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________________ - मोकार संघ २६० सिद्धांत नामक एक द्वारपाल ने महाराज से जाकर कहा-स्वामी ! आदिनाथ भगवान पृथ्वी को अपने पैरों से पवित्र करते हुये पाहार के लिए आये हैं, तब सोमप्रभ तथा श्रेयांस राजा अपने पुरोहित, मन्त्री ग्रादि तथा अन्तःपुर सहित उठकर भगवान के सन्मुख गए महा भक्ति संयुक्त राजद्वार के बाहर जाकर भगवान की प्रदक्षिणा करके उन्होंने बारम्बार नमस्कार किया और रत्नपान से अर्घ देकर भगवान के चरणारविंद धोए। राजा सोमप्रभ के लघुभ्राता श्रेयांस को भगवान के दर्शन के द्वारा याने प्रथम भव में उसने जो चारण ऋद्धि धारी युगल मुनियों को आहार दान दिया था वह सब विधान ज्यों का त्यों स्मरण हो पाया। उस समस्त विधि से परिचित होकर राजा श्रेयांस ने बड़ी भक्ति से उनको नवधामाविक रत्न किस काम नाचल में खे हुए सीतल मिष्ट प्रासुक ईक्ष रस का आहार कराया । इम पात्रदान के अतिशय से उनके यहां स्वर्ग के देवों ने रत्नों की वर्षा की, कल्पवृक्षों के सुगन्धित और सुन्दर पुष्प वरषाये, दुन्दुभि बाजे बजाए । उस समय मंद, सुगन्धित, शीतल पवन चली । धन्य है यह पात्र. धन्य है यह दान और धन्य है यह दान का देने वाला श्रेयांस इस प्रकार जय-जयकार शब्द हुा । श्रेयांग के दान से आहार देने की विधि प्रगट हुई। श्रेयांस राजा देवों में भी प्रशंसा के योग्य हुए। सच है सुपात्रों को दिए दान के फल से क्या-क्या नहीं होता है ? भगवान निरन्तराय निर्दोष शुद्ध आहार लेकर वन में विहार कर गए । एक हजार वर्ष पर्यन्त महान घोर तपश्चरण कर शुक्ल ध्यानाग्नि से घातिया कर्म रूपी काष्ठ को भस्मकर फाल्गुण कृष्ण एकादशी के दिन प्रातःकाल के समय भगवान ने लोकालोक का प्रकाशक केवलज्ञान प्राप्त किया । केवलज्ञान होते ही इन्द्र ने पाकर बारह सभात्रों में सुशोभित समवशरण की रचना की। उन बारह सभा निवासियों का अनुक्रम इस प्रकार है काव्य पहले कोठे विष साध तिष्ठे अध नाशक, भध्यन को शुभ स्वर्ग मोक्ष मारग परकाशक । दूजे कल्प सुरी महान मूरत दुति धारक, जिनवर भक्ति धरंत लखे प्रभु पद दुःखहारक । ११ तीजेवृतिका एक श्वेत साड़ी तन धारे, तथा श्राविका तिष्ठत प्रत युत तिसी मंझारे। चौथे राशि रवि प्रादि ज्योतिषी सुरी निहारो, क्रान्ति युक्त जिन भक्ति भरी मिथ्यात विडारो।२। पंचम कोठे विष व्यन्तरी क्रान्ति विराजत, जिन पद अम्बुज भक्ति धरे प्रानन्द सुसाजत । भवनवासिनी छठे विष मुख पद्म समानो, जिन चरणाम्बुज सेव करन को भ्रमरी जानो ।३। दश प्रकार सुर नागपति सप्तम तिष्ठते, जिन पद अम्बुज सेव करन को अलि दुतिवंते । अष्टम व्यन्तर देव भक्ति युत प्रष्ट निहारो, नवमे द्योतन करत ज्योतिषी पंच प्रकारो ।४५ कलपवासि सुर दशम विर्ष तिष्ठं हरषाई, राणादिक तर दृष्टि सहित ग्यारम तिष्टाई ।
SR No.090292
Book TitleNamokar Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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