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________________ णमोकार ग्रंथ २०७ वर्ष :-अर्थात् देखने से मन का हरण करती है" स्पर्श करने से बल को हरती है और काम सेवन करने से वीर्य को प्रतएव वेश्या साक्षात् राक्षसी है। दूसरे यह धन की दासी है। किसी पुरुष विशेष की स्त्री नहीं है क्योंकि जब तक मनुष्य के पास धन रहता है तब तक उससे दिखाऊ प्रीति करते हुए सम्पूर्ण धन को हरकर अपने उस प्रेमी को मृतक के समान छोड़ देती है जैसे कि लक्ष्मी पुण्य क्षीण होने पर पुरुष को जोड़ देती है। द्रव्य को हरना तथा कष्ट प्रापदा मौर रोगों को देना हो इसका कार्य है । जो इस वेश्या का सहवास करता है और समागम करता है, यह उन अपने भक्तों को मांस, मदिरा जूमा आदि दुर्व्यसनों में फंसाकर कष्ट मापदा का कोष बनाकर सर्वस्व हरण कर उसके बदले में उपदंश मूत्रकृच्छ प्रादि रोग रूप पारितोषक देकर दुर्गति का पात्र बना देती है। यह अपवित्रता की भूमि और विष की बेल है । जैसा कि कहा है वृष्टि विषा यह नागनी, देखत विष चढ़ जाय । जीवन का प्राण को, मरे नरक ले जाय । हीन चीन तें लीन है लेती अंग मिलाय । लेती सरवस सम्पदा, देती रोग लगाय ।। यह सुयश तथा धर्म-कर्म का मूलोच्छेदन करने वाली है। जो लोग वेश्या सेवन में फंस जाते हैं, उनके जाति-पाति विचार प्रतिष्ठा प्रोर लज्जा तथा धर्म-कर्म सब नष्ट हो जाते हैं । धर्महीन प्रविवेकी इस लोक में निंद्य गिने जाते हैं और परलोक में कुगति को प्राप्त होते हैं। प्रतएव वेश्या संगम अति दोषों का स्थान होने से विचारशील पुरुषों के लिए सर्वथा त्यागने योग्य है । देखो ! वेश्या सेवन से सेठ चारूदत्त नाम के पुरुष ने कैसे-कैसे दुःख भोगे? उसके दुखानुभव से सर्वसाधारण को शिक्षा प्राप्त हो, इसलिए उसका उपाख्यान करते हैं इस जंबूदीप के भरत क्षेत्र में प्रग देश के अन्तर्गत चम्पा नाम की सुन्दर नगरी है । उसके राजा विमलवान थे। उनके राज्य में भानुदत्त नाम का एक सेट रहता था उसकी स्त्री का नाम देविला था बहुत दिन प्रतीक्षा करने पर बड़े ही कष्ट से उसे एक पुत्र प्राप्त हुमा जिसका नाम था चारुदत्त । भानुदत्त ने पुत्र जन्म के उपलक्ष में बहुत उत्सव किया, दान दिया, पूजा प्रभावना की। बंधु-बांधयों को बड़ा मानन्द हुमा । जब चारुदत्त सात वर्ष का हो गया तब इनके पिता ने इसे पढ़ाने के लिए इसके गुरू को सौंप दिया। इसकी बुद्धि बड़ी तीक्ष्ण थी और फिर इस पर गुरू को कृपा हो गयी। इससे वह थोड़े दिनों में पढ़-लिख कर अच्छा विद्वान बन गया। पढ़ने-लिखने में इसकी इतनी अधिक कचि थी कि इसका ये एक प्रकार से व्यसन हो गया था अतएव उसे पढ़ने-लिखने के अलावा और कुछ सूझता ही नहीं था। तदन्तर इसकी बुद्धिमत्ता पर प्रसन्न होकर चम्पा नगरी के रहने वाले सिद्धार्थ नामक सेठ ने अपनी पुत्री मित्रावती का विवाह चारुदत्त के साथ कर दिया। यद्यपि चारुदत्त ने गृहस्थाश्रम में प्रवेश किया तथापि वह अपना समय पढ़ने-लिखने के सिवाय दूसरे किसी काम में व्यतीत नहीं किया करता या। एक दिन उसकी स्त्री अपनी माता के यहां गयी। उसने अपनी पुत्री को वस्त्राभूपण सुगंधादि से सुसज्जित देखकर कहा, "प्यारी पुत्री जसा मैंने कल तुझको सांयकाल भूषणादि से सुसज्जित देखा था वैसे ही अब भी देख रही हूं भौर चन्दन भी वैसा ही लगा हुआ मालूम होता है। इसका तो रात्रि के समय नियम से परिवर्तन हो जाना चाहिए था। क्या तेरा प्राणप्यारा तुमसे कुपित तो
SR No.090292
Book TitleNamokar Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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