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________________ णमोकार च १२८ गुणस्थान से उप-शांत नामक एकादश गुणस्थान तक होता है। इसे प्रथक वितर्क विचार को शुक्ल ध्यान कहते हैं । घातिया कर्मों के प्रभाव से श्रुत केवली के प्रर्थात् विचार रहित मणि दीपकवत् ग्रडोल जो ध्यान होता है उसे एक वितर्फ विचार कहते हैं। तीनों योगों में से किसी योग द्वारा यह क्षीण मोहसंज्ञक बारहवें गुथस्थान के अन्त में होता है । जो केवली मन, वचन योग और वादरकाय योग का निरोध होने पर एक सूक्ष्म काय योग में तेरहवें गुणस्थान के अन्त में होता है । उसे सूक्ष्म क्रिया प्रतिपाति कहते हैं । 1 जो केवली मन, वचन, काय तीनों योगों के निरोध हुए योगों के प्रभाव को मपेक्षा प्रयोग गुणस्थान में कहा गया है। उसे व्युपरत क्रिया निवति कहते हैं। ऐसे बारह प्रकार संवर पूर्वक निर्जरा के कारण बाह्याभ्यन्तर तपों का वर्णन समाप्त होता है । मोक्ष तत्व का वर्णन - सब कर्मों का अत्यन्त प्रभाव होने से श्रात्मा के निजस्वभाव का प्रगट हो जाना मोक्ष है। जिस में से चार घातिया कर्म तो बारहवें गुणस्थान के अन्त में दूसरे शुक्ल ध्यान द्वारा नाश करके अनन्त ज्ञान अनन्तदर्शन, अनन्तवीर्य अनन्त सुख क्षायिक चरित्र आत्मा के छहों गुणों को निर्विकार प्रगट कर सयोग केवली नामक तेरहवें गुणस्थान को प्राप्त होकर भव्य जीवों को मोक्ष मार्ग दिखलाते हैं। तब यह समस्त प्राणियों से पूज्य होने की अपेक्षा श्रत तथा शरीर सहित होने की अपेक्षा सकल परमात्मा और अल्पकाल के पीछे नियम से मोक्ष जायेंगे तथा आयु कर्म के उदय से वर्तमान काल में जीवित हैं, इसलिए जीवन्मुख कहलाते हैं। इसके पश्चात् अपने गुणस्थान के अन्त में योग निरोध कर अयोग केवली नामक चोदहवें गुणस्थान को प्राप्त होकर चतुर्थ शुक्ल ध्यान की पूर्णता ते श्रात्मा चारों श्रघातियाँ कर्मों का अभाव कर अपने उगमन स्वभाव से जिस स्थान से कर्मों से मुक्त होता है. उस स्थान से सीधा पवन झकोरों से रहित प्रग्निशिखावत् उर्ध्वगमन को एक ही समय में लोक के अग्रभाग में स्थित होकर ( पहुंच कर निकल परमात्मा हो जाता है । यह मुक्त आत्मा श्रागे अलोकाकाश में घर्म द्रव्य का प्रभाव होने से श्रागे नहीं जा सकता इस कारण समस्त मुक्त जीव लोक के शिखर पर विराजमान रहते हैं। माकार इस शुद्धात्मा का जिस शरीर से मुक्ति को प्राप्त हो जाता है; उस शरीर से कुछ कम, पुरुषाकार रहता है । इस निष्कर्म श्रात्मा के ज्ञानावरण कर्म के अभाव से अनन्त ज्ञान, दर्शनावरण कर्म के प्रभाव से अनन्तदर्शन, अन्तराय के प्रभाव से अनन्त वीर्य, दर्शन मौहतीय के प्रभाव से शुद्ध सम्यक्त्व, चारित्र मोहनीय के प्रभाव से शुद्ध चारित्र और समस्त घातिया कर्मों के प्रभाव से अनन्त सुख इस प्रकार घातिया कर्म के प्रभाव से आत्मा के छह गुण प्रकट होते हैं। तथा वेदनीय कर्म के प्रभाव से भयाबाध; गोत्रकर्म के प्रभाव से ऊंचनीच प्रर्थात् प्रगुरुलघुत्व, नामकर्म के प्रभाव से श्रमूर्तित्व अर्थात् सूक्ष्मत्व, आयु कर्म के प्रभाव से अवगाहनत्व गुण की प्राप्ति होती है। इस प्रकार मुक्त जीव भ्रष्ट कर्म के अभाव से श्रात्मीक सम्यक्त्वादि भ्रष्टगुण मंडित है । परन्तु निश्चय नय से एक शुद्ध चैतन्य रस का पिडं है । यह संसारी जीव पुरुषार्थं करके इस प्रकार परमात्मा परमैश्वर्य पद को प्राप्त कर मोक्ष धाम में अविनाशी अनन्त सुख को भोगता हुमा नित्यानन्द सागर में मग्न रहता है और संसार के आवागमन से छूट जाता है । इस मानन्दमय सिद्ध प्रवस्था को पाने का कारण निश्चय और व्यवहार ऐसे दो भेदरूप सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यग्चरित्र की एकता है। ऐसा जान अनादि काल काय से सेवन किए हुए
SR No.090292
Book TitleNamokar Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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