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________________ ૪૬ णमोकार ग्रंथ ॐ ह्रीं ग्रह महानादाय नमः || ५२१ || गंभीर दिव्य ध्वनि सहित होने से माप महानाद हैं ।। ५२१ ।। हैं ॥ ५२८ ॥ ॐ ह्रीं श्रहं महाघोषाय नमः || ५२२|| आपकी ध्वनि अतिशय सुन्दर होने से श्राप महाघोष हैं । ५२२ ॥ ॐ ह्रीं श्रीं महेज्जाय नमः || ५२३|| बड़े पुरुषों के द्वारा पूज्य होने से अथवा केबल ज्ञान रूप यज्ञ करने से आप महेज्य हैं ।। ५२३ || ॐ ह्रीं श्रह महसपतये नमः ।। ५२४ ॥ समस्त तेज के अधिकारी होने से प्राप महासपिति हैं ।। ५२४ ।। ॐ ह्रीं ग्रह महाध्वरधराय नमः ।। ५२५ ॥ अहिंसादिव्रतों के धारण करने से आप महाध्वरधर कहलाते हैं ।। ५२५|| ॐ ह्रीं ॐ ह्रीं घुर्याय नमः ॥ ५२६ || धुरंधर होने से आप घुर्य हैं ।। ५२६ ।। महौदार्याय नमः ॥ ५२७ ॥ अतिशय उदार होने से प्राप महौदार्य हैं ।। ५२७॥ ॐ ह्रीं यह महिष्ठवाचे नमः || ५२८ || आपकी वाणी परमपूज्य होने से श्राप महिष्ठवाक् ॐ ह्रीं श्रहं महात्मने नमः ।। ५२६ ।। सब में बड़े अथवा पूज्य होने से आप महात्मा हैं ||५२६॥ ॐ ह्रीं श्रीं महसांधात्मने नमः ॥ ५३० ॥ समस्त प्रकाश का तेज स्थान होने से प्राप महासांघाय हैं ।। ५३० || ॐ ह्रीं श्रीं महर्षये नमः ॥ ५३१|| सब प्रकार की ऋद्धियों को प्राप्त हने से प्राप महर्षि हैं ।।५३१।। ॐ ह्रीं महितोदयाय नमः ॥ ५३२॥ प्रापका तीर्थंकर रूप ग्रवतार सबको पूज्य है इसलिए आप महितोदय कहलाते हैं ।। ५३२ || ॐ ह्रीं अर्ह महाबलेशांकुशाय नमः ।। ५३३ ।। बड़े बड़े क्लेशों को दूर करने से प्रथवा महाक्लैश अर्थात् तपश्चरण रूप अंकुश वारण करने से आप महाक्लेशांकुश हैं ।। ५३३ ।। ॐ ह्रीं श्रर्ह श्राय नमः || ५३४ ।। घातिया कर्मों को जीत लेने से आप शूर हैं ।। ५३४।। ॐ ह्रीं यह शूराय नमः ।। ५३५|| गणधर चक्रवर्ती आदि बड़े-बड़े पुरुषों के स्वामी होने से बाप महाभूतपति हैं ।। ५३५|| ॐ ह्रीं गुरुवे नमः || ५३६ || धर्मोपदेश सब को देने से श्राप गुरू हैं ।। ५३६ ॥ ॐ ह्रीं श्रीं महापराक्रमाय नमः || ५३७ || अतिशय पराक्रमी होने से अथवा ज्ञान शक्ति अधिक होने से माप महापराक्रमी हैं ॥ ५३७॥ ॐ ह्रीं ॐ ह्रीं हैं ।। ५३६ ।। मनंताय नमः || ५३८ || अन्त रहित प्रपार होने से आप अनन्त हैं || ५३८ । महाक्रोध रिपुवे नमः || ५३६|| क्रोध के भारी शत्रु होने से श्राप महाकोषरिपु 'करने से अथवा इन्द्रियों को वश मे ॐ ह्रीं श्रीं वशिने नमः || ५४०|| सब प्राणियों को वश करने से आप बशी हैं ।। ५४० ।। ॐ ह्रीं श्रीं महाभवाब्धिसंतारिणे नमः ॥ १४१ ॥ संसार रूप महासागर से पार कर देने से आप मह|भवाब्धि संसारी हैं || ५४१||
SR No.090292
Book TitleNamokar Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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