SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 310
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गमोकार प्रेष २८७ क्रीड़ा करने को गए और श्री नेमिनाथ को भी साथ ले गए । वन में श्री कृष्ण के सेवकों ने पहले ही पहुँच कर केशर और चन्दनादि उत्तम-उत्तम सुगन्धित वस्तुओं से छोटी-छोटी बावड़ी भर दी थी और सुगन्धित वृक्षों के पराग से मिली हुई मुलाल भी बहुतसी पहुंचा दी गई थी। चारों तरफ उसम-उत्तम सुगन्धित पुष्पों की बाड़ियां लगी हुई थी। जिनके देखते ही स्त्री पुरुषों के चित्त में प्रानन्द की लहरे उठने लगती थी। श्री कृष्ण नेमिनाथ को लिए हुए वहीं पहुंचे और जल ऋड़ा करने लगे। श्री कृष्ण की बहुत सी स्त्रियाँ उनके ऊपर बार-बार जल फेंकने लगी और भी नाना प्रकार से जैसा उन्हें सूझा बे श्री कृष्ण के साथ कौतुक (खेल) करने लगी। श्री कृष्ण भी जैसी-जैसो उनकी उत्कंठा होती थी उसी प्रकार पूर्ण करते करते जाते थे। इसी प्रकार बहुत देर तक खेल खिला कर श्री कृष्ण तो जल के बाहर निकल कर कहीं चले गए । तब कृष्ण के जाते ही उन्होंने नेमिनाथ के साथ खेलना प्रारम्भ किया । वे नाना प्रकार की हंसी करने लगी; केशर डालने लगी, पिचकारियों मारने लगी और विवाह न करने पर बड़े-बड़े ताने मारने लगी । क्रीड़ा समाप्त हो जाने पर सब स्त्रियां जल से बाहर निकली। नेमिनाथ भी बाहर पा गग । अपने गीले वस्त्रों को प्रथक करके सत्यभामा की ओर फेंक कर बोले हमारे वस्त्रों को निचोड़ दो। सत्यभामा यह सुनकर बहुत रुष्ट हुई और बोली--'यह काम प्रपनी स्त्री से करवाइए 1 मुझ से यह नहीं हो सकता। तुम जानते हो-जो सुदर्शन चक्र चला सकता हो, नाग शय्या पर सोने की जिसमें शक्ति हो, जो पांच्यजन्य शंख फूक सकता हो जो सारंम धनुष पर ज्या, चढ़ा सकें बही मुझे प्राज्ञा दे सकता है न कि तुम । इसलिए दूसरों का काम मैं नहीं कर सकती ।' सच है मनुष्य अभिमान के वश होकर योग्य, अयोग्य, हिन, अहित के विचार से शून्य होकर एक पूज्य पुरुष के शासन की अवज्ञा कर डालता है। गीता छन्द :जो जिनेन्द्र नरेन्द्र इन्द्रा करि सदा पूजत सही, हैं जगत के मुरु देव देवन तासु के पद छंद हो। रज शीघ्र बंधन करन ते अघ जाल ताप हरंत हैं, तिनकी करि पाजा अनूपम घो तो शरम करत है। दोहा--- पांछा सेवा को सदा, रखत इम्न मन साय । तिन का कारण पुन्य बिन, निधिवत् कसे पाय ।। अर्थात् जिन प्रानन्द कन्द जिनेन्द्र चन्द्र के प्राज्ञा की इन्द्रादिक देव प्रतीक्षा करते रहते हैं और हाथ जोड़ कर निवेदन करते हैं। पुण्य पुरुष हम आपके दास हैं। हमारे लिए कुछ आमा कोजिए जिससे आज्ञा पालन कर हम अपने जीवन को कृतार्थ करें। ऐसे नेमिनाथ भगवान् के शासन की सत्यभामा में अक्सा की जो ठीक भी है क्योंकि जिन भगवान के आदेश का पालन करने का सौभाग्य भी तो किसी परम प्रकर्ष पुण्योदयी मनुष्य को प्राप्त होता है साधारण को नहीं ।' सत्यभामा के ऐसे उदन्डता से भरे हए वचन सुन कर नेमिनाथ उसी समय वहाँ से चल पड़े और श्री कृष्ण की युद्धशाला में वहां उन्होंने सुदर्शन चक्र को पांव के अंगूठे से घुमाया। नाग शय्या पर शयन किया । धनुष पर ज्या चढ़ाई और पांच्य जन्य शंख भी उन्होंने पूरा दिया। धनुष की टंकार और शंख का नाद होते ही बड़ा भारी कोलाहल मच गया। लोग भयभीत होकर प्रलय काल , को कल्पना करने लगे: श्री कृष्ण एक
SR No.090292
Book TitleNamokar Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy