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________________ णमोकार प्रय किया और उनकी बहुत प्रशंसा कर संतुष्ट चित हो जिनदस को भाकाशगामिनी विद्या प्रदान कर कहा कि हे शाक्कोसम ! तुमको प्राज से आकाशगामिनी विद्या सिद्ध हुई। तुम पंच नमस्कार मंत्र की साधना विधि के साथ मन की इच्छानुसार जिसको प्रदान करोगे तो उसको भी यह सिर होगी । ऐसा जिनदत्त से कहकर अपने स्थान पर चले गये। बिना उद्यम अनायास माकाशगामिनी विद्या को प्राप्त हो जाने से जिनदत्त सेठ प्रति हर्षित हुमा । एक दिन उसे अकृत्रिम चैत्यालयों के दर्शन करने की इच्छा हुई । वह उसी समय प्राकाशगामिनी विद्या के प्रभाव से भगवान् के प्रकृत्रिम चैत्यालयों के दर्शन करने को गया। और पूर्ण भक्तिभाव से स्वर्ग मोक्ष मुख को देने वाली पार से भगवान की पूजा की। इसी प्रकार अब जिनदत्त निस्य प्रति भगवान के प्रकृत्रिम जिनमंदिरों के दर्शन करने के लिये जाने लगा। एक दिन वह चैत्यालयों के दर्शन करने को जाने के लिये तैयार खड़ा हुमा था कि उसी समय एक सोमदत्त नामक माली हाथ जोड़कर निवेदन करने लगा। कि हे स्वामिन् ! आप नित्य प्रति प्रातःकाल उठकर कहां जाया करते हैं ? सब उन जैनधर्म परायण जिनदत्त सेठ ने उसके वचनों को सुनकर उत्तर दिया कि मुझे दो देवों की कृपादृष्टि से प्राकाशगामिनी विद्या की प्राप्ति हुई है । सो उसके प्रभाव से सुवर्णमय प्रकृत्रिम जिनालयों की पूजा करने के लिये नित्य जाया करता हूं। भगवान् की पूजा महासुख को देनेवाली होत है। सेठ के वचन को सुनकर सोमदत्त पुनः जिनदत्त से निवेदन करने लगा कि हे प्रभो! कृपा करके यह विधा मुझको भी प्रदान कीजिये जिससे मैं भी अनेक प्रकार के उत्तमोत्तम सुगंधित पुष्पों को लेकर प्रति दिन प्रकृत्रिम जिनालयों की पूजा करने को जाया करूँ। पौर उसके द्वारा अशुभ कर्मों का निराकरण कर शुभ कर्म उपार्जन करूं, यदि प्राप विद्या प्रदान करेंगे तो परम अनुग्रह होगा। तब जिनदत्त ने सोमदत्त की जिनेन्द्र भगवान् के चरण कमलों की भक्ति और पवित्रता को देखकर उसे संपूर्ण विद्या साधन करने का उपाय बतला दिया । सोमदस उससे समस्त विधि सम्यक् प्रकार समझकर विद्यासाधन करने के निमित कृष्णपक्ष की चतुर्दशो की अर्द्धरात्रि के समय श्मशानभूमि में गया। वह भूमि बड़ी भयंकर थी । वहां उसने एक वटवृक्ष की छाया में एकसौ पाठ लड़की का एकदर्भ मर्यात् दूब का सींका बांधकर उसके नीचे अनेक भयंकर तीखे-तीस या सीधे मुख गाड़कर उनकी पुष्पादिक से पूजा की। इसके पश्चात् वह सीके पर बैठकर पंच नमस्कार मंत्र जपने लगा। मंत्र का जाप प्रमाण समाप्त होने पर जब छींके को काटने का समय हुमा और उसकी दृष्टि नीचे चमधमानी हुई शस्त्र समूह पर पड़ी तब उसको अवलोकन करते ही वह सिंह से भयभीत मृगी के समान कांप उठा तत्पश्चात अपने मन में विचार करने लगा कि यदि जिनदत ने मुझे असत्य कह दिया हो तब तो मेरे प्राण ही चले जायेंगे। यह विचार कर वह नीचे उतर पाया। कुछ समय पश्चात् उसको फिर यह कल्पना हुई कि भला जिनदत्त सेठ को मुझसे क्या सेनादेना है, जो यह असत्य भाषण कर मुझे साक्षात् मृत्यु के मुख में डालेगा। और फिर वह तो जिनधर्म का विश्वासी परम अहिंसा धर्म का पालन करने वाला है। उसके रोम-रोम में दया भरी हुई है । उसे मेरे प्राणान्स करने से क्या ? इत्यादि विचारों द्वारा मन सन्तुष्ट कर फिर वह सीके पर चढ़ा, परन्तु जैसे ही उसकी वृष्टि नीचे गड़े हुए शस्त्रसमूह पर पड़ी वैसे ही पुनः भयातुर होकर नीचे उतर भाया। इसी प्रकार वह संकल्प कर बारम्बार सीके पर बढ़ने-उतरने लगा, लेकिन उसकी हिम्मत सीका काट घेने की न हो सकी । सच कहा है कि जिसको स्वर्ग मोक्ष का सुख प्रदान करने वाले श्री जिनेन्द्र देव के वचनों पर विश्वास नहीं, मन में उन पर निश्चय नहीं; उनको संसार में किसी प्रकार के साध्य की सिद्धि नहीं हो सकती । उसी रात को एक ओर तो यह घटना हुई और दूसरी पोर इसी समय माणिक कांचन सुन्दरी
SR No.090292
Book TitleNamokar Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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