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णमोकार अंप
प्रन्समाहर्त में वह मेंढक का बीय प्रांखों को चकाचौंध लाने वाला तेजस्वी पौर सुन्दर योवनावस्था का घारक देव बन गया । अनेक प्रकार के दिव्य रत्नमयी पलकारों की दीप्ति से उसका शरीर प्राच्छादित हो रहा था। अतिसुन्दर शोभा संयुक्त होने से बह ऐसा मालूम होता था, मानों रत्नराशि या रत्नशम बनाया गया हो । उसके सुन्दर बहुमूल्य वस्त्रों की शोभा मनुष्यों के पित्त को पकित करने वाली पी।
उसके कंठ में अपनी सुगन्ध से दसों दिशात्रों को सुगन्धित करने वाले स्वर्गीय कल्प-वृक्ष अनित पुष्पों की माला अद्भुत शोभा दे रही थी। उसे अवधिकान से जान पड़ा कि मुझे जो यह सम्पत्ति मिली है और रोग हुभाईरसर भनगान की पूजा की रविन भावना का फल है अतएव सबसे पहले मुझे जाकर पतित पावन भगवान की पूजा करनी चाहिए । इस विचार के साथ ही प्रब वह अपने मुकुट पर मेंढक का चिन्ह बनाकर महावीर भगवान के समवशरण में प्राया। भगवान की पूजन करते हुए इस जीव के मुकूट पर मेंढक का चिन्ह देखकर श्रेणिक को बड़ा भापपर्य हुमा। तब राजा श्रेणिक ने हाथ जोड़कर गौतम भगवान से विनय पूर्वक पूछा-हे प्रभो ! संशयरूपी हृदयगत मन्धकार को नाश करने वाले सूरज 1 में इस मैठक के चिन्ह से मंफित शेखर नामक देव का विशेष वृतान्त सुनना चाहता हूं प्रतः रुपा करके कहिए । तब शान की प्रकाशमान ज्योति रूप गौतम भगवान ने श्रेणिक को नागदत्त के भव से लेकर ममापषि पर्यन्त सब कथा कह सुनाई। उसे सुनकर श्रेणिक को तथा अन्य भष्यजनों को बड़ा मानन्द हुमा । भगवान की पूजा करने में उनकी बड़ी या हो गई। जिन पूजन का इस प्रकार उत्कृष्ट फल जानकर अन्य भब्धजनों को भी उचित है कि वे सदाचार, सविद्या. धन, सम्पत्ति, राज्य वैभव, स्वर्ग तथा मोक्ष प्रावि के सुख का कारण जिन भगवान की पूजा पालस्य तथा प्रमाद रहित किया करें क्योंकि 'अब मुझको भी समवशरण में चलकर श्री जिनेन्द्र की पूजा करनी चाहिए।
अब ऐसे संकल्प पार उद्यम करने मात्र से जिनपूजन करने वाला राजगृह नगर के सेठ नागदत्त का जीव स्वर्ग में भी पूज्य हुमा तो फिर जो अपने शरीर से प्रष्ट-द्रव्य लेकर तथा वचनों से मनेक प्रकार के शब्द और प्रर्षों के दोषों से रहित माधुर्य आदि गुण तथा उपमा प्रादि पलंकार संयुक्त गद्य पद्यमय रमणीय कामों के द्वारा जल चन्दन प्रादि सामग्री की स्वाभाविक निर्मलता और सुगन्ध मादि गुणों का वर्णन करते हुए तथा भगवान के गुणानुवाद पूर्वक पवित्र भावों में भगवान की पूजा करते हैं उसके सुख का तो पूछना ही क्या। थोड़े में ऐसा समझना चाहिए कि जो भग्यजन भक्तिपूर्वक भगवान की प्रतिदिन पूजन किया करते है वे सर्वोत्तम सुख वा मोक्ष भी प्राप्त कर लेते हैं तब सांसारिक सुखों की तो बात ही क्या है, वह तो उनको विशेष रूप से मिलता है पौर मिलना भी चाहिए । पतएव भव्यजनों को उचित है कि वे जिन भगवान का अभिषेक, पूजन, स्तवन, ध्यान मादि सत्कर्मों को सदा प्रयत्नशील होकर किया करें। नलगालन:
धर्मात्मा पुरुष जिस प्रकार रात्रि भोजन स्याग करते हैं उसी प्रकार उन्हें बिना छने पानी का त्याग भी करना चाहिए । क्योंकि मनछने पानी में सूक्ष्म त्रसजीव होते हैं मतएव जीव दया के पालन करने के निमित भव्यजनों को उमित है कि स्वछ, निर्मल और गाढ़े दुपरता छन्ने से जल को छानकर उपयोग में लाया करें। छोटे छेद वाले, पधिक बारीक, मैले और पुराने कपड़े से जल छानना योग्य नहीं, जल छानने योग्य वस्त्र का परिमाण सामान्यतया शास्त्रों में छत्तीस पंगुल लम्बा और चौबीस मंगुल चौड़ा वर्णन किया है । जैसा कि पीयूषवर्ष श्रावकाचार में कहा है