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णमोकार मंत्र
श्रयं - देवकृत चौदह अतिशय
दोहा-देव रचित हैं जारदश, अर्द्ध मागधी भाष ।
श्रापस मांहि मित्रता, निर्मल दिश श्राकाश ॥१॥ होत फूल फल ऋतु सर्व पृथ्वी को समान । चरण कमल तल कमल दल, मुखतें जय जयवान ॥ २ ॥ मंद सुगंध व्यार पुनि, गंधोदक की वृष्टि । भूमि विषै कंटक नहीं, हर्षतई समसृष्टि ॥३॥ धर्म चक्र प्रागे थलं. पुति बसु मंगल सार । प्रतिशय श्री महंत के ये चौतीस प्रकार ॥४॥
उत्पन्न हुए श्रम का अन्त है । वह प्राप्त होता है। इसलिए वहाँ पर जीवन
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पर्थ - १. अर्द्ध भागधी भाषा का होना। जिसका शब्द एक योजन श्रर्थात् चार कोश तक सुनाई दे । २. समस्त जीवों में परस्पर मित्रता का होना अर्थात् समस्त जाति विरोधी जीव यथा-हस्तीसिंह, गौ- सिंह, सर्पगरूड, मार्जार-स्वान (कुत्ता) मार्जार - मूषक, इत्यादि समस्त मित्र भाव को धारण कर भगवान् के निकट एकत्र होकर बैठते हैं । ३. आकाश का निर्मल होना । ४. दिशाओं का निर्मल होना ऐसा नहीं कि जहां केवल ज्ञान युक्त देवाधिदेव जिनेन्द्र भगवान् तिष्ठते हैं वहीं प्रांधी से धूलि की भोर मेघों द्वारा पानी की वर्षा हो अर्थात् ये उस समय नहीं होते। ऐसा अतिशय जिनेन्द्र के केवलज्ञान का ही है जो समस्त दिशायें मल रहित निर्मल दीखती हैं । ५. सभी ऋतुओं के फलादिक का एक समय फलना षड् ऋतुओं में होने वाले फल पुष्प धान्यादिक निज निज समय को छोड़ कर समस्त एक ही समय में फलते हैं, यह भी भगवान् के केवलज्ञान का ही प्रभाव है । ६. एक योजन पर्यन्त पृथ्वी का तृण कंटकादि रहित दर्पणवत् निर्मल होना । ७. भगवान् के बिहार के समय युगल चरणारविंद के नीचे देवगणों द्वारा श्राकाश में स्वर्णमयी कमल की रचना करना । ८. देवों के द्वारा प्रकाश में जय जयकार शब्द का किया जाना । ६. शीतल, मन्द, सुगन्ध पवन का चलना जिसके स्पर्श से असाध्य रोगियों के रोग दूर हो जाते हैं, यह भी जितेन्द्र भगवान् के केवलज्ञान का प्रतिशय है । १०. सुगंधित जल की वर्षा होना अर्थात् जहाँ पर जिनेन्द्र भगवान् केवल ज्ञान संयुक्त तिष्ठते हैं वहाँ पर मंद-मंद सुगन्धि युक्त जल की वृष्टि प्राकाश से होती है। वह वृष्टि जीवों के माताप को हरण करने वाली है । ११. पवनकुमार जाति के देवों द्वारा भूमि का तृण कंटक रहित करना । अर्थात् जहां पर जिनेन्द्र भगवान् तिष्ठते हैं वहाँ पर पवन कुमार देवों के द्वारा भूमि स्वच्छ, तृण कंटकादि रहित निर्मल रहती है, मानों जिनेन्द्र भगवान् के अतिशय से पापरूपी रज दूर करके पृथ्वी पर निर्मलता प्रगट हुई हो। १२. समस्त जीवों का श्रानन्दमय होना । अर्थात् प्रानन्दमय क्यों नहीं हों ? जहाँ पर किसी प्रकार की बाधा नहीं, उपद्रव नहीं और किसी का भय नहीं वहीं तो मानन्द होता ही है । विचार करके देखिए कि वर्तमान समय में ग्रीष्म ऋतु में किचित् शीतल पवन मौर पान करने के लिए मिष्ट शीतल जल यदि प्राप्त हो जाय तो मनुष्य बहुत ही मानन्द मानता है और वहां समवशरण में तो सुगन्धमय पवन और षट् ऋतु के फल फूलों का एक ही समय में फलना तथा वापिकाओं का मिष्ट, शीतल जल और धर्मोपदेश मिलता है जिससे तीन लोक के भ्रमण से होकर मव्याबाध, निराकुलित मनन्त सुख का स्थान जो मोक्ष का मार्ग समवशरण में जो सुख है वैसा संसार में अन्य स्थान में नहीं मिल सकता । श्रानन्दमय होता ही है । १३. भगवान् के भागे धर्मचक्र का चलना