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नमोकार च
कैसा है वह धर्म चक्र ? वह मोक्ष मार्ग का प्रकाश करने वाला है। १४. चमर छत्रादिक अष्ट मंगल द्रव्यों का साथ रहना। प्रष्ट मंगल द्रव्यनामदोहा-छत्र, चमर, घंटा, ध्वजा, भारी, पंखा, नव्य ।
स्वस्तिक वर्पण संग रहे, जिन बसुमंगल द्रव्य ।। अर्थ- छत्र, चमर, घण्टा, ध्वजा, भारी, पंखा, स्वस्तिक और दर्पण खण्ड ये पाठ मंगल द्रव्य हैं जो जिन भगवान के साथ रहते हैं । इत्यष्ट मंगल द्रव्य नाम ।
ऐसे ही जन्म के दश प्रतिशय, केवलज्ञान के दस प्रतिशय और चौदह देव रचित अतिशय ये सब मिलकर ३४ अतिशय अर्हन्त परमात्मा के होते हैं.... अब पाठ प्रातिहार्य का वर्णन करते हैं
तर प्रशोक के निकट में, सिंहासन छविवार । तीन छत्र सिर पर लस, भामण्डल पिछवार ॥१॥ दिव्य ध्वनि मुख से खिरे, पुष्प वृष्टि सुर होय ।
हार चौसठ पमर भष, बाजे दुन्दुभि जोय ॥२॥ अर्थ-- प्रशोक वृक्ष का होना।
भावार्थ-जहां केवली भगवान् तिष्ठते हैं, वहां अशोक वृक्ष जिनेन्द्र भगवान् के शरीर से सात गुणा ऊंचे होता है ऐसे अशोक वृक्ष की प्रभा से ऐसा मालूम पड़ता है कि मानों जिनेन्द्र भगवान् का प्राश्रय पाकर दीप्तिवान हो गया हो । पुनः वह अशोक वृक्ष ऐसा होता है कि जिसके दर्शन से जीव का शोक दूर हो जाता है ॥१॥
रत्नमयो सिंहासन
भावार्थ-जहां पर केवली होते हैं वहां प्रशोक वृक्ष के समीप रत्नमयी सिंहासन पर विराजमान श्री जिनेन्द्र देव ऐसे शोभित होते हैं मानों उदयाचल पर्वत के शिखर पर प्राकाश में निकली हुई किरणों द्वारा सूर्य का विम्ब ही शोभायमान हो रहा हो॥२॥
भगवान् के सिर पर छत्र का द्वरना
भावार्थ-जिनेन्द्र भगवान् के मस्तक पर चन्द्रमा और सूर्य की प्रभा के प्रताप का हरण करने वाले और मोतियों की माला के समूह से बढ़ी है जिनकी शोभा -ऐसे तीन छत्र भगवान् की तीन लोक की परमेश्वरता को प्रकट करते हैं। इससे तीन लोक की ईश्वरता तथा तीन लोक के नाथ ऐसा नाम जिनेन्द्र देव का सम्भव है और ब्रह्मा, विष्णु और महेश मादि सब नाम मात्र के देव हैं । इनको त्रिलोकीनाय नहीं कहा जा सकता। कारण कि नाथ ऐसे शब्द का प्रयोग रक्षा करने वाले के लिए होता है, जो तीन लोक की रक्षा करे उनको त्रिलोकीनाथ कहते हैं। त्रिलोक अर्थात् ऊध्र्व लोक, मध्य लोक, पाताल लोक इन लोकों के जीवों की जी रक्षा करे उनको त्रिलोकीनाथ कहते हैं। त्रिलोकी नाय जब होता है सब वह किसी की प्राशा नहीं करता और जो पाशा करता है वह ईश्वर नहीं है। इसलिए ब्रह्मा ईश्वर पद को प्राप्त नहीं है। उसका कारण यह है कि ब्रह्मा ने इन्द्र के सिंहासन को प्राप्त करने की इच्छा से चार हजार वर्ष तक तप किया । पर उसे सिंहासन प्राप्त नहीं हुआ अर्थात् हजारों वर्षों तक तप करके उन्होंने इन्द्र के पासन की इच्छा की इसलिए ऐसा ब्रह्मा ईश्वर पदवी के योग्य नहीं है ब्रह्मा उन्हीं को