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________________ I णमोकार प्रत्ये (३ (३) मुख तो एक ही है परन्तु जिनेन्द्र के श्रतिशय से चार मुख दिखाई देते हैं। कारण यह है कि मनुष्य, देव एवं तिर्यंच ये चारों तरफ से भगवान् के दर्शन करते हैं । सो चारों तरफ से उनको दर्शन होता है । इस कारण से भगवान् चतुर्मुख दीखते हैं । यहाँ कोई प्रश्न करे कि चार मुख तो ब्रह्मा के भी हैं यह ठीक है परन्तु अधिक मुखों के होने से ईश्वर नहीं कहलाया जा सकता। यदि अधिक मुखों के होने से ही ईश्वर कहलाया जाय तो शिवजी के पुत्र कार्तिकेय के छः मुख हैं उनको भी ईश्वर कहो सो नहीं कहलाया जा सकता। ईश्वर तो वहीं है जो प्रलोकाकाश सहित भूत, भविष्यत और वर्तमान काल सम्बधी अन्तानन्त पर्यायों को परिणति सहित समस्त तीनों लोकों को स्वयमेव इन्द्रिय उद्योतादिक की सहायता से रहित प्रत्यक्ष देखे जाने और अपने निजात्मिक अतिशय से चतुर्मुख युक्त सभी जीवों का हितोपदेष्टा हो वही ईश्वर है। एक बार ब्रह्मा इन्द्र की पदवी लेने की अभिलाषा से दण्ड पात्र कोण करता या उपकर पर इन्द्र की उर्वशी नामक अप्सरा इन्द्र की श्राज्ञा से इनके तप को भ्रष्ट करने के निमित्त आई। उस उर्वशी नामक अप्सरा के रूप में राग को बाहुल्यता को प्राप्त होने से उसने अपने चतुर्मुख की रचना की । सो ऐसा चतुर्मुख ब्रह्मा हम लोगों के समान है वह ईश्वरत्व को प्राप्त नहीं हो सकता। जो क्षुधा, तृषा, राग द्वेष, कामादिक रहित होकर अनन्य प्रविनाशी सुख में लीन होकर कृतकृत्य हुआ वही सर्वज्ञ वीतराग चतुर्मुख धर्मोपदेशी ब्रह्मा हमारे मान्य हैं, अन्य नहीं । (४) दया का प्रभाव अर्थात् जहाँ जिनेन्द्र भगवान् केवलज्ञान से युक्त तिष्टते हैं वहाँ पर जीवों के दया रहित परिणाम नहीं होते हैं । भावार्थ -- दयाहीन जीव भी दया सहित हो जाते हैं । (५) जहाँ पर केवली भगवान् का समवशरण तिष्ठता है वहाँ पर किसी प्रकार का उपसर्ग नहीं होता । भला ईश्वर के होते हुए उपद्रव हो तो बड़े आश्चर्य की बात है । जैसे कृष्ण महाराज के होते हुए भी द्वारिकापुरी जलकर भस्म हो गयी । इस प्रकार के उपद्रव यदि ईश्वर के सन्मुख होवें तो वह ईश्वर काहे का ? इस कारण उनकी शक्ति ही ईश्वरत्व को प्रप्रगट करती है इसलिए वह ईश्वर नहीं । ईश्वर तो वही होता है जिसके होते हुए किसी जीव को किसी प्रकार की भी उपसर्ग बाधा न हो सके । (६) केवल ग्रास वर्जित अर्थात देवाधिदेव जिनेन्द्र भगवान् को केवलज्ञान होने के पश्चात् कंवलाहार नहीं होता । अर्थात् वे मन्न के ग्रास उठाकर नहीं खाते हैं यहां श्वेताम्बर मत धारण करने वाले कहते हैं कि वे बाहार करते हैं अर्थात् ग्रास उठाकर खाते हैं इसका उत्तर यह है कि यह बात बिलकुल सम्भव है । कारण कि परमात्मा कंबलाहार नहीं करते और यदि करते हैं तो परमात्मा पद के अधिकारी नहीं हो सकते। ये कहते हैं कि भगवान अवश्य ही कंवलाहार करते हैं तो बताम्रो स्वयं बाहार (भिक्षा मांगले) को जाते हैं कि शिष्यों से मंगाते हैं यदि यह कहा जाय कि भिक्षा लेने प्राप जाते हैं तो भी उचित नहीं ठहरता क्योंकि स्वामी केवली भगवान् तो आकाश में विराजमान होंगे और माहार देने वाला श्रावक पृथ्वी पर खड़ा होगा तो वह किस प्रकार प्रहार देता होगा और यदि यह कहा जाय कि माहार लेते समय केवली भगवान भी पृथ्वी पर खड़े हो जाते हैं आकाश विहार कर माभाव हुआ । यदि यह कहा जाय कि भगवान अपने लिए आहार शिष्यों से मंगवाते हैं तो उन्हें शिष्यों को प्राशा देनी होगी और यदि शिष्य माहार लेने न जाय तो उन्हें द्वेष होगा और भगवान के मन में द्वेष उत्पन्न होता है तो वे भीतराग कहां रहे। इससे सिद्ध हुआ कि वे अपने शिष्यों से अपने लिए माहार
SR No.090292
Book TitleNamokar Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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