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________________ १६६ णमोकार ग्रंथ षट् त्रिशंबगुल वस्त्र, चतुविशति विस्तृन्तं । तवस्त्रं द्विगुणी कृत्य, सोयं तेन तु गालयेत् ।। मर्थ - छत्तीस अंगुल लम्बै भौर पौबोस अंगुल चौड़े वस्त्र को दोहरा करके पानी छानना चाहिए ! उसको दुपरता करने से चौबीस मंगुल लम्बा और अठारह अंगुल चौड़ा होता है। यदि बर्तन का मुख अधिक बड़ा हो तो बर्तन के मुख से तिगुना कपड़ा लेना चाहिए । जल छानने के पश्चात् बची हुई जिवाणी को रक्षापूर्वक उसी जलाशय में पहुँचाना चाहिए जिस जलस्थान से जल लाया गया हो । अन्य स्थान में जल गलने से स्पर्श, रस, गंध पौर वर्ण की असमानता होने के कारण जीव मर जाते हैं जिससे जिवाणी डालने का प्रयोजन अहिंसाधर्म नहीं पालता है । अतएव उसी जलाशय में जल पहुँचाना चाहिए । यद्यपि जैनधर्म में जल को छान कर पीने में अहिंसा मुख्य हेतु बताया गया है परन्तु आरोग्य की रक्षा भी एक प्रबल हेतु है क्योंकि अनछना पानी पीने से बहुधा मलेरिया, ज्वर प्रादि दुष्ट रोग उत्पन्न हो जाते हैं । ऐसी सावधानी के लिये सायुर्वेदिक शास्त्र भी उपदेश करते हैं । अतएव धर्म हितेच्छक प्रत्येक पुरुष को उचित है कि शास्त्रोक्त रीति से जल छान कर पिएं । जल छानने से एक मूहुतं पश्चात् उसी जल को पुनः छान कर उपयोग में लाना चाहिए क्योंकि एक मूहूर्त के पश्चात् त्रस जीव उत्पन्न हो जाने से अनछने जरन के समान वह जल हो जाता है। ऐसा सागार धर्मामृत प्रादि शास्त्रों में कहा है । अयानंतर जिस प्रात्महितेच्छु धर्मात्मा भव्य पुरुष ने मद्य, मांस, मध्वादि को त्याग दिया प्रतिपाठभूल गुण धारण कर लिए है, ऐसे पाक्षिकश्रावक को अपनी शक्ति के अनुसार पाप होने डर से स्थूल हिंसा, अनृत, स्तेय, कुशील, परिग्रह-इन पाँच पापों का त्याग करने की भावना तथा अभ्यास करना चाहिए, राजा प्रादि के डर से नहीं, क्योंकि यदि राजा आदि के भय से अभ्यास करेगा तो उससे कर्म नष्ट नहीं होंगे । जिन धर्मात्मा भव्य पुरुषों ने पांचों पापों के एकदेश हिंसा के त्याग करने रूप पाचरण करना प्रारम्भ कर दिया है, उन्होंने वेश्या आदि के समान महाअप की खान जूत्रा, खेटक, वेश्या और परस्त्री सेवन का भी त्याग करना चाहिए क्योंकि इन सब में हिंसादि पाप होते हैं । अभिप्राय यह है क पाक्षिकश्रावक को दुगात व दुःखो के कारण और पापा को उत्पन्न करने वाले ऐसे धत, मांस, मद्य, वेश्या, चोरी, खेटक और परस्त्री-इन सातों व्यसनों को त्याग देना चाहिए क्योंकि इनके सेवन करने से वह इस लोक में समाज एवं धर्मपद्धति में निन्दनीय होता है और मरने पर दुर्गति में दुस्सह दुःख भोगने पड़ते हैं । इनमें लवलीन पुरुषों को पंच पापों से बचना असंभव है अतएव भागे शुद्ध सम्यग्दृष्टि पाक्षिक श्रावक से अहिंसा एकदेशवस का पालन करने के लिए इनके त्याग को कहते हुए इनसे विपत्ति उठाने वालों की कथा उदाहरणरूप लिखी जाती है। सस्य व्यवसन वर्णन: जहाँ अति अन्याय रूप कार्य को बार-बार सेवन किये बिना राजदंड, जातिदंड, लोकनिन्दा होने पर भी चुनना पड़े, वह व्यसन कहलाता है और जहां किसी कारण विशेष से कदाचित् लोक निन्ध व गृहस्थ धर्म विरुद्ध कार्य बन जाए, वह पाप हैं इसी भेद के कारण चोरी और परस्त्री व्यसन को पंच पापों में गणना कराकर पुनः इनको सप्त व्यसनों में भी गणना की है। अब इनका स्वरूप, इनके सेवन से दुःख उठाने वाले पुरुषों की कथा संक्षेप से लिखते हैं जिसमें हार-जीत हो, वह जुआ है । जिन पुरुषों को बिना परिश्रम किए हुए द्रव्य के प्राप्त होने की अधिक तृष्णा होती है, ऐसे ही पुरुष विशेषतया जुमा खेलते हैं । यह शुमा सप्त व्यसनों का मूल पौर सब पापों की खान है । जुमारी मनुष्य नीच जाति के मनुष्यों के साथ भी स्पर्शनीय, मस्पर्शमीय का
SR No.090292
Book TitleNamokar Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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