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________________ णमोकार ग्रंथ २०९ हो चुकी थी अत: वह जल में नशीली कामोत्पादक वस्तु मिला लाई और उसे चारुदत्त को पिला दिया। जल के पीने के कुछ समय पश्चात ही क्रामदेव ने उसे पीड़ित किया। उसने तव अपने चाचा रुद्रदत्त से अपने घर पर चले जाने के लिए कहा। सद्रदत्त के घर जाने पर पाप वसन्तसेना को एकांत में ले जाकर उसके साथ सब का प्रभव करने लगा । ज्यों-ज्यों यह विषय सेवन क उसकी कामाग्नि घृत में अग्नि के समान अधिक होती गयी वह निरन्तर बसन्तसेना के निकट रहने लगा और बहुत सा धन अपने घर से मँगा-मँगाकर उसे समर्पित कर दिया । __जब इसके पिता भानुदत्त को यह वृतान्त मालूम हुआ कि पुत्र वेश्या पर आसक्त हो गया है अतएव न तो घर आया है और न ही घर माने की उसकी इच्छा ही है बहुत सा द्रव्य भी नष्ट कर डाला है। तब तो इनको बड़ी चिन्ता हुई। उन्होंने अपने एक अनुचर को उसे बुलाने के लिए भेजा, परन्तु चारुदत्त ने आने से इन्कार कर दिया। फिर दूसरी बार उन्होंने कहलवाया-तेरे पिता असाध्य रोग से पीड़ित हैं अत: उनका इलाज करवाना माहिए। परन्तु वह तब भी नहीं पाया । कुछ दिन के अन्तर से तीसरी बार फिर सेवक को भेजा और कहलवाया-तेरे पिता की जीवन यात्रा समाप्त हो चुकी है उनका अग्नि संस्कार तो कर आ। पर वह इस पर भी नहीं आया और उल्टा कहलवा दिया कि हमारे कुट म्बीजनों से कह देना कि पिताजी के शव का चन्दन प्रादि सुगंधित वस्तुओं से अग्नि संस्कार कर देखें। दुल के बचा गुनका भानु दिदाग विग्रब इसका इस दुर्व्यसन से छूटना असंभव है। जैसा जिसका कर्म होता है उसी के अनुसार उसका भविष्य होगा। अत: मैं भी अपने कर्तव्य कर्म से क्यों चूक यह सोचकर चारुदत के पिता ने जैनेद्री दीक्षा ग्रहण कर ली भौर मुनि होकर विचरने लगे। उधर चारुदत्त की दिनों दिन वरी दशा होने लगी। बहत साधन तो पहले ही नष्ट कर चका था और रहा सहा प्रब कर डाला । जब अन्त में कुछ भी पास नहीं रहा तब अपने घर को भी गिरवी रख दिया अन्तिम परिणाम यह हुआ कि उसने अपना सब कुछ नष्ट कर दिया। उसकी माता तया स्त्री एक अच्छे धनाड्य घर की ग्रहणी होकर भी झोंपड़ी में रहने लगी। सच है कर्म का परिपाक बड़ा बुरा होता है । जब चारुदत्त की निर्धनता का वृतान्त वसन्ततिलका को मालुम हुमा तब उसने अपनी पुत्री वसन्त सेना को एकान्त में ले जाकर कहा पुत्री मब चारुदत्त बिलकुल दरिद्र हो गया है । प्रतएव तुझको उचित है कि अब इससे प्रेम हटाकर किसी धनिक युवा से प्रेम कर क्योंकि देश्यामों का यही कर्तव्य है कि वे द्रव्य से प्रेम करती हैं किसी पुरुष विशेष से नहीं। कामदेव के समान सुन्दर शरीर होने पर भी निर्धन होने के कारण वह उसे छोड़ देती है। अभी तू बालक है । सम्भव है तुझको यह बात न मालूम हो इसलिए तुझको मैंने इससे परिचित करा दिया है। अब निज कर्तव्य का पालन कर । __ वसन्तसेना अपनी माता के बचनों को सुनकर कहने लगी। माताजी यद्यपि भाप सत्य कहती हैं परन्तु मुझसे तो ऐसा अनर्थ नहीं हो सकेगा। इस जीवन से तो मेरा यही दरिद्र स्वामी होगा। मेरा ऐसा हार्दिक दृढ़ संकल्प है। वसन्तसेना प्रपनो माता के बुरे भाव जानकर निरन्तर चारुदत्त के पास रहने लगी। एक दिन अवसर पाकर पापिनी बसन्ततिलका ने भोजन में कुछ नशीली वस्तु मिला चारुदत्त और वसन्तसेना
SR No.090292
Book TitleNamokar Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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