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________________ २१२ णमोकार मंथ प्रत्यन्त दुखी होते हैं इसी प्रकार वे भी सुख-दुःख ग्रानन्द और पीड़ा का अनुभव करते हैं। खाद्य पदार्थ तथा जल के न मिलने से दुःखी होते हैं चोट लगने से कष्ट पाते हैं। प्यार करने और भोजन पाने से हर्षित होते हैं। मनुष्य की तरह खाते हैं, पीते हैं, हंसते हैं, रोते हैं, बोलते हैं, सोते हैं, और अन्य कार्य करते हैं अपने सहवासियों के साथ दानन्द में मग्न हुए तृणादिक से उदरपूर्ति करते वन में ही श्रानन्द से दिन व्यतीत करते हैं । ऐसे निरपराधी मृगादिक जीवों को अनेक प्रकार के छलछद्मों द्वारा विश्वास उपजाकर उनके प्राणों का संहार करना अन्याय और निर्दयता है । इस शिकार के व्यसनी मनुष्य का हृदय बड़ा ही कठोर और निर्दय होता है। जैसे कहा गया है कानन में बसैरो सो श्रानन गरीब जीव, प्रानन सों प्यारों प्रात पूंजी जिस यहै है । कायर सुभाव घरै काहूं सों न द्रोह करें, सबही सों डरे दाँत लिये तृण रहे हैं | काहू सोंन रोष पुनि काहू पै न पोष चहे. काहू के परोष पर दोष नाहिं कहै है । नैक स्वाद सारिये को ऐसे मृग मारिये को हाहरे कठोर ! तेरो कैसे कर बहै है |1 इस शिकार के व्यसनी मनुष्यों का हृदय बड़ा ही कठोर और निर्दय होता है। बुद्धि उनकी बड़ी क्रूर होती हैं निरन्तर उनके हृदय में छलछिद्र और विश्वधात रूप पाप वासनाएं जाग्रत रहती हैं। बहुत से लोग इस व्यसन के सेवन को बड़ी वीरता का काम बताते हैं, परन्तु वह केवल उनकी स्वार्थान्धता है । वीरों का कर्तव्य है कि निस्सहाय, गरीब दीन अनाथ जीवों की कष्ट से रक्षा करें वही सच्चा बलवान क्षत्रिय है जो बलावान होकर इस निय, निर्दय और दुष्ट कृत्य में अपने बल का प्रयोग करता है वह वीर नहीं किन्तु धर्महीन है। निवेश आके द्वारा इस लोक में निद्य भौर दुःखित होते हैं व परलोक में कुगति को प्राप्त होते हैं। देखो ! इसी व्यसन के कारण ब्रह्मदत्त राजा राज्य भ्रप्ट होकर नरक गया । उसके दुखों से परिचित होने से सर्वसाधारण को शिक्षा प्राप्त हो श्रतः उसका उपाख्यान कहते हैं इस जम्बूद्वीप में भरत क्षेत्र के अन्तर्गत उज्जयिनी नाम की नगरी है। जिस समय का यह उपाख्यान है. उस समय वहां के राजा ब्रह्मदत्त को शिकार खेलने में बड़ी रुचि थी । उससे भी अधिक धर्म सेवन में उसकी अरुचि थी ठीक ही है, 'ऐसे निर्दयी परिणामी का धर्म से कैसा सम्बन्ध ? वह प्रतिदिन शिकार खेलने जाया करता था। जब उसे शिकार मिल जाता तो बहुत प्रसन्न होता श्री जब नहीं मिलता तो उससे अधिक दुःखी होता । इस प्रकार राज्य करते-करते बहुत दिन व्यतीत हो गये। एक दिन की बात है कि जब वह शिकार के लिए गया तो उसे किसी वन में मुनिराज के दर्शन हो गये। मुनिराज जी एक पाषाण की शिला पर ध्यानारूढ़ स्थित थे। मुनि के प्रभाव से ब्रह्मदत्त को उस दिन शिकार नहीं मिला और वह अपने घर लौट आया। दूसरे दिन भी वह शिकार खेलने को गया, परन्तु उसे शिकार नहीं मिला । यह देखकर बड़ा क्रोधित हुआ उसने मुनि से बदला लेने के लिए फिर एक दिन यह दारुण कर्म किया कि उधर मुनिराज तो नगर में आहार के लिए गए और इधर ब्रह्मदत्त ने प्राकर मुनिराज के ध्यान करने की शिला को अग्नि की तरह गरम करवा दिया। मुनिराज भोजन कर नगर से वापिस आये और निःशंक हो उसी शिला पर ध्यान करने के लिए बैठ गये। बैठते ही मुनिराज का शरीर जलने लगा । प्रसह्य वेदना होने लगी, परन्तु मुनिराज निश्चल रूप से घोर उपसर्ग सहते रहे अन्त में कुछ काल व्यतीत होने पर शुक्ल ध्यानाग्नि से कर्मों का नाश कर अन्तःकृत केवली हो मनन्तकाल स्थायी प्रविनश्वर धाम में जा बसे ।
SR No.090292
Book TitleNamokar Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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