे तैसे समझाकर रोने से रोका । विराधित को भी अपने उपकारकर्ता के ऊपर अनायास आपत्ति पा जाने से बड़ा दुःख हुआ। संयोगवश यहीं पर वानरवंपिायों का स्वामी सुग्रीव भी विराषित से प्रा मिला और अपने पर बीती हुई समस्त घटना कह सुनाई। विराधित ने भी उसको रामचन्द्र का Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार पंप २२७ सारा वृसात कह सुनाया। सुनकर सुग्रोव ने कहा-"विराधित ! यदि तेरे स्वामी मेरा दुःख दूर कर दें तो मैं भी उनकी प्रिया का शीघ्र ही पता लगाऊंगा । इस प्रण से मैं भी कभी विचलित नहीं होऊंगा।" विराधित ने रामचन्द्र से जाकर कहा-"स्वामी ! वानरवंशाधिपति सुग्रीव मापके पास पाया है । वह कहता है, कि यदि रामचन्द्र मेरा दुःख दूर कर देंगे तो सीता का सात दिन के भीतर-भीतर पता लगाऊंगा । यदि प्रापकी प्राशा हो तो सुग्रीव को ही उपस्थित किया जाए।" रामचन्द्र की प्राशा होने पर सुग्रीव को उपस्थित किया गया । रामचन्द्र ने सुग्रीव का यथोचित पादर सत्कार किया और परस्पर कुशल-वार्ता होने के उपरान्त रामचन्द्र ने सुग्रीव से पूछा--"सुग्रीव ! तुम्हें क्या दुःख है !" गीय महा-- ह री मटनी किष्किघा है । मेरी तारा नाम की स्त्री अति सुन्दर और नवयौवना है। उसके सौन्दर्य पर मुग्ध होकर दुष्ट विद्याधर मेरे समान रूप बनाकर मेरे महल में धुस गया था। मेरी प्रिया ने उसको चाल ढाल से यह जाना कि यह मेरा खास पति नहीं है । उसे घर में नहीं जाने दिया । तारा के पाशय को समझ कर उस दुष्ट ने मेरे घर की समस्त गुप्त बातें कह सुनाई । सुनकर मेरी स्त्री ने कहा --- "हे दुष्ट दुराशय ! सूने सब बातें तो मेरे स्वामी के समान कह दी परन्तु तुझे पलना तो मभी तक उन जैसा नहीं पाया। उसका इतना कहना था कि उसने मुझे अपने घर पर भाता हमा देखकर चाल भी सीख ली, परन्तु उस समय मेरी स्त्री ने परम दक्षता की कि मुझको और उसे सामानाकृति बाला देखकर महल के पट बन्द कर लिए। जब मैं महल के द्वार पर पहुंचा तो मैंने कपटी वेषी सुप्रोष को ललकारा-"पापी ! तकौन है और किस लिए कपट से ऐसा वेष बनाकर मेरे घर में घसना चाहता है?" उत्तर में उसने भी मेरे जैसे ही वाक्य कहे। यह विचित्र लीला देख मन्त्रियों ने हम दोनों को ही मन्दर जाने से रोका और कहा जब तक इस बात का निर्णय न हो विः वास्तव में सुग्रीव कौन है तब तक हम किसी को भी भीतर प्रवेश नहीं करने देंगे । हम दोनों नगर से बाहर जंगल में रहने लगे । जब मुझसे अपनी प्रिया का वियोग जनित दुख सहा नहीं गया तो मैं रावण के निकट गया और अपनी समस्त व्यथा का वर्णन किया, पर उससे भी मेरा उपकार न हो सका। रावण तथा और भी बहुत से विद्याधर और हनुमान प्रादि इसकी परीक्षा के लिए प्राए परन्तु किसी से कुछ प्रतिकार न बन सका। अन्त में अब सब भोर से निराश होकर मापकी सेवा में उपस्थित हुमा हूँ। विश्वास तो यही है कि प्रब इस असीम दुख का मापके द्वारा अंत हो जायेगा मेरा परम प्रकर्ष पुण्योदय है जो प्राज पाप जैसे महापुरुषों के दर्शन हुए। सुनकर रामचन्द्र ने कहा- "सुग्रीव ! चिन्ता न करो। मैं तुम्हें दढ़ विश्वास के साथ कहता है कि इस बात का ठोक ठीक पता लगाकर मैं तुम्हारा न्याय करूगा और तुम्हारी प्रिया तुम्हें दिलवा दंगा परन्तु उसके बाद तुम्हें भी अपना प्रण पूरा करना होगा। सुग्रीव ने रामचन्द्र के कहने को स्वीकार किया। उसके बाद सुग्रोक राम लक्ष्मण को अपनी राजधानी में ले गया और नगर के बाहर उन्हें एक स्थान पर ठहरा दिया, वहाँ पर कृत्रिम वेषधारी सग्रीव के पास युद्ध के लिए दूत भेज दिया। वह अपनी प्रचर सेना लेकर संग्राम के लिए माया पौर दोनों सुग्रीवों का युद्ध प्रारम्भ हुमा। सच्चा सुग्रीव मायामयी सुग्रीव की गदा के भाघात से मूछित हो गया। तब उसके कुटुम्बो जनों ने अपने स्थान पर ले जाकर शीतलोपचार किया। मायावी सुग्रोव उसको मरा जानकर मानन्द मनाता हुमा अपने स्थान पर वापिस लौट गया। जब सुग्रीव सचेत हुआ, तब उसने रामचन्द्र से कहा-"महाराज! मापने उसे क्यों जाने दिया? Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार ग्रंथ उत्तर में रामचन्द्र ने कहा - "सुग्रोव ! क्या कहें ? तुम दोनों एक ही समान थे । प्रतएव तुम्हारा निश्चय न हो सका कहीं संशय ही संशय में तुम्हारी मृत्यु हो जाती तो बहुत बुरा होता । ऐसा विचार कर उसको छोड़ दिया । अब कुछ चिंता नहीं । उसे फिर बुलवाते हैं । २२८ यह कह कर रामचन्द्र ने पुनः कृत्रिम सुग्रीव की युद्ध के लिए बुलाया। वह फिर भी बड़े साहस पूर्वक संग्राम के लिए युद्धभूमि में आया। इस बार रामचन्द्र के दिव्य तेज को देखकर सादृश्य रूप बना देने वाली कृत्रिम सुग्रीव की बैताली विद्या तत्काल भाग गई और वह अपने पूर्ववत रूप में श्री गया । यह देख सबने असली सुग्रीव को पहचान लिया और उसका बहुत सत्कार किया । सुग्रीव प्रपने पुत्र आदि के साथ अपने घर पर गया और वियोग रूपी अग्नि के द्वारा कुश हुई अपनो प्राणप्रिया से मिला तथा सुखोपभोग करने लगा | बहुत दिनों से बिछुड़ी हुई अपनी प्राणप्रिया को पाकर विषय भोगों में ऐसा मन हुआ कि रामचन्द्र के साथ की हुई प्रतिशा को भूल गया और छः महीने बीत गये। उधर ज्यों ज्यों दिन बीतने लगे त्यों त्यों रामचन्द्र को अधिक दुःख होने लगा । उन्होंने लक्ष्मण से कहा- "भाई, देखो जब मनुष्य पर विपत्ति श्राती है तब तो अपना कार्य सिद्ध करने के लिए जिस तिस की सेवा शुश्रूषा, प्रण प्रतिज्ञा करता फिरता है और जब दुख निवृत्त हो जाता है तब उसे किसी के उपकार प्रतिशा का ध्यान नहीं रहता । सुग्रीव को देखो, पहले कितनी दृढ़ प्रतिज्ञा करता था और अब अपना काम निकलने पर प्रतिज्ञा को भूल गया ।" सुनकर लक्ष्मण को सुग्रीव की इस स्वार्थ बुद्धि पर बड़ा क्रोध श्राया । वह उसी समय सुग्रीव के पास पहुंचे। उन्हें देखते ही सुग्रीव बहुत चिंतातुर हुआ। आप सिंहासन से उठकर नीचे बैठा मौर लक्ष्मण को उस पर बैठाया । लक्ष्मण ने सुग्रीव से कहा 'सुग्रीव ! क्या तुम्हें यही उचित या कि अपनी सात दिन की प्रतिज्ञा तक को भूल गये ? क्या प्रतिज्ञा पूर्ण करना इसी को कहते हैं ? जो तुम तो महल में बैठे हुए सुखोपभोग भोगो और हमारे भाई वन में दुख भोगें । सच है जो स्त्री जन्य सुख में लीन होते हैं उन्हें अपने व्रत, नियम, प्रण आदि के भंग होने का कुछ भी ध्यान नहीं रहता।" सुग्रीव ने कहा - "स्वामी ! है तो आज सातवां ही दिन । यदि में समय पूर्ण होने तक यह कार्य न कर दूं तो माप मुझे दोष दीजिएगा ।" - " इतना कह सुग्रीव लक्ष्मण सहित रामचन्द्र के पास आया और उनके चरणों में पड़कर अपने अपराध को क्षमा मांगी। उसके बाद सुग्रीव ने अपने दक्ष विद्याधरों को सोता का समाचार लाने की आज्ञा दी। आज्ञा पाते ही विद्याधर चारों ओर गये। उनमें से एक विद्याधर वहां भी झा निकला जहाँ रावण के द्वारा विद्याहरण कर समुद्र में डाल देने वाला रत्नजटी नाम का एक विद्याधर हाय ध्वजा लिए हुए आने जाने वालों को संकेत कर रहा था। संकेत करते देखकर वह नीचे उतरा मौर रत्नजटी को पहचान कर उसने उससे पूछा कि हे मित्र कहो, तुम यहां कैसे आए और कैसे यहाँ इस दशा में ठहरे हुए हो ? उसे ! तब उसने रावणकृत अपने पर बीती हुई सारी घटना कह सुनाई इससे उसने अच्छी तरह समझ लिया कि सीता को रावण ही हर ले गया है इसमें कोई संदेह नहीं है तब वह रत्नजटी को अपने विमान में बैठाकर सुग्रीव के पास लाया और उससे उसका वार्तालाप करवाया, रत्नजटी ने सुग्रीव से समस्त वृत्तांत ज्यों का त्यों कह सुनाया । सुग्रीव आनन्द दायक समाचार सुनकर प्रसन्न होता हुआ उसे साथ लेकर रामचन्द के पास पहुचा और कहा- महाराज ! ये सीता जी का वृतांत अच्छी तरह जानता Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार ग्रंथ २२६ है। प्राप इसे एकांत में ले जाकर पूछ लीजिए।" रामचन्द्र ने उसे एकान्त में ले जाकर पूछा तब उसने जंसा देखा था और जैसी अपने पर आपत्ति आई थी यह सब सुनाई। रामचन्द्र ने रावण के इस कृत्य पर उसे परोक्ष में बहुत धिक्कारा और कहा-"रे नीच कुल संक ! देख तेरी वीरता जो पर प्रिया को हरण कर सुख से जीता रह सकेगा।" साथ ही अपने सैनिकों को प्राशा दी कि "सैनिको! संग्राम की तैयारी करो । आज ही हमको सीता को छुड़ा लाने के लिए रावण पर युद्ध के लिए चढ़ना है।" सुनकर वीर सैनिकों ने उत्तर में निवेदन किया-"महाराज! वह कोई साधारण पुरुष नहीं है । प्रतएव प्रथम यह बात जानना अत्यावश्यक है कि सीता यथार्थ में वहां है या नहीं ? है तो कहो, किस स्थान पर है और रावण इस समय किस काम पर लगा हुआ है ? यह जानकर हो फिर यथोचित उपाय करना चाहिये ।" रामचन्द्र ने उनका कहना स्वीकार किया और प्रथम सब वृतात की माशी मनापाने रहात होकर हनुमान को बुलाया। हनुमान रामचन्द्र के पादेश को पाकर उसी समय उपस्थित होकर परम विनम्रता से रामचन्द्र तथा सुग्रीव आदि से मिला और बोला "महाराज ! कहिये क्या प्राशा है ?" रामचन्द्र ने उसकी विनम्रता की प्रशंसा करते हुए एकांत में ले जाकर अपनी निशानी के रूप में अपनी मुद्रिका देकर कहा-"कि देखो, इसे जनकनन्दिनी के प्रागे रखकर कहना कि रामचन्द्र तुम्हारे वियोग में बहुत दुःखो हैं । उन्हें रात-दिन चैन नहीं पड़ता है। वे तुम्हें छुड़ाने का प्रयत्न कर रहे हैं। तुम चिन्ता न करना।" इतना कह कर हनुमान को वहाँ से विदा किया। हनुमान रामचन्द्र के चरणों में नमस्कार करके संका की ओर चले गये। मार्ग में भीषण उपद्रवों का निराकरण करते हुए लंका में पहुंचे । वहाँ पहुंच कर वहां के निवासी मनुष्यों से सीता का पता निकाल कर जहाँ सीता ठहराई गयी थी. उसो उपवन में पहुंचे और एक वृक्ष पर चढ़कर गुप्त रूप से वहाँ का वृत्तांत देखने लगे। उन्होंने देखा कि कामी रावण ने मंदोदरी प्रादि रानियों को सीता के पास भेज रखा है। वे उससे कह रही थीं कि-'हे जनकनन्दिनी ! देख ! रावण सर्व गुण विद्याओं का स्वामी, तीन खंड का अधिपति तथा सम राजा-महाराजाभों का शासक है । उसके एक से एक सौन्दर्य युक्त हजारों रानियां ई सथापि वह जी-जान से तुझ पर मुग्ध हो गया है । तुझे अपना प्रत्पन्त पुण्योदय समझना चाहिये कि आज वह तुभी अपनो समस्त प्रियानों के मध्य प्रधान पटरानी बनाना चाहता है। तू स्वयं विचार कर देख कि त्रिखंडाधिपति रावण को प्रियतम बनाने से सुख प्राप्त हो सकता है या एक साधारण प्रल्प भूमि के अधिकारी भूमिगोचरी मनुष्य को बनाने से । हम यह नहीं चाहती कि तुझे किसी प्रकार का दुख उठाना पड़े। हम तो सब तेरे सुख के लिए ही तुझसे इतना कुछ कह रहीं हैं । तुझे तो अपने लिए बड़ी खुशी का दिन समझना चाहिये जो अपनी एक से एक रूपयान अठारह हजार पानियों को छोड़कर विद्याधरों के स्वामी का हृदय तुझ पर न्यौछावर हुमा जाता है और जिसमें तुझे प्रासन भो ऊंचा दिया जायेगा प्रतएव तू व्यर्थ रोकर अपने विस को क्यों कष्ट देती है ? रामचन्द्र से तुझे इतना सुख नहीं मिल सकता जितना रावण को प्रियतम बनाने से उठायेगी। इस प्रकार और भी बहुत सी बातें मंदोदरी सीता से कहती रही। सीता को मंदोदरी के ऐसे लज्जाशूम्प पचन सुनकर बहुत क्रोष पाया । वह उसे स्किार कर बोली-"हेमंदोदरी! तेरी तो पतिव्रता स्त्रियों में बहुत प्रशंसा सुनती पी पर ये प्राण नदी का प्रवाह उल्टा कैसे तुझे ऐसे निर्मज Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार ग्रंथ २३० वचन कहते हुए कुछ तो संकोच होना चाहिए था कि मैं कुलीन और पतिव्रता होकर कैसे अपशब्द बोल रही हूँ । मुझे नहीं मालूम था कि तेरा ऐसा कुल होगा। तू मुझे प्रतिशय मूर्ख जान पड़ती है जो तुझे इतना भी विचार नहीं आया कि कुलीन कन्याओं का एक ही पति होता है। बस फिर कभी ऐसे अश्लील वचन मेरे सम्मुख मुख से न निकालना ।" सीता का यह कहना मंदोदरी को बहुत बुरा मालुम हुआ। वह क्रोध रूप अनि से जलकर अपने मन ही मन में भस्म हो गयी। उसने सीता का दुख देना चाहा हो था कि इतने में हनुमान वृक्ष के नीचे उतर मंदोदरी श्रादि रावण को स्त्रियों को उनके किये का फल देकर सीता के पास पहुंचा। जनक नंदिनी सीता को सादर नमस्कार कर रामचन्द्र जी की प्रभिज्ञान ( निशानी) रूप मुद्रिका सम्मुख रख कर उसने रामचन्द्र जी का कहा हुआ। समस्त वृत्तांत ज्यों का स्थं कह सुनाया। सीता रामचन्द्र को मुद्रिका पाकर दरिद्री को खजाने की प्राप्ति के समान प्रत्यन्त आनन्दित हुई । उसने हनुमान से पूछा"भाई ! यथार्थ सत्य वार्ता कहो ! तुम्हारा नाम क्या है और कहां से चले आये हो?" तब उत्तर में हनुमान ने निवेदन किया कि में रामचन्द्र का सेवक हूँ। मेरा नाम हनुमान है। सुग्रीव के अनुसार रामचन्द्र ने मुझे आपकी कुशलता का संदेश लाने के लिए भेजा है।" सुनकर सीता बहुत खुशी हुई। उसने फिर पूछा - "भाई! रामचन्द्र और लक्ष्मण दोनों भाई कुशल तो हैं।' हनुमान बोला- "तुम कुछ न करें। दोनों नाईरह से किष्किंधापुरी में सेना सहित ठहरे हुए हैं। उनका परम प्रकर्ष पुण्योदय है जो उनके साथ विद्याधरों का अधिपति सुग्रीव भी हो गया है। वे शीघ्र ही विपुल सेना लेकर तुम्हें इस प्राकस्मिक आपसि से छुड़ाने के लिए थायेंगे।" इस प्रकार हनुमान ने सीता को बहुत कुछ धैर्य बंधाया। सीता जी जब लंका में लाई गई थीं तभी से उन्होंने प्राहार-पान नहीं किया था अतः हनुमान ने उसी समय आहार सामग्री लाकर सीता को आहार कराया और फिर सीता को चित्त प्रसन्न करने के लिए राम सम्बन्धी कथा सुनाने लगे । जब मन्दोदरी को हनुमान ने उसके किये का फल दिया तो वह उसी समय दौड़ती हुई अश्रुपात करती रावण के पास गई और हनुमान की सबै बात कह सुनाई। सुनकर रावण बड़ा क्रोधित हुआ। उसने अपने वीर सैनिकों को आज्ञा दी कि "जाओ तुम अभी उस मूर्ख पशु की खबर लो जो सीता जी के पास बैठा हुआ है।" वीर सैनिक अपने स्वामी की प्राज्ञा पाते ही हनुमान पर चढ़ कर प्राये । हनुमान सैनिकों को माते हुए देखकर शीघ्रता से आकाश गमन कर उनसे लड़ने लगे । बड़े बड़े वृक्ष उखाड़कर रावण की सेना को उनसे धाराशायी करने लगे । अनेक योद्धा प्राणरहित होकर पृथ्वी पर गिर पड़े और कितने ही इधर-उधर भाग गये । अन्त में उसने अपने भीषण युद्ध से थोड़ी ही देर में समस्त राक्षस सेना को हरा दिया और फिर स्वयं रावण के पास जाकर उससे बोले - हे लंकाधिपति । तू बड़ा बुद्धिमान समझा जाता है | तुझे यह मूर्खता कैसे सूभी जो पर स्त्री का हरण कर उससे विषय सुख की इच्छा करता है । क्या तुझे मालूम नहीं है कि उसका स्वामी रामचन्द्र कैसा महापराक्रमी प्रतापी बीर है और उसका लघु आता लक्ष्मण भी ! क्या तू ऐसे वीर की स्त्री को लाकर अपना जीवन सुखपूर्वक व्यतीत करने की इच्छा रखता है ? कदापि नहीं। मुझे तो यह नितांत असम्भव मालूम होता है । Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गमोकार ग्रंथ इस प्रकार हनुमान ने निडर होकर रावण को खूब फटकारा। तब रावण ने क्रोधाग्नि से प्रज्वलित होकर अपने नौकरों से कड़क कर कहा -बड़े आश्चर्य की बात है कि यह एक साधारण मनुष्य सभा में अपशब्द व कटुक शब्दों के द्वारा कितना अपमान कर रहा है और तुम खड़े हुए उसके मुख की मोर देख रहे हो । शीघ्र ही इसका मस्तक छेदन क्यों नहीं कर देते? स्वामी को प्राज्ञा पाते ही पेवक गण हनुमान पर टूट पड़े, परन्तु फिर भी उस महावीर युद्ध कला कुशल हनुमान का वे क्या कर सकते थे? हनुमान झट से प्राकाश में चले गये और रावण की इस दुष्टता पर क्रोधित हो समस्त लंकापुरी में अग्नि लगा दी। तदनन्तर सीता के पास पहुंचे और उनसे कुछ अभिज्ञान रूप बस्तु देने के लिए प्रार्थना को। तब पतिषियोगिनी सीता ने अपना चूहारत्त देकर और रामचन्द्र के लिए कुछ शुभ समाचार कह कर हनुमान को विदा किया। हनुमान जनकनन्दिनी को नमस्कार कर उनसे प्राशा लेकर शीघ्र ही प्रणाम कर सागर लोध सुग्रीव की राजधानी किष्किधापुरी में राम के निकट पाकर उपस्थित हुए। हनुमान ने सीता का अभिशान रूप चूडारल सम्मुख रखकर सीता के कहे हुए सब शुभ समाचार कह सनाए और भी रामचन्द्र ने सीता सम्बन्धी जो भी वृत्तांत पूछा उसका यथोचित उत्तर देकर उनके संतप्त हदय को शान्त किया। तदनन्तर जब यह वत्तांत सग्रीव प्रादि को मालम हा तब वह मिलकर विचारने लगे कि अब हमको क्या करना चाहिये ? रावण तीन खंड का स्वामो है। इसी से उसके यहाँ चक्ररत्न भी प्रकट हो गया है जो सब सुखों का कारण और शत्रु पक्ष का मान मदन करने वाला समझा जाता है। जिसने अपनी भुजाओं के बल से इन्द्र, वरुण, यम और वैश्रवण आदि बड़ेबड़े प्रतापी राजामों के अभिमान को नष्ट कर अपने वश में कर लिया है, पृथ्वी पर कौन ऐसा राजा है जो उसकी आज्ञा का प्रनादर कर सके ? अर्थात् उसकी प्राज्ञा को सब राजा-महाराजा स्वीकार करते है। जिसके कुम्भकरण और विभीषण जैसे महापराक्रमी भाई और इन्द्रजीत, मेघनाद आदि बहुत से पराक्रमी पुत्र हैं, जो समुद्र से घेरे हुर राक्षस द्वीप समूह के अन्तर्गत चारों ओर से विशाल प्राकार से युक्त लंका नामक अपनी राजधानी में रहते हुए निरावाध तीन खंड का एक छत्र राज्य करता है, ऐसा प्रतापी त्रिखडेश रावण कैसे जीता जा सकेगा? सीता कैसे लाई जायेगी। कैसे हम रामचन्द्र को संतुष्ट कर सकेगें ? हम लोगों ने रामचन्द्र की भोर होते हुए तो कुछ भी नहीं विचारा, परन्तु देखो, रावण जब ये वत्तांत सुनेगा तो कितना क्रोधित होना प्रौर क्रोधाग्नि से प्रज्वलित होकर हमारा अपकार किये बिना कैसे चूकेगा? हमें अभी से मालूम नहीं है कि रामचन्द्र और लक्ष्मण मितने पराक्रमी वीर हैं और जब तक इनकी शक्ति का ठीक परिचय न हो जाए तब तक अपनी विजय की प्राशा भी बंध्या के पत्र प्राप्ति की अभिलाषा के समान व्यर्थ है प्रतएव सबसे प्रथम इनकी शक्ति का अनुमान करना चाहिये और इस का ठीक निर्णय कोटि शिला के उठाने पर हो सकेगा क्योंकि कोटि शिला वही उठा सकता है जो नारायण हो और वही प्रतिनारायण का मारक होता है । रावण प्रतिनारायण है यह तो निसंदेह निश्चित है। अब यदि इनका नारायण होना निश्चित हो जाये तो इनके साथ में हमारी कोई हानि नहीं, नहीं तो रावण के द्वारा इनका और हमारा वृथा ही सर्वनाश होगा । विद्याधरों के इस विचार को विराषित ने जाकर श्री रामचन्द्र से कह सुनाया। यह सुनकर लक्ष्मण ने बड़ी निर्भीकता से कहा-"कि ये लोग क्यों कायरता दिखाते हैं ? सब एकत्रित होकर पंचशिला के पास चलें और अपने इस संदेह का निवारण कर से मैं सब के समक्ष कोटिशिला को उठाकर अपनी शक्ति का परिचय करा दूंगा।" लक्ष्मण के कयनानुसार वानरवंशो सब एकत्रित होकर शुभ महूर्त में लक्ष्मण के साथ करेटि Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार पंप शिला के समीप गये । वहां पहुंचते ही लक्ष्मण ने उम शिला की प्रष्ट द्रव्यों से पूजनकर फिर उसको तथा वहां से निर्वाण होने वाले सिद्धों को नमस्कार कर एक योजन चौड़ी चौकोर सर्वशोभद्र नाम की शिला को अपने हाथों से जोघ के ऊपर तक उठा ली। लक्ष्मण की यह अनुपम अतुल वीरता देखकर देवों ने पुष्प वर्षा की, अनेक प्रकार के बाजे बजाए और उम तो बहुत प्रशंसा को उनी दिन मे यह भरन खंड में आठवां वसुदेव प्रसिद्ध हुा । यही रावण के वंश का विनाशक और रावण के सुख की इनिधी करने वाला पुष्पोत्तम है। इन प्रकार देवों के द्वारा जब और भी विद्याधरों ने लक्ष्मण की प्रशंसा सुनी तब उन्हें पूर्ण विश्वास हो गया कि यह रावण का पूर्ण नाग करेगा। उस समय समस्त विद्याधर और वानरवासी अपने सुन्दर विमान पर उन्हें बैठाकर किष्किन्धापुरी में ले पाए। अब रावण से युद्ध करने का निश्चय किया गया नव विद्याधर अपनी अपनी सेना इकठ्ठी करके रामचन्द्र के दल में प्राकर मिलने लगे । मुत्री व ग्रादि अनमो अपनी सेना लेकर आ गये। रामचन्द्र के परम प्रकर्ष पुण्योदय से उस समय विद्याधर और वानरवंशियों की असंख्य सेनाएं एकत्रित हो गई। इननी अपार सेना को देखकर रामचंद्र और लक्ष्मण ब्रहन प्रसन्न डाए । जब सेना सज धजकर तैयार हो गई तो उसके चलने के लिए प्राजाओ गई। प्राजा पाते ही सत्र मैनिक गण अपने-अपने विमानों पर प्रारूड होकर समुद्र को बोल कर विकटांय न पर प्रा । उन्होंने राक्षसों को राजधानी लंकापुरी चारों ओर से विशाल प्राकार संयुक्त Tी इई देखी। ग्लंका के देखते ही रामचन्द्र की सेना को विजय सुन्त्रक शुभ शकुन हा जिसे राम लक्ष्मण को अत्यंत प्रानन्द हना । जब राम के ससैन्य पाने का वृत्तांत रावण को विदित हात उसे बड़ा क्रोध प्रामा, परन्तु वह उनका कुछ नहीं कर सका। इशी प्रसंग में एक दिन को बात है कि सीता तो अपनी रक्षा किये हुए धीरता के साथ मन में बैठी हुई थी । रात्रि के समय रावण भो वहीं पर पहुंचा और राक्षस भूत, पिशाच, डाकिनी, शाकिनी. सर्प, हापी सिंह नादि भयंकर जीव जन्तुओं को गर्जना करते हुए दिखलाए । पानी बरसाया, अग्नि की भयंकर ज्वाला प्रचलित की और बड़े-बड़े पर्वतों के फूटने जैसा घोर भयंकर दाद किया । इस प्रकार उसने अनेक उपद्रव किये जिनके देखने और सुनने से बड़े बड़े वीर पुरुषों के हृदय कॉप जाते हैं परन्तु तब भी अनकनंदिनी सीता ने अपने अंखड शोलन त को किंचित भी मलिन नहीं होने दिया। उसने इन उपद्रवों से प्राण रहित हो जाना अच्छा समझा, पर रावण का प्राश्रय लेना अच्छा नहीं समझा। उसने अपनी रक्षा की प्रार्थना धिमी से नहीं की। वह नराघम सीता का चित्त निलित करने के लिए रात भर इसी प्रकार उपद्रव करता रहा परन्तु जनकनंदिनी के सुमेरु समान अचल चित्त को किंचित भी चलायमान नहीं कर सका। अंत में निराश होकर वह वहां से वापिस लोट पाबा। सोता की प्राप्ति न होने पर काम जमे अधिकाधिक धीर और मंतप्त करने लगा, परन्तु परश से मन मारकर रखना पडा। ___ जना यह वृत्तांत रावण के लघु भ्राता विभीषण को विदित हुमा तब उसे बड़ी करुणा पाई । यह सी समय सीता के निकट प्राया और बोला- माता! तुम क्यों रो रही हो?" तव सीता ने जापानी समस्त दुःस्त्र भरी या कह सुनाई । सुनकर विभीषण को बड़ा दुःन्त्र हुना । वह वहाँ सीता को धैर्य बंधा कर रावण के पास आया और उसने बोला---'हे पूज्य ! प्राप तो स्वयं विद्वान हैं । यह आप भली प्रकार जानते हैं कि परस्त्री सेवन करने से अनेक बुराइयां उत्पन्न होती हैं अतएव मैं आपसे प्रार्थना करता हूं कि आप जिसकी स्त्री लाए हैं उसे उसके सुपुर्द कर दें तो बहुत अच्छा हो । ऐसा करने से हमारे कुल भी की ति प्रकट होगी । माग एकाग्रचित्त होकर विचार करें। इसमें हमारी भलाई न होगी दरन Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार म २१३ अपयश होगा । है महाभाग ! अन्याय करने से न लाभ हुआ है और न होगा। सुख के लिए धर्म सेवन करना उचित है । धर्म से सीता ही क्या उससे भी कहीं अच्छी मनोज्ञ सुन्दरी स्वयमेव धर्मात्मा पुरुषको अपना पति बनाती है । मुझे आशा तथा दृढ़ विश्वास है कि आप इस बुरी वासना को करने नि पृथक कर देंगे। देखिए रामचन्द्र यहाँ पहुचे हैं। वे अभी राजधानी से बाहर हैं। यदि मार उन्हें सीता को पगे तो ये वहीं से प्रसन्न होकर लौट जाएंगे और कुछ झगड़ा भी नहीं होगा अन्यथा ये तो अपनी प्रिया को लेने पाए ही हैं प्रत: उसे लेकर हो जाएंगे परन्तु इस अवस्था में अधिक हानि होने की संभावना है। अतएव परस्पर द्वेष न बढ़ तथा शान्ति हो जाए तो बहुत अच्छा होगा का एकमात्र उपाय सीता को वापिस देना ही है । यही मेरो आपसे प्रार्थना है। यागे पाप जो वही करें।" विभीषण के समझाने का रावण के हृदय पर उल्टा असर पड़ा। उसे वालि के दोध गया। वह विभीषण से बोला- "रे पापी, दुष्ट, नौच ! तू मेरा भाई होकर भी मे श्रपादक है और रामचन्द्र जो कि न जाने कौन हैं, उनको प्रशंसा करता है। तुझे मुख से नहीं प्राती । मैं तेरे समान दुष्ट से इससे अधिक कुछ नहीं कहना चाहना और तुमसे गन्ध ही रखना चाहता हूँ । यस, खबरदार ! अब तूने मुख से कुछ शब्द निकाला तो मेरी और इसी में है कि यहां से निकल जा । श्रव तुझे इस पुरी में रहने का अधिकार नहीं ।" विभीषण ने रावण के वाक्य सुनकर उत्तर में और कुछ न कह कर केवल उनसे कहा कि "अच्छा! मापकी जैसी इच्छा हो वैसा ही होगा। मैं भी ऐसी प्रतीति करने वाले राजा के अधिकार में नहीं रहना चाहता।" इतना कह कर अपनी सब सेना को लेकर लंका से निकल गया और सुग्रीव से जाकर मिला। उसने अपने आने की यथार्थ वार्ता कह सुनाई । सुनकर सुग्रीव अत्यधिक नंदिता । उसी समय रामचन्द्र के पास जाकर बोला- "महाराज ! विभीषण रावण से लड़कर आया है।" सुनकर रामचंद्र बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने विभीषण से मिलने की इच्छा प्रकट की सुग्रीव जा कर विभीषण को बुला लाया। रामचंद्र और विभीषण को परस्पर कुशल वार्ता हुई। रामचंद्र ने विभीषण को गले से लगाकर उससे पूछा - "लंकाधिराज अच्छी तरह तो हो । अब तुम सय चिनाओं को छोड़ो मोर विश्वास करो कि तुम्हें लंका का राज्य दिलाया जायेगा ।" विभीषण ने कहा --- "जैसा आप विश्वास दिलाते हैं वैसा ही होगा क्योंकि महात्माओं के वचन कभी झूठे नहीं होते हैं जैसे बाहर निकला हुआ हाथी दांत फिर भीतर नहीं घुसता । रामचंद्र ने फिर भी यही कहा- "तुम निश्चित रहो। सब अच्छा ही होगा ।" वानरवंशियों को विभीषण के अपने पक्ष में मिलने से अत्यन्त हर्ष हुआ | सच है सत्र के मिल जाने से किये आनन्द नहीं होता । जव विभीषण के रामचन्द्र से मिलजाने का वृत्तांत रावण को मालूम हुआ तब वह भी उसी समय संग्राम के लिए तत्पर हुआ और अपने शूर बीरों को भी तत्पर होने की आज्ञा दी । स्वामी की प्राज्ञा पाते हो जिसने वीर योद्धा थे वे सब रावण के निकट आकर उपस्थित हुए। जब रावण ने देखा कि सब वीर लोग इकट्ठे हो गये हैं तो वह उसी समय अपनी सब सेना साथ लेकर बन्दीजनों के द्वारा अपना यशोगान सुनता हुया लंका से युद्ध के लिए चल पड़ा। उधर रामचन्द्र ने जब सेना का कोलाहल सुनकर यह जान लिया कि रावण भी सेना लेकर युद्ध भूमि में आ रहा है तब रामचन्द्र ने भी अपने वीरों को युद्ध के लिए तैयार होने की आज्ञा दी। आज्ञा पाते ही सेना तैयार हुई। तब वे Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जमोकार प्रेम भी सेना लेकर युद्ध भूमि में प्रा पहुँचे । दोनों वीरों ने अपनी अपनी सेना को युद्ध करने की प्राज्ञा दी। अपने-अपने स्वामी की आज्ञा पाते ही दोनों ओर के योद्धानों की मुठभेड़ हो गयी । घोर युद्ध होना पारम्भ हुआ । हाथो-हाथियों के साथ, घोड़े-घोड़ों के साथ, रथ-रयों के साथ और पैदल सेना अपने समान बालों के साथ भयंकरता से लड़ने लगीं। दोनों सेनामों में बड़ा भयंकर युद्ध हुआ। हाथीहाथियों से, घोड़े-घोड़ों से, रथ-रथों से, पैदल सेना-पैदल सेनामों से मारी गयी। इस भीषण युद्ध में राम की सेना ने रावण की सेना को व्याकुल करके भगा दिया। जब रावण ने देखा कि युद्ध से सेना भागी जा रही है तो यह स्वयं उठा और अपने भागते हुए वीरों को ललकार कर कहा-वीरो यह भागने का समय नहीं हैं । ठहरो ! इन पामरों को धराशाई बनाकर विजय श्री प्राप्त करो। वे लोग कायर हैं जो युद्ध में पीठ दिखाकर भागते हैं । तुम ऐसे वीर होकर थोड़े से मनुष्यों की सेना से भयभीत होकर भागे जाते हो । क्या इसी का नाम वीरता है ? युद्ध में पीठ दिखाकर अपने कुल को कलंकित मत करो बरन यश लाभ कर स्वर्ग प्राप्त करो। यह कहकर वह अपने वीरों को साथ लेकर राम की सेना से प्रा भिड़ा। भिड़ते ही उसने अपने पराक्रम का विलक्षण परिचय दिया। उस समय राम की सेना रावण के प्रहार को सहन न कर इधर-उधर भाग निकली । यह देखकर लक्ष्मण को पूछने पर ज्ञात हुआ कि रावण के प्रहार को सहन न करने के कारण सेना भाग रही है तब उसने अपने वीरों को ललकार कर कहा-वीरो, भागो मत । तुम्हारा सेनापति अभी भागे होकर रावण को पराक्रम का परिचय कराये देता है । तुम अपनी आंखों से देखोगे कि रावण की क्या दशा होती है ? यह कहते हुए लक्ष्मण अपने वीरों को साथ लेकर युद्धभूमि में जा पहुंचे। दोनों वीर (राम और लक्ष्मण) ताल ठोककर युद्ध भूमि में उतर पड़े । मुष्टि प्रहार तथा अस्त्र-शस्त्र से दोनों का घोर युद्ध हुआ। इसमें लक्ष्मण ने रावण को व्याकुल कर दिया और उसके हाथी को गिरा दिया। उस समय रावण अपने हाथी को बेकाम जानकर नीचे उतर पड़ा और क्रोध के आवेश में पाकर लक्ष्मण के ऊपर शक्ति चलाई। शक्ति व्यर्थ न जाकर लक्ष्मण के लगी। इससे वह मूछित होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा। जब यह वृतान्त रामचन्द्र को मालूम हुआ तब वह लक्ष्मण के पास पाए और लक्ष्मण को मूछित देखकर स्वयं भी मूछित होकर गिर पड़े, उनका शीतलोपचार किया गया। तब कुछ समय के बाद वे सचेत हुए। भाई की यह दशा देखकर उनको असह्य दुःख पहुंचा। युद्ध रुकवा दिया गया। रावण से रामचन्द्र ने कहा-हमारे भाई लक्ष्मण का चित्त अप्रसन्न है इससे युद्ध बन्द कर दिया जाय ।" राम के कहे अनुसार रावण ने युद्ध बन्द कर दिया। रावण यह समझकर कि मैं अब सर्वथा विजयी हो गया, मुझे अब किसी का भय नहीं है, अपनी राजधानी में जाकर सुखपूर्वक रहने लगा। इसी अवसर में अष्टाह्नि का पर्व आ गया । सब धर्म ध्यान में लग गये। किसी को युद्ध की चिन्ता न रही। उधर राम लक्ष्मण को युद्ध भूमि से अपने डेरे पर ले गये। कुटिल रावण के भय से विद्याओं के द्वारा कटक की रक्षा का प्रबन्ध किया गया। रामचन्द्र को तो भाई के शोक में रोने के अतिरिक्त कुछ भी नहीं सूझता था। उनकी यह दशा देखकर सुग्रीव आदि को बड़ी चिन्ता हुई। इससे उसने रक्षा का और भी सख्त प्रबन्ध किया। रामचन्द्र दुखी होकर भामंडल से बोले तुम अपनी बहिन के पास जाम्रो और उससे कहो कि तुम्हारे लिए लक्ष्मण ने अपने प्राण दे दिए हैं और अब उनके साथ-साथ रामचन्द्र भी अग्नि में प्रवेश करेंगे । तुम अपनी कुल की रीति न छोड़ना।" Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार पंप २३५ रामचन्द्र अधीर हो उठे। उनसे वह दुख सहा नहीं गया । वे रोकर कहने लगे हाय ! मैं बड़ा पापी हूं जो मुझे असमय में ही यह यन्त्रणा भोगनी पड़ी। प्यारे भाई का मुझे बियोग हुमा । मुझं इस बात का और भी दुख है कि मैं विभीषण के सामने प्रसत्यवादी हो जाऊंगा। यह मुझे क्या कहेगा ? जो हो, मैं उससे क्षमा चाहता हूं। भाई विराधित ! तुम चिता तैयार करो । भाई लक्ष्मण के साथ मैं भी अपनी जीवन लीला पूर्ण करुगा । मैं बिना भाई के क्षणमात्र भी नहीं जी सकता। तुम सबसे मैं क्षमा चाहता हूं।" रामचन्द्र इस प्रकार कह ही रहे थे कि इतने में एक विद्याधर ने पाकर हनुमान से कहा-मैं लक्ष्मण के जीने का उपाय बताता हूं। मेरा कहना सुनो।" हनुमान ने प्रसन्न होकर उससे पूछा-तुम जल्दी उपाय बतायो । लक्ष्मण का चित्त बहुत खराब है। विशेष वार्तालाप के लिए समय न मिलने से मैं क्षमा मांगता हूँ।" वह बोला-कि एक बार मुझे भी शक्ति लगी थी तब उसे हटाने के लिए मुझपर विशल्या का जल छिड़का गया था अब भी जब कभी हमारे यहाँ किसी तरह की महामारी चलती है तब उसी के जल से शांति की जाती है । तुम भी वैसा ही करो।" सुनकर हनुमान ने कहा-"विशल्या कहां रहती है ?" विद्याधर कहने लगा-द्रोण नाम का एक राजा है। यह भरत का मामा है। उसके विशल्या नाम की कन्या है। तुम उसके पास जामो।" यह सब वृतान्त हनुमान ने रामचन्द्र से प्राकर कहा। उसर में रामचन्द्र ने कहा-हो सके तो शीघ्र ही उद्यम करो । इसमें हमारी क्या हानि ? यह सुनकर इस कार्य को करने के लिए हनुमान मोर भामन्डल दोनों कीर उद्यत हुए। वे उसी समय वहां से चलकर अयोध्या पहुंचे और अपने पर बीती हुई समस्त घटना भरत को कह सुनाई। सुनकर भरत को रावण की इस दुष्टता पर बड़ा क्रोध माया । वह रावण से युद्ध करने के लिए अपनी सेना को तैयार होने की आज्ञा देने लगा। तब हनुमान ने उसे समझाकर कहा कि युद्ध की आशा करना अभी उचित नहीं है। प्रथम भ्रातृ जीवन का उपाय कीजिए वे तुम्हारे मामा द्रोण की विशल्या नामक पुत्री के स्नान किए हए जल के सिंचन करने से जीवित हो सकते हैं । इसके अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं। प्रतएव प्रथम जल लाने का उद्योग कीजिए। भात ने कहा-अभी रात्री है । सूर्योदय होते ही मैं विशल्या का स्नानोदक लादूंगा। हनुमान ने कहा-अापने कहा वह तो ठीक है परन्तु लक्ष्मण के सूर्योदय होना अच्छा नहीं है क्योंकि जिसके शक्ति लग जाती है, यदि उसका प्रतिकार रात्री में ही कर दिया जाए तो अच्छा है नहीं तो सूर्योदय होने पर उसका जोना कठिन है। प्रतएव जहां तक हो सके प्रभी जल लाना उचित है। उठिए विमान उपस्थित है । मैं भी प्रापके साथ चलता हूं। भरत उठे पौर विमान में मारूढ़ होकर अपने मामा के यहां पहुचे । सोते हुए राजा द्रोण को उठाया मौर उससे सब वृतान्त कहा । द्रोण ने उसी समय विशल्या को बुलबाया और कहा बेटी! लक्ष्मण शक्ति के पापात से मूछित पड़ा हुमा है अतः तू अपने शरीर का जल शीघ्र दे दे, जिससे यह सचेत हो सके। पिता के वाक्य सुनकर विशल्या ने विनीत होफर उससे पूछा पिताजी ! लक्ष्मण कौन है? उत्तर में द्रोण ने कहा-बेटी! लक्ष्मण दशरथ की रानी सुमित्रा का पुत्र तथा रामचन्द्र का लघु भ्राता है। रावण ने उस पर शक्ति मारी है प्रतएव हनुमान तुम्हारे शरीर का गंधोदक सेने माया Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ णमोकार ग्रंथ है। उसे बहुत शीन दे दो क्योंकि सूर्योदय होना उसके लिए प्रमंगलकारक है।" विशल्या ने कहा--पिताजी ! मैं मापसे अपनी धृष्टता की कमा प्रार्थी होकर निवेदन करती हूं कि मैं लक्ष्मण के गुण सुना करती थी और उसी समय उस पर मुग्ध होकर उन्हें अपना जीवनेश समझ लिया था । आज अवसर है। मैं स्वयं ही उनके पास जाकर अपना कर्तव्य पालन करती हूं। आप मुझे प्राज्ञा दीजिए।" द्रोण ने सुनकर कहा- अस्तु ! जैसी इच्छा हो स्वीकार है।" पिता की प्राज्ञा पाकर विशल्या विमान में प्रारूढ़ होकर हनुमान के साथ लक्ष्मण के पास जाने के लिए चल दी। वह जैसे जैसे लक्ष्मण के पास पहुंचने लगी शक्ति वैसे वैसे ही शरीर से निकलने लगी। विशल्या के लक्ष्मण के शरीर स्पर्श करते ही शक्ति शरीर से निकल भागी । लक्ष्मण की मूर्छा दूर हुई। तब वह एकदम यह कहता हुया मारो-मारो, पकड़ो-पकड़ो रावण 'चोर भागने न पावे सचेत हो गया। सबको अत्यन्त हर्प हुना। सबने बड़ा भारी मानन्दोत्सव किया। तदन्तर विशल्या का समस्त वृतान्त लक्ष्मण को सुनाकर उसका इस महाभाग के साथ विधि पूर्वक पाणिग्रहण करा दिया। उधर रावण अष्टाह्निका पर्व पाया जानकर बहुरूपणी विद्या साधन करने के लिए जिन मन्दिर जाकर ध्यान लगाकर अपना अभीष्ट सिद्ध करने लगा। जब यह वृत्तीत रामचन्द्र को विदित हुआ तो वे अंगद से बोले- अब अवसर अच्छा है तुम जामो और रावण को विद्या-सिद्धि में विघ्न करो।" रामचन्द्र की पाशा पाते ही अंगद अपने साथियों को साथ लेकर जहाँ पर रावण विद्या साधन कर रहा था, वहीं वह पहुंचा और महान घोर उपद्रव करने प्रारम्भ कर दिए परन्तु धीर बीर रावण इन के उपद्रवों की कुछ भी चिन्ता न कर वैसे ही ध्यान में लगा रहा। तब अन्त में इनको निराश होकर वापिस अपने डेरे पर लौटना पड़ा। अनुष्ठान समाप्त होने पर रावण को विद्या सिद्ध हो गयी। वह उसके द्वारा अनेक प्रकार के रूप धारण करने लगा। लक्ष्मण जब अच्छे हो गये तब फिर रामचन्द्र ने रावण के पास युद्ध करने के लिए आमन्त्रण पत्र भेजा। वह उसी समय सेना लेकर रणक्षेत्र में पा हुना। यह देखकर रामचन्द्र और लक्ष्मण भी अपनी सेना लेकर युद्धभूमि में प्रा पहुंचे। अपनी अपनी सेना को लड़ने की दोनों ने आज्ञा दी। प्राशा पाते ही दोनों सेनामों में परस्पर घोर युद्ध हुआ। लक्ष्मण ने राम से कहा-पूज्य ! आप तो यहीं ठहरें। मैं अभी जाकर पापी रावण को निष्प्राण किए देता हूँ।" लक्ष्मण के कहे अनुसार रामचन्द्र तो बाहर रहे और लक्ष्मण ने युद्धभूमि में प्रवेश किया। रावण और लक्ष्मण का भारी युद्ध हुमा। इस बार रावण लक्ष्मण को अपने सम्मुख बहुत देर तक युद्ध करते देखकर बड़ा क्रोधित हुा । उसने क्रोधाग्नि से प्रज्वलित होकर लक्ष्मण पर अग्नि बाण चलाया। उसे लक्ष्मण ने मेघबाण से काट दिया। रावण ने सर्प बाण चलाया । लक्ष्मण ने उसे गरुड बाण से काट दिया। रावण ने फिर तामस बाण चलाया । उसे लक्ष्मण ने सूर्य बाण से राका। रावण दूसरा बाण छोड़ना ही चाहता था कि लक्ष्मण में बड़ी फुर्ती से अपने अर्द्धचन्द्र बाण से उसका मस्तक छेदन कर दिया सिर कटते ही उसने दो मस्तक बनाए। लक्ष्मण ने इस बार दोनों सिर काट डाले । उसने चार सिर बना लिए । तात्पर्य यह है कि जैसे-जैसे रावण सिर बढ़ाता गया लक्ष्मण वैसे ही सिर काटता गया। यह देखकर रावण को बड़ा क्रोध आया। उस समय उसने अपूर्व शक्तिमान लक्ष्मण को साधारण उपायों से पराजित होता न देखकर क्रोधांध हो लक्ष्मण के ऊपर चक्र चलाया जिसकी हजारों देव सेवा करते रहते हैं। चक्र लक्ष्मण को कुछ भी हानि म पहुँचाकर उल्टा प्रदक्षिणा देकर उनके हाथ में आ गया। --51 Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार प्रथ २३७ फिर लक्ष्मण ने उसी चक्र को अपने शत्रु पर चलाया। रावण के समीप पहुंचते ही चक्र उसे धाराशाई करके (मार के) उल्टा लक्ष्मण के हाथ में प्रा गया। रावण के मरते ही सेना में हाहाकार मच गया। प्रनाथ सेना जिधर मार्ग निकला, उधर ही भाग निकली ! युद्ध का अंत हुमा । विभीषण ने भाई का अग्नि संस्कार किया। संसार को यह लीला देखकर इन्द्रजीत, मेघनाद प्रादि उसी समय बासीन होकर तपोवन में चले गये। उन्होंने उसी समय मायाजाल तोड़ कर आत्महित का पथ जिन-दीक्षा ग्रहण कर ली । उसी दिन से रामचन्द्र की कीर्ति पताका संसार में फहराने लगी। लक्ष्मण ने चरत्न की पूजा की। विभीषण को लंका का राज्य दिया गया। सब राक्षसवंशी रामचन्द्र से प्राकर मिले । भामंडल, सुग्रीव, हनुमान पौर विराधित मादि को राम की विजय का अत्यधिक पानन्द हुमा। तदनंतर रामचन्द्र जी सीताजी से पाकर मिले। सीता ने स्वामी को नमस्कार किया । अपने प्यारे प्राणनाथ को पाकर जनकनंदिनी को जो हर्ष हुमा, वह लेखनी से नहीं लिखा जा सकता, वह मनुभव से ही जाना जा सकता है । बहुत दिन पश्चात् पाज दोनों के विरह दुःख की इतिश्री हुई। रामचन्द्र ने सीता को फिर पाकर अपने को कृतार्थ माना। दोनों का सुखद सम्मिलन हुमा । कुछ समय पश्चात् लक्ष्मण भी वहीं भा पहुँचा और सीता के चरणों में गिर पड़ा। सीता ने उसे उठाकर उसके कुशल समाचार पूछे । सब लक्ष्मण ने अपनी सारी कथा कह सुनायो । रामचन्द्र और सीता के दिन पहले की तरह अब फिर सुख से बीतने लगे । जब रामचन्द्र का सुयश चारों ओर अच्छी तरह फैल गया, तब बहुत से विद्याधर मच्छी-अच्छी वस्तुएँ उनको भेंट कर बड़े ही विनय के साथ उनसे मिले और उनकी अधीनता स्वीकार की। इस सुख में रामचन्द्र के बहुत से दिन प्रानन्द और उत्सव के साथ बीत गये। उन्हें समय का कुछ ध्यान नहीं रहा। रामचन्द्र ने चौदह वर्ष के लिए अयोध्या छोड़ी थी, माज वह अवधि समाप्त हुई। उन्हें मकस्मात् प्रपनी जन्म-भूमि की याद मा गयी । तब उन्होंने अच्छा दिन देखकर अयोध्या के लिए गमन किया । तब उनके साथ-साथ विभीषण, सुग्रीव, हनुमान, विराधित प्रादि बहुत से बड़े-बड़े राजा इन्हें पहुँचाने के लिए अयोध्यापुरी तक प्राए । मार्ग में और भी बहुत से देशों को यशवर्ती कर दिग्विजयी होते हुए कुछ दिनों पश्चात् अयोध्या में जा रामचन्द्र, लक्ष्मण और सीता के पागमन का शुभ समाचार सुनकर अयोध्यावासियों को बड़ा भानन्द हुमा । उन्होंने अपने महाराज के मागमन की खुशी में खूब जय-जयकार किया पौर वहुत यानंद व उत्सव मनाया । महाराज भरत ने जब यह सुना कि रामचन्द्र प्रा गये तो उन्हें बहुत हर्ष हुमा और उनकी अगवानी करने को वे बहुत दूर तक पाए और पहले ही पहुंचकर इन्होंने दोनों के चरणों की अभिवंदना की। रामचन्द्र ने भरत का आलिंगन कर उससे कुशल समाचार पूछे। एक के देखने से दूसरे को परमानन्द हमा। प्राज रामचन्द्र प्रयोध्या में प्रवेश करेंगे इसलिए समस्त नगरी गयी। घर-घर भानन्द-उत्सव मनाया गया, दान दिया गया, पूजा-प्रभावना की गयी। दरिद्र अपाहिज लोग मनवांछित सहायता से प्रसन्न किये गये । रामचन्द्र मानन्दपूर्वक नगरी की शोभा देखते हुए अपने महल में पहुँचे। पहले मातामों से मिले। माताओं ने प्रेमवश होकर पुत्र को भारती उतारी। मातामों को इस समय अपने प्रिय पुष को पाकर जो मानन्द हुआ, उसका पता उन्हीं के हृदय को है । उस प्रानन्द की कुछ थोड़ी प्राप्ति दूसरे उसको हो सकती है जिस पर ऐसा भयानक प्रसंग आकर कमी पड़ा हो । सर्वसाधारण उनके उस मानन्द का, उस सुख का, बाह नहीं पा सकते। नाई Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ णमोकार बंध माता अपने बिछुड़े पुत्रों को पाकर बहुत प्रानन्दित हुई। पुत्रों को गले लगाया और शुभाशी. वर्वाद दिया। सब है.."जैसा स्नेह पत्र पर माता को होता है वैसा किसी का नहीं होता।" उस तुलना किसी दृष्टांत या उदाहरण से नहीं दी जा सकती और जो देते हैं वे माता के प्रानन्द प्रेम को न्यून करने का यत्न करते हैं। तदनंतर रामचन्द्र अपनी प्रजा से प्रेमपूर्वक मिले। सबको बहुत दिन बिछुड़े हुए अपने महाराज के दर्शन कर बड़ा प्रानन्द हुमा । रामचन्द्र राज्य पालन करने लगे। इस खुशी में रामचन्द्र जी ने मित्र, भाई-बधु और विद्याधर प्रादि जितने अपने प्रेम-पात्र थे, उन्हें बहुत पुरस्कार देकर संतुष्ट किया। रामचन्द्र के शासन से प्रजा भी बहुत संतुष्ट रहने लगी। देखो ! रामचन्द्र परस्त्री के पाप से रहित थे, इसलिए उनकी कीर्ति सब दिशाओं में विस्तृत हो गई और रावण इसी पर-स्त्री के पाप से मर कर नरक गया, इसलिए उसकी कीति न हुई ! उसके कुल में सलेक लगा और अंत में दूसरे के हाथ से उसकी मृत्यु हुई। सारांश यह है कि पर-स्त्री सेवन से दोनों लोक बिगड़ते हैं। हजारों वर्षों का उज्ज्वल सुयश एक क्षण-मात्र में नष्ट हो जाता है। शरीर रोगों का घर जीर्ण प्राय हो जाता है और फिर बुरी तरह मृत्यु हो जाती है, इसलिए हे बुद्धिमानो ! पर-स्त्री से संसर्ग करना छोड़ दो। जो पर-स्त्री के त्यागी हैं वे संसार में निभीक हो जाते हैं। उनकी कीर्ति सब जगह फैल जाती है। देखो, यही रावण विखंड का स्वामी था। लंका जैसी पुण्यपुरी इसको राजधानी थी और उसके प्रताप मे बड़े-बड़े राजा-महाराजा डरते थे। आज उसी वीर की केवल पर-स्त्री हरण के पाप से यह दशा हुई सो और साधारण पुरुष इस पर-स्त्री-त्र्यसन से कितना दुःख उठाएंगे, यह अनुभव में नहीं पाता और कुछ नहीं तो पर-स्त्री सेवन करने वालों को इस लोक में धनहानि और शारीरिक कष्ट मौर परलोक में नरक प्रादि कुगतियों के दुःख तो सहने ही पड़ते हैं। इसमें किसी तरह का संदेह नहीं है। वे मनुष्य नहीं हैं किंतु नीच है जो दूसरों की स्त्री से अपनी बुरो वासना पूरी करते हैं। झूठा खाने वाले कुत्ते हैं। भाइयो ! परन्त्री सेवन सर्वथा निद्य है। इसे छोड़कर अपनी स्त्री में संतोष करो। यही धर्मात्मा होने की पहली सीढ़ी है। इसी प्रकार बहुत-सी कथाएँ पर-स्त्री के सम्बन्ध की हैं। इन सबका अभिप्राय केवल इस पाप प्रवृत्ति के छुड़ाने का है । कथा के पढ़ने का यही फल होना चाहिए कि उससे कुछ शिक्षा लो आए । केवल पढ़ना किसी काम का नहीं है । वह तो तोते का सा रटना है। तात्पर्य यह है कि इन पापाचारों से होने वाली हानियों को विचार कर उसके छोड़ने में उद्यमशील बनो। ॥ इति परस्त्री व्यसनम् ॥ ॥ इति पाक्षिक श्रावक वर्णन समाप्तः ॥ मय नैष्ठिक श्रावक वर्णन प्रारम्भ : देशयमनकोपादि, क्षयोपशम भावतः । बासो वर्शनिकास्त, नैष्ठिक: स्यात्सुलेश्यकः॥ अर्थ-अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया और लोभ के क्षयोपशम होने से दर्शन प्रतिमा पादि को धारण करने वाला नैष्ठिक श्रावक कहा जाता है। उसके पीत्, पद्म और शुक्ल लेश्याओं में से कोई लेश्या होती है। भावार्थ:-जो धर्मात्मा पाक्षिक श्रावक की क्रियाओं का साधन करके अर्थात एकदेशसंयम को पालन करने का अभ्यास करके जिन शासन के प्रध्ययन द्वारा संसार शरीर भोगोपभोगों से विरक्त होने रूप वैराग्य वृक्ष को बार-बार सिंचन करता हुमा अप्रत्याख्यानावरण कषाय का उपशम होने से और प्रत्याख्यानाकरण कषाय के क्षयोपशम के अनुसार निरसियार थावक धर्म का निर्वाह करने में Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार म २३६ तत्पर है उनको मैष्ठिक श्रावक कहते हैं। नैष्ठिक श्रावक के दार्शनिक प्रादि ग्यारह भेद हैं । जिनको ग्यारह प्रतिमा भी कहते हैं। अब इन ग्यारह प्रतिमाओं के नाम कहते हैं मृष्टया मूलगुणाष्टकं व्रतभर सामायिक प्रोषधं, सभिवतात्र दिन व्ययायवनितारं भोपधिम्योपतात् । उच्चिष्टायपि भोजनानाविरति प्राप्ताः मात्प्राग्गुण, प्रौढ़ाया वर्शनिकायय: सह भवस्येकारशोपासकाः ॥ प्रांत---दर्शन प्रतिमा, अत प्रतिमा, सामायिक प्रतिमा, प्रोषध प्रतिमा, सचित त्याग प्रतिमा, रात्रि भुक्ति त्याग प्रतिमा, ब्रह्मचर्य प्रतिमा, प्रारम्भ त्याग प्रतिमा, परिग्रह विरति प्रतिमा, मनुमति त्याग प्रतिमा और उद्दिष्ट त्याग प्रतिमा इस प्रकार से ग्यारह प्रतिमा हैं । ये ग्यारह प्रतिमाएं क्रमशः उत्तरोतर चढ़ती हुई अनुक्रम से धारण की जाती हैं क्योंकि इस जीव के अनादि काल से अनादि कर्म सम्बन्ध के कारण प्रात्मीक स्वभावों के यथार्थ रूप जाने बिना पंचेन्द्रिय जनित विषय अभ्यास हो रहा है तज्जनित प्रसंयम एक साथ नहीं छूट सकता इसलिए क्रम ऋम से छोड़ने की परिपाटी बतलाई गई है इसलिए ही अगली अगली प्रतिमानों में पहली पहली प्रतिमानों के गुण अवश्य ही रहते हैं और वे उत्तरोतर बढ़ते जाते हैं जैसे अत प्रतिमा में सम्यग्दर्शन और मूलगुणों को उत्कृष्टता रहती है। सामायिक प्रतिमा में सम्यग्दर्शन मूल-गुण और ब्रतों की उत्कृष्टता रहती है इसी प्रकार सब प्रतिमाओं में पहली पहली प्रतिमाओं के गुण अधिकता से रहते हैं। यथोक्तम् प्रार्या छंद श्रावक पदानि देवरेकादश देशितानि खलु येषु । स्वगुणाः पूर्वगुणः सह सन्तिष्ठते कमविता ॥ अर्थ-भगवान ने श्रावक के ११ स्थान कहे हैं। उनमें अपने-अपने स्थान के गुण पहली प्रतिमा के गुणों के साथ-साथ क्रम से बढ़ते हुए रहते हैं। इनमें से तीसरी पांचवी सातवीं मादि उच्च कक्षा धारण करने वाले पहली, दूसरी, चौथी. छठी ग्रादि नीचे की सब कक्षाओं के निरतिधार नियम धारण करने से ही वह उच्च कक्षा धारी कहला सकता है। यदि वह पहली, दूसरी, छठी आनि नीचे की ऋक्षामों में अतिचार लगाए तो उसके पहली, दूसरी, तीसरी, चौथी, पांचवी प्रादि की प्रतिमा गिनी जाएगी जैसे किसी मनुष्य ने स्व पर स्त्री सेवन प्रादि ब्रह्मचर्य का सर्वथा त्याग तो कर दिया परन्तु सामायिक, प्रोषध आदि प्रतिमा यथा योग्य पालन न करे तो उसे ब्रह्मचर्य प्रतिमा का धारी नहीं कह सकते क्योंकि जिस प्रतिमा में जिस व्रत के पालन या जिस पाप के निराकरण की प्रतिज्ञा ली जाती है उसका निरतिचार पालन करना ही प्रतिमा कहलाती है अन्यथा केवल कौतुक मात्र है उससे कुछ भी फल नहीं होता क्योंकि नीचे के यथावत क्रम पूर्वक चरित्र साधन करने से ही विषय कषाय को मंदता होने से निजात्मीक सच्चे सुख की प्राप्ति हो सकती है जो कि प्रतिमाओं के धारण करने का मुख्य प्रयोजन है । इन दर्शन आदि ग्यारह प्रतिमानों के धारियों के गृहस्थ, ब्रह्मचारी, भिक्षुक तथा जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट ऐसे भेद दिखलाते हैं पात्रा गृहिणो झया, स्त्रयः स्युबाह्मचारिणः । भिक्षको नौमतु निविष्टो, ततः स्यात्वर्ततोयति ॥ Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० णमोकार प्रेय प्रर्थ---इन ग्यारह प्रतिमानों में से पहली छह प्रतिमाओं को धारण करने वाला गहस्थ (जघन्य धावक) उसके पीछे नवमी तक तीन प्रतिमानों को धारण करने वाला ब्रह्मचारी (मध्यम श्रावक) और अन्त की दो प्रतिमानों को धारण करने वाला भिक्षुक (उत्तम श्रावक) कहलाता है। तथा इनके अनन्तर परिग्रह त्यागी मुनि होता है । अब इन प्रतिमाओं का संक्षिप्त स्वरूप कहा जाता है। अथ दर्शन प्रतिमा स्वरूप.. प्रार्या छंद सम्पदर्शन शुखः, संसार भोग निविणः । पंच गुरु चरण कारणो, वर्शनिकस्तत्वपथगृह्यः ।। मर्थात् -- जो संसार दारीर भोगों से विरवन शुद्ध सम्यग्दर्शन का धारी केवल पंच परमेष्ठी के चरण कमलों का शरण ग्रहण करने वाला सत्यार्थ मार्ग ग्राही तथा तत्व अर्थात प्रत का मार्ग प्रति निवृति रूप अष्टमूल गुण का धारक हा वह दार्शनिक श्रावक है। भावार्थ--जो संसार शरीर और भोगोषभोग आदि इष्ट विषयों से विरवर है। जिसने पाक्षिक श्रावक सम्बन्धी प्राचार आदि के पालन करने से सपना सम्यग्दर्शन निर्मल कर लिया है तथा अरिहंत, सिद्ध प्रादि पंच परमेष्ठियों के चरण कमलों का ही जिसको पाश्रय है अर्थात मो भारी मापत्ति पाने पर भी उसके निवारण करने के लिए शासन देवताओं का पाराधन नहीं करता है और मद्य प्रादि के निवति मूलगुणों के प्रतीचारों का प्रभाव करके निरतियार पालनकर आगे को प्रतादि प्रतिमामों के पालन करने में उत्कंठित है और जो अपने पद के अनुसार न्याय पूर्वक माजीविका का करने वाला है वह दर्शन प्रतिमा का पारी दासनिक श्रावक है ऐसा ही अन्यत्र भी कहा है पाक्षिकाचार सम्पत्या, निर्मलीकृत दर्शनः । विरक्तो भव भोगाभ्या, महंवादि पक्षाधकः ॥ मलास्मूलगुणानी निर्म लयन्नपिमोत्सुकः । न्यायां वाविपुः स्थित्य, बघ निकोमतः ।। इन श्लोकों का तात्पर्य पूर्वोक्त श्लोक के अनुसार है। मथ व्रत प्रतिमा स्वरूप मार्या छन्द निरतिक्रमणमणुव्रत, पंचकमपि शीलसप्तकं चापि । धारतये निःशल्यो, योऽसौ अतिनामतोवतिकः ॥ पर्थ-जो शल्य रहित होता हुआ सम्यग्दर्शन और मूलगुणों सहित निरतिचार पांच प्रणुव्रत, तीन गुणवत, और चार शिक्षाप्रत इन बारह ब्रतों को धारण करे वह व्रती श्रावक है । भावार्ष-जो पुरुष उपभोग के प्राश्रय करने वाले अन्तरंग प्रतीचार और चेष्टा तथा क्रिया के प्राध्य रहने वाले बहिरंग अतिचारों के रहित निर्मल अखंड सम्यग्दर्शन और मलगणों का घारकोर शल्य रहित है, शल्य नाम बाण का है जो हृदय के लगे हुए बाण के समान शरीर और मन को दुःख देने वाला कर्मोदय जनित विकार हो उसे शल्य कहते हैं। शल्य के तीन भेद हैं-माया, मिथ्यात्व और निदान । मन में पोर वचन में पौर तथा कार्य में कुछ पोर ही करे, ऐसे पापों को गुप्त रखकर दूसरों के दिखाने तथा मान. प्रशंसा. प्रतिष्ठा.लोभ आदि के अभिप्राय से व्रत धारण करना माया शल्य है। Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार प्रेष २४१ धर्म के यथायं स्वरूप को न समझने से विपरीत श्रद्धान तथा संदेह रूप प्रदान करके व्रत धारण करने के अभिप्राय को न समझ दुसरों की देखा-देखी या और किसी विशेष अभिप्राय से बन धारण करना मिथ्यात्व शल्य है। तपश्चरण, संयम प्रादि के साधन द्वारा प्रागामी काल में विषय भोगों की आकांक्षा प्रति इच्छा करना निदान शल्य है। इन तीन शल्यों से रहित होकर इष्ट-अनिष्ट पदार्थों से राग द्वेष के अभाव और साम्यभाव की प्राप्ति के लिए अतिचार रहित गुणों को प्रर्थात बारह व्रतों के निर्दोष पालन करने वाले को दूसरी वत प्रतिमा का धारी कहते हैं। बारह व्रतों के नाम. इस प्रकार है (१) संकल्पी त्रस हिंसा का त्याग, (२)स्यूल प्रसत्य का त्याग, (३) स्थूल चोरी का त्याग (४) स्वदार संतोष (५) परिग्रह (धन-धान्य मादि का) प्रमाण, (६) दशों दिशाओं में गमन क्षेत्र की मर्यादा (0) प्रतिदिन गमन क्षेत्र की प्रन्तमर्यादा, (व्यर्थ धावर हिंसा प्रादि का त्याग (8) उचित भौगोपभोग का प्रमाण करना (१०) सामायिक (कुछ समय के लिए समस्त जीवों के साम्य भाव धारणकर ध्यानारूढ़ होना), (११) पर्व तिथियों में उपवास आदि करना, (१२) पात्रों को भक्ति पूर्वक चतुर्विध दान देना। इस प्रकार ये पंचाणुव्रत तीन गुण व्रत और चार शिक्षावत मिलकर श्रावक के १२वत कहलाते हैं । इन बारह व्रतों को पांच-पांच प्रतिधार रहित धारण करना पत प्रतिमा है। दार्शनिक श्रावक के प्रष्टमूलगुण के धारण और सप्त व्यसन त्याग के निरतिचार पालने से जो स्थूलपणे पंचाणनों का पालन होला था वह पंचाणुव्रत तो यहाँ निरतिकार पलते हैं और शेष तीन गुणवत मौर चार शिक्षावित खेत की बाढ़ के समान व्रत रूप क्षेत्र की रक्षा करते हैं। यथोक्तं धर्म संग्रह श्रावकाचारे पाणुक्त रक्षार्थ, पल्यते शील सप्तकम् । हास्य बरक्षेत्र वपर्ण क्रियते महती अतिः ।। अर्थ-इनमें तीन गुणत तो अणुव्रतों का उपकार अर्थात् गृहस्थ के अणुक्त गुणों की वृद्धि करते हैं और धार शिक्षावत मुनिव्रत धारणकराने का प्रभ्यास कराते हैं व शिक्षा देते हैं इसीलिए इनको शिक्षानत कहते हैं । ये तीन गुणवत्त प्रौर चार शिक्षायत एवं सप्तशील प्रणवतों को नसैनी की पंक्तियों के समान सहायक होकर महानत रूप महल पर पहुंचा देते हैं यद्यपि प्रती जहां तक संभव हो वहाँ तक अतिचार नहीं लगाते हैं और उनकी अतिचारों से बचाने का प्रयत्न करते हैं तथापि इनमें विवश प्रतिधार लगते हैं क्योंकि यदि बारह वत, प्रत प्रतिमा में ही निरतिचार रूप में पालन हो जाएं तो मागे की सामायिक प्रादि प्रतिमाएँ निष्फल ही ठहरें क्योंकि सामायिक संशक तीसरी प्रतिमा से उद्दिष्टत्याग नामक ग्यारहवीं प्रतिमा पर्यन्त इन सप्सशीलों के निरतिचार पालन करने का ही उपदेश है। यथा-सामायिक प्रतिमा में सामायिक और चौथी प्रतिमा से प्रोषधोवास निरतियार होते हैं इसी प्रकार सब प्रसिमामों में सप्त शील निरतिचार होने से अणुक्त महाबत की परिणति को पहुँच जाते हैं प्रतएव बारह बतों का द्वितीय प्रतिमा में ही निरतिधार होना कैसे संभव हो सकता है? Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ अथ सामायिक प्रतिमा स्वरूप प्रारम्भ : प्रार्या छंद चतुरात्तं त्रिसमचतुः प्रणामः स्थितो यथाजातः । सामयिको द्विनिषध, स्त्रियोगशुद्ध स्त्रिसन्ध्यमभिवावी ॥ अर्थात् - जिसके प्रावर्त्त के चार त्रितय है और तीनों सन्ध्यात्रों में जो प्रभिवन्दना करता है उसे सामायिक संज्ञक तीसरी प्रतिमा का धारी कहते हैं । णमोकार ग्रंथ भावार्थ - प्रभात, मध्यान्ह और सायंकाल इन तीनों समय उत्कृष्ट छह घड़ी, मध्यम चार घड़ी और जघन्य दो घड़ी योग्यतानुसार नियमपूर्वक नियत समय पर तथा नियत समय तक ध्यान के डिगाने वाले कारणों से रहित निरुपद्रव एकांत स्थान में पद्मासन या खड्गासन से इन्द्रियों के व्यापार व विषयों से विरक्त होते हुए मन, वचन, काय की शुद्धता पूर्वक सामायिक के यादि पन्त में चारों दिशाओं में एक-एक नमस्कार और चारों दिशाओं में नव णमोकार मंत्र अर्थ सहित तीन प्रावर्ति ( दोनों हाथों की प्रजलि जोड़कर दाहिने हाथ की ओर से तीन बार फिराना) और एक-एक शिरोनति ( दोनों हाथ जोड़ नमस्कार ) करे । तत्पश्चात् शरीर से निर्ममत्व होता हुया स्थिर चिस करके सामायिक के वन्दना आदि पाठों का पंच परमेष्ठी तथा आत्मा के स्वभाव विभावों का चितवन और अपने प्रात्म स्वरूप में उपयोग स्थिर करने का अभ्यास करे, इस प्रकार यह सामायिक संज्ञक तीसरी प्रतिमा होती है । प्रथ प्रोषध प्रतिमा स्वरूप प्रारम्भ :-- मार्या छन्द पर्व विनेषु चतुष्यपि, मासे मासे स्वशक्तिमनिग्रह्यः । प्रोषधमियम विधायी, प्रणधिपर: प्रोषधानशनः ॥ अर्थात् -- जो महीने महीने चारों ही पर्यो के दिनों में प्रपनी शक्ति को न छिपाकर शुभध्यान में तत्पर होता हुआ आदि ग्रन्त में प्रोषधपूर्वक उपवास करे वह प्रोषधोपवास प्रतिमा का धारी है। भावार्थ - तीसरी प्रतिमा का धारण करने वाला जब प्रत्येक भ्रष्टमो चतुर्दशी के दिन नियमपूर्वक यथा शक्ति जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट भेद रूप प्रोषधोपवास ( एक बार भोजन करने को एकाशन कहते हैं सर्वथा भोजन पान का त्याग कर देना उपवास और धारणा तथा पारणे के दिन एकाशन करके बीच के पर्व दिन में सोलह पहर सर्वथा चार प्रकार के बहार के त्याग करने को प्रोषघोपवास कहते हैं ) कर समस्त प्रारम्भ और विषय छोड़ कषाय की निवृतिपूर्वक धर्मेध्यान में सोलह पहर व्यतीत करता है तब उसे प्रोषधोपवास संज्ञक चतुर्थ प्रतिमा का धारी कहते हैं । अथ सविस स्याग प्रतिमा स्वरूप श्रार्या छन्द मूल फल शाक शाखा, कशेर कंद प्रसून बोजानि । नामानियो प्रसिसोऽयं सचित्त विरतोषयामूर्तिः ॥ अर्थ- जो कच्चे मूल, फल, शाक, शाखा, करीर ( गांठ अथवा खैर) जिभीकंद, पुष्प और बीज नहीं खाता है वह दयामूर्ति सचित्त त्याग प्रतिमा का धारी भावक है । भावार्थ - जब वह दयालु पुरुष श्री जिनेन्द्र देव की आज्ञा और प्राणियों की दया पालते हुए धर्म पालन में तत्पर होता हुआ प्रति कठिनता से जीती जाने वाली जिल्ला इन्द्रिय को दमन कर कच्चे मूल, फल, शाक, शाखा, करीर, कन्द, पुष्प, बीज, श्रप्राशुक जल मादि सचित ( जीव सहित ) पदार्थों के Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नौकार २४३ भक्षण करने का स्वाग कर देता है तब उसे सचित्त त्याग नामक पंचम प्रतिमा का धारी कहते हैं । अम दिवा मैथुन व रात्रि भुक्ति स्याग प्रतिमा स्वरूप प्रार्या छन्द अन्नं पानं खा, लेहव नारनातियो विभावर्याम् । सच रात्रिभुक्तिविरतः, सम्वेवनुकम्पमानमनाः ॥ अर्थ-जो जीवों पर दया रूप चित्त वाला होता हुआ अल (रोटी, दाल, चावल प्रादि पदार्थ) पान (दषि, जल, शर्बत आदि पदार्थ) खाच फलाद, मोदक पादि) लेह (रबड़ी पादि चादने योग्य वस्तु इस प्रकार चार प्रकार के पदार्थों को रात्रि में ग्रहण नहीं करता है यह रात्रि भुक्ति त्याग नामक प्रतिमा का धारी है। भावार्य इस प्रतिमा का शास्त्रों में दो प्रकार से वणन किया है। एक तो कारित अनुमोदना से रात्रि भोजन का त्याग और दूसरे दिवा मैथुन का त्याग । यद्यपि रात्रि भोजन का त्याग तो सातिचार प्रथम प्रतिमा में हो जाता है और प्रचुर प्रारम्भ जनित त्रस हिसा की अपेक्षा व्रत प्रतिमा में होता है परन्तु यहाँ पर पुत्र, पोत्र आदि कुटुम्ब तथा अन्य जनों के निमित्त से कारित, अनुमोदना सम्बन्धी जो प्रसिचार लगते हैं उनके यथावत् त्याग की प्रतिज्ञा होती है और इसके अतिरिक्त इस प्रतिमा वाला मन, वचन, काय, कृत, कारित प्रौर मनुमोदना से दिषा मैथुन का त्याग कर देता है तब उसे रात्रि भुक्ति त्यागी कहते हैं। यथोक्त-- मन्ये चाहुदिवाब्रह्मवयं, बामशन निशिश। पालयेत्स भवेत्षष्ठः, श्रावको रात्रि भुक्तिक: ।। प्रर्थ पूर्वोक्त प्राशयानुसार है। अथ ब्रह्मचर्य प्रतिमा स्वरूप प्रार्या छंदमलमीज मलयोमि, गलन्मलं पूतिगग्धिवीभत्स । पश्यन्नंगमनंग, द्विरमति यो ब्रह्मचारी सः ।। अर्थ-जो मल का बीज भूत, मल को उत्पन्न करने वाले, मल प्रवाहो, दुर्गन्धियुक्त, लज्जाजनक पथना ग्लानियुक्त अंग को देखता हुमा काम सेवन से विरक्त होता है वह ब्रह्मचर्य नामक प्रतिमा का पारी ब्रह्मचारी है। भावार्थ-राति भुक्ति मोर दिया मैथुन त्यागी स्त्री के शरीर को मल का बीजभूत मल को उत्पन्न करने वाला, मल प्रवाही दुर्गन्धियुम्त, लज्जाजनक जानता हुमा स्व-स्त्री तथा परस्त्री पपीत स्त्रीमात्र में मन, बचन, काय, कृत, कारित, अनुमोदना से काम सेवन तथा काम सम्बन्धी प्रतिचार स्यागकर ब्रह्मपयं ब्रस में प्रारुढ़ होता है तब ब्रह्मचर्य संज्ञक सप्तम प्रतिमा का पारी कहा जाता है। पपपारम्भ स्याग प्रतिमा स्वरूप-~ प्रार्या छन्दसेवाकृषि वाणिज्य, प्रमुखारारम्भतो व्यपारमति । प्राणानिपातहेतोपर्यो, सावारम्भविमिवृत्तः ॥ Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ गमोकार बम अर्थात–जो जीव हिंसा के कारण नौकरी, खेती, व्यापार प्रादि के प्रारम्भ से विरक्त होता है वह मारम्भ त्याग प्रतिमा का धारी है। भावार्थ-ब्रह्मचर्य प्रतिमा धारी जब हिसा से प्रति भयभीत होकर प्रारम्भ (जिन क्रियामों में षट्काय के जीवों की हिंसा हो वह प्रारम्भ है) को परिणामों में विकलता उत्पन्न करने वाला जानकर हिंसा के कारण भूत गृह सम्बन्धी षट्कर्म व कृषि, वाणिज्य आदि प्रारम्भ मन, वचन, काय से त्याग कर पेता है तब उसे प्रारम्भ संशक प्रष्टम प्रतिमा का पारी कहते हैं। अथ परिप्रह विरति नाम नवमी प्रतिमा का स्वरूप मार्या छन्द पाहा वशषवस्तुष, ममस्वमुत्सृज्यनिर्ममत्वरतः । स्वस्थः संतोषपरः, परिचिसपरिग्रहानिरतः।। अर्थ-जो वाह्य के दश परिग्रहों में ममता को छोड़कर निर्ममत्व होता हुमा माया प्रादि रहित स्थिर पौर सन्तोष वृत्ति धारण करने में तत्पर है वह परिचित परिग्रह से विरक्त है। भावार्थ--जो प्रारम्भ त्यागी मात्महितेच्छुक षामिक श्रावक राग षादि प्राभ्यन्तरिक परिग्रहों की मंदतापूर्वक धन-धान्य मादि दश प्रकार के परिग्रह से ममत्व त्यागे प्रतिप्रयोजनीय शीतोष्ण बाधा दूर करने निमित्त वस्त्र, जल पात्र व भोजन पात्र मादि तुम्छ परिग्रह रखकर पोष सबसे ममत्व त्याग गृहास्थाश्रम का भार पुत्र, भाई, भतीजे प्रादि को सौंपकर क्षमा भावपूर्वक धर्म साधन की प्रामा लेकर किंचित काल पर्यन्त गृह में ही निवासकर धर्म सेवन करता है उसे परिग्रह त्याग संज्ञक नवमी प्रतिमा का धारी कहते हैं । प्रय प्रमुमति त्याग प्रतिमा स्वरूप वर्णनम् : पार्या छन्द - प्रमुमतिरारम्मेवा, परिग्रहे हिफे कर्मपा। मास्ति बलु तस्य समधीरनुमति विरतः समन्तव्यः ।। मर्प-जिसकी प्रारम्भ तथा परिग्रह में इस लोक सम्बन्धी कार्यों में मनुमति नहीं है वह समान बुद्धि बाला निश्चय करके अनुमति त्याग प्रतिमा का पारी मानने योग्य है। भावार्थ-जो परिग्रह त्यागी श्रावक सांसारिक मावध कर्म विवाह मादि यथा मसि, मसि, कृषि, बाणिज्य प्रादि षट् प्राजीवी को मौर चूला, चक्की मादि पंचसून सम्बन्धी प्रारम्भ क्रियामों के करने की मागा, सम्मति नहीं देता, अनुमोदना नहीं करता उसे समान बुद्धि वाला अनुमति त्याग प्रतिमा का धारी कहते हैं । वह उदासीनता पूर्वक कुटुम्बी जनों से पृपक एकान्त निज स्थान चैत्यालय, मठ, मण्डप तथा धर्मशाला में निवास कर धर्म सेवन करता हुमा कुटुम्बी अथवा अन्य किसी सद् गहस्य के बुला ले जाने पर उनके यहां भोजन कर पाता है परन्तु पहले से किसी का निमन्त्रण (न्योता नहीं मानता और अपने मन्त राय कर्म के क्षयोपशम के पनुसार सरस, बिरस, खट्टा नमकीन, मीठा पादि जैसा भोजन प्राप्त हो उससे उबर पोषण कर संतुष्ट रहता है। इस प्रकार के धर्म सेवन करने वाले गृहस्प को दशमी प्रतिमा वाला अनुमति त्यागी कहते हैं। Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार प्रय अथ विद्दष्ट त्याग मा स्वरूपः प्रार्या छन्दगृहतो मुनिवनमित्वा, गुरुपकन्ठे व्रतानि परिगृह्य । भक्ष्याशनस्तपस्य, कुष्टश्चेलखण्ड परः॥ अर्थ-..जो धर से मनिवन को प्राप्त होकर गुरु के निकट व्रत धारण करके तप करता हश्रा भिक्षा भोजन करता है यह खण्ड वस्त्र का धारी उत्कृष्ट श्रावक क्षुल्लक व अहिलक (ऐलक) है। भावार्थ-जब अनुमति त्याग, श्रावक चारित्र मोहनीय कर्म के मंद हो जाने से पंचाचार प्राप्ति एवं रत्नत्रय की शुद्धता के निमित्त गृहबास त्याग बन में जाकर गुरु के निकट उद्दिष्ट त्याग प्रतिमा धारण करता है और अपने लिए किए हुए भोजन, शयन, भासन, उपकरण आदि का त्याग कर देना है उसे ग्यारहवीं प्रतिमा वाला उद्दिष्ट त्यागी कहते हैं। इस प्रतिमा का धारण करने वाला श्रावक मुनि के समान मन, वच, काय, कृत, कारित, अनुमोदना सम्बन्धी दोप रहित भिक्षाचरण पूर्वक याचना रहिन निर्दोष शुद्ध प्राहार गृहस्थी ने जो स्वतः अपने लिए प्रारम्भ करके बनाया हो उस ही को ग्रहण करता है भोजन के लिए किसो के बुलाने से नहीं जाता किन्तु भोजन के समय गृहस्थों के घर जाकर उनके मांगन में खड़े होकर अपना आगमन जताकर यदि वे भक्ति पूर्वक पाहार कराये तो आहार करता है अन्यथा अति शीघ्न वहाँ के लौट जाता है और इसी प्रकार से जिस गृहस्थ के भोजन हो जाए वहाँ से लौटकर वन में जा पुनः धर्म सेवन में सत्तर होता है। इस ग्यारहवी प्रतिमा वाले उद्दिष्ट विरत धावक के दो भेद होते हैं-प्रथम क्षुल्लक आवक श्वेत कोपीन. (लंगोटी) और ओढ़ने के लिए एक खंड वस्त्र जिससे सिर के तो पांव उघड़े रहे और पांव ढके तो सिर उघड़ा रहे और मल मूत्र प्रादि शारीरिक अशुद्धियों को दूर करने के लिए प्राशुक जल महित कमन्डलु रखते हैं जल पानार्थ नहीं तपा जीव दया निमित्त स्थान संशोधन के लिए मयूर पिच्छिका व पठन-पाठन के लिए पुस्तक रखते हैं और दाढ़ी मूछ तथा सिर के बालों को कैची व उस्तरे से किसी दूसरे मनुष्य से कटवाते हैं, काँख के बाल बनबाने का निषेध है। दूसरा ऐलक कोपीन, पीछी और कमन्टलु मात्र रखते हैं तथा गृहस्थ के द्वारा अपने हाथ में समर्पण किये हुए भोजन को शोधकर खाते हैं, थाली प्रादि किसी वर्तन में नहीं यह अपने दाढ़ी मूछ मौर शिर के बालों का उत्कृष्ट दो मास, मध्यम तीन मास और जघन्य चार मास में लोंच करते है अर्थात अपने हाथों से उखाड़ डालते हैं और प्रात्म ध्यान में सदैव तत्पर रहते हैं। उदिष्ट त्यागी को शास्त्रों में मुनि का लघु भ्राता कहा जाता है अतएव हिंसा प्रादि पापों के पूर्ण रूप से त्याग करने रूप परिणामों में आसक्त उत्कृष्ट श्रावक को ग्यारहवीं प्रतिमा का अभ्यास कर अन्त में अवश्यमेव मुनिव्रत धारण करने चाहिये । इस प्रकार श्रावक धर्म को पालन करने बाले भव्य जीव यथायोग्य नियम के सोलहवें स्वर्ग पर्यन्त जाकर महद्धिक व इन्द्रादिक उच्च पदस्थ देव होते हैं। यथोक्तं धर्म संग्रह श्रावकाचारेएष निष्ठापरो मच्यो,नियमेन सुरालपम् । गच्छत्यच्युतपर्वतं क्रमशः शिवमंदिरम् ! अर्थ-इस प्रकार निष्ठा (प्रतिमानों के पालन) में तत्पर यह भध्यात्मा नियम से अच्युत विमान पर्यंत जाता है और क्रम से मोक्ष को प्राप्त होता है । क्योंकि जिस जीव के देवायु के अतिरिक्त अन्य Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ णमोकार प्रय आयु बन्ध हो जाता है उसके परिणामों में देशवत धारण करने की रुचि और अनुष्ठान करने योग्य शुद्धता उत्पन्न होती ही नहीं। नारण शाम का भव्य जीवों के निमम पूर्वक कल्पवासी देवायु का ही बन्ध होता है मतएव व्रती श्रावक निश्चय से देव पर्याय पा वहां से चय मध्य लोक में कान्ति, प्रताप, वीर्य, कीर्ति, कुल वृद्धि, विजय विभव का मधिपति हो मांडलिक, चकवर्ती प्रादि उत्कृष्ट पद पाकर मुनिश्रत धारण कर निष्कर्म होकर अनन्तकाल स्थायी मोक्षपद को प्राप्त होते हैं । । इति एकादश प्रतिमा स्वरूप । अय साधक श्रावक वर्णन प्रारम्भ :वेहाहारे हितत्यागात्, ध्यानशुद्ध यास्मशोधनम् ॥ यो जोषितां ते संप्रीतः, साधयत्येष साधकः ॥ प्रार्थ---जो प्रती श्रावक शरीर भोगों से निर्ममत्व होकर चार प्रकार के प्राहार का त्याग कर मन, वचन, काय की क्रियाओं के निरोष से उत्पन्न हुए ग्राद्र रौद्र रहित एकाग्र चिंता निरोध रूप विशुद्ध ध्यान से मरण के अन्तिम समय में जो अपने चैतन्य स्वरूप प्रात्मा को शुद्ध करता है , अर्थात मोह, राग द्वेष को छोड़कर जो अपनी आत्मा के ध्यान करने में तल्लोन है उसको साधक श्रावक कहते हैं । भावार्थ जो अती श्रावक सल्लेखनामरण करने का उत्साही, विषय कषायों को मंदतापूर्वक यथासं यथासंभव अपनी पदवी अर्थात समय पालन करने के प्रतिमा आदि स्थानों को सम्यक प्रकार पालन करता है तथा जो श्रावक अनिवार्य उपाय रहित उपसर्ग पाने पर, बुढ़ापा पाने पर व असाध्य रोग होने पर पात्म कल्याण के लिए सांसारिक शरीर भोगों से विरक्त होकर राग द्वेष सम्बन्ध और बाह्य प्राभ्यन्तर परिग्रह को त्यागकर अर्थात अपनी प्रात्मा से पृथक पर पदार्थों से ममत्व (मोह) त्यागकर शांत परिणाम युक्त अपने पौर उत्साह को प्रगट करके संसार के दुख रूपी संताप को दूर करने वाले अमृत के समान जिन श्रुत के पाठों का पठन, श्रवण करता हुआ विल्कुल क्रम-क्रम से प्राहार, दुग्ध आदि का त्याग कर, मन, वचन, काय की एकाग्रता से शांत परिणाम युक्त परमात्मा व स्वात्मा का चितवन करते हुए शरीर रूप गृह का त्याग करता है उसे साधक श्रावक कहते हैं । यथोक्तं धर्म संग्रह श्रावकाचारे शोसन्ते सन्न्यासमादाय, स्वात्मानं शोधयेदि । सबा साषममापन्नः साधकः श्रावको भवेत् ॥ प्रर्ष-जो नैष्ठिक श्रावक मरण समय में सन्यास को ग्रहण करके यदि अपनी पात्मा को शुव करे तो उस समय साधन दशा को प्राप्त होता हुआ धावक साधक कहा जाता है। इति साधक श्रावक वर्णनम् । अथ लोकाधिकारः। लोक स्वरूप वर्णनःइस मनन्तानन्त प्राकाश के बीचों बीच अनादि निधन घनोदधि वातवलय, धन वातवलय और तनुवातवलय नामक तीन वातवलयों से वेष्ठित (घिरा हुआ) आकाश के प्रदेशों में निराधार लोक स्थित है। वास्तव में तो लोक एक ही है परन्तु व्यवहार में उर्व (ऊपर) का मध्य (बीच का) भेद करके लोक को तीन लोक रूप कहते हैं । यह लोक नीचे से सात राजू चौड़ा और सात हो राजू लम्बा है और ऊपर से एक राजू चौड़ा पौर सात राजू लम्बा है। मध्य में से कहीं घटता हुमा जिस प्रकार मनुष्य अपने Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार ग्रंथ २४७ दोनों हाथ कमर पर रखकर पैर घोड़े करके खड़ा हो जाए उस प्राकृति के सदृश नीचे से ऊपर तक तीनों लोक चौदह राजू ऊंचे हैं। इस का विशेष इस प्रकार जानना कि लोक को मोटाई उत्तर और दक्षिण दिशा में सर्वत्र सात राजू है । चौड़ाई पूर्व और पश्चिम दिशा में मूल में सात राजू है। फिर ऊपर को क्रमशः घटता-घटता सात राजू की ऊंचाई पर मध्य लोक में एक राजू चौड़ाई और फिर अनुक्रम से बढ़ता-बढ़ता साढ़े तीन राजू की ऊंचाई पर अर्थात् प्रथम सात राजू मिलाकर ये साढ़े दस राजू की ऊंचाई पर ब्रह्म लोक (पांचर्चा स्वर्ग) के पास पांच राजू चौड़ा है फिर पंचम स्वर्ग से कमशः घटताघटता पौवह राजू की ऊंचाई पर अर्थात् अन्त में एक राजू चौड़ा है और उ तथा अघोदिशा में ऊचाई बौदह राजू है। राजू का प्रमाणः - इस मध्य लोक में (जिसे लोग पृथ्वी कहते हैं। पच्चीस कोड़ा-कोड़ी उद्धार पल्य के जितने समय होते हैं उतने ही द्वीप समुद्र एक-दूसरे को वलयाकार घेरे हुए हैं । इन सबके बीच में जम्बू द्वीप एक लक्ष योजन व्यास लिए गोलाकार है । इसको मेरे हुए लवण समृद्र दो लाख योजन चौड़ा है। इस प्रकार दुगनी-दुगनी चौड़ाई लिए सब द्वीप समुद्र हैं । जितना लम्बा क्षेत्र सब द्वीप समुद्रों का दोनों तरफ का हो वह ही राजू का प्रमाण है क्योंकि मध्य लोक एक राजू पूर्व-पश्चिम है । इसको दूसरे प्रकार से ऐसे भी कह सकते हैं कि कोई देव पहले समय एक लाख योजन, दूसरे समय दो लाख योजन गमन करे, इस प्रकार प्रति समय दुगना-दुगना गमन करता हुप्रा अढाई सागर अर्थात् पच्चीस कोड़ा-कोड़ो उद्धार पल्य के जितने समय हों उतने समय पर्यन्त बराबर चला जाए तब प्राधा राजू हो, इसे द्विगुणा करने से जो क्षेत्र हो वही एक राजू का प्रमाण है । इति ।। घनोदधि वातवलय, घन वातवालय और तनुवातबलय ये तीन वातबलय जैसे वृक्ष के सर्वत्र छाल लिपटी होती है अथवा शरीर के अपर सर्वांग चाम होती है ऐसे तीन लोक को तीन वातवलय सर्वत्र बेष्टित किए हुए हैं । वहाँ घनोदधि वातवलय जल और जल पवन मिश्रित है । दूसरा घन वातवलय अधिक पवन का है और तीसरा तनुवातवलय अल्प पवन का है। वासवलयों की मोटाई का वर्णन लोक के नीचे से लेकर एक राजू की ऊंचाई पर्यन्त तीनों बातवलयों की मोटाई बीस-बीस हजार योजन की है । तीनों मोटाई जोड़कर साठ हजार योजन हुई। इससे ऊपर मध्यलोक पर्यन घनोदधि वात सात योजन का, दूसरा घनवात पाच योजन का और तनुवातवलय की चार योजन की मोटाई है। ऐसे तीनों वातवलय सोलह योजन के मोटे मध्य लोक पर्यन्त चले आए हैं और मध्य लोक के पार्श्वभाग में पहला धनोदधि वातवलय च योजन का, दूसरा घन वातवलय चार योजन का, तीसरा तनु वातवलय तीन योजन का ऐसे बारह योजन के मोटे हैं। __ प्रधानोक में पंचम स्वर्ग पर्यन्त पहला घनोदधि वातवलय सान यो नन दूसरा घन वातवलय पांच योजन का और तीसरा तनु वातवलय चार योजन का ऐसे तीनों सो नह योजन के मोटे हैं और पंचम स्वर्ग से लोक के ऊपर अन्त पर्यन्त घनोदधि वातवलय पांच योजन का, दूसरा धन वातवलय चार योजन का और तीसरा तनु वातवलय तीन योजन का ऐसे तीनों बारह योजन के मोटे हैं और लोक के शीश पर घनोदधि वात की मोटाई दो कोश की, घन वात की मोटाई एक कोश की और तीसरे तनु वात की भोटाई पौने सोलह सौ धनुष की है । सब लोक को पहले घनोदधि वातवलय ने घेरा है, घनोदधि वात Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ णमोकार ग्रंथ वलय को घन पात मे और घन वात को तनु वात ने घेरा है। ऐसे तीन वातावलयों से वेष्टित अनन्तानन्त आकाश के बीचों-बीच अनादि निधन तीन सौ तेंतालीस घन राजू प्रमाण पुरुषाकार (जिस प्रकार मनुष्य अपने दोनों हाथ कमर पर रखकर पैर घोड़े करके खड़ा हो आए उस प्राकृतिवाला) लोक स्थित है। इस लोक के बिलकुल मध्य चौदह राजू ऊँची, एक राजू चौड़ी, एक राजू लम्बी चौकोर स्तम्भाकार अस नाडी है। इसको त्रस नाही इस कारण से करते हैं कि स्थावर जीव तो अस नाडी के बाहर भी तीनों लोकों में भरे हुए हैं परन्तु अस जीव देव, नारको, मनुष्प, पशु, पक्षी, कीट, पतंग प्रादि तथा जलचर: मीन, मत्स्य आदि अस नाड़ो के बाहर कोई नहीं है। इसी कारण यह त्रस नाड़ो कहलाती है और न कोई जीव त्रस नाड़ी से बाहर ही जा सकता है किन्तु उपपाद और मरणान्तिक समुद्घात वाले त्रस तया केवल सामुदास वाले भीग नाही याहर कदाचित् रहते हैं। वह इस प्रकार से कि लोक के अन्तिम वातवलय में स्थित कोई जीव मरण करके विग्रह गति द्वारा प्रसनाती में श्रस पर्याय से उत्पन्न होने वाला है वह जीय जिस समय में मरण करके प्रथम समय में मोहा लेता है उस समय में इस पर्याय को धारण करने पर भी असनाली के बाहर रहता है इसीलिए उपपाद की अपेक्षा त्रस जीत्र अस नाड़ी के बाहर रहता है इस प्रकार अस नाली में स्थित किसी त्रस ने मारणांतिक रामुद्धात के द्वारा अस नाली के बाहर के प्रदेशों का स्पर्श किया क्योंकि उसको मरण करके वहीं पर उतान्न होना है तो उस समय में भी अस जीव का अस्तित्व असनाली के बाहर पाया जाता है। इसी प्रकार जब केवली के केवल समुद्घात के द्वारा नाली के बाह्य प्रदेशों का स्पर्श करते हैं उस समय में भी अम नाली के बाहर उस जीव का सद्भाव पाया जाता है परन्तु इन तीन कारणों के अतिरिका वस जीव अस नाली के बाहर कदापि नहीं जा सकता। चौदह धन राजू में अस नाली है उसमें नीचे निगोद में एक राजू में तथा सर्वार्थ सिद्धि से ऊपर स जीवं नहीं है। बाकी कुछ कम तेरह राज बस नाली में श्रस जीव भरे हुए हैं और स्थावर भी भरे हुए हैं और तीन सौ उनतीस धन राजू में स्थावर लोक है। ऐसे सब तीन सौ तैनालीस घन राजू में लोक है। एक राज लंबे, एक राज चौड़े और एक राज ऊंचे को घन राज कहते हैं। यदि इस लोक के ऐसे-ऐसे खंड-खंड बनाए जाए तो समस्त तीन सौ तेनालीस खंड होते हैं जैसे सात राज चौडाई नोचे, एक राज चौडाई मध्यलोक में, दोनों का जोड़ पाठ राज़ हुा । इसके प्राधे चार को सात राजू लम्बाई सात राजू ऊचाई से गुणा करके-४४७४७ = १६६ घन राजू अधः लोक हुा । फिर एक राजू मध्य लोक की चौड़ाई में पांच राजू ब्रह्म स्वर्ग के पास की चौड़ाई जोड़ी तो छह राजू हुई । इसकी आधी तीन राजू को साढ़े तीन राज ऊंचाई सात राजू लम्बाई से गुणाकर--३ x ३३४७-७३३ साढ़े तिहत्तर राजू हुए। इतना ही घनफल ब्रह्म स्वर्ग से सिद्धशिला तक हुआ तो मध्य लोक से पंचम स्वर्ग तक का पंचम स्वर्ग से सिद्धालय तक का दोनों घनफल जोड़ कर एक सौ संतालीरा पनफल हुआ। ऐसे १६६+ १४७== सब तीन सौ तेंतालीस घन राजू हुए। इति लोकस्वरूप वर्णनम् । प्रय अघःलोक विवरण प्रारम्भ मेरु के नीचे अधः लोक में क्रमशः एक के नीचे दूसरी, दूसरे के नीचे तीसरी, इसी प्रकार नीचे-नीचे रत्नप्रभा (धर्मा) १, शर्कराप्रभा (वंशा) २, बालुकाप्रभा (मेघा) ३, पंकप्रभा (अंजना) ४, घूमप्रभा (अरिष्टा) ५, तमःप्रभा (मघवी) ६. महातमः प्रभा (माघबी) ७, ऐसे नारकियों के निवास स्थान सात भूमियां हैं। रत्नप्रभा आदि भूमियों के नाम तो गुणों के अनुसार हैं और घर्मा, बंशा रुढ़ि नाम Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार पंथ २४ जानने चाहिए । प्रथम नरक रत्नप्रभा वा धर्मा भूमि की मोटाई एक लाख प्रस्सी हजार योजन है । उसके तीन भाग हैं -उन में से सोलह योजन मोटा पहला वर भाग है उसमें चित्रा, बना, बैडूर्य मादि एक-एक हमार योजन को मोटी सोलह पृथ्वी हैं। इनमें से ऊपर नीचे की एक-एक हजार योजन की दो पृथ्वी छोड़कर बीच की चौदह हमार योजन मोटी और एक राजू लम्बी-चौड़ी पृथ्वी में किन्नर, किंपुरुष, महोरग, गन्धर्व, यक्ष, भूत और पिशाच इन सात प्रकार के व्यंतर देवों के तथा नागकुमार, विद्युतकुमार, सुपर्णकुमार, अग्निकुमार, वातकुमार, स्तनितकुमार उदधिकुमार, द्वीपकुमार, दिपकुमार इन नव प्रकार के भवनवासी देवों के निवास स्थान है । खरभाग के नीचे चौरासी हजार योजन मोटा पंक भाग है उसमें प्रसुरकुमार और राक्षसों के निवास स्थान है । पाताल लोक में जो सात कोड़ी बहत्तर लाख प्रकृत्रिम जिन मन्दिर कहे हैं उनकी संख्या प्रसुरकुमार नामक देवों के भवन में चौसठ लाख, नागकुमार देवों के भवन में चौरासी लाख, विद्युत्कुमार देवों के भवन में छिहत्तर लाख, सुपर्णकुमार देवों के भवन में बहत्तर लाख, अग्निकुमार देवों के भवन में छिहत्तर लाख, वातकुमार देवों के भवन में प्रयाणवें लाख, स्तनितकुमार देवों के भवन में छिहत्तरलाख बिनमन्दिर हैं। उदधिकुमार देवों के भवन में छिहत्तर लाख, दीपकमार देवों के भवन में छिहत्तर लाख और दिक्कमार देवों के भवनों में भी छिहत्तर लाख जिन मन्दिर हैं। इस प्रकार प्रानन्दकन्द श्री जिनेन्द्र देवाधिदेव के दस प्रकार भयनवासी संञ्चकदेवों के भवनों में समस्त सात कोड़ी बहत्तर लाख अकृत्रिम जिन चैत्यालय हैं। उन चैत्यालय स्थित जिन प्रतिमानों को मन, वचन, काय से मेरा बारम्बार नमस्कार हो । इति। पंक भाग के नीचे अस्सी हजार योजन मोटा अबहुल भाग है । उस में प्रथम नरक है । सर्व नरक पृथ्वियों की भूमि स्थान परलोक को लम्बाईचौड़ाई के समान लम्बी-चौड़ी है । अव्यहुल भाग में एक-एक हजार योजन ऊपर-नीचे मोटाई छोड़कर अठहत्तर हजार योजन की मोटाई में तेरह पाथड़े और तीस लाख बिल हैं । १ । दूसरा नरक शक राप्रभा या बंशा की भूमि बत्तीस हजार योजन मोटी है । नीचे-ऊपर एक-एक हजार योजन मोटाई छोड़ कर तीस हजार योजन की मोटाई में ग्यारह पाथड़े पोर पच्चीस लाख विल हैं।२। तीसरे नरक बालुका प्रभा वा मेघा की भूमि अठाईस हजार योजन मोटी है । ऊपर नीचे एकएक हजार योजन मोटाई छोड़कर छब्बीस हजार योजन की मोटाई में नौ पाथड़े और पन्द्रह लाख बिल हैं। ३ । चौथा नरक पंक प्रभा वा अंजना की भूमि चौबीस हजार योजन मोटी है। ऊपर नीचे एकएक हजार योजनं मोटाई छोड़कर बाईस हजार योजन मोटाई में सात पापड़े और दश लाख बिल है।४। पांचवा नरक धूमप्रभा वा मरिष्टा की भूमि बीस हजार योजन मोटी है। ऊपर नीचे एकएक हजार योजन मोटाई छोड़कर प्रहारह हजार योजन मोटाई में पांच पाथड़े मोर तीन लाख बिल छठा नरक तमप्रमा वा मधवी की भूमि सोलह हजार योजन मोटी है। ऊपर-नीचे एक-एक हजार योजन मोटाई छोड़कर चौदह हजार की मोटाई में तीन पाथड़े और पांच कम एक लाख दिल सातयां नरक महानमप्रभा वा माधवी की भूमि पाठ हजार योजन मोटी है । ऊपर नीचे मनु Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ bratकार ग्रंथ मान से दो-दो हजार योजन मोटाई छोड़कर चार हजार योजन मोटाई में एक पाथड़ा और पांच बिल हैं । ७ । २५० पाथड़ों के नाम प्रतरव पाथड़ा वह स्थान है जिसमें बिल और उपजने के स्थान होते हैं जैसे तिमंजले मकान में तल के ऊपर तीन छतें होती है उसी प्रकार पाथड़े जानने चाहिए। छतकी मोटाई के सदृश पायड़े बिल होते हैं वैसे पाथड़ों में नारकियों के बिल जानने पाथड़ों में तल ऊपर प्रन्तराल है। प्रथम नरक में जो (२) निरय, (३) रौरव, (४) भ्रांत, (५) उद्भ्रांत' (६) सम्भ्रांत ( ७ ) असम्भ्रांत, (६) विभ्रांत ( 8 ) तृस्त, (१०) तृषित, (११) वक्रान्त, (१२). र पातक में हैं । की मोटाई जाननी चाहिए। जैसे छत में चूहों के चाहिए, जैसे छत प्रति छत अन्तराल है वैसे ही तेरह पायड़े हैं उनके नाम ये हैं - ( १ ) सीमंतक, और (१०) तिल दूसरे नरक में ( १ ) तनक, ( २ ) स्तनक, (३) बनक, (४) मनक, (५) खंडा, (६) खंडिका (७) जिह्वा, (८) जिल्ह्नक, (९) लौकिका, (१०) लोलवत्स, (११) स्तन लोलका नामक ये ग्यारह पाथड़े जानने चाहिए । तीसरे नरक में ( १ ) तप्त, (२) तपित, (३) तपन, ( ४ ) तापन, (५) निदाघ, (६) उज्वलित, (७) प्रज्वलित, (८) संलित, (६) सपकुलित नामक ये नव पाथड़े हैं । चौथे नरक में (१) र (२) मारा, (३) तारा, (४) चर्चा, (५) तमकी, (६) घाग, (७) घण्टा नामक ये सात पाथड़े पांचवे नरक में ( १ ) तमका, (२) भ्रमका, (३) रुपका, (४) मक्षेद्रा, (५) तमिका नामक ये पांच पाथड़े हैं। छठे नरक में (१) हिम (२) वर्दलि, (३) तह्त्रका नामक ये तीन पायड़ हैं। सातवें नरक में अप्रतिष्ठित नामक एक ही पाथड़ा है। सालों नरकों में सर्व उन्नचास पाथड़े हुए 1 प्रत्येक पाथड़ में बीचों-बीच एक इन्द्रक बिल है । दशों दिशाओं में श्रेणी वद्ध पंक्ति रूप बिल हैं और सर्वत्र तारागणों के सदृश फैले हुए प्रकीर्णक बिल हैं । बिलों की संख्या - प्रत्येक पाथड़े के मध्य में इन्द्रक बिल है । उसके पूर्व, दक्षिण, पश्चिम, उत्तर दिशाओं में और ईशान, आग्नेय, नैऋत्य और वायव्य विदिशाओं में श्रेणीबद्ध बिल इस क्रम से हैं। प्रथम नरक के प्रथम पाथ की चारों दिशाओं में उनचास उनवास और विदिशाओं में अड़तालीस अड़तालीस हैं प्रत चारों दिशानों के एक सौ छियानवें और विदिशाओं के १६२ हुए । सर्व प्रथम पाथड़े के तीन सौ मठ्ठासी श्रेणी बद्ध बिल हुए। श्राक्रम से नीचे के प्रत्येक दिशा पाथड़े विदिशा आदि में एक-एक कम होने से दिशः विदिशाओं में चार-चार ऐसे प्रत्येक में प्राठा कम है यहाँ तक कि उनश्वासवें पाथ में प्रत्येक दिशा में तो एक-एक है परन्तु विदिशाओं में एक भी नहीं। इस क्रम से दूसरे पाथड़े की दिशाओं में भड़तालीस, विदिशाओं में संतालीस ऐसे चारों दिशाओं में समस्त तीन सौ प्रस्सी श्रेणी बद्ध बिल हैं, ऐसे ही तीसरे पाथड़े में तीन सौ बहत्तर चौथे पाथड़े में तीन सौ चौसठ पांचवें पाथड़े में तीन सौ छप्पन, छठे पाथड़ में तीन सौ अड़तालीस, सातवें पाथड़ में तीन सौ चालीस प्राठवें पापड़ में तीन सो बत्तीस, नवें पाथड़े 1 Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार ग्रंथ २५१ में तीन सौ चीबोस, दसवें पापड़े में तीन सौ सोलह, ग्यारहवें पाथ में तीन सौ प्राठ, बारहवें पायड़ में तीन सौ तेरहवें पायड़ में दो सौ बाण हैं । 1 ऐसे सर्वप्रथम नरक के पाथड़े में चार हजार चारसो चौबीस श्रेणीवद्ध बिल हैं। दूसरे नरक के प्रथम पाथड़ में दो सौ चौरासी, दूसरे पाथड़े में दो सौ छिहत्तर, तीसरे पाथड़ में दो सौ अड़सठ चौथे पाथड़े में दो सौ साठ पाँचवें पाथड़ में दो सौ बावन, छठें पाथड़ में दो सौ चवालीस, सातवें पाथड़े में दो सौ छत्तीस आठ पाथड़े में दो सौ अठाईन, नवें पाथड़े में दो सौ बीस दसवें पायड़ में दो सौ बारह. ग्यारहवें पापड़ में दो सौ चार ऐसे दूसरे नरक में सर्वश्रेणी वृद्ध बिल दो हजार छह सौ चौरासी है। तीसरे नरक के प्रथम पाथड़ में सर्व बिल एक सौ छियानवें, दूसरे पाथड़े में एक सौ मठ्ठासी, तीसरे पाथड़े में एक सौ प्रस्सी, चौथे पाथड़े में एक सौ बहत्तर पांचव पाथड़ में एक सौ चौसठ, छठे पाथड़े में एक सौ छप्पन, सातवें पाथड़े में एक सौ अड़तालीस, आठवें पाथड़े में एक सौ चालीस, नवे पाथड़े में एक सोबतीस - ऐसे तीसरे नरक में सर्व श्रेणीवद्ध बिल एक हजार चार सौ छिहत्तर हुए । चौथे नरक के प्रथम पाथड़े में सर्व श्रेणी वद्ध बिल एक सौ चौबीस, दूसरे पाथड़ एक सौ सोलह तीसरे पाथड़े में एक सौ ग्राठ, चौथे पापड़ में सी, पाँचवें पाथड़ में बाणवें, छठे पायड़ में चौरासी और सातवें पाथड़े में छिहत्तर बिल हैं ऐसे चौथे नरक में सर्व श्रेणी वद्ध सात सौ बिल हैं। पांचवें नरक के प्रथम पापड़े में सर्वश्रेणीबद्ध बिल अड़सठ हैं, दूसरे पाथड़े में साठ, तीसरे बाथड़े में बावन, चौथे पाथड़े में बवालीस और पांचवें में छत्तीस हैं श्रतः पांचवें नरक में सर्वश्रेणीवद्ध बिल २६० हैं । छठे नरक के प्रथम पाथड़े में सर्वश्रेणीबद्ध बिल अठ्ठाइस दूसरे पाथड़े में बीस औौर तीसरे पाथड़े में बारह हैं। छठें नरक में सर्वश्रेणीबद्ध बिल साठ हैं। सातवें नरक में पायड़ा एक ही हैं और बिल श्रेणीषद्ध, चारों दिशाओं में तो चार हैं परन्तु विदिशाओं में नहीं है। इससे सातवें नरक में सर्वश्रेणीवद्ध बिल चार ही हैं। सातों नरक के सर्वश्रेणीवद्ध बिल नौ हजार छह सौ चार जानने चाहिए । इति बिल संख्या । मागे सातों नरकों के सर्व बिलों का संक्षेप में विवरण लिखते हैं। प्रथम नरक से चौथे नरक तक के सर्व बिल और पांचवें नरक के तीन चौथाई बिल महाउष्ण (गर्म ) हैं। पांचवें नरक के एक चौथाई बिल और छठें सातवें नरकों के सर्वं विल महाशीत (महा ठंडे ) है। प्रथम नरक में तेरह बिल इन्द्रक, चार हजार चार सौ बीस बिल श्रेणीबद्ध और उनतीस लाख पिन्यानवें हजार पांच सौ सड़सठ विल प्रकीर्णक (पंक्ति रहित जहाँ-तहाँ फैले हुए) हैं । इद्रक बिल सब संख्यात योजन विस्तार के हैं। श्रेणीवद्ध सब प्रसंख्यात योजन विस्तार के हैं और प्रकीर्णक संख्यान श्रसंख्यात योजन विस्तार के हैं। पाँच लाख निन्यानवें हजार नौ सौ सत्तासी प्रकीर्णक और तेरह इंद्रक ये छह लाख संख्यात योजन विस्तार के और प्रकीर्णक तेईस लाख पिच्याणवें हजार पाँच सौ अस्सी तथा श्रेणीबद्ध चार हजार चार सौ बीस ये चौबीस लाख बिल असंख्यात योजन के विस्तार के हैं । सर्व तीस लाख बिल है । दूसरे नरक में ग्यारह बिल इन्द्रक, दो हजार छह सौ चौरासी बिल श्रेणी वद्ध और चौबीस लाख सताणवें हजार तीन सो पाँच बिल प्रकीर्णक हैं उनमें से ग्यारह इन्द्रक और चार लाख निन्यानवें Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ णमोकार ग्रंथ हजार नौ सौ नवासी प्रकीर्णक बिल-ये पांच लाख बिल सब संख्यात योजन.विस्तार के हैं और दो हजार छह सौ चौरासी बिल श्रेणी वद्ध और उन्नीस लाख सत्ताण३ हजार तीन सौ सोलह बिल प्रकीर्णक, ये बीस लाख बिल असंख्यात योजन विस्तार के हैं। सर्व पच्चीस लाख बिल हुए। तीसरे नरक में नव विल इन्द्रक, एक हजार चार सौ छिहतर बिल थेगोवद्ध और चौदह लाख मछाणवें हजार पाँच सौ पन्द्रह बिल प्रकीर्णक हैं उनमें से नौ इन्द्रक और दो लाख निन्याणवें हजार ती सौ इक्याणवे बिल प्रकीर्णक --ये तीन लाख तो संख्यात योजन विस्तार के हैं और एक हजार चार सौ छिहत्तर विल श्रेणीवद्ध और ग्यारह लाख अठ्ठान हजार पाँच सौ चौबीस बिल प्रकीर्णक - ये बारह लाख बिल असंख्यात योजन विस्तार के हैं। सब पन्द्रह लाख बिल हैं। बोथे नरक में सात विल इन्द्रक, सात सौ बिल श्रेणी पद्ध और नौ लाख निन्याणवें हजार दो सौ तरेसठ बिल प्रकीर्णक हैं उनमें से सान चिल इन्द्रक और एक लाख निन्याण३ हजार नौ सौ तिराणवें बिल प्रकीर्णक-सव दो लाख तो संख्यात योजन विस्तार के हैं और सात सौ बिल श्रेणी वद्ध और सात लाख निन्याणवें हजार तीन सौ बिल प्रकीर्णक--सब पाठ लाख बलि प्रसंख्यात योजन विस्तार के हैं। सब दश लाख बिल हैं। पांचवें नरक में पांच बिल इन्द्रक, दो सौ साठ बिल श्रेणोवद्ध और दो लाख निन्याणवे हजार सात सौ पैंतीस बिल प्रकीर्णक हैं। इनमें से पांच बिल इंद्रक, उनसठ हजार नौ सौ पिच्चाणवें बिल प्रकीअंक - ये साठ हजार बिल तो संख्यात योजन विस्तार के हैं और दो सौ साठ बिल गोवद्ध और दो लाल उनतालीस हजार सात सौ चालीस बिल प्रकीर्णक-सब दो लाख चालीस हजार बिल असंख्पात योजन विस्तार के हैं । सब तीन लाख चिल हैं। छठवें नरक में तीन विल इंद्रक साठ यिल श्रेणीबद्ध और निन्याणचे हजार नौ सौ बत्तीस बिल प्रकीर्णक हैं उनमें से तीन बिल इन्द्रक, उन्नीस हजार नौ सौ छयानवें विल प्रकीर्णक-सब उन्नीस हजार नौ सौ निम्याणवें विल तो संपात योजन विस्तार के हैं और साठ बिल श्रेणीबद्ध और उनहत्तर हजार नौ सो छत्तीस विल प्रकीर्णक - सर्व उनहत्तर हजार नौ सौ छयानवें बिल असंख्यात योजन विस्तार के हैं। सर्व निन्याणबें हजार नौ सौ पिच्याण हैं। सातवें नरक में एक बिल इन्द्रक संख्यात' योजन विस्तार का, चार बिल श्रेणीवर असंख्यात योजन विस्तार के हैं। सर्व पांच बिल हैं। इन्द्रक दिलों के विस्तार का वर्णन : इन्द्रक बिल जो संख्यात योजन विस्तार के कहे गए हैं उनका विस्तार इस प्रकार है। प्रथम इन्द्रक बिल पैंतालीस लाख योजन है प्रथम नरक के प्रथम इन्द्रक बिल का विस्तार पैंतालीस लाख योजन, दसरे का चौरासी लाल पाठ हजार तीन सौ तेतीस और एक योजन के तीन भाग में से एक भाग अधिक योजन, तीसरे का तेतालीस लाख सोलह हजार छह सौ छयासठ और एक योजन के तीन भाग में से दो भाग अधिक योजन, चौथे का वयालीस लाख पच्चीस हजार, योजन, पांचवें का इकतालीस लाख तेतीस हजार तीन सौ तैतीस और एक योजन के तोन भाग में से एक भाग अधिक छठे का चालीस लाख इकतालीस हजार छह सौ छयासठ और एक योजन के तीन भाग में से दो भाग अधिक योगन, सातवे का उनतालीस लाख पचास हजारयोजन, पाठये का प्रतीस लाख पठावन हजार तीन सौ तेतीस मोर एक योजन के तीन भाग में से एक भाग अधिक योजन, नर्वे का सेंतीस लाख छयासठ हजार छह सौ छयासठ और एक योजन के तीन Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोसार व भाग में दो भाग अधिक योजन, दसर्वे का छत्तीस लाख पिचहत्तर हजार योजन, ग्यारहवें का पैतीस लाख तिरासी हजार तीन सौ सेंतीस और एक योजग के तीन भाग में से एक भाग अधिक योजन, बारहवें का चौतीस लाख इक्यानवें हजार छह सौ छयासठ और एक योजन के तोन भाग में से दो भाग अधिक योजन, तेरहवें का चौतीस लाख योजन है । ये प्रथम नरक के इन्द्रक विलों का विस्तार है। दूसरे नरक के प्रथम इन्द्रक बिल का विस्तार तेतीस लाख पाठ हजार तीन सौ तेतीस और एक योजन के सीन भाग में से एक भाग अधिक योजन, दूसरे का बत्तीस लाख सोलह हजार छहसी छयासठ और एक योजन के तीन में से दो भाग अधिक योजन. तीगरे का इकतीस लाख पच्चीस हजार योजन, चौथे काहीस लाख तीस हजार तीन सौ तेंनीस और एक योजन के तीन भाग में से एक भाग अधिक योजन, पांचवें का उननीस लाख इकतालीस हजार छह सौ छयासठ और एक योजन के तीसरे भाग में से दो भाग भत्रिक योजना, छठे का अट्ठाईस लाग्य पचास हजार योजन, सासवें का सत्ताईस लाख प्रठ्यावन हजार तीन सौ तेतीस और एक पोजन के तीन भाग में से एक भाग अधिक योजन, पाठवें का छछलीस लाख छयासठ हजार छह सौ छयासठ और एक योजन के तीन भाग में से दो भाग अधिक योजन, नवें का पच्चीस लाख पिचहत्तर हजार योजन, दसवें का चौबीस लाख तिरासी हजार तीन सौ तेंतीस और एक योजन के तीन भाग में से एक भाग अधिक योजन, ग्यारहवें का तेईस लाख इमाणवें हजार छह सौ छयासठ और एक योजन के तीन भाग में से दो भाग अधिक योजन-यह दूसरे नरक के इन्द्रक बिलों का विस्तार है। तीसरे नरक के प्रथम इन्द्रक बिल का विस्तार तेईस लाख योजन, दूसरे का बाईस लाख, पाठ हजार तीन सौ तेतीस और एक योजन के तीन भाग में से एक भाग अधिक योजन, तीसरे का इसकीम लाख सोलह हजार छह सौ छयासठौर एक योजन के तीन में से दो भाग अधिक योजना, पौधे का बीस लाख पच्चीस हजार योजन, पांचवें का उन्नीस लाख तेतीस हजार तीन सौ तेतीस और एक योजन के तीन भाग में से एक भाग अधिक योजन, छठे का (१८४१६६६१) योजन, सातवे का (१७५००००) योजन, प्राठवें का (१६५८३३३) योजन, नवें का(१५६६६६६६) योजन-यह तीसरे नरक के इन्द्रक बिलों का विस्तार है। धौथे नरक के प्रथम इन्द्रक बिल का विस्तार (१४७५०००) योजन, दूसरे का(१३८३३३३) योजन, तीसरे का १२६१६६६.) योजन चौथे का । १२०००००) योजन, पौष का (११०८३३३३) योजन, छठे का (१०६६६६१) योजन, सातवें का (६२५०००) योजन-यह चौथे नरक के इन्द्रक बिलों का विस्तार है। पांचवें नरक के प्रथम इन्द्रक बिल का विस्तार(८३३३३३१) योजन, दूसरे का (७४१६६६) योजन, तीसरे का (६५००००) योजन, चौथे का पांच लाख मठावन हजार तीन सौ तेतीस और एक योजन के तीन भाग में से एक भाग अधिक योजन, पांचवे का (४६६६६६) योजन,-यह पांचवे नरक के इन्द्रक बिलों का विस्तार है। छठे नरक के प्रथम इन्द्रक बिल का विस्तार तीन लाख पिचहत्तर योजन, दूसरे का (२८३३३३३)योजन, तीसरे का (१६१६६६)योजन- यह एक के इन्द्रक बिलों का विस्तार है। सातवें नरक का इन्द्रक बिल (१०००००) योजग विस्तार का है। सनाप्तोऽयं इन्द्रक बिल विस्तारः । Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ णमोकार प्रेम अथ नरक बिलों की ऊँचाई का वर्णन :बिलों के भीतर धरती से छत तक की पोलाई को बिलों की ऊंचाई कहते हैं। प्रथम नरक के इन्द्रक बिल एक कोश, श्रेणी वद्ध कोश प्रकीर्णक; कोश ऊँचे हैं।। दूसरे नरक में इन्द्रक बिलों की ऊँचाई डेत कोश, श्रेणीवन बिलों की ऊँचाई दो कोश और प्रकीर्णक बिलों की ऊँचाई साढ़े तीन को है। ___ तीसरे नरक में इन्द्रक बिलों की ऊँचाई दो कोश, श्रेणीवद्ध बिलों की ऊंचाई २१ कोश और प्रकीर्णक बिलों की ऊँचाई ४ कोश है। चौथे नरक में इन्द्रक बिलों की ऊँचाई पढ़ाई कोश, श्रेणीवद्ध कोश बिलों की ऊँचाई.३ कोश पौर प्रकीर्णक बिलों की ऊँचाई ५१ कोश है। पांचवें नरक में इन्द्रक दिलों की ऊँचाई तीन कोश, श्रेणीवद्ध बिलों की ऊंचाई चार कोश पौर प्रकीर्णक बिलों की ऊँचाई सात कोश है। छठे नरक में इन्द्रक बिलों की ऊँचाई साढ़े तीन कोश, श्रेणीवख बिलों की ऊँचाई ४ कोश पौर प्रकीर्णक बिलों की ऊँचाई कोश है। सातवें नरक में इन्द्रक बिलों की ऊँचाई पार कोश, श्रेणीवद्ध बिलों की ऊंचाई ५१ कोश मौर प्रकीर्णक बिलों की ऊँचाई कोश है। इति । अथ मरक के पायमों का पायु वर्णन प्रथम नरक के प्रथम पाथड़े में जघन्य मायु दश हजार वर्ष और उत्कृष्ट प्रायु नब्बे हजार वर्ष की है। दूसरे पाथड़े में नब्बे लाख वर्ष, तीसरे पाथड़े में पसंख्यात कोहि पूर्व है, चौथे में सागर का दसवां भाग, पांचवें में सागर का पांचवा भाग, छठे में . सागर, सातवें में ३ सागर, पाठवें में पर्श सागर, नवें में सागर, दशवें में ६ सागर, ग्यारहवें में सागर, बारहवें में ,. सागर, तेरहवें में एक सागर की भायु है। दूसरे नरक के प्रथम पाथड़े में , सागर, दूसरे में १४, सागर, तीसरे में १३, सागर, चौथे में १६, सागर, पांचवें में १, सागर, छठे में २१, सागर, सातवें में २२, सागर, पाठवे में २१, सागर, नवें में २६, सागर, दशवें में में २६, सागर, और ग्यारहवें में तीन सागर प्रायु है। तीसरे नरक के प्रथम पाथड़े में भायु एक सागर के सौ भाग में से चार भाग अधिक तीन सागर, २६, दूसरे में ३६ सागर, तीसरे में , सागर, चौथे में ४१ सागर, पाँचवे में ५१ सागर, छठे में ५सागर, सातवें में ६ सागर, पाठवें में ६ सागर, और नवें में सात सागर प्रायु है। चौथे नरक के प्रथम पाथड़े में प्रायु ७. सागर, दुसरे पाड़े में ७: सागर, तीसरे पाथड़े में : सागर, चौथे पाथड़े में सागर, पांचवे पाथड़े में ६, सागर, छठे पापड़े : सागर और सातवें पाथड़े में दश सागर प्रायू है। पांचवे नरक के प्रथम पाथर्ड में प्रायु ११६ सागर, दूसरे पाथर्ड में १२३ सागर, तीसरे में १४३ सागर, चौथे में १५६ सागर और पांचवे पाथड़े में सतरह सागर प्रायु है। छठे नरक के प्रथम पापड़े में घायु १८ सागर, दूसरे पाय २०, सागर और तीसरे पाय में बाईस सागरमायु है। सातवें नरक में पाथड़ा एक ही है इसीलिए तेतीस सागरही मायु है। Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गेमोकार पंथ २५५ प्रथ मरक पाथड़ों का काय वर्णनप्रथम नरकम पाय काय तीन हाश स है दूको दायरे में एक धनुष एक हाय साढ़े पाठ अंगुल, तीसरे में एक धनुष तीन हाथ सत्रह अंगुल, चौथे में दो घनुप दो हाय डेढ़ अंगुल, पांचवें में तीन धनुष दश अंगुल, छठे में तीन धनुष दो हाथ साले प्रकारह प्रेगुल, सातवें में चार धनुष एक हाय तीन अंगुल, पाठवें में चार घनुष तीन हाथ साढ़े ग्यारह अंगुल, नवें में पाँच घनुष एक हाथ बोस अंगुल, दसर्वे में छह धनुष साढ़े चार अंगुल, ग्यारहवें में छह अनुष दो हाथ तेरह अंगुल, बारहवें में सार धनुष साह इक्कीस अंगुल, तेरहवें में सात धनुष तीन हाथ छह अंगुल है। दूसरे नरक के प्रथम पाथड़े में काय पाठ धनुष दो हाथ २२, अंगुल, दूसरे पाथड़े में नौ धनुष २२४, अंगुल, तीसरे में नौ धनुष तीन हाथ, अगुल, चौथे पाथड़े में दश धनुष दो हाथ १४८, अंगुल, पांचवें पायड़े में ग्यारह धनुष एक हाध १०:: अंगुल, छठे में बारह धनुष ७, प्रगुल सातवें में बारह धनुष तीन हाथ ३६, अंगुल, पाठवें में तीन धनुष एक हाथ २३, अंगुल, नवें में चौदह धनुष १६ अंगुल, दसवें में चौदह धनुष तीन हाथ १५६, अंगुल, ग्यारहवें में पन्द्रह धनुष दो हाप बारह अगुल है। तीसरे नरक के प्रथम पाथड़े में काय सत्रह धनुष एक हाथ १०३ अंगुल है, दूसरे पायड़े में उन्नीस धनुष अंगुल, तीसरे पापड़े में बीस धनुष तीन हाथ पाठ मंगुल, चौथे पाथड़े में बाईस धनुष हो हाथ अंगुल, पांचवें पाथड़े में चौबीस धनुष एक हाथ ५३ अंगुल, छठे पाथड़े में छम्बीस धनुष पार मंगुल, सातवे में सत्ताईस धनुष तीन हाथ २, अंगुल, पाठवें में उनतीस धनुष दो हाथ १६ अंगुल और नर्वे में इकतीस धनुष एक हाथ काय है। चौथे नरक के प्रथम पाथड़े में काय पैतीस धनुष दो हाथ २०५ अंगुल है, दूसरे पापड़े में चालीस धनुष १७: अंगुल, तीसरे पाथड़े में चवालीस धनुष दो हाथ १३४ अंगुल, चौये में उनचास धनुष १०९ अंगुल, पांचवें में तिरेपेन धनुष ६: दो हाथ अंगुल, छठे में प्रावन धनुष ३, अंगुल पौर सातवें में बासठ धनुष दो हाथ का काय है। पाँच नरक के प्रथम पापडं में काय पिचहत्तर धनुष, दूसरे में सत्तासी धनुष दो हाय, तीसरे में सौ धनुष, चौथे पाथड़े में १६२ धनुष दो हाथ और पांचवें पायड़े में १२५ धनुष काय है। छठे नरक के प्रथम पाथड़े में एक सौ छयासठ धनुष दो हाथ सोलह अंगुल काय है, दूसरे पायड़े में दो सौ माठ धनुष एक हाथ आठ अंगुल और तीसरे में पढ़ाई सौ धनुष है। सातवें नरक में एक ही पाथड़ा है इसमें पांच सौ धनुष ही काय है । नरकों का विविध प्रकार वर्णननरक बिलों का परस्पर दीवाल अन्तराज जघन्य संख्यात योजन और उत्कृष्ट प्रसंख्यात योजन है उनकी छतों में उष्ट्र मुखाकार वे स्थान हैं जहाँ से नारकी अंतर्मुहर्त में जन्म घर के अधोमुख हो नरक में गिरते हैं। उन स्थानों की चौड़ाई एक कोश, दो कोश, तीन कोश से एक योजन, दो योजन और तीन योजन है और ऊँचाई पंचगुणी है। नरक में मारकियों को विभंगावधि ज्ञान, प्रथम नरक में बार कोश है और नीचे-नीचे माधे-साधे कोश न्यून अर्थात् कम होता चला गया है । यथा-दूसरे में साढ़े तीम कोश, तीसरे में तीन कोश, चौथे में ढाई कोश, पांचवें में दो कोया, छरों में उदकोश और सातवें में एक कोश है । सातों नरकों से निकला हुमा जीव कर्मभूमि में मनुष्य या सनी तिर्यच ही हो सकता है। स्थावर, विकलत्रय, प्रसैनी पंचेन्द्रीय वा देव, नारकी नहीं हो सकता। किसी भी नरक से निकला जीव नारायण, Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ णमोकार अंथ बलभद्र, चक्रवर्ती नहीं हो सकता, चौथे, पांचवें, छठे, सातवें से निकलकर तीर्थकर नहीं हो सकता; पौचर्ने, छठे, सातवें से निकलकर चरम शरीरी नहीं हो सकता; छठे, सात से निकलकर महावत धारण नहीं कर सकता ; सातवें का निकला अव्रत सम्यग्दृष्टी भी नहीं होता । नरकों में जाने वालों का नियमप्रसैनी पंचेन्द्रिय लगातार प्रथम नरक में माठ बार तक जाता है नवमी बार नहीं जाता; मुर्ग, नीलकंठ, तीतर मादि हिंसक पक्षी लगातार दूसरे नरक तक सात बार जाता है; गुड, सियार मादि हिंसक पशु तीसरे नरफ तक छह बार आते हैं। सर्प ग्रादि दुष्ट कोड़े चौथे नरक तक लगातार पांच बार जाते हैं। सतह प्रादि दुष्ट नव वाले पशु पांचवे नरक तक लगातार चार बार जाते हैं; स्त्रो छठे नरक तक लगातार तीन बार तक जा सकती है। मनुष्य मोर मत्स्य लगातार सात नरक तक दो बार जा सकते हैं यह उत्कृष्ठ जाने का नियम है। नरकों के विविध दुःखों का वर्णन सर्व नरक बिल वज्र समान दृढ़ हैं । गोल, चौकोर मादि अनेक प्राकृति के हैं । सब नरक अनेक दु:खदायक सामग्री से भरे हैं, महा दुर्गन्ध रूप हैं। यहाँ अनेक प्रकार के दुःख हैं परन्तु मुख्य दुःख चार प्रकार है पहला क्षेत्रीय शीन, उष्ण, दुर्गन्ध आदि का, दूसरा शारीरिक जो रोग प्रादि शरीर से उपजते हैं, तीसरा मानसिक-आकुलित भावों का रहना तथा इच्छा का पूर्ण न होना, चौथा असुरकृत लष्ट्राना मादि और पांचवां ताड़न, मारने, छेदन, भेदन, शूलरोपण आदि पंच प्रकार यह दुख नारको परस्पर देते है। नरक ऐसे दुःख रूप है। वहाँ अधिक प्रारम्भ परिग्रह की तृष्णा वाले तीब विषय कषाय वाले जीव जाते हैं । नारकी जन्म लेकर शिर के बल से नीच नरक में गिरकर तीन बार उछलते हैं | नवीन नारकी को पुराने नारकी नाना प्रकार लड़ाकर दुःख देते हैं। तब नवीन नारकी को विभंगावधि उपजती है जिससे पूर्व वैर विचार कर रौद्र भाव करके वे भी लड़ते हैं। असुरकुमार देव वैर बताकर लड़ाते हैं जिससे नारफी प्रशुभ विक्रिया से दंती, नखी, शृङ्गो रूप धारण करते हैं और दंड मुगदर, खड़ग, त्रिशूल आदि शस्त्रों से परस्पर प्राघात करते है। जिस प्रकार इस लोग में अज्ञानी पुरुष भनेक मैंडे, मैंसे और हाथियों को परस्पर लडाते हैं और उनकी हार जोत से प्रानन्द मानते अथवा तमाशा देखते हैं उसी प्रकार दुष्ट कौतु की देव अवधिज्ञान के द्वारा उनके पूर्व वैरों का स्मरण कराके परस्पर लड़ाते तथा दुःखित करते रहते हैं और स्त्रयं तमाशा देखते हैं । नरकों में पानी पेलकर, करोंत से चीरकरकर, मुद्गरों से कूट कर खड्ग से खंड खंड करके, शूलों की शय्या पर घसीटकर, तप्त कड़ाहों में जलाकर, तप्त धातु पिलाकर, तप्त पूतली चिपटाकर इत्यादि नाना प्रकार कष्ट देते हैं। नरकों की भूमि महा दुर्गन्धित और कंटकमयी है। प्रसिपत्र बन के करोंत समान पत्र गिरकर अंगों को छिन्न भिन्न करते हैं। खान पान की सामग्री वहाँ रंचमात्र नहीं है । दुर्गन्धित, कृमि, पीप मिश्रित क्षार जल भरी वैतरणी नदी बहती है। नरक मृतिका ऐसी दुर्गन्धित है कि यदि यहां आये तो प्रथम पायड़े की मृतिका को दुर्गन्ध से प्राधा कोश पर्यन्त के जीव मर जाय । प्रागे मागे के पाथड़ों की मृतिका पधिक अधिक दुर्गन्धित होने से प्राधे-माधे कोश के अधिक जीबों को मारे, इसनी वेदना होने पर भी नारकी नरफायु पूर्ण होने पर ही मरते है । शरीर खंड खंड हो जाने पर भी पुनः पारेबत एक हो जाते हैं। तीसरे नरक पर्यन्त प्रसुरकुमार लड़ाते हैं । मरने पर नारकियों के शरीर कपूरवस उड़ जाते हैं। जिनको नरक से निकलकर तीर्षकर होना होता है उनकी नरक वेदना मरण से छह मास पहले ही मिट जाती है। अथ मध्यलोकवर्णन प्रारम्भ : एक राजू विस्तार वाले इस मध्य लोक में जम्बू द्वीप मादि तथा लवण समुद्र प्रादि उत्तमउत्तम नाम वाले प्रसंख्यास द्वीप और समुद्र है। उन सब के मत्यन्त बीच में एक लक्ष योजन प्रमाण Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार नथ लम्बा, चौड़ा, गोल (थाली के प्राकार की तरह) जम्बू द्वीप है इस जम्बू द्वीप के मध्य लक्ष योजन ऊंचा सुमेरु गर्नत है जिसका पण हहार योजना की है। चालीस योजन की चूलिका (चोटी) है। पृथ्वी में तो दस हमार चोड़ा है और ऊपर शिखर में एक हजार योजन चौड़ा है। सुमेरु पर्वत और सौधर्म स्वर्ग के बीच में एक बाल का अन्तर है। इस जम्बू द्वीप के बीच में पूर्व और पश्चिम की तरफ लम्बे पदाचालक पर्वत है जिससे जम्बू द्वीप के सात खंड हो गए हैं। हिमवान, महाहिमवान, निषिध नील, रुविम मौर भिखरी ये छह वर्ष धर पर्वत तथा षट् कुचालक कहलाते हैं। इन्हीं के द्वारा जम्बू द्वीप के सात खंड हो गए हैं। उन सात खंडों के नाम इस प्रकार है भरत, हैमवत, हरि, विदेह, रम्यक हेरश्वत और ऐरावत इन्हीं को क्षेत्र कहते हैं। वहां विदेह क्षेत्र में मेरु के उत्तर की तरफ उत्तर कुरु और दक्षिण की तरफ देव कुरु है । विदेह क्षेत्र के पर्वत और क्षेत्र उस भरत क्षेत्र से दुगने-दुगने विस्तार बाले हैं । विदेह क्षेत्र के तोन पर्वत और तीन क्षेत्र दक्षिण के पर्वतों और क्षेत्रों के बराबर विस्तार वाले हैं । भरत क्षेत्र दक्षिण उत्तर में पांच सौ छब्बीस योजन और एक योजन के उन्नीस भाग में से छह भाग अर्थात ३/१६ योजन अधिक विस्तार वाला है। समस्त विस्तार ५३६-६/१६ योजन है। जम्बू द्वीप को चारों तरफ खाई की तरह घेरे हुए दो लक्ष योजन चौड़ा लषण समुद्र है । लवण समुद्र को चारों ओर से घेरे हुए चार लाख योजन चौड़ा धातुकी खंड द्वीप है। इस धातुकी खंड द्वीप में दो सुमेरु पर्वत हैं और क्षेत्र कुल आदि की रचना सब जम्बूद्वीप से दुगनी दुगनी है। धातकी खंड को चारों तरफ से घेरे हुए पाठ लाख योजन चौड़ा कालोदधि नाम का समुद्र है और कालोदधि को घेरे हुए सोलह लाख योजन चौड़ा पुष्कर द्वीप है और पुष्कर द्वीप के बीचों बीच वलयाकार चौड़ाई पृथ्वी पर एक हजार बाईस योजन, बीच में सात सौ तेईस योजन ऊपर चार सौ चौबीस योजन, ऊंचे पर सत्रह सौ इक्कीस योजन और पृथ्वी के भीतर चार सौ संतीस योजन जिसकी जड़ है ऐसा मानुषोत्तर नाम का पर्वत है जिससे पुष्कर द्वीप के दो भाग हो गए हैं। पुष्कर द्वीप के पहले के अर्द्ध भाग में जम्बू द्वीप ये दुगनी-दुगनी अर्थात् धातकी खंड द्वीप के समान दो-दो भरत कादि क्षेत्रों की रसना है। आगे ऐसी रचना जम्बू द्वीप, के धातकी खंड द्वीप, पुष्कर द्वीप, लवण समुद्र, कालोदधि समुद्र इतने क्षेत्र को नरलोक कहते हैं। इतने ही क्षेत्र में मनुष्य होते हैं । मानुषोत्तर पर्वत से आगे के द्वीप समुद्रों में ऋद्धिधारी मुनि वा विद्याधरों का सर्वथा गमन नहीं है पौर न उन द्वीपों में मनुष्य होते हैं 1 पुष्करवर द्वीप के मागे उसके चारों ओर पुष्करवर समुद्र है। उसके प्रागे वारुणी द्वीप है और उसके चारों तरफ वारुणी समुद्र है। उसके प्रागे क्षीरवर द्वीप है और उसके चारों तरफ क्षोरवर समुद्र है । उसके प्रागे घूतवर द्वीप है और उसके चारों तरफ घृतवर समुद्र है। उसके धागे क्षौद्रवर द्वीप है भोर उसके चारों तरफ क्षौद्रवर समुद्र है। उसके मागे नन्दीश्वर द्वीप है और उसके चारों तरफ नन्दीश्वर समुद्र है । उसके प्रागे अरुणवर द्वीप है और उसके चारों तरफ अरुणवर समुद्र है । उसके आगे अरुणभासवर द्वीप है और उसके चारों तरफ अरुणभासवर समुद्र है। उसके प्रागे कुंडलवर द्वीप है और उसके चारों तरफ कुन्डनवर समुद्र है । उसके मागे शंखवर द्वीप है उसके चारों तरफ शंखवर समुद्र है। उसके आगे रुचिकर द्वीप है, उसके चारों मोर रुचिकवर समुद्र है । उसके आगे भुजंगवर द्वीप है और उसके चारों तरफ भुजंगवर समुद्र है। उसके आगे कुसंगवर द्वीप है और उसके चारों तरफ कुसंगवर समुद्र है। उसके आगे क्रौंचवर द्वीप है ओर उसके चारों तरफ क्रौंचवर समुद्र है। इसो प्रकार Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ णमोकार पंच एक दूसरे को घेरे हुए अन्त के स्वयंम्भुररमण समुद्र पर्यन्त प्रसंख्यात् द्वीप और समुद्र हैं | वे सब जम्बू द्वीप से लेकर स्वयंभूरमण समुद्र पर्यन्त द्विगुण-द्विगुण विस्तार वाले जानने चाहिए। विशेष--यहाँ पर इन द्वीपों में जो चार सौ प्रछावन अनादि निधन प्रकृत्रिम जिन भगवान के त्यालय जाको स्य शिखते हैं--प्रवाईप में पांच मे पर्वत हैं वहाँ एक-एक मेरु सम्बन्धी चारचार वन हैं। एक-एक वन में चार-चार जिनमन्दिर हैं प्रतः वन के सोलह जिनमन्दिर हुए। ऐसे पांचों मेरु के बीस वनों में अस्सी जिनमन्दिर हैं। एक-एक मेरु पर्वत के पूर्व पश्चिम विदेह क्षेत्रों में सोलहसोलह वक्षार पर्वत हैं और प्रत्येक पर्वत पर एक-एक मन्दिर है। इस तरह सर्व वक्षार पर्वतों के ८०, एक-एक मेरु सम्बन्धी चार-चार गजदंत पर्वत हैं, इन पर भी एक-एक चैत्यालय है । इस तरह गजदंतों के बीस एक-एक मेरु सम्बन्धी छह-छह कुलाचल पर्वत हैं। उन पर एक-एक मन्दिर होने से तीस मन्दिर उनके हैं । एक-एक मेरु सम्बन्धी चौंतीस-चौंतीस वैताड्य पर्वत हैं। उन पर एक एक मन्दिर होने से सबके कुल एक सौ सत्तर (१७०) जिन मन्दिर हैं । एक-एफ मेरु सम्बन्धी देवकुरु और उत्तरकुरु नाम की दो-दो भोगभूमि होने से और उन प्रत्येक में एक-एक मन्दिर होने से दश मन्दिर उनमें हैं । इक्ष्वाकार पर्वत पर चार, मानुषोत्तर पर्वत पर चार, नंदीश्वर द्वीप में एक-एक दिशा सम्बन्धी एक-एक जनगिर, चार-चार दधिमुख और पाठ-पाठ रतिकर पर्वतों पर ऐसे तेरहतेरह मन्दिर होने से कुल बावन जिन मन्दिर चारों दिशाओं में हैं । रुचिक द्वीप के रुचिक पर्वक पर चार पौर कुंडलद्वीप के कुंडल गिरि पर चार इस तरह अड़सठ जिन मन्दिर हैं । (८०+१०+२+३+ १७०+१०+४+४+५२+४+४=४५८) इन सब चैत्यालयों की मैं बन्दना करता हूं। ये सब विघ्नों के हरने वाले हैं। __इति मध्य लोक अकृत्रिक चैत्यालय वर्णन् । पांन मेरु सम्बन्धी पाँच भरत, पांच ऐरावत, पांच विदेह-इस प्रकार सब मिलाकर पन्द्रह कर्मभूमि है। पांच हैमवत और पांच हैरण्यवत् इन दश क्षेत्रों में जघन्य भोग भूमि है। पांचहरि और पांच रम्यक् इन दश क्षेत्रों में मध्यम भोगभूमि है। पांच देवकुरु और पाँच उत्तरकुरु इन दश क्षेत्रों में उत्तम भोग भूमि हैं। जहाँ पर असि (शस्त्र धारण) मसि (लिखने का काम) कृषि (खेती) शिल्प (कारीगरी) वाणिज्य (व्यापार-लेन-देन) और सेवा इन षट्कर्मों की प्रवृति हो उसको कर्म भूमि कहते हैं। जहाँ पर इनकी प्रवृत्ति न हो उसको भोग भूमि कहते हैं। मनुष्य क्षेत्र से बाहर के समस्त द्वीपों में जघन्य भोग भूमि की सी रचना है किन्तु अन्तिम स्वयंभूरमण द्वीप के उत्तराई में तथा समस्त स्वयंभूरमण समुद्र में और चारों कोणों की पृथ्यिों में भी कर्म भूमि की सी रचना है। लवण समद्रमौर कालोदधि समुद्र में छयाण मन्तद्वीप है जिनमें कुभोगभूमि की रचना है। वहाँ मनष्य ही रहते हैं उनमें मनुष्यों की नाना प्रकार की कुत्सित प्राकृतियां हैं। कल्पकाल वर्णन ___एक कल्पकाल बीस कोटाकोटी सागर का होता है । जैसे चन्द्रमा की हानि वृद्धि से एक मास में शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष ऐसे दो पक्ष होते हैं वैसे ही एक कल्पकाल के दो भेद होते हैं एक उत्सपिणी, दूसरा अवसर्पिणी ! प्रत्येक काल को स्थिति दश कोड़ा-कोड़ी सागर की होती है। दोनों की स्थिति के काल को ही कल्पकाल कहते हैं । उस्स पिणी के छह कालों में वृद्धि और अवसपिणो के छह कालों में दिनों-दिन घटती होती जाती है। प्रवसर्पिणी काल के सुखम, सुखमा, सुखमा, सुखम दुःखमा, दुःखम सुखमा, मौर दुःखमा, प्रति दुःखमा ऐसे छह भेद हैं। इसी प्रकार उत्सर्पिणी के भी प्रति दुःसमा Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गमोकार ग्रंथ २५६ दुःखमा, दुःखम सुखमा, सुसम दुःखमा, मुखमा और सुखमा सूखमा--ये छह भेद हैं । इनमें से पहला सुखम सुखमा काल चार कोड़ा कोड़ी सागर का होता है। दूसरा सुखमा तीन कोड़ा कोड़ो सागर का, तीसरा सुखम दो कोड़ा कोड़ी सागर का, चौथा दु:खम सुखमा बयालीस हजार वर्ष कम एक कोड़ा कोको सागर का, पांचवां दुःखमा इक्कीस हजार वर्ष का पोर छठा अति दुःस्व मा भी इक्कीस हजार वर्ष का होता है। प्रथम सुखमा सुखमा काल में महान सुख होता है। दूसरे काल में भी सुख होता है परन्तु प्रथम काल जैसा नहीं उससे कुछ कम होता है । तोसरे सुखम दुःखमा काल में सुख और किंचित् मात्र दुःख भी होता है । चौथे दुःखम सुखमा काल में दुःख भोर सुख दोनों होते हैं, पुण्यवानों को सुख और पुण्यहीनों को दुःख होता है ! पांचवे दुःखमा काल में दुख ही रहता है, सुख नहीं जिस प्रकार सुषुप्त अवस्था में मनुष्य का अपने दुःख का भान नहीं रहता और वह सुखमय होकर रहता है। उसी प्रकार पंचम काल के जीवों को किसी को कुछ दुःख है, किसी को कुछ दुःख है परन्तु जब किसी विषय में वे रत हो जाते हैं तो मन्तःकरणगत दुःख को भूलकर अपने को सुखी मानते हैं । जब उसको पुनः स्मरण होता है तब वह फिर दुःख मानते हैं । अतएव पंचम काल में दुख ही है सुख नहीं छठे काल में महान घोर दुख है। देवलोक और उत्कृष्ट भोगभूमि में सदैव प्रथम सुखम सुखमा काल की, मध्यम भोग भूमि में दूसरे सुखम काल की, जघन्य भोग भूमि में सुखम दुःखमा काल की, महाविदेह क्षेत्रों में दुःखम सुखमा चौथे काल की और अन्तिम स्वयंभूरमण द्वीप के उत्तरार्च में तथा समस्त स्वयंभूरमण समुद्र में तथा चारों कोणों की पृथ्वियों में तथा समुद्रों के मध्य जितने क्षेत्र हैं उनमें सदैव दुःखमा जो पंचम काल है उसकी रीति रहती है नरक में सदा दुःखम दुःखमा जो छठा काल है सदा उसकी सी रीति रहती है अर्थात् सदा छठा काल प्रवर्तमान रहता है। भरत और ऐरावत क्षेत्र के अतिरिक्त शेष सब क्षेत्रों में ही रीति रहती है। केवल प्राय काय प्रादि बढ़ना, घटना, रीति का पलटना भरत क्षेत्रों प्रौर ऐरावत क्षेत्रों में ही होता है अन्यत्र नहीं क्योंकि इनमें अवसपिणी के छठी उत्सर्पिणी कालों की प्रवृत्ति रहती है यथा जब अवसर्पिणी काल का प्रारम्भ होता है तो उसमें पहले सुखमा सुखमा काल, फिर दूसरा, तीसरा, चौथा, पांचवा और छठा काल प्रवतता है। छठे के पीछे फिर उत्सर्पिणी काल का प्रारम्भ होता है। और तब उसमें उल्टा परिवर्तन होता है। अर्थात् पहले प्रथम दुःखमा दुःखमा का काल प्रवर्तता है फिर पांचवा, चौथा, तीसरा, दूसरा, पहला काल प्रवर्त्तता है। प्रथम के पीछे प्रथम और छठे के पीछे छठा पाता है इस प्रकार अवसर्पिणी काल के पीछे उत्सपिणी और उत्सपिणी काल के पीछे अवसपिणो काल पाता रहता है। ऐसे काल का परिवर्तन सदैव से चला पाता है और सदैव तक चला जाएगा। इस समय भरत क्षेत्र में प्रवसपिणी काल प्रवर्तमान है। जब यहाँ पहला सुखमा काल प्रवर्तगान होता है तब यहाँ उत्तम भोगभूमि अर्थात देव कुरु उत्तर कुरु, के समान रचना व रीति रहती है। इसमें स्त्री और पुरुष दोनों हो युगल पैदा होते हैं और जन्म दिन से सात दिवस पर्यन्त ऊपर को अपना मुख किए हुए पड़े रहते हैं । युगलों के उत्पन्न होते ही इनके मातापिता को छौंक या जम्हाई पाती है जिससे वो तत्समय ही प्राणगत हो जाते हैं और अपने सरल स्वभा. विक भावों से मृत्यु लाभ करके ये दानी महात्मा कुछ शेष बचे हुए पुण्य फल से स्वर्ग में जाते हैं । और वहाँ भी उच्च पदाधिकारी होकर मन चाहा दिव्य सुख भोगते हैं। न तो युगल हो अपने माता-पिता का दर्शन करते हैं और न माता-पिता ही अपनी सन्तान का मुखावलोकन करते हैं । Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार मंच वे युगल जन्म दिन से सात दिन तक तो ऊपर को मुख किए पसे रहते हैं और अंगठा नमते रहते हैं तत्पश्चात् दूसरे सप्ताह में धीरे-धीरे घुटनों के बल चलते हैं, तीसरे सप्ताह में वे प्रायं मधुर भाषण करते तथा इधर-उधर पड़ते हुए अटपटी चाल से चलने लगते हैं, चौथे सप्ताह में सात दिन तक भूमि पर स्थिरता से पैर से.चलते हैं, तदनन्तर पांचवें सप्ताह में सात दिन गाना-बनाना थादि चातुर्य फलामों से तथा लावण्य, सौन्दर्य मादि गुणों से विभूषित हो जाते हैं 1 तदनन्तर छठे सप्ताह में सात दिन में ही नव यौवन सम्पन्न होकर अपने इष्ट भोग प्रादि के भोगने में समर्थ हो जाते हैं । तत्पश्चात सातवें सप्ताह में सम्यक्त्व के ग्रहण करने योग्य हो जाते हैं । वे शुभ लक्षण परिपूर्ण, उगते सूर्य से समान कान्ति के धारी स्त्री-पुरुषों के युगल तीन पत्य पर्यन्त देवों के समान मनचाहा दिव्य सुख भोगते हैं। न तो उन्हें किसी प्रकार की बीमारी, शोक, चिन्ता, दरिद्रता आदि के होने वाले कष्ट सत.ने पाते हैं और न किसी प्रकार के अपघात से मृत्यु होती है। यहाँ न अधिक शीत पड़ती है और न अधिक गर्मी होती है किन्तु सदैव एक-सी सुन्दर ऋतु रहती है। यहाँ न किसी को सेवा करनी पड़ती है और न किसी के द्वारा अपमान सहना पड़ता है। न यहाँ युद्ध होता है न कोई किसी का बैर हो । यहाँ के लोगों के भाव सदा पवित्र और उत्साह रूप रहते है। यहां उन्हें कोई खाने-पीने की चिन्ता नहीं करनी पड़ती है। पुण्योदय से प्राप्त हुए दश प्रकार के कल्प वृक्षों से मिलने वाले सुखों को भोगते हैं और तीन फल्य श्रायु पूर्ण होने पर्यन्त ये इसी तरह मिराकुलित सुख से रहते हैं। वहाँ प्रशन, पान, शयन, प्राशन, वस्त्र, आभूषण, सुगंध प्रादि सर्व ही भोगउपभोग योग्य सामग्री कल्प वृक्षों से उत्पन्न होती है । उन दस कल्प वृक्षों के नाम इस प्रकार हैं : मद्यातोद्धविभूषास्त्रग, ज्योतिदीपगुहाङ्गकाः । भोजनामत्र वस्त्राङ्गा, दशधा कल्प पावपाः ॥ अर्थ--मालांग, वादित्रांग, भाजनाङ्ग, भूषणाङ्ग, पानाङ्ग, ज्योतिराङ्ग, दीपांग, गृहांग, भोजनागौर वस्त्राङ्ग, ये दश प्रकार के कल्प वृक्ष हैं । " नाना प्रकार के फूलों से बनाई हुई उत्कृष्ट और उत्तम सुगन्धित मालाए जिससे प्राप्त हों उसे मालांग वृक्ष कहते है। १।। तत, वितत, वन, सुषिर आदि बाजे जिससे प्राप्त हो वह वादित्रांग वक्ष है ।। कलश, थाली, कटोरा, गिलास प्रादि वर्तन देने वाला भाजनांग वृक्ष है।३।। मुफुट, माला, बाजूबन्द आदि अाभरण व भूषण देने वाला भूषणांग वक्ष है।४। चिकर और सुगंधित, इन्द्रियो तथा बल की पुष्टि करने वाली तथा जिसके देखने से अभिलाता पंदा हो ऐसी पीने की वस्तु मद्यांग वृक्ष से मिलती है ।५. ज्योतिरांग वृक्षों से सूर्य और चन्द्रमा से भी अधिक प्रकाश होता है । ६। दीपांग जाति के वृक्षों से घर में प्रकाश होता है ।७। गृहाँग वृक्ष से नाना प्रकार के मकान मिलते हैं 1८। जिनसे चार प्रकार, भोजन, प्राप्त हों वह भोजनांग वृक्ष है ।। जिससे उत्तमोत्तम रेशमी सूती, यादि वस्त्र प्राप्त हों उन्हें वस्त्रांग वृक्ष कहते हैं । १०॥ ऐसे ये दस प्रकार के कल्पवृक्ष न तो वनस्पति-काय हैं और न देवाधिष्ठित किन्तु पृथ्वीकाय रूपही सार वस्तु हैं। इन दश प्रकार के वृक्षो से मनवांछित पदार्थ प्राप्त करके सुख भोगते हए प्राय के अन्त में शुभ भावों से मृत्यु लाभकर शेष बचे पुण्य फल से स्वर्ग में जाते हैं और वहाँ भी महा वैभवशाली Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार प्रय देव होकर दिव्य सुख भोगते हैं । यह सब उनके उत्तम पात्र दान का फल है। अतएव जो लोग पात्रों को भक्ति से दान देंगे वे भी नियम से ऐसा ही उच्च गुल लाभ करेंगे । यह वात ध्यान में रखकर सत्पुरुषों का कर्तव्य है कि वे प्रतिदिन कुछ न कुछ दान अवश्य करें। यही दान स्वर्ग और मोक्ष सुख का देने वाला है । भोगभुमि में सैनी तिर्यन्च नहीं होते और वे भी स्त्री पुरुष युमल ही उत्पन्न होते हैं और साथ ही मरते हैं । यह उत्कृष्ठ भोगभूमि की रचना चार कोड़ा कोड़ी सागर पर्यन्त रहती है । सदनन्तर सुखमा नाम का दूसरा काल प्रवर्तता है उसमें मध्यम भोगभूमि अर्थात हरि और रम्यक क्षेत्र के समान रचना व रीति होती है । इसमें मनुष्यों की ऊँचाई चार हजार धनुष और दो पल्य की आयु होती है । तब भी निरन्तर दो पल्य तक कल्प वृक्षों से उत्पन्न हुए सुख भोग कर आयु पूर्ण होने पर मृत्यु लाभ कर अपने शेष बचे पुण्य के अनुसार स्वर्ग में देव उत्पन्न होते हैं। इस काल में भी युगल ही पैदा होते हैं। यह मध्यम भोगभूमि की रचना तीन कोड़ा कोडी सागर पर्यन्त रहती है। तत्पश्चात् तीसरा काल जो सुखमा दुःखमा है, प्रवर्तमान होता है उसमें जघन्य भोगभूमि अर्थात् हैमवत और हैरण्यवत क्षेत्र के समान रचना ब रीति होती है । इसमें मनुष्यों के शरीर की ऊँचाई दो हजार धनुष और एक पल्य की पायु होती है। एक पल्य पर्यन्त बरावर कला वृक्ष आदि से उत्पन्न हुए विषय भोगों के सुख भोगते है। प्राय पूर्ण होने पर मृत्य लाभ कर अपने शेषदचे पूण्य के अनुसार देव पर्याय में जाते हैं पुण्यानुसार सुख भोगते हैं । यह जघन्य भोग भूमि की रचना दो कोड़ा-कोड़ी सागर पर्यन्त रहती है। इस प्रकार ४-|-३+२६ कोड़ा कोड़ी सागर पर्यन्त भोगशूमि की रचना होती है। जब तीसरे काल में पल्य का पाठवा भाग शेष रहा तो चौदह कुलकर हुए । उनके नाम ये हैंप्रतिश्रति, सामति, क्षमंकर, क्षेमंधर, सीमकर, सीमंधर, विमलवाहन, चक्षुष्मान यशस्वान, अभिचन्द्र, चन्द्राभ, मरदेव, प्रसेनजित पोर नाभिराय । ये अपने तीन जन्म के ज्ञाता और कर्म भूमि के व्यवहार के उपदेशक थे। प्रथम कुलकर के शरीर की ऊँचाई अठारह सौ धनुष थी। इनके समय ज्योतिरांग जाति के कल्प वक्षों की ज्योति मंद होने के कारण चन्द्रमा पौर मूर्य का प्रादुर्भाव देखकर उनके प्रकाश से जो लोग भयभीत हुए थे उनका इन्होंने भय निवारण किया। दूसरे कूलकर का शरीर प्रमाण तेरह सौ धनुष था। इन्होंने ज्योतिष जाति के कल्पवक्षों की ज्योति मंद होने से तारागण के विमानों का प्रादुर्भाव देखकर तारागण के प्रकाश से जो लोग भयभीत हुए थे उनका भय निवारण किया ।२। तीसरे कुलकर का शरीर पाठ सौ धनुष था । इन्होंने सिंह, सी आदि के कर स्वाभावी होने से जो लोग भयभीत हुए थे उनका भय निवारण किया ।। चौथे कुलकर का शरीर प्रमाण सात सौ पिचहत्तर धनुप था । इन्होंने अन्धकार से भयभीत हारा लोगों को दीपक प्रज्वलित कराने की शिक्षा से उनका भय निवारण किया ।।। पाँचवें कुलकर का शरीर प्रमाण सात सौ पचास धनुष था। इन्होंने कल्पवृक्षों के स्वस्व की मर्यादा बांधी।५॥ छठे कुलकर का शरीर प्रमाण सात सौ पच्चीस धनुष था । इन्होंने अपनी-अपनी नियमित सीमा तथा शासन करना सिखलाया।६। Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ णमोकार मय सातवें कुलकर का शरीर प्रमाण सात सौ धनुष था। इन्होंने घोड़े, रथ प्रादि सवारियों पर प्रारुढ़ होना सिखलाया ।७४ आठवें कुलकर का शरीर प्रमाण छह सौ पिचहत्तर धनुष था। इन्होंने जो लोग अपने पुत्र का मुख देखने से भयभीत हुए थे उनका भय निवारण किया ।। नवे कुलकर का शरीर प्रमाण छह सौ पचास धनुष था। इन्होंने लोगों को पुत्र-पुत्रियों के नामकरण की विधि बतलाई ।। दसर्वे कुलकर का शरीर प्रमाण छह सौ पच्चीस धनुष था। इन्होंने लोगों को चन्द्रमा दिखलाकर बच्चों को क्रीड़ा करना सिखलाया।१०। __ ग्यारहवें कुलकर का शरीर प्रमाण छह सौ धनुष था। इन्होंने पिता पुत्र के व्यवहार की शिक्षा दो सान सोगों को हिलाल यादि मह तुम्हान है. तुम इसके पिता हो।११। बारहवें कुलकर का शरीर प्रमाण पांच सौ पिचहतर धनुष था। इन्होंने नदी, समुद्र आदि में नौका और जहाजों के द्वारा पार जाना, तैरना सिखाया। १२ । तेरहवें कुलकर का शरीर प्रमाण पांच सौ पचास धनुष था। इन्होंने लोगों को गर्भ मल के शुद्ध करने का अर्थात् स्नान आदि कर्म का उपदेश दिया । १३ । चौदहवें कुलकर का शरीर प्रमाण पांच सौ पच्चीस धनुष था । इन्होंने लोगों को नाभि काटने की विधि बताई । १४ । इनके समय समस्त कल्पवृक्षों का प्रभाव हुआ । युगल उत्पत्ति मिटी और वे अकेले ही उत्पन्न हए । इनकी मन को हरण धाली उत्तम पतिव्रता, सरलस्वभावी, विदुषी जैसे चन्द्रमा के रोहिणी, समुद्र न्द के इन्द्राणी हैं वैसे ही महारानी मरु देवी अपने शयनागार में सुखपूर्वक केगंगा, राजहंस के हंसनी इन्द्र के इन्द्राणं सोई हुई थी कि उसने जिनेन्द्र के अवतार के सूचक रात्रि के पिछले पहर में अत्यन्त हर्षदायक सोलह स्वप्न देखे । उनके नाम इस प्रकार हैं-(१) ऐरावत हस्ती, (२) श्वेत वृषभ, (३) केशरी, (४) हस्तिनियों के द्वारा दो कलशों से स्वान करती हुई लक्ष्मी. (५) दो पुरुष मालाए, (६) अखण्ड चन्द्र बिम्ब (७) उदय होता हुआ सूर्य, (८) मीन युगल, (६) दो कनकमय कलश; (१०) कमलों से शोभित सरोवर, (११) गम्भीर समुद्र, (१२) सुन्दर सिंहासन, (१३) छोटे-छोटी घटिकानों से सुशोभित विमान, (१४) धरणेन्द्र का भवन, (१५) प्रदीप्त पंच वर्गों के उत्तमोत्तम रत्नों की राशि और (१६) निधूम अग्नि-इस प्रकार सोलह स्वप्न देखे । तदनन्तर उसने अपने मुख में प्रवेश करते हुए हाथी को देखा ! स्वप्न देखकर मरुदेवी प्रात: काल सम्बन्धी मंगल शब्द श्रवण करके जाग्रत हुई और शौच स्नान प्रादि प्रभात क्रियाओं से निवृत होकर नाभिराय के समीप राजसभा में गई । महाराज ने महारानी को अपने बाई ओर बैठाकर कहाही आज क्या विचार करके प्राई हो?' महारानी बोली ..'नाथ ! रात्रि के अन्तिम समय में मैंने । उनका फल माप से पूछने के लिए प्राई हूँ। यह कहकर मरुदवा न अपन रात्रि म देखे हुए सब स्वप्न कह सुनाए। महाराज स्वप्नों को सुनकर उनका फल कहने लगे-'देवी ! इन स्वप्न से सूचित होता है कि तुम्हारे गर्भ में तीर्थंकर अवतार लेंगे जिनकी प्राज्ञा का देवता तक भी सन्मान करते हैं। उनके अवतार के छह महीने पहले से ही देवता प्रतिदिन अपने घर पर रत्नवर्षा करेंगें । तुम्हारी संतुष्टि के लिए प्रत्येक स्वप्न का फल पृथक-पृषक कहता हूं सो सुनो Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार अभ २६३ प्रथम हस्ती के देखने से सर्वोच्च माननीय पुत्र होगा ? वृषभ के देखने से धर्म रूपी धुरी का धारण करने वाला जगन्यूज्य होगा ।।२।। सिंह के देखने से अनन्त बल का धारी होगा । ३ । पुप्पमाला देखने से धर्म प्रगट करने वाला होगा । ४ । लक्ष्मी अभिषेक हस्तिनियों के द्वारा होता हरा देखने से उनका इन्द्रों के द्वारा मेरु पर्वत पर अभिषेक होगा।५। पूर्णमासी का प्रखंड चंद्र बिम्ब देखने में वह सब जन संताप हा मानन्दकारी होगा। ६ । सूर्य के देखने से बह महा प्रापी होगा। ७ । मीन युगल देखने से वह विविध मुख का भोक्ता होगा । ८ । कनक कुम्भ युगल देखने से वह विविध निधि भोक्ता होगा । ६ । सरोवर के देखने से वह एक हजार पाठ शुभ लक्षण सम्पन्न होगा । १० । गम्भीर समुद्र के देखने से केवल ज्ञान धारी होगा । १२ । सिंहासन के देखने से विपुल राज्य का भोक्ता होगा । ११ । स्वगं विमान देखने से स्वर्ग से चयकर अवतार लेगा। १३ । घरणेन्द्र भवन देखने से प्रवधिज्ञान संयुक्त होगा। १४ । रत्नराशि देखने से गुण निधान होगा। १५ । निधूम अग्नि देखने से वह कर्मों का नाश करने वाला होगा। १६ । इस प्रकार मरुदेवी त्रैलोक्य नाथ की उत्पत्ति अपने पति से सुनकर परम हर्षित होकर वापिस अपने महल में चली गई। कुछ दिनों पश्चात् प्राषाढ़ कृष्ण द्वितीया को सर्वार्थ सिद्धि से चयकर तीन ज्ञान संयुक्त भगवान मरुदेवी के गर्भ में प्रा विराजे । देवों के द्वारा उस पूज्य गर्भ की दिनों-दिन वद्धि होने लगी। उसके भार से मरदेवी को किसी तरह की पीड़ा न हुई जैसे दर्पण में प्रतिबिम्ब के पड़ने से दपणं की किसी तरह हानि नहीं होती है । गर्भ पूर्ण दिनों का हुआ। तब चैत्र मास कृष्ण पक्ष में नवमी के दिन शुभ मुहूर्त में उत्तरापाढ़ नक्षत्र का योग होने पर सौभाग्यवती मरुदेवी ने त्रिभुवन पूज्य पुत्ररत्न का प्रसव किया। पुत्र के उत्पन्न होते ही नगर भर में मानन्द उत्सव होने लगा और नाभिराय ने भी पुत्र जन्म का महा उत्सव किया । त्रैलोक्य के प्राणी हषित हुए। इन्द्रों के पासन कम्पायमान हुए और देवों के बिना बजार स्वनः स्वभाव सुन्दर-सुन्दर बाजों का मनोहर शब्द होने लगा तब सौधर्मेन्द्र प्रवषिशान से यह जानकर कि इस समय भरत क्षेत्र में तीर्थराज का अवतार हुआ है। उसी समय अपने ऐरावत गजराज पर प्रारूढ़ होकर वह अपनी इन्द्राणी और देवों सहित बई भारी उत्साह और समारोह के साथ प्रयोध्यापुरी में पाया और सक्ति नगरी की तीन प्रदक्षिणा की। इन्द्र ने अपने विशाल ऐश्वर्य से नगरी को अनेक प्रकार सुशोभित किया और पश्चात् अपनी प्रिया को भगवान के लाने के लिए मरुदेवी के निकट भेजा। इन्द्राणी अपने स्वामी की आज्ञा पाकर प्रसूतिगृह में गई और अपनी दिव्य शक्ति से ठीक मायामयी वैसा ही एक बालक वहाँ स्थापित कर भगवान को उठा खाई। Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ णमोकार प्रथ । __उसने बालक लाकर अपने पति के कर-कमलों में दे दिया। इन्द्र उन्हें ऐरावत हाथी पर बैठाकर बड़े समारोह के साथ सुमेरु पर्वत की ओर चला। ईशान इन्द्र ने छत्र धरे, सनत्कुमार, महेन्द्र, चेंबर हुलाने लगे और शेष इन्द्र सथा देव जय-जयकार शब्द करने लगे । किन्नर, गन्धर्व, तुम्बर, नारद आदि मनोहर-मनोहर गान करने लगे, अतः सौधर्म इन्द्र बड़े भारी महोत्सव के साथ सुमेरु पर्वत पर गया । वहाँ से पांडुक वन जाकर तत्र स्थित पांडुक शिला पर भगवान को पूर्व दिशा मुख विराजमान कर अभिषेक करने को उद्यत हा तब सब देवों ने रत्नजडित सवर्णमय एक हजार पाठ कलशों को लेकर पर्वत पर्यन्त कलशों की ऐसी सुन्दर श्रेणी बांध दी जो मन को मुग्ध किए देती थी। पश्चात् इन्द्र अपनी इन्द्राणी सहित भगवान का कलशाभिषेक करने लगा। इस समय सुमेरु पर्वत क्षीरसमुद्र के स्फटिक से भी धवल और निर्मल जल के अभिषेक से ऐसा मालूम होने लगा मानों चांद का बना हुआ हो जब भगवान का क्षीराभिषेक हो चुका तब दूसरे जल से अभिषेक कर इन्द्रानी ने जिनराज का शीरछा और उनके शरीर में सुगन्धि चन्दन आदि का विलेपन कर अनेक प्रकार सुगन्धित पुष्पों से उनकी पूजा की। । तत्पश्चात् स्वर्गीय दिव्य वस्त्रों और मुकुट, कुइल, हार प्रादि सोलहों आभूषणों से भूषित कर और उनके अंगूठे में अमृत रखकर इन्द्र भगवान की स्तुति करने लगा –'हे नाथ ! हे जिनाधीश ! यह जगत महान् अज्ञान रूप अंधकार से भरा है। उसमें भ्रमण करते हुए भन्य जीवों के मोह तिमिर हरने को श्राप सूर्य के समान प्रफुल्लित हो जायेंगे । इस संसार रूप में प्रकट हुए जीवों को सन्मार्ग बताने के लिए आप केवलज्ञान मय दीपक रूप में प्रगट हुए हो । हे जगन्नाथ ! आप तीन भुवन के स्वामी हैं । सब प्राणियों के नमस्कार के योग्य हैं। इस संसार में प्रापसे अधिक और कोई पूज्य नहीं हैं। आप प्रत्यक्ष हस्तरेखावत् लोकालोक के जानने वाले हैं स्वयं हैं, विज्ञाननिधान है, अजर है. अमर हैं और कर्मों के जीतने वाले हैं । व्यापको मैं भक्तिपूर्वक नमस्कार करता हूं, नाथ ! पाप भक्तजनों के रक्षक हैं, दरिद्रता के नाश करने वाले हैं, दुःख दरिद्रता के मिटाने वाले हैं। पाप ही काम धेन (मनोवांछित फल के देने वाले हैं । आप काम, क्रोध, मोह, लोभ, राग, द्वेप आदि कषायों से रहित वीतराग हैं । कर्म रूप बन के भस्म करने को पति है। इच्छित पदार्थों के देने को चितामणि हैं। काम रूप सपं के नाश करने को गरुड़ हैं। पंचेन्द्रियों के विषय रूपी पिशाचिनी के मारने को कटार हैं। प्राय अपने प्राश्रयी जीवों के भय, तृषा, रोम, परति प्रादि दुःखों को नाशकर शम अर्थात् मुख के करने वाले हैं अर्थात् आप शंकर हैं। हे धीर! पाप मोक्षमार्ग की विधि के विधानकर्ता हैं.प्रतएव प्राप ब्रह्मा हैं। हे देव ! मैं आपके गुणों का कहाँ तक यशोगान करू ? जब देवों के गुरु (वहस्पति) भी आपके गुणों का पार नहीं पा सकते तो मेरी तुच्छ बुद्धि कहाँ पार पा सकती है ?' इस प्रकार इन्द्र, भगवान की बहुत देर तक सभक्ति स्तुति करके बारम्बार नमस्कार करता हुआ तत्पश्चात् ऐरावत हाथी पर प्रारढ़ करके अयोध्यापुरी में वापिस ले पाया और अपनी प्रिया के द्वारा मरुदेवी के पास उसी अवस्था में भगवान को पहुंचा दिया । जब मरुदेवी की निद्रा खुली तो पुत्र को दिव्य अलंकारों से भूषित देखकर बड़ी आश्चर्यान्वित हुई। तत्पश्चात् इन्द्र, भगवान के माता-पिता का पूजनकर, अपने स्थान पर चला गया। . । Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमोकार ग्रंथ भगवान इन्द्र के द्वारा अंगूठे में रखे हुए अमृत का पान करते हुए दिनों-दिन बढ़ने लगे। उन के लिए सुगंध विलेपन, वस्त्राभूषण, प्रशन पान आदि सब सामग्री इन्द्र भेजा करता या। उन नाना प्रकार के दिव्य रत्नमयी अलंकारों से विभूषित भगवान का शरीर बहुंत सुन्दर मालूम होता था। उनके बहुमूल्य रत्नों से जड़ित वस्त्राभूषणों की शोभा देखते ही बनती थी। उनके वक्षः स्थल पर पड़ी हुई स्वर्गीय कल्प वृक्षों के पुष्पों को सुन्दर मालाएं शोभा दे रही थीं। भगवान इस प्रकार अपनी वय वाले देव कुमारों के साथ कोड़ा करते और स्वर्गीय भोगोपभोगों को भोगते हुए शुक्ल द्वितीया के चन्द्रमा को तरह दिनों-दिन बढ़ने लगे । भगवान जब लावण्य प्रादि गुणों से सुशोभित तथा नवयौवन सम्पन्न हुए तब नाभिराय ने बड़े समारोह के साथ इनका पाणिग्रहण करा दिया। भगवान ऋषभदेव के दो रानियां थी। उनके नाम थे सुनन्दा और नन्दा । सुनन्दा के भरत आदि सौ पुत्र और एक ब्राह्मी कन्या थी और नन्दा के बाहुबलि पुत्र और सुन्दरी नाम की पुत्री थी । इस प्रकार भगवान ऋषभ देव धन, सम्पत्ति, राज, वैभव, कुटुम्ब, परिवार प्रादि से पूर्ण सुखी होकर प्रजा का नीति के साथ पालन करते हुए तिरासी लाख पूर्व पर्यन्त राज करते रहे तब एक दिन इन्द्र ने अवषिशान से विचार किया कि तीर्थकर भगवान का समस्त समय पतीन्द्रिय भोगों में व्यतीत हा चला जा रहा है, और भगवानविरक्त नहीं हए, वैराग्य का कोई निमित्त विचारना चाहिए। तब इन्द्र ने एक नीलांजना नाम की अप्सरा को जिसका प्राघु कर्म बहुत अल्प शेष रहा था, भगवान के समीप नृत्य करने के लिए भेजा अतः भगवान के सम्मुख उस देवी ने आकर लोगों को चकित करने वाला नृत्य गान करना आरम्भ किया तब समस्त सभा निवासीजन माश्चर्यान्वित होकर कहने लगे कि देखो ऐसे अद्भुत नृत्य का देखना इन्द्र को भी दुर्लभ है । जब ऐसे नृत्य करती हुई नीलांजना अप्सरा का प्रायु कर्म पूर्ण हो गया तो प्रात्मा तो परगति गया और शरीर दर्पण के प्रतिबिम्बवत् अदृश्य हो गया अतः इन्द्र ने नत्य के समय को भंग न होने के कारण उसी समय दूसरी देवांगना रच दी इससे वैसा ही नत्यगान होता रहा अतः यह परिर्वतन सभा निवासियों में से किसी ने नहीं जाना कि यह वही देवी नृत्य कर रही है प्रथवा दूसरी परन्तु यह परिवर्तन भगवान ने अवधिज्ञान से तत्समय ही जान लिया कि वह देवी नृत्य तजकर अन्य लोक गई, यह इन्द्र ने नवीन रच दी है। भगवान के चित पर उसकी इस क्षण नश्वरता का बईत गहरा असर पड़ा । ये विचारने लगे कि अहो जिस प्रकार ये अप्सरा प्राँसों के देखते-देखते नष्ट हो गई उसी तरह यह संसार भी क्षण भंगुर है । यह पुत्र, पत्र, स्त्री ग्रादि का जितना समृदाय है वह सब दुःख को देने वाला है और इन्हीं के मोह में फंसकर 'न नाना प्रकार के दुखों को भोगता है । अतः इनसे सम्बन्ध छोड़कर जिन दीक्षा ग्रहण करनी चाहिये जिससे मैं प्रात्मोक सच्चा सुख प्राप्त कर सकू। इस प्रकार ऋषभ देव का मन वैराग्य युक्त जानकर लोकांतिक देव पाए और भगवान को वैराग्य पर दृढ़ कर निज स्थान पर चले गये । तदनन्तर इन्द्र आदि देव भगवान को पालकी में बैठाकर उन्हें तिलक नामक उद्यान में ले गए। वहां भगवान ने वट वृक्ष के नीचे सभी वस्त्राभूषणों का परित्याग करके कैशलौंच के अनन्तर सिद्ध भगवान को नमस्कार कर जिनदीक्षा स्वीकार की । भगवान के केशों को इन्द्र ने ले जाकर क्षौर समुद्र में डाल दिया। भगवान की दीक्षा के समय सब देव मण प्रा गए और भगवान का दीक्षोत्सव करके अपनेअपने स्थान पर चले गए । भगवान के साथ और भी चार हजार राजाओं ने मुनिव्रत का स्वरूप जानकर फेवल स्वामी की भक्ति करके नग्नमुद्रा धारण की। भगवान ऋषभदेव तो दीक्षा लेकर षट्मास पयन्त निश्चल कायोत्सर्ग में लीन रहे परन्तु शेष जो कच्छ महाकच्छ प्रादि चार हजार राजा थे वे जब Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोकार अथ नम्न मुदा धारण कर क्ष धा. तृषा, शीत, उष्ण आदि परिषह सहन करने में असमर्थ हो गए तब कितने हो कायोत्सर्ग तजकर क्ष धा की वेदना से महा व्याकुल होकर फल प्रादि का भक्षण करने लगे, कुछ तृषा के बारग संतप्त चित्त होकर नदी सरोवर आदि का शीतल जलपान करने लगे। उनका भ्रष्ट पाचरण देखकर उस वन के देवताओं ने उनसे मना किया और कहा-'कि तुम लोग ऐसा मत करो। अरे मूखों ! यह तुम्हारा दीक्षा ग्रहण किया हुमा दिगम्बर अवस्था का रूप सर्वश्रेष्ठ अरिहंत, चक्रवर्ती मादि लोगों के धारण करने योग्य है । तुम्हें इस नग्न जिन मुद्रा को धारण कर जैनेन्द्री दीक्षा को कलंकित करना तथा इस निन्दनीय कृत्य का करना योग्य नहीं । दूसरी वात, ऐसे कृत्य का करना तुम्हें नरक श्रादि दुर्गति का कारण भी है। '"तब उन्होंने नग्नमुद्रा का परित्याग कर वृक्षों के बक्कल धारण कर ली। कुछ ने मृगचर्भ आदि धारण कर लो । कुछ ने दर्भ धारणकर ली। वन वृक्षों के फलों से वे क्षुधा निवारण करने लगे। सरोवर आदि के शीतल जल से तृपा निवारण करने लगे। कितने ही परस्पर वार्तालाप करने लगे। कि यह गुरु महाधीर वीर किसी कार्य की सिद्धि के लिए योग साधन करने वन में पाए हैं। और बाद में वापिस जाकर राजलक्ष्मी का सेवन करेगे, आज या एक दो दिन में योग का परित्याग कर अपने स्थान पर जाकर राज्य लक्ष्मी अगीकार करेंगे इससे यदि हम पहले नगर में चले जाएगें तो ये हमें स्वामी कार्य में विघ्न डालने वाले और छल करने वाले जानकर हमारा मान भंग कर देश से निकाल देंगे तब भी तो हमें सम्पदा विहीन होकर बहुत वाधा सहन करनी पड़ेगी अथवा इनके पुत्र भरत चक्रवर्ती राज्य कर रहे हैं वे भी हम पर कोप करेंगे कि ये स्वामी को तजकर चले पाए हैं अतः ये दण्ड देने योग्य के प्रतः यावत (जब तक) भगवान ऋषभ देव का योग पूर्ण न हो जाय तावत (तब तक) हमें भी बाधा सहने योग्य है । यह भगवान अभी दिन दो दिन में योग सिद्धि होने पर उल्टे घर जाएगे तब हम से प्रसन्न होकर हमें प्रतिष्ठा, सत्कार, लाभ आदि से सम्पन्न करेंगे।' इस प्रकार कितनों ही ने अन्तकरण में व्याकुलता होते हुए भी अपनी आत्मा को दृढ़ (स्थिर) किया। कितने ही विचलित होकर भस्मी लगाकर जटाधारी हो गये, कितने ही दंडधारी हुए इत्यादि उन्होंने अनेक भेष धारण किये। उनमें से मारीच ने परिधाजनों में मुख्य होकर परिवाज का मार्ग चलाया। अथानन्तर माध्यानी अपभदेव भगवान मे छह मास पूर्ण होने पर ग्राहार के निमित्त प्रवर्तन किया। उन्होंने मन में विचारा कि-- महो! देखो, ये कच्छ महाकच्छ प्रादि महान व शोद्भव संयमी भुनि का मार्ग न जानवार क्षधा, तृषा, प्रादि २२ परीषह सहन करने में असमर्थ होकर थोड़े ही दिनों में भ्रष्ट हो गए अत: मुझे मोक्षमार्ग की सिद्धि और काय की स्थिति के निमित्त अव यतियों के प्राहार का मार्ग दर्शना चाहिए । मोक्षाभिलाषी निर्ग्रन्थ साधुनों को न बिल्कुल काय ही कुश करना और न गरिष्ठ रस संयुक्त, मिष्ट, स्वादिष्ट भोजन के द्वारा पोषण ही करना चाहिए किन्तु दोष अर्थात रा अथवा वात, पित्त, कफ प्रादि दोष के नाश के निमित्त उपवास अादि तप करना और प्राण धारण करने के निमित्त शास्त्रोक्त निर्दोष शुद्ध निरंतराय माहार लेना चाहिये ऐसा मन में निश्चय करते हुए प्रादीश्वर भगवान ने ईर्या समिति पूर्वक प्रहार के निमित्त बिहार किया। मुनि सम्बन्धी क्रिया के प्राचरणी भगवान मौन पूर्वक बिहार करते गये, सोपुर ग्राम आदि में बिहार करते हुए प्रजाजन राज्य अवस्थावत् विविध प्रकार के उत्तम-उत्तम पदार्थ उन्हें भेंट करते थे परन्तु अब इन्हें भेंट प्रादि से क्या प्रयोजन था? अन्तराय जानकर वापिस वन में चले जाते थे। इस प्रकार षट् मास पर्यन्त जब आहार की विधिपूर्वक प्राप्ति न हुई तब वे विहार करते-करते हस्तनागपुर पाए। सर्व ही नगर निवासीजन भगवान के दर्शन करके परम आनन्दित हुए। जब भगवान राजद्वार के निकट पहुंचे तन Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - मोकार संघ २६० सिद्धांत नामक एक द्वारपाल ने महाराज से जाकर कहा-स्वामी ! आदिनाथ भगवान पृथ्वी को अपने पैरों से पवित्र करते हुये पाहार के लिए आये हैं, तब सोमप्रभ तथा श्रेयांस राजा अपने पुरोहित, मन्त्री ग्रादि तथा अन्तःपुर सहित उठकर भगवान के सन्मुख गए महा भक्ति संयुक्त राजद्वार के बाहर जाकर भगवान की प्रदक्षिणा करके उन्होंने बारम्बार नमस्कार किया और रत्नपान से अर्घ देकर भगवान के चरणारविंद धोए। राजा सोमप्रभ के लघुभ्राता श्रेयांस को भगवान के दर्शन के द्वारा याने प्रथम भव में उसने जो चारण ऋद्धि धारी युगल मुनियों को आहार दान दिया था वह सब विधान ज्यों का त्यों स्मरण हो पाया। उस समस्त विधि से परिचित होकर राजा श्रेयांस ने बड़ी भक्ति से उनको नवधामाविक रत्न किस काम नाचल में खे हुए सीतल मिष्ट प्रासुक ईक्ष रस का आहार कराया । इम पात्रदान के अतिशय से उनके यहां स्वर्ग के देवों ने रत्नों की वर्षा की, कल्पवृक्षों के सुगन्धित और सुन्दर पुष्प वरषाये, दुन्दुभि बाजे बजाए । उस समय मंद, सुगन्धित, शीतल पवन चली । धन्य है यह पात्र. धन्य है यह दान और धन्य है यह दान का देने वाला श्रेयांस इस प्रकार जय-जयकार शब्द हुा । श्रेयांग के दान से आहार देने की विधि प्रगट हुई। श्रेयांस राजा देवों में भी प्रशंसा के योग्य हुए। सच है सुपात्रों को दिए दान के फल से क्या-क्या नहीं होता है ? भगवान निरन्तराय निर्दोष शुद्ध आहार लेकर वन में विहार कर गए । एक हजार वर्ष पर्यन्त महान घोर तपश्चरण कर शुक्ल ध्यानाग्नि से घातिया कर्म रूपी काष्ठ को भस्मकर फाल्गुण कृष्ण एकादशी के दिन प्रातःकाल के समय भगवान ने लोकालोक का प्रकाशक केवलज्ञान प्राप्त किया । केवलज्ञान होते ही इन्द्र ने पाकर बारह सभात्रों में सुशोभित समवशरण की रचना की। उन बारह सभा निवासियों का अनुक्रम इस प्रकार है काव्य पहले कोठे विष साध तिष्ठे अध नाशक, भध्यन को शुभ स्वर्ग मोक्ष मारग परकाशक । दूजे कल्प सुरी महान मूरत दुति धारक, जिनवर भक्ति धरंत लखे प्रभु पद दुःखहारक । ११ तीजेवृतिका एक श्वेत साड़ी तन धारे, तथा श्राविका तिष्ठत प्रत युत तिसी मंझारे। चौथे राशि रवि प्रादि ज्योतिषी सुरी निहारो, क्रान्ति युक्त जिन भक्ति भरी मिथ्यात विडारो।२। पंचम कोठे विष व्यन्तरी क्रान्ति विराजत, जिन पद अम्बुज भक्ति धरे प्रानन्द सुसाजत । भवनवासिनी छठे विष मुख पद्म समानो, जिन चरणाम्बुज सेव करन को भ्रमरी जानो ।३। दश प्रकार सुर नागपति सप्तम तिष्ठते, जिन पद अम्बुज सेव करन को अलि दुतिवंते । अष्टम व्यन्तर देव भक्ति युत प्रष्ट निहारो, नवमे द्योतन करत ज्योतिषी पंच प्रकारो ।४५ कलपवासि सुर दशम विर्ष तिष्ठं हरषाई, राणादिक तर दृष्टि सहित ग्यारम तिष्टाई । Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ गमोकार ग्रंथ सिंह आदि सब पशुदयावत सम्यक मंडित, षट् दुगुण के विष जान लेहु तुम पंडित ।५। वोहा- क्रूर पशु भी परस्पर, वैर त्याग तिष्टंत । यह प्रभु की महिमा अगम, वरने को बुधिवंत ।। इस प्रकार द्वादश सभामों के मध्य अशोक वृक्ष के समीप रत्नमय सिंहासन पर चतुरांगुल अन्तरीक्ष ऋषभ देव भगवान विराजे हुए अपनी निरक्षरी दिव्य ध्वनि द्वारा संसार ताप को नाश करने वाले परम पवित्र उपदेशामृत से अनेक जीवों को दुःखों से छुटाकर सुखी बनाते थे । भगवान के चौरासी गणधर हुए जिनके नाम इस प्रकार हैं (१) वृषभसेन, (२) कुम्भ, (३) दृढ़रथ, (४) शतधनु, (५) देवशर्मा (६) देवनाव, (७) नन्दन, (८) सोमदत्त, (६) सूरदत्त, (१०) वायुशर्मा, (११) यशोदाहु (१२) देव.ग्नि, (१३) अग्निदेव, (१४) अग्निगुप्त, (१५) मित्राग्नि, (१६) हलभृत, (१७) महीधर, (१८) महेन्द्र, (१९) वसुदेव, (२०) वसुन्धर, (२१) अचल, (२२) मेरु, (२३) मेरुधन, (२४) मेरुभूति, (२५) सर्वयश, (२६) सर्वयज्ञ, (२७) सर्वगाल (२८) सर्वप्रिय. २६) सर्वव, () सर्वविजय (३१) विजयगुप्त (३२) विजयमित्र, (३३) विजयिल, (३४) अपराजित (३५) वसुमित्र, (३६) विश्वसेन, (३७) साधुसेन, (३८) सत्यदेव, (३६) देवसत्य, (४०) सत्यगुप्त, (४१) सत्यमित्र, (४२) निर्मल, (४३) विनीत, (४४) संवर (४५) मुनिगुप्त (४६) मुनिदत्त, (४७) मुनियश, (४८) मुनिदेव, (४६) गुप्तयज्ञ, (५०) मित्रयज्ञ (५१) स्वयंभू, (५२) भगदेव, (५३) भगदत्त, (५४) भगफल्गु, (५५) गुप्तफल्गु, (५६) मित्रफल्गु, (५७) प्रजापति, (५८) सर्वसंग, (५६) वरुण, (६०) धनपालक, (६१) मघवान,(६२) तेजोराशि, (६३) महावीर (६४) महारथ, (६५) विशालाक्ष, (६६)महावाल, (६७) शुधिशाल, (६८) वज, (६६) वज्रसार, (७०) चन्द्रचूल, (७१) जप, (७२) महारस, (७३) कच्छ, (७४) महाकच्छ, (७५) नमि, (७६) विनमि, (७७) बल, (७८) प्रतिबल, (७६) भद्र बल, (८०) नंदी, (८१) महाभाग, (८२) नंदिमित्र, (८३) कामदेव, और (८४) अनुपम । इस सबमें वृषभसेन मुख्य जानने चाहिए। भगवान के चतुर्विध संघ का प्रमाण पृथक्-पृथक इस प्रकार जानना चाहिए-वादी-१२६५० । 'चौदह पूर्व के पाठी-४७५० 1 प्राचारांग सूत्र के पाठी शिष्य मुनि-४१५० । अवधिज्ञानी मुनियों की संख्या-९००० । केवलज्ञानियों की संख्या-२०००० । विक्रिया ऋद्धिधारी मुनियों की संख्या-२०६०० 1 मनः पर्ययज्ञानी मुनियों की संख्या-१२७५० । वादित्र ऋद्धिधारी मुनियों की संख्या-१२७५० । समस्त मुनियों की संख्या-८४०००। प्रायिकामों की संख्या७५००००। मुख्य प्रायिका का नाम ब्राह्मो था । श्रावकों की संख्या--तीन लाख । श्राविकाओं की संख्यापांच लाख । समवशरण काल-एक लाख पूर्व में १००० वर्ष और चौदह दिन कम । मोक्षजाने के चौदह दिन पहले समवशरण विघटा और तब ही भरत चक्रेश्वरो आदि पाठ महान पुरुषों को प्रादिनाथ भगवान के निर्वाणसूचक पाठ स्वप्न पाए जिनके नाम और चिन्ह इस प्रकार है (१) जिस दिन प्रादिनाथ भगवान ने योगों का निरोध किया उसी दिवस की रात्रि में भरत चक्रवर्ती को ऐसा स्वप्न हुआ कि मानों सुमेरु पर्वत ऊंचा होकर सिसक्षेत्र से जाकर लग गया है। (२) भरत पक्रवर्ती के पुत्र प्रकीति को ऐसा स्वप्न हुप्रा कि स्वर्ग लोक के शिखर से एक Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ! P णमोकार च २६१ महान पवित्र श्रौषधि का वृक्ष ग्राया था और वह जगत निवासी जीवों के जन्म, जरा, मृत्यु रूप रोगों का नाशकर पुनः उल्टा लोक शिखर जाने को उद्यत हुआ है । ( ३ ) भरत चक्रवर्ती के गृहपति रतनशिष्य को ऐसा स्वप्न हुआ कि उधलोक से एक कल्पवृक्ष प्राया था और वह जीवों को मनोवांछित फल देकर पीछे स्वर्गलोक के शिखर जाएगा। (४) चक्रवर्ती के मुख्य मन्त्री की ऐसा स्वप्न आया कि स्वर्गलोक से जो एक रत्नद्वीप आया वह जिन्हें रत्न लेने की इच्छा थी उनको यनेक रन देकर पीछे उध्वलोक को गमन करेगा । (५) भरत चक्रवर्ती के सेनापति को ऐसा स्वप्न आया कि एक अनन्तवीर्य का धारी, श्रद्भुत पराक्रमी मृगराज कैलाश पर्वत रूपी पिंजरे को छेदकर ऊपर जाने का उत्सुक हो उछलने को अभियोगी हुआ । ( ६ ) जय कुमार के पुत्र अनन्तवीर्य को ऐसा स्वप्न आया कि एक अद्भुत, अनन्त कला का धारी चन्द्रमा जगत में उद्योतकर अपने तारागण सहित उर्ध्वलोक को जाने का उद्यमी हुआ है । ( ७ ) भरत चक्रवर्ती की पटरानी सुभद्रा को ऐसा स्वप्न हुआ कि वृषभदेव की रानियाँ - यशस्वती और सुनन्दा ये दोनों एक स्थान पर बैठी हुई चिन्ता कर रही हैं । (क) काशीदेशाधिपति चित्रांगद को ऐसा स्वप्न हुआ कि अद्भुत तेज का धारी प्रकाशमान सूर्य पृथ्वी पर उद्योतकर उर्ध्वलोक को जाना चाहता है। इस प्रकार आदि धर्मोपदेशक प्रादिनाथ भगवान के निर्वाण सूचक आठ स्वप्न पाठ प्रधान पुरुषों को हुए। इस प्रकार भरत आदि को लेकर सब लोगों ने स्वप्न देखे और सूर्योदय होते ही पुरोहित से उनके फल पूछे 1 पुरोहित ने कहा कि ये सब स्वप्न यही सूचित करते हैं कि भगवान ऋषभदेव कर्मों को निःशेष करमनेक मुनियों के साथ-२ मोक्ष पधारेंगें । पुरोहित इन सब स्वप्नों का फल कह ही रहा था कि इतने में आनन्द नाम का एक मनुष्य श्राया और उसने भगवान ऋषभदेव का सब विवरण कहा। उसने कहा कि जिस प्रकार सूर्य के अस्त हो जाने पर सरोवर के सब कमल मुकुलित हो जाते हैं उसी प्रकार भगवान की दिव्य निबन्ध हो जाने पर सब सभा हाथ जोड़े हुए मुकुलित हो रही है। यह समाचार सुनकर वह चक्रवर्ती बहुत ही शीघ्र सब लोगों के साथ कैलाशपर्वत पर पहुंचे। उसने जाकर भगवान की तीन प्रदक्षिणायें दी, स्तुति की, भक्तिपूर्वक अपने हाथ से महामह नाम की महापूजा की और इसी तरह चौदह दिन तक भगवान की सेवा की तदनन्तर कैलाश पर्वत पर मा कृष्ण चौदश को शुभ मुहूर्त और अभिजित नक्षत्र में भगवान ऋषभदेव ने तीसरे सूक्ष्मक्रिया प्रतिपाति नाम के शुक्ल ध्यान से मन, वचन, काय तीनों योगों का निरोध किया और फिर प्रन्त के चौदहवें गुणस्थान में ठहर कर जितनी देर में श्र, इ, उ, ऋ लृ इन पंच ह्रस्व स्वरों का उच्चारण होता है उतने ही समय में चौथे व्युपरत क्रिया निवृत्ति नाम के शुक्ल ध्यान से अघातिया कर्मों का भी नाशकर पर्यकासन से दस हजार मुनियों के साथ वे परमधाम मोक्ष सिधार गए । वे श्रादिनाय स्वामी मुझे तथा भव्यजनों को सम्यग्ज्ञान मीर शांति प्रदान करें। इति श्री प्रादिनाथ तीर्थंकरस्य विवरण समाप्तः । अथ श्री अजितनाथ तीर्थकरस्य विवरण प्रारम्भ: श्री भावनाय भगवान के निर्वाण होने के मनन्सर पचास लाख कोटि सागर के बाद दूसरे Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० ममोकार च तीर्थकर श्री अजितनाथ भगवान ने जन्म लिया। इनका पहला भव-वैजयन्त नामा, दूसरा अनुत्तर विमान। गर्भतिथि प्राषाढ़ कृष्ण २ । जन्म स्थान-अयोध्यापुरी । पिता का नाम श्री जितशत्रु । माता का नाम-विजयसेना देवी । बंश-इक्ष्वाकु । जन्म तिथि माघ शुक्ला १०, शरीर का वर्ण सुवर्णसम । चिह्न गज। शरीर की ऊंचाई.-४५० धनुष । प्रायु प्रमाण चहत्तर लाख पूर्व । कुमार काल -अठारह लाख पूर्व । राज्यकाल-५३ लाख पूर्व और एक पूर्वांग व चौरासी लाख वर्ष । पाणि ग्रहण किया। समकालीन प्रधान राजा-सगर चक्रवर्ती। दीक्षा तिथि-माघ शुक्ल १० । तप कल्याणक के गमन समय की पालकी का नाम सिद्धार्थ । भगवान के साथ दीक्षा लेने वाले राजारों की संख्या-१००० । दीक्षा वक्ष-सप्तपर्ण वृक्ष । तपोवन - सहस्रान यन । वैराग्य का कारण उल्कापात होते देखना । दीक्षा समय अपरान्ह । दीक्षा लेने के कितने दिवस पश्चात प्रथम प्रथम पारणा किया-अरिष्ट पुर (अयोध्या) प्रथम पाहारदाता का नाम-ब्रह्मदत्त । तपश्चरण का कालबारह वर्ष । केवल ज्ञान तिथि-पौष शुक्ल चतुर्थी । केवलशान समय अपरान्ह काल । केवल ज्ञान स्थान मनोहर वन । समवशरण का प्रमाण-साढ़े ग्यारह योजन- गणधर संख्या-नब्बे । मरुप गणधर का नामसिंहसेन । वादियों की संख्या वारह हजार चार सौ । चौदह पूर्व के पाठी तीन हजार सात सौ पत्रास । प्राचारोंग सूत्र के पाठी शिष्य मुनि इक्कीस हजार छह सौ । मनः पर्यय ज्ञानी मुनियों की संख्या-बारह हजार पाँच सौ । वादिन ऋद्धिधारी मनियों यो संख्या बारह हजार चार सौ। विक्रिया ऋद्धिधारी मुनियों की संख्या बीस हजार चार सौ केवल ज्ञानियों की संख्या-बीस हजार समस्त मुनियों की संख्या एक लाख । नायिकायों की संख्या तीन लाख पचास हजार। मुख्य प्रायिका का नाम फाल्मु । श्रावकों को संख्या-तीन लाख श्राविकानों की संख्या पाँच लाख । समवशरण काल एक लाख पूर्व में एक पूर्वाग और बारह वर्ष कम । मोक्ष जाने के कितने दिन पहले समवशरण बिघटा-तीस दिन । निर्वाण तिथि चैत्र शुक्ल पंचमी । निर्वाण नक्षत्र-रोहिणी। मोक्ष जाने का समयः पूर्वाह्न । मोक्ष जाने के समय का ग्रासन कायोत्सर्ग । मोक्षस्थान -- सम्मेदशिखर सिद्धवरकूट। भगवान के मुक्ति गमन के समय में कितने भुनि साथ मोक्ष गए१००० । समवशरण से समस्त कितने मुनि मोक्ष गए-सतत्तर हजार एक सौ। एक तीर्थकर से दूसरे तीर्थकर तक अन्तर काल-तीस लाख कोटिं सागर । इति श्री अजितनाथ तीर्थकरस्य विवरण समाप्तः । अथ श्री संभवनाथ तीर्थकरस्य विवरण प्रारंभः ॥ श्री अजित नाथ भगवान के निर्वाण होन पनन्तर तीस लाख कोटि सागर बाद श्री संभवनाथ भगवान ने जन्म लिया। इनका पहला भव अधेयक रिमान ! गर्भ तिथि फाल्गुन शुक्ल । जन्म स्थान-श्रावस्ती (अयोध्या)। पिता का नाम श्री-जितारि। माता नाम-सुसेना देवी। वंश-- इक्ष्वाकु । जन्मतिथि-कार्तिक शुक्ल १५ । शरीर वर्ण-सुवर्णसम । चिन्ह-अश्व । शरीर की ऊँचाई ४०० धनुष । प्रायु प्रमाण -साठ लाख पूर्व । कुमार काल १५ लाख पूर्व । राज्यकाल-४४ लाल पूर्व और ४ पूर्वांग । पाणिग्रहण किया । समकालीन प्रधान राजा का नाम-सत्यवीर्य। दीक्षा तिथि-- मार्गशीर्ष शुक्ल १५ । तप कल्याणक के गमन समय की पालकी का नाम----सिद्धार्थी। भगवान के साथ दीक्षा देने वालों की संख्या-१००० । दीक्षा वृक्ष-शाल्मली वृक्ष । सपोवन-सहस्त्राभ्रवन (भयोध्या)। वैराग्य का कारण-मेघों का विघटना देखना । दीक्षा समय-अपरान्ह । दीक्षा लेने के पचात OM11 पापा .१५प्रथम Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार २७१ 1 पारण किया - वेला के पश्चात् नाम नगर जहां प्रथम पारणा किया- इष्टपुर (श्रावस्ती ) । प्रथम ग्राहार दातर का नाम - सुरेन्द्रता तपश्चरण काल १४ । केवल ज्ञान तिथि- कार्तिक कृष्ण ४ । केवल— ज्ञान समय — श्रपरान्ह काल । केवल ज्ञान स्थान - मनोहरबन । समवशरण प्रमाण - ११ योजन | गणधर संख्या - १०५ । मुख्य गणधर का नाम - चारुदत्त । वादियों की संख्या - बारह हजार चोदह पूर्व के पाठी - २१५० | आचारांग सूत्र के पाठी शिष्य मुनि - १२६३००० । अवधिज्ञानी मुनियों की संख्या६६००० | केवलशानियों की संख्या - १५००० । विक्रियारिद्धिधारी मुनियों की संख्या - २६६६६ । मनः पयय ज्ञानी मुनियों की संख्या - १२१५० । वादित्र ऋद्धिवारी मुनियों की संख्या - १२००० : समस्त मुनियों की संख्या - २०००० | आर्थिकाश्रों की संख्या - ३३००००। मुख्य प्रायिका का नाम -- श्यामा | श्रावकों की संख्या - ३००००० । श्राविकाओं की संख्या - ५०००००। समवशरण काल एक लाख पूर्व में ४ पूर्वं चौदह वर्ष कम | मोक्ष जाने के कितने दिन पहले समवशरण विघटा तीस दिन । निर्माणतिथि -- चैत शुक्ल ६ । निर्माण नक्षत्र - ज्येष्ठा । मोक्ष जाने का समय अपरान्ह । मोक्ष जाने के समय का ग्रासन - कायोत्सर्ग | मोक्षस्थान – सम्मेदशिखर धवल कूट। भगवान के मुक्ति गमन समय में कितने मुनि साथ मोक्ष गए - १००० । समवशरण से समस्त कितने मुनि मोक्ष गए - एक लाख सत्तर हजार एक सौ ( १७०१०० ) .. इति श्री संभवनाथ तीर्थंकरस्य विवरण समाप्तः । अथ श्री अभिनश्वन नाथ तीर्थंकरस्य विवरण प्रारम्भः । श्री संभवनाथ भगवान के निर्वाण होने के अनन्तर दश लाख कोटि सागर बाद अभिनन्द नाथ भगवान ने जन्म लिया । इनका पहला भव - विजय - विमान ! जन्म स्थान - विनीता (अयोध्या) पिता का नाम - श्री संबर राय माता का नाम-सिद्धार्थ देवी वंश - इक्ष्वाकु । गर्भ तिथि- वैशाख शुक्ल ६ 1 जन्मतिथि–माघ शुक्ल १२ । शरीर का वर्ण सुवर्णसम । चिन्ह - कपि ( बानर ) । शरीर प्रमाण- ३५० धनुष । श्रायु प्रमाण - ५० लाख पूर्व । कुमार काल - साढ़े बारह लाख पूर्व । राज्य काल - ३६ लाख पूर्व और पचास लाख पूर्वांग, पाणिग्रहण किया। समकालीन प्रधान राजा का नाम - मित्रभव। दीक्षा तिथिमाघ शुक्ल १२ । भगवान के तपकल्याणक के गमन समय की पालकी का नाम अर्थसिद्धा । भगवान के साथ दीक्षा लेने वाले राजाओं की संख्या - १००० । - दीक्षा वृक्ष - सरल जाति का वृक्ष । तपोवन सहस्त्रान वन (अयोध्या) वैराग्य का कारण मेघ विघटना देखना दीक्षा समय- अपरान्ह् । दीक्षा लेने के कितने दिन पश्चात् प्रथम पारणा किया - वेला नाम नगर जहाँ प्रथम पारणा किया - साकेता ( सिद्धार्थ पुर ) । प्रथम आहार दाता का नामइन्द्रदत्त । तपश्चरण काल १८ वर्षे । केवल शानतिथि पौस शुक्ल १४ । केवल ज्ञान समय - अपरान्ह काल । केवल ज्ञान का स्थान - मनोहर बन । समवशरण का प्रमाण - साढ़े दश योजन | गणधर संख्या१०३ । मुख्य गणधर का नाम - बच्चनाभि । वादियों की संख्या - ११०००। चौदह पूर्व के पाठी- दो हजार पाँच सौ । श्राचारांगसूत्र के पाठी शिष्य मुनि - २३०५० । प्रवविज्ञानी मुनियों की संख्या - १८०० केवल शानियों की संख्या - १६०० विक्रिया ऋद्धिघारीमुनियों की संख्या - २६०० । मन:पर्यय ज्ञानी मुनियों की संख्या - ११६५० । वादित्र ऋद्धिधारी मुनियों की संख्या - ११०००। समस्त मुनियों की संख्या - ३०२४०० । श्राविकाओं की संख्या ३३०६०० | मुख्य जिका का नाम - प्रजिता । श्रावकों की संख्या – तीन लाख । श्राविकाओं की संख्या - पाँच लाख । समवशरण काल १ लाख पूर्व में १२ पूर्वाग और २० वर्ष कम । मोक्ष जाने के एक मास पहले समवशरण दिना । निर्वाणतिथि वैशाख शुक्ल Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ I सनस्थ शिखर ६। निर्वाणनक्षत्र पुनर्वसु । मोक्ष जाने के समय श्रानन्दकूट । भगवान् के मुक्ति गमन समय एक हजार मुनि साथ मोक्ष गए। समवशरण से समस्त दो लाख अस्सी हजार एक सौ मुनि मोक्ष गए। इनके तीर्थ में धर्म का विच्छेद नहीं हुआ अर्थात् इनके निर्वाण गमन से सुमतिनाथ भगवान के जन्म पर्यन्त मखंडरीति से धर्म प्रवर्तता रहा । इति । अथ श्री सुमतिनाथ तीर्थंकरस्य विवरणम् ।। श्री अभिनन्दन नाथ भगवान् के निर्वाण होने के अनंतर नौ लाख कोटि सागर बाद श्री सुमति नाथ भगवान् ने जन्म लिया। इनका पहला भव- वैजयन्त विमान जन्म स्थान साकेता (अयोध्या) । पिता का नाम - श्री मेघ प्रभु | माता का नाम - सुमंगला देवी 1 वंश - इक्ष्वाकु । गर्भं तिथि - श्रावण शुक्ल - २ | जन्म तिथि -- चैत्र शुक्ल ११२ जन्म नक्षत्र - मत्रा दारीर का वर्ण - सुवर्णसम चिन्ह - चातक । शरीर प्रमाण - तीन सौ धनुष आयु प्रमाण ४० लाख पूर्व कुमार काल – १० लाख पूर्व राज्यकाल - १६ लाख पूर्व और १२ पूर्वीग । पाणिग्रहण किया। समकालीन प्रधान राजा -- मित्रवीर्ये । दीक्षा तिथि -- चैत्र शुक्ल ११। भगवान् के तप कल्याणक के गमन समय को पालकी का नाम - प्रभयकरी | भगवान् के साथ दीक्षा लेने वाले राजाओं की संख्या - २००० । दीक्षावृक्ष - प्रियंगुवृक्ष । तपोवन - सहस्राभ्रवन (अयोध्या) वैराग्य का कारण - मेघों का विघटना देखना । दीक्षा समय - श्रपरान्ह । दीक्षा से बेला करने के पश्चात् प्रथम पारणा किया। नाम नगर जहाँ प्रथम पारणा किया - विजयपुर ( महापुर ) । प्रथम श्राहारदाता का नाम - पद्मराय | तपश्चरणकाल - २० वर्ष । केवलज्ञान तिथि - चैत्र शुक्ल ११ । केवलज्ञान समय - अपरान्ह काल | केवलज्ञान स्थान - मनोहरवन । समवशरण का प्रमाण - १० योजन । गणधर संख्या - ११६ | मुख्य गणधर का नाम - चमर । वादियों की संख्या - १०००० चौदह पूर्व के पाठी - २४००० | आचारांगसूत्र के पाठी शिष्य मुनि- २५४३५० । प्रवधिज्ञानी मुनियों की संख्या११००० | केवलज्ञानियों की संख्या - १३००० १ विक्रिया ऋद्धिधारी मुनियों की संख्या - १८४०० । मन:पर्ययज्ञानी मुनियों की संख्या - १०४५० । वादित्र ऋद्धिधारी मुनियों की संख्या - १०६०० | समस्त मुनियों की संख्या -- ३०२०० । प्रायिकाओं की संख्या - ३३०००० | मुख्य प्रार्थिका का नामकाश्यप । श्रावकों की संख्या तीन लाख । श्राविकाओं की संख्या - पांच लाख । समवशरण काल - १ लाख पूर्व में १६ पूर्वांग और छः मास कम । मोक्ष जाने के एक मास पहले समवशरण विघटा। निर्वाण तिथि - चैत्र शुक्ल ११ । निर्वाण नक्षत्र मघा । मोक्ष जाने का समय–पूर्वान्ह । मोक्ष जाने के समय का श्रासन कायोत्सर्ग । मोक्ष स्थान — सम्मेद शिखर प्रविश्वल कूट । भगवान् के मुक्ति गमन समय एक हजार मुनि साथ मोक्ष गए । समवशरण से समस्त २०१६०० मुनि मोक्ष गए। इनके सी में भी धर्म का विच्छेद नहीं हुआ प्रर्थात् इनके निर्वाण होने से श्री पद्मप्रभु तीर्थंकर भगवान् के जन्म पर्यन्त प्रखंड रीति से धर्मं प्रवर्तता रहा । णमोकार ग्रंथ - ॥ इति श्री सुमतिनाथ तीर्थंकरस्य विवरण समाप्तः ॥ अथ श्री पद्मप्रभु तीर्थंकरस्य विवरण प्रारम्भः ॥ श्री सुमतिनाथ भगवान् के निर्माण होने के अनन्तर नब्बे हजार कोटि सागर बाद श्री पद्मप्रभु भगवान् ने जन्म लिया । इनका पहला भव वेयक विमान । जन्म स्थान - कौशाम्बी ( प्रयाग ) । पिता का नाम - श्री धरणराय माता का नाम सुसीमा देवी वंश इक्ष्वाकु वंश | गर्भ तिथि- माघ कृष्ण ६। जन्म तिथि- कार्तिक शुक्ल १३ । जन्म नक्षत्र-चित्रा । शरीर का वर्ण- अरुण वर्ण । चिन्ह-पदम । शरीर प्रमाण - २५० धनुष । मायु प्रमाण ३० लाख पूर्व । कुमारकाल साढ़े सात लाख पूर्व । राज्यकाल २१ लाख पूर्व | Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार ग्रंथ २७३ - -- - - -- - - - - - पौर ५८ साख पूर्वांग | पाणिग्रह किया। दीक्षा तिथि-कार्तिक शुक्ल त्रयोदशी। दीक्षावक्ष-प्रियंग वृक्ष । तपोवन (सहस्राभ्र वन) कौशाम्बी। वैराग्य का कारण-हाथी के भोजन न करने का समाचार सुनना । दीक्षा समय-अपरान्ह । दीक्षा लेने के एक बेला पश्चात् प्रथम पारणा किया। प्रथम पारणा करने के नगर का नाम धान्यपुर-“मंगलपुर" । प्रथम प्राहार दाता का नाम-सोमदत्त । तपश्चरण काल-साई छः वर्ष । केवल ज्ञान तिथि-चैत्रशुक्ल १५ । केवल ज्ञान समय-अपरान्ह काल । केवलज्ञान स्थान-गनोहर बने। समवशरण का प्रमाण-साढ़े नौ योजन । गणधर संख्या-१११ । मुख्यगणधर का नाम-बजवली । वादियों की संख्या-६६०० । बौदह पूर्व के पाठी-२.६६००० । अवधिज्ञानी मुनियों की संख्या १००००। केवलज्ञानी मुनियों की संख्या-१२६०० । विक्रिया ऋद्धिधारी मुनियों की संख्या-१६८०० । मनःपर्ययजानी मुनियों की संख्या-१०३०० । वादित्र ऋद्धिधारी मुनियों की संख्या ८००० । समस्त मुनियों की संख्या-३०२००० । गायिकाओं की संख्या- तुरूप प्रायिका का नाम-रतिसेना । श्रावकों की संख्या तीन लाख । श्रविकाओं की संख्या-पाँच लाख । समवशरण काल-एक लाख पूर्व में बीस पूर्वाग और नौ वर्ष कम । मोक्ष जाने के तीस दिन पहिले समवशरण विघटा । निर्वाण तिथि फाल्गुन वृष्ण ४ । निर्वाण नक्षत्र-चित्रा। मोक्ष जाने का समय अपरान्ह । मोक्ष जाने के समय का प्रासन-कायोत्सर्ग । मोक्ष स्थान-सम्मेदशिखर मोहनकूट । भगवान् के मुक्ति गमन समय १००० मुनि साथ मोक्ष गए । समवशरण से समस्त ३१३६०० मुनि मोक्ष गए। इनके तीर्थ में भी धर्म का विच्छेद नहीं हुआ । अर्थात् इनके निर्वाण होने से सुपावनाथ भगवान् के जन्मपर्यन्त अखंड रीति से धर्म प्रवर्तता रहा था। ॥ इति श्री पद्मप्रभु तीर्थकरस्य विवरणम् ।। अथ श्री सुपार्श्वनाथ तीर्थकरस्य विवरणम् :श्री पद्मप्रभु भगवान के निर्वाण होने के अनन्तर नन्वै हजार कोटि सागर के बाद श्री सुपाश्वं. नाथ भगवान ने जन्म लिया। इनका पहला भव-वेयक विमान । जन्म स्थान-वाराणर पिता का नाम-श्री सुप्रतिष्ट । माता का नाम-पृथ्वी देवी । इक्ष्वाकु वंश । गर्म तिथि-हरित 1 चिन्हस्वस्तिक । शरीर प्रमाण-२०० धनुष । प्रायु प्रमाण-बीस लाख पूर्व । कुमार काल-५ लाख पूर्व । राज्य काल-१४ लाख पूर्व और २० पूर्वाग। पाणि ग्रहण किया। समकालीन राजा का नामधर्मवीर्य । दीक्षा तिथि-ज्येष्ठ शुक्ल १२ । भगवान् के तप कल्याणक के गमन समय की पालकी का नाम-मनोरमा । भगवान् के साथ दीक्षा लेने वाले राजाओं की संख्या-१००० । दीक्षा वक्ष-शिरीष वृक्ष । तपोवन सहस्त्राभ्र वन (काशी) । वैराग्य का कारण-मेघों का बिघटना देखना। दीक्षा समयअपराह्न । दीक्षा लेने के एक बेला करने के पश्चात् प्रथम पारणा किया । नाम नगर जहाँ प्रथम पारणा किया-पाटली खंड । प्रथम आहार दाता का नाम-महादत्त । तपश्चरण काल-६ वर्ष । केवल ज्ञान तिथि-फाल्गुन कृष्ण ६ । केवल ज्ञान समय-अपरान्ह काल । केवल ज्ञान स्थान-मनोहरवन 1 समवशरण का प्रमाण-६ योजन । गणधर संख्या-६५ । मुख्य गणधर का नाम-चमरवली । वादियों की संख्या७४०० । चौदह पूर्व के पाठी-२०३० । प्राचारांग सूत्र के पाठी शिष्य मुनि-२४४६५० । अवधि ज्ञानी मनियों की संख्या-१००० । केवल ज्ञानियों की संख्या--११३०० । विक्रिया ऋद्धि धारी मुनियों को संख्या-बारह हजार तीन सौ । मनः पर्यय ज्ञानी मुनियों की संख्या-११५० । वादिय ऋद्धि धारी मुनियों की संख्या--७६०० समस्त मुनियों की संख्या-३०००० । मायिकाओं की संख्या-३३००००। पायिका का नाम-सोमा : श्रावकों की संख्या-तीन लाख । धाविकानों की संख्या-पांच लाख । समवशरण काल-१ लाख पूर्व में २४ पूर्वांग और ३ मास कम । मोक्ष जाने के एक मास पहले समवशरण Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ नमोकार ग्रंथ विघटा। निर्वाण तिथि-फाल्गुन ७ । मोक्ष जाने का समय-पूर्वान्ह। मोक्ष जाने के समय का पालनकायोत्सर्ग। मोक्ष स्थान-प्रभास कूट सम्मेद शिखर । भगवान् के मुक्तिगमन के समय १००० मुनि साथ भोक्ष गये। समवशरण से समस्त २३५६०० मुनि मोक्ष गये । इनके तीर्थ में भी धर्म का विच्छेद नहीं हना अर्थात इनके निर्वाण होने से चन्द्रप्रभ भगवान के जन्म पर्यन्त प्रखंड रोति से धर्मप्रवर्तता रहा । इति श्री सुपार्श्वनाथ तीर्थंकरस्य विवरण समाप्तः ।। अथ श्री चन्द्रभ तीर्थकरस्य विवरण प्रारम्भः-- श्री सुपार्श्व नाश भगवान के निर्वाण होने के अनन्तर नव्वे हजार कोडि सागर के बाद श्री चन्द्रप्रभ भगवान ने जन्म लिया। इनका पहला भव-बैजयन्त विमान। जन्म स्थान चन्द्रपुरी (काशी)। पिता का नाम-श्री महासेन माता का नाम-सुलक्षणा देवी । वंश इक्ष्वाकु । गर्भ तिथिचैत कृष्ण पंचमी । जन्म तिथि-पौष कृष्णा ११। जन्म नक्षत्र-अनुराधा । शरीर का वर्ण-शुक्ल वर्ण । चिन्ह-चन्द्रमा । शरीर प्रमाण-१५० धनुष । मायु प्रमाण-दस लाख पूर्व । कुमार काल-ढाई लाख पूर्व । राज्य काल-छह लाख पूर्व और ६६ लाख पूर्वांग । पाणिग्रहण किया। समकालीन प्रधान राजा का नाम-दानवीर्य । दीक्षा तिथि-पौप कृष्णा ११ । भगवान के तप कल्याणक के गमन के समय को पालकी का नाम-मनोहरा । भगवान के साथ वीक्षा लेने वाले राजारों की संख्या-१००० । दीक्षा वृक्ष-नागवृक्ष । तपोवन-सहस्त्राभ्रवन (चन्द्रपुरी) बराग्य का कारण-दर्पण में मुख देखना। दीक्षा का समय-अपर.न्ह । दीक्षा लेने से एक बेला करने के पश्चात् प्रथम पारणा किया। नाम नगर जहां प्रथम पारणा किया-सौमसनपुर पद्मखंड । प्रथम आहार दाता का नाम-सोमदेव । तपश्चरण कालतीन वर्ष । केवल ज्ञान तिथि-फाल्गन कृष्ण सप्तमी। केवल ज्ञान समय-अपरान्ह काल। केवल ज्ञान स्थान-मनोहर वन । समवशरण का प्रमाण साढ़े पाठ योजन । गणधर संख्या-१३। मुख्य गणधर नाम-दंडक । बादियों की संख्या-७६०० ।चौदह पर्व के पाठी-२०००। प्राचारंग सत्र के पाठो शिप्य मुनि-१०४०० । अवधिज्ञानो मुनियों की संख्या-पाठ हजार । केवल ज्ञानियों की संख्या-दस हजार। विक्रिया ऋद्धिधारी मुनियों की संख्या-चौदह हजार । मनःपर्यय ज्ञानी मुनियों की संख्या-८००० । वादित्र ऋद्धिधारी मुनियों की संख्या-७६०० । प्रायिकाओं की संख्या-३८०००० । मुख्य प्रायिका का नाम-सुमना । श्रावकों को संख्या-तीन लाख । श्राविकाओं की संख्या-पांच लाख । समवशरण कालएक लाख पूर्व में ३८ पूर्वांग और चार मास कम । मोक्ष जाने के तीन दिन पहले समवशरण विघटा। निर्वाण तिथि-फाल्गुन शुक्ल सप्तमी । निर्माण नक्षत्र-अनुराधा । मोक्ष जाने ना समय-पूर्वान्ह । मोक्ष जाने के समय का प्रासन-कायोत्सर्ग । मोक्ष स्थान-सम्मेद शिखर ललित कूट। भगवान के मुक्ति गमन के समय एक हजार मुनि मोक्ष गए । समवशरण से समस्त दो लाख चौंतीस हजार मुनि मोक्ष गए। इनके तीर्थ में भी धर्म का विच्छेद नहीं हुआ अर्थात् इनके मोक्ष गमन से पुष्पदन्त भगवान के जन्म पर्यन्त प्रखंड रीति से धर्म प्रवर्तता रहा। इति श्री चन्द्रप्रभु तीर्थकरस्य विवरण समाप्तः । अथ श्री पुष्पवंत तीर्थकरस्य विवरण प्रारम्भःश्री चन्द्रप्रभ भगवान के निर्वाण होने के अनंतर नब्वे कोडि सागर के बाद श्री पुष्पदंत भगवान ने जन्म लिया। इनका पहला भव-प्रारणनाम का पन्द्रहवां स्वर्ग। जन्म स्थान-काकंदी। पिता का नाम-श्री सुग्रीव । माता का नाम-रामा देवी। वंश-इक्ष्वाकु । गर्भतिथि-फाल्गुन कृष्ण नवमी। Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७५ गमोकार ग्रंथ - - " गगन गगनगMHD१५ जन्म तिथि--मार्गशीर्ष शुक्ल ११ जन्म नक्षत्र---मूल । शरीर का वर्ण - शुक्ल वर्ण । चिन्ह-मगर । शरीरप्रमाण-सी धनुष । प्रायु प्रमाण-दो लाख । पूर्व कुमार काल-पचास हजार पूर्व । राज्य काल - एक लाख पूर्व और २८ पूर्वांग । पाणिग्रहण किया। समकालीन प्रधान राजा का नाम-मेघना। दीक्षा तिथि-मार्गशीर्ष शुक्ला १ । भगवान के तप कल्याणक के गमन के समय को पालकी का नाम-पूर्यप्रभा ॥ भगवान के साथ दीक्षा लेने वाले राजाओं की संख्या---एक हजार । दीक्षा वृक्ष-शालि वृक्ष । तपोवन पुष्पक बन (काकंदी)। वैराग्य का कारण-उल्कापात होते देखना। दीक्षा समय-पपरान्ह । दीक्षा लेने से एक बेला करने के पश्चात् प्रथम पारणा किया । नाम नगर जहाँ प्रथम पारणा किया-मंदर पुर (श्वेत पुर) । प्रथम प्राहार दाता का नाम--पुष्पक । तपश्चरण काल-चार वर्ष । के गल जान निधिकीतिक शुक्ल २ । केवल ज्ञान समय-अपरान्ह काल । केवल ज्ञान स्थान-मनोहर बन । समवशरण का प्रमाण-पाठयोजन । गणधर संख्या-८८ । मुख्य गणधर का माम--विदर्भ। वादियों को सख्या६६०० । चौदह पूर्व के पाठी-१५०० । प्राचारोग सूत्र के पाठो शिष्य मुनि-१५५.००० । अवधिज्ञानी भनियों की संख्या-६४००० । केवल ज्ञानियों की संख्या- ७५०० । विक्रिया ऋद्धिधारी मुनियों की संख्या-१३००० । मनःपर्यय ज्ञानी मुनियों की संख्या --७५०० । वादिऋद्धि धारी मुनियों की संख्या७६०० । समस्त मुनियों की संख्या-दो लाख । प्रायिकानों की संख्या--३८०००० । मुख्य प्रायिका का नाम-वारुणी । श्रावकों की संख्या दो लाख | श्राविकाओं की संख्या चार लाख । समवशरण काल - तीन मास कम ५०००० पूर्व । मोक्ष जाने के चौदह दिन पहले समवशरण विघटा। निर्वाण तिथिभाद्रपद शुक्ला अष्टमी । निर्वाण नक्षत्र ... मुला । मोक्ष जाने का समय -अपरान्ह । मोक्ष जाने के समय का प्रासन कायोत्सर्ग । मोक्ष स्थान-सम्मेद शिखर (सुप्रभ कूट) 1 भगवान के मुक्ति गमन के समय एक हजार मुनि मोक्ष गए । समवशरण से समस्त १७२६६० मुनि मोक्ष गए। श्री पुष्पदन्त भगवान के निर्वाण होने के अनन्तर इनको तीर्थ में नब्बे केवली हुए। पश्चात् पावपल्य पर्यन्त मुनि, अजिका, श्रावक, धाविका एवं चार प्रकार के संघ का असद्भाव होने से धर्म का प्रभाव रहा । जब शीतल नाथ भगवान का जन्म हुआ तब पुनः धर्म का प्रचार हुआ । ___|| इति ॥ अथ श्री शीलल साथ तीर्यकरस्य विवरण प्रारम्भःश्री पुष्पदन्त भगवान के निर्वाण होने के अनन्तर नौ कोडि सागर के बाद श्री शीतल नाथ भगवान ने जन्म लिया। इनका पहला भव--अच्युत नामक सोलहयाँ स्वर्ग । जन्म स्थान-भद्रिका पुरी । पिता का नाम-श्री दृढ़रथ । माता का नाम सुनन्दा देवी 1 वंश-इक्ष्वाकु । गर्भतिथि -चैत्र कृष्णा अष्टमी । जन्मतिथि-माघ कृष्णा १२ । जन्म नक्षत्रपूर्वाषाढ़-शरीर का वर्ण सुवर्णसम । चिन्ह श्रीवृक्ष (कल्पवृक्ष) शरीर प्रमाण नवे धनुष । प्रायु प्रमाण एक लाख पूर्व । कुमार काल-२५००० पूर्व । राज्य काल-५०००० पूर्व । पाणिग्रहण किया । समकालीन प्रधान राजा का नाम -सीमन्धर । दीक्षातिथि--माघ कृष्ण १२ । भगवान के तपकल्याणक के गमन के समय की पालकी का नाम-शुक्र प्रभा । भगवान के साथ दीक्षा लेने वाले राजाओं की संख्या-एक हजार । दोक्षा वृक्ष लाक्ष वृक्ष (पीपल) 1 तपोवन--सहेतुकवन (भद्रिकापुर) । वैराग्य का कारण-मेघों का विघटना देखना । दीक्षा समय-अपरान्ह ! दीक्षा लेने से एक बेला करने के पश्चात् प्रथम पारणा किया । नाम नगर जहां प्रथम पारणा किया-अरिष्टपुर (हस्तिनापुर) । प्रथम प्राहार दाता का नाम-पुनर्वसु । तपश्चरण काल Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ णमोकार ग्रंथ दो वर्ष । केवल ज्ञान तिथि - पौष कृष्ण चोदश । केवलज्ञान समय - अपरान्ह काल । केवल ज्ञान स्थान - मनोहर वन । समवशरण का प्रमाण - साढ़े सात योजन । गणधर संख्या--८१ । मुख्य गणधर का नामनागार । वादियों की संख्या - ५७००। चौदह पूर्व के पाठी -- चौदह सौ । आचारांग सूत्र के पाठी शिष्य मुनि - ५६२०० | अवधिज्ञानी मुनियों की संख्या सात हजार दो सौ । केवल शानियों की संख्या - सात हजार | दिक्रिया ऋद्धि धारी मुनियों की संख्या एक हजार दो सौ मनःपर्षय ज्ञानी मुनियों की संख्यासात हजार पाँच सौ | वादित्र ऋद्धि धारी मुनियों की संख्या नौ हजार सात सौ समस्त मुनियों की संख्या एक लाख । श्राविकाओं की संख्या ३५००००। मुख्य भायिका का नाम सुयशा श्रावकों की संख्या दो लाख । श्राविकाओं की संख्या -चार लाख । समवशरण काल दो वर्ष कम २५००० पूर्व । मोक्ष जाने के लिये चौदह दिन पहले समवशरण विघटा निर्वाण तिथि- आश्विन शुक्ल ष्टमी । निर्वाण नक्षत्र - पूर्वाषाढ़ मोक्ष जाने का समय- अपरान्ह । मोक्ष जाने के समय का आसन - कायोत्सर्ग । मोक्षस्थान--- सम्मेद शिखर ( तबर कूट ) । भगवान के मुक्ति गमन के समय एक हजार मुनि सम्प मोक्ष गए। समवशरण से समस्त ५०६०० मुनि मोक्ष गए। इनके तीर्थ में चौरासी केवली हुए पश्चात् आधापत्य पर्यंत चतुविध संघ का सद्भाव होने से धर्म का प्रभाव रहा। जब श्री श्रेयांसनाथ भगवान का जन्म हुआ तव पुनः धर्म का प्रचार हुआ। 1 इति । श्रथ श्री श्रेयस नाथ तीर्थकरस्य विवरण प्रारम्भ: श्री शीतल नाथ भगवान के निर्वाण होने के अन्तर सौ सागर ६६२०००० वर्ष कम एक कोडि सागर के बाद श्री श्रेयांस नाथ भगवान ने जन्म लिया। इनका पहला भव - अच्युत नामक सोलहवां स्वर्गं । जन्म स्थान - सिंहपुरी (काशी) । पिता नाम - श्री विष्णु राय माता का नाम - विष्णु श्री । वर्श – इक्ष्वाकु | गर्भतिथि— ज्येष्ठ कृष्णा अष्टमी जन्म तिथि - फाल्गुन कृष्णा ११ । जन्म नक्षत्रश्रवण | शरीर का वर्ण - सुवर्ण सम चिन्ह - गैंडा । शरीर प्रमाण- प्रस्सी धनुष । ग्रायु प्रमाणचौरासी लाख वर्ष । कुमार काल - २१ लाख वर्ष राज्य काल - ४२ लाख वर्ष पाणिग्रहण किया । समकालीन प्रधान राजा का नाम- त्रिपृष्ट वासुदेव । दीक्षा तिथि फाल्गुन कृष्णा ११ । भगवान के तप कल्याणक के गमन के समय की पालकी का नाम - विमल प्रभा । भगवान के साथ दीक्षा लेने वाले राजाओं की संख्या - एक हजार। दीक्षा वृक्ष - तिंदुक वृक्ष । तपोवन - मनोहर वन ( सिंहपुरी ) । वैराग्य का कारण - वसन्त ऋतु में परिवर्तन का देखना । दीक्षा समय-- प्रपरान्ह । दोसा लेने से एक बेला करने के पश्चात् प्रथम पारणा किया। नाम नगर जहां प्रथम पारणा किया- सिद्धार्थ पुर ( मिथुलापुर ) । प्रथम श्राहार दाता का नाम सुनन्दराय । तपश्चरण काल- दो वर्ष केवल ज्ञान तिथि - माघ कृष्णा ३० | केवल ज्ञान स्थान - मनोहर वन । केवल ज्ञान का समय -- अपरान्ह काल । समवशरण का प्रमाणसात योजन । गणधर संख्या- ७७ । मुख्य गणधर का नाम - कुंथू वादियों की संख्या पाँच हजार । चौदह पूर्व के पाठी - १३०० । अचारांग सूत्र के पाठी शिष्य मुनि - ३८४०० । अवधिज्ञानी मुनियों की संख्या – ६००० | केवल ज्ञानियों की संख्या - ६५०० विक्रिया ऋद्धि घारी मुनियों की संख्या-११००० | मन:पर्ययज्ञानी मुनियों की संख्या -छः हजार । वादित्र ऋद्धिघारी मुनियों की संख्या-पांच हजार । समस्त मुनियों की संख्या - ८००००। ग्रायिकाओं की संख्या -- एक लाख बीस हजार । मुख्य प्रायिका का नाम - धारिणी । श्रावकों की संख्या - दो लाख । श्राविकाओं की संख्या - चार लाख । समवशरण काल - दो वर्ष कम २१००००० वर्ष । मोक्ष जाने के चौदह दिन पहले समवशरण विघटा । Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार २७७ निर्वाण तिथि- बिग शुक्ल पन्द्रह । मिनाम- मोक्ष जाने का समय-पूर्वान्ह । मोक्ष जाने के समय का मासान-कायोत्सर्ग । मोक्ष स्थान--सम्मेद शिखर (संकल्प कुट) । भगवान के मुक्ति गमन के समय एक हजार मुनि साय मोक्ष गए। समवशरण से समस्त ६५६०० मुनि मोझ गा। इनके तीर्थ में बहत्तर केवली हए। पश्चात पौण पल्य पर्यन्त चविध संघ का असदभाव होने से धर्म का प्रभाव रहा। जब श्री वासुपूज्य भगवान का जन्म हुना तब पुनः धर्म का प्रचार हुग्राम इति श्री श्रेयांस नाथ तीर्थंकरस्य विवरणम् । अथ श्री वासुपूज्य तीर्थरस्य विवरणम्श्री श्रेयांसनाथ भगवान के निर्माण होने के अनन्तर चौवन सागर के बाद श्री वासुपूज्य भगवान ने जन्म लिया। इनका पहला भव -महाशुक्र नामक दसई स्वर्ग | जन्म स्थान -चम्पापुर । पिता का नाम-श्री वसुपुज्य । माता का नाम-विजयावती । वंश-इक्ष्वाकु । गर्भ तिथि-प्राषाई कृष्ण ६। जन्म तिथि–फागुन कृष्ण चौदश । जन्म नक्षत्र-शतभिषा। शरीर का वर्ण-अरुण वरण चिन्हमहिष । शरीर प्रमाण-सत्तर धनुष । प्राय प्रमाण बहत्तर लाख वर्ष । कुमार काल-प्रदारह लाख वर्ष। राज्यकाल-३६ लाख वर्ष 1 पाणिग्रहण नहीं किया। समकालीन प्रधान राजा का नाम - त्रिपृष्ट (वासुदेव)। दीक्षा तिथि-फाल्गुन कृष्ण चौदश । भगवान के साथ दीक्षा लेने वाले राजाओं की संख्या ६०० 1 भगवान् के तप कल्याणक के गमन के समय की पालकी का नाम-पुष्प प्रभा। दीक्षावृक्ष ---पांडु वृक्ष । तपोवन - क्रीडोद्यान वन (चंपापुरी) 1 वैराग्य का कारण- मेघों का विघटना देखना । दीक्षा समय -अपरान्ह । दीक्षा लेने के ७१ दिवस पश्चात् प्रथम पारणा किया । नाम नगर जहां प्रथम पारणा किया-राजग्रही (मही पुर) । प्रथम पाहार दाता का नाम--- नन्द भूप । तपश्चरण काल-एक वर्ष । केवल शानतिथि-माघ शुक्ल २। केवल ज्ञान समय-पूर्वाह्न काल । केवल शान स्थान-मनोहर वन । समवशरण का प्रमाण-साढ़े छह योजन। गणधर मरूपा.-.. १६ । मुख्य गणधर का नाम --सुधर्म । वादियों की संख्या-४०० । चौदह पूर्व के पाठी ...१२०० । प्राचारांग सूत्र के पाठी शिष्य मुनि-३६२०० । अयधिशानी मुनियों की संख्या --५४०० । केवल शानियों की संख्या-६००० । विक्रिया ऋद्धि धारी मुनियों की संख्या-१०००० । मनः पर्ययज्ञानी मुनियों की संख्या ६५००। बादित्रऋद्धि धारी मुनियों को संख्या ४२०० । समस्न मुनियों की संख्या ७२००० । प्रायिकाओं की संख्या..-१०६००० । मुख्य प्रायिका का नाम-धरणी। श्रावकों को संख्या--२००००० श्राविकानों की संख्या-चार लाख । समवशरण काल -एक वर्ष कम प्रदारह लाख वर्ष कम । मोक्ष जाने के चौदह दिन पहले समवशरण विघटा । निर्वाण तिथि ----भाद्रपद शुक्ल चौदश । निर्वाण नक्षत्रअश्वनी । मोक्ष जाने का समय-प्रपरान्ह । मोक्ष जाने के समय का ग्रासन-कायोत्सर्ग । मोक्षस्थानचम्पापुर (पासालतट) । भगवान् के मुक्ति गमन के समय में चौरासी मुनि साथ मोक्ष मये । समवशरण से समस्त ५४६०० मुनि मोक्ष गए। इनके तीर्थ में चौवालीस केवली हुए। पश्चात् एक पल्य पर्यन्त चतुर्विध संघ का प्रभाव होने से धर्म का विच्छेद रहा । जब श्री विमल नाथ भगवान् का जन्म हुमा तब पुनः धर्म का प्रचार हुमा। इति श्री वासु पूज्य तीर्थकरस्य विवरणम् । Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ गमोकार एंथ प्रथ श्री विमलनाथ तीर्थंकरस्य विवरण प्रारम्भःश्री वासुपूज्य भगवान के निर्वाण होने के अनन्तर तीस सागर के बाद श्री विमलनाथ भगवान् ने जन्म लिया। इनका पहला भव--सहस्रार नामक भारहवां स्वर्ग । जन्म स्थान ---कपिला नगर । पिता का नाम--श्री कृतवर्मा। माता का नाम-श्यामा देवी। बंश-इक्ष्वाकू। गर्भतिथि-कृष्ण ज्येष्ठ दशमी । जन्म तिथि-माघ शुक्ल ४ । जन्म नक्षत्र-उत्तराभाद्र पद ! शरीर का वर्ण-सुवर्णसम । __ चिन्ह-वाराह । शरीर प्रमाण-साठ धनुष । मायु प्रमाण साठ लाख वर्ष । कुमार काल - पन्द्रह लाख वर्ष । राज्य काल-तीस लाख वर्ष । पाणिग्रहण किया। इनके समकालीन प्रधान राजा का नाम-स्वयंभू वासुदेव । दीक्षा तिथि-माघ शुक्ल ४ । भगवान् के तप कल्याणक के गमन के समय की पालकी का नाम-देवदत्ता। भगवान के साथ दीक्षा लेने वाले राजाओं की संख्या--१०००। दीक्षा वृक्ष जंबू वृक्ष । तपोवन-सहस्रावन (कपिला) । वैराग्य का कारण-मेघों का विघटना देखना । दीक्षा समय --अपरान्ह । दीक्षा लेने गे ला पात्रान् पथ, नाम दिया । नाम नर जहाँ प्रथम पारणा किया-राजग्रही (महीपुर) । प्रथम आहार दाता का नाम-विशाखदत्त, तपश्चरण । काल-तीन वर्ष । केवल ज्ञान तिथि-माघ शुक्ल ६ । केवल ज्ञान समय–अपरान्ह काल । केवल ज्ञान स्थान-मनोहर वन । समवशरण प्रमाणछन्त योजन । गणधर संख्या-पचपन । मख्य गणधर का नाम --नंदिराय । वादियों की संख्या-३४००। चौदह पूर्व के पाठी-११०० । प्राचारांग सूत्र के पाठी शिष्य मुनि-३.४५००० |अवधि ज्ञानी मुनियों की संख्या- ४८००। केवल ज्ञानियों की संख्या-५५००० । विक्रिया ऋद्धिधारी मुनियों की संख्या-१००० । मनः पर्यय ज्ञानी मुनियों की संख्या ५५.०००। वादित्रऋद्धिधारी मुनियों की संख्या ३६०० । समस्त मुनियों की संख्या-६८००० । आर्यिकाओं को संख्या-१०३०००। मुख्य आर्यिका नाम-धरा । श्रावकों की संख्या --२०००००। थाविकानों की संख्या--चार लाख। समवशरण काल-तीन वर्ष कम १५००००० लाख वर्ष । मोक्ष जाने से चौदह दिन पहले समवशरण विघटा । निर्वाण तिथि-प्राषाढ़ कृष्णा ६ । निर्वाण नक्षत्र--भरणी । मोक्ष जाने का समय - पूर्वान्ह । मोक्ष जाने के समय का प्रासान-कायोत्सर्ग । मोक्ष स्थान-सम्मेद शिखर (शालकूट)। भगवान के मुक्ति गमन के समय ८६०० मुनि साथ मोक्ष गए। समवशरण से समस्त ५१३००० मुनिमोक्ष गए। इनके तीर्थ में घालीस केवली हुए । पश्चात् पौन पल्य पर्यन्त धर्म का विच्छेद रहा । जब श्री अनन्त नाथ भगवान् का जन्म हुआ तब पुनः धर्म का प्रचार हुमा । इति श्री विमल नाथ तीर्थकरस्य विवरण समाप्त। अथ श्री अनन्तनाथ तीर्थकरस्य विवरण प्रारम्भःश्री विमलनाथ भगवान के निर्वाण होने के अनन्तर नौ सागर के बाद श्री अनन्तनाथ भगवान् ने जन्म लिया । इनका पहला भव--अच्युत नामक सोलहवाँ स्वर्ग। जन्म स्थान-अयोध्या। पिता का नाम-श्री सिंह सेन । माता का नाम -सर्वयशादेवी । वंश-इक्ष्वाकु । गर्भ तिथि-कार्तिक कृष्ण १ । जन्म तिथि-ज्येष्ठ कृष्ण १२ । जन्म नक्षत्र-रेवसी । शरीर का वर्ण-सुवर्णसम । चिन्ह-सेही। शरीर प्रमाण-पचास धनुष । प्रायु प्रमाण-तीस लाख वर्ष । कुमार काल-साढ़े सात लाख वर्ष । Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार मंथ २७६ राज्य काल-पन्द्रह लाख वर्ष । पाणिग्रहण किया । इनके समकालीन प्रधान राजा का नाम -पुरुषोत्तम (बासुदेव) । दीक्षातिथि ज्येष्ठ कृष्ण १२ । भगवान् के तप कल्याणक के गमन के समय की पालकी का नाम-सागर दत्ता। भगवान् के साथ दीक्षा लेने वाले राजाओं की संख्या-१०००। दीक्षा वृक्ष - पीपल वृक्ष । तपोवन– सहस्त्राभ्रषन (अयोध्या)। वैराग्य का कारण-उल्कापाता होते हुए देखना। -~-अपरान्ह । दीक्षा लेने के एक वेला पश्चात् प्रथम पारणा किया। नाम नगर जहां प्रथम पारणा किया-तारावती (धान्यपुर) प्रथम आहार दाता का नाम--धर्मसिंह । तपश्चरण काल-दो वर्ष 1 केवल ज्ञान तिथि-चंत्र कृष्ण ३०1 केवल ज्ञान समय-अपरान्ह काल । केवल ज्ञान स्थान - मनोहर वन । समवशरण प्रमाण-साढ़े पांच योजन। गणधर संख्या-पचास । मुख्य गणधर का नामजयमुनि । वादियों की संख्या...-३२००१ चौदह पूर्व के पाठी--एक हजार । अाचरांग सूत्र के पाठी शिष्य मुनि ३६५०० । अवधिज्ञानी मुनियों की संख्या-४३०० । केवल ज्ञानियों की संख्या पांच सौ । विक्रियाऋति धारी मुनियों की संख्या-पाठ हजार । मनः पयंय ज्ञानी मुनियों की संख्या-पांच हजार । वादित्र ऋद्विधारी मुनियों की संख्या-३२००। समस्त मुनियों की संख्या छ: हजार । मायिकानों की संख्या-१०८०००। __ मुख्य आयिका का नाम-पद्मा । श्रावकों की मा-श्री शास: पानिकों की संख्या चार लाख | समवशरण काल-दो वर्ष कम ७५०००० वर्ष । मोक्ष जाने के चौदह दिन पहले समवशरण विघटा । निर्वाण तिथि-चैत कृष्ण ४ । निर्वाण नक्षत्र-रेवती । मोक्ष जाने का समय-अपरान्ह । मोक्ष जाने के समय का मासन-कायोत्सर्ग । मोक्ष स्थान सम्मेद शिखर (स्वयंभू कूट) । भगवान् के मुक्ति गमन के समय ७५०७ मुनि साथ मोक्ष गए। समवशरण से समस्त ५१००० मुनि मोक्ष गए। इनके तीर्थ में छत्तीस केवली हुए। पश्चात् चतुर्विध संघ का प्रभाव होने से प्राधापल्य पर्यन्त धर्म का विच्छेद रहा जब श्री धर्मनाय ने जन्म लिया तब पुनः धर्म का प्रचार हुआ। इति श्री अनन्त नाथ तीर्थकरस्य विवरणम् । अथ श्री धर्मनाथ तीर्थकरस्य विवरण प्रारम्भः :श्री अनन्तनाथ भगवान के निर्वाण होने के अनन्तर चार सागर के बाद धर्मनाथ भगवान ने जन्म लिया । इनका पहला भव-सर्वार्थ सिद्धि । जन्म स्थान ---रत्नपुरी। पिता का नाम-श्री भानुराय । मात नाम-सुनता देवी । वंश-कुरु। गर्भ तिथि - वैशाख शुक्ल अष्टमी । जन्म तिथि-माघ शुक्ल ३। जन्म नक्षत्र-पुष्य । शरीर वर्ण-सुवण सम । चिन्ह-बज । शरीर प्रमाण ---४५ धनुष । मायू प्रमाण-दस लाख वर्ष । कुमार काल-ढाई लाख वर्ष । राज्य काल--पाँच लाख वर्ष । पाणिग्रहण किया। इनके समकालीन प्रधान राजा का नाम-पुन्डरीक (वासुदेव) । दीक्षा तिथि-माघ शुक्ल तेरस । भगवान के तप कल्याणक के गमन के समय की पालकी का नाम-नागदत्ता।। भगवान के साथ दीक्षा लेने वाले राजाओं की संख्या--१००० । दीक्षावृक्ष-दधिपणंवृक्ष । तपोवन-शालिवन (रत्नपुरी)। वैराग्य का कारण-उल्कापात होते देखना । दीक्षा का समय-अपरान्ह । दीक्षा लेने के एक बेला पश्चात् प्रथम पारणा किया। नाम नगर जहाँ प्रथम पारणा किया-पाटलीपुत्र (पटना)। प्रथम पाहार दाता का नाम...धन्यसेन । तपश्चरण काल-एक वर्ष । केवल शान तिथि Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० जमोकार व पौष शुक्ल १५ । केवल ज्ञान समय–अपरान्ह काल । केवल ज्ञान स्थान-मनोहर वन । समवशरण का प्रमाण-पाँच योजन । गणधर संख्या...४३ । मुरुगणधर का नाम-प्ररिष्ट । वादियों की संख्या२८००। चौदह पूर्व के पाठी-नौ सौ । प्राचारांग सूत्र के पाठी शिष्य मुनि-४०७०० । अवधिमानी मुनियों की संख्या--३६०० । केवल शानियों की संख्पा-४५०० । विक्रियाऋद्धि धारी-मुनियों की संख्या -७००० । मनःपर्ययज्ञानी मुनियों की संख्या - ४५०० । वादित्र ऋद्धिधारी मुनियों संख्या२८० । समस्त मुनियों की संख्या-६४००० । प्राधिकानों की संख्या-६२४००० । मुख्य प्रापिका का नाम-मार्य शिवा। श्रावकों की संख्या-दो लाख । श्राविकाओं को संख्या-चार लाख । समवशरण काल-एक वर्षे कम २५०००० वर्ष । मोक्ष जाने के चौदह दिन पहले समवशरण विघटा। निर्वाग तिथि-ज्येष्ठ शुक्ल ४ । निर्वाण नक्षत्र-पुष्य । मोक्ष जाने का समय-रात्रि । मोक्ष जाने के समय का आसन-कायोत्सर्ग । मोक्ष स्थान-सम्मेद शिखर (सुदत्तवर कूट)। भगवान के मुक्ति गमन के समय नौ सौ पाठ मुनि साथ मोक्ष गए । समवशरण से समस्त ४६७०० मुनि मोक्ष गए। इनके तीयं में बत्तीस केवली हुए पश्चात् पाव पल्य पर्यन्त चतुर्विध संघ का होने से धर्म का विच्छेद रहा। जब श्री शान्तिनाथ भगवान ने जन्म लिया तब पुनः धर्म का प्रचार हुमा। प्रति श्री धर्मनाथ तीर्थकरस्य विवरणम् । प्रय श्री षान्तिनाय तीयंकरस्य विवरण प्रारम्भः:__ श्री धर्मनाथ भगवान के निर्वाण होने के मनन्त र तीन सागर के बाद श्री शान्तिनाथ भगवान ने जन्म लिया। इनका पहला भव-सर्वार्थ सिद्धि 1 जन्मस्थान-हस्तिनापुर । पिता का नाम-श्री विश्वसेन । माता का नाथ - ऐरादेवी 1 वंश-कुरु । गर्भ तिथि-भाद्रपद कृष्ण ७ । जन्म तिथि-ज्येष्ठ कृष्ण धौदश । जन्म नक्षत्र-भरणी । शरीर का वर्ण-सुवर्णसम । चिन्ह-मृग । शरीर प्रमाण-४० धनुष । प्रायु प्रमाण-एक लाख वर्षे । कुमार काल-पच्चीस हजार वर्ष । राज्य :-५०००० हजार वर्षे । पाणिग्रहण किया। इनके समकालीन प्रधान राजा का नाम-पुरुषदत्त । दीक्षा तिषि-ज्येष्ठ कृष्ण चौदश । भगवान के तप कल्याणक के गमन के समय की पालकी का नाम-सिद्धार्या । भगवान के साथ वीक्षा लेने वाले राजानों की संख्या-१००० । दीक्षा वृक्ष -मंदिवृक्ष | तपोवन-सहस्रावन (हस्तिनापुर)। वैराग्य का कारण-उल्कापात होते देखना । वीक्षा समय -अपरान्ह । दीक्षा लेने से एक बेला पश्चात् प्रथम पारणा किया । नाम नगर जहाँ प्रथम पारणा किया-सोमनसपुर (पम खंड) प्रथम प्राहार दाता का ना--धर्ममित्र । तपश्चरण काल-एक वर्ष । केवल ज्ञान तिपिपौष शुक्ल १०। केवलमान समय-अपरान्ह काल । केवलशान स्थान-मनोहर वन । समवशरण का प्रमाण-साढ़े चार योजन । गणधर संख्या-छत्तीस । मुख्य गणधर का माम-पक्रायुध । वारियों की संख्या-२४००। चौदह पूर्व के पाठी-८०० । माचारोगसूत्र के पाठी शिष्य मुनि-४८८०० । प्रवषिशानी मुनियों की संख्या-३००० । केवलशानियों की संख्या-४००० । विक्रियाऋडि धारी मुनियों की Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गमोकार मंच ६०००। मनः पर्ययज्ञानी मुनियों की संख्या-६२००० । पायिकाओं को संख्या-६०३०० । मुख्य मायिका का नाम--शुधि । श्रायकों की संख्या-दो लाख । श्राविकाओं को संख्या-दो लाख। श्राविकानों की संख्या-४०००००। समवशरण काल एक वर्ष कम २५००० वर्ष ; मोक्ष गमन से चौदह दिन पहले समवशरण विषटा । निर्वाण तिषि-ज्येष्ठ कृष्ण चौदश । निर्वाण नक्षत्र-भरणी । मोक्ष जाने का समय-रात्रि । मोक्ष जाने के समय का मासन-कायोत्सर्ग । मोक्ष स्थान-सम्मेद शिखर(शान्तिप्रद) । भगवान के मुक्ति गमन के समय नौ सौ मुनि मोक्ष गए । समवशरण से समस्त ४८४०० मुनि मोक्ष गए। इति श्री शान्तिनाथ तीर्थकरम्प विवरणम् । अथ श्रीकुथुनाथ तीर्थकरस्य विवरण प्रारम्भ : - श्री शान्तिनाथ भगवान के निर्वाण होने के प्रनन्तर प्राधा पल्य व्यतीत होने के बाद श्री कंथुनाथ भगवान ने सर्वार्थ सिद्धि से चयकर इस पावन भारत वर्ष के हस्तिनापुर नामक नगर में जन्म लेकर असंख्य जीवों को संसार सागर से पार किया। पिता का नाम - सूर्यप्रभ । माता का नामश्रीमती देवी । वंश -कुरु । गर्भ तिथि-श्रावण कृष्ण दशमी । जन्म तिथि-वैशाख शुक्ल एकम् । जन्म नक्षत्र-कृतिका। चिन्ह-बकरा। शरीर प्रमाण-पतीस धनुष । आयु प्रमाण-६५ हजार वर्ष । कुमार काल-२३७५० बर्ष । राज्य काल-४७५० वर्ष । पाणिग्रहण किया। ___ समकालीन प्रधान राजा का नाम -- कुनलराय । दीक्षा तिथि –वैशाख शुक्ल एकम। भगवान के तप कल्याणक के गमन के समय की पालकी का नाम-विजया। भगवान के साथ दीक्षा लेने वाले रामानों की संख्या-१०००। दीक्षा वृक्ष-तिलक वृक्ष । तपोवन-सहस्त्राभवन (हस्तिनापुर)। वैराग्य का कार :-उल्का दीक्षा समय-प्रपरान्ह । दीक्षा लेने के एक बेला पश्चात् प्रथम पारणा किया नाम नगर जहाँ प्रथम पारणा किया। मंदरपुर (श्वेतपुर)। प्रथम पाहार दाता का नाम-अपराजित । तपश्चरण काल-सोलह वर्ष । केवल ज्ञान तिथि-चैत्र शुक्ल ३ । केवल शान समय–अपरान्ह काल । केवल ज्ञान स्थान-मनोहर वन। समवशरण का प्रमाण--चार योजन । गणघर संख्या-पैंतीस । मुख्य गणधर का नाम-स्वयंभू । वादियों की संख्या-२०००। पौदह पूर्व के पाठी-सात सौ । प्राचारांग सूत्र के पाठी शिष्य मुनि .. ४३१५० । अवधि ज्ञानी मुनियों की संख्या-२५०० । केवल ज्ञानियों की संख्या-३२०० । विक्रिया विधारी मनियों की संख्या-११०० । मनः पर्यय ज्ञानी मुनियों की संख्या-६००० । प्रायिकाओं की संख्या-६०३५० । मुख्य मायिका का नाम-दामिनि । श्रावकों की संख्या एक लाख । श्राविकामों की संख्या-तीन लाख । समवशरण काल-२३७३४ वर्ष । मोक्ष गमन से तीस दिन पहले समवशरण विघटा। निर्वाण तिथि-वैशाख शुक्ल १ । निर्वाण नक्षत्र--कृतिका । मोक्ष जाने का समय-रात्रि । मोक्ष गमन के समय का प्रासन-कायोत्सर्ग । मोक्ष स्थान-सम्मेद शिखर (शानधर कूट) । भगवान के मुक्ति गमन के समय ४६८०० मुनि मोक्ष गए। समवशरण से समस्त १००० मुनि मोक्ष गए। इनके तीर्थ में चौबीस केवली इति श्री कुंपुनाथ तीर्षकरस्य विवरणम् । Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२ णमोकार च अथ श्री अरहनाथ तीर्थकरस्य विवरणम् :श्री कुथनाथ भगवान के निर्वाण होने के अनन्तर हजार कोटि वर्ष कम पावपल्य व्यतीत होने के बाद श्री अरहनाथ भगवान ने अपराजित विमान से चय कर से इस वसुधा मंडल को मंडित किया । इनका जन्म स्थान --हस्तिनापुर । पिता का नाम-श्री सुदर्शन । माता का नाम --सुमित्रा देवी । वंश-कुरु । गर्भ तिथि-फाल्गुन शुक्ल तीज । जन्म तिथि–मार्गशीर्ष शुक्ल चौदा । जन्म नक्षत्ररोहिणी । शरीर का वर्ण-सुवर्णसम। चिन्ह मस्थ । शरीर प्रमाण-तीस धनुष । प्रायु प्रमाण - चौरासी हजार वर्ष । कुमार काल ..इक्कीस हजार वर्ष । राज्यकाल -बयालीस हजार वर्ष । पणिग्रहण किया । इनके समकालीन प्रधान राजा का नाम-गोविन्द राय । दीक्षा तिथि-मार्गशीर्ष शुक्ल दशमी। भगवान के तप कल्याणक के गमन के समय की पालकी का नाम-वैजयन्ती । भगान के साथ दीक्षा लेने वाले राजानों की संख्या---१००० 1 दीक्षा वृक्ष प्राप्रवक्ष। तपोवन -सहस्त्रानान (हस्तिनापर)। वैराग्य का कारण - उल्का पात होते देखना । दीक्षा समय-अपरान्ह । दीक्षा लेने के एक बेला पश्चात् प्रथम पारणा किया। नाम नगर जहाँ प्रथम पारणा किया -हस्तिनापुर । प्रथम आहार दाता का नामनंद सेन । तपश्चरण काल-ग्यारह वर्ष । केवलज्ञान तिथि- कार्तिक शुक्ल १२। केवल ज्ञान समय -- अपरान्ह काल । केवलज्ञान स्थान-मनोहर वन । समवशरण का प्रमाण–साढ़े तीन योजन । गणधर संख्या-तीस । मुख्य गणधर का नाम-कथनाथ । वादियों की संख्या - सोलह सौ। चौदह पूर्व के पराठी -छ: सौ दस | आचारांग सूत्र के पाठी शिष्य मुनि--३५८३५ । अवधि ज्ञानी मुनियों की संख्या२८०० । केवल ज्ञानियों की संख्या -२८०० । विक्रिया--ऋद्धि धारी मुनियों की संख्या -- ४३००। मनः पर्यय ज्ञानी मुनियों की संख्या-२५५११ वादिव ऋद्धि धारी मुनियों की संख्या--सोलह सौ-। समस्त मनियों की संख्या--पन्नास हजार । प्रायिकाओं की संख्या-६००००। मख्य आर्यिका का नाम रक्षिता श्रावकों की संख्या एक लाख । श्राविकारों की संख्या-तीन लाख । समवशरपा काल-२०६८९ वर्ष । मोक्ष गमन से एक मास पहले समवशरण विघटा। निर्वाण तिथि-चैत्र शुक्ल ११। निर्वाण नक्षत्र ~~ रोहिणी । मोक्ष जाने का समय -अरुणोदय । मोक्ष गमन के समय का पासन-कायोत्सर्ग। मोक्ष स्थान -सम्मेद शिखर (नाटक कूट) । भगवान के मुक्ति गमन के समय-२७२०० मुनि साथ मोक्ष गए। समवशरण से समस्त एक हजार मुनि मोक्ष गए । पश्चात् इनके तीर्थ में सोलह केवली हुए। इति थी अरहनाथ तीर्थंकरस्य विवरणम् । अथ श्री मल्लिनाथ तीर्थकरस्य विवरण प्रारम्भः--- श्री अरहनाथ भगवान के निर्वाण होने के अनन्तर एक कोटि वर्ष व्यतीत होने के बाद मदन विजयी जिनेन्द्र चन्द्र श्री मल्लिनाथ भगवान ने अपराजिन विमान से चयकर अपने जन्म से इस भमंडल को परम पवित्र किया। इनका जन्म स्थान-मिथिलापुरी। पिता का नाम-श्री कुभराय । माता का नाम रक्षिता देवी। वंश-कुरु । गर्भ तिथि- चैत्र सुदी १। जन्मतिषि-मार्गशीप शक्ल ११॥ जन्म नक्षत्र-अश्वनी । शरीर का वर्ण-सुवर्णसम। चिन्ह -- कलश । शरीर प्रमाण-पच्चोस धनुष । आयु प्रमाण-पचपन हजार वर्ष । कुमार काल-दस हजार वर्ष । राज्यकाल-३६५०० वर्ष 1 पाणिग्रहण नहीं किया । इनके समकालीन प्रधान राजा का नाम-सुलूमाराय । दीक्षातिथि - अगह्न शुक्ल ११ । भगवान के साथ दीक्षा लेने वाले राजाओं की संख्पा-६०६। दीक्षावक्ष-अशोक वृक्ष । तपोवनसहस्त्राप्रवन (मिथिलापुरी) । वैराग्य का कारण-उल्कापात होते देखना। दीक्षा समय -अपरान्ह। । Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार पंथ २८३ दीक्षा लेने के एक बेला पश्चात् प्रथा पारणा किया ! नाम नगर जहाँ प्रथम पारणा किया-चऋपुर । प्रथम पाहार दाता का नाम-प्रषभदत्त । तपश्चरण काल--सोलह वर्ष । केबल ज्ञान तिथि- पौष कृष्णा २। केवलज्ञान समय---प्रातः काल । केवलज्ञान स्थान-मनोहर वन । समवशरण प्रमाण--तीन योजन । गणधर संख्या - २८ । मुख्य गणधर का नाम-विशाखाचार्य । वादियों की संख्या - १४०० । चौदह पूर्व के पाठी-५५० । प्राचारांग सूत्र के पाठी शिष्य मुनि-२६०००। अवधिज्ञानो मुनियों की संख्या---२२०० । केवल ज्ञानियों की संख्या--२०६५० । विक्रिया-ऋद्धिधारी मुनियों की संख्या-- १४००। मनःपर्यय ज्ञानी मुनियों की संख्या-१७५० । वादित्र सद्धिधारी मुनियों की संख्या-१२००। समस्त मुनियों की संस्था-४००००। आर्यिकानों की संख्या-५५००० । मुख्य प्रायिका का नामबन्धमती। श्रावकों की संख्या-एकलाख । श्राविकाओं की संख्या-तीन लाख । समवशरण काल१६६८४ वर्ष । मोक्ष जाने से तीस दिन पहले समवशरण विघटा । निर्वाण तिथि - फाल्गुन शुक्ल पंचमी। निर्वाण नक्षत्र-प्रश्वनी । मोक्ष जाने का समय-रात्रि मोक्ष जाने का स्थान-सम्मेद शिखर (शांकलम ट। भगवान के मुक्ति गमन के समय-२८८०० मुनि साथ मोक्ष गए। समवसरण से समस्त पांच सौ मुनि मोक्ष गए। इति श्री मल्लिनाथ तीर्थंकरस्य विवरण समाप्तम् ॥ अथ श्री मुनिसुव्रतनाथ तीर्थकरम्य विवरणम् : - श्री मल्लिनाथ भगवान के निर्वाण होने के अनन्तर चौवन लाख वर्ष व्यतीत होने के बाद प्रानन्द कंद जिनेन्द्र चन्द्र श्री मुनिसुव्रत भगयान ने आणत नामक चौदहवें स्वर्ग से चयकर अपने जन्म से इस अवनि मंडल को विभूषित किया । इनका जन्म स्थान-राजग्रही। पिता का नाम-धी सुभित्रनाथ । माता का नाम-पदमवतीदेवी । वंश-हरि । गर्भ तिथि · श्रावण कृष्ण २१ जन्म तिथिवैशाख कृष्ण १० शरीर का वर्ण-श्याम 1 जन्म नक्षत्र--श्रवण चिन्ह-कन्छ । शरीर! घनष । प्राय प्रमाण-जीस हजार वर्ष । कुमार काल-साढे सात हजार वर्ष । राज्य काल-१५००० वर्ष। पाणिग्रहण किया। इनके समकालीन प्रधान राजा का नाम-अजितराय । दीक्षा तिथि-वैशाख कृष्ण १०॥ भगवान के तप कल्याणक के गमन के समय की पालकी का नाम-अपराजिता। भगवान के साथ दीक्षा लेने वाले राजाओं की संख्या-१०००1 दीक्षा वृक्ष-चम्पावृक्ष | तपोवन-नीलगुफा (कुशाग्रपुर)। वैराग्य का कारण-उल्कापात होते हुए देखना । दीक्षा समय--अपरान्ह । दीक्षा लेने से एक बेला करने के पश्चात् प्रथम पारणा किया । नाम नगर जहां प्रथम पारणा किया-मिथिलापुर । प्रथम पाहार दाता का नामराजादत्त । तपश्चरण काल-यार केवलज्ञान तिथि-वैशाख कृष्ण नवमी। केवलज्ञान समय-अपरान्ह काल । केवल मान स्थान-मनोहर वन । समवशरण का प्रमाण–ढ़ाई योजन । गणधर संख्या-अठारह । मुख्य गणधर का नाम-मल्लिनाथ । बादियों की संख्या-१२०० । सौदह पूर्व के पाटी-पाँच सौ। प्राचारांग सत्र के पाठी शिष्य मुनि-२१००० । अवधिज्ञानी मुनियों की संख्या--प्राठ सौ । केवलशानियों की संख्या-१८०० । विक्रिया ऋशि धारी मुनियों की संख्या--२२००। मनःपर्ययज्ञानी मुनियों की संख्या-१५००। वादित्रऋद्धिधारी मुनियों की संख्या-१२००। समस्त मुनियों की संख्या-३००००। मायिकाओं की संख्या५००००। मुख्य प्रायिका का नाम-पुष्पमती। श्रावकों की संख्या एक लाख । श्राविकाओं की संख्यातीन लाख । समवशरण काल-२४८६ वर्ष । मोक्ष गमन से तीस दिन पहले समवशरण विघटा। निर्वाण व . Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार ग्रंथ तिथि - फाल्गुन कृष्ण १२ । निर्वाण नक्षण - श्रवण । मोक्ष जाने का समय-रात्रि । मोक्ष जाने के समय का आसन - कायोत्सर्ग मोक्ष स्थान- सम्मेद शिखर (निर्जरा कूट ) । भगवान के मुक्ति गमन के समय १६२०० मुनि मोक्ष गए। समवशरण से समस्त एक हजार मुनि मोक्ष गए। इनके तीर्थ में बारह केवली हुए । REY इति श्री मुनिसुव्रतनाथ तीर्थंकरस्य विवरणम् । अथ श्री नमिनाथ तीर्थंकरस्य विवरणम् : :— श्री मुनिसुव्रतनाथ भवगान के निर्वाण होने के अनन्तर छह लाख वर्ष व्यतीत होने के बाद श्रानन्दकन्द भव्य जन तारक श्री नमिनाथ भगवान ने अपराजित विमान से चयकर अपने जन्म से भारतवर्ष को परम किया। इसका जन्म स्थान - मिथलापुरी । पिता का नाम - श्री विजयरथ । माता का नाम-प्रा देवी । वंश - इक्ष्वाकु । गर्भ तिथि - श्राश्विन कृष्ण २॥ जन्म तिथि-भाषाढ़ कृष्ण १० । शरीर का वर्ण - सुवर्ण सम । चिन्ह-नील कमल शरीर प्रमाण- पन्द्रह धनुष । आयु प्रमाण-दस हजार वर्ष । कुमार काल --- पच्चीस सौ वर्ष राज्य काल-क हजार वर्ष । पाणिग्रहण किया। समकालीन प्रधान राजा का नाम-विजयराम । दीक्षा तिथि-आषाढ़ कृष्ण १०। भगवान के तच कल्याणक के गमन के समय की पालकी नाम - उत्तरकुरु । भगवान के साथ दीक्षा लेने वाले राजाओं की संख्या - १००० दीक्षा वृक्ष -- मौलसिरी । तपोवन सहस्त्र भ्रवन ( मिथलापुर ) । वैराग्य का कारण उल्कापात होते देखना । दीक्षा समय- अपरान्ह । दीक्षा लेने से एक बेला करने के पश्चात् प्रथम पारणा किया। नाम नगर जहाँ प्रथम पारणा किया -- राजाग्रही ( महीपुर ) । प्रथम श्राहार दाता का नाम सुनयदत्त । तपश्चरण काल -- नौ मास । केवलज्ञान तिथि - माघ शुक्ल ११। केवलज्ञान समय प्रपरान्ह काल | केवलज्ञान स्थान --मनोहर वन । समवशरण प्रमाण -- दा योजन। गणधर संख्या -- सत्रह । मुख्य गणधर का नाम -- सोमनाथ । वादियों की संख्या - १००० चौदह पूर्व के पाठी-सत सौ पचास । श्राचारांग सूत्र के पाठी शिष्य मुनि-- १२६००२ अवधिज्ञानी मुनियों की संख्या - १६०० । केवल ज्ञानियों की संख्या १६०० । विक्रिया द्विधारी मुनियों की संख्या - १५०० | मन:पर्यय ज्ञानी मुनियों की संख्या - १२५०३ वादिश्रऋद्विधारी मुनियों की संख्या - १०००। समस्त मुनियों की संख्या - २०००० । प्रायिकाओं की संख्या - ४५००० । मुख्य प्राथिका का नाम - प्रतिसा । श्रावकों की संख्या एक लाख । श्राविकामों की संख्या - तीन लाख ! समवशरण काल -- नव मास कम पच्चीस सौ वर्ष । मोक्ष गमन से तीस दिन पहले समवशरण विष्टा । निर्वाण तिथि--- वैशाख कृष्ण चौदश । निर्वाण नक्षत्र - प्रश्वनौ । मोक्ष जाने के समय का श्रासन — कायोत्सर्ग । मोक्ष स्थान - सम्मेदशिखर ( मित्रधर कूट) । भगवान के मुक्ति गमन के समय नौ हजार छह सौ मुनि साथ मोक्ष गए। समवशरण से समस्त १००० मुनि मोक्ष गए पश्चात् इनके तीर्थ में पाठ केवली हुए । इति श्री नेमिनाथ तीर्थंकरस्य विवरणम् । प्रथ श्री नेमिनाथ तीर्थकरस्य विवरणम् : श्री नेमिनाथ भगवान के निर्माण होने के अनन्तर पांच लाख वर्ष व्यतीत होने के बाद श्रानन्द नेमिनाय भगवान ने प्रपराजित विमान से चयकर अपने जन्म से कम्ब जितेन्द्र चंद्र मदन विजयी श्री वसुधा मंडल को मंडित किया । ♪ : Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | | २०५ णमोकार ग्रंथ ur श्री नेमिनाथ तीर्थंकरस्य विशेषाख्यानम् : । - — यदुव' शोद्भव समुद्र विजय नामक यदुबशियों में प्रधान राजा थे। उनकी प्रधान महारानी का नाम शिवादेवी था। इन्हें धर्म से बड़ा प्रेम था। दोनों ति बड़े हंसमुख और प्रसन्न रहते थे सुख की इन्हें चाह न थी । पर सुख ही इनका अनुचर बन रहा था। इस प्रकार सुख पूर्वक समय व्यतीत होने पर एक दिन सती शिवादेवी ने अपने शयनागार में आनन्द शयन करते हुए जिनेन्द्र के अवतार के सूचक रात्रि के पश्चिम पहर में गजराज, वृषभ, केशरी प्रादि सोलह पदार्थ स्वप्न में देखे ! पश्चात् अपने मुख में प्रवेश करते हुए हाथी को देखा । इन्हें देखकर वह जाग उठी । प्रातः काल होते ही वह अपने स्वामी के पास गयी और उन्हें रात्रि में देखे हुए स्वप्नों का व तांत ज्यों का त्यों कह सुनाया । सुनकर महाराज समुद्रविजय उसके फल के सम्बन्ध में कहने लगे कि 'प्रिये ! स्वप्न तुमने बड़े ही सुन्दर और उत्तम देखे हैं। इनके देखने से सूचित होता है कि भव्य जीव रूपी कमल वन को प्रफुल्लित करने वाले तीर्थंकर तुम्हारे गर्भ में अवतार लेंगे। जिसकी आशा का सन्मान देवता तक करते हैं। अपने पतिदेव द्वारा स्वप्न का फल सुनकर शिवादेवी को अत्यन्त प्रसन्नता हुई। सच है, पुत्र प्राप्ति से किसे प्रसन्नता नहीं होती। कुछ दिनों पश्चात् त्रिलोक पूज्य गर्भ की दिनोंदिन व द्धि होने लगी। जिनके प्रभाव से जन्म होने के छह महीने पहले ही से प्रतिदिन देवता त्रिकाल रत्त वर्षा करते थे। गर्भ पूर्ण दिनों का हुआ | श्रावण मास शुक्ल पक्ष में छठ के दिन शुभ मुहूर्त में चित्रा नक्षत्र का योग होने पर सौभाग्यती शिवादेवी ने शुभ लक्षण संयुक्त श्याम वरण सुन्दर पुत्र रत्न को जन्म दिया। पुत्र के उत्पन्न होते हो नगर भर में प्रान्नदोत्सव होने लगा। उधर सौधर्मेन्द्र अवधि ज्ञान से भारत वर्ष में तीर्थराज का अवतार हुआ जानकर उसी समय ऐरावत गजराज पर श्रारूढ़ हो अपनी इन्द्राणी और देवों सहित बड़े महोत्सव के साथ द्वारिकापुरी में माया और सभक्ति नगरी की तीन प्रदक्षिणा की। उसके बाद अपनी प्रिया को भगवान को लाने के लिए राज महल में भेजा । इन्द्राणी प्रसूति गृह में गयी और वहाँ अपनी दिव्य शक्ति से ठीक वैसा ही मायावी बालक रखकर श्री नेमिनाथ को उठा लाई । लाकर उस सुन्दर और तेज पुंज बालक को अपने प्राणप्रिय को सौंप दिया । इन्द्र उन्हें ऐरावत हाथी पर बैठाकर बड़े समारोह के साथ सुमेरु पर्वत पर ले गया। पांडुक वन में ले जाकर पांडुक वन की ईशान दिशा में स्थित अर्द्ध चन्द्रमा के प्राकार से अनेक तीर्थकरों के जन्मभिषेक से पावन कलधौत वर्ण की धारक पूर्वपश्चिम में सौ योजन लम्बी, दक्षिणोत्तर पचास योजन चौड़ी और आठ योजन प्रमाण ऊंची पांडुक नामक शिला पर स्थित रत्न जडित स्वर्णमय सिहासन के ऊपर पद्मासन युक्त पूर्व मुख श्रानन्द कंद जिनेन्द्र चन्द्र श्री नेमिनाथ भगवान की स्थापना कर क्षीर समुद्र के स्फटिक से भी उज्जवल और निर्मल जल से इनका अभिषेक किया । क्षीराभिषेक हो चुकने के पश्चात् केशर चन्दनादि सुगन्धित वस्तुनों का विलेपन कर स्वर्गीय वस्त्राभूषणों से भगवान को विभूषित किया। उत्तम से उत्तम द्रव्यों से उनकी पूजा की। अन्त में उन्होंने भगवान् के गुणों का निर्मल पवित्र भावों से बहुत काल पर्यन्त गायन किया और पीछे वह उन्हें ऐरावत गजराज पर बैठाकर द्वारकापुरी में वापस ले आया । तथा अपनी प्रिया के द्वारा भगवान् को शिवादेबी के निकट पहुंचा दिया । जब शिवादेवी की निन्द्रा खुली और पुत्र को दिव्य वस्त्राभूषणों से विभूषित देखा तो उसे बड़ा विस्मय हुआ और साथ ही परमानन्द भी हुआ। इसके पश्चात् इन्द्र, भगवान् की पवित्र भक्ति में निमग्न हुआ इस मंगलमय समय में तांडव नृत्य करने लगा और भगवान के मातापिता के गुणों का गायन किया। तदनंतर भगवान और उनके माता-पिता के चरणारविंदों को बारम्बार Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ णमोकार ग्रंथ चले जाने के भक्ति से नमस्कार करके देव देवांगनाओं सहित अपने स्थान पर चला गया। इन्द्र के पश्चात् समुद्रविजय ने भी बहुत उत्सव किया और दान दिया। पूजा प्रभावना की । बन्धु बान्धवों को परम आनन्द हुआ | भगवान शुक्ल द्वितीया के चन्द्रमा की तरह दिनोंदिन बढ़ने लगे । सुन्दरता में भी कामदेव को जीतते थे। इनके बल के सम्बन्ध में तो कहना ही क्या था। जबकि वह चरम शरीर के धारी इसी भव में मोक्ष जाने वाले हैं। भगवान नेमिनाथ के द्वारा भेजे हुए दिव्य वस्त्राभूषणों का उपयोग करते तथा अपनी समान बय वाले देवकुमारों के साथ माता-पिता के नेत्रों को प्रानन्द देने वाली बालकोड़ा करते हुए दिनोंदिन बढ़ने लगे । तथाप्युक्तं नेमिनाथ पुरणे तीन जगत करि पूज्य नेमि सुख से तिष्ठते, देव इन्द्र सब सुरी युक्त प्रानश्वयते । स्वर्ग विषै उत्पन्न वस्त्रभूषण नित लाकर, महा भक्तिन ला सेव कर हैं निसवासर ॥ तीन काल किंकर भये, प्रीति सहित सेवंत । षट् ऋतु के जो सुख नये, ताकरि हर्ष करत ॥ १ ॥ रत्नन के प्रांगन विषे, देव कुमारन संग | नाना विधि क्रीड़ा करत, सुख से नाथ अभंग ॥२॥ यो कोड़ा जगचित्त को, दायक आनन्द भौत । जो दंपति को मानन्द भयो, ताकी वरने कौन ॥३॥ जिस समय समुद्र विजय र वसुदेव श्रादि मथुरा में रहते थे उस समय श्री कृष्ण ने अपने मामा कसराज को मार कर अपने नाना उग्रसेन को बन्दी गृह से छुड़ा दिया था। कंसराज का श्वसुर जरासिंध उस समय एक बड़ा भारी प्रतापी राजा था। उसे अपने जामाता की मृत्यु का संवाद सुनकर बड़ा क्रोध आया । वह उसी समय बड़ी भारी सेना लेकर यादवों से युद्ध करने के लिए चल पड़ा । यदुवंशियों ने जब यह खबर सुनी कि जरासिंध विपुल सेना लेकर चढ़ा पा रहा है तब ये बहुत घबराए । सब मिलकर विचार करने लगे कि जरासिंध से युद्ध करना उचित नहीं है क्योंकि हमारे में इतनी शक्ति नहीं है जो जरासिंध से सामना कर सकें। इसलिए ये दूसरा कोई उपाय न देखकर वहां से चल दिए और सौराष्ट्र देश के समीप द्वारिका में अपना उपनिवेश स्थापित करके रहने लगे । लिखा है कि द्वारिका की रचना जिन भगवान की भक्ति और श्री कृष्ण के वहां आने से इन्द्र की आज्ञा से देवों ने की थी। नैमिकुमार का जन्म द्वारिका में हुआ। श्री कृष्ण नेमिकुमार के चचेरे भाई थे तथा नेमिकुमार से भवस्था में बड़े थे । कुछ समय में कृष्ण एक प्रतापी राजा हो गए । तथा द्वारिका को अपनी राजधानी बना कर निष्कंटक राज्य करने लगे। श्री कृष्ण का सत्यभाका आदि सोलह हजार राजकुमारियों से विवाह हुमा । इनके साथ श्री कृष्ण के दिन बहुत ही सुख पूर्वक बीतते थे । अथान्तर शीत ऋतु व्यतीत होने पर बसन्त ऋतु का ग्रागमन हुआ । सरोबरों का जल स्वच्छ हुआ | कमल विकसित हुए। सरोवरों की शोभा बढ़ने लगी । प्राम्र के वृक्षों पर प्यारे भरे मा गए । कोकिलामों की सुन्दर कंठध्वनि होने लगी। ऐसे सुखपूर्ण दिनों में श्रीकृष्ण प्रपने अंतःपुर सहित वन . Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गमोकार प्रेष २८७ क्रीड़ा करने को गए और श्री नेमिनाथ को भी साथ ले गए । वन में श्री कृष्ण के सेवकों ने पहले ही पहुँच कर केशर और चन्दनादि उत्तम-उत्तम सुगन्धित वस्तुओं से छोटी-छोटी बावड़ी भर दी थी और सुगन्धित वृक्षों के पराग से मिली हुई मुलाल भी बहुतसी पहुंचा दी गई थी। चारों तरफ उसम-उत्तम सुगन्धित पुष्पों की बाड़ियां लगी हुई थी। जिनके देखते ही स्त्री पुरुषों के चित्त में प्रानन्द की लहरे उठने लगती थी। श्री कृष्ण नेमिनाथ को लिए हुए वहीं पहुंचे और जल ऋड़ा करने लगे। श्री कृष्ण की बहुत सी स्त्रियाँ उनके ऊपर बार-बार जल फेंकने लगी और भी नाना प्रकार से जैसा उन्हें सूझा बे श्री कृष्ण के साथ कौतुक (खेल) करने लगी। श्री कृष्ण भी जैसी-जैसो उनकी उत्कंठा होती थी उसी प्रकार पूर्ण करते करते जाते थे। इसी प्रकार बहुत देर तक खेल खिला कर श्री कृष्ण तो जल के बाहर निकल कर कहीं चले गए । तब कृष्ण के जाते ही उन्होंने नेमिनाथ के साथ खेलना प्रारम्भ किया । वे नाना प्रकार की हंसी करने लगी; केशर डालने लगी, पिचकारियों मारने लगी और विवाह न करने पर बड़े-बड़े ताने मारने लगी । क्रीड़ा समाप्त हो जाने पर सब स्त्रियां जल से बाहर निकली। नेमिनाथ भी बाहर पा गग । अपने गीले वस्त्रों को प्रथक करके सत्यभामा की ओर फेंक कर बोले हमारे वस्त्रों को निचोड़ दो। सत्यभामा यह सुनकर बहुत रुष्ट हुई और बोली--'यह काम प्रपनी स्त्री से करवाइए 1 मुझ से यह नहीं हो सकता। तुम जानते हो-जो सुदर्शन चक्र चला सकता हो, नाग शय्या पर सोने की जिसमें शक्ति हो, जो पांच्यजन्य शंख फूक सकता हो जो सारंम धनुष पर ज्या, चढ़ा सकें बही मुझे प्राज्ञा दे सकता है न कि तुम । इसलिए दूसरों का काम मैं नहीं कर सकती ।' सच है मनुष्य अभिमान के वश होकर योग्य, अयोग्य, हिन, अहित के विचार से शून्य होकर एक पूज्य पुरुष के शासन की अवज्ञा कर डालता है। गीता छन्द :जो जिनेन्द्र नरेन्द्र इन्द्रा करि सदा पूजत सही, हैं जगत के मुरु देव देवन तासु के पद छंद हो। रज शीघ्र बंधन करन ते अघ जाल ताप हरंत हैं, तिनकी करि पाजा अनूपम घो तो शरम करत है। दोहा--- पांछा सेवा को सदा, रखत इम्न मन साय । तिन का कारण पुन्य बिन, निधिवत् कसे पाय ।। अर्थात् जिन प्रानन्द कन्द जिनेन्द्र चन्द्र के प्राज्ञा की इन्द्रादिक देव प्रतीक्षा करते रहते हैं और हाथ जोड़ कर निवेदन करते हैं। पुण्य पुरुष हम आपके दास हैं। हमारे लिए कुछ आमा कोजिए जिससे आज्ञा पालन कर हम अपने जीवन को कृतार्थ करें। ऐसे नेमिनाथ भगवान् के शासन की सत्यभामा में अक्सा की जो ठीक भी है क्योंकि जिन भगवान के आदेश का पालन करने का सौभाग्य भी तो किसी परम प्रकर्ष पुण्योदयी मनुष्य को प्राप्त होता है साधारण को नहीं ।' सत्यभामा के ऐसे उदन्डता से भरे हए वचन सुन कर नेमिनाथ उसी समय वहाँ से चल पड़े और श्री कृष्ण की युद्धशाला में वहां उन्होंने सुदर्शन चक्र को पांव के अंगूठे से घुमाया। नाग शय्या पर शयन किया । धनुष पर ज्या चढ़ाई और पांच्य जन्य शंख भी उन्होंने पूरा दिया। धनुष की टंकार और शंख का नाद होते ही बड़ा भारी कोलाहल मच गया। लोग भयभीत होकर प्रलय काल , को कल्पना करने लगे: श्री कृष्ण एक Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ णमोकार दम घबरा कर बोले क्या कोई दैत्य तो नहीं भा गया। तब उनके किसी सेवक ने श्री कृष्ण से कहा चौपाई... हे स्वामी मुग्धा सतभाम, नहीं जने बुदवारथ नाम । मान तनो पट श्री जिन दियो, ताकी नहीं नीचोरन कियो । और गर्व कर कहती भई, हे कुमार तुम सुनिए सही । धनुष शंख श्रहि शय्या तीन, क्या तुमने साधन कीन ।। जो मैं पोत निचोहू एष, इस विधि वच सुन जिन वर देव । रोकर सिन करते भए, या विच सेवग ने बच गए || सुनते ही श्री कृष्ण उसी समय युद्ध शाला में आए और ऊपर से कुछ हँस कर भाई नेमिनाथ से बोले - विभो ! आप के किंबित क्रोध से बेचारे लोग विह्वल हुए जाते हैं। प्रतएव केवल स्त्रियों के वचनों पर आपको ऐसा करना उचित नहीं जान पड़ता। आप कोध का परित्याग करें। क्योंकि यह उत्तम पुरुषों के लिए आदरणीय नहीं है ।' भगवान् को सन्तुष्ट कर श्री कृष्ण उनसे मिले। और उन्हें साथ ले अपने घर चले गए। नेमिनाथ के इस अनुपम पराक्रम को देखकर श्री कृष्ण मानसिक व्यथा से बहुत दुखी हुए। तदनतर श्री कृष्ण बलदेव के पास पहुंचे और कहा कि 'नेमिनाथ बड़े बलवान हैं । सम्भव है कि कभी भी मेरा राज्य छीन लें । बतलाइए क्या उपाय करना चाहिए। मेस राज्य सुरक्षित रह सके ।' तब बलदेव ने कहा- 'भाई ! वे धर्म शरीर के घारी, जगदगुरु व त्रिलोक पूज्य हैं। उन्हें इस महा अवकारी राज्य संपदा से क्या प्रयोजन । वह तो इसे तुच्छ दृष्टि से देखते हैं। जहां कोई उन्हें हिंसा का कारण दिखाई पड़ेगा तो वे तत्काल संसार से विरक्त हो दीक्षा ले लेंगे ।' बलदेव के इस प्रकार के वचन सुनकर कृष्ण भी उसी तरह के उपाय के बोजना की चिन्ता में लग गए। अन्त में दूसरा कोई उपाय न देखकर उग्रसेन की नगरी में पहुंचे। उग्रसेन से कुशलवार्ता के प्रनन्तर श्री कृष्ण ने नेमिनाथ के साथ राजीमती के विवाह होने की बात छेड़ी। उग्रसेन ने श्री कृष्ण का कहना स्वीकार कर अपनी पुत्री का विवाह नेमिनाथ से करना निश्चित कर दिया। श्री कृष्ण लग्नादि का निश्चय कर आये और जूनागढ़ में जीव वध के विषय की भी गुप्त मंत्रणा कर पाये थे । इतने में वर्षा काल आ गया। उन्हीं दिनों में नेमिनाथ का विवाह सम्बन्धी कार्य प्रारम्भ किया गया। सगे सम्बन्धी जन निमन्त्रण पत्र भेज कर बुलवाए गये। आये हुए पाहनों का भोजनादि से खूब सत्कार किया जाने लगा । थोड़े ही दिनों में नेमिनाथ की बरात खूब सजधज कर बड़े समारोह और वैभव के साथ जूनागढ़ में पहुंची वहां पर एक संकीर्ण स्थान में मृगादिक अनेक प्रकार के बहुत से पशु बंधे हुए थे और ये वेचारे घोर धापति में फंस कर करुणाजनक शब्द कह रहे थे। उन्हें कप्ट से व्याकुल देखकर नेमिनाथ को बड़ी दया था। तब उन्होंने घपने सारथी से पूछा -- ये पशु क्यों बिलबिला रहे हैं और क्यों इकट्ठ किए गये हैं।' सारथी ने उत्तर में निवेदन किया- महाराज ! आपके विवाह में जो मांसाहारी राजा पाहुने आये हैं उनके भोजन के लिए इनका बघ किया जाएगा। इसी प्रयोजन से एकत्रित करके ये यहां बाघ गए हैं । E Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गर्माकार पंप २ सारथी के यह वचन सुनकर प्रनाथ पशुयों के ऊपर इसप्रकार का प्रत्याचार होने की बातों से भगवान के हृदय पर बढ़ी चोट लगी। वे उसी समय लोगों के देखते-देखते रथ को लौटा ले गए। रप के लौटाते ही लोगों में हाहाकार मच गया। लोगों ने भगवान् को रोवाने का बहुत कुछ उपाय किया परन्तु वे किसी तरह से न रुके। लोगों ने वापस लौटने का कारण पूछा तो भगवान् बोले कि 'एक मेरे सुख के लिए इन हजारों जीवों का घात किया जाएगा। धिक्कार है ऐसे सुख को । मुझे ऐसा सुख नहीं चाहिए। मैं मपने इस इन्द्रिय जनित सुखाभास सुख पर लात मारता हूं मोर उस मार्ग को प्रहण करता हूं जिस पर चलकर में ऐसे प्रगणित जीवों के दुःख निवारण का प्रयत्न कर सकूँ और प्रनादि काल से पीछा किए हुए इन मारम शत्रुमों का विध्वंस कर निबन्ध अवस्था को प्राप्त होकर निराकुलित. स्वाधीन, बचनातीत, अनन्तताल स्थाई, निजात्मीक सच्चा सुख लाभ कर सङ्कं ।' इस प्रकार लोगों के प्रति प्रत्युतर देकर वे सरकाल ही रथ से उतर पड़े और विवाह का सारा श्रृंगार शरीर पर से उतार कर अपने बंध जनों से विषय भोगों से, परिजनों से और साथ ही उग्रसेन महाराज को राजकुमारी राजीमती से सम्बन्ध छोड़ कर वहां से चल दिए पोर जूनागढ़ के निकटस्थ नाना प्रकार के छायादार वृक्षों से सुशोभित गिरनार पर्वत पर जा पहुंचे। उस समय लोकांतिक देव भी प्रवधिज्ञान से भगवान् का दीक्षा समय जानकर तरकाल वहाँ पाए तथा भगवान् को सक्ति नमस्कार करने के मनम्तर उनके वैराग्य की प्रशंसा कर अपना वियोग पूरा करके निज स्थान पर चले गए। इनके चले जाने के पश्चात् । तब ही सवारिक ममर, खेपरेत करियुक्त । माकर प्रभुके पवन में, जे घोषण उक्त ॥ इन्द्रादिक देव माए और भगवान् को स्वर्णमयी रत्न जड़ित देव कुरु नामक पालकी में बैठाकर उन्हें गिरनार पर्वत के सहस्त्राभ्रवन में लिवा ले गए। भगवान् ने सब वस्त्राभूषणों का परित्याग कर अपने सिर के केशों का लोंच किया 1 केशों को ले जाकर इन्द्र ने समुद्र में क्षेपण किया। पश्चात् भगवान् ने मामाभ्यंतर परिग्रह का त्याग कर मौर सिद्ध भगवान् को नमस्कार कर प्रविनश्वर मोक्ष महल के देने वाली जैनेन्द्री दीक्षा स्वीकार कर ली । दीक्षा लेकर भगवान् दो दिन तक ध्यान में लीन रहे। तमन्तर तीसरे दिन पहीरपुर में धनदस्त सेठ के यहां भगवान् का पारणा हुआ । छप्पन दिन के उपरान्त शुक्ल ध्यान द्वारा कर्मों का नाश कर लोकालोक का प्रकाशक केवल ज्ञान प्राप्त किण । उस दिन प्राश्विन शुल्क प्रतिपदा और प्रातः काल का समय था । केवल ज्ञान होते ही इन्द्र ने माकर गिरनार पर्वत पर बारह कोठों से विभूषित दो योजन प्रमाण समवशरण रना। भगवान् द्वादश सभाओं के मध्य सिंहासन पर चतुरांगुल पन्तरीक्ष विराजे । देवगण उनके ऊपर चमर दुलाने लगे। भगवान् के ग्यारह गणधर हुए । उन सब में मुख्य गणधर का नाम वरदत्त या। समस्त चार प्रकार के संघ की संख्या-८०० । चौवह पुर्व के पाठी-चार सौ । वादियों की संख्या-आठ सौ। प्राचारोग सूत्र के पाठी शिष्य मुनि-याह हजार । प्रवषि ज्ञानी मुनियों की संख्या-पन्द्रह सौ। केवल शानियों की संख्या-पन्द्रह सौ । विक्रयाविधारी मुनियों की संख्या-ग्यारह सौ। मनः पर्यय शानियों की संख्या१००० । वावित्रऋसिधारी मुनियों की संख्या-गा । समस्त मुनियों की संख्या १८००० ! मार्मिकामों की-४००००। मुख्य प्रायिका का नाम-पदिना। श्रावकों की संख्या-१०००० । धाविकामों की Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार ग्रंथ संख्या--तीन लाख । समवशरण काल-५६ दिन कम सात सौ वर्ष । मोक्ष जाने से तीस दिन पहले समवशरण विघटा। निर्वाण तिथि-प्राषाढ़ शुक्ल सप्तमी । निर्वाण नक्षत्र-चित्रा । मोक्ष जाने का समय-रात्रि । मोक्ष जाने के समय का आसन-कायोत्सर्ग। भगवान के साथ नौ हजार छह सौ मुनि मोक्ष गए। मोक्ष स्थान-गिरनार | समवशरण से समस्त पांच सौ छप्पन मुनि मोक्ष गए । इनके तीर्थ में चार केवली प्रौर हुए। इति श्रीद्वाविंशतम नेमिनाथ तीर्थंकरस्य गर्भागमन से मोक्ष गमन पर्यंत विवरण समाप्तः । अथ श्री पार्श्वनाय तीथंकरस्य विवरण प्रारंभः ॥ श्री नेमनाथ भगवान के निर्वाण होने के अनन्तर ८३७५० वर्ष व्यतीत होने पर प्रानन्द कंद श्री पार्श्वनाथ भगवान ने जन्म लिया। अब यहां प्रथम ही भगवान् को ध्यानारूढ़ देखकर संवर नामक ज्योतिषी देव ने अपना शत्रु जानकर जो घोर उपसर्ग किया था उसका कारण सहित संक्षिप्त वृतांत इस प्रकार है: इसी सुप्रसिद्ध और विशाल जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में सुरम्य देश के अन्तर्गत पोदनपुर नामक एक मनोहर नगर था। उस समय वह अपनी श्रेष्ठ सम्पदा और ऐश्वर्य से ऐसा जान पड़ता था, मानो सारे संसार की लक्ष्मी यहाँ आकर एकत्रित हो गई हो। यह सुख देने वाले उपवनों, प्राकृतिक सुन्दर पर्वतों और सरोवरों की शोभा से स्वर्गों के देवों तक का भी मन मुग्ध कर लेता था। यहां के स्त्री पुरुष सुन्दरता में अपनी तुलना में किसी को न देखते थे । यहाँ के सब लोग सुखी थे, भाग्यशाली ये और पुण्यवान थे। जिस समय का यह वर्णन है उस समय उसके राजा परविंद थे 1 अरविंद प्रजा के सच्चे हितैषी नीतिश और बुद्धिमान थे । इनके यहाँ विश्व भूति नाम का विप्रमंत्री था। विश्वभूति की स्त्री का नाम अनुधरी था । अनुधरी के दो पुत्र हुए। उनके नाम कमठ और मरुभूत थे । कमठ तो व्यसनी, कूल को कलंकित करने वाला था। और लघुपूत्र मरुभूत सदाचारी और बुद्धिमान था। इनमें कमठ की स्त्री का नाम वरुणा और मरूभूत की स्त्री का नाम बसुन्धरी था। एक दिन विश्वभूति ने अपने मस्तक में जरा के दूत श्वेत रोम को देखा उसके देखने मात्र से उन्हें वैराग्य हुमा। अपने लघु पुत्र मरूभूत को राजा की सेवा में छोड़कर उन्होंने उसी समय सब मायाजाल छोड मात्म हित का पथ जिन दीक्षा ग्रहण कर ली। राजा अरविंद मरूभूत को सौम्य प्राकृति और प्रालस्य, ईया, मत्सरता श्रादि दुर्गणों से रहित देखकर उससे बहुत प्रसन्न रहते थे। एक समय राजा परविंद ने मंत्री सहित सेना को लेकर राजा बज्रवीर्य के देश पर चढ़ाई की। उनके पोदनपुर से प्रयाण करते ही कमठ की पीछे बन पाई। उसने अपनी इच्छा का दुरुपयोग करना प्रारम्भ किया। व्यभिधार की प्रोर उसकी दृष्टि गई । मरूभूत की स्त्री बसुन्धरो बड़ी खूबसूरत थी। एक दिन उसे वस्त्राभूषणों से सुसज्जित देख लिया । बस फिर क्या था? देखते ही उसका हृदय काम के बाणों से बिंध गया । एक दिन कमठ बन क्रीड़ा के लिए गया हुआ था कि उसके मुख कमल को चिंतातुर देखकर उसके मित्र कलहंस ने दुराग्रह करके चिन्तातुर होने का कारण पूछा। तब उसने लज्जा त्यागकर अपना अभीष्ट कह सुनाया। सुनकर कलहंस ने उसे शिक्षाप्रद वचनों से बहुत कुछ समझाया पर उस चिकने घड़े पर शिक्षा रूपी निर्मल जल कहाँ प्रभाव डाल सकता था? उल्टा उत्तर में कहा : Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार ग्रंथ २९ बोला तब पापी कमल, सुनो मित्र निरधार । जो नहि मिले बसुन्धरी, तो मुझ मरण विचार ।। कलहंस को मित्र के दुराग्रह पर बाधित होकर इस दुष्कृत के अभियोग में कटिबद्ध होना पड़ा। कलहंस बसुन्धरी के पास पहुंचा और कहा-'बसुन्धरे ! आज कमठ बन में व्यथा से पीड़ित हैं अतएव तुम जाकर उसकी खबर लो।' बसुन्धरी उसके हृदयगत क्रपट को न जानकर सरलचित्त से कमठ के पास गई। बस फिर क्या था ? उसने उससे बलात्कार कर अपनी नीच मनोवृत्ति की तृप्ति की। कुछ समय के मनगर जब राजा विजय नामी प्राप्त कर वापिस पाए और जब उन्हें कमठ के इस दुराचा का पता लगा, तो उन्होंने उसे गधे पर चढ़ाकर नगर से निकाल दिया। कमठ अपमान स्वरूप अग्नि से दहा हुमा भूताचल पर्वत पर जहाँ तापसियों का प्राश्रम है, वहाँ गया और उनसे दीक्षा लेकर हाथों पर शिला लिए हुए निविवेक कायक्लेश जप करने लगा। एक समय मरूभूत को जब कमठ का भूताचल शैल पर तप करने का अनुसंधान लगा तो वह मिलने के लिए भाई के पास गया और बोला--'भाई ! मेरा अपराध क्षमा करना मैंने तो राजा को बहुत समझाया था पर महाराज ने मेरा कहना न माना और तुम्हें इतना कष्ट दिया ।' ऐसा कहता हा मरूभूत भाई से क्षमा मांगने को उसके पैरों पर गिर पड़ा। परन्तु उस दुष्कर्मी कमठ ने उसे निदोषी होने पर भी क्षमा करने के बदले अपमान कराने वाला समझकर क्रोधाग्नि से जलते हुए उसके मस्तक पर शिला डाल दी। जिससे वह मूच्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा मौर रुधिर धारा बहने लगी। थोड़े ही समय के अनन्तर अपने प्राण भी विसर्जन कर दिए और सल्लको वन में बजघोष नामक हाथी की पर्याय धारण की। उधर जब तापसियों को कमठ की इस दुष्टता का पता लगा तो उन्होंने उसे अपने प्राश्रम से निकाल दिया। तब बह बहाँ से भी अपमानित होकर भीलों के समुदाय में जा मिला और चोर कर्म करने लगा। एक समय इसी दुष्कृत में पकड़ा गया और उसे अपने कर्तव्य पर्म के फल से मारनपीड़नादि विविध प्रकार के दुःख भोगने पड़े अन्त में दुर्ध्यान से मरण कर उसी सालको वन में कुकुट नामक सर्प हमा । अथानन्तर एक दिन महाराज अरविंद अपने महल पर बैठे हए प्रकृति की सुन्दरता को देख रहे थे कि इतने में उन्होंने एक बड़ा भारी बादल का टुकड़ा गगन मंडल में देखा जो बहुत दूर होने से परम सुन्दर प्रतीत होता था। उसकी मनोहरता पर महाराज अरविंद मुग्ध होकर लेखनी व रंगों को मंगाकर उसी प्रकार चित्र खींचने के प्रभियोगी हुए कि इतने में ही वायु के चलने से बादल छिन्न-भिन्न होकर देखते-देखते न मालूम कहा अन्तहित हो गया। बादलों की इस क्षण नश्वरता का महाराज अरविंद के चित्त पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा। वे विचारने लगे कि जिस प्रकार ये बादल प्रांखों के देखते-देखते नष्ट हो गए उसी प्रकार ये संसार भी तो क्षण भंगुर है । यह पुत्र, पौत्र, स्त्री तथा और बंधुजनों का जितना समुदाय है वह सब दुख का देने वाला है। और यह शरीर भी तो जिससे प्यार करते हैं, वह भी व्याधियों से ग्रसित दुःखमय और देखते-देखते नष्ट होने वाला है। इन्हीं के मोह में फंसकर यह जीव माना प्रकार के दुःखों को भोगता है। जिन उत्तम पुरुषों ने अपनी आत्मा को इस मोह जाल से निकालकर जिन दीक्षा ग्रहण की है वे ही इस दुस्तर संसार समुद्र से पार होकर शिव सुरस के भागने वाले हुए हैं । मैं कितना मूर्ख हूं जो प्रब तक अपने हित को न शोष सका । अतएव प्रब मुझको उचित है कि पुत्र, बंधु तथा धनादि का सम्बन्ध छोड़कर पारम हित का पथ जैतेन्द्री दीक्षा ग्रहण करू। Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६३ नमोकार चं तदनन्तर अपने विचारानुसार महाराज अरविंद ने पुत्र को राज्य भार देकर शिव सुख की साधक जिन दीक्षा ग्रहण कर ली । तत्पश्चात् परविंद मुनिराज बहुत से देशों और नगरों में भ्रमण कर अनेक भव्यजनों को आत्महित की ओर लगाते हुए सम्मेद शिखर की यात्रा के विचार से विहार करते हुये संघ सहित सल्लकी बन में पाकर ठहरे। संध्या का समय होने पर मुनिराज प्रतिमायोग धारण कर ध्यान करने लगे कि इतने में मरूभूत मंत्री का जीव बचघोष नामक हाथी भयानक गर्जना करता हुमा संघ की प्रोर प्राया । परन्तु साधू मेरु समान स्थिरता से ध्यान करते रहे । पषिक जनों का उसकी पोर गर्जना सुनकर प्रावागमन बंद हो गया। कितने ही जो मज के धक्के से गिर पड़े थे उनका प्राणांत हो गया। जब वह हाथी अरविंद मुनि के पास आया तो उनके हृदयगत श्रीवत्स लक्षण को देखकर उसे जातिस्मरण हो गया। तब वह तत्काल शांत चित्त होकर मुनिराज के चरणों में बारम्बार शीश नमाकर नमस्कार करने लगा। अरविंद मुनिराज उसके हृदयगत पभिप्राय को जानकर कहने लगे : प्रशानी पशु ! तुझे मालम नहीं कि पाप का परिणाम बहत बरा होता है। देख पाप के ही फल से तुझे इस हाथी पर्याय में आना पड़ा। फिर भी तू पाप करने से मुंह न मोड़कर अनेक जीवों को खूदता हुआ मदोन्मत्त विहार करता है । यह कितने प्राश्चर्य की बात है । देख तूने जिन धर्म को न ग्रहण कर माज कितना दुख उठाया। पर अब तेरे लिए बहुत अच्छा समय उपस्थित है। प्रतएव तू आत्म हित का मार्ग ग्रहण कर । हस्ती की होनहार मच्छी थी या उसकी काललब्धि श्रा गई थी । यही कारण था कि मुनि के उपदेश को सुनकर उसके परिणामों में विलक्षण परिवर्तन हो गया । उसे अपने कृत कर्म पर मत्यन्त पश्चाताप हुमा । मुनिराज के उपदेशानुसार सम्यक्तपूर्वक उसने प्रत सहण किए। तदनन्तर मुनिराज तो उस गयन्द के लिए हिंसामयी पवित्र जिन शासन का उपदेश देकर विहार कर गए । हाथी अपने ग्रहण किए व्रतों का पूर्णतया पालन करने लगा। उसे जो कुछ थोड़ा बहुत शुष्क पल्लवादि पवित्र आहार मिल जाता था उसी को खाकर रह जाता था और पंचपरमेष्ठी के चरणों का स्मरण करता रहता था। इस प्रकार कभी खाने को मिलने और कभी न मिलने के कारण वह हाथी बहुत कृश हो गया। ऐसी दशा में एक दिन उसे बहुत जोर की प्यास लगी। तब वह वेगवती नामक नदी के किनारे पर जल पीने को गया दुर्भाग्य से वहाँ पर बहुत दलदल हो रही थी । जब वह किनारे पर जलपान करने के मभिप्राय से पहुँचा तो यह उस दलदल में फंस गया । उससे इसने निकलने की कोशिश की पर दलदल से बाहर न निकल सका कारण कि कभी माहार मिलने और कभी न मिलने से बह पहले ही बात प्रशस्त हो गया था। प्रत में अपने को बलदल से निकलने में असमर्थ समझकर वहीं वह संसार समुद्र से पार करने थाले समाधिमरण को धारण कर पंच परमेष्ठी का स्मरण चितन करने लगा। इसी समय इसके पूर्वभव का भ्राता कमठ का जीव मरकर जो इसी वन में कुक्कुट नामक सर्प हुमा था, इस पोर प्रा निकला। उसकी जैसे ही इस पर नजर पड़ी वैसे ही उसे अपने पूर्व बैर की याद आ गई। उसने कोष से मधे होकर अवघोष हाथी को डस लिया। पर अजधोष हाथी में कुमकुंट प्रहिकृत कष्ट को बड़ी शान्ति के साथ सहकर प्रायु के अन्त में साम्य भाव के फल से द्वादशम स्वर्ग लोक प्राप्त किया। Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९३ मोकार वहाँ मनचाहा दिव्य सुख भोग सोलह सागर की आयु पूर्ण होने पर जम्बूद्वीप के पूर्व विदेह में पुष्कलावती देश के अन्तर्गत सुप्रसिद्ध लोकोत्तमपुर नगर के राजा विधुतगति के यहाँ जन्म लिया और पग्निवेग के नाम से संसार में प्रख्यात हुआ । अग्निवेग पुण्योदय से जो राज्यविभूति प्राप्त हुई उसे सुखपूर्वक भोगने लगा। उसके दिन प्रानन्द उत्सव के साथ व्यतीत होने लगे । एक दिन पुण्योदय से अग्निवेग मुनिराज के दर्शनार्थ गए । उनकी भक्ति से पूजा स्तुति कर उनसे धर्म का पवित्र उपदेश सुना उपदेश उन्हें बहुत रचा पोर उसका प्रभाव भी उस पर बहुत पड़ा। वह उसी समय संसार और विषय भोगों से विरक्त हो गया और पायाभ्यंतर परिग्रह का त्यागकर मुनिराज के पास मात्महित की साषक जिन दीक्षा ग्रहण कर ली और महा तप तपने लगे। एक दिन इसी तरह वे हिमगिर की गुफा में ध्यानारुढ़ हो रहे थे कि इतने में ही इनसे शत्रुता रखने वाला कम: का जीव जिसने कि पूर्व भव में कुक्कुट नामक अहिपर्याय से वनयोष को डसने के पाप के फल से पंचम नरक में अवतार ले यहाँ छेदन भेदनादि अनेक प्रकार के दुख भोग मायु के पन्त में मरण कर अजगर पर्याय धारण की इस और मा निकला और उन्हें ध्यान में खड़े हुए देखकर उसे अपने बैरी पर बड़ा कोध पाया। अपने बर का बदला लेने के अभिप्राय से उसने मुनिराज को इस लिया । पग्निवेग मुनिराज ने धैर्य से विचलित न होकर इस कष्ट को बड़ी शान्ति के साथ सहा पन्त में समाधि से मरण कर पुण्य के फल से षोडशम् स्वर्गलोक प्राप्त किया । तप के प्रभाव से एक प्रतमुंहत्तं में माँखों में चकाचौध लाने वाले दिव्य तेजस्वी और अनुपम सौंदर्ययुक्त तीन हाथ प्रमाण शरीर पौर वाईस सागर प्रायु के धारक देव हुए और कमठ का जीव अजगर पाप के फल से मरण कर धूमप्रभा मामक पांचवी पाताल का निवासी हुमा । प्रथानंतर वह देव आयु के अन्त में अच्युत स्वर्ग से चयकर जंबूदीप के पश्चिम विदेह में पपदेश के अन्तर्गत सुप्रसिद्ध पश्वपुर नामक नगर के राजा वजवीरज की रानी विजया के गर्भ में अवतरित हुमा ।एक दिन रानी विषया अपने शयनागार में कोमल शय्या पर सोई थी कि उसे रात्रि के मन्तिम पहर में मेस-चन्द्रमा-सूर्य-सजलसरोवर और समुद्र ये पांच बातें स्वप्न में दीख पड़ी। उन्हें देखकर वह जाग उठी पौर प्रातःकाल. होते ही उसने अपने प्राणनाथ से स्वप्नों का वृतान्त ज्यों का त्यों कह सुनाया। सुनकर महाराज पचवीरज ने उनके फल के सम्बन्ध में यों कहा कि 'प्रिये ये स्वप्न तुमने बड़े ही सुन्दर देखे हैं। इनके देखने से सूचित होता है कि तुम्हें एक पुत्ररत्न की प्राप्ति होगी हौर वह सबसे प्रधान क्षत्रिय वीर प्रारूपी कमलवन को प्रफुल्लित करने वाला होगा। उसके शासन से प्रजा बहुत सन्तुष्ट होगी।' अपने स्वामी के मुखारमिन्द द्वारा स्वप्नों का फल सुनकर विजया रानी को परमानन्द हमा । ठीक ही कहा है पुत्र प्राप्ति से किसे प्रसनन्नता नहीं होती। पानन्दपूर्वक कुछ समय बीतने पर विजया रानी मे शुभ लक्षणों से युक्त प्रतापी, सुन्दर पुत्ररत्न प्रसक किया । पुत्र प्राप्ति से दम्पत्ति को मानन्द हमा। ___ तत्पश्चात् राजा बजवीरज ने पुत्र जन्म के उपलक्ष्य में खूब मानन्द उत्सव किया। दुखी पनाम यावकों को यथेच्छित दान दिया। पूजा प्रभावना की । बंधुवांधवों ने महत मानन्द मनाया। Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९४ णमोकार मंच सच है-कुल दीपक पुत्र की प्राप्ति से कौन खुशी नहीं मनाता! राजा ने पुत्र का नाम अपने नाम से सम्बन्ध रखते हुए बानाभि रख दिया । बाल कुमार शुक्ल द्वितीया के चन्द्रमा की तरह दिनों दिन बढ़ने लगा। बंधु वर्ग रूपी कमल उसे देखकर प्रफुल्लित होते थे । जब उनकी पठन करने के योग्य उमर हुई तब महाराज बच्चवीरज ने अच्छे-अच्छे विद्वान अध्यापकों को रख कर उन्हें पढ़ाया । इनकी बुद्धि बड़ी तीक्ष्ण थी दूसरे इन पर गुरुपों की कृपा हो गई। इससे थोड़े ही दिनों में पढ़ लिखकर अच्छे धर्मश पौर नीति निपुण विद्वान बन गए । कुछ दिनों पश्चात् राजा बन्नबीरज ने पुत्र को यौबन सम्पन्न होते देखकर इनका विवाह समारंभ किया। उसमें उन्होंने खूब द्रव्य व्यय कर बड़े वैभव के साथ अनेक सुन्दर राजकुमारियों से उनका विवाह कर दिया । और कुछ समय के अनन्तर इनको राज्याधिकार भी दे दिया गया। बजनामि प्रब राजा हो गये। प्रजा का शासन ये भी अपने पिता की भांति न्याय नीति पूर्वक प्रेम के साथ करने लगे। कुछ समय के पश्चात् इनके यहां परम प्रकर्ष पुण्योदय से प्रायुधशाला में चक्ररत्न प्राप्त हो गया जो सब सुखों का परा गामा - पाकर पल सदा विनिधि भी इनके यहाँ प्रकट हो गयी थी। प्रतः उन्होंने भनेक देशों को जीतकर अपने अधीन कर लिया और निष्कंटक होकर षखंड का राज्य करने लगे जिससे वज्रनाभि के नाम से संसार में प्रख्यात हो गए । एक दिन बननाभि क्षेमकर 'पक्रवर्ती मुनिराज के दर्शनार्थ गए। उनकी भक्ति से पूजा स्तुति कर उनसे धर्म का पवित्र उपदेश सुना। मुनिराज के वैराग्य पूर्ण उपदेश का उनके हृदय पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा। वे उसी समय संसार के विषय भोगों से विरक्त हो गये और राज्यभार को छोड़कर बहुत से राजाओं के साथ प्रात्महित की साधक जैनेंद्री दीक्षा ग्रहण कर ली और महातप तपने लगे। एक दिन बन में खड़े कायोत्सर्ग ध्यान कर रहे थे कि इसी समय इनसे जन्मान्तर शत्रुता रखने वाला कमठ का पीय जो कि पहले मजगर की पर्याय को छोड़कर छठे नर्क का वासी हुमा पा स्थिति पर्यन्त मनेक प्रकार के कष्ट भोगकर वहां से निकल कर इसी वन में महाधिकराल भयानक रूप का धारक भील हमा और शिकार के लिए धनुषवाण लेकर भ्रमण करता हुमा इस मोर पा निकला जहाँ मुनिराज ध्यान में निमग्न थे। उसमे दिगम्बर मुनिराज को देखकर पूर्व जन्म की शत्रुता क संस्कार वश शिकार मिलने के लिए उन्हें विघ्न रूप समझकर उनके शरीर को तीरों से बेध दिया। मुनिराज को बड़ा दुस्सह कष्ट हुमा पर उसे उन्होंने बड़ी धीरता से सहा । सच है-जिनका शरीर से रत्ती भर मोह नहीं उनके लिए तो कष्ट कोई बीज ही नहीं । अन्त में समाधि से मरण कर मध्य अवेयक में महर्मित्र हुए और वह भील मुनि-हिंसा पी पाप के फल से सप्तम मरक में गया' सब है-पापियों को कहीं स्यान नहीं मिलता । एक नरक ही की उन पर कृपा दृष्टि होती है जो उनको रहने के लिये स्थान प्रदान कर देता है । पचात् वह वेव मध्यम वेयक में सत्ताईस सागर पर्यन्त उत्तमोत्तम सुख भोग पायुपूर्ण हए वहाँ से पपकर जंबूढीप के भरतक्षत्र में कीपल देश के अन्तर्गत प्रयोध्या नाम की नगरी में तस्याधिपति इक्वाकु वंशोद्भव सजावणबाहुकी रानी प्रभाकरी के गर्भ से मानव कुमार मामक राजपुत्र हुमा। Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार मंच बड़े होने पर महाराज ने अपना राज्य का सब भार इनके आधीन कर दिया । अब मानन्द कुमार राज्य सिंहासनको प्रकृत करने लगे। ये अभी अपनी प्रजा का शासन प्रेम और नीति के साथ करने लगें। अपनी संतानवत् इनका प्रजा पर प्रेम था। इस कारण प्रजा भी इनके साथ बहुत संतुष्ट रहती थी। इस प्रकार प्रजा का पालन करते हुए इनका बहुत सुख पूर्वक समय बीतता था। एक दिन की बात है कि आनन्द कुमार अपने निकटवर्ती ननुष्यों सहित सभा में बैठे हुए दर्पण में अपने मुखमंडल की शोभाका निरीक्षण कर रहे थे कि उन्हें एकाएक मस्तक में एक श्वेत केश दृष्टिगत हुआ । उसके देखते ही क्षणमात्र में उनके हृदय में वैराग्य का अंकुर उत्पन्न हो पाया । वे विचारने लगे कि काल के घर का दूत अब प्रा पहुँचा है। अतएव इन विषयों से इन्द्रियों को हटाकर अपने वश में कर ल । मैं बडा मूर्ख हूं। जोपाज तक विषयों में फंसा रहा और कभी अपने मात्महित की पोर मैंने ध्यान नहीं दिया । यह राज्यभार और स्त्री, पुत्र, भाई, बंधु आदि का स्नेह केवल संसार का बढ़ाने वाला है और इसी के मोह में फंसकर यह जीव नाना प्रकार के दुखों को भोगता है। जिन पुरुषों ने इस मोहजाल को तोडकर पविनश्वर मोक्ष सुख के देने वाली जिन दीक्षा स्वीकार की है वे ही इस संसार सागर से पार होकर निजास्मीक अक्षयानंत शिव सुख के भोक्ता हुए हैं । इस प्रकार दढ़ विचार करके महाराज मानन्दकमार ने अपने ज्येष्ठ पुत्र को राज्यभार सौंपकर सागरदत्त मुनिराज के निकट मोक्ष सुख की साधक जिन दीक्षा ग्रहण कर ली और अनादिकाल से पीछा करने वाले प्रात्म शत्रु कर्मों का नाश करने के लिए दुस्सह तपश्चरण करना प्रारम्भ किया। तदनन्तरषोडशभावनात्रों के द्वारा पूज्य तीर्थकर नाम प्रकृति का बंध किया। जिससे प्रानंद कुमार मुनिराज निर्जन बन में प्राप्तापन योग धारण किए थे कि उसी वन में वह जन्मान्तर से शत्रता रखने वाला कमठ का जीव सप्तम नरक से निकलकर विकराल-भयंकर रूप का धारक पंचानन अर्थात सिंह हमा, और देव से प्रेरित हो इस पोर पा निकला | ध्यान में निमग्न मुनिराज को देखते ही इसमें पर्व पात्रता के संस्कार जाग्रत हो पाए । बस फिर क्या था? उसने कोषाध होकर प्रपने तीखे-नलों और विकराल नुकीली डाकों से मुनिराज के शरीर को विदीर्ण कर डाला । सच है. जो पापी होते लोग भयंकर से भयंकर पाप करने में किन्धिनमात्र नहीं हिचकते। चाहे फिर उस पाप के फल से उन्हें जन्म-जन्म में भी क्यों न कष्ट सहना पडे । मनिराजको बड़ा ही कष्ट हुमा । पर उन्होने इस दुस्सह उपसग को बड़ी स्थिरता पौर शान्ति से सहकर प्राणी विसर्जन कर त्रयोदाम् स्वर्ग में इन्द्र पद प्राप्त किया। प्रणानंतर जम्बूद्वीप के अन्तर्गत बाराणसी नामक मनोहर नगर था। उसके राजा थे विषपसेन । इनका जन्म कुरुवंश मौर काश्यप गोत्र में हमापा। विश्वसेन धर्मक, नीति निपुण, दानी मोर सभ्यदृष्टि थे। उनकी रानी का नाम था-धामादेवी। जो यहत सुन्दरी, विदुषी पौर धर्म परायण थी । इन दोनों दम्पतियों के पुण्योदय से प्राप्त हई राज्य विभति को भोगते हुए मानन्द मौर उत्सव के साथ दिन व्यतीत होते थे जिससे ये काल की गति को भी जान सके। एक दिन घामादेवी पपने शयनागार में सुख पूर्वक कोमल शय्या पर शयन किये गए थी कि उन्हें रात्री के पश्चिम भाग में तीर्थराज के अवतार सूचक गजराण, वृषभ, केशरी प्रावि सोलह स्वप्न हए और अन्त में हाथी को अपने मुख में प्रवेश करते हुए देखा । स्वप्न देखकर देवी जागृत हो गई। Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९० गमोकार प्रभात होने पर प्रात: काल सम्बन्धी क्रियाओं से निवृत हो राजसभा में महाराण विश्वसेन के पास गई। महाराजरामीको भाव रेखकर प्रपनामसिन छोड़ दिया और वाई'मोर बैठाकर कहा- प्रिये! माज क्या विचार कर पाई हो? महारानी बोली-'नाथ ! माग रात्रि के प्रन्तिम समय सोलह स्वप्न देखे हैं । उका फल श्रवण करने की इच्छा से आप के पास माई हूं।" यह कहकर देखे हुए स्वप्न ज्यों के त्यों कह सुनाये। सुनकर राजा ने कहाकि 'ये स्वप्न तुमने बहुत अच्छे देखे हैं । इनका फल सूचित करता है कि सुम्हारे गर्भ में तीर्थकर जन्म लेंगे। जिनकी आज्ञा का इद्रादिक बड़े बड़े देवता तक सम्मान करते हैं, उन स्वप्नों का उत्तम फल वामादेवी अपने पति के मुख से सुनकर बहुत हर्षित हुई। पश्चात सखियों के साथ निज मंदिर में वापिस चली गई । इन्द्र की प्राशा से भेजी हई रुचिक नामक प्रयोदशम् द्वीप के मध्य स्थित वलयाकार चौरासी हजार योजन उन्नत और इतने ही योजन विस्तार वाले कधिक संशक पर्वत के शिखर पर कूटों में निवास करने वाली दिक्कुमारि देवीयां शकर जिनमाता की नाना प्रकार से भक्ति सेवा करने लगी। भगवान वैशाख मास कृष्णपक्ष की दोपण के दिन विशाखा नक्षत्र का योग होने पर मालत नामक त्रयोदाम स्वर्ग को छोड़कर वामादेवी के गर्भ में पा विराने । कुछ दिनों पश्चात् गर्भ धीरे-धीरे बढ़ने लगा। उनके भार से वामादेवी को किसी प्रकार की बाधा नहीं होती थी जिस प्रकार दर्पण में प्रतिबिम्ब के पड़ने से किसी प्रकार की बाधा नहीं होती है। ज्यों घर्षण प्रतिबिम्ब सों। भारी कहो न जाए। त्यों जिन पति के गर्भ सों। खेवमणाने माय ।।१।। अर्थात् गर्भ पूर्ण दिनों का हुया तब पौष मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी के दिन जबकि विशाखा नक्षत्र का योग या तब वामादेवी ने नवमें महीने के शुभ लक्षणों से युक्त विभवनमहतीय सन्दर पुत्ररत्न प्रसव किया । पुत्र के उत्पन्न होते ही नगर भर में प्रानन्दोत्सव होने लगा। देवों के प्रासन चलायमान हुए । मुकुट नमने लगे। चतुर्विध देवों के निलयों में स्वमेव पृथक् प्रकार के वादित्रों का शब्द होमे लगा । सब भरत क्षेत्र में तीर्थ राज का अवतार जानकर बड़े समारोह के साम स्वर्ग के देवों ने बनारस नगरी में प्राकर बहुत उत्सव किया । पश्चात् भगवान को ऐरावत हाथी पर बैठाकर सुमेरु पर्वत ले गए और जाकर क्षीर समुद्र के स्फटिक से उज्जवल और निर्मल पवित्र जल से भगवान का अभिषेक कराया। न्हवन क्रीड़ा समाप्त होने पर उन्हें ऐरावत गयन्द पर बैठा पूर्व जैसे महोत्सव के साथ बनारस नगरी में ले पायें और प्रसूति गह में माता के निकट दन्टाणी दारा विराजमान कराए। तदनन्तर भगवान के माता-पिता की पजा स्ततिका उनका यशोगान करते हुए अपने-अपने स्थान पर चले गए। भगवान निजवय प्रमाण देवकुमारों के साथ क्रीड़ा करते हुए शुक्ल द्वितीया के चन्द्रमा की तरह दिनों-दिन बढ़ने लगे। इनका समय देवकुमारों के साथ हंसी विनोद करते हुए बहुत सुख से बीतता था । जब भगवान युवावस्था में पदार्पण करते हुए सोलह वर्ष के हुए, तब एक समय सभा में बैठे हुए महाराज विश्वसेन ने अंवसर पाकर भगवान से कहा----कि प्रियपुत्र! प्रब तुम योग्य प्रवस्था के हो गए हो। अतएव एक राज्य कन्या से पाणिग्रहण करने की स्वीकारता प्रदान कर हमारी कामना पूर्ण करो जिस प्रकार प्रथम अवतार ऋषभदेव मे नाभिराय की मनोकामना पूर्ण की पी। क्योंकि ऐसा करने से ही कुल की रक्षा हो सकेगी और तुम्हें कुल की रक्षा करनी चाहिए।' Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पमोकार ग्रंथ यह सुनकर भगवान ने उत्तर में निवेदन किया-पिता जी ! प्रापने जो कहा सो ठीक है परन्तु मैं ऋषभदेव के समान नहीं । कारण कि उनकी प्रायु तो ४८ लाख पूर्व की थी और मेरी माय केवल सौ वर्ष की है। जिसमें भी सोलह वर्ष तो बाल्य अवस्था में ही व्यतीत हो चुके हैं और नीसवें वर्ष में संयम समय है। प्रतएव अल्पकाल तिथि प्रल्पसुख । पल्प प्रयोजन काज । कौन उपद्रय संग्रहै । समझ देख नरराज ॥१॥ सुर नरेत लोचन भरें। रहे वदम बिलषाय । पुत्र माह वर्जन वचन । किसे नहीं दुखवाय ॥२॥ इस प्रकार संमार की विषय वासनाओं से विरक्त चित्त पाश्र्वनाथ भगवान निजात्मीक सुख प्राप्त करने को साधन जिन दीक्षा के समय की प्रतीक्षा करते हुए प्रानन्द पूर्वक दिन व्यतीत करने लगे। वह मसित पूर्व कम गा पीव दिसा के पाप के फल से पंचम नरक में गया वहां उसने सत्रह स गर पर्यन्त छेदनभेदन यंत्रों के द्वारा पिलना यादि कठिन से कठिन दुःख भोगे और वहां से निकलकर सत्रह सागर पर्यन्त सस्थावर जीवों को पर्यायें धारण को और वहाँ भी बहुत दुःख भोगे । तीन सागर के पश्चात् अबकी बार कुछ पाप का भार हल्का हो जाने से यह महीपालपुर के राजा के यहाँ पूत्र हमा मौर कुछ समय के मनन्तर योग्य अवस्था होने पर पिता के पद को प्राप्त हो गया प्रांत राजा हो गया। प्रजा का नीति पूर्वक राज करते हुए कुछ समय बीतने पर इनके एक पुत्री हुई। उसका नाम रखा गया-वामा देवी। जब वह यौवन अवस्था में पदार्पण करने लगी तव महाराज महीपाल ने उसका विवाह महाराज विश्वसेन के साथ कर दिया। परित्र नायक पार्श्वनाथ भगवान इन्हीं के पुत्र हुए थे। इस सम्बन्ध से महीपाल भगवान पार्श्वनाथ के नाना हए । कुछ समय के उपरान्त देव के दुर्विपाक मे महाराज महीपाल की प्रिय पटरानी का देहान्त हो गया। इसके वियोग से इनको बड़ा खेद हुमा । दुख का उदग बहुत बढ़ा । अन्त में वे सहन न कर सके प्रिय पटरानी का प्रसह्य शोक उनके हृदय के मध्य लहरें लेने लगा। कुछ समय पश्चात किसी तरह हृदय में वैर्य धारण कर एक पल भी फिर वहाँ न ठहरकर घर से निकल पड़े और तापसी भेष भारपा कर समस्त अंग में भस्म रमाकर मृग छाला विछाए हुए बन में पंचाग्नि तप तपने लगे। यहाँ से फिर अनेक देश, नगर, ग्रामों में विहार कर तपस्या करते हुए बनारस नगरी के कानन में प्राकर ठहरे। इसी अवसर में एक दिन श्री पाश्वनाथ भगवान अपने सखामों के साथ बन क्रीड़ा करने को गए । कोड़ा समाप्त होने पर जब बनारस की पोर पा रहे थे कि उन्हें मार्ग में निज जननी के पिता महीपाल पंचाग्नि तप तपते हुए दृष्टिगत हुए। उस समय महीपाल भगवान को निकटवर्ती आए हुए भी विनय प्रणाम करने से रहित देखकर अपने मन में विचारने लगे कि यह कुमार बड़ा मानी अहंकारी है । जो प्रथम तो मैं जननी पिता हं, दूसरे मैं तापसी हैं, दोनों प्रकार से इनके मेरे प्रति पूज्य भाव होने चाहिए। परन्तु इसमें विनीत नम्रता का लेशमात्र भी नहीं। महीपाल भगवान के विनय प्रणाम न करने से सिर से पांव तक जल उठे। क्रोध की माग उसके रोम-रोम में प्रवेश कर गई। पर वह उनका कुछ करने-घरने को लाचार थे। अन्त में अपने मन ही मन में क्रोधित हो हाथ में परसी लेकर जलाने के लिए लकड़ो चौरने को तत्पर हुए। Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार ग्रंथ तब भगवान ने काष्ठ के मध्य मवधिज्ञान द्वारा सर्प युगल जानकर हित मित प्रिय वाणी से कहा— प्रतापस! इस काष्ठ को मत विदारण करो, कारण कि इसमें सर्प सर्पिणो का युगल बैठा हुआ है उसका घात हो जाएगा। परन्तु उसने न माना और उल्टै क्रोषित होकर कहा - "श्री बालक ! क्या ।" चौपाई २२५ हरिहर ब्रह्मा तुम हो भए । सकल चराचर ज्ञाता ठये । मनं करत उद्धत अविचार । चीरयो काठ न लाई बार ॥ १ ॥ काष्ठ के चीरते ही तत्र स्थित युगल सर्पों के खंड हो गए। तब पुनः भगवान ने कहा--' श्रो तापसी ! तुम क्यों वृथा गर्व कर रहे हो। मान के वशीभूत होकर बारम्बार कहने पर भी न माना । श्रव इन निरपराध जीवों की हत्या करके क्या लाभ उठाया ? भला कहो तो सही। इन बेचारों ने तुम्हारा क्या नुकसान किया था ? बड़े आश्चर्य की बात है कि मनुष्य होकर भी तुम्हारे में दया का अंकुर तक नहीं दीख पड़ता ।' तब वह तापसी कोधित होकर बोला- 'प्रो कुमार ! देखो ! प्रथम तो मैं तुम्हारी जननी का पिता, दूसरे पंचाग्नि तप तपने वाला तापसी । तुम्हें दोनों संबंधों से मेरे प्रति पूज्य भाव होकर विनय प्रणाम करना चाहिए था । किन्तु तुम उसके प्रतिकूल मेरा मान खंडन कर रहे हो । क्या तुम्हें मालूम नहीं है कि मैं एक पाद द्वारा खड़े होकर कपर बाहें किए हुए क्षुधा, तृपा की वेदना सहता हुआ नित्य पंचाग्नि तप साधन करता हूँ और जो कुछ थोड़ा-बहुत शुष्क फल, पत्र आदि आहार मिल जाता है उसी को सन्तोष वृत्ति से हूँ। मेरे तपश्चरण को ज्ञान शून्य अज्ञान तप बतलाकर निंदा कर रहे हो ।' तब उसे भगवान ने फिर कहा--' स्रो तापसी ! देखो ! तुम्हारे पंचाग्नि तप तपने में नित्य प्रति कितने पदकाय के जीवों की हिंसा होती है और जहाँ हिंसा होती है वहाँ नियम करके पाप का बन्ध होता है और आप यह खूब अच्छी तरह जानते हैं कि पाप के फल से जीवों को नरकादि दुर्गतियों में ये असह्य कष्ट भोगने पड़ते हैं । इस कारण तुम्हारा तपश्चरण करना अज्ञान तप है। बिना उद्देश्यों के समझे बूझे व्रतादि धारण करना अंधे की दौड़ के समान व्यर्थ अथवा अल्प ( निरतिशय) पुन्य बन्ध का कारण होता है ज्ञान के बिना अज्ञानी जीव सैकड़ों जन्मों में दुस्सह् कायक्लेश तप करके जितने कर्मों का क्षय करते हैं। उतने कर्मों को ज्ञानी जीव एक क्षण मात्र में नाश कर देते हैं। देखो ! यद्यपि अज्ञानी जीव कायक्लेश तप करके नव प्रवेशक पर्यन्त ( १६ स्वर्गों ) के ऊपर नव ग्रेवेयक विमान हैं यहां तक मिथ्या दृष्टि जा सकता है । भागे नहीं जाते हैं परन्तु आत्मा के स्वभाव विभाग के ज्ञान श्रद्धान ( दृढ़ निश्चय) बिना कर्तव्याकर्तव्य की यथार्थ प्रवृत्ति न होने से निजात्मीक सुख अवस्था को प्राप्त नहीं हो सकते। अतएव निर्दोष भगवान के द्वारा उपदेशित पवित्र अहिंसामयी जिन धर्म का आश्रय ग्रहण कर जो धर्मं दुखों का नाश कर सुखों का देने वाला है । देखो ! जो भ्रष्टादश दोषों से रहित और चराचर के देखने वाले (सर्वज्ञ) हैं वे 'देव कहाते हैं । ऐसे निर्दोष देव द्वारा निरूपण किए हुए मोक्षमार्ग ही धर्म कहलाते हैं। धर्म का सामान्य लक्षण ये है कि - जो 'संसार दुःखतः सत्वान यो धरत्युत्तमे "सुख" - संसार के दुःखों से छुटकारा पाकर जीवों को उत्तम सुख में पहुँचा दे वही धर्म है । जो परिग्रह रहित, बीतरागी, तपस्वी, मोक्ष साधन में तत्पर हों और संसार के दुःखी जीवों को आत्महित के मार्ग पर लगाने में कटिबद्ध हों। वे ही सच्चे गुरु हैं । इन तीनों पर प्रचल दृढ़ विश्वास करने को सम्यग्दर्शन कहते हैं । ये सम्यग्दर्शन मोक्ष महल पर पहुँचने की प्रथम सीढ़ी है। इनके बिना ज्ञान और चारित्र अंक के बिना शून्यक्त निष्फल हैं । सम्यक्त्व Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार मंच २६ के प्राप्त होने पर ही चारित्र का धारण करना कार्यकारी हो अन्यथा व्रतादि धारण करने का प्रयास करना धान्यतृप खंडनवत् व्यर्थ है। अतएव उन पुरुषों को जो सुख प्राप्त होने की इच्छा रखते हैं उन्हे मिथ्यात्व को छोड़कर सम्यक्त्व चारित्र धारण करना चाहिए । विश्वास है कि तुम भी अपने हित के लिए इसे ग्रहण करने का यत्न करोगे । इसना कहकर भगवान ने कहा कि "मैं तुम वचन कहे हितकार। तू अपने घर देख विचार । भलो लग लोई कर मिसावथा मलीन करे मत सित्ता " इतना कहकर भगवान वहां से चल दिए और निज राजसभा में मा विराजे । उधर वह सर्प युगल जो खंड-खंड हो गये थे वे अभी कुछ जीवित थे। उनकी होनहार अच्छी थी या कालनधि आ गई थी। यही कारण था कि उन्होंने तापसी के प्रति दिया हुअा भगवान का सदुपदेश सुन उसके वचनों पर विश्वास कर मिथ्यात्व के परित्यागपूर्वक जिन धर्म के ध्यान करने में जो लगाया और इन्हीं शुद्ध परिणामों के साथ दोनों ने प्राण विसर्जन कर दिए जिसके प्रभाव से सर्प युगल धरणेन्द्र, पद्मावती हुए। कालान्तर में वह तापसी भी प्रायु के अन्त मरण कर अज्ञान तप के प्रभाव से संबर नामक ज्योतिषी देव हुमा। चौपाई देखो जगत में तप प्रभाव । ज्ञान बिना बांधी सुनाव । जे नर करें जैन तप सार। तिन्हें कहां दुर्लभ संसार ॥१॥ अथानन्तर श्री पार्श्वनाथ भगवान रोग, शोक, चिता, भय आदि दोपों से रहित राज्य विभूति जनित सुखों का अनुभव करते हुए प्रानन्द उत्सव के साथ दिन व्यतीत करने लगे । भगवान जन तोस वर्ष के हए किसी अवसर में एक दिन अयोध्यापति महाराजा जयगन ने भगवान की अनन्य भक्ति और प्रेम से त्राधिन होकर उसकी सेवा में उत्तम-उत्तम बहमुल्य वस्तु पर देने के लिा देकर अपने एक दूत को बनारस नगरी में भेजा। दूत वनारस में पहुंचकर द्वारपाल को प्राजा ले राजसभा में गया जहाँ भगवान पार्श्वनाथ सुवर्णमय सिंहासन पर अधिष्ठित थे। भगवान के देखते ही दूत के रोमांस हो आए उसने सानन्द भक्ति पूर्वक उनके चरणाविदों को वारम्बार नमस्कार दिया । पश्चात् अपने स्वामी द्वारा भेजी हुई बस्तुनों को भगवान को भेंट करके कहा-पूज्यपाद मेरे स्वामी अयोध्यापुरि के महाराज जयसेन ने आपकी गति और प्रेम मे बाधित होकर प्रापको पवित्र सेवा में अपने अनेकानेक विनयप्रणाम के अनन्तर से उत्तमोतम वस्तुर भेंट करने के लिए मुझे भेजा है अाप इन्हें स्वीकार कर योग्य सेवा से उनके हृदय को पावन कोजिए। भगवान जयसेन की सेवा से बहुत संतुष्ट हुए। कुशल प्रश्न के अनन्तर दून से पूछा--प्रच्छा ये बताओ कि अयोध्या कैसी संपतिशाली और सुन्दर नगरी है ? तब दूत विनीत भाव पूर्वक बोला'महाराज ! अयोध्या कौशल देश के अन्तर्गत नाना प्रकार की सर्वश्रेष्ठ संपदाओं से परिपूर्ण बड़े-बड़े ऊँचे विशाल मनोहर गृहों तथा जिन मिन्दरों से सुशोभित ऐसी मुरम्य जान पड़ती है कि मानों निराधार स्वर्ग का एक खंड टूटकर गिर गया हो । जहाँ उपवनों और सरोवरों की अनुपम सुन्दरता को देखकर देवों का मन मुग्ध होता है। इनके अतिरिक्त विशेषता यह है कि इसमें अनेक तीर्थकरों का जन्म हुमा है और अनेकानेक मुनि केवल ज्ञान प्राप्त कर परम धाम मोक्ष पधारे हैं । इसलिए यह महान पबित्र है जिसके दर्शन स्मरण करने से पापों का क्षय होता है।' Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०. णमोकार नष इस प्रकार दूत के मुख से भगवान ने जब तीर्थंकरों के जन्म और मुनिराज के मोक्ष पधारने का वतान्त सना, तब ही उन्हें वैराग्य हो पाया। वे विचारने लगे कि-'धन्य हैं कि ये मोह जाल को तोड़कर प्रात्महित की साधक जैनेन्द्री दीक्षा के द्वारा पविनश्वर मोक्ष महल के भोक्ता हुए हैं । मैंने भी अद्यावधिसंसार की लीला से परिचित होते हुए जनसाधारणवत शरीर इन्द्रियों को संतुष्ट किया और कभी अपने हित को प्रोर ध्यान नहीं दिया। पर खैर जो हुआ । अब भी मुझे अपना कर्तव्य पालन करने के लिए बहुत समय है जिस प्रकार मैंने विषय सुख भोगा उसी प्रकार अब कठिन तपश्चरण कर इनको विषयों की ओर से हटाकर उन्हें प्रात्मशक्ति के बढ़ाने में सहायक बनाऊँ। यदि इनकी अब भी उपेक्षा न की गई तो नियम करके संसार भ्रमण करना पड़ेगा। प्रतएव प्रब इन विषयों के जाल से अपने प्रात्मा को छुटाकर अविनाशी सुख के देने वाली जिन दीक्षा ग्रहण कर पंचाचार प्रादि मुनिश्रतों का निरतिचार पालन करू।' इस प्रकार सांसारिक विषय कषायों से विरक्त होकर भगवान वैराग्योत्पादक बारह भावना का चितवन करने लगे। तत्समय ही पंचम स्वर्ग के अन्त में रहने बाले लौकान्तिक देवों ने प्राकर भगवान के वैराग्य की प्रशंशाकर अपना नियोग पूरा किया। तदन्तर स्त्रों के देवों ने पाकर भगवान को क्षीरोदधि के जल से भरे हुए सुवर्णमय कलशों से स्नान कराया और चन्दनादि उत्तम सुगंधित वस्तुत्रों का शरीर में विलेपन कर अनेक प्रकार के दिव्य वस्त्राभूषणों से विभूषित किया । तदनन्तर देवों द्वारा लाई हुई विमला नामक पालकी में भगवान को आरूढ़ कर पहले तो सात पेंड भूमि गोचरी लेकर चले। पश्चात सात ही पंन्ड विद्याधर तदनर इन्द्रादिक देव लेकर उन्हें काशी के अश्वनामक वन में ले गए। भगवान ने वहाँ वटवृक्ष के नीचे सब वस्त्राभूषणो का परित्याग कर अपने मस्तक के केशों का लोंच किया। उन केशों को लकर ले जाकर इन्द्र ने क्षीर समुद्र में जा क्षेपण किया। पश्चात भगवान के वाह्याभ्यंतर परिग्रह का त्याग कर सिद्ध भगवान को नमस्कार करके मात्महित की साधक पावन जिन दोक्षा स्वीकार की। उनके साथ और भी ६०६ मुकुट बद्ध राजाओं ने जिन दीक्षा को स्वीकार किया। उस दिन पौष कृष्ण ११ और प्रातःकाल का समय था । दीक्षा लेने से तीन दिवस पर्यन्त भगवान ध्यानारूढ रहे। पश्चात काश्यकृत पुर में ब्रह्मदत्त राजा के यहां निर्दोष निरंतराय प्राशक प्रहार किया। अनन्तर वन में जाकर पंचाचार प्रादि मनिवतों का निरतिचार पालन करते हुए कठिन तपश्चरण करने लगे। न उन्हें शीत की बाधा होती थी और न आतप की। और न क्षुधा तृषा की ही। यदि किंचित होती भी तो वे उसकी कुछ उपेक्षा न रखकर सदा आत्मध्यान में लीन रहते। इस प्रकार शीतोष्मादि जनित बाधा को सहते हुए भगवान योग निरोध कर चार मास पर्यन्त धर्म ध्यान में लीन रहे। एक दिन की बात है कि वे निज तपोबन (जहाँ दीक्षा ली थी उसी वन) में खड़े हुए ध्यान कर रहे थे कि उसी समय वह कमठ का जीव जो भगवान का नाना होकर प्रायु के अंत में गत प्राण हो संबर नामक ज्योतिषी देव हुआ था, आकाशमार्ग से उधर होकर निकला पर भगवान के प्रभाव से विमान अटक गया। अर्थात भगवान के प्रभाव से उनको उल्लंघन कर आगे न जा सका मोर ऊपर छत्र वप्त स्थिर हो गया। अकस्मात बिना कारण विमान को रुका देखकर उसने अवधिज्ञान के बल से जान लिया कि यह वही मेरे पूर्वजन्म का अपमान करने वाला शत्रु है जिसने पंचाग्नि तप तपते हुए विनय प्रमाण करने के प्रतिकुल मेरे तप को प्रज्ञान तप कह कर निन्दा की थी और अब भी मेरे विमान के चलने में ये हो प्रतिबंधक है । यह समझकर उन पर नाना प्रकार के उपद्रव Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३.५ णमोकार प्रय करने प्रारम्भ कर दिए। उससे जहाँ तक बन सका उसने उन्हें खूब कष्ट पहुँचाया। पपनो विक्रिया शक्ति से प्रमावस्या की पद्धं रात्रि के समान थोर अंधकार करके मूसलोपमधारा से मेघ वर्षा को । बादलों की गरज पौर विद्युत की सड़क से भयंकर शब्द होने लगे। प्रचंड वेग से झंझावात (बरसाती शीतल पवन) घलने लगी । प्रसीम वर्षा के जल से समस्त बन ममुद्रवत् जलमय मालूम होने लगा। परन्तु भगवान पापवंनाथ जन उपद्रवों से रंचमात्र भी विचचित नहीं हए। वे जिस प्रकार ध्यान में स्थित पे उसी प्रकार से मंजन गिरि के समान स्थित रहे। यह ठीक ही है-यदि प्रचंड प्रकाल के लय समान वायु भी क्यों न चले पर क्या वह मेरु पर्वत को बलायमान कर सकती है, कदापि नहीं। इसके अतिरिक्त उसने भौर भी अनेक प्रकार के उपद्रव किए । यथा : छप्पय किलकलंस लाल काल काजल छविच्छज्याहि । भौं कराल विकराल भाल मद गल जिमगजहि । मुमाल गल परे लाल लोचन निडरहि जन । मुख फुलिंग करहिं निरक्य धुमि हन हन । इस विधि भनेक कुरमेष पर कमठ जीव उपसर्ग किए। तिहं लोक बंब जिन चन्द्र प्रसिधूल मल निज शीश लिय ॥१॥ इत्यादि उस्पात सन । वृथा भए प्रति घोर । जैसे मानक वीपको। लगे न पचन कोर ।।२।। उनके तप के प्रभाव से जिन भक्त धरणेन्द्र का आसन कम्पित हुमा प्रदधिबल से भगवान पर उपसर्ग हुभा जान वह तत्काल पद्मावती सहित वहाँ पाए, जहाँ भगवान ध्यानारुढ़ स्थित थे। धरणेन्द्र ने प्राकाश से भीषण मेष पाते हुए देख भगवान के ऊपर अपना फण मंडप छत्रवत् छा लिया जिससे वर्षा कुत बाधा दूर हुई। पद्मावती पूर्वजन्म कृत उपकार को स्मरण कर सभक्ति प्रदक्षिणा दे उनके चरणारविदों को बारम्बार नमस्कार करने लगीं। नागराज को माया हुमा जान वह ज्योतिषी देव अपनी माया का संकोच कर व्यग्र चित्त हो भय के मारे तत्काल वहाँ से भाग गया। सच है -बलवान के सामने से भाग जाने में ही कुशलता है । अब सब उपद्रव शान्त हो गए। भगवान पार्श्वनाथ ने शुक्ल ध्यान के बल से बारहवें गुण स्थान में पहुंच दूसरे शुक्ल ध्यान के प्रभाव से घातिया कर्मों का प्रभाव कर लोकालोक का प्रकाशक केवलज्ञान प्राप्त किया। भगवान को केवलज्ञान हुआ जान तत्क्षण इन्द्र ने भाकर बारह सभामों से सुशोभित संवा योजन प्रमाण समवशरण रचा। भगवान द्वादश सभात्रों के मध्य चतुरांगुल प्रतरीक्ष सुवर्णमय सिंहासन पर बिराजे । देवगण उनके ऊपर चमर ढोलने लगे। भगवान के दश गणषर हुए। उन्हें केवलज्ञान प्राप्त किया सुनकर विद्याधर, चक्रवर्ती, राजे, महाराजे, स्वर्ग के देव मादि बड़े-बड़े महापुरुष तथा सर्वसाधारण जनसमूह उनके दर्शन-पूजन को पाने लगे। Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार च भगवान का सभक्ति पूजन स्तवन कर पश्चात् स्वयंभू यादि ग्यारह महर्षियों को नमस्कार कर अपने-अपने स्थान पर बैठे गए। प्रगट रहे कि समवशरण में निरन्तराय आना जाना लगा रहता है। कोई आता है कोई जाता है, कोई धर्मोपदेश श्रवण करता है। भगवान के समवशरण में यह अतिशय है कि समवशरण में रात्रि दिन का भेद ज्ञात नहीं होता अर्थात् निरन्तर कल्पवृक्षों और भामंडल के प्रभाव से कोटि सूर्य में भी अधिक प्रकाश रहता है सूर्य का तेज प्रकाश तो संतापकारक होता है परन्तु वह प्रकाश संतापहर्ता है और वहाँ चाहे कितने ही देव, मनुष्य, पशु, पक्षी ना जावें परन्तु समवशरण में सब समा जाते हैं । स्थान संकीणता कभी नहीं होती और समवशरण में स्थित प्राणियों को मोह, भय, द्वेष, विषयों की अभिलापा, रति, विजिगमिया ( दूसरे को नीचा दिखाने की इच्छा) निद्रा, तंद्रा ( ( मालस्य ) छींक, जम्हाई, रोग, शोक, चिंता, क्षुधा, तृषा आदि कोई भी अकल्याण व विघ्नकारक कारण उपस्थित नहीं होते हैं । ३०२ परस्पर जाति विरोधी जीव भी एक स्थान में बैठे निश्शंक हो धमपदेश श्रवण करते हैं श्रीर भगवान के धर्मोपदेश रूपी अमृत वर्षा के प्यासे युगल कर जोड़े उनके मुख की ओर देखते हुए समय की प्रतीक्षा करने लगे जिस प्रकार मेघों को देखकर चातक वर्षा होने की प्रतीक्षा करता है तब गणधरों में तिलकसम श्री स्वयंभू गणधर ने सानन्द भक्ति पूर्वक नमस्कार करके भगवान से निवेदन किया 'प्रभो ! यह जीव अनादिकाल से जड़कर्म के वशीभूत हो अपने-अपने स्वाभाविक भावों को भूलकर चतुर्गति सम्बन्धी घोर दुःखों से व्याकुल चित्त इस अपार संसार रूप कानन में सिंह से भयभीत मृगी की नाई इतस्ततः परिभ्रमण करता फिरता है। सो हदीद इस बार में क्यों दुख भोग रहा है और इस दुख से छूटने का उपाय क्या है ? इस बात को आपके श्री मुख से मेरी और उपस्थित मंडल के सुनने की बहुत उत्कंठा है। कृपा कर कहिए । तब भगवान गणधर महाराज के प्रश्न के उत्तर में अपनी मेघ के समान निरक्षरी दिव्य ध्वनि द्वारा कहने लगे; मुनेश ! संसार के दुःखों का कारण और उससे छूटने का उशय जो तुमने पूछा सो बहुत अच्छा किया। अब इसी विषय को कहता हूं समस्त संसारी जीवों को जन्म मरण की परिपाटी का कारण संसार, संसार के कारणों, मोक्ष, मोक्ष के कारणों को न जानकर पंचेंद्रिय जनित विषय सुखों में लोलुपता और क्रोध - मान-माया-लोभ रूप कषाय व मोह के वशीभूत हो ग्रहीत, प्रग्रहीत मिथ्यात्व रूप प्रवृत्ति है इसीलिए ये दोष न्यूनाधिक्यता से सभी संसारी जीवों में पाए जाते हैं और इन्हीं के वश वे नाना प्रकार की शुभाशुभ क्रियाएँ करते हुए उनके उदयकाल में तज्जनित सुख दुखों का अनुभव करते हुए विकराल अपार संसार सागर में भ्रमण करते रहते हैं । यद्यपि संसार में समस्त प्राणी सदाकाल ये चाहते हैं कि हमको अविनश्वर शाश्वत सुख प्राप्त हों तथा उसके प्राप्त करने के लिए उपाय भी करते रहते हैं परन्तु सच्चे सुख दुःख के स्वरूप को भली भांति जानकर दुख के मूल कारण कषाय का अभाव नहीं करते । श्रतएव सच्चे निराकुलित सुख से वंचित रहकर संसार में ही भ्रमण रहते हैं। जिन जीवों के मोहादिकमों का तीव्र उदय रहता है वे तो सदा विषमविष समान विषय भोगों में ही तल्लीनता के कारण आत्मकल्याण से सर्वथा विमुख रहते हैं । उनकी आत्महित की घोर स्वप्न में भी रुचि नहीं होती । जिनके कदाचित दैवयोग से मोहादि कर्मों का मंद उदय हो जाता है तब उन्हें कुछ आत्म कल्याण की ओर प्रवृत्ति होती है। इतना होने पर भी बहुत से भोले जीव संसार में प्रचलित अनेक मिथ्यामागों में Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार फंसकर अपने मभीष्ठ फल को प्राप्त नहीं होते। प्रतएव मुमुक्षु जनों को उचित है कि प्रथम वीतराग निर्दोष प्राप्तोपदिष्ट वीतरागता एवं विज्ञानता के प्ररूपक शास्त्रों द्वारा तथा तदनुसार प्रवर्तने वाले गुरुओं द्वारा मोक्ष मार्ग सम्बन्धी तत्त्वों का ज्ञान प्राप्त करें। संसार,-संसार के कारण तथा मोक्ष, मोक्ष के कारणों का यथार्थस्वरूप जान श्रद्धान करके तदनुसार दुरभिनिवेश (संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय) रहित जाने और तदनुमार ही कर्मनित विभावके दूर करने और निज स्वभाव के प्रगट करने के लिए प्रवृति करें (इसी को रत्नत्रय कहते हैं।) जब यथार्थ प्रवृति होगी तो परभावराग द्वेषादि का प्रादुर्भाव ही न होगा। जब राग द्वेषादि विकृत परिणाम ही न होंगे तब कारण का प्रभाव होने से पुन बंध कैसा बंध तो प्रात्मा के निज भावों से च्युत होकर राग वषादि स्वभावरूप परिणमन से ही होता है । जब बंध के कारण विकृत परिणमन का अभाव हा गया तो पुनः कदापि बंध नहीं होगा। जिस प्रकार जब धान पर से छिलका उतार किए जाता है दो हमल के पने पत्र करने पर भी नहीं पा सकता, उसी प्रकार जीव के भी अनादिकाल से बीज वृक्षवत् विकृन भावों से कर्म बंध और कर्म के उदय से विकृत भाव होते चले पाए हैं परन्तु जब छिनका रूपी विकत भाव प्रात्मा से पृथक हो जाता है तो फिर चावल रूपी शुद्ध जीव के अकुरोत्पत्ति रूपी कर्म बंध नहीं होता। इसी रत्नत्रय रूपी अद्भुत रसायन के बल से अनेकानेक भव्यात्मा निर्बन्ध अवस्था को प्राप्त होकर वचनातीत अक्षयानत स्वाधीन सुख के भोक्ता हुए हैं, हो रहे हैं और होंगे। यह रत्नत्रय धर्म दो प्रकार के हैंएक तो निश्चय रूप जो कि ठोक -यथार्थ रूप है। दूसरा व्यवहार रूप-जो निश्चयका के प्राप्त होने का कारण है। दूसरे द्रव्यों से प्रात्मा को पथक जानकर उसमें रुचि (विज्ञान) रखना सो निश्चय सम्यग्दर्शन है। निजात्मस्वरूप को विशेष रूप से जानना सो निश्चय सम्यग्ज्ञान है । निजात्म स्वरूप में विकल्प रहित तन्मय हो जाना ही सम्यक (निश्चय) चरित्र है। अब इस निश्चय मोक्ष पद के प्राप्त होने का कारण मोक्ष व्यवहार मार्ग कहते हैं । जीव-अजीव-मास्त्रव-बंध-संवर... निर्जरा और मोक्ष-इन सात तत्वों का जो यथार्थ स्वरूप है उसका उसी रूप श्रद्धान करना सो व्यवहार सम्यग्दर्शन है इसको २५ दोष रहित और पाठ गुण सहित धारण करना चाहिए । जीवादि पदार्थों के स्वरूप को संशय विपर्यय और अनध्यवसाय रहित यथातथ्य (जैसा का तैसा) जानना सम्यग्ज्ञान है। तीसरा रत्न चरित्र सकल अर्थात महाव्रतरूप साधुधर्म और विकल अर्थात् अणुव्रत रूप ग्रहस्थ धर्म ऐसे दो प्रकार का है। मुनि धर्म तो उन लोगों के लिये है कि जिनकी आत्मा पूर्ण वलिष्ठ और सहनशील है और गृहस्थ धर्म उसके प्राप्त करने की नसैनी है। जिसप्रकार एकदम सौ पचास सीढ़िया नहीं चढ़ी जा सकती उसीप्रकार प्रत्येक व्यक्ति में इतनी शक्ति नहीं होती कि एकदम मुनिधर्म ग्रहण कर सकें। उसके अभ्यास मे क्रमशः बढ़ते हुए उनमें मुनिधर्म के धारण करने की शक्ति उत्पन्न हो जाए अतएव उन्हें प्रथम ग्रहस्थ धर्म धारण करना चाहिए। मुनि का धर्म (चरित्र)। पंच महाबत ५। पंचसमिति ५। और तीन गुति रूप तेरह प्रकार का है पौर ग्रहस्थ धर्म पांच अणुब्रत ५। तीन गुणनत ३ । और चार शिक्षाबत ४ । रूप बारह प्रकार का है। मुनिधर्म और गृहस्थधर्म में सबसे बड़ा भेद यह है कि मुनिधर्म तो साक्षात मोक्ष का कारण है पौर ग्रहस्थ धर्म परम्परा से । परन्तु ये भी नियम नहीं है कि समस्त मुनि उसी भव से मोक्ष चले जाते Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार प्रथ हैं । ये सब भावों पर निर्भर है। ज्यों-ज्यों राग द्वेषादिक प्रभावों की मंदता होती जाएगी, त्यों-त्यों अपने स्वभाव की प्राप्ति होकर अन्तिम साध्य मोक्ष के निकट पहुंचता जाएगा, परन्तु यह भी पूर्णध्यान मैं रखना चाहिए कि मोक्ष लाभ होगा मुनि धर्म से ही ग्रहस्थ धर्म से नहीं । ३०४ इसके अतिरिक्त गणधर देव ने भगवान से तीर्थंकर वलदेव, चक्रवर्ती, बासुदेव, प्रतिवासुदेव होने की बात पूछी मर्थात् ये उच्च पद कैसे प्राप्त कर सकते हैं और ऐसे कौन से कर्म हैं कि जिनके द्वारा आत्मा को गहन संसार बन में दुर्गतियों के दुख सहने पड़ते हैं। भगवान ने सब प्रश्नों का यथोचित सविस्तार वृतांत कह सुनाया । इस प्रकार भगवान का सदुपदेश सुनकर कितने हो भव्यों ने महाव्रत ग्रहण किये। बहुतों ने मणुव्रत धारण किये । कितनों ने केवल सम्यक्त स्वीकार किया मौर कितनों ने भगवान के पूजन करने की ही प्रतिज्ञा की। कमठ के जीव ज्योतिषी देव ने भी भगवान के धर्मोपदेशामृत का पान कर मिथ्यात्व के परित्यागपूर्वक सम्यक्त्व स्वीकार किया । और भी वहाँ निकटस्थ पंचाग्नि तप तपने वाले सात सौ तापसियों ने भगवान के प्रतिशय से समवशरण में आ मिथ्यात्व तज सम्यक्त्व ग्रहण किया। इस प्रकार मनेक जीवों का उद्धार कर भगवान दूसरे देशों में विहार कर गए। भगवान के समवशरण में स्वयंभू प्रमुख दशगणधर । चौदह पूर्व के पाठी ३५० माचरांग सूत्र के पाठी शिष्य मुनि १०६०० | अवधिज्ञानी मुनि १४०० । केवलज्ञानी १००० विक्रिया ऋद्धिधारी मुनि १००० । मन:पर्ययज्ञानी मुनि ५० । वाद विजयी मुनि ६०० । इस प्रकार समस्त १६००० मुनि हुए। और छतीस हजार श्रर्जिका, एक लाख श्रावक और पुण्य चूड़ा प्रमुख तीन लाख श्राविकाएं हुई और श्रसंख्यात देव देवगाना तथा संख्यात पशु सम्यक्ती हुए। इस प्रकार द्वादश सभा सहित विहार करते भगवान सम्मेद शिखर पर आए। वहां एक महीने का योग निरोधकर प्रयोग गुणस्थान को प्राप्त हो श्रावण शुक्ल 13 की रात्रि के समय कायोत्सर्गासन द्वारा सम्मेद शिखर सुवर्णभद्र कूट से परमधम मोक्ष पधारे । इनके मुक्ति गमन समय और भी ६२०० मुनि साथ मोक्ष गए। समवशारण से समस्त पांच सौ छत्तीस मुनि मोक्ष गए। ॥ इति श्री पार्श्वनाथ तीर्थंकरस्य विवरणम् ।। ear सम्मेद शिखर वर्णन श्री सम्मेद शिखर पर्वत पर सबसे ऊँची टोंक पूर्व दिशा में श्री चन्द्रप्रभु भगवान की है और पश्चिम दिशा में सबसे ऊंची टोंक श्री पार्श्वनाथ की है। इस पर्वत से बीस तीर्थंकर और प्रसंख्यात केवली परमधाम मोक्ष सिधारे हैं। इस पर्वत पर चोबीस तीर्थंकरों को चोवीस ही टोंक हैं। यद्यपि मादि धर्मोपदेशक श्री आदिनाथ भगवान का निर्वाण क्षेत्र कैलाश पर्वत श्री वासुपूज्य भगवान का चंपापुरी वन अन्तर्गत चंपातालतट, मदन विजयी श्री नेमनाथ भगवान का गिरनार पर्वत, अन्तिम तीर्थकर सिद्धार्थ नन्दन अर्थात महावीर स्वामी का पावापुर वन अन्तर्गत पद्म सरोबर तट निर्वाण क्षेत्र हैं और अवशेष बीस तीर्थंकरों का निर्वाण क्ष ेत्र सम्मेद शिखर है परन्तु यहाँ से सीर्थंकर मोक्ष होने पर चौबीस करों की चौबीस टोंक होने का कारण यह है कि... इस भरत क्ष ेत्र उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी नाम के दो काल उन्नति, अवनति के कारण एक मास में ही शुक्ल कृष्ण पक्षवत् प्रवर्तते रहते हैं जिनमें निरन्तर जीवों के शरीर की ऊंचाई और आयु में न्यूनाधिकता हुआ करती है । Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार मंच था प्रत्येक उत्सपिणी भौर प्रवसपिणी काल की स्थिति पृथक-पृथक दस कोडाकोरी सागर की होती है और दोनों की स्थिति के काल को अर्थात् बीस कोडाकोड़ी सागर के समय को एक कल्प काल कहते हैं अतः जितने प्रनन्तानन्स कल्पकाल व्यतीत हो चुके है उनमें सिवाय इस अवसर्पिणो काल के जो प्रवर्तमान हो रहा है. प्रत्येक उत्सपिणी अवसर्पिणी काल के चौबीसों तीर्थकर इसी पर्वत से मोक्ष गए हैं। दूसरे प्रलय काल के पश्चात और पर्वतों का यह नियम नहीं कि जहां पहले बने परन्तु श्री सम्मेद शिखर प्रलय काल के पश्चात यहीं बनता है मौर चौबीसों तीर्थकर यहीं से मोक्ष जाते हैं। इस कारण बीस तीर्थकरों के निर्वाण क्षेत्र वत् उक्त अन्य स्थानों में मोक्ष जाने वाले तीर्थकरों की चार टोंक सर्वया पूज्य मौर वंदनीय है। इस सम्मेद शिखर के सिद्धवर कट से श्री अजितनाप, धवलकूट से श्री संभवनाथ, आनन्द कूट से अभिनन्दन, विचल कूट से श्री सुमतिनाथ, मोहन फूट से श्री पद्यप्रभु, प्रभासकट से श्री सुपाश्र्वनाथ, ललितकूट से श्री चन्द्रप्रभु, सुप्रभटकूट से श्री पुष्पदन्त, चुतवर कूर से श्री शीतलनाथ, संकल्पकूट से श्री श्रेयांसनाथ, शालकूट से श्री विमलनाथ, स्वयंभूकूट से श्री पनन्तनाप, सुदनबरकूट से श्री धर्मनाय, शान्तिप्रद कूट से श्री शान्तिनाथ, शानघर कूट से श्री कुषनाथ, नाटककूट से श्री अरहनाथ, शांकूल कूट से श्री मल्लिनाय, निर्जराकूट से श्री मुनिसुव्रतनाथ, मित्रधर कूट से श्री नमिनाथ और सुवर्णभद्र कूट में श्री पार्श्वनाथ भगवान मोक्ष गए हैं। इति सम्मेद शिखर वर्णनम् अथ श्री महावीर तीपंकरस्य विवरण प्रारम्भ :श्री पारवनाथ भगवान के निर्वाण होने के पनन्तर दो सौ पचास वर्ष व्यतीत होने पर प्रध्युत नामक सोलहवें स्वर्ग से पपकर भारत वर्ष के सुप्रसिद्ध, मनोहर पौर विशाल कुंडलपुर (यह स्थान मगध देश में पावापुर के समीप कुंडलपुर के नाम से प्रसिद्ध है) के अधिपति राजा सिद्धार्थ की प्रियकारिणी (त्रिशला) रानी के गर्भ से अन्तिम तीर्थंकर श्री महावीर भगवान ने जन्म लिया । इनका वंशइक्ष्वाकु । गर्भ तिथि-पाषाढ़ शुक्ल ६ । जन्मतिथि-चैत्र शुक्ल १३ । जन्म नक्षत्र-उत्तरा फाल्गुनि । शरीर का वर्ण-सुवर्णसम । चिल-सिंह । पारीर प्रमाण-साव हाथ । मायु प्रमाण-बहसरवर्ष । समकालीन प्रधान राजा श्रेणिकराय । इन्होंने भी श्रीपाश्र्वनाथ भगवान की तरह तीस वर्ष की मायु में फुमारावस्था में ही जातिस्मरण का कारण पाकर संसार से उदासीन हो मार्गशीर्ष कृष्णादशमी को मपराह्न काल के समय तीन सौ मुकुट बद्ध राजाओं के साथ जिन दीक्षा ले ली । भगवान के गमन समय की पालकी का नाम-चन्द्रप्रभा । कुंडलपुर के मनोहर वन में शालि वृक्ष के नीचे बाह्याभ्यंतर परिग्रह का त्याग कर जिन दीक्षा ले ली । दीक्षित हो एक बेला करने के पश्चात कुंडलपुर में नकुलराय के यहाँ प्रथम पारणा किया। तदनन्तर बारह वर्ष घोर तपस्या करके के जुकूटा नाम को नदी के तट पर पैशाख शुक्ला दशमी (१०वीं) को अपरान काल घातिचतुष्टय का प्रभाव करके केवलज्ञान लक्ष्मी प्राप्त करली, उनके केवल ज्ञान रूप दिवाकर के उदय होने पर इन्द्र की प्राशा से कुबेर ने बारह कोठों से सुशोभित एक योजन प्रमाण समवशरण (समोशरण) नामक सभा की रचना की, भगवान द्वादश सभामों के मध्य रत्नजरित सुवर्णमय सिंहासन पर चतरागल अधर विराजे: उस महासभा मनुष्य, मुनि, तियच मादि सबका समूह एकत्रित था, तब भी विजगत गुरु वर्धमान भगवान को दिया ध्वनि ६६ दिन तक निःसृत नहीं हुई। यह देखकर जब इन्द्र ने विचार किया, तो उसे विक्षित हुमा कि गणधर देव का प्रभाव ही दिव्यध्वनि न होने का कारण है मतएव गणधर देव की शोध के लिए वह इन्द्र Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ णमोकार ग्रंथ atre ग्राम को गया, वहाँ एक ब्राह्मणशाला में इन्द्रभूति नाम का पंडित अपने पांच सौ शिष्यों के सन्मुख व्याख्यान दे रहा था । इन्द्रभूति अखिल वेदांग शास्त्रों का विद्वान था और विद्या के मद में चूर हो रहा या । इन्द्र छात्र का वेष धारण करके उस पाठशाला में एक मोर जाकर खड़े हो गये और उसके ध्याख्यान को सुनने लगे। टर में सिम लेते हुए जब कहा कि "क्यों तुम्हारी समझ मैं प्राया" और छात्रवृन्द जब कहने लगे कि "ही श्राया", तब इन्द्र ने नाशिका का अग्रभाग सिकोड़कर इस प्रकार से अरुचि प्रकट की कि वह छात्रों की दृष्टि में श्रा गई, उन्होंने तत्काल ही उस भाव को गुरु महाराज से निवेदन किया । इन्द्रभूति ब्राह्मण इस प्रपूर्व छात्र से बोला कि "समस्त शास्त्रों को मैं हथेली पर रखे हुए श्रवले के समान देखता हूं और प्रत्याय वादीगणों का दुष्टमव मेरे सन्मुख आते ही नष्ट हो जाता है फिर कहो किस कारण से मेरा व्याख्यान तुम्हें रुचिकर नहीं हुआ ?" इन्द्र ने उत्तर दिया "यदि प्राप सम्पूर्ण शास्त्रों का तत्व जानते हैं तो मेरी इस भार्या का अर्थ लगा दीजिए और यह श्रार्या उसी समय पढ़के सुनाई - प्रार्या षड़प नव पदार्थ त्रिकाल पंचास्तिकाय षटकायान् । विदुषांवरः सवहि, यो जानाति प्रमाण नयेः ॥" इस अभुतपूर्व और प्रत्यन्त विषम अर्थ वाली भार्या को सुनकर इन्द्रभूति कुछ भी नहीं कह सका, अर्थात कुछ भी नहीं समझा। यद्यपि आर्या के शब्दों का अर्थ कुछ कठिन नहीं है अपितु सरल व सुगम है कि जो पद्रव्य नव पदार्थ, तीन काल, पंचास्तिकाय और छह्कायों को प्रमाण नय पूर्वक जानता है वही पुरुष विद्वान में श्रेष्ठ है, परन्तु इसमें जिन पदार्थों की संख्या बतलाई है वह किसी भी दर्शन में नहीं मानी गई है इसीलिए इन्द्रभूति उसका प्रभिप्राय प्रगट न कर सका था। इसीलिए वह बोला, "तुम किसके विद्यार्थी हो ?" इन्द्र ने उत्तर दिया- "मैं जगद्गुरु श्री वर्द्धमान भट्टारक का छात्र हूं।" तब इन्द्रभूति ने कहा "मोह ! क्या तुम उसी सिद्धार्थ नन्दन के छात्र हो जो महाइन्द्रजाल विद्या का जानने वाला है और जो लोगों को आकाशमार्ग में देवों को आते दिखलाता है अच्छा तो मैं उसी के साथ शास्त्रार्थ करूंगा, तेरे साथ क्या करूँ। तुम्हारे जैसे छात्रों के साथ विवाद करने से गौरव की हानि होती है। चलो चलें उससे शास्त्रार्थ करने के लिए" – ऐसा कहकर इन्द्रभूति इन्द्र को मारो करके प्रपने भाई प्रग्निभूति और वायुभूति के साथ समोशरण की ओर चला ! वहाँ पहुँचने पर ज्यों ही मानस्तंभ के दर्शन हुए त्यों ही उन तीनों का गवं गलित हो गया, पश्चात् जिनेन्द्र भगवान को देखकर उनके हृदय में भक्ति का संचार हो गया प्रतएव उन्होंने तीन प्रद क्षिणा देकर नमस्कार किया, स्तुतिपाठ पढ़ा और उसी समय समस्त परिग्रह का त्याग करके जिन दीक्षा ले ली। इन्द्रभूति को तत्काल ही सप्त ऋद्धियाँ प्राप्त हो गई और अन्त में वे भगवान के बार ज्ञान के धारी प्रथम गणधर हो गए। समोशरण में उन इन्द्रभूति गणधर ने भगवान से 'जीव प्रस्तिरूप है, पथवा नास्तिरूप है, उसके क्या-क्या लक्षण हैं, वह कैसा - इत्यादि सात हजार प्रश्न किए ।उसर में जीव मस्तिरूप है, नादिन है, शुभाशुभ कर्मो का भोक्ता है, प्राप्त हुए शरीर का प्राकार है, उत्पाद व्यय धौम्य लक्षण विशिष्ट है, स्वयं वेदना है। अनादि प्राप्त कर्मों के सम्बन्ध से नौकर्मरूप पुद्गलों को ग्रहण करता हुमा, छोड़ता हुमा, भव भव में भ्रमण करने वाला मीर उक्त कर्मों के क्षय होने से मुक्त होने वाला - इस प्रकार से अनेक भेदों से जीवादि वस्तुओं का सद्भाव भगवान ने दिव्य ध्वनि के द्वारा प्रस्फुटित किया । पश्चात् श्रावण मास को प्रतिपदा को सूर्योदय के समय रोम मुहूर्त में जब कि मामभि Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गमोकार ग्रंथ ३०७ जित नक्षत्र पर था, गुरु के तीर्थ की (दिव्य-ध्वनि की अथवा दिव्यधति द्वारा संसार समुद्र से तिरने में कारण भूत यथार्थ मोक्ष मार्ग के उपदेश) उत्पन्नता हुई। __ श्रीइन्द्रभूति गणधर ने भगवान की वाणी को तत्वपूर्वक जानकर उसी दिन सायंकाल को मंग पौर पूर्वो की रचना युगपत की और फिर उसे अपने सहधर्मी सुधर्मा स्वामी को पढ़ाया। इसके अनन्तर सधर्माचार्य ने अपने सधर्मी जम्बस्वामी को और उन्होंने अन्य मुनिवरों को वह श्रत पहाया। अथानन्तरजब भव्य जीव जन्म-जरा-मृत्यु रूप रोग को दूर करने वाले भगवान के धर्मोपदेश रूप अमृत का पान कर परमानन्द सागर में निमग्न थे उस समय सुरेश ने खड़े होकर मवधिज्ञान द्वारा भगवान का विहार समय जानकर ये विनती करी 'हे भगवान् ! हे दया सागर | प्राप संसार के पालक हो, प्राणीमात्र के निस्वार्य बन्धु हो, दु:खों के नाश करने वाले हो और सब प्रकार सुखों के देने वाले हो प्रतएव हे जगदीश ! यह विहार समय है सो कृपा करके विहार कर मोहरूपी प्रन्धकार से प्रात्मकल्याण के मार्ग से पज्ञात भव्य जीवों को अपने उपदेश रूपी किरणों से मिथ्यात्व रूपी घोर अंधकार को नष्ट कर उनके हृदय में ययार्य मोक्ष मार्ग का प्रकाश कीजिए।' इस प्रकार इन्द्र के द्वारा प्रार्थना करने पर भव्य जीवों के परम प्रकर्ष पुन्योदय से भगवान का अनिच्छक गमन होता हुमा, भगवान जिस मार्ग द्वारा गार करें उस मार्ग की भूमि को पवनकुमार जाति के देव कंटक रहित करते जाते हैं, और वह एक योजन तक तण रजादि रहित दर्पगवन् निर्मल हो जाती है । मेषकुमार जाति के देव सुगंधित जल के कण मोती के समान बरसाते जाते हैं। पवन कुमार संशक देव मंद, सुगंधित वशीतल पवन बहाते आते हैं. उस मार्ग में भगवान तो समवशरण की ऊँचाई प्रमाण माकाश में गमन करते हैं और भक्ति से प्रेरित देव उनके चरण कमल के नीचे सुवर्णमयी पन्द्रह-पन्द्रह कमलों की पन्द्रह पंक्ति मर्यात दो सौ पच्चीस कमलों का समुदाय एक स्थल रचते हैं, उनमें सबसे मध्य के कमल पर चार पंगुल मन्तर से अन्तरिक्ष में परण रखते मनुष्यवत् डरा भरते हुए । भगवान विहार करते जाते हैं पौर मुनि, अमिका, श्रावक, श्राविकामों का चार प्रकार का संघ का विहार भूमि में होता है, कैसी है वह भूमिकोट-वह संयुक्त वीथी रूप है मौर देव, विद्याधर, पारण मुनि, सामान्य केवली ये भी माफाश में गमन करते हैं। भगवान के केवल ज्ञान के प्रतिशय के प्रभाव से न तो शरीर की छाया पड़ती है मौ न नख, केश बड़ते हैं और उनका एक मुख होसे हुए चारों दिशावर्ती जीवों को चतुर्मुख से दर्शन होते हैं। भगवान के आगे-मागे सूर्य चन्द्र के प्रकाश को मंद करने वाले सहस्त्र पोर से संयुक्त बलयाकार धर्म चक्र चला जाता है, देव मनुष्यगण जय-जयकार करते चले जाते हैं. -इत्यादि वैभव से संयुक्त विहार करते भगवान जहाँ जाकर विराजेंगे वहाँ इन्द्र की मात्रा से प्रथम धनाधिपादिक देव जाकर समोचरण रचना पूर्ववत रचते हैं तब भगवान विहार कर जाकर विराजते हैं इस प्रकार जगत्पूज्य श्री स ग्मतिनाय प्रमेक निकट भल्गरूपी सस्यों को (धान्य को) धर्मामृत-रूपी वर्षा के सिंचन से परमानंधित करते हुए तीस वर्ष तक ममेक देशों में बिहार करते हुए कमलों के धम से प्रतिशय शोभायमान पावापुर के उधान में पहुंचे। भगवान के गण में इन्द्रभूति प्रसस्त ग्यारह (११) गणषर वादविजयी मुनि पार सो (४००),पौवह पूर्व के पाठी तीन सौ, माचारोग भूल पाठी शिष्य मुनि १० प्रदिशानी तेरह सौ, केबलनामी..., विक्रिया अधिपारी १००, ममः पयामी पापसी (५००) थे। Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार ग्रंथ प्रपादशावती विवरण प्रारम्भ:प्रादि वृषोपदेशक श्री ऋषम देव के समय में उनके पुत्र भरत प्रथम पक्रवर्ती हुए । उनके शरीर का प्रमाण-५०० धनुष, मायु-चौरासी लाख पूर्व, उसमें कुमारकाल-सत्तर लाख पूर्व, महामंडलेश्वर पदस्थ राज्यकाल-हजार वर्ष पश्चात प्रायुषशाला में चक्र रतन प्रगट होने के प्रनन्तर दिग्विजय किया उसका काल-साठ हजार वर्ष, राज्यकाल-एक लाख पूर्व कम छह लाख पूर्व, संयम काल-तमुहुर्त, पश्चात शुक्ल ध्यान द्वारा घातिचतुष्क का प्रभावकर लोकालोक प्रकाशक केवल ज्ञान प्राप्त किया और संसार द्वारा पूज्य होकर किंचित न्यून एक लाख पूर्व पर्यन्त केवलशान द्वारा मोहरूप पन्धकार को नष्ट कर अनेक भव्यजनों को मात्महित मार्ग पर लगाया और अन्त में प्रघातिचतुष्क का भी नाश कर परमधाम मोक्ष सिधारे वे ऋषभदेव के सुल भरतमुनिराज मुझे भी मात्महित मार्ग पर लगावें। द्वितीय सागर नाम के चक्रवतिन श्री मजितनाय भगवान के समय में हुए, इनका शरीर प्रमाण-चार सौ पचास धनुष, आयु प्रमाण-बहत्तर लाख पूर्व था, उसमें पचास हजार लाख पूर्व तक तो वे कुमार और मंडलीक रहे। तीस हजार वर्ष पर्यंत दिग्विजय किया । उनहत्तर लाख सत्तर हजार. पूर्व, निन्यानवे हजार नौ सौ निन्यानवे पूर्वाए, तिरासी लाख वर्ष पर्यंत राज्य किया और एक लाख पूर्व काल तक संयमी रडे अन्त में केवल ज्ञान को प्राप्ति कर अनन्त अविनाशी मोक्ष लक्ष्मी के स्वामी हए। तीसरे मघवान नाम के चक्रवर्ती श्री धर्मनाथ पौर शान्तिनाथ भगवान के अन्तराल के प्रति धर्मनाथ भगवान के निर्वाण होने के प्रनन्तर मौर शान्तिनाय के अवतार से पहले मध्य के समय में हुए। इनका शरीर प्रमाण ४२६ धनुष, मायु प्रमाण-लाख वर्ष, उसमें कुमार काल-पच्चीस हजार वर्ष, महामंडलेश्वर पद को राज्य काल पच्चीस वर्ष, पश्चात् चक्रलाभ होने के पनन्तर दिग्विजय काल · दस हजार वर्ष, तदनन्तर राज्यकाल-तीन लाख नब्बे हजार वर्ष, संयम काल-पचास हजार वर्ष, पश्चात साम्यभाव से मृत्यु लाभ कर स्वर्ग लोक प्राप्त किया ॥ ३ ॥ चौथे सनत्कुमार नाम के चक्रवर्ति थे, ये भी श्री धर्मनाथ पौर शान्तिनाथ भगवान के अन्तराल समय में हुए । इनका शरीर प्रमाण ४१३ घनुष, आयु प्रमाण-तीन लाख वर्ष, उस में कुमार कालपचास हजार वर्ष, महामंडलेश्वर पद पचास हजार वर्ष पश्चात चक्रलाभ होने के मनन्तर दिग्विजय काल-दस हजार वर्ष तदनन्तर राज्यकाल-नब्बे हजार वर्ष, संयम-काल एक लाख वर्ष, तदनंतर पायु के अन्त में शांति से मृत्यु लाभ कर स्वर्गलोक प्राप्त किया ॥४॥ और पांचवे चक्रवति श्री शांतिनाथ तीर्थकर हुए। इनका शरीर प्रमाण-४५ धनुष, प्रायु प्रमाण-एक लाख वर्ष, इसमें कुमारकालपच्चीस हजार वर्ष महामंडलेश्वर पद-पच्चीस हजार वर्ष, दिग्विजय काल-पाठ सौ वर्ष, पक्रवर्ती पदचौबीस हजार दो सौ वर्ष, संयम (तपश्चरण) काल-सोलह वर्ष ; तदनंतर शुक्ल ध्यान द्वारा पातिया कर्मों का नापाकर लोकालोक का प्रकाशक केवल ज्ञान प्राप्त किया और देव इन्द्र विद्याधर चक्रवर्ती भादि महापुरुषों के द्वारा पूजित हो समोशरणादि विभूति सहित भनेक देश, नगर, ग्रामों में बिहार करते हुए संसार ताप को नाश करने वाले परम पवित्र उपदेशामृत से अनेक जीवों को संसार दुख से छुटाकर सुखी बनाया, अन्त में अघातिया कर्मों का भी नाश कर प्रक्षयानंत मोक्ष सुख प्राप्त किया, ये शांतिनाथ स्वामी मुझे शांति प्रदान करे ।। ५ ।। छठे पक्रवति श्री कुथनाथ हुए । इनका शरीर प्रमाण-पिचानवे हजार वर्ष इसमें कुमारकालसईस हजार सातसौ पचास वर्ष, महामंडलेश्वर पद-पौने चौबीस इजार वर्ष, दिग्विजय काल-छह सौ वर्ष, Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार अंष चक्रवर्ती पद-तेईस हजार डेढ़ सौ वर्ष, संयम काल सोलह वर्ष । तदनंतर घातिया कर्मों के नाश द्वारा केवल ज्ञान प्राप्त कर सोलह वर्ष कम पौने चौबीस हजार वर्ष पर्यंत केवलज्ञानी होकर अनेक जीवों को धर्मोपदेश देते हुए अन्त में अघातिया कर्मों का भी नाश कर परम धाम पद को सिधारे ॥ ६ ॥ सातवें चक्रवर्ती श्री अरहनाथ तीर्थकर हुए, इनका शरीर प्रमाण-३० धनुप, ग्रायु प्रमाण ... चौरासी हजार वर्ष, इसमें कुमार काल-२१ हजार वर्ष, महामंडलेश्वर पद--२१००० वर्ष, दिग्विजयचारसौ वर्ष, संयमकाल..-सोलह वर्ष, पश्चात् केवल ज्ञान प्राप्त कर सोलह वर्ष कम इक्कीस हजार वर्ष पर्यन्त दुर्गति के दुखों का नाश करने वाले पवित्र जैन धर्म का उपदेश देकर अनेक जीवों को प्रात्महित साधक पवित्र मार्ग पर लगाया और शान्त में प्रघातिया कर्मों का नाश कर अनन्त काल स्यामी निज आत्मिक सुख को प्राप्त किया ॥ ७ ।। आठवें सुभुम नाम के चक्रवर्ती श्री अरहनाथ और मल्लिनाथ भगवान के अन्तराल में हुए। इनका शरीर प्रमाण-२८ धनुष, प्रायु प्रमाण–अड़सठ हजार वर्ष, इसमें कुमार काल - पांच हजार वर्ष, दिग्विजय काल ---पांच सौ वर्ष, चक्रवर्ती पद -बासठ हजार पाँच सौ वर्ष । ये परशुराम के भय से सन्यासियों के साश्रम में गोप्य रहे, इसमे मांसार सरीर भोगों से विरक्त नहीं हुए और इसी अवस्था में प्रार्तध्यान से मरण कर महातम नाम सप्तम पाताल भूमि के निवासी हुए ।। ६ । नवमें महापद्म नाम के चक्रवति श्री मल्लिनाथ और मुनिसुव्रतनाथ के अन्तराल में हुए । इनका शरीर प्रमाण बाईस धनुष, मायु प्रमाण-तीस हजार वर्ष, उस में कुमार काल - पांच सौ अपं, महामण्डलेश्वर पद'-पाँच सौ वर्ष, दिग्विजया-तीन सौ वर्ष, चक्रवति पद.. अठारह हजार सात सौ वर्ष, संयम काल-दश हजार वर्ष । पश्चात् केवल ज्ञान प्राप्त कर कुछ समय के अनन्तर अघातिया को का प्रभाव कर मोक्षगामी हुए ॥ ६॥ दश सुषेणनाम के चक्रवर्ती श्री मुनिसुसुवनाथ और नमिनाथ भगवान के अन्तराल में हुए। इनका शरीर प्रमाण-बीस धनुष, आयु प्रमाण-छब्बीस हजार वर्ष, उसमें कुमार काल-सवा तीन सौ वर्ष, दिग्विजय-डेढ सौ वर्ष, चक्रवति पद-पच्चीस हजार एक सौ पच्चीस वर्ष, संयम काल-साढ़े तीन सौ वर्ष । पश्चात् केवल ज्ञानी हो मन्त में प्रघातिया कर्मों का प्रभावकर परमधाम सिधारे । ग्यारहवें जयसेन नाम के चक्रवति श्री नमिनाथ और नेमि नाथ भगवान के अन्तराल में हुए। इनका शरीर प्रमाण---१४ धनुष, प्रायु प्रमाण--चौबीस सौ बर्ष, उसमें कुमार काल-सौ वर्ष दिग्विजय काल-- सौ वर्ष, चक्रवति पद-अठारह सौ वर्ष, संयम काल-केवल ज्ञान समय प्रमाणा चार सौ वर्ष। अन्त में प्रघातिया कर्मों का नाश कर निर्वाण गामी हुए ॥ ११ ।। बारहवें ब्रह्मदत्त नाम के चक्रवति श्रीनेमनाथ और पार्श्वनाथ भगवान के अन्तराल में हुए, इनका शरीर प्रमाण-सात धनुष, भायु प्रमाण -सात सौ वर्ष, इसमें कुमार काल-प्रठाईस वर्ष । महामंडलेश्वर ---छप्पन वर्ष, दिग्विजय कालसोलह वर्ष, चक्रवति राज्य काल-छह सौ वर्ष । इस प्रकार सात सौ वर्ष राज्य में हो पूर्ण कर अंत में आर्तध्यान से मरण प्राप्त कर सप्तम पाताल परा पधारे । इस प्रकार बारह चक्रवयिों के मायु का प्रमाण कहा । ये सब चक्रवति षटखंड के अधिपति और समान वैभव के धारक होते हैं, उनकी विभूति का संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है। चौपाई सहस बत्तीस सात सौ देश, धन कन कंचन भरे विशेष । विपुल बाउ बेढे चहुँ भोर, ते सब गाँव छियानवे कोर ॥ १।। कोट-वोट दरवाजे चार, ऐसे पुर छब्बीस इजार । जिन को लगे पांच सौ गांम, ते प्रटंब चड़ सहस मुठाम ॥ २ ॥ Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૩. ६ ॥ पर्वत और नदी के पेट, सोलह सहस कहे वेखेट | करवट नाम सहस चौवीस, केवल वेढे गिरवर दीस ॥ ३ ॥ पट्टन अड़तालीस हजार, रतन जहाँ उपजै अतिसार । एक लाख द्रौणामुख वीर, सहस घाट सागर के तीर ॥ ४ ।। गिरि ऊपर संवाहन जान, चौदह सहस मनोहर थान । अठाईस हजार अशेष, दुर्गे जहाँ रिपु को न प्रवेश ॥ ५ ॥ उपसमुद्र के मध्य महान, श्रन्तद्वीप छप्पन परमान । रत्नाकर छबीस हजार, बहुविध सार वस्तु भन्डार ॥ रतन कुक्षि सुन्दर सात से रतनधारा थानक जहाँ लर्स । ये 'पुर सुवस राजें खरें, जैन धाम साधर्मी जन भरें ॥ ७ ॥ वरगयंद चौरासी लाख, इतने ही रथ श्रागम साख । तेज तुरंग अठारह कोर, जे पद चलें पवन वे जोर ॥ ८ ॥ पुति चौरासी कोड प्रभान, पायक संघ महाबलवान । सहस छियानवें वनिता गेह, तिनको पत्र विवरण सुन लेह ॥ ६ ॥ मारजखंड बसें नरईस, तिनकी कन्या सहस बतीस । इतनी ही प्रतिरूप रसाल, विद्यावर पुत्री गुणमाल ॥ फुनि मलेक्ष भूषन की जान, राजकुमारी तावतमान् । नाटक गण बतीस हजार, चकी नृप का सुख दातार ।। आदि शरीर आदि संठान, पुत्र कथित तन लक्षण जान । बहुविध व्यंजन सहित मनोग, हेम वरन तन सहज निरोग ।। छहों खंड भूपति बलरास, तिन सों अधिक देह बल जास । सहस बत्तीस चरण तल रमें, मुकुट वद्ध राजा नित नमें ।। १३ ।। भूष 'मलेक्ष छोड़ अभिमान, सहरा अठारह माने आन फुनि गन्न वद्ध बखाने देव, सोलह सहस करें नृप सेव ॥ १४ ॥ कोट थाल कंचन निर्मान, लाख कोड़ हल सहस किसान । १० ॥ ११ ।। १२ ।। णमोकार ग्रंथ १६ ।। नाना वरन गऊ कुल भरे तीन कोट व्रज आगम धरे ।। १५ ।। मुख्य संपदा को विरतंत, आगे और सुनो मतिवंत । सिंह वाहिनी सेज मनोग, सिंहारूढ़ चक्क वैजोग ।। श्रासन तुंरंग अनुत्तर नाम, मानक जाल जटिल अभिराम । अनुपमनामा मर अनूप, गंगा तरल तरंग सरूप ॥ विद्युत द्युति मणि कुडल जोट, छिपे और दुति जिनकी प्रोट । कवच प्रभेद अभेद महान, जामें भिदें न बैरी बान ।। १८ । विषमोचनी पादुका होय, पर पद सों विष मूंचे सोय । १७ ॥ जिसंजय रथ महारवन्न, जल पै थलवत् करें गवन्न ।। १६ ।। ब्रजकांडवकी नृप चाप, जाहि चढ़ायें नरपति प्राप । बाण अमोघ जब कर लेत, रण में सदा विजय कर देत ।। २० ॥ Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार प्रय विकट बच तुडा अभिधान, शत्र खंडनी शक्ति जान । सिंहासक बरछी विकराणा, रतन दंड लामो रिपुकाल ।। २१ ।। लोह बाहिनी तीषन छुरी, जिम चमके चपला दुति भरी। ये सब वस्तु जात भूमहि, चक्री छ्ट और घर नाहिं ।। २२ ।। प्रानन्द भेरी दश अक दोष, बारह योजन लो धुनि होय ।। बच्च घोप फुनि जिन को नाम, बारह पटह नृपति के धाम ।। २३ ॥ वस्त्र गभीरावर्त गरीस. शोमन रूख शंख चौबीस । नाना वरन ध्वजा रमनीय, अड़तालोस कोट मितकीय ।। २४ ॥ इत्यादिक बहु बस्तु अपार, वर्णन करत लग वहुवार । महल तनी रचना असमान, जिनमत कही सु लीजो जान ।। २५ ।। ---इत्यादि अनेक प्रकार की विभूति सहित चक्रवर्ती होते हैं । प्रगट रहे कि चक्रवति के छियानवे हजार रानियां होती हैं, जिनमें चक्रवर्ती तो केवल एक स्त्री से ही संभोग करता है, अवशेष स्त्रियों से चक्रति की विक्रिया शक्ति से प्रादर्भत रानियों की संख्या के समान कृत्रिम पूतले संभोग करते हैं। वे पुतले चक्रवर्ती की प्राकृति के समान ही होते हैं, जिससे रानियों को पुतले और चक्रवर्ती में भेद ज्ञान नहीं होता है। दूसरे ये भी प्रगट रहे कि चक्रवर्ती के षट् प्रकार को सेना होती है और सामान्य राजाओं के चार प्रकार की होती है । उनके देव विद्याधर नहीं होते हैं। ये छह प्रकार की सेना इस प्रकार होती है-(१) समस्त दोनों श्रेणी के विद्याधरों की सेना (२) भरतक्षेत्र सम्बन्धी देवों की सेना । (३) पयादों की सेना । (४) रथ सेना चौरासी लाख 1 (५) हाथी सेना चौरासी लाख । (६) घोटक सेना, पठारह करोड़। ऐसे सेना संख्या बतलाकर प्रागे षठखण्डाधिपति चक्रवति के पुण्य के महात्म्य से चौदह रत्न होते हैं उनके नाम और गुण लिखते हैं। चौपाई :-प्रथम सुदर्शन चक्रपसछ, छहों खंड साधन समरछ । चंडवेग दिढ़दंड दुतीय, जिस बल खुले गुफा गिरकीय ॥१॥ चर्मरतन सों तृतीय निवेद, महाबन मय नीर प्रभेव । चतुर्थचुडामणि मणिरेन, अंधकार नाशक सुख देन ॥२॥ पंचम रतन कांकनी जान, चिंतामणि जाको अभिधान । इन दोनों तें गुफा मझार, शशि सूरज लखिए निरधार ॥३॥ सुरज प्रभशुभ क्षत्र महान, सो अति जगमगायज्यों भान । सो नंदक प्रति अधिक प्रचंड, डरे देश शत्रु बलवंड ॥४॥ पुनि प्रजोध सेनापति सूर, जो दिग्विजय करै बलभूर । बुधि सागर प्राहित परवीन, बुद्धि मिधान विद्यागुणलोन ॥५।। थपतिभद्रमुख नाम महत, शिल्पकला को विदगुणवंत । कामवृद्धि गृहपति विख्यात, सव ग्रह काज करै दिनरात ॥६॥ प्याल विजय गिर प्रति अभिराम, तुरंग तेज पवनंजय नाम । वनिता नाम समुद्रा कही, चूरै बज्रपान सों सही ॥७॥ महादेव बल धार सोय, जा पटतर तिया और न कोय । मुख्य रतन ये चौदह जान, और रतन को कौन प्रमाण ||८|| Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२ णमोकार ग्रंथ योहा:.... राज अंग चौदह रतन, विविध भांति सुखकार । जिनकी सुर सेवा करें, पुन्य तरोवर डार ।।६।। चक्र छन असि दंड मणि, चर्म काकिनी नाम । सात रतन निरजीव से, चक्रवति के धाम ||१०|| सेनपतिग्रहपति थपत, प्रोहित नाम तुरंग । बनिता मिल सातो रतन, ये सजीव सरबंग ॥११|| चक्र छत्र असि दंड ए, उपजे आयुध थान । चर्म कांकिनी मिल रतन, श्री ग्रह उपपति जान ॥१२॥ गज तुरंगतिय तीन ए, रूपाचल पं होत। चार रतन बाकी विमल, निज पुर लहें उदोत ।।१३।। 'अर्थ: - सुदर्शनचक्र (१), चंडबेग नामक दंड (२), चर्म रत्न (३), चूड़ामणिरत्न (४), कांकणी रत्न (५), सूरजप्रभनामक छत्र (६), नंदक नामक असिरत्न (७), अजोधनाम सेनापति रत्न (८), बुद्धि सागर नामक...प्रोहित रत्न (E), स्थापितभद्रमख शिल्पि रत्न (१०), काम वृद्धि गृहपतिरत्न (११), विजया गिरनायक हस्ती रत्न (१२), पवनंजय नामक, अश्व (१३), सुभद्रा नामक स्त्री रत्न (१४), इस प्रकार चौदह रतन हैं इन एक-एक रत्नों की एक-एक हजार देव सेवा करते हैं। अब इन रत्नों से क्या क्या कार्य सिद्धि होती है वह कहते हैं चक्रवर्ती जिस पर अपना शासन करने की अभिलाषा करता है, उसके निकट चक्र के रक्षक देव जाकर चक्रवर्ती की प्राज्ञा करते हैं ये चक्ररत्न का कार्य है ।१। विजयास पर्वत के गुफा के कपाटों का खोलना-ये चंडवेग नामक रल का कार्य है ।२। सेना सहित चक्रवति को प्रयाण करते हुए मार्ग में कहीं पर नदी सरोवरादिक का अगाध जलाशय मा जाए तो वहां पर धर्म रत्न बिछा देने से थल के समान हो जाता है जिससे समस्त कटक पार हो जाता है, ये चर्मरत्न का कार्य है ।३। विजयापपर्वत को गुफा पचास योजन लम्बी है, इस कारण उसमें महामंधकार है। चक्रवति जब उसमें प्रवेश करता है तो चूड़ामणि के उद्योत से सूर्यबत् प्रकाश हो जाता है, जिससे चक्रवर्ति निःखेद गुफा के पार चला जाता है, ये चूडामणि रत्न का कार्य है ।।४।। चक्रवति जब बृषभाचल पर्वत पर आता है तब कांकणी रतन से उस पर लिखे हुए पूर्व चक्रवति का नाम मिटा कर अपना नाम लिख देता है, और इसके उद्योत से भी गुफा में १२ योजन पर्यंत प्रकाश हो जाता है ये कांकणी रत्न का गुण है ।१५|| चक्रवति के कटक पर जब मेध वर्षा होती है तब छत्र रत्न के छा लेने से मेघ वर्षा कृत बाधा नहीं होती ये छत्र रत्न का गुण है ।।६।। जिसके तेज के दर्शन मात्र से शत्रुओं का हृदय कांप जाए और अपने तेज शत्रुओं को प्राशानुवर्ती करने वाला ऐसा नंदक नामक प्रसिरत्न का गुण है ।।७।। ये सात रत्न अचेतन जानने चाहिए। समस्त आर्य मलेच्छ खंड के राजाओं को जीत कर चक्रवति के शासनानुवर्ती चरण सेवक बनाए ये प्रजोधनाम सेनापति रत्न का गुण है ॥६॥ चक्रवति की प्रजा को सुख और आनंद की दायक, यश प्रगट करने वाली, शत्रुवशीकारक सम्मति देना-सो बुद्धि सागर प्रोहित रत्न का कार्य है ॥६॥ चक्रवर्ति की इच्छानुसार शासन करते ही तत्क्षण अनेक क्षण के चित्रामादि संयुक्त महा मनोहर महल तैयार Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार व करना (बनाना) स्थापित भद्रमुख नामक शिल्पिरत्न का कार्य है ।१०। चक्रवर्ती के गृह सम्बन्धी कार्य का सावधानी पूर्वक प्रबन्ध करना रक्षा करना-कामवृद्धि नामक गृहपति रत्न का कार्य है 1१११ चक्रवर्ती को मन की इच्छानुसार सुन्दर गति से सवारी देना-विजय र्द्ध गिर नामक हस्तीरत्न का कार्य है ।१२। चक्रवर्ती के चित्त को सुखदायक पवन के समान शीघ्रगामी मनोहर गति से सवारी देना पवनंजय नामक प्रश्वरत्न का कार्य हैं ।१३।। सुकुमार व सुगंधित शरीर वाली स्वर्ग की देवांगनाओं से अधिक सुन्दर बुद्धिमती चतुर चक्रवर्ती की प्राशाकारिणी, सती विदुषी अपने कर कमलों से रत्न चूर्ण करने वाला महाबलवान चौदह्वां सुभद्रा नामक स्त्री रत्न है ।१४।। __ ये सात रत्न चेतन जानने चाहिए । सब चेतन-अचेतन मिलाकर गौदह रत्न हुए। अब इनका उत्पत्ति स्थान लिखते हैं। चक्र, छत्र, असि और दंड-ये चार प्रायुधशाला में, चरम कांकणी और चूड़ामणि ये तीन श्रीगह में, हस्ती, घोटक और स्त्री-ये तीन विजया पर्वत पर और शिल्पि, प्रोहित, सेनापति तथा गृहपति-ये चार निज-निज नगरी में उत्पन्न होते हैं । इस प्रकार चौदह रत्नों का सामान्य स्वरूप कहा । प्रम मागे नवनिधियों के नाम और गुण कहते हैं: - चौपाई प्रथम काल निधि शुभ प्राकार सो अनेक पुस्तक दातार । महाकाल निधि दूजी कही, याकी महिमा सुनियो सही ॥ मसि मसि आदिक साधन जोग, सामग्री सब देय मनोग। तीजी निधि नैसर्प महान, नाना विधि भोजन की खान ।। पांधुक नाम चतुर्थी होय, सब रस धान समर पे सोय । पदम पंचमी सुकृती षेत, बंछित बसन निरंतर देत ।। मानव छठी है निधि जेह, प्रायुध जात जनम भुवतेह। सप्तम सुभग पिंगला नाम, बहु भूषण प्रापै अभिराम ।। शंख निधान माठमी गिनी, सब वाजिक भूमि का बनी। सर्व रतन नौमि निधि सार, सो नित सर्व रतन भंडार ।। दोहा ए नवनिधि चक्रश के, शकटाकृति संठान । पाठ चक्र संयुक्त शुभ, चौषूटी सब जान ।। योजन पाठ उतंग प्रति, नव योजन विस्तार। बाहर मित दीरघ सकल, बसें गगन निरधार ।। एक-एक के सहस मित, रषवाले जषि देव । ए निषि उपजे पुन्य सों: सुखदायक स्वयमेव ।। इत्यादि अनेक प्रकार की विभूति संयुक्त बत्तीस हजार मुकुटबद्ध राजामों पर शासन करते हुए षट्खंड का निष्कटक होकर राज्य करते हैं। उनमें जो तप करते हैं वे तो स्वर्ग या मोक्ष में जाते हैं और जो राज भोग में ही मासक्त होकर मरण करते हैं वे अवश्य नरकगामी होते हैं। Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमाकार ग्रंथ सूचना:-ये सब नव निधियां चक्रवर्ती के पुण्य के प्रभाष से स्वतः उत्पन्न होती हैं। ये सब पाठ चक्र संयुक्त, गाड़ी के आकार धोखूटी, पाठ योजन ऊँची, नव योजन चौड़ी और बारह योजन लम्बी प्राकाश में निराधार रहती हैं।' इस प्रकार वर्तमान काल के बारह चक्रवतियों का वर्णन किया । प्रागे नव नारायणों का वर्णन लिखते हैं :ये चक्रवर्ती से अर्द्ध वैभव के धारी होते हैं । इनके अठारह हजार प्रमाण रानियां होती हैं और एक मार्यखंड एवं दो म्लेच्छ खंड--ऐसे तीन खंडों का ये निष्कंटक नीतिपूर्वक राज्य करते हैं। चक्रवर्ती के चक्र तो आयुधशाला में उत्पन्न होता है परन्तु नारायण के यहां नहीं। यह चक्र प्रतिनारायण की आयुषशाला में प्रादूर्भूत होता है। जब इनका विशेष कारण पाकर परस्पर संग्राम होता है तब प्रतिनारायण युद्ध के समय नारायण को मारने का और कुछ उपाय न देखकर उस पर चक्र चलाता है परन्तु पुण्य के प्रभाव से चक्र उनकी प्रदक्षिणा देकर उनके हाथ में आ जाता है और पुण्य के विचित्र प्रभाव से उन्हीं का प्राज्ञाकारी हो जाता है। फिर नारायण उसी चक्र को अपने प्रतिनारायण पर चलाता है तो वह उसको धाराशायी करके उल्टा नारायण के हाथ में आ उपस्थित होता है । इस चक्र रत्न के साथ और भी जो छह रत्न होते हैं वे भी इन्हीं को प्राप्त हो जाते हैं और इनका ही उन पर स्वामित्व हो जाता है। इस प्रकार नियम से ही प्रतिनारायण की मृत्यु नारायण के द्वारा ही होती है और राज भोग में ही लवलीन होकर आतध्यान से भरण करने से प्रतिनारायण और नारायण दोनों नियम से मरकगामी होते हैं । इस वर्तमान काल में जो नारायण हुए हैं उनके नाम इस प्रकार हैं : (१) प्रथम नारायण त्रिपृष्ट-ये श्री श्रेयांस नाथ भगवान के समय में हुए। इनका शरीर प्रमाण---अस्सी धनुष । प्रायु प्रमाण-चौरासी लाख वर्ष। उसमें कुमार काल-पच्चीस हजार वर्ष । दिग्विजयी काल-एक हजार वर्ष । त्रिखंड राज्य काल-८३ लाख ७४ हजार वर्ष आयु के अन्त में प्रार्तध्यान से मरणकर तमाप्रभा वा मघवी नामक छठी नरक में गए। (२) दूसरे नारायण द्विपृष्ट-ये श्री वासुपूज्य भगवान के समय में हुए। इनका शरीर प्रमाण-सत्तर धनुष । प्रायु प्रमाण बहत्तर लाख वर्ष, उसमें कुमार काल-पच्चीस हजार वर्ष । महा. मंडलेश्वर पद राज्य काल-पच्चीस हजार वर्ष । दिग्विजय काल-सौ वर्ष । अर्द्ध चक्रीपद राज्य काल -इकहत्तर लाख उन्नचास हजार नव सौ वर्ष एवं बहत्तर लाख वर्ष आयु के अन्त में मरकर छठवें नरकगामी हुए। (३) तीसरे नारायण स्वयंभू-ये श्री विमननाथ भगवान के समय में हुए । इनका शरीर प्रमाण -- साठ घनुष । प्रायु प्रमाण-साठ लाख वर्ष, उसमें कुमार काल--पच्चीस सौ वर्ष । महामंडलेश्वर पद राज्य काल-पच्चीस सो वर्ष दिग्विजय काल-नब्बे वर्ष । त्रिखंड राज्यकाल-५६६४१० वर्ष एवं साठ लाख वर्ष की प्राय के अन्त में मरकर छठे नरकगामी हए। (४) चौथे नारायण पुरुषोत्तम श्री अनन्तनाथ भगवान के समय में हुए। इनका शरीर प्रमाण-पचपन धनुष । प्रायु प्रमाण-तीस लाख वर्ष, उसमें कुमारकाल-सात सौ वर्ष । मंडलेश्वर पद राज्य काल-तेरह सौ वर्ष । दिग्विजय काल--अस्सी वर्ष । त्रिखंड राज्यकाल-२६६७६२० वष एवं तीस लाख वर्ष की आयु के पन्त में मरण कर छठे नरकगामी हुए। (५) पांचवें नारायण पुरु सिंह-ये श्री धर्मनाथ भगवान के समय में हुए । इनका शरीर प्रमाण-चालीस धनुष । मायु प्रमाण-दस लाख वर्ष उसमें कुमार काल-सीन सौ वर्ष । मंडलीक Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार प्रय ३१५ पद--सौ वर्ष । दिग्विजय काल-सत्तर वर्ष । चक्री पद-६६५३० वर्ष एवं दस लाख वर्ष की आयु के अन्त में मरणकर छठे नरकगामी हुए। (६) छठे नारायण पुण्डरीक -ये श्री अरहनाथ भगवान से पीछे और श्री मल्लिनाथ भगवान से पहले हुए। इनका शरीर प्रमाण-छब्बीस धनुष । आयु प्रमाण-पंसठ हजार वर्ष, इसमें कुमार काल-दो सौ पचास वर्षे । दिग्विजय काल-साठ वर्ष । त्रिखंड राज्य काल-६४४४० वर्ष एवं पैंसठ हजार वर्ष की प्रायु के अन्त में मरणकर छठे नरकगामी हुए। १५) सातवें नारायण पुरुषदत्त-ये श्री मल्लिनाथ और मुनिसुव्रतनाथ भगवान के अन्तराल में हुए । इनका शरीर प्रमाण-~-बाईस धनुष । आयु प्रमाण -बत्तीस हजार वर्ष, इसमें कुमार काल-दो सौ वर्ष । मंडलेश्वर पद राज्य काल-पचास वर्ष । दिग्विजय काल-पचास वर्ष । तीन खंड राज्य काल-३१७०० वर्ष एवं बत्तीस हजार वर्ष की प्राय के अन्त में मरणकर तीसरे नरकगामी हा। (८) आठवें नारायण लक्ष्मण-ये श्री मुनिसुत्रतनाथ और गमिनाथ भगवान के अन्तराल में हुए । इनका शरीर प्रमाण-सोलह धनुष । प्रायु प्रमाण-बारह हजार वर्ष । कुमार काल-सौ वर्ष । दिग्विजय काल-चालीस वर्ष । अर्द्ध चक्री राज्य काल-ग्यारह हजार आठ सौ साठ वर्ष एवं बारह हजार वर्ष की आयु के अन्त में मरण कर मेघा नामक तीसरे नरकमामी हुए। (6) नवमें नारायण श्री कृष्ण-ये श्री नेमनाय. भगवान के समय में हुए । इनका शरीर प्रमाण–दस धनुष । प्रायु प्रमाण एक हजार वर्ष उसमें कुमार काल-सोलह वर्ष । मंहलेदवर राज्य पदछप्पन वर्ष । दिग्विजय-पाठ वर्ष । अर्द्ध चको पद राज्य काल-नौ सौ बीस वर्ष एवं एक हजार वर्ष शरीर की आयु के अन्त में मरणकर बालुकाप्रभा नामक तीसरे नरकगामी हुए। ये सब नारायण महाविभूति संयुक्त, विद्याधर, भूमिगोचरी तथा बड़े-बड़े राजा महाराजाओं द्वारा माननीय और त्रिखंडाधिपति होते हैं । इनही के द्वारा निश्चय से प्रतिनारायण की मृत्यु होती है । इस प्रकार वर्तमान काल के नव नारायणों का संक्षिप्त वर्णन समाप्त हुआ। बलभद्र वर्णन प्रागे इनके ज्येष्ठ भ्राता जो बलभद्र होते हैं उनका वर्णन लिखते हैं ये भी नव ही होते हैं। ये सब धर्मश, उदारमना, परोपकारी, न्यायप्रिय, प्रजाहितपो, दानी, विचारशील और पवित्र हृदयी होते हैं। इनकी दो ही गति होती हैं-स्वर्ग या मोक्ष । इस वर्तमान काल में जो नव बलभद्र हुए हैं उनके नाम इस प्रकार हैं (१) प्रथम बलभद्र अचल' विजय--इसका शरीर प्रमाण अस्सी धनुष और प्रायु प्रमाण सत्तासी लाख वर्ष या। (२) दूसरे बलभद्र अचल-इनका शरोर प्रमाण सत्तर धनुष और प्रायु प्रमाण सत्तर लाख (३) तीसरे बलभद्र सुधर्म--इनका शरीर प्रमाण साठ धनुष और प्रायु प्रमाण पैसठ लाख (४) चौथे बलभद्र सुप्रभ-इनका शरीर प्रभाण पचास धनुष और पायु प्रमाण बत्तीस लाख (५) पांचवें बलभद्र सुदर्शन-इनका शरीर प्रमाण घालीस धनुष और प्रायु प्रमाण कुछ अधिक दस लाख वर्ष था। Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ वर्ष था । (७) सातवें बलभद्र नंदिमित्र - इनका शरीर प्रमाण बाईस धनुष और आयु प्रमाण बत्तीस हजार बर्ष था । नमोकार मं (६) छठे बलभद्र नंदि - इनका शरीर प्रमाण उन्तालिस धनुष और श्रायु प्रमाण पैंसठ हजार हजार बर्ष था । वर्ष था ! ये आठ बलभद्र तो अंतावस्था में संसार को अस्थिर, विषय भोगों को रोग के समान, संपत्ति को बिजली की तरह चंचल, शरीर को मांस, मल, रुधिर आदि अपवित्र वस्तुनों से भरा हुआ, दुःखों का देने वाला घिनौनी और नाश होने वाला जानकर सबसे उदासीन हो राज्यलक्ष्मी को तृणवत् त्यागकर जिन दीक्षा ले मुनि हो गए और घोर तपश्चरण करने लगे । अन्त में शुक्ल ध्यान द्वारा घातिया कर्मों का नाश कर लोकालोक का प्रकाशक केवलज्ञान प्राप्त किया । पश्चात् अघातिया कर्मों का नाशकर परम धाम मोक्ष सिधारे । ( ६ ) नव में बलभद्र बलदेव – इनका शरीर प्रमाण दस धनुष औरमायु प्रमाण बारह सौ (८) पाठवें बलभद्र रामचन्द्र -- इनका शरीर प्रमाण सोलह धनुष और प्रायु प्रमाण सत्रह प्रायु गामी होंगे। ये भी संसार विषय भोगों से बिरक्त होकर जिनदीक्षा ग्रहणकर दुस्सह तपश्चरण करते हुए सम्भव में महाऋद्धिधारी देव हुए। बहाँ से चयकर मोक्ष श्रथ प्रतिनारायण वर्णनम् - अब आगे नारायण के प्रतिपक्षी जो प्रतिनारायण होते हैं उनका वर्णन लिखिते हैंप्रतिनारायण नारायण के समान संपदाधारी होते हैं। इनको नारायण मारकर इनका साधा हुआ तीन खण्ड ( एक श्रार्य खण्ड और दो म्लेच्छ खण्ड ) का राज्य आप करते हैं। विजयार्ध के उत्तर में नहीं जाते हैं । इस अवसर्पिणी काल में जो नव प्रतिनारायण हुए हैं उनके नाम इस प्रकार हैं प्रथम प्रतिनारायण मवग्रीव - इनका शरीर प्रमाण अस्सी धनुष और श्रायु प्रमाण चौरासी बर्ष पा । लाख वर्ष थर । वर्ष था । बर्ष था । वर्ष था। वर्ष था । पांचवें प्रतिनारायण मधुकैटभ - इनका शरीर प्रमाण पैंतालीस धनुष पोर आयु प्रमाण दस लाख बर्ष था । छठे प्रतिनारायण बली - इनका शरीर प्रमाण उनतालीस धनुष और प्रायु प्रमाण पैंसठ हजार दूसरे प्रतिनारायण तारक --- इनका शरीर प्रमाण सत्तर धनुष और आयु प्रमाण बहत्तर लाख तीसरे प्रातिनारायण मेरुक - इनका शरीर प्रमाण साठ धनुष और आयु प्रमाण साठ लाल चौथे प्रतिनारायण निशुंभ- इनका शरीर प्रमाण पचास धनुष और श्रायु प्रमाण तीस लाख सातवें प्रतिनारायण प्रहरण- इनका शरीर प्रमाण बाईस धनुष और आयु प्रमाण बतीस हजार Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भमौकार प्रथ आठवें प्रतिनारायण रावण-इनका शरीर प्रमाण सोलह धनुष और प्रायु प्रमाण बारह हजार वर्ष था। नबमें प्रतिनारायण जरासिंध-इनका शरीर प्रमाण दस धनुष और प्रायु प्रमाण एक हजार बर्ष था। ये नय प्रतिनारायण वर्तमान काल में हुए हैं। प्रथ नव नारद वर्णनम् अब मागे इनके समय में होने वाले नव नारदों का वर्णन लिखते हैं ये सब ब्रह्मचारी और अनेक ऋद्धियों सहित होते हैं । इनके मान कषाय भी विशेष होता है। कलह अतिप्रिय विशिष्ट होती है । इस कारण दो लोगों को परस्पर भिड़ा देते हैं । कलह कराने में अति चतुर होते हैं । अपना मान बढ़ाई बहुत चाहते हैं। जो कोई भी इनका अनादर करता है ये तत्काल ही उसका अनादर करने का प्रस्थान करते हैं और सभामा का मिशाहरामा, सती सीता के रूप की प्रशंसा उसके भाई भामंडल से करके उसको पाणिग्रहण करने पर उद्धत किया 1 अन्त में भेद खुलने पर अति खेद और संताप हुआ रुपमणी का विवाह श्रीकृष्ण से कराया। इस प्रकार इनके सदैव कलहप्रिय भाव रहते हैं । इस कारण ये सब ही नियाम से नरकगामी होते हैं । इस वर्तमान काल में जो नव नारद हुए हैं उनके नाम इस प्रकार हैं (१) भीम, (२) महाभीम, (३) रुद्र, (४) महारुद्र, (५) काल, (६) महाकाल, (७) दुर्मुख, (८) नर्कमुख और (8) अधोमुख । ये नव नारद नब नारायणों के रूप में क्रम से पृथक-पृथक हुए हैं। इनका काय-प्रमाण तथा आयु प्रमाण नारायण के समान ही जानना चाहिए । अथ रुद्र वर्णनम् अब प्रागे रुद्रों का वर्णन लिखते हैं कामदेव के वशीभूत होकर मुनि और प्रजिका जब भ्रष्ट हो जाते हैं तब उनके परस्पर समागम से इनकी उत्पत्ति होती है ये स्वभाव से ही बड़े पराक्रमी होते हैं और अनेक प्रकार का तपश्चरण प्रादि करके अनेक विद्या सिद्ध करते हैं । तदनन्तर ये भी कामदेव के वशीभूत हो अपने प्राचरण से भ्रष्ट होकर निंद्य माचरण करने लगते हैं जिससे घायु के अन्त में मरण कर ये भी नरकगामी ही होते हैं । इस वर्तमान चौथे काल में जो ग्यारह रुद्र हुए हैं उनके नाम इस प्रकार हैं पहले रुद्र भीमवली-ये प्रादिनाथ भगवान के समय में हुए हैं। इनका शरीर प्रमाण पांच सौ धनुष और प्रायु प्रमाण तिरासी लाख पूर्व या।। दूसरे रुद्र जितशत्रु-ये अजितनाथ भगवान के समय में हुए। इनका शरीर प्रमाण चार सौ पचास धनुष पौर आयु प्रमाण इकहत्तर लाख पूर्व या १२॥ तीसरे रुद्र रुद्र-ये श्री पुष्पदन्त भगवान के समय में हुए । इनका शरीर प्रमाण सौ धनुष और प्रायु प्रमाण दो लाख पूर्व था ।३। चौथे रुद्र विश्वानल-ये श्री शीतलनाथ भगवान के समय में हुए। इनका शरीर प्रमाण नम्बे धनुष पौर प्रायु प्रमाण एक लाख पूर्व था। Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१८ णमोकार ग्रंथ पांच रुद्र सुप्रतिष्ठ-ये श्री श्रेयांसनाथ भगवान के समय में हुए । इनका शरीर प्रमाण अस्सी धनप और प्राय प्रमाण चौरसी लाख वर्ष था ।५। ठे रुद्र अचल--ये श्री वासुपूज्य भगवान के समय में हुए। इनका शरीर प्रमाण सत्तर धनुप और पाप्रमाण साठ लाख वर्ष था।६। ग़ातवें रुद्र पुंडरीक—ये थी विमलनाथ भगवान के समय में हुए। इनका शरीर प्रमाण साठ धनुप और यार प्रमाण पचास लाख वर्ष था । साटवें गद्र अजितधर--- ये श्री अनन्तनाथ भगवान के समय में हुए। इनका शरीर प्रमाण पचास धनुप और प्रायु प्रमाण चालीस लाख वर्ष था 1८1 नरद्र श्री अजितनाभि-- ये श्री धर्मनाथ भगवान के समय में हुए। इनका शरीर प्रमाण अठाईस धनुा सौर प्रायु प्रमाण बीस लाख वर्ष पूर्व था ।।। दसवें रुद्र पीठ—ये श्री शांतियाथ भगवान के समय में हुए। इनका शरीर प्रमाण चौबीस धनुष और प्राय प्रमाण एक लाख वर्ष था।१०। ग्यारहवें रुद्र सात्यकी-श्री महावीर स्वामी के समय में हुए । इनका शरीर प्रमाण सात हाथ और नाच प्रमाण उनहत्तर वर्ष था।११। ये सर्व रुद्र ग्यारह अंग और दस पूर्व के पाटरी होते हैं। इस प्रकार अवसपिणी काल के ग्यारह रुद्रों वायु कायादि वर्णन किया। ___ अथ चतुविशति कामदेव वर्णनम् अब पागे चौबीस कामदेवों का वर्णन लिखते हैं -- इस बर्तमान चौथे काल में जो चौबीस कामदेव हुए हैं उनके नाम इस प्रकार हैं (१) बाहुबली, (२) अमिततेज, (३) श्रीधर, (४) यशद्रभ, (५) प्रसेनजित, (६) चन्द्रवर्ण, प्रग्निमक्ति (2) सनत्कुमार (चक्रवर्ती), () वत्सराज, (१०) कनकप्रभ, (१) सिद्धवर्ण (१२) शांतिनाथ (तीर्थकर). (१३) कुथनाथ (तीर्थकर), (१४) अरहनाथ (तीर्थकर) (१५) विजय राजा, (१६) श्रीचन्द्र, (१७) राजानल, (१८) हनुमानजी, (१६) बलगजा, (२०) वसुदेव, (२१) प्रद्युम्न, (२२) नागकुमार, (२३) श्रीपाल और, (२४) जम्बूस्वामी--ये चौबीस कामदेव बल, विद्या पौर रूप में प्रत्यन्त श्रेष्ठ होते हैं । इनके रूप को देखकर सर्व स्त्री पुरुष मोहित हो जाते हैं। इस प्रकार चौथेकाल में प्रत्येक चौबीस तीर्थकर बारह चक्रवर्ती, नव नारायण, नव प्रतिनारायण, नव बलभद्र (ये वेसठ शलाकापुरुष कहलाते हैं), नव नारद, ग्यारह रुद्र, चौबीस कामदेव और चौदह कुलकर- सब मिलाकर एक सौ इक्कीस तो यह और प्रत्येक तीर्थकर के माता-पिता अर्थात् चौबीस तीर्थंकरों के अड़तालीस माता-पिता - ये सर्व एक सौ उनहत्तर १६६ पुण्य पुरुष होते हैं अर्थात् जितने पुण्यवान् पुरुष हुए हैं उनमें ये मुख्य गिने जाते हैं। इनमें से कितने तो उसी भव से मोक्ष चले जाते हैं और कितने कुछ काल संसार में भ्रमण करके मोक्ष चले जाते हैं अर्थात् ये सर्व ही मोक्षगामी होते हैं। इनक अतिरिक्त और भी असंख्यात जीव कर्मों का नाशकर सिद्धगति प्राप्त करते हैं। इनमें नारायण, प्रतिनारायण, बलभद्र और नारद--ये चार तो एक ही समय में उत्पन्न होते हैं। एक पद के धारक की उपस्थिति में उसी पदवी का धारक दूसरा उत्पन्न नहीं हो सकता जैसे कि एक तीर्थकर की स्थिति जब तक रहती है तब तक दूसरे तीर्थकर की उत्पत्ति नहीं होती परन्तु प्रतिनारायण की स्थिति में नारायण Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार ग्रंथ ३११ उत्पन्न हो जाता है। पहले तो प्रतिनारायण अर्द्धचक्री होता है । यावत् प्रतिनारायण अर्द्ध चक्रवर्ती रहता है तावत् नारायण प्रर्द्धचक्री नहीं हो सकता । जब संग्राम में वह प्रति नारायण को मारकर चक्ररत्न पर स्वामित्व प्राप्त कर लेता है और उसके साधे हुए तीन खंडो पर अधिकार कर लेता है तब वह अर्द्धचक्री होता है और प्रत्येक चौथे काल में एक ही पदवी के धारक को दूसरी पदवी भी नहीं होती है। यद्यपि श्री शांतिनाथ जी, श्री कुंथनाथ जी और श्री अरहनाथ जी-तीर्थकर पदवी के धारक थे और चक्रवर्ती तथा कामदेव पदवी के धारक भी हुए ऐसे तीन-तीन पदवी के धारक हुए परन्तु यह हंडा अवसपिणी काल के प्रभाव से बहुत सी बातें विपरीत होती हैं जैसे प्रत्येक चौथे काल में चौबीस तीर्थकर नियम से सम्मेद शिखर से ही मोक्ष जाते हैं परन्तु अब के हुंडा अवसर्पिणी काल के प्रभाव से श्री आदिनाथ भगवान कैलाशपर्वत से, श्री नेमिनाथ जो गिरनार पर्वत से, श्री वासुपूज्य जी चंपापुरी से और अन्तिम तीर्थंकर श्री महावीर जी पावापुर से परमधाम मोक्ष सिधारे। अवशेष बीस तीर्थंकर श्री सम्मेद शिखर जी से मोक्ष गए। दूसरी बात यह है कि सब तीर्थकर चौथे काल में ही उत्पन्न होते हैं परन्तु अब की बार प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभदेव जी चौथेकाल के चौगान हातह परन्तु अब की बार प्रथम ऋषभदेव जी चौकाल के चौरासी लाख पूर्व तीन वर्ष और साढ़े आठ महीने पहले ही उत्पन्न हो गए थे और चौथेकाल के तीन वर्ष आठ महीने पहले ही मोक्ष चले गए । यह केवल कालदोप से ही ऐस' मा नहीं नो राय चतुर्थ काल में ही मोक्ष जाते हैं, तृतीय में नहीं। तीसरे अतुल बल के स्वामी श्री पार्श्वनाथ भगवान को सुरकृत उपसर्ग हुम्रा-यह भी केवल काल का ही प्रभाव है नहीं तो त्रिलोकपूज्य और अतुलबल के स्वामी तीर्थकर भगबान को उपसर्ग कैसा? इत्यादि हुंडा प्रवसपिणी काल के प्रभाव से अनेक प्रतिकूल वार्ता होती हैं। इन्हीं प्रतिकूल वार्तामों की शंका निवारण करने के लिए यति भूधरदास जी पार्श्व पुराण में लिखते हैं चौपाई अवसर्पिणी उत्सपिणी काल, होय अनन्तानन्त विशाल । भरत तथा ऐवत माहि, रहट घटीवत् आवे जाहिं ।।१॥ जव ए असंख्यात एरमान, दीते जुगम खेत भूथान । तब हंडा प्रवसपिणी एक. परें करें विपरीत अनेक ॥२॥ साकी रीत सुनो भतिवंत, सुखम दुखम काल के अन्त । बरषादिक को कारण पाय, विकलत्रय उपजें बहुंभाय ॥३॥ कलपवृक्ष बिनशें तिहवार, वरतै करम भूमि को व्यौहार । प्रथम जिनेन्द्र प्रथम चक्रेश, ताहि समय होय इह देश ॥४॥ विजय भंग चक्री की होय, थोड़े शिव जाय शिव लोय । चक्रवर्ती विकलप विस्तरै, ब्रह्मवंश की उत्पनि करै ।। पुरुष शलाका चौधे काल, अट्ठावन उपजें गुणमाल । नवम प्रादि सोलह पर्यन्त, सात तीर्थ में धर्म नशंत ॥६॥ ग्यारह रुद्र जनम जहाँ धरें, नौ कलहप्रिय नारद अवतरें। सप्तम ते बीसम गुण वर्ग, परम जिनेश्वर को उपसर्ग १७॥ Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२० णमाकार ग्रंप तीजे चौथे काल मझार, पंचम में दीसे बढ़वार । विविध कुदेव कुलिंगी लोग, उत्तम धर्म नाश के जोग ॥६॥ सवर बिलाल भील चंडाल, नाहलादि कुल में विकराल । कलकी उपकलको कलिमाहि, बयालीस ह मिथ्या नाहि ॥६॥ अनावृष्टि अतिवृष्टि विख्यात, भूमि वृद्ध बज्रांगन पात । ईत भीति इत्यादिक दोष, काल प्रभाव होम दुप कोप ।।१०।। वोहा यों लोक प्रक्षिप्त में, कथन किया बुधराज । सो भविजन प्रब धारियों, संशय मेटन काज ॥ इस प्रकार संक्षेप में चौथे काल का वर्णन किया। चौथे काल के पीछे जो दुःखमा काल पाता है उसको पंचमकाल भी कहते हैं । इस काल के पाने से पहले ही तीर्थकर आदि मोक्ष को पधार जाते हैं। इस कलिकाल में गोक्षमार्ग की प्रवृत्ति नहीं रहती और धर्म सम्बन्धी रुचि का भी दिनोंदिन ह्रास होता चला जाता है। प्रायु, काय, बल, विद्या और पराक्रम भी दिनोंदिन घटते जाते हैं। इस काल में प्रारमें मनुष्य को प्रापुरकड पीस वर्ष उत्कृष्ट होती है और शरीर सान हाथ प्रमाण होता है । इस काल के आदि में सिद्धार्थ नन्दन भगवान महावीर स्वामी के निर्वाण होने के पानन्तर बासठ वर्ष तक तो केवलज्ञान रूपी सूर्य का उदय बना रहा, बाद में केवलज्ञान रूपी दिवाकर के ग्रस्त होने से धनकवली रूप दिनपति का प्रकाश रहा। तद इसका भी प्रभाव होकर श्री बीर निर्वाण के ६८३ वर्ष पीछे तक अंगज्ञान की प्रवृत्ति रही। उपरान्त इस विकराल काल दोष से वह भी लुप्त हो गई। इसका विशेष वर्णन इस प्रकार है-इस दुःखम पंषम काल के प्रागमन से तीन वर्ष साढ़े पाठ महीने पहले ही कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी को महावीर स्वामी परमधाम मोक्ष पधारे। भगवान के निर्वाण गमन के साथ ही श्री इन्द्रभूति अर्थात् गौतम गणधर को केवलज्ञान उत्पन्न हुया और वे बारह वर्ष तक बिहार करके पंचमगति अनन्तकाल स्थाई मोक्ष को प्राप्त हए। उनके निर्माण होत हाथी सुधमोचार्य को लोकालाक के प्रकाशक केवलज्ञान का उदय हया सो उन्होंने भी बारह वर्ष विहार कर मन्तिम गति पाई और तत्काल अन्तिम केवली श्री जम्बू स्वामी को केवलज्ञान सूर्य का उदय हुआ। उन्होंने अड़तीस वर्ष विहार करके संसार के ताप से सन्तप्त प्रनेक भव्य जीवों को परम पवित्र धर्मोपदेशामृत की वर्षा से शांत कर संसार के दुःखों से छुटाकर सुखी बनाया और अन्त मैं मोक्ष महल को प्रयाण किया। इन तीनों मुनियों ने अनुक्रम से केवलज्ञान रूप दिवाकर का उदय बना रहा परन्तु इनके निर्वाण गमन के पश्चात् ही उसका अस्त हो गया । जम्बू स्वामी के निर्वाण के अनन्तर श्री विष्णु मुनि सम्पूर्ण श्रुतज्ञान के पारगामी श्रुतकेवली (द्वादशांग के धारक) हुए और इसी प्रकार से नंदिमित्र अपराजित, गोवद्धन और भद्रबाहु ये चरर महामुनि भी अशेष श्रुतसागर के पारगामी हुए। उक्त पांचों श्रुतकेवली सौ वर्ष के अन्तराल में हुए अर्थात् भगवान को मुक्ति के पश्चात् बासठ वर्ष में तीन केवली पौर तदनन्तर सौ वर्ष के अन्तराल में पांच श्रुत केली हुए। इनके भी परलोक निवास करने पर विशाखदत्त, प्रौष्ठिल, क्षत्रिय, जयसेन, नागसेन, सिद्धार्थ, वृतिषण, विजयसेन, बुद्धिमान, गंगदेव और Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार प्रम धर्मसेन-ये ग्यारह अंग और दस पूर्व के पाठी ग्यारह महात्मा हुए। इतने में १८३ वर्ष का समय व्यतीत हो गया। पश्चात् दो सौ बीस वर्ष में नक्षत्र, जयपाल, पांडु, दुमसेन और कसाचार्य —ये पांच मुनि ग्यारह अंग के ज्ञाता हुए। पश्चात् एक सौ अठारह वर्ष में सुभद्र, अभयभद्र, जयवाहु और लोहाचार्यये चार मुनीश्वर आचारांग शास्त्र के परम विद्वान हुए। यहां तक अर्थात् श्री वीर निर्वाण के ६८३ वर्ष पीछे तक अंग ज्ञान की प्रवृत्ति रही । तदन्तर काल दोष से वह भी लुप्त हो गई। लोहाचार्य के पश्चात् विनयधर, श्रीयत्त, शिवदत्त पौर प्रहद्दत्त ये चार पारातीय मुनि अग पूर्व देश के अर्थात् अंग पूर्व ज्ञान के कुछ अंश के शाता हुए और फिर पूर्व देश के पुण्ड्र बर्द्धनपुर में श्री अर्हदबलि मुनि अवतीर्ण हुए जो अंग पूर्व देश के भी एक देश के जानने वाले थे, प्रसारणा, धारणा विशुद्धि प्रादि उत्तम क्रियाओं में निरन्तर तत्पर रहते थे, अष्टांग निमितज्ञान के ज्ञाता थे और मुनि संघ का निग्रह अनुग्रहपूर्वक शासन करने में समर्थ थे। इसके अतिरिक्त वे प्रत्येक पाँच वर्ष के अन्त में सौ योजन क्षेत्र के अन्तर्गत निवाम करने वाले मुनियों के समूह को एकत्र करके युग प्रतिक्रमण कराते थे। एक बार उक्त भगवान अहंदबलि प्राचार्य ने पुन प्रतिमा के समय मुनिजनों के ममूह से पूछा 'क्या सब यति आ गए ।' उत्तर में उन मुनियों ने कहा-भगवन हम सब अपने-अपने संघ सहित मा गये । इस वाक्य में अपने-अपने संघ के प्रति मुनियों की निजत्व वुद्धि (पक्ष बुद्धि) प्रकट होती थी प्रतएव तत्काल ही प्राचार्य भगवान ने निश्चय कर लिया कि इस कलिकाल में मागे यह जैन धर्म भिन्नभिन्न गणों के पक्षपात से ठहर सकेगा, उदासीन भाव से नहीं अर्थात् मागे के मनि अपने अपने संघ का, गण का प्रऔर गच्छ का पक्ष धारण करेंगे। सब को एकरूप समझकर मार्ग की प्रवृति नहीं कर सकेंगे। इस प्रकार विचार करके उन्होंने जो मुनिगण गुफा में से पाए थे उनमें मेकिसी-किसी की नदि और किसी किसी की वीर संज्ञा रखी, जो अशोक वाट से आये थे उनमें से किसी-किमी की अपराजित और किसी की देव संशा रखी। जो पंचस्तूपों का निवास छोड़कर पाए थे उनमें से किसी को सेन प्रौर किसी-किसी को भद्र बना दिया । जो महाशाल्मली (सैमर) वृक्षों के नीचे से पाए थे उनमें से किसी की गणधर और किसी की गुप्त संशा रखी और जो खंड केशर (बकुल) वृक्षों के नीचे से पाए थे उनमें से किसी की सिंह पीर किसी की चन्द्र संज्ञा रखी। ययात्रोक्तं: प्रायातौ संधि वीरौ प्रगट गिरि गुहा वासतोऽशोक बाटा, देवाश्चान्योपपादिजित इति यति पौसेनभद्राहया च । पंचस्तूप्यात्सगुप्तौ गुणधर वृषभः शाल्मली वृक्षमूला, निर्याती सिंह चंद्रो प्रथित गुणगणो केशराखंड पूर्वात् ।। अनेक प्राचार्यों का ऐसा मत है गुहायां बासितो ज्येष्टो, द्वितीयोऽशोक वाटिकात । निर्यातोनंदि देवाभि, धाना वाधानुक्रमात् ॥ पंचस्तूप्यास्तू सेनाना, वीराणां शाल्मलिद मः। खंड केशर नामाच भद्रः संघस्य सम्मतः ।। मर्ष-गुफा से निकलने वाले नंदि, अशोक वन से निकलने वाले देव, पंचस्तूपों से पाने वाले सेन, भारी शाल्मलि वृक्ष के नीचे निवास करते नाले वीर और खंड केशर वृक्ष के नीचे रहने वाले भद्रसज्ञा से प्रसिद्ध किए गए थे। Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार मंच इस प्रकार से मुनिजनों के संघ प्रवर्तन करने वाले उक्त श्री अर्हदवलि प्राचार्य के वे सब मुनीन्द्र शिष्य कहलाए । उनके पश्चात् एक श्री माघनंदि नामक मुनि पुगव हुए और वे भी अंग पूर्व देश का भली भांति प्रकाश करके स्वर्ग लोक को पधारे । तदनन्तर सौराष्ट्र देश के अन्तर्गत गिरनगर को समीप उर्जयंत गिर (गिरनार) को चन्द नामक गुफा में निवास वाले महातपस्वी श्री वरसेन प्राचार्य हुए। उन्हें अग्रायणी पूर्व के अन्तर्गत पंचम वस्तु के अनुई महाकर्म प्राभुत का ज्ञान था। अपने निर्मल ज्ञान में उन्हें आभास हुप्रा-'कि अव मेरी मायु थोड़ी ही शेष रह गई है और अब मुझे जो शास्त्र का ज्ञान है वही संसार में अलम् होगा अर्थात् इससे अधिक शास्त्रज्ञ प्रागे कोई नहीं होगा और यदि कोई प्रयत्न नहीं किया जायगा तो श्रुत का विच्छेद हो जाएगा ऐसा विचारक निपुण मति वाले श्रीधरसेन महर्षि ने देशेन्द्र देश के बेणाकतटाकपुर में निवास करने वाले महामहिमाशाली मुनियों के निकट एक ब्रह्मचारी के द्वारा पत्र भेजा। ब्रह्मचारी ने पत्र ले जाकर उक्त मुनियों के हाथ में दे दिया। उन्होंने पत्र खोलकर पढ़ा। उसमें यह लिखा हया था--स्वस्ति थो बेणाकतटवासी यतिवरों को उजयंत तट निकटस्थ चन्द्रगुहा निवासी यतिबर धरसेन गणि अभिवंदना करके यह सूचित करते हैं -"मेरी प्रायु अत्यंत स्वल्प रह गई है जिससे मेरे हृदयस्थ शास्त्र की व्युच्छिति हो जाने की संभावना है अतएव उसकी रक्षा करने के लिए आप लोग दो ऐसे यतीश्वरों को भेज दीजिए जो शास्त्र ज्ञान के ग्रहण व धारण करने में समर्थ और तीक्ष्ण बुद्धि हों।" सब मनिगण पत्र को पनकर बहत प्रसन्न हुए। उनके हृदयगत प्राशय को भली-भांति समझकर अपने संघ में उन मुनियों ने भी दो बुद्धिशाली मुनियों का अन्वेषण करके तत्काल ही भेज दिया । जिस दिन वे दोनों मुनि उर्जयंत गिरि पर प्राचार्य के पास पहुंचने वाले थे उसकी पहली रात्रि को भी धरसेन मुनि ने स्वप्न में दो हृष्ट-पुष्ट, सुन्दर शरीर वाले श्वेत वर्ण के बैलों को अपने चरणों में पड़ते हुए देखा। इस उत्तम स्वप्न को देखने के अनन्तर ज्यों ही वे 'जयतु श्रुतदेवता' अर्थात् सब संदेहों को नाश करने वाली श्रुतदेवी जिनवाणी सदाकाल इस संसार में जयलाभ करे-ऐसा कहते हुए जाग्रत होकर खड़े हुए त्यों ही उन्होंने देखा कि बेणाकतटाकपुर से आए हुए दो मुनि सन्मुख खड़े हुए हैं। उन्होंने प्राचार्य के चरणारविंदों को नमस्कार कर सभक्ति स्तुति की और अन्त में अपने माने का कारण निवेदन किया। तब उन्हें श्री धरसेनाचार्य ने आशीर्वाद दिया---'तुम चिरायु होकर महावीर भगवान के पवि शासन की सेवा करो। अज्ञान और विषयों के दास बने हुए संसारी जीवों को शान दान देकर उन्हें अपने कर्तव्य की ओर लगायो।' इसके पश्चात् यथायोग्य अतिथि सत्कार कर उन्हें फिर मार्ग परिश्रम शमन करने के लिए तीन दिन तक विश्राम करने दिया । तत्पश्चात् यह विचार कर 'सुपरीक्षा चित को शान्ति देने वाली हो' .प्रथात् जिस विषय की भली-भांति परीक्षा कर ली जाती है उसमें फिर किसी प्रकार की शंका नहीं रहती है-उन्होंने उन दोनों को दो विद्याए' साधन करने के लिए दी जिसमें से एक विद्या में प्रक्षर कम थे और दूसरी में अधिक थे। आचार्य की प्राज्ञानुसार उक्त दोनों मुनि इसी गिरनार पर्वत के एक पवित्र एकांत भाग में भगवान नेमिनाथ की निर्वाण शिला पर पवित्र और एकाङ्गचित्त से विधिपूर्वक विद्यासाधन करने को बैठे। मंत्रसाधन की अवधि पूरी होने पर जो अक्षरहीन विद्या साध रहा था उसके प्रागे एक अखि काली देवी पौर अधिक भक्षर वाली विद्या साधने वाले के सन्मुख बड़े दांत बाली देवी पाकर खड़ी हो गई। इनके ऐसे असुन्दर रूप को देखकर मुनियों ने सोचा--'देवी का तो ऐसा रूप होता नहीं फिर यह ऐसा क्यों Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार प्रय हुआ? ज्ञात होता है कि अवश्य ही हमारी साधना में कोई भूल हुई है ' तब उन्होंने मन्त्र व्याकरण की विधि से न्यूनाधिक वर्षों के क्षेपने और अपचय करने के विधान से मंत्रों को शुद्ध करके फिर जपास बार दो देवियों ने केयुर (भुजा पर पहनने का प्राभरण, हार, नुपूर (विछुवे), कटक (करण) और कटिसूत्र (करधनी) से सुसज्जित है दिव्य रूप धारण करके दर्शन दिया और समक्ष उपश्थिा होकर कहा-'कहिए किस कार्य के लिए हमें आज्ञा है ? यह सुनकर मुनियों ने कहा-हमारा ऐहिक और पारलीकिक ऐसा कोई भी कार्य नहीं है जिसे तुम सिद्ध कर सको। हमने तो केवल गुरुदेव की ग्राज्ञा में मनों की सिद्धि की है ।' मुनियों का अभीप्ट सुनकर देवियो उसी समय अपने स्थान को चलो गई। इस प्रकार से विद्यासाध करके संतुष्ट होकर उन दोनों मुनियों ने गुरुदेव के समीप आकर अपना समस्त वलान्त यथातथ्य निवेदन किया। उसे सुनकर श्री धरसेनाचार्य ने उन्हें अतिशय माघार अप्रतिम बुद्धिशाली समझकर शुभ तिथि, नक्षत्र और गुभ समय में ग्रंथ का व्यापान करना प्रारम् किया और वे मुनि भी ग्रालस्य छोड़कर गुरु विनय तथा जान विनय की पालना करते हा अध्ययन करने लगे। कुछ दिन के अनन्तर पापाढ़ शुक्ल ग्यारस को विधिपूर्वक ग्रंथ समाप्त हुआ। उस दिन देवों ने प्रसन्न होकर प्रथम मनि की दंत पक्ति को जो विषम रूप थी कुन्द के पूषों सगरमा कर दिया गौर उनका पुष्पदंत यह मार्थक नाम रख दिया। इसी प्रकार से भून जाति के देवों ने हितोव मनि की ये गाद. जयघोष तथा गंध, माल्य, धूप ग्रादि से पूजा करके उनका भी सार्थक नाम भूमपति रख दिया 1 गुमर दिन गुरु ने यह सोचकर कि --मेरी मृत्यु का समय निकट है अत: यदि ये मेरे समी' रहग ना को होंगे'– उन दोनों को कुरीश्वर भेज दिया । तब वे नौ दिन चलकर उस नगर में पहुंच गए। यहा ग्राबाई कृष्ण पंचमी को (दक्षिण देश में पहले शुक्ल पक्ष और पीछे कृष्ण पक्ष प्राता है) योग ग्रहण करके उन्होंने वर्षाकाल समाप्त किया और पश्चात् दक्षिण की ओर विहार किया। कुछ दिन पश्चात् वे दोनों महात्मा करहाट नगर में पहुंचे । यहाँ श्री पुष्पदंन मुनि ने अपने जिनपालित नाम भानजे को देखा और उसे जिनदीक्षा देकर वे अपने साथ में लेकर बननाम दन में जा पहुँचे। इधर भूतपति द्रविड़ देश के मथुरा नगर में पहुंच गए। करहाट नगर मे हो उक्त दोनों मुनियों का साथ छूट गया । श्री पुष्पदंत मुनि ने जिनमालित को पढ़ाने के लिए विचार किया कि कम प्रकृति प्राभृत की छह खंडों में उपसंहार करके ग्रंथ रूप रचना करनी चाहिए और इसीलिए उन्होंने प्रथम ही जीवस्थानाधिकार की जिसमें गणस्थान, जीव समास प्रादि वीस प्ररूपणापों का वर्णन है, बहुत उत्तमना के साथ रचना की फिर उस शिष्य को सौ सूत्र पढ़ाकर श्री भूतबलि मनि के पास उनका अभिप्राय जानने के लिए अर्थात् यह जानने के लिए कि वे इस कार्य के करने में सहमत है अ-बबा नहीं, और यदि हैं तो जिस रूप में रचना हुई है, उसके विषय में उनको क्या सम्मति है-भेज दिया। उसने भूतबलि महर्षि [भूतबील भूतपति महाष का हो अपर नाम था) के समाप जाकर वे प्ररूपणा सुत्रसूना दि कर उन्होंने श्री पुष्पदंत मुनि का षखंड रूप नागम रचना का अभिप्राय जान लिया और अब लोग दिनोंदिन अल्पायु और अल्पमति होते जाते हैं-ऐसा विचार कर उन्होंने स्वयं पांच खंडों में पूर्व सूत्रों सहित छह हजार श्लोक विशिष्ट द्रव्य प्ररुपणाधिकार की रचना की और उसके पश्चात् महाबंधनामक छठे खंड को तीस हजार सूत्रों में समाप्त किया ।पहले पाँच खंडोंगाम ये हैं (१) जीवस्थान, (२)क्षल्लकबंध, (३) बंधन्वामित्व, (४) भाव वेदना और (५) वर्गणा । श्री भूतबलि मुनि ने इस प्रकार षट्खंडागम की रचना करके उसे मसद्भाव स्थापना के द्वारा Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार अंथ पुस्तकों में प्रारोपण किया अर्थात् लिपिबद्ध किया और उसकी ज्येष्ठ शुक्ला पंचमी की चतुर्विध संघ सहित वेष्टनादि उपकरणों के द्वारा क्रियापूर्वक पूजा की । उसी दिन से यह ज्येष्ठ शुक्ला पंचमी संसार में 'श्रुतपंचमी' के नाम से प्राख्यात हो गई । इस दिन श्रुत का अवतार हुआ है इसीलिए प्रद्यपर्यन्त समस्त जैनी उक्त तिथि को श्रुतपूजा करते हैं। कुछ दिन के पश्चात् भूतबलि प्राचार्य ने षट्खंड आगम का अध्ययन करके जिनपालित शिष्य को उक्त पुस्तक देकर श्री पुष्पदंत गुरु के समीप भेज दिया । जिनपालित के हाथ षट्खंड प्रागम देखकर और अपना चितवन किया हा कार्य पूर्ण हया जानकर श्री पुष्पदंताचार्य का समस्त शरीर प्रगाढ धुतानुराग में सन्मय हो गया और तब अतिशय प्रानन्दित होकर उन्होंने भी चतुर्विध संघ के साथ श्रुत पंचमी को गंध, अक्षत, माल्य, वस्त्र, वितान, घंटा, ध्वजा आदि द्रव्यों से पूर्ववत् सिद्धान्त अन्य को महापूजा की। इस प्रकार षट्खंडागम की उत्पत्ति का वर्णन करके अब कषाय प्राभृत् सूत्रों की उत्पत्ति का कथन करते हैं-बहुत कठिनता से श्रो घरसेनाचार्य के समय में एक श्री गुणधर नाम के प्राचार्य हुए। उन्हें पांचवें जान प्रवाह पूर्व के दशा परस्तु के तृतीय कषाय प्राभृत् का ज्ञान था। उन्हें भी वर्तमान पुरुषों की शक्ति का विचार करके कषाय प्राभृत पागम को जिसे दोष प्राभृत् भी कहते हैं, एक सौ तिरासी मूलगाथा और तिरेपन विवरण रूप गाथाओं में बनाया । फिर पन्द्रह महाधिकारों में विभाजित करके श्री नागहस्ती और आर्यमंक्षु मुनियों के लिए उसका व्याख्यान किया। पश्चात् उक्त दोनों मुनियों के समीप शास्त्र निपुण श्री यतिवृषभ नामक मुनि ने दोष प्राभृत के उक्त सूत्रों का अध्ययन करके पीछे उनकी सूत्र रूप चूर्ण बृत्ति छह हजार श्लोक प्रमाण बताई । पनन्तर उन सूत्रों का भली-भांति अध्ययन करके धो उच्चारणाचार्य ने बारह हजार श्लोक प्रमाण, उच्चारणाचार्य नाम की टीका बनाई। इस प्रकार से गुणधर, यतिवृषम और उच्चारणाचार्य ने कषाय प्राभृत का गाथा चूणि और उभारण बृत्ति में उपसंहार किया। इस प्रकार से उक्त दोनों कर्म प्राभृत और कषाय प्राभूत सिद्धान्तों का ज्ञान द्रव्य भाव रूप पुस्तकों से (लिखित ताड़पत्र वा कागज बादि की पुस्तकों को द्रव्य पुस्तक और उसके कथन को भाव पुस्तक कहते हैं) और गुरु परम्परा से कंडकुदपुर में ग्रंप परिकर्म (चूलिका सूत्र) के कर्ता श्री पप्रमुनि को प्राप्त हुमा सो उन्होंने भी छह खंडों में से पहले तीन खंडों की बारह हजार श्लोक प्रमाण टीका रची। कुछ काल बीतने पर श्री श्यामकुंड आचार्य ने सम्पूर्ण दोनों पागमों को पड़कर केवल एक छठे महाबंध खंड को छोड़कर शेष दोनों ही प्राभृतों की बारह हजार श्लोक प्रमाण टीका बनाई। इन्हीं प्राचार्य ने प्राकृत, संस्कृत और कर्णाटक भाषा की उत्कृष्ट पद्धति (ग्रन्थ परिशिष्ट) की रचना की। कालांतर में ताकिक सूर्य श्री समन्तभन्न स्वामी का उदय हुपा । तब उन्होंने भी दोनों प्राभृतों का मध्ययन करके प्रथम पांच खंडों की अड़तालीस हजार श्लोक प्रमाण टीका अत्यन्त सुन्दर मौर सुकोमल संस्कृत भाषा में बनाई। पीछे उन्होंने द्वितीय सिद्धान्त की व्याख्या लिखनी भी प्रारम्भ की थी परन्तु द्रव्यादि शुद्धिकरण प्रयत्नों के प्रभाव से उनके एक साधर्मी मुनि ने निषेध कर दिया जिससे वह नहीं लिखी गई । इस प्रकार व्याख्यान क्रम (टीकादि) से तथा गुरु परम्परा से उक्त दोनों सिद्धान्तों का बोध अतिशय तीक्ष्ण बुद्धिशाली श्री शुभनंदि पौर विनंदि मुनि को प्राप्त हुमा । ये दोनों महामुनि भीमरपी और कृष्णमेणा नदियों के मध्य में बसे हए रमणीय उत्कलिका ग्राम के समीप समित प्रगणबल्ला ग्राम में उपस्थित थे। उनके समीप रहकर श्री बप्पदेव गुरु ने दोनों सिद्धान्तों का श्रवण किया और फिर तजन्य ज्ञान से उन्होंने महाबंध खंड छोड़कर शेष पाच खंडों पर व्याख्या प्राप्ति नाम Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार मंथ ३२५ की व्याख्या बनाई। उसमें महाबंध का संक्षेप भी सम्मिलित कर दिया । पश्चात् कपाय प्राभृत पर प्राकत भाषा में साठ हजार और केवल महाबंध खंड पर पाठ हजार पांच श्लोक प्रमाण दो व्याख्यायें रची। कुछ समय पीखे चित्रकूट पुर निवासी श्रीमान् एलाचार्य सिद्धान्त तत्वों के ज्ञाता हए । उनके समीप वीरसेनाचार्य ने समस्त सिद्धान्त का अध्ययन किया और उपरितम (प्रथम के) निबंधनादि साठ जिलारों को लिखा । पचान गर भगवान की प्राज्ञा से चित्रकूट छोड़कर वेवाट ग्राम में पहुँचे। वहाँ मानतेन्द्र के बनाए हुए जिनमंदिर में बैठकर उन्होंने व्यास्याप्रज्ञप्ति देखकर पूर्व के छह खंडों में से उपरितम बंधनादिक अठारह अधिकारों में सत्कर्म नाम का मन्य बनाया और छह खंडों पर बहत्तर हजार इलोकों में संस्कृत प्राकृत भाषा मिश्रित धवल नाम की टीका वनाई। फिर कषाय प्राभूत की चारों विभक्तियों (भेदों) पर जयधवल नाम की बीस हजार श्लोक परिमित टीका लिखकर स्वर्गलोक को पधारे । उनके पश्चात् उनके प्रिय शिष्य श्री जयसेन गुरु ने चालीस हजार श्लोक और बनाकर जयधवल टीका को पूर्ण किया । जयधवल टीका सब मिलाकर साठ हजार श्लोकों में पूर्ण हुई। इस प्रकार श्रतोत्पत्ति का विवरण लिखकर इस विषय को समाप्त करते हैं। यह स्मरण करने योग्य है कि ये उन्हीं परोपकारो महात्माओं के परिश्रम का फल है जो उनके द्वारा निर्मित सिद्धान्त ग्रन्थों के प्रभाव से प्राज संसार में हमारे जैन धर्म का अस्तित्व पाया जाता है जिनमें से असंख्य ग्रंथों का तो अन्यायी राजाओं के शासन काल में तथा अन्याय मतों के विकास समय में प्रायः लोप हो गया । अगणित ग्रन्थों के नष्ट हो जाने पर भी पत्र भी ऐसे-ऐसे संस्कृत व प्राकृत भाषा के काव्य कोष व्याकरणादि न्याय तथा तत्त्वज्ञान के प्ररुपक अनेक उत्तमोत्तम ग्रन्थ रत्न उपलब्ध होते हैं जिनके ज्ञाता विद्वान वर्तमान समय में विरले अर्थात् इने-गिने ही पाए जाते हैं। हमें अपने उन पूर्वज महा परोपकारी ऋषि महर्षियों का कृतज्ञतापूर्वक भक्ति व श्रद्धा के साथ भजन, स्तवन तथा गुणानुवाद करना चाहिए। भारतवर्ष में एक मान्यखेद नाम का नगर था । उसके राजा शुभत ग थे और उनके मंत्री का नाम पुरुषोत्तम था । पुरुषोत्तम की गृहणी पावती थी। उसके दो पुत्र हुए, उनके नाम थे, अकलंक और निकलक । वे दोनों भाई बहे बुद्धिमान और गुणी थे। एक दिन की बात है कि अष्टान्हिका पर्व की अष्टमी के दिन पुरुषोत्तम और उसकी पत्नी बड़ी विभूति के साथ चित्रगुप्त मुनिराज वी वन्दना करने को गए। साथ में दानों भाई भो गए। मुनिराज की वन्दना करके इनके माता-पिता ने पाठ दिन के लिए ब्रह्मचर्य व्रत लिया और साथ में विनोद वश अपने दोनों पुत्रों को भी दिलवा दिया। कभी-कभी सत्पुरुषों का विनाद भी सत्यमार्ग का प्रदर्शक बन जाता है। अकलंक और निकलंक के चित्त पर भी पुरुषोत्तम के दिलवाए गए व्रत का ऐसा ही प्रभाव पड़ा। जब ये दोनों भाई युवावस्था में पदार्पण करने लगे तब कछ दिनों के पश्चात् पुरुषोत्तम ने अपने पुत्रों के व्याह को प्रायोजना की तब दोनों भाइयों ने मिलकर अपने पिता से निबेदन किया- पिता जी ! इतना भारी प्रायोजन और इतना परिश्रम प्राप किस लिए कर रहे हैं ?' प्रपन्ने भोले-भाले पुत्रों का मधुर संभाषण सुनकर पुरुषोत्तम ने कहा-'ये सब प्रायोजन तुम्हारे व्याह के लिए हैं। पिता का उत्तर सुनकर दोनों भाइयों ने फिर कहा-"पिता जी! अब हमारा व्याह कैसा ? मापने तो हमें ब्रह्मचर्य व्रत दे दिया था ।' पिता जी ने कहा-'नहीं। वह तो केवल विनोद से दिया गया था। तब उन बुद्धिमान भाइयों ने कहा 'पिता जी ! धर्म और व्रत में विनोद कसा, यह हमारी समझ में नहीं माया । अच्छा प्रापमे विनोद से ही दिया सही तो अब उसके पालन करने भी हमें Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार प्रय लज्जा कैसी ? पुरुषोत्तम ने फिर कहा-'अस्तु । जैसा तुम कहते हो वैसा हो सही परन्तु तब तो केवल पाठ हो दिन के लिए ब्रह्मचर्य त दिया था, न कि आयु पर्यन्त ।' तब दोनों भाइयों ने कहा-"पिता जी ! हम मानते हैं कि आपने अपने भावों से हमें आठ हो दिन के लिए ब्रह्मचर्य व्रत दिलवाया होगा, परन्तु न तो आपने उस समय इसका खुलासा कहा था और न मुनिराज ने ही। तब हम कैसे समझे कि व्रत पाठ ही दिन के लिए था। अतएव हम तो अव उसका आजन्म पालन करेंगे। ऐसी हमारी दह प्रतिज्ञा है। हम सब विवाह नहीं करेंगे । पुत्रों की बातों को सुनकर उनके पिता को बड़ी निराशा हुई पर वे कर भी क्या सकते थे। यह कहकर दोनों भाइयों ने गृहकार्य से सम्बन्ध छोड़कर अपना चित्त शास्त्राभ्यास की ओर लगाया । थोड़े ही दिनों में ये अच्छे विद्वान बन गए। इनके समय में बौद्ध धर्म का बहुत प्रचार या प्रतएव उन्हें उसके तत्व को जानने की जिज्ञासा हुई। उस समय मान्यखेट में ऐसा कोई विद्वान नहीं बौद्ध धर्म का अभ्यास करते इसलिए ये एक अज्ञविद्यार्थो का भेष बनाकर महाबोधि नामक स्थान में बौद्धधर्माचार्य के पास गए । प्राचार्य ने इनकी अच्छी तरह परीक्षा करके कहा कि कहीं ये छली तो नहीं है। जब उन्हें इनकी तरफ से बढ़ विश्वास हो गया तब वे और शिष्यों के साथ-साथ उन्हें भी पढ़ाने लगे। ये अन्तरग में ता पक्क जिनधर्मी और बाहर एक महामूर्ख बनकर सख्यं-ज्ञान सीखने लगे। निरन्तर बौद्धधर्म श्रवण करते रहने से अकलंक देव की बुद्धि बड़ी विलक्षण हो गई। उन्हें एक ही बार के सुनने से कठिन वात भी याद होने लगी और निकलंक को दो बार के सुनने से अर्थात् अकलंक एक संस्थ और निकलंक दो संस्थ हो गए। इस प्रकार वहाँ रहते-रहते दोनों भाइयों का बहुत समय बीत गया। एक दिन की बात है कि बौद्ध गुरु अपने शिष्यों को पढ़ा रहे थे उस समय जनधर्म के सप्तभंगी न्याय सिद्धान्त का प्रकरण था। वहां कोई ऐसा अशुद्ध पाठ पा गया जो बौद्ध गुरु की समझ में न आया तब वे अपने व्याख्यान को बहीं समाप्त कर कुछ समय के लिए बाहर चले आये । अकलंक बड़े बुद्धिमान थे वे बौद्ध गुरु के अभिप्राय को समझ गये। इसीलिए उन्होंने बड़ी बुद्धिमानी के साथ उस पाठ को शुद्ध कर दिया और उसकी खबर किसी को न होने दी। इतने में पीछे बौद्ध गुरु पाये उन्होंने अपना व्याख्यान प्रारम्भ किया। जो पाठ अशुद्ध था वह अब देखते ही उनकी समझ में आ गया। वह देखकर उन्हें स न्देह हुआ कि अवश्य इस जगह कोई जिनधर्म रूप समुद्र का बढ़ाने वाला चन्द्रमा है और वह हमारे धर्म को नष्ट करने की इच्छा से बौद्ध भेष धारण करके बौद्ध शास्त्र का अभ्यास कर रहा है । उसको शीघ्र ही खोज लगाकर मरवा डालना चाहिए। इस विचार के साथ बौद्ध गुरु ने सब विद्यार्थियों को शपथ प्रतिज्ञा आदि देकर पूछा पर जैनधर्मी का पता उन्हें नहींलगा तब उन्होंने जैन प्रतिमा मंगाकर उसको लांघ जाने के लिए सब को कहा ! सब विद्यार्थी तो लांच अकलंक की बारी आई। उन्होंने अपने कपड़े में से एक सूत का धागा निकाल कर उसे प्रतिमा पर डाल दिया और उसे परिग्रही समझकर वे उसे लांघ गये। यह कार्य इतनी जल्दी किया कि किसी को समझ में न आया । बौद्ध गुरु इस कार्य में भी जब कृतकार्य न हुए तब उन्होंने एक और नवीन युक्ति की। उन्होंने बहुत से काँसी के बर्तन एकत्रित करवाये और उन्हें एक बड़ी भारी गौन में भरकर वह बहुत गुप्त रीति से विद्यार्थियों के सोने की जगह के पास रखवा दी और विद्यार्थियों की देख-रेख के लिए अपना एक गुप्तचर रख दिया। आधी रात के समय जब सब विद्यार्थी निडर होकर निद्रा देवी की गोद में सुख का अनुभव कर रहे थे, किसी को कुछ मालूम न था कि हमारे लिए क्या षडयन्त्र रचे जा रहे हैं 1 एकाएक बड़ा विकराल शब्द हुआ मानों आकाश में विद्युत्पात हुप्रा हो ! सब विद्यार्थी उस भयंकर शब्द से थरथरा उठे वे अपना जीवन बहुत थोड़े समय के लिए समझकर अपने उपास्य परमात्मा का Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार ग्रंथ ३२० स्मरण कर उठे और अकलंक भी पंचनमस्कार मंत्र का ध्यान करने लगे। पास ही बौद्ध गुरु का गुप्तचर खड़ा हुआ था वह उन्हें बुद्ध भगवान का स्मरण करने की जगह जिन भगवान का स्मरण करते देखकर बौद्ध गुरु के पास ले गया और गुरु से उसने प्रार्थना की प्रभो ! प्राज्ञा दीजिये कि इन दोनों धूर्तों का क्या किया जाए। ये ही जैवी हैं । यह सुनकर वह दुष्ट बौद्ध गुरु बोला- इस समय रात बहुत है अतएव इन्हें ले जाकर कारागार में बन्द कर दो। अर्द्धरात्रि व्यतीत हो जाने पर इनका धराशयी बना देना अर्थात् मार डालना उस गुप्तचर ने इन दोनों भाइयों को ले जाकर कारावास में बन्द करवा दिया | अपने पर एक महाविपत्ति आई हुई देखकर निकलंक ने बड़े भाई से कहा- 'भैया ! हम दोनों ने इतना कष्ट उठा कर तो विद्या प्राप्त की, पर बड़े दुःख की बात है कि उसके द्वारा हम कुछ भी जिनधर्म को सेवा न कर सके और एकाएक हमें मृत्यु का सामना करना पड़ा। भाई की दुखभरी बात को सुनकर महाघीर वीर कलंक ने कहा- 'प्रिय भ्राता ! तुम बुद्धिमान हो, तुम्हें भय करना उचित नहीं । घबराओ नहीं। अब भी हम अपने जीवन की रक्षा कर सकते। देखो मेरे पास यह छत्री है इसके द्वारा अपने को छिकर हम लोग यहां से निकल चलते हैं और शीघ्र ही अपने स्थान पर जा पहुंचते हैं ।' यह विचार कर वे दोनों भाई वहाँ से गुप्तरीति से निकल गये और पवन के समान तीव्र गति से गमन करने लगे । इधर जब अर्धरात्रि व्यतीत हो चुकी और बौद्ध गुरु की याज्ञानुसार जब इन दोनों भाईयों के मारने का समय आया तब उन्हें पकड़ लाने के लिए सेवक लोग भेजे गये पर जब वे बन्दीगृह में जाकर उन्हें देखते हैं तो वहाँ उनका पता ही नहीं था। उन्हें उनके एकाएक लुप्त हो जाने से बड़ा विस्मय हुआ । पर वे क्या कर सकते थे। उन्हें उनके कहीं ग्राम पास ही छुपे रहने का संदेह हुआ उन्होंने आस-पास, वन, उपवन, खण्डर, वापिका, कूप, पर्वत, गुफा, वृक्षों के कोठर आदि सब एकएक 'करके बुद्ध डाले । परन्तु उनका कहीं पता न चला। उन पापियों को तब भी तो संतोष नहीं हुआ । तब उनके मारने की इच्छा से अश्वारूट होकर उन दुष्टों ने यात्रा की। उनकी दयारूपी केन कोष रूपी दावानलाग्नि से खूब झुलस गई थी इसीलिये उन्हें ऐसा दुष्कर्म करने को बाध्य होना पड़ा। दोनों भाई भागते जाते थे और पीछे फिर-फिर कर देखते जाते थे कि कहीं किसी ने हमारा पीछा तो नहीं किया पर उनका सन्देह ठीक निकला। निकलंक ने दूर तक देखा तो उसे श्राकाश में धूल उड़ती हुई दीख पड़ी । उसने बड़े भाई से कहा - "भैया हम लोग जितना कुछ करते हैं, वह सब निष्फल हो जाता है । जान पड़ता है देव ने हम से पूर्ण शत्रुता बांधी है। खेद है कि परम पवित्र जिन शासन की हम लोग कुछ भी सेवा न कर सकें और मृत्यु ने बीच ही में प्राकर हमको धर दबाया। भैया ! देखो तो पापी लोग हमें मारने के लिए पीछा किये चले ग्रा रहे हैं। अब रक्षा होना असम्भव है। हाँ, मुझे एक उपाय सूझ पड़ा है और उसे आप करेंगे तो जैन धर्म का बड़ा उपकार होगा । याप बुद्धिमान हैं एक संस्थ हैं। आपके द्वारा जिन धर्म का खूब प्रकाश होगा। देखते हैं वह सरोवर है उसमें बहुत से कमल हैं: श्राप जल्दी जाइये और तालाब में उतरकर कमलों में अपने को छुपा लीजिये । जाइये, शीघ्रता कीजिये । देरी का काम नहीं है । शत्रु पास पहुंचे आ रहे हैं प्राप मेरी चिंता न कीजिये। मैं भी जहां तक बन सकेगा जीवन की रक्षा करूँगा और यदि मुझे अपना जीवन भी देना पड़े तो मुझे उसकी कुछ उपेक्षा नहीं जबकि मेरे प्यारे भाई जीवित रहकर पवित्र जिनशासन की भरपूर सेवा करेंगे। आप जाइये। मैं भी अब यहाँ से भागता हूं।" अकलंक के नेत्रों से भाई की दुःखभरी बात सुनकर अश्रुधारा बहने लगी । उनका हृदय भ्रातृ प्रेम से भर आया। वे भाई से एक अक्षर तक भी न कह सके कि निकलंक वहाँ से Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ णमोकारवय भाग खड़ा हुआ 1 लाचार होकर अकलंक को अपने जीवन की नहीं अपितु पवित्र जिनशासन की रक्षा के लिए कमलों में छुपना पड़ा उनके लिए कमलों का प्राश्रय केवल दिखावा था । वास्तव में तो उन्होंने जिसके बराबर संसार का कोई प्राश्रय नहीं हो सकता उस जिनशासन का पाश्रय लिया था। निकलंक भाई से विदा लेकर तेजी से भाग रहा था कि मार्ग में उसे एक धोवी कपड़े धोता हुआ मिला। धोबी ने नाकाश में धूल की छटा छाई हुई देखकर निकलंक से पूछा-"यह क्या हो रहा है और तुम ऐसे जी छोड़कर क्यों भागे जा रहे हो ?" निकलक ने कहा-"पोछे शत्रुओं को सेना पा रही है, उसे जो मिलता है उसे ही वह मारती है इसीलिए मैं भागा जा रहा हूं।" यह सुनते ही धोबी अपने कपड़े वगैरह सब छोड़कर निकलंक के साथ भाग निकला वे दोनों बहुत भागे पर कहाँ तक भाग सकते थे। अन्त में सवारों ने उन्हें प्रा ही पकड़ा और उसी समय अपनी चमचमाती हुई तलवार से दोनों का मस्तक काटकर उन्हें वे अपने स्वामी के पास ले गए। सच है पवित्र जिनधर्म, अहिंसाधर्म से रहित मिथ्यात्व को अपनाये हुए उन पापी लोगों के लिए ऐसा कौन-सा महापाप बाकी रह जाता है जिसे वे नहीं करते जिनके हृदय में जीव मात्र को सुख पहुंचाने वाले जिनधर्म का लेश मान भी नहीं है उन्हें दूसरों पर दया भी कसे पा सकती है उधर शत्रु भी अपना काम कर वापिस लोटे मोर इधर प्रकलंक अपने को सुरक्षित समझकर सरोवर से निकले और निडर होकर आगे बढ़े। वहां से चलते-चलते वे कुछ दिन के मनन्तर कलिंग देशांतर्गत रत्नसंचयपुर नामक नगर में पहुंचे । उस समय वहाँ के राजा हिमशीतल थे। उनकी रानी का नाम मदनसुन्दरी था । वह जिन भगवान की बड़ी भक्त थो। उसने मोक्ष, स्वर्ग और सुख के देने वाले पवित्र जिनधर्म की प्रभावना के लिए अपने बनवाये हुए जिनमन्दिर में फाल्गुण शुक्ल अष्टमी के दिन से रथयात्रोत्सव का प्रारम्भ करवाया था। उसमें उसने बहुत द्रव्य व्यय किया वहाँ संघश्री नामक बौद्धों का प्रधान प्राचार्य रहता था। उसे महारानी का कार्य सहन नहीं हुमा । उसने महाराज से कहकर रथयात्रा उत्सव रुकवा दिया और साथ ही वहाँ जिनधर्म का प्रचार न देखकर शास्त्रार्थ के लिए विज्ञापन भी निकाल दिया। महाराज ने अपनी महारानी से कहा-"प्रिय ! जब तक कोई जैन विद्वान बौद्ध गुरू के साथ शास्त्रार्थ करके जिनधर्म का प्रभाव न फैलावेगा तब तक तुम्हारा उत्सव होना कठिन है।" महाराज की बातें सुनकर रानी को बड़ा दुःख हुमा पर कर ही क्या थी? उस समय कौन उसकी भाशा पूरी कर सकता था? बह उसी समय जिन मन्दिर गई और वहाँ मुनियों को नमस्कार करके पूछने लगी-'प्रभो ! बौद्ध गुरु ने मेरी रथयात्रा को रुकवा दिया है। वह कहता है कि पहले मुझसे शास्त्रार्थ करके विजय प्राप्त कर लो फिर रथोत्सव करना। बिना ऐसा किये उत्सव न हो सकेगा इसीलिये मैं आपके पास प्राई हूं। बतलाईये कि जैन दर्शन का अच्छा विद्वान कौन है जो बौद्ध गुरु को पराजित कर मेरी इच्छा पूर्ण करे।" यह सुनकर मुनि बोले-"इघर पास-पास तो कोई ऐसा विद्वान नहीं दिखता जो बौद्ध गुरु के सन्मुख शास्त्रार्थ कर विजय प्राप्त कर सके परन्तु मान्यवेट नगर में ऐसे विद्वान अवश्य है । उनके बुलवाने का पाप प्रयत्न करें तो सफलता प्राप्त हो सकती है ।" रानी ने कहा -"वाह ! प्रापने बहुत मच्छी बात कही, सर्प तो शिर के पास फुकार रहा है और थाप कहते हैं कि गरुड़ अभी दूर है । भला उससे क्या सिद्धि हो सकती है ? अस्तु जान पड़ा कि पाप लोग इस महाविपत्ति का सद्यः प्रतीकार नहीं कर सकते दैव को जिनधर्म का पतन कराना ही इष्ट मालूम होता है । जब मेरे पवित्र धर्म की दुर्दशा होगी तब मैं ही जीवित रहकर क्या कहेंगी?" Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार प्रय १२६ यह कहकर महारानी महल से प्रपना सम्बन्ध छोड़कर जिन मन्दिर गई और उसने यह दृढ़ प्रतिज्ञा की कि जब बौद्ध गुरु संघश्री का मिथ्याभिमान चूर्ण होकर मेरा रथोत्सव बड़े ठाट-बाट के साथ निकलेगा और जिनधर्म की खूब प्रभावना होगी तब ही मैं भोजन करूंगी। नहीं तो वैसे ही निराहार रहकर अपने प्राण विसर्जन करूंगी ! परन्तु अपनी आंखों से परम पूज्य व पवित्र जिनशासन की दुर्दशा न देख सकूगी अर्थात् कभी नहीं देखंगी । ऐसा हृदय में दृढ़ निश्चय करके मदनसुन्दरी जिनेन्द्र भगवान के सन्मुख कायोत्सर्ग धारण कर एकचित्त हो पंचनमस्कार मन्त्र की प्राराषना करने लगी। उस समय उसकी ध्यानारूढ़ निश्चल अवस्था ऐसी प्रतीत होती थी मानों सुमेरू पर्वत की चूलिका हो । 'भव्यों को जिन भक्ति का फल अवश्य ही मिलता है'-इस नीति के अनुसार महारानी भी उससे वंचित नहीं रही महारानी के निश्चल ध्यान के प्रभाव से पद्मावती का प्रासन कंपित हुमा । वह प्रर्द्धरात्रि के समय आई महारानी से बोली-"देवी ; जब तुम्हारे हृदय में जिन भगवान के चरण कमल शोभित हैं तब तुम्ह चिता करने की कोई आवश्यकता नहीं। उनके प्रसाद से तुम्हारा मनोरथ नियम से पूर्ण होगा। सुनो ! कल-प्रात काल ही भगवान अकलंक देव उधर पायेंगे । वे जैन धर्म के बड़े भारी विद्वान हैं । वे ही मंघश्री का मद चूर्ण कर जैन धर्म की खूब प्रभावना करेगें और तुम्हारा रथोत्सव कार्य निर्विघ्न समाप्त करेंगे। उन्हें अपने मनोरथ के पूर्ण करने वाले मूर्तिमान शरीर समझो।"-यह कहकर पावतो अपने स्थान पर चली गई । देवी की बात सुनकर महारानी अत्यन्त प्रसन्न हुई। प्रात:काल होते ही उसने महाभिषेक पूर्वक पूजा की । तदनन्तर उसने अपने राजकीय प्रतिष्ठित पुरुषों को अकलंक देव को डढ़ने के लिए चारों ओर दौड़ाया। उनमें जो पूर्व दिशा की ओर गये थे उन्होंने एक उपवन में अशोक वृक्ष के नीचे बहत से शिष्यों के साथ एक महात्मा को वैठे देखा। उनके किसी एक शिष्य से महारमा का नाम-धाम पूछकर वे अपनी मालकिन के पास आ गए और सब हाल उन्होंने उससे कह मुनाया । यह सुनकर धर्मवत्सला वह रानी खान-पान आदि सब सामग्री लेकर अपने साधर्मियों के साथ बड़े वैभव से महात्मा अकलंक के निकट गई। वहां पहुंचकर उसने बड़े प्रेम और भक्ति से उन्हें प्रणाम किया उनके दर्शन से रानी को अत्यन्त प्रानन्द हुग्रा जैसे सूर्य को देखकर कमलिनी को और मुनियों का तत्व ज्ञान देखकर बुद्धि को आनन्द हुमा करता है । तत्पश्चात् रानी ने धर्म-प्रेम वश होकर अकलंक देव की चंदन, मगर फल, फूल, वस्त्रादि से बड़ी विनय के साथ पूजा की और पुनः प्रणाम कर उनके पास बैठ गई। उसे माशीर्वाद देकर पवित्रात्मा अकलंक बोले-"देवी ! तुम अच्छी तरह तो हो और सब संघ भी प्रच्छी तरह है ?" महात्मा के वचन को सुनकर रानी की प्रांखों में पांसू बह निकले। उसका गला भर प्राया। यह बही कठिनता से बोली--प्रभो! संघहै तो कशल पर इस समय उसका घोर एपमान हो रहा है। इसका मुझे बड़ा दुःख है" यह कहकर उसने संघधी का सब हाल अकलेक देव से निवेदन किया। बह सुनकर पवित्र धर्म का अपमान अकलंक न सह सके । उन्हें क्रोध आ गया। वे बोले-"वह वराक संघधी मेरे पवित्र धर्म का अपमान करता है पर वह मेरे सामने है कितना, इराकी उसे खबर नहीं है। अच्छा उसके अभिमान को देखूगा कि वह कितना पांडित्य रखता है। मेरे साथ खास बुद्ध तक तो शास्त्रार्थ करने की हिम्मत नहीं रखता तब वह बेचारा किस गिनती में है।" इस तरह रानी को संतुष्ट करके अकलंक देव ने संघश्री के शास्त्रार्थ के विज्ञापन की स्वीकारता उसके पास भेज दी और आप बड़े उत्सव के साथ जिन मन्दिर में आ पहुँचे । पत्र संघश्री के पास पहुंचा उसे देखकर और लेखन शैली को पढ़कर उसका चित्त शोभित हो उठा। यत में उसे अपनो वचन पूर्णता करने को शास्त्रार्थ के लिए Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३० णमोकार ग्रंथ तैयार होना ही पड़ा । ग्रकलंक के आने का समाचार महाराज हिमशीतल के पास पहुंचा । उन्होंने उसी समय बड़े आदर के साथ उन्हें राज्यसभा में बुलवाकर संघश्री के साथ उनका शास्त्रार्थं करवाया, संघी उनके साथ शास्त्रार्थ करने को तो तैयार हो गया पर जब उसने अकलंक देव के प्रश्नोत्तर करने का पांडित्य देखा और उसने अपनी शक्ति की तुलना की, तब उसे ज्ञात हुआ कि मैं अकलंक के साथ शास्त्रार्थ करने में अशक्त है पर राजसभा में ऐसा कहना भी उसने उचित न समझा क्योंकि उससे उसका अपमान होता । तब उसने एक नवीन युक्ति सोचकर राजा से कहा - "महाराज ! यह धार्मिक विषय है इसकी समाप्ति होना कठिन है श्रतएव मेरी इच्छा है कि यह शास्त्रार्थं सिलसिलेवार तब तक चलना चाहिए जब तक एक पक्ष पूर्ण निस्तर न हो जाए" राजा ने अकलंक की अनुमति लेकर संघ श्री के कथन को मान लिया। उस दिन का शास्त्रार्थ बन्द हुआ। राजसभा भंग हुई। अपने स्थान पर संघश्री ने जहाँ-जहाँ बौद्ध धर्म के विद्वान रहते थे उनको बुलाने अपने शिष्यों को भेजा और स्वयं रात्रि के समय अपने धर्म की अधिष्ठात्री देवी की अराधना की। देवी उपस्थित हुई । संघश्री ने उससे कहा- "देखती हो धर्मं पर बड़ा संकट उपस्थित है। उसे दूरकर आपको धर्म की रक्षा करनी होगी। अकलंक बड़ा विद्वान है। उसके साथ शास्त्रार्थ कर विजय प्राप्त करना असम्भव है इसीलिए मैंने तुम्हें इतना कष्ट दिया हैं । यह शास्त्रार्थं मेरे द्वारा तुम्हें करना होगा और कलंक को पराजित कर बौद्ध धर्म की महिमा प्रगट करनी होगी । बोलो क्या कहती हो ?" उत्तर में देवी ने कहा--"हाँ मैं शास्त्रार्थ करूँगी सही परन्तु खुली सभा में नहीं अपितु परदे के भीतर घड़े में रहकर " "तथास्तु" कहकर संघश्री ने देवी को विसर्जित किया और आप फिर निद्रा देवी की आराधना में जा लगा। प्रातःकाल होने पर शौच, स्नान, देव पूजन यदि नित्य कर्म से निवृत होकर संघश्री राज सभा में पहुचा श्रौर राजा से बोला- "महाराज ! हम आज शास्त्रार्थं परदे के भीतर रहकर करेंगे। हम शास्त्रार्थ करते समय किसी का मुख नहीं देखेंगे । श्राप पूछेंगे क्यों ! इसका उत्तर अभी न देकर शास्त्रार्थ के अन्त में दिया जायगा ।" राजा संघश्री के कपट जाल को कुछ न समझ सके ( उसने जैसा कहा वैसा उन्होंने स्वीकार कर उसी समय वहाँ एक परदा डलवा दिया| संघी ने उसके भीतर जाकर बुद्ध भगवान की पूजा की और देवी की पूजा कर उसका एक घड़े में आह्वान किया। धूर्त लोग बहुत कुछ छल-कपट करते हैं पर अन्त में उसका फल थच्छा न होकर बुरा ही होता है । तदनन्तर घड़े की देवी अपने में जितनी शक्ति थी उसे प्रगट कर अकलंक के साथ शास्त्रार्थ करने लगी। इधर अकलंक देव भी देवी के प्रतिपादन किये हुए विषय का अपनी भारती द्वारा दिव्य खण्डन और अपने पक्ष का समर्थन तथा विपक्ष का खण्डन करने वाले परम पवित्र अनेकान्त स्याद्वाद मत का समर्थन बड़े ही पांडित्य के साथ निडर होकर करने लगे । इस प्रकार शास्त्रार्थं होते होते छः महीने बीत गए पर किसी की विजय न होने पाई । यह देखकर कलंक देव को बड़ी चिन्ता हुई। उसने सोचा कि संघश्री साधारण पढ़ा लिखा और जो पहले ही दिन मेरे सन्मुख थोड़ी देर भी न ठहर सका था वह श्राज बराबर छः महीने से शास्त्रार्थं करता चला भा रहा है। इसका क्या कारण है वह नहीं जान पड़ता। उन्हें इसकी चिन्ता हुईं पर वे कर ही क्या सकते थे ? एक दिन वे इसी चिन्ता में डूबे हुए थे कि इतने में जिन शासन की अधिष्ठात्री चक्रेश्वरी देवी श्रा गई और अकलंक देव से बोली - "प्रभो ! आपके साथ शास्त्रार्थ करने को मनुष्य मात्र में शक्ति नहीं है और बेचारा संघश्री भी तो मनुष्य है तब उसकी क्या मजाल जो आपसे शास्त्रार्थं कर सके । पर यहाँ तो बात कुछ और ही है। आपके साथ जो शास्त्रार्थं करता है वह संघश्री i Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार नथ नहीं है । किन्तु बुद्ध धर्म को अधिष्ठात्री देवी तारा है। इतने दिनों से वही शास्त्रार्थ कर रही है। संघश्री ने उसकी आराधना कर उसे यहाँ बुलाया है । अतएव कल जव शास्त्रार्थ होने लगे और देवी उस समय जो कुछ प्रतिपादन करे तब आप उससे उसी विषय का फिर से प्रतिपादन करने के लिए कहियं । वह उसे फिर न कह सकेगी तब उसे अवश्य ही नीचा देखना पड़ेगा"-यह कहकर देवी अपने स्थान पर चली गई। अकलंक देब की चिता दूर हुई। वे बड़े प्रसन्न हुए । प्रात:काल हुा । अकलंक देव अपने नित्य कर्म से मुक्त होकर जिन मन्दिर में गए। पूर्ण भक्ति भाव से उन्होंने भगवान की स्तुति की। तत्पश्चात् दे वहां से सीधे राज सभा में पाए उन्होंने महाराज शुभ तुंग को सम्बोधन करके कहा-'राजन इतने दिनों तक मैंने शास्त्रार्थ किया। का यह प्रयोगासा , संघत्री को पराजित नहीं कर सका परन्तु ऐसा करने से मेरा अभिप्राय जिनधर्म के बतलाने का था। वह मैंने बतलाया पर मैं अब इम संवाद का अन्त करना चाहता हूं। मैंने अाज निश्चय कर लिया है कि मैं आज इस संवाद की समाप्ति करके ही भोजन करूंगा"ऐसा कहकर उन्होंने परदे की ओर देखकर कहा--"क्या जैन धर्म के सम्बन्ध में कुछ और कहना बाकी है या मैं शास्त्रार्थ समाप्त करूं?" यह कहकर जैसे ही वे चुर हुए कि परदे की योर स फिर वक्तब्य प्रारम्भ हुना । देवी अपना पक्ष समर्थन कर जैसे ही चुप हुई अकलंक देव ने उसी समय कहा- 'जो विषय अभी कहा गया है उसे फिर कहो वह मुझे ठीक नहीं सुनाई पड़ा।" प्राज अकलंक देव का नया हो प्रश्न सुनकर देवी का साहस एक साथ ही न जाने कहां चला गया । देवता जो कुछ कहते है बह एक ही बार कहत हैं। उसी बात को बह पुनः नहीं कहते । तारा देवी का भी यही हाल हुआ। वह अकलंक देव के प्रश्न का उत्तर न दे सकी अत: उसे अपमानित होकर भाग जाना पड़ा जैस सूर्योदय स रात्रि भाग जाती है । तत्पश्चात् प्रकलंक देव उठे और परदे को फाड़कर उसके भीतर घुस गये वहां जिस घर में देवी का आह्वान किया गया था वह उन्होंने पांव की ठोकर से फोड़ डाला। संधी सरीख जिनशासन के शत्रुओ मिथ्यात्वियों का अभिमान चूर्ण किया । अकलंक के इस विजय और जिन धर्म की प्रभावना ने मदनसुन्दरी और सर्वसाधारण को बड़ा आनन्द हुआ 1 अकलंक ने सब लोगों के सामने जोर देकर कहा-"सज्जनों ! मैंने इस धर्मशून्य संघधी को तो पहले ही दिन पराजित कर दिया था किन्तु इतने दिन जो मैंने देवी के साथ शास्त्रार्थ किया वह केवल जिनधर्म का महात्म्य प्रगट करने के लिए और सम्यक् ज्ञान का लोगों के हृदय पर प्रकाश डालने के लिए था'-यह कह कर मकलंक देव ने इस श्लोक को पढ़ा माहंकार वशीकृते न मनसा, न द्वेषिणा केवलं। नैरात्म्यं प्रतिपद्य नश्यतिजमे, कारुण्य मुदयामया ॥ रामः श्री हिमशीसलस्य, सदस्य प्रायोविदग्धात्मनो। बौदोषान्सकलान्यिजिस्य सुगतः पाबनविस्फालितः ।। महाराज हिमशीतल की सभा में मैंने सब बौद्ध विद्वानों को पराजित कर सुगत को ठुकराया। यह न तो अभिमान के वश होकर किया गया और न किसी प्रकार के द्वेष भाव से, किन्तु नास्तिक बनकर नष्ट होते हुए जनों पर मुझे बड़ी दया आ गई इसीलिए उनकी दया से बाध्य होकर मुझे ऐसा करना पड़ा । उस दिन से बौखों का राजा और प्रजा के द्वारा चारों ओर प्रपमान होने लगा, किसी की बौद्ध धर्म पर श्रद्धा नहीं रही, सब उसे घृणा की दृष्टि से देखने लगे। यही कारण है कि बौद्ध लोग यहां से कर विदेशों में जा बसे। महाराज हिमशीतल और प्रजा के लोग जिनशासन को प्रभावना देखकर Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार ग्रंथ बड़े खुश हुए । सबने मिथ्यात्व मत छोड़कर जिन धर्म स्वीकार किया और प्रकलंक देव का सोने, रत्न आदि अलंकारों से खूब आदर सत्कार किया, खूब उनकी प्रशंसा की। सच बात है -'जिन भगवान के पवित्र सम्यग्ज्ञान के प्रभाव से कौन सत्कार का पात्र नहीं होता। अकलंक देव के प्रभाव से का उपद्रव टला देखकर महारानी मदन मुन्दरी ने पहले से कई गुणे उत्साह के साथ रथ निकलवाया । रथ बड़ी सुन्दरता के साथ सजाया गया था उसकी शोभा देखते ही बन पड़ती थी वह बेशकीमती वस्त्रों से सुशोभित था। छोटी-छोटी घंटियां उसके चारों ओर लगी हुई थी। उसकी मधुर आवाज एक बड़े घंटे की प्रावाज से मिलकर जो कि उन घंटियों के बीच में था बड़ी सुन्दर जान पड़ती थी। उस पर रत्नों और मोतियों की मालायें अपूर्व शोभा दे रही थीं। उसके ठीक बीच में रत्नमयी सिंहासन पर जिन भगवान की बहुत सुन्दर प्रतिमा शोभित थी। वह मौलिक, छत्र, चमर भामंडल आदि से अलंकृत थी। रथ चलता जाता था और उसके प्रागे प्रागे भव्य पुरुष बड़ी शक्ति के साथ जिन भगवान की जय बोलते हुए और भगवान के अनेक प्रकार के पुष्पों की जिनकी सुगन्ध से सब दिशायें सुगन्धित होती थीं, वर्षा करते चले जाते थे । चारण लोग भगवान की स्तुति पढ़ते जाते थे। वस्त्र, आभूषणों से सुसज्जित कुल कामिनियां सुन्दर-सुन्दर मधुर स्वर से गीत गाती चली जाती थीं। नर्तकियां नृत्य करती जाती थीं। अनेक प्रकार के बाजों का सुन्दर शब्द दर्शकों के मन को अपनी ओर आकर्षित करता था। इन सब शोभाओं से रथ ऐसा जान पड़ता था मानों पुण्यरूपी रत्नों को उत्पन्न करने को चलने वाला वह एक दूसरा रोहण पर्वत उत्पन्न हुआ है। उस समय जो याचकों को दान दिया जाता था, वस्त्राभयण वितीर्ण किये जाते थे उससे रथ की शोभा एक चलते हुए कल्पवृक्ष की सी जान पड़ती थी । हम रथ की शोभा का कहाँ तक वर्णन करें? श्राप इसी से अनुमान कर लीजिये कि जिसकी शोभा को देखकर ही बहुत से अन्य धर्मी लोगों ने जब सम्यग्दर्शन ग्रहण कर लिया तब उसकी सुन्दरता का क्या ठिकाना है ? इत्यादि दर्शनीय वस्तुओं से सजाकर रथ निकाला गया उसे देखकर यही जान पड़ता था मानों महादेवी मदन सुन्दरी की यशोराशि ही चल रही है। वह रथ भव्य पुरुपों के लिए सुख देने वाला था। उस सुन्दर रथ को हम प्रतिदिन भावना करते हैं। उसका ध्यान करते है। वह हमें सम्यग्दर्शन रूपी लक्ष्मी प्रदान कर ! जिस प्रकार अकलंक देव ने सम्यग्ज्ञान की प्रभावना की। उसका महत्त्व सर्व साधारण लोगों के हृदय पर अंकित कर दिया उसी प्रकार और और भव्य पुरुषों को भी उचित है कि वे भी अपने में जिस तरह बन पड़े जिन धर्म को प्रभावना करें। जैन धर्म के प्रति उनका जो कर्तव्य है उसे वे पूरा करें। इति ज्ञानोद्योतक श्रीमद अकलंकवाल्यानं समाप्तम्। अथ श्री कुंकूवाचार्य मुनिराख्यान प्रारम्भ :जम्बूद्वीप के भारत क्षेत्र में मालव देश के अन्तर्गत बूंदीकोटे के निकटवर्ती वाशुपुर नामक एक नगर था। जिस समय का यह आख्यान है उस समय उसके राजा कुमुदचन्द थे। कुमुदचन्द धर्मज्ञ, नीति परायण, और प्रजा हितैषी थे । उनकी रानी का नाम कुमुदचन्द्रिका था। वह भी बड़े सरल स्वभाव की और सुशीला थी। यहाँ पर विशेष करके श्रीमान धनाढ्य व्यपारीगण निवास करते थे जिनमें एक कुंद नाम के श्रेष्ठी अति धनाढ्य, धर्मात्मा और धर्म प्रेमी थे। इनके कुंदलता नाम की सहचारिणी स्त्री थी। दोनों की ही जैन धर्म पर अखंड प्रीति थी। हमारे चरित्र नामक की कुंद-कुंद उन्हीं के पुण्य के फल थे। उनका जन्म वीर सम्वत् ४९७ विक्रमी सम्वत ५ में हुआ था। उनके जन्म के उपलक्ष्य में कुद श्रेष्ठी ने बहुत उत्सव किया, धान दिया। श्री शांतिनाथ स्वामी के मन्दिर में पूजन विधान कराया। यशोध्वजा , Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार ग्रंथ फहरायी । मन्दिर के शिखर पर सुवर्णमय कलश चढ़ाये ओर भी अनेक प्रकार की पूजा प्रभावना की। माता-पिता के नाम को सादृश्यता देखकर बंधु बाधवों ने इनका नाम कुंद कुंद रख दिया ! अपनी वय समान श्रेष्ठी कुमारों के साथ बाल क्रीड़ा करते शुक्ल द्वितीय चन्द्रमा की तरह वे दिनोंदिन बढ़ने लगे। जब ये पाँच वर्ष के हुए तब इनके पिता को इन्हें धार्मिक बिद्या के अध्ययन कराने की रुचि उत्पन्न हुई क्योंकि उस समय विशेष करके आध्यात्मिक विद्या ही सर्वमान्य और उन्नति के शिखर पर थी दूसरे कुन्द श्रेष्ठी स्वत: प्रचुर धनी और प्रतिष्ठित व्यापारी थे इस कारण विशेष आर्थिक इच्छा न होने से व्यापारिक व क्षत्रिय (राजकीय) विद्या पाठन कराना इष्ट न जान कर तत्सामयिक आध्यात्मिक विद्या का प्रतिशेप प्रचार होने से ब्रह्म विद्या काही पठन कराना रुचि कर हमा। एक दिन कुन्दकुन्द कुमार अपने सखानों सहित विनोद क्रीड़ा करते तथा प्रकृति की सुन्दरता को देखते हुए निजे नमर के बन में गये। वहाँ एक नग्न दिगम्बर शांत और क्षमावान मुनि दृष्टिगोचर हुए। साधारण नियम है कि जहां कोई प्राचार्य मुनि अथवा साधु प्राये हों, वहां उनकी वन्दना के लिए आये हुए श्रावक जन भक्ति सहित नमस्कार कर उनकी पूजा करें। इस नियमान्वित वहां बहुत से धावक बैठे हुए थे। कितने ही पूजन कर रहे थे। इस प्रकार परम शान्त मूर्ति मुनिराज को अवलोकन कर उनके मित्र बों के हृदय कमल मुकुलित हो गए परन्तु इस समय कुदकुद कुमार के मन की और ही अवस्था हुई । मुनिराज को देखते ही उनके मन में स्फुरण हुआ कि धन्य है प्रापको परम शान्त चित्त मुनिराज ! जिस मनुष्य को जगत में पाप जैसे पूज्य होने की इच्छा हो तो उसे निश्चय करके आपके शात गम्भीर उदार एवं सर्वहितकारी सगुणों का अनुकरण करना चाहिए। संसार में उस समय निजात्म के अतिरिक्त अन्य पदार्थों में सृष्टि पहुँचाने वाले व्यक्ति तो वहुत थे परन्तु स्वात्म कल्याण साधते हुए पर हित करने वाले प्राप जैसे व्यक्ति नियम करके विरले ही हैं अत: आपको इस जगत में धन्यवाद है। ऐसा विचार कर वह कुद-कुद कुमार अन्य सखाओं के साथ घर न जाकर कितने ही मित्रों सहित जो कि उनको घर चलने की प्रतीक्षा करते हुए मार्ग में खड़े हुए थे उनको साथ लेकर मुनिराज के निकट गये वहाँ मुनिराज का तप ध्यान तथा भाव से बना हुमा शांत और गम्भीर रूप अवलोकन करने तथा मुनिराज के मुख द्वारा प्रादर्भत धर्मोपदेश श्रवण से कद-कद कमार का चित्त विरक्त हो गया। उनके चित्तरूपी सरोवर में धर्मोपदेशक रूपी वायु से विविक्त कल्पना रूप अनेक प्रकार की तरंगे उठने लगीं । वे विचारने लगे कि ये सब संसार कदली गर्भवत प्रसार है ये जीव अनादि वर जड़ कर्म के वशीभूत हो माता-पिता, पुत्र, भाई, बन्धु, धन, धान्य, धरनी आदि जितने भी पदार्थ दृष्टि गोचर होते हैं उनमें से स्वेच्छानुकूल परिणमते पदार्थों में राग और प्रतिकूल परिणमते पदार्थों में द्वेष कर इन्हीं के वश हो नाना प्रकार की शुभाशुभ क्रियाए करते हुए उन क्रियाओं के परिपाक से जन्म मरण की परिपाटी में पड़ निज स्वरूप का बिल्कुल विस्मरण कर देते हैं अर्थात इसे अपने स्वरूप का ध्यान कभी स्वप्न में भी नहीं पाता है। निजात्म स्वरूप को प्राप्ति के साधन प्रथम तो निगोदादिक विकल चतुष्क मनोज्ञान शून्य प्राणियों को तो प्राप्त ही नहीं होते। रहे जो अवशेष संशी पंचेन्द्रिय, मनुष्य, नारकी मोर उनमें भी निजात्म स्वरूप के साधन पूर्णतया प्राप्त नहीं होते। एक मनुष्य भव ही संसार समुद्र का किनारा है जिसे पाकर यदि हम प्रयत्नशील होकर अथाह भव सागर से पार होना चाहें तो अल्प परिश्रम से अपना मभीष्ट निर्वाण पद प्राप्त करते हैं। इस नर जन्म का पाना सन्सार में बहुत दुर्लभ है और जिसमें भी सद्धर्म प्राप्ति दुर्लभ है प्रस Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३४ णमोकार प्रय एव काकताली न्यायवत मिले हुए नर जन्म को पाकर विषयों के सेवन में ही बिताया तो फिर अनन्त काल में भी इसका पाना दुर्लभ है जैसे समुद्र में गिरी हुई राई का दाना फिर हाथ लगना कठिन है और यह दुर्लभ सन्मार्ग का साधन सिवाय मनुष्य जन्म के अन्य देव, नक, गशु आदि गतियों से मिल नहीं सकता अतएव यह अवसर हाथ से निकल गया तो फिर पछतावा रह जायगा । जैसे कोई अज्ञानी चिन्तामणि को पाकर उसे काग उड़ाने के लिए फेंककर पछताता है इसलिए अपूर्व लब्ध मनुष्य जन्म को पाकर परमात्मा स्वरूप में तल्लीन हो रत्नत्रय का पाराधन कर इस शरीर से प्रारम कल्याण किया जाय तब ही मनुष्य जन्म का पाना सफल है। ये उन मनुष्यों का वक्तव्य बहुत ठीक है। स्वतः इस विचार पर प्रमाण आचरण करने पर तो माता-पिता को बहत दुख होगा परन्तु साथ में यह विचार हुआ कि माता पिता, भाई, बन्धु प्रादि कौन किसका है जिनका जितना सम्बन्ध है सो सव शरीर के साथ में है प्रात्मा के साथ नहीं। जो इस भाव से मात, पिता, भ्राता होते हैं वे ही भवान्तर में पुत्र हो जाते है। जब तक उस शरीर में प्रात्मा का अस्तित्व है तब तक इससे सब प्रेमपूर्वक वार्तालाप करते हैं। जहां इस प्रात्मा का शरीर मे वियोग इत्या वयाँ बाप्ली समय हो मनसे सम्बन्ध एवं सगापन छूट जाता है। जिस सुकोमल शरीर की वस्त्र भूषणों से सुसज्जित सुन्दर-सुन्दर व उत्तम-उत्तम स्वादिष्ट पदार्थों से पोषण किया जाता है उरा शरीर का भी अन्न में नाश हो जाता है। प्रतएव यह सर्व संसार असार है इसलिए विपमिश्रित मिष्ठानवत इन्द्रिय जनित सुखों को परित्याग कर क्रोध, मान, माया, लोभ रूप निजात्मीक सम्पदा के लूटने वाले संस्कारों को जीतना चाहिए । इसके अतिरिक्त प्रात्मोन्नति का और कोई दूसरा उत्तम उपाय नहीं । प्रस्तु जो हुआ सो हमा अव भी मुझ अपने कर्तव्य के लिए बहुत समय है। अब मैं इन सज्जन परोपकारी मुनिराजों की सत्संगति को कदापि न छोड़गा। इस प्रकार दृढ़ निश्चय करके कुन्दकुन्द कुमार मुनिराज के पास गये। ये मुनिराज अपनी ५६ वर्ष की अवस्था में अपने गुरु माघनन्दि द्वारा विक्रम संवत ४० में पट्टाधिकार पाने वाले जिन चन्द्र मुनि थे। फन्दकन्द कुमार उनको राभक्ति नमस्कार कर उनके निकट जा बैठे और अवसर पाकर उनसे विनीत भाव से ज्ञानामृत गान करने की जिज्ञासा प्रगट की। इस समय कुन्दकुन्द कुमार की आयु ग्यारह वर्ष की थी। जिन चन्द्र स्वामी ने इनको विनोत और मुमुक्ष जान धर्मोपदेश देना और जिन सिद्धान्त अध्ययन कराना प्रारम्भ कर दिया। अन्त में कुन्दकुन्द कुमार ने भी उनका शिष्यत्व ग्रहण कर लिया और उनके संघ के साथ साथ ज्ञानामृत पान करते विहार करने लगे। जब इनके माता पिता को जिनचन्द्र मुनिवर के निकट शिष्यत्व स्वीकार करने का वृतान्त विदित हुमा तब एक बात तो उन्हें अपने प्रिय पुत्र का वियोग दुःखकर हमा परन्तु साथ ही उन्हें एक दृष्टि से हर्ष भी हुमा कि पुत्र सुपथ (आत्म कल्याण) मार्गी ही हुआ है, कुपथ मार्गी नहीं। इस प्रकार विचार दृष्टि द्वारा अपने मन का स्वतः समाधान कर लिया 1 कुन्दकुन्द कुमार ने थोड़े ही समय द्वारा सिद्धान्त शास्त्र का अच्छा अभ्यास किया और बहुत ही अच्छी योग्यता प्राप्त कर ली। गुरु इनकी बुद्धि, विद्वतर, तर्क शक्ति और सर्वोपरि इनकी स्वाभाविक प्रतिभा देखकर बहुत ही संतुष्ट हुए 1 दूसरे ये सांसारिक विषय भोगों से पूर्ण विरक्त थे इसी कारण ये जिनचन्द्राचार्य के शिष्यों में पट्टशिष्य हुए। इनको प्राचार्य महाराज ने पट्टशिष्याधिकार पूर्ण शास्त्रज्ञ होने से नहीं किन्तु इनकी सांसारिक विषय सुखों से पूर्ण विरक्ति देखकर दिया था। कुन्दकुन्द कुमार ने अपनी तेतीस वर्ष की प्रायु में गुरु जिनचन्द्राचार्य के पास बाह्याभ्यंतर परिग्रह का त्याग कर जिसेन्द्री दीक्षा ग्रहण कर लो ! जिनचन्दाचार्य स्वतः अवधिज्ञानी थे । अपना मन्त Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार ग्रंथ काल निकट पाया जानकर निजपट्ट शिष्य कुन्दकुन्द मुनि को पट्टाभिषेक पूर्वक पौष वदी अष्टमी बीर निर्वाण सम्बत् ५३६ को पट्ट परस्थापन कर आप ध्यानस्थ (समाधिस्थ) हो गये। इनका पट्ट उज्जैनी में था । कुन्दकुन्द मुनिराज पट्टाधीश होने के उपरांत पट्टाचार्य कहलाप इनके बहुत शिष्य थे 1 उनमें से मुख्य शिज्य स्याउमास्थानी को दिया हुआ था । कुन्द-कुन्दाचार्य के अनन्तर ये ही पट्टाधीश हुए थे। जिनचन्द्राचार्य के स्वर्गवास होने के पश्चात् कुन्द-कुन्दाचार्य ने उत्तन प्रकार से अपने पद का कर्तव्य पालन किया। धर्मोपदेश और जिनधर्म के प्रचार के लिए अपने शिष्यों को चारों दिशाओं में भेजा जिन्होंने जिनधर्म का पुष्कल प्रसार किया और पाप स्वतन्त्र आत्म कल्याण के लिये दुद्धर तपश्चरण करने लगे । प्रात्मोन्नति के सोपान पर चढ़ते हुए उन्होंने अपनी अनेक कल्पित शंकाओं का समाधान स्वतः प्रात्म निश्चय से किया। उस समय उन्हें शंकाओं के समाधान के लिए विशेष श्रम उठाना पड़ा क्योंकि उस समय अंगपूर्व के ज्ञाता मुनियों का तो बिल्कुल प्रभाव था प्रौर त समय न अवधिज्ञानी मुनियों का ही संघ था अतएव अवशेष हृदयगत शंकामों के निवारण करने के लिए उन्हें कोई साधन न पाकर बड़ा कष्ट हुया पर साथ ही उन्हें एक युक्ति सूझी कि विदेह क्षेत्र में श्री मन्दिर स्वामी शाबन केवली हैं, उनके निकट जाकर अपनी स्वतन्त्र शंकाओं का निवारण करूँ परन्तु साथ ही यह चिता हुई कि उम क्षेत्र में अपना गमन कैसे हो । किसी विद्याधर के विमान की सहायता बिना वहाँ पहुंचना कठिन व असम्भव था--ऐसा विचार कर वहां जाने में निरुपाय हो गुरु के द्वारा कही त्रिपात्रों के अनुसार पंचमहावनादि का उत्तम रीति से पालन करने लगे। उसके बाद कुछ दिनों के अन्तर श्री कुन्द-कन्दाचार्य अकेले विहार करते-करते वारापुरी के बहिरुद्यान में आकर ठहरे और वहाँ दृढ़ चित्त से पदस्थ, पिंडस्थ, रूपस्य और रूपातीत इन चार प्रकार के ध्यान करने लगे । ध्यानस्थ समय उन्होंने अपने मन में थी सीमंधर स्वामी का समवशरण रचकर त्रिकरण शुद्धि से उनको नमस्कार किया। उसके साथ ही पूर्ण ध्यान को प्राबल्या से ये चमत्कार हुश्रा कि विदेह क्षेत्रागत स्थित श्री सीमंधर स्वामी ने कुन्द-कुन्दाचार्य को वहाँ से समवशरण में गंभीर नाद से दिव्य ध्वनि द्वारा 'सद्धर्मवृद्धिरस्तु' ऐसा प्राशीर्वाद दिया। उस समय समवशरण में विदेह क्षेत्र के चक्रवर्ती पद्मरथ बैठे हुए थे। उन्होंने एकाएक भगवान के द्वारा प्राशीर्वाद दिया हुआ देखकर विस्मित होकर भगवान से सविनय पूछा--"भो भगवान ! यहाँ कोई इस समय नवीन मनुष्य आया नहीं, फिर आपने किसके वास्ते पाशीर्वाद दिया ?" तब भगवान ने अपनी दिव्य ध्वनि से उत्तर दिया--"हे राजन ! इस द्वीप के दक्षिण में भरत क्षेत्र है, वहाँ इस समय विकराल पंचम काल प्रवर्तमान है । उस क्षेत्र की बारापुरी नगरी के वहिरुद्यान में स्थित श्री कुन्दकुन्द कुमार मुनिराज ने ध्यानस्थ हो मुझे नमस्कार किया था। वहां कलिकाल (पंचमकाल) प्रवर्तमान होने से अधर्मी, पाखंडी, ध्यसनी, हिंसक आदि दुष्ट मनोवृत्ति वाले व्यक्ति तो बहुत हैं, संयमो जिन धर्मायी मुनि बहुत विरले हैं, कुलिंगी वहुत हैं । धर्म का दिनों दिन ह्रास होता चला जाता है। अंग पूर्व के पाठी व अवधि शानियों का प्रभाव है अतएव कुन्दकुन्द मुनिराज ने जब अपनी बहुत सी शंकामों का समाधान कठिन जाना तब उन्हें एक युक्ति सूझी कि विदेह क्षेत्र में शाश्वत केवली है, वहाँ जाकर अपनी शंकानों का समाधान किया जाए परन्तु विमानादिक की सहायता विना यहाँ पाने में प्रशक्त हो वहीं ध्यान द्वारा स्मरण कर मुझे नमस्कार किया, उससे मैंने उन्हें प्राशीर्वाद दिया था।" जिस समय कुन्द-कुन्दाचार्य का उपरोक्त वृत्तान्त श्री मन्दिर मुनि पपरथ चक्रवति से कह रहे थे उस समय वहाँ पर श्री कुन्दकुन्द मुनि के पूर्व भव के युगल भ्राला जो कि परम प्रकर्ष पुण्योदय से प्रायु Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३१ णमोकार प्रम के अन्तमरण कर उस क्षेत्र में उत्पन्न हुए थे उपस्थित थे। दोनों भ्राता अपने पूर्व भव के सहोदर कुन्दकुन्द मुनिराज का उक्त वृत्तान्त सुनकर उसी समय वहाँ से उठकर विमानारूढ़ हो भरत क्षेत्र में वारा पुर के वहिद्यान में पाये जहाँ पर कुन्द-कुन्दाचार्य तप कर रहे थे। उन्होंने मुनि को देखते ही सभक्ति साष्टांग नमस्कार किया । वे उस समय ध्यानारून थे दूसरे रात्रि का समय था, इस कारण मुनिराज शांत रहे बोले नहीं। उस समय कुन्दकुन्द मुनिराज के निकट एक गृहस्थ स्थित था । उससे उन्होंने कहा- "हम इन मनिराज के पूर्व भव के बन्धु हैं प्रतः भ्रातृ प्रेम वश इनसे मिलने और उन्हें विदेह क्षेत्र में ले जाने के लिए आये हैं पर मुनिराज ध्यानस्थ हैं इसलिए हम जा रहे हैं" इतना कह वे पुनः विमानारूढ़ हो विदेह क्षेत्र में चले गये। प्रातः काल होने पर जब ये तान्त कन्दकन्द मनिराजको विदित हमा उन्होंने प्रतिज्ञा की कि जब तक श्री सीमंधर स्वामी का साक्षात् दर्शन न होगा तब तक प्राहार का त्याग है-ऐसा दृढ़ नियम करके पुनः पूर्ववत् ध्यानारूढ हो गये। फिर विदेह क्षेत्र के मध्य समवशरण में श्री सीमंधर स्वामी ने उनके प्रति सद्धर्म वृद्धिरस्तु" ऐसा आशीर्वाद दिया। तब फिर पारय चक्रवर्ती ने आर्शीवाद प्रदान करने का कारण पूछा तो श्री सीमंधर स्वामी ने अपनी दिव्य ध्वनि द्वारा कहा"मैंने जो पूर्व कुन्दकन्द मुनिराज का वर्णन तुमसे कहा था उसे कुन्दकुन्द के पूर्व भव के भ्राता भी बैठे हुए सुन रहे थे। वे तत्काल ही विमानारूढ़ हो उन्हें लेने के लिए भरत क्षेत्र में गये । उस समय वे ध्यानस्थ थे दूसरे रात्रि का समय था अतएव वे मौनालीन रहे। तब वे उन्हें मौन देखकर वहाँ स्थित एक गृहस्थ से अपने श्रागमन का वृतान्त कहकर पीछे लौट पाये। जब ये वृत्तान्त प्रातःकाल कुन्दकुन्द मुनिराज को विदित हुमा तब उन्हें सुनकर परम आनन्द हुआ और जब तक उन्हें हमारा दर्शन न हो तब तक भोजन का त्याग है ऐसी दृढ़ प्रतिज्ञा कर पुन: पूर्ववत् ध्यानारूढ़ हो मुझे नमस्कार किया है इससे मैंने उन्हीं को आशीर्वाद दिया---ये वृतान्त सुनकर वहाँ स्थित कन्दकन्द मनिराज के दोनों भाई तत्काल पुनः विमानारूढ़ हए और जहाँ कन्दकुन्द मुनि तप कर रहे थे वहाँ भाकर उनको साष्टांग नमस्कार किया । उसके बाद विदेह क्षेत्र में चलने की प्रार्थना की । यह सुनकर मुनिराज को विशेष प्रानन्द हुमा और विमानारूढ़ हो विदेह क्षेत्र की ओर प्रयाण किया। कन्दकुन्द मुनिराज ने प्रयाण करते समय शौच का उपकरण कमण्डल और दया का उपकरण मयूर पिच्छि को भी साथ ले लिए थे । शीघ्रगति से मयूर पिच्छि मार्ग में किसी स्थान पर गिर पड़ी। जब उन्हें मालूम हुआ तब विमान को रोककर यत्र-तत्र बहुत कुछ अन्वेषण किया पर कहीं पता न लगा । तब पिच्छि के बिना तो अनुमित क्रिया जानी जाती इस कारण वे मानसरोवर पर गये। वहाँ गिद्धपक्षी की पड़ी हुई कोमल कोमल पंखों की एक पिच्छि बनाई और तदनंतर विदेह क्षेत्र की ओर प्रयाण किया। मार्ग में हरि क्षेत्र, नाभिगिरी, मेरू आदि पर्वतों को उलांघते हुए विदेह क्षेत्र में जाकर अयोध्यापुरी नगरी के उद्यान में श्री सीमन्धर स्वामी के समवशरण के निकट जा उतरे। उस नगरी के अवलोकन करने के पश्चात् कुन्दकुन्द मुनिराज से उन देवों ने कहा- इस स्थान पर से देव चौथा काल प्रर्वतता रहता है। यहां पर कोई प्राणी दुख का नाम भी अनुभव नहीं करते किन्तु सब सुख रूप रहते हैं। ये अचल क्षेत्र है"-इस प्रकार वहां का संक्षिप्त माहात्म्य वर्णन कर मुनिराज सहित समवशरण के पास गये । कुन्द-कुन्द मुनिराज ईर्यापथ शोधते समवशरण की ओर दृष्टि करते चले तब उन देवों को एक बड़ी भारी चिता हुई–'इस जगह सर्व मनुष्य पांच सौ धनुष ऊँची काय वाले हैं और इनका शरीर चार हाथ का है इससे इनकी कहाँ स्थिति करें ? यदि इन्हें कहीं बैठा ही दिया तो फिर इन पांच सौ धनुष Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार मंग कायवाले मनुष्यों में इनका पता लगना कठिन है-ऐसा विचार करते हुए उन्हें एक युक्ति सूझी और उस में वे कृतकृत्य भी हुए, उन्होंने एकदम कुन्दकुन्द मुनिराज को ले जाकर श्री सोमन्धर स्वामी के निकट म ख्यपीट पर जा स्थित किया। पश्चात् कुन्द-कुन्द मुनिराज श्री सीमन्धर स्वामी को नमस्कार कर तीन प्रदक्षिणा करके उबक अग्रभाग में बैठ गये। कुछ समय में अनन्तर विदेह के सार्वभौम राजा पद्मरथ बहाँ पाए और श्री सीमधर स्वामी को नमस्कार कर वहाँ महापीठ पर बैठे वामन मूर्ति मनिराज को अवलोकन कर उन्हें कोमल कर कमलों द्वारा धीरे से उठकर हथेली पर बैठाकर श्री सीमन्धर स्वामी से सविनय बोले- भगवान ! ये अपर्व दृष्टि वामन मूर्ति कोन है, यह आप कृपाकर कहिए ।" तब शाश्वत तीर्थंकर श्री सीमन्धर स्वामी ने अपनी दिव्य ध्वनि द्वारा उत्तर दिया-"जिन मुनि के विषय में मैंने तुमसे कुल वृत्तान्त कहा था तथा जिसको "सद्धम्मद्धिरस्तु" ऐसा आशीर्वाद दिया था ये वो ही भरत क्षेत्र के वर्तमानकाल के धर्माध्यक्ष कुन्दकुन्द मुनि राज है। इ के भ्राता दो देवों ने यहांलाकार बंठाया है।" पश्चात् कुन्दकुन्द मुनिराज स्वतः उठे और ओ-जो हृदयगत शंकायें भी उन सबको कह सुनाया । तीर्थकर भगवान ने उन सब शंकानों का ठीक-ठीक समाधान कर दिया । मुनकर उनका सब सन्देह दूर हो गया। कुन्दकुन्द मुनिराज से पाहार लेने के लिए निवेदन किया। सुन कर मनिराज ने उत्तर में कहा-"राजन् ! हमारा क्षेत्र पृथक है तब हम पर क्षेत्र में आहार किस प्रकार ले सकते हैं ? ये मुनिक्रिया के अनुचित है।" ये उत्तर सुनकर महाराज पधरथ ने उनकी स्तुति करते हुए कहा-खडगधारा की अपेक्षा मुनि क्रिया तीक्ष्ण है और उसे पाप हार्दिक दृढ़ता से पालन करते हैं प्रतएव प्राप कोटिशः धन्यवाद के पात्र हैं।" वहाँ पर कुन्दकुन्द मुनि राज ने चार युग और चार अनुयोगों का सर्व वृतान्त जाना । उसके बाद सर्व शंका रहित हो विशेष ज्ञान प्राप्त कर कृन्दकुन्द मुनि पूर्ववत् श्री सोमंधर स्वामी को नमस्कार कर सबसे सहमत हो भरत क्षेत्र में पाने के लिए उन दोनों देवों के साथ विमानारूद हए। गमन करते समय उन मुनि ने उन्हें एक धर्म सिद्धान्त पुस्तक दी। उसे लेकर कुन्दकुन्द मुनि और वे दोनों देव विमानारूढ़ हो भरत क्षेत्र की ओर पाने लगे। प्राते हुये मार्ग में मेरू पर्वत पर उतरे । वहाँ प्रकत्रिम चैत्यालय जिन भगवान के दर्शन कर पश्चात विजयार्ध पर्वत पर दर्शनार्थ गये। वहां दर्शन कर कैलाश गिरि सम्मेद शिखर आदि तीर्थ क्षेत्रों के दर्शन करते चले आते थे कि कहीं मार्ग में मुनि द्वारा प्राप्त वह धर्म सिद्धान्त पुस्तक गिर पड़ी। मालूम होने पर बहुत कुछ अन्वेषण किया पर कहीं पता नहीं लगा। अस्तु वे दोनों देव और मुनि तीनों तत्काल विमानारूढ़ हो भरत क्षेत्र में पाये और वारापुरी के वाह्योद्यान में कुन्दकुन्द मुनिराज को ला विराजमान किया और वहाँ पर उन देवों ने कुन्दकुन्द मुनिराज के अपर पुष्प वर्षा करके उनकी पूजा की । पश्चात् मार्ग प्रयाण किया। विदेह क्षेत्र में जाते हुए मयूर मिच्छिका स्त्रो जाने पर गृद्ध पक्षो के पंखों की पिच्छि बनाने से गृखपिच्छाचार्य और विदेह में जाने से ये एलाचार्य कहलाये ! विदेह क्षेत्र में से श्री कुन्द-कुन्द स्वामी के पनन्तर उनके दर्शनार्थ वारापुरी के राजा कुमुचन्द्र उनके माता-पिता, कुन्दलता और कुन्दश्रेष्ठी और बहुत से श्रावक-श्राविका प्रादि हजारों मनुष्य आये । पूछने पर उन्होंने विदेह गमन का वृतान्त सुनकर पश्चात् धर्मोपदेश दिया जिसे सुनकर सब सन्तुष्ट हुए । तत्पश्चात् उन्होंने नगर के बाह्य प्रदेश में रहकर जैन धर्म और मुनि धर्म का विस्तृत स्वरूप, श्रावक तथा अन्य सर्वसाधारण को समझाया। कितने की Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार पंथ श्रीमान्, और कितने ही सर्वसाधारण मनुष्यों ने इस संसार को प्रसार जानकर मोह बाल तोड़ इनके निकट दिगम्बरी दीक्षा ग्रहण की। उन सबकी संख्या सात सौ थी ये सब कुन्द कुन्दाचार्य के शिष्य कहलाये । बहुत-सी स्त्रियों ने प्रायिकानों के वनों की दीक्षा ली। कितनों ने अणुक्त ग्रहण किये। इस प्रकार से जिन धर्मोपदेश द्वारा उस नगरी में उन्होंने उत्तम प्रकार से धर्म प्रभावना प्रगट को । नित्य अनशन युक्त तप करके धारणा करने लगे जिससे चारों दिशाओं में प्रख्यात हो गये।। पश्चात श्रीकंदकंद स्वामी अपने शिष्यों को साथ लेकर धर्मोपदेश और जैनधर्म के प्रचार के लिए विहार करने लगे जिससे वे चारों दिशाओं में प्रख्यात हो गये। उन्होंने बहुधा भारतवर्ष के बहुत से प्रदेशों में विहार करके धर्मोपदेश दिया और बहुतों को प्रात्महित साधक पवित्र मार्ग पर लगाया और दुर्गति के दुःखों का नाश करने के लिये पवित्र जैन धर्म का प्रचार सब पोर किया। इस प्रकार धर्म प्रभावना करते हुये कितने ही स्थानों पर पट्टस्थापना किये जिससे उन प्रान्तों में सतत धर्मोपदेश मिलने मे प्रखलिता नीति से है । सा में चार संघ हैं (१) मूलसंघ, (२) सिहसंघ (३) नंदि संघ और (४) काष्टा संघ । इनमें से काष्टा संघ का तो कुंदकुंदाचार्य से पूर्ववर्ती होने वाले ऋषभसेनाचार्य ने स्थापन किया था और शेष थी कंदकून्द प्राचार्य ने स्थापित किये। इस प्रकार श्री कुन्दकुन्दाचार्य अनेक क्षेत्रों में विहार करते हुये उज्जैनी नगरी में पाये । वहाँ उन दिनों श्वेताम्बर मत का बहुत प्रचार था। जब श्री कुन्दकुन्दाचार्य जैसे जिनसिंह केशरी ने चौतरफा दिगम्बरो मत का ईका बजाया तब बहुत से लोगों के मन में ऐसी भ्रांति उत्पन्न हुई कि दिगम्बर और श्वेताम्बर मत एक हैं परन्तु श्वेताम्बर बीजरूप होने से पूर्व है और श्वेताम्बर मत के बाद दिगम्बर मत की उत्पत्ति हुई है। इस प्रकार परस्पर लोगों में असन्तोषजनक चर्चा होने से उसके निर्णय के लिये श्री कुन्दकुंदाचार्य के निकट पाये और सत्य धर्म की स्थापना तथा मिथ्याधर्म के खण्डन करने के लिये प्रार्थना की। तदनन्तर उभय धर्मावलम्बी श्री नेमनाथ भगवान के निर्वाण क्षेत्र गिरनार पर्वत पर वाद-विवाद होने का निश्चय कर दिगम्वरी श्री कुन्दकुन्दाचार्य के नेतृत्व में और श्वेताम्बरी जिनचन्द्राचार्य के नेतृत्व में पर्वत पर पहुंचे और पृथक्-पृथक स्थानों में निवास कर अपने-अपने धर्म का महत्व प्रगट करने लगे। वाद-विवाद का दिवस निश्चित होने पर शास्त्रार्थ प्रारम्भ हुप्रा । श्वेताम् परियों का कयन था कि वस्त्र बिना कदाचित् भी जीव की मुक्ति नहीं होती और दिसम्बरियों का पक्ष था कि जोव की उत्पत्ति ही नग्नावस्था में होती है और मरण समय में भी जीव नग्नावस्था में जगत का परित्याग करता है इसीलिए दिगम्बर अवस्था ही जीव को कार्यकारी होने से मान्य रूप है । इस प्रकार बहुत काल पर्यन्त बाद-विवाद रहा परन्तु परस्पर एक-दूसरे के पक्ष को कोई भी स्वीकार नहीं करता था। दिगम्बर मत के प्रधानाचार्य श्री कुन्दकुन्दाचार्य की जैसे अनेक सुविधायें सहाई थी उसी प्रकार श्वेताम्बर संघ के अधिष्ठाता जिनचन्द्र तथा महिचन्द्र की अनेक कुविधायें सहाई थी। विद्या के प्रभाव से परस्पर एक-दूसरे के गहन प्रश्नों का तत्क्षण निवारण कर देने से एकदम हार-जीत का निर्णय होना असम्भव-सा हो गया तब दोनों पक्ष के लोग मन में खेद खिन्न हो गये। तदनन्तर एक दिवस श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने मन में ऐसा दृढ़ निश्चय किया कि आज मैं प्रतिपक्षी को यथार्थ निश्चय पर लाये बिना सभा से बाहर नहीं जाऊंगा' ऐसी प्रतिज्ञा करके वे सभा में पाये । उनके माते ही श्वेताम्बरी लोगों ने उनका उपहास किया। प्राशय यह है वि श्वेताम्बरी साधुओं ने एक छोटा सा मत्स्य कमंडल में रखकर मुख बन्द करके श्री कुन्द कुन्दाचार्य से पूछा-'इस जलपात्र में क्या है ?' तब तत्काल उत्तर दिया Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार पंप 'इसमें कमल पुष्प हैं-ऐसे कहकर सबको कमल पुष्प दिखा दिया तब श्वेताम्बरी लोग बहत नजित हुये और कहने लगे-'आज का यह प्रसंग योग्य नहीं'ऐसा कहकर वाद प्रारम्भ हुमा तब श्वेताम्बारियों ने जैनाम्नाय से विरुद्ध वीर, भैरव क लिका देवी इत्यादि कुदेवों का आह्वान किया और कहा'श्वेताम्बरी मत प्रथम है कि दिगम्बरी, इस विषय का कोई प्रबल प्रमाण दो-तब कुन्दकुन्दाचार्य ने मूनमंत्र के द्वारा कुदेवों का आगमन बन्द कर दिया । तब श्वेताम्वर तेज रहित स्तब्ध हो गये। तदनन्तर कुन्द कुन्दाचार्य दोनों संघों को साथ लेकर गिरनार पर्वत पर गये और वहाँ श्री नेमि नाथ जी के निर्वाण क्षेत्र का दर्शन कर विदेह क्षेत्र स्थित शाश्वत तीर्थकर श्री सीमंधर स्वामी का का स्मरण किया और पंच परमेष्ठि का स्मरण कर उभय संघ के समक्ष इस प्रकार से उच्च स्वर से प्रार्थना की-कि "श्वेताम्बरी धर्म को स्थापना पहले हुई या दिगम्बरी की । इसके निर्णय के लिए कोई प्रमाण या प्रवल चमत्कार हो" ऐसा कहते ही “दिगम्बरी धर्म को स्थापना प्रथम हुई" ऐसी गम्भीर नाद से थोड़ी देर तक आकाशवाणी होतो रही, तब श्रवण मात्र से ही श्वेताम्बरी संघ मदलिन हो वहाँ से भाग गया । नब दिगम्बर संघ के लोग श्री कुन्दकुन्दाचार्य मुनि को प्रतिष्ठा तथा आदर पूर्वक अपने संघ में ले गये वहाँ बहुत से श्वेताम्बरियों ने दिगम्बरी धर्म स्वीकार किया बहुत से लोगों ने मताभिमान के गर्व से दिगम्बरी मत का निषेध किया और गुजरात देश में जाकर श्वेताम्बर मत की पुष्टि को । अस्तु इस प्रकार वताम्बर मत का महत्व खण्डन होने पर दिगम्बरी लोगों ने बहाँ एक जिम मंदिर को स्थापना कर उसका प्रतिष्ठा श्री कुन्दकुन्दाचार्य के कमलों से कराई । तदनन्तर सर्व लोक श्री कुन्दकुन्दाचार्य के सायक वहाँ कुन्दकुन्दाचार्य ने एक पट्ट को स्थापना की और वहां एक विद्वान शिष्य योजना कर स्वयं तत्व अनुचितन करते हुये समय व्यतीत करने लग । सके सब शिष्यों में उमस्यामों (जिन्होंने सार्थ मूत्र नामक दशाध्यायी ग्रंथ रचा है) मुख्य थे। उन्होंने अपनो प्रबल विद्या के गव से अपनी उन्नीस व का प्रायु में श्री कुन्द-कुन्दाचार्य से शास्त्रार्थ किया परन्तु पराजित हुये तब निरभिमान हो श्री कुन्द-कुन्दाचार्य का शिष्यत्व स्वोकार किया और पच्चीसवें वर्ष उसने दीक्षा ले मुनि हो गये । श्री कुन्द-कुन्दाचार्य ने अनुप्रक्षाओं का चितवन करते हुये सन्यास मरण पूर्वक शरीर तज स्वर्ग लोक प्राप्त किया। बीर संवत् ५८५ विक्रम संवत् १०१ और ईस्वी सन् ६३ में स्वर्ग लोक प्राप्त किया। इनके परलोक गमन के अननन्नर श्री उमास्वामी ही पट्टाधिकारी हुये। इति श्री कुन्दकुन्दाचार्य चरित्र गुजराती भाषानुवाद समाप्तम् ।। इस प्रकार जगत्पूज्य श्री सन्मतिनाथ महावीर स्वामी के निर्वाणान्तर होने वाले केवली, श्रुत केवली, अंगपूर्व के ज्ञाता ऋषि, महर्षि व जैन धर्म का भूमंडल पर अस्तित्व रखने में कारण भूत ऐसे धरसेन, कुन्द-कुन्दाचार्य व प्रकलंक देव का संक्षिप्त वर्णन किया । अब मागे इस दुःखम काल में होने वाले इक्कीस कल्की व इक्कीस उपक्रल्कियों का वर्णन हैं इस विकराल दुःखम काल में प्रत्येक हजार वर्ष की अवधि में इक्कीस कल्की और उनके प्रथम हजार वर्ष पहले अंतराल के समय में इक्कीस उपकको एवं बयालीस धर्मनाशक राजा उत्पन्न होते हैं। चौबीसवें तीर्थकर के निर्वाणांत से छह सौ पाँच वर्ष पीछे विक्रम शक (उपनाम शालि वाहन) राजा हुमा जिसका संवत्सर प्रवर्तमान है । पश्चात् तीन सौ तिराणवें वर्ष पौर सात मास ध्यतीत होने पर अनेक राजामों द्वारा सेवनीय जिनधर्म से बहिर्मुख उन्मार्गचारी चतुर्मुख नामक कल्की हुमा, जिसकी पायु ससर वर्ष प्रमाण थी । अहिंसामय सद्धर्म से परान्मुख मिथ्यात्वियों में शिरोमणि होकर चालीस Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार ग्रंथ परिमित राज्य को भोगते हुए उसने एक समय अपने स्थान मंडप में बैठे हुए मंत्रिगणों से पूछा -भो मंत्रियो ! कहो कि इस समय सर्व मनुष्य मेरे अधीन हैं अर्थात् वशीभूत हैं। मेरी श्राज्ञा से रहित स्वतंत्र तो कोई नहीं हैं ना ? ३४० मन्त्रियों ने कहा - 'हे नाथ ! इस समय सर्व मनुष्य प्रापकी श्राज्ञा का प्रतिपालन करते हैं, एक जैन दिगम्बर मुनि ही ऐसे हैं जो आपके शासन-पालन से विहीन हैं ।' तब कल्की ने कहा – 'वह नग्न दिगम्बर मुनि कैसे हैं, कहाँ रहते हैं और क्या करते हैं ? यह सुनकर मंत्रीगण प्रधान ने कहा- 'महाराज ! वे मुनि वन में वास करते । धन, धान्य, वस्त्र, आभूषण आदि से रहित हैं । समस्त संसार सम्पदा को तृणवत् तुच्छ समझते हैं। यहाँ तक कि अपने शरीर से भी निष्य हैं। भोजन के समय श्रवकी के घर शास्त्रोक्त निक्षावृत्ति के अनुसार निरन्तराय प्राशुक ग्राहार ग्रहण कर लेते हैं। वे किसी के शासन में नहीं रहते केवल जिन शासन के ही प्रतिपालक होते हैं।' यह सुनकर राजा ने अपने मंत्रियों से कहा- मैं उनकी इस स्वतंत्रता को सहन करने में असमर्थ हूं अतएव आज ही से उन निर्ग्रन्थों के पाणिपात्र में दिया हुआ प्रथम ग्राम शुल्क श्रर्थात् कर रूप में लिया जाया करे 1 मंत्रियों सहित राजा के ऐसा नियम नियत करने पर उनके नियोगी मुनिराजों के आहार के समय ऐसा ही करने लगे। तब मुनिराज भोजन में अन्तराय जानकर वन में वापिस लौट गए। तब सुकुमारों के स्वामी चमरेन्द्र ने इस कल्कीकृत मुनियों के भोजन समय अंतराय करना आदि अत्याचार जानकर उसके सहन करने में असमर्थ होकर कल्को ( चतुर्मुख राजा ) को मस्तक रहित कर दिया ग्रतः वह अपध्यान से मर कर प्रथम नरक में एक सागर आयु का धारक नारको हुआ। तदनन्तर कल्की का पुत्र प्रजितंजय सुरेन्द्र के भय से अपनी स्त्री चेलका का साथ लेकर चमरेन्द्र की शरणागत को प्राप्त हुआ और उसका नाना प्रकार से विनय अनुनय किया। जिनधर्म का अतिशय माहात्म्य देखकर अपने हृदय को मिथ्यात्व के परित्यागपूर्वक सम्पकवरून रत्न से विभूषित किया। इस प्रकार प्रति हजार वर्ष एक कल्की और उनके अवान्तर एक-एक उपकल्की ऐसे इक्कीस हजार वर्ष परिमित पंचमकाल में बीस कल्की और इक्कीस उपकल्कियों के हो चुकने पर पंचम काल के अन्त में सद्धर्म का नारक अन्तिम ( इक्कीसवां ) जलमय नामक कल्की होगा । तत्समय चतुविध संघ में से इन्द्रराज नामक भाचार्य के शिष्य- १. वीरांगद मुनि, २. सर्व श्री आर्यिका ३. अग्निला नामक श्रावक और ४ फाल्गुसेना श्राविकाइन चारों का सद्भाव रहेगा। इनकी स्थिति साकेत नगरी होगी । ये मुनि आदि चारों दुःखम काल के तीन वर्ष साढ़े आठ महीने अवशेष रहने पर कार्तिक कृष्ण अमावस्या के पूर्वान्ह समय में स्वाति नक्षत्र का योग होने पर पूर्वोक्त प्रकार से मुनि को पहला ग्रास ग्रहण न करने देने पर तीन दिन का सन्यास धारण कर पहले वोरांगद मुनि तत्पश्चात् अग्निला श्रावक सर्व श्री नायिका और फाल्गुसेना नामक श्राविका ये चारों साम्यभाव पूर्वक प्राण विसर्जन कर समीचीन जिनधर्म के प्रभाव से सौधर्म स्वर्ग में जाएंगे। वहाँ मुनिराज तो एक सागर श्रायु के धारक और अवशेष श्रायिका, श्रावके, श्राविका साविक अल्प प्रायु के धारक होंगे। उसी दिन के आदि, मध्य अन्त काल में क्रम से धर्मराजा और अग्नि से भरत क्षेत्र से प्रभाव होगा । सर्व मनुष्य धर्म, देश, कुल तथा राजनीति मर्यादा रहित हो जाएंगे और वस्त्रादि रहित कपिवत् नग्न हुए फल-फूल आदि से क्षुधा शान्त करेंगे क्योंकि धर्म के आधारभूत मुनि श्रावक के प्रभाव से धर्म का मसूरकुमारेन्द्र द्वारा नृपति का बात होने ! 1: Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार मंथ ३४५ से राजा का प्रौर कालदोष के पुद्गल द्रव्य के प्रतिरक्षा परिणमन होने से अग्नि का लोप हो जाएगा इसीलिए अग्नि द्वारा बने पदार्थों का समय होगा जिसमा जीन फर ह्यादि से क्षुधा शान्त करेंगे । इस काल के आदि में मनुष्यों का शरीर साढ़े तीन विलस्त और परमायु बोस बर्ष प्रमाण होगी। दिनों-दिन बल, काय, आयु का ह्रास होते रहने से दुःखम काल के अन्त में किंचित् न्यून एक हाथ का शरीर और सोलह वर्ष परमायु रह जाएगी। इस काल में जो जीव उत्पन्न होंगे वे नरक तथा तिर्यच गति से ही पाएंगे और निरन्तर अशुभ कर्म ही करेंगे और फिर इन प्रशुभ क्रियाओं के परिपाक से भविष्य में नरक या तिर्यंच गति को ही प्राप्त होंगे। कालौतर में कम बुष्टि तथा अनावृष्टि होने से भूमि रक्ष और विषम हो जाएगी जिससे भूमि सम्बन्धी उपज मष्ट होगी । तब क्षुधा से पीड़ित हुए मनुष्य मत्स्य श्रादि जलचर जोवों का प्राहार कर क्षुधा पूर्ण करेंगे । इस प्रकार महा दुःखकर दुःखमा दुःखमा काल के व्यतीत होने पर अन्त में पर्वत, वृक्ष, पृथ्वी आदि को चूर्ण करती हुई संवर्तक नामक पवन अपने तीव्र वेग से स्वतंत्र अपेक्षा दिशात्रों के अन्तपयन्त परिभ्रमण करेगी जिसके प्रभाव से सर्वप्राणो मुच्छित होकर मरण को प्राप्त होंगे। उस समय गंगा, सिन्धु नदी की बेदी, क्षुद्र विल और विजया पर्वत की गुफाओं में उनक निकटवर्ती मनुष्य आदि पवन के भय से स्वतः प्रवेश करेंगे। तत्पश्चात् उन प्रविष्ट हुए मनुष्य युगल प्रभृति पुष्कल (बहुत से जीवों को दयावान् विद्याधर अथवा देव निविघ्न बाधारहित स्थान में पहुंचा देंगे जिससे वे अपनी जोवनलीला को सुख से व्योतत कर सकें । प्रथानन्तर यहाँ पर (१) पवन, (२) अत्यन्त शोत. (३) क्षाररस, (४) विष, (५) कठोर अग्नि, (६) रज, (७) धूम (धुप्रां) इस प्रकार सात रूप परिणमन पुद्गलों की वर्षा नात-सात दिन अर्थात् समस्त (४६) दिन पर्यन्त होगी जिससे अवशेष रहे जीव भी नष्ट हो जाएंगे । विप, अग्नि की वर्षा से एक योजन पर्यन्त नीचे को पृथ्वी चूर्ण हो जाएगी। तत्पश्चात् नीचे से और चित्रा नामक समभूमि प्रगट होगी। इस प्रकार दस कोडाकोड़ी सागर को अवधि वाले अवपिणी काल के व्यतीत होने के पश्चात् उसपिणी के प्रति दुःखमा नामक काल का प्रारम्भ होता है । उसको प्रादि में प्रजा की वृद्धि के लिए जल दुग्ध, धृत, अमृत, रस आदि शांतिदायक पदार्थों की सात-सात दिन तक पूर्वोक्त प्रकार से वर्षा होती है जिससे अग्नि प्रादि जनित पातप व रुक्षता को तजकर पृथ्वी सचिक्कणता धारण करती है। तब बेल, लता, गुल्म, तृण आदि उत्पन्न होते हैं । धान्य प्रादि को उत्पत्ति भी होने लगती है। तब गंगा, सिन्धु नदियों के तीर बिल प्रादि में तथा विजया की गुफाओं में जो जीव पहले चले गए थे वे अब वहाँ से निकलकर पृथ्वी के शीतल सुगंध रूप दूत के द्वारा बुलाए हुए भरस क्षेत्र में प्राकर निवास करते हैं और फिर क्रम से जीवों के आयु, काल, बल, वीर्य प्रादि की और प्रजा को वृद्धि होने लगती है। दुःखमा काल के प्रारम्भ होते हुए मनुष्यों को प्रायु बीस वर्ष और साढ़े तीन विलस्त ऊँचा शरीर होगा । इक्कीस हजार वर्ष परिमित छठे काल (उत्सर्पिणी के प्रथम काल) के व्यतीत होने के अनन्तर पाँचवें काल के बीस हजार वर्ष व्यतीत होकर एक हजार वर्ष म्यतीत होकर एक हजार वर्ष शेष रह जाने पर प्रकर्ष बुद्धि, बल, वीर्य के धारक मनुक्रम से (१) कनक, (२) कनक प्रभ, (३) कनकराज (४) कनकध्वज (५) कनकपुंगव (इन पांच का वर्ण सुवर्णसम होगा) (६) नलिन (७) नलिनप्रभ, (८) नलिन राज, (९) नलिनध्वज, (१०) नलिन पुगव, (११) पद्म, (१२) पद्य प्रभ, (१३) पद्म राज; (१४) पद्मध्वज, (१५) पम पुंगव और (१६) महापद्म ऐसे नामधारक सोलह कुलकर महान धर्मात्मा, नीति निपुण, प्रजाहितषी क्षत्रिय आदि कुलों के प्राचार के प्ररूपक तथा अग्नि के द्वारा अन्न Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार पंथ प्रादि पकाने के विधान के विधता होंगे। इनके समय में परस्पर मंत्री, लज्जा, सत्य, दया, समय प्रादि उत्तम गुणों को प्रवृत्ति और सर्व धान्य, फल, पुष्प अादि और मनुष्य को संतति को वृद्धि होगी । इनमें से प्रथम कुलकर का शरीर कुछ कम चार विलस्त प्रमाण और अन्तिम कुलकर का सात हाथ परिमित होगा 1 इस प्रकार पंचम (उत्सपिणो के दूसरे ) काल के समाप्त होने और बयालीस हजार तीन वर्ष एक कोटा कोटी वर्ष परिमित चौथे काल के प्रारम्भ होने पर जिस प्रकार अवसर्पिणी काल के चतुर्थ काल में श्री ऋषभ आदि तीर्थंकरों ने अवतरित होकर भरत क्षेत्र में अपने तीर्थ की प्रवृत्ति की उसी प्रकार चतुविशति तीर्थकर आविर्भत होकर पुनः भरत क्षेत्र में अपने तीथं की प्रवृत्ति करेंगे। उनके नाम इस प्रकार होंगे--- (१) प्रादि में श्रेणिक का जौब महापन (२) सुपार्श्व का जीव सुरदेय, (३) तीसरे उदकसंज्ञक का जीव सुपार्श्व, (४) प्रौष्ठिलाग्य का जीव स्वयं प्रभ, (५) कटशु का जीव सर्वात्मभूत, (६) क्षत्रिय का जीव देव पुत्र, (७) श्रेष्ठसशक का जीव कुलपुत्र, (८) शंख का जीव उदंक, (९) नन्दन का जीव प्रौष्ठिल, (१०) सुनंदवाक का जोत्र जयकीति, (११) शशांक का जोव मुनिसुव्रत, (१२) सेवक का जीव अरसंज्ञक, (१३) प्रेमक का जीव निःपाए. (१४) संज्ञक का जीव निष्कषाय, (१५) रोचन का जीव विपुल, (१६) वासुदेवाख्य (कृष्ण) का जीव निर्मल, (१७) बलदेव का जीव चित्रगुप्त, (१८) भगलि का जीव समाधि गुप्त, (१६) विगलि का स्वयंभूर, (२०) द्वीपायन का जीव प्रनिवर्तक, (२१) कनक संज्ञक का जीव विजय, (२२) नारदमाद का जीव विमल, (२३) चारुपाद का जीव देवपाल और (२४) सात्यकितनय का जीव अनन्तवीर्य नामक चौबीसवां तीर्थकर होंगे । प्रथम तीर्थकर का शरीर पाँच सौ धनुष उन्नत मोर एक कोटि पूर्व को प्रायु होगी। उनका भी अवसर्पिणी काल के तीर्थ करों के समान चतुनिकाय देव, इन्द्र प्रादि गर्भ, जन्म, तप ज्ञान और निर्वाणोत्सव करेंगे। इसी प्रकार समवशरण प्रादि को रचना की जाएगी । इतना विशेष जरूर होगा कि अवसपिणी काल के तीर्थकरों का तो समवशरण प्रमाण प्रथम तीर्थकर के समवशरण से चौबीसवें तीर्थकर तक घटता चला जाता है परन्तु उत्सपिणो में इसके प्रतिकूल होता है अर्थात् प्रथम तीर्थकर के प्रमाण से चौबीसवें तीर्थकर के समवशरण तक बढ़ता चला जाएगा। भविष्य में तीर्थंकरों के समयवर्ती जो बारह चक्रवर्ती होंगे उनके नाम इस प्रकार हैं (१) भरत, (२) दीर्घदंत, (३) मुक्तिदंत, (४) गूढ़दंत, (५) श्रीषेण, (६) श्रीभूति, (७) श्रीकांत, (८) पद्य, (६) महापद्म, (१०) चित्र वाहन, (११) विमल वाहन, (१२) अरिष्ठसेन-ये बारह चक्रवर्ती पहले चक्रवतियों के समान ननिधि, चौदह रत्न, चौरासी लाख हाथी, चौरासी लाख रथ, मठारह करोड़ घोड़े, चौरासी करोड़ शूरवीर, छयामवें हजार रानियां, सदा सेवा में तत्पर रहने वाले बत्तीस हजार बड़े-बड़े राजा और संसार श्रेष्ठ संपत्तियुक्त देव व विद्याधरों द्वारा सेव्य होंगे। प्रागामी काल में नारायण के ज्येष्ठ भ्राता जो नव बलभद्र होते हैं उनके नाम इस प्रकार होंगे (१) चन्द्र, (२) महाचन्द्र, (३) चन्द्रधर, (४) हरिचन्द्र, (५) सिंहचन्द्र, (६) वरचन्द्र, (७) पूर्णचन्द्र, (८) शुभचन्द्र, (६) श्रीचन्द्र-ये नव बलभद्र केशवों द्वारा पूजित होगे। भविष्य में (१) नंदि, (२) नंदिमित्र, (३) नंदिषेण, (४) नंदिभूति, (५) अचल, (६) महाबल, (७) अतिबल, (८) त्रिपुष्ट और (द्विपृष्ट-ये नव नारायण होंगे जो पूर्वज केशवों के समान त्रिखंडेश होंगे और मागामी काल में इनके प्रतिशत्रु जो प्रतिनारायण होंगे उनके नाम होंगे Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार प्रम ३४३ (१) श्रीकंठ, (२) हरिकंठ, (३) नीलकंठ, (४) अश्वकंठ, (५) सुकंड (६) शिखि कंठ, (७) अश्वग्रोव, (८) ऋयग्रीव पोर (B) मयूरग्रीव । इनका मरण नियम के अनुसार नारायण द्वारा ही होगा। भविष्य में जो ग्यारह रुद्र होंगे उनके नाम इस प्रकार होंगे-(१) प्रमद, (२) सम्मद, (३) हरष, (४) प्रकाम, (५) कामद, (६) भव, (७) हरि, (८) मनोभव, (६) भार (१०) काम पौर (११) प्रंगज । इस प्रकार उत्सर्पिणी काल के तीर्थकर, चक्रवर्ती, नारायण प्रतिनारायण और बलभद्र आदि प्रधान पुरुषों के नामों का वर्णन किया। ये सब अनागत चौथे काल में उत्पन्न होंगे। पश्चात् तृतीय काल का प्रारम्भ होगा । तब पुनः क्रम से तीसरे, दूसरे, प्रथम काल में जघन्य मध्यम और उत्तम भोग भूमि की रचना होगी। उन तीनों भोगभूमियों में क्रमश: एक पल्य, दो पल्य तथा तीन पल्य पर्यन्त प्रायु के धारक होते हैं तथा कांतियुक्त एक कोश, दो कोश और तीन कोश ऊंचे और क्रमशः सुवर्णसम इन्दुसम, तथा हरित वर्ण के धारक होते हैं। उन भोगभूमियों में भोजनांग, वस्त्रांग, माल्यांग, ज्योतिरांग, भूपणांग और पानाँग आदि दश प्रकार के कल्पवृक्षों से प्राप्त हुए मनोभिलषित अनेक प्रकार के उत्तम उत्तम भोगों को भोगकर तदनन्तर शेष बचे पुण्य से स्वर्ग में जाकर सुख भोगते हैं। इस प्रकार उत्सपिणी काल के समाप्त होने पर पुन: प्रवसर्पिणी काल प्रारम्भ होगा। ऐसे ही प्रनादि काल से उत्सपिणी के पीछे अपसपिणी काल का धारा प्रवाह रूप से चक्र चला आ रहा है और ऐसे ही अनादि काल तक चला जाएगा। इति मध्य लोक वर्णनम् । प्रथ सर्व लोक वर्णनम् : - उर्ध्व लोक के सामान्यतः दो भेद हैं-एक कल्प और दूसरा कल्पातीत । इन दोनों में वैमानिक देव रहते हैं। अब प्रथम देवों की वैमानिक संज्ञा जानने के लिए इनके प्रकारों का वर्णन करते हैं देवों के मुख्य भेद चार है--भवनवासी, व्यंसर, ज्योतिष और वैमानिक । इन वैमानिक पर्यन्त चार प्रकार देवों के क्रम से दस, पाठ, पांच और बारह भेद हैं अर्थात् दस प्रकार के भवनवासी, पाठ प्रकार के व्यन्तर, पाँच प्रकार के ज्योतिष और बारह प्रकार के वैमानिक देव होते हैं। जिनमें रहने से विशेष पुण्यवान माने जाएं उन्हें विमान और उनमें रहने वालों को वैमानिक कहते हैं। वे स्थान भेद से दो प्रकार के हैं-एक करूपोपपन्न, दूसरे कल्पातीत । सौधर्म मादि सोलह स्वर्गों के विमानों में इन्द्र आदि की कल्पना होती है इस, कारण उनको कल्प संज्ञा है और उसमें निवास करने वालों को कल्पोपपन्न वा कल्पवासी कहते हैं। इन्हीं के बारह भेद हैं. कन्यातीतों के नहीं। जिन विमानों में इन्द्र आदि की कल्पना नहीं है, ऐसे अवेक आदि को कल्पातीत कहते हैं और उसमें निवास करने वालों की अहमिन्द्र संज्ञा है। पूर्वोक्त भवनवासी प्रादि चार प्रकार के देवों में (१) इन्द्र (२। प्रत्येन्द्र (३) लोक पाल, (४) बायस्त्रिंश, (2) सामानिक. (६) अंगरक्षक (७1 पारिषद, (८)मानीक, (६) प्रकोणक, (१०)अभियोग्य 4(११) किल्विषक ऐसे ग्यारह भेद होते हैं। अब यहां पर प्रसंगवश इन्द्र प्रादि दश प्रकार के देवों का उदाहरण सहित लक्षण लिखते हैं अन्य देवों में न पाए जा सकने वाले अणिमा, महिमा आदि गुणों से जो परम ऐश्वर्य को प्राप्त हों उसे इन्द्र कहते हैं । जो शासन ऐश्वर्य रहित इन्द्र के समान ऐश्वयं धारण करने वाले हों उन्हें प्रत्येन्द्र कहते हैं ।२। Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमोकार प्रेम कोटपाल के समान ओ स्वर्ग लोक की रक्षा करने वाले हों उन्हें लोकपाल कहते हैं ।३। इन्द्रों के मन्त्री पुरोहित के समान जो शिक्षा देने वाले हों उन्हें प्रायस्त्रिश कहते हैं ।४। जिनके प्राज्ञा और एश्वर्य रहित स्थान, आयु, परिवार, भोग प्रादि इन्द्र के समान हों उन्हें सामानिक जाति के देव कहते हैं। इन्द्र इनको माता पिता व उपाध्याय के समान गिनता है और अन्य देव इनका इन्द्र के समान प्रादर सत्कार करते है। जो इन्द्र की सभा में अंगरक्षक के समान हाथों में शस्त्र लिए हुए इन्द्र के पास खड़े रहते है उन्हें अग रक्षक कहते हैं ।६। इन्द्र की सभा में जो प्रधान हों उन्हें पारिषद कहते हैं ।७। जो गज अश्व आदि सात प्रकार की सेना के रूपों को धारण करने वाले देव होते हैं उन्हें पानीक जाति के देव कहते हैं।। प्रजा के समान विमानों में रहने वाले जो साधारण देव होते हैं उन्हें प्रकीर्णक दे। कहते हैं । जो सेवकों के समान इन्द्र आदि की सेवा कर्म करते हैं उन्हें अभियोग्य जाति के देव कहते हैं ।१०। जो चांडालों के समान नगर के वाहर रहने वाले इन्द्र प्रादि देवों के सम्मान प्रादि के अनधिकारी देव होते हैं उन्हें किल्विषिक जाति के देव कहते हैं ।११।। ___ इस प्रकार के प्रत्येक निकाय के देवों में उपरोक्त इन्द्र, सामानिक प्रादि ग्यारह भेद होते हैं परन्तु व्यन्तर और ज्योतिष जाति के देवों में प्राय स्त्रिश और लोक पाल जाति के देव नहीं होते । भावार्थ :-व्यंतर और ज्योतिषि जाति के देवों में प्राठ-पाठ भेद ही होते हैं : अब देवों के प्रकारों के कहे हुए प्रथम भवनवासी देव के दस भेदों को कहते हैं भवनवासी देवों के (१) असुर कुमार, (२) नाग कुमार, (३) सुपर्ण कुमार, (४) द्वीपकुमार, (५) उदधि कुमार, (६) विद्यत कुमार, (७) स्तनित कुमार, (८) दिक्कुमार, (६) अग्नि कुमार, और (१०) वात कुमार ऐसे दस भेद हैं। इनमें एक-एक कुल में दो-दो इन्द्र हैं। असुर कुल में चमर भोर वैरोचन, नाग कुमार कुल में भूतानन्द' और धरणानन्द, सुपर्ण कुमार कुल में वेणु और वेणुधारी, द्वीप कुमार कुल में पूर्ण और वशिष्ट, उदधि कुमार कुल में जलप्रभ और जलकांत विधुत कुमार कुल में घोष और महाघोष, स्तनित कुमार कुल में हरिषेण और हरिवाहन, दिक्कुमार कुल में अमित गति और अमित वाहन, अग्नि कुमार कुल में अग्निशिखी और अग्निवाहन वात कुमार कल में वलंभ और प्रभंजन-इस प्रकार भवनवासियों के प्रत्येक कल में दो-दो इन्द्र और प्रत्येक इन्द्र के एक-एक प्रत्येन्द्र होता है। बीस इन्द्र और इतने ही प्रत्येन्द्र ऐसे भवनवासियों के समस्त चालीस इन्द्र हैं। प्रसुर कुमार से लेकर बात कुमार पर्यन्त दस प्रकार के भवनवासी देवों के मुक टों में क्रम से (१) चूडामणि रत्न (२) सर्प, (३) गरुड़, (४) गज, (५) मत्स्य, १६) स्वस्तिक (सांथिया), (७) बज (८) सिंह, (६) कलश और (१०) अश्व-ये दस चिन्ह होते हैं अथवा इनके अतिरिक्त पृथक-पृथक प्रकार के चैत्य वक्ष और ध्वजा में भी इनके चिन्ह होते हैं। इन दशविध भवनवासी देवों के अनुक्रम से (१) अश्वत्थ वृक्ष, (२) सप्तपर्ण वृक्ष, (:) शाल्मली वृक्ष, (४) जंबू वृक्ष, (५। चैतस वृक्ष, (६) कदम्ब वृक्ष, (७) प्रियंग वृक्ष, (८) शिरस वृक्ष, (६) पलाश वृक्ष तथा (१०) राजद्रम पर्थात किरमाला वृक्ष पे दस चैत्य वृक्ष होते हैं । इन प्रत्येक प्रकार के वृक्षों के नीचे मुलभाग में एक एक दिशा में भवनवासी Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार प्रम देवों के द्वारा परिपूज्य पर्यकासन जिन चैत्य (प्रतिमा) विराजमान हैं इसी कारण इनको चैत्यवृक्ष कहते हैं। इन प्रत्येक प्रतिमाओं के अनुभाग में एक-एक मानस्तम्भ स्थित है और उन मानस्तम्भों के ऊपर प्रत्येक दिशा में सात-सात जिन बिम्ब विराजमान हैं। ___ अब आगे भवनवासौ इन्द्रों के भवनों की संख्या कहते हैं-पहले एक-एक क ल में जो दो-दो इन्द्र कहे थे उन में जिनका नाम प्रथम है वे दक्षिणेन्द्र और जिनका नाम पीछे है वे उत्तरेन्द्र जानने चाहिए। दक्षिण दिशस्य भवनों में रहने वाले इन्द्रों को दक्षिणेन्द्र और उत्तर दिशस्थ भवनों में रहने वालों इन्द्रों को उत्तरेन्द्र कहते हैं। वहां असुर कुमार कुल के दक्षिणेन्द्र के चौतीस लाख और उत्तरेन्द्र के तीस लाख भवन हैं। नागकुमार कुल के दक्षिण के चवालीस लाख और उत्तरेन्द्र के चालीस लाख भवन है। सुपर्णकुमार कुल के दक्षिण के अड़तालीस लाख और उत्तरेन्द्र के चौतीस लाख भवन हैं। दीप कुमार उदधि कुमार, विद्युत कुमार, स्तनित कुमार, दिक्कुमार और अग्नि कुमार इन छह कुलों के प्रत्येक दक्षिणेन्द्र के चालीस-चालीस लाख और उत्तरेन्द्र के छत्तीस-छत्तीस लाख भवन और हैं बात कुमार कुल के दक्षिणेन्द्र के पांच लाख और उत्तरेन्द्र के छयालीस लाख भवन हैं। इस प्रकार दसों कुल के इन्द्रों के समस्त भवन सात करोड़ बहत्तर लाख हैं। इन सर्व भवनों में एक एक चैत्यालय है इस कारण इतने ही चैत्यालय हुए। उन चैत्यालयस्थ जिनविम्दों को त्रिकरणशुद्धिपूर्वक मेरा नमस्कार हो । वे भवन नाना प्रकार के उत्तमौसम पुष्पों की गन्ध से सुगन्धित रत्नमय भूमि व भित्तिका संयुक्त सदैव प्रकाशमान भूमिगृह तिहखाना) की उपमा को धारण करने वाले जघन्य संख्यात कोटि योजन और उत्कृष्ट प्रसंख्यात कोटि योजन परिमित विस्तार आयाम वाले प्रति चौकोर हैं। तीन सौ योजन बाहुल्य प्रति ऊंचाई वाले उन प्रत्येक भवनों के मध्य में सौ-सौ योजन ऊँचा एक पर्वत होता है इसी पर भगवान का चैत्यालय होता है। आगे इन भवनों के स्थान को कहते हैं कि ये कहाँ पर स्थित हैं.-रत्नप्रभा पृथ्वी एक लाख अस्सी हजार योजन मोटी है। उसके तीन विभाग है-स्वरभाग, पंकभाग और अबहुलभाग । इनमें से सोलह हजार योजन मोटा पतला खरभाग है। उसमें चित्रा, बच्चा, वैडूर्य आदि एक एक हजार योजन की मोटी सोलह पृथ्वियाँ हैं । इनमें से एक. एक हजार योजन मोटी एक नीचे की और एक ऊपर की ऐसी दो पृवियों को छोड़कर एक एक राजू लम्बी घोड़ी शेष चौदह भूमियों में चित्रा पृथ्वी से एक एक हजार योजन नीचे जाकर (१) किन्नर, (२) किंपुरुष, (३) महोरग, (४) गन्धर्व, (५) यक्ष, (६) भूत और (७) पिशाच-इन सात प्रकार के व्यन्तर देवों के साथ और दो हजार योजन नीचे जाकर (नाग कुमार), (२) विधुत कुमार, (३) सुपर्ण कुमार, (४) अग्नि कुमार (५) वात कुमार, (६) स्तनित कुमार, (७) उदधि कुमार, (८) दोप कुमार मौर (8) दिक्कुमार इन नन प्रकार के भवनवासी देवों के निवास स्थान हैं। ___ खरभाग के नीचे पौरासी हजार योजन मोटा पंक भाग है। उनमें असुरों कुमार पौर रासक्षों और कभाग केमीचे प्रस्सी योजन मोटे प्रवल भाग में प्रथम नरक है। उसमें नारकियों के बिल अर्थात् निवासस्थान है। अब भवनवासो इन्द्रों के सामानिक प्रादि देवों की संख्या कहते हैं--पूर्व प्रादि दिशामों के सोम, यम, वरुण और कुबेर नामक चार लोकपाल' तथा तैतीस प्रायस्त्रिशद देव ये सब तो इन्द्रों के समान ही होते हैं और सामानिक मादि में विशेषता होती है । चमरेन्द्र के सामानिक देव चौंसठ हजार, तनुरक्षक दो लाख छप्पन हजार, अन्तः पारिषद् अठाईस हजार, मध्य पारिषद तीस हजार पौर बाह्य Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ममोकार पारिषद बत्तीस हजार होते हैं। भूतानन्द के सामानिक छप्पन हजार, तनुरक्षक दो लाख छप्पन हजार, अन्तः पारिषद् छह हजार, मध्य पारिषद् पाठ हजार और बाह्य पारिषद् दस हजार होते हैं। अवशेष धरणानन्द प्रमुख प्रभंजन पर्यन्त सत्रह इन्द्रों के प्रत्येक सामानिक पचास-पचास हजार, तनुरक्षक दो लाख अन्तः पारिषद् चार हजार, मध्य पारिषद छह हजार और बाह्य पारिपद् पाठ हजार होते हैं । बीसों इन्द्रों की अन्तः पारिषद् समिता, मध्यम पारिषद् चन्द्रा और बाह्म परिषद् यतु-ऐसी संशात्रों से युक्त हैं। अब प्रामीक के भेद और पानीक की संख्या कहते हैं भैंसे, घोड़े, रथ, हाथी, पयादे, गन्धर्व और नर्तकी—ये सात प्रकार प्रानीक अर्थात सेना है। एक-एक पानीक में सात-सात कक्ष अर्थात् फौज हैं तथा प्रयम मानोक के प्रथम काक्ष का प्रमाण अपनेअपने सामानिक देवों को संख्या के समान है फिर मागे-प्रामें के कक्षों में उससे विगुणा-द्विगुणा प्रमाण जानना चाहिए । जैसे चमरेन्द्र के चौंसठ हजार भैसे प्रथम कक्ष में हैं और सात कक्ष हैं तो प्रथम कक्ष के भैसों की संख्या को द्विगूण-द्विगूण करने पर दूसरे कक्ष में एक लाख अठाईस हजार, तीसरे में दो लाख छप्पन हजार, चौथे में पांच लाख बारह हजार, पांच में दस लाख चौबीस हजार, छठे में बीस लाख अड़तालीस हजार और सात में चालीस लाख छयाण हजार हए । सातों कक्षों का जोड़ लगाने पर सब इक्यासी लाख, अठाईस हजार हुए इसी प्रकार इतने-इतने घोटक आदि जानने चाहिए | सातों प्रकार के समस्त पानीक देव पाँच करोड़, अड़सठ लाख, छयाणब हजार चमरेन्द्र के हैं। इसी प्रकार वैरोचन प्रादि के भी यथासम्भव प्रमाण जान लेना चाहिए । असुरकुमारों के तो भैसा मादि सात प्रकार पानीक हैं परन्तु अवशेष नत्र कुलेन्द्रों के प्रथम आनीक में से को जगह क्रम से (१) नाव, (२) गरुड़, "(३) हाथी, (४) मांछला, (५) ऊंट, (६) सूर, (७) सिघ, (८) पालकी और {6) घोड़े जानने चाहिए । अवशेष छह पानीक प्रसुरकुमारों वत् होती है । भवनवासी देव प्रसंख्यात हैं। इस कारण शेष भेद जो प्रकीर्णक आदि हैं वे असंख्यात जानने चाहिए। अब प्रागे प्रसुरकुमारों की देवांगनाओं का प्रमाण कहते हैं - प्रसुरकुमारों के इन्द्रों के छप्पन हजार देवांगनाए हैं उनमें सोलह हजार वल्लभा, पांच महादेवी और पांच कम चालीस हजार परिवार देवी हैं । नागकुमार के इन्द्रों के पचास हजार देवांनाएं है उनमें दस हजार वल्लभा, पाँच महादेवी और पांच कम चालीस हजार परिवार देवी हैं । सुपर्ण कुमारों के इन्द्रों के चवालीस हजार देवांगनाएँ हैं उनमें चार हजार वल्लभा, पांच महादेवी और पांच कम चालीस हजार परिवार देवी है अवशेष जो द्वीपककुमार प्रादि सात प्रकार के भवनवासी देव हैं उनके बत्तीसबत्तीस हजार देवांगनाएं हैं उनमें दो-दो हजार वल्लभा, पांच-पांच महादेवी और पांच कम तीस-सीस हजार परिवार देवी हैं । असुरकुमार, नागकुमार, सुपर्णकुमार - इनकी एक-एक महादेवी (पटरानी) विक्रिया करें तो मूल शरीर सहित पाठ हजार देवांगना रूप हो जाती हैं शेष बचे हुए द्वीपकुमार मादि सात प्रकार के जो देव हैं यदि उनकी एक ज्येष्ठ देवी विक्रिया करें तो मूल शरीर सहित छह हजार देवांगना रूप हो जाती हैं। प्रत्येन्द्र, लोकपाल, त्रास्त्रिशत और सामानिक इन चार के इन्द्र के समान ही देवांगना होती हैं इस कारण इनकी देवांगनामों का पृषक प्रमाण न कहकर पारिषदों की देवगनामों का प्रमाण कहते हैं चमरेन्द्र के अन्तः पारिषदों के अढ़ाई सौ, मध्य पारिषदों के दो सौ पौर बाह्य पारिषदों के Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ সৗকা দুখ डेढ़ सौ देवांगनाएं हैं। वैरोचनेन्द्र के अन्तः पारिषदों के तीन सौ, मध्यम पारिषदों के अढ़ाई सौ और बाहर पारिषदों के दो सौ देवांगना हैं । नागकुमार कुलेन्द्रों के अन्तः पारिषदों के दो सौ, मध्यम पारिपदों के एक सौ पाठ और बाह्य पारिषदों के एक सौ चालीस देवांगनाएं है । गरुड़ कमार कुलेन्द्रों के अन्तः पारिषदों के एक सौ आठ, मध्यम पारिषदों के एक सौ चालीस सौर वाह्य पारिपदों के एक सौ बीस देवांगनाएँ हैं। अवशेष कुलेन्द्रों के अन्त: पारिषदों के एक सौ चालीस, मध्य पारिपदों के एक सौ बीम और बाह्य पारिषादों के सौदेवांगना है। सेना के महत्तर अर्थात प्रधान देवों और अंगरक्षक देवों के सौ-सौ देवांगनाएँ हैं। पानीक जाति के देवों के पचास-पचास देवांगनाएं और अवशेष निकृष्ट जाति के देवों के बत्तीस-बत्तीस देवांगनाएँ है। देवों के न्यून से न्यून बत्तीस देवांगनाएं होती हैं बत्तीस से कम नहीं होती हैं। अब आगे भवनवासी देवों की उत्कृष्ट व जघन्य प्रायु कहते हैं असुरकुमारों की एक साग, नागपुनरों को बल्ल मुनगानों को अढ़ाई पत्य, द्वीपकुमारों की दो पल्य और अवशेष छह प्रकार के भवनवासी देवों की डेड़ पल्य उत्कृष्ट प्रायु है । इन सबकी जघन्य आयु दस हजार वर्ष होती है । इतना विशेष है कि दक्षिणेन्द्र की अपेक्षा उत्तरेन्द्र की प्रायु किचित् अधिक होती है। यथा-असुरकुमारों में चमरेन्द्र की प्रायु एक सागर है तो वैरोचन इन्द्र की किंचित् अधिक एक सागर आयु होती है इसी प्रकार सब इन्द्रों की जानना चाहिए। प्रत्येन्द्र, लोकपाल, बायस्त्रिंशत् और सामानिक इन चारों की उत्कृष्ट व जघन्य प्रायु इन्द्र के समान ही होती है। प्रायु, परिवार, ऋद्धि, विक्रिया प्रादि में प्रत्येन्द्र, लोकपाल, प्रायस्त्रिंशत् और सामानिक ये चारों इन्द्र के समान ही होते हैं इस कारण छत्र आदि से युक्त होते हैं। आगे चमर आदि इन्द्रों की देवांगनाओं की मायु कहते हैं--चमरेन्द्र को देवांगनामों को प्रायु पढ़ाई पल्प, वैरोचनेन्द्र की देवांगनाओं की आयु तीन पल्य, नागेन्द्र की देवांगनानों की आयु पल्य का अष्टमांश, गरुड़ेन्द्र की देवांगनानों की आयु तीन कोटि पूर्व वर्ष प्रमाण और अवशेष इंद्रों की देवांगनामों की प्रायु तीन कोटि वर्ष प्रमाण है । चमरेन्द्र के अंगरक्षक, सेना प्रधानों की आयु एक पल्य, पानीक सहित वाहनों की प्रायु प्रद्धं पल्य है । चमरेन्द्र के अंगरक्षक आदि को प्रायु की अपेक्षा वैरोचनेंद्र के अंगरक्षकों मादि की मायु किंचित् अधिक जाननी चाहिए। नागकुमारेन्द्रों के अंगरक्षक सेनाप्रधानों को प्रायु एक कोटि पूर्व वर्ष और पानीक सहित बाहनों की एक लाख वर्ष है । अवशेष सात कुलेन्द्रों के अंगरक्षक सेना महत्तरों की प्रायु एक लाख वर्ष है और पानीक सहित वाहनों की पचास हजार वर्ष है। चमरेन्द्र के मन्तः पारिषदों की प्रायु अढ़ाई पल्य, मध्य पारिषदों की दो पल्प और बाह्य पारिषदों की डेढ़ पल्य है। वैरोचनेन्द्र के प्रतः पारिषदों की प्रायु तीन पस्य, मध्य पारिषदों को ढ़ाई पल्य और बाह्म पारिषदों की दो पल्म है। नागकु मारेंद्र के अंतः पारिपदों की आयु पल्य का अष्टमांश, मध्य पारिषदों की पल्य का षोडशांश और बाह्य पारिषदों की पल्य का बत्तीसवां भाग होती है । गरुड़ कुमारेन्द्रों की प्रायु तीन कोहि पूर्ववर्ष, मध्य पारिषदों की भायु दो कोड़ि पूर्व वर्ष और बाह्य पारिषदों की एक कोड़ि पूर्व वर्ष है। प्रवशेष कुलेन्द्रों के अभ्यंतर पारिषदों की प्रायु तीन कोटि वर्ष, मध्यम पारिषदों नी मायु दो कोटि वर्ष बाह्य पारिषदों को प्रायु एक कोटि वर्ष जाननी चाहिए । अब प्रागे असुरकुमार प्रादि के उच्छवास् पोर आहार का क्रम कहते हैं असुरकुमारों के एक पक्ष व्यतीत होने पर उच्छवास् प्रौर एक हजार वर्ष बीतने पर प्राहार होता है । नागकुमार और सुपर्णकुमार और द्वीपकुमारों के साढ़े बारह मुहूर्त के साढ़े बारहवें भाग के Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४० णमोकार अन्य पश्चात् उच्छवास और दिन के साढ़े बारहवें भाग के पश्चात् माहार होता है। उदधि कुमार और स्तनित क मारों के बारह मुहूर्त के बारहवें भाग बीतने पर उच्छवारा और दिन के बारहवें भाग बीतने पर आहार होता है। दिक्कुमार, अग्निकुमार और वातकुमारों के साढ़े सातवें भाग पर उच्छवास और दिन के सातवें भाग के पश्चात् पाहार होता है । प्रागे इनके शरीर की ऊँचाई कहते हैं असुरकुमारों के शरीर की ऊँचाई पच्चीस धनुष, अवशेष नागकुमार प्रमुख वातकुमार पर्यन्त नव प्रकार के भवनवासियों की ऊँचाई नस धनुष होती हैं । सातर देवों को भी दम धनुष तथा ज्योतिषी देवों की सात धनुष होती है। इति भवनवासी देव वर्णनम् । अथ व्यन्तर देव वर्णन प्रारम्भः :--- ध्यन्तर देव (१) किन्नर, (२) किं पुरुष, (३) महोरग, (४) गंधर्य, (५) यक्ष, (६) राक्षस, (७) भूत और (८) पिशाच-ऐसे पाठ प्रकार के हैं। अब इन पाठों प्रकार के ध्यन्तर देवों का क्रम से शरीर का वर्ण कहते हैं-- किन्नरों के शरीर का वर्ण प्रियंगुफल के सदृश, किंपुरुषों का धवल, महोरगों का श्याम, गंधवों का सुबण सम, यक्ष, राक्षस तथा भूत इन तीनों का श्याम वर्ण और पिशाचों का प्रति कृष्ण वर्ण है । ये सब देव अङगजा इत्यादि लेप और आभूषणों से युक्त होते हैं। इन किन्नर प्रादि पाठ प्रकार के व्यंतर देवों के क्रमशः अशोक, चंपा, नागकेशर बबली, बड़, कठतरु, कुतली और कदम्ब नाम के वृक्ष होते हैं। इन प्रत्येक चैत्य वृक्षों के मूल भाग में प्रत्येक धारक पाठ दिशा में चार-चार पल्यंकासन जिन प्रतिमा विराजमान हैं और वे प्रतिभाचार तोरणो से संयुक्त हैं इसी कारण इन वृक्षों को चैत्य वृक्ष कहते हैं । उन प्रत्येक प्रतिमाओं के अग्रभाग में पीठ के ऊपर मान स्तम्भ स्थित हैं। उन मानस्तम्भों के तीन-तीन कोट हैं । ये सब मानस्तम्भ मोतियों की माला क्षुद्र घटिका आदि से सुशोभित हैं। आगे इन व्यंतर देवों के कुल प्रतिभेद कहते हैं :-किन्नर, किंपुरुष महोरग और गन्धर्व-इन चार कुलों में दस-दस भेद अवांसर हैं। यक्षों में बारह, राक्षसों में सात और पिशाचों में चौदह भेद अवांतर है। जिस प्रकार यहाँ पर मनुष्यों में क्षत्रिय, वैश्य प्रादि कुलभेद होकर फिर क्षत्रिय कुल में इक्ष्वाकुवंश, सोमवंश ग्रादि प्रभेद होते हैं उसी प्रकार व्यन्तरों में जानने चाहिए । व्यन्तरों के प्रत्येक कुल में दो-दो इन्द्र हैं । अब आगे व्यन्तरों के प्रस्सी भेदों के नाम व इन्द्रों के नाम कहते हैं किन्नर जाति के व्यन्तरों के (१) किंपुरुष, (२) किन्नर, (३) हृदयंगम, (४) रूपपाली, (५) किन्नर-किन्नर, (६) भनिदित, (७) मनोरम, (८) किन्नरोत्तम (६) रतिप्रिय और (१०) ज्येष्ठ ऐसे बस भेद हैं । इन किन्नरों में किंपुरुष और किन्नर दो इन्द्र हैं। इनमें किंपुरुष के प्रवतंसा पौर केतुमती और किन्नर के रतिषण और रतिप्रिया नाम की दो-दो बल्लभिका देवांगनाएं हैं। किंपुरुष जाति के व्यन्तरों के (१) पुरुष, (२) पुरुषोत्तम, (३) सत्य पुरुष, (४) महापुश्य, (५) पुरुषप्रभ, (६) अतिपुरुष, (७) मरु, (८) मरुदेव, (६) मरुप्रभ और (१०) यशस्वान्-ऐसे दस भेद हैं । किंपुरुषों के सत्पुरुष और महापुरुष नामक दो इन्द्र हैं। इनमें सत्पुरुष के रोहिणी और नवमी मौर महापुरुष के ह्री और पुष्पवती नाम की दो-दो वल्लभिका देवांगनाएं हैं । प्रत्येक वल्ल भिका देवांगना एक-एक हजार परिवार देवियों से युक्त हैं। Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार ग्रन्थ . महोरग जाति व्यन्तरों के (१) भुजग, (२) भुजगशाली, (३) महाकाय, (४) पतिका (५) स्कंधशाली, (६) मनोहर, (७) मरुनिजव, (८) महेश्वर्य, (६) गम्भीर और (१०) प्रियदर्शी, ऐसे इस भेद हैं। इनके महाकाय और प्रतिकाय दो इन्द्र हैं। महाकाय के भोग और भोगवती एवं पतिकाय के पुष्पगंधी और मनंदिता नाम की दो-दो बल्लभिका देवांगनाएं हैं। गन्धर्वजाति के व्यन्तरों के (१)हा हा, (शहह, (३) नारद, (४) तुम्बर, (५) कदम्ब, (६) वामव, (७) महास्तर, (८) गीतरति (६) गीतयशो और (१०) देवत ऐसे दस भेद हैं । इनके गीतरति व गीतयशा नामक दो इन्द्र है । गीतरति के सरस्वती और स्वरसेना एवम् गीतयशा के नन्दनी और प्रियदशिनना नाम की दो-दो वल्लभिका देवगनाएं हैं। यक्ष जाति के व्यन्तरों के (१) माणिभद्र, (२) पूर्णभद्र, (३) शलभद्र, (४) मनोभद्र, (५) भद्रक, (६) सुभद्र, (७) सर्वभद्र, (८) मानुष, () धनपाल, (१०) सुरूप, (११) यक्षोत्तम मोर (१२) मनोहर ऐसे बारह भेद हैं । इनके माणिभद्र और पूर्णभद्र नाम के दो इन्द्र हैं। माणिभद्र के कुन्दा मोर बहपुत्रा एवं पूर्णभद्र के तारा और उत्तमादेवी नाम की दो-दो वल्लभिका देवांगनाएं हैं। राक्षस जाति के घ्यन्तरों के (१) भीम, (२) महाभीम, (३) विघ्न विनायक, (४) उदक, (५) राक्षस, (६) राक्षस-राक्षस पोर (७) ब्रह्म राक्षस ये सात भेद हैं। इनके भोम और महाभीम ये दो इन्द्र हैं। भीम के षद्मा पौर वसुमित्रा एवं महाभीम के रस्नाया पौर कनकप्रभा नाम की देवी है। भूत जाति के व्यन्तर देवों के (१) स्वरूप, (२) प्रतिरूप, (३) पुरुषोतम, (४) प्रतिभूत {५) महाभूत, (६) प्रतिच्छिन्न और (७) प्राकाशभूत-ये सात भेद हैं। इनके स्वरूप पोर प्रतिरूप नामक दो इन्द्र हैं स्वरूप के रूपवती और बहुरूपा और प्रतिरूप के सुसीमा पौर सुमुखा देवी हैं । पिशाच जाति के व्यन्तर देवों के (१) कूष्मांड, (२) रक्ष, (३) यक्ष, (४) सम्मोह, (५) तारक, (६) प्रशुचि, (७) काल, (८) महाकाल, (६) शुचि, (१०) सतालक, (११) देह, (१२) महादेह, (१३) तूनीक और (१४) प्रवचन--ऐसे चौदह भेद है । इनके काल मौर महाकाल नाम के दो इन्द्र हैं। काल के कमला और कमलप्रभा एवं महाकाल के उत्पला और सुदर्शना नामक दो-दो यल्लभा देवियों है। इस प्रकार व्यन्तरों के प्रा. कुलों के सोलह इन्द्र और प्रत्येक इन्द्र के एक-एक प्रत्येन्द्र ऐसे भवनवासियों के सर्व बत्तीस इन्द्र होते हैं। प्रत्येक इन्द्र के दो-दो गणिका महत्तरी हैं जिस प्रकार यहाँ वेश्या नृत्यकारिणी होती है उसी प्रकार उनके जो नस्यकारिणी है उन्हें गणिका और उनमें जो प्रधान हों उन्हें गणिका महत्तरी कहते हैं। उन सोलह इन्द्र सम्बन्धी बत्तीस गणिका महसरियों के नाम क्रम से ये हैं-1) मधरा, (२) मधुरालापा। (३) सूस्वरा, (४) मदुभाषिणी २। (५) पुरुषप्रिया, (६) पंकात १७) सौम्या, (८) पुंगिनी ४ । (६) भोगा, (१०) भोगवती ५। (११) भुजंगा, (१२) भुजंगप्रिया ६ । (१३) सुघोषा, (१४) विमला ७ 1 (१५) सुस्वरा, (१६) प्रनिदिता ८ (१७) सुभद्रा, (१८) भद्रा, (१६) मालिनी, (२०) पद्ममालिनी १० 1 (२१) सर्चरी, (२२) सर्व सेना ११ । (२३) रुद्रा, (२४) शवदर्शना १२ । (२५) भूतकांता (२६) भूता १३ 1 (२७) भूतदत्ता, (२८) महाभुजा १४ । (२९) मम्बा, (३०) कराला १५॥ (३१) सुलसा और (३२) सुदर्शना १३ । " इस प्रकार क्रम से प्रत्येक इन्द्र के दो-दो गणिका महत्तरी होती हैं। इन सबकी मायु प्राधा. पाषा पस्य प्रमाण होती है। प्रागे इन्द्रों के सामानिक प्रादि की संख्या कहते हैं : व्यन्तर जाति के प्रत्येक देवेन्द्रों के सामानिक पार हजार, मंगरक्षक सोलह हजार, अन्तः परिषद् माठ सौ, मध्य पारिषद् एक हजार पौर बाह्य पारित इमार दो सौ होते हैं। प्यन्तर जाति Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार प्रय ३५० के देवों के गज, घोटक, पियादा, रथ, गंधर्व, नर्तकी और वृषभ ये सात प्रकार की धानीक अर्थात् सेना है। इन गज आदि सप्तधा श्रनीकों के क्रम से सुज्येष्ठ, सुग्रीव, विमल, मरुदेव, श्रीदाम, दामश्री और विशाल- ये सात देव महत्तर अर्थात् प्रधान जानने चाहिए। प्रत्येक प्रानीक में सात-सात कक्ष अर्थात् फौज है उनमें प्रथम प्रानीक के प्रथम कक्ष का प्रमाण अठाईस हजार है फिर आगे के कक्षों में उससे द्विगुण - द्विगुण प्रमाण जानना चाहिए जैसे कि पुरुषेन्द्र के अठाईस हजार हाथो प्रथम कक्ष में हैं और सात कक्ष है तो प्रथम कक्ष के हाथियों की संख्या को द्विगुणा करने पर दूसरे कक्ष में छप्पन हजार, तोसरे में एक लाख बारह हजार, चौथे में दो लाख चौवीस हजार पांचवें में चार लाख अड़तालीस हजार, छठ में आठ लाख छयानवें हजार और सातवें में सत्रह लाख बागवें हजार हुए। सातों कक्षों का जोड़ लगाने पर सब पैंतीस लाख छप्पन हजार हुए इसी प्रकार इतने इतने पोटक आदि जानने चाहिए। सात प्रकार के समस्त ग्रानीकों का प्रमाण दो करोड़, अड़तालीस लाख, वाणवें हजार हुआ । सब व्यन्तरेन्द्रों के समान धानीक हैं इस कारण सब व्यन्तरेन्द्रों के इतना ही प्रमाण है और प्रकीर्णक, आभियोग्य, किस्विषक आदि प्रसंख्यात हैं 1 प्रागेव्यन्तरेन्द्रों के जहाँ पर नगर हैं उन द्वीपों के नाम कहते हैं (१) अम्जनक, (२) बज्रधातुक, (३) सुवर्ण, (४) मनः शिलक, (५) बा, (६) रजत, (७) हिंगुल और (८) हरिताल इन आठों द्वीपों में क्रम से किन्नर आदि अष्टविध व्यन्तरों के नगर हैं। यथाअन्न द्वीप में किन्नरों के नगर हैं वहाँ जिस इन्द्र का नाम पहले कहा है उसके नगर दक्षिण में और जिसका नाम पीछे कहा है उनके नगर उत्तर में जानने चाहिए। प्रत्येक व्यंतरेन्द्र के पांच-पांच नगर हैं। व्यन्तरेन्द्र के नाम से तो मध्य के नगर का नाम जानना चाहिए और उसके पूर्व, दक्षिण, पश्चिम, उत्तर दिशाओं में इन्द्र के नाम के आगे क्रम से प्रभा, कान्त, प्रावर्त और मध्य का योग करने पर पूर्व, दक्षिण, पश्चिमोत्तर दिशस्थ नगरों के नाम जानने चाहिए। यथा- किन्नर नाम के इन्द्र के पाँव नगर हैं तो मध्य के नगर का नाम किनरपुर और पूर्व दक्षिण, पश्चिमोत्तर दिशाओं के नगरों के नाम क्रम से किन्नरप्रभ, किन्नरकांत, किन्नरावतं श्रौर किन्नर मध्य जानने चाहिए। इसी प्रकार समस्त इन्द्रों के नगरों के नाम जानने चाहिए। ये सब नगर समभूमियों के ऊपर जम्बूद्वीप के समान (लक्ष योजन व्यास वाले ) साढ़े तीस योजन ऊँचे, भूमि में साढ़े बारह योजन चीड़े, और ऊपरोपरि क्रमश: न्यून होकर ऊपर पढ़ाई योजन चोड़े प्रकार प्रर्थात् कोट संयुक्त है । उन कोटों के साढ़े बासठ योजन ऊँचे और सवा इक्तीस योजन चौड़े द्वार अर्थात् दरवाजे हैं और उन द्वारों पर पिचहत्तर योजन ऊँचा प्रासाद है जिसे सुधर्मा नामक सभा कहते हैं क्योंकि उसी प्रासाद के मध्य में साढ़े बारह योजन लम्बी, साढ़े छह योजन चौड़ी और नव योजन ऊँची सुधर्मानामक सभा है इसकी प्रधिष्ठान भूमि एक कोश मोटी है। इस सुधर्मा नामक सभा के द्वार का उदय (ऊंचाई) दो योजन और व्यास (चौड़ाई) एक योजन जाननी चाहिए। इसी प्रकार नगर, प्राकार, द्वार आदि का प्रमाण दक्षिणेन्द्रों के समान ही उत्तरेन्द्रों का जानना चाहिए। उन नगरों के दो-दो हजार योजन परे चारों दिशाओं में एक लम्बे, और पचास हजार योजन चौड़े बन खण्ड अर्थात् बाग हैं। प्रत्येक इन्द्र की गणिका महत्तरियों के नगर अपने इन्द्रों के पुरों के पार्श्व भाग में चौरासी हजार योजन लम्बे और इतने ही चौड़े हैं। अवशेष व्यन्तरों के स्थान नगर अनेक द्वीप समुद्रों में होते हैं । मागे कुल अपेक्षा निलय भेद कहते हैं रत्नप्रभा पृथ्वी के खर भाग में भूतों के चौदह हजार भवन हैं पौर पंकभाग में राक्षसों के सोलह हजार भवन हैं। व्यंतरों के भवनवत् इनके भी भवन भूमि की मोटाई में जानने चाहिए । अवशेष जो वान व्यंतर देव हैं उनके स्थान भूमि पर होते हैं । | Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५१ णमोकार ग्रंथ प्रागे नीचीपपादादिवान् व्यंतर देवों का विशेष वृतांत लिखते हैं--पृथ्वी से एक हाथ ऊपर क्षेत्र में नीचीपपाद व्यंतर देव हैं उनके ऊपर दस-दस हजार ऊँचे क्षेत्र में क्रम से (१) दिग्वासी, (२) अंतरनिवासी और (३) कूष्मांड जानने चाहिए तथा बीस-बीस हजार हाथ क्षेत्र के अन्तराल से क्रमशः उपरोपरि (१) उत्पन्न, (२) श्रन्युत्पन्न, (३) प्रमाण, (४) गंध, (५) महागंध, ६) भुजग, (७) प्रोतिक और (5) श्राकर्षोत्पन्न - नामक व्यंतर देव जानने चाहिए । आगे इन नीचोपपादिकों की क्रम से श्रायु कहते हैं नीचोपवादों की दस हजार दिग्वासिकों की बीस हजार भवनवासियों की तीस हजार, कूप्मांडों की चालीस हजार, उत्पन्नों की बीस हजार, श्रनुत्पन्नों की साठ हजार, प्रमाणों की सत्तर हजार, गधों की मस्सी हजार महागंधों की चौरासी हजार, भुजंगों की पत्य का भ्रष्टमांश प्रीतिकों की पल्य का चतुर्थांश. माकाशोत्पन्नों की अर्द्ध पल्य प्रमाण श्रायु है । व्यतरों के निलय श्रर्थात् स्थान तीन प्रकार के हैं - (१) भवनपुर, (२) भावास और (३) भवन | उनमें से द्वीप वा समुद्रों में भवनपुर, द्रह, पर्वत तथा वृक्षों में आवास और चित्रा पृथ्वी में भवन होते है । मागे इनका स्वरूप कहते हैं-जो पृथ्वी से ऊँचे स्थान में हों वे प्रावास, जो पृथ्वी की बाहुल्यता में हों वे भवन और जो मध्य लोक की समभूमि पर हों उन्हें भवनपुर कहते हैं। चित्रा और बत्रा पृथ्वी की मध्य सन्धि से लेकर सिकन के विस्तऔर परिचित समस्त क्षेत्र में व्यंतर देव अपने-अपने योग्य स्थान, भवन, भवनपुर वा आवासों में निवास करते हैं। कितने ही व्यंतर देवों के भवन, कितनों के भवन और भवनपुर दोनों और कितनों के भवन, भवनपुर और भावास तीनों ही होते हैं तथा भवनवासियों में प्रसुकुमारों के बिना अन्य कुल वाले देवों के भवन, भवनपुर और प्रवास ये तीनों प्रकार के निलय होते हैं ऐसा श्रीत्रिलोकसार में व्यंतराधिकारान्तर्गत् गाथा दो सौ छपाणों में कहा है । व्यन्तर देवों के उत्कृष्ट भवनों का विस्तार बारह हजार योजन, उदय तीन सौ योजन और जघन्य भवनों का विस्तार पच्चीस योजन और उदय पौण योजन जानना चाहिए। उन प्रत्येक भवनों के मध्य अपने-अपने भवन के उदय से तृतीय भाग परिमित ऊँचे कूट हैं जिन पर जिन भगवान के मंदिर बने हुए हैं वलयादि चाकार रूप जो व्यन्तरों के पुर हैं उनका उत्कृष्ट विस्तार लक्ष योजन और जघन्य विस्तार एक योजन है । वलयादि श्राकार रूप जो आवास हैं उनका विस्तार दो सौ अधिक बारह हजार योजन और जवन्य विस्तार पौन योजन है । भवन प्रवासादिकों में कोटद्वार, नृत्यशाला, गृह आदि सब होते हैं । यहाँ जैसे भूमि में तहखाने होते हैं वैसे वहाँ भवन, जैसे नगर होते हैं व से भवनपुर और जैसे नगरों से पृथक स्थानों में मंदिर होते हैं व से आवास होते हैं। इन सब व्यंतर देवों के किंचित अधिक पाँच दिन बोतने पर श्राहार और किंचित अधिक पाँच मुहूर्त बीतने पर उच्छ्वास होता है । इति व्यन्तर देव वर्णन समाप्तः । मथ ज्योतिष देव वर्णन प्रारम्भ: जम्बूद्वीप के मध्य विदेह क्षेत्र के मध्य प्रदेश में एक लाख योजन ऊँचा सुमेरू पर्वत है जिसमें से एक हजार योजन भूमि में और निन्यानवे हजार योजन भूमि के ऊपर है। उस मेरू के भूगत अर्थात मूल पृथ्वी के ऊपर भद्रशाल वन है। उस भद्रशाल बन के तल से सात सौ नब्बे योजन की ऊंचाई पर नव सौ योजन के उदय पर्यन्त विस्तार में धनोदधि बातवलय का स्पर्श करते हुए ज्योतिष देव स्थित हैं। Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गमोकार प्रेम भावार्थ-प्रधः उध्वं अपेक्षा सात सौ नब्बै योजन की ऊंचाई पर एक सौ दस योजन के बाहुल्य में और पूर्व पश्चिम की अपेक्षा विस्तार में धनोदधि वातवलय पर्यन्त ज्योतिष देब स्थित हैं । वे ज्योतिष देव चन्द्रमा, सूर्य, ग्रह नक्षत्र और प्रकीर्णक तारे - इस तरह पाँच प्रकार हैं। अब प्रागे इनका पृथक पृथक स्थित च अन्तराल कहते हैं - चित्रा पृथ्वी से सात सौ नब्बे योजन ऊपर क्रमश: प्रकीर्णक तारे हैं। प्रकीर्णकों से दस योजन ऊपर सूर्य, सूर्य से अस्सो योजन ऊपर शशि अर्थात चन्द्रमा, चन्दमा से चार योजन ऊपर ऋक्ष अर्थात नक्षत्र हैं। नक्षत्रों से चार योजन ऊपर बुध है । बुध से तीन योजन अपर शुक्र है। शुक्र से तीन योजन ऊपर गुरु अर्थात वृहस्पति है। गुरू से तीन योजन ऊर अंगार मर्थात मंगल है। मंगल से तीन योजन ऊपर मंगदति अर्थात शनिश्चर है । यह अठासी हैं । अत: उनमें से बुध, शुक्र, वृहस्पति शनि और मंगल-इन पांच ग्रहों के अतिरिक्त अवशेष तिरासी ग्रहों की नगरी चित्राभूमि पर बुध और शनि इन दोनों के अन्तराल में स्थित है । तारे सात सौ नब्बे योजन ऊपर से लगाकर नव सोयोजन पर्यन्त है और सूर्य के चार प्रामाणौगुल नीचे केतु का बिमान और चन्दमा से चार प्रमाणांगुल नीचे राहु का विमान स्थित है। तारों से तारों के बीच तिर्यक रूप अन्तराल जघन्य एक कोश का सातवा भाग मध्यम पचास योजन और उत्कृष्ट एक हजार योजन प्रमाण है । ज्योतिषी देवों के विमान जैसे किसी गोले को बीच में से प्राधाकार चौड़ाई के भाग को ऊपर की ओर करके लटका दीजिए उसके ही प्राकार सदृश है। उन विमानों के ऊपर ज्योतिषी देवों के नगर हैं। ये सब नगर जिन मन्दिर संयुक्त महा मनोहर और रमणीक है। आगे उन विमानों का व्यास और बाहुल्य कहते हैं-एक योजन के इकसठ भाग में से छप्पन कला प्रमाण चन्दमा के विमान का और पड़तालीस भाग प्रमाण सूर्य के विमान का व्यास है । शुक्र के विमान का एक कोष गुरू का किचित न्यून एक कोश बुध, मंगल और शनिश्चर इन तीनों का आधा कोश प्रमाण व्यास है। तारों के विमान का प्रयास जघन्य पाव कोश, मध्यम प्राध कोश और उत्कृष्ट व्यास पोण तथा एक कोश है। ऋक्ष प्रर्थात नक्षत्र के विमान का व्यास प्रमाण एक कोश है । अन्य सर्व देवों के विमानों के बाहुल्य का प्रमाण अपने अपने विमानों के पास से आधा साधा है पौर राहु केतु के विमानों का किचित न्यून एक योजन होता है। मागे चन्द्र प्रादि की किरणों का प्रमाण कहते हैं सूर्य के उष्ण किरण बारह हजार, चन्द्रमा के शीत किरण बारह हजार, शुक्र के ढाई हजार पौर भी शेष ग्रह नक्षत्रों के प्रदाई हजार तथा तारों के दो-दो हजार रश्मि हैं। मागे चन्द्र सूर्य मादि के विमानों के वाहक देवों का प्रमाण कहते हैं चन्द्रमा तथा सूर्य के विमान वाहक देव सोलह सोलह हजार, ग्रहों के पाठ आठ हजार, नक्षत्रों के चार-चार हजार और तारों के दो-दो हजार होते हैं । मागे चन्द्रमा के परिवार रूप, ग्रह, नक्षत्र, तथा तारों का प्रमाण कहते हैं-अठासी ग्रह, अठाईस नक्षत्र और छियासठ हजार नौ सौ पिचहत्तर कोड़ा फोड़ी तारे-इतना एक चन्द्रमा का परिवार हैं। अठासी ग्रहों के नाम इस प्रकार हैं (१) काल विकाल, (२) लोहित, (३) कनक, (४) कनक संस्थान, (५) प्रतरद, (६) कचपन, (७) दु'दुभि, (८) रत्न निभ, (६) रूपनिर्भास, (१०) नील (११) नीलाभास, (१२) प्रश्व, {१३) अश्वत्थान, (१४) कोस, (१५) कंसवर्ण, (१६) कंस (१७) शंखपरिमाण, (१८) शंखवणे Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार ग्रंथ (१६) उदय, (२०) पंचवर्ण, (२१) तिल, (२२) तिलपुछ, (२३) क्षीरराशि, (२४) धूम, (२५) धूमकेतु, (२६) एक संस्थान, (२७) अज्ञ, (२८) कलेर (२६) विकट, (३०) प्रभिन्न संधि (३१) ग्रन्थि, (३२) मान (३३) चतुत्पाद, (३४) विद्युब्जिका, (३५) नभ, {३६) सदृश, (३७) निलय, (३८) कालचक्र, (३९) कालकेतु, (४०) अनप, (४१) सिंहायु, (४२) बिगुल, (४३) काल, (४४) महाकाल, (४५) रुद्र, (४६) महारुद्र, (४७) संतान, (४८) सम्भब (४६)सर्वार्थी, (५०) दिश' (५१) शाति, (५२) वस्तून, (५३)निश्चल, (५४) प्रत्यभ (५५)निमत्र (५६) ज्योतिष्मान (५७) स्वयंप्रभ (५८) भासुर (५६) विरज (६०) निदुःख (६१) वीतशोक (६२सीमकर (६३) क्षेमकर (६४) अभयंकर (६५) विजय (६६) वैजयन्त (६७) जयन्त (६८) अपराजित (६६) विमल (७०) त्रस्त (७१) विजयष्णु (७२) विकस (७३) करिकाष्ट (७४) एक जटि (७५) अग्नि ज्वाल (७६) जलकेतु (७७) केतु (७८) क्षीरस (७६) अध (८०) श्रवण (८१) राहु (८२) महाग्रह (८३) भावग्रह (८४) मंगल (८५) शनिश्चर (८६) बुध (८७) शुक्र और (८८) वृहस्पति ऐसे अठासी ग्रह हैं। प्रहाईस नक्षत्रों के नाम - (१) कृतिका, (२) रोहिणी, (३) मृगशिर, (४) आर्द्रा, (५) पुनर्वसु, (६) पुष्य, (७) अश्लेषा, (८) मघा, (६) पूर्वाफाल्गुनी, (१०) उत्तराफाल्गुणी, (११) हस्त, (१२) चित्रा, (१३) स्वाति, (१४) विशाखा, (१५) अनुराधा, (१६) ज्येष्टा, (१७) मूल, (१८) पूर्वाषाढ़, (१६) उत्तराषाढ़, (२०) अभिजित, (२१) श्रवण, (२२) धनिष्टा, (२३) शतभिषा, (२४) पूर्वाभाद्रपद, (२५) उत्तराभाद्रपद, (२६) रेवती, (२७) अश्वनो मोर, (२८) भरणी-इस प्रकार अट्ठाईस नक्षत्र हैं। अट्ठाईस नक्षत्रों के अधिदेवता (१) अग्नि, (२) प्रजापति, (३) सोम, (४) रुद्र, (५) दिति, (६) देवयंत्री, (७) सूर्य, (E) पिता, (६) भाग, (१०) अर्यमा, (११) दिनकर, (१२) त्वष्टा, (१३) अनिल. (१४) इंद्राग्नि, (१५) मित्र. (१६) रुद्र, (१७) नैऋत्य, (१८) जल, (१६) विश्व, (२०) ब्रह्मा, (२१) विष्ण, (२२) वसु. (२३) वरुण, (२४) अज, (२५) अभिवृद्धि, (२६) पूषा, (२७) प्रश्व और, (२८) यम-ये क्रमशः अट्ठाईस कृतिका आदि नक्षत्रों के अधिदेवता अर्थात् स्वामी हैं। कृतिका आदि नक्षत्रों के तारे क्रमशः (१) छह, (२) पाँच, (३) तीन, (४) एक, (५) छह, (६) तीन, (७) छह, (८) चार, (९) दो, (१०) दो, (११) पाँच, (१२) एक, (१३) एक, (१४) चार, (१५) छह, (१६) तीन, (१७) नौ, (१५) चार, (१६) चार, (२०) तीन, (२१) तीन, (२२) पांच, (२३) एक सौ ग्यारह. (२४) दो, (२५) दो. (२६) बत्तीस, (२७) पांच (२८) तीन होते हैं। कृतिका प्रादि नक्षत्रों के तारे क्रमशः इस-इस आकार वाले होते हैं :-(१) वोजना (२) गाडे की. उद्धिका, (३) हिरण का मस्तक, (४) दीपक, (५) छत्र, (६) तोरण, (७) बांबी, (८) गौमत्रवत मोडे बाले, (९) शर का युगल, (१०) हाथ (११) कमल, (१२) दीपक, (१३) अहिरण, (१४) उत्कृष्ट हार, (१५) वीणा का श्रृंग, (१६) बिच्छू, (१७) जीर्ण बाबड़ी (१८) सिंह का कुभस्थल, (१९) हस्ती का कभंस्थल, (२०) मृदंग, (२१) आकाश से गिरता हुमा पक्षी, (२२) सेना, (२३) हस्ती का प्रलगा शरीर, (२४) हस्ती का पिछला शरीर, (२५) नाच, (२६) घोड़े का मस्तक, (२७) चन्द्रमा (२८) पाषाण के समान प्राकार वाले होते हैं। Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार ग्रंप प्रागे कृतिका प्रादि नक्षत्रों के परिवार रूप तारों का प्रमाण कहते हैं कृतिका आदि नक्षत्रों के मूल तारों को एक हजार एक सौ ग्यारह से गुणा करने पर जो संख्या हो वह कृतिका प्रादि नक्षत्रों के परिवार रूप तारों को संख्या होती है जैसे कृतिका नक्षत्र के मूल तारे छह हैं उस की संख्या को एक हजार एक सौ ग्यारह से गुणा करने पर छह हजार छह सौ छयासठ कृत्रिका नक्षत्र के परिवार रूप तारों की संख्या हुई। इसी प्रकार अन्य नक्षत्रों के परिवार रूप तारों की संख्या होती है । एक चन्द्रमा के परिवार रूप समस्त तारे छयासठ हजार नौ सौ पिचहत्तर हैं अर्थात् एक चन्द्रमा सम्बन्धी एक सूर्य प्रठासो ग्रह, अठाईस नक्षत्र और छयासठ हजार नौ सो पिचहत्तर कोड़ा-कोड़ी तारे हैं । यह सब एक चन्द्रमा का परिवार है । इतना-इतना ही सब चन्द्रमा चाहिए । इनमें चन्द्रमा इन्द्र और सूर्य प्रत्येन्द्र होता है। जम्बूद्वीप में दो चन्द्र हैं और दो ही सूर्य हैं. एक सौ पिचहत्तर ग्रह, छप्पन नक्षत्र और एक लाख तेंतीस हजार नौ सौ पचास कोडाकोड़ी तारे जम्बूद्वीप में होते हैं । इनको एक सौ नब्बे का भाग देने पर जो प्रमाण हो उसको भरत आदि क्षेत्र वा क लाचलों की -एक से दुगनी शलाका जो विदेह पर्यत है और पश्चात् माधी-पाधी है से गुणा करने पर भरत आदि क्षेत्र वा हिमवन् प्रादि कुलाचलों के नारों का प्रमाण होता है। भरत क्षेत्र की एक शलाका, हिमवन् कुलाचल की दो शलाका, हैमबत् क्षेत्र की चार शलाका ऐसे क्रमशः द्विगुण-द्विगुण बढ़ते हुए विदेह में चौसठ शलाका हैं पश्चात् प्राधी-प्राधी हैं । इन शलाकामों से तारागणों की एक सौ नब्बे द्वारा विभाजित संख्या को गुणन करने से क्रमशः भरत क्षेत्र में सात सौ पांच कोड़ा-कोड़ी, हिमवन् पर्वत पर चौदह सौ दस कोड़ा-कोड़ी, महाहिमवान् पर्वत पर छप्पन सौ चालीस कोड़ा-कोड़ी, हरि क्षेत्र में ग्यारह हजार दो सौ अस्सी कोड़ा-कोड़ी, निषिधपर्वत पर बाईस हजार पांच सौ चालीस कोड़ा-कोड़ी, विदेह क्षेत्र में पैंतालीस हजार एक सौ बीस कोड़ा-कोडी, नील पर्वत पर बाईस हजार पाँच सौ साठ कोड़ा-कोड़ी, रम्यक क्षेत्र में ग्यारह हजार दो सौ अस्सी कोड़ा-कोड़ी, रुक्मि पर्वत पर छप्पन सौ चालीस कोड़ा-कोड़ी, हैरण्यवत् क्षेत्र में अट्ठाईस सौ बीस कोड़ा-कोड़ी, शिखरी पर्वत पर चौदह सौ दस कोड़ा-कोड़ी, ऐरावत क्षेत्र में सात सौ पाँच कोड़ा-कोड़ी तारे जानने चाहिए। ये सब ज्योतिष देव मेरु पर्वत से ग्यारह सौ इक्कीस योजन परे-परे प्रदक्षिणा रूप निरन्तर गमन करते रहते हैं। उनके गमन से समय विभाग अर्थात् घड़ी, पल, दिन, रात्रि आदि का व्यवहार सूचित होता है और उनकी चाल पर गणित करने से प्राणियों के सुख दुःख का बोध करते हैं। मनुष्य लोक के अर्थात् मढ़ाई द्वीप और दो समुद्रों के चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र आदि पांच प्रकार ज्योतिष देव तो मेरु की प्रदक्षिणा रूप गमन करते हैं और मनुष्य लोक के बाहर जो चन्द्रमा, सूर्य, आदि जो ज्योतिष देव हैं वे गमन नहीं करते अर्थात जहाँ के तहौ स्थित रहते हैं। अढाई द्वीप में भी बहत से तारे ऐसे हैं जो गमन नहीं करते अर्थात् जहाँ के तहाँ स्थित रहते हैं ! इसी कारण उन्हें ध्रुवतारे कहते है । जो ध्रुवतारे जम्बूद्वीप में छत्तीस, लवण समुद्र में एक सौ उनतालीस, धातको खंड द्वीप में एक हजार दस, कालोदक समुद्र में इकतालीस हजार एक सौ बीस और पुष्कराई ढोप में तरेपन हजार दो सौ तीस हैं। जम्बू द्वीप में दो लवणसमुद्र में चार, धातकी खंड द्वीप में बारह, कालोदक समुद्र में बयालीस, पुष्कर द्वीप में बहत्तर चन्द्रमा और इतने ही सूर्य हैं। ___ यहाँ तक पढ़ाई द्वीप है । मानुषोत्तर पर्वत से परे पर्द्ध पुष्कर भाग में एक हजार दो सौ चौसठ चन्द्र हैं और पुष्कर समुद्र में ग्यारह हजार दो सौ चन्द्र हैं उससे आगे-आगे से समुद्र से चोगुणे समुद्रों में Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार ग्रंथ और द्वीप से चौगुणे द्वीपों में चन्द्र और सूर्य जानने चाहिए इसी प्रकार प्रसंख्यात द्वीप समुद्र तक जानना चाहिए जिन सानु में जितने ज्योतिष देव है उनमें प्राधे ज्योतिष देव हैं उनमें प्राधे ज्योतिष देव तो एक भाग में और प्राधे एक भाग में गमन करते हैं। आगे पंच प्रकार ज्योतिष देवों की प्राय का प्रमाण कहते हैं-चन्द्रमा की आयु एक लाख वर्ष सहित पल्योपम प्रमाण है, सूर्य की हजार वर्ष सहित पल्प प्रमाण, शुक्र की सौ वर्ष सहित पल्य प्रमाण, गुरु की पौण पल्य, ग्रहों की माघ पल्य, प्रकीर्णक तारे योर नक्षत्रों की उत्कृष्ट प्रायु पल्प का चतुर्थांश और जघन्य आयु पल्योपम का प्रष्टमांश होती है । चन्द्रमा के चद्राभा, सुसीमा, प्रभंकरा, और प्रार्यमालिनी-ये चार देवागनाएं और सूर्य के युति, सूर्यप्रभा, प्रभंकरा अनिमालिनी-ये चार पट देवागनाए हैं। ये एक-एक पट देवांगना चार-पार हजार परिवार पेवी सहित हैं और यदि एक-एक पर देवांगना विक्रिया करे तो अपनी-अपनी परिवार देवियों की संख्या के समान अर्थात् चार चार हजार देवांगनारूप हो जाती है। सबसे निकृष्ट देबों के न्यून से न्यून बत्तोस देवांगनाएं होती हैं । मध्य के देवों में यथायोग्य जानना चाहिए। समस्त ज्योतिष देवनांगनाओं को प्रायु अपने स्वामियों से भी प्रमाण होती हैं। ग्रहों के पाठ हजार, नक्षत्रों के बार-चार हजार और तारों के दो दो हजार देवांगनाएं होती हैं । समस्त ज्योतिष देवों का काय प्रमाण सात हाथ और साढ़े बारह दिन बीतने पर उच्छवास नथा पाहार होता है। प्रागे भवन त्रिकों से उत्पन्न होने वाले जीवों का वर्णन करते हैं--उन्मार्गचारी, जिनोपदिष्ट मार्ग से विपरीत पाचरण करने वाले, निदान बंध करने वाले, अग्नि जल पात आदि से प्राण विसर्जन करने वाले, प्रकाम निर्जरा, बालतप तथा पंचाग्नि तप तपने वाले, सदोष चारित्री जीव भवनत्रिक प्रयात् भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवों में उत्पन्न होते हैं । इन भवनत्रिक देवों के मादि की पीतलेश्या तक अर्थात् कृष्ण, नील कापोत और पीत ये चार लेश्यायें होती हैं । परिणामों की उत्कृष्ट विशुद्धता न होने से पद और शुक्ल ये दो लेश्यायें नहीं होती हैं । अब यहाँ प्रसंगवश लेश्याओं का लक्षण, स्वरूप तथा दृष्टांत द्वारा कर्मों को कहते हैं जिसके द्वारा आत्मा स्वयं पुण्य पाप को स्वीकार करता है उसे लेश्या कहते हैं भावार्थ-योग प्रवृति और कषाय के संयोग को लेश्या कहते हैं और लेश्या तथा कपाय से ही बंध चतुष्ट होता है । शुभ योग तथा मंद कषाय से शुभ रूप पुण्य प्रकृतियों का मोर अशुभ तथा तीन कषाय से पाप रूप अशुभ प्रकृतियों का प्रास्रव होता है तथा बंध होता है । इसी कारण जिसके द्वारा मात्मा अपने आपको पुण्य पाप से लिप्त करते हैं उसे लेश्या कहते हैं -ऐसा कहा है । वह लेश्या दो प्रकार की है । एक द्रव्य लेदया और दूसरी भाव लेश्या। वणं नामकर्म के उदय से जो शरीर का श्वेत, कृष्ण प्रादि वर्ण होता है उसे द्रव्य लेश्या कहते हैं। यह बाल लेश्या मात्मा की कुछ अपकारक व उपकारक नहीं होती है । कषायों से अनुरंजित योगों की प्रवृति को भाव लेण्या कहते हैं । इसी लेश्या के द्वारा समस्त संसारी जीव शुभाशुभ कर्म ग्रहण करते हैं । ये दोनों ही प्रकार की लेश्यायें कृष्ण लेश्या, नील लेश्या, कापोत लेश्या,पीत लेश्या, पद्य लेश्या और शुक्ल लेश्या-ऐसे छह प्रकार की होती हैं तथा प्रत्येक के उत्तर भेद अनेक हैं । वर्ण को अपेक्षा से भ्रमर के समान कृष्ण लेश्या, नोल मणि (नीलम) के समान नील लेश्या, कबूतर के समान कापोत लेश्या, सुवर्ण के समान पीत लेश कमल के समान, पद्म लेश्या और शंख के समान शुक्ल लेश्या होती है। मागे किस गति में कौनसी लेश्या होती है उसका वृतान्त कहते हैं Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार म नरक में सम्पूर्ण नारकी कृष्णवर्ण होते हैं 1 कल्पवासी देवों के देवों के द्रव्य लेश्या (शरीरका वर्ण) भाव लेश्या के सदृश होता है । भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिपी, मनुष्य और तिर्यन्चों के कृष्ण प्रादि छहों द्रव्य लेश्या होती हैं तथा विक्रिया शक्ति से प्रादुर्भूत शरीर का वर्ण भी छहों में से किसी प्रकार का होता है । उत्तम भोगभूमि वालों का सूर्य समान, मध्य भोग भूमि वालों का चन्द्र समान और जघन्य भोगभूमि वालों का हरित वर्ण शरीर होता है । बादर जलकाधिक के शुक्ल और बादर तेजकायिक के पीत द्रव्य लेश्या होती है । वायुकाय के तीन भेद हैं ३५६ घनोदधिवात, घनवात और तनुवात प्रथम का शरीर गो मूत्र वर्णवत्, दूसरे का शरीर मूंग समान और तीसरे के शरीर का वर्ण अव्यक्त है । सम्पूर्ण सूक्ष्म जीवों का तथा अपनी प्राप्ति के प्रारम्भ समय से शरीर पर्याप्ति पर्यन्त समस्त जीवों का शरीर नियम से कापोत वर्ण का होता है । विग्रहगति में संपूर्ण जीवों का शरीर शुक्ल वर्ण का होता है । षट् लेश्याओं के लक्षण - अब षट् लेश्यापों के लक्षण कहते हैं जो जीव श्रनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ कषायों सहित, द्वेषरूपी ग्रह से घिरा हुआ, लड़ाई के स्वभाव वाला. अधर्मी, निर्दयी और कठोर चित्त हो, दुराग्रही हो उसके कृष्ण लेश्या समझनी चाहिए । १ । जो काम करने में मंद हो अथवा स्वच्छन्द हो, वर्तमान कार्य करने में विवेक रहित हो, कला चातुर्य रहित मूर्ख हो, स्पर्शन आदि पंचेन्द्रियों के विषय सेवन करने में लम्पट हो, क्रोधी, मानी, लोभी और मायाधारी हो, आलसी हो, रागी द्वेषी, मोही, शोकी, क्रूर, भयंकर, प्रति निद्रालु और दूसरों को ठगने में प्रति दक्ष हो, कृत्य श्रकृत्य का विचार न करने वाला, धन-धान्य आदि अधिक परिग्रह रखने वाला और अधिक प्रारम्भ करने वाला हो उसे नील लेश्यावाला समझना चाहिए । २ । जो क्रोध, शोक, भय, मत्सरता, असूया, परनिन्दा श्रादि करने में तत्पर, सदा अपनी प्रशंसा करने वाला, दूसरों के मुख से अपनी प्रशंसा सुनकर हर्ष मानने वाला, अनेक प्रकार से दूसरों को दुःख देने अथवा दूसरों से बैर करने वाला, अपने हानि, लाभ को न समझने वाला, दूसरों के ऐश्वर्यं आदि को न सहन करने वाला, दूसरे का तिरस्कार और अपकीति चाहने वाला, युद्ध में मरने तक की इच्छा करने वाला, अहंकार रूपी ग्रह से घिरा हुआ, इच्छानुसार सब क्रियाओं को करने वाला, प्रशंसा करने पर सदा देने वाला और अपने कार्य प्रकार्य की कुछ भी गणना न करने वाला हो उसे कापोत लेश्या वाला समझना चाहिए | ३ | जो पक्षपात रहित सबको समान देखने वाला (समदर्शी) द्वेष रहित हित और ग्रहित का विचार करने वाला, कृत्य व अकृत्य, सेव्य व अनुपसेव्य को समझने वाला, दयालु, दानदाता, सत्कार्यों में तत्पर और उदार चित्त वाला, कोमल परिणामी हो उसे पीत लेश्या वाला समझना चाहिए | ४ | जो याचार और मन से शुद्ध, दान देने में तत्पर, शुभ चितवन करने वाला, भद्र परि णामी, विनयवान्, सत्कार्य श्रीर सज्जन पुरुषों के सत्कार करने में सदा तत्पर, क्षमावान्, न्याय पथ पर चलने वाला, प्रिय वचन वक्ता और मुनि, गुरु आदि की पूजा में प्रीति युक्त हो उसे पच लेश्या वाला समझना चाहिए । ५ । जो निदानरहित, पक्षपात रहित, अहंकार रहित, राग और द्वेष से परान्मुख, स्नेह रहित, और सब जीवों में समदर्शी हो उसे शुक्ल लेश्या वाला समझना चाहिए। ६ । Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार प्रथ सारांश यह है कि शरीर धारी जीवों के जो तीन परिणाम हैं उन्हें कापोन लेश्या, उनसे भी अधिक तीन परिणामों को नील लेश्या तथा सबसे तीव्र परिणामों को कृष्ण लेझ्या समझना चाहिए । इसी प्रकार मंद परिणामों को पीत लेश्या, उनसे भी मंद परिणामों को पन लेश्या और सबसे अधिक मंद परिणामों को शुक्ल लेश्या रामझना चाहिए। ये लेश्याय प्रशस्त और प्रशस्त भेद से दो प्रकार की हैं। इनमें से आदि को कृ ण, नौल और कायोत तीन लेश्या प्रशसा हैं । इनका फल निष्कृष्ट है । ये संसार परिभ्रमण को कारण और नरक तिर्थच गति की मूल हैं और अन्त की पीत, पद्म तथा शुक्ल-. ये तीन प्रशस्त्र लेख्यायें हैं इनका फल उत्तम है । ये सर्व मोक्ष सुख की मूलक हैं । जब पारमा के उत्तरोसर संक्लेश परिणामों की वृद्धि होती है । तब यह अात्मा बामशः कापोत, नील, कृष्ण. इन तीन अप्रशम्न लेश्यानों के जघन्य तीव्र) मध्यम तीव्रतर) और उनम (लीनतम) अंशों को प्राप्त होता चला जाता है और जब उत्तरोत्तर विशुद्ध परिणामों बो वृद्धि होती है तब यह प्रात्मा पीन, पद्म शुक्ल इन तीन लेश्यागों के मंच, मंदतर धार मंदतम अंशों को प्राप्त होता चला जाता है। इन छहों लेश्या वालो के ज उनका ऐसा दृष्टांन जानना चाहिए। कृष्ण प्रादि छहों लेश्या वाले छह पुरुप देशानर को गमन कर रहे थे तो उन्होंने मार्ग में भ्रष्ट होकर वन में प्रवेश किया। वहाँ फलों से पूर्ण किसी एक वृक्ष को देखकर उसके फल भक्षण करने का उपाय अपनी-अपनी लेश्या के अनुसार चितवन करने लगे और अपने-अपने मन के विचारानुमार वचन कहने लगे कृष्ण लेश्या बाला बिचारने लगा और कहने लगा-मैं इस वृक्ष को मूल से उखाड़कर पृथ्वी में पटक के इसके फलों का भक्षण करूगा, नील लेश्या वाला विचारने लगा और कहने लगा-मैं इस वक्ष को स्कंद से काटकर इसके फल खाऊँगा। पीत लेश्या वाला विचारने लगा और कहने लगा मैं इस वक्ष की बड़ी-बड़ी शालाओं को काटकर इसके फलों को खाऊँगा, पीत लेश्यावाला विचारने लगा और कहने लगा-मैं इस वृक्ष की छोटी-छोटी शाखाओं को काटकर इसके फलों को ख़ाऊँगा । पद्म नेश्या बाला विचारने लगा और कहने लगा . में शाखा ग्रादि को न तोड़कर इस वृक्ष के फलों को तोड़कर साऊंगा। शुक्ल लेश्या वाला विचारने लगा तथा कहने लगा-मैं इस वक्ष को वाधा न पहं वाकर वृक्ष से स्वय टूटकर पड़े हुए फलों को उठाकर खाऊँगा। इस प्रकार जो मन पूर्वक बचन आदि की प्रवृत्ति होती है उसे लेश्या का कम वा कार्य कहते हैं। यहाँ पर यह एक केवल दृष्टान्त दिया गया है अतएव इसी प्रकार से अन्यत्र भी समझना चाहिए। प्रब किस-२ गुणस्थान में कौन-2 सी लेश्या होती हैं यह लिखते हैं चतुर्थ गुणस्थान पर्यंत अर्थात् प्रथम के चार गुणस्थानों में प्रत्येक में छह-छह लेश्या हैं। प्रागे के देशविरत, प्रमत्त, विरत और अप्रमत्त विरत इन तीन गणस्थानों में पीत. पद्म और शक्ल शुक्ल ये तीन लेश्या होती हैं। सात से प्रागे के छह गुणस्थानों में अर्थात् अपूर्वकरण से लेकर सयोगकेवली पर्यन्त केवल एक शुक्ल लेश्या ही होती है और अन्त के पायोग केवली गुणस्थान में लेश्या का सर्वथा प्रभाव हैं। प्रकपाय जीवों के जो लेश्या बतलाई है केवल योग के सद्भावापेक्षा कही है। इति लेश्या वर्णनम् । अथ बैमानिक देव वर्णन :बैमानिक देवों के कल्पोपपन्न व कल्पातीत ऐसे दो भेद हैं जिनमें इन्द्र यादि दश प्रकार के देवों को कल्पना है ऐसे सोलह स्वर्गों को कल्प और उनमें रहने वालों को कल्पवासी (कल्पोपपन्न ) कहते हैं। Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार ग्रंथ जिनमें इंद्रादिकों की कल्पना नहीं है ऐसे ग्रंवेयन आदि देवों को अपने अपने विषय में दूसरों की अपेक्षा न रखने से अहमिन्द्र कहते हैं। जिनमें से प्रथम कल्प जो स्वर्ग है उनके नाम कहते हैं । वे कल्प संज्ञापेक्षा १. सौधर्म, २. ईशान, ३. सनत्कुमार ४. माहेन्द्र, ५. ब्रह्म, ६. ब्रह्मोत्तर, ७. लांतव, पापिष्ट... शुक्र, १०. महाशुक ११. लतार, १२. सहस्रार १३. मानत १४. प्राणत १५. पारण और १. अच्यूत-इस प्रकार साल है। इन नालहो के जैसे सोधम १और ईशान का युगल एक-२ और दारा सनत्कुमार तथा माहेंद्र का गुगल दूसरा-ऐसे दो-दो स्वर्गा के क्रमशः उपरोपरि माठ युगल हैं। प्रागे इनके ऊपर स्थित काल्पातील विमानों के नाम कहते हैं आठ युगलों के ऊपर क्रमशः अधस्तन, मध्यम गौर उपरिम नामक नव वेयकों के तीन-नोन पिक, नव अनुदिश विमान हैं। इनमें रहने वाला प्रत्येक देव इन्द्र के समान मुख के भोगता होने से ग्रहमिन्द्र कहलाते हैं । अागे नव अनुदिश और पंचान्तरों के विमानों के नाम कहते हैं। चि. चिमालिनी, वैर पीर वैरोचन--ये चार विमान तो क्रमशः पूर्व, दक्षिण, पश्चिमोत्तर और सोम. सोमम्प, ग्रंक तथा रफटिक-ये चार प्रकीर्णक विमान विदिशाओं में और मादित्य स्तक विमान मध्य में ऐसे नव प्रनुदि विमान हैं । विजय, वैजन्त, जयन्त तथा अपराजित-ये चार अंणीवद्ध विमान पूर्वादि दिशानी में पीर सायसिद्धि नामक विमान मध्य में ऐसे पांच अनत्तर विमान हैं। इस प्रकार कहे हुए कल्प और नालातीत विमान के स्थिति स्थान को कहते हैं। दम चिया पृथ्वी से एक लाख योजन ऊँचा तो सुमेरु पर्वत है। मुमेरु पर्वत की चूलिका मेनाभिगिरि (मेरुपर्वत) की उन्नतता विहीन डेढ़ राजू की ऊँचाई तक सौधर्म और ईशान युगल है। सौधर्म, ईशान युगल से उदराजूनी ऊचाई तक सनत्कुमार, माहेंद्र युगल है। सनत्कुमार, माहेन्द्र युगल के ऊपर ब्रह्म--ब्रह्मोत्तर १. लागब-कपिष्ट . शुक्र-महाशुक्र ३. सतार-सहस्त्रार ४. प्रानत--प्राणत पारण.-अच्यत ६- छह युगल क्रमशः प्राध-प्राधं राजू में हैं । इस प्रकार आठों युगल छह राज में उनके पर सातबंयोजन के आदि में नव गवयक, मध्य में नव अनुदिश और अन्त में पंचानत्तर विमान हैं। अब आगे सौधर्म आदि कल्प और | वेयक आदि कल्पातीतों के विमानों की संख्या कहते हैं .. सौधर्म स्वर्ग में बत्तीस लाख, ईशान स्वग में अठाईस लाख, सनत्कुमार में बारह लाख, माहेन्द्र में ग्राउ लाख. ब्रह्म ग्रह्मास्तर युगल म चार लाख, लतिष और कापिष्ट युगल में पचास हजार, शुक्र, महाशक में चालीस हजार, सतार, सहस्त्रार युगल में छह हजार, ग्रानत,प्राणत, पारण और अभ्यत -इनमें सात सौ विसाल है। इस प्रकार सोलह स्वगों में समस्त चौरासी लाख, छयाणवे हजार, सात सौ विमान हैं। मागे इनके ऊपर वेयक के अधस्तम त्रिक में एक सौ ग्यारह, मध्यम त्रिक में एक सौ सात, उपरिकनिक में नाणावें अदिश में नव और अनुतर म पाँच विमान जानने चाहिए। इस प्रकर कल्पातीतों के विमानों का संकलन करने पर समस्तचौरासी लाख, सत्ताणवे हजार तेईस विमान हैं इन सब विमानों में एक-एक जिन मंदिर है इस कारण इतने ही चबालय हैं उन सब में उत्कृष्ट प्रवगाहना परिमित जिन प्रतिमा विराजमान हैं उन सबको त्रिकरण शुद्धतापूर्वक मेरा बारम्बार नमस्कर हो । आगे कल्प और कल्पातीतों की पटल संख्य कहते हैं सौधर्म ईशान युगल में (१) ऋजु, (२) विमल, (३) चन्द्र, (४) वल्गु, (५) वीर, (क) अरुण, (७) नन्द, (८) नलिन, (कांचन, (१०) रोहित, (११) चंचत, (१२) मरुत, (१३) उद्वाश (१४) वंडर्य, (१५) रुचक, (१६) रूचि, (१७) प्रक, (१८) स्फनिक, (१९)तपनीय, (२०) मेघ, (२)ब, Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार ग्रंथ ሃያ (२२) हरिद्र, (२३) पप, (२४) लोहित, (२६) नंद्यावर्त, (२७) प्रभंकर, (२८) पृथक् (२९) गज, (३०) मित्र और (३१) प्रभ-नाम के धारक इकतीस पटल है । सनत्कुमार माहेन्द्र युगल में (१) अंजन, (२) बनमाल (३) नाग, (४) गरुड़ । ५) लांगल, (६) बलभद्र और (७) चक्र नाम के धारक सात पटल हैं। ब्रह्म ब्रह्मोसर युगल में अरिष्ट, सुरक, ब्रह्म और ब्रह्मोत्तर नाम के चार पटल हैं। लांतव और कापिष्ट युगल में ब्रह्महृदय और लांतब नाम के दो पटल हैं । शुक्र, महाशुक्र युगल में शुक्र नामक एक ही पटल है। सतार और सहस्त्रार युगल में सतार नामक एक ही पटल है । आनत, प्राणत युगला में पाना प्राणत और पुष्कर नामक तीन पटल है। पारण, अच्यूत यूगल में सातक, प्रारण और प्रयुक्त नामक तीन पटल हैं। इस प्रकार पाठ युगलों के बावन पटल हैं। इनके ऊपर ग्रेवेयक के तीन त्रिकों के सुदर्शन, प्रमोध, सुप्रबुध, यशोधर, सुभद्र, सुविशाल, सुमनस, सौमनस और प्रीतिकर—ये नव पटल हैं। नव अनुदिशों का एक आदित्य नामक एक पटल है । अन्त के पंत्रानुत्तरों में सर्वार्थसिद्धि नामक एक अन्तिम पटल है । इस प्रकार समस्त तरेसठ पटल हैं।। सूदर्शन मेरू की चुलिका के ऊपर बालाग्न प्रमाण अन्तराल छोड़कर तो पहला ऋजक नामक इन्द्रक पटल है। तदपरि मध्य में असंख्यात योजन प्रमाण अन्तराल छोडकर द्वितीय पटल है। सो प्रकार ऊपरोपरि मध्य में असंख्यात योजन अन्तराल छोड़कर तरेसठ पटल स्थित हैं । अन्त का सर्वार्थ सिद्धि नामक पटल सिद्धक्षेत्र से बारह योजन नीचे है। प्रत्येक पटल के मध्य में जो एक विमान होता है उसको इन्द्रक विमान कहते हैं सो मेरू पर्वत पर तो ऋजुक नामक इन्द्रक विमान है। इस ऋजक नामक इन्द्रक विमान की सीध में ऊपर ऊपर वाले प्रत्येक पटलों में एक एक दन्द्रक विमान होता है। पटलों के नाम के अनुसार ही इन्द्रक बिमानों के नाम हैं। इन इन्द्रक विमानों को पूर्व पश्चिमोत्तर दक्षिण दिशाओं में जो पंक्ति बद्ध विमान होते हैं उन्हें श्रेणीवद्ध विमान कहते हैं। उन श्रेणीबद्ध विमानों के मध्य के अन्तराल में विदिशाओं में पक्ति रहित जहां तहाँ फैले हुए विखरे हुए वर्षा किए पुष्पोंवत जो होते हैं उन्हें प्रकीर्णक विमान कहते हैं। प्रथम पटल के ऋजुक नामक इन्द्रक पटल की चारों दिशामों में बासठ बासठ श्रेणीबद्ध विमान हैं अतः चारों दिशाओं के समस्त दो सौ अड़तालीस श्रेणीबद्ध विमान हुए। आगे आगे के द्वितीयादि पटलों के इन्द्रकों की प्रत्येक दिशानों में एक एक श्रेणीबस विमान हीन होने से प्रत्येक पटल में चार चार विमान श्रेणीवद्ध न्यून होते चले गये हैं। यहां तक कि बासठवें पटल (नव अनुदिश) में चारों दिशाओं में एक एक अर्थात समस्त चार धणीबद्ध विमान हैं। इन श्रेणीबद्ध विमानों के अन्तराल में पंक्ति रहित जहां तहाँ फैले हुए तारोंवत प्रकीर्णक विमान होते हैं। ये प्रकीर्णक विमान संख्या में प्रत्येक कल्प के श्रेणीबद्ध व इन्द्रकों के संकलन को कल्प के समस्त विमान प्रमाण में घटा देने से जो अबशेष रहे उतने ही जानने चाहिए। जैसे सौधर्म स्वर्ग में समस्त बत्तीस लाख विमान हैं। पूर्व दक्षिण पश्चिम -ये तीन दिशा और नैऋत्य, प्राग्नेय विदिशा के श्रेणीबद्ध तथा प्रकीर्णक और इन्द्रकों पर तो दक्षिणेन्द्र की आज्ञा होती है और उत्तर दिशा वायव्य, ईशान विदिशाभों क श्रेणीबद्ध तथा प्रकीर्णक विमानों पर उत्तरेन्द्र की याज्ञा होती है। जिन विमानों पर दक्षिणेन्द्र की भाशा होती है उन विमानों के समुदाय को सौधर्म स्वर्ग और जिन विमानों पर उत्तरेन्द्र की माशा होती है उनके समुदाय को ईशान स्वर्ग कहते हैं जिस प्रकार प्रायः यहाँ पर भी अपने स्वामी के नाम की अपेक्षा बहुत से नगर व ग्रामों के तत्सदृश नाम होते हैं। सनत्कु Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार ग्रंथ मार माहेन्द्र प्रान्त प्राणत और आरण- अच्युत इन युगलों में पूर्वोक्तवत विधान जानना चाहिए और जिन कल्प युगलों में एक एक ही इन्द्र हैं ऐसे जो ब्रह्म - ब्रह्मोत्तर १. लौव कापिष्ट २. शुक्र-महाशुक्र ३. श्रीर सतार - सहस्वार ४ इन चार युगलों में वसती की अपेक्षा से दो नाम हैं जिस प्रकार यहाँ पर नगर का एक स्वामी होते हुए बसतियों के अलग अलग नाथ होते हैं । उनमें पूर्व दक्षिण और पश्चिम दिशाथों के इकतीस पटलों के चार हजार चार सौ दो श्रणीबद्ध विमान और इकतीस पटलों के इतने ही इन्द्रक विमान - दोनों के संकलन चार सौ दो को तीन हजार परिमित विमान संख्या में से घटाने पर सत्ताईस हजार पांच सौ अठ्ठानवें अवशेष रहें वह भी प्रकीर्णक विमानों की संख्या है इसी प्रकार अन्य कल्पों में जानना चाहिए | श्रागे इन्द्रक आदि विमानों का विस्तार कहते हैं- ३६० इन्द्र विमान सर्वे संस्थात योजन श्रेणीबद्ध समस्त असंख्यात योजन और प्रकीर्णक विमान उभय प्रमाण वाले हैं अर्थात कितने ही संख्यात योजन प्रमाण और कितने ही श्रसंख्यात योजन प्रमाण विस्तार वाले हैं। इसका खुलासा इस प्रकार है प्रत्येक कल्प के विमानों की जो संख्या है उस संख्या के पाँचवे भाग प्रमाण संख्यात योजन विस्तार वाले और चार प्रमाण असंख्यात योजन विस्तार वाले हैं । जैसे सौधर्म स्वर्ग में बत्तीस लाख विमान हैं तो बत्तीस लाख का पाँचवा भाग छः लाख चालीस हजार इतने तो संख्यात योजन विस्तार वाले और अवशेष चार भाग पच्चीस लाख साठ हजार विमान असंख्यात योजन विस्तार वाले हैं। अन्य कल्पों में भी इसी प्रकार जानना चाहिए। कल्पोपरि कल्पातीतों में धो वेयकों में तीन, मध्यम वेधक मे अठारह, उपरिम ग्रैवेयक में सत्र है, नव अनुत्तरों में एक, पंचनुत्तरों में एक विमान सख्यात योजन विस्तार वाले हैं। आगे विमानों की भूमि को बाहुल्यता कहते हैं । सौधर्म युगल के विमानों का तल अर्थात भूमियों की मोटाई एक हजार एक सौ इक्कीस योजन, सनत्कुमार माहेन्द्र का एक हजार बाईस योजन, ब्रह्म ब्रह्मोत्तर का नो सौ तेईस योजन, लाँतव कापिष्ट का श्रासौ चीत्रीस योजन, शुक्र महाशुक्र का सात सौ पच्चीस योजन, सतार सहस्त्रार का छह सौ छब्बीस योजन, आनत प्राणत का पाँच सौ सत्ताईस योजन, आरंण अच्युत का भी पांच सौ सत्ताईस योजन, अधोग्रैवेयक का चार सौ अठ्ठाईस योजन, मध्यम ग्रैवेयक का तीन सौ उनतीस योजन, उर्ध्वं वेक का दो सौ तीस योजन, नव अनुदिश का एक सौ इकतीस योजन और पंचानुत्तर की एक सौ इकतीस योजन, प्रमाण मोटी भूमि है। इन भूमियों के ऊपर ही नगर मंदिर आदि की रचना है। आगे सौधर्म ईशान के विमानों की रचना कहते हैं- सौधर्म - ईशान के विमान कृष्ण, नील, रक्त, पीत और श्वेत ऐसे पांचों वर्णों के, सनत्कुमार माहेन्द्र के कृष्ण कम चार वर्ण के, ब्रह्म ब्रह्मोत्तर श्रादि कल्ल चतुष्टय के कृष्ण, नील वर्जित तीन वर्ण के, शुक्र यादि कल्प चतुष्टय के कृष्ण, नील रक्त वजित दो वर्ण के और अवशेष मानत आदि पंचानुत्तर पयंत सर्व विमान शुक्ल वर्ण के हैं। आगे विमानों के अधिष्ठान को कहते हैं , सौधर्म युगल जल के सनत्कुमार युगल पवन के ब्रह्म ब्रह्मोत्तर प्रादि आठ कल्पों के विमान जल और पवन दोनों के और अवशेष श्रानत आदि पंचानुत्तर पर्यन्त के सब विमान केवल प्राकाश आधार पर स्थित हैं । मागे इन्द्र के निवास स्थान का वर्णन करते हैं-छह युगल के छह स्थान बोर अवशेष कल्प चतुष्टय का एक स्थान ऐसे सात स्थानों में अपने अपने युगल के अन्तिम पटल के इन्द्रक 1 Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार म १६१ विमान से लगते हुए श्रेणीबद्ध से अठारहवें श्रेणीवद्ध में तो सौधर्म युगल के युगलेन्द्र निवास करते हैं । वशेष दो इन्द्र भी दो दो श्रेणीबद्ध घटते हुए इसी प्रकार स्थित जानने चाहिए। इसका खुलासा इस प्रकार है कि सोधर्मं युगल के अन्तिम पटल के इन्द्रक विमान से लगते हुए श्रेणीबद्ध से थठारहवें श्रेणीबद्ध में दक्षिण के दक्षिणेन्द्र सोध और उत्तर के अठारहवें श्रणोबद्ध में उत्तरेन्द्र ईशान निवास करता है । सनत्कुमार युगल के अंतिम पटल के सोलहवें श्रेणीबद्ध में दक्षिण के दक्षिणेन्द्र सनत्कुमार धीर उत्तर के सोलहवें श्रेणीबद्ध में उत्तरेन्द्र माहेन्द्र निवास करता है। ब्रह्म युगल के अन्तिम पटल के atar दक्षिण श्रीबद्ध में ब्रह्मेन्द्र लाँतव युगल के अन्तिम पदल के बारहवें उत्तरेन्द्र के श्रेणीबद्ध में न्द्र शुक युगल के अन्तिम पटल के दशर्वे दक्षिण के श्रेणीबद्ध में शुक्रेद्र सतार युगल के अन्तिम पटल के आठवें उत्तर श्रेणीबद्ध में सतारेन्द्र, आनत युगल के अन्तिम पटल के छठे दक्षिण श्र ेणीबद्ध में आनतेन्द्र और उत्तर के पले श्रेणीबद्ध में पाणतेन्द्र धारण युगल के अन्तिम पटल के छठे दक्षिण श्रेणीबद्ध में आरणेन्द्र और उत्तर के श्रेणीबद्ध में अच्युतंन्द्र निवास करता है । जो इन्द्र का नाम होता है वह ही उसके कल्प का नाम और जो कल्प का नाम होता है वह ही इन्द्र स्थित (इन्द्र के रहने के ) विमान का नाम होता है। जैसे सोधमेन्द्र कल्प का नाम सोधर्म और उसके रहने के विमान का नाम सौधर्म विमान है - इसी प्रकार अन्यत्र जानना चाहिए। दक्षिण दिशास्थ इन्द्रों के विमानों के चारों पूर्वादि दिशाओं में रुचक, मंदर, अशोक, वैड्य, रजन, अशोक, मृषत्कसार नाम के सात विमान और उत्तर fata इन्द्रों के विमानों की पूर्व प्रादि चारों दिशाओं में रुचक, मंदर, अशोक और सप्तच्छद संज्ञक चार विमान होते हैं । सौधर्म स्वर्ग से लेकर सहस्त्रार पर्यन्त के बारह कल्पों और मानत तथा श्रारण युगलों देवों के मुकुटों में क्रम से – (१) सूर (२) हिरण (३) भैंसा (४) मांडला (५) चकवा (६) मैक (७) ग्रश्व (5) गज (६) चन्द्रमा (१०) सर्प (११) पङ्गी (१२) वा (१३) बैल और (१४) कल्प वृक्ष - ये चौदह चिन्ह होते हैं । श्रागे इन्द्र के नगर के विस्तार और संस्थान तथा प्राकारादि के उदय यादि का वर्णन लिखते हैं इन्द्रों के नगर का विस्तार सौधर्म स्वर्ग में चौरासी हजार, ईशान में अस्सी हजार, सनत्कुमार में बहत्तर हजार, माहेन्द्र में सत्तर हजार, ब्रह्म युगल में साठ हजार, लॉतव युगल में पचास हजार, शुक्र युगल में चालीस हजार, सतार युगल में तीस हजार, धानत आदि कल्प चतुष्ट्य में बीस हजार, योजन प्रमाण है । ये सब नगर सम चतुरस्त्र अर्थात जितने लम्बे हैं उतने ही चौड़े चौकोर हैं। और चारों तरफ प्राकार अर्थात कोट है । सौधर्म युगल के प्राकार का गाध (नीम ) पचास योजन, विस्तार पचास योजन श्री उदय तीन सौ योजन है। सनत्कुमार युगल के नगरों के प्राकार का गाध पच्चीस योजन विस्तार भी पच्चीस योजन और उदय अढ़ाई सौ योजन है। ब्रह्म युगल के नगरों के प्राकार का गाव व विस्तार साढ़े बारह बारह योजन और उदय दो सौ योजन है। लाँतव युगल के प्रकार का गाध व विस्तार सवा छह योजन और उदय एक सौ पचास योजन है। शुक्र युगल के प्राकार का गाध वविस्तार चार योजन और उदय एक सौ बीस योजन है । सतार युगल के प्राकार का गाव व विस्तार तीन तीन योजन और उदय सौ योजन हैं और मानत चतुष्क के प्राकार का गाध व विस्तार प्रढ़ाई पढ़ाई योजन और उदय अस्सी योजन प्रमाण हैं सौधर्म युगल के इन्द्र नगरों के प्राकारों की प्रत्येक दिशा में चार चार सौ गोपुर सौ योजन उदय और सौ योजन विस्तार वाले गोपुर अर्थात दरवाजे हैं । Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार ग्रंथ सनत्क मार युगल के इन्द्र नगरों के प्राकारों की प्रत्येक दिशा में तीन सौ योजन उदय और सो योजन विस्तार वाले तीन सौ गोपुर अर्थात दरवाजे हैं। ब्रह्म युगल के इन्द्र नगर के प्राकार के प्रत्येक दिशा में दो सौ योजन उदय और अस्सी योजन विस्तार बाले दो | लांतव नगर के इन्द्र नगर के प्राकार के प्रत्येक दिशा में एक सौ पाठ योजन उदय और सत्तर योजन विस्तार वाले एक सौ साठ गोपुर हैं। शुक्र युगल के इन्द्र नगर के प्राकार के प्रत्येक दिशा में एक सौ चालीस योजन उदय और योजन विस्तार वाले एक सौ चालीस गोपुर हैं। सतार युगल के इन्द्र स्थित नगर के प्राकार के दिशादिशा प्रति एक सौ बीस योजन उदय और चालीस योजन विस्तार बाले गोपुर हैं और पानत चतुष्क के इन्द्र स्थित नगरों के प्राकारों के दिशा-दिशा प्रति सौ योजन उदय और तीस योजन विस्तार वाले गोपुर हैं। आगे सामानिक प्रादि देवों की संख्या कहते हैं सौधर्म स्वर्ग में सामानिक चौरासी हजार, ईशान में अस्सी हजार, सनत्कुमार में बहत्तर हजार, माहेन्द्र में सत्तर हजार, ब्रह्म युगल में साठ हजार, लांतव युगल में पचास हजार, शुक्र युगल में चालीस हजार, सतार युगल में तीस हजार, और मानत आदि कल्प चतुष्क में बीस हजार सामानिक देव होते हैं। सामानिकों से चौगुणे अंगरक्षक होते हैं । वृषभ, घोड़ा, रथ, गज, पयादे, गंधर्व और नर्तकी ऐसे सात प्रकार पानीक हैं। प्रत्येक पानीक में सात-सात कक्ष हैं। वहां प्रत्येक कक्ष तो अपने अपने सामानिक देवों के प्रमाण के समान है अर्थात चौरासी हजार प्रादि जानना चाहिए और द्वितीय तृतीय श्रादि कक्षों में अन्तिम सप्तम कक्ष पर्यन्त प्रथम कक्ष से द्विगुण द्विगुण वृषभ प्रादि पानीकों का प्रमाण, जानना चाहिए। वृषभ आदि सेनाओं के कम से दागप्टि, हरिदामा, मातलि, ऐरावत, वायु और गरिष्टयशा-ये छह तो पुरुप वेदी और नर्तकियों में नीलांजना स्त्री प्रधान अर्थात महतर हैं । ये सौधर्म सनत्कुमार प्रादि दक्षिणेन्द्रों के सेना प्रधानों के नाम हैं। ईशान माहेन्द्र आदि उत्तरेन्द्रों की सात प्रकार की सेना क्रम से महादामप्टि, अमितगति, रथमंथन, पुष्पदन्त, सलघपरक्वमणी और गीतरति ये छह पुरूष वेदो और नर्तकियों में महासेना नामक स्त्री प्रधान अर्थात् महत्तर है। पागे इन्द्रों के विविध परिषदों की संख्या कहते हैं -- सौधर्म स्वर्ग में अभ्यन्तर पारिपद बारह हजार, मध्यम पारिषद चौदह हजार और बाह्य पारिषद सोलह हजार है। . ईशानेन्द्र के अभ्यन्तर पारिषद दस हजार, मध्यम पारिषद बारह हजार और बाह्य पारिषद चौदह हजार हैं। _ सनत्कुमारेन्द्र के अभ्यन्तर पारिषद पाठ हजार, मध्यम पारिपद दस हजार और बाह्मपारिषद बारह हजार हैं। माहेन्द्र के अभ्यन्तर पारिषद छह हजार, मध्यम पारिपद आठ हजार और बाह्य पारिषद दस हजार हैं। __ ब्रह्म युगलेन्द्र के अभ्यन्तर पारिषद चारहजार, मध्यम पारिषद छह हजार और बाह्य पारिषद प्राट हजार है। लांतव युगलेन्द्र के अभ्यन्तर पारिषद दो हजार, मध्यमपारिषद चार हजार और बाह्य पारिषद छह हजार है। . शुऋयुगलेन्द्र के अभ्यन्तर पारिषद एक हजार, मध्यम पारिषद दो हजार और बाह्य पारिषद चारहज दो हजार है। रसुग __सतारयुगलेन्द्र के अभ्यन्तर पारिषद पांच सौ, मध्यम पारिषद एक हजार और बाह्य पारिषद Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार चंय प्रानत, प्राणत तथा मारण, अच्युत युगलेन्द्र के अभ्यन्तर पारिपद अढ़ाई सौ, मध्यम पारिषद पाँच सौ बार बार पारिषद एक एक हजार हैं। प्रथम जो इन्द्रों के नगरों का प्रमाण कहा है उन एक एक नगर के पांच पांच कोट है । मागे उन नगरों के कोटों का अन्तराल कहते हैं पहले दूसरे कोट के बीच अनाराल तेरह लाख योजन दूसरे तीसरे के बीच नरेगठ लाख योजन. तीसरे चौथे के बीच चौसठ लाख योजन और पांचवे के बीच चौरासी लाख योजन अन्नगल हैं प्रयम अन्तराल में सेना के नायक अंगरक्षक देव दूसरे अन्तराल में तोन जाति के पारिगद देव तीसरे अन्तराल में समानिक देव पोर चौथे सन्दराल में 4 ग्रादि के ऊपर प्रारूद होने बाल प्रारोहक प्रारंभ योग्य और किल्बिधिक ग्रादि अपने अपने योग्य मन्दिरों में निवास करने अपन प्रपन याग्य मान्दरा में निवास करते है। उस पंचम का सपनाम हजार योजन के अन्तराल पर जाकर चारों दिशाओं में महा आनन्दकारो चार भन्दन वन है। ये नन्दन बन पद्य द्रह समान पचास हजार योजन लम्ब और पांच सौ योजन चौड़े है। उन चाराधनों में प्रशाक सप्तच्छंद, चंपक और ताम्रयेचार चैत्य वक्ष हैं। उन चैत्य वृक्षों के चारों पाव भागों में पत्यकासन जिन प्रतिमा विराजमान है। उ मेरस बारम्बार नमस्कार हो। उन बन खण्डों में बहुत से योजन परे पूर्वाद दिशामो में साड़ बारह मारव योजन प्रमाण विस्तार वाले सोम, यम, वरुण और कुवेर--- इन चार लोकपालों कना । जन लोकपालों के नगरों के निकटवर्ती प्राग्नेय आदि विदिशाओं में एफ. लक्ष याजन प्रमाण लन्ने चार कामा, कामिनी, पद्मगंधा और अलंक्षा नाम की धारक चार गणिका महत्तरियों के नगर है। इमा प्रकार अन्य कल्पों की भी रचना जाननी चाहिए। आगे देव तथा देवांगनाओं के मन्दिरों की ऊंचाई लम्बाई तथा चौड़ाई व प्रमाणपत सौधर्म युगल देवों के मदिरों का उदय छह सौ योजन और देबियों के मन्दिरो का उदय पाच सो योजन, सनत्कुमार युगल के देवों के मन्दिरों का उदय पांच सौ.योजन और देवियों क मन्दिर का उदय साढे चार सौ योजन, ब्रह्म युगल के देवों के मंदिरों का उदय साढ़े चार सौ योजन और देवियों के मंदिरों का उदय चार सौ योजन, लांतव युगल के देवों के मंदिरों का उदय चार सौ योजन और देवियों के मंदिरों का उदय साढ़े तीन सौ योजन, शुक्र युगल के देवों के मंदिरों का उदय साढ़े तीन सौ याजन और देवियों के विमान का उदय तीन सौ योजन, सतार युगल में देवों के मंदिरों का उदय तीन सौ योजन और देवियों के विमान का उदय अढ़ाई सी योजन, प्रानत मादि कल्प चतुष्क में देवों के मंदिरों का उदय पढ़ाई सौ योजन और देवियों के विमान का उदय दो सौ योजन है। इनकी लम्बाई तया चौड़ाई अपने अपने विमान के उदय से पांचवें भाग लम्बाई तथा दसवें भाग का प्रमाण चौडाई होती है। नव ग्रेवैयक के प्रथम त्रिक में देवों के मंदिर का उदय दो सौ योजन, लम्बाई तीस योजन और चौड़ाई पन्द्रह योजन है। दूसरे त्रिक में देवों के मंदिरों का उदय डेढ़ सौ योजन, लम्बाई तीस योजन और चौड़ाई दस योजन है और तीसरे त्रिक में देवों के मंदिरों का उदय शत योजन, लम्बाई बीस योजन और चौड़ाई दस योजन है। नव अनुत्तर के देवों के विमान का उदय पच्चीस योजन, लम्बाई दस योजन और चौडाई पांच योजन है और सर्वार्थ सिद्धि के देवों के मंदिरों का उदय पच्चीस योजन, लम्बाई पच्चीस योजन और चौड़ाई पढ़ाई योजन है। प्राये इन्द्रों की देवियों का प्रमाण कहते हैं Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमाकार पंथ दक्षिणेन्द्रों के शची, पद्मा, शिवा, श्यामा, कालिंदी, सुलसा, अज्जुका पौर भानुनाम की धारक आठ हैं। उत्तरेन्द्रों के श्रीमती, रामा, सुसीमा, प्रभावती, जयसेना, सुषेणा, बसुमित्रा और वसुंधरा नाम की धारक पाठ-आठ महादेवी होती हैं । एक-एक महादेवी सम्बन्धी सौधर्म युगल में सोलह-सोलह हजार, सनत्युमार युगल में पाठ हजार, ब्रह्म युगल में चार हजार, लांतव युगल में दो हजार, शुक्र युगल में एक हजार, सवार युगल में पांच सौ और आगत आदि चतुक में अढ़ाई सौ परिवार देवो होती हैं। इन्द्रों की एक-एक महादेवी यदि विक्रिया शक्ति से नवीन शरीर धारण करे तो मूल शरीर सहित सौधर्म युगल की सोलह हजार, सनत्वमार यूगल की बत्तीस हजार, ग्रह्म युगल की चौंसठ हजार, लातव युगल की एक लाख अठाईस हजार, शुक्र युगल की दो लाख उत्पन हजार, सतार युगल की पाँच लाख बारह हजार और ग्रानत आदि कल्प चतुष्कों की दस लाख चौबीस हजार देवांगनाओं का रूप धारण कर लेती हैं। परिबार देवियों में से जो देवांगनायें इन्द्र को अति बल्लभ प्रिय होती हैं उन्हें बल्लभिका कहते है। ऐसी बल्लगिका देवांगनायें सौधर्म युगलेन्द्रों के बत्तीस हजार, सनत्कुमार युगल में पाठ हजार, ब्रह्म बुगल में दो हजार, लांतव युगल में पांच सौ, शुक्र युगल में दो सौ पचास, सतार युगल में एक सौ पच्चीस और अानतादि कल्प चतुष्क इन्द्रों के तरेसठ होती हैं। उन बल्लभिका देवियों के मन्दिर अपने-अपने इन्द्र मन्दिर से पूर्व दिशा में स्थित हैं और परिवार देवियों के मन्दिरों को अपने कल्प की ऊँचाई की अपेक्षा इनके मन्दिर बीस-बीस योजन अधिक उदय वाले हैं। अमरावती नामक इन्द्र का पुर है उसमें रहने के मन्दिर की ईशान विदिशा में सौ योजन लम्बा पिचहत्तर योजन ऊंचा और पचास योजन चौड़ा सुधर्मा नामक प्रास्थान मंडप (सभास्थान) है। उस प्रास्थान मंडप के पूर्व, दक्षिण और उत्तर-इन तीन दिशाओं में सोलह योजन ऊँचे और पाठ योजन चौड़े तीन द्वार हैं। उस स्थान मंडप के मध्य भाग में इन्द्रक सिंहासन है। उसके प्रागे प्रप्ट पट्ट आदि देवयों के सिंहासन हैं उनसे बाह्य पूर्व प्रादि दिशाओं में सोम, यम, वरुण और कुबेर नामक लोकपालों के चार सिंहासन हैं। इन्द्रासन से आग्नेय तथा नैऋत्यदिशा में बारह हजार सोलह हजार, सोलह हजार, मादि संख्यक अभ्यन्तर, मध्य और बाह्य-इन तीन प्रकार पारिषद् देवों के नैऋत्य दिशा में ही तेंतीस आसन त्रास्त्रिशत् देवों के पश्चिम दिशा में पानीक महत्तर देवों के, बायव्य और ईशान दिशात्रों में क्यालीस हजार सामानिक देवों के और चारों दिशाओं में अंगरक्षक देवों के भद्रासन हैं इस प्रकार सौधर्मन्द्र के एक एकदिश संबंधीचौरासी हजार प्रासन समझने चाहिए। उस प्रास्थान मंडप के प्रागे एक-एक योजन व्यास रत्नमय वाला छत्तीस. योजन ऊंचा पीठ सहित एक-एक कोश के समानान्तर वाली बारह घारामों संयुक्त मानस्तम्भ हैं । उस मानस्तम्भ के पौणे छह योजन नीचे के और सवा छह योजन ऊपर के भाग को छोड़कर मध्य के चौबीस योजन के अन्तराल में रत्नमय श्रृंखलाओं से बंधे हुए एक कोश लम्बे और पाव कोश चौड़े करंडक अर्थात् पिटारेछीकेवत लटके हुए हैं। उनमें तीर्थकर भगवान् के उपभोग योग्य दिब्य, मनोहर वस्त्राभूषण प्रादि धरे रहते हैं। उन्ही करंडकों में से इन्द्र तीर्थकर भगवान के जन्म, राज्य, विवाह और तप कल्याणक के समय वस्त्र प्राभूषण यादि लाता है तथा भेजता है । ये वस्त्राभूषण तीर्थकर भगवान के ही भोग्य होते हैं, अन्य के नहीं ये देवकुमार द्वारा रक्षणीय ज्यों के त्यों रखे रहते हैं । इस प्रकार के ये करंडक सौधर्म, ईशान, सनत्कुमार और माहेन्द्रइन चार कल्पों में ही हैं अन्य में नहीं। यहां विशेष यह है कि सौधर्म कल्प स्थित मानस्तम्भ के करंडकों में भरत क्षेत्र सम्बन्धो, ईशान में ऐरावत सम्बन्धी, सनत्कुमार में पूर्व विदेह सम्बन्धी और माहेन्द्र में पश्चिम विदेह सम्बन्धी तीर्थंकरों के वस्त्राभूषण रहते हैं। Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 णमोकार संय ३६५ इन्द्र की उत्पत्ति ग्रह का स्वरूप कहते हैं उस मानस्तम्भ के निकट आठ योजन चौड़ा, इतना ही लम्बा और ऊँचा उपपाद ग्रह में दो रत्न शय्या हैं जिनमें इन्द्र का स्थान होता है । इसके ही उपपाद ग्रह के पास अनेक शिखरों संयुक्त जिन भगवान का बहुत सुन्दर मंदिर है। कल्पवासी देवांगनाएँ सौधर्म, ईशान स्वर्ग में ही उत्पन्न होती हैं, अन्य कल्पों में नहीं । जिसमें केवल देवांगनराम्रों का ही जन्म होता है ऐसे विमान सौधर्म में छह लाख चे ईशान ने चार लाख एवं समस्त दस लाख हैं। इन विमानों के उत्पन्न होने के अनन्तर जिन देवों की नियोगिनी होती हैं उन्हें ऊपर के कल्पवासी देव अपने स्थान पर ले जाते हैं । अवशेष से ' धर्म के छब्बीस लाख और ईसान के चौबीस लाख विमान ऐसे हैं जिनमें देव, देवांगना दोनों हो मिश्र उत्पन्न होते हैं । मागे देव देवांगनाओं के प्रयोचार का वर्णन लिखते हैं- भवनवासी, व्यन्तर ज्योतिष्कों में श्रीर सौधर्म तथा ईशान इन दो स्वर्गो के देवों में शरीर से काम सेवन होता है जैसे कि मनुष्यों आदि में होत है । अत्रशेष सनत्कुमार और माहेन्द्र- इन दो स्वर्गो के देव देवियों की कामवासना परस्पर ग्रंग स्पयं करने से, ब्रह्म ब्रह्मोत्तर, लांतव और कापिष्ट-इन चार स्वर्गों में स्वाभाविक सुन्दरता और श्रृंगार युव रूपादि को देखने से; शुक्र, महानुक, सतार और सहस्वार - इन चार स्वर्गो में प्रेम भरे, मधुर वचनालाप आदि से और थानत प्राणत, भारण, अच्युत - इन चार स्वर्गों में परस्पर मन में स्मरण करने से ही कामवासना नष्ट हो जाती है। इन सोलह कल्पों से ऊपर नव ग्रं वेयक, नव अनुदिश और पंचानुत्तरों में रहने वाले देव कामसेवन से रहित हैं अर्थात् इनके कानवासना होती हो नहीं। ये सदैव धर्म ध्यान में लीन रहते हैं । आगे वैमानिक देवों की विक्रया शक्ति और अवधिज्ञान का विषय क्षेत्र कहते हैं सौधर्म युगलवासी देव अवधि के द्वारा प्रथम भूमि पर्यन्त देखते हैं । सनत्कुमार युगलवासी देव दूसरी पृथ्वी तक शुक्र और सतार युगल के देव चौथी भूमि तक, भानत, प्राणत, प्रारण तथा अच्युत कल्पवासी देव पाँचदों भूमि तक और पंचानुत्तरों के देव सप्तम भूमि नीचे वनुदातवलय पर्यन्त किचित् न्यून सम्पूर्ण लोक नाड़ी को अवधि द्वारा देखते हैं। विक्रिया शक्ति भी समस्त देवों के अपने अपने अवधि क्षेत्र के समान होती है किन्तु विषयों की उत्कृष्ट बौंछा के न होने से ऊपर-ऊपर के देवो में गमन करने की इच्छा कम होती है इन कल्पवासी देवों का अवधिक्षेत्र चौकोर किन्तु लम्बाई में अधिक और चौड़ाई में थोड़ा होता है और भवनवासी व्यन्तर और ज्योतिषी के अवधि का क्षेत्र नीचेनीचे कम और तिर्यक रूप से अधिक होता है। शेष मनुष्य, तिर्यन्च और नारकी का सर्वाधि क्षेत्र बराबर धनरूप होता है । श्रावैमानिक देवों के जन्म-मरण का विरह काल कहते हैं, जितने काल पर्यन्त जहाँ किसी का जन्म न हो उसे जन्मान्तर और जितने काल पर्यन्त मरण न हो उसे भोगान्तर कहते हैं अतः दोनों का उत्कृष्ट काल सौधर्म में सात दिन, सनत्कुमार युगल में एक पक्ष, ब्रह्म ब्रह्मोत्तर, लांव और कापिष्टकल्प चतुष्कों में एक मास, शुक्र, महाशुक्र, सतार और सहस्त्रार में दो मास, मानव, प्राणत, धारण और अच्युत में चार मास और शेष ग्रंवेयक आदि में चार मास होता है। इन्द्र इन्द्र की महादेवी पौर लोकपाल के मरण के पश्चात् उत्कृष्ट विरहकाल छह मास और त्रास्त्रिशत, अंग रक्षक, सामानिक तथ पारिषद इनका उत्कृष्ट विरहकाल चार मास जानना चाहिए। Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार च आगे वैमानिक देवों का शरीर प्रमाण कहते हैं, सौधर्म युगल के देवों का शरीर सात हाथ, सनत्कुमार युगल के देवों का छह हाथ, ब्रह्मयुगल के देवों का साढ़े पाँच हाथ, लॉतव युगल के देवों का पाँच हाथ, शुक्र- महाशुक को चार हाथ, सतार-सहस्त्रार के देवों का साई तीन हाथ, मानव, प्राणत श्रीर आरण तथा अच्युत स्वर्ग के देशों का तीन हाथ, नत्र बेयक के प्रथम त्रिक के देवों का ढाई हाथ, दूसरे त्रिक के देवों का दो हाथ, सोसरे त्रिक के देवों का डेढ़ हाथ, नत्र अनुतर देवों का एक हाथ और पंचानुदिवासी देवों का भी एक हाथ शरीर है । ग्रागे वैमानिक देवों की ग्रायु ३६६ कहते है सब ईशान कल्प के देवों की उत्कृष्ट झा दो सागर, सनत्कुमार, माहेन्द्र के देवों की उत्कृष्ट आयु सात सागर, ब्रह्म ब्रह्मोत्तर के देवों की उत्कृष्ट श्रादश सागर, लांब कापिट के देवों की चौदह सागर शुक्र महाशुक्र के देवों की सोलह सागर, सतार श्रीर सहस्त्रार के देवों की अठारह सागर, ग्रान्त प्राणत के देवों की बीस सागर और आरण अच्युत कर के देवों की बाईस सागर उत्कृष्ट आयु है। इससे आये नवत्रैवेयकों में एक-एक सागर अधिक श्रायु होती है, नवअनुदिशों में और पंचानुत्तर विमानों में एक-एक सागर बढ़ती श्रायु है अर्थात् प्रथम ग्रंवेयक में तेईस सागर, दूसरे ग्रैवेयक में चौबीस सागर तीसरे वेयक में पच्चीस सागर, चौथे प्रवेयक में छब्बीस सागर, पांचवें में सत्ताईस सागर, छठे में अकाईस सागर, सातवें में उनतीस सागर, आठों में तीस सागर, नवमे में इकतीस सागर, नवश्रनुदिशों में बतीस सागर और विजय, वैजयंत, जयंत, अपराजित तथा सर्वासिद्धि इन पाँच विमानों में तेतीस सागर श्रायु है। आगे पूर्वोक्त विमानों में जधन्य श्रायु कहते हैं— सौधर्म ईशान स्वर्ग में जघन्याय एक पल्य है सौधर्म युगल से आगे-आगे पहले पहले युगल की उत्कृष्ट श्रायु श्रगले अगले युगलों में जघन्य है जैसे सौधर्म युगल में उत्कृष्ट श्रायु दो सागर है तो यहीं दो सागर आयु सनत्कुमार युगल में जघन्य है और सनत्कुकार युगल की सात सागर उत्कृष्टायु ब्रह्मब्रह्मोत्तर के जघन्य है इसी प्रकार अन्य कल्पों में जानना चाहिए | प्राचार्यवर्य श्री उमास्वामी कृत तत्वार्थाधिगम मोक्षशास्त्र में जो सहस्वार पर्यन्त के देवों को श्रायु कुछ-कुछ अधिक कही है वह घातयुष्क की अपेक्षा कही है। यदि कोई घालायुष्क सम्यग्दृष्टी सहस्वार पर्यन्त के युगलों में उत्पन्न हो तो उसकी अपने-अपने स्वर्ग को पूर्वोक्त उत्कृष्ट आयु से अन्तर्मुहूर्त कम प्राधे सागर की आयु अधिक हो जाती है जैसे सौधर्म और ईशान स्वर्ग में दो सागर की उत्कृष्ट मायु है और यदि वहां बातायुष्क सम्यग्दृष्टि उत्पन्न हो तो उसकी अंतर्मुहुर्त कम अढ़ाई सागर की श्रायु हो सकती है। इसी तरह घातायुक्क मिथ्यादृष्टि की पत्य के असंख्पात भाग प्रमाण आयु हो सकती है परन्तु यह अधिकता सौधर्म युगल से सतार युगल पर्यन्त के छह युगलों में ही है अन्य में नहीं है क्योंकि आगे के विमानों में घातायुष्क वाले जीव उत्पन्न नहीं होते । भावार्थ - जो पहले प्रायुबंध किया था उसको पश्चात् परिणामों के निमित्त से घटाकर अल्प कर देना घातायुष्क है । वह घातायुष्क दो प्रकार का है- एक अपवर्तन घात, दूसरा कदलीघात । उदय प्राप्त वर्तमान आयु 'कम करने को अपवर्तनघात और उद्दीयमान श्रायु के घटाने को कदलीघात कहते हैं । कदली घात तो यहां सम्भव नहीं इसीलिए यहां अपवर्तन घात का ही ग्रहण किया है सो ऐसा बातायुष्क सम्यग्दृष्टि जीव व्यंन्तर व ज्योतिषी देवों में उत्पन्न तो साथ पल्य और भवनवासी तथा वैमानिकों में हो तो अन्तर्मुहूत्तं कम ग्राध सागर, पूर्वोक्त उत्कृष्टायु से अधिक आयु वाला होता है और इसी प्रकार घातयुष्क मिथ्यादृष्टि हो तो उसके भवनवासी, व्यन्तर ज्योतिषी और वैमानिकों में सर्वत्र पूर्वोक्त उत्कृष्ट आयु के प्रमाण से पल्य के प्रसंख्यातवें भाग प्रमाण श्रायु बढ़ जाती है । Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार च मागे कल्पवासी देवांगनाओं की आयु कहते हैं-- सौधर्म द्विक को देवोगनाओं को जघन्य प्रायु साधिक एक पल्य और उत्कृष्ट प्रायु क्रमशः सोलहों स्वर्गों में-पाँच, सात, नव, ग्यारह, तेरह. पन्द्रह, सत्रह, उन्नीस, इक्कीस, तेईस, पच्चीस, सताईस, उनतीस, चौतीस, इकतालीस, अड़तालीस, और पचपन पल्य प्रमाण है। आगे देवों के उच्छवास और पाहार के समय का प्रमाण कहते हैं जहां जिस जिस कल्प म जितने-जितने सागर प्रमाण आयु कही है उतने-उत्तने पक्ष बीतने पर उच्छवास और उतने ही हजार वर्ष बीतने पर मानसिक आहार होता है । जैसे सौधर्म द्विक में प्रायु दो सागर है वहां दो पक्ष के अंतराल से उच्छवास और दो हजार वर्ष के अन्तराल से आहार होता है इसी प्रकार अन्य कल्पों में जानना चाहिए। प्रागे लोकांतिक देवों का वर्णन लिखते हैं जो पांचवें ब्रह्मस्वर्ग के अन्त में रहते हैं वे लोकांतिक देव हैं । ये लोकांन्तिक देव मनुष्य का एक भव धारण करके तद्भव से ही मोक्षगामी होते हैं । इस कारण जिनके लोक का अर्थात् संसार का अन्त होने वाला है उन्हें लोकांतिक देव कहते हैं। ये लोकांतिक देव कुल भेद करके (१) सारस्वत, (२) आदित्य, (३) बन्हि, (४) अरुण, (५) गर्दतोय, (६) तुषित, (७) अवाबाध, और (८) अरिष्ट,ऐसे पाठ प्रकार हैं और क्रमशः संख्या में (१) सात सौ सात, (२) सात सौ सात, (३) सात हजार सात, (४) सात हजार सात, (५) नव हजार नव, (६) नव हजार नव, (७) ग्यारह हजार ग्यारह और (८) ग्यारह हजार ग्यारह हैं। इनमें से सारस्वत ग्रादि सात प्रकार के देव तो ईशान ग्रादि सात दिशा विदिशाओं के प्रकीर्णक विमानों में और अरिष्ट नामक देव उत्तरदिशा के श्रेणीबद्ध विमानों में रहते हैं । इनकी संज्ञा के सदृश ही इनके विमानों के नाम हैं। प्रागे सारस्वत श्रादि अष्टविध देवों के एक-एक अन्तराल में रहने वाले जो सोलह उपकुल हैं उनके नाम और संख्या कहते हैं-सारस्वत प्रादि देवों के अन्तराल में स्थित जो देव हैं वे (१) अग्न्याभ, (२) मूर्याभ, (३) चन्द्राभ, (४) सत्याभ, (५) श्रेयस्कर, (६) क्षेभंकर, (७) वृषभेष्ट, (८) कामघर, (६) निर्माण रजा, (१०) दिगंतरक्षित, (११) यात्मरक्षित, (१२) सर्व रक्षित, (१३) मरुन, (१४) वसु, (१५) अश्व, और (१६) विश्व-ऐसे सोलह प्रकार के हैं और क्रमशः संख्या में (१॥ सात हजार सात, (२) नव हबार नव, (३) ग्यारह हजार. ग्यारह. (४) तेरह हजार तेरह, (५) पन्द्रह हजार पन्द्रह, (६) सत्रह हजार सत्रह, (७) उन्नीस हजार उनीस, (८) इवकीस हजार इक्कीम, (६) तेईस हजार तेईस, (१०) पच्चीस हजार पच्चीस, (११) सत्तईस हजार सत्ताईस, (१२) उनतीस हजार उनतीस, (१३) इकतीस हजार इकतीस, (१४) तेतीस हजार तेतीस, ११५ पैतीस हजार पैतीस, और (१६) मैतीस हजार सैंतीस हैं। इन कुलों के युगल क्रमशः सारस्वत प्रादि देवों के आठ अन्तरालों में रहते हैं जैसे सारस्वत और आदित्य विमानों के बीच अग्न्याभ, सूर्याभ और प्रादित्य तथा वन्हि के बीच चन्द्राम भोर सत्याभ के विमान हैं । इसी प्रकार अन्य अन्तरालों में भी दो-दो कुलों के विमान जानने चाहिए। ये सब लोकान्तिक देव परस्पर होनाधिक्यता रहित (सब समान) विषयों से विरक्त, ब्रह्मचारी, ग्यारह मंग एवं चौदह पूर्व के शाता उदासन और अनित्य प्रादि द्वादश अनुप्रेक्षामों के चितवन में निमग्न रहते हैं। इसी कारण देवों ऋषियों को समान होने से इन्हें ऋषिदेव भी कहते हैं। अवशेष इन्द्र मादि देवों द्वारा पूज्य होते हैं। ये देव दोर्थ कर नगवान के तपकल्याणक के प्रादि में ही पाते हैं। सपकल्याणक के सिवाय अन्य उत्सवों न -1 Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० णमोकार प्रय में नहीं आते हैं। इन समस्त ब्रह्मस्वर्ग के अन्त में रहने वाले लोकांतिक देवों का शरीर प्रमाण साढ़े पांच हाथ और प्राय पाठ सागर को होती है। लोकान्तिक देवों में जघन्य आयु नहीं होती है। इतना विशेष है कि प्रारष्ट जाति के देवा को मायु नब सागर प्रमाण है। इति कल्पातीत देव वर्णनम । इस प्रकार कल्पतीतों का वर्णन करके आगे क्रम प्राप्त सिद्ध क्षेत्र का वर्णन करते हैं पंचानुत्तर विमानों से बारह योजन ऊपर एक राजू चौड़ी, सात राजू लंबी और पाठ योजन मोटी उज्जवल वर्ण अष्टम ईषत्प्राग्भार नाम की अष्टम पृथ्वो है। उस ईषत्प्राग्भार नाम की अष्टम पृथ्वी मध्य रूपामयि चादी के समान श्वेत) छत्र के आकार को मनुष्य क्षेत्र के समान पैतालीस लाख योजन व्यास वाला सिद्ध क्षेत्र है। उस भूमि की मोटाई मध्य में पाठ योजन है, पर किनारों पर घटतेघटते क्रमशः कम होती गई है। अथ श्री श्रीपाल परित्र लिख्यते--- इस जम्बुद्वीप के भारत क्षेत्र में अंगदेश के अन्तर्गत चम्पापुर नामक एक मनोहर नगर था। जिस समय को यह कथा है उस समय उसके राजा अरिदमन थे। इनके छोटे भाई का नाम वीरदमन था। अरिदमन धर्मज्ञ, नीतिपरायण, प्रजाहितैषी और जिन भगवान के सच्चे भक्त थे। इसकी रानी का नाम कुन्दप्रभा था। पुष्प के समान उज्जवल गुणों से पूरित, सच्चरित्रा पति भक्ति परायणा और धर्मात्मा थी। राजा का भी इन पर प्रत्यन्त प्रेम था। इस दम्पति के पूर्वोपाजित पुण्योदय से प्राप्त हुई राज्य लक्ष्मी को भोगते हुए परमानद और उत्सब के साथ दिन व्यतीत होते थे । एक दिन कुंदप्रभा अपने शयनागार में कोमल शय्या पर सुखपूर्वक सोई हुए थी कि उसने रात्रि के पश्चिम पहर में पुत्र रल के सूचक सुवर्णमय विशाल पर्वत और कल्पवृक्ष देखे और तत्समय ही स्वर्ग से एक देव चयकर रानी के गर्भ में पाया । स्वप्न देखकर कुन्दप्रभा जाग्रत हो गई। थोड़े समय में प्रातःकाल हुआ । दिनकर के प्रताप से अंधकार का नाश हो गया जैसे सम्यग्दर्शन के प्रादुर्भत होने पर प्रज्ञानांधकार का नाश हो जाता है। तब वह कोमल तन्त्री सुशोला रानी प्रातः काल सम्बन्धी शरीर आदि की नित्य क्रियाओं से निवृत होकर मंद-मंद गति से पति के समीप गई। राजा ने प्रिया को प्राते हुए देखकर अर्धासन छोड़ दिया । कुन्द प्रभा पति को योग्य विनयपूर्वक नमस्कार करके बैठी और रात्रि में प्राए हुए स्वप्नों को मधुरालाप से कहने लगी । सुनकर राजा ने उनके फल के सम्बन्ध में कहा-प्रिये । ये सब स्नप्न तुमने बहुत ही उत्तम और आनन्ददायक देखे हैं। इनके देखने से सूचित होता है कि तुम्हारे महा तेजस्वी, धीर, वीर, सकल उत्तमोत्तम गुणनिधान और धर्मशरीरी पुत्र रत्न होगा ।-सुवर्णमय विशाल पर्वत का देखना सूचि । करता है कि वह बड़ा पराक्रमी, साहसो, गम्भीर प्रतापी, सबसे प्रधान क्षत्रियवीर तथा सुवर्णसम वर्ण का धारक होगा। कल्पवृक्ष देखने से विचित होता है कि वह बहुत ही उदार चित दीनजन प्रतिपालक, महादानी और धर्म का धारी होगा। तात्पर्य यह है कि तेरे गर्भ से मखिल गुण सम्पन्न भौर तद्भव मोक्षगामो पुत्ररत्न प्रसव होगा।' इस प्रकार अपने पति वारा स्वप्न का फल सुनकर कुन्दप्रभा को अत्यन्त प्रसन्नता हुई। ठीक भी है-'पुत्र प्राप्ति से किसे प्रसन्नता नहीं होती।' प्रधानन्तर प्राज से ये दोनों (दम्पति) अपना समय जिनपूजन, अभिषेक, पात्रदान प्रादि पुण्य कर्मों में अधिकतर व्यतीत करते हुए सुखपूर्वक रहने लगे। इस प्रकार प्रानन्द उत्सव के साथ दस मास बीतने पर कुन्द प्रभा ने शुभ लग्न भौर शुभ दिन में शुभ लक्षणों से युक्त सुन्दर पुत्र रत्न प्रसव किया । Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जमोकार ग्रंथ उसके जन्म लेते ही दुर्जनों व शत्रुओं के घर में उत्पात और स्वजन तथा सज्जनों के प्रानन्द की सीमा नहीं रही। महाराज अरिदमन ने पुत्र जन्म के उपलक्ष्य में बहुत उत्सव किया, दान दिया और पूजा प्रभाबना की। निमित्तज्ञानियों को बुलवाकर लग्न कुन्डली आदि बनवाई गई और तदनुसार ही उसका नाम श्रीपाल रख दिया गया। बालक दिनोंदिन शक्ल द्वितीया के चन्द्रमा की तरह बढ़ने लगा। राजारानी बड़े लाड़ प्यार से पुत्र का पालन करने लगे। जब श्रीपाल आठ वर्ष के हुए तब इनका मूजी बंधन पनयन संस्कार किया गया और विद्याध्ययन काल तक अखण्ड ब्रह्मचर्य व्रत देकर इनके पिता ने इन्हें पढ़ाने के लिए ग्रहस्थाचार्य को सौंप दिया। इनकी बुद्धि बड़ो तीक्षण थी और दुसरे इन पर गुरु की कृपा हो गई। इससे ये शो सो वर्षों में पत्र लिखकर अच्छे विद्वान बन गए कितने ही विषयों में इनको अरोक गलि हो गई । गुरुसेवा रूपी नाव द्वारा इन्होंने शास्त्र रूपी समद्र का बहुत मा भाग पार कर लिया तब गुरु की आज्ञा लेकर माता-पिता के समीप पाकर उनको योग्य विनयपूर्वक नमस्कार किया। मानापिता ने भी पुत्र को विद्यालंकृत, जानकर शुभाशीर्वाद दिया। अब श्रीपाल कुमार नित्यप्रति राज्य सभा में जाने लगे और राज्य कार्यों में विचार करने लगे। ___ एक दिन की बात है कि महाराज अरिदमन अपनी सभा में बैठे हुए थे कि इतने में श्रीराल कुमार भी बहाँ पाए और योग्य विनय करके बैठ गए। उस समय राजा ने अपनी वृद्धावस्था पौर श्रीपाल की योग्यता पर विचार कर इनको राजनीतिक कर देने का निश्चय कर लिया और शुभ लग्न में पुत्र को सब राज्य भार सौंपकर ग्राप एकांत स्थान में धर्म ध्यान पूर्वक-कालक्षेपण करने लग । कुछ समय के अनन्तर राजा परलोकगामो हुए जिससे राजा श्रीपाल इनके काका वीरदमन और माता कुन्दप्रभा आदि समस्त स्वजन व पुरजनों को अत्यन्त क्लेश पहुंचा पर उसे दूर करने के लिए प्रतिकार ही क्या हो सकता था? कर्मों की विचित्रता पर ध्यान देकर सबको संतोष करना पड़ा। राजा श्रीपाल अपने पिता की मृत्यु सम्बन्धी क्रिया कर चुकने के अनन्तर पुन: राज्यकार्य में दत्तचित हुए। प्रजा को उनके शासन की जैसी प्राशा थी श्रीपाल ने उससे भी बढ़कर धर्मज्ञता, नीति और प्रजा प्रेम दिखलाया । प्रजा को सुखी बनाने में उन्होंने किसी बात की कमी न रखी। इस प्रकार नीतिपूर्वक अपने पुण्य का फल भोगते हुए वे सुख से समय बिताने लगे। जिस समय श्रीपाल सुखपूर्वक समय व्यतीत कर रहे थे और प्रजा का न्याय तथा नीति से पालन करते थे उस समय उनका ऐश्वर्य दुष्ट कर्म से सहन नहीं हुआ श्रीपाल जैसे कामदेव के शरीर में कुष्ट (कोढ़) रोग हो गया। सारा शरीर गलने लगा और शरीर में पीप, रुधिर प्रादि बहने लगा। समस्त शरीर में असह्य व्यथा होने लगो। यह अवस्था एक राजा श्रीपाल को ही नहीं थी किन्तु उनके निकटवर्ती सात सौ वीरों का भी यही हाल था। मंत्री सेनापति तथा अंगरक्षकों का सबका एक-सा हाल था। प्रजागण राजा श्रीपाल और उनके समीपवर्ती लोगों की यह अवस्था देखकर अत्यन्त दु:खी थे। दूसरे इनके शरीर की दुर्गन्ध से प्रति व्याकुल और कितने ही इस रोग के ग्रास बन जाते थे। इस बात से भी प्रजा प्रत्यन्त दुःखी थी परन्तु सब मनुष्य राजा से यह बात कहने में सकुचाते थे । अतएव कितने ही मनुष्य तो अपने-अपने घरों को छोड़कर बाहर चले गए और कितने ही बाहर जाने का उद्यम करने लगे। जब प्रजा के नगर छोड़कर चले जाने का वतांत शहर के गण्यमान्य पुरुषों के द्वारा श्रीपाल के काका वीरदमन को मालूम हुआ तो उन्होंने तत्काल ही श्रीपाल कुमार के पास जाकर पति ही नम्र और बिनीत वचनों से प्रजा की सब दुःख भरी कहानी कह सुनाई : तब राजा प्रजा के दुःख को सुनकर Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७० णमोकार ग्रंथ बहुत व्याकुल हुए और प्रजा को इस दुःख से निवृत्त करने का अपने काका वीरदमन से प्रतिकार पूछने लगे। वीरदमन बोले-राजन् ! यद्यपि मुझे कहने में संकोच होता है परन्तु आपने मुझसे पूछा है प्रतएव प्रजा के और मापके हित के लिए जो उपाय मुझे सूझा है उसे कहता हूं एक आशा है कि आप उस पर पूर्णतया विचार कर कार्य करेगें वह उपाय यह है कि यावत् आपके शरीर में असाता येदनीय के उदय जनित व्याधि वेदना का सद्भाव है तावत् यह राज्य कार्य किसी योग्य पुरुष के आधीन कर नगर के बाह्य उद्यान में निवास करें 1 जब साता वेननीय कर्म का उदय प्रा जाय अर्यात वह कुष्ट रोग मिट जाए तब पुनः प्राकर राज्य कार्य सम्हाल लेवें।' वीरदमन की यह बात सुनकर श्रीपाल ने निष्कपट होकर कहा--'मूझे यह तुम्हारी सम्मति सब तरह से स्वीकार है एवं मेरा भी यही विवार है। अतएव जब तक मेरे असाता कर्म का उदय है तावत् मैं राज्य का भार आप ही वो देता हूं क्योंकि इस समय राज्य का कार्य सम्हाल लेने के योग्य प्राप ही हैं। रोगभूक्त होने पर मैं पूनः प्राकर राज्य सम्हाल लंगा। तब तक इस राज्य के पाप ही अधिकारी हैं इसीलिये मेरे वापिस आने तक प्रजा का न्याय और नीतिपूर्वक पालन-पोषण करते रहना और माता कुन्दप्रभा आदि की भी पूर्ण रूप से रक्षा करना। __ इतना कहकर राजा श्रीपाल अपने सात सौ - वीरों को साथ लेकर नगर से बहुत दूर बाह्य उद्यान में जाकर रहने लगे। आगे इसी कथा से सम्बन्ध रखने वाला मैनासुन्दरी का वृतान्त प्रसंग बनाने के लिए लिखते हैं - इसी प्रार्यखंड में मालव देश के अन्तर्गत उज्जैन नाम की प्रसिद्ध और मुन्दर नगरी है। उस समय उस नगरी में राजा पदुपाल शासन करते थे। इनके निपुण सुन्दरी प्रादि को लेकर एक से एक सुन्दर अनेक रानियाँ थी। सो निपुणसुन्दरी के गर्भ से दो कन्यायें हुई । एक का नाम सुरसुन्दरी और दूसरी का नाम मंनासुन्दरी था। सुरसुन्दरी जब यौवन सम्पन्न हुई तब एक समय राजा पदुपाल ने सुरसुन्दरी से पुछा- पत्री ! तेरा विवाह कहीं और किसके साथ होना चाहिए और त कौन-सा वर पमन्ट मो स्पष्ट कह दे।' लब सुरसुन्दरी बोली- 'मुझको तो कौशाम्बी नगरी के राजा का पुत्र हरिवाहन पसन्द है क्योंकि वह ही सब गुण सम्पन्न, रूपवान और बलवान मालूम होता है । अतएव मेरा उस ही के साथ सम्बन्ध हो जाना चाहिए ।' पुत्री की यह प्राकांक्षा सुनकर महाराजा पदुपाल ने शुभ मुहूर्त में पुत्री का यथेक्छित वर के साथ बड़े समारोहपूर्वक पाणिग्रहण करा दिया। , अथानन्तर एक दिन जब छोटी पुत्री मैनासुन्दरी चैत्यालय से भगवान प्रादीश्वर स्वामी की पूजा कर भगवान के अभिषेक का जल लिए हए पिता के पास पाई तब राजा ने 'पापो, 'प्रामो ऐसा कहकर बैठने के लिये संकेत दिया। तब मैनामादरी विनय सहित भेंट. स्वकर गाजा के मन्मुख मनमोदक रखकर यथायोग्य स्थान पर बैठ गई । राजा ने गंधोदक सहर्ष मस्तक पर चढ़ाया और पुत्री को भक्तियुक्त देखकर पति ही प्रेम पूर्वक मधुरालाप से कहने लगा-'हे पुत्री ! तू अपने मन के अनुसार रूपवान, पराक्रमी वर जो तुझे पसन्द हो सो आज मुझसे कह । सुरसुन्दरी के समान तेरा लग्न भी मैं तेरे इच्छित वर के साथ कर दूंगा।' पिता (राजा पदुपाल) का यह वचन मैनासुन्दरी के हृदय में वध जैसा घाय कर गया । वह सुनकर चुप हो गई। अपने पिता को इस बात का भी उत्तर न देकर मन ही मन में सोचने लगी कि पिताजी ने लज्जा शून्य ऐसे निष्ठुर बचन क्यों कहे ? क्या कुलीन कन्याएं कभी मुंह से वर Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार अथ मागती हैं ? सुशील कन्याएँ तो स्वप्न में भी ऐसा संकल्प नहीं करतीं-इत्यादि विचारों में निमग्न हुई पुत्री लज्जा के मारे अधोमुख करके नीचे की ओर देखती रही तत्र भी राजा ने इसका हार्दिक भाव नहीं समझा और पुनः दूसरी तीसरी बार इसी बात को पूछने लगे । अन्त में मैना सुन्दरी ने जब पिता का इसी बात पर विशेष आग्रह देखा तो वह लाचार होकर बोली-- "तात, वचन सुन मम प्रय, मन में देख विचार, । ___ मुख से बर मांगे नहीं, जे कुलवन्ति कुमारि ।" अर्थ-हे पिता ! पुत्रो के सन्मुख पापको ऐसे लज्जाशून्य बचन नहीं कहने चाहिए।' इस प्रश्न का उत्तर देना हम कुलीन कन्याओं का धर्म नहीं है क्योंकि उच्च वंश को कन्याए" अविवाहित रहना स्वीकार करती हैं परन्तु कभी भी अपने मुख से वर नहीं मांगती। माता-पिता अादि स्वजन वा गुरुजन जिसके साथ व्याह देते हैं वह ही वर उनके लिए कामदेव के समान रूपवान और कबेर के समान धनी होता है चाहे वह ऋणी हो, रंक हो, धनी हो, रोगो हो, निरोगी हो, असुन्दर हो, सुन्दर हो, करूप हो, सुरूप हो, पंडित हो, गुणहीन हो तथा गुण सम्पन्नही परतु कुलीन वनजन्यायों के लिए वही वर उपादेय प्रर्थात् ग्रहण योग्य होता है । दूसरे यह सब बात भाग्य से होती है । आपके कहने और करने से ही क्या? क्योंकि जैसा जिसका सम्बन्ध होता है वैसा इष्ट मनिष्ट वस्तुओं का संयोग कम वश स्वयमेव ही आकर मिल जाता है इसीलिए "हे पिता जी ! आपको अधिकार है चाहे जिसके साथ आप मेरा ब्याह कर दीजिए।" पश्री के ऐसे वचन सनकर राजा को बहत क्रोध आया और मन ही मन में क्रोध से विहल होकर चित्त में ठान लिया कि पुत्री जो मेरे घर में उत्तमोत्तम भोगोपभोगों को भोगती हुई सबको निज कर्मोदय प्राप्त बतलाकर मेरे उपकार का लोप करते हुए इतने गर्व से युक्त वचन कहती है अतएव मुझे भी अब इसके कर्म की परीक्षा करनी है । मैं भी अब इसे हीनवर के साथ व्याहूंगा । देख इसका कर्म क्या करता है ?'-ऐसा विचार कर कुछ समय पश्चात् महाराज पदुपाल मंत्रियों को साथ लेकर होनघर की खोज करने के लिए निकले सो चलते-चलते उसी वन में जा पहुँचे जहां महाराज श्रीपाल अपने सात सौ वीरों सहित पूर्वोपाजित अशुभ कर्म का फल भोग रहे थे । श्रीपाल राजा पदुपाल को अपने पास प्रति निजासन से उठ खड़े हुए और यथायोग्य स्वागत करके कुशल प्रश्न के अनन्तर अपने पास तक पाने का कारण पूछने लगे। राजा पदुपाल ने कहा-'मैं तो बन क्रीड़ा के लिए निकल पाया हूँ। प्रापका पागमन यहां कैसे हुमा और किस कारण नगर बसाया है ? ' यह सुनकर राजा श्रीपाल ने अपना आद्योपात सब वृतांत कह सुनाया । सुनकर राजा बहुत प्रसन्न हुमा और बोला---'मैं तुमसे बहत संतुष्ट हुमा हूं जो तुम्हें इच्छित हो सो मांगो, मैं देने को तत्पर हूं।' श्रीपाल ने अबसर देखकर कहा--"राजन् । यदि आपकी मुझ पर सन्तुष्टता है और प्राग्रह पूर्वक वर देना ही चाहते हैं तो भाप अपनी पुत्री मैनासुन्दरी मुझे दे दीजिए।' श्रीपाल के वचन सनकर पदुपाल को एक बार तो क्रोध आया परंतु साथ ही मैनासुन्दरी के वाक्यों का स्मरण कर शांत होकर सहर्ष बोले-'अरे कुष्टी राय ! मैंने तुझको मपनी लघु पुत्री प्रदान की । तू अब अपने सखामों सहित मेरे साथ चल पौर मैना सुन्दरी का सहर्ष वरण कर जिससे तुम्हारी मनोकामना पूर्ण हो।' श्रीपाल मे हषित होकर राजा के बचनों को सादर स्वीकार कर लिया और उनके साथ चलने को तत्पर हो गए। महाराज पदुपाल ने कुष्टी श्रीपाल को सात सौ वीरों सहित लेकर अपने मगरको Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७३ णमोकार ग्रथ योर प्रयाण किया । वहाँ से चलकर जब कुछ समय के अनन्तर नगर के निकट पहुंचे तो श्रीपाल को उनके सात सौ सखाओं सहित पुर के बाहर उद्यान में डेरा देकर थाप स्वयं मंत्रियों सहित नगर में प्रवेश किया और पुत्री के निकट आकर बोला- 'पुत्री ! अब भी तू कह दे तुझे कौन-सा वर पसंद है ? मैं तेरा भी सुरसुन्दरी वत् इच्छित वर के साथ विवाह कर दूंगा। अपने श्रभीष्ट को निस्संकोच होकर प्रगट कर दे ? पिता के ऐसे वचनों को सुनकर मैनासुन्दरी ने उत्तर में कहा – पिता जी ! बारम्बार पिष्टपेषण (पिसे हुए को पीसने से क्या लाभ? मैं प्रथम ही आपसे निवेदन कर चुकी हूं कि कुलीन कन्याएँ कभी निजमुख से वर नहीं पाता तथा गुरुजन जिसको योग्य वर समझ लेते हैं। वही उनको स्वीकृत होता है। अतएव मुझको भी आपका वचन स्वीकार होगा ।". पुत्री के ऐसे वचन सुनकर राजा को संतोष नहीं हुम्रा तत्र बोले- 'हे पुत्री ! मैंने तेरे लिए कुष्ठी वर योग्य समझा है ।' वह बोली- 'वह वर मुझे स्वीकार है । इस भव में तो कुष्ठीराय मेरा स्वामी होगा । अन्य सब आपके ( पिता के ) समान हैं ।' यद्यपि ये वचन मैनासुन्दरी ने अपने हार्दिक सद्भावों से कहे थे परंतु राजा को नहीं रुचे | वह बोले-'हे पुत्री ! तू बहुत हठीली है और विचार शून्य है । अब भी अपनी हठ छोड़ दे ।' परंतु मैनासुन्दरी अपने हार्दिक भावों से श्रीपाल को ही अपना जीवनेश समझ चुकी थी अतएव वह कहने लगी - पिता जी ! कर्म की गति विचित्र है । जब अशुभ कर्म का उदय आता है तब इष्ट रूप सामग्री अनिष्ट रूप हो जाती और जब शुभ कर्म का उदय होता है तो वहीं अनिष्ट रूप सामग्री रूप परिणमन जाती है। क्षणमात्र में कुवेर से धनी निर्धन, कामदेव के समान रूपवान कुरूप, स्वस्थ से रोगी, निर्धन से धनी, कुरूप से रूपवान और रोगग्रस्त से रोग मुक्त हो जाते हैं इसीलिए अव जो कुछ होना था सो हो चुका। अब इसमें कुछ सोच विचार करने की आवश्यकता नहीं हैं ।' जब राजा ने देखा कि पुत्री को भी अब जिद्द हो गई तब उन्होंने तत्काल ही एक ज्योतिर्विद् पंडित को बुलाया और उससे विवाह का उत्तम मुहूर्त पूछने लगे। तब ज्योतिषी ने लग्न विचार कर कहा— नरनाथ ! नाज का मुहूर्त अति उत्तम है क्योंकि सूर्य, चन्द्र और गुरु तीनों वर तथा कन्या के लिए बहुत ही अच्छे हैं, फिर ऐसा उत्तम मुहूर्त बीस वर्ष तक भी नहीं बनेगा ।' 1 राजा ऐसा उत्तम और निकट मुहूर्त सुनकर बहुत प्रसन्न हुए और विवाह का प्रायोजन करने लगे तब मंत्री, पुरोहित, स्वजन तथा कुटुम्बी जनों ने मैनासुन्दरी को कुष्टि के साथ देने से बहुत रोका परंतु राजा ने सत्रको तिरस्कृत कर अपने हठ तथा मिथ्याभिमान के वश होकर उसी दिन मैनासुन्दरी का श्रीपाल के साथ विधिपूर्वक पाणिग्रहण करा दिया। जब विवाह विधि हो चुकी तब मैनासुन्दरी अपने पति के साथ-साथ चलने लगी और सब लोग विचार कर सुन्दरी को पहुंचाने गए । उस समय कुटी श्रीपाल के साथ दिव्य रूपवती सुन्दरी को जाते हुए देखकर किसी के चेहरे से शोक, किसी से चिंता, किसी से भय, किसी से ग्लानि, किसी से विस्मय, किसी से क्रोध और किसी से बिरागता प्रदर्शित होती थी। उस समय राजा पदुपाल भी स्वयं चित्त में बहुत खेदित और लज्जित हुआ परंतु वह कर ही क्या सकता था? कर्म रेख पर मेख मारने की किसकी सामर्थ्य है ? मैनासुन्दरी की माला तथा ग्रहिन भी उसकी इस दशा को देखकर अश्रुपात करते हुए राजा को दोष देते जाते थे परंतु उस सती, शीलवती, कोमलांगी बालिका के चेहरे से पूर्व प्रसन्नता प्रदर्शित होती थी। वह विचार कर रही थी कि न मालूम Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार ग्रंथ ये माता, पिता, गुरुजन तथा दर्शन जन आदि क्यों ऐसे मंगलमय समय में अमंगल सूचक चिन्ह प्रगट करते हैं। मुझे शीघ्र ही क्यों नहीं विदा कर देते । ये ज्यों-ज्यों विलम्ब कर रहे हैं, त्यों-त्यों मेरे पतिसेवा करने में अंतराय पड़ रहा है। जब उसने देखा कि ये सब लोग प्रेम के वश होकर पिता के कृत्य और भाग्य को दोप देते हुए साथ में मेरे पति के लिए कोढ़ी आदि निद्य वचन कह रहे हैं । तब उससे नहीं रहा गया और वह दीर्घ स्वर से बोली-'हे माता, पिता, बंधु तथा गुरुजन ! यद्यपि प्राप सब लोग मेरे शुभचिंतक हैं और प्रव तक आप लोगों ने जो कुछ भी मेरे लिए किया वह सब सुख के लिए था परंतु अब आप लोगों के ये वचन मुझको गुल से मालूम होते हैं। मैं अब अपने पति के निंदा वाचक वचन नहीं सुनना चाहती हूं। क्या आप लोग नहीं जानते कि स्त्री का सर्वस्व पुरुष ही है। जो सती, शीलवान और सुशील स्त्रियां हैं वे अपने पति के लिए निंद्य वचन नहीं सुन सकती हैं । स्त्रियों को उनके कर्मानुसार जैसा बर प्राप्त हो जाए वहीं उनको पूज्य है यद्यपि आप लोग मेरे पति को कुरूप और सेग सहित देख रहे हैं परंतु मेरी दृष्टि में वह कामदेव के समान है। आप लोग व्यर्थ ही पश्चाताप कर रहे हैं । यदि शुभोदय होगा तो थोड़े ही समय के अनंतर आप लोग इन्हें देव, गुरु व धर्म के प्रभाव से रोगमुक्त देखेंगे इसीलिए प्राप शांति रखें। किसी प्रकार की चिंता नपा। इसमें देरे पिता का विपन्नी दोष नहीं है इसीलिए कभी भी पाप पिताजी को कुछ-कुछ कहकर क्लेशयुक्त न कीजिए ।' इत्यादि पुत्री के वचन सुनकर सबको सन्तोष हुआ और वे कर ही क्या सकते थे ? 'होनहार प्रबल हैं'- इस विचार से चित्त को शान्त कर राजा पदुमाल ने पुत्री तथा जामात को उत्तमोत्तम वस्त्रादि दिये तथा साथ में सेवा करने के लिए दास-दासी तथा पालकी, रथ, पोटक, हस्ती, गाय, भैस, ग्राम, पुर पट्टनादि दिए एवं क्षमा कर विदा किया। बहुत दूर तक लोग पहुंचाने गए थे सो पश्चात लौटकर सब लोग अपने अपने निवास स्थान को आ गये । कुछ समय तक नगर में यही चर्चा रही और ज्यों-ज्यों दिन बीतने लगे त्यों-त्यों लोग इस बात को भूलने लगे। अथानन्तर जब से श्रीपाल जी मैंना सुन्दरी को अपने घर ले पाए तब ही से उनके शरीर में दिनोंदिन कुछ कुछ साता के चिन्ह प्रगट होने लगे । सो ठीक ही है शीलवान नर जहां-जहां जाय' तहां-तहां मंगल होत बनाय।" मैनासुन्दरी उत्तम मन वचन से ग्लानि रहित पति सेवा में लीन हो गई वह साध्वी निरन्तर श्रीपाल की अभिरुचि के अनुकूल पथ्य भोजन कराती और सदैव रोग की निवृत्ति के लिए श्री जी से प्रार्थना करती । प्रथानंतर एक दिन दोनों दम्पति श्री जिन भगवान के दर्शनार्थ जिन मन्दिर गए। वहां भगवान की सभक्ति तीन प्रदक्षिणा देकर साष्टांग नमस्कार किया और दत्तचित्त हो भगवान के गुणों का गायन करने लगे । पश्चात वहां पर विराजमान श्री गुरु के चरण कमलों में सक्ति नमस्कार कर दोनों दंपति अपने देदनीय कर्म के उदयजनित व्याधि की निवृति के लिए प्रतीकार पूछने लगे। तब मुनिराज ने कहा- "हे पुत्री !" मैं तुम्हें कुछ व्याधि की निवृत्ति के लिए प्रतीकार बताता हूं इसलिए दत्तचित होकर सुन । यह उपाय यह है कि सबसे प्रथम निर्दोष सम्यक्त्व स्वीकार कर । जिसके धारण करने से सब प्रतादिक सार्थकता को प्राप्त होते हैं । अन्यथा सम्यक्त्व के बिना व्रत आदि का माचरण करना अंक के बिना अखिल शून्यवत निरर्थक हैं । पश्चात विधि सहित सिद्धचक्र वत पर्यात Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ णमोकार ग्रंथ अष्टाह्निका व्रत धारण कर क्योंकि इस व्रत के प्रभाव से सब प्रकार के रोग शोक दूर हो जाते हैं।" तब मैनासुन्दरी ने विनीत भाव पूर्वक निवेदन किया-"हे स्वामिन ! अनुकम्पा कर इस व्रत की विधि बतलाइये।" तब मुनिराज ने वाहा-"हे पुत्री ! यह व्रत प्रतिवर्ष में तीन बार कार्तिक, फाल्गुन, और प्रषाड़-इन तीन महीनों के शुक्ल पक्ष के अन्त के आठ दिनों में अर्थात शुक्लाअष्टमी से पूर्णिमा पर्यन्त किया जाता है। उत्तम व्रत तो यह है कि पाठों ही उपवास करै । मध्यम बेला तेला आदि अनेक रूप हैं सो यथाशक्ति करे। इन उपवास के दिनों में अपने चित्त को विषय कषायों से रोक कर धर्म ध्यान में व्यतीत करे क्योंकि "कषाय विषयाहारो, त्यागो यत्र विधीयते । उपवासः स विज्ञेयः शेषं तु लंघनं विदुः ॥" अर्थ-इस प्रकार प्रति वर्ष में तीन बार व्रत करते हुए पाठ वर्ष व्यतीत हो जावें तब यथाशक्ति विधि सहित उद्यापन करें।" इस प्रकार मुनिराज के द्वारा व्रत को विधि सुनकर मैनासुन्दरी ने सिद्धचक्र व्रत को सहर्ष स्वीकार किया। पश्चात वे दंपति मुनिराज के चरणारविन्दों को नमस्कार कर अपने स्थान को पधारें और परस्पर प्रेमालाप करते हुए सुख पूर्वक समय व्यतीत करने लगे। कुछ दिन के अनन्तर पवित्र कार्तिक मास आया। सो कार्तिक शुक्लाष्टमो को मैंनासुन्दरी बड़े हर्ष के साथ स्नान कर उज्जवल, शुद्ध वस्त्र धारण कर प्राशुक सामग्री ले जिन मन्दिर गई और विधिपूर्वक अष्टद्रव्य से भगवान की पूजा की । आठ दिन के लिए अह्मचर्य व्रत धारण किया। इस प्रकार नित्यप्रति वह र पाठों दिन भगवान की पूजा करके गंदोदक लाती और सात सौ वीरों तथा श्रीपाल के कूष्ठ से गलित शरीर पर छिड़क देती थी। सो इस सती को सच्ची पति सेवा और जिन भगवान की भक्ति तथा ब्रत के प्रभाव से पाठ ही दिनों में श्रीपाल और उनके सात सी सखापों के शरीर से कुष्ट इस तरह निर्मूल हो गया कि मानों कभी हुआ ही न था। अब श्रीपाल का शरीर गुवर्ण के समान कान्तिमान हो गया। देखो व्रत का प्रभाव कि जिसके अतिशय से तत्क्षण ही सात सौ सखापों सहित राजा श्रीपाल कुष्ट रोग से मुक्त हो कामदेव के समान दीप्त शरीर हो गए। सच है - "यत की महिमा अचित्य है।' अब वे दंपति साताकर्भ के क्षय होने पर सुख पूर्वक समय विताने लगे। इनको ऐसा हर्ष हा कि निशिवासर जाते मालूम नहीं होते थे। यह बात तो यहाँ ही रही। प्रब श्रीपाल जी की माता कुन्दप्रभा का वृतान्त कहते हैं-माता कुन्दप्रभा पुत्र के वियोग से तथा पत्र की प्रस्वस्थ अवस्था का विचार करती हई अत्यन्त दुःखित रहा करती थी। सो चिन्त हो चिन्ता में उनका शरीर बहुत क्षीण हो गया । परन्तु क्या करें निरुपाय थौं । यद्यपि पुत्र का मोह बहुत था यहां तक कि शरीर बहुत क्षीण हो गया था परन्तु वह प्रजा वत्सल रानी इस दशा में भी श्रीपाल को बुलाकर पास रखना नहीं चाहती थीं। निदान कुन्दप्रभा एक दिन स्नान कर शुद्ध वस्त्र पहन जिन मन्दिर गई तथा प्रथम ही श्रीजिनदेव की वन्दना स्तुति करके वहां पर तिष्ठे हुए श्री मुनिराज को नमस्कार करके विनय पूर्वक अपने पुत्र को कुशल पूछने लगी। तब समदर्शी निग्रंथ दिगम्बर मुनिराज ने प्रधिमान से धीपाल के उज्जैन में जाने, मैंनासुन्दरी के साथ सम्बन्ध होने और कुष्ट व्याधि के दूर हो जाने आदि का सम्पूर्ण वृतान्त रानी कुन्दप्रभा को कह सुनाया। तब रानी प्रसन्न चित्त होकर निज घर पायी और पंपने देवर वीरदमन से श्रीपाल के पास मिल जाने की आज्ञा मांगकर सहर्ष उज्जैन की मोर प्रयाण किया। रानी कुन्दप्रभा पुत्र प्रेम से वाध्य हुई प्रति शोघ्रता से प्रयाण करती हुई कुछ दिनों Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार ग्रंथ ३७५ में उज्जैन के उद्यान में पहुंच गई । वहां पहुंचकर पुरुजनों के द्वारा श्रीपाल के मैनासुन्दरी के साथ विवाह होने और रोग मुक्त होने का वृतान्त सुनकर बहुत प्रसन्न हुई। पश्चात श्रीपाल के महल के द्वार पर गई । नियमानुसार द्वारपाल से राजा को स्वबर देने के लिए कहा । तब शीघ्र ही द्वारपाल ने जाकर महाराज श्रीवाल से सनापार कह सुनाया। श्रीपाल माता का प्रागमन सुनकर बहुत प्रसन्न हुए और मैंनासुन्दरी को अपने माता के पागमन से सूचित कर माता की अगवानी के लिए पाए। मैनासुन्दरी भी सास की अगवानी के लिए आई। दोनों ने कुन्दप्रभा के पादारबिन्दों को स्पर्श कर मस्तक नवाया । तब माता ने उन दोनों को पुत्र पुत्री की तरह गले लगा लिया तथा शुभाशीर्वाद दिया । अत्यन्त प्रेम व बहत दिनों में विपसिके पश्चात मिलने के कारण सबके नेत्रों से अश्रुपात होने लगे और हर्ष से रोमांच हो पाए। पश्चात परस्पर कुशल समाचार पूछने लगे। तब धीपाल ने अपने उज्जैन में मैनासुन्दरी से विवाह होने और सिद्धचक्रवत के प्रभाव से कुष्ठ व्याधि के निवृत होने प्रादि का समस्त प्रायोपांत वृतान्त कह सुनाया । सुनकर माता बहुत प्रसन्न हुई और मैना सुन्दरी को यह आशीर्वाद दिया, "हे पुत्री! तू बहुत-सी रानियों की पटरानी हो और श्रीपाल कोटिभट्ट चिरंजीव रहें तथा पदुपाल राजा जिसने उपकार पर निज पुत्रीरत्न मेरे पुत्र को दिया सो बहुत ही कीर्ति वैभव को प्राप्त हो।" ___ माता का यह आशीर्वाद सुनकर बहू बेटा अर्थात मैनासुन्दरी और श्रीपाल ने अपना मस्तक झका लिया और विनीत भाव से कहने लगे, "हे माता ! यह सब अापका प्रभाव है। हमने ग्राज ही सम्पूर्ण प्रानन्द प्राप्त किया। धन्य है आज का दिन व घड़ी जो आपके दर्शन मिले । आपके शुभार्शीवाद से मन पवित्र हुश्रा । तात्पर्य यह है कि हम लोग आपके दर्शन से प्राज कृत कृत्य हुए है"- इत्यादि परस्पर वार्तालाप करने के पश्चात अपना अपना समय प्रानन्द पूर्वक बिताने लगे। श्रीपाल को प्रिया सहित उज्जैन में रहते हुए बहुत दिन हो गए । प्रानन्द में समय जाते मालूम नहीं होता है। एक दिन अपने गार में ये दम्पति सुखपूर्वक सो रहे थे कि अचानक श्रीपाल की प्रांख खुल गई तथा उनको एक बड़ी भारी चिन्ता ने पाकर घेर लिया । वे पड़े पड़े करवटें बदलते और दीर्घ निश्वास लेने लगे। तब पतिभक्ति परायण मैनासुन्दरी ने पति को व्याकुल चित्त देखकर सविनय पूछा- "हे प्राणाधार? प्राज पाप कुछ चितित मालूम होते हैं। चिंता का क्या कारण है वह कृपा कर कहिए ?" तब श्रीपाल ने बहुत कुछ सकुचाते हुए कहा - "हे प्रिये ! मुझे और तो किसी प्रकार की चिन्ता नहीं हैं, केवल यही चिन्ता है कि यहीं रहने से सब लोग मुझे राज जवाई ही कहते हैं तथा मेरे पिता का कोई नाम नहीं लेता पौर के पुत्र जिन से पिता का कुल व नाम लोप हो जाय यथार्थ में पुत्र कहलाने के योग्य नहीं है। यही बात मेरे चित्त को चिन्तित करती है क्योंकि कहा है कि "मुता और सुत के विष, अन्तर इतनो होय । वह परवंश बढ़ायती, यह निज बंशहि सोय ॥ जो सुत तज निज स्वजन पुर, रहें श्वशुर गृह जाय। सो कपूत जग जानिए, अति निर्लज्ज बनाय ।। इसलिए है प्रिये ! अब मुझे यहां एक क्षण भी दिन के समान प्रतीत होता है बस केवल यही दुःख है और मुझे कोई दुख नहीं।" यह मुनकर मैनासुन्दरी ने कहा, "हे नाथ प्रापका यह विचार विल्कुल सत्य और बहुत उत्तम है। जिन पुत्रों ने अपने कुल, देश, जाति, धर्म व पितादि गुरुजनों के नाम Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७६ णमोकार मंथ का लोप कर दिया यथार्थ में वे पुत्र कुल के कलंक ही हैं। इसलिए हे स्वामी ! यहाँ से चतुरंग सेना लेकर अपने देश को चलिए और सानन्द चिन्ता मिटाकर स्वराज्य भोगिए।" ऐसे वचन अपर मुख से सुनकर श्रीपाल ने कहा- "हे प्रिये ? तुमने जो कहा वह ठीक हैं परन्तु क्षत्रिय लोग कभी किसी के सामने हाय नहीं नीचा करते अर्थात याचना नहीं करते सो प्रथम तो मांगना ही बुरा है और कदाचित यह भी कोई करे तो ऐसा कौन कायर व निर्लोभी होगा जो दूसरों को राज्य देकर पाप पराश्रित जीवन व्यतीत करे । संसार में कनक और कामिनी को कोई भी खुदो-खुशी किसी को नहीं सौंप देता है और यदि ऐसा हो भी तो मेरा पराक्रम किस तरह प्रगट होगा? अपने बाहुबल से ही प्राप्त हुआ राज्य सुख का दाता होता है दूसरी बात यह है कि जहां तक अपनी शक्ति से काम नहीं लिया वहाँ तक राज्य किस अाधार पर चल सकता है ? तीसरे शक्ति को काम में न लाने से कायरता भी बढ़ती जाती है। फिर समय पर शत्रु से रक्षा करना कठिन हो जाता है। विद्या अभ्यास कारिणी ही होता है इसलिए पुरुष को सदैव सावधान रहना ही उचित है इसीलिए हे वरनार ! मैं विदेश में जाकर निज वाहुबल से राज्यादि वैभव प्राप्त करूंगा। तुम आनन्द से अपनी सास की सेवा माता के समान करना और नित्य प्रति जिन देव के दर्शन, स्तबनादि षट कर्मों से सावधान रहना। तुम किसी प्रकार की चिन्ता न करना। मैं शीघ्र ही आकर मिलगा।" पति के ये वचन यद्यपि मैंनासुन्दरी के लिए दुखदायक थे परन्तु जब उसको यह विश्वास हो गया कि 'अब स्वामी नहीं मानेंगे वे अवश्य ही विदेश जायेंगे इसलिए अब इनके चलते समय प्रबरोध करना उचित नहीं है-ऐसा समझ कर वह धीमे स्वर से बोली- "हे स्वामिन ! आपको आज्ञा मुझे शिरोधार्य है परन्तु ये तो बतलाइए कि अब इस अवला को पुन: आपके दर्शन कब होंगे जिसके सहारे व पाशा पर चित्त को स्थित रखा जाय ?" तब श्रीपाल ने कहा-"प्रिये ! बिल्कुल अधीर मत हो । चित्त में धर्य रख मैं बारह वर्ष पूर्ण होते ही इसी अष्टमी के दिन अवश्य प्रा मिलूंगा। इसमें किंचित मात्र भी अन्तर न समभता इस प्रकार श्रीपाल जी पतिपरायण मैनासुन्दरी को सन्तोष देकर अपनी माता के पास पहुंचे और नमस्कार कर माता से प्रार्थना की और माता से अपने मन का समस्त वृतान्त निवेदन करके विदेश गमन के लिए आज्ञा देने की प्रार्थना की। माता कुदप्रभा पुत्र का शुभ अभिप्राय जानकर कहने लगी- हे पुत्र ! अब बहुत दिनों में आकर तो तुम्हारे वियोग जनित हृदय को दाह को शान्त किया था क्या अब मुझे फिर वहीं वियोग जनित दुःख देखना पड़ेगा इसलिए हे पुत्र जाने की आज्ञा देते हुए मेरे चित्त को बहुत दुःख होता है परन्तु मैं अब रोक भी नहीं सकती हूं इसलिए अब तुम जाते ही हो तो जानो। श्री जिनेन्द्र देव और देव, गुरु, धर्म के प्रभाव से तुम्हारी यात्रा सफल हो।" इस प्रकार श्रीपाल जी ने माता से शुभाशीदि और आज्ञा ले, उसी रात्रि को पिछले पहर में सर्व उपस्थित जनों को यथायोग्य प्रणाम पंचपरमेष्ठी का उच्चारण करते हुए, हर्षित हो, उत्साह सहित नगर से प्रयाण किया। श्रीपाल जी वहाँ से चलते-चलते वत्सनगर में पाए। उन्होंने वहां वत्स नगर के चंरक वन में एक वृक्ष के नीचे तत्र निवासी वस्त्राभूषणों से अलंकृत व क्षीण शरीर एक विद्याधर को क्लेश युक्त व मंत्र जपते हुए देखा । परन्तु इतना क्लेश उठाने पर भी मंत्र सिद्ध नहीं होता था, इससे वह उदास चित्त हो रहा है'-ऐसा देखकर श्रीपाल ने उसके निकट जाकर पूछा तो उसने अपना समस्त वृतान्त कहकर उससे विद्यासाधन करने के लिए निवेदन किया । तब श्रीपाल उसके बारंबार कहने और प्राग्रह करने से शुद्धता पूर्वक निश्चल आसन लगाकर मन, वचन, काय की स्थिरता से शुद्ध भाव पूर्वक मंत्र जपने के लिए बैठ गए सो एकाग्रचित्त से Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार ग्रंथ पाराधन करने से उन्हें एक ही दिन में विद्या सिद्ध हो गई तब उन्हें सफल देखकर वह वीर उठा पौर प्रणाम करके श्रीपाल की स्तुति कर उनसे कहने लगा "है स्वामिन् । यह विद्या आप ही अपने पास रखिये तथा मुझे मेरे घर जाने की आज्ञा दीजिए।" तब श्रीपाल ने कहा -"हे वीर ! मेरा यह धर्म नहीं है कि दूसरे को विद्या को छीन कर मैं गिधागन बनूं । गरे मैंने इसमें किया ही दपा है ? तुम्हारे दुराग्रह से मैंने अपनी शक्ति की परीक्षा की है"-ऐसा कह उस विद्याधर को वह विद्या दे दी। तब पुनः उस विद्याधर ने स्तुति करके कहा-"हे स्वामिन ! यदि आप इस विद्या को स्वीकार नहीं करते है तो ये जलतारिणो व शत्रुनिवारिणी ये दो विद्यायें अवश्य ही भेंट स्वरूप स्वीकार कीजिए तथा मुझ पर अनुग्रह कर मेरे गृहको अपने पवित्र चरण कमलों से पवित्र कीजिए"-ऐसा कह उक्त दोनों विद्याएं श्रीपाल जी को भेंट स्वरूप देकर अपने स्थान पर ले गया तथा कुछ दिन तक अपने यहाँ रख कर बहुत सेवा को । पश्चात् उनको उनको इच्छानुसार विदा कर प्राप सानंद प्रायु व्यतीत करने लगा। इस प्रकार श्रोपाल जी ने घर से निकल कर वत्सनगर के विद्याधर को अपना सेवक बनाकर और उससे उक्त दो विद्याएँ भेंट स्वरूप ग्रहण कर भागे को प्रयाण किया और वहां से चलकर भू मुकच्छपुर पाए । यह नगर समुद्र तट के समीप होने से प्रति रमणीक था सो वे चमते-घमत उस नगर के उपवन में पहुंचे और वहाँ पास हो एक स्थान पर जिन मर्मा हर्षित हो प्रभु के दर्शनार्थ उसमें प्रवेश किया वहाँ भगवान को सभक्ति साष्टांग नमस्कार कर के स्तवन कर अपना धन्य, जन्म मानने लगे। श्रीपाल भगवान का दर्शन स्तवन व सिद्धचक्रव्रत का पाराधन करते कितने ही काल पर्यन्त इसी नगर में रहे । इसी समय कौशाम्बी नगरी निवासी धवल सेठ व्यापार के निमित्त देशांतर को जाने के लिए पांच सौ जहाज भर कर इसी नगर के समीप पाया। पवन के योग से वे जहाज किसी खाड़ी में जा पड़े। उस सेठ के साथ जितने आदमी थे उन सब ने मिलकर शक्ति भर प्रयत्न किया परन्तु वे जहाज खाड़ी से न निकाल सके। तब सेठ को भारी चिन्ता हुई। तब वह वहाँ से उदास चित्त नगर में गया और वहां किसी दक्ष निमित्त ज्ञानी से अपना वृत्तान्त निवेदन कर जहाजों के भटक जाने का कारण पूछा । तब उसने कहा-"हे श्रेष्ठि! तुम्हारे अशुभ कर्म का उदय है इसलिए तुम्हारे जहाज जलदेवों ने कील दिए हैं यदि किसी गुणवान्, सुन्दर, गम्भीर और शुभ लक्षणवंत तथा शूर वीर पुरुष की उन देवों को बलि दी जाए तो तुम्हारे जहाज चल सकते हैं अन्यथा नहीं।" यह सुनकर सेठ अपने डेरे में पाया और अपने मंत्रियों से मंत्रणा करके बहुमूल्य वस्तुएं भेंट स्वरूप ले जाकर राजा से मिला। राजा को अपनी प्रमूल्य वस्तुएँ भेंट पाने से प्रसन्नचित देखकर अपना समस्त वृतान्त कह सुनाया और एक मनुष्य को बलि देने की प्राज्ञा प्राप्त कर ली और तदनुसार ऐसे मनुष्य को जो कि अकेला हो, गुणवान हो, निर्भय हो ढूंढने के लिए अपने सेवकगण चारों प्रोर भेज दिए। उनमें से कुछ मनुष्य वहां जा किलले जहाँ पर उपवन में एक वृक्ष के नीचे श्रीपाल जी शीतल छाया में सो रहे थे। उन्हें सोते हुए देखकर वे मन में विचार करने लगे कि जैसा पुरुष चाहिए, यह ठीक वैसा ही मिल गया है। बस अपना काम बन गया परन्तु उन्हें जगाने का किसी को साहस नहीं पड़ता था। सब लोग एक दूसरे को उसे जगाने की प्रेरणा दे रहे थे। कि इतने में श्रीपाल जी की नींद खुल गई पौर खि खुलते ही मपने माप को चारों भोर से मनुष्यों से घिरा हुमा पाया तब निःशंक होकर बोले-"तुम कौन हो और मेरे पास किस लिए पाए हो?" Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमोकार च तब सेठ के नौकर बोले, "हे स्वामिन् ! कौशाम्बी नगरी का एक धनिक व्यापारी जिसका नाम धवल सेठ है, व्यापार के निमित्त पांच सौ जहाज लेकर विदेश को जा रहा था । सो किसी कारण से उसके जहाज खाड़ी में अटक गए हैं और मंत्रणा करके विवेक रहित हो जहाज चलाने के लिए एक बलि देना निश्चय कर हमको मनुष्य की तलाश में भेजा है सो मनुष्य हमको कोई मिलता नहीं है और सेठ का डर भी बहुत लगता है कि खाली जाएगें तो मार डालेगा आर वापस नहीं जायें तो हमें ढुंढवा कर फिर हमें अधिक कष्ट देगा। इसलिए हम आपकी शरण में हैं। किसी तरह हमें 'बचाइए यह सुनकर श्रीपाल बोले-"भाइयो तुम भय न करो। तुम कहो तो क्षण भर में करोड़ों वीरों का मर्दन कर डालू और कहो तो वहाँ चल कर सेठ का काम कर दूं?" तब वे आदमी स्तुति करके गद्गद् बचन बोले-"स्वामिन यदि आप वहीं पधारेंगे तो प्रति कृपा होगी और हम लोगों के प्राण भी बच जायगें। श्रापका यश बहुत फैलेगा। पाप धीर बीर हो। आपसे सब काम हो जाएगा।" यह सुनकर श्रीपाल' जी तुरन्त ही यह विचार कर-"देखें कर्म का क्या बनाब है, क्या-क्या कौतुक होगा? मैं भी अपने बल की परीक्षा कर लूंगा" उन वनचरों के साथ चलकर शीन ही धवल सेठ के पास प्रा पहचा। सेवक सेठ से हाथ जोडकर बोले- हे सेठ ! आप जैसा पुरुष चाहते थे सो यह ठीक वैसा ही लक्षणयन्त है । अब श्राप का कार्य निस्संदेह हो जाएगा।' सो उस लोभ अन्ध-धवल सेठ ने बिना ही कुछ सोचे और बिना पूछे कि 'तुम कौन हो श्रीपाल' को बुलाकर, उबटना करा कर स्नान करवाया। इतर, फुलेल, चन्दनादि लगाकर उत्तम-उत्तम वस्त्राभूषण पहिनाए और बड़े गाजे बाजे सहित उस स्थान पर जहां जहाज अटक रहे थे, ले गए। तब वहाँ शूरवीरों ने इनके मस्तक पर घलाने के लिये खड़ग उठाया। तब श्रीपाल जी हषित हो मन में यह विचारते हुए कब इन सब का काल निकट पाया है बोले-"अरे सेठ! तुझे यहाँ जीव-वध करने से प्रयोजन है कि अपने जहाजों के चलने से है।" सेठ ने उत्तर दिया-"हमको जहाज चलाना है । यदि तू चला देगा तो तुझे फिर कोई तकलीफ देने वाला नहीं है।" तब श्रीपाल' जी बोले-"परे मूर्ख, लोभाँध ! तूने मुझे देखकर जरा भी शंका नहीं की और बलि देने को तत्पर हो गया सो ठीक ही है। क्योंकि कहा भी है - "थि दोषो न पश्यति'' क्या तू समझता है कि मैं यहाँ तेरे उद्यम के अनुसार बलि हो जाऊगा ? देखू तेरे पास कितने शूरवीर हैं ? सबको एक ही बार में चूर-चूर कर डालूंगा देखू कौन साहस कर मेरे सामने बलि देने को प्राता है ? प्रानो शीघ्र ही प्रायो । देर मत करो और फिर देखो मेरे पराक्रम को । हे दुष्टो ! तुमको जरा भी लज्जा नहीं आती। विचार होन ! केवल लोभ के बश अनर्थ करने पर कमर बांध ली है सो यानो मैं देखता हूं कि तुम कितने पराक्रमी वीर हो श्रीपाल जी के साहस युक्त ऐसे निर्भय वचन सुनकर धवल सेठ और उसके सब पादमी मारे भय से कांपने लगे और नम्रता से विनय सहित स्तुति करके बोले--"स्वामिन् ! हम लोग अविवेकी हैं । आपका पुरुषार्थ जाने बिना ही यह साहस किया था। प्राप दयालु, साहसी, न्यायी व गुणवान हो। हम आपकी प्रशंसा कहाँ तक करें ? अब क्षमा करो और हमसे प्रसन्न होमो हम लोगों का संकट निवारण करो।" इस पर श्रीपाल जी को दया आ गई। तब उन्होंने अाशा दी-"अच्छा तुम लोग अपने जहाजों को शीघ्र तैयार करो।" तुरन्त ही सब जहाज तैयार किए गए। Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार पंथ जहाजों को तैयार देखकर श्रीपाल जी ने पंच परमेष्ठी का जापकर सिद्धच का पाराधन किया और पांव के अंगूठे से ज्यों ही जहाजों को स्पर्श किया त्योंही सय जहाज चल पड़े मत्र लोगों में जय-जयकार होने लगा। बहुत खुशी मनाई गई। सब लोग थोपाल जो के साहस, रूप, बल व पुरुषार्थ की प्रशंसा करने लगे और सबने उनको अपने साथ ले जाने का विचार कर प्रार्थना की कि -"ह स्वामिन् ! यदिग्राप हम लोगों पर अनुग्रह कर साथ चलें तो हमारी यात्रा सफल हो।" तब श्रीपाल जी ने कहा- "सेठ जी! यदि आप अपनी कमाई का दसवाँ भाग मुझे देना स्वीकार करें तो निसंशय चलू ।" सेठ ने यह बात स्वीकार की और श्रीपाल जो ने धवल सेट के साथ जहाजों पर सवार होकर प्रस्थान किया। जव समुद्र में धवल सेठ के जहाज चले जा रहे थे कि इतने म एकाएक मरजिया (जहाज के ऊपर सिरे पर बैठकर दूर तक देखने वाला) एकदम चिल्लाकर बोला"वीरो! सावधान हो जाओ । अव असावधान रहना उचित नहीं है। देखो सामने से एक बड़ा भारी तस्करों का समूह चला आ रहा है ।" ये सुनते ही सब सामन्न लोग हथियार कर सामने पाये। इतने में लुटेरों का दल भी सामने आ गया और उन सबने मिलकर सेठ के जहाजों पर आक्रमण किया । परन्तु सेठ के शूरबीरों ने उन्हें कृतकृत्य न होने दिया और उल्टा मार भगाया। अपने को निर्विघ्न हुया जान सेठ के दल में आनन्द ध्वनि होने लगी। परन्तु इतने ही से इस आपत्ति का अन्त नहीं हुआ था। वे डाकू लोग कुछ दूर तक जा कर एकत्र हुए और सबने सहमत होकर यह निश्चय किया कि एक बार और धाबा करना चाहिए। बस फिर उन लोगों ने पुन: प्राकर उनके रंग में भंग डाल दिया और इस जोर से अाक्रमण किया कि सेठ के सामन्तों की बात ही बात में पराजय कर धवल सेठ को जीते जो ही बोध कर ले गये। तब सेठ के दल में बड़ा भारी कोलाहल मच गया। यहां तक श्रोपाल जी सब घटना चुपचाप बैठे देखते रहे । सो ठीक ही है-धीर-बीर पुरुष क्षुद्र पुरुषों पर क्रोध नहीं करते, चाहे वे कितना ही उपद्रव क्यों न करे । जैसे मदोन्मत्त हाथी अपने पर सहस्त्रों मविख्या भिनभिनाती हुई देखकर भी क्रोध नहीं करता है क्योंकि यह समझता है कि मैं इन दीनों पर क्या क्रोध करूं'। एक जरा मेरे कान हिलाने मात्र से ये दिशा विदिशामों की शरण लेने लगेंगी अर्थात सब भाग जायगी।' निदान श्रीपाल को तस्करों के शारा धवल सेठ को बांध कर ले जाते हुए देखना सहन नहीं हुआ। उठकर खड़े हुए कि इतने ही में सेठ के प्रादमी रुदन करते हुए पाये और करणाजनक स्वर में बोले-"स्वामिन् । बचासो देखो सेठ को डाक लोग बाँधे लिए जा रहे हैं।" सो एक तो वैसे ही श्रीपाल जी को क्रोध उत्पन्न हो गया था फिर दोनों की दोन वाणीने मानों अग्नि में घी छोड़ दिया हो। इस तरह वह क्रोध और भी जोर पकड़ गया । वे वोले - "हे वीरो ! बर्य रखो। चिन्ता न करो मैं देखता हूं चोरों में कितना बल है ? बात की बात में सेठ को छुड़ाकर लाता हूं।" श्रीपाल जी के वचनों से सबको सन्तोष हुआ सौर श्रीपाल जी तुरन्त ही शस्त्र धारण कर चोरों को सामने जाकर ललकारा-"हे नीचो ! क्या तुम मेरे सामने सेठ को ले जा सकते हो ? कायरो ! खड़े रहो या तो सेठ को छोड़ कर क्षमा मांगो नहीं तो तुम अपना वध ही जानों।" श्रीपाल की यह सिंह गर्जना सुनकर ये डाकू मृगदल के समान तितर-बितर हो गए तथा किसी प्रकार अपना बचाव न देखकर थरपर कांपने लगे। निदान यह सोचकर कि यदि मरना होगा तो इन्हीं के हाथ से मरेगें, अब तो इनकी शरण लेना ही श्रेष्ठ है। यदि इन्हें क्या प्रा गई तो बच हो जायगे और जो भागेंगे Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार प्रष तो यह एक-एक को पकड़ कर समुद्र में डुबो कर नाम निशान मिटा देगें। यह सोच कर श्रीपाल की शरण में पाए और सेठ का बन्धन छोड़कर नतमस्तक होकर बोले-"स्वामिन् ! हम लोग प्रापकी शरण में हैं जो चाहे जो सजा दीजिए।" तब श्रीपाल ने धवल सेठ से पूछा- "हे तात ! इन लोगों को क्या प्राज्ञा है?" धवल सेठ तो भर चित्त. अविचारी तथा लोभी था। मंत्रणा करके बोला--"इन सबको बहुत कष्ट देकर मार डालना चाहिए।" श्रीपाल जी ऐसे कठोर वचन सुनकर बोले- ये तात ! उत्तम पुरुषों का कोप क्षण मात्र होता है और शरण में पाए हुए को जो भी मारता है वह महा निर्दयी अधोगति का अधिकारी होता है। दयालु मनुष्यों का भूषण दया ही धर्म का मूल है । दया के बिना अप, तप, अत, उपवास प्रादि माचरण करना केवल कषायमात्र है प्रतएव मनुष्ट मात्र को दया को कभी नहीं छोड़ना चाहिए और फिर जब हम सरीखे पुरुष आपके साथ मौजद हैं फिर आपको चिन्ता ही किस बात की है ?" तब लज्जित होकर सेठ ने कहा-"कुमार आपकी इच्छा हो सो करो । मुझे उसी से सन्तोष है।" तब श्रीपाल जी इस प्रकार उन चोरों को लेकर अपने जहाज पर भाए और उन सबके बंधन खोलकर बोले-~"हे वीरो ! मुझे क्षमा करो। मैंने तुम्हें बहुत कष्ट दिया । आप यदि हमारे स्वामी को पकड़कर नहीं ले जाते तो यह समय प्राता नहीं।" इत्यादि सबसे क्षमा मांग कर सबको स्नान कराया और वस्त्राभूषण पहनाकर सबको पंचामृत का भोजन कराया तथा पान, इलायची व इत्र, फुलेल प्रादि द्रव्यों से भली प्रकार सम्मानित किया। वे डाकू श्रीपाल जी के इस बर्ताव से अति प्रसन्न हुए और सहस्त्र मुख से स्तुति करने लगे और प्रपना मस्तक श्रीपाल के चरणों में रख कर बोले-'हे नाथ ! हम पर कृपा करो ! धन्य हो पाप, प्रापका नाम चिरस्मरणीय है।" इस प्रकार परस्पर मिलकर वे डाकू श्रीपाल से विदा होकर अपने घर गए और श्रीपाल तथा धवल सेठ मानन्द से मिलकर समय व्यतीत करने लगे और अपनी आगामी यात्रा का विचार कर प्रयाण करने को उद्यत हुए । वे डाकू लोग श्रीपाल से विदा होकर अपने स्थान पर गए और श्रीपाल के साहस और पराक्रम की प्रशंसा करने लगे-'धन्य हैं उस वीर का बल कि जिसने बिना हथियार एक लाख डाकू बांध लिए और फिर सबको छोड़कर उनके साय बड़ा अच्छा सलूक किया, इसलिए इसको इसके बदले अवश्य ही कुछ भेंट करना चाहिए क्योंकि अपने लोगों ने बहुत से डाके मारे और अनेक देशों में अनेक पुरुष देखे हैं परंतु प्राज तक ऐसा कभी नहीं देखा है। इसने पूर्व जन्मों में अवश्य ही महान तप किया है या सुपात्र दान दिया है इसी का यह फल है-ऐसा विचार कर वे 'चोर बहुत सा द्रव्य लेकर और सात जहाज रत्नों से भरे हुए प्रपने साथ ले श्रीपाल के निकट पाये और विनय सहित स्सूति कर वे जहाज बन्य सहित भेंट कर विदा हो ग ठीक कहा :-'पुण्य से क्या काम नहीं हो सकता है।' पुण्य को महिमा प्रचित्य है । ऐसा जान सब पुरुषों को पुण्य सम्पादन करना चाहिए । इस प्रकार श्रीपाल जी उन डाकुमों से रत्नों के भरे सात जहाज भेंट स्वरूप लेकर उन्हें अपना माज्ञाकारी बना धबल सेठ के साथ समुद्र यात्रा करते हुए कुछ दिनों में इंसद्वीप में जा पहुंचे। यह द्वीप वन, उपवनों से सुशोभित रत्न, सुवर्ण, रुप्य ताम्रादि खानों और सुन्दर २ सुगन्धित वृक्षों तथा मनोज्ञउतंग मंदिरों से परिपूर्ण स्वर्णपुरी के समान मनोहर मालूम होता था। इस द्वीप का राजा कनककेतू और रानी कंचनमाली थी। इसके दो पुत्र प्रौर रयणमंजूषा नाम की एक कन्या थी। जब वह यौवन अवस्था में पदार्पण करने लगी तो राजा को उसके वर के अनुसंधान करने की चिता Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णाकार ग्रंप ३८१ व्यापने लगी। महाराज कनककेतु ने एक समय मुनिराज से पूछा- "भगवान् ! मेरे मन में एक चिता उत्पन्न हुई है कि मेरो पुत्री रयणमंजूषा का वर कौन होगा, सो मुझ पर कृपा कर मुझे चिन्तासागर से निकाल सुखी कीजिए जिससे मेरा संशय दूर हो।" तब वे परम दयालु मुनिवर बोले-"राजन् ! जो सहस्रकूट चैत्यालय के कपाट अाने कर कमलों से खोलेगा वहीं निश्चय करके तेरी पुत्रो का स्वामी होगा।" तब राजा प्रसन्न हो नमस्कार कर अपने घर पर पाया और आते ही अपने नौकरों को प्राज्ञा दी कि-"जानो तुम लोग सहस्त्रकूट चत्यालय के द्वार पर पहरा दो और जो पुरुष प्राकर वहाँ के कपाट खोले उसी समय पाकर हमको खबर दो और उस पुरुष का भली प्रकार सम्मान करो।" राजा की आज्ञा पर नौकरों ने उसी समय से वहाँ पर पहरा देना प्रारम्भ कर दिया तथा उसी समय धवल सेठ के जहाजों के साथ श्रीपाल जी का शुभागमन हुप्रा । यहाँ की शोभा और इसे व्यापार के लिए उत्तम स्थान देखकर जहाजों के संगर डाल दिए गए तथा नगर के निकट डेरा डाला गया। धवल सेठ प्रादि पुरुष व्यापार की खोज में बाजार की हलचल देखने के लिए नगर में गए और श्रीपाल जी भी गुरु वचन को स्मरण करके कि जहाँ जिन मन्दिर हो यहाँ पर प्रथम ही जिन दर्शन करके सारे कार्य करना और नित्य षट् आवश्यक कार्यों को यथाशक्ति पूर्ण करना'- यह विचार कर जिनमन्दिर की खोज में गए । वे अनेक प्रकार की शोभा देखते और मन को आनन्द युक्त करते हुए एक अति ही रमणीक स्थान में पाए और वहाँ अति विशाल व उतंग स्वर्ग सा बना हुआ सुन्दर मन्दिर देखा। उसे ही प्रानन्दित हो मन्दिर के द्वार पर जाकर देखा कि दरवाजा वज. मयी किवाड़ों से बन्द था। तब वे पहरेदार विनय सहित कहने लग __"हे स्वामिन् ! यह श्री जिन मन्दिर है । वज्र के कपाटों से बंद कराया गया है । इसमें और कुछ विकार नहीं है परंतु आज तक ये किवाड़ किसी से नहीं खोले गए हैं । अनेकों योद्धा आये और अपना-२ बल लगाकर थक गए परंतु ये कपाट नहीं खुले हैं।" श्रीपाल जी द्वारपालों के वचन सुनकर चुप हो गए तथा मन में हर्षित हो सिद्धचक्र की प्राराधना कर ज्यों ही उन किवाड़ों पर हाथ लगाया त्यों ही वे किवाड़ खट से खुल गए। श्रीपाल ने हर्षित होकर ___'जय निःसही, जय निःसही, जय निःसही, जय, जय, जय' इत्यादि शब्दों का उच्चारण करते हुए मन्दिर के मध्य प्रवेश किया और श्रीजिन के सन्मुख खड़े होकर मधुर स्वर से स्तुति पाठ पढ़ने लगे । तदनंतर सामायिक, वन्दना, मालोचना, प्रत्याख्यान, कायोत्सर्ग आदि षट् मावश्यक कार्य कर स्वाध्याय करने लगे और वे द्वारपाल जो पहरे पर थे ऐसे विचित्र शक्तिधर पुरुष को देख कर पाश्चर्यान्वित हुए । उनमें से कुछ तो वहाँ ही रहे और कुछ राजा के पास गए । उन्होंने जाकर सम्पूर्ण बृतान्त राजा से कह सुनाया। राजा यह समाचार सुनकर बहुत प्रसन्न हुआ और समाचार देने वालों को बहुत कुछ परितोषिक दिया । पश्चात् पाप बड़े उत्साह से मंत्रीगणों को साथ लेकर समारोह के साथ सस्कट चैत्यालय पहुंचे तथा सानन्द भक्ति पूर्वक प्रदक्षिणा देकर नमस्कार किया। पश्चात् भगवान की स्तुति करने लगे। ___ स्तुति करने के पश्चात् श्रीपाल के निकट प्राये और यथायोग्य अभिवादन आदि के पश्चात् कुशलक्षेम पौर प्रागमन का कारण पूछने लगे-"हे कुमार ! पापका देवा कौन-सा है ? किस कारण यहां तक मागमन हुमा?" इत्यादि प्रश्न राजा ने किए । तब श्रीपाल जी मन में विचारने लगे 'यदि में अपने मुख से प्रपना बतात कहूंगा तो राषा को निश्चय होना कठिन है क्योंकि इस समय मेरे कपन को Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार मथ साक्षी करने वाला कोई नहीं है सो बिना साक्षी सच भी झूठा हो जाता है। अब राजा को किस प्रकार उत्तर दू जिससे भ्रम मिटे' इत्यादि सोच विचार कर ही रहे थे कि पूर्व पुन्य के योग से दो मुनिराज विहार करते हुए कहीं से वहाँ पा गए । सो ये दोनों उन दोनों को देखकर परमानंदित हो उठ खड़े हुए और बड़ी विनय से स्तुति करने लगे। तदनंतर गुरु की स्तुति करके वे दोनों अपने-२ स्थान पर बैठ गए और श्रीगुरु ने उनको धर्मवृद्धि देकर संसार सागर तारक सद्धर्म का उपदेश दिया जिसे उन्हों ने ध्यानपूर्वक सुनकर हृदय में धारण किया । पश्चात् राजा कनक केतू ने विनयपूर्वक पूछा--"हे प्रभो! यह पुरुष (श्रीपाल) कौन है और किस कारण से यहाँ आया सो सब वृतांत कहिए ?" तब मुनिराज ने श्रीपाल का कुष्ट रोग से व्यथित होना, जिसके कारण से स्वदेश को छोड़कर सात सौ सखामों सहित वन में रहना। वहां पर पूर्व पुण्योदय से राजा पदुपाल का संयोग होना तथा प्रसन्न होकर उज्जैन ले जाकर मनासुन्दरी का विवाह होना आदि समस्त वृतांत सविस्तार ज्यों का त्यों कह सुनाया। श्रीपाल का चरित्र सुनकर राजा बहुत प्रसन्म हुआ और मुनिवरों को नमस्कार कर श्रीराल जी को साथ ले अपने महल को पाया तथा शुभ घड़ो व शुभ मुहूर्त विचार कर अपनी पुत्री रयणमंजूषा का विवाह उनके साथ कर दिया । इस प्रकार श्रीपाल रयणमंजूषा से शादी करके वहाँ पर सुखपूर्वक समय व्यतीत करने लगे तथा धवल सेठ भी यथायोग्य वस्तुओं का क्रय-विक्रय करने लगे। कुछ समय के अनंतर जब धवल सेठ व्यापार कर चुके थे तब श्रीपाल से सहमत होकर राजा के पास आए और विनीत भाव से कहने लगे :-- हे नरनायक! प्रजा बालस्वामी! हमको आप प्रसाद बहत आनन्द रहा तथा हमने बहुत सुख भोगा । अब आपकी प्राज्ञा हो तो हम लोग देशांतर को प्रयाण करें ।" यद्यपि राजा को सेठ के ये वचन अच्छे नहीं मालूम होते थे परंतु ये सोचकर कि यदि हम उन्हें ह पूर्वक ठहराये रक्खेगें तो इन्हें अंतरंग में दुःख होगा । अतएव इनकी अभिरुचि के अनुकूल ही करना उचित है। प्रत: वे उदास होकर बोले-"पाप लोगों की जैसी इच्छा हो और जिस तरह आपको हर्ष हो सो ही हमको स्वीकार है ।" इस प्रकार इनके वचन स्त्रीकार कर देशांतर को नमन करने को प्राशा दे दी और बहुत-सा धन, धान्य, दासी, दास, हिरण्य, सुवर्णादि तथा अमूल्य रत्न भेंट देकर निज पुत्री रयणमंजूषा को विदा कर दिया। चलते समय राजा बहुत दूर पहुँचाने को गये। पश्चात् श्रीपाल और प्रवल से अपनी क्षमा मांग कर राजा निकटवर्ती मनुष्यों सहित लौट कर अपने निवास स्थान पर पाए। थीपाल ने वहाँ से विदा होकर प्रौर रयणमंजूषा को साथ लेकर हंसद्वीप से प्रयाण किया। श्रीपाल जब रयणमंजूषा को साथ लेकर धवल सेठ के साथ जलयात्रा करने लगे तब राजा और हंसद्वीप के अन्य मनुष्यों को इनके वियोग से बड़ा दुःख हुआ । श्रीपाल को ससुर के छोड़ने में तथा रयणमंजूषा को मातापिता के छोड़ने का भी इतना ही रंज हुमा जितना कि उनको हुआ था। परंतु वे ज्यों-ज्यों दूर-दूर निकलते जाते थे त्यों-त्यों परस्पर की याद भूलने से दुःख कम हो जाता था। ये देपति सुख पूर्वक समय व्यतीत करके सर्वसंघ मन रंजायमान करते हुए चले जा रहे थे । सब जहाजों के स्त्री-पुरुषों में इन दोनों के पुण्य की महिमा कही जाती थी। ये दोनों सबके दर्शनीय हो रहे थे परंतु दुष्टकर्म इनके इस प्रानन्द को सहन नहीं कर सका इसलिए उसने इनके सुख में बाधा डालनी प्रारम्भ कर दी प्रर्थात् वह कुतघ्नी बणिक (धवलसेठ) जो इनको धर्म सुत बनाकर और दसवें भाग द्रव्य देने का प्रण करके साय लाया पा रमणमंजूषा की अनुपम स्वर्गीय सुन्दरता देखकर मोहित हो गया पौर निरंतर उसी को प्राप्ति के Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार ग्रंथ १८३ उपाय की चिंता में क्षीण शरीर होने लगा। एक दिन वह दुष्टमनी रयणमंजूषा का अवलोकन कर दुर्तित हो गया और गिर पड़ा जिमसे सन्न जहानों में बड़ा कोलाहल मच गया श्रीपाल भी वहाँ पर दौड़े पाए । आते ही धवल सेठ को मुछिन पड़े हुए देख गोद में उठा लिया और शीतल उपचार करके जैसेतैसे उनकी मूर्छा दूर की। जब वह कुछ सचेत हुआ तो श्रीपाल ने उसको वेदना से बहुत पौडिन देखा। तव श्रीपाल ने बहुत मिष्ठ नन वचनों से पूछा-'हे तान! आपको क्या वेदना है सो कृपा कहिये जिससे उसका प्रतिकार किया जाए ।" तब सेठ ने अंतरंग कपट रख बात बनाकर कहा ___"हे वीर ! मुझको वात रोग है । सो दस पांच वर्ष में कभी-कभी अकस्मात मुझे इस रोग का आक्रमण हो जाया करता है । औषधि सेवन करने से साता हो जायगी। आप चिन्ता न करें।" तब श्रीपाल उनको धैर्य देकर और अंगरक्षकों को ठीक सेवा सुश्रूषा करने की ताकीद करके अपने निवास स्थान पर चले पाए 1 पश्चात् मन्त्रीगणों ने उससे पूछा-“सेठ जी ! कृपा करके कहिए पाएको क्या रोग है और इसका क्या प्रतिकार किया जाय जिससे आपको माता हो ।" तब धवल सेठ ने लगशून्य होकर कहा कि-'हे मन्त्रीगणो मुझे और कोई रोग नहीं है, केवल विरह की पीड़ा है सो यदि वह कोमलांगी मझे नहीं मिलेगी तो मेरा जीवित रहना महा काष्ट माध्य है। अनाव तुम लोग मेरा जीवन चाहते हो तो जिस प्रकार बने उसी प्रकार उसे प्राप्त करने का उपाय शीव्र हो की जिा।" मन्त्रियों को सेठ के ऐसे निद्य वचन सुनकर बहुत धृणा हुई । वे विचारने लगे कि सेठ की बुद्धि नष्ट हो गई है। इस कुबुद्धि का समस्त फल समस्त संघ का क्षय होना प्रतीत होता है। यह मोच कर मंत्रीगणों ने शास्त्रीय पाख्यानों तथा युक्तियों द्वारा बहुत कुछ रामझाया परन्तु उसके हृदय में एक वाक्य भी प्रवेश न कर सका जिस प्रकार चिकने घड़े पर जल नहीं ठहरता । वह बारम्बार उन्हीं वाक्यों को कहता रहा। निदान मंत्रियों ने कहा---''सेठ जी ! देखो हठ छोड़ो। हम तो प्रापके प्राज्ञाकारी हैं1 जैसी आपकी प्राज्ञा होगी वैसा ही करेंगे परन्तु स्वामी के हित अहित और लाभ हानि की मुचना स्वामी को कर देना हमारा धर्म है। हम लोगों की बात पीछे याद करोगे।' परन्तु जब देखा कि सेठ नहीं मानता तब वे बोले-"है सेठ ! इसका केवल एक ही उपाय है कि मरिजया को बुलाकर साध लिया जाय कि एकाएक कोलाहल मचा दें कि मागे न मालम जानवर है या चोर है। या कुछ दैवी चरित्र है। दोड़ो उठो सावधान होयो । सो इस आवाज से श्रीपाल जब मस्तूल पर चढ़ कर देखने लगेंगे। तब मस्तूल (जहाज का खंभ जिस पर चढ़ कर दूर तक समुद्र में देख सकते हैं) काट दिया जाय । इस तरह वे सगुट में गिर जायगे तथा प्रापका मनवांछित कार्य सिद्ध हो जाएगा अन्यथा उसके रहते उसकी प्रिया को पाना ऐसा है जैसा कि अग्नि में से वर्फ निकालना है।" मन्त्रियों का यह विचार उस पापी को अच्छा मालूम हुआ और उसने तुरन्त मरजिया (खबर देने वाले) को बुलाकर सब प्रकार सिखा दिया । सो ठीक है-'कामी पुरुष स्वार्थ वश आने वाली आपत्तियों का विचार नहीं करते।' निदान एकदिन अवसर पाकर मरजिया ने एकाएक चिल्लाना प्रारम्भ कर दिया--' वीरो सावधान हो जायो सामने भय के चिन्ह दिखाई दे रहे हैं न मालूम बड़ा जलजन्तु है या चोरदल अथवा ऐसा ही कोई दैवी चरित्र है. तूफान है या भंवर है कुछ समझ नहीं पाता।" इस प्रकार उसके चिल्लाने से कोलाहल मच गया। सब लोग जहां तहां क्या है करके चिल्लाने पौर पूछने लगे। क्या है इतने में श्रीपाल जी को खबर लगी सो वे तत्काल ही पाए और कहने लगे"मलग हो 'यह क्या है' कहने का समय नहीं है । चलकर देखना और उसका उपाय करना चाहिए।" Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार प्रथ 1 ऐसा कह कर वे आगे बढ़ और शीघ्र ही मस्तूल पर जा खड़े हुए। बड़े गौर से चारों ओर देखने लगे परन्तु कुछ दृष्टिगोचर नहीं हुआ। इतने में नीचे से दुष्टों ने मस्तुल को काट दिया । इससे वे (श्रीपाल ) बात की बात में समुद्र में जा पड़े और लहरों में ऊंचे नीचे होने लगे। यहां (जहाजों में ) कोलाहल मचा दिया कि मस्तुल टूट जाने से श्रीपाल जी समुद्र में गिर पड़े और अब उनका पता नहीं है कि लहरों में कहां गुम हो गए । जीवित हैं या मर गए। सबने शोक मनाया और धवल सेठ ने भी बनावटी शोक मनाना आरम्भ किया। वह कहने लगा-"हाय कोटि भट्ट ! तुम कहां चले गए ? तुम्हारे बिना यह यात्रा कैसे पूर्ण होगी | हाय जहाजों को अपनी भुजाओं के बल से चलाने वाले । लक्ष चोरों को बांध कर बन्धन से छुड़ाने वाले । हाय कहां चले गए ? हे कुमार ! इस अल्पायु में असीम पराक्रम दिखा कर क्यों चले गए | तुम्हारे बिना विपत्तियों में कौन हमारी रक्षा करेगा ? हा देव ! तूने यह रत्न दिखाकर क्यों छीन लिया ?" इत्यादि केवल ऊपरी मन से बनावटी रोने लगा । अन्तरंग में तो हर्ष के मारे फल कर कुप्पा हो गया था । ३८४ जिस समय उस अबला रयणमंजूषा ने यह सुना कि स्वामी समुद्र में गिर गए हैं उसी समय बेसुध होकर वह भूमि पर मुर्छित होकर गिर पड़ी। तब सखी जनों ने शीतल उपचार कर मूर्छा दूर की तो सचेत होते ही "हे स्वामिन ! इस ग्रबला को छोड़कर तुम कहां चले गए, तुम्हारे विना यह जीवन मात्रा कैसे पूरी होगी ? हे स्वामिन ! अब यह अबला आपके दर्शन की प्यासी पपीहे की तरह से व्याकुल हो रही है । तुम्हारे बिना मुझे एक पल भी चैन नहीं पड़ता है । है जीव ! दयापालक स्वामिन ! दासी पर कृपा दृष्टि करो | मेरा चित्त अधीर हो रहा है। नाथ ! यदि मुझसे सेवा में कोई कमी हो गई थी तो मुझे उसका दण्ड देते । अपने आपको दुख सागर में क्यों डुबोया ? अब बहुत देर हो गई अब प्रसन्न हो जाओ और इस अबला को जीवन दान देदो, नहीं तो ये प्राण आपके ऊपर न्यौछावर है । हाय प्रभो। आपकी ही शरण में हूं। पार कीजिए।" इस प्रकार रयणमंजूरा ने घोर विलाप किया। उसका शरीर कुम्हला कर कुम्हलाएं पुष्प के समान प्रभावहीन हो गया। खान पान छूट गया तथा शृंगार भी। इस प्रकार उस सती को दुख से व्याकुल देख कर सब लोग यथासम्भव धेयें बंधाने लगे और पापी धवल सेठ भी बनावटी शोकाकुल होकर समझने लगा な इस "हे सुन्दरी ! अब शोक छोड़ो। होनी अमिट है। इस पर किसी का वश नहीं है। संसार का सब स्वरूप ऐसा ही है । जो उपजता है वह नियम के अनुसार नष्ट हो जाता है। अब शोक करने से क्या हो सकता है ? अब यदि तू उसके लिए मर भी जाएगी तो भी वह तुझे नहीं मिलेगा। इस पृथ्वी पर बड़े चक्रवर्ती नारायणादि हो गए हैं परन्तु काल ने सबको ग्रास बना लिया। इसलिए शोक छोड़ो। हम लोगों को भी असीम दुख हुआ है परन्तु किस से कहें और क्या करें कुछ उपाय नहीं है ? प्रकार सबने बिचार कर समझकर रयणमंजूषा को धैर्य दिया । तब उस सती ने भी वस्तु स्वरूप का विचार कर किसी प्रकार शोक कम किया और अनादि निधन मंगल रूप लोक में उत्तम शरणाधार पंच परमेष्ठी मन्त्र का मन में श्राराधना करने लगी । खानपान की सुध न रही । यों ही दो चार दिन बीत गए । स्नान विलेपन और वस्त्राभूषण का ही ध्यान ही नहीं किया था । वह किसी से बात भी नहीं करती थी । न किसी की तरफ देखती थी। उसको तो केवल पंच परमेष्ठी का स्मरण और पति का ध्यान था । पतिव्रता उन जहाजों में इस प्रकार रहतो थी जैसे जल से कमल भिन्न रहता है। वह परमवियोगिनी इस प्रकार समय व्यतीत करने लगी । I Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार ग्रंथ १८५ धवल सेठ के ये दिन बड़ी कठिनता से बीत रहे थे इसलिए उसने शीघ्र ही एक दुती को बुला कर रयणमंजूषा को डिगाने के लिए भेजा सो व्याभिचार की खान पापिनी दूती लोभ के वश होकर शीघ्र ही रयणमंजूषा के पास आ गई और यहाँ वहां की बात बनाकर कामोत्पादक कथा सुनाकर ग्राना कार्य सिद्ध करने के लिए कहने लगी "हे पुत्री ! धैर्य रखो। जो होना था सो हमा। गई बात का विचार ही क्या करना है ? हाँ यथार्थ में तेरे दुःख का क्या ठिकाना है। इस वारमावस्था में पति का वियोग हो गया है। इस बात की कुछ चिन्ता नहीं है परन्तु काम का जीतना बड़ा कठिन है। तु उम काम के बाणों को कैसे सहेगी जिस काम के वश होकर साधु और साध्वी ने रुद्र ब नारद की उत्पनि को जिस काम से पीड़ित होकर रावण ने सीता का हरण किया जिस काम के वश में और तो क्या देव भी हैं उस काम को जीतना बहुत कठिन है अब तू श्रीपाल का हठ छोड़कर इस परम ऐश्वर्यवान, रूपवान. धनवान सेठ को अपना पति बना ले । मरे के पोछे कोई मरा नहीं जाता है । ऐसी लज्जा से क्या लाभ, जो जिन्दगी के ग्रानन्द पर पानी डाल दे और वह तो धवल का नौकर था? सो जब मालिक ही मिल जाए तो नौकर की क्या चाह करना? मुझ तेरी दशा देखकर बहुत दुख होता है। अब न प्रसन्न हो और सेठ को स्वीकार कर तो मैं अभी जाकर उस सेठ को भी राजी कर ले पानी हूं मैं वृद्धाहं इस लिए मुझे संसार का अनुभव भली प्रकार है । तू अभी भोली नादान है। इसलिए मेरे वचन मानकर सुख से समय बितायो"-इत्यादि अनेक प्रकार से उस कुटिल दासी ने उसे समभाया परन्तु जिम नरह काले कम्बल पर पौर रंग नहीं चढ़ता उसी तरह सती के मन पर एक बात भी नही जमी। इस पापिन दती का जादू नहीं चला। वह कुलवती सती उस दूती के ऐसे निन्दनीय वचन सुननर क्रोध से कॉपने लगी और झिझककर बोली-"बस चुप रह । दुष्ट पापिन ? तेरी जीभ के सोटवाड़े वयों नहीं हो जाते हैं ? वह घयल सेठ मेरे पति का धर्म पिता और मेरे श्वसुर पिता समान है । क्या पिता और पुत्री का संयोग हो सकता है ? पापिन तुने जन्मान्तरों में ऐसे भीच कर्म किए जिससे कटनी रंडी हुई और न मालम तेरी क्या गति होगी? इस जन्म में रयणामंजषा का पति केवल श्रीपाल ही है तथा पुरुष मात्र उसको पिता, पुत्र व भाई तुल्य हैं । हट जा यहाँ से । मुझे अपना मुह मल दिखाना । शीघ्र ही यहां से चली जा, नहीं तो इसका बदला पाएगी।" इस प्रकार सुन्दरी ने जब उसे झिभकारा तव अपना सा मुह लेकर कांपती हुई वह पापिन सेठ के पास आई और बोली "हे सेठ ; वह वश की नहीं है । मुझे तो उसने बहुत अपमानित करके निकाल दिया । जो योड़ी देर और भी ठहरती तो न जाने मेरी वह क्या दशा करती। इसलिए आप जानो व पापका काम जाने । मुझसे तो हो नहीं सकता है।" दूती ऐसा उत्तर देकर चली गई। जब धवल सेठ ने दूती से यह कृत कार्य न हुम्रा जाना तब वह कामांव पापी निर्लज्ज होकर स्वयं उस सतो के निकट पहुंच और समीप बैठ कर विष-लपेटी छुरी के समान मीठे शब्दों में हस-हंस कर कहने लगा "हे प्रिय रणमंजुषा ; तुम भय मत करो । सुनो मैं तुमसे श्रीपाल की कथा कहता हूं। वह दास था उसको मैंने मोल लिया था वह कुलहोन और बड़ा प्रपंची, झूठा तथा निर्दयी चित था । ऐसे पुरुष का मर जाना ही अच्छा है। तू व्यर्थ उसके लिए इतना शोक कर रही है। अब उसका डर भी नहीं रहा है क्योंकि उसको गिरे हुए कई दिन हो चुके हैं। सो जलचरों ने उसके मृतक शरीर को खा लिया होगा। अब निःशंक हो जामो। तू निःशंक होकर मेरी प्रोर देख । टू मेरी स्त्री और मैं तेरा स्वामी हूं। मैं तुझको सब स्त्रियों में मुख्य बनाऊँगा और स्वप्न में भी तेरी इच्छा के विरुद्ध न होऊंगा । अब तू देर Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार प्रप मत कर, जो कहना हो दिल खोलकर कह दे। मैं सब कुछ कर सकता है। मेरे द्रव्य का भो कुछ पार नहीं है । राजाओं के यहां भी जो सुख नहीं है पहले यहा। रेबल तेरी प्रसन्नता की हो कमो है सो इसे पूर्ण कर दे" इत्यादि नाना प्रकार से वह दुष्ट बकने लगा। उस समय उस सती का दुःख वही जानती थी क्योंकि शीलवती स्त्रियों को शील से प्यारी वस्तु संसार में कुछ नहीं होती। वे शील की रक्षा करने के लिए प्राणों को भी न्यौछावर कर देती हैं । वह बोली "हे तात ! आप मेरे स्वामी के पिता हो और मेरे श्वसुर । श्वसुर और पिता में कुछ अन्तर नहीं होता। मैं आपकी पुत्री हूं। चाहे अचल सुमेह चलायमान हो जाए पर पिता पुत्री पर कुदृष्टि नहीं कर सकता । प्रथम मेरे कम ने मेरे भरतार का वियोग कराया और अब दूसरा उससे भी कई गुणा दुःख यह पाया। यदि कोई और यह कहता तो पापसे पुकार करती। आपकी पुकार किससे करू ? अपने कुल व धर्म को देखो। बड़े कुलवानों का धर्म है कि अपने और दूसरों के शील की रक्षा करें। देखो रावण व कीचक प्रादि पर स्त्री की इच्छा कर अपशय बोध कर नरक को चले गये। इसीलिए हे पिता जी ! अपने स्थान को जाओ और मुझ दीन को दुःखी मत करो कृपा करो और यहां से पधारो।" परन्तु जैसे पित्त ज्वर वाले को मिठाई भी कड़वी लगती है। उसी तरह काम ज्वर वाले को धर्म वचन कहाँ अच्छे लगते हैं। निर्लज्ज फिर भी कामातुर हुअा यदा-तद्वा बकने लगा। उस सती ने जब देखा कि यह दुष्ट मीति से नहीं मानता और यह अवश्य ही बलात मेरा शरीर स्पर्श करेगा। तब उसने क्रोध से भंयकर रूप धारण कर कहा 'रे दुष्टः पापी ! तेरी जिल्हा क्यों नहीं गल जाती ? हे नीच बुद्धि निशाचर । तुझे ऐसे पूणित शब्दों को कहते हुए लज्जा नहीं आती है ? हे धीठ ! अबम क्रूर। तू पशु से भी महान् पशु है । क्या तेरी शक्ति है जो शील धुरंधर स्त्री का शील हरण कर सकेगा? तू और चाहे सो कर सकता है । परन्तु मेरे शील को कभी नहीं बिगाड़ सकता है। श्रीपाल ही मेरा स्वामी है। अन्य सभी पिता, भ्राता के समान हैं। हे निर्लज्ज । मेरे सामने से हट जा नहीं तो अब तेरी भलाई नहीं है ।" बह पापी इससे नहीं डरा और आगे को बढ़ा। यह देख उस सती को चेत न रहा। कुछ देर तक चित्र लेखवत् रह गई । परन्तु थोड़ी देर में वह जोर से पुकारने लगी-- "हे दोन बन्धु ! दया सागर ! शरणागत प्रतिपालक ! इस अधर्मी निर्लज्ज सेठ के अन्याय से मेरी रक्षा करो।" इस प्रकार भगवान की स्तुति कर रही थी कि इतने में उसके पुण्य के प्रभाव से नहीं किन्तु उस सती के अखण्डशील के प्रभाव से वहा तत्काल जल देव व जलदेवी उपस्थित हो गये और उन्होंने धवल सेट की मसक बाँधली तथा गदा से बहुत मार लगाई । अखिों में बालू भर दी। मुख काला कर दिया। इत्यादि अनेक प्रकार से उसकी दुर्दशा की और बहुत ही दंड दिया । सब लोग इस घटना को देखकर एक दूसरे के मुंह की तरफ देखने लगे। बचावें किससे क्योंकि मार ही मार दिख रही थी, परन्तु मारने वाला कोई दृष्टिगोचर नहीं होता था । अन्त में मंत्री लोगों ने यह विचार कर कि कदाचित देवी चरित्र हो, इसके सतीत्व-धर्म से धर्म सहायक हुआ हो, रमणमंजूषा के पास माए और हाथ जोड़कर प्रार्थना करने लगे-“हे कल्याण रूपिणी पतियते । धन्य है तेरे शील के माहात्म्य को। हम लोग तेरे महात्म्य को, गुणों की महिमा को बिल्कस कहने में समर्थ नहीं हैं । तू धर्म की सेवक और जिन शासन के व्रतों में लवलीन है। तेरे भावों को इस दुष्ट ने न समझकर अपनी नीचता दिखाई भब हे पुत्री ! दया करो। इस समय केवल इस पापी का बिनाश नहीं होता है। परन्तु हम सब का भी नाश हुआ जाता है। सब अब तेरी शरण में है।" Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गमोकार प्रय उन लोगों के दीन वचनों पर इस सती को दया आ गई तब वह क्रोध को छोड़कर खड़ी हो प्रभु की स्तुति करने लगी- "हे जिननाथ ! धन्य हो । सच्चे भक्त वत्सल हो। ऐसे कठिन समय में इस अवला की सहायता की । अब हे प्रभु! आपके प्रसाद से जिस किसी ने मेरी सहायता को हो सो इन दोनों पर दया करके छोड़ दो"- यह सुनकर उस जल देवी ने उसे बहुत कुछ शिक्षा देकर छोड़ दिया और रयण मंजूषा को धैर्य देकर बोली-“हे पुत्री तु चिन्ता मत कर । थोड़े ही दिन में तेरा पति तुझसे मिलेगा और वह राजानों का भी राजा होगा। तेरा सम्मान भी बहुत बढ़ेगा हम सब तेरे पास पास रहने वाले सेवक हैं ! तुझे कोई भी हाथ नहीं लगा सकता है।" इस प्रकार बे देव-देवी धवल सेठ को उसके कुकर्मों का दंड देकर और रयणमंजूषा को धैर्य बंधाकर अपने-अपने स्थान को गए मोर उस सती ने अपने पति के मिलने का समाचार सुनकर व शीलरक्षा से प्रसन्न होकर प्रभु की बड़ी स्तुति की। वह अनशन ऊनोदर आदि करके अपना काल व्यतीत करने लगी और वह पापी धवल सेठ लज्जित होकर उसके चरणों में मस्तक झुकाकर वोला-“हे पुत्री ! अपरा , क्षमा करो। मैं बड़ा अधम पापी हूं और तुम सच्ची शील धुरंधर हो।" तब साध्वी रयणमंजूषा ने उसे क्षमा कर दिया। अब इस वृत्तान्त को यहीं छोड़कर श्रीपाल व्यवस्था विवरण लिखते हैं श्रीपाल जब समुद्र में गिरे तब ही से उन्होंने यह तो जान लिया था कि यह सब माया जाल धवल सेठ का है परन्तु 'उत्तम पुरुष किमी की साक्षी ब निर्णय हुए बिना किसी पर दोधारोपण नहीं करते अपितु अपने अपर प्राये हुए उपसर्ग को पूर्वोपार्जित कर्मोदय जनित जानकर समभावों को किंचित् भी मलिन न कर पंचपरमेष्ठी मंत्र का पाराधन करके इसी सहारे से समुद्र से तिरने का प्रयत्न करने लगे। तिरते हुए उन्हें समुद्र की लहरों से उछलता हुन्मा एक लकड़ी का तख्ता दृष्टिगत हुया तो उसे पकड़ कर उसी के सहारे से तिरने लगे । जब नींद आती तो उसी तख्ते पर प्रालस्य मिटा लेते थे नके लिए दिन-रात समान ही था। खाना-पीना केवल एक जिनेन्द्र का नाम ही था और वही त्रिलोकी प्रभु उन्हें मार्ग बतलाने वाला था। इस प्रकार महामंत्र के प्रभाव से तिरते-तिरते वे में इस प्रकार महामंत्र के प्रभाव से तिरते-तिरते वे महापुरुष श्रीपाल कुमकुम द्वीप में जाकर किनारे लगे। वहां मार्ग के खेद से व्याकुल होकर निकट ही एक वृक्ष के नीचे मचेत हो सो गए। इतने में वहां के राजा के अनुचर वहां पर आ पहुंचे और हर्षित होकर परस्पर कहने लगे"धन्य है राजकन्या का भाग्य कि जिसके प्रभाव से यह महापुरुष अपने भुजवल से अथाह समुद्र को पार कर पाज यहां तक मा पहुंचा है । अब तो हम सब का हर्ष का समय मा गया है क्योंकि यह शुभ समाचार राजा को देते ही वे हम सबको निहाल कर देंगे। महा ! यह पुरुष कैसे सुन्दर शरीर वाला है मानों विधाता ने इसका शरीर साँचे में ढालकर बनाया हो यह नागकुमार गन्धर्व और इन्द्र से भी अधिक सुन्दर है-" इत्यादि वे सब परस्पर बातें कर ही रहे थे कि श्रीपाल की निद्रा खुलगई। वे अकस्मात उठ खड़े हुए और पूछने लगे-"तुम कौन हो? यहां क्यों पाये? मुझसे क्यों डरते हो? मेरी स्तुति क्यों करते हो ? यह निःशंक होकर कहो।" तब वे अनुचर बोले---हे स्वामिन् ! कुकुमपुर का राजा सतराज और रानी बनमाला है वे अपनी नीति और न्याय से सम्पूर्ण प्रजा के प्रेम पात्र हो रहे हैं। उस राजा के अनुपम सौंदर्यवान् पोर गुण की खान, सब कला प्रवीण गुणमाला नाम की कन्या है। एक दिन राजाने कन्या को यौवनावस्था में पदार्पण करते हुए देखकर मुनिराज से पूछा-“भगवन् ! इस कन्या का स्वामी कौन होगा?" Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६५ णमोकार च तब मुनिवर ने कहा- "जो समुद्र तिरकर आएगा वही इसका वर होगा ।" उसी दिन से राजा ने हमको यहां रक्खा है सो हे स्वामिन्! पधारो और अपनी वियोगिनी को व्याहो ।" इस प्रकार कितने ही अनुचर श्रीपाल को नगर की ओर चलने के लिए विनती करने लगे और कितनों ने जाकर राजा को खबर दी। राजा ने हर्षित होकर उन लोगों को बहुत इनाम दिया और उबटन, तेल, फुलेल, गरजा आदि भेजकर श्रीपाल जी को स्नान कराया और सुन्दर वस्त्राभूषण भी धारण कराकर बड़े उत्साह से गाजे-बाजे सहित नगर में लाए। प्रत्येक घर में ग्रानन्द मंगल होने लगा राजा ने शुभ मुहूर्त में निजपुत्री गुणमाला का पाणिग्रहण श्रीपाल से कराया तथा बहुत-सा दहेज, नगर ग्राम, हाथी, घोड़े, असवार, पयादे और वस्त्राभूषण दिए । श्रीपालजी बिना प्रयास स्त्री-रत्न को पाकर सुख से समय 'बिताने लगे। वे बहुत प्रसन्न हुए परन्तु जब कभी भी रयणमंजूषा और मंनासुन्दरी की स्मृति हो श्राती थी उस समय उदास हो जाते थे । दैवयोग से कुछ समय के जीते कुद्वीप में भा पहुंचे सो वहां डेरा डालकर सेठ ने बहुत उत्तम मनुष्यों सहित अमूल्य वस्तुए लेकर राजा के पास भेंट में दीं। भेंट पाकर राजा बहुत प्रसन्न हुए और सेठ का बहुत सत्कार किया । कुछ समय के पश्चात् एकाएक सेठ की दृष्टि वहाँ पर बैठे हुए श्रीपाल के ऊपर पड़ी। उसे देखते ही मुरझाये फूल की तरह कुम्हला गया, मुख श्याम दिखने लगा श्वासोच्छवास को गति रुक गई, शरीर कांपने लगा परन्तु यह भेद प्रगट न होने पाए श्रतएव वह शीघ्र ही राजा से बाज्ञा मांगकर अपने स्थान पर आया और तुरन्त ही मन्त्रियों को बुलाकर विचारने लगा - "अब क्या करना चाहिए क्योंकि जिसने मुझ पर बहुत उपकार किए थे और मैंने उसे समुद्र में गिरा दिया था सो वह अपने बाहुबल से तिरकर यहां का पहुंचा है और न मालूम उसकी राजा से कैसे पहचान हो गई ?" तब एक दीर बोला- "हे सेठ ! पुण्य से क्या-क्या नहीं हो सकता है ? वह समुद्र तिरकर यासा और राजा ने उसे अपनी गुणमाला नामक कन्या व्याह दी ।" इससे तो सेट और भी दुःखी हो गया । ठीक हो है--' दुष्ट मनुष्य किसी की बढ़ती देखकर सहन नहीं कर सकते हैं ।' चोर साह से भयभीत होता ही है और वह श्रीपाल का चोर था प्रतः वह मारे भय और चिन्ता के व्याकुल हो गया और भोजन-पान सब भूल गया। वह सोचने लगा कि किसी तरह इसका अपमान राजा के सामने कराया जाय तभी मैं बच सकूंगा अन्यथा अब मुझे यह जीवित नहीं छोड़गा इसीलिए वह अपने मंदिवरों से बोला कि कुछ ऐसा ही उपाय करना चाहिए। तब मन्त्रि बोले - "हे सेठ ! चिन्ता छोड़ो और उसी दयालु कुमार श्रीपाल की शरण ले लो तो तुमको कुछ भी बाधा न होगी और यह भेद भी कोई जानने न पायेगा ।" परन्तु यह बात सेठ को अच्छी नहीं लगी । तब उनमें से एक दुष्ट मंत्री बोला— सेठ जी ! क्या मृग सिंह के सामने जाकर रक्षा पा सकता है, कदापि नहीं । इसी प्रकार आपने जिसके साथ भलाई के बदले बुराई की है सो क्या वह अब अवसर मिलने पर तुमको छोड़ देगा नहीं, कभी नहीं । अतएव अब मेरी समझ में यह प्राता है कि भांड़ों को बुलवाकर उन्हें द्रव्य का लोभ देकर राज्य सभा में भेजा जाय। वे प्रथम अपनी लीला दिखाकर श्रीपाल को बेटा, भाई, भतीजा आदि कहकर लिपट जाये जिससे राजा उसे भाँडों का जाया जानकर प्राण दंड 'देंगे जिससे हम तुम सब बच सकेंगे क्योंकि राजा इसके कुल, गोत्र आदि के पूर्वज मनुष्यों से तो परिचित है ही नहीं अतः हमारी बात जम जाएगी ।" Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार मंथ ३९ सेठ को यह उपाय बहुत रुचिकर लगा। वह मंत्रो को बुद्धि की प्रशंसा करने लगा और कहने लगा-"इस काम में बिलम्ब नहीं करना चाहिए । कारण यह है कि शत्रु को अवसर न मिलने पाए नहीं तो न मालूम वह क्या कर डालेगा?" ऐसा कार्य न करने के लिए अन्यान्य मन्त्र गणों ने सेठ को बहुन समझाया परन्तु उसने किसी को न मानी और भांडों को बुलाकर उन्हें द्रव्य का लोभ दे समझार बुझाकर राजसभा में भेज दिया। वे सब मिलकर राजसभा में गए और राजा का यथायोग्य प्रणाम कर उन लोगों ने पहले तो अपनी नकलें आदि करके राजा से बहुत सा पारितोषिक प्राप्त किया। पश्चात् चलते समय सब परस्पर एक-दूसरे का मुंह देख कर अंगुलियों से श्रीपाल की तरफ संकेत करके बातें करने लगे । यों ही ढोंग बनाने पर थोड़ी ही देर में ज्यों ही श्रीपाल जो राजा की तरफ से उन लोगों को बीड़ा देने लगे त्यों ही सबके सब भाँड हाय-हाय करके उठ पड़े और श्रीपाल को चारों मोर से घेर लिया कोई उन्हें बेटा कहता कोई पोता कोई पड़पोता, कोई भतीजा, कोई भानजा और कोई पति-इस तरह कह कह कर कुशल पूछने लगे और राजा को प्राशीर्वाद देकर बलेंइयां लेने लगे। कहने लगे-"प्रहा। प्राज बड़ा ही हर्ष का समय है जो हमें प्यारा बेटा हाथ लगा । ह राजन् ! तुम युग-युगांतर तक जोवो। धन्य हैं प्रजापालक जो हम दोनों को पुत्र दान दिया है।" यह विलक्षण घटना देखकर राजा ने भांडों से कहा-"तुम लोग यथार्थ वृतान्त वर्णन करो कि यह क्या बात है नहीं तो एक-एक को शूली पर चढ़वा दूंगा।" तब वे भांड दीन हो हाथ जोड़कर बोले-“महाराज दीनानाथ ! अन्नदाता ! यह पुत्र हमारा है । मेरी स्त्री के दो बालक थे तो एक तो यही है और दूसरे का पता नहीं था। हम सब लोग समुद्र में एक नाव में बैठे हुए आ रहे थे कि तूफान से वह नाव फट गई और हम सब लोग लकड़ा की पट्टियों के सहारे कग्निता से किनारे लगे और तो सब मिल गए परन्तु केवल एक लड़का नहीं मिला मो हे महाराज ! आपके दर्शन से द्रव्य और ये दोनों मिल गए।" भांडों के कथन को सुनकर राजा को बहुत पश्चाताप हुआ कि हाय मैंने बिना देखे और कुल, जाति व वंश पूछे बिना अपनी कन्या ब्याह दी । मह बड़ा पापी है जिसने अपना कुल प्रगट नहीं किया। फिर वह सोचने लगा कि नहीं इसमें भी कुछ भेद अवश्य होगा क्योंकि जिस भांति श्रीगुरु ने कहा था इसी भांति यह प्राप्त हुआ है और हीन पुरुष कैसे समुद्र पार कर सकता है। इस बात के अतिरिक्त इन भांडों से इसका रंग रूप और आचरग बिल्कुल मिलता नहीं है। देव जाने क्या भेद है ? फिर कुछ सोचकर वह श्रीपाल जी से पूछने लगा- "हे परदेशी ! तुम सत्य कहो कि कौन हो और भांडों से तुम्हारा क्या सम्बन्ध है ?" तब श्रीपाल ने सोचा कि यहाँ मेरे वचन को साक्षी क्या है ? ये बहुत हैं और मैं अकेला हूं। बिना साक्षी के कहने से न कहना ही अच्छा है । यह सोचकर यह धीर-वीर निर्भय होकर बोला"राजन् ! इन लोगों का कथन सत्य है । ये ही मेरे माता-पिता और स्वजन सम्बन्धी हैं।" श्रीपाल के कथन से राजा की क्रोधाग्नि तीव्र हो गई और उन्होंने चांडालों को बुलाकर इनको शूली पर चढ़ा देने की प्राशा दे दी। राजा की प्राज्ञा ये चांडालों ने श्रीपाल को बांध लिया मोर सूली देने के लिए चले तब श्रीपाल सोचने लगे कि यदि मैं चाहूं तो इन सबका क्षपा भर में संहार कर डाल परन्तु कर्म पर क्या वश है इसीलिए उदय में पाए सब कर्मों को इसी जन्म में सहन कर लूं जिससे फिर कोई कर्म आगे के लिए बाकी न रहे और न उदय में पाए । देखू क्या-क्या उदय में पाता है? इस Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० णमोकार पंथ प्रकार वे विचारते चले जा रहे थे कि राजमहल को किसी दासी ने यह सब समाचार गुणमाला से जाकर कह दिया। यह सुनते ही वह मुछित होकर भूमि पर गिर पड़ी। जब सखियों ने शीतलोपचार करके मूर्छा दूर की तो 'हे स्वामिन् , है स्वामिन' कहकर चिल्ला उठी और दीवं निश्वास लेती हुई तत्काल ही श्रीपाल जी के निकट पहुँची एवं उन्हें देखते ही पुन: मूच्छित होकर गिर पड़ी । जब मूर्छा दूर हुई तो भयभीत मृगीवत् सजल नेत्रों से पति की ओर देखने लगी और अति आतुर होकर पूछने लगी-"भो स्वामिन् ! मझ दासो पर कृपा करो और सत्य-सत्य कहो कि प्राय कौन और किसके पूत्र हैं और इन भांडों ने प्राप पर यह मिथ्यारोपण कैसे किया?" तब थोपाल योले-- "प्रिये ! मेरा पिता भांड और मेरी माँ भाँडिनी है और सब भांड मेरे कुटुम्बी हैं । इस बात की इस समय साक्षी भी हो रही है । इसमें सन्देह ही क्या ?'' तब गुणमाला बोली--''हे स्वामिन् ! यह समय हास्य का नहीं हैं। कृपाकर यथार्थ कहिए । आपने पहले तो मुझसे कछ और ही कहा था और मझे उसी पर विश्वास है। परन्तु आज कुछ विचित्र ही चमत्कार देख रही हूं। मुझे विश्वास नहीं होता आपके माता-पिता भांड होंगे । अापका नाम, काम, रूप, शोल, गुण, साहस और दया किंचित् भी उनसे नहीं मिलते | प्रतएव सत्य कहिए।" तब श्रीपाल बोले .. 'हे प्रिये ! तू चिंता मत कर और अपना शोक दूर कर । समुद्र के तट पर जो जहाज ठहरें हैं उनमें एक ग्यणमंजूषा नाम की सुन्दरी है । सो तू उससे जाकर सव वृतांत पूछ ले । वह सब जानती है सो तुझसे कहेगी।" यह सुनते ही वह सती शीघ्र ही समुद्र के किनारे गई और 'रयणमंजूषा कहकर वहाँ पुकारने लगी । तब रयणमंजूषा ने सुनकर विचारा कि यहाँ परदेश में कौन मुझसे परिचित है ? चलू देखू तो सही कौन हैं और क्यों बुला रहा है ? यह सोचकर बह जहाज के ऊपर आकर देखने लगी तो सामने एक अति सुकुमार स्त्री को रुदन करते हुए देखा। उसे देखकर रयणमंजूषा करुणामय मधुर स्वर से योली-“हे बहिन ! तु क्यों रो रही है और क्यों इतनी अधीर हो रही है ? तू कौन है और यहां तक कैसे प्राई ?" तब गुणमाला ने अपने ग्रागमन का प्राद्योपांत वर्णन करते हुए निवेदन किया-"हे स्वामिनी ! तुम इसके विषय में क्या जानती हो सो कृपाकर यथार्थ कहो जिससे मेरे पति की प्राण रक्षा हो । मुझ अनाथ को पति · भिक्षा देकर सनाथ करो।" तब रयणमंजपा बोली- हे बठिन ! तशोकमत कर वह पुरुष चरम शरीरी, महाबली और उत्तम राजवंशीय है, मरने वाला नहीं है। चल मैं तेरे पिता के पास चलती हूं और वहाँ वृतान्त कहूंगी।" रयणमंजूश श्रीपाल का नाम सुनते ही हर्ष से रोमांचित हो गई और शीघ्र ही राजसभा में पाकर महाराज से पुकार की -''हे महाराज, प्रतिपालक, दीनबंधु, न्यायपरायण ! हम दोनों की प्रार्थना पर ध्यान दीजिए। हम लोगों का सर्वस्व हरण हुमा जाता है । हम लोगों पर दया कीजिए।" राजा ने उसकी पुकार सुनकर उसे सामने बुलाया और पूछा-"हे सुन्दरी ! क्या पुकार कर रही हो? तुम को निष्कारण किसने सताया है शीघ्र कहो।" तब वह हाथ जोड़कर बोली-“महाराज ! हमारे पति श्रीपाल को जो सूली दी जा रही है उसका न्याय होना चाहिए।" Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार च राजा ने कहा-"सुन्दरी ! वह राज्य का अपराधी है। वह बंशहीन भांडों का पुत्र होकर भी यहाँ वंश छिपाकर रहा पोर उसने मुझे धोखा दिया इसीलिए उसे अवश्य ही मानी होगी।" तब रयणमंजूषा बोली-"महाराज ! यह एकतर्फी न्याय है। एक तरफी बात वादी के लिए मिश्री से भी मीठी होती है और प्रतिवादि के लिए तीक्ष्ण कटारी होती है । इसीलिए पहले शोध कीजिए और फिर जो न्याय हो कीजिए हम तो न्याय ही चाहती हैं।" राजा से रयणमंजूषा ने कहा- हे नरनाथ ! ये अंगदेश चम्पापुरी के राजामरिदमन के पुत्र हैं और उज्जैन के राजा पदपाल की रूपवती व गुणवती कन्या मैनासुन्दरी को ब्याह कर वहां से चले | मार्ग में बहुत से जनों को वश में करते हुए हसद्वीप में आए और वहां के राजा कनककेतु की पुत्री रयणमंजूषा (मुझ) को परणा । पश्चात् आगे चले सो जहाजों के स्वामी धवल सेट की मुझ पर कुदृष्टि हो गई और उसने छल करके श्रीपाल को समुद्र में गिरा दिया तथा मेरा शील भंग करने का उद्यम किया सो धर्म के प्रभाव से जलदेवी ने आकर उपसर्ग दूर किया और सेठ को बहुत दंड दिया। देवो ने मुझसे कहा था कि 'पुत्री ! शीघ्र ही तेरा स्वामी तुझसे मिलेगा और बड़ा राजा होवेगा सो महाराज । अब तक मेरे प्राण इसी पाशा पर टिके हुए हैं। अब आपके हाथ में बात है। इसमें कुछ भी संदेह नहीं है। कृपा करके पति-भिक्षा दे दो।" राजा रयणमंजूषा से यह वृतान्त सुनकर बहुत प्रसन्न हुआ और तत्काल श्रीपान के पास जाकर हाथ जोड़कर विनती करने लगा-"स्वामिन् ! मुझसे भूल हुई। मुझको क्षमा करो। मैं अधम जो बिना विचारे यह कार्य किया। दया कर घर पधारो।" तब श्रीपाल ने कहा-"महाराज ! यह तो जीवों को अनादि काल से कर्म कभी दुःख और कभी मुख दिया करता है। इसमें प्रापका कुछ भी दोष नहीं। सब मेरे ही कर्मों का अपराध है। जैसा किया वसा पाया । अच्छा हुआ कि वे कर्म छूट गए। इसका मुझे कुछ भी हर्ष विषाद नहीं है । जो हुआ सो हुप्रा । तव पतीत हुई बात पर पश्चाताप क्या करना ? हां इतना अवश्य है कि पुरुषों को सदैव प्रत्येक कार्य विचारपूर्वक ही करना चाहिए।" राजा ने लज्जा से सिर नीचा कर लिया और सादर श्रीपाल को गजारूढ़ कर राजमहल में ले पाए । नगर में घर-घर मंगल नाद होने लगा । थोपाल जय महल में पाए तो दोनों स्त्रियों ने पति की वंदना की और परस्पर कशल पूछकर अपना-अपना सव वतान्त कह सुनकर चिन्ता को शांत किया तथा अपना समय फिर प्रानन्द से बिताने लगे। राजा ने सेवकों को भेजकर धवल सेठ को पकड़ बुलवाया सो नौकर उसे मारते-पीटते हुए बड़ी दुर्दशा से राजसभा तक लाए । राजा ने तुरन्त श्रीपाल को बुलवाया और कहा-"देखो इस दुष्ट ने आपको सताया है अतएव अब इसका शिरच्छेद करना चाहिए।" यह सुनकर और सेठ की दशा देखकर श्रीपाल को बड़ा दुःख हुआ। वे राजा से बोले"महाराज ! यह मेरा धर्म पिता है । कृपाकर इसे छोड़ दीजिए । इसने मुझसे जो अवगुण किया वह मुझे गुण हो गया। इनके ही प्रसाद से आपके दर्शन हुए और लाभ पाया । न ये समुद्र में गिराते और न में यहाँ तक पाता और न गुणमाला को व्याहता प्रतएव यह मेरा उसकारी ही है।" राजा ने श्रीपाल के कहने से सेठ और उसके सब साथियों को छोड़ दिया क्षषा पादर पूर्वक पंचामृत भोजन कराकर बहुत शुश्रूषा की। धवल सेट ने लज्जित होकर सिर नीचा कर दिया और श्रीपाल की बहुत स्तुति की। मन ही मन में वह पश्चाताप करने लगा कि हाय मैंने इसको इतना कष्ट दिया पर इसने मुझ पर भलाई ही की। हाय मुझ पापी को कहाँ स्थान मिलेगा-इस प्रकार पश्चाताप Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ पमोकार प्रय कर ज्यों ही एक दीर्घ उश्वास ली कि उसका हृदय फट गया और प्राण पखेरू उड़ गए सो पाप के उदय से सातवें नरक में गया । यहाँ श्रीपाल को सेठ के मरने का बहुत दुःख हुप्रा । सेठानी के पास जाकर उसने बहुत रुदन किया और पश्चात् कहने लगा-"माता ! होनी अमिट है। तुम दुःख मत करो मैं प्राज्ञाकारी हूं । जो प्राज्ञा होगी सो हो करूंगा। यहां रहो तो सेवा करू और देश व घर पधारना चाहो तो वहां पहुंचा दूं । सब द्रव्य मैं तुम्हें देता हूं। तुम किचित् शंका मत करो । मैं तुम्हारा पुत्र हूं।" तब सेठानी बोली- हे पुत्र ! तुम अत्यन्त कृपालु और विवेको हो । जो होता था सो हुमा । पापी पुरुष का संग छूट गया । अब प्राज्ञा दो तो मैं घर जाऊँ।" श्रीपाल ने उसकी इच्छानुसार प्रणाम कर उसको विंदा किया और स्वयं वहीं दोनों स्त्रियों सहित सुख से रहने लगा । अब इनकी कीर्ति रूपी पताका चारों तरफ फहराने लगी । वहाँ रहते हुए इन्होंने कुडलपुर के राजा मकरकेतु की कन्या चित्ररेखा, कंचनपुर के राजा वयसेन की विलासमती ग्रादि नो सौ कन्याएँ, कुंकुमपुर के राजा यशसेन की श्रृंगारगौरी आदि सोलह हजार कन्याएँ, कोकल देश को दो हजार कन्याएँ. मेवाड़ की सौ और तैलंग देश की एक हजार कन्याएँ ब्याही । श्रीपाल का इन बहुत-सी रानियों के साथ कोड़ा करते हुए बहुत सुख से समय व्यतीत होता था। अघानंतर एक दिन राजा श्रीपाल रात को सुख को नींद लेकर सो रहे थे कि अचानक इनकी नींद खुल गयी और मैनासुन्दरी की सुप में वेसुध हो गये। वे सोचने लगे-पोहो ; अब तो बारह वर्ष में योड़े ही दिन शेष रह गये हैं सो यदि मैं अपने कहे हुए नियत समय पर नहीं पहुँचूगा तो वह सती स्त्री नहीं मिलेगी इसलिए अब शीघ्र ही यहां से चलना चाहिए क्योंकि मुझे जो इतना ऐश्वर्य प्राप्त हम्रा है यह सब उसी का प्रभाव है। मैं तो यहां सुख भोग और वह वहां पर मेरे विरह में सन्तप्त रहें यह उचित नहीं है-इस विचार में पूरी रात्रि हो गई और श्रीपाल ने भी चलने का पूर्ण निश्चय कर लिया। प्रातकाल होते ही नित्य क्रिया से निवृत होकर वे राजा के पास गये और सब वृतान्त जैसा का तसा कह सुनाया पौर घर जाने की प्रामा मांगी। तब राजा सोचने लगे कि जाने की आज्ञा देते हुए तो मेरा मन दुखता है परन्तु हठात् रोके रहने से इनका जी दुखेगा प्रतएव रोकना व्यर्थ है-ऐसा विचारकर पूत्री को बहुत से वस्त्राभूषण पहनाकर और बाकी सब श्रीपाल की स्त्रियों को वस्त्राभषण पहनाकर उन्हें हित शिक्षा देकर विदा किया। श्रीपाल जी वहां से विदा होकर मार्ग में प्राते हुए देशों के राजामों की कन्याओं को ब्याइते हुए अपनी बहुत सी रानियों पर बहुत बड़ी सेना सहित चलते चलते उज्जनी के उद्यान में पाए और वहीं कटक सहित विश्राम किया। जब रात्रि हो गई और सब लोग जहां तहाँ सो गये तब श्रीपाल ने विचारा कि मैंने बारह वर्ष का वादा किया था सो माज ही वह अष्टमी का दिन है। यदि मैं आज उस सती सुन्दरी से न मिलूंगा तो वह प्रभात होते ही दीक्षा ले लेगी और फिर समीप पाकर वियोग हुना तो बड़ा दुःल होगा । इसी चिन्ता से उनका चित्त विह्वल हो गया और एक एक क्षण बर्ष भर के समान व्यतीत होने लगा। निदान जब चिसन रुका तब महाबली श्रीपाल प्रकेले ही प्रद्धरात्रि को माता के महल की पोर हो लिए। पब महल के द्वार पर पहुँचे तो क्या सुनते हैं कि प्राणप्रिय मैनासुन्दरी हाथ जोड़े खड़ी हुई सास से कह रही है कि-माताजी आपके पुत्र जी बारह वर्ष का प्रण करके विदेश गये थे सोपान वह पवधि पूरी हो रही है परन्तु अब तक न तो वे स्वयं ही पाए और न ही किसी प्रकार का अलोक ही भेणा सो पब प्रातःकाल ही जिन दीक्षा लूगी। इतने दिन मेरे भाभा ही प्राशा में व्यर्थ गए। Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गमोकार मंच कुछ प्रारम कल्याण भी न करने पाई। हे माता अब तक आपकी सेवा को सो उसमें जो भी भूल हुई हो उसे क्षमा करो और कृपा कर शीघ्र ही प्राज्ञा दो अब विलम्ब करने से अमूल्य समय जाता है। तब कुन्दप्रभा बोली-हे पुत्री दो चार दिन तक और भी धैर्य रखो । यदि इतने में वह न आयेगा तो मैं और तू साथ साथ दीक्षा ले लेगें । मुझे आशा है कि वह धीर वीर दो चार दिन में अवश्य प्रायेगा । तब मैना सुन्दरी बोली - माताजी यह तो सत्य है कि स्वामी अपने वचन के पक्के हैं, परन्तु कर्म बड़ा बलवान है । क्या जाने स्वामी को कौन सी विपत्ति या पराधीनता आ गई हो जिससे नहीं पाए । प्रब बिना सन्देश के कैसे निश्चय कर सकती हूं कि स्वामी शीघ्र ही इतने दिनों में पायेंगे । फिर माता मी जब पाने की कुछ राबर ही नहीं है तो फिर क्यों अपना समय व्यर्थ बिताऊ। इस प्रकार सास बहू को बातें हो रही थीं। श्रीपाल जी अव तक तो चुपके से सुनते रहे थे परन्तु अब उनसे न रहा गया तब वे तत्काल ही कपाट खुलवाकर भीतर गए और जाकर माता को नमस्कार किया। माता ने हपित होकर ग्राीवाद दिया। पश्चात श्रीपाल की दष्टि मै पड़ी तो देखा कि वह कोमलांगी अत्यन्त क्षीण शरीर हो रही है। तब वे निज महा को गए। वहाँ पहुंचते ही मैना सुन्दरी ने स्वामी के चरणों में नमस्कार किया । बहुत दिनों के अनन्त र ग्राज दोनों के विरह दुख की इति श्री हुई। दोनों का सुख सम्मिलन हुआ। एक वो देखने से दूसरे को परमानन्द हुमा । कुशल प्रश्न के अनन्तर श्रीपाल जी माता कुन्दप्रभा और मैनासुन्दरी दोनों को अपने कटक में ले गये और वहां जाकर माता को सिंहासन पर बिठाकर निकट ही मैनासुन्दरी को माता के सिंहासन के नीचे स्थान दिया । तत्र स्थित रयणमंजूषा प्रादि अन्यान्य स्त्रियों ने स्वामी के मुख से सम्बन्ध जान कर यथाक्रम सब ने सास कुन्दप्रभा और मैनामुन्दरी को यथायोग्य नमस्कार करके बहुत विनय सत्कार किया 1 पश्चात श्रीपाल जी ने मंनासुन्दरी को सब कटक दिखाया। माता की प्राज्ञा लेकर मैनासुन्दरी को पाठ हजार रानियों में मुख्य पटरानी का पद प्रदान किया। पट्टाभिषक होने पर रयणमंजुषा गुणमाला चित्ररेखा प्रादि समस्त पाठ हजार रानियाँ मैनासुन्दरी की सेवा करने लगी। पश्चात मैनासन्दरी बोली-हे स्वामिन आप तो दिर्गत विजयी हो अतएव मेरी इच्छा है कि मर पिता का भी युद्ध में मान भंग करना चाहिए और वह कन्धे पर कुल्हाड़ी रखे कम्बल ओढ़ व लंगोटी लगाकर प्रावें तभी छोड़ना चाहिए तो मेरा चित्त शांत होगा क्योंकि उन्होंने कर्म पर वाद विवाद किया था। ___ सुनकर श्रीपाल बोले-हे कांसे तेरे पिता ने मेरा बड़ा उपकार किया है अर्थात मैं जब सर्व स्वजनों से वियोगी हुमा फिर रहा था तब उन्होंने मेरी सहायता की थी और उपकारी पर अपकार करना कृतघ्नता है । मुझसे यह कार्य होना ही योग्य नहीं है। तब मैनासुन्दरी. बोली-हे स्वामी मैं दूप से नहीं कहती हूं परन्तु यदि कुछ चमत्कार दिखामोगे तो उनकी जिनधर्म पर दृढ़ श्रद्धा हो जाएगी, यही मेरा अभिप्राय है 1 श्रीपाल प्रिया के ऐसे वचन सुनकर प्रत्यन्त हर्षित हुए और तुरन्त ही एक दूत बुलाकर उसे सब भेद समझाया पौर तत्काल ही राजा पदुपाल के पास भेजा सो दूत प्राज्ञानुसार शीघ्र ही राजद्वार पर जा पहुंचा और द्वारपाल के हाथ अपना संदेश भेजा। राजा ने उसे पाने की प्राशा दी सो उस दूत मे सन्मुख जाकर राजा पदुपाल को यथायोग्य नमस्कार किया। राजाने कुशल पूछी तब दूत बोला"महाराण ! एक पत्यन्त बलवान पुरुष कोटीभट्ट भनेक देशों पर विजय करते हुए वहां के राजाओं को Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४ जमोकार यश करते और अनेकों जो अनाज्ञाकारी थे उनका पराभव करते हुये आज यहां प्रा पहुंचा है। उसकी सेना नगर के चारों ओर खडी है। उसके सामने किसी का गर्व नहीं रहा है सो उसने आपको भी प्राज्ञा दी है कि "लंगोटी लगा, कम्बल ओढ़, माथे पर लकड़ी का भार रख कांधे पर कुल्हाड़ी लेकर पाकर मिलो तो कुशल है अन्यथा क्षण भर से विध्वंस कर दूंगा.” इसलिए हे राजन् ! अब जो कुशल चाहते हो तो इस प्रकार से जाकर उससे मिलो नहीं तो आप जानो । पानी में रहकर मगर से बैर करके काम नहीं चलेगा।" राजा पदुपाल को दूत के वचनों से क्रोध आया और वे बोले-"इस दुष्ट का मस्तक उतार लो जो अबिनय कर रहा है ।" तब नौकरों ने आकर तुरन्त ही उसे पकड़ लिया और राजा को प्राज्ञानुसार दंड देना चाहा परन्तु मंत्रियों ने बाहा--"महाराज ! इसको मारना अनुचित है क्योंकि यह वेचारा अपनी तरफ से तो कुछ कह नहीं रहा है, इसके स्वामी ने जैसा कहा होगा वैसा ही कह रहा है । इसमें इसका कुछ भी दोष'नहीं है अतः यह छोड़ने योग्य है और हे महाराज ! यह कर्म चक्र बहुत ही प्रबल मालूम पड़ता है। इससे युद्ध करने में कुशलता नहीं है अपितु कहे अनुसार मिल लेना उचित है।" तब राजा ने दून को छुड़वाकर कहा कि तुम अपने स्वामी को कह दो कि मैं प्राज्ञा प्रमाण प्रागसे पाकर मिल लगा। यह मनकर दूत हपित होकर श्रीपाल के पास वापिस गया और यथायोग्य वात कह दी कि महाराज पदपाल आपकी आज्ञानुसार मिलने को तैयार हैं। तब श्रीपाल ने मैनासुन्दरी से कहा-"प्रिये ! राजा तुम्हारे कहे अनुसार मिलने को तैयार है। अब उन्हें अभय दान देना ही योग्य है । मैनासुन्दरी ने कहा-"पापको इच्छा हो सो कीजिए, मुझे भी स्वीकार है।" श्रीपाल ने पुनः दूत को बुलाकर राजा पदुपाल के पास संदेशा भेजा कि पाप चिंता न करें और अपने दल-बल सहित जैसाकि राजाओं का व्योहार है, उसी प्रकार से मिलें।" सो दुत ने जाकर राजा पदुपाल को यह संदेश सुनाया । वह सुनकर राजा बहुत हर्षित हुग्रा और दूत को बहुत सा परितोषिक देकर विदा किया तथा प्राप मंत्रियों को संग लेकर बड़े समारोह के साथ मिलने को चला। जब पास पहुंच गए तब राजा पदुपाल हाथी से उतर कर पैदल चलने लगे सो श्रीपाल भी श्वसुर को पैदल पाते हुए देखकर सन्मुख गये और दोनों परस्पर कंठ से कंठ लगाकर मिले। दोनों को बहुत प्रीति और प्रानन्द हुप्रा परन्तु राजा पदुपाल को संदेह हो गया इसीलिए वह एकदम श्रीपाल के मुंह की ओर देखने लगा परन्तु पहचान न सका। तब वह बोला-'हे स्वामिन् ! प्रापका देखकर मुझे बहुत संदेह उत्पन्न होता है परंतु मैं अब तक आपको पहिचान नहीं सका हूं । पाप कौन हैं ?" __तब श्रीपाल जी हंसकर बोले-"महाराज ! मैं आपका लघु जवाई श्रीपाल हं जो मैनासुन्दरी से बारह वर्ष का प्रण करके विदेश गया था सो प्राज आया हूं।" यह सुनकर राजा फिर से श्रीपाल जी को गले से लगाकर और परस्पर कुशल क्षेम पूछकर हर्षित हुए। आनन्द भेरी बजने लगी, फिर राजा ने मैनासुन्दरी से कहा कि है पुत्री ! तू क्षमा कर । मैंने बड़ा अपराध किया है। तू सच्ची धर्म धुरंधर शीलवती सती है। तेरी प्रशंसा कहाँ तक करूं? मैना सुन्दरी ने सन्तुष्ट होकर पिता को शिर नवाया। फिर राजा और भी पुत्रियों (रयणमंजूषा पादि से) से मिलकर बहुत प्रसन्न हुआ और संघ को लेकर नगर में गया। नगर में शोभा कराई गई। Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 ३६५ णमोकार ग्रंथ राजा ने श्रीपाल का अभिषेक किया और सब रानियों समेत वस्त्राभूषण पहिनाएं। इस प्रकार श्वसुर जवाई मिलकर सुखपूर्वक काल व्यतीत करने लगे। इस प्रकार सुखपूर्वक रहते हुए श्रीपाल को बहुत समय बीत गया । एक दिन बैठे-बैठे उनके मन में विचार उत्पन्न हुआाकि जिस कारण विदेश निकले थे वह तो कार्य अभी पूर्ण नहीं हुआ अर्थात् पिता के कुल की प्रख्याति नहीं हुई। मैं अभी पर राजधानी में हूं और वहीं राज जवांई का पद मुझ से लगा हुआ है अतएव ग्रव अपने देश में चलकर अपना राज करना चाहिए। यह सोचकर श्रीपाल जी पदुपाल के निकट गये और स्वदेश जाने की आज्ञा मांगी। राजा ने इनकी इच्छा प्रमाण विलषित होकर प्राज्ञा दी । श्रीपाल मैना सुन्दरी यादि श्राठ हजार रानियों और बहुत सेना हाथी, घोड़े, पयादे आदि सहित उज्जैन से विदा हुए। श्रीपाल जी इस प्रकार विभूति सहित स्वदेश चंपापुर के उद्यान में प्राये और नगर के चहुं ओर डेरे डलवा दिए। सो नगर निवासी इस पार सेना को देखकर उद्वेग से भर गये । श्रीपाल जी विचारने लगे कि इसी समय नगर में चलना चाहिए। सो ठीक ही है-बहुत दिनों से बिछुड़ी हुई प्यारी प्रजा को देखने के लिए ऐसा कौन निर्दयी चित्त होगा जो अधीर न हो जाये, सभी हो जाते हैं । तब मंत्रियों ने कहा - "स्वामिन् । एकाएक मिलना ठीक नहीं है। पहले संदेश भेजिये और यदि इस पर महाराज वीरदमन सरल चित्त से ही आप से आकर को ठीक है फिर कुछ झगड़ा करने की आवश्यकता नहीं है और यदि कुछ शल्य होगी तो भी प्रगट हो जायेगी ।" श्रीपाल को यह मंत्र अच्छा लगा और उन्होंने तत्काल दूत बुलाकर उसे सब बात समझाकर वीरदमन के पास भेज दिया । दूत ने जाकर वीरदमन से कहा- "महाराज महावीर, भाग्यशाली श्रीपाल बहुत वैभव सहित ग्रा पहुंचे हैं सो बाप जाकर उनसे मिलो और उनका राज उनको वापिस दे दो ।' यह सुनकर कुदाल प्रश्न के अनन्तर वीरदमन ने दूत से उत्तर में कहा - "रे दूर! तू जानता है कि राज्य और बल्लभा भी कोई क्या मांगने से दे देता है, कदापि नहीं । ये तो बाहुबल से ही प्राप्त होती हैं। जिस राज के लिए पुत्र पिता को, भाई-भाई को और मित्र मित्र को मार डालते हैं वह राज्य क्या मैं दे सकता हूं कदापि नहीं यदि उसमें वल होगा तो मैदान में ले लेगा ।" यह सुन दूत नमस्कार कर वहां से चल दिया और जाकर श्रीपाल से समस्त वृतान्त कह दिया कि वीरदमन ने कहा है कि संग्राम में आकर लड़ो और यदि वल हो तो राज्य ले लो श्रीपाल जी को दूत के द्वारा यह समाचर सुनते ही क्रोध उत्पन्न हो माया । उन्होंने तुरंत हो सेनापति को आज्ञा दी। प्राज्ञा के होते ही सेना तैयार हो गई। उधर से वीरदमन भी सेना लेकर युद्ध के लिए निकल पड़े। दोनों श्रोर योद्धाओं को मुठभेड़ हो गई। घोर युद्ध होना प्रारंभ हुआ। बहुत समय पर्यन्त युद्ध होने पर भी दोनों में से कोई भी सेना पीछे नहीं हटी तब दोनों श्रोर के मंत्रियों ने यह देख कर कि देश का सर्वनाश हुया जाता है अपने-अपने स्वामियों से कहा कि हे राजन् इस प्रकार लड़ने से किसी का भी भला नहीं होगा । अच्छा यह है कि आप दोनों आपस में युद्ध करके लड़ाई का फैसला कर लें।" तो यह विचार दोनों को रुचिकर हुआ और दोनों सेनाओं को रोक कर परस्पर ही युद्ध करना निश्चित करके वे काका और 'करते भतीजे रणक्षेत्र में आ गये। दोनों की मुठभेड़ हो गई और भीषण युद्ध हुश्रा । जब युद्ध हुए बहुत देर हो गई और किसी के सिर विजय मुकुट नहीं बंधा तो शस्त्र छोड़कर वे मल्ल युद्ध करने लगे सो बहुत समय तक तो यों ही लिपटते और लौटते रहे परन्तु जब बहुत देर हो गई तब श्रीपाल ने वीरदमन के दोनों पांव पकड़कर उठा लिया और चाहा कि पृथ्वी पर दे मारे लेकिन उनके मन में दया आ गई Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ સર્ णमोकार ग्रंथ और आकाश से जय-जय शब्द होने लगे । देवों ने श्रीपाल के गले में पुष्पमाला पहनाई और बोले"राजन् ! तुम दयालु हो। इसको छोड़ो।" तब श्रीपाल ने वीरदमन को छोड़ दिया बोरदमन बोलेहे मित्र ! यह तू अपना राज्य संभाल। मैंने तेरा बल देख लिया । यथार्थ में तू महावली है। तेरी कीर्ति सब दिक्षाओं में सच्ची ही फैल रही है। हमारे इस वंश में तेरे जैसे शूरवीर ही चाहिये।" तब शूरवीर श्रीपाल बोले - "हे तात ? यह सब आपका ही प्रसाद है। जो आप की प्राशा हो वह करू | अब आप मुझे आज्ञा दीजिए और निश्शंक हो प्रभु का भजन कीजिए वीरदमन बोले"हे पुत्र ? ठीक है। मेरा भी यही विचार है कि तुझे राज्य देकर जिनदीक्षा लू" जिससे भववास मिटे । " यह कहकर वीरदमन ने श्रीपाल को राज्याभिषेक कराकर राज्य पद दे दिया और बोले- "हे धीरवीर ? अब तुम चिरकाल तक सुख से राज्य करो और नीति व न्याय पूर्वक पिता पुत्रवत् प्रजा का पालन करो । दुःखी दरिद्रियों पर दयाभाव जो और क्षमा करो। कुछ जे तुम्हारे विरूद्ध हुआ है वह सब में भूल जाऊँगा अब दीक्षा रूपी नाव में बैठकर कर्म शत्रु को जीतकर भव-सागर से तिरुगा ।" इस प्रकार वीरदमन अपने भतीजे श्रीपाल को राज्य देकर स्वयं वन में गये और वस्त्राभूषण उतार कर केशों का पंचमुष्ठी से लोंच किया, चौबीस प्रकार के परिग्रह को तजकर पंच महाव्रत धारण किए और घोर तपश्चरण कर घातिया कर्मों का नाश करके केवलज्ञान प्राप्त कर लिया और बहुत जीवों को धर्मोपदेश देकर संसार से पार किया। पश्चात् शेष बचे हुए प्रघातिया कर्मों को भी आयु के अन्त में निःशेष वार परम धाम मोक्ष को प्राप्त किया । महाराज श्रीपाल ग्राठ हजार रानियों सहित इन्द्र के समान सुखपूर्वक काल व्यतीत करने लगे । देश-देश में इनकी ख्याति होने लगी। प्रजा भी इनके शासन से बहुत सन्तुष्ट हुई। इस प्रकार इनका राज्य करते हुए सुख समय व्यतीत होता था। कितने दिन के प्रनन्तर मैनासुन्दरी के गर्भ रहा सो अनेक प्रकार के शुभ दोहले उत्पन्न होने लगे और श्रीपाल ने उन सबको पूर्ण किया। जब दस महीने पूर्ण हो गये तब शुभ घड़ी व मुहूर्त में चन्द्रमा के समान उज्जवल कांति का धारी पुत्र हुम्रा । पुत्र-जन्म के उपलक्ष्य में राजा ने बहुत दान दिया, पूजा प्रभावना की । पश्चात् ज्योतिषी को बुलाकर ग्रह आदि का विवरण पूछा तो उसने कहा - "यह पुत्र उत्तम लक्षणों वाला होगा और इसका नाम धनपाल है :" इस तरह दूसरा पहिपाल, तीसरा क्षेत्ररथ मौर चौथा महारथ-ये चार पुत्र मैनासुन्दरी के हुये रयणमंजूषा और गुणमाला के पांच पुत्र हुए। प्रौर भी सब स्त्रियों के किसी के एक किसी के दो । इस प्रकार महाबली, धीर-वीर व गुणवान समस्त बारह हजार पुत्र हुए। वे नित्य प्रतिदिन दूज के चन्द्रमा के समान बढ़ने लगे । इस प्रकार महाराज श्रीपाल पुण्ययोग से प्राप्त हुए विषय-भोगों को न्याय पूर्वक भोगते । अपनी प्रजा का सुखपूर्वक पालन करते थे। वे एक दिन सुख से बैठकर विशावलोकन कर रहे थे कि हुए अचनाक उल्कापात होकर अन्तर्हित हो गया। उन्हें सभी पदार्थ विनाशीक विजलीवत् चंचल मालूम होने लगे। उन्होंने तब ही अपने ज्येष्ठ पुत्र धनपाल को बुलाकर उसके राज्य पट्ट बाँध कर तिलक कर दिया। इस प्रकार कुल परम्परागत राज्य का भार धनपाल को सौंपकर मौर स्वयं गृह त्याग वन में जाकर मोक्षसुख की साधक जिनदीक्षा ले ली और कितने ही दिनों तक कठिन तपश्चरण कर घातिया कर्मो का नामशेष किया और केवलज्ञानी होकर सदा के लिए मोक्षपद प्राप्त किया। मैनासुन्दरी ने भी जिका के व्रत ले घोर तपश्चरण कर सोलहवें स्वर्ग में देव पद प्राप्त किया। वहाँ से चलकर मैनासुन्दरी का जीव मोक्ष पायगा । श्रीपाल की माता कुन्दप्रभा रानी ने भी तप के योग से सन्यास मरण कर Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१० सोलहवें स्वर्ग में पर्याय पाई तथा रपणमंजूषा आदि अन्य स्त्री तथा पुरुषों ने भी तप किया उसी के मनुसार गति पाई। देखो सिद्धचक्र व पंच नमस्कार मंत्र की महिमा कि कहाँ तो श्रीपाल कोठी था जो माठ दिन में कोड़ दूर कर कामदेव के समान रूपवान् हो गया और प्रथाह सागर से तिरा एवं इन्द्र के समान महा विभूति का स्वामी हुआ। अतएव जो परम कल्याण अर्थात मोक्ष की इच्छा करने वाले सज्जन पुरुष हैं उन्हें प्रमाद छोड़कर नित्य ही भव-सागर से पार करने वाले पंच नमस्कार मंत्र का स्मरण, जाप तथा ध्यान करना चाहिए। यह महामंत्र तीन लोक में अपराजित है अर्थात् किसी से जोता नहीं जा सकता है। यह अनादि निधन मंगलरूप लोक में उत्तम और शरणाघार है । देखो, यह पंच परमेष्ठी मंत्र की प्राराधना से सीता को पति का मिलाप और अग्नि का जल हो गया था । अंजना जो इसी महामंत्र के प्रभाव से वन में रक्षा और पति का समागम हुआ था। यही महामंत्र धनदत्त सेठ ने सूली पर चढ़े हुए दृढ़ सूर्य चोर को दिया था जिसके प्रभाव से वह मर कर सौधर्म स्वर्ग में देव हुआ था । और तो क्या पशु और पक्षियों की भी इसी मंत्र के प्रभाव से शभ गति हो गई। भुधरदास जी ने कहा है : विषधर बाघ न भय करें, विनशें विघ्न मनेक । व्याधि विषम व्यंतर भनें, विपत्ति न व्याप एक ॥१॥ बैठत बलते सोबते, प्रावि अन्त लों धीर। इस अपराजित मंत्र को, मत विसरो हो वीर ॥२॥ सकल लोक सब काल में, सर्वागम में सार । भूधर कबहुं न भूलिए, मंत्र राज मम बार ॥ ३ ॥ प्राचीन काल में अनेक जीवों ने इसके द्वारा जो फल प्राप्त किया है उसे लिखने की शक्ति नहीं है। इस प्रकार नमस्कार मंत्र का महात्म्य जानकर भव्यों को उचित है कि वे प्रसन्नता के साथ इस पर विश्वास करें और प्रतिदिन इसको प्राराधना करें। ॥ इति श्रीपाल चरित्र संपूर्णम् ।। ॥इति णमोकार प्रध भाषा पमिका समाप्तम् ॥ ॥ शुभं भवतु ।। Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९८ भमोकार पंच प्रथ ग्रन्थ कर्ता प्रशस्ति :गत घाति चतुष्टय गरिम, नव केवल लब्ध्येश । ज्ञायक लोकालोक के नमहं सकल परमेश ॥ अष्ट कर्म गत शर्म मय, नत निरंजन नित्य । ज्ञानादि वसुगुण गरिम, नमहुँ सिद्ध कृतकृत्य ।। व्रत तप बीर्याचारपन, दरशन ज्ञान प्रधान । धरें धरावें मौढ्यगण, नम सूरि तिन जान ।। रत्नत्रय मणिजुत सतत, वृष उपदेशन लीन । सयतिवर उवज्झाय है, नमहु चरण तिन चीन ॥ दरश बोध चारित रतन, तीनों शिवपुर पंथ । साधे ठाइ समूल गुण, नमहं सकल निर्ग्रन्थ ।। द्वादशांग वाणी विमल, उद्या सदन नि: नहुँ पण गुग बोलिए, विद्या दान अशेष ।। या विधि पच परमेष्ठी अरु, वाणी श्री जिनराय । नमि के पद युग पद्म को, लिखू प्रशस्ति बनाय ।। इस ही भारत क्षेत्र में, अन्तर्गत कुरु देश । इन्द्रप्रस्थ राजत नगर, शोभा सहित विशेष ।। पंचम जार्ज सम्राट मणि, सब राजन परधार । परत तिस शासन तहां, प्रजा सुखद कल्याण ॥ विविध जाति धर्मो सुजन, निवसें तहाँ समुदाय । जिन धर्मी राजें बहुत, जन धन साता पाय ॥ तिष्ठे तहाँ अन्वय प्रवर, खंडलवाल विख्यान । पुनीत वैनाडा गोत्र मणि, धर्म बुद्धि निष्णात ।। मम पितू कन्हैयालाल जी, किशन चंद के नंद । तिन पद युग को दास मम, कहावत लक्ष्मीचंद ।। ज्ञानावरण क्षयोपशम, पूरव भव संस्कार । भयो अटल विश्वास मम, जिनवाणी पर सार ।। तिस हेतु वय अल्प से, पागम श्री जिन चंद । पृच्छ अलापन गुणान का, करत रहत सानंद ।। एक दिवस मम चित्त में, उपजो यहै हुलास । पढ़ो सुनो तिहिं संचिये, यथाशास्त्र क्रम भाष ।। पंच परमेष्ठि नमन करि, सरस्वती उर धार । करन संग्रह प्रारम्भ कियो, यथा बुद्धि अनुसार ॥ जो निज धी तें जानियो, सुनो सुवुद्धिन पास । तिस एकत्रित करि कियो प्रागम रूप प्रकाश ।। या के संग्रह करन में, मम मितु निर्भयराम । तिन सहाय बहु हम करी, सम्मति दे सुख धाम॥ मम संग्रह अभिमानवश, कियो न यश विस्तार । पर हित हेतू तया, स्वज्ञ बढ़न हितकार ॥ याहि पठन-पाठन थकी, स्वल्प बुद्धि नर नार । न्यूनाधिक तातें कछु, होवहिगो उपकार ।। विज्ञन से मम प्रार्थना, पूर्बक भाव विनीत । हंस प्रकृति से शुध करो, क्रोध भाव को जीत ॥ नाहीं में व्याकरण विद्, नहीं चरित्र पुरान । नहीं काव्य तत्वार्थ विद्, नहीं न्याय कछु ज्ञान ।। पन्त संभवतः या मध्य में, होंगी त्रुटी अनेक । किन्तु न्यूनाधिक तथा, लँगो स्थल नैक ।। वीर अब्द चौबीस शत, छयालिस ऊपर जान । चैत्र शुक्ल एकादशी, भयो ग्रन्थ अवसान ॥ ॥ इति णमोकार ग्रन्थ समाप्तः ॥ Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ नमः सिद्धेभ्यः ॥ णमोकार पैतीसी अतोद्यापन । । स्थापनामंत्राधिराज णमोकार मंत्रम् । प्राह्वाननं स्थापन सन्निधापनः ।। संपूजयामीह विधानपूर्वकं । प्रत्येक वर्णानुगतं हित प्रदै ।। ॐ ह्रीं श्री सर्वज्ञमुख समुद्भुत अनादि निधन श्री अपराजित नाम मंत्राधिराज प्रवाह येति संवौषट् इत्याहामनं, ॐ ह्रीं श्री सर्वमुख समुद्भुत अनादि निधन श्री अपराजित नाम मंत्राधिराज अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं । ॐ ह्रीं श्री सर्वज्ञमुख समुद्र त अनादि निधन श्री अपराजित नाम मंत्राधिराज अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् यति सन्निधापन । पयोभिः शशांको ज्वलैश्चित्तचौरैः ।। कनकांचनामत्रनालारपतद्भिः ॥ गुरुन् पंच संपूजयामीह भक्त्या। यवा शक्ति संभाक्लिान् चित्तवृत्या ।। ___ ॐ ह्रीं अहं श्री परमब्रह्मभ्यो अनंतानंत ज्ञान शक्तिभ्यो ग्रह सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधु पंच परमेष्ठीभ्यो जलं निर्वपामीति स्वाहा ॥१॥ सुगंधागत भामरेंगघसारैः ।। सरद्गंधसंदिग्धिताशांतराल ।गुरुन् । चंदनं ।।२।। यशो राशि शंका गतं रक्षतोपः। पयः पूरसंक्षालितैः शालिजातः । गुरुन् । अक्षतं ॥३॥ लसत्मालती चंचकुंद प्रसूनः । सुगंधामिलत्षट्पदारावरम्यः । गुरुन् । पुष्पं ॥४॥ मनोधाण संतर्भिक्ष्यभेदैः । जगज्जतु क्षुद्रोग विद्राणदक्षः । गुरुन् । नैवेद्यं ॥५॥ मनोध्यांत संघात संघातनाथ । विकाशंकरः शंकरः सुप्रदीपः । गुरुन् । दीपं ॥६॥ दशांगोद्भवं धूपधूमः सुगंधैः । जगद्माण संतपणार्थ सद्भिः । गुरुन् । धूपं ॥७॥ फलनालिकेराम्र पूर्गः कपित्थैः । मनोवांछितार्थः फलनिदक्षः। गुरुन् । फर्म | Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Yo. णमोकार ग्रंप पानीय चंदन सुशालि भवाक्षतोषः। पुष्पैश्चरुत्करसुदीप दशांग धूपैः ।। नानाफलैर्वरतरविधिना ददेऽहं । मधं च पंच गुरुवे गुरुवे त्रिशुद्धया ॥ ॐ ह्रीं पंचपरमेष्ठिभ्यो प्रर्षम् ॥६॥ प्रत्येकाक्षर सम्बन्धिनी पूजा न्यंतिनी व कर्माणि, णकारोच्चारमात्रतः । शर्माणि समुदयं योति, ततोऽहं पूजयामि तं ।। ॐ ह्रीं महन्नमस्कार सम्बन्धि प्रथम णकाराक्षराय अर्घ ।।५।। मोक्षरं मनराजस्य यो जनो जिह्वया जपेत् । मुच्यते मोह मातंगोपवादिह तत् क्षणं ॥ ॐ ही महंन्नमस्कार सम्बन्धि द्वितीय मोक्षराय अर्थ ॥२॥ प्रकार स्वर संभूत वर्णन केन वपते । प्रादौहि द्विपंचाशद्वर्णनां पठ्यते तथा ।। ह्रीं महन्नमस्कार सम्बन्धि तृतीय प्रकारस्वराय अर्ध ॥३॥ रामंतिकिन्नरादेवाः सेवया च जगदगरोः । उच्चः स्वर विशेषेण रकार तमहं यजे ।। ह्रीं पहनमा अम्बनित नागवार :: हति हमक्षयं शीघं मोह शत्रुमनादिजं । तमहं प्रयजे तस्मात्स्वकर्महानयेऽनिशं ॥ ही पहनमस्कार सम्बन्धि पंचम हमक्षराय अर्थ ।।५।। पूर्वनप्राणिभिः प्राप्ता ऋक्ष्योऽष्टौ च विष्टये । ताशरणाशु जायन्ते तस्मात्ताक्षरमय॑से । ही महन्नमस्कार सम्बन्धि षष्ठ ताक्षराय अर्थ ॥६॥ पमित्मकरं लोकेऽहो प्रणामार्थप्रकाशक । प्रणामपूर्वकं तस्मात्तमहं जलादिभिः॥ ही पाहन्नमस्कार सम्बन्धि जमक्षराय पर्ष ॥७॥ इति सप्ताक्षरयुक्तानहतश्च जलादिभिः मष्टभि ष्यसंदोहरर्धमुत्तारयाम्यहं प्रई ॥ ही णमो मरहताणं महत् परमेष्ठीभ्यो पर्ष ।। सित प्रवन्ध सम्बन्धि कारोऽत्र प्रपूज्यते । तस्य प्रसादतो नून नमस्यसि नरामराः ।। ही सिझममस्कार सम्बन्धि प्रथम गकाराक्षराय प्रषं ॥१॥ Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गमोकार प्रप मोस्वरूपाक्षरदक्षा लक्ष्यीकृत्यानु वेलं । ध्यायंतु हृदये स्वस्थ मोक्षमार्गानुगामिनः ।। ॐ ह्रीं सिद्ध नमस्कार सम्बन्धि द्वितीय मोाराय अर्घ ॥२॥ सिस्वरूपाक्षरं शास्वत् पूजा द्रव्येण पावनं । पूजयामि जगत्पूज्यं भवस्य हरणेक्षम ।। ह्रीं सिद्ध नमस्कार सम्बन्धि तृतीय सिकाराक्षराय मध ॥३॥ धारणं पोषणं चेहाऽमुद्धाक्षरधारणात् । तस्मात्कारणात्तमऽहं पूजा द्रव्यः प्रपूजये ।। ॐ ह्रीं सिद्ध नमस्कार सम्बन्धि चतुर्थ शाक्षराय अर्घ ॥४॥ सानुस्वारं णकार यः प्रातःप्रातश्च पूजयेत् । सिद्धाः सिद्धि प्रयच्छतुतस्मै पूजानुबंधिते ।। ॐ ह्रीं सिद्धः नमस्कार सम्बन्धि पंचम प्रांत प्राप्त णकाराक्षराय पर्घ ॥५॥ ॥इतिपंचाक्षरी पूजा भष्याणां वांछिन्तप्रदा॥ तदर्थ मष्टभिव्यैरप्रमुत्तारयाम्यहं ।।। ॐ ह्रीं णामो सिद्धाणं सिद्धपरमेष्ठीभ्योः अर्थ ।। णाक्षरं तं पुननोमि प्रणमंति सुरा: यदा। प्राचार्य्यवंदनायां च पूजयामि जलादिभिः ।। ॐ ह्रीं प्राचार्य नमस्कार सम्बन्धि प्रथम णकाराक्षराय अर्थ ॥१५॥ भूयोऽपि मोक्षरं मान्यं मानन्द मन्दिर मुदा। जलाद्यष्ट विषैद व्यक्ति भारेण भाक्तिकैः ।। ॐ ह्रीं प्राचार्य नमस्कार सम्बन्धि द्वितीय मोऽक्षराय प्रर्ष ।।२॥ भाकारं निर्विकारं च साध्वाचारस्य सूचकं । भाचरति मुदाचार्याः स्वाचारार्थमहंयजे ॥ ॐ ह्रीं प्राचार्य नमस्कार सम्बन्धि तृतीय प्राकारस्वराय प्रर्घ ।।३।। ईश्वरं स्वरसंघातं पूजितं प्रार्थितप्रदं । प्रमोदभरसंभूत भक्तिभारेणचार्यते।। ॐ ह्रीं प्राचार्य नमस्कार सम्बन्धि चतुर्थ ईस्वराय अर्ध ।।४।। रीत्यक्षरराजस्य गानं कुर्वति रागिणः । आचार्याणां गुण ग्रामानर्थयामि विशेषतः ।। ॐ ह्रीं प्राचार्य नमस्कार सम्बन्धि रिकाराक्षराय प्रबं ॥२॥ याक्षरं पूज्यते नित्यं परमार्थ प्रकाशकं । यस्यार्थधारिणाश्वाश्रु प्राप्तःमोक्ष मुनीश्वराः ।। प्राचार्य नमस्कार सम्बन्धि षष्ठयाक्षराय म ॥६॥ णमक्षरंयजामीदं नमिताऽशेषभूतल। प्राचार्य नमनं तस्मादायोपातेन जायते॥ Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०२ णमोकार ग्रंथ ॐ ह्रीं आचार्य नमस्कार सम्बन्धि सप्तम प्रति समक्षराय अर्ध ।।७।। इति सप्ताक्षरी पूजा तृतीया पुर पीकृता । तदर्थं जलमुख्यैश्च स्वर्घमुत्तारयाम्यहं ।। ॐ ह्रीं णमो पाइरियाणं आचार्य परमेष्टीभ्यो; अर्थम् ।। उपाध्यायाधिकारीयो णकारः पूज्यते नरः । पाठ शुद्धिर्भवेद्यस्माद्विधा या व्यसनस्य च ।। __ॐ ह्रीं उपाध्यायनमस्कार सम्बन्धि प्रथम णकाक्षराय अर्ध ।।१।। भूयोपि मोक्षर भगाः पूजयतु विशेषतः । पानीय प्रमूखैद्रव्यः संसानसातहानये ।। ॐ ह्रीं उपाध्याय नमस्कार सम्बन्धि द्वितीय मोऽ राय अर्थ ॥२॥ वितिवर्ण विशेष ग: पूजाव्येण पुलोत ! सुरैः सन्मानतायाति किं पुनर्नर नायकैः ॥ ॐ ह्रीं उपाध्याय नमस्कार सम्बन्धि तृतीय उकाराक्षराय अर्घ ।।३।। वेतिवर्ण विधानेन नरो नारी निरन्तरं । प्रत्यर्चना द्रव्यः सुरै सौरं प्रपूज्यते ।। ॐ ह्रीं उपाध्याय नमस्कार सम्बन्धि चतुर्थ वकाराक्षराय अर्ध ।।४।। ज्झाक्षर निर्भद्वारिधारया गन्ध सारया । पुजयामि शुभद्र व्यः सुगन्धात्कृष्टषट्पदैः ।। हीं उपाध्याय नमस्कार सम्बन्धि पंचम भाक्षराय अर्थ ॥॥ यजन याक्षरस्योच्चर्जनाः कुर्वतु नित्यशः । न्यायोपात्तेन द्रव्येणानीत द्रव्येजलादिभिः ।। ॐ ह्रीं उपाध्याय नमस्कार सम्बन्धि षष्ठ याक्षराय अर्घ ॥६॥ नमंति प्रणिधानेन णमित्यक्षरनामकं । ये नरा: नरके घोरे न विशंति कदाचन ।। ॐ ह्रीं उपाध्याय नमस्कार सम्बन्धि सप्तम पमित्यक्षराय अर्धम् ॥७॥ भूयः सप्ताक्षरीचेां पूजा कुर्वन्तु भावतः । जलाधष्टविधैद्रव्यरर्ष मृत्तारयाम्यहं ॐ ह्रीं णमो उवझायाण उपाध्याय परमेष्टोभ्योः अर्घम् । बिना ण वर्ण साधूणां वंदनं नहि जायते । ततस्तमक्षरं नित्यं पूज्यते परमादरात् ।। ॐ ह्रीं सर्वसाधु नमस्कार सम्बन्धि 'प्रथम णकाराक्षराय अघम् ।।१।। Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार मंथ ४०३ मोक्षरं यजते यो ना मुच्यते पापसंतयात् । संचिनोतिर पुण्यं तोहं पूजयामितं ।। ॐ ह्रीं सर्वसाधु नमस्कार सम्बन्धि द्वितीय मोक्षराय अर्घम् ।।२।। लुनाति चाघ संघानं लोरण लगिनं मुसात् । यस्तं सलिलधाराभिर्यजते वर्ण नाका ।। ॐ ह्रीं सर्वसाधू नमस्कार सम्बन्धि तृतीय लो वर्णाय अर्घम् ।।३।। एक्षर येधरत्युच्चैः .नापं जनाः यदा। तदा तेषां भवेत् सर्चा संपंच्च सुख साधिनी ।। ॐ ह्रीं सर्वसाधु नमस्कार सम्बन्धि चतुर्थ एशराय अर्धम् ।।४।। स-साधुमेव्यते नित्यं यस्य ज्ञान गुणांवृधः । पार न प्राप्यते सद्भिहि भिश्च रिचारकैः ।। ॐ ह्रीं सर्वसाधु नमस्कार सम्बन्धि पंचम सकाराक्ष राय अप्रैम ।।५।। सर्वार्थसाधनेदक्षं दक्षा वाक्षर चर्चनं । कुबंतु करुणायुक्ताः सशक्ता: सर्व कर्मणि ।। ___ॐ ह्रीं उर्वसाधु नमस्कार सम्बन्धि पप्ठ वाक्षराय अर्घम् ।।६॥ साक्षरेणथुगा सेव्या गोक्ष लक्ष्मी मनःप्रिया। ययात्र रचितं चेतो वंचित्यं मोपढ़ीकते। ॐ ह्रीं सर्वसाधु नमस्कार सम्बन्धि सप्तमं मा-धराय अर्घम् ।।७।। हूरवरूपाक्षरस्यौच्चः पूजनमुदाचरेत् । हा हा हूं व्हादिभिर्देव्यैः पूजा प्राप्नोनि नित्यशः ।। ॐ ह्रीं सर्वसाधु नमस्कार सम्बन्धि अष्टम हूं-स्वरूपाक्षरायप्रर्षम् ॥८॥ णमहं साधु वर्गस्य साधुसंवादतां गता। पूजयामि महा भक्त्या पूजा भक्त्या द्रव्यनिरंतरं ।। ॐ ह्रीं सर्वसाधु नमस्कार सम्बन्धि नवम् ण मि यक्षराय अर्घम् ।।६।। साखं द्वितीय द्वीपेष साधबो ये वसन्ति वै । तदर्थमष्टभिव्यरमुत्तारयाम्यहं ॥ ॐ ह्रीं णमो लोएसब्साहूणे सर्वसाधुभ्यो: अर्घम् ॥ अपराजित मन्त्रस्य पूजा सन् मंगल प्रदा। विदुपाक्षयरामेण कृता ज्ञेया विवेकिभिः ।। AvatanPAARADA Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 404 णमोकार ग्रंथ जयमाला अर्हत; सुरराज पूजित पदाः, सिखा लसत्सद्गुणाः / प्राचार्याः सुचरित्र साधनापराः अध्यापका धीश्वराः / सिद्धा: साधन साधवाऽत्रभुवने सबबुद्धयः साधवः / पंचैते परमेष्ठिनो निजगुणान्, यच्छंतु चाराधिताः // 1 // कम कलंक निवारण कारण ध्यान कराः / भव्य समूह समुद्धरणक जिनेश्वरा: / / सिद्ध वधू वरवांछित लांछिन बोधधराः / जन्मजरामृति रोग निवारण सिद्धवराः // 2 // पाचरणे सुविचारपरा:, शुभध्यान धराः / भूरिभवार्णवतारण कारण पीतवराः // दीक्षित बुद्धि समुद्र विवर्षन चन्द्र कराः / पाठकतागुण धारण पाठक नाम धराः / / 3 / / सौम्य दृगं कुंशमार मतंगज मानभिदं / साधु समूहमहं प्रयजे गुरु ज्ञान विदं // पाप हर महामंत्रपर प्रणमंति नराः / ये निज भक्तिभरण त्रिसंधि विवेक पराः // 4 // ते सर सय लमन्ति निरंतर सौख्यभरं। देवगणैः परिशोभितमधि विदरतरं // इन्द्र नरेन्द्र फणींद्र खगेन्द्र विभूति प्रदं / जाप्यजपाक फलेण जलेन जलोदरदं // 5 // भूतगणं ग्रहचौररण, मणि मन्त्र परं / नाशयतीह च पापधनाधनवातभरं / प्रातर रं जपनीयपरं पर भक्तिभरैः। श्रावक: करुणारसपानमहाचतुरे: // 6 / / इत्थं पंचप्रभून वै वर विधि-सहिता श्रावकाः पूजयन्ति / / येते धागभिःस्तुवंति, प्रगुणित परमाह्लाद भाजो भवन्ति // 7 // तेषां व पंचत्रिशत् सुगुणितगणनाम संयुताना निमित्त / / वर्णानां सोपवासंविधि मनति नयं संविधिते स भव्यः || वत्सरे युग नवाश्च चन्द्रके / (सं. 1792) माधवासित चतुर्दशी दिने / / नूसने जयपुरे पुरेशिनि / राजमान जयसिंह राजनि // 6 // वाणी गच्छे गच्छाधीशः शमजातो विद्यानन्दी विद्याधीनं / / समजताः तेषांशिष्यः शिष्य मुख्योऽक्षय राम / पूजामेनामुच्चैश्चक्र-अक्षयरामः / इति श्री नवकार पंच त्रिशतिकोद्यापन पूजा सम्पूर्णा // णमोकार पतीसी के उपवास-३५ / सप्तमी के 7 // पंचमी के च / चतुर्दशी के 14 / नवमी के / ऐसे उपवास 35 होते हैं।