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________________ गमोकार ग्रंथ २१३ इधर सात दिन भी न बीत पाये थे कि उस घोर पाप कर्म के उदय से ब्रह्मदत्त के सारे शरीर में कोढ़ निकल पाया 1 उसे इससे इतनी प्रसह्य पीड़ा हुई कि वह इस पीड़ा से एक जगह बैठ भी नहीं सकता था और अन्य लोग भी उसे घृणा की दृष्टि से देखने लगे। जब उसने देखा कि इस व्याषि की निवृति होना असाध्य है तो उसने प्रति दुःखी हो जोवित ही तन को अग्नि में भस्म कर डाला और इस मार्तध्यान से मरकर सप्तम नरक में गया। नरक में उसने सैंतीस सागर पर्यंत छेदन, भेदन, यन्त्रों के द्वारा पिलना और प्रग्नि में जलना प्रादि कठिन-कठिन दुःख भोगे । वहां से निकलकर तिर्यच गतियों में भी अनेक बार जन्म-मरण करता हुमा अन्त में फिर नरक में गया। वहां उसने बहुत दुःख सहे। कपा तहां के दुःख की, कोकर सके बखान । भुगतं सो जाम सही, के जाने की भगवान ।। प्रतएव बुद्धिमानों को उचित है कि इस निर्दयी व्यसन को प्रति निद्य, दुर्गति एवं दुःखों का दाता जान कर सर्वथा त्याग करें । देखो इस ही व्यसन के कारण ब्रह्मदत्त को नरक के दुःख भोगने पड़े ! उसने उस पाप से कितने-कितने दुःख भोगे, उनको लेखनी से, लिखना भी असंभव है। ॥ इति खेटक व्यसन वर्णन समाप्तः ॥ ॥ मथचोरी व्यतन वर्णन प्रारम्भः॥ बिना दिये किसी की वस्तु लेने को चोरी कहते हैं। चोरी करने में पासक्त हो जाना चोरी ज्यसन है। जिनको इस निंदनीय कम को करने को प्रादत पड़ जाती है, वह धन-सपत्ति युक्त होते हुए भी तीव्र लोभ के वशीभूत हो महान् कष्ट आपदा का कारण जानते हुए भी चोरी करता है। ऐसे पुरुषों को न तो कोई मपने समीप बैठने देता है। चोर से सब ही जन भयभीत रहते हैं; वह भाप भी सदेव भयभीत रहता है। प्रति क्षण प्राण जाने तक का संकट उपस्थित रहता है। धन का हरण करना तो चोर का काम है ही। यदि धन का हरण करते हुए कोई जाग्रत हो जाए और रोके तो चोर प्राणों का भी हरण कर लेता है। पकड़ा जाए तो आप भी अनेक दुःखों का भागो होता है शारीरिक और मानसिक कष्ट उठाने पड़ते हैं। राजदंड, जातिदंड के दुख भोगकर निदा का पात्र बनते हरभव में नीच गतियों के दुःख भोगते हैं। ऐसा जानकर दृढ़चित्त शुभबुद्धि पुरुषों को उचित है कि दूसरी की भूली हुई तथा अपने पास घरो हर रखी हुई वस्तु को दबा लेने की इच्छा न करे और न बहुमूल्यपदार्थ के बदले में अल्पमूल्य पदार्थ देने की तथा न बहुमूल्य में अल्पमूल्य को मिला कर देने की इच्छा करे क्योंकि ये सब चोरी के ही पर्याय हैं। देखो, इस चोरी के कारण ही शिवभूति पुरोहित कितनी-कितनी आपदाओं को भोगकर दुर्गति को प्राप्त हुआ। उदारणार्थ उसका उपाख्यान प्रस्तुत है जिससे उसके दुःखों से परिचित होने से सर्वसाधारण इन पन्याय रूप प्रसत्क्रियामों से चित्त को हटाकर सक्रिया में प्रवृत्ति करेंगे इसी भरतक्षेत्र के अन्तर्गत बनारस नगर में जयसिंह नाम का राजा अपनी विदुषी महारानी जयवती सहित राज्य करता था। उसके नगर में शिवभूति नाम का पुरोहित रहता था। शिवभूति बड़ा सत्यवादी था। उसकी इस सत्यता के कारण वह सत्यघोष के नाम से स्मरण किया जाता था। राजा इसे सत्यवादी समझकर इसका बहुत सम्मान करता। इसी विश्वास के कारण लोग इसके यहां अपनी अमानत का धन रख जाया करते थे।
SR No.090292
Book TitleNamokar Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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