________________
!!
णमोकार ग्रंथ
ERA
विषय कषायों को छोड़कर श्रालस्य दूर कर, साहस करके अपने ( सिद्ध) पद की प्राप्ति के लिए भव्य जीवों को इन सात तत्वों का स्वरूप जानकर उन पर दृढ़ विश्वास करना ही सम्यग्दर्शन, सम्यक्त्व या श्रद्धान कहलाता है । यह श्रद्धान निश्चय सम्यक्त्व का कारण है। इसीलिए व्यवहार सम्यक्त्व कहलाता है | इस सम्यक्त्व को माठ अंगसहित घोर पच्चोस दोष शंकाकांक्षा आदि आठ दोष, आठ मद पट् अनायतन और तीन मूड़ता ) रहित निर्मल धारण करना चाहिए।
सम्यक्त्व के आठ अंग नाम
सम्यक्त्व के निःशंकित, निःकांक्षित, निर्विचिकित्सा श्रमूदृष्टि, उपगूहन, स्थितिकरण, वात्सल्य और प्रभावना, ये आठ अंग हैं । सम्यक्त्व के प्राठ अंगों का स्वरूप --
निःशंकित अंग -
शंका नाम संशय तथा भय का है। श्री अरहंत भगवान कथित परमागम में जो लोकालोक का वितरण तथा पदार्थों का जो स्वरूप वर्णन किया है वह सत्य है या नहीं श्रथवा राम रावणादि पूर्वज मनुष्यों का वृतान्त तथा दूरवर्ती मेरु पर्वतादि का कहा है वह सत्य है या असत्य है ऐसा शंकारहित, जिनशासन में खड़ग की धार के समान प्रचल श्रद्धान करना निःशंकित अंग है।
अब उदाहरणार्थ सम्यग्दर्शन के प्रथम निःशंकित अंग में प्रसिद्ध होने वाले अंजन चोर की कथा, लिखते हैं। इस भरत क्षेत्र में मगध देश के मध्य नाना प्रकार की शोभा सहित राजग्रह संज्ञक नगर में उत्कृष्ट धर्माचरण करने वाला, जिनेन्द्र भगवान के चरण सरोज का भंवरवत् लोलुपी, श्रावकाचार मंडित, साधु मुनि प्रादि गुणीजनों को वारित्र की वृद्धि के अर्थ निर्दोष, निर्मल, शुद्ध यथायोग्य समयानुसार चार प्रकार के दान को भक्तिपूर्वक सहर्ष देने वाला तथा दीन-दुखी दरिद्वियों को करुणा पूर्वक दान देने वाला दानी, विचारवान दान, पूजा व्रत उपवासादिक तथा ध्यान स्वाध्यायादि धर्मध्यान में मग्न रहने वाला एक जिनदत्त नामक सेठ रहता था। सांसारिक विषय भोगों से परान्मुख विरक्त रहने वाले जिनदत्त सेठ एक दिन चतुर्दशी की अर्द्धरात्रि के समय श्मशानभूमि में कायोत्सर्ग स्थित ध्यान कर रहे थे। उसी समय श्रमितप्रभ और विद्युत्प्रभ नामक दो देव वहां माये । इनमें से प्रमितप्रभ जैनधर्म विश्वास और विद्युत्प्रभ अन्य मत विश्वासी था । वे दोनों अपने २ स्थान से एक दूसरे के धर्म की परीक्षा निमित्त निकले। वहाँ पर उन्होंने प्रथम ही एक पंचाग्नि तप करने वाले तापस की परीक्षा की । वह उपसर्ग को न सहनकर अपने ध्यान से तत्काल ही विचलित हो गया। इसके पश्चात् श्मशानभूमि में जिनदत्त - सेठ को कायोत्सर्ग स्थित ध्यान करते हुये देखकर अमितप्रभ जैनधर्म का श्रद्धानी देव विद्यत्प्रभ से कहने लगा कि हे मित्र ! उत्कृष्ट चारित्र के पालन करने वाले मोक्ष साधन में तत्पर निर्ग्रन्थ मुद्राधारी जिनधर्म के सच्चे साधुयों की परीक्षा की बात तो अब जाने दो। परन्तु देखो वह गृहस्थ जिसे तुम कायोत्सर्ग ध्यान करते हुये प्रत्यक्ष अवलोकन करते हो। यदि तुम अपने में कुछ पराक्रम रखते हो तो तुम उसी को ध्यान करते हुये ध्यान से चलायमान कर दो। यदि तुम इसे ध्यान से चलायमान कर दोगे तो हम तुम्हारे कथन को ही निष्पक्ष होकर सत्य स्वीकार कर लेंगे। समितप्रभ के उसेजना युक्त वचन को सुनकर विद्युत्प्रभ ने जिनदत्त पर अत्यन्त दुस्सह प्रौर भयंकर उपद्रव किया। परन्तु जिनदत्त उसकी की हुई बाधा से रंचमात्र भी विचलित न होकर प्रलयकाल के पवन से प्रविचलित मेरु पर्वत के समान ज्यों के त्यों स्थित रहे। जब प्रातःकाल हुमा तब दोनों श्रमितप्रभ और विद्युत्प्रभ देवों ने विक्रिया कृत वेष को छोड़कर अपना असली वेष धारण कर महान् भक्तिपूर्वक विनय सहित भली प्रकार मादर-सत्कार
-