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________________ २१. णमोकार ग्रंथ को खिलादी । अत: भोजन करने के थोड़े समय बाद उन दोनों पर निद्रा देवी ने अपना अधिकार कर लिया । निदा के अधीन हुमा देखकर वसन्ततिलका ने चारुदत्त को एक कपड़े से बाँधकर विष्ठाधाम में डाल दिया। कुछ समय पश्चात वही एक सुपर आ निकला चारुदत्त के मुख को विष्टायूक्त देखक उसे चाटने लगा। चारुदत्त नशे में चूर हुआ कहने लगा-प्यारी वसन्तसेने मुझे इस समय बहुत नींद पा रही है। अभी जरा मुझे सोने दो। वह बार-बार यही कह रहा था कि इतने में ही नगर का रक्षक कोतवाल अपने नौकरों सहित इधर प्रा निकला। उसने वार-बार इसी आवाज को सुनकर अपने नौकरों से कहा देखो । इस पुरीषागार में कोन बोलता है ? नौकरों ने जब इसे बंधा हुआ पड़ा देखा तो पाखाने में से बाहर निकाला और पूछा कि तू कोन है और यहां इस पाखाने में कैसे गिर पड़ा है ? यह सुनकर चारुदत्त की अक्ल कुछ ठिकाने आई तब उसने उस प्रवस्था का समस्त वृतान्त कह सुनाया। कोतवाल ने इसे बहुत धिक्कारा और इस व्यसन की निन्दा करता हुआ अपने नौकरों सहित चला गया । इधर चारुदत्त वहाँ से चलकर अपने घर पर गया । परन्तु द्वारपालों ने उसे भीतर नहीं जाने दिया। तब चारुदत्त ने उन नौकरों से कहा कि यह घर तो मेरा है फिर तुम मुझे अन्दर क्यों नहीं जाने देते ? उमपर चारुदत्त से उन लोगों ने कहायद्ययि यह घर तेरा ही है परन्तु अब तो यह हमारे स्वामी के यहां धरोहर रूप में रखा हुआ है इस लिए तेरा इस पर कुछ अधिकार नहीं है।" चारुदत्त ने पूछा-प्रस्तु क्या तुम यह जानते हो कि मेरी माता और स्त्री अब कहाँ रहती हैं ? यह सुनकर नौकरों ने उनके रहने की झोंपड़ी बतला दी । चारुदत्त तब अपनी माता के पास गया। चारुदत्त की माता को उसकी यह दशा देखकर बड़ा दुःख हमा। यही दशा अपने प्राण प्यारे को देखकर उसकी स्त्री की हुई। माता ने पुत्र को गले लगाया और स्नान कराकर उसको शुद्ध किया। माता ने पुत्र के लिए भोजन तैयार किया। चारुदत्त ने भोजन कर माता से कहा-माता इस समय पैसा पास न होने से हम लोग बड़ी दुःख पूर्ण अवस्था में हैं। मेरी आकांक्षा है कि विदेश में जाकर कुछ धन अर्जित करूं इस दरिद्रावस्था में न मुझे सुख हो सकता है और न तुम्हें, इसलिए तुम मुझे जाने की माज्ञा दो। जब इसके मामा को इसके विदेश जाने का वृतान्त मालुम हुआ तो उसने आकर कहा-यदि तुम्हारी व्यापार करने की इच्छा हो तो मेरे घर पर चलो और वहां पर यथेच्छित द्रव्य से व्यापार करना । परन्तु चारुदत्त ने इसको स्वीकार नहीं किया। वह बोला मामाजी! अब तो मेरी विदेश जाने की आकांक्षा है । चारुदत्त के मामा ने फिर उससे विदेश न जाने का आग्रह नहीं किया । चारुदत्त अपनी माता व धर्मपत्नी को संतुष्ट कर वहां से चल दिया। घर से निकलने पर प्रथम तो बेचारे चारुदत्त ने प्रति प्रयत्न और परिश्रम से कई बार धनोपार्जन किया परन्तु अशुभोदय से वह भी तस्करों द्वारा लूटा गया तथा अग्नि द्वारा भस्म हो गया उसने अनेक कष्ट तथा आपदायें भोगीं। फिर भी वह सुख मोक्ष सुख को देने वाली जिन भक्ति पूजा दान प्रादि सत्कों से प्रवृत रहता था। जन्त में जब अधिक पुण्य कर्म का उदय पाया तब तो वह देव, विद्याधर तथा राजा महाराजाओं द्वारा सम्मानित होने लगा। अपनी कौति रूप पताका को उसने प्रचल रूप से फहरा दिया। बड़े-बड़े महापुरुषों के द्वारा उसका
SR No.090292
Book TitleNamokar Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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