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________________ णमोकार ग्रंथ नामक एक वेश्या ने अपने में प्रत्याशक्त और प्रत्यन्त प्रेम रखने वाले मंजन नामक चोर से कहा कि हे प्राणबल्लभ ! भाज मैंने इसी नगराधीश प्रजापाल महाराज की कनकवती नाम की पटरानी के कंठ में प्रत्यन्त मनोहर रत्नों का हार देखा है । यह बहुत सुन्दर है । मेरा तो ऐसा विश्वास है कि उस हार की तुलना करने वाला शायद ही कोई दूसरा हार हो। इसलिये प्राप उस मनोश हार को किसी न किसी प्रकार से मुझे लाकर दीजिये तभी पाप मेरे भरतार हो सकते हैं, अन्यथा नहीं। अन्जन पोर माणिक कांचन सुन्दरी की ऐसी कठिन प्रतिज्ञा को सुनकर प्रथम सो वह संकुचित हुमा, परन्तु साथ ही उसके प्रेम ने उसको अपने जाल में फंसाकर हार हरण करने के लिये प्रेरित किया। तब वह अपने जीवन की भी कुछ परवाह न कर हार के निमित्त राजमहल में प्रवेश कर रानी के शयनागार में जा पहुंचा और धीरेधीरे अपनी दक्षता से रानी के कंठ में से हार को निकालकर चल दिया। वह सहस्रों कोटपालों (पहरेदारों) की मांखों में धूल डालकर निकल जाता, परन्तु अपने दिव्य प्रकाश से घोर मन्धकार के समूह को दूर करने वाले निर्वयी हार ने उसके प्रयत्न को सफल नहीं होने दिया। पहरेदार उसके प्रकाश में प्रजन को हार लेकर जाते हुये जानकर उसे पकाने को दोर पडे। अन्जन चोर भी जी छोडकर बड़ी तेजी से भागा पर पाखिर कहां तक भाग सकता या? पहरेदार उसे पकड़ लेना ही चाहते थे। तब उसने एक नवीन युक्ति की। वह हार को पीछे की तरफ फेंकर भागा । सिपाही लोग तो उसको उठाने के लिए ठहरे मौर उधर अन्जन चोर बहुत दूर निकल गया। तब सिपाही बहुत प्रन्तर हो जाने से तथा उसका पीछा करना साध्य की सिद्धि हो जाने से निष्प्रयोजन जानकर छोड़ दिये और अपना मार्ग लिया। उधर अन्जन चोर भागता-२ श्मशान की पोर जा निकला, जहां जिनदत्त के उपदेश से सोमदत्त विद्या साधन करने के लिये व्यपश्चित हो क्षण भर में वृक्ष पर चढ़ता और क्षण भर में उत्तरता था। उसका यह भयंकर उपक्रम देखकर मन्जन मे सोमदत्त से पूछा कि तुम यह क्या कर रहे हो? क्यों अपने प्राण दे रहे हो; ऐसा कहने पर उसने अन्जन चोर से समस्त वृतान्त वर्णन कर दिया। सोमदत्त को वार्ताश्रवण कर अन्जन चोर बहुत हर्षित हुमा। उसने सोचा कि सिपाही लोग तो मुझे मारने के लिए पीछे प्रा ही रहे हैं और मिलते ही मुझे मार भी गलें, क्योंकि मेरा अपराध कोई साधरण मपराध नहीं है। फिर यदि मरना है तो धर्म के प्राधित ही मरना अच्छा है। ऐसा विचार कर सोमदस से कहा, बस ! इतनी सी बात के लिये क्या आप इतने उरते हैं ? अच्छा आप जरा मुझको अपनी तलवार दे दीजिये जिससे मैं भी प्रपनी परीक्षा करूँ । ऐसा कहकर सोमवस्त से खड्ग लेकर वटवृक्ष की शाखा में बन्धे हुए सीके पर आ बैठा और सींका काटने के लिये जैसे ही वह तैयार हुमा कि इतने में बतलाये हुये मंत्र को वह भूल गया। पर उसकी परवाह न करके केवल इस बात पर कि ताणं ताणं ताणं सेठ वचन परमाण । अर्थात् जिनदत्त सेठ ने जो कहा है वही प्रमाण है । ऐसा मन में निश्चय करके निश्शक भाव से दृढ़ विश्वास करके एक ही झटके में सारे सीके को काट दिया । काटने के साथ ही जब तक नीचे गड़े हुये शस्त्रों तक ग्राता है उसके पूर्व ही पाकशगामिनी विधा प्रकट होकर कहने लगी कि हे देव ! प्राज्ञा कीजिये । में उपस्थित है। विद्या को अपने सन्मुख अम्जन चोर अवलोकन करके प्रत्यन्त हर्षित हुमा मानों उसे तीन लोक की संपदा प्राप्त हो गई है। वह विद्या से कहने लगा कि जहाँ मेग पर्वत पर जैनधर्म परायण रत्नत्रयभूषित विचारशील विवेकी धर्मात्मा जिनदत्त सेठ जिमेन्द्र भगवान के युगल परण कमलों की पूजा कर रहे हैं वहीं पर मुझको पहुंचा दो। उसके कहने के साथ ही माकाशगामिनी विद्या ने क्षण मात्र में ही उसे जिनदत्त के पास पहुंचा दिया। सच है कि जिनधर्म के प्रसाद से लोन लोक में ऐसा कौन सा प्रलभ्य पदार्थ है जो न प्राप्त हो सके ? पर्थात सभी पदार्थ प्राप्त हो जाते हैं सेठ के पास पहुंच कर अन्जन ने
SR No.090292
Book TitleNamokar Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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