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________________ # T णमोकार प्रथ {" हैं कि जो नित्य का भान करे। यदि उसे यानी ब्रह्मा को निजात्मा का ध्यान होता तो ध्यान च्युत होकर वह उर्वशी जाति की तिलोत्तमा वेवी को अथवा उसके रूप को राग की दृष्टि से देखकर काम भाव से प्रेरित होकर उसको देखने के लिए चार सिर नहीं बनाता। इस प्रकार ऐसे नाम मात्र का ब्रह्मा जो कामी, क्रोधी व मानी है हमको ईश्वर रूप में मान्य नहीं है । साक्षात् ब्रह्म तो वही है जो निज ब्रह्म को जानकर कृतकृत्य होकर निजात्म तत्व के प्रास्वादन में लवलीन हो, ऐसा कृतार्थ ब्रह्म सर्वज्ञ, वीतरागी, हितोपदेशी परम पद में रहने वाला, निरंजन अर्थात् कर्म ले से रहित, आदि, मध्य, अन्त, रहित सर्व हितकारक ब्रह्म समवशरण में तीन छत्र से शोभायमान तीन लोक की ईश्वरता को प्रकट करता है सो परम ब्रह्म मेरे रक्षक हों । पुनः विष्णु को त्रिलोकीनाथ कहा जाय तो वह भी त्रिलोकीनाथ नहीं हो सकते, क्योंकि तीन जगत का नाथ अर्थात् ईश्वर तो उसे ही कहेंगे जो तीन लोक की रक्षा करे, सर्व जीवों पर दया करे, सो यदि विष्णु लोक का नाथ अर्थात् रक्षक होता तो तीन लोक में जरासिंध को क्यों मारता और मथुरापति राजा कंस को क्यों मारता ? और दैत्यों के इन्द्र हिरण्डकश्यपु (हिरणाकुंश ) का नृसिंह रूप धारण कर अपने नख के द्वारा वक्षःस्थल क्यों विदारण करता ? महाभारत में युद्ध के समय अर्जुन का सारथी बनकर संग्राम में कौरवों का क्यों विध्वंस करता । ऐसा कोई विष्णु नहीं हो सकता | विष्णु शब्द का अर्थ तो यह है कि जिनका ज्ञान अनन्त काल तक व्याप्त रहता है और समस्त क्षेत्र, काल सम्बन्धी और समस्त लोकालोक में व्याप्त होकर फैलता है उसको विष्णु कहते हैं । उसको भोले प्राणी ऐसा कहते हैं कि जो समस्त लोक में व्याप्त हो वह विष्णु है । कहा भी है : श्लोक -- जले विष्णुस्त्रले विष्णु, विष्णुः पर्वत मस्तके | ज्वालमाला मुखी विष्णुः, विष्णुः सर्व जगन्मयः ॥ भावार्थ - जल में विष्णु है, थल में विष्णु है, पर्वत में विष्णु है, अग्नि में विष्णु है अर्थात् समस्त जीवों में विष्णु व्याप्त है। सो ऐसा समझना मिथ्या है । यदि विष्णु सर्व व्यापी है तो हिरण्यकश्यप को मारने के लिए नृसिंह रूप क्यों धारण किया ? इसलिए यह नाम मात्र के विष्णु है, साक्षात् विष्णु नहीं । परन्तु जिसका ज्ञान त्रिकालवर्ती पर्याय से सहित समस्त पदार्थों में व्याप्त हो रहा है, ऐसे सर्वज्ञ वीतराग अन्तही विष्णु हैं अन्य कोई और नहीं । पुनः महादेव को भी त्रिलोकीनाथ कहा जाता है, परन्तु वह भी तीन जगत का नाथ-- ईश्वर नहीं हैं वह भी रक्षक नहीं हैं। तीन लोक का नाथ वही हो सकता है जो सबसे श्रेष्ठ कार्यकर्ता, जीवों का प्रतिपालक तथा उत्तम मार्ग में चलने का उपदेश करे। उस शिव ने वाणी से श्रग्नि उत्पन्न करके निर्दय होकर तीन पुरों को दग्ध किया। वे अपने साथ पार्वती एवं पुत्र कार्तिकेय को रखते हैं। इसलिए योगी नहीं है । और जो शंकर को ईश अर्थात् सामर्थ्य युक्त ईश्वर कहो तो शंकर का लिंग छेदन कैसे हुआ अर्थात् उनका लिंग कैसे छेदा गया। अगर वह भय रहित है तो त्रिशूल आयुष श्रादि क्यों धारण करते हैं ? ऐसे नाममात्र के शंकर हैं, ये सुख देने वाले नहीं है ये रक्षा करने वाले भी नहीं है, और जीवों की दया करने वाले भी नहीं हैं। जैसे अकलंक अष्टक स्तोत्र में कहा है कि शार्दूलविक्रीडित छन्द त्रैलोक्यं सकलं त्रिकाल विषय, सालोक्यमालोकितं । साम्राश्वेन यथा स्वयं करतले रेलात्रयं सांगुलिः ॥ रागद्वेष भया मर्यात कजरालोलत्वलोभावयो। नामपवलंघनाय स महादेवो मया बंद्यते ॥
SR No.090292
Book TitleNamokar Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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