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________________ ३७३ णमोकार ग्रथ योर प्रयाण किया । वहाँ से चलकर जब कुछ समय के अनन्तर नगर के निकट पहुंचे तो श्रीपाल को उनके सात सौ सखाओं सहित पुर के बाहर उद्यान में डेरा देकर थाप स्वयं मंत्रियों सहित नगर में प्रवेश किया और पुत्री के निकट आकर बोला- 'पुत्री ! अब भी तू कह दे तुझे कौन-सा वर पसंद है ? मैं तेरा भी सुरसुन्दरी वत् इच्छित वर के साथ विवाह कर दूंगा। अपने श्रभीष्ट को निस्संकोच होकर प्रगट कर दे ? पिता के ऐसे वचनों को सुनकर मैनासुन्दरी ने उत्तर में कहा – पिता जी ! बारम्बार पिष्टपेषण (पिसे हुए को पीसने से क्या लाभ? मैं प्रथम ही आपसे निवेदन कर चुकी हूं कि कुलीन कन्याएँ कभी निजमुख से वर नहीं पाता तथा गुरुजन जिसको योग्य वर समझ लेते हैं। वही उनको स्वीकृत होता है। अतएव मुझको भी आपका वचन स्वीकार होगा ।". पुत्री के ऐसे वचन सुनकर राजा को संतोष नहीं हुम्रा तत्र बोले- 'हे पुत्री ! मैंने तेरे लिए कुष्ठी वर योग्य समझा है ।' वह बोली- 'वह वर मुझे स्वीकार है । इस भव में तो कुष्ठीराय मेरा स्वामी होगा । अन्य सब आपके ( पिता के ) समान हैं ।' यद्यपि ये वचन मैनासुन्दरी ने अपने हार्दिक सद्भावों से कहे थे परंतु राजा को नहीं रुचे | वह बोले-'हे पुत्री ! तू बहुत हठीली है और विचार शून्य है । अब भी अपनी हठ छोड़ दे ।' परंतु मैनासुन्दरी अपने हार्दिक भावों से श्रीपाल को ही अपना जीवनेश समझ चुकी थी अतएव वह कहने लगी - पिता जी ! कर्म की गति विचित्र है । जब अशुभ कर्म का उदय आता है तब इष्ट रूप सामग्री अनिष्ट रूप हो जाती और जब शुभ कर्म का उदय होता है तो वहीं अनिष्ट रूप सामग्री रूप परिणमन जाती है। क्षणमात्र में कुवेर से धनी निर्धन, कामदेव के समान रूपवान कुरूप, स्वस्थ से रोगी, निर्धन से धनी, कुरूप से रूपवान और रोगग्रस्त से रोग मुक्त हो जाते हैं इसीलिए अव जो कुछ होना था सो हो चुका। अब इसमें कुछ सोच विचार करने की आवश्यकता नहीं हैं ।' जब राजा ने देखा कि पुत्री को भी अब जिद्द हो गई तब उन्होंने तत्काल ही एक ज्योतिर्विद् पंडित को बुलाया और उससे विवाह का उत्तम मुहूर्त पूछने लगे। तब ज्योतिषी ने लग्न विचार कर कहा— नरनाथ ! नाज का मुहूर्त अति उत्तम है क्योंकि सूर्य, चन्द्र और गुरु तीनों वर तथा कन्या के लिए बहुत ही अच्छे हैं, फिर ऐसा उत्तम मुहूर्त बीस वर्ष तक भी नहीं बनेगा ।' 1 राजा ऐसा उत्तम और निकट मुहूर्त सुनकर बहुत प्रसन्न हुए और विवाह का प्रायोजन करने लगे तब मंत्री, पुरोहित, स्वजन तथा कुटुम्बी जनों ने मैनासुन्दरी को कुष्टि के साथ देने से बहुत रोका परंतु राजा ने सत्रको तिरस्कृत कर अपने हठ तथा मिथ्याभिमान के वश होकर उसी दिन मैनासुन्दरी का श्रीपाल के साथ विधिपूर्वक पाणिग्रहण करा दिया। जब विवाह विधि हो चुकी तब मैनासुन्दरी अपने पति के साथ-साथ चलने लगी और सब लोग विचार कर सुन्दरी को पहुंचाने गए । उस समय कुटी श्रीपाल के साथ दिव्य रूपवती सुन्दरी को जाते हुए देखकर किसी के चेहरे से शोक, किसी से चिंता, किसी से भय, किसी से ग्लानि, किसी से विस्मय, किसी से क्रोध और किसी से बिरागता प्रदर्शित होती थी। उस समय राजा पदुपाल भी स्वयं चित्त में बहुत खेदित और लज्जित हुआ परंतु वह कर ही क्या सकता था? कर्म रेख पर मेख मारने की किसकी सामर्थ्य है ? मैनासुन्दरी की माला तथा ग्रहिन भी उसकी इस दशा को देखकर अश्रुपात करते हुए राजा को दोष देते जाते थे परंतु उस सती, शीलवती, कोमलांगी बालिका के चेहरे से पूर्व प्रसन्नता प्रदर्शित होती थी। वह विचार कर रही थी कि न मालूम
SR No.090292
Book TitleNamokar Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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