________________
णमोकार ग्रंथ
ये माता, पिता, गुरुजन तथा दर्शन जन आदि क्यों ऐसे मंगलमय समय में अमंगल सूचक चिन्ह प्रगट करते हैं। मुझे शीघ्र ही क्यों नहीं विदा कर देते । ये ज्यों-ज्यों विलम्ब कर रहे हैं, त्यों-त्यों मेरे पतिसेवा करने में अंतराय पड़ रहा है।
जब उसने देखा कि ये सब लोग प्रेम के वश होकर पिता के कृत्य और भाग्य को दोप देते हुए साथ में मेरे पति के लिए कोढ़ी आदि निद्य वचन कह रहे हैं । तब उससे नहीं रहा गया और वह दीर्घ स्वर से बोली-'हे माता, पिता, बंधु तथा गुरुजन ! यद्यपि प्राप सब लोग मेरे शुभचिंतक हैं और प्रव तक आप लोगों ने जो कुछ भी मेरे लिए किया वह सब सुख के लिए था परंतु अब आप लोगों के ये वचन मुझको गुल से मालूम होते हैं। मैं अब अपने पति के निंदा वाचक वचन नहीं सुनना चाहती हूं। क्या आप लोग नहीं जानते कि स्त्री का सर्वस्व पुरुष ही है। जो सती, शीलवान और सुशील स्त्रियां हैं वे अपने पति के लिए निंद्य वचन नहीं सुन सकती हैं । स्त्रियों को उनके कर्मानुसार जैसा बर प्राप्त हो जाए वहीं उनको पूज्य है यद्यपि आप लोग मेरे पति को कुरूप और सेग सहित देख रहे हैं परंतु मेरी दृष्टि में वह कामदेव के समान है। आप लोग व्यर्थ ही पश्चाताप कर रहे हैं । यदि शुभोदय होगा तो थोड़े ही समय के अनंतर आप लोग इन्हें देव, गुरु व धर्म के प्रभाव से रोगमुक्त देखेंगे इसीलिए प्राप शांति रखें। किसी प्रकार की चिंता नपा। इसमें देरे पिता का विपन्नी दोष नहीं है इसीलिए कभी भी पाप पिताजी को कुछ-कुछ कहकर क्लेशयुक्त न कीजिए ।'
इत्यादि पुत्री के वचन सुनकर सबको सन्तोष हुआ और वे कर ही क्या सकते थे ? 'होनहार प्रबल हैं'- इस विचार से चित्त को शान्त कर राजा पदुमाल ने पुत्री तथा जामात को उत्तमोत्तम वस्त्रादि दिये तथा साथ में सेवा करने के लिए दास-दासी तथा पालकी, रथ, पोटक, हस्ती, गाय, भैस, ग्राम, पुर पट्टनादि दिए एवं क्षमा कर विदा किया। बहुत दूर तक लोग पहुंचाने गए थे सो पश्चात लौटकर सब लोग अपने अपने निवास स्थान को आ गये । कुछ समय तक नगर में यही चर्चा रही और ज्यों-ज्यों दिन बीतने लगे त्यों-त्यों लोग इस बात को भूलने लगे।
अथानन्तर जब से श्रीपाल जी मैंना सुन्दरी को अपने घर ले पाए तब ही से उनके शरीर में दिनोंदिन कुछ कुछ साता के चिन्ह प्रगट होने लगे । सो ठीक ही है
शीलवान नर जहां-जहां जाय' तहां-तहां मंगल होत बनाय।" मैनासुन्दरी उत्तम मन वचन से ग्लानि रहित पति सेवा में लीन हो गई वह साध्वी निरन्तर श्रीपाल की अभिरुचि के अनुकूल पथ्य भोजन कराती और सदैव रोग की निवृत्ति के लिए श्री जी से प्रार्थना करती । प्रथानंतर एक दिन दोनों दम्पति श्री जिन भगवान के दर्शनार्थ जिन मन्दिर गए। वहां भगवान की सभक्ति तीन प्रदक्षिणा देकर साष्टांग नमस्कार किया और दत्तचित्त हो भगवान के गुणों का गायन करने लगे । पश्चात वहां पर विराजमान श्री गुरु के चरण कमलों में सक्ति नमस्कार कर दोनों दंपति अपने देदनीय कर्म के उदयजनित व्याधि की निवृति के लिए प्रतीकार पूछने लगे।
तब मुनिराज ने कहा- "हे पुत्री !" मैं तुम्हें कुछ व्याधि की निवृत्ति के लिए प्रतीकार बताता हूं इसलिए दत्तचित होकर सुन । यह उपाय यह है कि सबसे प्रथम निर्दोष सम्यक्त्व स्वीकार कर । जिसके धारण करने से सब प्रतादिक सार्थकता को प्राप्त होते हैं । अन्यथा सम्यक्त्व के बिना व्रत आदि का माचरण करना अंक के बिना अखिल शून्यवत निरर्थक हैं । पश्चात विधि सहित सिद्धचक्र वत पर्यात