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________________ १८४ णमोकार बम प्रभाव से षट् ऋतुओं के फल-फूल आ गए हैं। वापी, कूप, सरोवर प्रादि मिष्ट जल से भरपूर हो गये हैं । और सब वन, उपवन हरे-भरे दृष्टिगोचर हो रहे हैं। भगवान के प्रागमन का अानन्दमय समाचार सुनार राजा श्रेणिक बहुः प्रमज हुग गौर तत्क्षण दो सिंहासन से उतर कर सात पग चलकर भक्ति भाव से उन्होंने भगवान को परोक्ष नमस्कार किया। पश्चात् वनमाली को वस्त्राभूपण रूप पारितोषिक न्होंने नगर निवासी मनुष्यों को इस शभ समाचार से परिचित करवाने के लिए सारे नगर में मानन्द घोषणा करवा दी। श्रेणिक बड़े वैभव के साथ प्रानन्द भेरी बजवाते हुए परिजन और पुरजन सहित श्री वीर जिनेन्द्र की पूजा और बन्दना को चले। दूर से ही संसार का हित करने वाले भगवान के समवशरण को देखकर वे उतने ही प्रसन्न हुए जितने मेघ को देखकर मोर प्रसन्न होते हैं। __ जब समवशरण के निकट पहुंचे तब राजा पैदल चलने लगे । भगवान के समवशरण में प्रवेश र अत्यानन्द को प्राप्त होकर तीन प्रदक्षिणा देकर वीर जिनेन्द्र को साष्टांग नमस्कार किया। पश्चात उत्तमोत्तम द्रव्यों द्वारा भगवान की पूजा करके अंत में उनके गुणों का गान किया-हे भगवान दया के सागर । ऋषि महात्मा प्रापको 'अग्नि' कहते हैं। क्योंकि आप शुक्ल ध्यान रूपी अग्नि के द्वारा कम काष्ट को भस्म कर देने वाले हैं। पाप को मेघ भी कहते हैं वह इसलिए पाप प्राणियों को संतप्त करने वाली दुःख, शोक, चिन्ता, क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष प्रादि दावानलाग्नि को, अपने धर्मोपदेशामृत रूपी वर्षा से शांत कर देते हैं। आपको सूरज भी कहते हैं वह इसलिए कि आप अपनी उपदेश रूपी किरणों के द्वारा भव्यजन रूपी कमलों को प्रफुल्लित कर अज्ञान रूपी अन्धकार के नाशक और लोक अलोक के प्रकाशक हैं और आपको सर्वोत्तम वैद्य भी कहते हैं वह इसलिए कि धन्वन्तरि जसे वैद्य से भो नाश न होने वाली जन्म, जरा, मरण रूप व्याधि प्रापके उपदेशामृतरूप प्रौषधि के सेवन करने से जड़ मुल से नष्ट हो जाती है। आपको परम हितोपदेष्टा तथा परम हितैषी भी कहते हैं वह इसलिए कि आप अपनी दिव्य ध्वनि के द्वारा अनादि काल से अविद्या ग्रसित संसारी जीवों को उनकी प्रात्मा का स्वरूप और मोक्ष के कारणों वा संसार और संसार के कारणों का स्वरूप भली भांति दरशाते हैं जिससे अपना हित साधन करने में उनकी प्रवृति होती है। हे जगदीश ! जो सुख प्रापके पवित्र चरण कमलों की सेवा करने से प्राप्त हो सकता है वह अनेक प्रकार से कठिन परिश्रम के द्वारा भी प्राप्त नहीं हो सकता इसीलिग हे दया के सागर मुझ गरीब अनाथ को अपने चरणों की पवित्र और मुक्ति का सुख देने वाली भक्ति प्रदान कीजिए। जब तक मैं संसार से पार न हो जाऊँ।' इस प्रकार बड़ो देर तक श्रेणिक ने भगवान का पवित्र भावों से गुणानुवाद किया। तत्पश्चात् वे गौतम गणधर प्रादि महर्षियों की नाना प्रकार से स्तुति कर भक्ति पूर्वक प्रणाम कर अपने योग्य स्थान पर बैठ गए । भगवान के दर्शनों के लिए जिस समय राजा श्रेणिक जा रहे थे उस समय मेंढक भी जो नागदत्त श्रेष्ठी की बावड़ी में रहता था और जिसको अपने पूर्ण जन्म की स्त्री भवदत्ता को देखकर जाति स्मरण हो गया था वह भी तब बावड़ी में से श्री जिनेन्द्र की पूजा के लिए एक कमल की कली को अपने मुख में दबाए हुए बड़े प्रानन्द और उल्लास के साथ उछलता और कूदता हुमा नगर के लोगों के साथ समवशरण की ओर चल दिया। मार्ग में जाता हुअा वह मेंढक राजा श्रेणिक के हाथी के पैर के नीचे पाकर मर गया पर उसके परिणाम त्रिलोक पूज्य महावीर भगवान को पूजा में लगे हुए थे इसीलिए वह पूजा के प्रेम से उत्पन्न होने वाले पुण्य से सोधर्म स्वर्ग में महद्धिक देव हया 1 देखिए कहां तो मेंढक और कहां अब वह स्वर्ग का देव। सच है कि जिन भगवान की पूजा के फल से क्या नहीं प्राप्त होता अर्थात् जिन भगवान की पूजा से सब कुछ प्राप्त हो सकता है। एकदम
SR No.090292
Book TitleNamokar Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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