SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 234
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ णमोकार ग्रंथ यशोगान होने लगा। चारुदत्त की प्रसिद्धि तथा परोपकारता से प्रसन्न होकर इसके सिवा विद्याधरों ने अपनी सुन्दर-सुन्दर राजकुमारियों का विवाह बड़े वैभव के साथ कर दिया। कुछ वर्षों तक विदेश में ही अपनी स्त्रियों के साथ सुखोपभोग करते हुए उसने प्रचल कीर्ति अजित की। अपने घर से गये बहुत दिन हो चुके थे इसीलिए अपना सब माल असबाब लेकर अपनी प्रियाओं सहित जब वह अपने घर प्राने लगा तब उसके साथ बहुत से विद्याधर उसे पहुंचाने के लिए चम्पानगरी तक पाए । महाराजा विमलवाहन ने जब चारुदत्त के विदेशागमन का समाचार सुना तो वे भी अगवानी करने को उसके सम्मुख आये और उसे देखकर बहुत प्रसन्न हुए। चारुदत्त भी महाराजा के आगमन का समाचार जानकर बहुत प्रफुल्लित हो स्वयं उत्तमोत्तम वस्तुएं भेंट में देकर मिला । पारुदत्त की भेंट से महाराजा बहुत प्रसन्न हुए। चारुदत्त कुमार को सुयोग्य समझकर उन्होंने अपना प्राधा राज्य उसे प्रदान कर दिया। महाराज से मिलने के अनंतर चारुदत्त अपनी दुखिनी माता और प्राण प्रिया से मिलने को गया। माता बहुत दिनों से बिछड़े म पु को पाकर बहुत प्रसन्न हुई। चारुदत्त को स्नेह से गले लगाया और शुभाशीष दिया । अपने प्यारे प्राणनाथ को पाकर उसकी प्रिया को भी सुख हुआ । वसंतसेना को जब यह वृत्तात विदित हुआ कि उसकी माता ने 'वरुदत्त को पुरोषागार में डाल दिया था और वह यहां से चला गया था तो उसने भी अपने मन में यह दृढ़ संकल्प कर लिया कि मेरे इस जीवन का स्वामी चारुदत्त है। उसके अतिरिक्त अन्य किसी को विकार दृष्टि से नहीं देखूगी। इसलिए वह भी चारुदत्त का विदेशगमन सुनकर बहुत संतुष्ट हुई और चारुदत्त ने अपनी पूर्वावस्था में जितना धन उसको समर्पित कर दिया था, वह सब अपने साथ लेकर वह चारुदत्त के यहाँ आ गयी। चारुदत्त का भव सब कार्य पूर्ववत् होने लगा। उसे पुथ्योदय से जो राजलक्ष्मी प्राप्त हुई, उसे वह मुखपूर्वक भोगने लगा इसके दिन प्रानन्द और उत्सव के साथ बीतने लगे। एक दिन अपने महल पर बैठा हुआ वह प्रवृति की शोभा को देख रहा था इतने में ही उसे एक बादल का टुकड़ा देखते-देखते छिन्न-भिन्न होता दिखाई दिया। उसको देखने से इसे संसार लीला भी वैसी ही प्रतीत होने लगी । वह उसी समय संसार से उदासीन हो गया और अपने बड़े पुत्र को राज्य देकर बहुत से राजाओं के साथ संसार सागर से उद्धार करने बाली जिन दीक्षा ग्रहण कर ली। सत्पश्चात कठोर तपश्चरण कर सर्वार्थ सिद्धि में जाकर देव हुआ। देखो ! पहले तो चारुदत्त की क्या अवस्था थी । कसा उसका बैभव था? परन्तु जब से वह वेश्या के जाल में फंसा तब से उसकी कत्ती दशा होने लगी थी? अंत में उसने कैसे प्रसह्य दुख भोगे । जब वह परिहार पूर्वक जिनेन्द्र भगवान के चरणारविंदों का भक्त हुआ उनके द्वारा भाषित दयामयी धर्म का सेवन करने लगा तो वही पब स्वर्ग भोक्ता हुमा प्रतएव भव्य जीवों को उचित है कि चारुदत्त की कथा पर पूर्णतया विचार कर इस धर्म कर्म, पवित्रता, सत्यता, पौर दया का मूलोच्छेदन करने वाली वेश्याओं के सेवन दूर से हो त्याग करें। (इति वेश्या व्यसन कयन समाप्तम्) ।। अथ खेटक व्यसन-वर्णन प्ररम्भः ।। पपनी रसना इन्द्रिय की लोलुपता से तथा अपना शौक पूरा करने के लिए प्रयवा कौतुक निमित्त बेचारे निरपराधी, भयभीत, अरण्वासी पशु पक्षियों को मारना-इससे बड़कर और क्या निष्टरता तथा निर्दयता हो सकती है ? देखो जैसे हमें अपने प्राण प्रिय होते हैं और जरा सा काँटा लग जाने
SR No.090292
Book TitleNamokar Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy