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णमोकार ग्रंथ
नहीं मंगाते, फिर भोजन करेंगे तो भोजन में राग हुमा तथा दूसरे भोजन की इच्छा मोहनीय कर्म का कार्य है इसलिए मोहनीय कर्म का सद्भाव सिद्ध हुआ और मोहनीय कर्म के विद्यमान होने से केवलज्ञान की प्राप्ति सम्भव है । कारण कि शास्त्र में मोहनीय कर्म के क्षय होने के पश्चात् अन्तर्मुहुर्त पर्यन्त क्षीण कषाय नामक बारहवां गुण-स्थान पाकर उसके बाद युगपत् श्रर्थात् एक समय में ज्ञानावरण दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय इन चारों घातिया कर्मों के सर्वथा नष्ट होने से केवलज्ञान प्राप्त होता है इसलिए केवली भगवान् के आहार का न करना सर्व प्रकार से सिद्ध है, और यदि शिष्य पर आहार लाने की आज्ञा न पाली गई तो द्वेष हुआ और पाली गई तो राग हुमा, तो वीतरागता का अभाव हुआ और जब राग द्वेष हुआ तो हितोपदेश का भी निश्चय नहीं हुआ, क्योंकि जिससे राग होगा उसको हित का उपदेश देंगे और जिससे द्वेष होगा उसे अहित का उपदेश करेंगे तो उनके कहने के अनुसार वीतराग और हित उपदेश का बराबर प्रभाव सिद्ध हुआ, पुनः जब मुनीश्वर थाहार के समय बत्तीस प्रकार का सतरा मानते हैं तो क्या नहीं मानेंगे? इस कारण भी केवली को कंवलाहार सदैव बर्जित है, क्योंकि केवली युगपत् एक समय में सर्व लोकालोक को अपने ज्ञान रूपी चक्षु से अवलोकन करते हैं और जगत में ही उपद्रव से अन्तराय हो तो प्रन्तराय को देख जानकर केवली भगवान् श्राहार कैसे ग्रहण करेंगे ? इस युक्ति से भी बहार का न होना ही सिद्ध है और जो यह कहा जाय कि भगवान् प्रन्तराय को नहीं देखते तो उनके प्रति सर्वज्ञता का प्रभाव सिद्ध हुआ और सर्वज्ञता, वीतरागता और हितोपदेश के अभाव होने से देवत्व का प्रभाव हुआ, क्योंकि सर्वज्ञ वीतराग व हितोपदेशी इन तीनों गुणों के बिना देव सत्यार्थ कभी किसी काल में कदापि नहीं हो सकता। इसलिए निश्चय हुआ कि केवली के कंवलाहार नहीं है ।
(७) समस्त विद्याओं का स्वामित्व, प्रर्थात् ऐसा नहीं कि एक विद्या अर्थात् व्याकरण पढ़े तो व्याकरण शुद्ध हो, छन्द पढ़े तो छन्द शास्त्र का ज्ञान हो और छन्द के पीछे व्याय शास्त्र तथा प्रलंकारादि पढ़े | यह बात नहीं, बल्कि उन्हें सम्पूर्ण विद्याओं का विचार रहित युगवत् भास होता है।
(८) भगवान् के नख और केश भी नहीं बढ़ते हैं। ऐसा नहीं कि महादेववत् केशों की जटा लटकती रहे । केवली भगवान् के केश नहीं बढ़ते ।
( ९ ) भगवान् निमेष रहित श्रर्थात् भगवान् के नेत्रों की पलक नहीं गिरती ।
(१०) छाया रहित शरीर होता है अर्थात् उनके शरीर की छाया नहीं पड़ती। कारण यह है कि जिसके छाया होती है उसके शरीर की दीप्ति ( ज्योति) में मंदता रहती है, परन्तु श्री जिनेन्द्र भगवान् के शरीर की दीप्ति के आगे तो कोटि सूर्य मौर चन्द्रमा को भी देदीप्यता लुप्त हो जाती है, इसलिए भगवान् के शरीर को छाया नहीं होती ।
भावार्थ - श्री जिनेन्द्र देव के शरीर के तेज के बराबर सूर्य और चन्द्रमा उपमा पाते हैं, क्योंकि सूर्य रात्रि को लुप्त हो जाता है और चन्द्रमा दिन को ठाक के समान प्रभा हीन हो जाता है, परन्तु जिन्हेंन्द्र भगवान् के शरीर का तेज प्रनिश सदैव एक सा रहता है, इससे उनके शरीर की उपमा सूर्य चन्द्र नहीं धारण कर सकते। ऐसे केवलज्ञान के होने पर जिनेन्द्र के दश प्रतिशय होते हैं।