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________________ २०० णमोकार बंग नहीं है। सुनकर मिश्रावती ने कहा- माताजी । तुम अपने जमाता का मुझ पर कुपित होना समझती हो। पर यह बात नहीं है। उनका तो समस्त समय पढ़ने-लिखने में ही जाता है। इससे मेरा उनसे समागम नहीं होने पाता । अस्तु, हो या न हो मुझे इस बात की कोई चिन्ता नहीं।' पुत्री के बचन सुनते ही सुमित्रा को क्रोध आ गया । वह उसी समय चारुदत्त को माता के पास गयी और कहने लगी-सेठानी तेरा पुत्र पढ़ा तो बहुत है परन्तु मेरी दृष्टि में तो अभी मूर्ख ही मालुम होता है जो विवाह हो जाने पर भी स्त्रियों के सम्बन्ध की बात को बिल्कुल नहीं सोचता जानता जिन पर कि सारे संसार की स्थिति निर्भर है । यदि तुमको रात दिन पढ़ाना ही था तो मेरी पुत्री के साथ उसका विवाह करके वृथा ही इसको क्यों कुए में ढकेली। सुमित्रा के क्रोधायुक्त वचन सुनकर देविला ने उसको कोमल वचनों से समझाकर उसे उसके घर भेज दिया और अपने देवर को बुलवाकर समस्त वृतान्त समझाकर उसको इसका यल करने के लिए कहा ! सुनकर रुद्रदत्त ने कहा-आप इसकी चिन्ता न करें मैं अभी इसका प्रबन्ध करता हूँ। ___ यह कहकर रुद्रदत्त वहां से चल दिया और उसी चम्पापुरी में रहने वाली बसन्ततिलका नामक गणिका के निकट स्थित रूप लावण्य में प्रसिद्ध वसन्तसेना नामक वेश्या के पास गया और उससे कहने लगा कि देखो मेरे बड़े भाई का एक पुत्र है जिसका नाम चारुदत्त है और जिसका विवाह भी हो चुका है परन्तु वह अभी तक यह भी नहीं जानता कि भोग विलासादि क्या है ? अतएव तुम ऐसा कोई उपाय करो जिससे वह सब बात जानकर काम क्रीड़ा की ओर झुक जाय । तुम्हें इसका उचित पारितोषिक दिया जायगा । यह कह कर रुद्रदत्त अपने घर पर चला गया और एक महावत को बु से गप्त रीति से कहा-देखो जब हम चारुदत्त को लेकर बाजार में घूमने जावें तब तुम बसन्तसे के घर के सामने दो हाथियों को लड़ा देना जिससे लड़ाई के कारण मार्ग न मिलने से चारुदत्त को विवश होकर उसके घर का प्राश्रय लेना पड़े। तब सहज ही हमारे अभीष्ट की सिद्धि हो जायगी। तदन्तर एक दिन रुद्रदत्त चारुदत्त को लेकर नगर की शोभा देखने यहां प्रा निकले और महावत ने भी जैसे उसे कहा गया था उस समय वैसा ही किया। हाथियों के लड़ने से जब मार्ग बन्द हो गया तो वह चारुदत से बोला-जब तक हाथियों की लड़ाई शान्त न हो जाए तब तक ऊपर चलकर ठहरो। ऐसा कहकर शीघ्रता से हाथ पकड़कर उसे ऊपर ले गया। चारुदत्त उसके मन्दिर की शोभा देखकर चकित सा रह गया। वेश्या ने इनको बहुत आदर-सत्कार के साथ बिठाया और समय व्यतीत करने के छल से रुद्रदत्त के साथ चौपड़ खेलने बैठ गयी। खेल में रुद्रदत्त ही बार-बार हारने लगा। तब चारुदत्त ने सोचा कि चाचाजी बार-बार क्यों हार रहे हैं ? ऐसा सोचकर कहने लगा चाचा जी लामो एक दो बार मैं भी खेल जिस से भापकी जीत हो । ' सुनकर वसंततिलका चारुदत्त से कहने लगी हे सेठ के नन्दन । देखो मैं तो अब वृद्धा हो एकी प्रौर तुम प्रभी नवयुवक हो इसलिए तुम्हारा मेरे साप खेलना शोभा नहीं देता तुम्हारा खेलना तो मेरी पुत्री वसन्तसेना के साथ ही शोभा देगा क्योंकि वह तुम्हारी जैसी ही नवयौवन सम्पन्न है। तुम अब उसी के साथ खेलना । मैं अभी उसको बुलाए देती हूँ। बसन्तसेना बुलाई गयी। चारुवत्त उसी के साथ खेलने लगा५ खेलते हुए चारुदत्त को तृषा ने सताया। बसन्त सेना से पहले गुप्त मन्त्रणा
SR No.090292
Book TitleNamokar Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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