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________________ मोकार अथ नम्न मुदा धारण कर क्ष धा. तृषा, शीत, उष्ण आदि परिषह सहन करने में असमर्थ हो गए तब कितने हो कायोत्सर्ग तजकर क्ष धा की वेदना से महा व्याकुल होकर फल प्रादि का भक्षण करने लगे, कुछ तृषा के बारग संतप्त चित्त होकर नदी सरोवर आदि का शीतल जलपान करने लगे। उनका भ्रष्ट पाचरण देखकर उस वन के देवताओं ने उनसे मना किया और कहा-'कि तुम लोग ऐसा मत करो। अरे मूखों ! यह तुम्हारा दीक्षा ग्रहण किया हुमा दिगम्बर अवस्था का रूप सर्वश्रेष्ठ अरिहंत, चक्रवर्ती मादि लोगों के धारण करने योग्य है । तुम्हें इस नग्न जिन मुद्रा को धारण कर जैनेन्द्री दीक्षा को कलंकित करना तथा इस निन्दनीय कृत्य का करना योग्य नहीं । दूसरी वात, ऐसे कृत्य का करना तुम्हें नरक श्रादि दुर्गति का कारण भी है। '"तब उन्होंने नग्नमुद्रा का परित्याग कर वृक्षों के बक्कल धारण कर ली। कुछ ने मृगचर्भ आदि धारण कर लो । कुछ ने दर्भ धारणकर ली। वन वृक्षों के फलों से वे क्षुधा निवारण करने लगे। सरोवर आदि के शीतल जल से तृपा निवारण करने लगे। कितने ही परस्पर वार्तालाप करने लगे। कि यह गुरु महाधीर वीर किसी कार्य की सिद्धि के लिए योग साधन करने वन में पाए हैं। और बाद में वापिस जाकर राजलक्ष्मी का सेवन करेगे, आज या एक दो दिन में योग का परित्याग कर अपने स्थान पर जाकर राज्य लक्ष्मी अगीकार करेंगे इससे यदि हम पहले नगर में चले जाएगें तो ये हमें स्वामी कार्य में विघ्न डालने वाले और छल करने वाले जानकर हमारा मान भंग कर देश से निकाल देंगे तब भी तो हमें सम्पदा विहीन होकर बहुत वाधा सहन करनी पड़ेगी अथवा इनके पुत्र भरत चक्रवर्ती राज्य कर रहे हैं वे भी हम पर कोप करेंगे कि ये स्वामी को तजकर चले पाए हैं अतः ये दण्ड देने योग्य के प्रतः यावत (जब तक) भगवान ऋषभ देव का योग पूर्ण न हो जाय तावत (तब तक) हमें भी बाधा सहने योग्य है । यह भगवान अभी दिन दो दिन में योग सिद्धि होने पर उल्टे घर जाएगे तब हम से प्रसन्न होकर हमें प्रतिष्ठा, सत्कार, लाभ आदि से सम्पन्न करेंगे।' इस प्रकार कितनों ही ने अन्तकरण में व्याकुलता होते हुए भी अपनी आत्मा को दृढ़ (स्थिर) किया। कितने ही विचलित होकर भस्मी लगाकर जटाधारी हो गये, कितने ही दंडधारी हुए इत्यादि उन्होंने अनेक भेष धारण किये। उनमें से मारीच ने परिधाजनों में मुख्य होकर परिवाज का मार्ग चलाया। अथानन्तर माध्यानी अपभदेव भगवान मे छह मास पूर्ण होने पर ग्राहार के निमित्त प्रवर्तन किया। उन्होंने मन में विचारा कि-- महो! देखो, ये कच्छ महाकच्छ प्रादि महान व शोद्भव संयमी भुनि का मार्ग न जानवार क्षधा, तृषा, प्रादि २२ परीषह सहन करने में असमर्थ होकर थोड़े ही दिनों में भ्रष्ट हो गए अत: मुझे मोक्षमार्ग की सिद्धि और काय की स्थिति के निमित्त अव यतियों के प्राहार का मार्ग दर्शना चाहिए । मोक्षाभिलाषी निर्ग्रन्थ साधुनों को न बिल्कुल काय ही कुश करना और न गरिष्ठ रस संयुक्त, मिष्ट, स्वादिष्ट भोजन के द्वारा पोषण ही करना चाहिए किन्तु दोष अर्थात रा अथवा वात, पित्त, कफ प्रादि दोष के नाश के निमित्त उपवास अादि तप करना और प्राण धारण करने के निमित्त शास्त्रोक्त निर्दोष शुद्ध निरंतराय माहार लेना चाहिये ऐसा मन में निश्चय करते हुए प्रादीश्वर भगवान ने ईर्या समिति पूर्वक प्रहार के निमित्त बिहार किया। मुनि सम्बन्धी क्रिया के प्राचरणी भगवान मौन पूर्वक बिहार करते गये, सोपुर ग्राम आदि में बिहार करते हुए प्रजाजन राज्य अवस्थावत् विविध प्रकार के उत्तम-उत्तम पदार्थ उन्हें भेंट करते थे परन्तु अब इन्हें भेंट प्रादि से क्या प्रयोजन था? अन्तराय जानकर वापिस वन में चले जाते थे। इस प्रकार षट् मास पर्यन्त जब आहार की विधिपूर्वक प्राप्ति न हुई तब वे विहार करते-करते हस्तनागपुर पाए। सर्व ही नगर निवासीजन भगवान के दर्शन करके परम आनन्दित हुए। जब भगवान राजद्वार के निकट पहुंचे तन
SR No.090292
Book TitleNamokar Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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