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णमोकार ग्रंथ
अष्टाह्निका व्रत धारण कर क्योंकि इस व्रत के प्रभाव से सब प्रकार के रोग शोक दूर हो जाते हैं।" तब मैनासुन्दरी ने विनीत भाव पूर्वक निवेदन किया-"हे स्वामिन ! अनुकम्पा कर इस व्रत की विधि बतलाइये।" तब मुनिराज ने वाहा-"हे पुत्री ! यह व्रत प्रतिवर्ष में तीन बार कार्तिक, फाल्गुन, और प्रषाड़-इन तीन महीनों के शुक्ल पक्ष के अन्त के आठ दिनों में अर्थात शुक्लाअष्टमी से पूर्णिमा पर्यन्त किया जाता है। उत्तम व्रत तो यह है कि पाठों ही उपवास करै । मध्यम बेला तेला आदि अनेक रूप हैं सो यथाशक्ति करे। इन उपवास के दिनों में अपने चित्त को विषय कषायों से रोक कर धर्म ध्यान में व्यतीत करे क्योंकि
"कषाय विषयाहारो, त्यागो यत्र विधीयते ।
उपवासः स विज्ञेयः शेषं तु लंघनं विदुः ॥" अर्थ-इस प्रकार प्रति वर्ष में तीन बार व्रत करते हुए पाठ वर्ष व्यतीत हो जावें तब यथाशक्ति विधि सहित उद्यापन करें।" इस प्रकार मुनिराज के द्वारा व्रत को विधि सुनकर मैनासुन्दरी ने सिद्धचक्र व्रत को सहर्ष स्वीकार किया। पश्चात वे दंपति मुनिराज के चरणारविन्दों को नमस्कार कर अपने स्थान को पधारें और परस्पर प्रेमालाप करते हुए सुख पूर्वक समय व्यतीत करने लगे। कुछ दिन के अनन्तर पवित्र कार्तिक मास आया। सो कार्तिक शुक्लाष्टमो को मैंनासुन्दरी बड़े हर्ष के साथ स्नान कर उज्जवल, शुद्ध वस्त्र धारण कर प्राशुक सामग्री ले जिन मन्दिर गई और विधिपूर्वक अष्टद्रव्य से भगवान की पूजा की । आठ दिन के लिए अह्मचर्य व्रत धारण किया। इस प्रकार नित्यप्रति वह र पाठों दिन भगवान की पूजा करके गंदोदक लाती और सात सौ वीरों तथा श्रीपाल के कूष्ठ से गलित शरीर पर छिड़क देती थी। सो इस सती को सच्ची पति सेवा और जिन भगवान की भक्ति तथा ब्रत के प्रभाव से पाठ ही दिनों में श्रीपाल और उनके सात सी सखापों के शरीर से कुष्ट इस तरह निर्मूल हो गया कि मानों कभी हुआ ही न था। अब श्रीपाल का शरीर गुवर्ण के समान कान्तिमान हो गया। देखो व्रत का प्रभाव कि जिसके अतिशय से तत्क्षण ही सात सौ सखापों सहित राजा श्रीपाल कुष्ट रोग से मुक्त हो कामदेव के समान दीप्त शरीर हो गए। सच है - "यत की महिमा अचित्य है।' अब वे दंपति
साताकर्भ के क्षय होने पर सुख पूर्वक समय विताने लगे। इनको ऐसा हर्ष हा कि निशिवासर जाते मालूम नहीं होते थे। यह बात तो यहाँ ही रही।
प्रब श्रीपाल जी की माता कुन्दप्रभा का वृतान्त कहते हैं-माता कुन्दप्रभा पुत्र के वियोग से तथा पत्र की प्रस्वस्थ अवस्था का विचार करती हई अत्यन्त दुःखित रहा करती थी। सो चिन्त हो चिन्ता में उनका शरीर बहुत क्षीण हो गया । परन्तु क्या करें निरुपाय थौं । यद्यपि पुत्र का मोह बहुत था यहां तक कि शरीर बहुत क्षीण हो गया था परन्तु वह प्रजा वत्सल रानी इस दशा में भी श्रीपाल को बुलाकर पास रखना नहीं चाहती थीं। निदान कुन्दप्रभा एक दिन स्नान कर शुद्ध वस्त्र पहन जिन मन्दिर गई तथा प्रथम ही श्रीजिनदेव की वन्दना स्तुति करके वहां पर तिष्ठे हुए श्री मुनिराज को नमस्कार करके विनय पूर्वक अपने पुत्र को कुशल पूछने लगी। तब समदर्शी निग्रंथ दिगम्बर मुनिराज ने प्रधिमान से धीपाल के उज्जैन में जाने, मैंनासुन्दरी के साथ सम्बन्ध होने और कुष्ट व्याधि के दूर हो जाने आदि का सम्पूर्ण वृतान्त रानी कुन्दप्रभा को कह सुनाया। तब रानी प्रसन्न चित्त होकर निज घर पायी और पंपने देवर वीरदमन से श्रीपाल के पास मिल जाने की आज्ञा मांगकर सहर्ष उज्जैन की मोर प्रयाण किया। रानी कुन्दप्रभा पुत्र प्रेम से वाध्य हुई प्रति शोघ्रता से प्रयाण करती हुई कुछ दिनों